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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
साध्यसाधनवैकल्यं दृष्टान्तेऽपि न वीक्ष्यते । नित्यानित्यात्मतासिद्धिः पृथिव्यादेरदातः ॥ १५१ ॥
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सत्त्व हेतुवाले अनुमानमें दिये गये पृथिव्यादि तत्त्वरूप दृष्टांत साध्य और साधनसे रहितपना भी नहीं देखा जाता है क्योंकि पृथिवी, जल आदिको निर्दोषरूप से नित्य अनिस्यात्मकपना सिद्ध हो रहा है अथवा " अशेषतः पाठ रक्खा जाय " अर्थात् सम्पूर्ण पृथ्वी, घट आदिक पदार्थों को निस्य अनित्यपना प्रसिद्ध हो रहा है ।
न कताना धनन्तत्वमन्वस्तच्वस्य साध्यं येन पृथिव्यादिषु तदभावात् साध्यशून्यसुदाहरणम्, नापि वत्र सच्चमसिद्धं यतः साधनवैकल्यम्, तदसिद्धौ मवान्तरानुसरण - प्रसङ्गात् ।
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एक सौ चालीसवीं वार्त्तिकमें हम केवल अंतर तत्व माने गये आत्माको ही एक अनादि^ अनंतरूप धर्मसे सहिसपना साध्य नहीं करते हैं जिससे कि पृथिवी आदिकों में उस धर्मके न रहदेसे उदाहरण साध्यसे रहित होजाता । भावार्थ-अपि तु पृथिवी आदिमें भी आत्मा के समान अनादि अनंतपना विद्यमान है यों मानते हैं । तथा उन पृथ्वी आदिकों में सत्त्व हेतु भी असिद्ध नहीं है। जिससे कि हमारा दृष्टान्त साधनसे रहित हो जावा । दृष्टान्तमें ही जब उन साध्यसाधन की सिद्धि नहीं हो सकेगी तो हमें दूसरे नैयायिक और चावकों के मतोंके अनुकूल चलनेका प्रसङ्ग आता अर्थात् — इमको भी आत्माको कूटस्थ नित्य और घट आदिकको सर्वथा अनित्य मानने को बाध्य होना पडता, किन्तु जब हमारा सत्तहेतु तथा साध्य दोनों दृष्टान्त और पक्षमें विद्यमान है ऐसी दशा में नैयायिक और चार्वाकों को हमारा सिद्धांत माननेके लिये अगत्या वाध्य होना पड़ता है ।
aaोऽनवद्यमनाद्यनन्तत्व साधनमात्मनस्तच्चान्तरत्व साधनवत् ।
उस कारण से अब तक आत्माको भिन्नतत्त्वपना सिद्ध करनेके समान अनादि अनंतपना सिद्ध करना भी निर्दोषरूपसे सम्पन्न हो चुका है । यहां तक चार्वाकका खण्डन करनेके लिये मारम्भ किये गये प्रकरणका उपसंहार कर दिया गया है। श्रीविद्यानन्द स्वामी इसके आगे बौद्धमतका विचार चलाते हैं ।
सत्यमनाद्यनन्तं चैतन्यं सन्तानापेक्षया न पुनरेवान्वयिद्रव्यापेक्षया क्षणिकविता'नामन्वयानुपपत्तेरित्यपरः सोऽप्यनात्मज्ञस्तदनन्वयत्वस्यानुमानवाधितत्वात् । तथा हि
यहां नैयायिकों से भिन्न दूसरा बौद्धमतानुयायी कहता है कि वह चैतन्य अपने पूर्वीपर कारूने होनेवाले परिणामों की चारानाहरू संतानकी अपेक्षाही अनादि काल अनंत काल क