SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः १२५ करके मडोंकी ठीक ठीक संख्याओं में चले जानेसे और वहां नास्तित्वरूप साध्यके न रहने से व्यमिचारी हुआ ही। एतेनार्थापत्त्युपमानाभ्यां ज्ञायमानता प्रत्युक्ता, चोदनातस्तत्प्रसिद्धिरिति चेत्, न, तस्याः कार्यार्यादन्यत्र प्रमाणतानिष्टेः परेषां तु तानि सन्तीत्यागमात्प्रतिपत्तेर्युक्तं तैर्व्यभिचारचोदनम् । " अर्थापति और उपमानप्रमाणसे समुद्रजलके घडोंकी संख्याओंका ज्ञान होता है, अतः लापकममाणका उपलम्भ है । मीमांसककी यह बात भी इसी पूर्वोक्त कथनसे खण्डित होजाती है। क्योंकि समुद्रजलका विशेषरूपसे घडोंके द्वारा संख्या ज्ञात करना अर्थापत्ति और उपमान प्रमाणसे नहीं हो सकता है । यदि आप मीमांसक कहेंगे कि विधिलिङ्गले बागम गरूप केवल समुद्रके चल की घडोके द्वारा माप प्रसिद्ध होजावेगी, यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि आपने ज्योतिष्टोम यज्ञ, आदि कर्मकाण्डरूप अर्थ सिवाय बेदके प्रेरकवाक्योंका प्रमाणपना स्वीकार नहीं किया है । नहीं तो वेदमें 'सर्वज्ञबोधक भी प्रेरक वाक्य है । और दूसरे हम जैनोंके यहां तो सर्वज्ञद्वारा कहे आगमसे यह निश्चित कर लिया जाता है कि अमुक समुद्रकी लम्बाई, चौडाई और गहराई इतनी है । अथना इस समुद्रमें इतने घडे पानी है, इतनी पढोंकी संख्यायें हैं । यह बात सत्यवक्ता पुरुषोंके द्वारा भी निर्णीत हो जाती है । अतः सर्वज्ञका अभाव सिद्ध करने में दिये गये मीमांसhi ज्ञापक प्रमाणा न दिखनारूप हेतु समुद्रजलकी घडोंसे ठीक ठीक संख्याओं करके हमारी तरफसे व्यभिचारदोषकी प्रेरणा करना युक्तही है । सर्वसम्बन्धि तद्बोध्नुं किञ्चिद्बोधैर्न शक्यते ॥ सर्वोद्वास्ति चेत्कश्चित्तद्बोद्धा किं निषिध्यते ? ॥ १५ ॥ यदि आप मीमांसक दूसरा पक्ष लेंगे कि सर्वसंसारके जीयोंके पास सर्वज्ञको शापन करनेवाला प्रमाण नहीं है । इसपर हम जैन कहते हैं कि थोडेसे ज्ञानवाले पुरुषोंके द्वारा यह बात नहीं जनी जा सकती है कि सब जीवों के पास सर्वज्ञका कोई ज्ञापक प्रमाण नहीं है । सम्भव है किसी के पास सर्वज्ञसाधक प्रमाण होय जैसा कि जैन, नैयामिक, वैशेषिक मानते हैं। यदि आप किसी जीवको ऐसा मानते हो कि वह सब जीवोंका प्रत्यक्ष ज्ञान कर यह समझ लेता है कि सबके पास सर्वज्ञका ज्ञापक प्रमाण नहीं पाया जा रहा है तब तो सबको जाननेवाले सर्वज्ञका आप निषेध क्यों करते हैं ? जो सब जीवोंको जानता है और उन जीवोंके सर्वज्ञको न जाननेवाले प्रत्यक्ष आदि प्रमाणका प्रत्यक्ष कर रहा है वही तो सर्वज्ञ है ।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy