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________________ तत्त्वार्थश्चिन्तामणिः ३५३ आत्माका प्रान्तिरहित संवेदन हुआ होता, किन्तु इसके विपरीत ज्ञानसहित आत्माका सर्वदा ही अभ्रान्त प्रतिभास हो रहा है । सर्वदा ज्ञानसंसर्गादात्मनो ज्ञानित्वसंवित्तिरिति चेत् Ap ज्ञानपर्यायवाली प्रकृतिसे आत्माका सदासे संसर्ग हो रहा है अतः संसर्गसे दूसरेमें भी गुण और दोष हो जाया करते हैं । इस रीति अनुसार आत्मा के ज्ञानीपनकी ज्ञप्ति हो रही है | वास्तव आत्मा ज्ञानी नहीं है यदि सांख्य ऐसा कहेंगे यों तो — औदासीन्यादयो धर्माः पुंसः संसर्गजा इति । युक्तं सांख्यपशोर्वक्तुं ध्यादिसंसर्गवादिनः ॥ २२९ ॥ जो सांख्य पशुके समान आत्माको नहीं जानता है या अपनी गांठकी वस्तुको अपनी नहीं कह रहा है तभी तो वह आस्मामें बुद्धि, सुख, इच्छा, कर्तापन, परिणाम आदि को आत्माके स्वभाव स्वीकार नहीं करता है । कापिलोंके मतमें प्रकृतिके संबंध से हो जाते हुए बुद्धि, सुख, दुःख आदिक धर्म आत्मा कहे जाते हैं यों उस सांख्यको पुरुषके उदासीनता, भोकापन, चैतन्य आदि धर्म मी प्रकृति संसर्गसे उत्पन्न होकर प्रकृतिकी ओरसे आये हुए औपाधिक भाव ही कहना युक्त होगा । आत्मामें इन चार धर्मोका भौ व्यर्थ क्यों बोझ लादा जाता है ? मात्रार्थ - उदासीनता आदि धर्म भी आत्माकी गांठके नहीं ठहरेंगे । जिसको बाहर से ऋण या भीख मांगनेकी टेब पड गयी है वह सब कुछ दूसरोंसे मांग सकता है । ज्ञानसंसर्गतो ज्ञानी, सुखसंसर्गतः सुखी पुमान्न तु खयमिति वदतः सांख्यस्य पशोरिवात्मानमप्यजानतो युक्तं वक्तुमौदासीन्यस्य संसर्गादुदासीनः पुरुषः, चैतन्य संसर्गावेतनो भोक्तृत्वसंसर्गा:ड्रोक्ता, शुद्धिसंसर्गाच्च शुद्ध इति, स्वयं तु ततो विपरीत इति विशेषाभावात् । न हि तस्यानवबोधस्वभावतादौ प्रमाणमस्ति । प्रकृतिके बने हुए इनके संबंध आत्मा ज्ञानवान् है तथा सत्त्वगुणकी प्रधानता लेकर परिणत हुयी प्रकृतिके सुखरूप विवर्तका संसर्ग हो जानेके कारण आत्मा सुखी हो जाता है किंतु वस्तुतः स्वभावसे आत्मा सुखी और ज्ञानी नहीं है । इस प्रकार पशुके समान आत्मतत्वको न जानकर कहने वाले सांख्यको यों भी कहना उचित है कि अन्य किसीकी उदासीनता के संबंध आत्मा उदासीन है । दूसरेके चैतन्यके योगसे आत्मा चेतन है । किसीके भोक्ता पनकी उपाधि लग जानेसे आत्मा मोक्ता बन गया है। एवं आकाशके सनिहित होनेके कारण उसकी शुद्धिके संबंध हो जानेसे माला शुद्ध हो गया है। परमार्थसे स्वयं तो उसके विपरीत है । अर्थात् न वो 45
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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