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सत्त्वार्थचिन्तामणिः
स्यादणी चेत् स एवात्मा शरीरादिविलक्षणः । कर्तानुभविता स्मर्तानुसन्धाता च निश्चितः ॥ १४५ ॥
यदि सुखगुणका आधारभूत कोई गुणी द्रव्य मानोगे तो वही आत्मा अन्य सिद्ध है । जो कि शरीर, इंद्रिय, विषय और पृथ्वी आदिसे सर्वथा विलक्षण है । वही सुख और ज्ञान आदिपर्यायोंका कर्ता है, अनुभव करनेवाला है, और स्मरण करनेवाला है, तथा वही आत्मा एकत्व, सादृश्य आदि विषयोंका आलम्बन लेकरं स्वकीयपरिणामोंका प्रत्यभिज्ञान करनेवाला है यह सिद्धांत निर्णीत हो गया है। शरीर इंद्रियोंके रूप, रस आदि गुणों में उक्त बातें नहीं पायी जाती हैं । न तो वे स्वयं किसीको स्वतंत्रतासे करते हैं सथा न अनुभवन करते हैं और स्मरण, प्रत्यभिज्ञान तो वे क्या करेंगे कि उक्त कर्तव्य होते हुए देखे जाते हैं कि मैं अध्ययन करता हूं, सामायिक करता हूं । तथा पर्शन इंद्रियसे जाने हुएका चक्षुः इंद्रियसे प्रत्यभिज्ञान होता है। जिसको मैंने छुआ था, उसीको देख रहा हूं । चक्षुःके नष्ट हो जानेपर मी काले नीले रूपका पीछे स्मरण होता है तथा किसी किसीको पहिले जन्मके अनुभूत विषयका जन्मान्नरमें स्मरण हो जाता है ! एसी दिनके पैदा हुए बच्चेको स्तनसे निकला हुआ दूध मेरी इष्ट सिद्धिको करनेवाला है यह ज्ञान होता हुआ देखा जाता है। अतः अनेक युक्तियों से अनादि अनंत रहनेवाला आत्मा द्रन्य चार्वाकोको मान लेना चाहिए । निरर्थक आग्रह करना अनुचित है ॥
सुखयोगात्सुख्यामिति संवितिस्तावत्प्रसिद्धा, तत्र कस्य सुखयोगो न विषयस्येति प्रत्येय। ततः कर्तृरूपः कश्चित्तदाश्रयो वाच्यस्तदभावे सुख्यामिति कर्तृखसुखसवि स्पनुपपत्तेः।
" मैं सुखी हूं" इस प्रकार की प्रतीति तो सुखगुण के आधारपनेसे प्रसिद्ध हो रही है । वहाँ पहिले यह बात विचारो या निर्णय करो कि वह सुखका योग किसको है :, घट, पट, खाय, पेय, गहना, गृह आदि भोगोपभोगकी सामग्रीरूप विषयमें तो सुस्वगुण नहीं रहता है अन्यथा चमचा, कसैंडी आदिको सबसे पहिले स्वादका ज्ञान हो जाना चाहिए । रुपयोंकी प्रभुताकी अधि. पति थैली हो जावेगी, मद्यसे बोतल नाचती हुयी नहीं देखी गयी है ! तथा शरीर, इंद्रियोंका भी गुण सुख नहीं है । इसको भी सिद्ध कर चुके हैं । इस कारण सुखका कर्ता ही कोई उस सुखका आधार कहना चाहिये।
यदि उस कर्ताको आधार न माना जायेगा तो " मैं सुखी हूं " इस प्रकार में स्वरूप क में रहनेवाले सुखके आगे लगा हुआ महावीय “इन् " प्रयाका वाच्च अधिकणवरूप