SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थेचिन्तामणिः १३५ वाले पुरुषोंके लिये एकान्तोंका अभाव सिद्ध कर दिया है जिस कारण इस अनुपलब्धि हेतुसे किया गया अनुमान सफल ही है । प्रमाण संप्रवोपगमाद्वा न दोषः । एक अर्थको अनेक प्रमाणोंसे विशेषविशेषांशों करके जानना रूप प्रमाणर्सल भी हम जैनोंने स्वीकृत किया है, अतः अनेकांतों को प्रत्यक्ष जान लेना भी एकांतोंके निषेधका ज्ञान है और अनुपलब्धि हेतुसे एकांतोंका अभाव जानना भी दूसरा इसी विषयको जाननेवाला अनुमान प्रमाण हैं। इस कारण अनुमानसे दुबारा सिद्ध करनेमें कोई दोष नहीं है । परस्याप्ययं न्यायः समानः, यह मीमांसक कहते हैं कि इसी प्रकार हम भी सर्वज्ञके अभावको सिद्ध कर लेवेंगे जैसे आपने एकांतोंका अभाव सिद्ध कर दिया है । व प्रतियोगी के स्मरण और निषेध्यसम्बन्धी आधारके प्रत्यककी जिस प्रकार आपको आवश्यकता नहीं पडी है । यही तर्कणारूप न्याय दूसरे हमको सर्वज्ञाभाव सिद्ध करने में भी समान है, न्यायमें पक्षपात नहीं होना चाहिये । इति चेत्: इस प्रकार मीमांसकों के कहनेपर तो आचार्य कहते हैं कि:नैवं सर्वस्य सर्वज्ञज्ञापकानुपदर्शनम् । सिद्धं तद्दर्शनारोपो येन तत्र निषिध्यते ॥ ३१ ॥ मीमांसकोंका उक्तकथन ठीक नहीं है। कारण कि जैसे हमको सब वस्तुओं ( जगह ) अनेकांतोंकी उपलब्धिरूप एकांतोंका अदर्शन सिद्ध है । इस कारण यदि किसीको भ्रमवश एकांत की कल्पना भी हो जाती है तो वह ग्वण्डित कर दी जाती है। उसी प्रकार सब पुरुषोंके सर्वज्ञज्ञापक प्रमाणोंका न दीखना आपको सिद्ध नहीं है जिससे कि वहां वस्तुतः निषेध कर देते । भावार्थ - यदि न दीखना सिद्ध होजाता तो एक दो मनुष्योंको सवज्ञज्ञापकके कल्पित उपलम्भ करनेका आप निषेध भी कर सकते थे । किन्तु सर्वज्ञके ज्ञापकप्रमाणोंका अभाव आप नहीं कर सकते हैं। भला हमारा और आपका अर्थपरीक्षणस्वरूप न्याय समान कहां रहा ! सर्वसन्धिनि सर्वज्ञज्ञापकानुपलम्भे हि प्रतिपत्तुः स्वयं सिद्धे कुतश्चित्कस्यचित्सर्वशज्ञापकोपलम्भसमारोषो यदि व्यवच्छेद्येत तदा समानो न्यायः स्याम चैवं सर्वज्ञाभाववादिनां तदसिद्धेः ।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy