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सत्त्वार्थचिन्तामणिः
सर्वदानुपलभ्यतास्वभावः शब्दः स्यात् । तत्संबंधादुपलभ्यः स इति चेत् कस्तया तस्थ संबंध ः १ धर्मधर्मिभाव इति चेन्नात्यन्तं भिन्नयोस्तयोस्तद्भावविरोधात् । मेदाभेदोपगमादविरुउद्भाव इति वेज चाहे मेनननोपलभ्यता ततः प्रतिहन्यते तेन शब्दोऽपीति raja focusat |
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इस प्रकार कहने पर मीमांसकोंसे आचार्य पूँछते हैं कि तो बताओ ? वायु क्या करता हुआ शब्द सुननेका आवरण करता माना गया है ? आवरण करनेवाले पदार्थ दो प्रकार के होते हैं । एक तो रूपका ही नाश करदेनेवाले जैसे कि शुक्ल कपडेको नीले रंग से रंग देनेपर वस्त्रकी शुक्लताका धंस हो जाता है । या ज्ञानावरण कर्मसे ज्ञानका नाश हो जाता है। दूसरे आवरण करनेवाले ये कहे जाते है जो पदार्थका तो नाश नहीं करते किन्तु उसके ज्ञान होनेका प्रतिबंध करदेते हैं । जैसे चंद्रमा नीचे बादलोंका आ जाना, या भित्तिसे व्यवहित हो रहे घटके प्रत्यक्ष करनेमें घटज्ञानको रोकनेवाली मित्ति |
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यदि आप पहिला पक्ष लोगे यानी आवरण करनेवाला वायु शब्दके स्वरूपका खण्डन करदेता है तो शब्द एकान्त से नित्यश्नेका विरोध हो जायेगा। और यदि दूसरा पक्ष लोगे तो शब्दकी नित्यता के विरोधका प्रसंग तो निवृत्त हो जावेगा किंतु अन्य दोष आ जायेंगे । सुनिये, उस शब्द के जाननेका प्रतिबन्ध करनेवाले दूसरे पक्ष में वायुके द्वारा शब्दके ज्ञानद्वारा जानने योग्यपने स्वभावका नाश होता है अथवा नहीं बताओ, देखिये प्रत्येक पदार्थमें अपने स्वभावोंके अतिरिक्त दूसरे पदार्थों की ओर से आनेवाले भी स्वभाव रहते हैं। जैसे कि अनामिका अंगुली में बीचकी अंगुलीकी अपेक्षा छोटापन और कनिष्ठा अंगुलीकी अपेक्षासे मडापन है। दूसरी दो अंगुलियों से आनेवाले छोटापन और बड़ापन ये दोनोंही स्वभाव अनामिका के स्वरूप ही हैं। इसी प्रकार घट, पट, शब्द आदि पदार्थों में भी ज्ञानके द्वारा जाननेपर जाने गयेपनेकी योग्यतारूप - स्वभाव माना गया है । ऐसेही घटको प्रत्यक्ष से जाननेपर प्रत्यक्ष योग्यता, अनुमानसे जाननेपर अनुमेयता, आगमसे जाननेपर आगमगम्यता ये तीनों स्वभाव भी घटकी घरू सम्पत्ति है । अब प्रकृतको विचारये कि यदि वायुके द्वारा शब्दकी बुद्धि होनेका प्रतिघात हुआ माना जायेगा तो शब्दसे अभिन्न होरही शब्द के जानने की योग्यताका भी नाश होजावेगा । जब शब्दके उस उपलभ्यतारूप स्वभावका नाश हुआ तो उससे अभिन्न शब्दका भी नाश मानना पडेगा ऐसी दशा में भी शब्दका किसी भी प्रकारसे नाश न मानना मीमांसा केवल वाद है । शब्दसे अभिन्न हो रही उपलभ्यताका ध्वंस हो जानेपर फिर शब्द का नाश नहीं होता है ऐसा मानना यह उन्मत्तरोदन है । यदि वायुके द्वारा उपलम्यता के नष्ट हो जाने पर भी शब्द अक्षुण्ण नित्य बना रहे इसलिए आप शब्दकी ज्ञानसे ज्ञेयनेकी उस योग्यता को उस शब्दसे भिन्न ही मानोगे तब तो सदा शब्दका स्वभाव ज्ञानसे नहीं जानने योग्य रूपही होगा । जो जानने
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