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________________ १३ तत्त्वार्थचिंतामणिः यानी कारणोंको साध्य और कार्योंको हेतु बनानेसे अनुमान द्वारा ज्ञाप्यज्ञापक मात्र बन जाता है । साध्य और हेतु के समानदेश में रहने रूप समव्याप्ति होनेपर हेतुको भी साध्य बना सकते हैं । व्यभिचार दोष नहीं होता है । किंतु विषमव्यासि होनेपर तो व्यापकको ही साध्य और व्याप्यको ही हेतु बनाना पडेगा । अन्यथा अनैकान्तिक हेत्वाभास हो जायेगा । यहां प्रश्न है । नन्वेवं प्रसिद्धोऽपि परापर गुरुप्रवाहः कथं तच्चार्थश्लोकवार्त्तिकप्रवचनस्य सिद्धिनिबन्धनं यतस्तस्य ततः पूर्वमाध्यानं साधीय इति कश्चित् । आप जैनोंने परमगुरुओंकी और अपर गुरुओंकी आध्यायको सिद्ध किया सो ठीक हैं । feng at गुरुओ परिपाटी तत्वार्थ लोकवार्तिक ग्रन्थकी सिद्धिका कारण कैसे हो सकती है ? जिससे कि उन गुरुओंका ग्रन्थ आदि ध्यान करना अत्युतम मामा नावे ऐसा कोई कह रहा है । इस प्रश्नका उत्तर बीचमै नैयायिक यों देते हैं कि तदाण्यानाद्धर्मविशेषोत्पत्तेरधर्मध्वंसाचद्धेतुकविघ्नोपशमनादभिमतशास्त्रपरिसमाप्तितः सतत्सिद्धिनिबन्धनमित्येके । जाता उन गुरुओंके चोखे ध्यान से विलक्षण पुण्य पैदा होता है । उस पुण्य से पापका नाश हो | अतः पापको कारण मान करके शास्त्रकी परिसमामिमें आनेवाले विघ्नों का उपशम हो जानेसे अभीष्ट शास्त्रकी निर्विघ्न समाप्ति हो जाती है। इस परम्परा - कार्यकारणभावसे गुरुओंका त्रियोगपूर्वक ध्यान करना शास्त्रकी सिद्धिका कारण है । इस प्रकार कोई एक कह रहे हैं । तान् प्रति समादधते । अन्थकार कहते हैं कि पुण्यविशेषके साथ शास्त्रपरिसमाप्तिका अन्बबव्यतिरे करूप से कार्यकारणभाव व्यभिचरित है । अतः नैयायिकों का यह उत्तर हमको अनुचित प्रतीत होता है । इस प्रकार नैयायिकोंके उत्तरका मत्युदर रूप से समाधान करते हैं कि- तेषां पात्रदानादिकमपि शास्त्रारम्भात् प्रथममाचरणीयं परापरगुरुप्रवाहाध्यानवत्तस्यापि धर्मविशेषोत्पत्तिहेतुत्वाविशेषाद्यथोक्तक्रमेण शास्त्रसिद्धिनिबन्धनत्वोपपत्तेः । उन नैयायिकोंको शास्त्र के आरम्भसे पहिले पात्रोंको दान देना, इष्टदेवकी पूजा, सत्य बोलना, ईर्यासमिति, चारित्र पालना आदि पुण्यकर्म करना भी इष्ट करना चाहिये। क्योंकि पर अपर गुरुओंके प्रवाहके ध्यानसमान उन पात्रदान आदिको भी पुण्यविशेष की उत्पत्ति करने में समान रूप से कारणता है। ध्यान ही में कोई विशेषता नहीं है, तब तो पात्रदान आदि द्वारा उनके कहे हुए क्रमके अनुसार अधर्मका नाश और पापहेतुक विघ्नोंका विलय हो जानेसे शास्त्रकी सिद्धिरूपी कार्य होना बन जायेगा । भावार्थ- नैयायिकों के मतानुसार नियमसे गुरुओंके ध्यानको
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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