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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः २५१ रूपसे यह सिद्ध हो गया कि उन वेह और चैतन्यका भिन्नतत्त्वपनेसे भेद है। कार्यकारणभाव या गुणगुणिभाव तथा परिणामपरिणामिमावसे भेद नहीं सिद्ध किया जारहा है। यहां तक पूर्व प्रकरणका थोडा उपसंहार किया है। किश्च । और भी चैतन्य अथवा आत्माको पृथिवी आदि पुद्गलोंसे तथा शरीरसे मिन्न तत्त्वपना सिद्ध करते हैं। सुनिये । अहं सुखीति संवित्तौ सुखयोगो न विग्रहे । बहिःकरणवेधत्वप्रसङ्गान्नेन्द्रियेष्यपि ॥ १४३ ॥ " में सुखी हूं" इस तरह के समीचीनज्ञानमे सुखका सम्बंध शरीरमें नहीं प्रतीत होरहा है। यदि सुस्लपर्यायका आधार शरीर होता तो बहिरंग इंद्रियोंसे जानेगयेपन का प्रसंग आता है किंतु स्पर्शन चक्षुरादिक इंद्रियोंसे सुख, दुःख आदिक नहीं जाने जाते हैं । तथा वह सुखका आधिकरणपना इंद्रियों में भी नहीं देखा जाता है विशेष यह कहना है । क्योंकि पुद्गलकी बनी हुयीं इंद्रियां अतींद्रिय है । मुख्य प्रत्यक्षके बिना हम लोग उन इंद्रियोंका प्रत्यक्ष नहीं कर सकते हैं । जन इंद्रियां ही अतींद्रिय हैं तो उनके गुण भी अतींद्रिय ही होगे किंतु सुख, दुःख आदिकका प्रत्यक्ष होरहा है अतः वे इन्द्रियोंके गुण नहीं है । घनाकुलके संख्यात भाग या असंख्यातवें भाग आत्माके कर्ण, चक्षुः आदि नियत स्थानोंपर इंद्रियपर्याप्तिनामक पुरुषार्थद्वारा आहारवर्गणासे बनायी गयी बाह्य निर्वृत्ति ही इंद्रिय है । शेष बाह्य अंतरंग उपकरण या अभ्यंतर निर्वृत्ति अथवा भावइंद्रियां तो यहां इंद्रिय नहीं मानी गयी हैं। अन्य दर्शनिकों के यहां भी मिलती जुलती यही इंद्रिय कही गयी है । दूसरी बात यह है कि इंद्रियों के नष्ट हो जाने पर भी मुल और दुःखका सरण होता है। अतः इंद्रियोंका गुण चैतन्य नहीं है । कर्तृस्थस्यैव संवित्तेः सुखयोगस्य तत्त्वतः । पूर्वोत्तरविदां व्यापी चिद्विवर्तस्तदाश्रयः ॥ १४४ ॥ जबकि वास्तविकरूपसे सुखका सम्बंध अपने कर्ता (आत्मा) में ही स्थित होकर समीचीन रूपसे ज्ञात होरहा है और शरीर तथा इंद्रियोंमें सुखका सम्बंध होना दूषित होचुका है, इस कारण पूर्व और उत्तरकालमें होने वाले ज्ञान में व्यापक रूपसे रहनेवाले चैतन्यद्रव्यका धारापाहरूपसे परिणत होरहा चैतन्यसनुदाय ही उप्त सुखगुणका आधार है। अथवा चैतन्य परिणामोंसे परिणमन करनेवाला आत्मा ही " मैं सुखी हूं" इस ज्ञानका अवलम्ब ( विषय ) है ।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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