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वार्थचिन्तामणिः
द्वारा वह्नि तथा प्रत्यभिज्ञानके विषयपनेसे शब्दका नित्यत्व आदिको दूसरे अनुमानप्रमाणसे सिद्ध करते हैं तथा स्वर्ग, देवता, अदृष्ट आदिको तृतीयस्थान में पडे हुए आगमप्रमाण से सिद्ध करते हैं। अनेक पर्यायोंको आगमके द्वारा जानकर पश्चात् तर्क लगाकर अनुमानसे भी निर्णय कर लिया जाता है । ऐसी दशा उस अनुमेयका मूलज्ञापक कारण आगमप्रमाण ही माना जाता है। तीसरे स्थान पढे हुए आगमसे जानने योग्य भिन्न भिन्न पदार्थोंके निर्णय किये विना किसी किसी अनुमानसे जानने योग्य - लायक, उन अतीन्द्रिय अथका निश्चय होना नहीं बन सकता है । इस कारण वेदरूप आगमसे जानने लायक अर्थका निश्चय करना तो तत्वोंके उपदेशकी प्राप्तिमे कारण है किन्तु जैनोंसे माने गये प्रत्यक्ष अनुमान और आगमप्रमाणसे अतिरिक्त केवलज्ञानहीसे जानने योग्य चौथे स्थान प्राप्त हुए अत्यन्त परोक्ष अर्थोंका निश्चय करना तत्त्वोपदेश की प्राप्ति में कारण नहीं है इस प्रकार मीमांसकोंका कहना उचित युक्तिसहित नहीं है । ( पहिले नाहीका अन्वय युक्तके साथ है ) क्योंकि आपके कथनानुसार जैसे तीसरे आगमप्रमाणके द्वारा अर्थका निर्णय किये विना परमाणु आदि अनुमेय अर्थोका निश्चय नहीं हो सकता है, उसी प्रकार चौथे केवलज्ञानके न स्वीकार करनेपर पुण्य, पाप, स्वर्ग, मोक्ष, सुमेरु, राम, रावण आदिक आगमसे जानने योग्य पदार्थोंका भी निर्णय नहीं हो सकेगा अर्थात् जैसे आप अनुमानका मूल कारण अपौरुषेय आगम - वेदको मानते हैं उसी प्रकार आपको अनुमान और आगम प्रमाणका मूलकारण सर्वज्ञका प्रत्यक्ष मानना पडेगा ।
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न च चोदनाविषयमतिक्रान्तश्चतुर्थस्थानसंक्रान्तः कश्विदर्थविशेषो न विद्यत एवेति युक्तम्, सर्वार्थविशेषाणां चोदनया विषयीकर्तुमशक्तेस्तस्याः सामान्यभेदविषयत्वात् ।
यदि मीमांसक यहां यह कहे कि तीन लोक और तीनों कालके सम्पूर्ण पदार्थ प्रेरणा करनेवाले वेदके लिङन्त वाक्योंसे ही ज्ञात हो जाते हैं, केवलज्ञानसे जानने योग्य इनका अतिक्रमण कर चुका चौथे स्थानमें पड़ा हुआ कोई पदार्थ ही विद्यमान नहीं है, जो कि वेदके विषयसे अतिरिक्त माना जावे अर्थात् तीसरे आगमसे जानने योग्य पदार्थों में ही सम्पूर्ण पदार्थ गर्भित हो जाते हैं, सर्वज्ञ अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष से जानने योग्य कोई पदार्थ बचा हुआ नहीं है। आचार्य कहते हैं कि यह मीमांसकोका प्रतिवाद मी युक्ति शून्य है। उनका यह कथन समुचित नहीं है कारण कि सम्पूर्ण पदार्थोंके विशेष विशेषांशोंका वेदवाक्योंके द्वारा विशदरूपसे निश्चय करना शक्य नहीं है। क्योंकि विधिलिङ् लकारकी क्रियावाले वेदवाक्योंसे अतीन्द्रियपदार्थों का सामान्यरूपसे ही भिन्न भिन्न ज्ञान होता है, सम्पूर्ण अर्थपर्यायोंसे सहित पदार्थोंका विशद ज्ञान नहीं हो पाता है ।
ततोऽशेषार्थविशेषाणां साक्षात्करणभ्रमः प्रवचनस्याद्यो व्याख्याताभ्युपेयस्तद्विनेय