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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः शरीरके चलने, फिरने, को अवलम्ब लेकर उत्पन्न हुयी आत्माके प्रदेशकम्परूप काय योग की क्रिया और आय शब्द बननेका कारण भाषावर्गणाको अवलम्ब लेकर उत्पन्न हुए आत्मप्रदेश कम्परूप वचनयोगस्वरूप क्रिया, केवल इन दोनों ही बहिरंग कियाओंकी विशेषनिवृत्ति सम्यक्चारित्र न बनावे अथवा संचित या उपार्जनीय मनोवर्गणाका अवलम्ब लेकर उत्पन्न हुए आत्मप्रदेशकम्पनरूप मनोयोगस्वरूप केवल अंतरङ्ग क्रियाकी अच्छी निवृत्ति ही चारित्र नहीं बन बैठे, इसलिये क्रियाके बहिरंग और अन्तरंग ये दो विशेषण दिये हैं। भावार्थ-बहिरंग और अन्तरंग दोनों ही क्रियाओंकी निवृत्तिको चारित्र कहते हैं । मन, वचन. कायके त्रियोगकी अशुम आचरणसे निवृत्तिको सम्यक्चारित्र माना है। लाभार्थ तादृशक्रियानिवृत्तिरपि न सम्यक्चारित्रं भवहेतुप्रहाणायेति वचनात् । कोई दोंगी लाभ, यश और प्रयोजनको गांठने के लिये भी वैसी बहिरंग और अन्तरंग क्रियाओंकी निवृत्ति करलेते हैं । सो भी सम्यक्चारित्र नहीं है । क्योंकि चारित्रके लक्षणमें हमने संसारके कारणोंको भले प्रकार नाश करने के लिये यह वचन कहा है। अर्थलाम और यशाकी प्राप्ति आदिके लिये किये गये योगनिरोध तो आर्ग, रौद्र ध्यान बनते हुए दीर्घ संसारके कारण हो जाते हैं । जो संसारके कारण मिथ्यात्व और कषायके नाशके लिये त्रियोगका निरोष है, वही धर्म्य, शुक्ल ध्यान या शुभ और शुद्धपरिणाम होता हुआ संसारका क्षय करदेता है। मायाचार करना अतीव निन्ध है। नापि मिथ्याशः सा तद्भवति, ज्ञानिन इति पचनात् , प्रशस्तज्ञानस्य सातिशयबानस्य वा संसारकारणविनिवृत्ति प्रत्यागूर्णस्य शानवतो बाह्याभ्यन्तरक्रियाविशेषोपरमस्यैव सम्यकचारित्रत्वप्रकाशनाद , अन्यथा तदाभासत्वासिद्धः। वह वैसी क्रियाकी निवृत्ति भी मिथ्यादृष्टी जीवके नहीं हो पाती है। क्योंकि सम्यग्झानी आत्माकी क्रिया निवृत्तिको सम्यक्चारित्र कहा गया है। जिस आत्मा के प्रशंसनीय प्रमाणरूप मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ज्ञान हैं या अनेक चमत्कारोको धारण करनेवाला उत्कृष्ट केवलज्ञान है और जो आत्मा संसारके कारणोंको सर्वाङ्ग नष्ट करनेके अर्थ पूर्ण उद्यम कर रहा है, उस ज्ञानवान्, मामाके बहिरण और अंतरंग क्रियाओंके विशेषरूपसे नाश हो जानेको ही सम्यक्चारित्रफ्ना पूर्वाचायोंने प्रकाशित किया है, अन्यथा यानी दूसरे प्रकारसे मानोगे तो उस चारित्रका आभासपना सिद्ध हो जावेगा । भावार्थ-मिय्याज्ञानियों का चारित्र तो चारित्रसदृश दीखता हुआ चारित्रामास है। उसमें उक्त विशेषण घटित नहीं होते हैं। सम्यग्विशेषणादिह ज्ञानाश्रयता भवहेतुमहापाता च लभ्यते, चारित्रशब्दावहिरभ्यन्तरक्रियाविनिवृत्तता सम्पचारित्रस्य सिद्धा, तदभावे तद्भापानुपपत्तेः ।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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