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________________ तस्वाचिन्तामणिः तर्हि प्रमाणतत्वं नादुष्टकारकसन्दोहोत्पावत्वेन नापि बाधारहितत्वादिभिः स्वभावै. व्यवस्थाप्यते व्याघातात, किं तु प्रमाणे प्रमाणमेव प्रमाणत्वेनैव तस्य व्यवस्थानात् । सब तो इम जैन भी कहते कि प्रमाण सत्वका अव्यभिचारीपना निर्दोष कारणोंके समु. दायसे उत्पन्न करने योग्यपनकरके नहीं है और बाधारहितपन तथा प्रवृत्तिकी सामर्थ्य आदि स्वभावोंके द्वारा भी नहीं व्यवस्थित किया गया है। क्योंकि इसमें व्याघात दोष आता है। निश्चयनय करके घटकी घटत्वधर्मसे ही व्यवस्था हो सकती है । कुलालसे जन्यपने के द्वारा या मिट्टीके विकारपने के द्वारा नहीं । वैसे ही प्रमाण अदुष्टकारमजन्यरूप नहीं हैं, बाधारहित भी नहीं है। ये तो सब प्रमाणके एकदेशीय धर्म है। धर्मधर्मीका कथञ्चित् मेद है । और हम अपने गृहीय निमत हेतुओंसे आपके सन्मुख प्रमाण तत्त्वको सरलतापूर्वक व्यवस्था भी क्यों करे। किन्तु प्रमाण सो ममाण ही है। प्रमाणके पूर्ण शरीर माने प्रमाणपनेके द्वारा ही उस प्रमाणकी व्यवस्था हो सकती है । जैसे कि गृहकी किवाड, भीत, चौखट, छत आदिसे एकांगरूप व्यवस्था ठीक नहीं है। किन्तु गृह गृह ही है। उसी प्रकार एवम्भूत नयके द्वारा प्रमाण प्रमाण ही है। कहिये अब आप क्या कहेगे। न हि पृथिवी किमामित्वेन व्यवस्थाप्यते जलवेन वायुखेन वांत पयनुयोगो युक्तः, पृथिवीत्वेनैव तस्याः प्रतिष्ठानात् । ___ अग्निपने के द्वारा पृथिवीकी व्यवस्था नहीं होपाती है तथा जलपके द्वारा और वायुपने करके भी पृथिवी तत्वके ऊपर चोध उठाना युक्त नहीं है। किन्तु उस पृथिवीकी पृथ्वीपनेके द्वारा ही प्रतिष्ठा होरही है । भावार्थ-खीरका सादृश्य नक (बगुल ) पक्षीको और बगुगका उपमान कोहनीसे हाथको मोडकर पौचा झुकादेनेसे नहीं होता है। अन्धे मनुष्यके सामने ऐसी क्रिया करनेसे हायके समान कठोर वह खीर कैसे खायी जाती होगी? ऐसी प्रतारणा सुननी पड़ती है । क्षीरानका वर्ण, रस, गन्ध, और स्पर्श तो क्षीरानमें ही है। यानी----स्वीर खीर ही है। वैसे ही अनन्वय अलंकारके अनुसार प्रमाण प्रमाण ही है। जैसे कि आकाश आकाश ही है । आपके उपप्लके समान प्रमाणतत्व भी अपने स्वभावोंमें ही लीन है। प्रमाणस्वभावा एवादुष्टकारकसन्दोहोत्याधत्वादयस्ततो न तैः प्रमाणस्य व्यवस्थापने व्यापात इति चेत्, किमिदानी पर्यनुयोगेन ? तत्स्वपलेन प्रमाणस्य सिद्धत्वात् ।। उपप्लवादी कहते हैं कि निदोष कारणों के समुदायसे पैदा होजाने योग्यपन और बाधारहिसएन सथा प्रवृत्ति करानमे समर्थपन आदि ये सब प्रमाणके स्वभाव ही हैं। उस कारण उनके द्वारा प्रमाणतत्त्वकी व्यवस्था करानमें तो कोई व्याघात नहीं है । क्या अग्निकी उष्णताके द्वारा व्यवस्था करने व्यापात है। कभी नहीं। फिर आप जैनोंने हमारे उपलरके समान यह क्यों कहा था कि " बाधारहितपने आदिसे प्रमाणतत्त्वकी व्यवस्था करने में व्याघात होता है । अतः प्रमाण प्रमाण ही ह", जब व्यापात नहीं है तो उपप्लवादी आप जैन, नैयायिक, मीमांसक आदिके माने गये
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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