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तत्वार्थचिन्तामणिः
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यदि कापिल यों कई कि " प्राकृतिक तत्त्वज्ञानके साथ सम्बन्ध होनेसे योगविशिष्ट आत्मा मी ज्ञानस्वभाव हो जाता है " ऐसा कहने पर तो,
ज्ञानसंसर्गतोऽप्येष नैव ज्ञानस्वभावकः व्योमवत्तद्विशेषस्य सर्वथानुपपतितः ॥ ६५ ॥
यह आपका माना हुआ अतिशयोंसे रहित कूटस्थ आस्मा अन्य सम्बन्धी ज्ञानके संसर्गसे भी ज्ञानस्वभाववाला नहीं माना जा सकता है । जैसे कि प्रकृतिके बने हुए ज्ञानके मात्र संसर्गले आकाश विचारा ज्ञानी नहीं हो जाता है। आपके यहां प्रकृति व्यापक ( व्यापिका) मानी गयी है । उसका सम्बन्ध जैसा ही आत्माके साथ है वैसा ही आकाशके साथ भी है। सभी प्रकारोंसे यानी किसी भी प्रकारसे प्रकृतिके साथ होनेवाले आत्मा के सम्बन्धर्मे और आकाशके साथ हुये उसके सम्बन्धमें आप विशेषता ( फर्क ) को सिद्ध नहीं कर सकते हैं ।
यस्य सर्वथा निरतिशयः पुरुषस्तस्य ज्ञानसंसर्गादपि न ज्ञानखभावोऽसौ गगनबत् । कवमन्यथा चैत पुरुषस्य स्वरूपमिति न विरुध्यते १ ततो न कपिलो मोक्षमार्गस्य प्रणेता येन संस्तुत्यः स्यात् ।
जिस सांख्यके यहां आत्मा सर्वथा निरतिशय माना गया है अर्थात् वात्मोअनाधेयाप्रदेयातिक्षय है अर्थात् कूटस्थ नित्य है सर्वदा वह का वही रहता है, दूसरोंके सम्बन्ध होनेपर मी न कुछ विशेषताओंको लेता है और न अपनी पुरानी विशेषताओंको छोडता ही है, परिणामी नहीं है, उस सांख्यके यहां ज्ञानके सम्बन्धसे भी ज्ञानस्वभाववाला वह आत्मा नहीं हो सकता है। जैसे कि सर्वथा जडस्वरूप आकाश ज्ञानस्वभावी नहीं है। अन्यथा यानी यदि आप आत्माको ज्ञानस्वभाव मान लोगे तो " पुरुषका स्वरूप चैतन्य है " इस ग्रंथका विरोध कैसे नहीं होगा ? अवश्य होगा, तिस कारणसे स्वयं ज्ञानरहित कपिल ऋषि मोक्षमार्गका प्रणयन करनेवाला नहीं सिद्ध होपाता है । जिससे कि शिष्यजनोंके द्वारा भले प्रकार उसकी स्तुति की जावे, अर्थात् जो मोक्षमार्गका विधान नहीं करता है उसकी प्रशंसा स्तुति भी कोई नहीं करता है I
एतेनैवेश्वरः श्रेयःपथप्रख्यापनेऽप्रभुः ।
व्याख्यातोऽचेतनो ह्येष ज्ञानादर्थान्तरत्वतः ॥ ६६ ॥
अपने से भिन्न पढे हुए प्राकृतिक ज्ञानके सम्बन्धसे ज्ञानी होकर भी जैसे कपिल मोक्षमार्ग का उपदेश नहीं दे सकते है, उसी प्रकार उक्त कथनसे ही यह भी व्याख्यान कर दिया गया है कि अपने से सर्वथा मित्र ज्ञानका सम्बन्ध रखनेवाला नैयायिक, वैशेषिकोंके द्वारा माना हुआ. यह