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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः __ यहां कोई मीमांसक कहता है कि जैनोंका हेत धर्म आदिकके उपदेशरूप पक्षम नहीं रहता है । अतः असिद्ध हेवाभास है क्योंकि हमारे यहाँ सूत्रग्रन्थों में लिखा हुआ है कि पुष्प, पापके जानने में लिङ्, लोट, तव्य प्रत्ययवाले वेदवाक्य ही प्रमाण हैं । दूसरा कोई ज्ञापक नहीं है। इन्द्रियां, हेतु, और अतींद्रिय प्रत्यक्षसे पुण्य नहीं जाना जाता है । हम लोग जो पुण्य, परमाणु, आदि सूक्ष्म अर्थों को जान लेते हैं। वह वेदविद्वानोंके उपदेश द्वारा ही जान सकते हैं । अतः धर्म आदिकके उपदेशमै परोपदेशकी अपेक्षा होनेसे परोपदेशकी नहीं अपेक्षा रखनारूप-विशेषण नहीं घटता है । अतः असिद्धहेत्वाभास है। तत्र केयं चोदना नाम ? क्रियायाः प्रवर्तकं वचन मिति चेत् तत्पुरुषेण व्याख्यात स्वतो वा क्रियायाः प्रवकं श्रोतुः स्यात् १ न तावत्स्वत एवाचार्यचोदितः करोमीति हि इस न वसगडे दिग्ध हानि। यहां आचार्य पूंछते हैं कि जिन प्रेरणावाश्योंसे परोपदेशद्वारा आप धर्म आदिकको जानते हैं, वह वेदका प्रेरणावाश्म भला क्या पदार्थ है ? बताओ यदि यज्ञ करना, भावना करना, नियुक्त होना आदि क्रियाओम प्रवृत्ति करा देनेवाले वचनको प्रेरणावाक्य कहोगे तो हम पूछते है । कि वह वचन पुरुषके द्वारा व्याख्यान किया गया होकर श्रोताकी क्रिया में प्रवृत्ति करावेगा या विना व्याख्यान किये उच्चारणमात्रसेही अपने आप श्रोताको क्रिया करनेमें प्रेरित कर देवेगा ! बतलाइये, यदि यहां दूसरा पक्ष लोगे अर्थात् वह वेदवाक्य अपने आपही प्रवृत्ति करा देवेगा यह पक्ष तो ठीक नहीं है । क्योंकि अच्छा व्याख्यान करनेवाले आचार्यके द्वारा प्रेरित होकर में पूजा कररहा हूं, ऐसा सब स्थानोंपर सब जगह, देखा जाता है किंतु केवल बचन सुनकर ही इस कार्यमें प्रेरित हुआ हूं ऐसा नहीं आना जाता है। . नन्धपौरुषेयावचनात्मवर्तमानो वचनचोदितः करोमीति प्रतिपद्यते, पौरुषेयादाचार्यचोदित इति विशेषोऽस्त्येवेति चेत् स्यादेवं यदि मेघवानवदपौरुषेय बचन पुरुषप्रयत्ननिर. पेक्ष प्रवर्तके क्रियायाः प्रतीयेत, न च प्रतीयते, सर्वदा पुरुषव्यापारापेक्षत्वात्तत्स्वरूपलामस्य. पुरुषप्रयलोऽभिव्यञ्जकस्तस्येति चेन्नैकान्तनित्यस्याभिव्यक्त्यसंभवस्य समर्थितत्वात् ।। स्वपक्ष अब धारण करते हुए यहां मीमांसक कहते हैं कि लौकिकवचन और वैदिकवचनोंके उपदेशमें यह अंतर है ही कि किसी पुरुषके द्वारा न बनाये हुए वेदके वचनोंको सुनकर प्रवृत्ति करनेवाला यह विश्वास करता है कि मैं पवित्रवचनोंसे मेरित होकर इस वेदविहित क्रियाको कर रहा हूं और पुरुषोंके द्वारा बनाये हुए वचनोंको सुनकर समीचीन क्रिया करता हुआ श्रोधा
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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