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सार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम्
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यरं दुक्खं रोयातंक परियाइयामि अणि जाव णो सुहे, मा मे दुक्खंतु वा जाव मा मे परितप्यंतु वा, इमाओ णं अण्णयराओ दुक्खाओ रोगातंकाओ परिमोएमि अणिट्टाओ जाव णो सुहाओ, एवमेव णो लद्धपुत्रं भवइ, अन्नस्स दुक्खं अन्नो न परियाइयइ अन्नेणं कडं अन्नो नो पडिसंवेदेइ पत्तेयं जाय पत्तेयं मरइ पत्तेयं चयइ पत्तेयं उववज्जइ पत्तेयं झंझा पत्तेयं सन्ना, पत्तेयं मन्ना एवं विन्नू वेदणा, इह खलु णाइ संजोगा जो ताणाए वा णो सरणाए वा, पुरिसे वा एगया पुत्रिणाइसंजोए विप्पजहइ, णाइसंजोगा वा एगया पुर्वित्र पुरिसं विप्पेजहंति, अन्ने खलु णाइसंजोगा अन्नो अहमंसि, से किमंग पुण वयं अन्नमन्नेहिं णाइसंजोगेहिं मुच्छामो ? इइ संखाए में वयं णाइ संजोगं विष्पज हिस्सामो से मेहावी जाणेजा बहिरंगमेयं, इणमेव उवणीयतरागं, तं जहा - हत्था मे पाया मे बाह्य मे ऊरू मे उदरं मे सीसं मे सीलं मे आऊ मे बलं मे वण्णो मे तथा मे छाया मे सोयं मे चक्खू मे घाणं मे जिन्भा में फासा मे ममाइज्जइ, वयाउ पडिजूरइ, तं जहा - आउसो बलाओं वण्णाओ तयाओ छायाओ सोयाओ जाव फासाओ सुसंधितो संधी सिंधी भवइ, वलियतरंगे गाए भवइ, किव्हा केसा पलिया भवंति, तं जहा -जं पि य इमं सरीरगं उरालं आहारोवइयं एयं पिय अणुपुव्वेणं विष्पजहियत्वं भविस्सह, एवं संखाए से भिक्खू भिक्खायरियाए समुट्ठिए दुहओ लोगं
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