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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञानको कारण मानकर उत्पन्न होनेपनका विरोध है । मे दोनों दोष चौथेमें नहीं है । अतः दोनों एक नहीं है। विरुद्ध कारणों के पूर्ववर्ती होनेपर भी उत्तर सममें उत्पन्न हुए कार्यों का यदि भेद होना न माना जायेगा तो सभी वादियों को अपने सिद्धान्तसे विरोध हो जावेगा । क्योंकि सभी परीक्षकोंने मिन्न भिन्न कारणों के द्वारा न्यारे न्यारे कार्योंकी उत्पत्ति होना इष्ट किया है। अतः पहिलेका असंयम भाव और चौधेका असंयमभाव न्यारा है। ज्ञानमें भी कुजानसे अज्ञानमाव भिन्न है । कुज्ञान दूसरे गुणस्थानतक है जब कि अज्ञान भाव बारहवे तक है। कथमेव मिथ्यात्वादिवयं संसारकारणं साधयतः सिद्धान्तविरोधो न भवेदिति चेन्न, कालिमोहोहरे सरंगतौ सरगद्यमानयोरसंयममिथ्यासंयमयोरेकत्वेन विधक्षितत्वाच्चतुष्टयकारणत्वासिद्धेः संसरणस्य तत एवाविरतिशद्धेनासंयमसामान्यवाचिना बैधहेतोरसंयमस्योपदेशघटनात् । यहां किसीका तर्क है कि मिथ्या दृष्टिका असंयम और असंयत सम्यग्दृष्टिका असंयम अब भ्यारा है तो संसारके कारण चार हुए। फिर इस प्रकार मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र इन तीनको ही संसारका कारणपना साधते हुए जैनोंको अपने सिद्धांतसे विरोध क्यों न होगा ? बताइये? कारण कि चौथा असंयमभाव संसारका कारण स्त्रयं न्यारा माना जारहा है। मानार्य कहते हैं कि इस प्रकार कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि उन दोनों भावोंका अन्तरंग कारण चारित्रमोहनीय है। उस कर्मके उदय होनेपर उत्पन्न होरहे अचारित्र और मिथ्याचारित्रकी एकरूपपनेसे विवक्षा पैदा होचुकी है ! अतः संसारके कारणोंको चारपना सिद्ध नहीं है । इस ही कारणसे तो मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगको बंधका हेतु बताते हुए आचार्य महाराजका सामान्यरूपसे कहनेवाले अविरति शब्दसे दोनों प्रकारके असंयमोंका उपदेश देना संघटित होजाता है । भावार्थ-सम्यक्चारित्र न होने की अपेक्षासे दोनों असंयम एक हैं। किंतु नका अर्थ पर्युदास और प्रसज्य करनेपर दर्शन मोहनीयके उदयसे सहित अचारित्रको मिथ्याचारित्र कहते हैं और दर्शन मोहनीयके उदय न होनेपर अपत्याग्न्यानावरण और प्रत्याख्यानावरणके उदयसे होनेवाले असंयरको अचारित्र कईदेते हैं। सम्यग्दृष्टेरपि कस्यचिद्विपक्षणादिजनितदुःखफलस्य हीनस्थानपरिग्रहस्थ संसारस्य दर्शनान्मिध्यादर्शनज्ञानयोरपक्षये क्षीयमाणत्वाभावान कश्चिद्दाखफलत्वं मिध्यादर्शनज्ञानापक्षये क्षीयमाणत्वेन व्याप्तमिति चेन्न, तस्याप्यनागतानन्तानन्तसंसारस्य प्रक्षयसिदेः साध्यान्तःपातित्वेन व्यभिचारस्य तेनासम्भवात् । आक्षेपक फहता है कि किसी किसी सम्यग्दृष्टिजीवको भी विषके भक्षणसे या युद्ध शस्त्राघात हो जानेसे तथा श्रेणिक राजाका स्वयं अपघात करलेने आदिसे उत्पन्न हुए अनेक प्रकार के
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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