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सत्यार्थचिन्तामणिः
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जब प्रत्यक्ष नहीं है तो देवदत्त अपने उस अप्रत्यक्षज्ञानद्वारा भर्थका प्रत्यक्ष कैसे कर सकता है ! यानी नहीं।
प्रत्यक्षतथा प्रतीवेरिति चेत्, तीप्रत्यक्षज्ञानवादिनोऽपि तत एवार्थः प्रत्यक्षोऽस्तु तया चानर्भिका सर्वज्ञज्ञानस्य पानान्तरप्रत्यक्षत्वकल्पना ।
अप्रत्यक्ष ज्ञानसे भी अर्थका प्रत्यक्ष हो जानेपनेसे प्रतीति होना देखा जाता है। अतः पहिले अप्रत्यक्ष ज्ञानसे भी अर्थका प्रत्यक्ष हो जाना बन जावेगा। यदि नैयायिक ऐसा कहेगे तब तो जानका प्रत्यास नहीं कहनेवाले मीमांसकके भी उसी अप्रत्यक्ष ज्ञानसे अर्थका प्रत्यक्ष करना हो जामो। और वैसा हो जानेपर फिर सर्वज्ञके ज्ञानको दूसरे ज्ञानसे प्रत्यक्षकी नैयायिककी कल्पना व्यर्थ पडेगी। नैयायिकोंने ईश्वर के दो ज्ञान माने हैं। एकके द्वारा सम्पूर्ण पदार्थोका प्रत्यक्ष करता है। और दूसरे ज्ञानसे उस ज्ञानका प्रत्यक्ष कर लेता है। किंतु जा नैयायिक अप्रत्यक्ष ज्ञानसे ही अर्थका प्रत्यक्ष हो जामा मानते हैं तो स्वयं अप्रत्यक्ष भी अकेला ईश्वरका ज्ञान चराचर जगत्का प्रत्यक्ष कर लेगा, प्रत्यक्ष द्वारा सर्वको जानना स्वरूप सर्वज्ञत्वको रक्षित करनेके लिये प्रथम ज्ञानका ज्ञानान्तरसे प्रत्यक्ष होते रहनेकी कल्पना व्यर्थ है । हिंदुस्थानके एक महाराजा विलायतसे पदिया गाय लाये जो कि प्रतिदिन छ। घडी दूध देती थी। उसको गर्भिणी करने और नस्लको ठीक रखनेके लिये सद्ध सांड मी लाना पड़ा, जिसका उपयोग वर्ष में मात्र एक दिन, और दैनिक व्यय गायसे भी अत्यधिक । मितव्ययीको ऐसा अपव्यय खटकता है । यों ईश्वरमें दूसरे ज्ञानको माननेकी कोई मावश्यकता नहीं है।
यत्र यथा प्रतीतिस्तत्र तथेष्टिर्न पुनरप्रतीतिकं किञ्चित्करप्यत इति चेत, स्वार्थसंवेदफवाप्रतीतितो ज्ञानस्य तथेष्टिरस्तु ।
नैयायिक कहते है कि जहां जैसा अक्सर देखा जाता है वह वैसे ही पैतरा नदल दिये जाते हैं । जिस प्रकारसे जहां अोंके और ज्ञानोके प्रत्यक्ष होनेको प्रतीति होती दीखे वहां वैसा ही हम इष्ट कर लेते हैं। हां, फिर जो कभी प्रतीतिमें नहीं आता है ऐसे किसी मी पदार्थकी हम कसना नहीं करते हैं। सर्वज्ञज्ञानको जानने के लिये दूसरे शानकी आव. श्यकता है किन्तु संसारी जीवोंके किसी किसी ज्ञानमै ज्ञानान्तरकी अकांक्षा नहीं होती है। अन्धकार कहते है कि यदि नैयायिक ऐसा कहेंगे, तब तो प्रत्येक ज्ञानको अपने और अर्थके बदिया ज्ञापकपनेकी प्रतीति हो रही है । तो इस कारण फिर ज्ञानको उसप्रकार अर्थ और अपना दोनोंका परिच्छेदी क्यों न मान लो ! समीचीन प्रतीति के अनुसार तो आपको चलना चाहिये। बेसा इष्ट करनेको आप स्वीकार भी कर चुके हैं।