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________________ ૮૨ तत्वार्थ चिन्तामणिः बृहस्पति, जैमिनी आदिको भी सूक्ष्म आकाश, पुण्य, पाप, परमाणुओंका ज्ञान होना नहीं बन सकता है, तो फिर स्वर्ग में क्या पढा किससे पढा ! कथानक है कि की स्वर्ग चली जाय तो वहां भी धान ही कूटेगी । चोदनाजनितमतीन्द्रियार्थज्ञानं पुंसोऽभ्युपेयते चेत्, योगिप्रत्यक्षेण कोऽपराधः कृतः । याज्ञिक कहते हैं कि यजेत, पचेत्, जुहुयात् अर्थात् पूजा करे, पकावे, हवन करे ऐसे व्याकरण विधिलिङ् लकारका अर्थ प्रेरणा होता है, ऐसे प्रेरणा करनेवाले वेदके अनेक वाक्योंसे उत्पन्न हुआ मनु आदि पुरुषोंके इन्द्रियोंसे न जाने जावें ऐसे परमाणु, पुण्य पाप, स्त्रर्न, मोक्ष आदि अर्थोका ज्ञान हम मानते ही हैं, आगमसे अतीन्द्रिय पदार्थोंका जानना हमको इष्ट है, ग्रन्थकार कहते हैं कि यदि आप मीमांसक यह कहेंगे तब तो योगियोंके प्रत्यक्षने कौन अपराध किया है ? ज्ञानमें आगमद्वारा अतीन्द्रिय पदार्थों के जाननेका अतिशय तो आपको मानना ही पड़ा है, वैसे ही सर्वज्ञ भी अपने केवलज्ञानरूपी प्रत्यक्षसे इन्द्रियोंकी प्रवृत्तिसे रहित अतीन्द्रिय अथको भी जान लेते हैं, यह मान लेना चाहिये । तदन्तेरणापि हेयोपादेयतध्वनिश्वयात् किमस्यादृष्टस्य कल्पनयेति चेत् ब्रह्मांदेखीन्द्रियार्थज्ञानस्य किमिति दृष्टस्य कल्पना ? अब मीमांसक कहते हैं कि अभक्ष्यभक्षण, पाप, व्यभिचार, मिथ्याज्ञान आदि छोडने योग्य पदार्थोंका और भेदविज्ञान, सत्य ज्योतिष्टोम यांग, स्वर्ग, मोक्ष आदि ग्रहण करने योग्य तत्वोंका ज्ञान हमको आकांक्षित है। उस सर्वज्ञके बिना भी ऐसे हेय और उपादेय पदार्थों का निश्चय हमको वेदके द्वारा हो ही जाता है फिर किसीको भी कमी देखने में न आवै ऐसे सर्वज्ञके इस केवलज्ञानकी कल्पनासे क्या लाभ है ? अंधकार समझते हैं कि यदि मीमांसक यह कहेंगे तो हम कहते हैं कि आपने ब्रह्मा, मनु आदिको अतीन्द्रियज्ञान माना है। यह क्या आपने देखे हुए अतीन्द्रि ज्ञानकी कल्पना की है ? भावार्थ - यह भी तो अष्टपदार्थकी ही कल्पना है । सम्भाव्यमानस्य चेत् योगिप्रत्यक्षस्य किमसम्भावना ? यथैव हि शास्त्रार्थस्याक्षाद्यगोचरस्य परिज्ञानं केषांचिद्दृष्टमिति ब्रह्मादेर्वेदार्थस्य ज्ञानं तादृशस्य सम्मान्यते तथा केवलज्ञानमपीति निवेद यिष्यते । यदि आप मीमांसक यहां यह कहोगे कि मनु आदिके अतींद्रियज्ञानकी देखे हुए की कल्पना न सही किन्तु अर्थापत्ति प्रमाणसे जिसकी संभावना की जा सके ऐसे ज्ञान को हमने माना है भावार्थ-सम्भावित पदार्थको हम स्वीकार करते हैं यों कहनेवर तो यहां हम कहते हैं कि केवलज्ञानियोंके अतीन्द्रिय प्रत्यक्षकी क्या सम्भावना नहीं हैं ? अर्थात् मनु आदिके ज्ञानमें जैसे आगम
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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