Book Title: Sutrakritanga Sutram Part 04
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Jain Shastroddhar Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देसावरी यादिवाकर पूरी घासीलारजी-महाराज हिन्दी-गुनी बाधवादसहितक बी-सबकवासनम् ॥ SHREE SUTRAKRUTANG SUTRAM पयों भाग नियोजन सालानाशाजेनागनिमाव पिसवात्स्यानि परिटायनि-मोकनेपामालनी यशासना मोगनिमाचार मिनी मागेर पदमाई सकरा-बादामधेन पर ना थे पथा नसावामिनाया महाराज पालदासगाई योजना BRH For Private And Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir VOYOOOYYYYYYYYYY ई जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालजी-महाराज विरचितया समयार्थबोधिन्याख्यया व्याख्यया समलमुत हिन्दी-गुर्जर-भाषाऽनुवादसहितम् القناة ॥श्री-सूत्रकृताङ्गसूत्रम्॥ (चतुर्थो भागः) नियोजकः تامانانانانان YOYOYOYOYOYOYNOYMMYYYYYN संस्कृत-प्राकृतज्ञ-जैनागमनिष्णात-प्रियव्याख्यानि पण्डितमुनि-श्रीकन्हैयालालजी-महाराजः प्रकाशक: प्रकाशकः मांगरोलनिवासी-स्व. श्रेष्ठिश्री माणेकचंद नेमचंदभाई तरप्रदत्त-द्रव्यसाहाय्येन अ. भा. श्वे. स्था. जैनशास्त्रोद्धारसमितिप्रमुखः श्रेष्ठि-श्रीशान्तिलाल-मङ्गलदासभाई-महोदयः मु० राजकोट प्रथमा-आवृत्तिः धीर- संवत् विक्रम संवत् ईसवीसन् प्रति १२०० २४९७ २०२७ मूल्यम-रू. २५-०-० For Private And Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir મળવાનું ઠેકાણું : श्री म... ३. स्थानवासी જેનશાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ, है. गठिया या २७, Published by: Shri Akhil Bharat S. S. Jain Shastroddhara Samiti, Garedia Kuva Road, RAJKOT (Saurashtra.), W.. Ry,,India, ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवज्ञा, मानन्ति ते किमपि तान प्रति नैप यत्नः ।। उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा, कालो ह्ययं निरवृधिविपूला च पृथ्वी ॥ १ ॥ हरिगीतच्छन्दः करते अवज्ञा जो हमारी यम ना उनके लिये । जो जानते हैं तत्त्व कुछ फिर यत्न ना उनके लिये ॥ अनमेगा मुझसा व्यक्ति कोई तत्व इससे पायगा। है काल-निरवधि विपुलपृथ्वी ध्यान में वह लायगां ॥ १ ॥ भूदया: ३. २५%300 પ્રથમ આવૃત્તિ પ્રત ૧૨૦૦. વીર સંવત્ ૨૪૯૭ વિક્રમ સંવત ૨૦૨૭ ઈસવીસન ૧૯૭૧ : मुद्र: મણિલાલ છગનલાલ શાહ નવપ્રભાતે પ્રિન્ટીંગ પ્રેસ, asin७, अमहावा.' For Private And Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अनुक्रमांक १ २ ३ ४ ६ の १० ११ १२ १३ १४ १५ १६ १७ १८ www.kobatirth.org श्री सूत्रकृताङ्गसूत्र भाग ४ चौथे की विषयानुक्रमणिका विषय दूसरे श्रुतस्कंध की अवतरणिका पुण्डरीक नामका प्रथम अध्ययनका निरूपण क्रियास्थान नाम के दूसरे अध्ययनका निरूपण आहारपरिज्ञा नामके तीसरे अध्ययनका निरूपण मायाख्यान क्रिया का उपदेश नामके तीसरे अध्ययनका निरूपण आचारश्रुत नामक पांचवें अध्ययनका निरूपण आर्द्र कुमार के चरित वर्णनात्मक छडे अध्ययनका निरूपण सातवां अध्ययन सातवें अध्ययन की विषयावतरणिका राजगृह नगरका वर्णन लेप नामका गाथापतिका वर्णन उदकपेढा उत्रका आगमन एवं Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir antarraat के प्रति प्रत्याख्यान संबंध मैं शंका प्रदर्शन उदकपेालपुत्रको गौतमस्वामीका उत्तर फिर से गौतमस्वामी को उदकपेढालपुत्र का प्रश्न प्रतिज्ञाभंग के विषय में फिरसे गौतम स्वामी का उत्तर हिंसात्याग के बारे में उदकपेढाल पुत्र एवं taurants प्रश्नोत्तर गौतमस्वामीका दृष्टान्त सहित विशेष उपदेश tataमीका देशविरति धर्म आदिका समर्थन उपसंहार ॥ समाप्त ॥ For Private And Personal Use Only पृष्ठ १-२ ३-१५२ १५३-३४६ ३४७-४३० ४३१-४७३ ४७४-५५३ ५५४-६८६ ६८७ ६८८-६९० ६९०-६९६ ६९६–७०५ ७०६-७०९ ७१०-७१४ ७१४-७१६ ७१७-७२३ ७२३-७४० ७४०- ७७४ ७७४-७८४ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir વિક કંઈ 0. ગુપ્તદાનના શોખીન માંગરોળનિવાસી સ્વ. શેઠ માણેકચંદ નેમચંદભાઈ જન્મ સંવત્ ૧૮૮૪ મૃત્યુ તારીખ ૮-૧-૧૯૬૫ For Private And Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org આધમુરબ્બીશ્રીએ શેઠ શ્રી શાંતિલાલ મગળદાસભાઈ અમદાવાદ. સ્વ. સુધીરભાઈ જયંતીલાલ ઝવેરી મુંબઈ. શેઠશ્રી રામજીભાઈ શામજીભાઈ વીરાણી-રાજકાટ. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (સ્વ.) શેઠશ્રી શામજીભાઈ વેલજીભા વીરાણી-રાજકોટ (સ્વ.) શેઠશ્રી છગનલાલ શામળદાસ ભાવસાર અમદાવાદ. વચ્ચે બેઠેલા લાલાજી કિશનચંદ્રજી સા. જૌહરી ઉભેલા સુપુત્ર ચિ. મહેતામચન્દ્રજીમા નાના – અનિલકુમાર જૈન (દાયત્તા ) For Private And Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org આવમુરબ્બીશ્રીએ (સ્વ.) શેઠશ્રી હરખચંદ કાલીદાસ વાર્િ ભાણવહ. (સ્વ.) શેઠશ્રી દિનેશભાઇ કાંતિલાલ શાહુ અમદાવાદ, શેઠશ્રી જેસિંગભાઈ પાચાલાલભાઇ અમદાવાદ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (સ્વ.) શેઠ રંગજીભાઈ માહનલાલ શાહુ અમદાવાદ. શ્રી વિનાદ્રકુમાર વીરાણી સ્વ. શેઠશ્રી આત્મારામ માણેકલાલ અમદાવાદ For Private And Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir આધમુરબ્બીશ્રીઓ શ્રી વૃજલાલ દુર્લભજી પારેખ રાજકોટ કેકારી હરગોવિંદ જેચંદભાઈ રાજકોટ, શકશી મિશ્રીલાલજી લાલચંદજી સા, લુણિયા શેઠ પ્રભુદાસભાઇ મુલજીભાઈ દોશી તથા શેઠશ્રી જેવંતરાજજી લાલચંદજી સા. રાજકોટ (સ્વ.) શેઠશ્રી ધારશીભાઇ જીવણલાલ. બારસી સ્વશ્રીમાન શેઠશ્રી મુકનચંદજી સા, For Private And Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir આમુરલીશ્રીઓ પટેલ ડોસાભાઈ ગોપાલદાસ મુ. સાણંદ (જી. અમદાવાદ ) ૧ અમીચંદભાઈ તથા ) ૨ ગીરધરભાઈ બાંટવિયા સ્વર્ગસ્થ ન્યાયમૂતિ રતીલાલભાઈ ભાયચંદભાઈ મહેતા शहाजी श्री मोडीलालजी गलुन्डिया સ્વ, શેઠશ્રી જીવરાજભાઈ મૂળચંદભાઈ ધ્રાંગધ્રા श्रीमान शेठ सा. श्री कानुगा धिंगडमलजी साब For Private And Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org આમુરબ્બીશ્રીએ સ્વ, શેઠશ્રી હરિલાલ અનેાષચંદ્ર શાહ ખંભાત. श्रीमान् शेठ सा. चीमनलालजी सा. ऋषभचंदजी सा. अजीतवाले (सपरिवार) વચ્ચે બેઠેલા મેાટાભાઇ શ્રીમાન મૂલચંદજી જવાહીરલાલજી અહિયા બાજુમાં બેઠેલા ભાઇ મિશ્રીલાલજી ખરઢિયા ૩ ઉભેલા સૌથી નનાભાઈ પૂનમચ ંદ્ર ખરઢિયા Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्व. शेठ ताराचंदजी साहेब गेलडा मद्रास. શેઠ કીશનલાલજી ફુલચંદ સા એગલારવાળા श्रीमान् सेठश्रा खीमराजजी सा. चोरडिया For Private And Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥श्री वीतरागाय नमः॥ श्री जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री घासीलालप्रतिविरचितया समयार्थबोधिन्याख्यया व्याख्यया समसङ्गतम् ॥श्री-सूत्रकृताङ्गसूत्रम्॥ (चतुर्थो भागः) अथ द्वितीयश्रुतस्कन्धः पारभ्यतेप्रथमश्रुतस्कन्धसमाप्त्यनन्तर द्वितीयश्रुतस्कन्ध प्रारभ्यते । प्रथमश्रुतस्कन्धे य एवार्थाः संक्षेपतो निरूपितास्त एवाऽस्मिन् द्वितीय श्रुतस्कन्धे युक्तिपुरस्सरं विस्तरेण निरूपिता भविष्यन्ति । संक्षेपविस्ताराभ्यां निरूपिताः पदार्थाः सरलतया बुद्धिपथमधिरोहन्ति । अतः प्रथमश्रुतस्कन्धे ये पदार्थाः प्रतिपादिता स्त एव विस्तरतो द्वितीयश्रुतस्कन्धे प्रतिपाद्यन्ते । अथवा-प्रथमश्रुतस्कन्धे ये विषयाः मरूपिता स्त एव दृष्टान्तप्रदर्शनेन सरलतया बोधयितुं द्वितीय. द्वितीय श्रुतस्कन्ध का प्रारंभ प्रथम अध्ययन प्रथम श्रुतस्कंध की समाप्ति के पश्चात् दूसरा श्रुतस्कंध प्रारंभ किया जाता है। प्रथम श्रुतम्कंध में संक्षेप से जिन अर्थों का निरूपण किया गया है, वे ही अर्थ दूसरे श्रुतस्कंध में युक्तिपूर्वक और विस्तार से कहे जाएंगे । संक्षेप और विस्तार से कहे गए पदार्थ सरलता पूर्वक समझ में आ जाते हैं। अथवा प्रथम श्रुतस्कंध में जिन विषयों की प्ररूपणा की गई है, वही दृष्टान्त के द्वारा सरलता से समझाने के लिए द्वितीय श्रुतस्कंध भीत श्रुत धन प्राम अध्ययन ५३ તે પહેલા શ્રુતસ્કંધની સમાપ્તિ પછી આ બીજા શ્રુતસધને પ્રારંભ કરવામાં આવે છે. પહેલા તસ્કંધમાં સંક્ષેપથી જે અર્થોનું નિરૂપણ કરવામાં આવેલ છે, એજ અર્થ આ બીજા ગ્રુતસ્કંધમાં યુક્તિપૂર્વક અને વિસ્તારથી કહેવામાં આવશે. સંક્ષે૫ અને વિસ્તારથી કહેવામાં આવેલ પદાર્થ સરળતા પૂર્વક સમજવામાં આવી જાય છે. અથવા પહેલા શ્રુતસ્કંધમાં જે વિષયની પ્રરૂપણ કરવામાં આવી છે, એજ દષ્ટાન્ત દ્વારા સરલ પણથી સમજાવવા માટે બીજે શ્રુતસ્કંધ પ્રારંભ For Private And Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे तस्कन्धः प्रारभ्यते । अत उभावपि स्कन्धौ समानविषयावेव । केवलं प्रथमे संक्षेपतो येषां प्रतिपादनं तेषामेवात्र विस्तरेण कथनं भविष्यति । अस्मिन् श्रुतस्कन्धे - पुण्डरीक १ क्रियास्थाना २ ऽऽहारपरिज्ञा ३ प्रत्याख्याना ४ नगारश्रुता५ sse ६ नालन्दा ७ ख्यानि सप्ताऽध्ययनानि सन्ति । तत्र प्रथमश्रुत स्कन्धाऽध्ययनाsपेक्षयाऽर्थो महत्वं विद्यते, अतोऽस्य महाध्ययनमिति नामापि भवति । तत्र प्रथमाध्ययनं पुण्डरीकमिति नाम । तत्र पुण्डरीकं कमलं तदुपमानेन धर्मे रुचिमुत्पादयितुं विलक्षणं महतामाख्यानं प्रदश्य विषयोपभोगेभ्यो जन्तून व्याव (निव) मोक्षमार्गाय समर्थीकृतास्ते साधुभिस्तेषामेत्र संसारमोचकानां निदर्शनं कृतमस्कन्धे । तदनेन सम्बन्धेनाssवातस्य द्वितीयश्रुतस्कन्धसम्बन्धि प्रथमाध्ययनस्य प्रथमं सूत्रमाह- 'सूयं मे' इत्यादि । प्रारंभ किया जाता है । अत एव दोनों स्कंधो का विषय समान ही हैं। अन्तर यही है कि प्रथम स्कंध में जिन विषयों का संक्षेप में प्रतिपादन है, उन्हीं का यहां विस्तार से निरूपण है । इस श्रुतस्कंध में सात अध्ययन हैं- पुण्डरीक ( १ ) क्रियास्थान (२) आहारपरिज्ञा (३) प्रत्याख्यान (४) अनगारश्रुत (५) आर्द्रक (६) और (७) नालन्दा | प्रथम श्रुतस्कंध -अध्ययन की अपेक्षा बड़ा होने से इस का नाम महाध्ययन भी है । इसका प्रथम अध्ययन पुण्डरीक नामक है । पुण्डरीक का अर्थ है कमल | कमल की उपमा देकर धर्म में रूचि उत्पन्न करने के लिए महान् पुरुषों का आख्यान दिखलाकर, जीवों को विषय भोगों से निवृत्त करके साधुओं ने उन्हें मोक्षमार्ग के लिए समर्थ बनाया । इस કરવામાં આવે છે. તેથી જ બન્ને શ્રુતકાના વિષય સરખાજ છે. અંતર એજ છે કે-પહેલા શ્રુતસ્કંધમાં જે વિષયાનું સક્ષેપથી પ્રતિપાદન કરેલ છે, તેનું જ અહિયાં વિસ્તાર પૂર્વક નિરૂપણ કરેલ છે. આ શ્રતસ્કંધમાં સાત અધ્યયન છે. તે આ પ્રમાણે સમજવા. પુંડરીક (१) डियास्थान (२) भाडार परिज्ञा (3) प्रत्याभ्यान (४) अनगारश्रुत (4) भाई' (९) भने नासन्हा (७) પહેલા શ્રુતસ્કંધ —અધ્યયનની અપેક્ષાથી મેટુ હેવથી આનું નામ મહાધ્યયન પણ છે. આનું પહેલું અયન પુંડરીક નામનુ છે, પુંડરીકના અથ કમળ એ પ્રમાણે થાય છે. કમળની ઉપમા આપીને ભ્રમમાં રૂચિ ઉત્પન્ન કરવા માટે મહાન પુષેનું જચ. ન ખતાવીને વેશને વિષય ભાગેાથી નિવૃત્ત કરીને સાધુએ એ તેને મેક્ષ મા માટે સમથ નાવ્યા, For Private And Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् - मूलम्-सुयं मे आउसं तेणं भगवया एकमक्खायं । इह खलु पोंडरीए णामझयणे, तस्स णं अयमद्रे पण्णत्ते-से जहा णामए पुक्खरिणी सिया बहुउदगा बहुसेया बहुयुकवला लट्ठा पुंडरिकिणी पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा, तीसे णं पुक्खरिणीए तत्थ तत्थ देसे देसे तहिं तहिं बहवे पउमवरपोंडरीया बुइया, अणुपुबुट्रिया ऊसिया रुइला वण्णमंता गंधमंता रसमंता फासमंता पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा, तीसे णं पुक्खरिणीए बहुमज्झदेसभाए एगे महं पउमवरपॉडरीए बुइए, अणुपुव्वुट्ठिए उस्सिए रुइले वन्नमंते गंधमंते रसमंते फासमंते पासादीए जाव पडिरूवे। सव्वावंति च णं तीसे पुक्खरिणीए तत्थ तत्थ देसे देसे तहिं तहिं बहवे पउमवरपोंडरीया बुइया अणुपुव्वुट्टिया ऊसिया रुइला जाव पडिरूवा, सव्यावंति च णं तीसे पुक्खरिणीए बहुमज्झदेसभाए एर्ग महं पउमवरपोंडरीयं बुइयं अणुपुव्वुट्टिए जाव पडिरूवे ॥सू०१॥ छाया-श्रुतं मया आयुष्मन् ! तेन भगवता एवमाख्यातम् । इह खलु पुण्डरीकनामाध्ययनम् , तस्य खल्वयमर्थः प्रज्ञप्तः । तद्यया नाम पुष्करिणी स्यात् बहूदका, बहुसेया, बहुपुष्कला, लब्धार्था, पुण्डरीकिणी, मासादिका, दर्शनीया, अभिरूपा मतिरूपा । तस्याः खलु पुष्करिण्या स्तत्र तत्र देशे देशे तस्मिन् तस्मिन् बहूनि पनवरपुण्डरीकाणि उक्तानि, आनुपूर्या उत्थितानि उच्छ्रितानि रुचिराणि वर्णवन्ति गन्धवनि रसवन्ति स्पर्शवन्ति भासादिकानि दर्शनीयानि अमिरूपाणि पतिरूपाणि । तस्याः पुष्करिण्या बहुमध्यदेशमागे एक महन् पावरपुण्डरीकमुक्तम् स्कंध में उन्हीं संसार से छुड़ाने वालों का उदाहरण है। इस संबंध से प्राप्त द्वितीय श्रुतस्कंध के प्रथम अध्ययन का यह प्रथम सत्र है-'सुयं मे आउसं तेणं' इत्यादि । આધમાં સંસારથી છોડાવવા વાળા એજ વિષયનું વિવેચન કરવામાં આવેલ છે. એ સંબંધથી પ્રાપ્ત થયેલ બીજા શ્રુતસ્કંધના પહેલા અદયયનનું ML पडे सूत्र छ. 'सूर्य मे आउसं तेणं' त्या For Private And Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतस्त्रे आनुपूा उत्थितम् उच्छ्रितं रुचिरं वर्णवद् गन्धवद् रसवत् स्पर्शवत् प्रासादिकं यावत्प्रतिरूपम् । सर्वस्या अपि तस्याः च खलु पुष्करिण्या स्तत्रतत्र देशे देशे तस्मिन् तस्मिन् बहूनि पद्मवरपुण्डरीकाणि उक्तानि आनुपूर्या उत्थितानि उच्छ्रितानि रुचिराणि यावत् प्रतिरूपाणि। सर्वस्या अपि च खलु तस्याः पुष्करिण्या बहुमध्यदेशभागे एकं महत् पावरपुण्डरीकमुक्तम् भानुपूर्दा उत्थितं यावत् प्रतिरूपम् ।।मु०१॥ टीका-सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनं प्रत्याह-'आउस' हे आयुष्मन् जम्बू ! 'मे' मया 'सूर्य' श्रुतम्-भगवत्समीपे श्रवणगोचरीकृतम् 'तेणं भगवया' तेनकेवलज्ञानवता भगवता-तीर्थकरेण 'एमवायं' एवमाख्यातम् एवम्-वक्ष्यमाणरीत्या आख्यातम्-प्रतिपादितम् । 'इह खलु पौडरीए णामल्झयणे तस्स भयमटे पण्णत्ते' इह-जिनशासने खलु-निश्चयेन पुण्डरीकनाम अध्ययनम् , प्रथम पुण्डरीकनामाध्ययनम् 'तस्स' तस्य 'ण' णमिति वाक्यालङ्कारे । 'अयमढे' अय. मर्थः 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः-कथितः । 'से जहाणामए पुक वरिणी सिया' तयधानाम पुष्करिणी स्यात् तद्यथानाम पुष्करिणी-पुष्कर कमलं तद्विद्यते यस्यां सा पुष्करिणी 'सिया' स्यात्, कीदृशी सा तत्राह-'बहुउदगा' बहूदका, बहूनि-प्रभूतानि उदकानिपयांसि विद्यन्ते यस्यां सा तथा प्रचुरजलसम्पमा 'बहुसे या बहुसेया कर्दमबहुला ____टीकार्थ-सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं-हे आयुष्मन् जम्बू ! मैंने भगवान के समीप सुना है। केवलज्ञानी तीर्थंकर भगवान् ने इस प्रकार कहा है। यहां जिनशासन में पुण्डरीक नामक अध्ययन है। उसका यह अर्थ कहा गया है जैसे कोई पुष्करिणी (कमलों वाली वापी) हो। वह प्रचुर जल से परिपूर्ण हो, बहुत कीचड़ वाली हो, अगाध जल होने से अत्यन्त गहरी हो, जल के पुष्पों से युक्त हो, देखने मात्र से चित्त को मुग्ध करने वाली हो, दर्शनीय हो, मनोज्ञ रूप वाली हो एवं असाधारण ટીકાર્ય–સુધર્માસ્વામી જખ્ખસ્વામીને કહે છે કે—હે આયુષ્યનું જણૂ! મેં ભગવાનની સમીપથી સાંભળેલ છે. કેવળજ્ઞાનવાળા તીર્થકર ભગ વાને આ પ્રમાણે કહ્યું છે. અહિયાં છનશાસનમાં પુંડરીક નામનું અધ્યયન છે. તેનો અર્થ આ પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે – જેમ કોઈ પુષ્કરિણી (કમળેવાળી વાવ) હોય, તે ઘણું જળથી પૂર્ણ રીતે ભરેલી હોય, ઘણું કાદવ વાળી હોય, અગાધ પાણી હેવાથી અત્યંત ઉં હોય પાણીમાં થવોવાળા પુપિથી યુક્ત હોય, જેવા માત્રથી ચિત્તને મોહ પમાડનારી હોય, દર્શનીય હાય, મને જ્ઞરૂપવાળી હોય, અને અસાધા For Private And Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि.शु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् 'बहुपुक्खला' बहुपुष्कला आगाधज सवत्वात् गम्भोरा, 'पद्धदा' लब्धार्था जल पुष्पसंयुक्ता, पुष्कराणि-कमलानि विद्यन्ते यस्णं सा पुष्करिणी, 'पासाईया' प्रसादिका, दर्शनादेश चित्तमोहिनी 'दरिसणिज्जा' दर्शनीया द्रष्टुं योग्या 'अभि रूवा' अभिरूपा-प्रशस्तरूपस्तो 'पडिरूमा' प्रतिरूपा नास्ति प्रतिरूपं सशरू. वत् अन्यद यस्याः सा प्रतिरूपा, अनन्यसाधारणी। 'ती से गं तस्याः वल्ल 'पुकवरिणीए' पुष्करिण्याः 'तस्थ तत्थ देसे देसे' तत्र तत्र देशे तच्छन्दे देशेव वीप्सा राद्धलाच्चतुर्दिक्षु इत्यर्थों लभ्यते । 'तहि तर्हि तस्मिन् तस्मिन् देशे सर्वस्मिन्प्रदेशेच पुष्करिण्यां व्याप्तानि । 'बहवे पउमवरपोंडरिया बुइया' बहूनि पमवरपुण्डरी काणि उक्तानि, तस्मिन् सरसि अनेक नातीयानि कमानि विद्यन्ते । 'अणु. पुव्वुट्टिया' आनुपूर्व्या-उत्थितानि उत्तमोत्तमक्रमेण शतपत्रसहस्रपत्रभेदभावेन तत्राऽनेकविधानि कमलानि सन्ति 'उस्सिया' उच्छ्रितानि ऊ गतानि 'रुइला' रुचिराणि-मनोज्ञानि 'वण्णमंता' वर्णन्ति-नील-पीत-रक्त-श्वेतानि । 'गंध. (अनुपम) हो । उस पुष्करिणी के देश देश में (जगह जगह) सभी दिशाओं में विविध जातियों के कमल मौजूद हों। वे कमल अनुक्रम से ऊँचे उठे हों। उत्तमोत्तम क्रम से शतपत्र सहस्रपत्र के भेद से अनेक विध हो। वे ऊंचे, मनोज्ञ, सुन्दर नील, पीत, रक्त और श्वेत वर्ण वाले हो, सुन्दर विलक्षण गंध से सम्पन्न हो, विलक्षण मधुपराग से युक्त हो, कोमल स्पर्श वाले हों आइलादकारी, दर्शनीय, अभिरूप सुन्दर रूपवगन और प्रतिरूप अर्थात् असाधारण हों। ___ उस पुष्करिणी के बिलकुल मध्य भाग में एक पद्मवर पुण्डरीक नामका श्वेत कमल कहा गया है। वह श्वत कमल विलक्षण रचना से युक्त, पंक से ऊपर निकला हुआ, बहुत ऊंचा, सुन्दर, प्रशस्त वर्णवाला, રણ (અનુપમ) હૈય, તે વાવના દેશ દેશમાં એટલે કે સ્થળે સ્થળે સઘળી દિશાઓમાં જુદી જુદી જાતના કમળો વિદ્યમાન હોય, તે કમળ અનુક્રમથી ઉંચા થયા હય, એટલે કે ઉત્તમત્તમના ક્રમથી શતપત્ર કમલ સહસ્ત્રપત્ર, વિગેરેના ભેદથી અનેક પ્રકારના કમળ હોય તે ઉંચા, મનેશ, સુંદર નીલ, પીળા, રતા, અને ધળ વર્ણવાળા હોય, સુંદર વિલક્ષણ ગધથી યુક્ત હોય આહાદકારી, દર્શનીય અભિરૂ૫, સુંદર રૂપવાન અને પ્રતિરૂપ અર્થાત અસાધારણ હોય, તે પુષ્કરિણી-વાવના બિલકુલ મધ્ય ભાગમાં એક પદ્મવર પુંડરીકનામનું ધળું કમળ કહેલ છે. તે વેત કમળ વિલક્ષણ રચનાથી યુક્ત, કાદવથી ઉપર નીકળેલ ઘણું ઉંચુ, સુંદર વખાણવા લાયક વર્ણ-રંગવાળું, મનને For Private And Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतामसूत्र मंता' गन्धवन्ति-विलक्षणगन्धसमवेतानि । 'रसमंता' रसन्ति-विलक्षण मधुपरा. गयुक्तानि 'फासमंता' स्पर्शवन्ति-मृदुस्पर्शवन्ति 'पासाईया' प्रासादिकानि-आहा. दकारीणि 'दरिमणिज्जा' दर्शनीयानि-द्रष्टुं योग्यानि 'अभिरूपाणि-मुनातरूपवन्ति, पडिरूवा' प्रतिरूपाणि-अनन्यसाधारणानि, 'तीसे णं पुक्खरिणीए' तस्याः खज पुक्खरिण्याः 'बहुमझदेसभाए' बहुमध्यदेश मागे-मध्यप्रदेशे, 'एगे महं पउमवरपौडरिए वुइए' एकं महत् पद्मवरपुण्डरीकं कमलमुक्तम् , एकं विल क्षणं सबसुजातकमलेभ्यः श्रेष्ठ कमलं तस्या मध्यभागे विद्यते । 'अणुपुवुहिए' आनुपूा उस्थितं तत् श्वेतं कमलं विलक्षणरचनया युक्तम् , पङ्काचंगतम् , 'उस्सिए' उच्छ्रितम्-अत्यूवस्थितम् 'रुइले' रुचिरम् सुन्दरम् 'वण्यवंते' वर्णवत् 'गंधर्मते' गन्धवत्-सुरमिगन्धयुक्तम् 'रसमंते' रसवत्-सुस्वादुरसयुक्तम् ‘फासमंते' विलक्षणस्पर्शवत् । 'पासाईए' मासादिकम्-प्रसादगुणोपेतम् , 'जाव पडिरूवे' यावत् प्रतिरूपम्-दर्शनीयमभिरूपं पतिरूपम् 'समावेति च तीसे' सर्वस्था अपि खलु तस्याः 'पुक खरिणीए' पुष्करिण्याः 'उत्थ तत्थ देसे देसे' तत्र तत्र देशे देशे-प्रत्येकादेशे, 'तहिं तहि तस्मिन् तस्मिन् 'बहवे' बहूनि 'पउमवरपौडरिया वुझ्या' पद्मवरपुण्डरीकाणि उक्तानि-बहूनि कमलानि सन्ति, 'अणुपुछु. द्विया' आनुपूा उत्थितानि 'उसिया' उच्छितानि पङ्काय गतानि 'रुइला' रुचिराणि 'जाव पडिरूबा' यावत्प्रतिरूपाणि-पूर्वोक्त सर्वगुणसम्पन्नानि 'सव्वा. वंति च णं तीसे पुरखरिणीए' सर्वस्या अपि खलु तस्याः पुष्करिण्याः 'बहु मज्झदेसमाए' बहुमध्यदेशमागे 'एग महं पउमबरपोंडरीयं वुइयं' एकं महत् पद्म मनोज्ञ गंध वाला, सुस्वादु रसवाला और मनोहर वाला है। यह दर्शक के चित्त को प्रसन्नता प्रदान करनेवाला यावत् प्रतिरूप है अर्थात् दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप है। उस सम्पूर्ण पुष्करिणी में बहुत से पद्मवर पुण्डरीक कहे गये हैं। वे अनुक्रम से ऊँचे उठे हुए, कीचड़ से ऊपर निकले हुए रुचिर यावत् प्रतिरूप हैं । अर्थात् पूर्वोक्त सष गुणों આનંદ આપનાર ગધવાળું, સ ર સ્વાદ યુક્ત રસવાળું, અને મને હર સ્પર્શ વાળું હોય છે. તે જોનારના ચિત્તને પ્રસન્નતા આપનાર યાવત્ પ્રતિરૂપ છે. અર્થાત દર્શનીય, અમિરૂપ અને પ્રતિરૂપ છે. તે સંપૂર્ણ પુષ્કરિણીમાં ઘણા કમળો-પદ્વવરપુંડરીકો આવેલા છે. તે અનુક્રમથી ઉંચા ઉઠેલા કાદ. વથી ઉપર નીકળેલા મનને ગમનાર રૂચિર યાવત્ પ્રતિરૂપ છે, અર્થાત પૂત સઘળા ગુણેથી યુક્ત હોય છે, તે પુષ્કરિણી-વાવની વચ્ચે વચ્ચે એક For Private And Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि.श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् बरपुण्डरीकमुक्तम् 'अणुपुनटिए' आनुपूर्दा उत्थितम्, तत् 'जाव पडिस्वे' याव. स्मतिरूपम् , पूरौक्तपसादरूप गन्धरसस्पर्शादिगुण युक्तं कमलं तत्र विद्यते ॥सू० १॥ मूलम्-अह पुरिसे पुरथिमाओ दिसाओ आगम्मतं पुक्खरिणं तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिच्चा पासइ तं महं एगं पउमवर पोंडरीयं अणुपुवुट्टियं सियं जाव पडिरूवं। तए ण से पुरिसे एवं वयासी-अहमंसि पुरिसे नेयन्ने कुसले पंडिए वियत्ते मेहावी अबाले मग्गत्थे मग्गविउ मग्गस्स गइपरक्कमण्णू अह. मेयं पउमवरपोंडरीयं उन्निक्खिस्सामि त्तिकटु इइ वुया से पुरिसे अभिकमेइ तं पुक्खरिणि जावं जावं चणं अभिक्कमेइ तावं तावं घणं महंते उदए, महंते सेए पहीणे तीरं अपत्ते पउमवरपोंडरीयं णो हव्वाए णो पाराए, अंतरा पोक्खरिणीए सेयसि निसपणे पढमे पुरिसजाए ॥सू०२॥ ___ छाया-अथ पुरुषः पुरस्ताद् दिशः आगत्य तां पुस्करिणी, तस्याः पुष्करिण्यारतीरे स्थित्वा पश्यति तन्महदेकं पद्मवरपुण्डरीकम् आनुपूर्या उत्थितम् उच्छ्रितं याचस्पतिरूपम् । ततः खलु स पुरुष एवमवादीत्-अहमस्मि पुरुषः खेदसः कुशलः पण्डितो व्यक्तो मेधावी अबालो मार्गस्था मार्गवित् मार्गस्य गतिपराक्रमज्ञः, अहमेतत् पदमवरपुण्डरीकमुनिक्षेप्स्यामीति कृत्वा इत्युक्त्वा स पुरुषोऽमि कामति तां पुष्करिणी, यावद् यावच्च खलु अभिक्रामति तावत् तावच्च खल महद्दकम्, महान् सेयः, महीणस्तीराद् अमाप्तः पद्मवरपुण्डरीकम्, नो अर्वाचे नो पाराय अन्तरा पुस्करिण्याः सेये निषण्णः प्रथमः पुरुषजातः । मू०२ । से सम्पन्न हैं। उस पुष्करिणी के बीचों बीच एक बड़ा पद्मवर पुण्डरीक कहा है। वह भी अनुक्रम से ऊंचा उठा हुआ यावत् प्रतिरूप है अर्थात् पूर्वोक्त सय विशेषताओं से युक्त है। ॥१॥ વિશાળ પવર પુંડરીક કહેલ છે, તે પણ અનુક્રમથી ઉચે ઉઠેલ યાવત્ પ્રતિ રૂપ છે, અર્થાત પૂર્વોક્ત તમામ વિશેષણોથી યુક્ત છે. ૧ For Private And Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्र - टीका-'अह' अथ 'पुरिसे' पुरुषः कश्चिदज्ञातनामधेयः 'पुरस्थिमाओ' 'पुरस्तात् पूर्वस्थाः 'दिसाओ' दिशः सकाशात् 'आगम्म' आगत्य तं पुक्खरिणि' तां पुष्करिणीं जलकर्दमपङ्कजपूर्णाम् । 'तीसे पुरखरिणीए तीरे' तस्याः पुष्क. रिण्यास्तीरे, यथोक्तविशेषणवत्या नद्यास्तदे तत्मान्तभागे "ठिच्चा' स्थित्वास्थितः सन् 'पास' पश्यति, किं पश्यति तत्राह 'तं महं एगं' तन्महदेकम् 'पउमवरपुडरीय पवरपुण्डरीकम्, सर्वकमलशोभातिशायिपुण्डरीकं विलक्षणं पश्यति । कीदृशम् ? तत्राह 'अणुपुबुट्टिय' आनुपूर्या उस्थितम्, यद् यद् स्थाने यथा यथाऽत्रयवसन्निवेशः समुचित स्वत्र तत्र स्थले तथैव सन्निवेशपूर्वकं सुन्दररचनयोपेतम् । 'असियं जाव पडिरू' उच्छितम्-पङ्कादूर्धवस्थितम्, यावत् प्रतिरूपम्, अनन्यसाधारणम् प्रशस्तवर्णगन्धस्पर्शवत्वाद्युपेतत्वादतिमनोहरम् । 'तए 'अह पुरिसे' इत्यादि। टीकार्थ-कोई अज्ञात नाम और अज्ञात देशवाला पुरुष पूर्व दिशा से उस जल, कीचड़ एवं कमलोवाली पुरुकरिणी के पास आया। उस पुष्करिणी के किनारे खडा होकर वह उस उत्तम पुण्डरीक कमल को देखता है-यह कमल सष कमलों से अधिक सुन्दर एवं विलक्षण है। यह अनुक्रम से उस्थित है अर्थात जिस जिस स्थान पर जैसे जैसे अवयवों का मनिवेश होना उचित है, वहां वैमाही मन्निवेश होने के कारण बडी ही सुन्दर रचना से युक्त है। यह पंक से ऊपर उठा है यावत् प्रतिरूप है। प्रशस्त वर्ण, गंध, रस और स्पर्श आदि से सम्पन्न होने के कारण मनोहर है। 'अह पुरिसे' त्या ટીકાર્થ-કઈ અજ્ઞાત નામવાળે અને અજ્ઞાત દેશવાળે પુરૂષ પૂર્વદિશાથી તે જળ, કચડ, અને કમળ વાળી, પુષ્કરિણી-વાવની નજીક આવે. તે પુષ્કરિણીના કિનારે ઉભે રહીને તે એ ઉત્તમ શ્રેષ્ઠ એવા પુંડરીક-કમબોને જુવે છે -આ કમળ સઘળા કમળથી અત્યંત સુંદર અને વિલક્ષણ છે. આ અનુક્રમથી ઉઠેલ છે. અર્થાત્ જે જે સ્થાન પર જેવા જેવા અવયવોને, સન્નિવેશ થવાને ગ્ય હોય, ત્યાં એજ પ્રમાણે સન્નિવેશ-ચના થવાને કારણે અત્યંત સુંદર રચનાથી યુક્ત છે. આ કાદવથી ઉપર આવેલ છે. થાવત્ પ્રતિરૂપ છે. પ્રશસ્ત વર્ણ, ગંધ, રસ, અને સ્પર્શ વિગેરેથી યુક્ત હોવાને કારણે મને હર છે, For Private And Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्र. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् - णं से पुरिसे' ततः खलु स पुरुषः, यः पुष्करिण्यास्तीरे पूर्व देशादागत्य सङ्घर्षस्थितः सः, 'एवं बयासी' एवं वक्ष्यमाणवचनम् अवादीत् ' अहमंसि' अहमस्मि 'पुरिसे' पुरुषः 'खेयन्ने' खेदज्ञः खेदं प्रार्गश्रमं जानातीति खेदशः 'कुसले ' कुशलः हिताहितप्राप्तिपरिहारे निपुणः 'पंडिए' पण्डितः - विवेक बुद्धियुक्तः 'वियले ' व्यक्तः 'मेहावी' मेधावी - हिताहितबुद्धिमान 'अवाले' अबालो वालमावाभिवृः 'मग्गस्थे' मार्गस्थ :- सद्भिराचरितसन्मार्गे सदाचरणे वा आस्थितोऽस्मि । 'मग्गविउ ' मार्गवित-मार्गमहं जानामि 'मग्गस्स' मार्गस्य 'गपरक १०णू' गतिपराक्रमज्ञः, येन यथा चलन् जीवः स्वाभीष्टतमं देशमपाप्नोति, तमहं जानामि, अथवा - येन प्रकारेण जलमुत्तीर्य जलमध्यगतं वस्तु प्राप्यते तादृशयमहं वेद्मि । 'अहमे यं' अहमेतत् एतादृशोऽहम् एतत् 'पउमवरपुंडरीयं' पचव (पुण्डरीकं - प्रधानकमलम् 'उन्निक्खिस्सामि' उन्निक्षेपस्यामि जलादेतत् कमलमुत्क्षिप्याssनेष्यामि - स्वायी करिष्यामि । 'ति' इति कृत्वा 'इइ क्या' इत्युक्तत्वा 'से पुरिसे' इस प्रकार देखने के पश्चात् पूर्व दिशा से आया हुआ वह पुरुष यों कहता है मैं मार्ग में होने वाले श्रम को जानता हूँ, हित की प्राप्ति और अहित का परिहार करने में निपुण हू, विवेक बुद्धि से सम्पन्न हूं, प्रौढ परिपक्व हूं, मेधा का धनी हूं । सत्पुरुषों द्वारा आचरित मार्ग में या सदाचरण में स्थित हूँ । मार्ग का वेत्ता हूं जिस पथ पर चलता हुआ जीव अपने अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त करता है, में उस पथ को जानता हूँ अथवा जिस प्रकार जल में तैर कर जल के मध्य में स्थित वस्तु प्राप्त की जाती है, उसे मैं समझता हूं। मैं पुरुष हूं-मर्द हू ! मैं इस प्रधान कमल को उखाड कर ले आऊंगा और अपना बना लुंगा । આ પ્રમાણે જોયા પછી પૂ દિશાથી આવેલ તે પુરૂષ એવુ કહે છે કે હું માગ”માં થયેલા પરિશ્રમને જાણું છું. હિતની પ્રાપ્તિ અને અહિતના પરિહાર–ત્યાગ કરવામાં કુશળ છુ. વિવેક બુદ્ધિવાળા છુ' પ્રૌઢ અને પરિપકવ છુ. બુદ્ધિશાળી છુ. સત્પુરૂષો દ્વારા આચરવામાં આવેલ માર્ગને જાણુ. વાવાળા છું. જે માર્ગ પર ચાલતા થકો જીવ પાતાની ઈચ્છા પ્રમાણેના લક્ષ્યને પ્રાપ્ત કરે છે. તે માને હું જાણનારા છું. અથવા જે પ્રમાણે જળમાં તરીને જળની મધ્યમાં રહેલ વસ્તુ પ્રાપ્ત કરવામાં આવે છે, તેને હૂં સમજું છું હું. પુરૂષ છે. માઁ છું. હૂં. આ શ્રેષ્ઠ કમળને ઉખાડીને લઈ આવીશ અને મારૂં મનાવીશ. सू० २ For Private And Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सकताहरुले स पुरुषः 'अभिक्कमेह तं पुक्खरिणि' अभिक्रामति तां पुष्करिणीम् , इत्युक्त्या 'वं पुष्करिणी पविशति कमलमानेतुम् । किन्तु 'जावं जावं च गं' यावद् यावच्च खलु 'अभिक्कमेइ' अभिक्रामति यावदग्रे अग्रे याति 'तावं तावं च गं' तावत् तावच्च खलु ‘महंते उदए' महद् उदकम् 'महंते सेए' महान् सेय:पङ्क आगच्छति, ततश्च 'पहीणे तीरं' प्रक्षीणस्तीरात्, तीराभ्रष्टः 'अपत्ते पउमघर पोंडरीयं' अमाप्तः पद्मवर पुण्डरीकम् , तीराच्च्युतः पद्मवरपुण्डरीकं चापि न पाप्तः, ततः सः ‘णो हत्याए णो पाराए' नो अर्बाचे नो पाराय-नो पूर्वतटे न परतटे पावरपुण्डरीकातु परिभ्रष्ट एवं संस्पृष्टतीरादपि भ्रष्टः, 'अंतरा पोक्ख. रिणीए' अन्तरा पुष्करिण्याः वापी मध्ये 'सेसि' सेये-पङ्के "निसण्णे निषण्णः निमग्ना-पुष्करिण्याः कर्दमे निमग्नः क्लेशम नुभवन्नास्ते । एषः 'पढमे प्रथमः 'पुरिसजाए' पुरुषजातः कथितः ॥सू० २ । मूलम्-अहावरे दोच्चे पुरिसजाए, अह पुरिसे दक्षिणाओ दिसाओ आगम्मतं पुक्खरिणिं। तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिच्चा पासह तं महं एगं पउमवरपोंडरीयं अणुपुवुट्टियं पासाई यं जाव इस प्रकार अपनी हैकडी जता कर-निश्चय कर वह कमल को लाने के लिए पुष्करिणी में प्रवेश करता है। किन्तु जैसे जैसे वह आगे पढता है, वैसे वैसे अधिक पानी और अधिक कीचड का उसको सामना करना पडता है। वह किनारे से भ्रष्ट हो चुकता है और कमलपुष्प तक पहुंच नहीं पाता है । न इधर का रहता है न उधर का । तीरसे भी गया और कमल से भी गया। बावडी के मध्य में ही प्रचुर पंक (गहरे कीचड) में फंस जाता है और क्लेश का अनुभव करता है। ____यह प्रथम पुरुष की कहानी हुई ॥२॥ આ પ્રમાણે પોતે પિતાને નિશ્ચય કરીને તે કમળને લાવવા માટે પુષરિણ વાવમાં પ્રવેશ કરે છે. પરંતુ જેમ જેમ તે આગળ વધે છે, તેમ તેમ વધારે પાણી અને વધારે કાદવને સામને કરવું પડે છે, તે કિનારાથી પતિત થઈ જાય છે; અને કમળના પુપ સુધી પહોચી શકતું નથી. ન અહિ રહ્યો અને ન ત્યાને કીનારાથી પણ ગયો અને કમળથી પણ ગયો. વાવની મધ્યમાં જ અત્યંત કાદવ (ઉંડા કાદવ) માં ફસાઈ જાય છે. અને मन मनुम१ ७२ छे. ॥१॥ છે આ પહેલા પુરૂષની કહેવત થઈ For Private And Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.१ पुण्डरीकनामाध्ययनम् पडिरूवं तं च एत्थ एगं पुरिसजापं पासई पहीणतीरं अपत्त पउमवरपोंडरीयं णो हव्याए णो पाराए अंतरा पोक्खरिणीए सेयंसि णिसन्नं, तए णं से पुरिसे तं पुरिसे एवं वयासी-अहो णं इमे पुरिसे अखेयन्ने अकुसले अपडिए अवियत्ते अमेहावी बाले णो मग्गत्थे णो मग्गविऊ णो मग्गस्स गइपरकमण्णू जन्नं एस पुरिसे एवं मन्ने अहं खेयन्ने कुसले जाव पउमवरपोंडरीयं उन्निक्खिस्लामि णो य खलु एयं पउमवरपोंडरीयं एवं उन्निक्खेयव्वं जहा णं एस पुरिसे मन्ने अहमंसि पुरिसे खेयन्ने कुसले पंडिए वियत्ते मेहावी अबाले मग्गत्थे मग्गविउ मग्गस्त गइपरकमण्णू अहमेयं पउमवरपोंडरीयं उन्निक्खिस्सामि त्तिकट्ठ इइ वच्चा से पुरिसे अभिक्कमे तं पुक्खरिणिं, जावं जावं च णं अभिकर्मइ तावं तावं च णं महंते उदए महंते सेए पहीणे तीरं अपत्ते पउमवरपोंडरीयं णो हव्वाए णो पाराए अंतरा पोक्खरिणीए सेयंसि णिस ने दोच्चे पुरिसजाए ॥सू०३॥ छाया-अथापरो द्वितीयः पुरुषजातः, अथ पुरुषो दक्षिणस्या दिश आगत्य तां पुष्करिणी, तस्याः पुष्करिण्यास्तीरे स्थित्वा पश्यति तन्महदेकं पनवरपुण्डरीकम् आनुपूर्कोस्थितं प्रासादिकं यावत् प्रतिरूपम् । तं चात्रैकं पुरुषजातं पश्यति पहीणतीरम् अप्राप्तपद्मवरपुण्डरीकं नो अर्वाचे नो पाराय, अन्तरा पुष्करिण्याः सेये निषण्णम् ! ततः खलु स पुरुषस्तं पुरुषमेवमवादीत्-अहो खलु अयं पुरुषोऽखेदज्ञोऽ. कुशलोऽपण्डितोऽव्यक्तोऽमेधावी वालः नो मार्गस्थो नो मार्गवित् नो मार्गस्य गतिपराक्रमझो यस्मादेष पुरुष एवं मन्यते, अहं खेदज्ञः कुशलो यावत् पावरपुण्डरीकम् उन्निक्षेप्स्यामि न च खलु एतत् पद्मवरपुण्डरीकम् एवम् उनिक्षेप्तव्यं यथेष पुरुषो मन्यते । अहमस्मि पुरुषः खेदज्ञः कुशलः पण्डितो व्यक्तो मेधावी अबालो मार्गस्थो मार्गविद् मार्गस्य गतिपराक्रमज्ञोऽहमेतत् पावरपुण्डरीकम् उन्निक्षेप्या. मीति कृत्वा इत्युक्त्वा स पुरुषोऽभिक्रामति मतां पुष्करिणी। यावद् यावद् च खल For Private And Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गो अभिक्रामति तावत् तावत् च खलु महदुदकं महान् सेयः पहीणस्तीरात् अप्रासः पावरपुण्डरीकं, नो अर्वाचे नो पाराय अन्तरा पुष्करिण्याः सेये निषण्णः द्वितीयः पुरुषजातः ॥मू० ३॥ टीका-'अहावरे दोच्चे पुरिसजाए' अथापरो द्वितीयः पुरुषजातः । अत्रा. थशब्दो द्वितीय पुरुषवृत्तान्तपदर्शनपरः । 'अबरे' अपरोऽन्यः प्रथमाऽपेक्षया 'दोच्चे' द्वितीयः 'पुरिसजाए' पुरुषजातः 'अह पुरिसे' अथ पुरुषः 'दक्षिणाओ दिसाओ' दक्षिणस्या दिशः, पुष्करिण्या दक्षिणदिग्विभागात् 'आगम्म' आगत्य 'वं पुक्खरिणि' तो पुष्करिणीम् 'तीसे पुक्रवरिणीए' तस्याः खलु पुष्करिण्याः 'तीरे' दक्षिणे तीरे 'ठिचा' स्थित्वा 'पाप' पश्यति 'तं महमेगं पउमवरपुंडरीयं' तन्महदें पावरपुण्डरीकम्-कथलं, तन्महत् पद्मश्रेष्ठभेकं कमलं पश्यन् स्थितः कीदृशं तद् इत्याह-'अणुपुव्वुष्टिय आनुपूा उत्थितम्-विलक्षणरचनया व्यवस्थितम् । 'पासाईय' प्रासादिकम्-मनोरमम् 'जाव पडिरूद' यावत्पतिरूपम् , 'तं च एगं 'अहावरे दोच्चे पुरिसजाए' इत्यादि। टीकार्थ-यहां 'अर्थ' शब्द दुसरे पुरुष के वृत्तान्त का सूचक है। प्रथम पुरुष के कीचड में फँस जाने के पश्चात् दुसरा पुरुष दक्षिण दिशा से उस पुष्करिणी के समीप आता है । वह उस पुष्करिणी के दक्षिण किनारे पर स्थित होकर उसी प्रधान पुण्डरीक कमल को देखता है। वह कमल अपनी विलक्षण रचना से व्यवस्थित है। दर्शक के चित्त को प्रसन्न करने वाला यावत् प्रतिरूप है। यहां 'यावत्' शब्द से दर्शनीय और अभिरूप विशेषण ममझलेना चाहिए। બીજા પુરૂષનું વૃત્તાંત 'अहावरे दोच्चे पुरिसजाए' त्यहि ટીકાર્થ—અહિયાં “અથ શબ્દ બીજા પુરૂષના વૃત્તાન્તને સૂચક છે. પહેલે પુરૂષ કાદવમાં ફસાયા પછી બીજે પુરૂષ દક્ષિણ દિશામાંથી એ વાવની નજીક આવે છે. તે પુરૂષ એ વાવના દક્ષિણ દિશાના કિનારા પર ઉભે રહીને પહેલા વર્ણન કરેલ એ પ્રધાન પુંડરીક-કમળને જુવે છે. તે કમળ પિતાની વિલક્ષણ રચનાથી વ્યવસ્થિત છે. જેનારના ચિત્તને પ્રસન્ન કરવા વાળું યાવતુ પ્રતિરૂપ છે. અહિયાં “યાવત’ શબ્દથી દર્શનીય, અને અભિરૂપ मे में विशेष सम0 वा. For Private And Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरोकनामाध्ययनम् पुरिसनायं पासइ' तत्र च तमेकं पुरुषजातं पश्यति, 'पहोणतीरं अपत्तपउमवरपोंडरीयं' महीणतीरम् अमाप्तपद्मवरपुण्डरीकम् 'गो हवाए गो पाराए' नो अर्शचे नो पाराय, नैतस्मिस्तटे विद्यते, न वा परतट प्राप्तः किन्तु-'अंतरा. पोखरिणीए सेयंसि णिमण्गं' अन्तरा पुष्करिण्याः सेये पङ्के निषण्णम्-निमः ग्नम् 'तए णं से पुरिसे' ततः खलु स पुरुषः यो हि दक्षिणदिग्विभागात् आगतः स पुरुषजातः 'तं पुरिसं एवं वयासी' पूर्वदिक्समागतपङ्कजमुन्नेतुं यः पुष्करिण्या पवेष्टुकामस्तं पुरुषमाश्रित्य एवं-वक्ष्यमाणं वः 'क्यासी' अवादीद-उक्तवान् 'अहो णं हमे पुरिसे अखेयन्ने' अहोऽयं पुरुषोऽखेदज्ञः, खेदं नाम परिश्रमं न सम्यग् जानाति, 'अकुसले' अकुशलः-विवेकबुद्धि विकलः 'अपंडिए' अपण्डित:तत्वातत्वविज्ञानविकलः 'अवियत्ते' अव्यक्तः-कार्यकरणाकुशलः 'अमेहावी' अमेधावी-अपरिपकबुद्धिः 'वाले' बाल:-अज्ञानी, अतश्न ‘णो मग्गत्थे नो मार्गस्थः सत्पुरुपैरभ्य मार्गेऽव्यवस्थितः । णो मग्गविऊ' नो मार्गवित-सत्पुरुषैः सेव्य. ___ यह दूसरा पुरुष वहां एक पुरुष को देखना है, जो तीर से भ्रष्ट हो चुका है और उस प्रधान कमल तक पहूंच नहीं पाया है, न इधर का रहा न उधर का रही है। किन्तु पुष्करिणी के मध्य में कीचड में फंस गया है । तब दक्षिण दिशा से आया हुआ पुरुष, उस पुरुष से जो कमल को लाने के लिए बावडी में घुसा था, इस प्रकार कहता है-अहो, यह पुरुष खेद अर्थात् परिश्रम को नहीं जानता, विवेक बुद्धि से शून्य है, तत्व-अतत्त्व के ज्ञान से हीन है, कार्य करने में अकुशल है, इसकी बुद्धि परिपक्व नहीं हुई है, अज्ञान है, इस कारण मार्गस्थ नहीं है अर्थात् सत्पुरुषों द्वारा आवीर्ण मार्ग में स्थित नहीं है, सत्पुरुषों તે બીજે પુરૂષ ત્યાં એક પુરૂષને જુવે છે, કે જે કિનારેથી નીકળી ચકેલ છે, અર્થાત કિનારાથી પતિત થઈ ચૂક્યો છે, અને તે પ્રધાન કમળ સુધી પહોંચી શક્ય નથી. અર્થાતુ નથી અહિંને રહ્યો કે નથી તહીને રહ્યો. પરંતુ વાવની વચમાં કાદવમાં ફસાઈ ગયેલ છે. ત્યારે દક્ષિણ દિશાએથી આવેલે પુરૂષ કમળને લાવવા માટે વાવમાં પ્રવેશેલા તે પુરૂષને આ प्रमाणे छ. અહો ! આ પુરૂષ છે કે પરિશ્રમ-થાકને સમજાતું નથી, વિવેક બુદ્ધિ વગરને છે. તત્વ કે અતત્વના જ્ઞાન વગરને છે. કાર્ય કરવામાં કુશળ નથી. આની બુદ્ધિ પરિપકવ થયેલ નથી, અજ્ઞાની છે, તેથી તે માર્ગથ-અર્થાત માર્ગ પ્રમાણે ચાલનારે નથી, એટલે કે સપુરૂષેએ આચરેલ માર્ગનું તેણે For Private And Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे मानं मार्ग न विजानाति । 