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________________ १०० तत्त्वार्मचिन्तामणिः भी पांचों इंद्रियोंसे पांचों ज्ञान एक समयमें हो जाने चाहिए । तब आपके माने गये ज्ञानोंके क्रमसे पैदा होनेका विरोध हो जावेगा । इस विरोधके दूर करने के लिए यदि आप यह कहेंगे कि अन्य स्थलोंपर घट, वह्नि, आम्र आदिके रूप, रस, आदिका वह ज्ञान क्रमसे ही होता देखा गया है। अतः यहां कचौडी खाने में भी पांचों ज्ञान क्रमसे होते हुए माने जायेंगे कारण कि छोटेसे मनका अनेक इंद्रियोंके साथ कमसे ही संबंध होना सभा, ऐसी अटपटी कल्पना करनेपर तो समावियुक्त मोगियोंके मनका संपूर्ण अर्थाने सम्बन्ध करना मी क्रमसे ही मानना पड़ेगा।। सर्वार्थानां साक्षात्करणसमर्थस्येश्वरविज्ञानस्थानुमानसिद्धत्वातरीशमनसः सुकृत्संबन्धसिद्धिरिति चेत् । रूपादिज्ञानपञ्चकस्य कचिद्योगपधेनानुभवादनीशमनसोऽपि सकृतक्षुरादिभिः सम्बन्धोऽस्तु कुतश्विद्धर्मविशेषात्तथोपपत्तेः । पुनः नैयायिक कहते हैं कि ईश्वरका ज्ञान संपूर्ण भूत, भविष्यत् , वर्तमान, व्यवहित, पदाथोंके प्रत्यक्ष करनेमें समर्थ है, यह बात धर्म आदि किसी आत्माके प्रत्यक्षके विषय है क्योंकि वे प्रमेय हैं इस अनुमानसे सिद्ध हो चुकी है, अतः ईश्वरके मनका संपूर्ण पदार्थोके साथ एक समयमें संबंध होजाना उक्त अनुमानसे गम्य है । ग्रंथकार कहते हैं कि यदि आप ऐसा कहोगे तो जो ईश्वरसे भिन्न हैं ऐसे सामान्य मनुष्यों के मनका भी कहीं कचौडी खति समय युगपद् रूपसे पांचों ज्ञान होना मत्यक्ष सिद्ध हैं, अतः साधारण मनुष्योंके मनका भी चक्षुरादिक अनेक इंन्द्रियोंसे संबंध होजाना एक समयमें मानलो, ईश्वरक पुण्य विशेषसे जैसे ईश्वरके मनका संपूर्ण अर्थोंसे साक्षात्सबन्ध होजाता है, इसी प्रकार किसी एक धर्मकर्मस पैदा हुए छोटे पुण्यविशेषसे साधारण मनुष्यको कई इंद्रियोंके साथ भी एक समयमें मनका इस प्रकार संबंध बन सकता है। ___तादृशो धर्मविशेषः कुतोऽनीशस्य सिद्ध इति चेत् , ईशस्य कुतः १ सकत्सर्वार्थज्ञानातत्कार्यविशेषादिति चेत् , तर्हि सकद्रूषादिज्ञानपंचकात कार्यविशेषादनीशस्य तद्धेतुधर्मविशेषोऽस्तीति किं न सिद्धयेत् ? नैयायिक पूंछते हैं कि एक समय पांचों इंद्रियों के साथ संबंध का कारण छोटा पुण्यविशेष साधारण मनुष्य के पास है, यह कैसे सिद्ध हुआ ! बताओ ऐसे कहने पर हम जैन भी नैयायिकसे पूछते हैं कि सम्पूर्ण अर्थोसे एक समयमै सम्बन्धका कारण पुण्यविशेष ईश्वरके पास है यह भी आपने कैसे जाना ? यदि इसका उत्तर आप नैयायिक यह दोगे कि ईश्वर सम्पूर्ण पदार्थोको एक समयमें जानता है, उस कार्यविशेषसे उसके कारणविशेष पुण्यका मानना आवश्यक है तब तो हम भी कहते हैं कि साधारण मनुष्यको भी कौडी खाते समय रूप आदिकके पांचों ज्ञान एक साथ होते हैं । इस विशेषकार्यको देखकर यह अनुमानसे क्यों नहीं सिद्ध होगा कि
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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