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________________ तत्त्वार्थं चिन्तामणिः ३५९ स्वभाव है । अतः उन कथञ्चित् मिस्र स्वभावोंसे नित्य द्रव्यरूप अंशों में तथा अनित्य पर्यायरूप अंशों में वस्तु व्यापक रह जाता है । एक द्रव्य अनेक स्वभावसे अपनी अनंत पर्यायोंमें विद्यमान है। किंतु इसीके सदृश आपने अनेक एक एक स्वभावोंको धारण करनेवाला पुरुष तो एक और अनेकपनेसे तीसरी जातिसहितपनेसे नहीं माना है। यदि आप सांख्य मी हम जैनोंके समान आमाको कथचित् मिस्र और अभिन्न या एक, अनेक स्वरूप मान लेवेंगे तब तो आपके माने हुए आत्माके कूटस्थापनका विशेष हो जावेगा। जो बाहिरसे अतिशयोंको नहीं लेता है और अम्म निमित्तों से अपने कुछ स्वभावोंको नहीं छोड़ता है, अनाधेयामहे या तिशय ऐसा कूटस्व निरतिशय आत्मा आपने इष्ट किया है किंतु अनेकांतमत में आत्माको परिणामी नित्य माना है। वह अपने कतिपय स्वभावको छोड देता है और कवियय स्वभावोंको ग्रहण भी कर लेता है । ऐसा आस्मा परिशेषमें आपको अवश्य मानना पडेगा । यों अपने आत्माको अतिशयरद्दिस मानने के सिद्धांतसे विरोध हो जावेगा । 1 कायेऽभिव्यक्ती ततो वह्निरभिव्यक्तिप्रसक्तेः सर्वत्र संवेदनमसंवेदनं नो चेत् नानात्वापत्तिर्दुः शक्या परिहर्तुम् । ततो नैतौ सर्वगतात्मवादिनौ चेतनत्वमचेतनत्वं वा साषयितुमात्मनः समर्थों यतोऽसि साधनं न स्यात् । यदि आप सांख्य पंडित शरीर में आत्माकी अभिव्यक्ति हो जाना मानोगे तो उस शरीर के बाहिर घट, घटी, किवाड आदिमें भी आत्मा के प्रकट होनेका प्रसंग आता है, क्योंकि आत्मा संग स्थानों में एकसा होकर व्यापक है । अतः या तो सभी स्थानों में आत्माका ज्ञान होना चाहिये aar कहीं भी आत्माका ज्ञान नहीं होना चाहिये । यदि ऐसा न मानकर शरीरमें ही आत्माका चेदन मानोगे और घट, कडाहीं आदिमें आस्माका वेदन न मानोगे, तब तो एक आलाको अनेकपनेका प्रसंग आता ही है । जिस दोषका कि कोई कठिनवासे मी परिहार नहीं कर सकता है। एक निरंश आत्मा कहीं प्रकट है और अन्यत्र अप्रकट है ऐसी दशामें वह आस्मा अवश्य दो हैं, अथवा विरुद्ध दो स्त्रभावोंवाला है। इस कारण से अबतक सिद्ध हुआ कि आत्माको सर्वत्र व्यापक माननेवाले ये दोनों सांख्य और नैयायिक आत्मा के चैतनपनेको या अचेतनपनेको सिद्ध करनेके लिये समर्थ नहीं है | कपिलमतानुयायी आत्माको स्वभावसे चेतन मानते हैं किन्तु पूर्वोक कमनसे उनके व्यापक आत्माका चेतनपना सिद्ध नहीं हो सका है । नैयायिक आत्माको स्वभावसे भवन मानते हैं, किंतु चतनागुणके समवायसे चेतन हो जाना दृष्ट करते हैं । यो सम्पूर्ण मूर्तद्रव्यों से संयोग रखनेवाले व्यापक माने गये आत्माका चेतन सिद्ध करना अशक्य है । जिससे कि आत्माको चेतनपना सिद्ध करनेके लिये दौसौ बसीसवीं वार्त्तिकमै दिया गया आलय हेतु असिद्ध न होवे । अर्थात् अम हेतु असिद्ध देवाभास ही है। जब कापिलोंके यहां चेतनत्वकी सिद्धि न हो सकी तो तनख हेतु आत्माका अज्ञान और असुखस्वभाव भी कैसे सिद्ध हो सकते हैं ?
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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