'णो मग्गस्स गइपरकामण्णू' नो मार्गस्य गतिपरा. क्रमज्ञः, मार्गस्य यो गतिपराक्रमौ त योरपि ज्ञाता नास्ति । 'जन्न एस पुरिसे एवं मन्ने' यस्मादेष पुरुष एवं मन्यते-ये पुनरन्ये कोविदास्तेषु 'अहं खेयन्ने कुसले' अहं तु खेदसः कुशलः 'जाव पउमवरपोंडरीयं' यावत् पद्मरपुण्डरीकम् 'उनि. क्खिस्सामि' उन्निक्षेप्स्यामि-उवृत्याऽऽनेष्यामि, 'णो य खलु एयं परमवरपोडरीयं न खलु एतत पावरपुण्डरीकम् ‘एवं उन्निक्खेयव्यं जहा णं एस पुरिसे मन्ने' एवम् उन्निक्षेप्न यथैष पुरुषो मन्यते । नैतस्य कमलस्योद्धरणं सुलभंयथाऽयं सरलं बुद्धिमान्धाज्जानाति किन्तु एतस्योद्धरणं सातिश्यं कठिनम् । 'अहमंसि पुरिसे' अहमस्मि पुरुषः 'खेयन्ने कुसले पंडिए वियत्ते मेहावी बाले मग्गत्थे मग्गविऊ' खेदज्ञः कुशलः पण्डितोव्यक्तो मेधावी अबालो मार्गस्यो मार्गवित् , 'मग्गस्स गइपरक्कमण्णू' मार्गस्य गतिपराक्रमज्ञः 'अहमेयं पउभवरपोडद्वारा सेवित मार्ग को जानता भी नहीं है, मार्ग संबंधी गति और पराक्रम का ज्ञाता नहीं है। इसने बहुत अनुचित कर्म किया। किन्तु मैं इसके समान नहीं हूं। मैं मार्ग के परिश्रम का ज्ञाता हूं, कुशल हूं, यावत् उस उत्तम पुण्डरीक को उखाड कर ले आऊंगा। जैसा यह पुरुष समझता है, वैसे वह उत्तम कमल उखाड कर नहीं लाया जा सकता। उस कमल को उखाड कर लाना वेसा सरल नहीं है जैसा कि मूर्खता के कारण यह पुरुष समझता है । उसका उखाडन। बहुत ही कठिन है। मैं मर्द हूं, खेदज्ञ, कुशल, पण्डित, परिपक्व, मेधावी. ज्ञानवान, मार्ग में स्थित और मार्ग का ज्ञाता हूं। અવલખન કરેલ નથી. સંપુરૂએ સેવિત માર્ગને તે જાણતા પણ નથી. માર્ગ સંબંધી મતિ અને પરાક્રમને તે જાણતા નથી. આણે ઘણું જ અગ્ય કર્મ કર્યું છે. પરંતુ હું એના જેવો મૂર્ખ નથી, હું માર્ગમાં થનારા પરિશ્રમને જાણવાવાળો છું, કુશળ છું. યાવત તે ઉત્તમ પુંડરીકને ઉખેડીને લઈ આવીશ. જે રીતે આ કાદવમાં ફસાયેલ પુરૂષ સમઝે છે, તે રીતે આ ઉત્તમ કમળ ઉખાડીને લાવી શકાતું નથી. તે કમળને ઉખ ડીને લાવવું તે એટલું સહેલું નથી, કે જેમ આ પુરૂષ પિતાના મૂખપણાથી સમઝે છે. તેને ઉખાડવું घा १ ४४९ छ, म छु. मेश-परिश्रमाने नारे। छु. १ छु, પંડિત છુ. પરિપકવ છું. મેધાવી–બુદ્ધિશાળી છું. જ્ઞાનવાન છું, માર્ગમાં સ્થિત અને માર્ગને જાણનારે છું. For Private And Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - लमयाबोधिनी रीका डि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् १५ रीय' अहमेतत् पद्मपरपुण्डरीकम् 'उन्निक्विस्सामि' उन्निक्षेप्स्यामि, इति मतिज्ञ याऽहमिहाऽऽगतोऽस्मि । 'त्ति कटुं' इति कृत्वा इत्थं प्रतिज्ञां कृत्वाऽहमत्राऽऽगतोऽस्मि । कथमेतत् पनं सपङ्कजलाज्जलाशयादुद्धरणीयं तत्सर्वं विधिविधानमई जानामि, अतो मयैतत्कार्य कार्यम् 'इह वच्चा से पुरिसे अभिक्कमे तं पुक्खरिणि' इत्युक्त्वा स पुरुषोऽभिक्रामति तां पुष्करिणीम्, 'जावं नावं च णं अभिक्कमेइ' यावद् यावरच सोऽभिकामति 'तात्र तावं च णं महंते उदए महंते सेए' तावत् तावच्च सः महदुदकं महान् सेयः आगच्छति द्वितीयः पुरुष आत्मश्लाघां कुर्वन् प्रतिक्षिपंश्च पुरुषान्तरं यावत् पुष्करिण्यां प्रविष्ट एवोत्तमं कमलमानेतुम् , ताबन्महाजलं महान्तं सेयं समवाप्य 'पहीणे तीरं अपत्ते पउमवरपोंडरीयं' पहीणस्ती. रात् अमाप्तः पद्मवरपुण्डरीकम् , दक्षिणतीराद् भ्रष्टो न च प्राप पावरपुण्डरीकम् । इस प्रकार वह अपने आपमें बुद्धि के अतिशप को और कमल को लाने की योग्यता को प्रकट करता हुआ मुस्करा कर आडम्पर के साथ पराक्रम करता है। वह प्रतिज्ञा करता है कि मैं इस कमल को उखाड कर ले आऊंगा। मैं ऐसी प्रतिज्ञा करके ही यहां आया हूं। इस जल एवं कीचड से व्याप्त जलाशय से कमल को किस प्रकार निकाल लाना चाहिए, यह सब विधि विधान मैं जानता हूं। अतएव यह कार्य मुझे करना चाहिए। ऐसा कह कर वह पुरुष उस पुष्करिणी में प्रवेश करता है। और ज्यों-ज्यों वह उसमें आगे बढ़ता है त्यो त्यों अधिकाधिक जल और कीचड़ के सामने आता है। वह भी तीर को त्याग देता है और उस उत्तम कमल तक पहूंच नहीं पाता है। न इधर का रहता है, न उधर का रहता है । अर्थात् न तो दक्षिणी किनारे पर स्थित रहता है આ પ્રમાણે તે પોત પોતાનામાં બુદ્ધિના વિશેષપણને તથા કમળને લાવવાની યોગ્યતાને પ્રગટ કરતે થકે હસીને આડમ્બર પૂર્વક પરાક્રમ કરાવાને તૈયાર થશે. તે પ્રતિજ્ઞા કરે છે કે-હું આ કમળને ઉખેડીને લઈ આવીશ. હું એવી પ્રતિજ્ઞા કરને જ અહિયાં આવેલ છે આ પાણી અને કાદવથી વ્યાપ્ત જલાશય-વાવમાંથી કમળને કઈ રીતે બહાર કહાડવું જોઈએ તે સઘળી વિધિ-વિધાન હું જાણું છું. તેથી જ આ કાર્ય મારે કરવું જોઈએ. આ પ્રમાણે કહીને તે પુરૂષ તે વાવમાં પ્રવેશે છે. અને જેમ જેમ તે તેમાં આગળ વધે છે, તેમ તેમ વધારેમાં વધારે પાણી અને કાદવ સામે આવે છે. એ પણ કિનારાને છોડી દે છે, અને તે ઉત્તમ કમળ સુધી પહોંચી શકતે નથી, ન અહિને રહ્યો કે ન ત્યાંને અર્થાત્ તે નતે દક્ષિણના કિનારે For Private And Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे 'णो हव्वाए णो पाराए' नो अर्बाचे नो पाराय जात:-न दक्षिणतीरे स्थितः न वा कमलं प्राप्य परतीरं प्राप्तवान् किन्तु - 'अंतरा पोक्खरिणीए सेयंसि णिसन्ने दोच्चे पुरिसजाए' अन्तरा पुष्करिण्याः सेये निषण्णो द्वितीयः पुरुषजातः ॥ सु. २॥ मूलम् -- अहावरे तच्चे पुरिसजाए, अह पुरिसे पच्चत्थिमाओ दिसाओ आगम्म तं पुक्खरिणं तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिच्चा पासइ तं एवं महं पउमवरपोंडरीयं अणुपुव्वुट्टियं जाव पडि - रूवं, ते तत्थ दोन्नि पुरिसजाए पास पहीणे तीरं अपसे पउमरपोंडरीयं णो हनाए णो पाराए जाब सेयांस निसन्ने, तपर्ण से पुरिसे एवं वयासी - अहो णं इमे पुरिसा अखेयन्ना अकुसला अपंडिया अवियत्ता अमेहावि बाला जो मग्गत्था णो मग्गविऊ णो मग्गस्स गइपरक्कमण्णू, जं णं एए पुरिसा एवं मन्ने अम्हे एवं परमवर पोंडरीयं उष्णिक्खिस्सामो, नो य खलु एयं पउमवरपोंडरीयं एवं उन्निक्खेयब्वं जहा णं एए पुरिसा मन्ने, अहमंसि पुरिसे खेयने कुसले पंडिए वियत्ते मेहावी अवाले मग्गत्थे मग्गविऊ मग्गस्स गइपरक्कमण्णू अहमेयं पउमरपोंडरीयं उन्निक्खिस्सामि तिकट्टु इति वच्चा से पुरिसे अभिकमे तं पुक्खरिणिं जावं जावं च णं अभिक्कमे और न कमल के समीप तक पहुंच पाता है। वह पुष्करिणी के बीच में ही कीचड़ में फंस जाता है और महान् दुःख का अनुभव करता है। यह दूसरे पुरुष का वृत्तान्त है ||३|| રહી શકયા કે ન કમળની નજીક સુધી પહોંચી શકયા. તે વાવની વચમાં જ કાદવમાં ફસાઈ જાય છે. અને મહાન દુઃખના અનુભવ કરે છે. આ બીજા પુરૂષનું વત્તાન્ત છે. મારા For Private And Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थयोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् तावं तावं च णं महंते उदए महंते सेए जाव अंतरा पोक्खरिणीए सेयसि णिसन्ने, तच्चे पुरिस जाए ॥सू० ४॥ छाया-अथापरस्तृतीयः पुरुषजातः अथ पुरुषः पश्चिमायाः दिश आगत्य तां पुष्करिणी, तस्याः पुष्करिण्या स्तीरे स्थित्वा पश्यति तद्मइदेकं पद्मवरपुण्डरीकम् आनुपूा उत्थितं यावत् पतिरूपम् । तौ तत्र द्वौ पुरुषजातौ पश्यति महीणौ तीरात् , अमाप्तौ पद्मवरपुण्डरीकं नो अर्वाचे नो पाराय यावत् सेये निषण्णौ । ततः स पुरुष एवमवादीत अहो इमौ पुरुषौ अखेदज्ञौ अकुशलौ अपण्डितो अव्यक्तौ अमेधाविनौ वालो नो मार्गस्थौ न मार्गविदौ नो मार्गस्य गलिपराक्रमज्ञौ, यत इमौ पुरुषौ मन्ये ते आवाम् एतत् पद्मवरपुण्डरीकम् उन्निक्षेप्यावा न च खल एतत् पद्मवरपुण्डरीकम् एवम् उन्निक्षेपाव्यं यथा एतौ पुरुषो मन्येते। अहमस्मि पुरुषः खेदज्ञः कुशलः पण्डितो व्यक्तो मेधावी अबालो मार्गस्थो मार्गविद् मार्गस्य गतिपराक्रमज्ञः, अहमेतत् पावरपुण्डरीकम् उन्निक्षेप्स्यामीति कृत्वा इत्युक्त्वा स पुरुषोऽमिकामति तां पुष्करिणी, यावद यावद् च खलु अभिक्रामति तावत् तावच खलु महदुदकं महान् सेयः यावदन्तरा पुष्करिण्याः सेये निषगः तृतीयः पुरुषजातः।। टीका- 'अहावरे तच्चे पुरिसजाए' अथापरस्तृतीयः पुरुषजातः । प्रथमद्वितीययोवृत्तान्तमुपवयं तृतीयपुरुषवृत्तान्त वर्णयति । 'अह पुरिसे' अथ पुरुषः 'पच्चत्थिमाओ दिसाओ' पश्चिमाया दिशः 'आगम्म' आगत्य 'तं पुक्खरिगि' तां पुष्करिणीम् , तृतीयः कश्चिद् अज्ञातनामगोत्रादिः पश्चिमदिग्विभागात् तां पुष्करिणीमागतो यत्र पङ्कनिमग्नौ द्वौ आस्ताम् । 'तीसे पुक्रवरिणीए तीरे ठिच्चा' 'अहावरे तच्चे पुरिसजाए' इत्यादि । अब प्रथम और द्वितीय पुरुष का वर्णन करके तीसरे पुरुष का वर्णन करते हैं - 'अहावरे तच्चे पुरिसजाए' इत्यादि टीकार्थ-कोई एक अज्ञात नाम गोत्र पुरुष पश्चिम दिशा से उस पुष्करिणी के समीप आया जिसमें दो पुरुष कीचड़ में फंस चुके थे। वह उसके किनारे स्थित होकर एक उत्तम पुण्डरीक कमल को देखता है जो પહેલા અને બીજા પુરૂષનું વર્ણન કરીને હવે ત્રીજા પુરૂષનું વર્ણન ४२पामां आवे छे-'अहावरे तच्चे पुरिसजाए' त्या ટીકાઈ——કેઈ એક અજ્ઞાત નામ ગેત્રવાળે પુરૂષ પશ્ચિમ દિશાએથી તે વાવની નજીક આવ્યો કે જેમાં બે પુરૂ કાદવમાં ફસાઈ ચુક્યા હતા. તે પુરૂષ તે વાવના પશ્ચિમ કિનારે ઉભે રહીને તે એક ઉત્તમ પુંડરીક-કમળને For Private And Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतास्त्रे अस्याः पुष्करिण्या स्तीरे स्थित्वा 'पास' पश्यति, पश्चिमत आगत्य तस्याः पथिमवटे स्थितः पश्पति तत्राह-'तं एगं पउमवरपोंडरीयं तमेकं महत् पावरपुण्डरीकम् 'अणुपुबुट्टिय' आनुपूर्या-उत्थितम् विशिष्टरचनया युक्तम् , 'जाव पडिरूवं' यावत्पतिरूपम्-अतिमनोहरम् वर्णगन्धरसम्पर्शयुक्तम् प्रासादीयं दर्श नीयमभिरू प्रतिरूपमिति । 'ते तत्थ दोन्नि पुरिसजाए पासई तो तत्र द्वौ पुरुष 'जाती पश्यति । को दशौ तौ द्वौ पुरुषजातो तत्राह-'पहीणा तीरं अपत्ता पउमवरपोंडरीयं' महीणो तोरात् अमाप्तौ पद्मवरपुण्डरीकम्, स्थानाच्च्युतौ, अनासादित. लक्ष्यको । 'णो इच्चाए नो पाराए' नो अर्भाचे नो पाराय, किन्तु 'जाव सेयंसिणिसन्ना' यावत् सेये निषण्णौ-तौ पुरुषो कमलानयनेऽसमर्थों पङ्कनिमग्नौ आस्ताम् इति दृष्ट्वा, 'तए णं से पुरिसे एवं वयासो' ततः खलु स पुरुष एवमयादीत् । तथाविधौ तो दृष्ट्वा-तृतीय आगन्तुक पुनर्वक्ष्यमाणं वच उवाच 'अहो णं इमे पुरिसा' अो इमौ पुरुषो, यौ हि पद्मलोमाथिनौ पले दुःखमनुभवन्तौ 'अखेपन्ना' अखेदज्ञौ परि श्रमविषयकपरिज्ञानरहितो 'अकुसला' अकुशलो, तत्कर्मणि यथावत् तस्कृतिविरहितो 'अपंडिया' अपण्डितौ-सदसद्विवेकशुन्यौ 'अवियत्ता' अव्यक्तौ -कार्य करणानभिज्ञो अनुकम से उस्थित अर्थात् विशिष्ट रचना से युक्त यावत् प्रतिरूप है। अर्थात् प्रशस्त वर्ण गंध रस और स्पर्श से युक्त, प्रासादिय, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप है। . यह तीसरा पुरुष वहां दो पुरुषों को देखता है, जो तीर से अलग हो चुके है, पद्मवर पुण्डरीक तक पहुंच नहीं सके हैं, न इधर के रहे हैं, न उधर के रहे हैं यावत् कीचड़ में फंस गए हैं। उन दोनों को देख कर वह तीसरा पुरुष इस प्रकार कहता है-अहो, यह दोनों पुरुष परि. श्रम संबंधी ज्ञान से रहित हैं, अकुशल हैं, विवेकशून्य हैं, अध्यक्तજુવે છે. કે જે કમળ અનુક્રમથી-ઉસ્થિત-અર્થાત વિશેષ પ્રકારની રચનાથી યુક્ત યાવત્ પ્રતિરૂપ છે. અર્થાત્ પ્રશસ્ત વખાણુને લાયક વર્ણ, ગંધ, રસ અને સ્પર્શથી યુક્ત પ્રાસાદીય દર્શનીય અભિરૂપ અને પ્રતિરૂપ છે. તે ત્રીજો પુરૂષ તે વાવમાં બે પુરૂષને જુવે છે. કે જેઓ કિનારાથી અલગ થઈ ગયેલા છે, અને પદ્મવર પુંડરીક-કમળ સુધી પહોંચી શક્યા નથી. તેઓ નથી અહિના રહ્યા કે નથી ત્યાંના રહ્યા, યાવત તેઓ કાદવમાં ફસાઈ ગયા છેતે બને પુરૂષને જોઈને તે પુરૂષ આ પ્રમાણે વિચારે છે. અહે ! આ બને પુરૂષે પરિશ્રમ સંબંધી જ્ઞાનથી રહિત છે, અકુશળ છે, विव विनाना छ, म०यत - साधु विना छ, भेषावा-मुद्धिशाणी नथी, For Private And Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मार्थबोधिनी टीका f. थु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् 'अमेहाची' अमेधाविनौ विवेचनविकलो, 'बाला' बाळौ वालवत् क्षिप्रकारितया वस्तुस्थिति ज्ञातुमयोग्यौ, 'णो मग्ग था नो मार्गस्थौ सतां मार्गेऽवर्तमानो 'णो मग्गविक' नो मार्गविदौ 'णो मग्गस्स गइपरक्कमण्णू' नो मार्गस्य गतिपराक्रमझौ, 'जे णं एए पुरिसा एवं मन्ने' यत इमौ पुरुषौ एवं मन्येते 'अम्हे एवं पउमवरपौडरीयं' आवामेतत् पद्मत्रःपुण्डरीकम् 'उष्णिक्विस्सामो' उभिक्षेप्स्याचा 'नो य खलु एवं पउम पौडरीय' न च खलु एतत् पद्मवरपुण्डरीकम् ' एवं उन्तिकखे पब्वं' एवमुनि क्षेतव्यम् 'जहा ं पुरिसा मन्ने' यथा एतौ पुरुषौ मन्येते यथा-इम अस्य कमलस्य उत्क्षेपणं सरलमितिमत्वा प्रवृतौ समृद्ध नेदं कर्म तथा सरलम् किन्तु एतस्योद्धरणं महत्कष्टसाध्यम् । अहंतु एतस्योद्धरणप्रकारं जानामि किन्तु - 'अमंस पुरिसे खेयन्ने' अहमस्मि पुरपः खेदज्ञः 'कुसले पंडिए त्रियत्ते मेदात्री ' कुशलः पण्डितो व्यक्तो मेघावी 'अवाले मग्गत्ये' अबालो मार्गस्थ ः 'माविऊ' नासमझ हैं, मेधावी नहीं हैं, बालक के समान जल्दबाजी करने के कारण वस्तु स्थिति को समझने में अयोग्य हैं, सत्पुरुषों के मार्ग में स्थित नहीं हैं, मार्ग को जानते भी नहीं हैं, मार्ग की गति और पराक्रम को भी नहीं जानते हैं। इसी कारण ये ऐसा मानते हैं कि हम इस उत्तम कमल को उखाड़ कर ले आएंगे। किन्तु यह उत्तम कमल इस प्रकार उखाड़ कर लाया नहीं जाता, जैसा ये दोनों पुरुष समझते हैं । ये इसका उखाड़ना सरल समझ कर प्रवृत्त हुए हैं । किन्तु यह सरल नहीं, अत्यन्त कष्ट साध्य है। मैं इसके उखाड़ लाने का तरीका બાળકની જેમ ઉતાવળ કરવાથી વસ્તુ-સ્થિતિની સમજણ વિનાના છે, સત્પુરૂપાના માર્ગોમાં સ્થિર નથી માની સમજણુ વિનાના છે. અર્થાત્ માને જાણતા નથી, તે કારણથી તેએ એવું માને છે કે અમે આ ઉત્તમ કમળને ઉપાડીને લઈ જઈશું. પરંતુ આ ઉત્તમ કમળ એ રીતે સહેલાઇથી ઉખાડીને લાવી શકાતુ નથી. જેમ આ બન્ને પુરૂષા માને છે, કે આ ક્રમ ળને ઉખાડવુ સહેલુ છે, તેથી તેએ એવુ માને છે કે અમે આ કમળને ઉખાડીને લઇ આવીશુ. પરંતુ આ કમળ એ રીતે ઉખાડીને લાવી શકાય તેમ નથી, કે જેમ આ બન્ને માને છે. આ પુરૂષા આ કમળને ઉખાડવાનુ સહેલું સમજીને પ્રવૃત્ત થયા છે. પરતુ તે સહેલું નથી. અત્યંત કષ્ટ સાધ્ય દુ:ખથી પ્રાપ્ત કરાય તેવું છે. હું આ કમળને ઉખડીને લાવવાને ક્રિમિને For Private And Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतोगसूत्रे मार्गवित सतां मार्ग जानामि, सतां मार्गे विद्यमानोऽहम् अतो मया निवर्तयितुं शक्यते एतत्कार्य म्। 'मग्गस्स गइ परक्कमण' मार्गस्य गतिपराक्रमज्ञः, मार्गस्य गतिपराक्रमयोर्य थावद्विधानवेत्ता, 'अहमेयं पउमंबरपोंडरी' अहमेतत् पद्मवर पुण्डरीकम् 'उन्निक्खिस्सामि' उन्निक्षेप्यामि 'त्तिक?' इति कृत्वा, अहमेतकमलमुरिष्यामि-इति प्रतिज्ञाय झटिति समागतोऽहं जानामि चोद्धरणप्रकारम्, सतां मार्गस्याऽपि वेत्ताऽहम् । तस्मान्मनोऽभिलषितं कर्तुं शक्नोमि, । 'इइ वुच्चा से पुरिसे' इत्युक्त्वा स पुरुषः 'भभिक्कमे तं पुक्खरिणि' अभिकामति तां पुष्करिणीम् , इत्यभिधाय तत्र प्रविष्टः । 'जावं जावं च णं अभिकमे' यावद् यावच्च खलु अभिक्रामति, यावद् यावच्च पुष्करिण्यां प्रविष्टो भवति 'तावं ता च णं महंते उदए' तावत् तावच्च खलु महदुदकम् 'महंते सेये' महान् सेय आगच्छति, 'जाव अंतरा पोकावरिणोए' यावदन्तरा पुष्करिण्याः सेयंसि' सेये-पड़े "णिसन्ने' जानता हूं। मैं खेदज्ञ उस परिश्रम का ज्ञाता, कुशल, पण्डित, व्यक्त, मेधावी, विज्ञ, मार्ग में स्थित, मार्ग का ज्ञाता, मार्ग में वर्तमान पुरुष हूं। मैं ही इस कार्य को सम्पादित कर सकता हूं। मैं मार्ग की गति और पराक्रम का ज्ञाता है। मैं इसे उखाड़ कर ले आऊंगा। इस प्रकार कह कर वह पुरुष पुष्करिणी में प्रवेश करता है। किन्तु जैसे जैसे वह पुष्करिणी में प्रवेश करता है, वैसे वैसे अधिकाधिक जल और कीचड़ का सामना करना पड़ता है । यावत् वह उस पुष्करिणी के कीचड़ में फंस जाता है। इस प्रकार के अभिमान के साथ उसने पुष्करिणी में प्रवेश किया था किन्तु कीचड़ की बहुलता होने से तथा तैरने का ज्ञान न होने MY छु. ईमेज्ञ-ह-परिश्रमने पापो शत, ५डित, व्यात, મેધાવી, વિજ્ઞ માર્ગમાં સ્થિત માર્ગને જાણકાર અને માર્ગમાં રહેવાવાળે પુરૂષ છું. હું જ આ કાર્યને પાર પાડી શકું તેમ છું. હું માની ગતિ અને પરાક્રમને જાણનારો છું. માટે હું આ કમળને ઉખાડીને લઈ આવીશ. આ પ્રમાણે વિચારીને એ ત્રીજો પુરૂષ એ વાવમાં પ્રવેશ કરે છે. પરંતુ જેમ જેમ તે પુરૂષ એ વાવમાં પ્રવેશી જાય છે, તેમ તેમ વધારેને વધારે પાણી અને કાદવને સામને તેને કરે પડે છે, યાવત્ તે પુરૂષ પણ એ વાવના કાદવમાં ફસાઈ જાય છે. - આ રીતે અભિમાન પૂર્વક તેણે વાવમાં પ્રવેશ કર્યો હતો પણ કાદવનું અધિક પણું હેવાથી તથા તરવાનું જ્ઞાન ન હોવાથી તે પુરૂષ પણ એ For Private And Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीक, द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् निषणः-निमग्नः। तच्चे पुरिसजाए' एषः तृतीयः पुरुषजातः, यथा तो पुरुषो निपगौ-निमग्नौ आस्ताम्, तथैवाऽयपि तृतीय पुरुषो दर्पाध्माता पङ्क निमग्नः । सू. ४ ___- मूलम्-अहावरे चउत्थे पुरिसजाए, अह पुरिसे उत्तराओ दिसाओ आगम्म तं पुक्खरिणिं, तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिच्चा पासइ तं महं एगं पउमवरपोंडरीयं अणुपुबुट्टियं जाव पडिरूवं, ते तत्थ तिन्नि पुरिसजाए पासइ पहीणे तीरं अपत्ते जाव सेयंसि णिसन्ने । तए णं से पुरिसे एवं वयासी-अहो णं इमे पुरिसा अखेयन्ना जाव णो मग्गस्स गइपरकम जपणं एए पुरिसा एवं मन्ने अम्हे एयं पउमवरपोंडरीयं उन्निक्खिस्सामो। णो य खलु एयं परमवरपोंडरीयं एवं उन्निक्खेयव्वं जहा णं एए पुरिसा मन्ने, अहमंसि पुरिसे खेयन्ने जाव मग्गस्स गइपरक्कमण्णू, अहमेयं पउमवरपोंडरीयं उन्निविखसामि तिकटु इइ वुच्चा से पुरिसे तं पुक्खरिणिं जावं जावं च णं अभिक्कमे ता तावं च णं महंते उदए महंते सेए जाव णिसन्ने चउत्थे पुरिसजाए ॥५॥ छाया-अथापर चतुर्थः पुरुष जातः, अथ पुरुष उत्तरस्याः दिश आगत्य ता पुष्करिणों तस्याः पुष्करिण्यास्तीरे स्थित्वा पश्यति तन्महदेकं पद्मावरपुण्डरीकम् से वह कीचड़ में फंस गया और शोक सागर में डूब गया। यह तीसरे पुरुष की कहानी है। जैसे पहले वाले दो पुरुष कीचड़ में फंस कर दुःखी हुए उसी प्रकार यह तीसरा भी दुःखी हो गया । ४॥ વાવના કાદવમાં ફસાઈ ગયો, અને શેક સાગરમાં ડૂબી ગયે. આ ત્રીજા પુરૂષની વાત છે. જેમ પહેલા બે પુરૂષ કાદવમાં ફસાઈને દુઃખી થયા એજ પ્રમાણે આ ત્રીજે પુરૂષ પણ દુઃખી થઈ ગયો. જો For Private And Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૧ सूत्रकृतासूत्रे आनुपूर्व्या उत्थितं यावत् प्रतिरूपम् । तान् तत्र त्रीन् पुरुषजातान् पश्यति मीणा तीराद् अमाप्तान् यावत् से ये निषण्णान् । ततः खलु स पुरुष एवमवादीत् अहो खलु इमे पुरुषा अखेदज्ञाः यावन्नो मार्गस्य गतिपराक्ररज्ञाः यस्मादेते पुरु एवं मन्यन्ते वयमेतत् पद्मवर पुण्डरीकमुन्निक्षेप्स्यामः । न च खलु पद्मापुण्डरीकमेवमुन्निक्षेतव्यं यथा खलु - एते पुरुषा मन्यन्ते । अहमस्मि पुरुषः खेदज्ञो यात्रन्मार्गस्य गति पराक्रमज्ञः, अहमेतत् पद्मत्ररपुण्डरीकमुन्निक्षेप्स्यामीति कृत्वा, इत्युक्त्वा स पुरुषः तां पुष्करिणीं यावद् यावच्च खलु अभिक्रामति तावत् तावच्च खलु महदुदकं महान् सेयो यावन्निषण्णचतुर्थः पुरुषजातः ॥ ०५ ॥ टीका- 'अहावरे चउत्थे पुरिसजाए अथाऽवर चतुर्थः पुरुषातः तृतीया न्तस्य वृत्तान्तकथनतः पश्चा च्चतुर्थः पुरुषस्य अविदितत्तान्तमुपवर्णयति । 'अहपुरिसे' अथ पुरुष 'उत्तराओ दिसाओ' उत्तरस्या दिशः 'तं पुक्खरिणि' तां पुष्करिणीम् ' आगम' आगत्य 'तीसे पुत्रवरिणीए' तस्याः पुस्करिण्याः 'तीरेठिच्चा' तीरे स्थित्वा 'पास' पश्यति, एकः कश्चिदज्ञात नामक उत्तरदिशातः आगतः, आगत्य च तादृश पुष्करिण्या उत्तरतीरे स्थितः पश्यति । किं पश्यति तत्राह - 'तं महमेकं परमवर पोंडरीयं' तन्मददेकं पद्मरपुण्डरीकम् 'अणुपुच्वुद्वियं' आनुपूर्व्या उत्थितम् - विलक्षण रचनोपपेतम् 'जाव पडिवं' यावत्प्रतिरूपम्, विशिष्टरचनया युक्तम् अतिमनोहरं वगगन्धादिभिः, प्रासादिकं दर्शनीयमभि तीन पुरुषों का वृत्तान्त कह कर अब चौथे का वृत्तान्न कहते हैं । 'अहावरे चत्थे पुरिसजाए' इत्यादि । टीकार्थ- यह चौधा पुरुष उत्तर दिशा से पुष्करिणी के समीप आया और किनारे पर खड़ा होकर देखता है - यह प्रधान उत्तम पुण्ड रीक है । वह विलक्षण प्रकार की रचना से युक्त है यावत् प्रतिरूप है अर्थात् अत्यन्त मनोहर है, उत्तम वर्ण गंध आदि वाला, प्रासादिय, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप है। इस प्रकार उसने उम उत्तम ત્રણ પુરૂષની વાત કહીને હવે ચાથા પુરૂષનું વૃત્તાંત કહેવામાં આવે 'छे. 'अहावरे चउत्थे' इत्याद्दि ટીકા ચાથેા પુરૂષ ઉત્તર દિશાએથી છે વાવની નજીક આવ્યા. અને તેના ઉત્તર કિનારે ઉભેા રહીને તે કમળને જૂવે છે. અને વિચારે છે કેઆ પ્રધાન ઉત્તમ પુડરીક-કમળ છે. તે વિલક્ષણ પ્રકરની રચનાથી યુક્ત છે. યાવત્ પ્રતિરૂપ છે. અર્થાત્ અત્યંત મનેાહર છે, ઉત્તમ વણુગ ંધ વિગેરેવાળુ માસાદીય, દનીય, અભિરૂપ અને પ્રતિરૂપ છે. આ પ્રકારના તે ઉત્તમ અને For Private And Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. थु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् रूपं पतिरूपं मनोहारिकमलमपश्यत् । तथा-स पुरुषः -'ते तत्य तिन्नि पुरिस जाए पासई तान् तत्र त्रीन् पुरुषजातान् पश्यति । 'पहीणे तीरे' महीणांस्तीरात् 'अपत्ते' अपातान्-पमवरपुण्डरीकपनधिगतान् चतुर्थो हि पुरुषः-स्व स्व पारि. श्रमिकफलाद्विभ्रष्टान् अपाप्तकमलान् तीरादपि भ्रष्ट न नान् श्रीन् तथ भून पश्यति । 'जाव सेयंसि' यावत्सेये प? 'णिसन्ने' निषण्णान्-पङ्के निमग्नान् पश्यतीति । 'तए णं से पुरिसे' ततः खलु स पुरुषः 'एवं वयासी' एवं वक्ष्यमाणं वचोऽवादीत्-'अहोणं इमे पुरिसा अखेयन्ना' अहो खलु इमे-थे मग्नाः त्रयोऽपि पुरुषा अखेदज्ञाः-खेदं सर्वथैवाऽजानन्तः, 'जाव णो मग्गरस गइपरकमण्णू' यावन्नो मार्गस्य गतिपराक्रमज्ञाः, यं मागवलक्षण्यमासाद्य लोकाः स्वाभिल पित साध्यं साधयन्ति तादृशमार्गस्थ इमे न ज्ञातारः, अत एवाऽमार्गविसात और मनोहर कमल को देखा । तीन पुरुषों को भी देखा, जो तार से च्युत हो चुके हैं और कमल तक पहुंच नहीं सके हैं, परन्तु कीचड़ में फस गए हैं। यह सब देख कर यह चौथा पुरुष इस प्रकार बोलाअहा यह तीनों पुरुष मार्ग संबंधी खेद को नहीं जानते हैं यावत् मार्ग की गति और पराक्रम को भी नहीं जानते हैं। जिस विशिष्ट मार्ग को प्राप्त करके लोग अपने अभीष्ट साध्य को सिद्ध करते हैं, उस मार्ग के ज्ञाता ये नहीं हैं। अतएव मार्ग को न जानने के कारण अपने अभीष्ट को प्राप्त न करते हुए ये कीचड़ में फंस गए दुःख और भुगत रहे हैं। ये पुरुष समझते हैं। कि हम इस पुण्डरीक कमल को उखाड़ कर ले आएंगे, परन्तु यह कमल यों उखाड़ कर नहीं लाया जाता कि जिस प्रकार ये पुरुष मानते हैं, किन्तु मैं मर्द है, मार्ग के खेद का ज्ञाता મનહર કમળને તેણે જોયું. અને વાવમાં પ્રવેશેલા તે ત્રણે પુરુષ ને પણ જોયા. કે જેઓ કિનારાથી છુટી ગયેલા છે, અને કમળ સુધી પહોંચી શકયા નથી. પરંતુ કાદવમાં જ ફસાઈ ગયા છે. આ બધું જોઈને પુરૂષ આ પ્રમાણે વિચારવા લાગ્યા અહો ! આ ત્રણે પુરૂષે મળ સંબંધી ખેદને સમજતા નથી. યાવતું મર્થની ગતિ અને પરાક્રમને પણ જાણતા નથી જે વિશેષ પ્રકારના માર્ગને પ્રાપ્ત કરીને લેકે પિતાની ઇચ્છા પ્રમાણેના સાથને સિદ્ધ કરે છે, તે માગને જાણનારા આ પુરૂષે નથી, તેથી જ એટલે કે માર્ગને ન જાણવાથી પિતાના ઇછિતને પ્રાપ્ત કર્યા વિના જ કાદવમાં ફસાઈ ગયા છે અને દુઃખ ભોગવે છે. આ પુરૂ સમજે છે કે- અમે આ વાવમાં રહેલા ઉત્તમ પુંડરીક-કમળને ઉખેડીને લઈ આવીશું. પરંતુ આ કમળ એમ ઉખાડીને લાવી શકાતું નથી. પરંતુ હું મર્દ છું. માર્ગના ખેદને For Private And Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे ' अभिलषितंमलभमानाः सन्त एव पङ्के पतनाद दुःखं प्राप्ताः | 'जणं एए पुरिसा' यस्मादेते पुरुषाः ' एवं मन्ने' एवं मन्यन्ते, 'अम्हे एयं परमत्ररपौडरीयं' वयमेतत् पद्यवरपुण्डरीकम् 'उभिक्खिस्सामो' उभिक्षेप्स्यामः - उत्कृष्य आनयिष्यामः 'णो 'णो य खलु य खलु एयं पउमवर पौडरीयं उन्निकखे गवं न च खलु एतत् पद्मरपुण्डरीकमुन्नि क्षेप्तव्यं स्यात् स्वायत्तीकर्त्तव्यं स्यात् 'जहा णं एए पुरिसा मन्ने' यथा खलु एते पुरुषाः मन्यन्ते, किन्तु 'अहमंसि पुरिसे खेपन्ने' अहमस्मि पुरुषः खेदज्ञः । 'जात्र मग्गस्स गइपरककमण्णू' यावन्मार्गस्य गतिपराक्रमज्ञः, सत्यमहं मार्गश्रमज्ञोऽस्मि, तथा - यादृशमार्गमवलव्य जीवः स्वाभिलषितं प्राप्नोति तादृशमार्गस्य समस्तमपि स्वरूपं यथावदहं जानामि । 'अहमेयं परमत्ररपौडरोय' अहमेतत् पद्मरपुण्डरीकम् 'उचिक्खिस्सामि' उन्निक्षेप्स्यामि । 'तिकड' इति कृत्वा, अत्र समागतोऽस्मि, अहं सर्वथा कुशलः सर्व मार्ग जानामि, अतो मयाऽवश्यमेतत् कमलसुदरणीयम् । 'इ' इत्युक्तवा 'से पुरिसे' स चतुर्थः पुरुष आत्मानं समर्थ मन्यमानः 'तं पुक्लरिणि' तां पुष्करिणीम् अगाधजलां पङ्गसहितां पद्मवरयुताम् 'जावं जावं च णं' यावद् यावच्च खलु 'अभिक्कमे' अभिक्रामति - यावदेव कमल 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यावत् मार्ग की गति और पराक्रम का ज्ञाता हूं जिस मार्ग के अवलस्वन से जीव अपना अभीष्ट प्राप्त करते हैं, उस मार्ग का सम्पूर्ण स्वरूप मैं यथार्थ रूप से जानता हूं । मैं इस कमल को उखाड़ कर लाऊंगा ऐसा सोच कर यहां आया हूं। मैं सर्वथा कुशल हूं, सारे मार्ग को जानता हूं । अत एव मैं अवश्य इस कमल का उद्धार करूंगा । इस प्रकार कह कर वह चौथा पुरुष अपने को समर्थ समझता हुआ अगाध जल और पंक से व्याप्त तथा प्रधान कमल वाली उस જાણનારા યાત્ માની ગતિ અને પરાક્રમને જાણનારો છું. જે માના અવલમ્બનથી જીવ પેાતાનું અભીષ્ટ પ્રાપ્ત કરે છે, તે મનું સપૂર્ણ સ્વરૂપ હૂહૂ યથાર્થ પણે જાણું છું. હું. આ કમળને ઉખેડીને લઈ આવીશ. એમ વિચારીને જ હું અહિયાં આવ્યે છું. હું સર્વ પ્રકારથી કુશળ છું. સપૂર્ણ માર્ગને જાણું છું. એટલે જ હું અવશ્ય આ કમળને ઉખાડી લઈ શકીશ. આ પ્રમાણે કહીને તે ચેાથેા પુરૂષ પેાતાને સમર્થ માનીને તે અગાધ જળ અને કાદવથી યુક્ત એ પ્રધાન કમળવાળી વાવમાં પ્રવેશ્યા, અને પ્રવેશ For Private And Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि.श्र. अ.१ पुण्डरीकनामाध्ययनम् वरमुन्नेतुं जलं प्रविशति तावं तावं च णं तावत् तावच्च खलु 'महंते उदए' महदुदकम् महते 'सेए' महान् सेय अगच्छति यावत्मविशति तावत्-अधिकाधिक जलं पङ्कच मिलति । क्रमेण गच्छन् 'जाव णिसन्ने' यावनिषण्णः-निमग्नः । 'चउत्थे पुरिसजाए' एष चतुर्थः पुरुषजात इति ॥मू०५॥ अथ अनन्तरं यदा चत्वारः पुरुषाः कमलवरमुद्धत्तुं समागताः किन्तु कमलोधरणे असा जाता:, अनन्तरं कश्चिदपरो निरवद्यभिक्षामात्रोपजीवी तत्र समा. गच्छति, यश्च कम लवरमपकर्षतीति दर्शयति - मूलभू-अह भिक्खू लूहे तीरटी खेयन्ने जाव गइपरक्कमण्णू अनतराओ दिसाओं वा अणुदिसाओ वा आगम्म तं पुक्खरिणि तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिञ्चा पासइ तं महं एगं पउमवरपोंडरीयं जाव पडिरूवं, ते तस्थ पत्तारि पुरिसजाए पासह पहीणे तीरं अपत्ते पउमवरपोंडरीयं णो हवाए णो पाराए अंतरा पुक्खरिणीए सेयंसि णिसन्ने। तए णं से भिक्खू एवं वयासी-अहो णं इमे पुरिसा अखेयन्ना जाव णो मग्गस्स गइपरक्कमण्णू, जं एए पुरिसा एवं मन्ने अम्हे एयं पउमवरपोंडरीयं उन्निक्खिसामो, णो य खलु एयं पउमवरपोंडरीयं एवं उन्निक्खेतव्वं जहा णं एए पुरिसा मन्ने, अहमंसि भिक्खू लूहे तीरट्री खेयन्ने जाव मग्गस्स गइपरकमण्णू, अहमेयं पउमवर. पुष्करिणी में प्रविष्ट हुवा, प्रविष्ट होकर जैसे जैसे कमल को लाने के लिए आगे बढ़ता है, त्यों यों उसे अधिकाधिक जल और कीचड़ का सामना करना पड़ता है। यावत् वह भी जल एवं कीचड़ में फंस जाता है। यह चौथे पुरुष का वृत्तान्त हुआ ॥५॥ કરીને જેમ જેમ વાવમાંથી કમળને લાવવા માટે જેમ જેમ આગળ વધે છે, તેમ તેમ તેને વધારે વધારે કાદવને સામને કરે પડે છે, યાવત્ તે પણ પાણી અને કાદવમાં ફસાઈ જાય છે. આ ચોથા પુરૂષનું વૃત્તાંત થયું. તે सु० For Private And Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसत्रे पोंडरीयं उपिणक्खिस्तामि त्तिकटु इइ वुच्चा से भिक्खू णो अभिकमे तं पुक्खारणिं तीसे पुश्खरिणीए तीरे ठिच्चा सदं कुंजा-उप्पयाहि खलु भो पउमवरपोंडरीया! उप्पयाहि, अह से उप्पइए पउमवरपोंडरीए ॥सू०६॥ ... छाया-अथ भिक्षु रूक्ष स्तीरार्थी खेदज्ञो यावद् गतिपराक्रमज्ञः अन्यतरस्या दिशोऽनुदिशो वा आगत्य तां पुष्करिणी, तस्याः पुष्करिण्यास्तीरे स्थित्वा पश्यति तन्महदेकं पद्मवरपुण्डरीकं यावत् प्रतिरूपम् । तान् तत्र चतुरः पुरुषजातान् पश्यति महीणान् तीराद् अमाप्तान पद्मवरपुण्डरीकम् नो आवे नो पाराय अन्तरापुष्करिण्याः सेये निषण्णान् । ततः खलु स भिक्षुरेवमवादीतू-अहो ! खलु इमे पुरुषा अखेदशा यावत् नो मार्गस्य गतिपराक्रमज्ञाः यतः एते पुरुषा एवं मन्यन्ते-वयमेतत् पावरपुण्डरीकमुन्निक्षेप्स्यामः न च खल्वेतत् पद्मवरपुण्डरीकमेवमुन्निक्षेप्नुव्यं यथा खरवेते पुरुषा मन्यन्ते। अहमस्मि भिक्षु रूक्षस्तीरार्थी खेदज्ञो यावद् मार्गस्य गति. पराक्रमशः अहमेतत् पावरपुण्डरीकम् उन्निक्षेप्स्यामीति कृत्वा इन्युक्त्वा स भिक्षु नौ अभिकामति तां पुश्करिणीं तस्याः पुष्करिण्यास्तीरे स्थित्वा शब्दं कुर्यात्-उत्पत खल भोः पनवरपुण्डरीक ! उत्स्त, अथ उत्पतितं तत् पनवरपुण्डरीकम् ॥१६॥ टीका-'अह' अथ-अनन्तरम् 'लूहे' रूक्षः-रागद्वेषाभ्यां रहितत्वात् रूक्ष. इस क्षः 'तीरट्ठी' :तीरार्थी-संमारसागरस्य पारगमेच्छुः 'खेयन्ने' खेदज्ञःवस्तुतः षड्जीवनिकायखेदविषयकज्ञानवान्, न तु पूर्वपुरुषवत् वस्तुतोऽखेदः । 'जाव गइपरकणण्ण' यावद् गतिपराक्रमज्ञः, गतिपराक्रमयोर्शाता-मोक्षमार्गाराधनरीतिमर्मज्ञः, अत्र यावत्पदेन-कुशलः पण्डितो व्यक्तो मेधावी अबालो मार्गस्थो _ 'अह भिक्खू लहे तीरट्ठी' इत्यादि। टीकार्थ-तदनन्तर रागद्वेष से रहित होने के कारण रूक्ष, संसार सागर का पार पाने का अभिलाषी, षटू जीवनिकायों के खेद को जानने वाला-पहले वाले पुरुषों के समान अनजान नहीं, यावत् गति और पराक्रम को जानने वाला 'यावत्' शब्द से कुशल, पण्डित, व्यक्त, 'यह भिक्खू लहे तीरट्ठी' त्यादि ટીકાથે–ત્યાર પછી રાગદ્વેષ વિનાના હોવાના કારણે રૂક્ષ, સંસાર સાગરની પાર પામવાની ઈચ્છાવાળે, ષટુ જીવનિકાના ખેદને જાણવાવાળોઅજાણ નહીં ચાવત્ ગતિ અને પરાક્રમને જાણનાર યાવત્ શબ્દથી કુશળ, For Private And Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् मार्गवित्-एतेषां ग्रहणम्, तन-पापकर्मच्छेदने कुशलः-निपुणः, पण्डतः पापभीरू, व्यक्तः-बालभापनिवृत्तः अज्ञानरहित इत्यर्थः मेधावी-सदसद्विवेकवान्, अबाल:विमृश्पकार्यकारी, मार्गस्थः-सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्रलक्षणमोक्षमार्गे स्थितः, मार्गवित्-मोक्षमार्गज्ञ इति संग्राह्यम्, एतादृशः 'भिवखू' भिक्षुः-निरवभिक्षया संयमयात्रानिर्वाहकः, 'अन्नाराओ' अन्यतरस्याः 'दिसाओ वा अणुदिसाओ या' दिशो वा अनुदिशो वा, यतः कुतश्चिदिग्देशात् 'अगम्म' आगत्य 'तं पुक्खारगि' तां पुष्करिणी, यस्यामिमे चत्वारो मग्ना अभवन्-तस्यास्तटे स्थित्वा 'पासई' पश्यति । किं पश्यति तत्र स्थितः सन् ? तत्राह-तं महं एगं पउमवरपोडरीयं जाव पडिरू' तन्महदेकं पद्म परपुण्डरीकं यावत्पतिरूपम्, सर्वावयवसुन्दरं रूपगन्धामेधावी, विज्ञ, मार्गस्थ, मानवेत्ता इन विशेषणों को ग्रहण करना चाहिए। इनका अर्थ यह है-पापकर्मों को नष्ट करने में कुशल, पण्डित अर्थात् पाप से भीरु, बाल अर्थात् बचपन से रहित निवृत्त विज्ञ, मेधावी अर्थात् सत् असत् के विवेक से सम्पन्न, अबाल अर्थात् विचार करके कार्य करने वाला, मार्गस्थ अर्थात् सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र और तप रूप मोक्षमार्ग में स्थित, मार्गवेत्ता अर्थात् मोक्ष के मार्ग को जानने वाला । इन सब विशेषणों से युक्त भिक्षु (निरवद्य भिक्षा से जीवन निर्वाह करने वाला) किसी दिशा या अनुदिशा से उस पुष्करिणी के समीप आया। उस पुष्करिणी के तीर पर, जिप्समें पूर्वोक्त चारों फंस गये थे, स्थित होकर देखता है-एक महान् प्रधान पुण्डरीक है। वह विलक्षण रचना से युक्त है सर्वांगसुन्दर है, उत्तम रूप आदि से युक्त પંડિત, વ્યક્ત, મેધાવી વિજ્ઞ, માર્ગસ્થ, માળવેત્તા આ તમામ વિશેષ ગ્રહણ થયા છે. તેને અર્થ આ પ્રમાણે છે, પાપ કર્મોને નાશ કરવામાં કુશળ, પંડિત અર્થાત્ પાપથી ડરવાવાળ, બાલ અર્થાત્ નાનપણથી રહિત, નિવૃત્ત, વિજ્ઞ મેધાવી અર્થાત્ સત્ અસતના વિવેકથી યુક્ત અબાલ-એટલે કે વિચારીને કાર્ય કરવાવાળા, માર્ગસ્થ, અર્થાત્ સમ્યફજ્ઞાન સમ્યક્દર્શન, સમ્યયારિત્ર અને સમ્યફ તપ રૂપ મોક્ષ માર્ગમાં સ્થિત, માર્ગવેત્તા-અર્થાત મોક્ષના માર્ગને જાણનાર, આ બધા વિશેષણોથી યુક્ત ભિક્ષુ (નિરવઘ ભિક્ષાથી જીવન નિર્વાહ કરવાવાળે, કઈ દિશા અથવા અનુદિશાએથી તે પુષ્કરિણી–વાવના કિનારે કે જેમાં પૂર્વોક્ત ચારે પુરૂ ફસાયા હતા. ત્યાં સ્થિર ઉભા રહીને જુવે છે, તે તે વાવમાં એક મહાન સુંદર પ્રધાન પુંડરીક-કમળ છે, તે કમળ વિલક્ષણ પ્રકારની રચનાથી યુક્ત છે, સર્વાગ સુંદર છે. ઉત્તમ પ્રકારના રૂપથી યુક્ત છે. For Private And Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूतानचे दियुत विलक्षणलक्षणोपलक्षितं दर्शकजनानां मनोहरं सुजातजलजातम् । 'ते तत्थ चत्तारि पुरिसनाए' तांतत्र चतुरः पुरुषजातान ये कमलवरमुद्धत्तुकामास्तान 'पासइ' पश्यति, तेषामेव विशेषणम्-'पहीणे तीरं' पहीणांस्त्रीरात्-त्याजितत. तटमान्तान् 'अपत्ते पउमवरपोडरीय' अमाप्तात् पद्मवरपुण्डरीकम्, स्व स्व कार्येऽकृतार्यान् 'गो हब्बाए जो पराए' नो अर्भाचे नो पराय, नहि तटे न वा जल राशिमुत्तीर्य परतटे स्थिराः स्थिता वा जाताः । एतादृशान् पुरुषान् चतुर्विधान् अपश्यत्-कोशान तबाह-'अंतरा पुक्खरिणीए सेयसि णिसन्ने' अन्तरा मध्ये पुष्करिण्याः 'सेयंसि' सेये पके "णिसन्ने निषण्णान् मग्नान् अकृतकार्यान् दुःखान्यनुभवतः 'तए णं से भिक्खू एवं बयासी' ततोऽनन्तरं खलु स भिक्षुरेवं वक्ष्यमाणवचनजातम् आदीत्-उक्तवान् 'अहो णं इमे पुरिसा अखेयन्ना' अहो खलु इमे चत्वारोऽपि पुरुषाः अखेदज्ञाः, अकुशला अपण्डिता अव्यक्ताः अमेधाविनो बाला हैं, विलक्षण लक्षणों वाला है, दर्शकों के मन को हरने वाला है, बड़ा ही सुन्दर है। वह उन चारों पुरुषों को भी देखता है जो उस कमल को लाने के लिए क्या मानों मरने के लिए पुष्करिणी में प्रविष्ट हुए हुए जो तीर को त्याग चुके हैं, पुण्डरीक (कमल) तक पहुंच नहीं सके हैं, अपने कार्य में सफल नहीं हुए हैं जो न इधर के रहे हैं और न उधर के रहे हैं और पुष्करिणी के कीचड़ में फंस गए हैं, दुःख का अनुभव कर रहे हैं। __ यह सब देखकर भिक्षुने इस प्रकार कहा-अहा, ये चारों ही पुरुष अखेदज्ञ हैं, अकुशल हैं, अपण्डित हैं, नासमझ हैं, मेधावी नहीं हैं, વિલક્ષણ પ્રકારના લક્ષણે વાળું છે, જેનારના મનને આનંદ આપનારૂં છે. અત્યંત સુંદર છે. આવા સુંદર કમળને તે વાવમાં તે પાંચમા પુરૂષે જોયું, તે સાથે તેણે તે પૂર્વોક્ત ચારે પુરૂષને પણ જોયા કે જેઓ તે કમળને લાવવા માટે જાણે કે-મરવાને માટે તે વાવના કિનારાનો ત્યાગ કરીને વાવમાં પ્રવેશ છે. તેઓ કિનારાને ત્યાગ કરીને વાવમાં પ્રવેશા છતાં તે કમળ સુધી પહોંચી શકયા નથી. પોતે ધારેલા કાર્યમાં સફળ થયા નથી. તેઓ નથી અહિના રહ્યા કે નથી ત્યાંના રહ્યા. અને પુષ્કરિણીને કાદવમાં ફસાઈ ગયા छ, तथा :मनो अनुभव ४३री २॥ छे. આ તમામને જોઈને તે ભિક્ષુએ આ પ્રમાણે વિચાર્યું અહા ! આ ચારે પુરૂ ખેદને જાણનારા નથી. અકુશળ છે. અપંડિત છે. અણસમજું છે. For Private And Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समर्थबोधिनी टीका fr. श्र. म. