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________________ तत्त्वार्ज चिन्तामणिः यदि मीमांसक यों कहें कि परोक्षरूप से भूत, भविष्यत्, देशांतरकी वस्तुएं, और पुण्य, पाप आदिको जान लेनेरूप चमत्कारको धारण करनेवाली बुद्धिसे युक्त होरहे मनु, याज्ञवल्क आदि ऋषि वेद अर्थको जानते थे, वे ही ऋषि आजतक इम लोगोंको वेदका समीचीन अर्थ निर्णय करानेमें बाराप्रवाहसे कारण हैं ही। इसपर हम जैन पूंछते हैं कि उनकी बुद्धिमें पैसा सूक्ष्म, मूत विष्यत् अर्थोके जानने रूप चमत्कार कहांसे आया ! बताओ । 7 કર श्रुत्यर्थ स्मृत्यतिशयादिति चेत्, सोऽपि कुतः ? यदि आप यह कहोगे कि वेदके अर्थोका पूर्णरूपसे स्मरण रखनेकी विशेषता उनमें थी उससे प्रज्ञाका अतिशय हुआ, तभी तो उन्होंने वेदके स्मरणरूप मनुस्मृति, याज्ञवल्कस्मृति आदि ग्रंथ बनाये हैं। यहां पर हम जैन पूंछते हैं कि मनु, याज्ञवल्क अनादि कालके पुरुष तो हैं ही नहीं, उन्होंने भी कभी न कमी जन्म लिया है। फिर विना गुरुके वेदके अर्थका पूर्णरूपसे वह स्मरण करनारूप अतिशय उनके कैसे कहा जाय ! विना गुरुपरिपाटीके स्वतः ही वेद अर्थका स्मरण मानने पर गली में घूमने वाले आदमियोंको भी उसका स्मरण मानना पडेगा । अतः बताओ कि मनु आदिको अनुभवके विना स्मरण करनेकी विशिष्टता कहांसे ? | पूर्वजन्मनि श्रुत्यभ्यासादिति चेत्, स तस्य खतोऽन्यतो वा १ स्वतश्चेत् सर्वस्य स्थात् तस्यादृष्टविशेषाद्वेदाभ्यासः स्वतो युक्तो, न सर्वस्य तदभावादिति चेत् कुतोऽस्यैवादृष्टविशेषस्ताङग्वेदार्थानुष्ठानादिति चेत्, तर्हि स वेदार्थस्य स्वयं ज्ञातस्यानुष्ठाता स्यादज्ञातस्य वापि, न तावदुत्तरः पक्षोऽतिप्रसंगात्, स्वयं ज्ञातस्य चेत्, परस्पराश्रयः सति वेदार्थस्य ज्ञाने तदनुष्ठानाददृष्टविशेषः सति वादृष्टविशेषे स्वयं वेदार्थस्य परिज्ञानमिति । मनु आदिक ऋषियोंने अपने पूर्व जन्ममै वेदका अच्छी तरहसे अभ्यास किया है, अतः इस जन्म में उनको वेदके अर्थका चमत्कार स्मरण है यदि आप मीमांसक ऐसा कहोगे सो हमारा प्रश्न है कि मनु महाराजने पूर्वजन्म में वेदका अभ्यास स्वयं अपने आप किया था ! या अन्य किसी गुरुकी सहायता से बताओ । यदि स्वतः ही अभ्यास किया मानोगे तो सभी मनुष्यों को वेदका स्मरण मानना पड़ेगा | स्वतः ही वेदका अध्ययन तो सब जीवोंको विनामूल्य ( सस्ता ) पडता है, अतः सभी वेदज्ञ माने जायेंगे, एक मनु आदिमें ही क्या विशेषता है ? स्वतः प्राप्त हुआ पदार्थ आकाश के समान सर्वत्र केवलान्वयी है। यदि आप मीमांसक यह कहोगे कि मनु, याज्ञवल्क, जैमिनि ऋषियोंको अपने पूर्व जन्म में विलक्षण पुण्य प्राप्त था । अतः उनको ही अपने आप वेदका पूर्ण अभ्यास पुण्यवश हुआ | इतर सर्व जीवोंको तादृश पुण्यविशेष न होनेसे वेदार्थका ज्ञानाभ्यास
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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