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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः विद्यमान है । अनेक सुखोंके समन्बाहार होनेपर पीछे जो प्रसन्नता होती है उसको हर्ष कहते हैं बाषक प्रमाणोंका असम्भव होजानेसे पदार्थका निर्णय हो जाता है। सभी रुपया, गहना, सौंदर्यको कौन दिखाते फिरे । नन्वस्तु नाम कर्तृत्वादिस्वभावश्चैतन्यसामान्यविवर्तः कायादर्थान्तरं सुखादिचैतन्यविशेषाश्रयो गर्मादिमरणपर्यन्तः सकलजनप्रसिद्धत्वातत्त्वान्तरम्, चत्वार्येव तत्वानीत्यवधारणस्याप्पविरोधात्तस्याप्रसिद्धतत्वप्रतिषेधपरत्वेन स्थितत्वात्, न पुनरनाद्यनन्तारमा प्रमाणाभावादिति बदन्तं प्रति बमहे । यहां चार्वाक अब स्मरण और प्रत्यभिज्ञान करनेवाले चिरस्थायी आत्मद्रव्यमें. अनुज्ञा करते हुए अपना अंतिम सिद्धांत कह रहे हैं कि जैनोंका माना गया कर्मा, अनुमविता, सर्ता और प्रत्यभिज्ञाता आदि वह चैतन्य-सामान्यरूप-परिणामवाला आत्मा शरीरसे मिन्न है, और सुख, ज्ञान, इच्छा आदि विशेष चैतन्योंका आश्रय है । ऐसे स्याद्वादियों के माने हुये आत्माको हम भी इष्ट कर लेंगे। किंतु वह जन्म-जन्मांतरों तक ठहरनेवाला नहीं है। गर्भसे लेकर मरणपर्यत ही स्थिर रहता है। गर्मकी आदिमें सर्वथा असत् माने गये चैतन्यका विना उपादान कारणोंके केवल सहकारी कारणोंसे ही शब्दके समान उत्पाद होजाता है और मरणपर्यंत एक दीपकसे उतरवर्ती दूसरे दीपकोंके समान उपादान उपादेयभावसे अनेक चैतन्य उत्पन्न होते रहते हैं। अंतमें मरते समय उस चैतन्यका दीपकके बुझनके समान आमूलचूल सत्का विनाश हो जाता है, यह बात संसारके सर्व ही नालगोपालों में प्रसिद्ध है। अत्यंत प्रेमी और लोभी जीव भी मरने के बाद लौट कर अपने पिष पुत्र, स्त्री और धनको नहीं सम्हालते हैं। राजा, महाराजा, सम्राट् भी मरनेके पीछे फिर लौटते हुए नहीं देखे गये हैं । इस कारण गर्मसे मरणपर्यत ही चेतन आस्मा है । वह पृथिवी आदिकोंसे भिन्न तत्त्व है । उसको हम पांचवां स्वतंत्र तत्त्व इस लिये नहीं कहते हैं कि पृथिवी आदि तत्त्वोंके समान वह अनादि अनंत नहीं है किंतु उस चेतन्यको हम पृथिवी आदिक जड पदाभाम भी गर्मित नहीं करते हैं। अतः एक प्रकारसे थोडी देर ठहनेवाला वह चैतन्य मिन्न तत्व भी है। एतावता " पृथ्वी, अप, तेज, वायु ये चार ही तत्व हैं " इस नियम करनेमें भी कोई विरोध नहीं है । वह चार तत्त्वोंका नियम करना तो सर्वथा पसिद्ध नहीं ऐसे आकाश, काल, मन, धर्मद्रव्य, अर्धमद्रव्य, सामान्य, शक्ति, प्रेत्यमाव आदि तत्त्वोंके निषेध करनेमें तत्पर होकर स्थित होरहा है। किंतु फिर गर्भसे मरणपर्यंत ठहरे हुए सम्पूर्ण जीवों में प्रसिद्ध होरहे इन चेतन आत्माका वह नियम निषेध नहीं करता है। हां ! अनादिसे अनंत-कालतक माना गया जैनौका आत्मा कोई तत्त्व नहीं है। ऐसे आत्माको सिद्ध करनेवाला तुम्हारे पास कोई प्रमाण भी नहीं है। इस प्रकार कहते हुए चाफिके प्रति अब हम जैन गौरवान्वित होकर अपने इस सिद्धांतको प्रमाणसहित अच्छी तरह स्पष्ट कर कहते हैं।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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