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सत्त्वाविश्वामणिः
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किञ्चिन्नितिमाश्रित्य विचारोन्यत्र वर्तते । . सर्वविप्रतिपत्तौ हि कचिन्नास्ति विचारणा ॥ १४०॥
पौद्ध फिर भी सशंक होकर स्वपक्षका अवधारण कर रहे हैं कि संसारी जीवोंके अनादि कालसे यह अविद्या लगी हुयी है उसका पार पाना अतीव कठिन है । उस अविधाके द्वारा ही सम्बेदनाद्वैत इष्ट है और पुरुषाद्वैत अनिष्ट है । क्षणिक तत्वका मण्डन करना है । नित्य ब्रह्मका खण्डन करना है । एक वादी है, दूसरा प्रतिवादी है, इत्यादि अपनेको इष्ट था अनिष्ट होरहे विभाग किये जा रहे हैं । वास्तवमें यह अविद्या असत्य ही है। किंतु उस अविद्याका आश्रय लेकर तत्त्वोंकी परीक्षा की जाती है, जैसे पटिस ही काटेका कांच करने का कापसे यूरेका कपट विचारा जाता है। सम्पूर्ण ही वादी पण्डित तत्त्वोंका निर्णय हो जानेके पहिले कल्पित भविषाको स्वीकार करते हैं। तथा निर्णय हो चुकनपर दूसरे प्रकारसे पदार्थोकी व्यवस्था कर दी जाती है। भावार्थ-हम संवेदनाद्वैतवादी तत्त्वनिर्णयके पहिले प्रमाण, प्रमेय, खाम्हन, मण्डन, इष्ट, अनिष्ट आदिकी कश्यनाको अविद्यासे कर लेते हैं । अद्वैतके सिद्ध हो जाने पर पीछेसे सबको त्याग कर शुद्ध संवेदनकी प्रतीति कर लेते हैं । आचार्य बोध कराते हैं कि इस प्रकार इन बौद्धोंका यह कहना भी शून्यवादी और तत्वोंका उपप्लव कहनेवालोंके समान प्रलापमात्र ही है । ऐसा कहनेमे सारांश कुछ भी नहीं है। केवल आग्रहमाव ही है । कुछ भी निर्णीत किये गये ममाण या देव तमा आगमका आश्रय लेफर तो अन्य विवादस्थल पदार्थ में विचार चलाया जाना है । जब कि बौदों को सब ही उपाय और उपेय तत्वों में विवाद पड़ा हुआ है अर्थात् किसी भी प्रमाण और प्रमेयका निर्णय नहीं है ऐसी दशाम तत्त्वोंकी परीक्षा करना ही कैसे हो सकता है। कहीं भी विचार नहीं चल सकता है । जिस सम्भ्रांत पुरुषको अभि, कसौटी, भारीपन, छेदकी चमक, आविका ही निर्णय नहीं है वह सुवर्णकी क्या परीक्षा कर सकता है ? । ऐसे ही शून्यवादी और तत्त्वोपप्लववादियों के समान कतिपय भी प्रमाण और प्रमेयोंका निर्णय न होनेसे सौगतके सम्वेदनाद्वैतकी सिद्धि नहीं हो सकती है । कमसे कम प्रमाण, प्रमेय, प्रतिपाद्य, प्रतिपादक, शब्द, हेतु, साध्य आदि तो अवश्य मानने चाहिये।
नहि सर्व सर्वस्यानिर्णीतमेव विचारात्पूर्वमिति स्वयं निश्चिन्वन् किञ्चित्रिीतामिष्टं प्रतिक्षेप्तुमर्हति विरोधात् ।
समी वादी प्रतिवादियोंको विचार करनेसे पहिले सभी सत्त्व अनिर्णीत ही होते हैं। इस पातको स्वयं निश्चय करता हुआ शून्यवादी या तत्त्वोफ्लक्यांदी कुछ निर्णय किये हुए इष्ट पदार्थको अवश्य इष्ट करता है । सभी प्रकारसे सबका खण्डन करने के लिये नियुक्त नहीं हो सकता है । क्योंकि विरोध है । अर्थात् जो विचार करनेसे पहिले निर्णय न होना कह रहा है, उस वादीको अन्तरंगों