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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः -...न तावदिदमेकेन पुरुषेण क्रमशोऽनेकदेशतयोपलभ्यमानेनानैकान्तिकं, युगपद्ग्रहणात्, नाप्येकनादित्यन, नानापुरुषैः सकृद्भिनदेशतयोपलभ्यमानन, प्रत्यक्षानुमानाभ्यामेकपुरुषेण वा, नानाजलपात्रसंक्रान्तादित्यविम्बेन प्रत्यक्षतो दृश्यमानेनेति वक्तुं युक्तम्, बाधकामावे सतीति विशेषणात् । न कस्मिन्नादित्ये सर्वथा भिन्नदेशतयोपलभ्यमाने बाधकाभावः, प्रतिपुरुषमादित्यमालानुपलम्भस्य बाधकस्य सद्भावात् । सम्भवतः एक देववत्तको मांदरमें देखा, घण्टेभर पश्चात् बाजारमें देखा, पुनः एक घण्टे पीछे घरमें देखा, तो क्रमसे भिन्नदेशोंमें दीख जानेसे वह एक ही देवदत्तपुरुष क्या अनेक माना जावेगा! इस प्रकार हेतुके रहनेपर साध्यका न रहनारूप व्यभिचार तो हम स्याहादियांक इस हेतुम नहीं है, क्योंकि हमारे हेतुके शरीर में "युगपद विशेषणका ग्रहण है। एक समय ही जो नानादेशोंमें दीखेगा, वही अनेकरूप होगा। देवदच तो भिन्न भिन्न कालोंमें नानादेशीमें देखा गया था,अतः हेतु व्यभिचारी नहीं है । तथा और भी हेतुके विशेषणोंकी कीर्ति करनेके लिये पुनः तीन व्यभिचार उठाये जाते हैं, पहिला तो नानादेशोमें स्थित अनेक पुरुषों के द्वारा भिन्न भिन्न देशों में स्थितस्वरूप देखे गये एक सूर्यसे व्यभिचार है। अर्थात् बम्बई में बैठा हुआ मनुष्य सूर्य को अपने महलके ठीक ऊपर देखता है और कलकते बैठा हुआ अपनी कोठी पर समझता है । तथा उसी समय सहारनपुरमें अपने अपने घरोंके ऊपर सूर्य दीखता है, क्या इस प्रकार भिन्न भिन्न देशाम एकसमयमै दीख जानेसे सूर्यविमान अनेक हो आबेगे। दूसरा सम्भाव्यमान व्यभिचार यह है कि जिनदत्तने एक पुरुषको प्रत्यक्षसे ठीक स्थानपर देखा और चन्द्रदत्तने अनुमानद्वारा एक गज हटे हुए स्थानपर उस पुरुषको देखा, एतावता क्या वह पुरुष नाना होजावेगा ! तीसरा व्यभिचार इस प्रकार है कि जलके भरे हुए थोडी थोडी दूर पर रखे हुए अनेक बर्तन हैं, उन पात्रों में सूर्यके अनेक प्रतिबिम्ब पड़ रहे हैं, क्या ऐसी दशामें प्रत्यक्षरूपसे अनेक देशामें देखे हुए सूर्य के प्रतिबिम्ब अनेक हो जायेंगे ! । अथवा इन पंक्तियों का दूसरा अर्थ तीन दोष न देकर एक सूर्यमें ही व्यभिचार देना है । मीमांसक लोग सूर्य के प्रतिबिंबोंके देखनेमें भी सूर्यको ही देखना मानते हैं । कुमारिल भट्टका मत है कि चमकती हुई वस्तुसे टकराकर आखोंकी किरणे भनेक सोतरूपसे फैल जाती है, जलसे भरे हुए पात्रमे नीचेको मुख कर देखनेसे सूर्यका प्रतिबिम्ब नहीं दीखता है किंतु जलसे टकरा कर हमारी आखोंकी किरण आकाशमै स्थित सूर्यको ही देख रही हैं । इनके यहां प्रतिबिम्बको पुद्गलकी वस्तुभूत पर्याय नहीं माना गया है। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकारके उक्त व्यभिचार हमारे हेतुमें नहीं आसकते हैं, क्योंकि स्याद्वादियोंने हेतुमें बाघकाभाव विशेषण दे रहा है । भिन्न भिन्न देशस्थ दीखते हुए सूर्यभे सर्वप्रकारसे बाधकामाव नहीं है, अर्थात् बाधक है । क्या एक सूर्य एकसमयमें भिन्न भिन्न देशोंसे वहीं दीख सकता है। यह हमारी
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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