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चिन्तामणिः
चारों ओरसे नष्ट करदेता है और प्रत्येक द्रव्यमें वह सम्बंध न्यारा न्यारा होकर अनेक प्रकारका है। भावार्थ – अनेक शक्ति और अनेक शक्तिमानोंके तादात्म्य सम्बंध भी अनेक हैं। आपके कल्पित समवाय के समान तादाम्ब सम्बंध एक नहीं है ।
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कथञ्चित्तादात्म्यमेव समवाथिनामेकममूर्त सर्वगतमिहेदमिति प्रत्ययनिमित्तं समवायोsर्थभेदाभावादिति मामस्त, तस्य प्रतिद्रव्यमनेकमकारत्वात्, तथैवाबाधितज्ञानारूढस्वात्, मूर्तिमद्रव्यपर्याय तादात्म्यं हि मूर्तिमज्जायते नामूर्त, अमूर्तद्रव्यपर्यायतादात्म्यं पुनरमूर्तमेव, तथा सर्वगतद्रव्यपर्यायतादात्म्यं सर्वगतम्, असर्वगतद्रव्यपर्यायतादात्म्यं पुनरसर्वगतमेव, तथा चेतनेतर द्रव्यपर्यायतादात्म्यं चेतनेतररूपमित्यनेकधा तत्सिद्धं शक्तितद्वयो: सर्वथा भेदमाइत्येव ।
यदि नैयायिक यों मान बैठें कि जिसको जैन विद्वान् कथञ्चित् तादात्म्यसंबंध कहते हैं, वहीं हमारा समवायी पदार्थोंका समवाय एक है, अमूर्त है, सब स्थानोंपर रहता हुआ व्यापक है और " यहां यह है " अर्थात् घट रूप है, आत्मामें ज्ञान है । इस प्रकार सप्तम्यन्त और प्रथमांत समभिव्याहारकी प्रतीतियोंका निमित्त है । आप जैन भी अपने कथञ्चित् तादात्म्य संबंधको ऐसा ही मानते होंगे । अतः हमारे समवाय और आपके तादात्म्यमें कोई अर्थका भेद नहीं है, केवल शब्दभेद है । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार नैयायिकों को नहीं मान बैठना चाहिये। क्योंकि हम वादात्म्यसंबंधको एक नहीं मानते हैं । अनेक संबंधी हो रहे द्रव्यों में रहनेवाले तादात्म्यसंबंध प्रत्येक द्रव्यमें एक एक होकर रहते हुए अनेक प्रकारके हैं । उस दी प्रकार संबंधोंकी अनेकता बाधारहित ज्ञानोंके द्वारा प्रतिष्ठित प्रतीतिकी शिवरपर चढी हुयी है । जब मूर्तिवाले द्रव्योंकी पर्याय होकर तादात्म्य संबंध जाना जा रहा है, उस समय वह संबंध मूर्तिमान् ही उत्पन्न हो जाता है, अमूर्त नहीं हैं। जैसे कि घटका और रूपका एवं अभि और उष्णताका तादात्म्यसंबंध भी अपने रूप, रस, गंध, स्पर्शवाले संबंधियोंसे अभिन्न होनेके कारण मूर्त हैं, यदि संसारी जीवोंको पुल द्रव्यके गंधकी अपेक्षा मूर्त माना जावेगा तो मूर्त जीवके साथ उसके मतिज्ञान, क्रोध आदिकों का तादात्म्यसंबंध भी मूर्त है । और जब अमूर्त द्रव्योंकी पर्याय होकर वह तादात्म्यसंबंध उत्पन्न होता है, तब तो फिर वह अमूर्त ही बन जाता है, जैसे कि रूप आदिसे रहित हो रहे आत्मामें ज्ञानका एवं कालं द्रव्यमे अस्तित्व, वस्तुत्वका तादात्म्यसंबंध अमूर्त है। तथा जब सर्वत्र लोकालोक या लोकमै व्यापक sent पर्याय होकर तादात्म्य होता है, तब वह तादाम्य भी सर्व व्यापक है, जैसे कि आकाशका महापरिमाणके साथ या केवलिसमुदुघात करते समय श्री जिनेंद्रदेवका स्वकीय केवलज्ञान और अनंतसुखके साथ होनेवाला तादात्म्यसंबंध व्यापक है । और सूब स्थानोंपर नहीं रहनेवाले व्याप्यद्रव्योंकी पर्याय बनकर उत्पन्न होनेवाला तादात्म्य भी फिर असर्वगत ही होता है। जैसे कि वृक्षकी शाखामे बंदरका तो संयोगसंबंध है किंतु बंदर के साथ संयोगका वादा है। क्योंकि संयोग दो या तीन
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