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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः ९३ यहां आचार्य कहते हैं कि प्रतिज्ञाके एकदेश पक्षको हेतुरूपसे ग्रहण कर लिया गया है तो भी स्वयं सिद्ध नहीं है जिससे कि वह साध्यको सिद्ध न कर सके, भला धर्मी नसिद्ध कैसे होसकता है ? यदि साध्य के समान धर्मको भी असिद्ध मानोगे तो " धर्मी प्रसिद्ध होता है" इस माणिषयनंदी आचार्य सूत्ररूप वचनका व्यापात हो जावेगा अथवा धर्मीको असिद्ध कहनेवालेको इस सूत्र से विशेष हो जावेगा । सत्यं प्रसिद्ध एव धर्मीति चेत् स वर्हि हेतुत्वेनोपादीयमानोऽपि न स्वयमसिद्धो यतो न सायं साधयेत् । प्रतिवादी शाकार - आचार्यों का कहना बिल्कुल ठीक है कि वादी प्रतिवादियों को जो प्रसिद्ध है वहीं धर्मी होता है । यदि शंकाकार ऐसा कहेगा तो हम कहते हैं कि ऐसे प्रसिद्ध धर्मीको यदि हमने हेतुरूपसे अनुमानमें ग्रहण किया है तब तो वह स्वयं असिद्ध नहीं है जिससे कि साध्यको सिद्ध न कर पावे, अर्थात् साध्यको अवश्य सिद्ध कर देवेगा । सहेतुरनन्वयः स्यात् धर्मिणोऽन्यत्रानुगमनाभावादिति चेत् सर्वमनित्यं सन्वादिति धर्मः किमन्वयी येन स्वसाध्यसाधने हेतुरिष्यते १ यहां शंकाकर बौद्ध कहता है कि यदि आप पक्षको ही हेतु करोगे तो अन्यदृष्टान्त नहीं मिल सकेगा, अतः अनन्वयदोष है । क्योंकि धर्मीके सिवाय दूसरी जगह हेतु रहेगा नहीं, जैसे कि जहां जहां धूम है, वहां वहां अभि है, यहां रसोईघर दृष्टान्त है किंतु जहां मोक्षमार्गपना है वहां वहां रत्नत्रयका समुदायपना है, इस अन्वयव्यासिका पक्षके सिवाय कोई दूसरा दृष्टान्त मिलता नहीं है। यदि आप ऐसा कहोगे तो यहां आचार्य बौद्धसे पूंछते हैं कि संपूर्ण पदार्थ क्षणिक हैं सत् होनेसे, इस आपके माने गये प्रसिद्ध अनुमानमें क्या सस्त्र हेतु अन्वयदृष्टान्त रखता है ? जिससे कि क्षणिकपनेरूप अपने साध्यके सिद्ध करनेमें अच्छा हेतु माना जावे, अर्थात् यहां भी सम्पूर्ण पदार्थोंको पक्षकोटि ले रखा है, अतः आपके अनुमानमें भी अन्य दृष्टान्त न मिलनारूप अनन्वय दोष है । साहित्यवालोंने आकाश आकाशके समानही लम्बा चौडा है, समुद्र समुद्र के समान गंभीर है इन वाक्यों अनन्वय नामक अलङ्कार माना है । बौद्धोंने इसको दोष माना है, जैन न्यायहैं। अनन्वय न तो दोष है और न गुण है । सच्त्वादिधर्मसामान्यमशेषधर्मिव्यक्तिष्वन्वयीति चेत् तथा धर्मिसामान्यमपि, दृष्टान्तधर्मिण्यनन्वयः पुनरुभयत्रेति यत्किंचिदेतत् । यदि बौद्ध ऐसा कहेंगे कि क्षणिकत्व सिद्ध करनेके लिये दिये गये सत्त्व, कृतकत्व, उत्पत्तिमत्त्व आदि हेतु तो सामान्यपनेसे सम्पूर्ण पक्षरूप व्यक्तियोंमें रहते हैं, अतः अन्यदृष्टान्त बन जावेगा,
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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