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________________ सत्यार्थचिन्तामणिः - नहीं है, यदि ऐसा कहोगे जो इस पफार कमौरी पास समय होने वाले रूप, रस आदिकके ज्ञानोंको भी एक संतानपना क्यों न हो जाये क्योंकि ये भी सम्पूर्णज्ञान प्रमितिके उत्पादक करणज्ञानपना बहिरंग इंद्रियोंसे जम्ब होनेके कारण अंतररहित समान हैं फिर इनकी न्यारी न्यारी संतान क्यों मानी जारही है। संतानांवरकरणशानेष्यभिचार इति चेत्, तवापि संसानांतरविकल्पज्ञानः कृतो न व्यभिचारा? सौगत कहते हैं कि बहिरंग इंद्रियजन्य ज्ञान या प्रमाजनक प्रमाणाज्ञान तो देवदत्त, जिनदस, और इंद्रदत्तकी इंद्रियोंसे होनेवाले ज्ञान भी हैं । एतावता क्या उन ज्ञानोंकी भी एक संतान हो जावेगी ! तुम्ही कहो, आप नेनोंका इंद्रियअन्य ज्ञानपना या करणज्ञानपना हेतु तो संतानांतरों के मिसिजनक प्रमाण ज्ञानों करके व्यभिचारी है। अंधकार कहते हैं कि यदि ऐसा कहोगे सो तुम्हारा भी विकल्पज्ञानपना हेतु क्यों नहीं व्यभिचारी होगा! क्योंकि देवदरू, इंद्रदत्त आदि मिन चित्तों में भी देखने सूंघनेके अनेक कल्पनालकज्ञान होरहे हैं । इन करके पौद्रोंका हेतु अनेकांतिक हेत्वाभास है। एकसामध्यधीनखे सतीति विशेषणाच्वेत् समानमन्यत्र । यदि आप नौद्ध एक सन्तानपनको सिद्ध करनेके लिये बोले गये अपने विकल्प ज्ञानपन हेतुमे एक सामग्रीके वश होते हुए यह विशेषण लगा दोगे तो व्यभिचार दोष दूर हो जावेगा । किन्तु उसीके समान एक सामग्रीके अधीन इस विशेषणसे अन्य स्थलपर हमारे इन्द्रियजन्य ज्ञानपने या प्रमाणज्ञानपन हेतुमें भी व्यभिचार निराकृत हो जावेगा, क्योंकि दूसरे सन्तानोंके देखने संघनेके अनुसन्धान तो मिझ सामग्रीसे उत्पन्न होते हैं, एक सामग्रीके अधीन नहीं हैं, उसी प्रकार मिश्न आस्माओंके इन्द्रियजन्य ज्ञान भी एक सामग्रीके अधीन नहीं है सबके क्षयोपशम, इन्द्रिम, आत्माएं, मिल है। तथाक्षमनोज्ञानानामेकसन्तानत्वमेकसामग्र्यधीनत्वे सति स्वसविदिति कुतस्तेषा मिनसन्तानत्वम् येन रूपादिज्ञानपञ्चकस्य युगपद्वाविना पूर्वैकविज्ञानोपादानत्वं न सिद्धेयत् । तत्सिद्धौ च तस्यैकसन्तानात्मकत्वादेकत्वमिति यूक्त क्षणं नीलाधामासमेक चित्रज्ञानमिच्छता रूपादिज्ञानपञ्चकमप्येकं चित्रज्ञान प्रसज्येतेति। तथा एक बात यह भी है कि एक सामग्रीसे उत्पन्न होनेवाले विकरसज्ञानोंकी जैसे आप पौद्ध एकसंतान मानते हैं उसी प्रकार पांच बहिरिन्द्रयोंसे जन्म और मनसे जन्म जानोंकी भी एकदान सन्तान मान को, इंद्रियजन्य ज्ञान और मानस ज्ञानोंकी मिन संतान प्रापमान मी से
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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