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् ૨૨ anitar अमार्गविदः, 'णो मग्गस्स गइपरककमण्णू' नो मार्गस्य गतिप्रराक्रमज्ञा इमे चत्वारोऽपि पुरुषाः 'जं एए' यत एते 'पुरिसा' पुरुषा 'एवं मन्ने' एवं मन्यन्ते - 'अम्हे एयं' वयमेतत् 'पउमचरवोडीये' पद्म पुण्डरीकम् 'उन्निक्खि सामो' उन्निक्षेप्स्यामः, एते इत्थं स्वीकुर्वन्ति यद् वयं कमलमस्मात्सरसो निष्कासयिष्यामः किन्तु मुधैवैतेषां श्रमः 'णो य खलु एयं पउमरपोंडरीयं एवं उभिक्खेत' न च खल एतत् पद्मवरपुण्डरीकम् एवमुभिक्षेतव्यं स्यात् 'जहा एए पुरिसा मन्ने' यथा- एते पुरुषा मन्यन्ते, किन्तु - ' अहमंसि भिक्खु लहे ' श्रहमस्मि भिक्षुः- रूक्ष: 'तीरही' तीरार्थी संसारसागरतीरस्य परं पारं गन्तुकामो मिक्षणशीलः, रागद्वेषरहितत्वात् - अतिशयेन रूक्ष इव रूक्षः 'जान मग्गहस गइपरकमण्णू' यावन्मार्गस्य गतिपराक्रमज्ञः 'अहमेयं' अहमेतत् 'परमवरपोंडरीयं पद्मवर पुण्डरीकम् 'उष्णिक्खिस्तामि' उभिक्षेप्स्यामि - ग्रहीष्यामि तिकट्टु' इति कृस्वा एवं मनसि निश्चित्यात्रागतोऽस्मि, 'इइ बुच्चा' इत्युक्तवा 'से भिक्खू' समिक्षु, अज्ञान हैं, मार्गस्थ नहीं हैं, मार्गवेत्ता नहीं हैं, मार्ग की गति और पराक्रम को भी नहीं जानते हैं। क्योंकि सत्पुरुषों द्वारा आचरित मार्ग को विना जाने ही ये इस पुष्करिणी में प्रवेश किये हैं। ये समझते हैं कि हम इस प्रधान कमल को इस पुष्करिणी से निकाल लेंगे, मगर इनका श्रम व्यर्थ है । यह कमल यों नहीं निकाला जाता जैसे ये लोग समझते हैं। मैं संसार सागर से पार पाने का अभिलाषी, रागद्वेष से रहित होने के कारण रूक्ष, यावत् मार्ग की गति और पराक्रम को जानने वाला भिक्षु हूं। मैं इस उत्तम कमल को ग्रहण करूंगा, ऐसा निश्चय करके यहां आया हूँ । इस प्रकार कह कर किसी दिशा और किसी देश से आया हुआ બુદ્ધિશાળી નથી. અજ્ઞાની છે, માત્થ નથી. માવેત્તા નથી. માર્ગોની ગતિ અને પરાક્રમ જાણતા નથી; કેમકે સત્પુરૂષ દ્વારા આચરેલ માર્ગને જાણ્યા ષિતા જ તે આપુષ્કરિણીમાં પ્રવેશ્યેલા છે તે સમજે છે કે-અમે પ્રધાન કમળને વાવમાંથી કહેાડી લઈશું. પરંતુ તેઓના પરિશ્રમ નથ થયે છે. આ કમળ એમ બહાર કહાડી શકાતું નથી, કે જેમ એ લાકો માને છે. હું સ'સાર સાગરથી પાર પામવાની ઈચ્છા વાળા, રાગદ્વેષ વિનાના હાવાથી રૂક્ષ યાવત્ માની ગતિ અને પરાક્રમને જાણુના ભિક્ષુ છું. હું આ ઉત્તમ કમલને ગ્રહણ કરીશ. એમ નિશ્ચય કરીને અહિયાં ચા છુ, આ પ્રમાણે કહીને કેઈ દિશા અને કેઈ દેશથી આવેલ અને વાવના For Private And Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतासूत्रे यतः कुतोऽपि दिग्देशादागतः सरसस्तटमान्ते विद्यमानः 'तं पुक्वरिणि' तां पुष्करिणीम् ‘णो अभिकमे नैवाऽभिक्रामति, नै प्रविशति तस्यां पुष्करियां कमलमुन्नेतुम् किन्नु-'ती से पुक्ख रगीए' तस्याः पुष्करिण्याः 'तीरे ठिच्या' तोरे स्थित्वा 'सदं कुज्जा' शब्दं करोति, जलमपविशन्नेव तीरवी सन् आहयति पाण्डित्यवीर्यसमन्वितो वरभिः , 'उपयाहि खलु भो! पउमवर पोडरीया ! उप्पयाहि' उत्पत खलु भोः हे पद्मवरपुण्डरीक ! खलु निश्चयेन उत्पत। विज्ञ.स भिक्षुः. आचाहि-भो पुष्पराज ! ऊर्धमागच्छ, एवं कथनानन्तरमेव 'अह से उप्पइए पउमवरपोडरोए' अथ तदुत्पतितं पद्मपरपुण्डरीकम्, श्रमणं भगवन्तं समानयत्, कमलं तत्क्षणमेव विहाय पुष्करिणी तटमुपगतं साधुपादमूलम् । अत्र सूत्रे दृष्टान्तमेव प्रदर्शितम्, दार्टान्तिकेनाऽग्रे योजयिष्यति ॥ सू०६॥ मूलम्-किहिए नाए समणाउसो ! अहे पुण से जाणियब्वे भवइ, भंते ! ति समणं भगवं महावीरं निगंथा य निग्गंथीओ य वंदति नमसंति वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-किट्टिए नाए समणाउसो! अहं पुण से ण जाणामो समणाउसो त्ति, समणे भगवं महावीरे ते य बहवे निग्गंथे य निग्गंधीओ य आमंतेत्ता और पुष्करिणी में प्रवेश नहीं करता। किन्तु किनारे पर खडा रह कर पण्डितवीर्य से सम्न्न उत्तम भिक्षु इस प्रकार शब्द करता है-हे पद्मवर पुण्डरीक ! फार आनाओ।' भिक्षु के इन शब्दों से कमल तत्क्षण ही पुष्करिणी को छोड़कर सके चरणों में तीर पर आ गया। यह दृष्टान्त कहा गया है । दान्तिक की योजना आगे की जायगी।६। કિનારે ઉભે રહેલ તે ભિક્ષુ તે પુષ્કરિણી-વાવમાં પ્રવેશ્યા વિના કિનારા પર ઉભા રહીને તે પંડિત વીર્યથી યુક્ત, ઉત્તમ ભિક્ષુ આ પ્રમાણે શબ્દ કરે છે. -ડે પદ્મવર પુંડરીક ઉપર આવી જા. ભિક્ષુના આ શબ્દોથી તે કમળ તતકાળ તે પુષ્કરિણ-વાવને ત્યાગ કરીને તેના ચરણમાં કિનારા પર આવી ગયું. આ દષ્ટાન્ત કહેવામાં આવેલ છે. તેના દર્ટોનિકની જા હવે अघी परवामां माये ॥६॥ For Private And Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् एवं व्यासी-हंत समणाउसो! आइक्खामि विभावमि किमि पवेदेमि सअटुं सहउं सनिमित्तं भुजो भुजो उवदंसेमि से बेमि ॥सू०७॥ छाया-कीतितं ज्ञातं श्रमणा आयुष्मन्तः ! अर्थः पुनरस्य ज्ञातव्यो भवति । भदन्त ! इति श्रमणं भगवन्तं महावीरं निर्ग्रन्थाश्च निग्रन्थ्यश्च वन्दन्ते नमस्यन्ति बन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादिषुः-कीर्तितं ज्ञातं श्रमण ! आयुष्मन् ! अर्थ पुनरस्य न जानीमः श्रमण ! आयुष्मन् ! इति। श्रमणो भगवान महावीरस्तान् बहून् निग्रन्थान् निर्ग्रन्यींश्च आमव्य एवमवादी - हन्त श्रममा आयुष्मन्तः ! आख्यामि विभावयामि कीर्तयामि भवेदयामि साथ सहेतुं सनिमित्तं भूयो भूयः उपदर्शयामि तद् ब्रीमि ॥सू०७॥ टोकाकिट्टिए' कीर्तितम् 'गाए' ज्ञातम् 'समणाउसो' श्रमणा आयुष्मन्तः! भगवान महावीरस्वामी कथयति-हे साधयः ! भातामने उदाहरणं प्रदर्शितम् । 'अटे पुण से जाणियब्वे भवइ' अर्थः पुनरस्य ज्ञातव्यो भवति । उदाहरणं तु मया पदर्शितम्, एतस्योदाहरणस्य कोऽर्थों भवतीति भवद्भिः स्वयमेव विचारणीया, विचार्याऽवधारणीयश्च । तीर्थकरस्येदं वचनमुपश्रुत्य 'भंते ! ति' हे भदन्त ! इति कथयित्वा 'समणं भगवं महानोरं' श्रमणं भगवन्तं महावीरम् 'निग्गंथा प निग्गंधीओ य' निर्गन्याच साधनो निग्रन्थ्यः साध्व्यश्च 'वंदंति' वन्दन्ते 'नमंसंति' नमस्यन्ति-नमस्कारं कुर्वन्ति 'बंदित्ता नमंसित्ता' वन्दित्वा नमस्थित्वा च एवं वयासी' 'किट्टिए नाए समणाउसो' इत्यादि । टीकार्थ---भगवान महावीर स्वामी कहते हैं-हे आयुष्मन् श्रमणो! तुम्हारे समक्ष मैंने दृष्टान्त प्रदर्शित किया है। इस का अर्थ तुम को स्वयं समझ लेना चाहिए। तष हे 'भदन्त !' इस प्रकार संबोधन करके श्रमण और श्रमणियां, श्रमण भगवान महावीर को वन्दना नमस्कार करते हैं । वन्दना नमस्कार "किट्टिए नाए समाउसो' त्या ટકાથે– ભગવાન મહાવીર સ્વામી કહે છે કે–હે આયુમન શ્રમણ તમારી સામે મેં દષ્ટાન્ત બતાવેલ છે, તેને અર્થ તમારે પિતે સાંભળ જોઈએ. ત્યારે હે ભદન્ત” આ પ્રમાણે સંબંધન કરીને શ્રમણ અને શ્રમણિ શ્રમણ ભગવાન મહાવીર સ્વામીને વંદના નમસ્કાર કરે છે. વંદના નમસ્કાર For Private And Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतासो एवमवादिषुः-किमवादिषुरित्याह-किट्टए नाए' कीर्तितं-कथित ज्ञातम् उदाहरणम् 'समणाउसो' हे श्रमण ! हे आयुष्मन् भगवन् । किन्तु-'अट्ठ पुण से ण जाणामो' अर्थ पुनरस्य वयं न जानीमः, 'समण आउसो त्ति' हे अक्षण । आयुष्मन् ! इति सर्वे साधकः साध्व्यश्च अकथयन्-वयं तु भात्कीर्तितमुद्दाहरणं श्रुतवन्तः, किन्तुउदाहरणस्याथ तु न विनः, अतो देवानुप्रियैरेव दयापरैरर्योऽपि व्याख्येयः-इति साधनां वांसि श्रुत्वा 'समपो भगवं महावीरे' श्रमणो भगवान महावीरः 'ते य बहचे निग्गथे य निग्गंधीओ य आमंतेत्ता एवं वयासी' तांश्च बहून् निर्ग्रन्थान् निश्चि आमन्त्रय-संबोध्य ‘एवं क्यासी' एवमवादीत्-'हंत समणाउसो' हन्त हे श्रमणा आयुष्मन्तः ! 'आइक्खामि विभावेमि विमि पवेदेमि' आख्यामि विभावयामि कीर्तयामि प्रवेदयामि तमर्थम-योऽयों भवद्भिः पृष्टः । विभावयामिपर्यायादिशब्दद्वारेण तमर्थ प्रकटीकरोमि। कीर्तयामि-भवेदयामि इति क्रिया. पदद्वयात्-हेतु-दृष्टान्ताभ्यां तमर्थ भवते भवरोधयामि । 'सअटुं सहेउं सनि मित्र' सार्थ सहेतुं सनिमित्तम्, अर्थः प्रयोजनम्-कार्यफलमिति यावत् तेन सहित मिति सार्थम् । 'सहेउ' सहेतुम्, हेतुः कारणं तेन युक्तम् ,सनिमित्तम्-निमित्तेन करके इस प्रकार कहते हैं आपके कहे उदाहरण को हम सपने सुना, किन्तु उसका अर्थ (रहस्प) हम नहीं जानते। अतः हे आयुष्मन् ! भगवन् ! अनुग्रह करके आप ही उसका अर्थ कहिए। श्रमणों के इन वचनों को सुनकर श्रमण भगवान् महावीर ने उन बहुसंख्यक निर्ग्रन्यों और निग्रंथियों को संबोधन करके इस प्रकार कहा-हे आयुष्मन् श्रमणो! तुम्हारे पूछे रहस्य को मैं कहता हूं पर्यायवाचक शब्दों आदि द्वारा प्रकट करता हूं, हेतु और दृष्टान्त द्वारा उसे तुम्हें समझाता हूं। अर्थ (प्रयोजन) हेतु-कारण और निमित्त के साथ उदाहरण के अर्थ को पुनः पुनः प्रदर्शित करता हूं। तात्पर्य કરીને આ પ્રમાણે કહે છે. આપે કહેલ ઉદાહરણને અમે બધાએ સાંભળ્યું. પરંતુ તેનો અર્થ (રહસ્ય) અમે જાણતા નથી, તેથી હે આયુન! ભગવાન અનુગ્રહ કરીને આપ જ તેને અર્થ સમજાવે. શ્રમણોના આ અર્થને સાંભળીને શ્રમણ ભગવાન મહાવીર સ્વામીએ તે ઘણી સખ્યાવાળા નિગ્રંથ અને નિગ્રંથીને સબોધન કરીને આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા. હે આયુમન્ શ્રમણે! તમોએ પૂછેલા રહસ્યને હવે હું કહું છુ. પર્યાય વાચક શબ્દો દ્વારા પ્રગટ કરું છું. હેતુ અને દષ્ટાન્ત દ્વારા તેને હું તમને સમજાવું છું અર્થ (પ્રયોજન) હેતુ-કારણ અને નિમિત્તની સાથે ઉદાહરણના અર્થને વારંવાર બતાવું છું. For Private And Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि.श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् सहितं तादृशम् उदाहरणार्थम् 'भुज्जो भुज्जो' भूयो भूयः-पुनः पुनरपि 'उदंसमि उपदर्शयामि-निमित्तप्रयोजनाद्युपदर्शनमुखेन तादृशमर्थ भवद्भयः प्रतिपादयामि 'से वेमि' तद् ब्रवीमि ॥१०७॥ मूलम्-लोयं च खलु मए अप्पाहटु समणाओ! पुक्खरिणी बुइया । कम्मं च खलु मए अप्पाहटु समणाउसो से उदए बुइए। कामभोगे य खलु मए अप्पाह१ समणाउसो! से सेए बुइए। जण जाणवयं च खलु मए अप्पाहटु समणाउसो.! ते बहवे पउमवरपोंडरीए बुइए । रायाणं च खलु मए अप्पाहटूटु समणाउसो! से एगे महं पउमवरपोंडरीए बुइए। अन्नउत्थिया य खलु मए अप्पाहट्टु समणाउसो! ते चत्तारि पुरिसजाया बुइया। धम्मं च खलु मए अप्पाहटु समणाउसो! से भिक्खू बुइए। धम्मतित्थं च खलु मए अप्पाहटु समणाउसो। से तीरे बुइए । धम्मकहं च खलु मए अप्पाहटु समणाउसो! से सद्दे बुइए। निवाणं च खलु मए अप्पाहटु समणाउसो से उप्पाए बुइए। एवमेयं च खलु मए अप्पाहटु समणाउसो! से एवमेयं बुइयं ॥सू०८॥ छाया-लोकं च खलु मया अपाहृत्य श्रमणा आयुष्मन्तः ! पुष्करिणी उक्ता। कर्म च खलु मया अपाहत्य श्रमणा आयुष्मन्तः । तस्या उदकमुक्तम् । कामभोगं यह है कि निमित्त और प्रयोजन आदि प्रकट करते हुए उस रहस्य को प्रतिपादन करता हूं। ऐसा मैं कहता हूं ॥७॥ તાત્પર્ય એ છે કે –નિમિત્ત અને પ્રયોજન વિગેરે પ્રગટ કરતા થકા તે રહસ્યને પ્રગટ કરું છું. એ પ્રમાણે હું કહું છું પાણી सू० ५ For Private And Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४ सूत्रकृताङ्गसूत्रं स्वच्छ मया अपाहृत्य श्रमणा आयुष्मन्तः तस्याः सेय उक्तः । जनान् जनपदांश्च मया अपाहृत्य श्रमणा आयुष्मन्तः ! तानि बहूनि पद्मवरपुण्डरीकाणि उक्तानि । राजानं च खलु मया अपाहृत्य श्रमणा आयुष्मन्तः । तस्या एकं महत् पद्मवरपुण्डरीकमुक्तम् | अन्ययूथिकांच खलु मया अपाहृत्य श्रमणा आयुष्मन्तः ! ते चत्वारः पुरुषजाता उक्ताः । धर्मं च खलु मया अपाहृत्य श्रमणा आयुष्मन्तः ! स मिक्षुरुक्तः । धर्मतीर्थं च खलु मया अपाहृन्य श्रमणा आयुष्मन्तः । तत्तीरमुक्तम् । धर्मकयां च खलु मया अपाहृत्य श्रमणा आयुष्मन्तः । स शब्द उक्तः । निर्वाणं च खलु मया अपास्य श्रमणा आयुष्मन्तः ! स उत्पात उक्तः । एवमेतच्च खलु मया अपाहृत्य श्रमणा आयुष्मन्तः ! तदेतदुक्तम् ॥ सू. ८ ॥ टीका - सर्वानेवोपस्थितान समभिलक्ष्य श्रमणा आयुष्मन्तः । इति सम्बोध्यच प्रतिज्ञातमर्थं प्रतिपादयति तीर्थंकर :- 'समणाउसो' हे श्रमणाः ! आयुष्मन्तः ! 'छोयं च खल मए अप्पाहद्दु' लोकं च खलु मया अपाहृत्य श्रमणा आयुष्मन्तः ! पुष्करिणी उक्ता, हे साधवः। लोकं चतुर्दशरज्ज्वात्मकमधिकृत्य एषा पुष्करिणी मया उक्ता, अयमेव लोकः यत्रानेकविधा जीवाः स्वकृतदुष्कृत सुकृतकर्मानुसारेण जायन्ते म्रियन्ते च मृत्वा पुनः पुनराविर्भवन्ति । आविर्भवन्तोऽनेकविध दुःखा 'लोयं च खलु मए' इत्यादि । टीकार्थ- सभी उपस्थित श्रमणों को लक्ष्य करके भगवान् प्रतिज्ञात अर्थ का प्रतिपादन करते हैं-अर्थ की दुर्गमता का प्रतिपादन करने के लिए लोक को मैं ने पुष्करिणी की जगह रक्खा है। तात्पर्य यह है दे श्रमणो! इस चौदह रज्जु परिमाण वाले लोक को मैंने पुष्क रिणी कहा है। यही लोक, जिस में अनेक प्रकार के जीव अपने पुण्य पापकर्म के अनुसार जन्मते और मरते हैं मर कर पुनः प्रकट होते हैं 'लोयं च खलु मए' त्याहि ટીકાથષા ઉપસ્થિત શ્રમાને ઉદ્દેશીને ભગવાન ઉપર કહેલ વિષચના અર્થનું પ્રતિપાદન કરે છે. અના દુ મપણાનુ' પ્રતિપાદન કરવા માટે લાકને મેં પુષ્કરિણીના સ્થાને રાખેલ છે કહેલ છે. તાત્પય' એ છે કે—હૈ શ્રમણે ! આ ચૌદ રાજુ પ્રમાણુવાળા લાકને મ' પુષ્કરિણી–વાવ કહી છે. એજ લેાક કે જેમાં અનેક પ્રકારના જીવા પાતાના પુણ્ય અને પાપકર્મ પ્રમાણે જન્મે અને મરે છે. મરીને ફરીથી પ્રગટ થાય છે. અને અનેક પ્રકારના દુઃખાને અનુભવ કરતા જોવામાં આવે For Private And Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् ५ न्यनुभवन्तः समुपलक्ष्यन्ते, तादृशोऽयं लोकः पुष्करिणी स्थाने प्रोक्तः। यथा पुष्करिण्याम् अनेकपकारकाणि पुष्पाणि भवन्ति तथा संसारोऽपि विविधप्रकारका जीवसमुदायेन उक्तः। अत एतादृशीं तुल्यतामादाय पुष्करिणी-उपमानेन लोकउपमितः। 'कम्मं च खलु मए अप्पाहट्ट' कर्म च खलु मया अपाहृत्य 'समणाउसों' हे श्रमणा आयुष्मन्तः ‘से उदए' तस्याः-पुष्करिण्या उदकं जलम् 'मया बुइए' मया उक्तं प्रतिपादितम्, यथा पुष्करिण्यां जलसद्भावेन कमलस्योत्पत्तिभवति-तथेह संसारे अष्टविधकर्मणा जनितं लोकानां जलोपमितं कर्म, पुष्करिण्या कमलोद्भवकारणं जलम्, संसारे च जीवोत्पत्तिकारणं जीवसंपादितमष्टविघं कर्म, अतः कमलेनोपमितम् । एतावांस्तु द्वयोर्भेदः-यदेकत्र कमलोद्भवकारणं जलम्, ने और अनेक प्रकार के दुःखों को अनुभव करते देखे जाते हैं, इसी को पुष्करिणी के स्थान पर कल्पित किया है । पुष्करिणी में अनेक प्रकार के पुष्प होते हैं, संसार अनेक प्रकार के जीव समुदाय से युक्त है। इस प्रकार की समानता के आधार पर लोक की पुष्करिणी से उपमा दी है। हे आयुष्मन् श्रमणो ! कर्म को मैंने उसका जल कहा है। जैसे जल का सद्भाव होने से कमल की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार इस संसार में आठ प्रकार के कर्मों से जीवों का जन्म होता है। अर्थात जैसे कमलों की उत्पत्ति का कारण जल है, उसी प्रकार संसार में जीयो की उत्पत्ति का कारण जीव द्वारा उपार्जित अष्टविध कर्म हैं। अतएप उन्हें कमल की उपमा दी गई है । इन दोनों में विसहशता इतनी ही है कि एक जगह कमल की उत्पत्ति का कारण जल है किन्तु जल की છે. તેને જ પુષ્કરિણીના સ્થાન રૂપ કલ્પના કરેલ છે. પુષ્કરિણીમાં અનેક પ્રકારના કમળ હોય છે. સંસાર અનેક પ્રકારના જીવ સમુદાયથી યુક્ત છે. આવા પ્રકારના સરખા પણાના આધાર પર લેકને પુષ્કરિણીની ઉપમા આપી છે. હે આયુષ્યનું શ્રમણ ! કમને એ પુષ્કરિણીના જલ રૂપે કહેલ છે. જેમ પાણીને સદ્ભાવ હેવાથી કમળની ઉત્પત્તિ થાય છે, એજ પ્રમાણે આ સંસારમાં આઠ પ્રકારના કર્મોથી અને જન્મ થાય છે. અર્થાત્ જેમ કમળની ઉત્પત્તિનું કારણ જળ છે, એ જ પ્રમાણે સંસારમાં છની ઉત્પત્તિનું કારણ ઇવે ઉપાર્જન કરેલ આઠ પ્રકારના કર્મો છે. તેથી જ તેને કમલની ઉપમા આપવામાં આવી છે. આ બન્નેમાં વિસદશપણું એટલું જ કે-એક જગ્યાએ કમળની ઉત્પત્તિનું કારણ જળ છે, પરંતુ જળની ઉત્પત્તિનું કારણ કમળ For Private And Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे कमलजन्यं जलम् । इह तु जीवजन्मकारणं कर्म, तच्च जीवजनितमिति । 'कामभोगे य खलु मए अप्पाहटु' कामभोगं च खल मया-अपाहत्य-कामभोगमा चित्य 'समणाउसो' हे श्रमणा आयुष्मन्तः ! 'से सेये बुइए' 'से' तस्याः पुष्करिण्याः सेय' सेयः-पङ्कम् 'बुइए' उक्तः, पङ्कदृष्टान्तेन कामभोगौ कथिती, यथा पुष्करिण्याः पङ्के निमग्नो जनः स्वोद्धाराय समर्थों न भवति, तथा-कामोपभोगापहत चेल्सामपि जीवानां संसारादुद्धरणमशक्यमिति कृत्वा-हे साधवः ! मया पडू काममोगेन उपमितम् । केवलमियाने विशेष:-एकं बाह्यम् इतरावाध्यात्मिकौ । 'जणजाणवयं च खलु मए अपाहटु समणाउसो' हे श्रमणाः! आयुष्मन्तः ? जनान् जनपदांश्च खलु मया अपाहत्य-अधिकृत्य 'ते बहवे पउमवरपौडरीए' तानि बहूनि पद्मवरपुण्डरीकाणि 'बुइए' उक्तानि-कथितानि । यथा पुष्करिण्याउत्पत्ति का कारण कमल नहीं है, परन्तु यहां जीवों के जन्म का कारण कर्म है और वह कर्म जीव जनित होता है। हे आयुष्मन् श्रमणो ! काम भोगों को मैने कीचड़ कहा है। जैसे पुष्करिणी के पंक में फंसे हुए जन अपने उद्धार में समर्थ नहीं होते, उसी प्रकार कामभोगों से अपहृत चित्तवाले जीवों का संसार से उद्धार होना शक्य नहीं होता। अतएव हे श्रमणो ! मैंने कामभोगो की उपमा कीचड़ से दी है। यह दोनों ही समान रूप से बन्धन के कारण है। अन्तर है तो केवल यही कि पंक बाह्य बन्धन है जब कि काम और भोग आध्यात्मिक बन्धन हैं। न हे आयुष्मन् श्रमणो ! जनों को और जनपदों को मैंने पहुसंख्यक प्रवर पुण्डरीक कहा है। जैसे पुष्करिणी में विविध प्रकार के कमल होते નથી. પરંતુ અહિયાં ના જન્મનું કારણ કર્મ છે. અને એ કર્મ જીવે हैद डाय छे. હે આયુમન શ્રમણ ! કામને મેં કાદવ કહેલ છે, જેમ વાવના કોતવમાં ફસાયેલા મનુષ્ય પિતાના ઉદ્ધારમાં સમર્થ થતા નથી, એજ પ્રમાણે કામગથી હરાયેલા ચિત્તવાળા જીવોને સંસારથી ઉદ્ધાર થવું શકય હેતું નથી, તેથી જ તે શ્રમણે! મેં કામભેગની ઉપમા કાદવથી આપી છે. આ બંને સરખી રીતે બન્ધના કારણ રૂપ છે. ફેરફાર હોય તે કેવળ એટલે જ છે કે–પંક-કાદવ બાહ્યબહારનું બંધન છે, જ્યારે આ કામ અને ભેગ આધ્યામિક બંધન છે. હે આયુષ્યમાન શ્રમણે ! જનેને અને જનપદને મેં અનેક સંખ્યા વાળા પાવર પંડરીક કહેલ છે. જેમ વાવમાં અનેક પ્રકારના કમળ હોય For Private And Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् मनेकविधान कमलानि जायते, तथा जीवलोके निवसन्तोऽनेके जीवाः संसारपुष्करिण्याः कमलस्वरूपाः । अतः कमलदृष्टान्तेन लोका उपमिताः । यथा वा पुण्डरीकः पुष्करिणी भूष्यते, तथा मनुजैः संसारः । कमलेऽमल सौगन्ध्यम्, मनुजे च मोक्ष- योग्यता, स्वस्त्राऽसाधारणगुणावच्चात् उभयोः समानत्वम् इति । 'रायाणं च खलु मए अपाहटु समाणाउलो' हे श्रमणाः ! आयुष्मन्तः ! राजानं च खलु मया अपास्य- अधिकृत्य 'से' तस्याः पुष्करिण्याः 'एगे' एकम् 'मह' महत् 'पउमरपोंडरी' पद्मवरपुण्डरीकम्, प्रधानं पुष्करिण्याः शोमातिशयाऽऽपायकम् 'बुइए' उक्तम् - कथितम् यथा पुष्करिण्याः सर्वकमळाऽपेक्षया महदे कं पद्मवरपुण्डरीकं तथा मनुष्यलोके सर्वमनुजापेक्षया राजा श्रेष्ठः सर्वेषां शासकच अतः संसारसमुद्रे पद्मवरपुण्डरीकतुल्यो राजा मया कथितः । 'अन्न उत्थिया य' अन्य यूथि हैं, उसी प्रकार लोक में अनेक जीव निवास करते हैं। वे संसार पुष्करिणी के कमल के समान है । इस प्रकार संसारी जीवों की उपमा कमल से दी गई है। अथवा जैसे कमल से सरोवर विभूषित होता है, उसी प्रकार मनुष्य से संसार शोभायमान होता है । कमल में निर्मल सुगंध होती है। इस प्रकार अपने अपने गुणों के कारण दोनों में समानता है । हे आयुष्मन् श्रमणो ! राजा को मैंने पुष्करिणी का पद्मवर पुण्डरीक अर्थात् प्रधान कमल कहा है। जैसे पुष्करिणी में सब कमलों की अपेक्षा एक महान् श्वेत कमल कहा है, उसी प्रकार मनुष्यलोक में सभी मनुष्यों की अपेक्षा राजा श्रेष्ठ और सब का शासक होता है । अतएव लोक रूपी पुष्करिणी में राजा रूपी महान् श्वेत कमल कहा गया है। છે, એજ પ્રમાણે લેાકમાં અનેક જીવે નિવાસ કરે છે. તે સ'સાર વાવના કમળા જેવા છે, આ રીતે સંસારી જીવાને કમળની ઉપમા આપી છે. અથવા જેમ કમળાથી સરાવર શોભાયમન છે, એજ પ્રમાણે મનુષ્યાથી સસાર શાભાયમાન હૈાય છે. કમળમાં નિર્મળ સુગધ હોય છે, મનુષ્યમાં મેક્ષ પ્રાપ્ત કરવાની યોગ્યતા ઢાય છે. આ રીતે પાત પાતાના ગુ@ાના કારણે બન્નેમાં સમાન પણુ' રહેલ છે. તેમ સમજવું. હે આયુષ્મન્ શ્રમણે ! રાજાને મે'વાવના પદ્મશ્ર્વર પુ.ડરીક અર્થાત્ પ્રધાન કમળ કહેલ છે. જેમ પુષ્કરિણીમાં બધાં કમળા કરતાં એક મહાન્ શ્વેત કમળ કહ્યું છે. તેજ પ્રમાણે મનુષ્ય લાકની અપેક્ષાથી રાજા ઉત્તમ અને બધાના પર શાસન કરવા વાળા હોય છે. તેથી જ લેાક રૂપી વાવમાં રાજા રૂપી મહાન્ શ્વેત કમળ કહેલ છે. For Private And Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतास्त्रे कांच-आर्हतमतेतरशासनाऽनुरागवतः पुरुषान-आत्मानं पण्डितं मन्यमानान् 'खलु मए' खलु मया 'अपाहटु' अपाहृत्य-अधिकृत्य 'समणाउसो' हे श्रमणाः ! आयुष्यन्तः ! 'ते-वत्तारि' ते चत्वारः 'पुरिसजाया' पुरुषजाताः, ये च चतसृभ्यो दिशाभ्यः समागत्य पङ्के निषण्णा आसन् ते पुरुषाः अन्यदर्शनानुयायिनः सन्तीति मया 'बुइया' उक्ताः-कथिताः, यथा-ते चत्वारोऽपि पुरुषाः पुष्करिणी मध्यात् कमलाकर्षणे प्रभवो न जाताः अपितु तत्पङ्के निमग्ना स्वात्मानमपि समुदत्तु नाऽशक्नुमन्, तथैव परतीथिका मोक्षमनवाप्य संसारे एव निषण्णाः दुःखशतानि तानि तान्यनुभवन्तीति । 'समणाउसो' हे श्रमणाः ! आयुष्मन्तः ! 'धम्मं च खलु मए' धर्म च खलु मया 'अपाहटुंअपाहत्य-अभिलक्षीकृत्य 'से' सः 'भिक्खू' भिक्षुः-साधुः, 'बुइए' उक्तः-प्रतिपादितः । यथा खलु कश्चिच्चतुरः पुरुषः पुष्करिणीमप्रविश्यत्र ततः कमलमपकर्षति, तथा-रागद्वेषाभ्यां सर्वथा रहितो धार्मिकः परित्यज्य विषयोपभोगं धर्मोपदेशद्वारेण राजादिकं संसारान्निष्कासयति हे आयुष्मन् श्रमणो ! अन्ययूधिकों को मैंने वे चार पुरुष कहे हैं। जो चार पुरुष चारों दिशाओं से आकर कीचड़ में फंस गए, वे अन्यदर्शनों के अनुयायी कहे गए हैं। जैसे वे चारों पुरुष पुष्करिणी में से कमल को लाने में समर्थ नहीं हुए, बल्कि कीचड़ में फंस गए और अपना निज का भी उधार न कर सके, उसी प्रकार परतीर्थिक भी मोक्ष न प्राप्त करके संसार में ही रह कर दुःख भोगते हैं। हे आयुष्मन् श्रमणो! धर्म को मैंने साधु (भिक्षु) कहा है। जैसे चतुर पुरुष पुष्करिणी में प्रवेश किये बिना ही उसमें से कमल को आकर्षित कर लेता है, उसी प्रकार रागद्वेष से सर्वथा रहित धार्मिक पुरुष कामभोग को त्याग कर धर्मोपदेश के द्वारा राजा आदि को હે આયુષ્યનું શમણે! અન્ય મૂર્થિકેમાં મેં તે ચાર પુરૂષ કહેલ છે. ચારે દિશાએથી આવીને કાદવમાં ફસાઈ ગયા તે અન્ય દર્શનવાળાઓના અનયાયીઓ કહ્યા છે તેમ સમજવું. જેમ તે ચારે પુરૂષ વાવમાંથી મળે લાદવા સમર્થ થયા નથી, ઉલ્ટા તેઓ કાદવમાં ફસાઈ ગયા. અને પિતાને પણ ઉદ્ધાર કરી શક્યા નથી. એ જ પ્રમાણે અન્ય તીથિકો પણ મોક્ષ પ્રાપ્ત ન કરતાં સંસારમાં જ રહીને દુઃખ ભોગવે છે. હે આયુશ્મન શ્રમણ ! ધર્મને મેં સાધુ (ભિક્ષુ) કહેલ છે. જેમ ચતુર પુરૂષે વાવમાં પ્રવેશ કર્યા વિના જ તેમાંના કમળને પિતાના તરફ આકર્ષિત કર્યા અર્થાત્ ખેંચી લીધા એજ પ્રમાણે રાગદ્વેષથી સર્વથા રહિત ધાર્મિક For Private And Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् अतो मया धर्मस्य दृष्टान्तेन साधुरुपमितः। 'समणाउसो' हे श्रमणाः ! आयुमन्तः ! 'मए' मया खलु 'अपाटु' अपाहृत्य-अधिकृत्य 'धम्मतित्थं धर्मतीर्थम् ‘से' तत् 'तीरे' तीरम्-तटम् 'बुइए' उक्तम्-कथितम् , यथा पुष्करिण्यास्तटमेव अन्तभागः सीमा भवति तदुपरि पुष्करिणी व्यवहारः. तथा-संसारस्य चरमसीमा धर्मतीर्थ एव, धर्मतीर्थस्य संसारान्तकत्वात् । 'समणाउसो' हे श्रमणा आयुष्मन्तः ! 'धम्मकहं च' धर्मकां च 'खलु मए' खलु मया 'अपाहटु' अपाहृत्य-अधिकृत्य 'से' सः 'सद्दे' शब्दः 'बुइए' उक्त:-कथितः, धर्मकथया उत्तार्यन्ते संसारात्-बहवः अतः शब्देन धर्मकथोपमिता। 'समणाउसो' हे श्रमणा आयुष्मन्तः ! 'निध्वाणं च खलु मए अपार्दु' निर्वाणं मोक्षम् अपाढत्यअधिकृत्य 'मए' मया 'से' सः 'उपाए' उत्पातः 'बुइए' उक्तः-कथितः, मोक्ष संसार से बाहर निकाल लेता है। इस कारण मैंने धर्म की उपमा साधु से दी है। हे आयुष्मन् श्रमणों ! मैंने धर्मतीर्थ को पुष्करिणी का तीर कहा है। जैसे पुष्करिणी का अन्त तट कहलाता है और उसके आगे के भाग को पुष्करिणी कहते हैं, उसी प्रकार संसार की चरिमसीमा धर्मतीर्थ है, धर्मतीर्थ संसार का अन्त करने वाला है-'किन्तु लौकिक तीर्थ नहीं। हे आयुष्मन् श्रमणो! धर्मकथा को मैंने भिक्षु का शब्द कहा है। धर्म कथा के द्वारा बहुत जीव संसार से पार किये जाते हैं, अतएव धर्म कथा की उपमा शब्द से दी गई है। हे आयुष्मन श्रमणो ! निर्वाण को मैंने (श्वेत कमलका) उत्पतन कहा है । जैसे जल के अन्दर कमल कीचड़ को भेदकर ऊपर आजाता પુરૂષ કામને ત્યાગ કરીને ધર્મોપદેશ દ્વારા રાજા વિગેરેને સંસારથી બહાર કહાડી લે છે, તે કારણે મેં સાધુને ધર્મની ઉપમા આપી છે. હે આયુષ્મન શમણે મેં ધર્મતીર્થને વાવને કિનારે કહેલ છે. જેમ પુષ્કરિણી-વાવને અન્ત ભાગ તટ-કિનારે કહેવાય છે, અને તેના આગળના ભાગને (અન્તના ભાગ) પુષ્કરિણી કહે છે, એ જ પ્રમાણે સંસારની ચરિમ સીમાને ધર્મતીર્થ કહેલ છે. ધર્મતીર્થ સંસારને અન્ત કરવાવાળું છે. પણ લૌકિકતીથે સંસારને અંતકર્તા હેતું નથી. હે આયુષ્યન મણે ધર્મકથાને મેં ભિક્ષુ રૂપ કહેલ છે, ધર્મકથા દ્વારા For Private And Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४० सूत्रकृताङ्गसूत्रे एव उत्पातस्थाने उक्तः । यथा - कमलं जले पङ्कं चाहृत्य उपरि आगच्छति, तथासाधकः साधुः स्वकीयमष्टविधं कर्म विनाश्य संसारान्निर्गतो भवति, अतो मया मोक्षस्य उत्पातेन सहोपमानम् 'समणाउसो' हे श्रमगा आयुष्मन्तः ! 'एवमेयं च खलु मए' एवमेतत् खलु मया 'अपाइड' अपाहृत्य - अधिकृत्य 'से' तत् 'एवमेयं' एवमेतत् 'बुइए' उक्तम्, मया पुष्करिण्यादयः सर्वेऽपि पूर्वोक्ताः पदार्थाः तत्तत् सारूप्येण प्रदर्शिता इति ।०८। मूलम् - इह खलु पाईणं वा उदीणं वा दाहिणं वा संतेगइया मणुस्सा भवंति अणुपुत्रेणं लोगं उववन्ना, तं जहाआरियावेगे अणारिवावेगे उच्चागोत्तायेगे णीयागोतावेगे काय - मंतावेगे रहस्समंतावेगे सुवन्नावेगे दुवन्नारेगे सुरूवावेगे दुरूवावेगे तेसिं चणं मणुगाणं एगे राया भवइ, महया हिमवंत मलय मंदरमहिंदसारे अच्चंत विसुद्ध रायकुलवं सप्पसूए निरंतररायलक्खणविराइयंगवंगे बहुजणबहुमाणपूइए सव्वगुणसमिद्धे खत्तिए मुदिए मुद्धाभिसित्ते माउपिउसुजाए दयप्पिए है, उसी प्रकार साधक साधु अपने आठ प्रकार के कर्म को विनष्ट करके संसार से निकल जाता है । इसकारण मैंने मोक्ष की उपमा उत्पतन से दी है । ! हे आयुष्मन् श्रमणो ! मैने अपनी बुद्धि से कल्पना करके ऐसा कहा है। अर्थात् अपनी बुद्धि से सोचकर पुष्करिणी आदि का रूपक कहा है ||८|| ઘણુ! જીવાને સ’સારથી પાર કરવામાં આવે છે. તેથી જ ધમ કથાની ઉપમા શબ્દની સાથે આપવામાં આવી છે. હું આયુષ્મન્ શ્રમણા નિર્વાણુને મેં શ્વેત કમળનું ઉત્પતન કહેલ છે. જેમ પાણીમાંથી કમળ કાદવને દૂર કરીને ઉપર આવી જાય છે. એજ પ્રમાણે સાધક સાધુ પેાતાના આઠ પ્રકારના કમ ને નાશ કરીને સ`સારથી બહાર નીકળી જાય છે. તે કારણે મે મેક્ષની ઉપમા ઉત્પતન-ઉપર જવા રૂપ કહેલ છે. ૐ આયુષ્યમન્ શ્રમશે. મેં મારી બુદ્ધિથી કલ્પના કરીને આ પ્રમાણે કહેલ છે. અર્થાત્ પેાતાની સ્વ બુદ્ધિથી વિચારીને પુષ્કરિણી વિગેરેનું રૂપક छे For Private And Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् ४१ सीमंकरे सीमंधरे खेमंकरे खेमंधरे मणुस्सिदे जणवयपिया जणवयपुरोहिए सेउकरे केउकरे नरपवरे पुरिसपवरे पुरिससीहे पुरिस आसीविसे पुरिसवरपॉडरीए पुरिसवरगंधहत्थी अड्डे दित्ते वित्ते विच्छिन्नविउलभवणसयणासणजाणवाहणाइण्णे बहुधण बहुजायरूवरयए आओगपओगसंपउत्ते विच्छड्डियपउरभत्तपाणे बहुदासीदासगोमहिसगवेलप्पभूए पडिपुण्णकोसकोट्रागारा उहागारे बलवं दुब्बलपच्चामित्त ओहयकंटयं निहयकंटयं मलियकंटयं उद्धियकंटयं अकंटयं ओहयसत्तु निहयसनु मलियसत्तु उद्धियसनु निज्जियसत्तु पराइयसनु ववगयदुभिक्खं मारिभय विप्पमुकं रायवन्नओ जहा उववाइए जाव वसंतडिंबडमरं रज्जं पसाहेमाणे विहरइ । तस्स ण रन्नो परिसा भवह उग्गा उग्गपुत्ता भोगा भोगपुत्ता इक्खागा इक्खागपुत्ता नाया नायापुत्ता कोरव्वा कोरवपुत्ता भट्टा भट्टपुत्ता माहणा माहणपुत्ता लच्छई लेच्छइपुत्ता पसत्थारो पसत्थपुत्ता सेणावई सेणावइपुत्ता । तेसिं भवइ कामं तं समणा वा माहणा वा संपहारिसु गमणाए, तत्थ अन्नयरेणं धम्मेणं पन्नत्तारो वयं इमेणं धम्मेणं पन्नवइस्सामो ते एवमायाणह भयंतारो जहा मए एस धम्मे सुयक्खाए सुपन्नत्ते भवइ, तं जहा-उर्दू पायतला अहे केसग्गमत्थया तिरियंतयपरियंते जीवे एस आयापज्जवे कसिणे एस जीवे जीवइ एस मए णो जीवइ, सरीरे धरमाणे धरइ विणटुंमि य णो धरइ, एयंतं जीवियं भवइ, आदहणाए For Private And Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूकृिताङ्गसूत्रे परेहिं निज्जइ, अगणिझामिए सरीरे कवोयवन्नाणि अट्टीणि भवंति, आसंदी पंचमा पुरिसा गामं पञ्चागच्छंति, एवं असंते असंविज्जमाणे जेसिं तं असंते असंविज्जमाणे तेसिं तं सुयक्खायं भवइ अन्नो भवइ जीवो अन्नं सरीरं, तम्हा, तं एवं नो विपडिवेदेति-अयमाउसो ! आया दीहेइ वा हस्सेइ वा परिमंडलेइ वा वट्टेइ वा तंसेइ वा चउरंसेइ वा आयएइ वा छलंसिएइ वा अटुंसेइ वा किण्हेइ वा णीलेइ वा लोहिएइ वा हालिदेइ वा सुकिलेइ वा सुब्भिगंधेइ वा दुब्भिगंधेइ वा तित्तेइ वा कडुएइ वा कसाइए वा अंबिलेइ वा महुरेइ वा कक्खडेइ वा मउएइ वा गुरुएइ वा लहुएइ वा सिएइ वा उसिणेइ वा निद्धेइ वा लुक्खेइ वा एवं असंते असंविज्जमाणे जेसिं तं सुयक्खायं भवइ-अन्नो जीवो अन्नं सरीरं, तम्हा ते णो एवं उवलब्भंति, से जहा णामए केइ पुरिसे कोसीओ असिं अभिनिव्वाट्टत्ताणं उवदंसेज्जा अयमाउसो! असी अयं कोसी, एवमेव नथि केइपुरिसे अभिनिव्वहिता णं उवदंसेत्तारो अयमाउसो! आयाइयं सरीरं। से जहा णामए केइपुरिसे मुंजाओ इसियं अभिनिव्वट्टित्ता णं उवदंसेज्जा अयमाउसो! मुंजे इयं इसियं एवमेव नत्थि केइपुरिसे उवदंसेतारो अयमाउसो! आया इयं सरीरं। से जहा णामए केहपुरिसे मंसाओ अढेि अभिनिवट्टित्ताणं उवदंसेज्जा अयमाउसो! मंसे अयं अट्टी, एवमेव नस्थि केइपुरिसे उवदंसेत्तारो अयमा For Private And Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् उसो ! आया इयं सरीरं । से जहा णामए केइपुरिसे करयलाओ आमलगं अभिनिवट्टित्ता णं उवदंसेजा अयमाउसो! करतले अयं आमलए, एवमेव णस्थि केइपुरिसे उवदंसेत्तारो अयमाउसो ! आया इयं सरीरं। से जहा णामए केइपुरिसे दहिओ नवनीयं अभिनिवट्टित्ता णं उवदंसेज्जा अयमाउसो! नवनीयं अयं तु दही, एवमेव णस्थि केइपुरिसे जाव सरीरं। से जहा णामए केइपुरिसे तिलेहितो तिल्लं अभिनिव्वट्टित्ता णं उवदंसेज्जा अयमाउसो! तेल्लं अयं पिन्नाए, एवमेव जाव सरीरं। से जहा णामए केइपुरिसे इक्खूतो खोयरसं अभिनिव्वहिताणं उवदंसेजा अयमाउसो! खोयरसे अयं छोए, एवमेव जाव सरीरं। से जहा णामए केइपुरिसे अरणीओ अगि अभिनिवहित्ता णं उवदंसेज्जा अयमाउसो! अरणी अयं अग्गी, एवमेव जाव सरीरं। एवं असंते असंविज्जमाणे जेसिं तं सुयक्खायं भवइ, तं जहा-अन्नो जीवो अन्नं सरीरं । तम्हा ते मिच्छा। से हंता तं हणह खणह छणह डहह पयह आलूपह विलुपह सहसाकारह विपरामुसह, एयावया जीवे णस्थि परलोए, ते णो एवं विप्पडिवेदेति, तं जहा-किरियाइ वा अकिरियाइ वा सुकडेइ वा दुक्कडेइ वा कल्लाणेइ वा पावएइ वा साहुइ वा असाहुइ वा सिद्धीइ वा असिद्धीइ वा निरएइ वा अनिरएइ वा, एवं ते विरूवरूवेहि कम्मसमारंभेहिं विरूवरूवाई कामभोगाई समारभंति भोयणाए । एवं एगे पागब्भिया णिक्खम्म मामगं For Private And Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे धम्मं पन्नवेंति, तं सद्दहमाणा तं पत्तियमाणा तं रोषमाणा साहु सुक्खाए समणेइ वा माहणेइ वा कामं खलु आउसो ! तुमं पूययामि तं जहा - असणेण वा पाणेण वा खाइमेण वा साइमेण वा वस्थेण वा पडिग्गहेण वा कंबलेण वा पायपुंछणेण वा तत्थेगे पूणा समाउहिंसु तत्थेगे पूणाए निकाइंसु । पुबमेव तेर्सि णायं भवइ - समणा भविस्सामो अणगारा अकिंचणा अपुत्ता अपसु परदत्तभोइणो भिक्खुणो पावं कम्मं णो करिसामो समुट्टाए तं अपणा अप्पडिविरया भवंति, सयमाइयंति अन्ने वि आदियावेंति अन्ने पि आययंतं समणुजाणंति, एवमेव ते इत्थिकामभोगेहिं मुच्छिया गिद्धा गढिया अज्झोववन्ना लुद्धा रागदोसवसट्टा, ते णो अप्पाणं समुच्छेदेति ते जो परं समुच्छेदेंति ते णो अण्णाई पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई समुच्छेदेति, पहीणा पुवसंजोगं आयरियं मग्गं असंपत्ता इइ ते णो हवाए णो पाराए अंतरा कामभोगेसु विसन्ना इइ पढमे पुरिसजाए तज्जीवतच्छरीर एत्ति आहिए ॥ सू० ९ ॥ छाया - इह खलु माच्यां वा प्रतीच्यां वा उदीच्यां वा दक्षिणस्यां वा सन्त्येके मनुष्या भवन्ति, आनुपूर्व्या लोकमुपपन्नाः, तद्यथा आर्या एके, अनार्या एके, उच्चगोत्रा एके, नीचगोत्रा एके, कायवन्त एके, हस्ववन्त एके, सुवर्णा एके, दुर्वर्णा एके, सुरूपा वा एके, दूरूपा वा एके । तेषां च मनुजानामेको राजा भवति महाहिमवन्मलय मन्दर महेन्द्रसारः, अत्यन्तविशुद्धराजकुळवंशमसूतः, निरन्तरराजलक्षण विराजिताङ्गोपाङ्गः, बहुजन बहुमानपूजितः सर्वगुणसमृद्धः क्षत्रिय, मुदितः, मूभिषिक्तः, मातापितृसुजातः, दयाप्रियः सीमाकरः, सीमाधरः, क्षेमङ्करः क्षेमन्धरः, मनुष्येन्द्र, जनपद पिता, जनपदपुरोहितः, सेतुकरः, केतुकरः, नरप्रवरः, पुरुषप्रवरः, पुरुषसिंहः, पुरुषाशीर्विषः, पुरुषवरपुण्डरीकः पुरुषवरगन्धहस्ती, आढयः, दीप्तः, For Private And Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् કી , , वित्तः, विस्तीर्णविपुलभवनशयनासनयानवाहना कीर्णः, बहुधनवहु जातरूपरजतः, आयोगप्रयोगसम्मयुक्तः, विच्छर्दितमचुर भक्तवानः, बहुदासीदास गोम दिपग वेलकप्रभूतः प्रतिपूर्ण कोशकोष्ठागारायुधागारः, बलवान, दुर्बलमत्यमित्रः, अवहतकण्टकं निहतकण्टकं मर्दितकण्टकम् उद्धृतकण्टकम् अकण्टकम् अहतशत्रु, निहतशत्रु, मर्दितशत्रु, उद्घृतशत्रु, निर्जितशत्रु पराजितशत्रु व्यपगतदुर्भिक्षं मारीमयविषमुक्त' राजवर्णकः यथा औपपातिके यावत् प्रशान्त डिम्बडम्बरं राज्यं साधयन् विहरति । तस्य खलु राज्ञः परिषद्द्भवति, उग्राः, उग्रपुत्राः, भोगाः भोगपुत्राः, इक्ष्वाकवः, इक्ष्वाकुपुत्राः ज्ञाताः ज्ञातपुत्राः कौरव्याः कौरव्य पुत्राः, भट्टाः, भट्टपुत्राः, ब्राह्मणाः, ब्राह्मणपुत्राः, लेच्छिकणः, लेच्छिकपुत्राः, प्रशास्तारः प्रशास्तृपुत्राः, सेनापतयः, सेनापतिपुत्राः । तेषां च एकतमः श्रद्धावान् भवति, कामं तं श्रमणो वा ब्राह्मणो वा सम्प्रधार्षुः, गमनाय तत्र अन्यतरेण धर्मेण प्रज्ञापयितारः वयम् अनेन धर्मेण प्रज्ञापयिष्यामः, तत् एवं जानीहि भयत्रातः, यथा मया एष धर्मः स्वाख्यातः सुप्रज्ञप्तो भवति तद्यथा-ऊर्ध्वं पादतलाद अधः केशाग्रमस्तकात् तिर्यह स्वक्पर्यन्तो जीवः एष आत्मपर्यत्रः कृत्स्नः । अस्मिन् जीवति जीवति, एष मृतः, नो जीवति, शरीरे धरति धरति विनष्टे च नो धरति । एतदन्तं जीवितं भवति । आदहनाय परेनीयते, अग्निमापिते शरीरे कपोतवर्णान्यस्थीनि भवन्ति । आसदीपञ्चमाः पुरुषाः ग्राम प्रत्यागच्छन्ति । एवम् असन असंवेद्यमानः येषां सोऽसन् असंवेद्यमानः तेषां तत् स्त्राख्यातं भवति । अन्यो भवति जीवः, अन्यच्छरीरम्, तस्मात ते एवं नो त्रिप्रतिवेदयन्ति अयमायुष्मन् ! आत्मा दीर्घ इति वा, ह्रस्व इति वा, परिमण्डल इति वा, वर्तुल इति वा, व्यस्र इति वा, चतुरस्र इति वा, आयत इति चा, षडंश इति वा, अष्टांश इति वा, कृष्ण इति वा, नील इति वा, लोहित इति वा, हारिद्र इति वा, शुक्ल इति वा, सुरभिगन्ध इति वा, दुरभिगन्ध इति वा, तिक्त इति वा, कटुक इति वा, कषाय इति वा अम्ल इति वा, मधुर इति वा, कर्कश इति वा, मृदुरिति वा, गुरु इति वा, लघुक इति वा, शीत इति वा, उष्ण इति वा, स्निग्ध इति वा, रूक्ष इति वा, एवम् असन असंवेद्यमानः येषां तत् स्वाख्यातं भवति, अन्यो जीवः अन्यच्छरीरं तस्मात् ते नो एवम् उपलभन्ते, तद्यथा नामकः कश्चित् पुरुषः कोशाद् असिम् अमिनिय उपदर्शयेद्, अयम् आयुष्मन् । असिः अयं कोशः एवमेव नास्ति कोऽपि पुरुषः अभिनिर्वत्य खलु उपदर्शयिता अयमायुष्मन् ! आत्मा इदं शरीरम्, तद्यथा नामकः कोऽपि पुरुषः गुञ्जाद् इषिकाम् अभिनिर्वत्थ खलु उपदर्शयेद् अयमायुष्मन् ! मुञ्जः इयमिषिका, एवमेव नास्ति कोऽपि पुरुषः उपदर्शिता अयमायुष्मन् ! आत्मा इदं शरीरम्, तद्यथा नामकः कोऽपि पुरुषो मांसाद अस्थि For Private And Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे अभिनिर्वयं खलु उपदर्शयेद् अयमायुष्मन् ! मांसः इदम् अस्थि एवमेव नास्ति कोऽपि पुरुषः उपदर्शयिता अयमायुष्मन् ! आत्मा इदं शरीरम् । तद्यथा नामकः कोऽपि पुरुषः करतलादामलकम् अभिनिवत्यै खलु उपदर्शयेद् इदम् आयुष्मन् ! करतलम् इदमामलकम् एवमेव नास्ति कोऽपि पुरुषः उपदर्शयिता अयमायुष्मन् ! आत्मा इदं शरीरम् । तद्यथा नामकः कश्चित् पुरुषो दध्नो नवनीतम् अभिनिवयं खलु उपदर्शयेद् इदमायुष्मन् ! नवनीतम् इदं तु दधि, एवमेव नास्ति कोऽपि पुरुषः उपदर्शयिता अय. मायुष्मन् ! आत्मा इदं शरीरम् । तद्यथा नामकः कोऽपि पुरुषः तिलेभ्यस्तैलम् अभि. निवर्त्य खलु उपदर्शयेत् इदमायुष्मन् ! तैलम् अयं पिण्याकः एवमेव नास्ति कोऽपि पुरुषः उपदर्शयिता आयुष्मन् ! आत्मा इदं शरीरम् । तद्यथा नामकः कोऽपि पुरुषा इक्षुतः क्षोदरसम् अभिनिवयं खलु उपदर्शयेद् अयम् आयुष्मन् ! क्षोदरसः अयं क्षोदः एवमेव यावद् शरीरम् । तया नामकः कोऽपि पुरुषः अरणितः अग्निम् अभिनिपत्य खजु उपदर्शयेत् , इयम् आयुष्मन् ! अरणिः अयमग्निः एवमेव यावत् शरीरम् । एवम् असन् असंवेद्यमानः येषां तत् स्वाख्यातं भवति, तद्यथा-अन्यो जीवः अन्यच्छरीरं तस्मात् ते मिथ्या । स हन्ता तं घातयत, खनत, क्षणत, दहत, पचत, आलुम्पत, विलुम्पत, सहसा कास्यतः विपरामशत, एतावान् जीव: नास्ति परलोकः। ते नो एवम् विपतिवेदयन्ति तद्यथा-क्रियां वा, अक्रियां वा, सुकृतं वा, दुष्कृतं वा, कल्यागं वा, पापकं वा, साधु वा, असाधु वा, सिद्धि वा, असिद्धि वा, निरय वा, अनिरयं वा, एवं ते विरूपरूपः कर्मसमारम्भैः विरूपरूपान् कामभोगान् समारभन्ते भोगाय। एवम् एके प्रागल्भिकाः निष्क्रिम्य मामकं धर्म प्रज्ञापयन्ति, तं श्रदधानाः तं मतियन्तः तं रोचमानाः, साधु स्वाख्यातं श्रमण इति वा माहन इति वा कामं खलु आयुष्मन् ! खां पूजयामि, तद्यथा-अशनेन वा पानेन वा खायेन वा स्वायेन वा, वस्त्रेण वा, प्रतिग्रहेण वा, कम्बलेन वा, पादपोछनेन वा, तत्रैके पूजायै समुस्थितवन्तः, तत्रैके पूजायै निकावितवन्तः । पूर्वमेव तेषां ज्ञातं भवति श्रमणाः भविष्यामः अनगाराः अकिश्रनाः अपुत्राः अपशवः परदत्तमोजिनः भिक्षकः पापं कर्म न करिष्यामः, समुत्थाय ते आत्मना अप्रतिविरताः भवन्ति । स्वयम् आददते अन्धानपि आदापयन्ति अन्यमपि आददन्तं समनुजानन्ति । एवमेव ते स्त्रीकाममोगेषु मूञ्छिताः गृद्धाः ग्रथिताः अध्युपपन्नाः लुब्धाः रागद्वेषवशार्ताः ते नो आत्मानं समुच्छेदयन्ति ते नो पर समु. च्छेदयन्ति, ते नो अन्यान् माणान् भूतानि जीवान सत्त्वान् समुच्छेदयनिन, पहीणाः पूर्वसंयोगाद् आर्य मार्गम् अमाप्ता इति ते नो अर्थाचे नो पाराय अन्तरा काममो. गेषु निषण्णाः इति प्रथमः पुरुषजातः तज्नीवतच्छरीरकइति भाख्यातः ।।०९॥ For Private And Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समया र्थबोधिनी टी1 द्वि. भु. अ. १ पुण्डरीनामाध्ययनम् टीका - श्री वर्धमानस्वामि तीर्थकरः सदसि समवेतान नराऽमराऽग्रगण्य समूहान् अभिलक्षीकृत्य कथयति - 'इह खलु' इद्द - मनुष्यलोके 'पाईण वा' प्राच्यां वा - पूर्वस्मिन्दिग्विभागे 'पडीणं वा' प्रतीच्यां वा पश्चिमदिग्विभागे 'उदीणं वा ' उदीच्यां वा उत्तरस्याम् - उत्तरदिग्विभागे 'दाहिणं वा' दक्षिणस्यां वा-दक्षिणदिग्विभागे वा 'संतेगइया' सन्त्येकेऽनेकप्रकारकाः 'माणुया भवंति' मनुष्या भवन्ति । 'अणुपुवेणं' आनुपूर्व्या 'लोगे उचचन्ना' लोके उपपन्नाः, इहलोके नानादिशासु पूर्वादिक्रमेण नाना प्रकारका मनुष्या निवसन्ति ते सर्वे न एकरूपाः, किन्तु अनेक जातीयाः सन्ति अनेक प्रकारकत्वमेव दर्शयति- 'तं जहा' इत्यादि । 'तं जहा ' तद्यथा - 'आरियावेगे' एके आर्याः, लब्धधर्ममतयः, एके भवन्ति । 'अणारिया वेगे' भवन्ति च एके अनार्या वा-आर्यविरोधिनोऽधर्माण: । अथवाआर्यदेशोद्भवा अनार्यदेशोद्भवाश्च । 'उच्चागोता वेगे' उच्चगोत्रा एके 'णीयागोया वेगे' नीचगोत्रा वा एके, 'कायमंत वेगे' कायवन्त एके, शरीरेण के चिल्लम्बायमाना दीर्घशरीरा इत्यर्थः । केचन पुनः - 'हस्समंता वेगे' ह्रस्ववन्त एके, वामनाः ૭ 'इह खलु' इत्यादि । टोकार्थ - श्री वर्धमान स्वामी समवसरण में एकत्र हुए अग्रगण्य मनुष्यों तथा देवों के समूह को लक्ष्य करके कहते हैं- इस मनुष्यलोक में पूर्वदिशा में, पश्चिमदिशा में, उत्तर दिशामें या दक्षिण दिशा में, अनेक प्रकार के मनुष्य होते हैं, सभी एक प्रकार के नहीं होते हैं । जैसे - कोई आर्य अर्थात् धर्म बुद्धि वाले होते हैं । कोई अनार्य अर्थात् आर्यविरोधी - अधर्मी होते हैं । अथवा कोई आर्य देश में उत्पन्न और कोई अनार्य देश में उत्पन्न होते हैं। कोई उच्चगोत्रीय तो कोई नीच गोत्रीय होते हैं। कोई शरीर से लम्बे होते हैं, कोई छोटे कद वाले, For Private And Personal Use Only 'इह खलु' त्याहि ટીકા શ્રી વર્ધમાન સ્વામી સમવસરણમાં એકઠા થયેલા અગ્રગણ્ય, મુખ્ય એવા મનુષ્યો તથા દેવાના સમૂહને ઉદ્દેશીને કહે છે-આ મનુષ્ય લાકમાં, પૂર્વ દિશામાં, પશ્ચિમ દિશામાં, ઉત્તર દિશામાં, દક્ષિણ દિશામાં અનેક પ્રકારના મનુષ્યો હાય છે. ખધા મનુષ્યો એક પ્રકારના હાતા નથી. જેમ-કાઇ આય અર્થાત્ ધર્મ બુદ્ધિવાળા હૈ!ય છે, દાઈ અનાય અર્થાત્ આય વિરાધી અધર્મી હાય છે. અથવા કાઇ આ દેશમાં ઉત્પન્ન થયેલા અને કઈ અનાય દેશમાં ઉત્પન્ન થયેલા હૈાય છે. ઈ ઉચ્ચ ગોત્રમાં ઉત્પન્ન થયેલા હૈાય છે. અને કાઈ નીચ ગોત્રમાં ઉત્પન્ન થયેલા હાય છે. કાઈ શરીરથી લાંબા હાય છે, કાઈ ઠીંગણા કદવાળા વામન Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतास्त्रे कुब्जा भवन्ति । 'मुवन्ना वेगे-दुचना वेगे' सुवर्णा एके-दुर्गा एके, केचिद क्षत्रियाः, 'सुरुवा वेगे-दुरूवा वेगे' मुरूपा वा एके-दुरूपा वा एके-केषांचिद्रूपं कमनीयम् , केषांचिदकमनीयम् । गोत्रवर्गादिना विभिन्नजातीया मनुष्या इहलोके भवन्ति । तेसिं च णं मणुयाणं एगे राया भवई' तेषां पूर्वोक्तानाम्-अनेकभेदमिन्नानां मनुष्याणाम् , मध्ये 'एगे' एकः 'राया' राजा शासका 'भवइ' भवति, 'महयाहिमरंतमलयमंदरमहिंदसारे' महाहिमवन्मलयमन्दरमहेन्द्रसारो राजेति शेषः। स राजा हिमवान , हिममधानको गिरिः, मलयस्तन्नामा गिरिः, मन्दराचल:महेन्द्रो गिरिः एभ्यः समाना-विविधधातुविस्ताराभ्याम् । अथवा-हिमवदादि पर्वतवत्-दृढो महेन्द्रो देवराट् तद्वत् बलविभवाभ्याम्-अजितो राजा भाति । अचा विमुद्धरायकुलवंसप्पभूर' अत्यन्त विशुद्धराजकुलवंशमयतः। अत्यन्तं विशुदानि यानि राजकुलानि, तेषां वंशेऽन्वये प्रसूतिरुत्पत्तिर्यस्य स तथा। अन्तनिर्मलराजान्वयसमुत्पन्नः । 'निरंतररायलकवणविराइयंगवंगे' निरन्तरराजलक्षणविरा. बौने या कुबले भी होते हैं । कोई सुन्दर रूप वाले और कोई कुरूप होते हैं, अर्थात् किसी का वर्ण कमनीय और किसी का अकमनीय होता है। इस प्रकार गोत्र एवं वर्ण आदि के द्वारा भिन्न भिन्न प्रकार के मनुष्य इस लोक में निवास करते हैं । ___ उन मनुष्यों में कोई एक राजा होता है। वह राजा धातु और विस्तार की दृष्टि से हिमवान् पर्वत, मलय पर्वत, मन्दर पर्वत और महेन्द्र नामक पर्वत के समान होता है । अथवा हिमवान् पर्वत आदि के समान दृढ तथा महेन्द्र अर्थात् बल और वैभव में इन्द्र के समान प्रतापवान् होता है। अत्यन्त विशुद्ध राजकुलों की परम्परा में जन्मा होता है। उसके अंग प्रत्यंग राजा के चिह्नो से निरन्तर सुशोभित અથવા કુબડા પણ હોય છે. કેઈ રૂપથી સુંદર હોય છે, તે કોઈ કરૂપ હોય છે. અર્થાત્ કોઈને વર્ણ સુંદર વખાણવા યોગ્ય અને કોઈનું રૂપ અકસનીય અર્થાતુ મનને ન ગમે તેવું હોય છે. આ રીતે ગોત્ર અને વર્ણ વિગેરથી જુદા જુદા પ્રકારના મનુષ્ય આ લેકમાં નિવાસ કરે છે. તે મનુષ્યમાં કોઈ રાજા હોય છે. તે રાજા ધાતુ અને વિસ્તારની દ્રષ્ટિથી, હિમાલય પર્વત, મલયાચલ પર્વત, મન્દર (મેરૂ) પર્વત અને મહેન્દ્ર નામના પર્વતની સરખા હોય છે. અથવા હિમાલય પર્વત વિગેરેની સરખા દઢ (મજબૂત) તથા મહેન્દ્ર અર્થાત્ બળ અને વૈભવમાં ઈન્દ્રની સરખા પ્રતાપવાનું હોય છે. આથત વિશદ્ધ રાજકુળની પરંપરામાં જન્મેલા હોય છે. તેના અંગ પ્રત્યંગ For Private And Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् जिताङ्गोपाङ्गः, निरन्तर नित्यं राजलक्षणैः विराजितं - लक्षितं मासमानम् अङ्गप्रत्यङ्गं यस्य सः 'बहुजण बहुमाणपूइए' बहुजन बहुमान पूजितः - संस्कृतः, अनेक पुरुषः सर्वदा बहुमानपूर्वकं पूजा - सत्कारादिभिः सत्कृतः । 'सव्वगुणसमिद्धे' सर्वगुणसमृद्धः सर्वदा बहुविधगुणैरभिवृद्धः । 'खसिए' क्षत्रियः - क्षतात् - भयात् त्राणकरणशीलः, क्षत्रियत्वजातिमान वा 'मुदिए' मुदितः माता पित्रा दिना शुद्धवंशीयः, 'मुद्धाभिसित्ते' मूर्द्धाऽभिषिक्तः वंशपरम्परया राज्येऽभिषिक्तः 'माउपिउसुजाए' मातापितृ सुजातः मातापित्रोः सदाऽऽनन्द पोषणादि करणादिना सुपुत्रः कुलस्य भूषणस्वरूपः 'दयप्पिए' दयामियः, दया प्रिया यस्य सः सर्वभूतेषु दयावान् । सीमंकरे' सीमाकरः 'सीमंधरे' सीमा घर:- मर्यादा धारकः प्रजानां व्यवस्थायै आत्मनश्च । 'खेमंकरे खेमंधरे' क्षेमङ्कर क्षेमंधरः, मजायाः होते हैं, अर्थात् उसके अंग प्रत्यंग में राजा के योग्य शुभ लक्षण होते हैं । अनेक पुरुष सर्वदा अत्यन्त आदरपूर्वक उसका आदर सरकार करते हैं। वह सर्व गुणों से सम्पन होता है । वह क्षत्रिय अर्थात् क्षत भय से त्राण करने वाला या क्षत्रिय जाति का होता है । सदैव प्रसन्न - चित्त, विधिवत् राज्याभिषेक किया हुआ, तथा माता पिताको आनन्द देने और उनका पोषण आदि करने के कारण सपूत होता है- कुल का भूषण होता है । सब पर दयाकरने वाला प्रजा की और अपनी व्यवस्था के लिए मर्यादा करने वाला मर्यादा का धारक होता है। सीमा करनेवाला अर्थात् मर्यादा करनेवाला होता है एवं मर्यादा को धारण करनेवाला होता है। क्षेमंकर और क्षेमंधर होता है अर्थात् प्रजा को कुशल करता है और अपना રાજાના ચિન્હાથી નિરંતર (આંતરા વિના) સુશે ભિત હોય છે. અર્થાત્ તેના અગ પ્રત્યગામાં રાજાને ચેાગ્ય શુભલક્ષણ હાય છે, અનેક પુરૂષ હંમેશાં આદર્ પૂર્વક તેના આદર સત્કાર કરે છે. તે સગુણૢાથી યુક્ત હાય છે. તે ક્ષત્રિય અર્થાત્ ક્ષતના ભયથી ત્રાણુ-રક્ષણ કરનાર અથવા ક્ષત્રિય જાતિના હોય છે. સદા પ્રસન્ન ચિત્ત, વિધિ યુક્ત રાજ્યાભિષેક કરેલા તથા માતા પિતાને આનંદ આપનાર અને તેએનું પેષણ વિગેરે કરવાથી સપૂત હોય છે.-કુળના ભૂષણુ રૂપ હેય છે. બધાના પર દયા કરનાર પ્રજાની અને પેાતાની વ્યવસ્થા માટે મર્યાદા આંધનાર અને મર્યાદાને ધારણ કરનાર હોય છે. સીમા કરવાવાળા અર્થાત્ મર્યાદા કરવાવાળા અને મર્યાદાને ધારણ કરવાવાળા હાય છે. ક્ષેમ કર અને ક્ષેમ ધર હાય છે. અર્થાત્ પ્રજાનુ' ક્ષેમ-કુશલ કરે છે. અને सु० ७ For Private And Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५० सूत्रकृताङ्गसूत्रे " क्षेमं कुशलं करोति, स्वयमपि स्वात्मनः कल्याणं धरते । 'मणुस्सिदे' मनुष्येन्द्रः, मनुष्याणां मनुष्येषु वा इन्द्रः - इन्द्रसमः, 'जणवयपिया' जनपदपिता, जनपदानां रक्षणपालनाभ्यां पितेव पिता, 'जणवयपुरोहिए' जनपदानां पुरोहितः यथाहिपुरोहितो ब्राह्मणो यजमानस्य शान्तिप्रयोजकप्रतिनिधितया तत्तत्कर्म करोति । तथा - राजाऽपि सर्वेषां हितकरणात् विघ्नेभ्यो रक्षणाच्च पुरोहित इव पुरोहितः । 'सेउकरे' सेतुकरः - स राजा स्वराष्ट्रस्य सुव्यवस्थायें नदीनदप्रणालिका सेतुकेतूनां कर्त्ता । 'नरपवरे' नरमवर :- सर्वन रेषु श्रेष्ठतया नरमवरतामुपेतः 'पुरिसपवरे' पुरुषप्रवरः - पुरुषप्रधानः, 'पुरिससीहे' पुरुषेषु सिंह इव बलशाली, न तु सिंहगत पशुत्वयुक्तः । ' पुरिस आसीविसे' पुरुषाशीर्विषः, विप्रियकारिपुरुषेषु दण्ड दापनादाशीविषः, आशी:- राजदण्डो विषो यस्य स आशीविषः । ' पुरिसवरपड - रीए' पुरुषवरपुण्डरीकः, पुरुषेषु वर:- अत एव पुण्डरीक इव प्रियदर्शनः, 'पुरिस भी कल्याण करता है । वह मनुष्यों में इन्द्र के समान, जनपद (देश) का पालन और रक्षण करने के कारण पिता के समान तथा जनपद का पुरोहित होता है। अर्थात् जैसे राज पुरोहित अपने यजमान का शान्ति प्रयोजक प्रतिनिधि बन कर अनेक क्रियाएं करता है, उसी प्रकार राजा भी अपनी प्रजा का हित करने के कारण तथा विघ्नों से रक्षा करने के कारण पुरोहित के समान होता है। वह अपने राष्ट्र की सुखशान्ति के लिए नदी, नद, नहर, पुल, तथा केतु आदि का कर्त्ता होता है। वह नरों में प्रवर, पुरुषप्रवर, पुरुषों में सिंह के समान बलशाली (सिंह के समान पशुता से युक्त नहीं ) पुरुषों में आशीर्विष सर्प के समान अर्थात् अनिष्ट करने वालों को दंड दिलाने के कारण राजदण्ड रूपी विष वाला, पुरुषो में श्रेष्ठ होने से पुण्डरीक के समान प्रियदर्शन पुरुषों પોતાનું પશુ કલ્યાણ કરે છે. તે મનુષ્યેામાં ઈન્દ્રની સરખેા જનપદ દેશનુ પાલન અને રક્ષણ કરવાથી પિતા સરખા તથા જનપદના પુરાહિત હાય છે. અર્થાત્ જેમ રાજપુરાહિત પોતાના યજમાનનુ શાંતિ પ્રત્યેાજક પ્રતિનિધિ બનીને અનેક ક્રિયાઓ કરે છે. એજ પ્રમાણે રાજા પણ પેાતાની પ્રજાનુ હિત કરનાર ઢાવાથી તથા વિશ્નોથી પ્રજાનું રક્ષણ કરવાવાળા હાવાથી પુરાહિત સરખા ઢાય છે. તે પેાતાના રાષ્ટ્રની સુખશાંતિ માટે નદી, નદ, નહેર, પુલ અને કેતુ વિગેરેને કરવાવાળા હોય છે. તે નરામાં શ્રેષ્ઠ-પુરૂષ પ્રવર, પુરૂષામાં સિંહુ સમાન ખળ શાળી (સિંહની સરખા પશુપણાથી યુક્ત નહી) પુરૂષામાં આશીષ સર્પ સરખા અર્થાત્ અનિષ્ટ કરવાવાળાને દંડ આપવાના કારણે રાજદંડ રૂપી વિષવાળા, પુરૂષામાં શ્રેષ્ઠ હોવાથી પુંડરીકની સરખા For Private And Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टोका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् वरगंधहत्थी' पुरुषेषु वरो गन्धहस्तीव, यस्य गन्धमाघ्राय अन्ये गजाः पलायन्ते तादृशो हस्ती गन्धहस्तीत्युच्यते तथैव नरेषु अनुल्लवितशासनो राजा भवति। 'अढडे दित्ते वित्ते' आढयो दीप्तो वित्तः, आइयः-प्रचुरधनवान्, दीत:-तेजस्वी, वित्तः-अहरहः-अलब्धलाभयुक्तः। विस्थिन्नविउलभवणसयणासणजाणवाहगाइण्णे' विस्तविपुलभवनशयनाऽऽसनयानवाहनाकीर्णः, विस्तीणैर्यत्र तत्र विस्तारितैः विपुलैः-बहुभिः, भवनं-प्रसादः शयन-शय्या पर्यङ्कादिः आसनम्आसन्दी 'कुरसी' प्रभृति, यानं-शिविका वाहनमश्वा एभिराकीग:-युक्तः, सञ्चित सर्वविधसाधनसङ्घातसंयुत इति। 'बहुधणबहुजायरूपरयए' बहुधनबहुजातरूपरजतः, बहूनि-धनानि व्यवहारकारीणि बहूनि जातरूपाणि सुवर्णानि रजतानि च यस्य सः । 'आओगपोगसंपउत्ते' आयोगपयोगस पयुक्तः, आयोगो धनस्य -आयोजनपकारः-यथा व्यवहारेण धनागमो जायेत, प्रयोगः-कथं क्व किया. नर्थः प्रयोक्तव्यः-व्ययस्य समुचितव्यवस्था, आभ्यामायव्ययाभ्यां व्यवस्थिताभ्यां में श्रेष्ठ गंधहस्ती के समान-जैसे हाथियों में मद वाला हाथी विशिष्ट होता है उसी प्रकार मनुष्यों में राजा, जिसका शासन अनुल्लंघनीय होता है, विशिष्ट माना जाता है। वह प्रचुर धनवान तेजस्वी और प्रति. दिन ननन (नवीन) लाभ से युक्त होता है। जहां तहां फैले हुए अनेक भवनों, पर्यकों, आसनों, कुर्सियों, पालखियों तथा वाहनों अश्व आदि से युक्त होता है। अर्थात् सब प्रकार की साधन सामग्री से सम्पन्न होता है । उसके पास बहुत धन, बहुत स्वर्ण और बहुत चांदी होती है। वह धन के आयोग और प्रयोग में निपुण होता है। अर्थात् जिस व्यवहार से धन का लाभ हो उसमें तथा कहां कितना किस प्रकार धन પ્રિયદર્શન, પુરૂષોમાં શ્રેષ્ઠ ગંધ હાથી સરખા-અર્થાત્ જેમ હાથિમાં મદવાળા હાથી વિશેષ પ્રકાર હોય છે, એ જ પ્રમાણે મનુષ્યમાં રાજા કે જેનું શાસન-આજ્ઞા અનુલ્લંધનીય-ઉલંધી ન શકાય તેવું હોય છે. એટલે કે વિશેષ પ્રકારથી માનવામાં આવે છે. તે અત્યંત ધનવાન તેજસ્વી અને દર २ नूतन (नपा) नूतन (Aql) alwan Bाय छे. ज्या त्या साया અનેક ભવને, પલંગે. આસને ખુશિય, પાલખિયે, તથા વાહને અશ્વ વિગેરેથી યુક્ત હોય છે. અર્થાત્ દરેક પ્રકારની સાધન સામગ્રીથી યુક્ત હોય છે. તેની પાસે ઘણુ ધન, ઘણુ નું અને ઘણું ચાંદી હોય છે. તે ધનના આગ પ્રગમાં કુશળ હોય છે. અર્થાત જે વ્યવહારથી ધનને લાભ થાય તેમાં તથા કયાં કેટલું અને કેવા પ્રકારના ધનને વ્યય-ખર્ચ કરે જોઈએ For Private And Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे संपयुक्तः-सम्यक् प्रयोगवान् । 'विच्छड्डिय पउरमत्तपाणे' विच्छदित प्रचुरभक्त पानः, विच्छदितम्-भोजनादनन्तरमवशिष्टं प्रचुर भक्तमोदनं पानं बहुमूल्यक मपि पेयपदार्थजातं च यस्य सः, 'बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूए' बहु. दासीदासगोमहिषगवेलकमभूतः-अनेकाऽनेकसाध्य साधकदासीदासगादिसाधनैः सदा संयुक्तः। 'पडिपुण्णकोसकोटागाराउदागारे' प्रतिपूर्णकोषकोष्ठागारा. युधागारः सर्वदेव तस्य कोषो द्रव्यगृहं कोष्ठागारो-धान्यसञ्चयगृहम्, आयुधागार:-आयुधानां गृहं च, एते परिपूर्णाः सन्ति यस्य सः। 'बलवं' बलवान् स्वयं तु बलेन-सैन्येन शारीरिकेण च युक्तः, 'दुबलपच्चामित्ते' दुर्बलपत्यमित्रा, दुर्बलानि प्रत्यमित्राणि रिपत्रो यस्य सः दुर्बलीकृतशत्रुः, 'ओहयकंडयं' अवहत. कण्टकम्, अपहतः कण्टकसमूहः चौरादिर्य स्मिस्ततू-अपह तकण्टकम् राज्ये स्वगोत्र बान्धवेषु मित्रमण्ड लेषु मन्त्रिमण्डलेषु च ये ये शत्रुपक्षीयाः छिद्रान्वेषिणः समय मतीक्षमाणा अधः पातयितुं विद्यन्ते ते ते गुप्तगूढमत्या दूरीकृताः। तथा-'निहयका व्यय करना चाहिए। उसमें कुशल होता है-समुचित आय व्यय करता है। अनेक अनाथों का पेट भर जाय इतना प्रचूर मात्रा में भोजन दिया जाता है। उसके पास बहुत से अनेक कार्य करने वाले दासी दास गो (गायें) महिष भेड़ आदि होते हैं । उसका कोष, कोठार और शस्त्रागार सदा भरा पूरा रहता है। वह सेना एवं शरीर के बल से सम्पन्न तथा शत्रुओं को शक्ति हीन बना देने वाला होता है। वह ऐसे राज्य का शासन करता है जिसमें से कण्टक अर्थात् शत्रु आदि अथवा 'अपने गोत्र वालों में, मित्रमण्डल में या मंत्रि मंडल में से शत्रुपक्ष से मिले हुए और छिद्रान्वेषी राज्यभ्रष्ट करने के लिए समय की प्रतीक्षा करने वाले अमात्य आदि विरोधो मिटा दिये गये हैं। राज्य से बाहर તેમાં કુશળ હોય છે. અર્થાત એગ્ય આય અને વ્યય કરે છે. અનેક અનાથનું પિટ ભરાઈ જાય એટલા વધારે પ્રમાણમાં ભેજન આપવામાં આવે છે. તેની - પાસે ઘણું અનેક કાર્ય કરવાવાળા દાસી, દાસ, ગે (ગાય) ભેંષ બકરાં ઘેટા વિગેરે હોય છે. તેમને કષ–ખજાને, કે ઠાર, અને શસ્ત્રાગાર સર્વદા ભરેલ રહે છે. તે સેના અને શરીરના બળથી યુક્ત તથા શત્રુઓને શક્તિ રહિત . બનાવી દેનાર છે. તે એવા રાજ્યનું શાસન કરે છે કે-જેમાંથી કંટક અર્થાત્ શત્રુ વિગેરે અથવા પિતાના ત્રવાળામાં મિત્રમંડલમાં, મંત્રિમંડલમાં, અથવા મિત્રમંડળમાંથી શત્રુપક્ષ સાથે મળેલા અને છિદ્રાન્વેષી-એટલે કેછિત્રને શોધનારા–અર્થાત રાજ્ય ભ્રષ્ટ કરવા માટે સમયની રાહ જોવાવાળા અમાત્ય વિગેરે વિધિને દૂર કરી નાખ્યા છે, રાજ્યની બહાર રહેવાવાળા For Private And Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि.श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् कंटय' निहतकण्टकम्, राज्यादन्यत्र निवासिनोऽपि शत्रवो युक्त्या मन्त्रौषधिपणिधि प्रयोगान्नाशिता इति । 'मलियकंटयं' मर्दितकण्टकम्, मर्दिताः रेणुशः कृताः कण्टकरूपिणो यस्मिन् तत्-मर्दितकण्टकम् । 'उद्धियकंटयं' उद्धृतकण्टकम्, उद्धृतानि-दूरीकृतानि पूर्वमन्तः शरीरे पश्चद्राज्ये वा कण्टका रोगरूपाः शत्रुरूपा वा यस्मिन् तद् उद्धृतकण्टकम् । अतएव-'अकंटय' अकण्टकम् , नास्ति कण्टकं यस्मिन् तत्-अकण्टकम् । 'ओहयसत्तु' अवहतशत्रु, अवहता अधीनीकृताः शत्रको यस्मिन् तत् । 'निहयसत्तु' निहतशत्रु-विनाशितशत्रु-'मलियसत्तु' मर्दितशत्रु, मदितो दीर्घकालेन प्राप्तोऽसमीक्ष्यकारी 'डाकू' चतुष्पथे जनसमक्षं यस्मिस्तत् मर्दितशत्रु ।। 'उद्धियसत्तु' उद्धृतशत्रु, उद्धृतः शत्रु यस्मिस्तत् उद्धृत शत्रु । 'निज्जियसत्तु' निर्जित शत्रु-शत्रुवर्जितम्, 'पराइयसत्तु' पराजितशत्रु-शत्रुबलवर्जितम्, 'श्वगाभिक्ख' व्यपगतदुर्भिक्षम्-विनाशितदुर्भिक्षम्, 'मारिभयविषमुक्क' मारीभयविप्रमुक्तम् 'रायवन्नो' राजवर्णका यथोक्तेन प्रकारेण तस्य राज्ञो राज्यवर्णनं कर्त्तव्यम् । 'उववाइए' औपपातिकमत्रे रहने वाले शत्रुओं को युक्ति से, मंत्र, ओषधि या प्रणिधि के प्रयोग से नष्ट कर दिया गया हो, जिसमें कण्टकों का मार्ग में स्थित पाषाण. खंड के समान मर्दन कर दिया गया हो, कंटको को उखाड़ कर फेंक दिया गया हो, इस कारण जो राज्य सर्वथा कण्टक हीन हो। इसी प्रकार जिस राज्य में शत्रुभों को अपने अधीन कर लिया हो, शत्रुओं को नष्ट कर दिया गया हो कुचल दिया गया हो, उखाड़ कर फेंक दिया गया हो, पूरी तरह जीत लिया गया हो, पराजित कर दिया गया हो, (शत्रुषल से रहित हो) दुर्भिक्ष से रहित हो और जो महामारी आदि के भय से रहित हो। वह राजा ऐसे राज्य पर शासन करता हुआ विचरता है। શત્રુઓને યુક્તિથી, મંત્ર, ઔષધિ અથવા વિશ્વાસના પ્રયોગથી નાશ કર્યા હોય, જેમાં કંટકને માર્ગમાં રહેલા પાષાણુ-પત્થરના ટુકડાની જેમ ફેંકી દીધા હય, તેથી જે રાજ્ય સર્વથા કંટક રહીત હોય, અને એજ પ્રમાણે જે રાજ્યમાં શત્રુઓને પિતાને વશ કરી લીધા હોય, શત્રુ શત્રુઓનો નાશ કરી નાખ્યો હોય. કચડી નાખ્યા હોય ઉખેડીને ફેંકી દીધા હોય, પૂરી રીતે જીતી લીધેલા હેય, તેને પરાજીત કરી દીધા હેય (શત્રુને નિર્બલ કરી નાંખ્યા હોય) એથી જ શત્રુ બલ વગરને હાય, દુકાળથી રહિત હોય, તેમજ જે મહામારી વિગેરેના ભયથી રહિત હય, એ રાજા આવા રાજ્ય પર શાસન કરીને વિચરે છે. - For Private And Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतास्त्रे कौणिकराज्यस्य यथा वर्णनं कृतम् 'जाव' यावत्, यावत्पदसंग्राह्यः पाठोऽत्र संग्रायः। पुन श्च-'पसंतडिंबडमरं रज्ज' प्रशान्तडिम्बडमरं राज्यम्, प्रशान्त डिम्बंस्वचक्रमयं डमरं-परचक्रभयं यस्मिन् तत्-तादृशं राज्यम् 'पसाहेमाणे' प्रसाधयन् 'विहरई' विहरति, यथोक्तविशिष्टविशेषणविशेषितं राज्य परिपालयन्नास्ते । 'तस्स णं रन्नो' तस्य खलु राज्ञः 'परिसा भवई' परिषद्भवति, तस्यां परिषदि वक्ष्यमाणा इमे सदस्या भवन्ति, तानेर नामग्राहं दर्शयति-'उग्गा उग्गपुत्ता' उग्रा उग्रपुत्रा भवन्ति, उग्रनामा वंशविशेषः तत्रोद्भवा उग्राः कथ्यन्ते, उग्रनामकवंशोद्भवा स्तत्पुत्राश्च सदस्या भवन्ति । तथा-'भोगा भोगपुत्ता' मोगा भोगपुत्राश्च 'इक्खागा इक्खागापुत्ता' इक्षाका इक्ष्वाकुपुत्राः ऋष मदेववंशीयाः। 'नाया नायपुत्ता' ज्ञाता:ज्ञातवंशीया स्तत्पुत्राश्च, 'कोरव्या कोरवपुत्ता' कौरव्याः कौरव्यपुत्राथ, 'भट्टा यहां राजा का समग्र वर्णन उसी प्रकार करना चाहिए जैसा औपपातिक सूत्र में कोणिक राजा का किया गया है। पुनः किस प्रकार का राज्य वहां कहा है ? जिसमें स्वचक्र और परचक्र का भय शान्त हो जाने के कारण रणभेरी बजाने की आवश्यक्ता ही नहीं रहती। वह राजा इस प्रकार के राज्य पर शासन करता हुआ विचरता है। ___ उस राजा की परिषद् होती है। उस परिषद् में जो सदस्य होते हैं, उनके नाम गिनाते हैं-उग्रवंशी, उग्रवंशियों के पुत्र भोगवंशी, भोग. वशियों के पुत्र, इसी प्रकार इक्ष्वाकु, इक्ष्वाकुपुत्र (ऋषभदेव के वंश परिवार वाले), ज्ञातवंशी, ज्ञातवंशियों के पुत्र, कौरववंशी, कौरववं. અહિયાં રાજાનું સઘળું વર્ણન જેમ પપાતિક સૂત્રમાં કેણિક રાજાનું વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે, તે જ પ્રમાણે કરવું જોઈએ. ફરીથી ત્યાં કેવા પ્રકારનું રાજ્ય કહ્યું છે જેમાં સવ ચક અને પર ચકને ભય શાન્ત થઈ જવાને કારણે રણભેરી વગાડવાની જરૂરત જ રહેતી નથી. તે રાજા આવા પ્રકારના રાજ્યનું શાસન કરતે થકે વિચરે છે. તે રાજાની પરિષદુ હોય છે, તે પરિષદુમાં સભાજને-સદસ્ય હોય છે. તેઓના નામે આ પ્રમાણે છે. -ઉગ્રવંશી ઉગ્રવંશવાળાઓના પુત્ર (૧) ભેગવંશી -ભગવંશવાળાના પુત્ર () એજ પ્રમાણે ઈશ્વાકુ ઈફવાકુપુત્ર (૩) રાષભદેવના १२ परिवार , ज्ञात१२० (४) ज्ञात शवाणाना पुत्रो (५) १२३ १0 For Private And Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्र. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् ५५ भट्टपुत्ता' भट्टाः भट्टपुत्र च 'माहणा माहणपुत्ता' माहना माहनपुत्राश्च ब्राह्मण वंशजाता स्तदीयपुत्राश्च, 'लेच्छई लेच्छपुत्ता' लेच्छकिनः क्षत्रियवंश्या स्वत्पुत्राश्च, 'पसत्थारो पत्थपुत्ता' प्राशास्तारो मन्त्रिण स्तदीयपुत्राश्च । 'सेणावई सेणा वइपुत्ता' सेनापतयस्तत्पुत्राथ । ' तेर्सि च णं एगतिए सड्डी भव' तेषां चैकतमः कश्विद - धर्मश्रद्धावान् धार्मिको भवति एतेषु विरळः कश्विद्धर्मश्रद्धालु भवति । 'कामं तं समणा वा माहणा वा संपहारिंसु गमणाए' कामं तत् श्रमणा वा ब्राह्मणा वासमार्गमनाय । केचित् श्रमणा वा बाह्मणा वा श्रद्धालोः समीपं धर्मकथ नाथं गन्तुं निश्चिन्वन्ति कृतनिश्वयाश्च तथाविधाः केचन धर्मस्य प्रज्ञापयितारः तत्र 'अन्नयरेण धम्मेण पन्नत्तारो' तत्र अन्यतरेण केनचित् तज्जीवतच्छरीररूपेण धर्मेण प्रतिज्ञापयिता यस्य कस्यचिद्धर्मस्य शिक्षयितारः श्रमणा वा एवं निश्चिन्वन्ति- 'वयं इमे धम्मेण पन्नवइस्सामी' वयममुं धर्म प्रज्ञापयिष्यामः एवं ते विचारयन्ति यद्वयं गत्वा श्रद्धालवेऽमुं धर्ममुपदेक्ष्यामः । गत्वा च श्रद्धालुसमीपमेवं वदन्ति - 'से एव जाणद भयंतारी' तत् एवं जानीहि भयत्रातः - संसारभयात् त्राच्छो ? 'जहा मए एस धम्मे सुपन्नत्ते भवइ' यथा 'मए' इत्यत्रार्षत्वादेक वचनं तेन अस्माभिरित्यर्थः, एष धर्मः स्वाख्यातः - सुप्रज्ञप्तो भवति । पद् वयं शियों के पुत्र, सुभट कुल में उत्पन्न भट्ट, भट्ठों के पुत्र, ब्राह्मण, ब्राह्मणपुत्र, लिच्छवि, लिच्छवियों के पुत्र, प्रशास्ता (मंत्री) प्रशास्ताओं के पुत्र, सेनापति, सेनापति पुत्र । , उस परिषद् में कोई कोई धर्मश्रद्धालु होता है। वह किसी भी श्रमण या ब्राह्मण के समीप धर्म श्रवण करने के लिए चला जाता है। तब किसी धर्म के उपदेशक ऐसा निश्चय करते हैं, कि मैं इसको इस धर्म का उपदेश करूंगा। वे कहते हैं-हे संसार भीरो! हमारे द्वारा यह धर्मवख्यात (सम्यक् प्रकार से कथित) और सुप्रज्ञप्त है। अर्थात् हम तुम्हारे समक्ष जिस धर्म की प्ररूपणा करते हैं, उसी को सत्य समझो। કૌરવ વ'શવાળાના પુત્રો (૬) સુભટ કુળમાં ઉત્પન્ન થયેલ ભટ્ટ (૭) ભટ્ટોના पुत्रा (८), श्राह्मषु (८) श्राह्मषु पुत्रो (१०) सिच्छवी सिच्छवियाना पुत्रो (११) प्रशास्ता (मंत्री) (१२) अशास्तासना पुत्रो (१३) सेनापति अने सेनापतिना પુત્ર (૧૪) તે પરિષદમાં કઇ કઇ ધર્મોની શ્રદ્ધાવાળા હોય છે તે કાઇ પણ શ્રમણ અથવા બ્રાહ્મણની સમીપે ધમતું શ્રવણ કરવા માટે ચાલ્યા જાય છે, ત્યારે કાઈ ધર્મના ઉપદેશ કરનાર એવા નિશ્ચય કરે છે કે આને આ ધર્મના ઉપદેશ કરીશ, તેએ કહે છે કે-હે સસાર ભીરૂ! અમારાથી આ ધર્મ સ્વાખ્યાત-સારી રીતે કહેલ તથા સુપ્રાપ્ત છે. અર્થાત્ અમે તમારી પાંસે જે ધર્મની પ્રરૂપણા કરીએ છીએ તેને જ તમે સત્ય સમજે. For Private And Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे - धर्मे तुभ्यं कथयामि तदेवमेवं जानीहि । तत्र प्रथमं शरीरस्यैव जीवस्वमाह - तं जहा ' तद्यथा - 'उडूं पादतला अहे के सरगमस्थया' ऊर्ध्व पादतलात् - अधः केशाग्रमस्तकात् तिरियं तयपरियं ते जीवे एस आया पज्जवे कसिणे' तिर्यक्स्वपर्यन्तो जीव - एष आत्मपर्यवः कृत्स्नः, आपादतलमस्तकव्यापी शरीरपरिणामविशिष्टः कायाकार एव जीवो न तु शरीरव्यतिरिक्तिजीवस्य अस्तित्वेऽस्ति प्रमाणम् । अन्वयव्यतिरेकाभ्यां शरीरस्यैवाऽऽत्मत्वात्, शरीरमरणानन्तरं व्यतिरिक्तो जीवो नोपलभ्यते । तस्मात् - शरीर मे वाऽऽत्मा । शरीरात्मत्वे-बहूनि उदाहरणानि दर्शयति । प्रदर्श्य च शरीरस्यैव तत्त्वं व्यवस्थापयिष्यति । अन्वयव्यतिरेकमेव दर्शयति- 'एस जीवे जीवई' - इत्यादिना पादतलादुपरि केशाग्रादधः तिर्यकू स्वक पर्यन्तो जीवः । शरीरमेव जीवस्य समस्तोऽपि पर्याय: । 'एस जीवे जीव, उनमें से पहले शरीर को ही जीव मानने वालों का पक्ष प्रस्तुन करते हैं-पांवों के तल भाग से ऊपर केशों के अग्रभाग से नीचे और तिछे चमड़ी पर्यन्त ही जीव है । अत् शरीर रूप परिणाम से विशिष्ट कायाकार ही जीव है । शरीर से भिन्न जीव का अस्तित्व मानने में कोई प्रमाण नहीं है । अन्वय और व्यतिरेक के द्वारा शरीर आत्मा है । शरीर का अन्त हो जाने के पश्चात् कोई पृथक् जीव उपलब्ध नहीं होता । इस प्रकार शरीर ही आत्मा है, ऐसा सिद्ध होता है । शरीर ही आत्मा है, इस विषय में अनेक दृष्टान्त दिखलाते हैं और उनसे यह सिद्ध करते हैं कि शरीर ही जीव है । अन्वय और व्यतिरेक से ही दिखलाते हैं। पैरों के तल भाग से ऊपर केशाय से नीचे और तिर्छा त्वचा भाग पर्यन्त जीव है। शरीर ही जीव का તેમાંથી પહેલાં શરીરને જ જીવ માનવા વાળાએ!ના પક્ષના સંબધમાં કથન કરે છે --પગના તળિયાની ઉપર, કેશ-વાળાના અગ્ર ભાગની નીચે અને તિર્થાં ભાગમાં ચામડી સુધી જ જીવ છે, અર્થાત્ શરીર રૂપ પરિણામથી યુક્ત કાયા-શરીર જ જીવ છે. શરીરથી જુદા જીવનું અસ્તિત્વ-ડેાવાપણુ‘ માનવામાં કોઇ જ પ્રમાણ નથી. અન્વય અને વ્યતિરેક દ્વારા શરીર જ આત્મા છે. શરીરને અન્ત-નાશ થયા પછી કોઇ જુદો જીવ મળતે નથી, આ રીતે શરીર જ આત્મા છે. એ પ્રમાણે સિદ્ધ થાય છે. શરીર જ આત્મા છે, આ સંબધમાં અનેક દૃષ્ટાંતા ખતાવે છે. અને તેનાથી એ સિદ્ધ કરે છે કે-શરીર જ જીવ છે. અન્વય અને વ્યતિરેકથી જ તેએ શરીર જ જીવ છે, તેમ બતાવે છે. પગના તળીયાના ભાગથી ઉપર અને વાળના અગ્ર ભાગની નીચે અને તિરા ચામડીના ભાગ સુધી જીવ છે, શરીર જ જીવના સમ્પૂર્ણ For Private And Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्र. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् एस मए णो जीवइ' अस्मिन् जीवति-जीवति एष मृतो नो जीवति । शरीरस्य नाशे जीवो नश्यति 'एवं सरीरे धरमाणे घरइ-विणट्ठमि य णो धरई' शरीरे ध्रियमाणे धरति विनष्टे च नो धरति, 'एयं तं जीवियं-भवई' एतदन्तं जीवस्य जीवितं भवति । विनष्टं शरीरं बान्धवाः 'आइहणाय परेहिं निमज्जई' आदहनाय ज्वालयितुं परैनीयते श्मशानादौ । 'अगणिझामिए सरीरे करोयवन्नाणि अट्ठीणि भवंति' अग्निध्मापिते शरीरे कपोतवर्णानि-कोतशरीरममाणास्थीनि अब. तिष्ठन्ति कपोतवर्णानि वा भवन्ति । 'आसंदीपंचमा पुरिसा गाम पच्छागच्छंति' असन्दीपश्चमाः पुरुषाः ग्रामं प्रत्यागच्छन्ति । मृतशरीरं प्रज्माल्य आसन्दीपश्चमा आसन्दीं मृतकवाहिनीम्-प्राप्सन्दीमाश्रित्य चत्वार इति आसन्दीपञ्चमाः प्रज्यालकाः पुरुषा आसन्दीमादाय ग्रामं प्रत्यागच्छन्ति, शववाहकाः पुरुषाः मृतकखट्वामादाय ग्राममागच्छन्तीति देशविशेषस्य व्यवहारमादाय एवं शास्त्रकता सपूर्ण पर्याय है क्योंकि शरीर के जीवित रहने पर जीव जीता है और शरीर के मर जाने पर जीय भी मर जाता है। शरीर का नाश होने पर जीव नष्ट हो जाता है। जब तक शरीर धारण किया हुभा है, तब तक जीव धारण किया जाता है शरीर के विनष्ट होने पर नहीं। शरीर के अन्त तक ही जीव का जीवन है। शरीर जब नष्ट हो जाता है तो बन्धु घान्धव उसे जलाने के लिए श्मशान आदि में ले जाते हैं। शरीर जप अग्नि के द्वारा दग्ध कर दिया जाता है तो कपोनवर्ण (कपोत के शरीर के प्रमाण) हड्डियां शेष रह जाती हैं। मृतक शरीर को जला कर आसन्दी (अर्थी) को लेकर जलाने वाले पुरुष ग्राम में लौट आते हैं। किसी देश विशेष के रिवाज को लक्ष्य में रख कर शास्त्र. પર્યાય છે. કેમકે શરીર જીવતું રહે ત્યારે જીવ જીવે છે. અને શરીર મરી જાય ત્યારે જીવ પણ મરી જાય છે. શરીરને નાશ થવાથી જીવ પણ નાશ પામે છે. જ્યાં સુધી શરીર ધારણ કરેલ છે, ત્યાં સુધી જીવ ધારણ કરી શકાય છે. શરીર નાશ પામવાથી જીવ ધારણ કરી શકાને નથી. શરીરના અંત સુધી જ જીવનું જીવન છે. શરીર જ્યારે નાશ પામે છે, તે બંધ, બાંધવ તેને બાળવા માટે મશાન વિગેરેમાં લઈ જાય છે. શરીર જ્યારે અગ્નિ દ્વારા બાળી નાખવામાં આવે છે, તે કવિ (કબુતરના શરીરના પ્રમાણ) હાંડકાં બાકી રહી જાય છે. મરેલાના શરીરને બાળીને આસન્દી (અર્થી-ઠાઠડી) ને લઈને બાળવા વાળા પુરૂષે ગામમાં પાછા આવી જાય છે. કેઈ દેશ વિશેષના રિવાજને લક્ષમાં રાખીને શાસ્ત્રકારે આ પ્રતિપાદન કરેલ सू० ८ For Private And Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५८ सत्रकृतास्त्रे पतिपादितम्, 'एक्मसंते असंविजमाणे जेसि तं असंते असंविजमाणे' एवमसन् -अविद्यमानः शरीराभिन्नो जीवः न जीवस्य शरीरात् पृथक सत्ताऽस्ति। अतः सोऽसंवेद्यमानः अननुभूयमानशरीरात् पृथग, जीवस्य नानुभवो जायते । येषां मते स जीवः असन् असंवेद्यमान इति कथनं वर्तते 'तेसिं तं सुयक्खायं भवई' तेषां तद् आख्यानं स्वारुशतं-सुष्ठुम्वेन निरूपणं भवति, एतादृशी स्थिति दृष्ट्वा इत्यं निश्चितं भवति यच्छरीरातिक्तो जीवो नास्तीति । कुतः शरीरात् पृथरत्वेन जीवस्याऽपतिमासनात् । अतः पूर्वोक्तं सिद्धान्तं मन्यमानानां कथनमिदं शरीरातिरिक्तो जीवो नास्तीति तद् युक्तिसङ्गतमेव । येषां तु मतमिदम्-'अन्नो भवइ जीवो अन्नं सरीरं' अन्यो भवति जीवोऽन्यच्छरीरम्, शरीराद् व्यतिरिक्तो जीव इति, 'तम्हा' तस्मात्-'ते एवं नो विप्पडियंति' ते एवं नो विप्रतिवेदयन्तिनो अनुभवन्ति । 'अयमाउसो' अयं हे आयुष्मन् ! 'आया दीहेइवा इस्सेइवा परिमंडलेइना' आत्मा दीर्घइति वा, इस्त्र इति वा, परिमण्डलमिति चा, यदिशरीरादिभ्यो भिन्न आत्मा कश्चिद्भवेत्तदा इस्मादिपरिमाणैः परिच्छिन्नतयाउपदर्शयितुं शक्येत, न पुन स्तथोपदश्यते । तस्मान्नास्त्यतिरिक्त आत्मेति । 'बट्टे इवा' वर्तुल इति वा 'तंसेइ वा व्यत्रः इति वा-त्रिकोण इत्यर्थः 'चउरंसेइ वा' चतुरस्त्र कार ने यह प्रतिपादन किया है। सामान्य रूप से तो मृतक के साथ अर्थी भी जला दी जाती है। इस स्थिति को देखकर यही निश्चित होता है कि शरीर से भिन्न जीव का अस्तित्व नहीं है, क्योंकि जीव शरीर से भिन्न प्रतीत नहीं होता है। अत एव इस सिद्धान्त को स्वीकार करने बालों का कथन है कि शरीर से भिन्न जीव का अस्तित्व न मानना ही युक्ति संगत है। जिसके मत के अनुसार आस्मा दीर्घ है या ह्रस्व है, लड्डू के समान गोल है, चूडी के समान गोलाकार हैं, त्रिकोण है, चतुष्कोण है, लम्बी है, षट् कोण है या अष्टकोण है किस आकार का है ? काला છે. સામાન્ય રીતે તે મરેલાની સાથે અથ–ઠાઠડી પણ બાળી નાખવામાં આવે છે. આ સ્થિતિને જોઈને એ નિશ્ચય થાય છે કે-શરીરથી જુદા એવા આત્માનું અસ્તિત્વ જ નથી. કેમકે-જીવ શરીરથી અલગ પ્રતીત થતું નથી. તેથી જ આ સિદ્ધાંતને સ્વીકાર કરવાવાળાઓનું કહેવું છે કે-શરીરથી જુદે આત્માને ન માને એજ યુક્તિ યુક્ત છે. જેમના મત પ્રમાણે આત્મા દીર્ઘ છે, અથવા હટવ છે, લાડુની જેમ ગળ છે, ચૂડીની સરખા ગોળ આકારવાળે છે, ત્રિકેણુ-ત્રણ ખૂણે વાળે છે, ચતુષ્કોણ -ચાર ખૂણાવાળે છે, લાંબે છે, પકૅણ છ ખૂણાવાળે છે. અષ્ટકોણ આ For Private And Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् इति वा, चतुष्कोण इत्यर्थः 'आयएइ वा, छलंसिएइ वा, अलुसेइ वा' आयतो दीर्घ इति वा, षडल इति वा, अष्टास्रः, अष्ट कोण इति वा । 'किण्हेइ वा, नीलेइ वा कृष्ण इति वा, नील इति वा, 'लोहिएइ वा, हालिदेइ वा, मुकिल्लेइ वा' लोहित इति वा, हारिद इति वा, शुक्ल इति वा, 'सुम्मिगंधेदवा, दुभिगंधे वा' सुरभिगन्ध इति वा, दुरभिगन्ध इति वा, तित्तेवा, कटुएइ वा' तिक्त इति वा, कटुक इति वा, कसाएइ वा, अंबिलेइ वा, महुरेइ वा' कषाय इति वा, अम्ल. इति वा, मधुर इति वा, 'कक्खडेइ वा मउएइ वा' कर्कश इति वा मृदुक इति वा 'गरुएइ वा, लहुएइ वा' गुरुक इति वा, लघुक इति वा, 'सीएइवा, उसिणेइ वा' शीत इति वा, उष्ण इति वा, 'गिद्धेइ वा, लुक्खेइ वा' स्निग्ध इति वा, रूक्षइति वा। अयमात्मा दीर्घादिविशेषणेषु कीशविशेषणवान् ? । एवं कृष्णादि पश्चवर्णेषु कीहग्वणवान् ?। द्विविध गन्धयोः कीदृग् गन्धवान् ? तिक्तादिपश्चरसेषु कीडग् रसवान ? कर्कशायष्टस्पशेषु कोहक स्पर्शवान् आत्मा ? इति न ज्ञायते अतहै ? नीला है, लाल है, पीला है, वेत है, अर्थात् किस रंग का है? या सुगंध वाला है या दुर्गंध वाला है ? तिक्त है, कटुक है, कसैला है, खट्टा है, मीठा है अर्थात् अमुक रस वाला है ? कठोर है, कोमल है भारी है, हल्का है, शीत है, उष्ण है, चिकना है, रूखा है अर्थात् अमुक स्पर्श वाला है, इस प्रकार वे आत्मा को दिखलाते! किन्तु वे दिखला नहीं सकते, अतएव शरीर से भिन्न आत्मा नहीं हैं । तात्पर्य यह है कि यदि आत्मा का पृथक् अस्तित्व होता तो उसमें कोई आकार, वर्ण, गंध, रस और स्पर्श होता और इस कारण हमारी कोई इन्द्रिय उसको ખૂણાઓવાળે છે, અથવા કેવા આકારવાળે છે? કાળે છે, નલ છે, લાલ છે, પીળે છે, સફેદ છે, અર્થાત્ કેવા પ્રકારના રંગવાળે છે? સુંગધ. વાળે છે? કે દુર્ગધ વાળે છે? તીઓ છે? કઇ છે? કષાય-તરે છે? ખાટે છે? મીઠે છે? અર્થાત્ કેવા પ્રકારના રસવાળે છે? કઠોર છે? કેમ मारे १ १ छे यि। छ १ ३१-५२५. ચડે છે? અર્થાત્ અમુક સ્પર્શવાળે છે, તે રીતે તેઓ આત્માને બતાવત પરંતુ તેઓ બતાવી શકતા નથી. તેથી જ શરીરથી જુદે આત્મા નથી. तम मान . કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે–જે આત્માનું અસ્તિત્વ શરીરથી જ હેત તે તેમાં કોઈ આકાર, વર્ણ, ગંધ, રસ અને સ્પર્શ હેત જ અને તેથી અમારી કંઈ પણ ઈન્દ્રિય તેને જાણી લેત, પરંતુ તે ઈન્દ્રિયને ગોચર For Private And Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६० सूत्रकृताङ्गसूत्रे एवाह - 'एवं असंते असं विज्नमाणे' एवम् असन असंवेद्यमानः, एवम् अनेन कारणेन शरीर द् भिन्नो जीवः असन्- असंवेद्यमानसत्ताकः, अत एव असंवेद्यमानःअननुभूयमानः नानुभवगम्य आत्मेति भावः । अथ 'अन्य जीवोऽन्यच्छरीरम्' इति मतमपाकरोति - 'जेर्सि तं ' इत्यादि । 'जेसिं' येषां केषाञ्चित् 'तं' तत् तदेवं मकारकम् 'सुभक्खायें' स्वाख्यातं सुकथनं भवति, तथाहि 'अन्नो जीवो अन्नं सरीरं' अन्यो जीवोऽन्यच्छरीरम्, ये जीवं शरीरातिरिक्तं कथयन्ति किन्तु 'म्हाणो एवं उवळ मंति' तस्मात् तथाविधकथनमकारात् एवम एवं रूपम् - शरीराद् भिन्नं जीवं नो उपल मन्ते-नो प्राप्नुवन्ति, अत्र दृष्टान्तमाह 'से जहा णामए के पुरिसे' तद्यथा नामकः कश्चित्पुरुषः, 'कोसिओ असि अभिनिव्यट्टित्ताणं उपदं सेज्जा' कोशात् असि खङ्गम् अभिनिर्य निष्कास्य खलु उपदशयेत् । 'अथमाउसो ! असी अयं कोसी' अयमायुष्मन् ! असिः अर्थ कोश: । 'एवमेव नत्थि केपुरिसे' एवमेव नास्ति कश्चिन् पुरुषः 'अभिनिव्यट्टित्ता' अभिनिर्वत्यपृथक कृत्य जीवस्य 'अवदंसे तारो' उपदर्शयिता 'अथमाउसो ! आया इयं सरीरं' अयमायुष्मन् ! आत्मा इदं शरीरम्, यदि शरीरव्यतिरिक्तः - आत्मा भवेत् तदा यथा - कोशात् खङ्ग निष्कास्य प्रदर्शयितुं शक्येत तथा जीवं शरीरभिन्नंनोपदर्शयितु केनापि शक्येत तस्मान्नास्ति शरीरव्यतिरिक्त आत्मेति सिद्धम् । जान लेती । किन्तु वह इन्द्रियों के गोचर नहीं हैं, अतएव उसकी पृथक् सत्ता नहीं है। अतएव शरीर से भिन्न आत्मा न मानने वाले का मत ही युक्ति संगत है। पुनः उन्हीं का मत कहते हैं- जो लोग यह मानते हैं कि आत्मा भिन्न और शरीर भिन्न है, उनको वे इस प्रकार उपालम्भ देते हैंजैसे कोई पुरुष तलवार को स्थान से बाहर निकाल कर दिखलाता है कि- हे आयुष्मन् ! देखो, यह तलवार है, और यह म्यान है, इसी प्रकार कोई ऐसा पुरुष नहीं है जो यह दिखला सके कि यह आत्मा है और જાણી શકાય તેવા નથી. તેથી જ તેની જુદી સત્તા નથી. તેથીજ શરીરથી જુદે આત્મા ન માનવાવાળાએ,ને મત જ યુક્તિ સંગત છે. ફરીથી પણ તેઓને જ મત બતાવવામાં આવે છે-જે લેકે એવું માને છે કે-માત્મા ભિન્ન છે, અને શરીર પણ અલગ છે, તેને તેઓ આ રીતે ઉપાલંભ આપે છે.-જેમ કેઈ પુરૂષ તલવારને મ્યાનથી ખડ્ડાર કહાડીને બતાવે છે કે-હે આયુષ્મન જુવે આ તલવાર છે. અને આ મ્યાન છે. એજ પ્રમાણે કાઈ એવા પુરૂષ નથી કે આ આત્મા છે, અને આ શરીર છે, તેમ For Private And Personal Use Only - Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सेमयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् द्वितीयदृष्टान्तमाह-'से जहाणामए' तथानामकः 'केहपुरिसे' कोऽपि पुरुषः 'मुंजाओ-इसिय' मुञ्जाव तृणविशेषात् इषिकां तद्गर्भभूतां शलाकाम् अमिनिवटित्ता ' अभिनिवर्त्य-पृथक्-कृत्य खलु 'उनदंसेज्जा' उपदर्शयेत् अयमाउसो ! मुंजे इयं इसियं' अयमायुष्मन् ! मुञ्जः इयमिषिका वर्तते इति । यथा मुञ्जात् वणविशेषात् उद्धृत्य इपिकां दर्शयितुं शक्येत, एवमेव-अनेनैव-मुजेषिकामदर्शनप्रकारेण 'नत्यि केइपुरिसे' नास्ति कोऽपि पुरुषः 'उपदंसेत्तारो' उपदर्शयिता यत् 'अथमाउसो ! आया इयं सरीरं' अयमायुष्मन् ! आत्मा, इदं शरीरम् । यथा मुजेभ्यः इषिकां निष्कास्य दर्शयति, अयं मुन्नः इयमिषिका एवमेव यदि कोऽपि शरीरानिष्कास्य-आत्मानमुपदर्शयितुं शक्नुयात्, तदा मन्येत-अपि, शरीरव्यतियह शरीर है। दोनों को अलग अलग कोई नहीं दिखला सकता अत. एव यह सिद्ध होता है कि शरीर से भिन्न आत्मा नहीं है। जैसे कोई पुरुष मुंज नामक वनस्पति से ईषिका को अर्थात् उसके पुष्प को अलग करके दिखलाता है-हे आयुष्मन् ! यह मुंज है और यह ईषिका (पुष्प) है। __जिसमें रूप है वह वस्तु दूसरी वस्तुओं से पृथक् करके दिखलाई जा सकती है, जैसे मूज नामक घास से ईषिका अलग दिखती है। मूंज नामक घास से मूज की अपेक्षा कोमल स्पर्श वाली ईषिको को निकाल कर लोग रस्सी बनाते हैं। उसी रस्सी से खाट बुन कर उस पर सुख से सोते हैं। इसी प्रकार ऐसा कोई पुरुष नहीं है जो यह दिखला सके कि-हे आयुष्मन् ! यह आत्मा है और यह शरीर है। यदि कोई पुरुष शरीर से बाहर निकाल कर आत्मा को दिखलाने में બતાવી શકે. બન્નેને જુદા જુદા કેઈ બતાવી શકતું નથી, તેથી જ એ સિદ્ધ થાય છે કે શરીરથી ભિન્ન આત્મા નથી. જેમ કેઈ પુરૂષ મુંજ નામની વનસ્પતિમાંથી ઈષિકા અથાત્ તેના પુષ્પને અલગ કરીને બતાવે છે, તે આયુશ્મન આ મુંજ છે, અને આ તેનું પુષ્પ છે. જેમાં રૂપ છે તે વસ્તુ બીજી વસ્તુઓથી અલગ કરીને બતાવી શકાય છે, જેમ મુંજ નામની વનસ્પતિમાંથી ઈષિકા અલગ દેખાય છે. મુંજ નામના ઘાસમાંથી મુંજની અપેક્ષાએ કોમળ સ્પર્શવાળી ઈષિકાને કહાડીને લોકે દેરી બનાવે છે. તે દેરીથી ખાટલા ભરીને તેના પર સુખથી સુવે છે. એજ પ્રમાણે એ કોઈ પુરૂષ નથી, કે જે આ બતાવી શકે કે- આયુષ્યનું આ આત્મા છે, અને આ શરીર છે. જે કઈ પુરૂષ શરીરથી બહાર કહાડીને For Private And Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रता सूत्रे रिक्तमात्मानम्, न तु कोऽपि एतादृशः पुरुषो विद्यते, यो मुञ्जादिषिकामिव आत्मानं शरीरा निष्कास्य प्रदर्शयेत् तस्मान्नास्ति शरीरातिरिक्त आत्मेति । अथ तृतीयं दृष्टान्तमाह - ' से जहा णामए' तद्यथा नामकः 'केह पुरिसे' कोऽपि पुरुषः 'साओ अ अभिनिताणं' मांसादस्थि-अभिनिर्वय खलु 'उपदंसेज्ना' उपदर्शयेत् 'अमाउसो ! मंसे अयं अट्ठी' अयमायुग्मन् ! मांसः, इदमस्थि । एवमेव - 'नस्थि के पुरिसे' नास्ति कोऽपि पुरुषः 'उपदर्शयिता 'अयमाउसो ! आयाइयं सरीरं' अयमायुष्मन् ! आत्मा इदं शरीरम्, यथा-मांसेभ्यो निष्कृप्याऽस्थि दर्शयितुं शक्नोति तथा यदि कोऽपि शरीरान्निष्कास्याऽऽत्मानं प्रदर्शयेत् तदा - शरीराऽतिरिक्ता सथा आत्मनः स्वीक्रियेत अपि, नत्वेवं कथित् एतादृशो जातः यो हि शरीरादात्मानं निष्कास्य प्रदर्शयेदिति । समर्थ हो, तो मान भी लें कि आत्मा शरीर से भिन्न है । परन्तु ऐसा कोई पुरुष है नहीं जो मूंज से ईषिका की भांति शरीर से निकाल कर आत्मा को दिखला सके। इस कारण आत्मा शरीर से भिन्न नहीं है। जैसे कोई पुरुष मांस से हड्डी अलग करके दिखलाता है कि है आयुष्मन् ! यह मांस है और यह हड्डी है, उस प्रकार ऐसा कोई दिखलाने वाला पुरुष नहीं है कि हे आयुष्मन् ! यह आत्मा है और यह शरीर है, इस प्रकार दोनों को पृथक पृथक दिखला सके | अगर कोई दोनों को पृथक पृथक करके दिखलाने में समर्थ होता तो शरीर से अतिरिक्त आत्मा का अस्तित्व स्वीकार किया भी जाता । परन्तु ऐसा कोई पुरुष जन्मा ही नहीं है जो शरीर से अलग आत्मा को दिखला सके। આત્માને અલગ બતાવી શકે છે તેા માની પણ લેવાય કે આત્મા શરીરથી ભિન્ન છે. પરંતુ એવા કાઈ પુરૂષ નથી કે જેમ મુજમાંથી ઇષિકા (પુષ્પ) મહુર કહાડીને બતાવે છે, તેમ શરીરથી બહાર કાઢીને આત્મા બતાવી શકે. તે કારણથી આત્મા શરીરથી જૂદો નથી. જેમ કેાઈ પુરૂષ માંસમાંથી હાડકું અલગ કરીને બતાવે છે, કે હું આયુષ્મન આ માંસ છે, અને આ હાડકુ છે, એ પ્રમાણે એવા કઈ પુરૂષ નથી કે આ આત્મા છે, અને આ શરીર છે તેમ કહીને બન્નેને અલગ અલગ બતાવી શકે. જો કોઈ ખન્નેને જૂદા જૂદા કરીને બતાવવાને સમર્થ હાત તા શરીરથી જૂદા આત્માનું અસ્તિત્વ સ્વીકારી પશુ લેત પરંતુ એવે ફાઈ પુરૂષ જન્મ્યા જ નથી, કે જે શરીરથી અલગ આત્માને બતાવી શકે, For Private And Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयायोधिनी टीका द्वि. श्रु. म. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् पुनश्चतुर्थ दृष्टान्तमाह-‘से जहा णामए' तद्यथानामकः, 'केइ पुरिसे' कोऽपि पुरुषः 'करयलाओ आमलक' करतलादामलकम् । 'अभिनिवहित्ता गं' अभिनिववं खलु 'उनदंसेज्जा' उपदर्शयेत् 'अयमाउसो ! करयले अयं आमलए' इदमायुष्मन् ! करतलम्. इदमामलकम् । एवमेव णत्थि के पुरिसे' एवमेव नास्ति कोऽपि पुरुषः 'उवदंसेत्तारो' उपदर्शयिता 'अपमाउमो ! आया इयं सरीरं' अप मायुष्मन् ! आत्मा इदं शरीरम्, यथा-करतलात् पार्थक्येनाऽऽमलकं दर्शयति तथा यदि शरीरातिरिक्त आत्मा भवेत् तदा सोऽपि शरीरात पार्थक्येन प्रदर्शयितुं शक्येत, न तु कोऽपि दर्शयितुं शक्नोति, तस्मानास्ति शरीराऽतिरिक्त पात्मेति। अथ पञ्चमं दृष्टान्तमाह-'से जहागामए के पुरिसे' तद्यथा नामकः कोऽपि पुरुषः 'दहियो नवनीयं' दनो नानीम् 'अभिनिवट्टित्ता णं' अभिनिर्वयं खलु 'उवदंसेज्जा' उपदर्शयेत् 'अयमाउसो ! नवनीयं अयं दही' इदमायुष्मन् ! नवनीतम् इदं दधि एवमेव-णस्थि केइपुरिसे जाव सरीर' एवमेव नास्तिकोऽपि पुरुष जैसे कोई पुरुष हथेली से आंवले को अलग करके दिखलाता है कि आयुष्मन् ! यह हथेली है और यह आंवला है, इस प्रकार ऐसा कोई पुरुष दिखलाने वाला नहीं है कि हे आयुष्मन् ! यह आत्मा है और यह शरीर है जैसे हथेली से आंवला भिन्न है, वैसे यदि शरीर से आत्मा भिन्न होता तो उसे दिखलाना शक्य होता। परन्तु ऐसा कोई कर नहीं सकता, अतएव शरीर से भिन्न आत्मा नहीं है। जैसे कोई पुरुष दही से नवनीत 'मक्खन' को अलग निकाल कर दिखला देता है कि-हे आयुष्मन् ! यह नवनीत है और यह दही है, इस प्रकार ऐसा कोई पुरुष दिखलाने वाला नहीं है कि हे आयुष्मन् ! यह જેમ કઈ પુરૂષ હથેલીમાંથી અલગ કરીને આંબળ બતાવે છે, કે હે આયુમન આ હથેલી છે, અને આ આંબળું છે. આ પ્રમાણે એવું બતાવવા વાળ કેઈ પુરૂષ નથી કે હે આયુષ્યનું આ આત્મા છે, અને આ શરીર છે, જેમ હથેળીથી આંબળું અલગ છે, તેમ જે શરીરથી આત્મા અલગ હોત તે તે બતાવવાનું શક્ય બનત પરંતુ તેવું કંઈ કરી શકતું નથી તેથી જ શરીરથી અલગ આત્મા નથી. જેમ કેઈ પુરૂષ દહીંમાંથી નવનીત (માખણને અલગ કરીને બતાવી દે છે, કે હે આયુષ્યનું આ નવનીત–માખણું છે, અને આ દહી છે, તે રીતે એ કઈ પુરૂષ બતાવી શકવાને સમર્થ નથી કે હે આયુષ્યનું આ For Private And Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org દુક सूत्रकृताङ्गसूत्रे उपदर्शथिता, अयमायुष्मन् ! आत्मा, इदं शरीरम् । दध्नो नानीतं निष्कास्य दर्शयितुं शक्यते न तथा शरीरादात्मा पृथक्कृत्य दर्शयितुं शक्यः, ततः कथं शरीराऽतिरिक्त आत्मा ज्ञातुं शक्यः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथ षष्ठं दृष्टान्तमाह-से जाणामर के पुरिसे तिलेदितो तिल्लं' तद्यथा नामकः कोऽपि पुरुष स्विलेभ्य स्तैलम् 'अभिनिव्वति । णं' अभिनिर्वये खलु 'जवदं से ज्जा' उपदर्शयेत् - 'अमाउ ! तेल्लं अयं विना इदमयुग्मन् ! तैम् अयं विगालः - खलः - 'एवमेत्र जाव सरीरं' एवमेव नास्ति कोऽपि पुरुष उपदर्शयिता, अपमायुष्मन् ! आत्मा, इदं शरीरम् । एथ सप्तमं दृष्टान्तमाह - ' से जहाणामर' तद्यथा नामकः 'केइपुरिसे' कोऽपि पुरुषः 'इक्खु खोयरसं' इक्षुतः क्षोदरसम् 'अभिनिव्व देता णं' अभिनि खल 'उपदं से ज्जा' उपदर्शयेत् 'अथपाउलो ! खोयर से अयं छोए' अमायु मन ! क्षोदरसः, अयं क्षोदः ! 'एवमेव जान सरीरं' एत्रमे। यावच्छरीरम्, अयमात्मा, इदं शरीरमिति शरीरात पृथग् जीवं दर्शयितुं न कोऽपि शक्नोतीति भावः । आत्मा है और यह शरीर है। दही से नवनीत की तरह शरीर से आत्मा पृथक करके यदि दिखलाया जा सकता तो समझते कि आत्मा और शरीर भिन्न भिन्न हैं । जैसे कोई पुरुष तिलों से तेल अलग निकाल कर दिखला देता है कि- हे आयुष्मन् ! यह तिल है और यह तैल है, इस प्रकार आत्मा और शरीर को अलग अलग करके दिखलाने वाला कोई मनुष्य नहीं । जैसे कोई पुरुष इक्ष से रस को अलग करके दिखा देता है किहे आयुष्मन् ! यह कूचा है और यह इक्षुरस है, इस प्रकार यह आत्मा है और यह शरीर है, यों दोनों को पृथक पृथक करके दिखलाने वाला कोई पुरुष नहीं है । આત્મા છે. અને આ શરીર છે. દહીમાંથી આત્માને અલગ કરીને જો બતાવવામાં આવી અને શરીર અને ભિન્ન ભિન્ન છે. માખણની જેમ શરીરમાંથી શકત તે સમજત કે આત્મા જેમ કાઈ પુરૂષ તલેામાંથી તેલ અલગ કહાડીને બતાવી દે છે કે— હું આયુષ્મન્ આ તલ છે. અને આ તેલ છે, એ પ્રમાણે આત્મા અને શરીરને અલગ અલગ ખતાવવાને કાઈ માણસ સમથ નથી. જેમ કેાઈ માસ સેલડ માંથી રસને અલગ કરીને બતાવી દે છે, કે હું આયુષ્મન્ આ કૂચે છે, અને આ સેલડીના રસ છે, તે પ્રમાણે આ આત્મા છે, અને આ શરીર છે, તેમ બન્નેને અલગ અલગ મતાવવાવાળા ફાઇ પણ પુરૂષ જણાતા નથી, For Private And Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६५ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.१ पुण्डरीकनामाध्ययनम् अथाष्टमं दृष्टान्तमाह ‘से जहाणामए' तद्यथा नामकः 'कोइ पुरिसे' कोऽपि पुरुष: 'अरणीमो अग्गि' अरणितोऽग्निम् 'अभिनिव्वट्टित्ता गं' अमिनिवर्त्य खल 'उवदंसेज्जा' उपदर्शयेत् 'अयमाउसो ! अरणी अयं अग्गी अयमायुष्मन् ! भरणिः अयमग्निः , 'एवमेव जाव सरीरं' एवमेव यावच्छरीरम्, यथा अरणेरग्नेश्व पक्षापनं भवति, तथा देहात्मनोः पार्थक्येन प्रज्ञापना न भवति, तत आत्मदेहयो. नास्ति भेदः । एवं असंते-असंविज्नमाणे' एवम्-असन्-असंवेधमाना, अत:आत्मा न शरीरात् पृथक सत्तावान्-न चाऽनुभवगम्यः, अतएव एष पक्ष साधी. यान् यत् शरीरात्पृथग्र नास्ति कोऽपि आत्म पदार्थ इति सिद्धम् । अतएव 'जे. सिं तं सुअक्खायं भवई' येषां तत् स्वारुतं भवति 'तं जहा-अन्नो जीवो अन्नं सरीरं तम्हा ते मिच्छा' तयथा-अन्यो जीवोऽन्यच्छरीरम् , ये शरीराद् विभिन्न जीवं मन्यन्ते, तत्तेषां पूर्वोक्तदृष्टान्तैः मिथ्यैः। यदि मिन्नः स्यात्-तदा देहादे. भेदेन दर्शयितुं शक्येत । परन्तु-न कोऽपि दर्शयितुमीष्टेऽनः शरीराऽऽत्मवादो _जैसे कोई पुरुष अरणि नामक काष्ठ से अग्नि निकाल कर दिखला देता है कि-हे आयुष्मन् ! यह अरणि है और यह अग्नि है, इसी प्रकार ऐसा दिखलाने वाला कोई पुरुष नहीं है कि-यह आत्मा रहा और यह शरीर रहा । अर्थात् जैसे अग्नि और अरणि में भेद प्रतीत होता है वैसा देह और आत्मा में भेद प्रतीत नहीं होता। अतएव दोनों भिन्न भिन्न नहीं हैं। इस प्रकार आत्मा की पृथक सत्सा की प्रतीति नहीं होती, अतः यही पक्ष समीचीन है कि शरीर से भिन्न आस्मा नहीं है । इस प्रकार जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है, उनका कथन स्वाख्यात 'सुकथन' नहीं है। वह कथन मिथ्या है। જેમ કેઈ પુરૂષ અરણી નામના કાષ્ઠમાંથી અગ્નિને બહાર કઢાડીને બતાવી દે છે, કે હે આયુમન આ અરણ છે, અને આ અગ્નિ છે. એજ પ્રમાણે એવું બતાવનારે કેઈ પુરૂષ નથી કે-આ આત્મા રહ્યો અને આ શરીર રહ્યું. અર્થાત્ જેમ અગ્નિ અને અરણીમાં ભેદ જણાઈ આવે છે. એ રીતે દેહ અને આત્મામાં ભેદ જણાતું નથી. તેથી જ આત્મા અને શરીર અને અલગ અલગ નથી પણ એક જ છે. આ પ્રમાણે આત્માની અલગ સત્તાની ખાત્રી થતી નથી, જેથી શરીરથી જૂદે આત્મા નથી એજ પક્ષ યોગ્ય છે. આ પ્રમાણે જીવ ભિન્ન છે, અને શરીર ભિન્ન છે, એવું કહેનારાઓનું કથન સમીચીન લાગતું નથી. તે કથન મિથ્યા છે. सू० ९ For Private And Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे मिथ्या । अपितु तयोरभेदवाद एव श्रेयान् इति तज्जीतच्छरीरखादि चार्वाक मतम् । भिन्नं शरीरात्मवादमस्वीकृत्य ते नास्तिकाः यत् जीवनधाय परानुपदिशन्ति तदेव दर्शयति- 'से हंता' स नास्तिकः हन्ता - स्वयं हननक्रियायाः कर्तासन् परान उपदिशति - हे लोक ! 'तं हगह' वं- जीवं हत - घातयत 'खणह' खनत पृथिवीम् 'छणह' क्षिणुत-हत जीवान्, 'डद्दह' दहत - ज्वालयत, 'पयह' पचत अग्नौ, 'अलंग्ह' आलुम्पत लुण्टत वस्त्रादीन् 'विलुं 'पद' विलुम्पत- विशेषेण लुष्टत, 'सहसा कारेह' सहसा कारयत - बलात्कारं कुरुत, 'विपरामुसह विपरामृशत पीडोत्पादनपूर्वकं जीववधं कुरुत, 'एयावया जीवे णत्थि परलोए' एतावान् देहमात्रो जीवो नास्ति परलोको येन हिंसादिकरणे भयं संभवेत् । तथा - 'ते णो एवं विप्पडिवे देंति' ते नो एवम् वक्ष्यमाणवचनम् विप्रतिवेदयन्ति - अभ्युपगच्छन्ति न स्वीकुर्वन्तीत्यर्थः, तदेवं दर्शयति- 'तं जहा ' इत्यादि, 'तं जहा - किरियाई वा अकिरियाइ वा सुकडे वा दुकडे वा' तद्यथाक्रियां वा अक्रियां वा सुकृतं वा दुष्कृतं वा 'कल्लाणे वा पाव वा ' साहु वा असा वा सिद्धीइ वा असिद्धीइ वा निरएइ वा अनिरएवा' कल्याणं वा यह चार्वाकमत 'नास्तिकवाद' का उल्लेख किया गया है। शरीर और आत्मा को अभिन्न स्वीकार करके नास्तिक दूसरों को हिंसाका उपदेश देते हैं सो दिखलाते हैं वह नास्तिक लोग जीवों का स्वयं 'घातक होता है और 'उसे मारो' इत्यादि उपदेश देकर हननक्रिया में दूसरों का प्रयोजक होता है। वह कहता है-खोदो, छेदन करो, जलाभ पकाओ, लूटो, खूब लूटो, बिना विचारे मार डालो, विपरामर्श करो, इत्यादि। यह देह ही जीव है, परलोक नहीं है, जिससे हिंसा आदि पाप करनेमें भय हो । वे उल्टी बाते करते हुए कहते हैं-क्रिया अक्रिया, सुकृत दुष्कृत, बुरा भला, साधु असाधु, सिद्धि असिद्धि नरक अनरक आदि भत (नास्तिङ भत - वाह) नो उसे रेस छे, શરીર અને આત્માને એક હાવાનુ સ્વીકારીને આ નાસ્તિકે ખીજાઓને હિંસાને ઉપદેશ આપે છે. તેજ બતાવે છે.—ત નાસ્તિક લાકા સ્વય' જીવાના ઘાત કરવા વાળા હાય છે. અને ‘તેમેને મારા' વિગેરે પ્રકારથી ઉપદેશ આપીને હનનક્રિયામાં બીજાઓને પ્રેરક થાય છે. તેઓ કહે છે કે-ખાદા, છેદન કરી, ओ पहावी, तुटेो, भूम लुटो बगर वियारे भारी नाथ, विपरामर्श रे। વિગેરે, આ શરીર જ જીવ છે, પરલેાક નથી, કે જેથી હિંસા વિગેરે પાપ $रतां डवुं पडे. तेथेो उल्टी वात उरतां उड़े - प्रिया, अडिया, सुत, दुष्टृत, ललु, मु३, साईं राम, सिद्धि असिद्धि, नर४, मनर४, मां यार्वा For Private And Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. म. १ पुण्डरोकनामाध्ययनम् पापकं वा साधु वा असाधु वा सिद्धिं वा तत्र सिद्धिर्मोक्षः, असिद्धिं वाअसिद्धिः-संपारः 'निरयं वा अनिरयं वा' एवं रूपेण ते धर्माऽधर्मादीनों सत्तामपि नेच्छन्ति ‘एवं ते विरूवरूवेहि कम्मसमारंभेहिं विख्वरूवाई कामभोगाइ समारभंति भोयणाए' एवं ते विरूपरूपैरनेकपकारकैः कर्मसमारम्भ विरूपरूपान् नानापकारकान् कामभोगान् समारभन्ते भोगाय विषयोपसेवनाप परलोकं पुण्यं पापं च विस्मृत्य, अज्ञानात् विविधमकारकं कर्म कुर्वन्ति । एवं एगे पागभिया' एवमे के मागल्मिकाः अनात्मवादस्वीकारेण धृष्टाः 'निक्खम्म निष्क्रम्य-स्वगृहान्निर्गत्य-आदाय च दीक्षां साधुवेष परिदधानाः 'मामगं धम्म मामकं धर्मम्, मया प्रतिपाल्यमान एवैष धर्मः सर्वथा श्रेष्ठः, इति 'पन्न वि' प्रज्ञापयन्ति 'तं सदहमाणा तं पत्तियमाणा तं रोयमाणा' तं शरीरात्मवादम् 'सदहमाणा' श्रद्दधाना:-तत्र श्रद्धां कुर्माणाः-नास्तिकवादे श्रद्धा कुर्वन्तः 'त रोयमाणा' तमेव रोचमाना अभिळपन्तो ये केचन राजानः 'साहुमुयक्खाए' साधु कुछ नहीं है। इस प्रकार कह कर वे धर्म अधर्म का भी अस्तित्व स्वीकार नहीं करते । वे नाना प्रकार के कर्मसमारंभ करके अनेक प्रकार के कामभोगों का सेवन करते हैं या विषयों का भोग करने के लिए विविध प्रकार के दुष्कृत्य करते हैं । वे नारकी परलोक तथा पुण्य और पाप को भूल कर-अज्ञान से उनका अनादर करके इस प्रकार घृष्टता करते हैं। वे गृह से निकल कर और दीक्षा लेकर साधु का वेश धारण कर लेते हैं और दूसरों को ऐसा प्रतिपादन करते हैं कि हमारी धर्म ही सर्वथा उत्तम है। उस शरीरात्मवाद पर श्रद्धा करते हुए, प्रतीति करते हुए, रुचि करते हुए कोई कोई राजा आदि उनसे कहते हैं, हे श्रमण ! अथवा વિગેરે કંઈજ નથી. આ પ્રમાણે કહીને તેઓ ધર્મ, અધર્મનું અસ્તિત્વ પણ સ્વીકારતા નથી. તેમાં અનેક પ્રકારના કર્મોને સમારંભ કરીને અનેક પ્રકા. રના કામોનું સેવન કરે છે. અથવા વિષયોને ભેગા કરવા માટે અનેક પ્રકારના દુકૃત્ય-ખરાબ કામ કરે છે. તે નારકી પરક તથા પુણ્ય અને પાપને ભૂલીને-અજ્ઞાનથી તેનો અનાદર કરીને આ રીતે પૂર્ણપણું કરે છે. તેઓ ઘરેથી નીકળીને અને દીક્ષા લઈને સાધુને વેશ ધારણ કરી લે છે. અને બીજાઓની સામે એવું સમર્થન કરે છે કે અમારે ધર્મ જ સર્વથી उत्तम छे. તે શરીરના આત્મવાદ પર શ્રદ્ધા-વિશ્વાસ કરતા થકા પ્રતીતિ-ખાત્રી કરતા થકા, કઈ કઈ રાજા વિગેરે તેઓને કહે કે હે શ્રમણ ! અથવા For Private And Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतासूत्र स्वाख्यातम्-सम्यक् श्रीमद्भिः प्रतिपादितम् इति ते कथयन्तः। 'समणेइवामाहणेइ वा' हे श्रमणाः इति वा हे बाह्मणाः इति वा, भोः श्रमणाः ! भो बामणाः । इति ब्रुअन्तस्ते 'कामं खलु आउसो ! तुम पूययामि' कामं खलु हे भायुष्मन् ! त्वां पूजयामि 'तं जहा' तद्यथा-'असणेण वा पाणेण वा खाइमेण वा साइमेण वा' अशनेन वा पानेन वा खायेन वा-स्वायेन वा 'वत्थेण वा' वस्त्रेण वा 'पडिग्गहेण वा पतिग्रहेण वा 'कंबलेण वा कम्बलेन वा 'पायपुंछणेण वा' पादप्रोग्छनेन वा 'तत्थेगे पूयणाए' तत्रैके पूजनायै 'समाउटिंसु' समुत्थितवन्तः 'तस्पेगे पूयणाए निकाइंसु' तत्रैके पूजनायें राजादीन् निकाचितवन्त:-स्वसिद्धान्ते हढीकृतवन्तः, एवं प्रतिबोधिताश्च केचन राजानस्तदीय धर्ममासाथ पूजनीयोऽयमिति मत्वा विविधोपहार स्वमेव पूजयन्ति । 'पुब्वमेव तेसि णायं भवई' पूर्वमेव तेषां ज्ञातं भवति, पूर्वं तु इत्थं प्रतिज्ञा कुर्वन्ति यत् श्रमणा भविष्याम इत्यादि रूपाम् । 'समणा भविस्सामो' श्रमणा भविष्यामः 'अणगारा' अनगाराः सर्वत्र 'भविष्यामः' इति योजनीयम् । 'अकिंचणा' अकिञ्चनाः 'अपुत्ता' अपुत्राः स्यादिपरिग्रहशून्यतया पुत्ररहिताः 'अपम्' अपशक:-चतुष्पदरहिताः 'परदत्तभोइणो' हे बाह्मण ! आपने यह बहुत अच्छा कथन किया है, वास्तव में आपका धर्म ही बहुत अच्छा है। हम आपको अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार से तथा वस्त्र से, पात्र से, कंपल से और पादपोंछन से आदर करते हैं-आपका सत्कार करते हैं । इस प्रकार कह कर वे राजा आदि उनका आदर करने को उद्यत हो जाते हैं। उन्हें धर्मश्रवण के बदले नाना प्रकार के उपहार प्रदान करते हैं और वे नास्तिकवादके उपदेशक उन राजा आदि को अपने मत में मजबूत करते हैं। पहले तो थे ऐसी प्रतिज्ञा करते हैं कि हम श्रमण होंगे अनगार होंगे, अकिंचन होंगे, पुत्र आदि समस्त परिवार के त्यागी बनेगे, चतुष्पद બ્રાહ્મણ! આપ આ કથન ઘણું જ ઉત્તમ કહ્યું છે, વાસ્તવિક રીતે આપને ધર્મ જ ઘણું જ સારો છે. અમે આપને અશન, પાન, ખાદિમ, અને સ્વાદિમ, અહારથી અને વસ્ત્રથી, પાત્રથી કાંબળથી, અને પાછળથી આદર કરીએ છીએ, આપને સત્કાર કરીએ છીએ. આ પ્રમાણે કહીને તે રાજા વિગેરે તેઓને આદર કરવા માટે ઉદ્યમશીલ બને છે, ધર્મ શ્રવણ કર્યા બાદ તેઓને અનેક પ્રકારની ઉપહાર-ભેટ આપે છે, અને તેઓ નાસ્તિક વાદના ઉપદેશકે તે રાજા વિગેરેને પોતાના મતમાં દેઢ-મજબૂત બનાવે છે, પહેલાં તે તેઓ એવી પ્રતિજ્ઞા કરે છે કે—અમેં શ્રમણ બનીછું. અનગાર થઈશું. નિધન થઈશું. પુત્ર વિગેરે સઘળા પરીવારને ત્યાગ કરીશું. For Private And Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अं. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् परदत्तमोजिनः 'भिक्खुणो' भिक्षवः 'पावं कम्मं णो करिस्सामो' पापं कर्म न करिष्यामः । एतादृशी प्रतिज्ञा ते कुवन्ति पूर्वम् , परन्तु-'समुट्ठाए अप्पणा अप्प. डिविरया भवंति' सपुत्थाय ते आत्मना अपतिविरता भवन्ति, 'पापकर्मादिकं न करिष्यामः' इति दृढ प्रतिज्ञाय गृहादिकं परित्यज्याऽपि पापाद्विरता न भवन्ति किन्तु तदेव प्रतिज्ञाततपोविरोधिपापकर्म-आरमन्ते । तदेवाऽग्रे सूत्रकारो दर्शयति -'सयमाइयंति' स्वयमाददते-पापकर्म स्वीकुर्वन्ति 'अन्ने वि आदिया ति अन्या. नपि-आदापयन्ति-स्वीकारयन्ति 'अन्ने वि आययंत' अन्यानपि आददतः 'समणु. जाणंति' समनुजानन्ति-अनुमोदयन्ति । एवमेव ते इथिकाममोगेहि' एवमेव ते स्त्रीकामभोगेषु 'मुच्छिया' मूच्छिताः-मूर्छामुपगताः 'गिद्धा गढिया' गृद्धाः गृद्धि भावमुपगताः प्रथिता:-कामभोगासक्ताः 'अज्झोववन्ना' अध्युपपनाः आधिक्येन कामभोगे प्रसक्ताः, 'लुद्धा' लुब्धाः-कामभोगसंग्रहे लोलुपाः, 'रागदोसवसहा' रागद्वेषशार्ताः-रागद्वेषसमापनाः, रागद्वेषैरुपपन्नाः, 'ते णो अप्पाणं समुच्छेदेति' ते के त्यागी बनेंगे, स्वयं पचन पाचन आदि न करके दूसरों के द्वारा प्रदत्त भोजन ही ग्रहण करेंगे, भिक्षुक बनेंगे और पापकर्म का त्याग करेंगे। परन्तु इस प्रकार की प्रतिज्ञा करके और गृहत्याग करके भी घे पापों से विरत निवृत्त नहीं होते, परन्तु प्रतिज्ञात तपोविधि से विरुद्ध पापकर्मों का आरंभ करते हैं । यही बात आगे दिखलाते हैंवे स्वयं पापकर्म को स्वीकार करते हैं, दूसरों से पापकर्म करवाते हैं और पापकर्म करने वालों की अनुमोदना करते हैं। इसी प्रकार के स्त्रियों और कामभोगों में मूर्छित हो जाते हैं, गृद्ध हो जाते हैं, अतीव आसक्त हो जाते हैं, लुब्ध हो जाते हैं, कामभोगों की सामग्री के संग्रह में लोलुप हो जाते हैं। इस प्रकार राग और वेष के वशीभूत होकर वे न तो अपना ही उद्धार कर सकते हैं और न ચતુષ્પદ-પશુઓને ત્યાગ કરીશું. સ્વયં પચન, પાચન વિગેરે ન કરતાં બીજાઓએ આપેલ ભેજન જ કરીશું. ભિક્ષુક બનીશું. અને પાપકર્મને ત્યાગ કરીશું. પરંતુ આવા પ્રકારની પ્રતિજ્ઞા કરીને અને ઘરને ત્યાગ કરીને પણ તેઓ પાપથી નિવૃત્ત થતા નથી. પરંતુ પહેલાં પ્રતિજ્ઞા કરેલ તપની વિધિથી વિરૂદ્ધ પાપકર્મોને આરંભ કરે છે. એજ વાત આગળ બતાવે છેતેઓ સ્વયં પાપકર્મને સ્વીકાર કરે છે. બીજાઓની પાસે પાપકર્મ કરાવે છે. અને પાપકર્મ કરવાવાળાનું અનુમોદન કરે છે. એ જ પ્રમાણે તેઓ સિ અને કામભેગમાં મૂછિત થઈ જાય છે. વૃદ્ધ-આસક્ત થઈ જાય છે. અત્યંત આસક્ત થઈ જાય છે. લુબ્ધ થઈ જાય છે. કામની સામગ્રીના સંગ્રહમાં લેપ થઈ જાય છે. આ રીતે રાગ અને દ્વેષને વશ થઈને તેઓ પોતાનો For Private And Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७ सूत्रकृतगिरने णो अप्पाणं समुच्छेदेति' ते नो आत्मानं समुच्छेदयन्ति-नात्मानमुद्धरन्ति, 'ते णो परं समुच्छेदंति' ते नो परं समुच्छेदयन्ति-न परमुद्धरन्ति, ते संसारपाशात् न स्वयं मुक्ता भवन्ति, न वा पर मोचयन्ति, 'ते णो अण्णाई पाणाई भूयाई जीवाई सत्चाई समुच्छेदेति' ते नो अन्यान् पाणान् भूतानि जीवान-सत्त्वान् समुच्छेदयन्ति-समुदरन्ति । स्वयमसिद्धाः कथं परान् साधयिष्यन्तीति न्यायेन अन्यानपि माणिवर्गान् संसारात् कथमपि तारयितुं समर्था न भवन्ति । तदेवम्-'पहीणा पुव्वसंजोगं आयरियं मग्गं असंपत्ता इति' प्रहीणाः- विभ्रष्टाः 'पुब्वसं नोग' पूर्व संयोगात्-पूर्वस्मात् संयोगात् स्त्री पुत्रादि स्वात्मीयादपि पहीणा:-रहिता अपि, तथा-'आयरियं' आर्य मार्गम्-मोक्षमार्गम् 'असंपत्ता' असंपाप्ताः, इति-एवं रूपेण 'ते णो' ते नास्तिकाः नो-नैव कथमपि 'हवाए' अर्वाचे 'णो पाराए' नो पाराय न संसाराय न मुक्तये इति भावः, किन्तु-अन्तरा-मध्ये कामभोगेषु 'निसन्ना' निषण्णाः-निमग्नाः-स्च्यादि सुखसाधनमैहिकं परित्यज्य प्रबजिता, अतस्तत्सुखेन वश्चिता अभवन् सम्यङ्मार्गस्य अमाप्त्या मोक्षमपि न प्राप्स्यन्ति, दूसरों का उद्धार कर सकते है। न स्वयं संसार के पाश से छुटकारा पाते हैं, न दूसरों को छुड़ा सकते हैं । जो स्वयं सिद्ध नहीं है वह दूसरों को कैसे सिद्ध कर सकता है ? इस न्याय के अनुसार वे संसार के प्राणिवर्ग को तारने में किसी भी प्रकार समर्थ नहीं होते हैं। इस प्रकार वे स्त्री पुत्र आदि अपने परिवार से तो भ्रष्ट हो जाते हैं परन्तु मोक्षमार्ग को प्राप्त नहीं कर पाते हैं । न इधर के रहते हैं, न उधर के रहते है। बीच में ही कामभोगों के कीचड में फस जाते हैं। अर्थात् स्त्री आदि ऐहिक सुखसाधनों को त्याग कर दीक्षित हो जाते हैं और मोक्ष का समीचीन मार्ग न प्राप्त कर सकने के कारण मोक्ष भी प्राप्त પણું ઉદ્ધાર કરી શકતા નથી, તેમજ બીજાઓને ઉદ્વાર પણ કરી શકતા નથી. પિતે સંસારના પાશમાંથી છૂટિ શકતા નથી. તે પછી બીજાઓને તે કેવી રીતે છોડાવી શકે? જેઓ પિતે સિદ્ધ નથી, તેઓ બીજાઓને કેવી રીતે સિદ્ધ કરી શકે? આ ન્યાય પ્રમાણે તેઓ સંસારના પ્રાણિ વર્ગને તારવામાં કોઈ પણ રીતે સમર્થ થતા નથી. આ પ્રમાણે સ્ત્રી, પુત્ર વિગેરે પિતાના પરિવારથી ભ્રષ્ટ થઈ જાય છે, પરંતુ મોક્ષમાર્ગને પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી. તેએ અહિંના રહેતા નથી તેમ ત્યાંના પણ રહેતા નથી. વચમાં જ કામગેના કાદવમાં ફસાઈ જાય છે. અર્થાત્ સ્ત્રી વિગેરેને ઐહિક-આલેક સંબંધી સુખ સાધનેને ત્યાગ કરીને દીક્ષિત થઈ જાય છે, અને મોક્ષને યોગ્ય માગ પ્રાપ્ત ન કરી શકવાથી મેક્ષમાર્ગ પણ મેળવી શક્તા નથી. આ રીતે - For Private And Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - समयार्थपोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् एवम् उभयतो विभ्रष्टा मध्ये संसारमहोदधौ दुःखे निमग्ना भवन्ति । न विवक्षितं पद्मवरपुण्डरीकोत्क्षेपणादिककार्य प्रसाधयन्ति । 'इह पहमे पुरिसजाए' इति प्रथमः पुरुष नातः, 'तज्जीव तच्छरीरएत्ति आहिए' तज्जीवतच्छरीरक इत्या. ख्यातः । यः पुष्करिण्याः पूर्वतटादागत आसीत् स नास्तिको दृष्टान्तद्वारा तीर्थकरेण प्रतिपादित इति ।।मू०९॥ ___मूलम्-अहावरे दोच्चे पुरिसजाए पंचमहन्भूइए त्ति आहिज्जइ, इह खलु पाईणं वो संतेगइया मणुस्सा भवंति अणुपुत्वेणं लोयं उक्वन्ना, तं जहा-आरिया वेगे अणारिया वेगे एवं जाव दुरूवा वेगे, तेसिं च णं महं एगे राया भवइ महया० एवं चेव गिरवसेसं जाव सेणावइपुत्ता, तेसिं च णं एगइए सड्डी भवइ कामं तं समणा य माहणा य संपहारिंसु गमणाए, तत्थ अन्नयरेणं धम्मेणं पन्नत्तारो वयं इमेणं धम्मेणं पन्नवइस्सामो से एवं याणह भयंतारो! जहा मए एस धम्मे सुयक्खाए सुपन्नते भवइ, इह खल्लु पंचमहन्भूया, जेहि नो विजइ नहीं कर पाते हैं। इस प्रकार दोनों ओर से भ्रष्ट होकर संसार महासागर में ही निमग्न होते हैं। उनकी दशा पुण्डरीक को प्राप्त करने में विकल हुए उस प्रथम पुरुष जैसी हो जाती है। यह आत्मा और शरीर दोनों को एक मानने वाले 'तज्जीव तच्छरीरवादी' प्रथम पुरुष के समान हैं जो पूर्व दिशा से पुष्करिणी के तट पर आया था। तीर्थ कर भगवान ने उसकी उपमा नास्तिकसे दी है ॥९॥ બન્ને તરફથી ભ્રષ્ટ થઈને સંસાર રૂપી મહા સાગરમાં જ દુખમાં ડૂબી જાય છે. તેની દશા પુંડરીકને પ્રાપ્ત કરવામાં નિષ્ફળ થયેલા તે પહેલા પુરૂપના જેવી થઈ જાય છે. ___ आत्मा भने शरीरम-नेने मे भानपावर 'तज्जीवतच्छरीरवादी' પહેલા પુરૂષની સરખા છે. કે જે પૂર્વ દિશાએથી પુષ્કરિણ-વાવના કિનારા પર આવેલ હતું. તીર્થકર ભગવાને નાસ્તિકને તેની ઉપમા આપી છે. છેલ્લા For Private And Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ७२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे किरियाइ वा 'अकिरियाइ वा सुक्कडेइ वा दुक्कडेड़ वा कल्लाणेइ वा पावएइ वा साहुइ वा असाहुइ वा सिद्धीइ वा असिद्धीइ वा णिरएइ वा अणिरएइ वा अवि अंतसो तणमायमवि । तं च पिहुद्देसेणं पुढोभूतसमवायं जाणेज्जा, तं जहा - पुढवी एगे महब्भूए आऊ दुच्चे महम्भूए तेऊ तच्चे महम्भूए वाऊ चउत्थे महभूए आगासे पंचमे महब्भूए, इच्चेए पंच महब्भूया अणिमिया अणिम्माविया अकडा णो कित्तिमा णो कडगा अणाइया अणिया अवंझा अपुरोहिया सतंता सासया आयछठ्ठा, पुण एगे एवमाहु-सतो णत्थि विणासो असतो णत्थि संभवो । एयावया व जीवकाए, एयावया व अस्थिकाए, एयावया व सव्वलोए, एयं मुहं लोगस्स करणयाए, अवि अंतसो तणमायमवि । से किणं किणावेमाणे हणं घायमाणे पयं पयावेमाणे अवि अंतसो पुरिसमविकीणित्ता घायइत्ता एत्थं पि जाणाहि णत्थित्थदोसो, तेजो एवं विपडिवेदेति तं जहा - किरियाइ वा जाव अणिरएइ वा, एवं ते विरूवरूवेहिं कम्मसमारंभेहिं विरूवरूवाई कामभोगाई समारभंति भोयणाए, एवमेव ते अणारिया विष्पडिनातं सद्दहमाणा तं पत्तियमाणा जाव इइ, ते णो हव्वाए, जो पाराए अंतरा कामभोगेसु विसण्णो, दोच्चे पुरिसजाए पंचमहभूपत्ति आहिए ॥ सू० १०॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छाया - अथापरो द्वितीयः पुरुषजातः पाञ्च महाभूतिक इत्याख्यायते । इह खलु माच्यां वा ४ सन्त्येके मनुष्या भवन्ति आनुपूर्व्या लोकमुपपन्नाः तद्यथाआर्या एके, अनार्या एके, एवं यावद् दुरूपा एके, तेषां च खलु महान् एको राजा भवति महा० एवमेव निरवशेष यावत् सेनापतिपुत्राः, तेषां च खलु एकः श्रद्धावान् For Private And Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी रीका द्वि. श्रु. म. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् भवति कामं तं श्रमणा वा ब्राह्मणा वा संपाधापुः गमनाय । तत्रायतरेण धर्मेण मनापयितारः, वयमनेन धर्मेण प्रज्ञापयिष्यामः तदेवं जानीत भयत्रातारः । यथा मया एष धर्मः स्वाख्यातः सुपझप्तो भवति, इह खलु पश्चमहाभूतानि यनों वियते क्रिया इति वा, अक्रिया इति वा, सुकतम् इति वा, दुष्कृतमिति वा, कल्याणमिति पा, पापकमिति चा, साधु इति वा, असाधु इति वा, सिद्धिरिति वा, असिदिरिति पा, निरय इति वा, अनिरय इति वा, अपि अन्तशः तृणमात्र मपि । तच्च पृथक उद्देशेन पृथग् भूतसमवायं जानीयात् , तद्यथा-पृथिवी एकं महाभूतम्, आपो द्वितीयं महाभूतम् तेजः तृतीयं महाभूतम् . वायुः चतुर्थ महाभूतम् आकाशं पशमं महाभूतम् । इत्येतानि पञ्चमहाभूतानि अनिर्मितानि अनिर्मापितानि अकृतानि नो कृत्रिमाणि नो कृतकानि अनादिकानि अनिधनानि अभ्यानि अपुरोहितानि स्वतन्त्राणि शाश्वतानि आत्मषष्ठानि। एके पुनरेवमाहुः-सतो नास्ति विनाशः असतो नास्ति सम्पनः । एतावानेव जीवकायः एतावानेव अस्तिकायः एतावानेव सर्वलोकः एतन मुख्यं लोकस्य कारणम्, अपि अन्तशः तृणमात्रमपि । स क्रीणन् क्रापयन् ध्वन् घातयन् पचन् पाचयन् अप्यन्तशः पुरुषमपि क्रीत्या घातयित्वा अत्रापि जानीहि नारत्यत्र दोषः। ते नो एवं विप्रतिवेदयन्ति, तद्यथाक्रियेति वा यावद् अनिरय इति वा । एवं ते रिकारूपः कर्मसमारम्भः विरूपरूपान् काममोगान समारमन्ते मोगाय । एवमेव ते अनायो: विपतिपन्नाः तत् श्रधानाः तद पतियन्तः यावदिति । ते नो अर्शचे नो पाराय अन्तरा कामभोगेषु विषण्णाः, द्वितीयः पुरुषजातः पाश्चमहाभूतिक इत्याख्यातः ॥सू० १०॥ टोका-अथ प्रथमपुरुषवर्णनानन्तरम् , द्वितीय पुरुषवर्णनमाह-'अहावरे' इति अथ-अपरे 'दोच्चे' द्वितीयः 'पुरिसजाए' पुरुषजातः 'पंचमहन्भूहए त्ति' पाचमहाभूतिकः 'आहिज्जई' आख्यायते । यो हि द्वितीयः पुरुषो मया कथितः पुष्करिण्या स्सटे स संपारे पुष्करिण्या द्वितीयतटे विद्यमानः पाश्चमहाभूतिको 'अहावरे दोच्चे' इत्यादि। टीकार्थ-प्रथम पुरुष का वर्णन करने के पश्चात् अय द्वितीय पुरुष का वर्णन किया जाता है। वह द्वितीय पुरुष पंचमहाभूतिक कहा गया है। अर्थात् पुष्करिणी के मट पर आया हुआ दमग पुरुष कहा गया था, 'अहावरे दोच्चे' त्या ટીકાથ–પહેલા પુરૂષનું વર્ણન કરીને હવે બીજા પુરૂનું વર્ણન કરવામાં આવે છે તે બીજે પુરૂષ પાંચ મહાભૂત કહેલ છે. અર્થાત વાવના કિનારા પર આવેલ બીજો પુરૂષ કહેલ હતું. તેને અહિયાં પાંચ મહા ભૂતિક સમજી લેવા જોઈએ, स० १० For Private And Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताचे विज्ञेयः । इह खलु पाईणं वा ४ संतेगइया मणुस्सा भवंति' इह-अस्मिन् मनुष्यलोके खलु 'पाईणं वा ४' पाच्यां वा ४-प्रतीच्यां वा उत्तरस्यां वा दक्षिणस्यां वा 'संतेगइया' सन्त्येके 'मणुस्सा' मनुष्याः भवंति' भवन्ति 'आणुपुष्वेणं लोयं उववन्ना' आनुपूज्या लोकमुपपन्नाः-अनेकभेदेषु लोकेषु समुत्पन्ना भवन्ति, 'तं जहा' तद्यथा 'आरियावेगे' आर्या वैके 'अणारिया वेगे' अनायाँ वैके 'एवं जाव दुरूवा वेगे' एवं यावद् दुरूपा वा, एके, आर्या अनार्याः मुरूपा दुरूपा अनेकप्रकारका मनुष्या भवन्ति, 'तेसिं च तेषां च पुरुषाणां मध्ये 'महं एगे राया भवई' महानेको राजा भवति, 'महया एवं चेव निरवसेसं' महा० एवमेव निरवशेषम् । 'जाव सेणावइपुत्ता' यावत् सेनापतिपुत्राः, मनुष्याणामेको राजा पूर्वसूत्रोपदर्शितयथावर्णितगुणगणगरिष्ठः। तस्य राज्ञः परिषद्भवति, तस्याम् उग्रोग्रपुत्रादयः सेनापतिपुत्रान्ताः सदस्या भवन्ति । 'तेसि च णं एगइए सड्री भवई' तेषां सदस्यानां च मध्ये, एकः श्रद्धावान् भवति । तेषु बहुषु सत्सु पुरुषेषु कश्चिदेको धर्मे श्रद्धावान् भवति, 'कामं तं समणा य माहणा य पहारिमु गमणाए' उसे यहां पंचमहोभूतिक समझ लेना चाहिए। इस मनुष्यलोक में पूर्व आदि दिशाओं में कोई कोई मनुष्य होते हैं जो नाना रूपों में उत्पन्न हुए होते हैं, जैसे-कोई आर्य होते हैं, कोई अनार्य होते हैं, इसीप्रकार यावत् कोई सुरूप होते हैं, कोई कुरूप होते हैं। उन मनुष्यों में कोई एक राजा होता है। वह हिमवान् पर्वत के समान होता है, इत्यादि पूर्वसूत्र में कथित सब विशेषण यहां भी समझ लेने चाहिए। उस राजा की परिषद् होती है। ब्राह्मग से लेकर सेनापति पुत्र तक पूर्वोक्त उसके सदस्य होते हैं। उन सदस्यों में कोई कोई धर्म श्रद्धावान् भी होता है। उसके पास कोई श्रमण या ब्राह्मण આ મનુષ્ય લેકમાં પૂર્વ વિગેરે દિશાઓમાં કઈ કઈ મનુષ્ય એવા હોય છે કે જેઓ અનેક પ્રકારના રૂપથી ઉત્પન્ન થયેલા હોય છે. જેમકેકઈ આર્ય હોય છે. તે કઈ અનાર્ય હોય છે. એ જ પ્રમાણે કેઈ સુંદર રૂપવાળ હોય છે, તે કઈ ખરાબ રૂપ વાળ હોય છે. તે મનુષ્યમાં કઈ એક રાજા હેય છે, તે હિમાલય પર્વત જે હેય છે. વિગેરે પૂર્વ સૂત્રમાં કહેલ સઘળા વિશેષણે અહિયાં પણ સમજી લેવા જોઈએ. તે રાજાની પરિ. ષ૬ સભા હોય છે. બ્રાહ્મણથી લઈને સેનાપતિના પુત્ર સુધી પહેલાં કહેલ તે સઘળા તે તે પરિષદુના સદસ્ય હોય છે. તે સદમાં કઈ કઈ ધર્મની શ્રદ્ધાવાળા પણ હોય છે, તેની પાસે કઈ શ્રમ અથવા બ્રાહ્મણ જઈ For Private And Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् ७५ कामं तं श्रमणा वा ब्राह्मणा वा संप्रधार्षुर्गमनाय प्रस्थितवन्तः । तादृशधर्मश्रद्धालु स्वधर्मानुयायिकरणाय श्रमणा ब्राह्मणाश्च तत्समीपे गन्तुं समिच्छेयुः । ' तस्थ अनयरेणं धम्मेणं पन्नत्तारो वयम्' तत्राऽन्यतरेण धर्मेण प्रज्ञापयितारो वयम् 'इमेणं धम्मेणं पन्नवइस्सामो' 'अनेन - अस्मः संनतधर्मेण प्रज्ञापयिष्यामः तं. स्वधर्मानुयायिनं करिष्याम इति विचार्य ते तत्र तत्समीपं गत्वा कथयन्ति - वयं भवन्तं प्रज्ञापयिष्यामोऽमुं धर्मम् तं धर्मम् -' से एव मायाणह' तदेवं जानीत | 'भयंतारी' भयत्रातारः ? एवं भवन्तो जानन्तु 'जहा मए एस धम्मे सुयक्खाए' यथा मया स्वाख्यातः प्रतिपद्यमान एषधर्मः 'सुपन्नते भवद्द' सुवज्ञप्तो भवति, सरळतया ज्ञातो भवतीति सत्यं भवन्तोऽवगच्छन्तु इति । तं प्रतिज्ञातं धर्म " उदाहरन्ति - 'इह खलु पंचमहन्भूया' इह खलु पञ्चमहाभूतानि तदात्मक एवं सर्वसंसारः यत्किमपि विद्यते तम् सर्वं पाश्च मद्दाभूतिकं तदात्मकमेव न ततो-व्यति रिक्त किमप्यस्ति, यैः पञ्च भूतैरेव सर्वापि क्रिया भवति - सुकृतदुष्कृतादिरूपा । जा पहुंचते हैं अर्थात् उसे अपने धर्म का श्रद्धालु बनाने के लिए वे ब्राह्मण आदि उद्यत होते हैं। वे सोचते हैं कि हम अमुक किसी धर्म का इसे उपदेश देगे और अपने धर्म का अनुयायी बनाएंगे । इस प्रकार करके वे राजा आदि के समीप जा कर कहते हैं-हे भयत्राता ! हम आपको अमुक धर्म का उपदेश करेंगे, आप उसे स्वीकार करो। हमारे द्वारा कथित धर्म सु आख्यान है । वह सरलता से समझ में आ जाता है, इसे आप सत्य समझें । फिर वे अपने धर्म का प्रतिपादन करते हैंइस समग्र जगत् में पांच महाभूत ही हैं। सारा संसार पंचमहाभूतास्मक है। उनसे भिन्न अन्य कुछ भी नहीं है। पांच भूतों के द्वारा પહોંચે છે, અર્થાત્ તેને પોતાના ધમમાં શ્રદ્ધા વાળા બનાવવા માટે તેએ ઉદ્યમ કરે છે. તેઓ એવા વિચાર કરે છે કે અમે અમુક કાઈ ધમના આને ઉપદેશ આપીશું અને પેાતાના ધર્મને અનુયાયી-અનુસરનાર બનાવી લઇશુ. 1 પ્રમાણે વિચાર કરીને તે રાજા વિગેરેની પાસે જઈ ને કહું છે કે–ડે ભયથી રક્ષણુ કરનારા ! અમે આપને અમુક ધમના ઉપદેશ કરીશુ. આપ તેને સ્વીકાર કરે. અમેાએ કહેલ ધમ સ્વખ્યાત છે. તે સરલપણાથી સમજવામાં આવી જાય છે. તેને આપ સત્ય માને. તે પછી તે પાતાના ધર્મનું પ્રતિપાદન કરે છે.-આ સ'પૂર્ણ' જગમાં પાંચ મહાભૂતે જ છે. સમગ્ર સંસાર પંચમહાભૂતાત્મક જ છે. તેનાથી જુદું ખીજું કાંઇ પશુ નથી. પાંચ મહાભૂત દ્વારા જ સવળું સુકૃત અને દુષ્કૃત વિગેરે For Private And Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतसूत्रे किंबहुना-तृणादीनां स्पन्दनादिकमपि तत एव संभवति, इति। 'जेहिं नो विज्जा किरियाइ वा' 'जेहिं यः पञ्चभूतैरेव 'नो' नः अस्माकम् 'विजय' विधते-भवति । 'किरियाइवा' क्रिया, इति वा 'अकिरियाइ वा' अक्रिया, इति वा 'सुकडेइ वा' मुकृतमिति वा दुक्कडेइ वा दुःकृतमिति वा 'कल्लाणेइ वा' कल्याणमिति वा 'पावरह वा' पापमिति वा 'साहु इवा असाहुइ वा' साधुरिति वा असाधुरिति वा 'सिद्धीदवा असिद्धी इवा' सिद्धिरिति वा असिद्धिरिति वा 'णिरएइ का अणिरएइ वा' निरय इति वा अनिरय इति वा 'अविअंतसो तणमायमपि' अपि अन्तशस्तृणमात्रमपि, यस्किश्चिदपि भवति तत्सर्वं पञ्चमहाभूतैरेव भवति, न ततो व्यतिरिक्त किमप्यस्ति । 'तं च पिहुई सेणं पुढोभूयं समवायं जाणेज्जा' तंच पृथगुदेशेन पृथग्भूतसमवायं जानीयात, तंच भूतसमुदायं पृथक् पृथङ्नाम्नाऽवगच्छेत् । । 'तं महा' तद्यथा-'पुढवी एगे महन्भूए' पृथिवी एकं महाभूतम् । 'माउदुम्चे महन्भूए' आपो द्वितीयं महाभूतम् । 'तेउ तच्चे महन्भूए' तेज स्तृतीयं महाभूतम् 'वाऊ. चउत्थे महन्भूए' वायु-चतुर्थं महाभूतम् 'आगासे पंचमे महन्भूए' आकाशः पञ्चमं समस्त सुकृत और दुष्कृत आदि रूप क्रियाएं होती हैं। अधिक क्या कहा जाय, तिनके का हिलना जैसी क्रिया भी उन्हीं से होती है। हमारे मत के अनुसार पांच महाभूतों से ही क्रिया अक्रिया सुकृत दुष्कृत, कल्याण अकल्याण, साधु असाधु, सिद्धि असिद्धि, नरक अनरक, यहां तक कि तृण का स्पन्दन भी पांच महाभूतों से ही होता है। उनसे अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है। उस भूनसमुदाय को पृथक् पृथक् नोमों से जानना चाहिए। वे नाम इस प्रकार हैं-पहला पृथ्वी नामक महाभूत है, जल दूसरा महाभूत है, तेजस् तीसरा महाभूत है, वायु चौथा महाभूत है और आकाश पांचवां महाभूत है। यह पांच महाभूत રૂપ ક્રિયાઓ હેય છે. વિશેષ શું કહી શકાય, તરણાનું હલવું જેવી ક્રિયા પણ તેનાથી જ થાય છે. અમારા મત પ્રમાણે પાંચ મહાભૂતથી જ ક્રિયા, અક્રિયા, સુકૃત, દુષ્કૃત, કલ્યાણ અકલ્યાણ, સાધુ, અસાધુ સિદ્ધિ અસિદ્ધિ નરક અનરક એટલે સુધી કે તરણાનું હલન પણ પાંચ મહાભથી જ થાય છે. તેના સિવાય અન્ય કોઈજ નથી. તે ભૂત સમુદાયને જુદા જુદા નામથી જાણવા જોઈએ. તે નામ આ પ્રમાણે છે–પૃથ્વી નામને પહેલે મહાભૂત છે, જલ બીજો મહાભૂત છે તેજ ત્રીજે મહાભૂત છે, વાયુ એ મહાબત છે. અને આકાશ પાંચ મહાભૂત છે. આ રીતે આ પાંચ મહાભૂત છે. For Private And Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. शु. म. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् महाभूतम् 'इच्त्रेते पंच महन्भूया' इत्येतानि पञ्च महाभूतानि नैतानि कुतोऽपि जायते किन्तु यथा वक्ष्यमाणस्वरूपाणि भवन्ति कि स्वरूपाणि तानि ? इत्याह - 'अनिमिया' इत्यादि । 'अणिम्प्रिया' अनिर्मितानि न केनापि कालेश्वरादिना रचितानि, 'अणिम्माबिया' अनिर्मापितानि-न पर द्वारा निष्पादितानि, 'अरुडा' अकृतानि अभ्रन्द्रधनुरादिवद् विश्वसापरिणामेन निष्पन्नत्वात् न केनाऽपि तानि कृतानि अत एव अवानि, 'णो कित्तिमा' नो कृत्रिमाणि न घटवत्कर्तृकरणव्यापारसाध्यानि अत एव कृत्रिमतारहितानि नो कडगा' नो कृतकानि स्वभावनिष्पत्तौ अपेक्षितपरव्यापारो भावः कृतक उच्यते तानि पञ्च महाभूतानि च विपरिणामेन निष्पत्वात् न कृतक व्यपदेश्यानि अत एव तानि नो कृत कानि, 'अणाइया' अनादिकानि आदिरहितानि शाश्वतभाववस्वात् 'आणि हणा' अनिधानानि - निधनरहितानि अन्तरहितानीत्यर्थः कदाचिदपि काले विनाशा मात्रात्, 'अवंझा' अवन्ध्यानि आवश्यकार्य कर्तुत्वात्, 'अपुरोहिया' अपुरोहितानि कार्यप्रवर्तकपुरोहिताभावात् 'सतंता' स्वतन्त्राणि - अपर निरपेक्ष कार्य कर्तृवात् 'सासया' शाश्वतानि - शास्त्रतकालस्थादिस्वात् तदेवं भूतानि पञ्चमहाभूतानि सन्तीति । इदं तत्रादिमतं प्रदर्शितम्, सम्प्रति सांख्यमतमाह - 'एगे पुण' एके केचन सांख्काराः पुनः 'एवमाहु' एवं कथयन्- 'आयछडा' आत्मषष्ठानि, एतानि पूर्वोक्तानि पञ्चमहाभूतानि, पश्च न किन्तु आत्मषष्ठानि आत्मा षष्ठो येषु तानि आत्मषष्ठानि, एतेषु पञ्च महाभूनेषु तद्व्यतिरिक्तः षष्ठ आत्मा विद्यते, एवं केचन कथयन्ति - सांख्यानां हैं। ये महाभूत किसी से उत्पन्न नहीं होते, किन्तु अनिर्मित हैं, अनिमर्पित हैं अर्थात् किसी के द्वारा बनवाए हुए नहीं हैं, अकृत हैं, कृत्रिम नहीं है, अनादि हैं, अनन्त (विनाश रहित) हैं, अपुरोहित हैं अर्थात् इनको कोई प्रेरित करने वाला नहीं है स्वतंत्र हैं, शाश्वत हैं। अपना अपना कार्य करने में समर्थ हैं। For Private And Personal Use Only قی कोई कोई पांच महाभूतों से भिन्न छठा आत्मतत्व भी स्वीकार આ મહાભૂતા કેાઈનાથી ઉત્પન્ન થતા નથી. પરંતુ અનિમિત બન્યા નથી, અનિર્માપિત છે. અથત્ કોઈનાથી બનાવેલ નથી અકૃત છે. કૃત્રિમ નથી. नाहि छे, अनंत (विनाश रडत) हे मधुरोहित छे, अर्थात् तेने अर्ध પ્રેરણા કરવા વાળા નથી. સ્વતંત્ર છે. શાશ્વત છે. પાત પાતાનુ કાર્ય કરવામાં समर्थ छे. કાઈ કાઇ પાંચ મહાભૂતા શિવાય છઠ્ઠા આત્મતત્વને પશુ સ્વીકાર Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतास्त्रे मते आत्मा अकिश्चित्करः, लोकायतिकमते तु कायाकारपरिणतान्येव पञ्चमहा भूतानि अभिव्यक्तचेतनानि आत्मव्यपदेशं लभन्ते इति, तत्र सांख्याभिमायेगाह-'सतो नत्थि विणासो, असतो नस्थि संभवो' सतो नास्ति विनाशः, असतो नास्ति संभवः । सत:-सत्तावतः पदार्थस्य विनाशो न भवति, असतः-सत्तारहितस्य पदार्थस्य न संभवः-नोत्पत्तिर्जायते इति । सम्पति-पञ्चमहाभूतवादी स्वमतं निगमयति- एतावताव जीवकाए' एतावानेव जीवकायः-इयानेव. जीवः 'एतावताव अस्थिकाए' एतावानेन अस्ति कायः,-एतावदेवाऽस्तित्वम् । 'एतावताव सवलोए' एतावानेव सर्वलोकः । 'एयं मुहं लोगस्स कारणयाए' एतत् पञ्चमहाभूतास्तित्वमेव लोकस्य मुखमिति कारणम् एतदेव कारणतया सर्वकार्येषु व्यामियते। किं बहुना-'अवि अंतसो तगमायमवि' अप्यन्तशस्तृणमात्रमपि, वृणोत्पत्ति तृणमवलनादिकमपि कार्य महाभूतान्येव कुर्वन्तीति, न तु सदतिरिक्त किमपि कारणं विद्यते। अतः पञ्चभूनादेव सर्वस्शेत्पादा दिकम्-नास्ति जीव स्तदतिरिक्तोऽपि तस्मात्-'से' स पुरुषः, किणं' करते हैं। उनका यह कथन है कि सत् का विनाश नहीं होता और असत् की उत्पत्ति नहीं होती। भूतवादी के मत को दिखला कर यह सांख्य का मत कहा गया है क्योंकि वह पांच भूतों से भिन्न आत्मा को भी स्वीकार करता है। अब पंच भूतवादी के मत को उपसंहार करते हुए कहते हैं पस इतना ही (पांच भूत ही) जीवकाय है, इतना ही अस्तिकाय अर्थात् अस्तित्व है इतना ही सम्पूर्ण लोक है। यह पांच महाभूत ही लोक के प्रधान कारण हैं ! अधिक क्या तृण की उत्पत्ति, तृग का हिलना और तृण का झुकना भी महाभूत का ही कार्य है। उनके अतिरिक्त अन्य - - કરે છે. તેઓનું કથન એવું છે કે-સતને વિનાશ થતું નથી. તથા અસની ઉત્પત્તિ થતી નથી. ભૂતવાદીને મત બતાવીને આ સાંખ્યમત બતાવેલ છે. કેમકે તેઓ પાંચ મહાભૂતથી ભિન્ન આત્માને પણ સ્વીકારે છે. હવે પાંચ મહાભૂત વાદીને મતનો ઉપસંહાર કરતા થકા કહે છે. બસ આટલું જ (પાંચ મહાભૂત જ) જીવકાય છે. એટલું જ અસ્તિકાય અર્થાત અસ્તિત્વ છે. આટલે જ સંપૂર્ણ લેક છે. આ પાંચ મહાભૂત જ લેકનું પ્રધાન કારણ છે. વિશેષ શું? તૃણની ઉત્પત્તિ, તરણનું હલવું અને તરણાનું ચાલવું. એ પણ મહાભૂતનું જ કાર્ય છે. તેના સિવાય અન્ય કોઈ જ કારણ For Private And Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - समयाबोधिनी टीका वि.व. अ. १ पुण्डरोकनामाभ्ययनम् क्रीणन्-क्रयविक्रयादिकं कुर्वन् 'किणावेमाणे' क्रापयन्-क्रयणक्रियां पति प्रेरको भवन् ‘हण' नन्-माणातिपातं कुर्वन् घायमाणे' घातयन्अपरेण प्राणातिपातं कारयन् उपलक्षणाद् अनुमोदयंश्च तथा'पयं पयावेमाणे पचन पाचयन् 'अवि अंतसो पुरिपमवि किणित्ता' अप्यन्तशः पुरुषमपि क्रीत्वा तं च पुरुषं क्रीतम् 'घायइत्ता' घातयित्वा 'गस्थि स्थ दोसो' नास्स्यत्र तद् घाते दोषः-माणातिपातादि जनितं पापं न भवति । किं पुनरेकेन्द्रियवनस्पतिघाते, इत्यपि शब्दार्थः, 'एत्थं पि जाणाहि' अनापि जानीहि, हननादौ नास्ति दोषलेशोऽपीत्यवधारय । 'ते णो एवं विपडिवेदयंति' ते नो एवं विपतिवेदयन्ति, ते एतादृशं सिद्धान्तं मन्यमाना वादिनः पञ्चमहाभूतमेव तत्वमित्या. श्रिता वक्ष्यमाणं न जानन्ति, तदेवाह-'तं जहा' तद्यथा-'किरियाइ वा क्रियेति वा 'जाव अनिरएइ वा' अनिरय इति वा, क्रियात आरभ्याऽनिरयपर्यन्तपदार्थममन्यमानास्ते 'एवं ते विरूवरूवेहि' एवं ते विरूपरूपैः-अनेकपकारकैः, 'कम्मसमारंभेहि कर्मसमारम्भैः-सावधकर्माऽनुष्ठानः 'भोयणाए' भोगाय 'विरूवरूकोई कारण नहीं है। अतएव पांच महाभूतों से ही सब की उत्पत्ति आदि होती है। उनके भिन्न कोई जीव नहीं है। ऐसी स्थिति में यदि कोई पुरुष स्वयं का विक्रय आदि करता है, क्रय विक्रय करवाता है, प्राणघात करता है, प्राणघात करवाता है, स्वयं पकाता या दूसरे से पकवाता है. यहां तक कि पुरुष को भी खरोद कर घात करता है, तो ऐसा करने में भी दोष नहीं है अर्थात् हिमा जनित पाप नहीं होता। ऐसा समझो।। पंन भूतगदी कहते हैं कि न कोई क्रिया है यावत् न नरक है, न अनरक-स्वर्ग (नरक से भिन्न कोई मति आदि) है । वे विविध प्रकार के નથી તેથી જ પાંચભૂતેથી જ સઘળાની ઉત્પત્તિ વિગેરે થાય છે તેનાથી જુદા કેઈ જીવ છે જ નહી. આવી સ્થિતિમાં જે કોઈ પુરૂષ સ્વયં કય વિકય વિગેરે કરે છે, કયવિક્રય કરાવે છે, પ્રાણઘાત કરે કરાવે છે. સ્વયં રાધે અગર બીજા પાસે રંધાવે છે, એટલે સુધી કે પુરૂષને પણ ખરીદીને તેને ઘાત કરે છે. તે તેમ કરવા માં પણ ડેષ નથી. અર્થાત હિંસાથી થનારું પાપ લાગતું નથી તેમ સમજવું. પંચ મહાભૂતવાદી કહે છે કે-કઈ ક્રિયા છે જ નહીં યાવત નરક પણ નથી અનરક પણ નથી અર્થાત્ નરકથી ભિન્ન કેઈ ગતિ વિગેરે પણ For Private And Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir co सूत्रकृतास्त्र पाई विरूपरूपान् अनेकमकारकान् ‘कामभोगाई कामभोगान-इच्छानुमोदितमनस्वकितान् ‘समारमंति' समारभन्ते-कुर्वनि बहुविधप्राण्युपमहादिकमिति । एवमेव अणारिया' एवमेव तेऽनार्याः। 'विपडिवन्ना' विप्रतिपन्नाः विपरीतभावमा. पमाः, अत एते वादिनः-अनार्या:-विपरीतविचारवन्तश्च । 'तं सहहमाणा तं पत्तियमाणा जाब इइ तच्छ्रद्दधाना स्वत्पतियन्तः यावदिति-एतादृशं पत्रमहा. भूतवादिनां धर्म श्रदधानाः केचन राजानोऽन्ये वा परिषद्गताः पुरुषा एतन्मतमेव सत्यमिति मन्यमानाः। उपदेशकमिमं वस्त्राघुपभोगसामग्रीमर्पयन्ति ते णो हनाए णो पाराय' ते-उक्तादिनः तथा यथोक्तधर्मे श्रद्धाशीलाच-नो आचे म एतस्मिन् पशुकलत्रादिलो के भवन्ति । 'नो पाराय' न वा परलोकाय मन्ति, अयमपि लोक स्तेषां हस्ताद विभ्रष्टः परलो करतु सुतरां भ्रष्ट एन, किन्तुअन्तरा कामभोगेषु अन्तरा-मध्ये काम मोगेषु 'विषण्णा' विषण्णाः निमग्नाः सन्तः -चतुर्गतिलक्ष गमनन्तसंसारं परिभ्रमन्ति । 'दोच्चे' एष द्वितीयः 'पुरिमनाए' पुरुषजातः 'पंचमहाभूइए' पाश्चमहाभूतिका 'सि आहिए' इति आख्यात इति ॥१०॥ सावय कमों द्वारा कामभोगों की प्राप्ति के लिए आरंभ समारंभ करते रहते हैं-नाना प्रकार के प्राणियों का उपमर्दन आदि करते हैं। अतएव ये अनार्य हैं, भ्रमपूर्ण विचार वाले हैं। इन पंचमहाभूतवादियों के मत पर श्रद्धा करने वाले राना आदि या अन्य पुरुष उनके मन को सत्य समझते हुए उन्हें विषयोपभोग की सामग्री प्रदान करते हैं। उक्त धर्म की प्ररूपणा करने वाले वादी तथा उस पर श्रद्वा करने वाले अनु. यापी न तो इधर के रहते हैं, न उधर के रहते हैं। वे इस लोक से भ्रष्ट होते हैं और परलोक तो उनका भ्रष्ट होना ही है। काममोगों के નથી. તેઓ જુદા જુદા પ્રકારના સાવધ કર્મો દ્વારા કામની પ્રાપ્તિ માટે આરંભ સમારંભ કરતા રહે છે અનેક પ્રકારના પ્રણિયેનું ઉપમદન (હિંસા વિગેરે કરે છે. તેથી જ તેઓ અનાર્ય છે બ્રમપૂર્ણ વિચારવાળા છે. આ પાંચ મહાભૂત વાદિના મત પર શ્રદ્ધા કરવા વાળા રાજા વિગેરે અથવા અન્ય પુરૂષ તેમના મતને સત્ય સમજતા થકા વિષપભેગની સામગ્રી આપે છે. ઉપર કહેલ ધર્મની પ્રરૂપણા કરવાવાળા વાલી તથા તેના પર શ્રદ્ધા કરવાવાળા તેમના અનુયાયી નતે અહીંના રહે છે, કે તે ત્યાંના રહે છે, તેઓ આ લેકથી ભ્રષ્ટ થાય છે. અને તેમને પરલેક તે જખ હેય જ છે. તેઓ કામોગના કાદવમાં વયમાં જ ફસાઈ જાય છે, અને વિષાદ-ખેઠને For Private And Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - समयार्थबोधिनी टीका वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् मूलम्-अहावरे तच्चे पुरिसजाए ईसरकारणिए इइ आहिज्जइ, इह खलु पाईणं वा ४ संतगइया मणुस्सा भवंति, अषुपुवेणं लोयं उववन्ना, तं जहा-आरिया वेगे जाव दुरूवा वेगे तेसिं च णं महंते एगे राया भवइ जाव सेणावइपुत्ता, तेसिंच णं एगतिए सड्डी भवइ, कामं तं समणा य माहणा य संपहारिंसु गमणाए जाव जहा मए एस धम्मे सुयक्खाए सुपन्नत्ते भवइ, इह खलु धम्मा पुरिसाइया पुरिसोत्तरिया पुरिसप्पणीया पुरिससंभूया पुरिसपज्जोइया पुरिसमभिसमण्णागया पुरिसमेव अभिभूय चिटुंति, से जहा णामए गंडे सिया सरीरे जाए सरीरे संवुड़े सरीरे अभिसमण्णागए सरीरमेव अभिभूय चिटुइ, एवमेव धम्मादिपुरिसाइया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति । से जहा णामए अरई सिया सरीरे जाया सरीरे संवुड्डा सरीरे अभिसमण्णागया सरीरमेव अभिभूय चिट्ठइ, एवमेव धम्मा वि पुरिसाद इया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिटुंति। से जहा णामए वम्मिए सिया पुढविजाए पुढविसंवुड्डे पुढवि अभिसमण्णागए पुढवि मेव अभिभूय चिट्टइ, एवमेव धम्मा वि पुरिसाइया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिटुंति। से जहा णामए रुक्खे सिया पुढविजाए पुढविसंवुड्डे पुढविअभिसमण्णागए पुढविमेव अभिभूय चिट्ठइ. कीचड में ही फस जाते हैं और विषाद को प्राप्त होते हैं। अतः चार गति वाले अनन्त संसार में परिभ्रमण करते हैं। यह दूसरा पुरुष पंच महा भौतिक कहा गया है॥१०॥ વ્યાપ્ત કરે છે. ચાર ગતિવાળા આ અનંત એવા સંસારમાં તેઓ ભટક્યા કરે છે. આ બીજો પુરૂષ તે પંચમહાભૌતિક કહેવામાં આવેલ છે. ૧ - सू० ११ For Private And Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतागसत्र एवमेव धम्मा वि पुरिसाइया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिटुंति। से जहा णामए पुक्खरिणी सिया पुढविजाया जाव पुढविमेव अभिभूयं चिटुइ, एवमेव धम्मा वि पुरिसाइया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिटुंति, से जहां णामए उदगपुक्खले सिया उदगजाए जाव उदगमेव अभिभूय चिट्ठइ, एवमेव धम्मा वि पुरिसाइया जाव पुरिसमेव अमिभूय चिटुंति । से जहा णामए उदगबुब्बुए सिया उदगजाए जाव उदगमेव अभिभूय चिट्ठइ, एवमेव धम्मा वि पुरिसाइया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिटुंति। जं पि इमं समणाणं णिग्गंथाणं उदिटुं पणीयं वियंजियं दुवालसंगं गणिपिडयं, तं जहा-आयारो सूयगडो जाव दिटिपाओ, सव्वमेयं मिच्छा, ण एवं तहियं ण एवं आहातहियं, इमं सच्चं इमं तहियं इमं आहातहियं, ते एवं सन्नं कुठवंति, ते एवं सन्नं संठवेंति, ते एवं सन्नं सोवटावयंति, तमेवं ते तज्जाइयं दुक्खं गाइ उदृति सउणी पंजरं जहा। ते णो एवं विप्पडिवेदेति, तं जहा-किरियाइ वा जाव अणिरएइ वा, एवमेव ते विरूवरूवेहि कम्मसमारंभेहिं विरूवरूवाइं कामभोगाई समारंभंति भोयणाए, एवामेव ते अणारिया विप्पडिवन्ना एवं सदहमाणा जाव इइ ते णो हठवाए णो पाराए, अंतरा कामभोगेसु विसण्णा त्ति, तच्चे पुरिसजाए ईसरकारणिए त्ति आहिए ॥सू० ११॥ For Private And Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् छाया-आयापर स्तृतीयः पुरुषजात ईश्वरकारणिक इत्याख्यायते। इह खल पाच्यां वा ४ सन्त्येके मनुष्या भवन्ति आनुपूया लोकमुपपनाः तद्यथा-आर्या वा एके यावत् दुरूपा एके, तेषां च खलु महान् एको राजा भवति यावत् सेनापतिपुत्राः। तेषां च खलु एकः श्रद्धावान् भवति कामं तं श्रमणाश्च ब्राह्मणाश्च सम्मधाः गमनाय यावत्, यथा-मया एष धर्मः स्वाख्यातः सुपज्ञप्तो भवति-इह खलु धर्माः पुरुषादिकाः पुरुषोत्तराः पुरुषप्रगीताः पुरुासंभूताः पुरुषप्रयोतिताः पुरुषमभिसमन्वागताः पुरुषमेव अभिभूय तिष्ठन्ति । तद्यथानाम गण्डः स्यात् शरीरे जातः शरीरे संटद्धः, शरीरेऽभिसमन्वागतः, शरीरमेव अभिभूय तिष्ठति एवमेव धर्मा अपि पुरुषादिका यावत् पुरुषमेव अभिभूय तिष्ठन्ति । तद्यथानाम अरतिः स्यात् शरीरे जाता शरीरे संवृद्धा शरीरे अभिसमन्वागता शरीरमेव अभिभूय तिष्ठन्ति, एवमेव धर्मा अपि पुरुषादिका यावत् पुरुष मेन अभिभूय तिष्ठन्ति । तद्यथा नाम वल्मीकं स्यात् पृथिवीजातं पृथिवीसंवृद्धं पृथिवीमभिसमन्वागतं पृथिवीमेन अभिभूय तिष्ठति, एवमेव धर्मा अपि पुरुषादिकाः यावत् पुरुषमेव अभिभूय तिष्ठन्ति । तद्यथानाम वृक्षः स्यात् पृथिवी जातः पृथिवीसंदृद्धः पृथिवीमभिसमन्वागतः पृथिवीमेव अभिभूय तिष्ठति, एवमेव धर्मा अपि पुरुषादिका यावत् पुरुषमेव अभिभूय तिष्ठन्ति । तद्यथा नाम पुष्करिणी स्यात् पृथिवी जाता यावत् पृथिवीमेव अभिभूष तिष्ठति एवमेव धर्मा अपि पुरुषादिका यावत् पुरुषमेव अभिभूय तिष्ठन्ति । तद्यथा नाम उदकपुष्कलं स्यात् उदकजातं यावद् उदकमेव अभिभूय तिष्ठति, एवमेव धर्मा अपि पुरुषादिका यावत् पुरुषमेव अभिभूय तिष्ठन्ति । तद्यथानाम उदकबुद् बुदः स्यात् उदकजातो यावद् उदकमेव अभिभूय तिष्ठति, एवमेव धर्मा अपि पुरुषादिका यावत् पुरुषमेव अभिभूय तिष्ठन्ति। यदपि चेदं श्रमणानां निर्ग्रन्थानामुद्दिष्टं प्रणीतं व्यश्चितं द्वादशाङ्गं गणिपिटकं तद्यथा-आचारस सूत्रकृतो यावद् दृष्टिवादः सर्वमेतन्मिथ्या। नैतत्तथ्यं नैतद् याथातथ्यमिदं सत्यम् इदं तथ्यम् इदं याथातथ्यम्, ते एवं संज्ञां कुर्वन्ति ते एवं संज्ञां संस्थापयन्ति ते एवं संज्ञा सूपस्थापयन्ति, तदेवं ते तज्जातीयं दुःखं नैव त्रोटयन्ति शकुनिपञ्जर यथा । ते नो एवं विपतिवेदयन्ति-तद्यथा-क्रिया इति वा यावद् अनिरय इति वा। एवमेव ते विरूपरूपैः कर्म समारम्भैः विरूपरूपान् काम भोगान् समारभन्ते भोगाय । एवमेव ते अनार्या विप्रतिपन्ना एवं श्रद्दधाना यावदिति ते नोऽर्वाचे नो पाराय अन्तरा कामभोगेषु विषण्णा इति तृतीया पुरुषजात ईश्वरकार• णिक इत्याख्यातः ॥ सू०११ ॥ For Private And Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतागास्त्र . टीका-पूर्व पुरुषद्वयं गतं, सम्पति-ईश्वरकारणिकं तृतीय पुरुषमधिकृत्याह'अहावरे' इत्यादि, 'अहावरे' 'अह' अथ- पुरुषद्वयकथनानन्तरम् 'अवरे' अपरः 'तच्चे' तृतीयः 'पुरिसजाए' पुरुषजातः 'ईसरकारणिए' ईश्वरकारणिका-ईश्वरो जगतः कारणं यस्य स ईश्वरकारणिकः आत्माद्वैतवादी 'इइ आहिज्जई' 'इत्याख्यायते 'इह खलु पाईणं वा' इह खलु मनुष्यलोके प्राच्यां वा ४ प्राच्यादि चर्दिा 'संते गइया' सन्ति एके 'मणुस्सा' मनुष्या भवन्ति । 'आणुपुग्वेणं लोयं' आनुपूर्या लोकम् 'उववना' उपपन्ना:-क्रमेणाऽस्मिल्लोके उत्पन्नाः, 'तं जहा-आरियावेगे जाव दुरूवा वेगे' आर्या वा एके यावद् दूरूपा वा एके भवन्ति, अत्र सर्व प्रथमसूत्रोक्तं वर्णनं कर्तव्यम् । 'तेसिं च णं महंते एगे राया भवइ जाव सेणावइपुत्ता' तेषां चः आर्यादीनां लोकानां मध्ये महानेकः सर्वेभ्यः श्रेष्टो राजा भवति तत्परिषदि उग्रा उग्रपुत्रा - पंच भूतवादी चार्वाक को मत प्रदर्शित किया गया और पहले के दो पुरुषों का वर्णन हो गया । अब तीसरे पुरुष के विषय में कहते हैं'महावरे तच्चे पुरिजाए' इत्यादि । टीकार्थ-तीसरा पुरुष इश्वरकारणिक कहलाता है। उसके मत के अनुसार ईश्वर जगत् का कारण है। इस मनुष्यलोक में, पूर्व आदि दिशाओं में कोई कोई मनुष्य होते हैं जो नाना रूपों में उत्पन्न होते हैं। उनमें कोई आर्य होते हैं कोई अनार्य होते हैं। उनका वर्णन प्रथम सूत्र के अनुसार जान लेना चाहिए। उनमें कोई राजा होता है, जो हिमवान् पर्वत के समान होता है, इत्यादि वर्णन भी पूर्ववत् ही यहां कह लेना चाहिए । उसकी परिषद् होती है जिसमें सेनापति आदि होते - પાંચ મહાભૂતવાદી ચાર્વાકને મત કહેવામાં આવેલ છે. તથા પહેલાના બે પુરૂષોનું વર્ણન થઈ ગયું છે. હવે ત્રીજા પુરૂષના સંબંધમાં કહેવામાં આવે छ.-'अहावरे तच्चे पुरिसजाए' त्याह ટીકાથે–ત્રીજો પુરૂષ ઈશ્વર કારણિક કહેવાય છે. તેના મત પ્રમાણે ઈશ્વર જગતનું કારણ છે આ મનુષ્ય લેકમાં પૂર્વ વિગેરે દિશાઓમાં કઈ કેઈ મનુષ્ય એવા હોય છે, કે જે અનેક રૂપમાં ઉત્પન્ન થાય છે, તેમાં કોઈ આર્ય હોય છે, કે અનાર્ય હોય છે, તેનું વર્ણન પહેલા સૂત્ર પ્રમાણે સમજી લેવું જોઈએ. તેમાં કોઈ રાજા હોય છે. જે હિમાલય પર્વત જે હોય છે. વિગેરે વર્ણન પણ પહેલા પ્રમાણે અહિયાં કહી લેવું જોઈએ. તેમની પરિષદ હોય છે. જેમાં સેનાપતિ વિગેરે હોય છે. ત્યાં પણ સંપૂર્ણ પૂર્વોક્ત For Private And Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - समयार्थबोधिनी टीका वि.व. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् इत्यारभ्य सेनापतिपुत्रा इति पर्यन्ताः सभ्या भवन्ति । अत्रापि प्रथमसूत्रोक्तरीत्या सर्वमनुसन्धेयम् । 'तेसिं च णं एगहए' तेषां च मध्ये एकः कश्चित् 'सडी भवइ' श्रद्धावान् भवति । 'कामं तं समणा य माहणा य पहारिंसु गमणाए' कामं तं श्रद्धावन्तं स्वमतानुयायिनं कर्तुं श्रमणाश्च ब्राह्मगाश्च गानाय संपधार्षुः श्रद्धालो। समीपं गन्तुं निश्चयं कुर्वन्ति श्रमणा ब्राह्मणाश्च 'जाव' यावत् , यावत्पदेन 'तत्थ' इत्यारभ्य 'भयंतारों' इति पर्यन्तं प्रथमसूत्रोक्ताठः संग्राह्यः । ते तत्र गत्वा श्रम णादयस्तं श्रद्धालु कथयन्ति । 'जहा मए एस धम्मे सुरक्खाए सुपन्नते भाई' यथा मया एष: वक्ष्यमाणो धर्मः स्वाख्यातः सुरज्ञप्तो भाति । तथाहि-'इह खलु धम्मा पुरिसाइया' इहलोके 'धम्मा' धर्मा ये सन्ति ते सोऽपि 'पुरिसाइया' पुरुषादिकाः, पुरुषा-परमात्मा, आदि:-कारणं येषां ते पुरुषादिकाः जडचेतनादिकाः । यावन्तो जडचेतनादयः पदार्थाः समुपलभ्यन्ते तेषां सर्वेषां कारणमीश्वर एव । अत्र पुरुषशब्देन इश्वरो ज्ञातव्यः । 'पुरिसोत्तरिया' पुरुषोत्तराः पुरुषः-ईश्वर एव उत्तर-प्रधानं येषां ते तथा, अथवा यथा सर्वेषामादिः परमेश्वरस्तथा तेषामुत्तरोऽपि-संहारकारकोऽपि परमेश्वर एव 'पुरिसप्पणीया' पुरुषप्रणीताः-ईश्वरहैं। यहां भी पूर्वोक्त वर्णन सारा जान लेना चाहिए । कोई कोई श्रमण या ब्राह्मण उन राजा आदि के पास, उन्हें अपने धर्म का अनु. यायी बनाने के लिए जा पहुंचते हैं । वहाँ जाकर वे उनसे कहते हैंहमारा यह धर्म -आख्यात है और सुप्रज्ञप्त है सरलता से समझा जा सकता है । हे राजन् ! हम आपको सत्य धर्म सुनाते हैं। इसे सत्य समझो। वह धर्म इस प्रकार है। इस जगत् में जो भी जड चेतन आदि पदार्थ हैं, वे मथ पुरुषादिक हैं अर्थात् उनका आदि कारण ईश्वर है, वे सथ पुरुषोत्तरिक है अर्थात् ईश्वर ही उनका संहार करता है । ईश्वर के द्वारा ही रचित है। ईश्वर વર્ણન સમજી લેવું જોઈએ. કેઈ કેઈ શ્રમણ અથવા મોહન તે રાજા વિગેરેની પાસે તેને પિતાના ધર્મને અનુયાયી બનાવવા માટે તેની સમીપે જઈ પહોંચે છે. ત્યાં જઈને તેઓ તેને કહે છે કે અમારે આ ધર્મ સુ-આખ્યાત છે. અને સુપ્રજ્ઞપ્ત છે. સરલતાથી સમજી શકાય તેવો છે. હે રાજા અમે આપને સત્ય ધર્મ સમજાવીએ છીએ અને સત્ય સમજે તે ધર્મ આ પ્રમાણે છે આ જગતમાં જડ ચેતન વિગેરે જે કઈ પદાર્થ છે, તે બધા પુરૂષ વિગેરે છે, અર્થાત્ તેનું આદિકારણું ઈશ્વર છે. તેઓ સઘળા પુરૂત્તરિક છે. અર્થાત ઈશ્વર જ તેઓને સંહાર કરે છે. ઈશ્વર દ્વારા જ તેની રચના કરાઈ For Private And Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संत्रकृतामसूत्र रचिताः। 'पुरिससंभूया' पुरुषसंभूताः-ईश्वरोत्पन्नाः 'पुरिसपज्जोइया' पुरुष पद्योतिताः -ईश्वरेण प्रकाशिताः, 'पुरिसमभिसमण्णागया' पुरुषमभिसमन्वागताः परमेश्वरमेवाऽनुगामिनः। 'पुरिसमेव अभिभूय चिटुंति' पुरुषमेव अभिभूयव्याप्य तिष्ठन्ति, सर्वे पदार्था ईश्वरमेवाऽऽश्रयी कृत्य तिष्ठन्ति। सर्वे धर्माः, ईश्वरादेव जायन्ते तस्मिन्ने ईश्वरे तिष्ठनि पलीयन्ते च तस्मिन्नेवाऽधिष्ठानेश्वरे। अस्मिन्नर्थे दृष्टान्तं दर्शयति- से जहा णामए' तद्यथानाम 'गंडे सिया' गण्डःव्रगविशेषः स्यात् 'सरीरे' शरीरे 'जाए' जातः-समुत्पन्नः। 'सरीरे संवुड़े शरीरे संदृद्धः 'सरीरे अभिसमग्णागए' शरीरेऽभिसमन्वागतः। 'सरीरमेव अभिभूय चिट्ठई' शरीरमेव अभिभूय-आश्रयी कृत्य तिष्ठति, यथा-नाम स्फोटः शरीरादेव समुत्पद्यते शरीरे एव वर्द्धते शरीरमनुगच्छति, तथा-शरोरमेवाऽऽधाररूपेणाऽऽश्रयं कृत्वा स्थितो भवति । एवमेव-'धम्मा पुरिसाइया जाव पुरिसमेत अमिभूय चिट्ठति' धर्माः सर्वे पदार्थाः पुरुषादिका यावत् पुरुषमेव-अभिभूय तिष्ठन्ति । तथासमें पदार्थाः परमेश्वरादेव जायन्ते परमेश्वरे एव बर्द्धते, तथा परमेश्वरमेवाss. धाररूपेणाऽऽश्रयं कृत्वा स्थिता भवन्ति । पुनरपि दृष्टान्तान्तरेण तमेवा दृढी से ही उनका जन्म हुआ है। वे ईश्वर के द्वारा ही प्रकाशित हैं। ईश्वर के ही अनुगामी हैं । वे ईश्वर को ही आश्रय करके स्थित हैं। तात्पर्य यह है कि जगत् के समस्त पदार्थ ईश्वर से ही उत्पन्न हुए हैं, ईश्वर में ही स्थित हैं और ईश्वर में ही लीन हो जाते हैं । इस विषय में दृष्टान्त प्रदर्शित करते हैं- जैसे फोडा शरीर से ही उत्पन्न होता है, शरीर में ही बढ़ता है, शरीर का ही अनुगमन करता है और शरीर के आधार पर ही टिकता है । इसी प्रकार समस्त पदार्थ ईश्वर से ही उत्पन्न होते हैं, ईश्वर में ही बढते हैं, और ईश्वर को ही आधार बनाकर स्थित रहते हैं। છે. ઈશ્વરથી જ તેને જન્મ થયેલ છે. તેઓ ઈશ્વર દ્વારા જ પ્રકાશિત છે, ઈશ્વરને જ અનુસરનાર છે. તે ઈશ્વરને જ આશ્રય લઈને સ્થિત છે. તાત્પર્ય એ છે કે જગતના સઘળા પહાથે ઈશ્વરથી જ ઉત્પન્ન થયા છે. ઈશ્વરમાં જ સ્થિત છે, અને ઈશ્વરમાં જ લીન થઈ જાય છે. આ વિષયમાં દષ્ટાન્ત બતાવતાં તેઓ કહે છે કે-જેમ ફેલે ફોલ્લી શરીરમાંથી જ ઉત્પન્ન થાય છે, શરીરમાં જ વધે છે. શરીરનું જ અનુશમન કરે છે. અને શરીરના આધાર પર જ ટકે છે, એ જ પ્રમાણે સઘળા પદાર્થો ઈશ્વરથી જ ઉત્પન્ન થાય છે. ઈશ્વરમાં જ વધે છે, અને ઈશ્વરને આધાર બનાવીને સ્થિત રહે છે. For Private And Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. शु. अ. १ पुण्डरोकनामा ध्ययनम् ८७ करोति - ' से जहा णामए अरई सिया सरीरे जाया सरीरे संबुड्डा सरीरे अभिसमण्णागया सरीरमेव अभिभूय चिट्ठति तद्यथा नाम अरतिः- रक्तविकारेण जायमाना लघुव्रणपुञ्जरूपा शरीरे जाता शरीरे संवृद्धा शरीरेऽभिसमन्वागता शरीरमेवाभिभूय तिष्ठति । एवमेव धम्मा वि पुरिसा दिया जाय पुरिसमेव अभिभूय चिति' एवमेव धर्माः सर्वपदार्था अपि पुरुषादिका यावत् पुरुषमेवाऽभिभूय तिष्ठन्ति । ' से जहा णामए वम्मिए सिया पुढवि जाए पुढवि संबुड़े पुढवि अभि समण्णागर पुढविमेव अभिभूय चिट्ठ' तद्यशनाम वल्मीकं स्यात् पृथिवीजातं पृथिवी संवृद्धं पृथिवीमभिसमन्वागतं पृथिवीमेत्राऽभिभूय - व्याप्य तिष्ठति 'एवमेत्र धम्मा वि पुरिसाइया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिद्वंति' एवमेव धर्मा अपि पुरुषादिका यावत् पुरुष मे वाऽभिभूय तिष्ठन्ति । 'से जहा णामए रुक्खे सिया' तयथा नाम वृक्षः स्यात् 'पुढच जाए' पृथिवी जातः 'पुढवि संबुडे' पृथिवी संद्ध: 'पुढवि अभिसम पुनः दूसरे दृष्टान्त से इसी अर्थ का समर्थन करते हैं- जैसे अरति (चित्त की उद्विग्नता) शरीर में उत्पन्न हुई, शरीर में वृद्धि को प्राप्त हुई, शरीर का ही अनुगमन करती है और शरीर के सहारे ही रहती है, इसी प्रकार सभी पदार्थ ईश्वर से ही उत्पन्न होते हैं यावत् ईश्वर के आश्रय ही रहते हैं । जैसे वल्मीक 'बांबी, गुजरातो में राफडा' पृथ्वी से उत्पन्न होता है, पृथ्वी में ही बढता है, पृथ्वी में ही अनुगत रहता है और पृथ्वी को ही व्याप्त करके ठहरता है, इसी प्रकार समस्त जड़ चेतन पदार्थ भी पुरुष से ही उत्पन्न होते हैं यावत् पुरुष के ही आश्रित रहते हैं । जैसे वृक्ष पृथ्वी से उत्पन्न होते हैं पृथ्वी में वृद्धिपाता है, और ફરીથી ખીજુ દૃષ્ટાન્ત ખતાવીને આજ હેતુને વધારે દઢ કરે છે. જેમ અરતિ (ચિત્તનુ ઉદ્વિગ્ન પણુ) શરીરમાં ઉત્પન્ન થઈ શરીરમાં વધે છે, અને શરીરનું જ અનુગમન કરે છે, અને શરીરના આશ્રયથી રહે છે. એજ પ્રમાણે સઘળા પદાર્થો ઈશ્વરથી જ ઉત્પન્ન થાય છે. યાવત્ ઈશ્વરના આશ્રયથી જ રહે છે. જેમ વલ્ભીક (રાહ્ડા) પૃથ્વીમાંથી ઉત્પન્ન થાય છે, પૃથ્વીમાં જ વધે છે, અને પૃથ્વીમાં જ સ્થિર રહે છે. અને પૃથ્વીમાં જ અનુગત રહે છે, તથા પૃથ્વીમાં જ વ્યાપ્ત થઈને રહે છે. એજ પ્રમાણે સઘળા જડ અને ચેતન પદાર્થો પશુઈમાંથી જ ઉત્પન્ન થયા છે. યાવત્ પુરૂષના આશ્રયથી રહે છે. જેમ વૃક્ષ પૃથ્વીથી ઉત્પન્ન થાય છે. પૃથ્વીમાં વધે છે, અને પૃથ્વીમાં For Private And Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ર सूत्रकृतात्सूत्रे जागए' पृथिवीमभिसमन्त्रागतः, 'पुढविमेन अभिभूय चिट्ठ' पृथिवीमेवाऽभिभूयव्याप्य तिष्ठति । 'एवमेव धम्मा वि पुरिसाइया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिडंति' एवमेव धर्मा अपि पुरुषादिका यावत् पुरुषमेवाऽभिभूय तिष्ठन्ति 'से जहा णामए' तद्यथा नाम 'क्खरिणी सिया' पुष्करिणी स्यात् वापी भवेत् 'पुढविजाया' पृथिवी जाता 'जाव पुढत्रिमेव अभिभूय चिट्ठ' यात्रत् पृथिवीमेवाऽभिभूय तिष्ठति, यथा वा वापी पृथिव्यां जायते तत्रैव तस्यामेव लीयते 'एवमेवावि पुरिसाइया जान पुरिसमेव अभिभूय विद्वेति' एवमेव धर्मा अपि पुरुषादिका यावत् पुरुषमेाऽभिभूय तिष्ठन्ति । 'से जहा णामए' तद्यथानाम 'उदपुखले सिया' उदक पुष्कलम् - उदकप्राचुर्य- जलवृद्धिः स्यात् 'उद्गजाए जात्र उदगमेव अभिभूव चिट्ठ' उदकजातं यावदुदकमेवाऽभिभूय तिष्ठति । एवमेव धम्मा विपुरिसाइया जाब पुरिसमेत्र अभिभूय चिति' एवमेव धर्मा अनि पुरुवादिका यावत् पुरुषमेधऽभिभूय तिष्ठन्ति । यथा खलु उदकवृद्धि र्जलादुभूय जल एवं स्थितं भवति, तथैव सर्वकार्यजातं पुरुषादुत्पद्य पुरुष एव तिष्ठति । ' से जहा णामर उदबुम्बुर पृथ्वी को ही व्याप्त करके ठहरता है, इसी प्रकार समस्त पदार्थ पुरुषसे ही उत्पन्न होते हैं और पुरुष को ही व्याप्त करके ठहरते हैं। 'जैसे वापी 'वावडी' पृथ्वी से उत्पन्न होती है, यावत् पृथ्वी को ही व्याप्त करके रहती है और पृथ्वी में ही विलीन हो जाती है, इसी प्रकार समस्त पदार्थ पुरुष से ही उत्पन्न होते हैं यावत् पुरुष को ही व्याप्त करके रहते हैं। जैसे जल की वृद्धि जल से ही होती है, और जल को ही व्यास करके रहती है, इसी प्रकार समस्त पदार्थ पुरुष ईश्वर से ही उत्पन्न हुए हैं और पुरुष के ही आश्रय से रहते हैं । જ વ્યાસ થઈને રહે છે. એજ પ્રમાણે સઘળા પદાર્થાં પુરૂષથી જ ઉત્પન્ન થાય છે. અને પુરૂષમાં જ વ્યાપ્ત થઈને રહે છે. જેમ વાવ પૃથ્વીમાં ઉત્પન્ન થાય છે, યાવત્ પૃથ્વીમાં જ ગૃપ્ત થઈને રહે છે, અને પૃથ્વીમાં જ વિલીન થઈ જાય છે. એજ પ્રમાણે સઘળા પદાર્થો પુરૂષથી જ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. ચાવત્ પુરૂષને જ ન્યાત થઈ ને રહે છે. જેમ જળની વૃદ્ધિ જળથી જ થાય છે. અને જળને જ વ્યાપ્ત થઈને રહે છે, એજ પ્રમાણે સઘળા પદાર્થાં પુરૂષ-ઈશ્વરથી જ ઉત્પન્ન થાય છે, અને પુરૂષના જ આશ્રયથી રહે છે, For Private And Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् सिया' तद्यथा नाम-उदकबुबुदः स्यात् 'उदगजाए जाव' उदकनातो यावद 'उदगमेव-अभिभूय चिढई' उदकमेगाऽभिधूय तिष्ठति। एवमेव धम्मा वि' एकमेव धर्मा अपि पुरिसाइया जाव' पुरुषादिका यावत् 'पुरिसमेव अभिभ्य चिति' पुरुषमेवाऽमिभूय तिष्ठन्ति । जि पि य इमं समगाणं णिग्गंथाणं उदिहं पणीयं वियंजियं दुवालसंगं गणिपिडयं' यदरि चेदं श्रमणानाम्-आर्हताना-निर्ग्रन्थानाम्मुनीश्वराणाम् उद्दिष्टम्-उपदिष्टम् प्रगीत-तदर्थ कथ नेन व्यञ्जित तेषामभिव्यक्ती. कृतं द्वादशाङ्गम् आचाराङ्गादि दृष्टिवादपर्यन्तं गणिपिटकं गणिनां पिटकवत् पिटकं मषारूपम् 'तं जहाँ तद्यथा-'आयारो मृयगडो जा। दिद्विवाओं' आचारः सूत्रकृतो याचद् दृष्टिवादः 'सबमेयं मिच्छा' समेतन्मिथ्या, निनोक्तं शास्त्रं प्रा. चननिर्मूलत्वान् मिथ्या, अनीश्वरमगीतत्वात् , 'ण एवं तहियं ण एयं आहातहियं' नैतत् तथ्यम्-न सत्यम् , नैतद् याथातथ्यम्-न यथावस्थितार्थकम् 'इमं सच्चं इमं आहातहिय' इदमस्माभिः प्रतिपादितं शास्त्रं सत्यम् , इदमेव तथ्यम्-यथाऽवस्थि. ताऽर्थप्रकाशकम् , 'ते एवं सन्नं कुव्वंति' ते-ईश्वरकारणिका एवं संज्ञां कुर्वन्ति ज्ञानं दधते 'ते एवं सन्नं संठवेंति, ते एवं सन्नं सोवट्ठावयंति' ते एवं संज्ञां ज्ञानं संस्थापयन्ति, ते एवं संज्ञां सूपस्थापयन्ति-सुष्टुतया स्वमतस्थापन कुर्वन्ति । शास्त्रकारस्तन्मतं निराक माह-सुधर्म स्वामी जम्बूस्वामिनं प्रत्याह-हे जम्बू स्वामिन् ! 