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________________ तस्वार्थचिन्तामणिः कि शब्दादिकके उपादानका अनुमान करना जैनोंकी नहीं देखे हुए पदार्थकी व्यर्थ कल्पना है। घटमे तो मिट्टी उपादान देखी जाती है किंतु शब्दमें कोई उणदान नहीं देखा जाता है। ग्रंथकार कहते हैं कि यदि चार्वाक यो कहेगे तो हम कहते हैं कि काठके जलनेपर अमि होनेकी अवस्था चार्वाक लोग काठरूप पृथिवीतत्त्वके भीतर अमितत्त्वसे ही दूसरी अनिके उत्पन्न होजाने रूप क्यों अष्टकी कल्पना करते हैं ! ताओ । जैनसिद्धांतके अनुसार काष्ठरूप पुद्गल ही अमिरूप परिणत हो जाता है । ऐसा देखा हुआ ही पदार्थ क्यों न माना जावे अर्थात् शुक्ल, शुष्क, ठण्डा, कठिन, पौरालिक काष्ठ ही उष्ण, लाल, नर्म, चमकता हुआ अमिरूप बन गया है। जिससे कि अमितत्त्व सिद्ध न होनेसे चार्वाकोंके तत्वोंकी संख्या क्यों नहीं नष्ट होजावेगी! तीन दो और परिशेषमें विचार करते हुए एक पुद्गल तत्त्व ही रह जावेगा, यदि काष्ठमें नहीं दीखनेमे आवे ऐसे ममिसत्यकी कल्पना करोगे तो उसीके समान होनेसे शब्द आदिकोंके उपादान कारण भी अनिवार्य मानने पडेंगे । जहवाय ( साइन्स ) भी विना उपादानके कार्यों का विकास होना नहीं मानता है। आपके काठके भीतर अमितत्त्वको अदृष्टरूपस मानने और हमारे शब्दके अदृष्ट उपादान कारणों के मानने कोई अंतर नहीं है। प्रत्यक्षतोऽप्रतीतस्य शब्दाशुपादानस्सानुमानात्साधने परस्य पबदृष्टकल्पनं तदा प्रस्थक्षतोऽप्रवीवारकाष्टान्तर्गवादझेरनुमीयमानाम्न्यन्वरसमुद्भवसाधने तदाष्टकल्पने कपन स्याभूतवादिनः सर्वेया विशेषाभावात् । यदि शब्द, बिजली, आदिफे इंद्रियपत्यक्षसे नहीं जानने आवे ऐसे उपादान कारणों को अनुमानसे सिद्ध करनेमें दूसरे वादी जैनोंके ऊपर आप अदृष्ट पदार्थकी कश्पना करने का उपालम्भ देंगे सब तो काष्ठके भीतर प्रत्यक्षसे लेशमात्र भी नहीं देखने में आये ऐसे कारणस्वरूप वूसरे तत्तसे अनुमान द्वारा अग्निकी समीचीन उत्पत्ति सिद्ध करनेमें मूतवादी चार्वाकको सर्वथा नहीं देखी हुयी की कल्पना करनासपी वह दोष क्यों नहीं लागू होगा ! अवश्य लगेगा | अनुमानके द्वारा अदृष्टततकी कल्पना करनेमें हमसे तुममें किसी भी प्रकारसे अंतर नहीं है ।। काष्ठादेवानलोत्पत्ती क तवसंख्याव्यवस्था, काष्ठोपादेयस्यानलस्य काष्ठेतरवामावात् पृथिवीत्वप्रसक्तः। पार्थिवानां च मुक्ताफलानां स्त्रोपादाने जलेऽन्तर्मावाजलखापरोजलस्य च चंद्रकांवादुद्भवतः पार्थिवत्वानविक्रमात् । यदि काठसे ही अमिकी उत्पत्ति मानोगे और काटके भीतर अदृष्ट अमितत्त्व नहीं स्वीकार करोगे, सो बार संख्यावाले तत्वोंकी व्यवस्था कहां रही! पृथ्वीरूप काष्ठको उपावन कारण स्वीकार कर उत्पन्न हुयी उपादेय अमिको पार्थिवकाष्ठसे भिन्नपनेका अभाव हो जानेके कारण पूच्चीपचेकर पसंग हो जायेगा । तथा इसी प्रकार पृथ्वीके विकारस्वरूप कठिन, भारी और गन्ध
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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