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NABROTHER
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सूत्रकृतीशप कुर्यात् । इमे ने साधकः किन्तु वञ्चका इस्पेताहशीं मतिं कथमपि न कुर्यात् । परेषां चेतसोवृत्तेश्वार्वाग्रहमा ज्ञातुमशक्यत्यादिति ॥३१॥ मूलम्-दक्खिणाए पंडिलंभो, अस्थि वाणस्थिं वा पुणो।
ण वियागरेज्ज मेहावी, संतिमांगं च बेहए ॥३२॥ छाया-दक्षिणायाः पतिलम्मा, अस्ति वा नास्ति वा पुनः ।
नव्यामृणीयाच्च मेधावी शान्तिमार्गश्च वर्धयेत् ॥३२॥ अन्वयार्थ:--(मेहावी) मेधावी-प्रज्ञावान् पण्डितः (दक्षिणाए) दक्षिणायाः
तात्पर्य यह है कि ये साधु नहीं हैं, ठग हैं, इस प्रकार की बुद्धि साधुओं के विषय में नहीं धारण करनी चाहिए, क्यों कि अल्पज्ञ जीप दूसरों की चित्तवृत्ति को जान नहीं सकता है ॥३१॥ 'दक्षिणाए पडिलं मो' इत्यादि ।
शब्दार्थ-'मेहावी-मेधावी' प्रज्ञावान् पुरुष 'दक्खिणाए-दक्षि. पाया' अन्नादि दान की 'पडिलंभो-प्रतिलम्भा' प्राप्ति अमुक व्यक्ति के घर में होती है अथवा 'पुणो णस्थि वा-पुन: नास्ति वा' अमुक के घर में नहीं होती है 'ण विधागयेज्जा-न व्यायगीयात्' ऐसा कथन न करे किन्तु 'संतिमग्गं च बूहए-शान्तिमाग च वर्धयेत्' शान्ति मार्ग को चढावे अर्थात् जिस वचन से मोक्षमार्ग की सम्यक् आराधना हो उसी वचन का प्रयोग करे ॥३२॥ अन्वयार्थ-प्रज्ञावान पुरुष अन्नदान आदि की प्राप्ति अमुक के
रवान' ता५य मेछ-मा साधु नथी. मछ, भावा. प्रारना વિચાર સાધુઓના સંબંધમાં રાખવું ન જોઈએ. કેમકે-અપગ્ર જીવ બીજાના ચિત્તના ભાવને સમજી શકતા નથી. ૩૧ . 'दक्षिणाए पडिलंभो' त्यादि
शा-'मेहावी-मेधावी' मुद्धिमान ५३५ 'दक्खिणाए-दक्षिणायाः' मन विरे हानी पखिलंभो-प्रतिलम्भः' प्राति म ४ व्यतिना ५२म थाय , मया 'पुणो गत्थि वा-पुनः नास्ति वा' अभुना घरमा यती नथी, 'ण वियागरेग्जा-न व्यागृणीयात्' से प्रभा नही ५२ मंतिमग च जूहएशान्तिमार्ग व वर्धयेत्' aili भान १५.२ अर्थात् २ पाथी मोक्ष भागी સારી રીતે આરાધના થાય, એવા જ વચને પ્રવેશ કરે ૩રા
અન્નયાર્થ–પ્રજ્ઞાવાન પુરૂ અન્નદાન વિગેરેની પ્રાપ્તિ અમ્રને ઘેર
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