SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 207
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०० तत्त्वाचिन्तामणिः नहि सुषुप्तस्य सुषुप्तदशायां विवक्षासंवेदनमस्ति तदभावप्रसंगात् ।। सोता हुआ पुरुष कभी कभी अंटसंट बडबडाने लगता है। उस समय उसके बोलनेकी इच्छा नहीं है । यदि बोलनेकी इच्छा होती तो अवश्य उस इच्छाका ज्ञान होता । आत्माके सुख, दुःख, इच्छ, ज्ञान आदि परिणाम, संवेदनात्मक है। जैसे कि घट, प, आदिक होनपर भी उनके जाननेमे हम विलम्ब करलेते हैं या नहीं भी जानते हैं। उस प्रकार दुःखके जाननेमें आत्मा विलम्ब नहीं करता है अथवा नहीं जानना चाहे सो भी नहीं, दुःख उत्पन्न हो जाय और आत्मा यह विचारे कि हे दुःख ! तुम ठहर जाओ। हम तुमको घंटेभर बाद जानेंगे। यह अशक्य है । सुख दुःख आदिक उत्पन्न होते ही अपना ज्ञान करा देते हैं । इच्छा मी अपना शान करानेचाही पर्याय है । इच्छाके उत्पन्न होते ही उसका ज्ञान अवश्य हो जाता है किन्तु गादनिद्रासे सोते हुए मनुष्यके सोती हुयी अवस्थामै बोलनेकी इच्छाका ज्ञान नहीं है । इस कारण हम जानते हैं कि उस समय इच्छा नहीं ही है । यदि इच्छा होती तो उसका ज्ञान अवश्य हो जाता और इच्छाके ज्ञान होनेपर वह सुप्तावस्था नहीं बन सकेगी। इच्छाका वेदन करना जागती अवस्थाका काम है । सचेतन होते रहना और सोजानेका विरोध है। पथादनुमानान्तरविवक्षासंबेदनमिति चेत्, न, लिंगाभावात् वचनादिलिंगमिति चेत्, सुषुप्तवचनादिजाँग्रवचनादिवा १ प्रथमपक्षे च्याप्स्यसिद्धिः, स्वतः परतो वा सुषुप्तवधनादेविवक्षापूर्वकत्वेन प्रतिपत्तुमक्तेः ।। शथनके पीछे उठनेपर दूसरे अनुमानोंसे उस समयकी बोलनेकी इच्छाका अच्छा ज्ञान होना मानोगे, सो तो ठीक नहीं है क्योंकि सोते हुए जीवकी वचनप्रवृत्तिको अनुमानप्रमाणसे इच्छापूर्वकपना सिद्ध करनेवाला कोई अच्छा हेतु नहीं है। यदि चौद्ध मन, वचन और शरीरकी चेष्टा आदिको इच्छा सिद्ध करनेके लिये हेतु मानेंगे तो हम पूंछते हैं कि " सोते हुए पुरुषके वचन आदिको हेतु मानोगे या जागते हुए पुरुषके वचन अथवा चेष्टाको हेतु स्वीकार करोगे" ? बताओ पहिला पक्ष स्वीकार करनेपर व्याप्तिकी सिद्धि नहीं है क्योंकि सोते हुए पुरुषके वचन आदिक सो विवक्षापूर्वक ही होते हैं । इस व्याप्तिको अपने आप अथवा दूसरेके द्वारा कोई समझ नहीं सकता है कारण कि सोता हुआ जीव उक्त व्याप्तिको कैसे प्रहण करेगा ? वह तो सो रहा है और जागता हुआ मनुष्य मी सोते हुए की वसन प्रकृतिका इच्छ पूर्वक होना कैसे जान सकता है ? वहतो व्याघात दोष है जिससे कि वह पीछेसे सोते हुए को कह देवे कि तुम्हारे सोते समय वचन इच्छापूर्वक निकले थे | यह तो वैसी ही विषम समस्या है कि जैसे कोई मनुष्य यह विचार करे कि मेरी मृत्यु के बाद घरकी व्यवस्था कैसी रहती है। इस पातको में अपनी जीवित अवस्थामै ही जान आऊं।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy