SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 619
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सवाषिन्तमणिः सो आपका वह तत्त्वोपप्लव भी अनेकान्तको माने विना सिद्ध नहीं होपाता है। क्योंकि उपप्सवका तो मात्र अनुपप्लव ( नहीं खण्डन करना) रूपसे सिद्ध करना आपको मानना ही पड़ेगा। यदि उस सेवा उपलदमें भी अब मानोगे अयदि आत्तिको मन्तव्य खण्डन करनेका भी खण्डन कर दोगे सो सम्पूर्ण तत्व अनुपप्लत क्यों नहीं हो जायेंगे ! भायार्थ–सम्पूर्ण प्रमाण प्रमेय पदार्थ निर्दोषपसे सिद्ध हो जायेंगे । झूठ बोलना यदि झूठ सिद्ध हो जावे, तो सस्प पदा प्रसिद्ध हो जाता है । शत्रुका शत्रु मित्र हो जाता है। _ ननूपप्लवमात्रेऽनुपप्लव इत्ययुक्तं, व्यायातादभावे भाववत् । सथोपप्लवो न तत्र साधीयांस्तत एवाभावेऽभाववत् । ततो यथा न सन्त्राप्यसनमावा सर्वथा व्यवस्थापयितुमछतो किं सर्वभाव एव, तथा बच्चोपप्लवोपि विचारात् कृतचियदि सिद्धस्तदान पत्र केन चिद्रूपेणोपपलको नाप्यनुपप्लवोव्याघाताद, किं सोपप्लव एवेति नानेकान्तावतार इति चेत् । ____ यहां उपप्लववादी स्वपक्षका अवधारण करता है कि केवल उपप्लवमें अनुपप्लव मनवाना जैनोंका इस प्रकार आपादन तो युक्तियोंसे रहित है। क्योंकि इसमें व्याघात दोष है। उपप्लय कहनेपर अनुपप्लव कहना नहीं बनता है। और अनुपालन माननेपर उपप्लव कहनेका पात हो जाता है। जैसे कि कोई तुच्छ अभाव माननेपर उसका भाव स्वीकार करे तो उसको वदत्तो व्याघात दोष लगता है । अभाव माननेर भाव कहना नहीं बनता है और भाव मानना चाहेगा तो पहिले अभाव कहनेका पात होता है । और उस ही कारण केवल उपप्लव माननेपर उसका वहां उपप्लव मानना भी बहुत अच्छा नहीं है । क्योंकि यहां भो व्यापात दोष होता है। जैसे कि अभाव कहनेपर फिर उस अभावमें भी अभाव कहते जानेमें व्याघात दोष है। अर्थात् अभाव कहदेनेपर पुनः उसका अभाव नहीं कहा जाता है । वैसे ही उपप्लव कह देनेपर फिर उसका खण्डन करदेनारूप उपसवको हम नहीं मानते हैं । उस कारण जैसे तुच्छ अमावतत्व न रुद्रूप है और न असतस्प भी है। क्योंकि तुच्छ अभावको सभी प्रकारोंसे हम और तुम दोनों व्यवस्थापन करने के लिये अशक है। तब तो तुच्छ अमावके विषयमे हम दोनों क्या कहे ! इसका उत्तर यही है कि अमाव अभावरूप ही है। अभावमै अन्य विशेषणों के देने पर अनेक आपत्तियां आती हैं। वैसे ही तत्त्वोंका तुच्छ उपप्लव भी विचार करनेसे पीछे यदि किसी कारण सिद्ध होगया तब तो वहां किसी भी स्वभाव करके उपप्लव नहीं है और जब वहां उपप्लव नहीं है तो अनुपालन भी नहीं ठहरा । अन्यथा व्याघात दोष हो जावेगा । अर्थात् उपप्लवमै उपप्लव न होनेपर अनुपप्लवका कहना विरुद्ध है। तब सो फिर उपप्लव क्या है ! इसका उत्तर यही है कि उपप्लव उपप्लव ही है। " आप तो आप ही है । यह किंवदन्तो यहां परित हो जाती है । इस प्रकार हमको अनेकान्तवादके अवतार करनेका कोई प्रसंग नहीं है । यदि इस प्रकार तत्वोपप्लववादी कहेंगे तो आचार्य महाराज उत्तर देते हैं सावधान होकर श्रवण कीजिये।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy