SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३० तत्त्वार्थैचिन्तामणिः ज्ञापक प्रमाणोंके उपलम्भके अभावको सिद्ध नहीं कर सकता है--असम्भव है । क्योंकि अभावप्रमाण के उत्पन्न होने आधारका और प्रतियोगीकारण है, उसकी सामग्री वहां है नहीं । अर्थात् सम्पूर्ण मनुष्यों का ज्ञान और सर्वज्ञके ज्ञापक प्रमाणोंका स्मरण है नहीं, विना कारणके कार्य कैसे उत्पन्न हो सकता है ! | ननु च विवादापवशेषप्रमातृषु तदुपगमादेव सिद्धः सर्वज्ञापकोपलम्भो नास्तीति साध्यते ततो नाभावप्रमाणस्य तत्रोत्थानसामय्यभाव इत्यारेकार्या परोपगमस्य प्रमाणत्वाप्रमाणत्वयोदूषणमाह । यहां मीमांसक और भी स्वपक्षकी अवधारणा करते हैं कि सर्वशको माननेवाले बौद्ध, जैन, नैयायिक आदि हैं और सर्वज्ञको न माननेवाले मीमांसक, चार्वाक आदि हैं। जब कि विवादमें पढे हुए जैन और नैयायिक सर्वज्ञके ज्ञापकप्रमाणोंका उपलम्भ करते हैं तो उनके मन्तव्य के अनुसार सर्वज्ञापकके उपलम्भको हम थोडी देरके लिये कल्पनासे सिद्ध मानते हैं। बाद प्रामाणिक अमात्र प्रमाणसे झापक प्रमाणों के उपलम्भका उन ही विवादमस्त सम्पूर्ण आत्माओं में अभाव है ऐसा सिद्ध कर देते हैं । उस कारण से वहां अभावप्रमाणकी उत्पचि करानेवाली सामग्रीका अभाव नहीं है । सर्वज्ञवादियोंने जिन आत्माओं में सर्वज्ञके ज्ञापक प्रमाणों का उपलम्भ माना है उनके स्वीकार करनेसे ही हमने निषेध्यके आधार सम्पूर्ण आत्माओंका ज्ञान कर लिया है और उनके जाने हुए ज्ञापकोपलम्भका स्मरण भी अभाव प्रमाणको उत्पन्न करते समय हमको होजाता है । हल प्रकार मीमांसकोंकी शंका होनेपर दूसरे सर्वज्ञवादियोंका मन्तव्य मीमांसकों को प्रमाण है या अप्रमाण ! ऐसा पक्ष उठाकर उनमें आचार्य महाराज स्पष्टरूपसे दूषण कहते हैं । परोपगमतः सिद्धस्स चेन्नास्तीति गम्यते । व्याघातस्तत्प्रमाणत्वेऽन्योऽन्यं सिद्धो न सोऽन्यथा ॥ २७ ॥ यदि आप मीमांसक हम दूसरे सर्वज्ञयादियोंके स्वीकार करनेसे सर्वज्ञ शापक प्रमाणोंको सिद्ध मानकर पुन: ज्ञापकोपलम्भका नास्तिपना अभावप्रमाणसे यों जान लेते हो तब वो ऐसी दशा में हम पूंछते हैं कि उन (हम) सर्वज्ञवादियों के ज्ञापकोपलम्भका स्वीकार करना यदि आपको प्रमाण है तब तो आपके कथनमें परस्पर में व्याघातदोष है । अर्थात् सर्वेशवादीके मतको प्रमाण माननेपर आप ज्ञापकोपलम्भका नास्तिपन सिद्ध नहीं कर सकते हैं और यदि ज्ञापकोपलम्भनका नास्तिपन सिद्ध करते हो तो सर्ववाके अभ्युपगमको प्रमाण नहीं मान सकते हैं। दोनों के माननेमें वदतोव्याघात दोष है । भावार्थ-न सन् और न असन् समान उस पूर्वापर विरुद्ध या तुल्यबल विरुद्ध मातको बोलनेवालेका अपने से ही अपना घात हुआ जाता है । अन्यप्रकारसे यदि सर्वज्ञवादियोंके मन्तव्यको
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy