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समयार्थबोधिनी टोका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुने!शालकस्य संवादनि० ६५९ तथा, ते केवलं भोजनाद्यर्थ तत्रैव विष्ठतः अत एव कुलालयाः राजान्नमक्षकाः राजसद्मनि केतनाः ब्राह्मणास्तेषाम् 'सिणायगाणं' स्नातकानां ब्राह्मणानाम् 'जे दुवे सहस्से' यो वे सहस्र 'णियए भोयर' नित्यं भोजयेत् ‘से बोलुवसंपगाढे' स पुरुषो लोलुपसंपगाढे-मांसभक्षिपराकीर्ण नरके गच्छति। 'तिब्वाभितायी' तीवामितापी 'णरगामिसेवी' नरकाभि सेवी, तत्र-नरके भयङ्करं दुःखं सहमानो वसति । आरम्म समारम्भननितदानदोपादानरकपात इति वक्तुराशयः ॥४४॥ मूलम्-दयावरं धम्म दुगुंछमाणो, वहावहं धम्म पतलमाणो।
एगपि जे भोययई असीलं,णिवोणिसंजाइ कुओ सुरेहि।४५। छाया-दयापरं धर्म जुगुप्तमानो, वधावह धर्म प्रशंसन् ।
एकमप्यशीलं यो भोजयति, नृपो निशां याति कुतः सुरेषु ॥४५॥ निराकरण करते हैं-कुल का अर्थ है, क्षत्रियों आदि का घर, जो भोजन के लिए उनके घरों में निवास करते हैं उन्हें 'कुलालय' कहते हैं। अर्थात् भोजन के निमित्त जो दूसरों के घर में रहते हैं ऐसे दो हजार स्नातक ब्राह्मगों को जो प्रतिदिन भोजन कराता है, वह पुरुष मांस भक्षी वज्रचंचु पक्षियों से युक्त नरक में उत्पन्न होता है। वह वहां भयानक दुःख सहन करता रहता है। आशय यह है कि आरम्भसमारंभ जनित दान के दोष के कारण दाता को नरक मे जाना पड़ता है ॥४४॥
'दयावर धम्म दुगुछमाणा' इत्यादि।
शब्दार्थ--'जे-छ।' जो राजा 'दयावरं धम्मं दुगुंछ माणा-दयापर' धर्म जुगुप्समानः' दयामय धर्म की निन्दा करता है, और 'वहावहं धम्म-वधावहं धर्म' हिंसा प्रधान धर्म की 'पसंसमाणो-प्रशंसन्' प्रशंसा करता है, ऐसे 'असीलं-प्रशील' शीलरहित अर्थात् व्रत रहित કે--કુલ એટલે ક્ષત્રિય વિગેરેના ઘર, જેઓ ભોજન માટે તેમના ઘરમાં निवास रे छ. तर 'कुलालय' ४ाय छे. अर्थात् लोन मारे माना ઘરમાં અવરજવર કરનાર એવા બે હજાર સ્નાતક બ્રહ્મને દરરોજ ભેજન કરાવે છે, તે પુરૂષ માંસ ખાનારા વજી ચાંચવાળ પક્ષિવાળા નરકમાં ઉત્પન્ન થાય છે. તે ત્યાં ભયંકર દુઃખ ભેગવે છે. કહેવાને આશય એ છે કે-આરંભ. સમારંભથી થવાવાળા દાનના દેષથી દાતાને નરકમાં જવું પડે છે. ૧૪૪
'दयावर धम्म दुगुछमाणा' या
शहाथ-'जे-यः' २ २०n 'दयावर धम्मं दुगुछमाणा-दयापर धर्म जुगुसमानः' या युत धमनी निहा छे. माने 'वहावहं धम्म वहावह धर्म'
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