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________________ सत्यार्थचिन्तामणिः आप प्रमाण नहीं मानेंगे तो संपूर्ण आत्माओंका ज्ञान और ज्ञापकोपलम्भनका स्मरण होनारूप साममी न होनेसे उस अभावप्रमाणका उत्थान नहीं हो सकता है। एवं च अभावप्रमाणसे ज्ञापकानुपलम्भन-हेतुको जब न जान सके तब सर्वज्ञका अभाव भी अनुमानसे सिद्ध नहीं कर सकते हो || १३१ नहि प्रमाणात्सिद्धे सर्वज्ञज्ञापको पलम्मे परोपगमोऽसिद्धो नाम यतस्तचास्थिता साधनेऽन्योन्यं व्याघातो न स्यात् प्रमाणमन्तरेण तु स न सिद्धयत्येवेति तत्सामम्न्यभाव एव । जब कि सर्वज्ञके ज्ञापक प्रमाणोंकी उपलब्धि प्रमाणसे सिद्ध हो चुकी है। ऐसी दशा में दूसरे सर्वज्ञवादियोंका अनेक आत्माओं को सर्वज्ञ स्वीकार करना मीमांसकोंके लिये कैसे भी असिद्ध नहीं है, जिससे कि उस सर्वज्ञका नास्तिपन सिद्ध करने में मीमांसकों के परस्पर पूर्वापरविरुद्ध यच व्याघात दोष न हो सके । अर्थात् हमारे कहने के अनुसार सर्वज्ञ - आत्माओं को आपने थोडी देर के लिये कल्पित माना था। जब वह प्रमाणसे सिद्ध हो चुका तब उसके विरुद्ध स्वयं बोलने में मीमांसकोंके ऊपर व्याघात हो जाता है । प्रमाणके विना तो सर्वज्ञके ज्ञापकोंका उपलम्भ सिद्ध होता नहीं है किन्तु जब होगा प्रमाण से ही होगा | इस प्रकार मीमांसकों के यहां अभावप्रमाणके उत्पन्न होनेकी कारणकूटरूप सामग्रीका अभाव ही हैं। प्रमाणके विना आपका ज्ञाप कानुमान हेतु भी सिद्ध नहीं होता है । अतः सर्वज्ञका अभाव तो सिद्ध नहीं हुआ किंतु उलटा अभावमा सामग्रीका अभाव होगया " सेयमुभयतः पाशा रज्जुः " रस्सी में दोनों तरफ फांसे हैं, इस न्यायसे मीमांसकोको दोनों तरहसे सर्वज्ञ मानना पडता है । सर्वज्ञका नास्तिपन अभाव प्रमाणसे सिद्ध करें तो भी सर्वज्ञ मानना पडता है और सर्वज्ञका अभाव न करें तब तो सर्वज्ञ स्वयं सिद्ध है ही । I नन्वेवं सर्वथैकान्तः परोपगमतः कथम् । सिद्धो निषिध्यते जैनैरिति चोद्यं न धमिताम् ॥ २८ ॥ यहां मीमांसक शंका करते हुए कटाक्ष करते हैं कि, जैनोंने सर्वथा एकान्तका निषेध किया है वह कैसे सिद्ध होगा ? क्योंकि स्याद्वादी विद्वान् भी सर्वप्रकारसे कूटस्थ नित्यपन या एकक्षण पैदा होकर द्वितीयक्षणमे सर्वथा ध्वंस हो जानारूप अनित्यपन- एकांतीका अभाव मानते हैं। वह मी तो आप दूसरे सांख्य, बौद्ध, आदिके स्वीकार किये गये ही एकांतोंका अभाव सिद्ध करते हैं । हम भी यहां कह सकते हैं कि यदि सांख्य, बौद्धोंका मन्तव्य आपको प्रमाणसे सिद्ध है। और फिर आप जैन उनके माने हुए एकांतोंका अभाव सिद्ध करते हो तब तो आपके कथन में भी परस्परव्याघात दोष हुआ और यदि आप सांख्य, बौद्ध आदिके मन्तव्योंको प्रमाण नहीं मानते हैं तो विना एकान्तोंकी विधिके उनका निषेध कैसे कर सकते हैं !' ' संज्ञिनः प्रतिषेधो न प्रति
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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