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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः इत्ययुक्तमनैकान्ताद्बुद्धचित्तेन तादृशा । हितैषित्वनिमित्तस्य सद्भावोऽपि समो द्वयोः ॥ ८४ ॥ चरमत्वविशेषस्तु नेतरस्य प्रसिद्धयति । ततोऽनन्तरनिर्वाणसिद्ध्यभावात्प्रमाणतः ॥ ८५ ॥ " खड्गिके अन्तका आसवरहित चित्त ( पक्ष) दूसरे भविष्यचित्तोंको धारारूपसे उत्पन्न नहीं करता है ( साध्य ) क्योंकि वह सहकारीकारणोंसे रहित है ( हेतु ) । जैसे बत्ती, सैलसे रहित अन्तकी दीपशिखा पुनः दूसरी कलिकाओंको पैदा नहीं करती है " (दृष्टान्त)। आचार्य कहते है कि इस प्रकार बौद्धोंका कहना युक्तिरहित है । उक्त हेतुका उस प्रकारके सहकारी कारणोंसे रहित होरहे बुद्धके चित्तसे ही व्यभिचार हो आवेगा । अर्थात् सहकारीरहितपना बुद्धफे चित्तमें है। किंतु दूसरे चित्तोंको नहीं पैदा करमारूप साध्य नहीं है । आपने बुद्धकी ज्ञानसन्तानको अनन्तकाल तक मसवशील माना है । यदि संसारी जीवोंके लिये हिप्तके चाहनेकी इच्छाको भविष्यमै ज्ञानसन्तान चलनेका निमित्त कारण मानोगे तो वह भी दोनोंके समानरूपसे विद्यमान है । जैसे बुद्धके जगत्के हित करनेकी अभिलाषा है । वैसी ही स्वगिक आत्माको शान्ति करनेकी अभिलाषा भी वर्तमान है । अतः दोनों की विज्ञानधास चलेगी। दूसरे खगिक विज्ञानमें अन्तमे होनेवाला यह विशेष भी सिद्ध नहीं है । क्योंकि बुद्धके समान खड्गि भी तो वस्तु है और वस्तु अनन्त काल तक परिणमन करती है । इस कारण अकेले खड्गिका ही निरन्वय नाश माना जाय और बुद्धको अनन्तकाल तक सन्तानझमसे स्थायी माना जाय, यह पक्षपात ठीक नहीं है । उस कारणसे आप प्रमाणोंके द्वारा अन्यसहित ज्ञानसन्तानका नाश हो जानारूप शान्त मोक्षको सिद्ध नहीं कर सकते हैं। अथवा दीपकके धन्सोंका भविष्य जैसे अन्तर नहीं है वैसा अन्तररहित अनन्तध्वन्सरूप मोक्ष नहीं कर सक्ता है। ___"खड्गिनो निरामवं चिसं चितान्तरं नारभते जगद्धितैषित्वाभावे चरमत्वे च सति सहकारिरहितत्वात् ताग्दीपशिखावदित्ययुक्तम्, सहकारिरहितत्वस्थ हतोबुद्धचिनानैकान्तात्, तद्विशेषणस्य हितैषित्वाभावस्य चरमत्त्वस्य चाऽसिद्धत्वात्, समानं हि तावद्धिवैषित्वं खगिसुगतयोरात्मजगद्विषयम् । __ ग्रन्थकार अपनी उक्त बार्तिकोंकी टीका करते हैं कि "खड्गिनामक मुक्तामाका मोक्ष होनेपर पूर्वज्ञानोंके संस्कारोंसे आनवरहित चित्त है । वह चित्त भविष्यमें दूसरे चित्तोंको पैदा नहीं करता है ( प्रतिज्ञा । क्योंकि खगिका चित जगत्का हितैषी न होकर और अन्तिम होता हुआ सहकारी
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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