________________
सत्त्वार्थचिन्तामणिः
दोष नहीं माना गया है। इस कारण से हमारे ऊपर अनवस्था दोष नहीं है। क्योंकि कहीं न कहीं आकांक्षा शांत हो ही जावेगी । आचार्य कहते हैं कि यदि नैयायिक ऐसा कहेंगे तब तो पहिले अर्थ ज्ञानकरके अर्थकी ज्ञप्ति हो जानेपर इतने से ही किसी एककी आकांक्षा शांत हो जावे यों तो पहिले ज्ञानको जानने के लिए दूसरे ज्ञानकी भी अपेक्षा न होवे, क्योंकि जहां आकांक्षा टूट जावेगी, वहीं आप दूसरे ज्ञानोंका उत्पन्न होना रोक देते हैं। ऐसी दशामें अर्थका ज्ञान नवव्यहित उत्तरवर्ती ज्ञान से है इस आपके ही सिद्धांतसे आप नैयायिकोंको विशेष बना रहा ||
३१५
तथेयत एवेति चेत्, परोक्षज्ञानवादी कथं भवता अतिशय्यते १ ।
नैयायिक कहते है कि हम ऐसा इष्ट करते ही हैं, अर्थात यदि आकांक्षा न होवे तो महिले ज्ञानको जानने के लिए भी दूसरा ज्ञान नहीं उठाया जाता है । स्वयं अन्धेरे में पढा पहिला घटज्ञान ही घटको जान लेता है, भविष्य में घटज्ञानको जानने के लिए किसी ज्ञानकी आवश्यकता नहीं है । इस पर तो आचार्य कहते हैं कि ऐसी दशा में ज्ञानको परोक्ष माननेवाले मीमांसकों के साथ आपकी क्या कैसी विशेषता रही ? बतलाइए ! भावार्थ मीमांसक भी पहिले ज्ञान आदि सब ज्ञानोंका प्रत्यक्ष होना नहीं मानते हैं। परोक्षज्ञानद्वारा ही घट आदिकका प्रत्यक्ष होना स्वीकार करते हैं । यदि किसीको ज्ञानके जाननेकी आकांक्षा हो जाये तो ज्ञानजन्य ज्ञाततासे ज्ञानका अनुमान होना मीमांसक इष्ट करते हैं, वैसा ही परोक्षपन आप मान रहे हैं, अतः मीमांसक और आपके मन्तव्य में कोई अतिशय नहीं रहा । पहिले ज्ञानको दोनोंने परोक्ष मान लिया है ।
ज्ञानस्य कस्यचित्प्रत्यक्षत्वोपगमादिति चेत्, यस्या प्रत्यक्षतोपगमस्तेन परिच्छिन्नोऽर्थ कथं प्रत्यक्षः १ सन्तानान्तरज्ञान परिच्छिन्नार्थवत् ।
L
नैयायिक बोलते हैं कि मीमांसकोंसे हमारे मन्तव्य में यह अधिक अतिशय है कि हम किसी किसी ज्ञानका दूसरे ज्ञानोंसे प्रत्यक्ष होना मान लेते हैं किन्तु भीमांसक दो किसी भी ज्ञानका प्रत्यक्ष होना नहीं मानते हैं। ज्ञानोंके मत्यक्ष हो जानेके भयसे वे सर्वज्ञको भी नहीं स्वीकार करते हैं घट, पट, पुस्तक आदिकका प्रध्यक्ष भले ही हो जावे किन्तु इनको जाननेवाले ज्ञानोंका तथा मनु, जैमिनि, भट्ट, प्रभाकरोंकों मी अपने ज्ञानोंका प्रत्यक्ष नहीं हो पाता है । हां ! इच्छा होनेपर वे उन ज्ञानोंका अनुमान कर लेते हैं । हम नैयायिक तो घटके ज्ञानका दूसरे ज्ञानसे प्रत्यक्ष होना और सर्व ज्ञानका सर्वज्ञके दूसरे ज्ञानसे प्रत्यक्ष होना मानते हैं । ग्रन्थकार कहते हैं कि यदि आप नैयायिक ऐसा कहोगे तो जाननेकी आकांक्षा न होनेपर जिस ज्ञानका आपने प्रत्यक्ष होना नहीं माना है, उस ज्ञानसे जाने गये अर्थका प्रत्यक्ष कैसे होगा ? बताओ । जैसे कि अन्य संतान माने गये देवदत्तके द्वारा जाने जाचुके अर्थका जिनदत ज्ञान नहीं कर सकता है, क्योंकि जिनददेव के ज्ञानका स्वयं प्रत्यक्षज्ञान नहीं है । उसी प्रकार स्वयं देवदतके ज्ञानका देवदत्तको