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________________ • नार्धचिन्तामभिः और सर्वथा मेrपक्ष माननेवाले नैयायिकको कर्ता और कर्मके अभेद माननेपर अपने मतसे विरोध मी न जावेगा। तथा च यह अपसिद्धान्त दोष हुआ। इन दोनोंका परिहार, नैयाबिक नहीं कर सकते हैं । ********** .वतो न जात्मवादिनां ज्ञानवानहमिति प्रत्ययो ज्ञाताहमिति प्रत्ययवत् पुरुषस्य ज्ञानविशिष्टस्य ग्राहकः । उस कारण ज्ञानसे भिन्न अतएव जरूप आत्मा को माननेवाले नैयायिकों के यहां "मैं ज्ञानवाला हूं" इस प्रकारकी प्रतीति तो ज्ञानसहित आत्माको ग्रहण करानेवाली नहीं है । जैसे कि मैं ज्ञाता हूं यह प्रतीति आकाश, काल आदिकको छोकर आत्माको ही ज्ञानसहितपना सिद्ध नहीं करा सकती है । किं चाहंप्रत्ययस्यास्य पुरुषो गोचरो यदि । तदा कर्ता स एव स्यात् कथं नान्यस्य सम्भवः ॥ २०५ ॥ दूसरा दोष यह भी है कि मैं मैं इस प्रतीतिका विषय यदि आत्मा माना जावेगा तो वह प्रमेय हो जावेगा, क्योंकि जो प्रतीतिका विषय होता है वह पदार्थ प्रमा करनेके योग्य प्रमेय होता है, तब तो वही आत्मा महा कर्ता कैसे हो सकेगा ? आप नैयायिकों के मत से प्रमेय और ममाता दोनों एक पदार्थ नहीं हो सकते हैं। एक आत्माके स्थानपर दूसरा आत्मा विद्यमान नहीं है जिससे कि एक आमा प्रमेय होवे और दूसरा आसमा प्रमाता सम्म हो सके । अन्य आत्मा के यह बात नहीं सम्भवती है । कश्चास्याप्रत्ययस्य विषय इति विचार्यैते । पुरुषश्रेत् प्रमेयः प्रभाता न स्यात् । न हि स एव प्रमेयः स एव प्रभाता, सकदेकस्यैकज्ञानापेक्षया कर्मस्वकर्तृत्वयोर्विरोधात । और भी कहना है कि मैं को जाननेवाले इस ज्ञानका विषय क्या है ? इस बातका विचार करते हैं । यदि मैं के ज्ञानका विषय आत्मा माना जावेगा ऐसा कहनेपर तो वह आत्मा जानने योग्य प्रमेय हो जावेगा । जाननेवाला प्रमाता न हो सकेगा । वही आत्मा प्रमेय हो जावे और वही आत्मा प्रमाता भी हो जाये, ऐसा हो हो नहीं सकता है। क्योंकि नैयायिकों के मससे एक समय एक ज्ञानकी अपेक्षासे एक आत्माको प्रमितिक्रियाका कर्मपना और कर्तापनका विरोष है। मैयायिकोंने किसी प्रकरण में प्रमिति, प्रमाता, प्रमाण और प्रमेय ये चार ही भिन्न भिन्न तत्त्व माने हैं। एक में दूसरेका सांकर्य नहीं माना है । ततोऽन्यः कर्त्तेति चैत्र, एकत्र शरीरे आनेकात्मानम्युपगमात् तस्याध्यप्रत्ययनियस्वे ऽपरक परिकल्पनानुपङ्गादनवस्थानादेकात्मज्ञान (पेक्षायामात्मनः प्रमातृत्वानुपपत्तेब नान्यः कर्ता सम्भवति यतो न विरोधः ।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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