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________________ १३४ सत्यार्थचिन्तामणिः जैन सिद्धान्त नैयायिकों का माना गया तुच्छ अभाव नहीं इष्ट किया है। एकान्तोंके न दीने सर्व एकान्तका अभाव हम नहीं मानते हैं किंतु वस्तुभूत अनेक धर्माने विज्ञान हो जाना ही एकान्तोंका न दीखना है। इसी प्रकार अनेक धर्मोंका जो विधान है वही एकान्तोंका निषेध माना गया है। नैयायिक या मीमांसकोंके समान दूसरे प्रकारोंसे अभावका ज्ञान होना हम नहीं मानते हैं । समझे । अनेकान्तोपलब्धिरेव हि प्रतिपतुरेकान्तानुपलब्धिः प्रसिद्धैव स्वसम्बधिनी सा चैकान्ताभावमन्तरेणानुपपद्यमाना तत्साधनीया । वस्तु तादात्म्यसम्बन्धसे रहनेवाले अनेक धर्मोका सर्वेदा ज्ञान होते रहना ही सर्वथा एकान्तोका अनुपलम्भ है, यह बात प्रमाता विद्वानको अपनी आत्मामें सम्बन्धित हो रही अच्छी तरहसे प्रमाणसिद्ध हो चुकी है। जैसे कि केवल भूतलका ही दीखना घटका अनुपलम्भ है । मात्र ते भूतलका उपलम्भ घटाभाव के विना सिद्ध नहीं हो सकता है । उसी प्रकार वस्तु वह अनेकघर्मो का उपलम्भ होना भी एकान्ताभाव के विना सम्पन्न नहीं होता है । इस अविनाभावसे उन एकान्तोंका अभाव सिद्ध कर लेना चाहिये । व्ययन निषेध्यके यापारका ज्ञान या निषेध्यके स्मरकी आवश्यकता नहीं है । नन्वने कान्तोपलम्भादेवानेकान्तविधिरभिमतः स एव चैकान्तप्रतिषेध इति नानुमानतः साधनीयस्तस्य तत्र वैयर्थ्यात्, सत्यमेतत् कस्यचित्तु कुतश्चित्साक्षात्कृते ऽप्यनेकान्ते विपरीतारोपदर्शनासवच्छेदोऽनुपलब्धेः साध्यते, ततोऽस्याः साफल्यमेव । मीमांसा प्रश्न है कि आप जैन सर्वथा एकान्तों के अभावसे तो अनेकान्तका उपलम्भ मानते नहीं हैं किंतु आप जैनियोंने वस्तुभूत बहुतसे धर्मो के देखनेसे ही अनेकान्तका विधान इष्ट किया है। उस अनेकान्तके विधानको ही आपने सौथा एकान्तोंका निषेध स्वीकृत किया है ! ऐसी दशा आपको एकान्सोका निषेध अनुमानसे सिद्ध नहीं करना चाहिये। क्योंकि जब वे दोनों एक ही हैं तब एकान्तके जाननेमें अनुमान करना व्यर्थ है । इसपर आचार्य कहते हैं कि आपका कहना ठीक है किंतु किसी एक मनुष्यको किन्हीं अनेक अर्थक्रियाओंके द्वारा वस्तुमें अनेक धमका प्रत्यक्ष होनेपर भी उन अनेक धर्मोसे प्रतिकूल एकान्तपनेकी कल्पना कर लेना देखा जाता है अतः ऐसी दशा में सर्वथा एकान्तोंका न दीखनारूप हेतुले उस विपरीत कल्पनाका निवारण दिया जाता है जैसे कि केवल भूतलका देखना ही घटाभावका ज्ञान है। फिर भी कोई खामी ( बहमी ) पुरुष Test संभावना कर बैठता है तब इस भूतलमें घट नहीं है ( प्रतिज्ञा ) क्योंकि वह नहीं दीखता है। हेतु ) इस अनुमानसे घटका निषेध कर देते हैं । इसी प्रकार यहां भी झूटी कल्पना करने "
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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