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________________ तत्त्वार्षचिन्तामणिः मीमांसकोंसे पूर्वम हमने पूंछा था कि मनु आदिकको पूर्व जन्म श्रुतियोंका अभ्यास अपने आप था या अन्य गुरुओंसे प्राप्त हुआ था ! उनको प्रथमपसका मुण्डन किया जाचका है। अब यदि आप दूसरा पक्ष लोगे कि असर्वज्ञ मनु आदि मुनिओंको चारों वेदोंके ब्राह्मणभाग और उपनिषद् अंशोंका ज्ञान अन्य महात्माओंसे ही हुआ है, यहां हम पूंछते हैं कि वह अन्य महात्मा कौन है ? यदि आप चतुर्मुख ब्रह्माको मनु आदिका गुरु मानोगे तो फिर हम जैन कहेंगे कि उस ब्रह्माको ऊनादिकालीन वेदोंके अर्थका ज्ञान किससे हुआ ? बताओ, यदि ब्रह्माको अतिशययुक्त पुण्यसे वेदका ज्ञान विना गुरुके स्वतः ही मानोगे यों तो पूर्वके समान घुनः वहीं अन्योन्याश्रयदोष लगेगा, क्योंकि वेदके अर्थको पूर्ण रूपसे जाने बिना उस ज्ञानपूर्वक यज्ञ आदि अनुष्ठानोंसे पैदा होनेवाला पुण्यविशेष उत्पन्न न होगा और जब पुण्य पैदा न होगा तो उस पुण्यके विना वेदने अर्थका ब्रह्माको परिज्ञान नहीं हो सकेगा। यहांतक आचार्योने मीमांसफकी मीमांसाका निराकरण कर दिया। ' स्यान्मत सहस्रशाखो वेदः स्वर्गलोके ब्रह्मणाधीयते चिरं, पुनस्ततोऽवतीर्य मत्यै मन्दादिभ्यः प्रकाश्यते, पुनः स्वर्ग गत्वा चिरमधीयते, पुनर्मोवतीर्णेभ्यो मन्वादिभ्योऽ बतीर्य प्रकाश्यत इत्यनाधनन्तो ब्रह्ममन्दादिसन्तानो वेदार्थविप्रतिपत्तिनिराकरणसमर्थोऽन्धपरम्परामपि परिहरतीति वेदे तव्याहत। सर्वपुरुषाणां अतीन्द्रियार्थज्ञानविकलत्वोपगमाद्रखादेरतीन्द्रियार्थज्ञानायोगात् । उक्त प्रकार मीमांसकोंका पक्ष गिरनेपर वे यह कहकर संभलना चाहते हैं कि हमारा मत ऐसा है। सो यह भी आपका मन्तव्य होय कि यद्यपि वेद एक है किंतु उसकी हजारों शाखाएं है, स्वर्ग असा वेदको बहुत दिनतक पढते हैं फिर वहाँसे अवतार लेकर वे मनुष्यलोकमें मनु आदि भाषिओं के लिये वेदका प्रकाशन किया करते हैं फिर ब्रा वर्गको चले जाते हैं और वहां हजारों वर्षसक वेदका स्मरण, चिंतन, अभ्यास, करते हैं । पुनः स्वर्गसे उतर कर मनुष्यलोकमे पुनः अवतार हेनेवाले उन्हीं मनु आदि ऋषिओंको वेदज्ञानका प्रकाश करते हैं। वे मनु आदि ऋषीश्वर उन उन समयों में अनेक जीवोंको वेदज्ञान करा देते हैं। इसी प्रकार ब्रह्मा और मनु आदि ऋषियोंकी धारा अनादिकालसे अनंत काल तक चली जाती है। वह उन समयमि होनेवाले वेदार्थके विवादोंको भी दूर कर देने में समर्थ हैं और ऐसा माननेसे वेदमें अंधपरम्परा-दोषका भी वारण होजाता है। अब आचार्य कहते हैं कि, मीमांसकोंके उसकथनमें वदतो व्याघातदोष आता है, जैसे कोई मनुष्य नोरसे चिलाकर कहे कि मैं चुप बैठा है उसके वक्तव्यमें उसीके कयनसे बाघा पहुंचती है, इसी प्रकार मीमांसक वेदका अध्यापन, प्रकाशन सर्वज्ञके द्वारा मानते नहीं है, विना कारण विवादोंका दूर करना और अन्धपरम्पराका निवारण करना वेदमे स्वीकार करते हैं, इस कथनमें अपने आपही बाधा डालनेवाला कोर है, आप मीमांसकोंने सर्व ही पुरुषोंको अतीन्द्रिय पदार्थोके ज्ञान से रहित माना है। ब्रह्मा,मनु,
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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