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सत्वार्थचिन्तामणिः
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तथोप्येवंविधविशेषाक्रान्तानि सम्यग्दर्शनादीनि मोक्षमार्ग इत्यशेषतोऽतीन्द्रियप्रत्यक्षतो भगवान् परममुनिः साक्षात्कुरुते, तदुपदेशाद्गणाधिपः प्रत्येति, तदुपदेशादप्यन्यस्तदुपदेशाच्चापर इति सम्प्रदायस्याव्यवच्छेदः सदा तदन्यथोपदेशाभावात्, तस्याविरोधश्च प्रत्यक्षादिविरोधस्याभावात् ।
जिस प्रकार जाति, वर्ण, गोत्र आदि जानने के लिये जो कुछ विशेषताएं हम लोग देखते हैं और उन विशिष्ट कार्योंसे भिन्न भिन्न कुलोंका अनुमान भी कर लेते हैं, उसी प्रकार मोक्षके मार्ग सम्यदर्शन आदि जीवों के कायोंमें भी शांति संवेग, आस्तिक्य भेदविज्ञान और स्त्ररूपाचरणकी विशेषतायें आजाती हैं। उन विशेषताओंले सम्यग्दर्शन आदिको मोक्षमार्गपनेका अनुमान करलेते हैं। • तथा साधुओं में सर्वोत्कृष्ट सर्वज्ञ जिनेन्द्र भगवान् अपने केवलज्ञान द्वारा पूर्ण रूपसे सम्यग्दर्शन आदि मोक्षके मार्ग हैं, ऐसा प्रत्यक्ष करलेते हैं । और तीर्थकर जिनेंद्रके उपदेशले गणधर देव आगमप्रमाण द्वारा निश्चय करलेसे हैं । तथा गणधर देवके उपदेशसे अन्य आचार्य आगमज्ञान करलेते हैं और अन्य आचार्यो प्रवचन शिष्यपरिपाटीले अद्यावधि चळे आरहे हैं । इस प्रकार मोक्षमार्गके उपदेशका सम्प्रदाय न टूटना सिद्ध है। इसके बिना माने दूसरे प्रकार से आजतक सबै वक्ताओंका उपदेश हो ही नहीं सकता था। किंतु मोक्षमार्गका सच्चा उपदेश प्रवर्तित होरहा है । तथा प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे इसमें कोई विशेष आता नहीं है । अतः गोत्र आदिके उपदेश के समान मोक्षमार्ग के उपवेशकी सम्प्रदाय न टूटने में भी कोई विरोध नहीं है। यहांतक मोक्षमार्ग के उपदेशकी आम्नायका न टूटना सिद्ध हुआ ।
गोत्राद्युपदेशस्य यत्र यदा यथा यस्याव्यवच्छेदस्तत्र तदा तथा तस्य प्रमाप्पत्वमपीष्टमिति चेत् मोक्षमार्गोपदेशस्य किमनिष्टम् ९ केवलमत्रेदानीमेवमस्मदादेस्तद्वयवच्छेदाभावात्प्रमाणता साध्यते ।
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यदि यहां मीमांसक ऐसा कहेंगे कि सधे खण्डेलवाल, अग्रवाल, पद्मावती पुरवाल, सेठी, पाटनी, शिरोमणि, आदि गोत्रोंकी जिस स्थानपर जिस कालमें और जिस प्रकारसे जिसकी सम्प्रदायका व्यवधान नहीं हुआ है उस जगह उस कालमै उस प्रकारसे उस गोत्र आदिकी प्रमाता मी हम इष्ट करते हैं, यदि ऐसा कहोगे तो मोक्षमार्गके उपदेशकी क्या प्रमाणता अनिष्ट है ! अर्थात् मोक्षमार्ग के उपदेशका मी विदेहक्षेत्रमै सर्वदा विद्यमान होरहे चतुर्थकालमे श्री १००८ तीर्थकरों के निरंतर उपदेश से मोक्षमार्गका व्यवधान नहीं हुआ है और इस मरतक्षेत्र में की अवसर्पिणीके चतुर्थ दुःषम सुषमा कालमै तथा उत्सर्पिणीके तृतीय दुष्षम सुषमा कालमें होनेवाले चौबीस
१. तत्रापि इति मुद्रित पुस्तके.