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________________ ३६१ तत्वार्थचिन्तामणिः अब सांख्यजन अपने प्रकृतको सिद्ध करने के लिए दूसरा अनुमान उठाते हैं कि मुख, बुद्धि, प्रसन्नता, कर्तापन, आदि परिणाम ( पक्ष ) आत्माके स्वभाव नहीं है ( साध्य ) क्योंकि वे सुख आदिक स्वयं अचेतन है ( हेतु ) जैसे कि रूप, रस, भादि गुण अचेतन होनेके कारण आमाके स्वभाव नहीं है । ( अन्वयदृष्टांत ) अंब आचार्य कहते हैं कि आप सांख्य इस अनुमानसे यदि अपने साध्य की सिद्धि करोगे तो हम पूंछते हैं कि उन सुख आदिकों में आपने अवेतनपने हेतुकी सिद्धि किससे की है ? बताओ । अन्यथा आपका अचेतनत्वहेतु स्वरूपासिद्ध हेस्वाभास हो जायगा । सुखबुद्धपाद धर्माशेतगारहिता इरे! भंगुरत्वादितो विद्युत्प्रदीपादिवदित्यसत् ॥ २३९ ॥ हेतोरात्मोपभोगेनानेकांतात्परमार्थतः । सोऽप्यनित्यो यतः सिद्धः कादाचित्कवयोगतः ॥ २४० ॥ ये सुख, ज्ञान, उत्साह, अभिमनन, आदिक धर्म ( पक्ष ) चेतनासे रहित है ( साध्यदल ) क्योंकि ये सुख आदिक थोडी देरतक ठहरकर नष्ट हो जाते हैं। या कारणों के द्वारा किये गये कार्य है अथवा उत्पत्तिमान् हैं आदि ( इत्यादि ज्ञापक हेतु है ) जो कार्य हैं, उत्पत्तिवाले हैं, और थोडी देर ठहरते हैं, वे अवश्य अचेतन है, जैसे कि बिजली, दीपालिका, बुदबुदा, इन्द्रधनुष आदि पदार्थ अचेतन हैं। ( अन्वयव्याप्तिपूर्वक दृष्टांत । ग्रंथकार कहते है कि यह सांस्योंका अनुमान समीचीन नहीं है, क्योंकि कृतकाव, भंगुरत्व आदि हेतुओंका आत्माके उपभोगसे व्यभिचार हो जाता है, सांख्याने वास्तविकरूपसे आत्माके उपभोगको कभी कभी होनारूप क्रियाके संघसे अनित्य सिद्ध किया है। सांख्यमतमै इंद्रियों के द्वारा रस आदिकका ज्ञान होनेपर आत्मासे उसका उपमोग होना माना है। और वह उपभोग करना तो आत्माका स्वभाव है ही ऐसी दशा कदाचित् होनेबालेपनके योगसे आत्माके भोगमें जब कि अनित्यपना सिद्ध हो गया और उस भोगमै अचेतनपन साध्य न रहा अत: आपके कृतकरव, उत्पत्तिमत्त्व और भंगुरव ये तीनों हेतु व्यभिचार दोपयाले हो गये । यों सारख्योंका निरूपण प्रशस्त नहीं है। पुरुषानुभवो हि नश्वरः कादाचित्कवादीपादिवदिति परमार्थतस्तेन भंगुरत्वमनैकान्तिकमचेतनत्वे साध्ये। जब कि आत्माके द्वारा प्राकृतिक हर्ष, अभिमान, अध्यवसाय, आदिकोंका भोग करना निश्चयरूपसे नाश होनेवाला है, क्योंकि वह भोग कभी हुआ करता है, जैसे दीपकलिका नाशस्वभाववाली है। इस अनुमानसे वास्तवमै भोगको क्षणध्वंसीपना सिद्ध हो जाता है। अतः अचेतनत्व साध्यको सिद्ध करने दिया गया भंगुरव हेतु इस आलसंबंधी भोगसे व्यभिचारी है।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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