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________________ तस्वार्थचिन्तामणिः २६७ बौद्ध लोग ही ज्ञानको दर्पणके समान साकार मानते हैं । जैन लोग उन बौद्धोंका खण्डन कर देते हैं। साकार ज्ञान मानने पर कोई सर्वज्ञ न होगा क्योंकि इस समय मूत भविष्यत् पदार्थ ही जब नहीं हैं तो उनका प्रतिविम्बरूप आकार क्या पड़ेगा? तथा स्मरणज्ञान भी न हो सकेगा, प्रति बिम्ब तो वर्तमान पदायाँका पडता है, अविधमानों का नहीं। इस्यादि अन्यत्र विस्तारसे प्रतिपादन हैं। नन्वनुभूतानुभूयमानपरिणामवृत्तेरेकत्वस्य प्रत्यभिज्ञानविषयत्वेऽतीतानुभूताखिलपरिणामवर्तिनोऽनागवपरिणामवानश्च तद्विषयत्वप्रसाक्तः, भिन्नकालपरिणामवर्तित्वाविशेपात्, अन्यथानुभूतानुभूयमानपरिणामवर्तिनोऽपि तदविषयत्वापचेरिति चेत् , बर्हि साम्भतिकपर्यायस्य प्रत्यक्षविषयत्वे कस्यचित्सकलदेशवर्तिनोऽप्यध्यक्षविषयता स्यादन्यथेष्टस्यापि सदभावा, साम्प्रतिकत्वाविशेषात् , तदविशेषेऽपि योग्यताविशेषात् साम्प्रतिकाकारस्य कस्यचिदेवाज्यक्षविषयत्वं न सर्वस्यति चेत्तर्हि बौद्ध शंका करते हैं कि मूतकालमें अनुभव किये जा चुके और वर्तमानमें अनुभव किये जा रहे परिणामोंमें ठहरनेवाले एकपनेको यदि प्रत्यभिज्ञानका विषय होना मानोगे सो पूर्वकालसंवत्री अनुभव किये गये सम्पूर्ण परिणामों में रहनेवाले और सभी भविष्य परिणामों में रहनेवाले अनेक एकरवोंको भी उस पत्यभिज्ञानकी विषयताका प्रसंग आता है, क्योंकि समीप भूत और वर्तमानमें रहनेवाला एकल जैसे भिन्न कालके परिणामों में वर्दनेवाला है उसीके समान चिरभूत और लम्बा भविष्यत् परिणामों में रहनेवाला एकत्व भी है। भिन्नकालके परिणामों में रहनेकी अपेक्षासे इनमें कोई अंतर नहीं है । अन्यथा यानी यदि भिन्नकालमें रहनेवाले एकत्वको प्रत्यभिज्ञानका विषय नहीं मानोगे तो जैनोंके मतभे अनुभव किये जा चुके और अनुमवमें आ रहे कतिपय परिणामों में रहनेवाला यह एकल मी प्रत्यभिज्ञानका विषय न हो सकेगा यह आपति होगी। अब ग्रंथकार कहते है कि यदि बौद्ध यों कहेंगे रुष तो उनके प्रत्यक्षपर भी यह कटाक्ष हो सकता है कि आप पौद्ध वर्तमान कालकी पर्यायको अल्पज्ञके प्रत्यक्षका विषय मानोगे तो सम्पूर्ण देशों में रहनेवाली वर्तमान कालकी पर्यायें भी किसी भी साधारण मनुष्य के प्रत्यक्षका विषय हो जावेगी। अन्यप्रकारसे यानी पदि वर्तमानकी पर्यायोंको प्रत्यक्षका विषय न मानोगे तो आपका इष्ट किया गया प्रत्यक्ष मी उस वर्तमानकी पर्यायको नहीं जान सकेगा, क्योंकि अनेक देशों में रहनेवाली विद्यमान पर्यायों में और संमुख रहनेवाली उस पर्याय में वर्तमान कालमें विद्यमान होनेकी अपेक्षा कोई अंतर नहीं है उस कुछ अंतरके नहीं रहते हुए भी ज्ञानकी विशिष्ट श्योपशमसे होनेवाली परिमित शक्तिरूप विशेष योग्यतासे वर्तमान सन्मुख पर्याय ही किसी के प्रत्यक्षका विषय है । सम्पूर्ण देशवर्ती वर्तमान कालकी पर्याय प्रत्यक्षका विषय नहीं हैं। इस प्रकार कहोगे तब तो-दम जैन भी यों कहते हैं उसे दत्तचित्त होकर सुनिये ।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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