'तमेवं ते तज्जाइयं दुक्खं णातिउठेति' तदेवं ते तज्जातीयं __ जैसे जल का बुलबुला जल से ही उत्पन्न हुआ यावत् जलके आश्रय से रहता है, उसी प्रकार समस्त पदार्थ पुरुष से ही उत्पन्न होते हैं और यावत् पुरुष के ही आश्रित रहते हैं। श्रमण निर्ग्रन्थों के द्वारा उपदिष्ट आचरांग से लेकर दृष्टिवाद से पर्यन्त जो द्वादशांग गणिपिटक है, वह मिथ्या है और हमारा ही मत श्रेष्ठ है, श्रेयस्कर है, उद्धारकती है। ईश्वरकारणवादियोंका यह कथन है। इस प्रकार कथन करते हुए अपने मत के अनुसार જેમ પાણીના પરપોટા પાણીથી જ ઉત્પન્ન થાય છે, યાવત્ જલના આશ્રયથી રહે છે, એ જ પ્રમાણે સઘળા પદાર્થો પુરૂષથી જ ઉત્પન થાય છે. અને યાવત્ પુરૂષના આશ્રયથી જ રહે છે. શ્રમણ નિ દ્વારા ઉપદેશેલ આચારાંગથી લઈને દષ્ટિવાદ પર્યન્ત જે દ્વાદશાંગ ગણિપિટક છે, તે મિથ્યા છે. અને અમારે મતજ શ્રેષ્ઠ છે. શ્રેયસ્કર છે. ઉદ્ધાર કરવાવાળે છે. ઈશ્વર કારણ-વાદિયેનું એવું કથન છે. આ પ્રમાણે કથન કરતા થકા પિતાના મત અનુસાર લોકોને અનેક અને For Private And Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतागले लोगों को अनेक अनर्थों के जनक एवं संसार में परिभ्रमण कराने वाले कार्यों में प्रवृत्त करते हुवे वे स्वयं भी सावध अनुष्ठान में प्रवृत्त होते हैं। इस प्रकार दोनों ओर से भ्रष्ट होकर वारंवार संसारचक्र को ही प्राप्त होते हैं। वे दुःख सागर से किसी भी प्रकार त्राण नहीं पाते हैं। इस प्रकार संसार सागर में कर्म रूपी कीचड़ में फंसे हुए पुरुष के रूप में पुरुकरिणी के कीचड़ में फंसे तीसरे पुरुष का व्याख्यान किया गया है। वे इस प्रकार कहते हैं-आचारांग, सूत्रकृतांग यावत् दृष्टिवाद यह सब जिनोक्त शास्त्र मिथ्या हैं, क्योंकि निर्मूल है, न ये तथ्य हैं, न याथातथ्य हैं। हमारे द्वारा प्रतिपादित शास्त्र सत्य हैं, यही वास्तविक अर्थ के प्रकाशक हैं। वे ऐसा समझाते हैं और इसी मत को सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं-हे जम्बू ! वे इस मत को स्वीकार करने से उत्पन्न होने वाले दुःख को नष्ट नहीं कर सकते, કરવાવાળા અને સંસારમાં પરિભ્રમણ કરવાવાળા કાર્યોમાં પ્રવૃત્ત કરતા થકા તેઓ સ્વયં પણ સાવધ અનુષ્ઠાનમાં પ્રવૃત્ત રહે છે. આ રીતે બને બાજુથી ભ્રષ્ટ થઈને વારંવાર સંસાર ચક્રને જ પ્રાપ્ત કરે છે. તેઓ દુખ રૂપી સંસાર સાગરથી કેઈ પણ પ્રકારે રક્ષણ મેળવી શકતા નથી. આ રીતે સંસાર સાગરમાં કર્મ રૂપી કાદવમાં ફસાયેલાને પુરૂ ૧ના રૂપથી વાવના કાદવમાં ફસાયેલ ત્રીજા પુરૂષના વ્યાખ્યાન પ્રમાણે સમજવા. તેએ આ રીતે કહે છે. આચારાંગ-સૂત્રકૃતાંગ યાવત દષ્ટિવાદ આ સઘળું છોક્ત શાસ્ત્ર મિથ્યા છે. કેમકે તે નિર્મળ છે. તે તથ્ય નથી તેમજ માથાત પણ નથી અર્થાત્ તેમાં સત્યપણું નથી. અમે એ પ્રતિપાદન કરેલ શા સત્ય છે. એજ વાસ્તવિક અર્થને પ્રકાશ કરનાર છે. તેઓ આ રીતે સમજે છે. અને સમજાવે છે. અને એજ મતને સિદ્ધ કરવાને પ્રયાસ કરે છે. સુધમાં સ્વામી જબ્બે સ્વામીને કહે છે–હે જબૂ તેઓ આ મતને સ્વીકાર કરવાથી ઉત્પન્ન થવાવાળા અને નાશ કરી શકતા નથી. નિર્દોષ For Private And Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् दुखं नैव त्रोटयन्ति, निष्कलङ्कशास्त्रस्य निन्दनात् तद्विपरीतकुशास्त्रप्रतिपादितजीववधादिकुत्सित कर्मकरणात् तादृश कर्म ननिताऽशुभात्मकबन्धनस्य विनाशने समर्था न भानस्तस्मिन् संपारचक्रे एवं परिभ्रमन्ति । आऽर्थेऽनुरूपं दृष्टान्तं पदर्शयति-'सउणी नरं जहा' शकुनिः पक्षी यथा पञ्जरम् , यथा शकुनिः पञ्जरबन्धन बोटने समर्थो न भवति, बद्धत्वादेव तथा ते वादिनोऽपि संसारचक्रं नाति. कामन्ति सोपार्जिताऽशुभकर्मवद्वतादिति। 'ते णो एवं विपडिवेदेति' ते नो एवं विपतिवेदयन्ति, मोक्षमार्ग न सम्यग् जानन्ति, 'तं जहा-किरियाइ वा जाव अणि. रए वा तद्यथा क्रियेति वा यावद् अनिरय इति वा, क्रिपादेरारभ्य अनिरयान्तं सुकृतदुष्कृतादिकमेतदध्ययनदशममूत्रपतिपादितं वस्तु न जानन्ति यावच्छब्देन निर्दोष शास्त्र की निन्दा करने और उससे विपरीत कुशास्त्र में प्रतिपा. दित जीव हिंसा आदि कुकृत्यों को करने के कारण उत्पन्न होने वाले अशुभ बन्धन को नष्ट करने में समर्थ न होते हुए संसार चक्र में ही परिभ्रमण करते रहते हैं। इस विषय में अनुरूप दृष्टान्त प्रदर्शित करते हैं-जैसे पक्षी पिंजरे के बन्धन को तोड़ने में समर्थ नहीं हो पाता, उसी प्रकार वे वादी भी संसार चक्र का उल्लंघन नहीं कर सकते, क्योंकि वे अपने द्वारा उपा. जिंत अशुभ कर्मों से बंधे हुए हैं । वे मोक्षमार्ग को स्वीकार नहीं करते। वे कहते हैं-न क्रिया है न अक्रिया है यावत् न नरक है, न नरक के अतिरिक्त अन्य कोई लोक अर्थात स्वर्ग-आदि अनरक है। अर्थात् इसी अध्ययन के दसवें सूत्र में कही हुई पुण्य पाप आदि वस्तुओं को वे स्वीकार શાસ્ત્રની નિંદા કરવાથી અને તેનાથી ઉલ્ટા કુશાસ્ત્રમાં પ્રતિપાદન કરેલ છવહિંસા વિગેરે કુકૃત્યને કરવાથી ઉત્પન્ન થવાવાળા અશુભ બને નાશ કરવામાં સમર્થ ન થતા સંસાર ચક્રમાંજ પરિભ્રમણ કરતા રહે છે. આ વિષયમાં તેને પૈગ્ય દષ્ટાન્ત બતાવતાં કહે છે કે–જેમ પક્ષી પાંજરાના બંધનને તેડવામાં સમર્થ થઈ શક્તા નથી, એ જ પ્રમાણે તે વાતીઓ પણ સંસાર ચક્રનું ઉલ્લંઘન કરી શકતા નથી. કેમકે તેઓ પિતા નાથી ઉપાર્જીત કરેલા, અશુભ કર્મોના બંધનથી બંધાયેલા હોય છે. તેઓ મેક્ષમાર્ગને સ્વીકાર કરતા નથી, તેઓ કહે છે કે-કિયા નથી, તેમજ અદિયા પણ નથી, યાવત્ નરક નથી. તેમ નથી જુદો એ બીજે કઈ લેક પણ નથી. અર્થાત્ અનરક પણ નથી. તેમજ આ અધ્યયનના દસમા સૂરમાં કહેલ For Private And Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुत्रकृतासूत्रे " अक्रिया - सुकृत- दुष्कृत - कल्याण- पाप-साध्वसाधु-सिद्ध्यसिद्धि निरयपर्यन्तस्य ग्रहणं भवति । 'एवमेव ते विरूवरूवेहिं कम्म समारंभेहिं विरूत्ररूवाई कामभोगाई' एवमेव ते विरूपरूपैः कर्म समारम्भः - अनेकमकारककर्मभिः विरूपरूपान - नानाप्रकारकान् 'कामभोगाई' कामभोगान्-शब्दादिस्वरूपान् 'मोयणाए' उपभोगाय 'समारभंति' समारभन्ते - कर्मसमारम्भं कुर्वन्तीति भावः । ' एवामेव ते आगारिया विष्पविन्ना' एवमेत्र ते अनार्यां विप्रतिपन्नाः - विपरीत भावमापन्नाः समभवन् ' ' एवं सदहमाणा' एवं श्रद्दधानाः 'जाव इइ' यावदिति । 'ते णो हव्वाए णो पाराए' नो अवचे नो पाराय किन्तु - 'अंतरा कामभोगेसु विसण्णा' अन्तरामध्ये कामभोगेपु - इच्छामदनरूपेषु विषण्णा निमग्ना भवन्ति 'त्ति' इति ' तच्चे पुरिस जाए' तृतीयः पुरुषजातः 'ईसरकारजिर ति आदिए' ईश्वरकारणिक इत्याख्यातः । अयमेव तृतीयः पुरुषो यः पश्चिमदिग्विभागादागत्य स्वीयं पाण्डित्यं प्रदर्शयन् पुष्करिणीमध्यस्थितं मोक्षात्मपद्म वरपुण्डरीकमानेतुं संसारपुष्करिण्यां प्रवि नहीं करते हैं। यहाँ 'यावत्' शब्द से अक्रिया सुकून दुष्कृत कल्याण, पाप, साधु, असाधु, सिद्धि, असिद्धि एवं नरक पर्यन्त का ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार वे विविध प्रकार के आरंभ-समारंभ करके नोना प्रकार के कामभोगों को भोगने के लिए सावध कर्म करते हैं । इस प्रकार की श्रद्धा करते हुए वे अनार्य हैं, विपरीत मान्यता ग्रहण किये हुए हैं। वे न इधर के हैं, न उधर के हैं। बीच में ही इच्छा और मदन रूप काम भोगों में निमग्न होते हैं । यह तीसरा पुरुष ईश्वर कारणवादी कहा गया है । यह वह तीसरा पुरुष है जो पश्चिम दिशा से आकर अपने पाण्डित्य को प्रकट करता हुआ पुष्करिणी के मध्य में स्थित मोक्षरूपी प्रधान पुण्डरीक को लाने के પુણ્ય, પાપ વગેરેના તેએ સ્વીકાર કરતા નથી. અહિયાં યાવત શબ્દથી અક્રિયા सुतं, हुष्ठुत, मुल्यागु, पाप, साधु, असाधु, सिद्धि असिद्धि गाने नर સુધીના તેએ સ્વીકાર કરતા નથી તેમ સમજવુ. આ રીતે તેએ અનેક પ્રકારથી મારભ, સમારભ કરીને અનેક પ્રકારના કામલેગાને ભગવવા માટે સાવદ્ય કમ કરે છે. આ પ્રમાણેની શ્રદ્ધા કરતા થકા તેઓ અનાય છે. વિપરીત માન્યતા ગ્રહણ કરેલ છે. તેઓ અહિંના નથી. તેમ ત્યાંના પણ રહેતા નથી, લચમાં જ ઈચ્છા અને મન રૂપ કામભોગોમાં નિમગ્ન રહે છે. આ ત્રીજો પુરૂષ ઈશ્વર કારણવાદી કહેલ છે. આ ત્રીજો પુરૂષ છે, કે જે પશ્ચિમ દિશાએથી આવીને પેાતાના પાંડિત્યને પ્રગટ કરતા થકા વાવની મધ્યમાં રહેલ મેાક્ષરૂપી પ્રધાન પુંડરીક-કમળને લાવવા માટે સંસાર રૂપી For Private And Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् शन् सर्वशास्त्रपतिपादितज्ञानादिमार्गस्याऽविद्वान् कर्मप) निमग्नो विनिषीदन्नेव तिष्ठति। ईश्वरस्य जगत्कर्तृवे युक्तरभावात्, तथा सर्वस्याऽऽत्मरूपत्वे. भवविरोधात् उभावरि पक्षौ-अनङ्गीकारपराहतौ इति मू०११ । मूलम्-अहावरे चउत्थे पुरिसजाए णियइवाइए त्ति आहिज्जइ, इह खलु पाईणं वाह, तहेव जाव सेणावइपुत्ता वा, तेसिं घणं एगइए सड्डी भवइ, कामं तं समणा य माहणा य संपहारिंसु गमणाए जाव मए एस धम्मे सुअक्खाए सुपन्नत्ते भवइ । इह खल्लु दुवे पुरिसा भवंति एगे पुरिसे किरियमाइ. क्खइ, एगे पुरिसे णो किरियमाइक्खइ। जे य पुरिसे किरियमाइक्खइ जे य पुरिसे णो किरियमाइक्खइ दो वि ते पुरिसा तुल्ला एगटा कारणमावन्ना। बाले पुण एवं विप्पडिवेदेड, कारणमावन्ने अहमंसि दुक्खामि वा सोयामि वा जूरामि वा तिप्पामि वा पीडामि वा परितप्पामि वा अहमेयमकासि परोवा लिए संसार रूपी पुष्करिणी में प्रविष्ट हुआ और सर्वज्ञ प्रतिपादित ज्ञानादि रूप मोक्षमार्ग को न जानने के कारण कर्मरूपी कीचड़ में फंस कर विषाद को प्राप्त हुआ। ईश्वर जगत् का का है, इस पक्ष को सिद्ध करने के लिए कोई यक्ति नहीं है। सभी पदार्थों को आत्मस्वरूप आत्ममय माना अनुभव से बाधित है । अतएव ये दोनों पक्ष अंगीकार न करने से ही खंडित हो जाते हैं ॥११॥ વાવમાં પ્રવેશ કર્યો અને સર્વજ્ઞ દ્વારા પ્રતિપાદન કરેલા જ્ઞાનાદિરૂપ મેક્ષમાર્ગને ન જાણવાના કારણે કર્મરૂપી કાદવમાં ફસાઈને ખેદને પ્રાપ્ત થયેલ છે. ઈશ્વર જગત્ન કર્તા છે. આ પક્ષને સિદ્ધ કરવા માટે કોઈ પણ યુક્તિ નથી. સઘળા પદાર્થોને આત્મ સ્વરૂપ આત્મમય માનવામાં અનુભવથી બાધ આવે છે. તેથી જ આ બંને પક્ષોને અંગીકાર ન કરવાથી જ તે ખંડિત जय छे. ॥११॥ - - - For Private And Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतात्रे जे दुक्खइ वा सोयइ वा जूरइ वा तिप्पइ वा पीडइ वा परितप्पड़ वा परो एवमकासि, एवं से बाले स कारणं वा परकारणं वा एवं विप्पडिवेदेइ कारणमावन्ने । मेहावि पुण एवं विप्पडिवेदेइ कारणमावन्ने अहमंसि दुक्खामि वा सोयामि वा जूरामि वा तिप्पामि वा पीडामि वा परितप्पामि वा णो अहं एवमकासि परो वा जं दुक्खड़ वा जाव परितप्यइ वा णो परो एवमकासि, एवं से मेहावी सकारणं वा परकारणं वा एवं विप्पडिवेदेह कारणमावन्ने, से बेमि पाईणं वा ४ जे तसथावरा पाना ते एवं संघाय मागच्छंति ते एवं विपरियासमावज्जति ते एवं विवेगमागच्छति ते एवं विहाणमागच्छति ते एवं संगतियंति उवे - हाए, ण एवं विपडिवेति तं जहा -किरियाइ वा जाव णिरएइ वा अणिरएइ वा एवं ते विरूवरूवेहिं कम्म समारभेहि विरूवा कामभोगाई समारभंति भोयणाए । एवमेव ते अणारिया विपडिवन्नो ते सद्दहमागो जाव इइ ते णो हव्वाए जो पारा अंतरा कामभोगेसु विसण्णा । उत्थे पुरिसजाए णियइवाइए ति आहिए इच्वेते चत्तारि पुरिसजाया णाणापन्ना णाणाछंदा णाणासीला णाणादिट्ठी णाणारुई णाणारंभा णाणाअज्झवसाणसंजुत्ता पहीणपुण्वसंजोगा आरियं मग्गं असंपत्ता इइ ते णो हव्वा णो पाराए अंतरा कामभोगेसु विसण्णा | १२| छाया - अथापरचतुर्थः पुरुषो नियतिवादिक इत्याख्यायते । इह खलु प्राच्यां वा ४ तथैव यावत् सेनापतिपुत्राः । तेषां च खल्ल एकः श्रद्धावान् भवति कामं तं श्रमणाच ब्राह्मगाव संप्रधार्षुः गमनाय यावद् मया एष धर्मः स्वाख्यातः For Private And Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. झु. म. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् ९५ " सुप्रज्ञप्तो भवति । इह खलु द्वौ पुरुषो भवतः एकः क्रियामा ख्याति एकः पुरुषो नो क्रियामाख्याति । यश्व पुरुषः क्रियामारूपाति यश्च पुरुषो नो क्रियामाख्याति, द्वापि तौ पुरुष तुल्यौ, एकार्थी एककारणमात्रौ । बालः पुनरेवं विपतिवेदयति-कारणमापन्नोऽहमस्मि दुःख्यामि वा शोचामि वा विद्यामि वा तेपे वापीडयामि वा परितप्ये वा अहमेवमकार्षम् । परो वा यद् दुःख्यति वा शोचति वा विद्यति वा तेपते वा पीडयति वा परितप्यते वा परः, एवमकार्षीत् । एवं स बालः स्त्रकारणं वा परकारणं वा एवं विपतिवेदयति कारण मापन्नः । मेधावी पुनरेवं विमतिवेदयति कारणमापन्नः अहमस्मि दुःख्यामि वा खिद्यामि वा तेपे वा पीडयामि वा परितप्ये वा नाहमेवमकार्षम् । परो वा यद् दुःख्यति यावत् परितप्यते वा न परः एवप्रकार्थीत् । एवं स मेधावी स्वकारणं वा परकारणं वा एवं विप्रविवेदयति कारणमापन्नः । अथ बरोमि प्राच्यां वा ४, ये सस्थावराः प्राणाः ते एवं सङ्घातनागच्छन्ति, ते एवं विपर्यासमागच्छन्ति ते एवं विवेागच्छन्ति ते एवं विधानमागच्छन्ति, ते एवं सङ्गतिं यन्ति उत्प्रेक्षया । नो एवं विपतिवेदयन्ति तयथा क्रिया-इति वा यावन्निरय इति वा, अनिरय इति वा । एवं ते विरूपरूपैः कर्मसमारम्भः विरूपरूपान् कामभोगान् समारभन्ते: भोगाय एवमेव ते अनार्यां विमतिपन्नास्तत् श्रद्दधानाः यावदिति तं नो अवचे नो पाrय अन्तरा कामभोगेषु विषण्णः चतुर्थः पुरुषो नियतिवादिक इत्याख्यायते इत्येते चत्वारः पुरुषजातीयाः नाना मज्ञाः नाना छन्दाः नाना शीलाः नाना दृष्टयः नाना रुचयः नाना रम्भाः नानाऽध्यवसानसंयुक्ताः प्रीण पूर्वसंजोगाः आयें मार्गम् अप्राप्ता इति नो अचे नो पाराय अन्तरा काम भोगेषु विषण्णाः ॥सूस १२ ॥ • टीका - तृतीयपुरुषपर्यन्तं निरूप्य चतुर्थ पुरुषमाह - ' अहावरे' इति । 'अह' तृतीय पुरुषानन्तरम् 'अवरे चउथे पुरिसजाए गियइवाइपत्ति आहिज्ज' अपरश्वतुर्थः पुरुष जातः - नियतिवादिक इत्याख्यायते । 'इह खलु पाईं वा ४ तहेब जाव सेणावपुला वा, इह खलु माच्यां वा तथैव यावत् सेनापतिपुत्रा वा । इहाऽपि 'अहावरे चउरथे पुरिसजाए' इत्यादि । टीकार्थ- तीसरे पुरुष का वर्णन करके अब चौथे पुरुष का वर्णन करते हैं । यह चौथा पुरुष नियतिवादी कहा गया है। यहां भी पुष्करिणी की पूर्वदिशा से आरंभ करके राजा, परिषद् सेनापतिपुत्र पर्यन्त 'अहावरे चत्थे पुरिसजाए' छत्याहि ટીકાથ—ત્રીજા પુરૂષનું વઘુન કરીને હવે ચેાથા પુરૂષનું વર્ણન કરવામાં આવે છે. આ ચેથાપુરૂષ તે નિયતિવાદી સમજવા. અહિયાં પણુ વાવની પૂર્વક્રિશાએથી આર’ભીને રાજા, પિરષદ સેનાપતિ પુત્ર પર્યન્તના આ For Private And Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे पुष्करिण्याः पूर्वदिशात आरभ्य राजसदस्यपरिषत् सेनापतिपुत्रपर्यन्ताः सर्वेऽपि पदार्था एतदध्ययनमथमसूत्रपदे अनुसन्धेयाः । 'तेसिं च णं एनईए सड़ी भव' तेषां खल्वेकः श्रद्धावान् भवति । 'कामं तं समणा य माहणा य संपहारिसु गमणाए ' कामं स्वेच्छया तं श्रद्धालुं ज्ञात्वा तत्समीपम् 'गमणाए' गमनाय गन्तुम् 'सम णाय' श्रमणाच ' महणाय' ब्राह्मगाव 'संपदारिंस' संपधार्षुः - निश्चिन्वन्ति, निश्चित्य - श्रद्धालोरन्तिकं गया कथयन्ति । 'जाव मए एस धम्मे सुरवा सुन्नते भव' यावन्मया एष धर्मः स्वाख्यातः सुपज्ञप्तो भाति, भो धर्माभिलाषुक ! अहं भवते सत्यं धर्ममुपदिशामि तं भवन्तः सावधानमनसः वन्तु 'इह खल दुवे पुरिसा भवेति' इह-अस्मिन् लोके खलु निश्वेन 'दुवे पुरिसा' द्वौ - द्विप्रकारको पुरुषों मवतः । ' पुगे पुरिसे किरियमाखः एकः पुरुषः क्रियामारूपाति, क्रियया स्वर्गमोक्षो भत्रत इति प्रतिपादयति । 'एगे पुरिसे णो किरियमाइक्खड़' एकः पुरुषो नो क्रियामाख्याति 'जे य पुरिसे किरियमाइक्व इस अध्ययन के प्रथम सूत्रपद में कथित सब विषयों का कथन समझ लेना चाहिए। उनमें से कोई धर्मश्रद्धावान् होना है। उसे श्रद्धावान् समझ कर कोई श्रमण अथवा ब्राह्मण अपनी इच्छा से उसके समीप जाने का निश्चय करते हैं और उन श्रद्वालु राजा आदि के समीप जाकर कहते हैं - हमारा यह धर्म सु आख्यात है, सरलता से समझ में आने योग्य है। हे धर्म के अभिलाषी ! मैं आप को सत्य धर्म का उपदेश करता | आप उसे सावधान होकर सुनिए । इस लोक में दो प्रकार के पुरुष होते हैं। एक वह है जो क्रिया के द्वारा ही स्वर्ग मोक्ष होना कहता है और दूसरा वह है जो क्रियावादी नहीं है अर्थात् क्रिया से स्वर्ग मोक्ष का होना नहीं मानता है। जो क्रिया અધ્યયનના પહેલા સૂત્રમાં કહેલ સઘળા વિષયેતુ' કથન સમજી લેવુ' જોઇએ. તેમાંથી કોઈ ધમ શ્રદ્ધાવાન્ હાય છે. તેને શ્રદ્ધાવાન સમજીને કોઇ શ્રમણુ અથવા બ્રાહ્મણુ પાતાની ઇચ્છાથી તેની પાંસે જવાની ઈચ્છા કરે છે. અને તે શ્રદ્ધાળુ રાજાની પાંસે જઈને કહે છે કે-અમારો આ ધમ સુઆખ્યાત છે. અને સરલ પણાથી સમજી શકાય તેવા છે. હું ધર્મના અભિલાષી! હું આપને સત્ય ધર્મના ઉપદેશ કરૂ છું. આપ તેને સાવધાન થઈને સાંભળેા. આ લાકમાં બે પ્રકારના પુરૂષા હેાય છે. એક તે તે છે કે જેઓ ક્રિયા દ્વારા જ સ્વર્ગ અને મેક્ષ થવાનું કહે છે. અને બીજો એ છે કે જે ક્રિયાવાદી નથી. અર્થાત્ ક્રિયાથી સ્વગ અને મેક્ષ થવાનું સ્વીકારતા નથી જે For Private And Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.१ पुण्डरीकनामाध्ययनम् यश्च पुरुषः क्रियामाख्याति प्रतिपादयति 'जे य पुरिसे नो किरियमाइक्सई' यश्च पुरुषो नो क्रियामाख्याति 'दो वि ते पुरिसा तुल्ला एगट्ठा कारणमावन्ना द्वावपि तौ पुरुषौ तुल्यौ-समानौ, 'एगट्ठा' एकार्थो कारणमापन्नौ एकं नियतिरूपं कारणमाश्रित्य तुल्यौ स्तः किन्तु-'बाले पुण' वाल:-:-कालेश्वरादिवादी पुनः ‘एवं' एवम्-उक्ष्यमाणरीत्या 'विपडि वेदेई' विप्रतिवेदयति जानाति, कारणमावन्ने' कारणमापन्नः, सुखदुःखमुकृतदुष्कृतप्रभृते: कारणं स्वकृत एव पुरुषकारः कालेश्वरादिवाऽस्तीत्येवं कारणमभ्युपपन्नः नान्यभियत्यादिकं कारणमस्तीति, तदेवाह-'अहमंसि' अहमस्मि 'दुक्खामि वा' दुःख्यामि-शारीरमानसिकं दुःखमनुमामि 'सोयामि वा' शोचामि-इष्टाऽनिष्टवियोगसंयोगजन्य शोकमनुभवामि 'जूरामि वा विद्यामि-मानसिकखेदमनुभवामि तिप्पामि वा' तेपे-शारीरबलक्षरणेन क्षरामि 'पीडामि वा पीडयामि-सबाह्याभ्यन्तरतया पीडा. मनुभवामि परितप्पामि वा' परितप्ये हृदयान्तरः परितापमनुभवामि, यदहं दुःखा. दिकमतुभवामि तत्सर्वमपि 'अहमे पपकासि अहमेवमकार्षम्, यन्मया दुःखादिकं मोक्ष्यते तत्समें मम कतकर्मण एव फलं नाऽभ्यस्य । 'परो वा जं दुक्खा वा सोयह वा जूरइ वा तिप्पइ वा पीडइ या परितप्पइ वा परो वा यद् दुख्यति वा शोचति को मानता है और जो क्रिया को नहीं मानता है, यह दोनों पुरुष समान है, दोनों एक ही कारण को प्राप्त हैं । ये दोनों ही अज्ञानी है, क्योंकि इन्हें तरथ का ज्ञान नहीं है कि नियति से ही सभी कुछ होता है। कारण को मानने वाला अज्ञानी ऐसा समझता है। कि काल, कर्म, ईश्वर आदि ही फल के जनक हैं। वे समझते हैं कि मैं जो दुःख भोग रहा हूं, शोक पा रहा हूं, दुःख से आत्मग्लानि पा रहा हूं, शारीरिक शक्ति को नष्ट कर रहा हूं, पीड़ित हो रहा हूं, और संतप्त हो रहा हूं, यह सब मेरे किये कर्म का फल है अथवा दूसरा कोई जो दुःख पा रहा ક્રિયાને સ્વીકારે છે. અને જે ક્રિયાને માનતા નથી આ અને પુરૂષે સરખા જ છે. અને એક જ કારણને પ્રાપ્ત થયેલા છે. આ બને અજ્ઞાની છે. કેમ કે તેઓને તત્વનું જ્ઞાન નથી. તેઓ એવું કહે છે કે નિયતથી જ સઘળું થાય છે. કારણને માનવા વાળા અજ્ઞાની એવું સમજે છે કે-કાળ, કર્મ, ઈશ્વર, વિગેરેજ ફલના આપવા વાળા છે. તેઓ સમજે છે કે હું જે દુઃખ ભોગવી રહ્યો છું શોક પામી રહ્યો છું. દુખથી આત્મગ્લાની પામી રહ્યો છું. શારીરિક શક્તિને નાશ કરી રહ્યો છું. પીડા પામી રહ્યો છું. અને સંતાપ પામી રહ્યો છું. આ બધું મારા કરેલા કર્મનું જ ફળ છે. અથવા બીજા કેઈ જે દુઃખ પામી રહ્યા છે, શોક પામી રહ્યા છે, આમગ્લાનિ કરી રહ્યા છે, શારીરિક ९०१३ For Private And Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे ला-खिपति वा तेपते वा पीडयति वा परितप्यते वा, तत्र दुख्यति-दुःखं माप्नोति, शोचति-शोकं माप्नोति वा, खिद्यति-खेदं प्राप्नोति तेषते वा-दुःखाविरेकेण तापं प्राप्नोति, पीडयति-पीडां माप्नोति, परितप्यते-परितापं प्राप्नोति, परो एचमकासि' पर एवमकार्षीत् यदन्यो वा दुःखादिकमनुभवति-तत्सर्वं स्वयं परपीडोत्पादनेन कृतवान, तत् तस्य स्वसंपादितकर्मण एव फलम् । 'एवं से बाले सकारण वा परकारणं वा एवं विपडिवेदेइ कारणमावन्ने' एवं स बालः स्वकारण या परकारणं वा एवं विप्रतिवेदयति कारणमापनः । एवं सोऽज्ञानी कालकर्मपरमेश्वरादीनां सुखदुःखकारणत्वेन मन्यमान स्वस्य मुखदुःखयोः परकीय सुखदुःखयोर्वा स्वकीयकर्मणः परकीयकर्मणो वा कार्यमवगच्छति, इत्येतदेव वस्य बालत्वमिति । तदेवं नियतिवादी कालेश्वरादि कारणवादिनो बालत्वं प्रदर्य सम्मति-स्वमतं प्रदर्शयति-'मेहावी पुण' इत्यादि । 'मेहावी पुण एवं विपडिवदेई कारणमावन्ने' कारणं नियतिरूपं कारणं प्राप्तो मेधावी पुनरेवं विप्रतिवेदयति, परन्तु-नियतिमात्रं सुखदुःखादीनां कारणमिति मन्यमानो विद्वांस्तु पुनरेवं जानाति 'अहमंसि दुक्खामि वा-सोयामि वा-जूरामि वा-तिप्पामि वा-पीडामि पा-परितप्पामि वा, णो अहं एवमकासि, अहमस्मि दुःखामि वा-शोचामि वाहै, शोक पा रहा है, आत्मग्लानि कर रहा है, शारीरिक बल को नष्ट कर रहा है, पीड़ित होता है या ताप भोगता है, यह उसके कर्म का फल है। इस प्रकार अज्ञानी काल, कर्म, परमेश्वर आदिको सुख दुःख का कारण मानता हुआ अपने सुख दुःख का कारण अपने कर्म को और दूसरे के सुख दुःख का कारण दूसरे के कर्म को समझता है। किन्तु कारण को प्राप्त बुद्धिमान ऐसा जानता है कि मैं दुःख भोगता हूं, शोक पा रहा हूं, दुःख से आत्मगहीं कर रहा हूं, शारीरिक शक्ति को नष्ट कर रहा हूं, पीड़ा पा रहा हूं, संतप्त हो रहा हूं, इसमें मेरा બળને નાશ કરી રહ્યા છે, પીડા પામે છે, અથવા સંતાપ ભગવે છે, આ બધું તેને કમનું જ ફળ છે. આ પ્રમાણે અજ્ઞાનીઓ કાળ, કર્મ, પરમેશ્વર વિગેરેને સુખદુઃખનું કારણ માનતા થકા પોતાના સુખ દુઃખનું કારણ પિતાના કમને અને બીજાના સુખ દુઃખનું કારણ બીજાના કર્મને સમજે છે. પરંતુ કારણને પ્રાપ્ત બુદ્ધિમાનું એવું સમજે છે કે-હું દુઃખ ભોગવું છું, શોક પામી રહ્યો છું. દુખથી આત્મનિંદા કરી રહ્યો છું. શારીરિક શક્તિને નાશ કરી રહ્યો છું. પીડા પામી રહ્યો છું. સંતાપ પામી રહ્યો છું. તેમાં મેં કરેલ કર્મ કારણ નથી. આ બધું દુઃખ વિગેરે નિય For Private And Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् विद्यामि वा-तेपे वा पीडयामि वा-परितप्ये वा-नाहमेवमकार्षम्, यदहं शोपामि यन्मम पीडादिकं भवति न तत्र कर्मादिकं कारणम् । 'परो व जं दुक्खइ जाप परितप्पइ वा णो परो एवमकासि' परो वा यद् दुख्यति यावत्परितप्यते वा न पर एवमकार्षीत्, परोऽपि यद् दुःखादिकमनुभवति, तत्र तादृशदुःखाबनुभवेन कर्मणः कारणता, किन्तु-सर्वमेतत्सुखदुःखादिकं स्वस्य परस्य वा तत्सर्व नियति वलादेव आगच्छति, एवं च नियतिरेव सर्वेषां कारणम् । एवं से मेहावी सका. रणं वा परकरणं वा एवं विप्पडिवेदेइ कारगमावन्ने' एवं स मेधावी स्वकारण वा परकारणं वा एवं विप्रतिवेदयति कारणमापन्नः, अनेन प्रकारेण स बुद्धिमानेव. मवगच्छति स्वकारणं परकारणं वा मुखदुःखादि मम परस्य वा यद्भवति न तत्स्वकृतपरकृतकर्मणः फलम्' किन्तु सर्वमेतन्नियतिविचेष्टितमेव इत्यमधारयति विद्वान् । ‘से बेमि पाइण वा ४' अथ ब्रवीमि-युक्तितो निश्चित्य प्रतिपादयामिप्राच्यां वा ४-पाच्यां-पूर्वदिशायाम् पश्चिमदिशायां दक्षिगस्यामुत्तरस्यां वा उप. वक्षणार्ध्वमधोदिशि वा 'जे तसथावारा पाणा' ये प्रसस्थावराः प्राणाः पाणवन्तो जीवा विद्यन्ते । 'ते एवं संघायमागच्छंति' ते पाणा एवं प्रकारेण नियति. बलेनैव सङ्घातम्-मौदारिकादिशरीरभावमागच्छन्ति, इति अहं नियतिवादी ब्रवीमि । ये केचन सस्थावराः पाणिनो यत्र कुत्रापि वसन्ति ते सर्वेऽपि नियति किया कर्म कारण नहीं है। इसी प्रकार कोई दूसरा दुःखी होता है यावत् परिताप पाता है, सो उनमें उसका किंया कर्म कारण नहीं है। किन्तु यह सब दुःख आदि नियति के बल से ही उपस्थित होते हैं। अतएव नियति ही सब का कारण है। इस प्रकार वह बुद्धिमान पुरुष ऐसा समझता है मुझ को या दूसरे को जो भी सुख या दुःख होता है, वह स्वकृत अथवा परकृत कर्म का फल नहीं है। यह सबतो नियति का ही कारण है। अतएव में ऐसा कहता हूं-पूर्वादि सभी दिशाओं में जो भीत्रस और स्थावर प्राणी हैं, वे सब नियतिके बल से ही औदारिक आदि शरीरको તિના બળથી જ પ્રાપ્ત થાય છે. તેથી નિયતી જ સઘળાનું કારણ છે. આ પ્રમાણે એ બુદ્ધિમાન્ પુરૂષ એવું સમજે છે, કે મને અથવા બીજાને જે કાંઈ સુખ અથવા દુઃખ થાય છે, તે સ્વકૃત અથવા બીજાએ કરેલ કર્મનું ફળ નથી આ બધું નિયતિનું જ ભાગગાધીન કારણ છે. તેથી જ હું એવું કહું છું કે-પૂર્વ વિગેરે સઘળી દિશાઓમાં જે કંઈ રસ અને સ્થાવર પ્રાણિ છે, તે સઘળા નિયતિના બળથી જ દારિક વિગેરે શરીરને પ્રાપ્ત For Private And Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 6ܘܪܳ ܕ सूत्रकृताङ्गसूत्र बलेनैव शरीरसधातं प्राप्नुवन्ति, तथा-नियतिबलेनैव शरीराद्वियुज्यन्ते सु सुखदुःखादिकं सर्वमेव अनुकूलमतिकूल जातं लभन्ते इति । 'ते एवं विपरियास. मावति' एवं ते नियतिबलेनैव विपर्यासमागच्छन्ति, शरीरावस्थां-बालादिरूपाम् । 'ते एवं विवेगमागच्छति' ते जीवाः पूर्वोक्ताः षट्पकाराः एवम् नियतिबलेनैव विवेकं शरीरात पार्थक्यम् आगच्छन्ति प्राप्नुवन्ति । 'ते एवं विहाण मागच्छंति' ते एवं विधान मागच्छन्ति, ते जीवा नियतिवलेनैव विधानं काण स्वकुब्जत्वादिभावं माप्नुवन्ति नियतिबलेनैव बधिरान्धकाणकुब्जा भवन्तीति भावः 'ते एवं संगतियंति' एवं ते सङ्गति यन्ति-एवम् अनेन प्रकारेण ते नियतिघलेनैव, संगति नाना प्रकारकं मुखदुःखादिभावं प्राप्नुवन्ति सुधर्मस्वामी जम्बू स्वामिनं कथयति-'उहाए' उत्प्रेक्षया नियतिवादिनो नियतिमाश्रित्य तदुपेक्षया यत्किञ्चित्कारितया 'गो एवं विपडिवेदेति' नो एवं ते विपतिवेदयन्ति-नियति बलेन सबै भवतीति वदन्त स्ते 'नो' नैव एवम्-वक्ष्यमाणान् पदार्थान् विप्रतिवेदयन्ति-न जानन्ति । के ते पदार्था इत्याह-'त जहा' तद्यथा-'किरियाई वा भाव शिरएइ वा अणिरएइ वा क्रिया, इति वा यावत् निरय इति वा, क्रियातप्राप्त करते हैं। नियति के बल से ही शरीर से वियुक्त होते हैं। नियति से ही सुख दुःख आदि अनुकूल प्रतिक्ल संवेदन करते हैं । नियति से ही उनमें नाना प्रकार के बाल्य आदि परिमाण उत्पन्न होते हैं। नियति से ही कोई काणा, कोई कुबड़ा, कोई बहरा और कोई अन्धा होता है। इसी प्रकार थे त्रस और स्थावर जीव नियति के बल से ही विविध प्रकार के सुख दुःख आदि को प्राप्त होते हैं। . सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं--वे नियतिवादी आगे कहे जाने वाले पदार्थों को स्वीकार नहीं करते हैं। वे इस प्रकार क्रिया, भक्रिया यावत् नरक, अनरक आदि। यहां यावत् शब्द से पूर्वोक्त કરે છે. નિયતિના બળથી જ શરીરથી છૂટી જાય છે. નિયતિથી જ સુખ દુખ વગેરે અનુકૂળ અને પ્રતિકૂળ સંવેદન કરે છે. નિયતિથી જ તેમાં અનેક પ્રકારના બાલ્ય વિગેરે અવસ્થા પ્રમાણ ઉત્પન્ન થાય છે. નિયતિથી જ કેઈ કા, કેઈ કુબડે, કઈ બડે, અને કેઈ આંધળો, કેઈ લુલે અને કોઈ લંગડે હોય છે. એ જ પ્રમાણે આ ત્રસ અને સ્થાવર જ નિયતિના બળથી જ અનેક પ્રકારના સુખ દુઃખ વિગેરેને પ્રાપ્ત થાય છે. - સુધર્માસ્વામી જંબૂ સ્વામીને કહે છે કે–તે નિયતિ વાદી આગળ કહેવામાં આવનારા પદાર્થોને સ્વીકાર કરતા નથી. તે આ પ્રમાણે કિયા For Private And Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् आरभ्याऽनिरयान्तपदार्थान् न स्वीकुर्वन्ति, । 'एवं ते विरूवरूवेहि कम्मसमारंभेहि एवं ते विरूपरूः-अनेक-प्रकारकैः कर्मसमारम्भैः प्राणातिपातादिसाव. धानुष्ठानः, विरूवरूवाई कामभोगाई समारंभंति' विरूवरूपान्-नानाप्रकारकान् सावधकर्माऽनुष्ठानान् कामभोगान् शब्दादिरूपान् समारभन्ते कुर्वन्ति, 'भोषणाए' भोगाय 'एवमेव ते अगारिया विप्पडिपन्ना तं सदहमाणा जाव इइ ते णो इन्धाए णो पाराय अन्तरा कामभोगेषु विसणा' एवमेव ते अनार्या विपतिपन्नाः तत् श्रधाना: यावदिति ते नो अर्थाचे नो पराय अन्तरा काममोगेषु विषण्णा, ते नियतिवादिनः काममोगादिषु आसक्ता अनार्या भ्रममुपागताः नियतिबादे श्रद्धान शीला नेह लोकं प्राप्नुवन्ति, न वा परलोकमेव प्राप्नुवन्ति किन्तु उभयतो भ्रष्टाः संजायन्ते कामादावासक्ताः । 'चउत्थे पुरिसजाए णियइवाइए चि आहिए' चतुर्थः पुरुषजातो नियतिवादिक इत्याख्यायते । 'इच्चे ते चत्तारि पुरिसनाया कल्याण, अकल्याण सिद्धि, असिद्धि सुकृत, आदि को ग्रहण कर लेना चाहिए। इस कारण वे नाना प्रकार के सावध कर्मों का अनुष्ठान करके शब्दादि कामभोगों का आरंभ करते हैं। वे अनार्य विपरीत श्रद्धान करते हुए न इधर के रहते हैं, न उधरके रहते हैं। बीच में ही कामभोगों में आसक्त हो जाते हैं । तात्पर्य यह है कि वे नियतिवादी कामभोगों में आसक्त, अनार्य, भ्रम को प्रास, नियति बाद में श्रद्धा रखने वाले न अपना यह लोक सुधार पाते हैं, न पर लोक सुधार सकते हैं। दोनों ओर से भ्रष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार चौथा पुरुष नियतिवादी कहा गया है, ये चार पुरुष नाना प्रज्ञा वाले हैं, विभिन्न अभिप्राय वाले हैं, भिन्न भिन्न शील आचार અક્રિયા યાવતુ નરક, અનરક વિગેરે તથા યાવત્ શબ્દથી પૂર્વોક્ત કલ્યાણ, અકલ્યાણ સિદ્ધિ અસિદ્ધિ, સુકૃત, વિગેરેને સ્વીકાર કરતા નથી. આથી તેઓ અનેક પ્રકારના સાવધ કર્મોનું અનુષ્ઠાન કરીને શબ્દાદિ કામોને આરંભ કરે છે. તેઓ અનાર્ય–અર્થાત વિપરીત શ્રદ્ધાન કરતા થકા અહિના રહેતા નથી તેમ ત્યાંના પણ રહેતા નથી. વચમા જ કામમાં આસક્ત થઈ જાવે છે. તાત્પર્ય એ છે કે–તે નિયત વાદીઓ કામમાં આસક્ત, અનાર્ય, શ્રમને પ્રાપ્ત થયેલા, નિયત વાદમાં શ્રદ્ધા રાખનારા પિતાને આ લેક સુધારી શકતા નથી. બન્ને બાજુથી ભ્રષ્ટ થઈ જાય છે. આ રીતે ચોથે પુરૂષ નિયતવાદી કહેલ છે. આ ચારે પુરૂષ અલ્પ બુદ્ધિવાળા છે. જૂદા જૂદા અભિપ્રાય વાળા છે. જુદા જુદા સ્વભાવ અને For Private And Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૨૦૨ सूत्रकृतासूत्रे णाणा पन्ना, णाणाछंदा' इत्येते चत्वारः पुरुषजातीया । नाना प्रज्ञाः - विविधबुद्धिभिः कुशाखपरूपकाः नानाच्छन्दाः - विभिन्नाऽभिपायवन्तः - कुत्सिताभिप्रायेण कुमार्गदर्शकाः 'णाणासीला णाणादिट्ठी' नानाशीळा - नियतिमाश्रित्य कुत्सिताचार प्रवर्त्तकाः नानादृष्टयः नानारूपा दृष्टिर्दर्शनं येषां ते तथा कुत्सित मार्गदर्शकाः 'जाणारुई गाणारंभा णाणा अज्झत्रसाण संजुत्ता' नानारुवयः - प्राणातिपाताद्यारम्भकारकाः अधर्म धर्मबुद्धया कुणाः नाना प्रकारकविषयभोगादिषु अभिप्रायवन्तः, नानारम्भाः नानाऽध्यवसानयुक्ताः । 'पहीणपुण्यसंयोगा आरियं मग्गं असंपत्ता' मीणा पूर्वसंयोगाः आर्य मार्गम् आर्याणां तीर्थकराणां मार्गम्। आर्य मोक्षपापकं मार्ग सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणमप्राप्ताः । 'इइ ते णो हव्त्राए णो पाराए' इति - अस्मास्कारणात् ते नो चेन इह लोकाय, नवा परलोकाय क्लृप्ता भवन्ति । किन्तु - अंतरा काम मोगे fort' अन्तरा मध्ये कामभोगेषु विषण्णाः सन्तः संसारचक्रपरिभ्रमण जनित दुःखभागिनो भवन्तीति सू०१२ । मूलम् - से बेमि पाईणं वा ४ संतेगइया मणुस्सा भवति, तं जहा - आरिया वेगे अणारिया वेगे उच्चागोया वेगे णीयागोया वाले हैं, और पृथक् पृथक् दृष्टि वाले हैं। नाना रुचि वाले, प्राणातिपात आदि आरंभ करने वाले, धर्म समझ कर अधर्म करने वाले है । ये मातापिता आदि के पूर्वकालीन संबंध को त्याग चुकने पर भी आर्य भाग अर्थात् तीर्थकरों के मार्ग को प्राप्त नहीं कर पाये हैं, अर्थात् सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप रूप मोक्षमार्ग को प्राप्त नहीं हुए । इस कारण उनका न यह लोक सुधरता है, न परलोक सुधरता है। वे बीच ही में कामभोगों में फंस जाते हैं और संसार चक्र में परिभ्रमण के दुःख के भागी होते हैं ॥ १२ ॥ આચાર વાળા છે, અને અલગ અલગ દૃષ્ટિવાળા છે. ભિન્ન રૂચિવાળા, પ્રાણા તિપાત વગેરે આરંભ કરવાવાળા ધમ સમજીને અધમ કરવાવાળા છે. આ માતા, પિતા, વિગેરેના પૂર્વકાળના સબંધનેા ત્યાગ કરવા છતાં પણુ આય માગ અર્થાત્ તીકરાના માર્ગને પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી. અર્થાત્ સમ્યક્ જ્ઞાન, સમ્યક્દૅશન, સમ્યચારિત્ર, અને સમ્યકૂપ રૂપ મેક્ષ માગને પ્રાપ્ત થતા નથી. તે કારણે તેઓને આ લેક સુધરતા નથી તથા પરલેક પશુ સુધરતા નથી. તેએ વચમાં જ કામલેગામાં ફસાઈ જાય છે. અને સ‘સાર ચક્રમાં પરિભ્રમણના દુઃખને ભાગવવા વાળા થાય છે. ૧૨ા For Private And Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि.श्रु. १.१ पुण्डरीकनामाध्ययनम् वेगे कायमता वेगे हस्समंता वेगे गे सुरूपा वेगे दुरूवा वेगे, तेसिं च णं जणजाणवयाइं परिग्गहियाई भवंति, तं जहा-अप्पयरा वा भुज्जयरावा, तहप्पगारेहिं कुलैहिं आगम्म अभिभूय एगे भिक्खायरियाए समुट्टिता सतो वावि एगे णायो य अणायओ य उवगरणं च विप्पजहाय भिक्खायरियाए समुट्टिता असतो वावि एगे णायओ य अणायओ य उवगरणं च विप्पजहाय भिक्खायरियाए समुहिता। जे ते सतो वा असतो वा णायओ य अगायओ य उवगरणं च विप्पजहाय भिक्खायरियाए समुहिता पुवमेव तेहिं णायं भवइ, तं जहा-इह खलु पुरिसे अन्नमन्नं ममट्टाए एवं विप्पडिवेदेइ, तं जहा-खेत्तं मे वत्थू मे हिरणं मे सुवन्नं मे धणं मे धण्णं मे कंसं मे दूसं मे विउलधणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पवालरत्तरयणसंतसारसावतयं मे सहा मे रूवा मे गंधा मे रसा मे फासा मे, एए खलु मे कामभोगा अहमवि एएसि। से मेहावी पुवामेव अप्पणा एवं समभिजाणेजा, तं जहा-इह खलु मम अन्नयरे दुक्खे रोगातके समुपज्जेजाअणिष्टे अकंते अप्पिए असुभे अमणुन्ने अमणामे दुक्खे णो सुहे से हंता भयंतारो ! कामभोगाइं मम अन्नयरं दुक्खं रोयातकं परियाइयह । अणिटुं अकंतं अप्पियं असुभं अमणुन्नं अमणामं दुक्खं णो सुहं, ताऽहं दुक्खामि वा सोयामि वा जरामि वा तिप्पामि वा पीडामि वा परितप्पामि वा इमाओ मे For Private And Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे अ०णयराओ दुक्खाओ रोगातंकाओ पडिमोयह अणिट्टाओ अकंताओ अप्पियाओ असुभाओ अमणुन्नाओ अमणामाओ दुक्खाओ णो सुहाओ एवामेव णो लद्धपुवं भवइ, इह खलु कामभोगा जो ताणाए वा जो सरणाए वा, पुरिसे वा एगया पुत्रि कामभोगे विप्पजहइ, कामभोगा वा एगया पुव्वि पुरिसं विप्पजहंति, अन्ने खलु कामभोगा अन्नो अहमंसि, से किमंग पुण वयं अन्नमन्नेहिं कामभोगेहिं मुच्छामो ? इह संखाए णं वयं च कामभोगेहिं विप्पजहिस्सामो से मेहावी जाणेजा बहिरंगमेयं, इणमेव उवणीयतरागं, तं जहा माया मे पिया मे भाया मे भगिणी मे भज्जा मे पुत्ता से धूया मे पेसा मे नत्ता मे सुहा मे सुहा मे पिया मे सहा मे सयणसंगंथसंया मे, एए खलु मम णायओ अहम वि एएसिं, एवं से मेहावी पुठवामेव अपना एवं समभिजाणेजा, इह खलु मम अन्नयरे दुक्खे रोयाके समुत्पज्जेज्जा अणिट्ठे जाव दुक्खे णो सुहे, से हंता भयतारो! णायओ इमं मम अन्नयरं दुक्खं रोयातंक परियाइ यह अणिट्टं जाव णो सुहं, ताऽहं दुक्खामि वा सोयामि वा जान परितप्पामि वा, इमाओ मे अन्नयराओ दुक्खाओ रोगातंकाओ परिमोह अणिद्वाओ जाव णो सुहाओ, एवमेव जो लखपुव्वं भवइ, तेसिं वावि भयंताराणं मम णाययाणं अन्नयरे दुक्खे रोगातंके समुप्पज्जेज्जा आणिडे जाव णो सुह, से हंता अहमेतेसिं भयंताराणं णाययाणं इमं अन्न For Private And Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् १०५ यरं दुक्खं रोयातंक परियाइयामि अणि जाव णो सुहे, मा मे दुक्खंतु वा जाव मा मे परितप्यंतु वा, इमाओ णं अण्णयराओ दुक्खाओ रोगातंकाओ परिमोएमि अणिट्टाओ जाव णो सुहाओ, एवमेव णो लद्धपुत्रं भवइ, अन्नस्स दुक्खं अन्नो न परियाइयइ अन्नेणं कडं अन्नो नो पडिसंवेदेइ पत्तेयं जाय पत्तेयं मरइ पत्तेयं चयइ पत्तेयं उववज्जइ पत्तेयं झंझा पत्तेयं सन्ना, पत्तेयं मन्ना एवं विन्नू वेदणा, इह खलु णाइ संजोगा जो ताणाए वा णो सरणाए वा, पुरिसे वा एगया पुत्रिणाइसंजोए विप्पजहइ, णाइसंजोगा वा एगया पुर्वित्र पुरिसं विप्पेजहंति, अन्ने खलु णाइसंजोगा अन्नो अहमंसि, से किमंग पुण वयं अन्नमन्नेहिं णाइसंजोगेहिं मुच्छामो ? इइ संखाए में वयं णाइ संजोगं विष्पज हिस्सामो से मेहावी जाणेजा बहिरंगमेयं, इणमेव उवणीयतरागं, तं जहा - हत्था मे पाया मे बाह्य मे ऊरू मे उदरं मे सीसं मे सीलं मे आऊ मे बलं मे वण्णो मे तथा मे छाया मे सोयं मे चक्खू मे घाणं मे जिन्भा में फासा मे ममाइज्जइ, वयाउ पडिजूरइ, तं जहा - आउसो बलाओं वण्णाओ तयाओ छायाओ सोयाओ जाव फासाओ सुसंधितो संधी सिंधी भवइ, वलियतरंगे गाए भवइ, किव्हा केसा पलिया भवंति, तं जहा -जं पि य इमं सरीरगं उरालं आहारोवइयं एयं पिय अणुपुव्वेणं विष्पजहियत्वं भविस्सह, एवं संखाए से भिक्खू भिक्खायरियाए समुट्ठिए दुहओ लोगं I सू० १४ For Private And Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०६ सूत्रकृतास्त्रे जाणेज्जा, तं जहा-जीवा चेव अजीवा घेव, तसा चेव थावरा चेव ॥