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________________ २६६ सत्यार्थचिन्तामणिः तक देखा जा रहा है । अतः वह प्रत्यक्ष प्रमाण वर्तमान अर्थकोही विषय करता है वैसे ही काल और उत्तरफालके पर्यायोंमें होनेवाले द्रव्यरूपसे एकपनेको विषय करता हुये स्वरूप करके तो प्रत्यभिज्ञान प्रमाण प्रतीत हो रहा है इस कारण प्रत्यभिज्ञानका गोचर एकत्त्व है इस बातको कौन नहीं इष्ट करेगा ? सर्व ही वादी प्रतिवादी न्याय्य बातको मान लेंगे। यहां यह बात विशेष समझ लेना कि ज्ञानको साकार और दर्शनको निराकार जैन सिद्धांत में माना है। आकारका अर्थ तो समझ लेना और दूसरों को समझा देनेकी योग्यता है । या स्वयं विशेषरूपसे प्रतिभासन हो जाना है। ज्ञान ही एक ऐसा गुण है जिसका निरूपण हो सकता है । सुख, दुःख, इच्छा, सम्यक्त्व, चारित्र, दर्शन, रूप, रस आदिका प्ररूपण या आख्यान नहीं होता है। यदि रूप आदिकको कोई कड़ेगा तो वह रूपज्ञानको हो कह रहा है। रूपको तो बादमें हम स्वयं श्रुतज्ञानसे जान लेते हैं। यदि रूप या सुखको ज्ञानद्वारा नहीं किंतु सीधा कह दिया जाता तो सुननेवाले सब श्रोताओंको अवश्य रूपज्ञान होजाना चाहिये कोई अत्रषि न रह सकेगा और सुन्व के कहने से सब सुखी बन जायेंगे किंतु ऐसा नहीं है । वक्ता के शब्दों से क्षयोपशमके अनुसार श्रोता ज्ञान पैदा कर लेते हैं। वह ज्ञान उसी समय ज्ञेयों के जानने में अमेमुख हो जाता है अतः समझ लो कि बक्ता अपने ज्ञानका निरूपण करता है तभी तो शिष्यको ज्ञान ही पैदा होता है। ज्ञान और शेयका निष्ठ सम्बंध होनेसे वह निरूपण ज्ञेयका बोला जाता है। ज्ञान और ज्ञेयमें तथा ज्ञान और उसके निरूपण में बादरायण संबंध है । एक पथिक, किसी महाजन के घर गया। सेठानीने उसे सेठका मित्र समझकर विशेष सत्कार किया और सेटने भी सेठानीके गांवका सम्बंधी समझ आदर किया। बात स्पष्ट होनेपर दोनोंने भी पथिकसे ही पूछा कि हमारे साथ आपके हेलमेल करनेका क्या कारण है ! पथिकने उत्तर दिया कि मेरे, घर के सामने वेरियाका पेद है और आपकी हथेली के पास मी वदरीवृक्ष है यही इमारा और आपका बादरायण सम्बंध है। "बदरी तरुब्ध युष्माकमस्माकं वदरी गृहे । वादरायणसम्बंधो यूयं यूयं क्यं वर्म " इस तरह अभ्ययीपरम्परा सम्बंध होते हैं जैसे कि वाध्यवाचक मात्र, प्रतिविम्बप्रतिविवक भाव आदि - कहां तो सिद्ध भगवान् परम विशुद्ध चेतन पदार्थ हैं और कहां उनका वाचक कण्ठतालु आदि तथा पुद्गल वर्गेणाओंसे बनाया गया अशुद्ध जड सिद्ध शब्द है। एवं कहां तो कांच और पारेसे बनाया गया प्रतिच्छाया लेनेवाला दर्पण या कागज स्यादी का तसवीर हैं और कहा सदाचारी शरीरधारी देववत चेसनद्रव्य प्रतिबिष्य है। ये सब आकाश पाताल के कुलाठोंको मिलाने के समान योजनायें हैं किंतु कार्यकारी हैं अतः सम्बंध माने गये हैं। साक्षात् सम्बंध तो संयोग, बंधन, और सादात्म्यही है अतः साक्षात् रूपसे ज्ञानको और परम्परासे ज्ञेय को समझना तथा समझा सकना ही ज्ञानकी साकारता है और अन्य सब गुण उस अपेक्षा से निराकार माने गये हैं। यदि आकारका अर्थ खम्बाई, चौडाई, मोटाई मानी जाये तो द्रव्यका जो आकार है उतना ही उसके गुणोंका भी आकार है । एवं च दर्शन, सुख, चारित्रगुण भी साकार हो जायेंगे, 1
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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