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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
वचनसामान्यस्य पौरुषेयत्वसिद्धौ विशिष्टं सूत्र वचनं सत्प्रयोतृकं प्रसिध्द्यत्येवेति सूक्तं " सिद्धे मोक्षमार्गस्य नेतरि प्रबन्धेन तं सूत्रमादिमं शास्त्रस्येति " ।
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जब अक्षरात्मक सभी सामान्य वचनोंको पुरुषोंके प्रयत्नसे जन्यपना सिद्ध होगया तो सूत्रकारके " सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः " आदि विशेषवचनोंको तो सज्जन आप्तपुरुषोंके द्वारा बनाया जानापन प्रसिद्ध हो ही जाता है । इस प्रकार हमने जो पहिले वार्त्तिकमै कहा था कि मोक्षमार्ग प्राप्त करनेवाले सर्वज्ञके सिद्ध हो जानेपर तत्त्वार्थशास्त्र आदिका सूत्र प्रवृत्त हुआ अर्थात् समीचीन रचना उमास्वामी आचार्य महोदयने बनाया है । यह हमारा कहना बहुत ठीक था ।
तथाप्यन | मूलमिदं वक्तृसामान्ये प्रवृचच्चाद्दुष्ट पुरुषवचनवदिति न मन्तव्यम्, साक्षात्प्रयुद्धाशेषतत्त्वार्थे प्रक्षीणकल्मषे चेति विशेषणात् सूत्रं हि सत्यं सयुक्तिकं चोच्यते 'हेतुमचयं' इति सूत्रलक्षणवचनात् तच्च कथमसर्वज्ञे दोषवति च वक्तरि प्रवर्त्तते १ सूत्राभासत्व प्रसंगाद्ब्रहस्पत्यादिसूत्र वसतोऽर्थतः सर्वशवीतरागप्रणेतृकमिदं सूत्रं सूत्रत्वान्यथानुपपत्तेः ।
उक्त कथनसे शब्द अनित्य सिद्ध होगया, विशेष कर तत्त्वार्थसूत्र को भी पौरुषेयपना सिद्ध हो चुका । ऐसी दशा में फिर भी कोई पूर्वपक्ष करता है कि जैनों का अनित्य सिद्ध करना तो ठीक है किंतु यह तत्त्वार्थसूत्र सत्यवक्ता पुरुषोंको मूल कारण मानकर पैदा नहीं हुआ । साधारण बोलनेवाले मनुष्यने ही सूत्र को बनाकर प्रवृत्ति में ला दिया है, जैसे कि झूठ बोलनेवाले, चोरी करने वाले दोषी पुरुष अण्टण्ट बातें गढ़ दिया करते हैं । यहाँ आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार पूर्वपक्षीको नहीं मानना चाहिये क्योंकि हमने मोक्षमार्गके प्राप्त करानेवाले आदिसूत्र के वकाने दो विशेषण माने हैं। प्रथम तो आदिवक्ताका गुण केवलज्ञानके द्वारा सम्पूर्ण पदार्थोंको प्रत्यक्ष कर चुकना है । तथा दूसरा विशेषण ज्ञान, दर्शन, वीर्य, चारित्र और सुख को घातनेवाले सम्पूर्ण कमका क्षय कर देना है । जब कि यह ग्रंथ तस्वार्थसूत्र है और सूत्र नियमसे वह कहा जाता है जो अका युक्तिसहित सत्यरूपसे निरूपण करे । अन्य ग्रंथोंमें भी सूत्रका यही अर्थ कहा है कि 'तर्क और हेतुवाला होकर जो यथार्थमें सत्य हो' । उक्त लक्षण से सहित तस्वार्थसूत्र ग्रंथ किस प्रकार अल्पज्ञ और दोषयुक्त वक्ता के होने पर प्रवृत्त हो सकता है ? अर्थात् नहीं । असर्वज्ञ, दोषी, उत्सूत्रभाषी वक्ता द्वारा कहा हुआ वचन सूत्र न होकर सूत्राभास ( कुसूत्र ) ही होगा । बृहस्पति, स्वरपट, आदि सूत्रसमान वच्त्रार्थसूत्र को भी सूत्राभासपने का प्रसङ्ग आजावेगा अर्थात् - जैसे कि चार्वाकदर्शन बृहस्पति ऋषिने बनाया है उन्होंने स्वतंत्र आत्मा तत्र नहीं माना है । स्वर्ग, नरक, परलोक, पुण्य, पाप, नहीं माने हैं । संसारपरिपाटीको पुष्ट किया है । मोक्षमार्गका ज्ञान नही कराया और काम-पुरुषार्थको पोषनेवाले वात्स्यायन ऋषिने कामसूत्र बनाया है । उसमें उद्यानगमन, जल
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