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________________ ૨૮૨ तत्त्वार्थचिन्तामणिः द्वारा किये गये नाना कार्योंको एकपनेकी आपत्ति हो जानेके डरसे नाना कार्य करनेवाले पुरुषके नाना अतिशयोंकी कल्पना करना कैसे युक्तियोंपर आरूढ होगा ! नताओ। भावार्थ-एक स्वभावसे जैसे अनेक अतिशय धारण कर लिये जाते हैं, वैसे ही एक स्वभावसे आत्मा अनेक कार्योंको भी कर सकेगा । तीसरी कोटीपर एक स्वभाव मानने की अपेक्षा सीषे दूसरी कोटीपर ही एक स्वभाव मानने लायक है । सिद्धान्त यह है कि कारणके एक स्वभावसे एक ही कार्य होसकता है, दो कार्योंके लिये दो स्वभाव चाहिये । दूध पीना, पेडा जीमना, खीचडी सपोटना, रोटी रोषना, कचौडी खाना, चना चबाना, सुपारी खुरचना इन सब क्रियाओं में दांतोके प्रयल न्यारे न्यारे हैं। यदि कोई जवान सेखी से कहे कि मैं एक ही प्रयत्नसे इन सबको खा लेता हूं तो वह झूठा है । वह केवल एक एक ही पदार्थको स्वारहा है । यही तो जैन ( स्याद्वाद ) सिद्धान्तकी महा है। " यान्ति काया तावन्तः स्वभावमेदाः । यह अकससिद्धान्त है। स्वातिशयैरात्मा न सम्बन्ध्यत एवेति चासम्बन्धे तैस्तस्य व्यपदेशामाबानुगात् । स्वातिशयैः कथंचित्तादात्म्योपगमे तु स्याद्वादसिद्धिः इत्यनेकान्तात्मकस्यैवात्मनः श्रेयोयोश्यमाणत्वं न पुनरेकान्तात्मनः सर्वथा विरोधात् । आप सांख्य यदि अपने मिन्न अतिशयों के साथ आत्मा सम्बन्ध ही नहीं करता है, इस कारण उन स्वभाव और अतिशयोंके साथ यदि उस आत्माका सम्बन्ध न मानोगे तो "ये अतिशय आत्माके हैं। इस व्यवहारके अमार हो जानेका प्रसंग आता है । जैसे कि सहाका विन्ध्य है, यह व्यवहार नहीं होता है। क्योंकि स्वस्यामिसम्बन्ध के बिना तो देवदत्तके कटक, कुण्डल हैं, यह व्यवहार भी नहीं होता है। यदि आप सांख्य अपने अतिशयोंके साथ आत्माका कथञ्चित् तादात्म्य सम्बन्ध स्वीकार करोगे, तब तो स्याद्वाद सिद्धान्तकी ही सिद्धि हो गयी । इस प्रकार अनेक धर्मस्वरूप एक आत्माके ही भविष्य कल्याणसे लगजानापन बनता है । किन्तु फिर सर्वथा कूटस्थ नित्य या क्षणिक अनित्यरूप एक धर्भवाले आत्माके कल्याणमार्गकी अभिलाषा और कल्याणमें संलग्न हो जाना एवं कल्याणको प्राप्तकर चुकना नहीं बन सकते हैं। क्योंकि एकान्त पक्षाम अनेक प्रकारोंसे विशेष आता है। यहांतक कि अपने ही से अपना विरोध हो जाता है। कालादिलब्ध्युपेतस्य तस्य श्रेयःपथे बृहत्पापापायाच्च जिज्ञासा संप्रवर्तेत रोगिवत् ॥ २४७ ॥ काललब्धि, आसकभन्यता, कर्मभारका हलका हो जाना कषायोंकी मन्दता आदि कारणोंसे सहित आत्माके अधिक स्थिति अनुभागवाले ज्ञानावरण आदि दुष्कोर क्षयोपशम होजानेसे मोक्षमार्गको जाननेकी इच्छा भले प्रकार प्रवृत्त होती है। जैसे कष्टसाध्य चिरसेगवाले
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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