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________________ वस्था चिन्तामणिः सकेगा ! और जब वह सशंय नहीं बना तो प्रमाण, प्रमेय वादियोंके ऊपर उपप्लववादियोंकी पश्नमाला कैसे भागेगी । इस सादा परे अन्तिगोने वाः शिरये प्रमाण, प्रमेय पदामोंकि खण्डना बृहस्पतिके सूत्र दूसरे मतोंके ऊपर कुचोध करनेमें ही तत्पर नहीं हो सकते हैं। सम्भवतः वृइसतिने चार्वाकदर्शनका पोषण कर पछिसे सर्व तत्त्वाका उपप्लव स्वीकार किया होय । ओमिति ब्रुवतः सिद्धं सर्वं सर्वस्य वाञ्छितम् । क्वचित्पर्यनुयोगस्यासम्भवात्तनिराकुलम् ॥ १४५॥ यदि उपप्तववादी यों कहे कि हमारे यहां प्रमाण, 'प्रमेय, आदिका निर्णय नहीं है, भले ही संशय मत बनो ! प्रश्नोंकी प्रवृत्ति भी न हो ! बृहस्पति ऋषिके सूत्र भी दूसरों के ऊपर पर्यनुयोग न कर सके, इसमें हमारी कोई क्षति नहीं है। हम उक्त आपतियणको सहर्ष स्वीकार करते हैं। तत्त्वोंका उपप्लव हमको इष्ट है, सो विना प्रयासके सिद्ध हो रहा है। अच्छा अवसर है " यस्य देवस्य गन्तव्यं, स देवो गृहमागतः । जिस अतिथिको सेवाके लिये हम बाहिर जा रहे , वे अतिथि हमारे घरपर ही स्वयं सहर्ष आगये हैं। ऐसा कहनेवालों के प्रति आचार्य महाराज कहते हैं कि यों तो सब ही को अपने अपने अभीष्ट सर्द ही तत्व सिद्ध हो जायेंगे। कही भी प्रश्न करना नहीं सम्मच होगा । सिस कारण आकुलतारहित होकर सब अपने अपने प्रयोजनकी बातोंको सिद्ध कर लेंगे। भावार्थ-जब कि प्रमाण, प्रमेय, प्रश्न करना, संशय करना आदिकी व्यवसाय नहीं मानी जाती है तो फिर यों ही पोल चलेगी, चाहे जो कोई भी अपने मनमानी पातको पुष्ट कर लेगा । ततो न शून्यवादयत् तत्वोपप्लववादो वादावरव्युदासेन सिध्येत् तपानेकांचस्यैव सिदेः। तिस कारणसे शून्यवादके समान दीखते हुए तत्वोंका अपलाप करनेवाला तत्त्वोपप्लववाद भी सिद्ध नहीं हो पाता है, जो कि यह कहता है कि हम तत्वोपप्लववादको अङ्गीकार करते हुए अन्य आस्तिकोंके यादोंका खण्डन करते हैं। भावार्थ-शून्यबादी और उपलववादी इतर वादोंका लण्डन नहीं कर सकते हैं। और उस प्रकार जैनोंके अनेकांत तत्त्वकी ही सिदि होती है । अपने इष्ट उपप्पचकी सिद्धि करना और अन्यवादोंका स्वण्डन करना यही तो अनेकात आपने मान लिया । आप भनेकांतसे बच नहीं सकते हैं। शून्योपल्लववादेऽपि नानेकांताद्विना स्थितिः । स्वयं क्वचिदशुन्यस्य स्वीकृतेरनुपलते ॥ १४६ ॥ शून्यतायां हि शुन्यत्वं जातुचिन्नोपगम्यते। तथोपल्लवनं तत्वोपालवेऽपतिरत्र तत् ॥ १४७ ॥
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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