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________________ १८२ तत्त्वाचिन्तामणिः चन्द्रको हाथमें प्राप्त करा देते हैं ! इसी तरह अनेक उपेक्षणीय पदार्थोंके ज्ञान हमें लाखों, करोडों, होते रहते हैं, किंतु उन उदासीन विषयों में प्रवृत्ति या प्राप्ति नहीं कराते हैं। मक्कृत यह है कि जैसे वस्तुभूत स्वलक्षणको जाननेवाले दर्शन के पश्चात् उत्पन्न हुआ निश्चयज्ञान प्रवर्तक है । उसी प्रकार प्रत्यक्ष पीछे पैदा हुआ विकल्पज्ञान भी उस प्रकार परम्परासे वस्तुको छूने वाला होनेसे प्रवर्तक हो जाओ, कोई निवारक नहीं है । समारोपयवच्छेदकत्वादनुमानाभ्यवसायस्य तथाभावे दर्शनोत्थाध्यवसायस्य किमतमाभाषस्तदविशेषात् । बौद्धलोग परमार्थभूत वस्तुको जाननेवाले अकेले निर्विकल्प प्रत्यक्षको ही बढ़िया प्रमाण मानते हैं । विकल्पस्वरूप अनुमान भी उन्होंने क्षणिकपना और दान करनेवाले मनुष्यकी स्वर्ग को प्राप्त करानेवाली शक्ति तथा हिंसककी नरक जानेकी शक्तिको जाननेवाला होनेसे प्रमाण माना है । वह अनुमान किसी नयी वस्तुको विषय नहीं करता है किन्तु क्षणिकपन आदि विषय में उत्पन्न हुए संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय और अज्ञानरूप समारोपोंको दूर करता रहता है। वस्तुस्वरूप क्षणिकत्व, स्वर्गप्रापणशक्ति आदिका ज्ञान तो प्रत्यक्ष प्रमाणकरके निर्विकल्पकरूप पहिले ही हो जाता है। यदि प्रणिकत्व आदि प्रत्यक्ष प्रमाणसे न जाने गये होते सो वे वास्तविक नहीं ठहर सकते थे । किन्तु क्या करें, वस्तुभूस क्षणिकत्व आदिमें मिध्याज्ञानी शीघ्र विपर्यय, संशयरूप समारोप कर लेते हैं । उसको दूर करनेके लिये अनुमानप्रमाणका उत्थान किया जाता है । इस कारण हम बौद्धलोग समारोपका व्यवच्छेद करनेवाला होनेसे अनुमानरूपनिश्वयज्ञानको बैसा होनेपर प्रवर्तक मानते हैं। ऐसा बौद्धोंके माननेपर हम जैन कहते हैं कि निर्विकल्प प्रत्यक्षको कारण मान कर उत्पन्न हुए निश्चयरूप विकल्पक उस प्रकार ज्ञानको अनुमानके समान क्या प्रवर्तक पना नहीं है ! बताओ। दोनों निश्चयात्मक उन ज्ञानों में हमारी समझसे कोई अन्तर नहीं है । इन्द्रिय और अर्थके योग्यक्षेत्रमै अवस्थित होनेपर उत्पन्न हुए अवग्रहज्ञानके बाद पैदा होनेवाले "सैकड़ों ईहा, अवाय, ज्ञान अपने अपने विषयोंमें प्रवृत्ति करानेवाले देखे जाते हैं । प्रष्टस्थारोपस्य व्यवच्छेदकोऽध्यवसायः प्रवर्तको न पुनः प्रवर्तिष्यमाणस्य व्यवच्छेदक इति ब्रुवाणः कथं परीक्षको नाम १ । अनेक लोगोंको पदार्थों के कालान्तरतक स्थायीपनेका पूर्वसे ही मिध्याज्ञान है । किन्तु प्रत्यक्ष ज्ञानके समय किसी समारोपकी सम्भावना नहीं है । इस कारण पूर्वकालसे ही प्रवृत्त हुए समारोपोंका व्यवच्छेद करनेवाला क्षणिकपनेका अनुमानरूप निश्चयज्ञान प्रवर्तक कहा जाता है । किन्तु भविष्य में पैदा होनेवाले संशय आदिकोंको सम्भाव्यरूपसे दूर करनेवाले उन प्रत्यक्षोंके बाद उत्पन्न हुए
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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