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________________ तस्यार्थचिन्तामणिः वाले मोतियोंका अपने उपादानकारण जलमै अन्तर्भाव होजानेक कारण मोतियोंको जलपनेका आपादन हो जावेगा, क्योंकि विशेष नक्षत्र भाविके योग होनेपर सीपमें पड़े हुए जलकाही कालान्तरमें मोतीरूप परिसन्न हो जाता है : तग. मागले नहर होनेपर पृथ्वीतत्वका विकार मानी गयी चन्द्रकान्तमणिसे जल उत्पन्न हो जाता है तो उस जलको भी पाभियपनेका अतिक्रमण न होगा, अर्थात् जल भी अपने उपादान चन्द्रकान्तमणिरूप पृथ्वीतत्त्वम गर्मित हो जावेगा। इस प्रकार आपके माने हुए पृथ्वी, अप, तेज, वायु इन चार तत्त्वोंकी व्यवस्था न हो सकेगी। क्योंकि चनेसे पेटमै वायु, वायुसे आकाशमै जल, जलसे वृझमें काष्ठ, काष्ठसे जलने पर अमि और अमिसे राख इत्यादि संकरपनेसे उपादान उपोदय भाव होरहा है । यदि पुनः काष्ठादयोऽनलादीनां नोपादानहेतवस्तदानुपादानानलाद्युत्पत्तिः कल्पनीया, सा च न युक्ता प्रमाणविरोधात् । यदि आप फिर काठ, जल और चंद्रकांतको आग, मोती और जळका समवायिकारण नहीं मानोगे तक तो विना उपादानकारणके अग्नि, मोती, आदि की उत्पत्ति कपित करनी पड़ेगी और वह कल्पना करना तो ठीक नहीं है क्योंकि बिना उपादान कारण के कार्योंकी उत्पत्ति मानने प्रमाणोंसे विरोध है। सर्व बाल गोपाल इष्ट कार्योंके सम्पन्न करने के लिये प्रथम ही उपादान कारगोंको ढूंढते हैं । समवायीकारण ही कार्यस्वरूप परिणत होता है। ततः स्वयमदृष्टस्यापि पावकायुपादानस्य कल्पनायां चितोऽप्युपादानमवश्यमभ्युपेयम्। इस कारण आप काष्ठके भीतर निजरूपसे नहीं दीखते हुए भी अमि तत्त्वको दृश्यमान अनिके उपादान कारणकी कल्पना करोगे तो उसीसे चैतन्यका भी उपायान कारण मामा आपको अवश्य स्वीकार करना चाहिए । न्यायमार्ग सबके लिए एकसा होता है । सूक्ष्मो भूतविशेषश्चेदुपादानं चितो मतम् । स एवात्मास्तु चिजातिसमन्वितवपुर्यदि ॥ ११६ ॥ स्थूल पृथ्वी आदिकमें रहनेवाला विलक्षण प्रकारका अत्यंत सूक्ष्मभूत यदि चैतन्यका उरादान कारण आपने माना है तो यदि उस सूक्ष्ममूतका डील अनाधनंत अन्वितरूप करके पैतन्यशक्तिसे सहित है, तब तो वहीं चेतना नामक नित्य सदृश्परिणति-स्वरूप शरीरका धारी आमा तत्त्व होओ, आपने उस चित् शक्तिवाले तत्वका नाम सूक्ष्मभूत रख लिया है। हम उसको जीव या आस्मा कहते हैं। हमारे और आपके केवल शब्दों में अंतर है अर्थमें नहीं। तद्विजातिः कथं नाम चिदुपादानकारणम् । भवतस्तेजसोऽभोवत्तथैवाष्टकल्पना ॥ ११७ ॥
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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