सू० १३॥ छाया-अथ ब्रवीमि माच्या वा४ सन्ति एके मनुष्या भवन्ति, तद्यथा-आर्या वा एके, अनार्या वा एके, उच्चगोत्रा वा एके, नीचगोत्रा के कायान्तो वा एके, हस्ववन्तो वा एके, सुवर्णा वा एके, दुर्वा वा एके, सुरूपा वा एके, दुरूपा वा एके तेषां च खलु जनजानपदाः परिगृहीता भवन्ति, तद्यथा-अल्पतरा वा भूयस्तरा वा। तथाप्रकारेषु कुलेषु आगत्य अभिभूय एके भिक्षापर्यायां समुपस्थिताः संतोवाऽपि एके ज्ञातीन् च अज्ञातीन् च उपकरणं च विप्रहाय भिक्षाचर्यायां समुत्थिताः असतो वाऽपि एके ज्ञातीन् च अज्ञातीन च उपकरणं च विष. हाय मिक्षाचर्यायां समुस्थिताः। ये ते सतो वा असतो वा ज्ञातीन् च अज्ञातीन् च उपकरणं च विप्रहाय भिक्षाचर्यायां समुत्थिताः, पूर्वमेव तैतिं भवति तद्यथा इह खलु पुरुषः अन्यदन्यद् ममाऽर्थाय एवं विप्रतिवेदयति, तद्यथा-क्षेत्रं मे वास्तु मे हिरण्यं मे सुवर्ण मे धनं मे धान्यं मे कांस्यं मे दुष्यं में विपुलधनकनकरत्नमणि मौक्तिकशङ्खशिलामवालरक्तरत्नसत्सारस्वापतेयं मे, शब्दा मे, रूपाणि मे, गन्धा मे रसा मे, स्पर्शा मे, एते खलु मे कामभोगाः, अहमपि एतेषाम् । अथ मेधावी पूर्वमेव आत्मना एवं समभिजानीयात्, तद्यथा-इह खलु ममान्यतरद् दुःखं रोगातङ्कः समुत्पद्येत अनिष्टः, अकान्तः, अपियः, अशुभः, अमनोजः, अमनाम: दुःखं नो सुखं तद्हन्त ! भयत्रातारः ! कामभोगाः, ममान्यतरद् दुःखं रोगातङ्गं पर्याददत । अनिष्टमकान्तममियमशुभममनोज्ञ ममन आमं दुःखं नो सुखम्, तदहं दुख्यामि वा शोचाभि वा जूरामि वा तेपे वा पीडयामि वा परितप्ये चा अस्मान्मे अन्यतराद् दुःखाद् रोगातङ्कात् पतिमोचयत अनिष्टाद् अकान्ताद् अभियान अशुभाद् अमनोज्ञाद् अमनमाद् दुःखान्नो सुखात्, एवमेव नो लब्धपूर्वी भवति । इह खलु कामभोगाः नो त्राणाय वा नो शरणाय वा पुरुषो वा एकदा पूर्व कामभोगान् विषजहाति, कामभोगा वा एकदा पूर्व पुरुष विमजहाति, अन्ये खलु कामभोगाः, अन्योऽहमस्मि तत् किमङ्ग पुनर्वय मन्यान्येषु कामभोगेषु मूर्छामः, इति संख्याय खलु वयं कामभोगान् विप्रहास्यामः, भय मेधावी जानीयाद् वहिरङ्गमेतत् इदमेव उपनीततरं तद्यथा-माता मे, पिता में, भ्राता मे, भगिनी में भर्या मे, पुत्रा में, दुहितारो मे, प्रेष्या मे, नप्ता में, स्नुषा मे सुहन्मे, पियो मे, सखा मे, स्वजनसंग्रन्थसंस्तुता मे । एते मम ज्ञातयोऽहमप्येतेषाम् , एवं स मेधावी पूर्व मेंव आत्मना एवं समभिजावीयात्-इह खड़ For Private And Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् ममान्यतरद् दुःखं रोगातको वा समुपयेत अनिष्टो यावद् दुःखं नो सुखं तद् हन्त ! भयत्रातारो ज्ञातयः। इदं ममान्यतरद् दुःखं रोगातङ्कं वा पर्याददत अनिष्टं यावद् नो सुखम् । तदहं दुःखामि वा शोचामि वा यावत् परितप्ये अस्मान् मे अन्यरस्माद् दुःखाद् रोगातकात् परिमोचयत अनिष्टाद् यावन्नो सुखात् ! एवमेव नो लब्धपूर्व भवति । तेषां वाऽपि भयत्रातृगां मम ज्ञातीनाम् अन्यतरद दुःखं रोगातकं समुत्पद्यते अनिष्टं यावन्नो सुखं तद् हन्त ! अहमेतेषां भय. त्रातॄणां ज्ञातीनाम् इदमन्यतरद् दुःख रोगातङ्कं वा पर्याददत अनिष्टं चा यावन्नो मुखम्, मा मे दुःरूपन्तु वा यावद् मा में परितप्यन्तां वा अस्माद् अन्यतरस्माद् दुःखाद रोगातङ्कात् परिमोचयामि अनिष्टाद् यावन्नो मुखात् एवमेव न लब्धपूर्व भवति ! अन्यस्य दुःख मन्यो न पर्याददत अन्येन कृतम् अन्यो नो प्रतिसंवेदयति प्रत्येकं जायते प्रत्येकं म्रियते प्रत्येके त्यति प्रत्येकमुपपद्यते प्रत्येकं झंझा प्रत्येकं संज्ञा प्रत्येकं मननम् एवं विद्वान् वेदना, इह खद्ध ज्ञातिसंयोगाः नो त्राणाय वा नो शरणाय वा पुरुषो वा एकदा पूर्व ज्ञातिसंयोगान् विपजहाति, ज्ञातिसंयोगा वा एकदा पूर्व पुरुषं विप्रजाति अन्ये खलु ज्ञातिसंयोगाः अन्यो। ऽहमस्मि । अथ किमङ्ग ! पुनर्वपमन्यान्येषु ज्ञातिसंयोगेषु मूर्छामः, इति संख्याय खलु वयं ज्ञातिसंयोगं विपहास्यामः ! स मेधावी जानीयाद बहिरङ्गमेतद इदमेव उपनीततरं सद्यथा-हस्तौ मे पादौ मे, बाहू मे, उरू मे उदरं मे शीर्ष मे, शीलं मे, आयुर्मे, वलं मे, वर्गों में, त्वचा में, छाया मे, श्रोत्रं मे, चक्षुम, घ्राणं मे, जिह्वा में, स्पर्शाः में, ममायते, वयसः परिजीर्यते । तद्यथा-आयुषो बलाद वर्णात्वचः छायायाः श्रोत्रा यावत् स्पर्शात सुसन्धित सन्धि विसन्धी भवति वलिततरगंगा भाति, कृष्णाः केशाः पकिवा भवन्ति तद्यथा-यदपि च इदं शरीरम् उदारमाहारोगचितम् एतदपि च आनुपूर्या विमहातव्यं भविष्यति । इदं संख्याय स भिक्षु मिक्षाचर्यायां समुत्थितः उभयतो लोकं जानीयात् तद्यथा -जीवाश्चैव अजीवाश्चै त्रसाश्चैव स्थावराश्चैव ।।सू०१३॥ टीका-मुबर्मस्वामी जम्बूस्वामिनं प्रत्याह-हे जम्बू ! 'से बेमि पाईणं वा ४ संतेगइया मणुस्सा भांति से बेमि' अथाऽहं ब्रवीमि । 'पाईणं वाट" प्राच्या वा४ 'से बेमि' इत्यादि। टीकार्य-सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं-मैं ऐसा कहना हूं। पूर्व दिशा में, पश्चिम दिशा में दक्षिण दिशा में, उत्तर दिशा में, ‘से घेमि' या ટીકાર્થ–સુધર્માસ્વામી જબુસ્વામીને કહે છે કે-હું આ પ્રમાણે કર્યું છું. પૂર્વ દિશામાં, પશ્ચિમ દિશામાં, દક્ષિણ દિશામાં, ઉત્તર દિશામાં ઉદ For Private And Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०८ सुकृताङ्ग स्यादिशि पश्चिमायां दिशि दक्षिणस्यां दिशि उत्तरस्यां दिशि 'संतेगइया' सन्त्ये के 'मनुस्सा' अनेकप्रकारका मनुष्या भवन्ति । 'तं जहा ' तद्यथा - 'आरिया वेगे' आर्या वा एके 'अणारिया बेगे' अनार्या वा एके, प्राच्यादिदिक्षु वसन्ति - अने के पुरुषाः केचनाssर्याः केचनानार्याश्च । 'उच्चागोया वेगे' उच्चगोत्राः - विशिष्ट - वन्तो वा एके 'णीया गोया वेगे' नीचगोत्रा वा एके 'कायमंता वेगे इस्समंताजेगे' कायवन्तो वा एके - दीर्घशरीराः, ह्रस्वयन्तो वा एके-लघुशरीरा एके, 'सुवन्ना वेगे दुवन्ना वेगे' सुवर्णा वा एके, दुर्वण वा एके, 'सुरूवा वेगे दुरूवा वेगे' सुरूपा वा शोभनरूपवन्तः, दूरूपा वा विकृतरूपवन्तश्च एके, 'तेसिं च णं' येषां च 'गं' इति वाक्यालङ्कारे 'जणजाणवयाई' जनजानपदाः - लोका देशाच, 'परिग्गहाई' परिग्रहाः - परिग्रहरूपेण अधीना भवन्ति । 'तं जहा' तद्यथा 'अप्पया वा भुज्जयरा वा' अल्पतरा वा अल्पपरिग्रहवन्तः, भूयस्तरा वा - अधिक परि ग्रहवन्तः, 'तहपगारेहिं' तथाप्रकारेषु 'कुठेहिं' कुठेषु 'आगम्म अभिभूय' आगत्य जन्मना ता शकुलं प्राप्य, भोगसुखादिकं चाभिभूय - तिरस्कृत्य 'एगे भिक्खायरियार' एके केचन पुरुषा भिक्षाचर्यांयाम् 'समुझिया' समुत्थिताः - उद्यम C दिशा में और अधोदिशा में अनेक प्रकार के मनुष्य होते हैं । जैसे- कोई आर्य, कोई अनार्य अर्थात् कोई ज्ञानदर्शन के अंकुर वाले और कोई उससे रहित होते हैं। कोई ऊंचे गोत्र में उत्पन्न होते हैं, और कोई मीच गोत्र में उत्पन्न होते हैं। कोई लम्बे शरीर वाले कोई छोटे शरीर काले होते हैं। कोई सुरूप और कोई कुरूप होते हैं। लोक और देश उन लोगों का परिग्रह होता है। वह परिग्रह किसी के पास थोडा होता है, किसी के पास बहुत होता है। इस प्रकार के कुलों में से आकर और किसी कुल में जन्म लेकर भोगों का तथा सांसारिक सुखों का परित्याग करके उनमें से कोई कोई भिक्षावृत्ति के लिए उद्यत हो દિશામાં અને અાદિશામાં, અનેક પ્રકારના મનુષ્યા હોય છે. જેમકે-કેઈ આય, કાઈ અનાય, અર્થાત્ કઈ જ્ઞાન દનના અંકુરવાળા અને કાઇ તેના વિનાના ડાય છે. કાઈ ઉંચા ગોત્રમાં ઉત્પન્ન થયેલ અને કોઇ નીચ ચૈત્રમાં ઉત્પન્ન હાય છે. કોઈ લાંખા શરીરવાળા, કાઈ ટુંકા શરીરવાળા, હાય છે. કોઈ સુંદર રૂપવાળા-સુરૂપ અને ઈ કદરૂપા હેાય છે. લાક અને દેશ તે ઢાકાના પરિગ્રહ હાય છે. તે પરિગ્રહ કાઇની પાંસે થાડે! હાય છે, કાઈની પાંસે વધારે હાય છે. આવા પ્રકારના કુલામાંથી આવીને અને કાઇ પણુ કુળમાં જન્મ લઈને ભાગાના તથા સસારિક સુખાના ત્યાગ કરીને તેમાંથી કોઈ કોઈ શિક્ષા વૃત્તિને માટે ઉદ્યમવાળા થઈ જાય છે. અર્થાત્ ઘરના ત્યાગ For Private And Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि.श्रु. अ.१ पुण्डरीकनामाभ्ययनम् १० वन्तः सन्तः 'सतो वा वि एगे णायओ य अगायो य सतो वापि विद्यमानानेवएके केचन पुरुषाः ज्ञातीन् स्वजनान् 'य' च-पुनः अज्ञातीन्-परिजनान् च पुनः 'उवगरण' उपकरणम्-धनधान्यादिकम् 'विष्पहाय' विपहाय-परित्यज्य 'भिक्खा. यरियाए' भिक्षाचर्यायाम् 'समुट्ठिया' समुत्थिता भवन्ति । 'असतो वावि एगे णायो य उवगरणं च' एके केचन असतः-अविद्यमानानेव ज्ञातीन अज्ञातींश्च 'य' च उपकरणं धनधान्यादिकं श्च 'विपनहाय विप्रहाय-परित्यज्य केचनापगतस्वजन परिजनविभवाः सन्तः 'भिक्खायरियाए' भिक्षाचर्यायाम् ‘समुट्ठिया' समुत्थिता भवन्तीति 'जे ते सतो वा असतो वा णायओ य अगायो य उवगरणं च विपजहाय' ये ते सतो विद्यमानामेव-असत:-अविद्यमानानेव ज्ञातीन् अमाती श्च विप्रहाय-परित्यज्य उपकरणं-धनधान्यादिकं च विहाय 'मिक्खायरियाए' भिक्षाचर्यायाम् 'समुट्ठिया' समुत्थिताः 'पुत्रमेव तेहिं णायं भवई' पूर्वमेव तेजतिं भवति । किं ज्ञातं भवति ? तदाह-'तं जहा' तद्यथा 'इह खल्लु पुरिसे' इह लोके खलु पुरुषः 'अन्नमन्नं' अन्यदन्यत्-स्वस्माद् भिन्नानेव पदार्थान् 'ममट्ठाए' मदीय 'एवं विप्पडिवेदेई' एवं विप्रतिवेदयति-स्वस्मादमिन्नान् पदार्थान् मिथ्यैव अभिजाते हैं । अर्थात् गृहत्यागी बन जाते हैं। कोई कोई पुरुष विद्यमान भी बन्धु बान्धव आदि परिवार को तथा धन धान्य आदि उपकरणों को त्यागकर भिक्षाचर्या अंगीकार करते हैं और कोई कोई अविद्यमान परिवार तथा धन धान्य आदि को त्याग कर भिक्षाचर्या के लिए उद्यत होते हैं। इस प्रकार जो विद्यमान अथवा अविद्यमान परिवार को और धन धान्यादि को त्याग करके भिक्षाचर्या में उपस्थित होते हैं, उन्हें पहले से ही यह ज्ञात होता है कि-इस जगत् में लोग अपने से भिन्न पदार्थों को मिथ्या अभिमान करके 'यह मेरे हैं ऐसा समझते है। वे सोचते हैंકરવાવાળા બની જાય છે. કેઈ કઈ પુરૂષ વિદ્યમાન એવા બંધુ, બાંધવ વિગેરે પરિવારને તથા ધન ધાન્ય વિગેરે ઉપકરણને ત્યાગ કરીને ભિક્ષાચર્યાને સ્વીકાર કરે છે. અને કેઈ કઈ અવિદ્યમાન પરિવાર તથા ધન, ધાન્ય વિગેરેને ત્યાગ કરીને ભિક્ષા ચર્ચા માટે ઉદ્યમ વાળા થાય છે. આ રીતે જેઓ વિદ્યમાન અથવા અવિદ્યમાન પરિવારને તથા ધન, ધાન્ય વિગે. ને ત્યાગ કરીને ભિક્ષા ચર્યામાં ઉપસ્થિત થાય છે તેઓને પહેલેથી જ એ જાણ હોય છે કે-આ જગમાં લેકે પિતાનાથી જુદા એવા પદાર્થોને મિથ્યાઅભિમાન કરીને “આ મારૂં છે તેમ માને છે. તેઓ સમજે છે કે આ For Private And Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतास्त्र मानं कृत्वा-मदर्था इमे इत्येवं जानाति, 'तं अहा' तद्यथा-'खेतं मे वत्थू में क्षेत्र मे वास्तु मे 'हिरण में, सुवन्न मे, धणं धणं है, कंस मे, दस मे' हिरण्यं मे सुवर्ण मे धन मे धान्यं मे कांस्यं में दुष्यं मे वस्त्र विशेषो मे 'विउलधणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलपवालरत्तरयणसंतसारसावतेयं में विपुलधनकनकरत्नमणिमौक्तिकशङ्खशिलामवालरत्नसत्सारस्वापतेयं मे 'सद्दा मे रूबा में' शब्दा में रूपाणि मे 'गंधा मे रसा मे फासा मे' गन्धा मे-भम, रसा मे-मम, स्पर्शा मे-मम, 'पए खलु कामभोगा, अहमवि एएसि' एते खलु कामभोगा मम, अहमध्येतेषाम् , क्षेत्रादारभ्य स्पर्शान्ताश्च विषया मम कामभोगाय सन्तीति, मेधावी यदवधारयति तदाह-'से मेहावी' इत्यादि । 'से मेहावी पूवमे। अपणा एवं समभिजाणेज्जा' अथ मेधावी पूर्वमेवाऽऽत्मना एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण समभिजानीयात् , किं जानीयादित्याह-'तं जहा' तद्यथा 'इह खलु मम अन्नयरे' इह खलु ममाऽन्यवर 'दुक्खे रोयातके समुप्पज्जेज्जा' दुःख-पीडारोगः-स्वरादिः आतङ्कः-सयोधातियह क्षेत्र (खेत) मेरा है, यह मकान मेरा है, यह चांदी सोना मेरा है, यह धन धान्य मेरा है, यह कांसा मेरा है, यह पुष्प या वस्त्र मेरा है, ये प्रचुर धन, कनक, रत्न मणि, मोती, शंख, शिला, मूंगा, लालरत्न और उत्तम सार भून पदार्थ मेरे हैं, मनोहर शब्द करने वाले वीणा आदि वाद्य मेरे हैं, सुन्दर रूपवाली स्त्रियां मेरी हैं । इत्र-अत्तर तथा सुगंधयुक्त तैल आदि मेरे हैं, उत्तम रस एवं स्पर्श वाले पदार्थ मेरे हैं और मैं इनका स्वामी हूँ। तात्पर्य यह है कि अज्ञानीजन सांसारीक पदार्थों को अपना मानते हैं। किन्तु ज्ञानी पुरुष को पहले ही यह समझ लेना चाहिए जब मुझे कोई दुःखातंक अर्थात् ज्वर आदि रोग तथा शीघ्रघात करने वाला भेत२ भाइ छ. मा मान-२ भा३ छे. म! Ail, सोनु भा छ. मा ધન, ધાન્ય મારૂ છે. આ કાંસુ મારું છે. આ પુષ્પ આ વસ્ત્ર મારૂં છે. આ धार से धन, जन-सोनुन मणि, माती, शम शिक्षा, प्रात, भु॥ -લાલ રત્ન તથા ઉત્તમ સાર રૂપ પદાર્થો મારા છે. સુંદર શબદ કરવાવાળી વીણા. વિગેરે વાધે મારાં છે, સુંદર રૂપવાન સ્ત્રી મારી છે. અત્તર તથા સુંગધવાળું તેલ મારૂં છે. ઉત્તમ રસ, તથા સ્પર્શવાળા પદાર્થો મારા છે, અને હું તેને માલિક છું. તાત્પર્ય એ છે કે-અજ્ઞાની મનુષ્ય સંસારના પદાર્થોને પિતાના માને છે. પરંત જ્ઞાની પુરૂષોએ તે પહેલેથી જ એ જાણી લેવું જોઈએ કે-જ્યારે મને કોઈ પણ દુઃખ કારક અર્થાત તાવ વિગેરે રોગ તથા શીવ્રઘાત કરવા For Private And Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.१ पुण्डरीकनामाध्ययनम् नेत्रशूलादिकम् समुत्पद्येत, । कथंभूतोऽयं रोगान्तकस्तत्राह-अणिढे-अकंतेअप्पिए असुभे-अमणुन्ने-प्रमणामे' अनिष्टोऽकान्तोऽशुभोऽमनोज्ञोऽमनाम:, तत्र अनिष्टः-इष्टमुखाऽननुभावनात् , अकान्त:-अनभिलषणीयत्वात् , अप्रियःअविरतदुःखोत्पादकत्वात् , अशु म:-अशुभाध्यवसायकारणत्वात् , अमनोज्ञः-चिन्तनेऽपि दुःखोत्पादकत्वात् , अमन आमा-मनसः प्रतिकूलत्वात् , अतएव दुःखे दुःखरूपः 'गो मुहे' नो सुखरूपः से हता' तद्धन्त हन्त इति खेदे 'भयंतारोकामभोगाई' हे भयत्रातारः कामभोगाः ? मम 'अन्न घर' अन्यतरद् 'दुक्खं रोया. तंक' दुःखं रोगातङ्कम् 'परियाइयह पर्याददत-विभागं कृत्वा, एतद् दुःखं रोगाऽऽतकं यूयं गृह्णीत । रोगाऽऽतङ्कमेव विशिनष्टि-'अणिटुं' अनिष्टम् 'अयंतं अप्पियं अमुभं अमणुन्नं अमणामं दुक्खं णो सुहे' अशान्तममियमशुभममनोज्ञममनाम शूल आदि उत्पन्न होता है तो प्रार्थना करने पर भी ये कामभोग के साधन क्षेत्र आदि उससे छुडाने में क्या समर्थ हो सकते हैं ? कदापि नहीं । बल्कि किसी न किसी रूप में ये उन दुःखों के सहायक धन जाते हैं अतएव इन क्षेत्रवस्तु आदि में ज्ञानवान् को ममत्वबुद्धि नहीं धारण करनी चाहिए इन्हें अपना नहीं समझना चाहिए। रोगातंक आदि किस प्रकार के होते हैं ? सो कहते हैं-अनिष्ट अर्थात् इष्ट वस्तुओं से उत्पन्न होने वाले सुख का अनुभव नहीं कराते, भकान्त अनिच्छनीय, अप्रिय, निरन्तर दुःख उत्पन्न करने वाले, अशुभ अशुभ अध्यवसाय के जनक अमनोज्ञ विचार करने पर भी दुःखोत्पा. दक, अमनआम-दुःख उत्पन्न करने में मन के प्रतिकूल सुखरूप नहीं। વાળા શૂળ વિગેરે ઉત્પન્ન થાય છે, તે વિનંતી કરવા છતાં પણ આ કામ ભેગના સાધન રૂપ ખેતર વિગેરે તેનાથી બચાવવા શું સમર્થ થાય છે? કદાપિ મને તે બચાવી શકતા નથી. બલકે કઈને કઈ રૂપથી તેઓ એ હરખના સહાયક બની જાય છે. તેથી જ આ ખેતર વિગેરે વસ્તુઓમાં જ્ઞાનવાને મમત્વ બુદ્ધિ રાખવી ન જોઈએ. અર્થાત તે સઘળી વસ્તુઓને પિતાની માની લેવી ન જોઈએ, ગાતંક વિગેરે કેવા હોય છે? તે હવે બતાવવામાં આવે છે.-અનિષ્ટ અથત ઈષ્ટ વસ્તુઓમાંથી ઉત્પન્ન થવાવાળા સુખને અનુભવ કરાવતા નથી. એકાન્ત-અનિચ્છનીય, અપ્રિય-નિરંતર દુઃખ ઉત્પન્ન કરવાવાળા અશુભ-અશુભ અધ્યવસાય કરવાવાળા અમનેશ-વિચાર કરવા છતાં પણ દુઃખને ઉત્પન્ન કરનાર, અમન આમ-દુઃખ ઉત્પન્ન કરવામાં મનથી પ્રતિકૂળ સુખરૂપ નહીં. For Private And Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११२ सूत्रकृतासूत्रे दुःखं नो सुखम् । 'ताऽहं दुक्खामि वा सोयामि वा जूरामि वा तिप्पामि वा पीडामि वा परितप्पामि वा' तस्मादहं दुःख्यामि वा शोचामि वा-जूरामि वा तेपे वा पीडयामि वा परितप्ये वा 'इमाओ मे अण्णयराओ दुक्खाओ' अस्माद् मेन्यतराद् दुःखाद् दुःखरूपाद् रोगातङ्कात् 'पडिभोयह' प्रतिमोचयत । कीदृशादित्याह-'अणिट्ठाओ' अनिष्ठात् 'अकंताओ' अकान्तात् 'अप्पियाओ' अभियात् 'अमुभाओ' अशुभात् 'अमणुनाओ' अमनोज्ञात् 'अमगामाओ' अमन आमात् 'दुक्खाओ' दुःखात् दुःवरूपात् 'जो मुहायो' नो सुखात्-नो सुखरूपात 'एकामेव णो लद्धपुव्वं भवई' एवमेव नो लब्धपूर्गा भवति । एवमेव पूर्वसदृशो न भवति एवं प्रार्थ्यमाना अपि क्षेत्रादयः पार्थयितार नो विमोचयन्ति, एमि दुखैः परिपीडयमानम् प्रत्युत दुःवस्य साक्षात् परम्परया का इस प्रकार के रोगातको के उत्पन्न होने पर कामभोगों से प्रार्थना की जाय कि हे भय से त्राण करने वाले कामभोगों ! मेरे इस रोगातंक का विभाग करके थ डा तुम लेलो, अर्थात् भेरे इस दुःख में तुम भागी दार बन जामो, यह रोगातक अमनोज्ञ है, अमनाम है, दुःख रूप है, सुखरूप नहीं है, इसके कारण मैं दुख पा रहा हूं, शोक का अनुभव कर रहा , मूर रहा हूं, शारीरिक शक्ति क्षीण कर रहा हूं, पीडित हो रहा हूं और परिताप पा रहा हूं। इस दुःख से मुझे छुडा दो। यह दुःख मेरे लिए अनिष्ट है, अकान्त है, अप्रिय है, अशुभ है, अमनोज्ञ है, अमनोम है, दुःखदायक है, सुखद नहीं है, तो पूर्वोक्त क्षेत्र मकान धन आदि पदार्थ प्रार्थना करने वाले को कदापि दुःख से नहीं छुडा सकते। આવા પ્રકારના રેશાતકે ઉત્પન્ન થવાથી કામોને પ્રાર્થના પૂર્વક કહેવામાં આવે કે હે ભયથી રક્ષણ કરવાવાળા કામગો! મારે રગમાંથી ભાગ કરીને થોડે તમે લઈ લે, અર્થાત્ મારા કેઈ દુઃખમાં તમે ભાગીદાર अनी 14. ALL ममना छ, अमन माम छ, दु:३५ छे. सुमરૂપ નથી. તે કારણથી હું દુખ જોગવી રહ્યો છું. અને શેકને અનુભવ કરી રહ્યો છું. ઝુરી રહ્યો છું. શરીરની શક્તિ ક્ષીણ કરી રહ્યો છું. પીડા પામી રહ્યો છું. અને પરિતાપ પામી રહ્યો છું. આ દુખથી મને છોડાવે. આ દુઃખ મારે માટે અનિષ્ટ છે. અકાત છે. અપ્રિય છે. અશુભ છે, અમ જ્ઞ છે. અમને આમ છે. દુઃખ દાયક છે. સુખ આપનાર નથી. આ પ્રમાણે વિનંતી કરવામાં આવે તે પૂર્વોક્ત ખેચર, ઘર, ધન વિગેરે પદાર્થો પ્રાર્થના કરનારને કઈ પણ રીતે દુખથી છેડાવવાને સમર્થ થતા નથી. એટલું જ For Private And Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मार्थबोधिनी टीका द्वि. शु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् ११३ 1 उत्पादक एव भवन्ति । 'इह खलु कामभोगा नो ताणाए वा नो सरणाए वा इमें कामभोगादयो नो त्राणाय - रक्षणाय भवन्ति, नो शरणाय वा भवन्ति, काम:-" भोगात् पुरुषयोर्मध्ये एकदा पुरुषः कामभोगान त्यजति कदाचित्कामभोगा एक पुरुषं त्यजति - इति दर्शयति- 'पुरिसे वा' इत्यादि । 'पुरिसे वा एगया पुच्वं कर्मि भोगे विष्वजाइ' पुरुषो वा एकदा पूर्व कामभोगान विपजहाति । 'कामभोगा 'वा' एगया पुवं पुरिसं विश्वजर्हति' कामभोगा वा एकदा पूर्व पुरुषं विमजदति 'अन्ने खल कामभोगा अन्नो अहमंसि' अन्ये खलु कामभोगाः-मतो व्यतिरिक्ता इमे कामभोगाः न तु मदात्मका: 'अन्नो अहमंसि' अहं तु एभ्यः खलु कामभोगे:: भ्योऽन्यः - विभिन्नोऽस्मि, नाहं वा एतत्स्त्ररूपोऽस्मि । 'से किमंग पुण वयं अभ मन्नेहिं कामभोगेहि मुच्छामो' तत् किमङ्ग ? पुनर्वम् अन्यान्येषु कामभोमेषु मूछीमः, 'इद्द संखाए णं वयं च कामभोगेहिं विष्वजहिस्सा मो' इति संख्याय झाला खल इमे क्षेत्रादयो न मत्स्वरूपाः नाऽहं वा एतत्स्वरूपः ! यो यस्यासाधारणो धर्मः : स तस्य यावत्स्वरूपम् अनुवर्तते । यथा - शैत्यं जलस्य, न तु कदाचिदपि यही नहीं, ये क्षेत्र आदि साक्षात् या परम्परा से दुःख के उत्पा ही साबित होते हैं। ये कामभोग रक्षक नहीं होते, शरणभूत नहीं होते। या तो इनको स्वामी कहलाने वाला पुरुष कभी काम भोगों को पहले से ही त्याग देता है या ये कामभोग पहले से ही उस पुरुष की स्याग देते हैं। कामभोग भिन्न हैं और मैं भिन्न हूं' अर्थात् मेरा स्वरूप इस सब से पृथक् है । ये मेरे स्वरूप नहीं हैं, मैं इनका स्वरूप नहीं हूं। तो फिर इन भिन्न पराये काम भोगों में क्यों मैं ममता धारण करू । जो वस्तु मेरी नहीं है, जो मुझसे पृथक् हो जाने वाली है, उसे मैं अपनी मानने की मूर्खता क्यों करूं ? जो जिसकी वस्तु होती है, वह तीन काल નહીં પશુ આ ખેતર વિગેરે સાક્ષાત્ અથવા પર'પરાથી દુઃખને ઉત્પન્ન કર્મનાર જ સાષિત થાય છે. આ કામભોગા રક્ષણુ કરવાવાળા હાતા નથી. શરણુ રૂપ થતા નથી. અથવા તે તેના સ્વામી કહેવડાવનારા પુરૂષ કૈાઈવાર કામભેગાના ત્યાગ કરે છે, અથવા એ કામભેગા પહેલેથી જ તે પુરૂષના त्याग ४री हे छे. आमलोगो हां छे, भने हुँ हो छ अर्थात् भाई સ્વરૂપ આનાથી જૂદું છે. આ મારૂ સ્વરૂપ નથી. હું તેનુ' સ્વરૂપ નથી, તે પછી આ ભિન્ન એટલે કે પારકા એવા કામભેગેામાં હું શા માટે મમતાપણું ધારણ કરૂ ? જે વસ્તુ મારી નથી, જે મારાથી અલગ થવા વાળી છે, તેમ હું પાતાની માનવાનું મુખ`પણું' શા માટે કરૂ ? જે વસ્તુ જેની હાય છે, सू० १५ For Private And Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतागले तं त्यजति । यदि क्षेत्रादयो मत्स्वरूपा भवेयु स्तदा मां परित्यज्य न कापि तिष्ठेयुः । परन्तु-नैव दृश्यते यन्मयि विधमानेऽपि एते मां विहाय अन्यत्र गच्छन्ति। मयि मृते चैतेऽत्र स्थास्यन्ति, मयि दुःखिते नैते मत्राणाय प्रवर्तन्ते, अत इमे मया नो ग्रहीतव्याः, इति ज्ञात्वा 'कामभोगेहि' कामभोगान् 'विपजहिस्सामो' विप्रहास्यामः-परित्यक्ष्यामः । में भी उससे अलग नहीं हो सकती। शीतलता जल का धर्म है अतः यह कदापि जल का परित्याग नहीं करता। यदि ये खेत मकान आदि मेरे स्वरूप होते तो सदा काल मेरे साथ रहते। मुझे त्याग कर न जाते। किन्तु ऐसा देखा नहीं जाता! मैं विद्यमान रहता हूँ फिर भी ये मुझे छोड़ कर अन्यत्र चले जाते हैं। मेरी मौजूदगी में ही दूसरे के धन जाते हैं। देखते देखते पराये हो जाते हैं। मेरे मर जाने पर और अन्यत्र चले जाने पर ये यहीं रह जाएंगे। जब मैं दुःखी होता हूं तो ये मेरी रक्षा नहीं करते । अतएव इन्हें ग्रहण करना मेरे लिए उचित नहीं है। वास्तव में ये कामभोग के साधन सुखदायी नहीं है। इनके कारण अन्तःकरण में घोर अशान्ति और व्याकुलता उत्पन्न होती रहती है। ये मुझे अपने शुद्ध चिदानन्द स्वरूप की और झांकने नहीं देते। मैं अपने जीवन का अमूल्य समय इनकी रक्षा और वृद्धि में ही व्यय कर रहा हूं परन्तु बदले में इनसे क्या पा रहा हूं? लेश मात्र તે ત્રણે કાળમાં પણ તેનાથી જુદી થતી નથી, જેમકે ઠંડા પણું તે જલને ધર્મ છે, તે શીતલ પણું જલનો ત્યાગ કરતું નથી. જે આ ખેતર, મકાન, વિગેરે સાધને મારા નિજ સ્વરૂપ હેત તે સદાકાળ મારી સાથે જ રહેત મારો ત્યાગ કરીને તે જાત નહીં. પરંતુ એવું જોવામાં આવતું નથી, હું વિદ્યમાન રહું છું, તે પણ આ મને છોડીને બીજે ચાલ્યા જાય છે. મારી હાજરીમાં જ તે બીજાના બની જાય છે. મારા મરી જવાથી અથવા બીજે જવાથી આ અહીંજ રહી જશે. જ્યારે હું દુઃખી બનું છું કે આ મારૂં રક્ષણ કરી શકતા નથી. તેથી જ તેને ગ્રહણ કરવું તે મને યોગ્ય નથી, વાસ્તવિક રીતે આ કામભોગના સાધને સુખને આપવાવાળા દેતા નથી, તેના આશ્રાથી અંતઃકરણમાં ઘોર અશાંતિ અને વ્યાકુળપણું ઉત્પન્ન થતું રહે છે. તે મને મારા શુદ્ધ ચિદાનંદ સ્વરૂપ તરફ જુકવા-વળવા દેતા નથી. હું મારા જીવનને અમૂલ્ય સમય આની રક્ષા અને તેને વધારવામાં જ વીતાવી ૨ો છું. પરંતુ તેના બદલામાં તેનાથી શું મેળવું છું? આ લેશમાત્ર પણ For Private And Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् _ 'से मेहावी जाणेज्जा' अथ मेधावी एवं जानीयात्, 'बहिरंगमेयं' बहिरङ्ग मेतत्, सर्वमेतन्न मत्स्वरूपम्, किन्तु-बहिरङ्गम् विभिन्नमेव, 'इणमेव उवणीय तरग' इहमे बोपनीततरम्, एतेभ्यः खलु क्षेत्रादिभ्यः समीपवचिनो वक्ष्यमाणा मातृपित्रादयः, एव । 'तं जहा' तद्यथा-'माया मे पिया में माता मे पिता मे 'माया मे भगिणी में भ्राता में भगिनी में 'मज्जा मे पुत्ता में भार्या मे पुत्रा मे 'धूया मे पेसा में दुहितारो में प्रेष्या में 'नत्ता में सुण्हा में नप्ता में नप्ता पौत्रा, स्नुषा मे-स्नुषा-पुत्र वधूः 'सुहा मे पिया में' सुहम्मे-मित्र में प्रिया में 'सहा में सखा में 'सयणसंगथसंथुया में स्वजनसंग्रन्थसंस्तुता मे, पूर्वाधरपरिचिताई जननीजन कादयः, तत्परिचिताः सम्बन्धिनश्च में विद्यन्ते, तत्र स्वजनाः जननीजनकादयः, तत्परिचिताः सम्बन्धिनश्च में विद्यन्ते, पूर्वसंयोगा:संग्रन्थाः, पश्चात् संयोगाः श्वशुरादयः, संस्तुताः सामान्यतः परिचिताः, भी शान्ति ये प्रदान नहीं कर सकते। अतएव इनको ग्रहण न करना और अपना न मानना ही मेरे लिए श्रेयस्कर है। मैं इनका स्याग कर दूंगा! बुद्धिमान् पुरुष ऐसा समझे-खेत, मकान आदि पदार्थ तो मुझसे भिन्न हैं ही, किन्तु इन पदार्थों से भी जो अधिक समीपवर्ती हैं, जैसे कि मेरी माता है, मेरा पिता है मेरा भ्राता है, मेरी भगिनी है, मेरी भार्या (पत्नी) है, मेरे पुत्र है, मेरे नौकर चाकर हैं, मेरे नाती पोते हैं पुत्रवधू है, मित्र हैं, प्रियजन हैं, आगे पीछे के परिचित एवं सम्बन्धी हैं। स्वजन अर्थात् पूर्वापर परिचित माता पिता आदि, संग्रन्थ अर्थात् बाद के संबंधी जैसे श्वशुर आदि और संस्तुत अर्थात् सामान्य रूप से શાંતિ આપી શકતા નથી, તેથી જ તેને ગ્રહણ ન કરવું અને પિતાનું ન માનવું એજ મારા માટે કલ્યાણ કારક છે. જેથી હું તેને ત્યાગ કરી દઈશ. બુદ્ધિમાન પુરૂષ આ પ્રમાણે સમજે કે–ખેતર, મકાન, વિગેરે પદાર્થો તે મારાથી જુદા છે જ, પરંતુ આ પદાર્થોથી પણ જે વધારે નજીક છે જેમકે-આ મારી માતા છે, મારા પિતા છે, મારે ભાઈ છે, મારી બહેન छ, भारी श्री छ, भा। पुत्रो छे, भा॥ ४२ ॥४२ छ. भ.२२ पौत्रो छ. પુત્રવધૂઓ છે, પ્રિયજન છે, સખા છે. આગળ પાછળના પરિચિત અને સંબંધી વર્ગ છે, સ્વજન-અર્થાત્ પૂર્વાપરના પરિચયવાળા માતા પિતા વિગેરે સંબન્ધી અર્થાત્ પછીના સંબંધ વાળાએ જેમકે સાસરા વિગેરે અને સંતુત For Private And Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे 'एए खल मम णायओ' एते खलु मम ज्ञातया, 'अहमवि एएसि' अहमपि एतेषाम, क्षेत्रधनधान्यायपेक्षया इमे सम्बन्धिनोऽन्तरङ्गा विद्यन्ते। 'एवं से मेहावी पुन्नामेव अप्पणा एवं समभिजाणेज्ना' एवं स मेधावी सदसदविवेकवान, पूर्वमेव-प्रात्मना-स्वयमेव-अन्वयव्यतिरेकाभ्यां समभिजानीयात् इह खल्ल मा अन्नयरे' इह खलु ममाऽन्यतरत्, 'दुक्खे रोयातके समुप्पज्जेज्जा' दुःखं रोगावः समुत्पद्येत, कीदृशः ? इत्याह-'अणिढे जाव दुक्खे णो सुहे' अनिष्टो याबदुःखं नो मुखम्, एतेषां मातृपुत्र कलत्रादीनां सद्भावेऽपि यदि कदाचिद्रोगा भवेयुःस्तदा किमते-तेभ्यो दुःखादिभ्य संरक्षणं करिष्यन्ति इति विचारयेत्, 'से इंता' तद् हन्त ! 'भयंतारो णायो' भयत्रातारो ज्ञातयः, 'इमं मम अन्नयरं दुक्खं रोयातकं' इदं ममाऽन्यतरददुःखं रोगातङ्कवा 'परियाइयह' पर्याददत विभ. ज्य विभज्य-विभागशः कृत्वा गृहीत 'अणि, जाव णो मुहं' अनिष्टं यावन्नो सुखम्-नो मुखजनकम्, यद्यहं समुपस्थिते रोगातङ्के ज्ञातीन-कथयिष्यामि-यत् हे परिचित हैं। ये मेरे ज्ञातिजन हैं और मैं इनका हूं। खेत, धन, धान्य आदि की अपेक्षा ये संबंधी अन्तरंग हैं। __ सत् असत् के विवेक से सम्पन्न पुरुष इनके विषय में पहले से ही समझ ले कि कदाचित् मुझे किसी प्रकार का दुःख या आतंक उत्पन्न हो जाय, जो अनिष्ट यावत् दुःखदायी हो और सुखदायी न हो, तो क्या ये माता पिता आदि उस दुःख से मेरी रक्षा कर सकेगे? नहीं, कदापि नहीं। उस समय मैं इनसे प्रार्थना करूं कि-हे भयत्राता ज्ञाति जनो ! मुझे यह दुःख उत्पन्न हुआ है, जो कष्टप्रद और सुखप्रद नहीं है, इसे थोड़ा थोड़ा बांट कर ग्रहण कर लो, जिससे सारा का सारा અર્થાત્ સામાન્ય પણાથી પરિચય વાળા આ મારા જ્ઞાતિજને છે, અને હું તેઓને છું. ખેતર, ધન, ધાન્ય વિગેરેના કરતાં આ અંતરંગ સંબન્ધી છે. સત્ અસતને વિવેકથી યુક્ત પુરૂષ એમના વિષયમાં પહેલેથી સમજી લે કેકદાચ મને કઈ પ્રકારનું દુખ અથવા આતંક સઘોઘાતિ શૂલાદિ ઉત્પન થઈ જાય કે જે અનિષ્ટ યાવત્ દુઃખ દેનાર હેય, અને સુખ આપનાર ન હોય, તે શું આ માતા પિતા વિગેરે તે દુઃખથી મારું રક્ષણ કરી શકશે ? અર્થાત્ નહીં કરી શકે કઈ કાળે તેઓ દુઃખથી મારું રક્ષણ કરી શકે તેમ નથી. તે વખતે હું તેઓને પ્રાર્થના કરું કે-હે ભયથી રક્ષણ કરવાવાળા જ્ઞાતિજને! મને આ દુઃખ ઉત્પન્ન થયું છે. જે કષ્ટપ્રદ છે. અને સુખ આપનાર નથી. તેને ડું વહેંચીને તમે લઈ લે. કે જેથી સંપૂર્ણ મારે એકલાએ જ ભોગવવું For Private And Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खमयार्थबोधिनी टीका हि. अ. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् ज्ञातयो मे दुःखं रोगातङ्क विभज्य भवन्तो गृह्णन्तु- यतो यततोऽपि दुःखमिदमनिष्टमापतितम्, तदा केऽपि तदुद्धरणे न समर्था भविष्यन्ति, 'ताहं दुक्खामि वा सोयामि वा जाव परितप्पामि वा तदहं दुःख्यामि वा शोचामि यावश्परितप्ये वा 'इमाओ अन्नयराओ दुक्खाओ रोगातकाओ परिमोएह अणिट्ठाओ जाव णो सुहाओ' अस्मान्मेऽन्यतरस्माद्दुःखा द्रोगातङ्कात् परिमोचयत-अनिष्टाद् यावन्नो सुखात् । पदहं दुःखेन शोचामि अतो यूयमनिष्टान्मां रक्षतेति । 'एवमेव णो लद्धपुवं भवई' एवमेव नो लब्धपूर्वो भवति, एवं दुःखविमोक्षाय प्रार्थितोऽपि बान्धको दुःखाद् रोगातङ्काद् मां रक्षयेदित्येवं न सम्भवति कथमपि, 'तेसि वा वि भयंवाराणं ममण्णाययाणं अन्नयरे दुक्खे रोयातं के समुपज्जेज्जा' तेषां वापि भयत्रातृणां मम ज्ञातीनामन्यतरद् दुःख रोगातङ्कं समुत्पद्येत 'अगिढे जाव णो मुहे' अनिष्टं यावन्नो सुखम् ‘से हंता' तत्-तस्मात्कारणात् हन्त-खेदे 'अहमे तेसि मुझ अकेलेको ही न भोगना पड़े और बंट जाने से हल्का हो जाय। क्या ऐसी प्रार्थना करने पर वे मेरा उद्धार कर सकेंगे ? क्या उस दुःख का बंटवारा करके ग्रहण कर लेगें ? किन्तु न ऐसा कभी हुआ है और न होगा। इस प्रकार की प्रार्थना करने पर भी ज्ञातिजन उस दुःखमय रोगातक से मेरी रक्षा नहीं कर सकेंगे। ___ज्ञातिजन मेरादुःख नहीं वांट सकते, इतना ही नहीं, मैं भी उनके दुःख वांटने में समर्थ नहीं हूं। उन भय से रक्षा करने वाले ज्ञातिजनोंको कोई अनिष्ट यावत् असुखरूप रोगातंक उत्पन्न हो जाय और मैं चाहूं कि मैं उनको इस अनिष्ट अवांछनीय यावत् असुख रूप रोगांतक से छुड़ा लं, तो भी ऐसा कर नहीं सकता! मैं सफल नहीं हो सकता। ન પડે. અને વહેંચાઈ જવાથી તે હકું થઈ જાય, આ રીતે પ્રાર્થના કરવાથી શું તેઓ મારો ઉદ્ધાર કરી શકશે ? શું તે દુઃખની વહેંચણી કરીને તેઓ ગ્રહણ કરી લેશે ? પરંતુ એવું કદી થયું નથી, અને થશે પણ નહીં. આવા પ્રકારની પ્રાર્થના કરવા છતાં પણ જ્ઞાતિજને તે દુઃખરૂપ રોગાતંકથી મારી રક્ષણ કરી શકશે નહીં. ज्ञातिन भा३५ पडेयी ४ नही. मेट नही पाई પણ તેઓનું દુઃખ વહેંચીને લઈ શકવાને સમર્થ નથી. તે ભયથી રક્ષા કરવા વાળા જ્ઞાતિજનોને કેઈ અનિષ્ટ અવાંછનીય યાવત્ અસુખરૂપ રંગાતંક ઉત્પન્ન થઈ જાય અને હું તેઓને તે અનિષ્ટ. અવાંછનીય યાવત્ અસુખ રૂ૫ રેગાતંકથી છેડાવી લઉં, તે પણ એવું હું કરી શકતું નથી. તેનું શું કારણ છે? For Private And Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९८ सूत्रकृतामसूत्र भयंताराणं णाययाणं इमं अनयरं' अहमेतेषां भयत्रातृगां ज्ञातीनाम् इदमन्यसरत् 'दुक्खं' दुःखम् 'रोयाक' रोगातकं वा 'परियाझ्यामि' पर्याददेभविभज्य गृह्णामि 'अणिहँ जाव णो सुहे' अनिष्टं यावन्नो मुखम्, ‘मा मे दुखं तु वा जाव मा मे परितप्पंतु वा' मा मे दुःख्यन्तु यावन्मा मे परितप्यन्तां वा मे-मम इमे परिवाराः मा दुःखमासादयन्तु-परितापं मा प्राप्नुयुः, कस्मात् 'इमाओ णं अगयराओं' अस्मादन्यतरस्मात् 'दुक्खाभो रोगातंकाओ' दुःखाद रोगातङ्कात् 'परिमोएमि' परिमोचयामि अणिठ्ठाओ' अनिष्टात् 'जाव णो सुहाओ' यावन्नो सुखात्-अहमेतान् स्वकीयपरिवारान् रोगादिभ्यो मोचयिष्यामीति विचारे कृतेऽपि सः 'एवमेव णो लद्धपुनो भवई' एवमेव नो लब्धपूर्वो भवति, तत्र नाऽहं सफलमयत्नो भवामि, कुतो न सफलमयत्नो भवति जन्तु रन्यस्य दुःखस्य तत्र कारणं दर्शयति स्वयमेव 'अन्नम्स दुक्खं अन्नो न परियाइयई' अन्यस्य दुःखमन्यो न पर्यादत्ते-विभज्य गृह्णाति । 'अन्नेन कडं अन्नो नो पडिवेदेई' अन्येन कृतमन्यो न पतिवेदयति, पत्तेयं जायइ पत्तेय मरइ प्रत्येकं जायते प्रत्येकं म्रियते, 'पत्तेय चयई प्रत्येकं त्यजति 'पत्तेयं उक्वन' प्रत्येकमुपपद्यते 'पत्तेयं झंझा प्रत्येक झंझा कषायसम्बन्धोऽपि एकैकस्य भवति 'पत्तेयं समा' प्रत्येकं संज्ञा 'पत्तेयं इसका कारण क्या हैं ? एक मनुष्य दूसरे मनुष्य को दुःख से बचाने या उसे वांट लेने में क्यों समर्थ नहीं होता? इसका कारण आगे बतलाया जायगा है। सत्य यह है कि दूसरे के दुःख को दूसरा कोई भी घांट का ले नहीं सकता। दूसरे के किये शुभ अशुभ कर्म को दूसरा कोई भोग नहीं सकता। जीव अकेला ही जन्मता है, अकेला ही मरता है, अकेला ही वर्तमान भव का या सम्पत्ति का त्याग करता है, अकेला ही नवीन भव या सम्पत्ति को ग्रहण करता है । अकेला ही कषाय से युक्त होता એક મનુષ્ય બીજા મનુષ્યને દુખધી બચાવવામાં અથવા તેને વહેંચી લેવામાં કેમ સમર્થ થતા નથી ? તેનું કારણ આગળ બતાવવામાં આવશે. સાચું તે એ છે કે બીજાના દુઃખને અન્ય કોઈ પણ વહેચીને લઈ શકતા નથી. બીજાએ કરેલ શુભ અશુભ કર્મને બીજું કંઈ જોગવી શકતું નથી. જીવ એકલે જ જન્મે છે, અને એકલે જ મરે છે એકલે જ વર્તમાન ભવને અથવા સંપત્તિને ત્યાગ કરે છે. એક જ ન ભવ અથવા સંપત્તિને ગ્રહણ કરે છે. એક જ કષાયથી યુક્ત થાય છે. દરેકની સંજ્ઞા અલગ હોય For Private And Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयाबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् मन्ना' प्रत्येकं मननम् एवं चिन्न वेपणा' एवमेव विद्वान् वेदना, एवमेव प्रत्येक विद्वान् भवति, प्रत्येकं च वेदना-सुखदुःखानु भयो भवत्ति, नहि मिलित्वा मुख दुःखादीनां भोगो भवति, अपि तु येन यत् कृतम् तत्फलं सुखदुःखादि तेनैव भुज्यते, नाऽन्यकृतमन्येन, अन्यथा- कृतस्य हानिः, अकृतस्याऽऽगमश्व प्रसज्येत, 'इह खलु णाइसंजोगा णो ताणाए वा गो सरणाए वा, पुरिसे वा एगया पुन्नि णाइसंजोए विपजहाई' इह खलु ज्ञातिसंयोगा नो त्राणाय वा नो शरणाय वा, पुरुषो वा एकदा पूर्व ज्ञातिसंयोगान् विषजहाति, णाइसंजोया वा एगया पुनि पुरिस विपजहते' ज्ञातिसंयोगा वा एकदा पूर्व पुरुषं विप्रनहति, 'अण्णे खलु पाइसंजोगा अन्नो अहमंसि' अन्ये खलु है, प्रत्येक को संज्ञा अलग होतो है, प्रत्येक का मनन चिन्ता अला २ है, प्रत्येक की विद्वत्ता और प्रत्येक का सुख दुःख अलग अलग होता है। तात्पर्य यह है कि जिसने जैसा कर्म किया है, वह उसके फलस्व. रूइ वैसा ही सुख या दुःख भोगता है, अन्य के किये को कोई अन्य नहीं भोगता । ऐसा हो तो कृतहानि और अकृताभ्यागम नामक दोषों का प्रसंग होगा अर्थात् कर्म का कर्ता तो उसके फल भोग से वंचित रह जाएगा और जिसने कर्म नहीं किया उसे उसका फल भोगना पडेगा ! इस प्रकार कर्म भोग की सम्पूर्ण व्यवस्था ही भंग हो जाएगी। इस प्रकार यह निश्चित है कि ज्ञातिजनों के संयोग त्राण या शरण रूप नहीं है । या तो पुरुष ही पहले ज्ञातिजनों के संयोग को त्याग देता है या ज्ञातिसंयोग उस पुरुष को पहले त्याग देते हैं। અલગ હોય છે. દરેકનું મનન ચિંતન અલગ અલગ હોય છે. વિદ્વત્તા અને દરેકનું સુખ દુઃખ અલગ અલગ હોય છે. તાત્પર્ય એ છે કે–જેણે જેવું કામ કર્યું હોય છે, તે તેના ફલરૂપે એવું જ સુખ અને દુઃખ ભેગવે છે. તેણે કરેલ કમને બીજે કઈ ભેગ વતું નથી. એમ હોય તે કૃતહાનિ અને અકૃતાભ્યાગમ નામને દેષ આવ. વાને પ્રસંગ પ્રાપ્ત થશે. અર્થાત્ કમને કરનાર તે તેનું ફળ ભોગવ્યા વિનાને રહી જશે. અને જેણે કર્મ કર્યું નથી, તેને તેનું ફળ ભેગવવું પડશે. આ રીતે કમ ભેગની સમગ્ર વ્યવસ્થા જ ભાંગી પડશે. આ રીતે એ નિશ્ચિત છે કે–જ્ઞાતિ જનેને સાગ ત્રાણ અથવા શરણ રૂપ થતું નથી. અથવા તે પુરૂષ જ પહેલાં જ્ઞાતિ જનેના સંગને ત્યાગ કરી દે. અથવા જ્ઞાતિ સંગ તે પુરૂષને પહેલાં ત્યાગ કરી દે છે. જ્ઞાતિ સંગ મારાથી ભિન્ન છે, હું જ્ઞાતિ સંયોગથી ભિન્ન છું. આવી For Private And Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२० सूत्रकृताङ्गसूत्रे शातिसंयोगाः, अन्योऽहमस्मि 'से किमंग पुण' तत् किमङ्ग पुनः 'वयं अन्न मन्नेहिं णाइसंजोगेहिं मुच्छामो' वयमन्यान्येषु ज्ञातिसंयोगेषु मूर्छामः, 'इ संखार णं वयं णाइसंजोगं विष्पजहिस्सामो' इति संख्याय-इत्येवं ज्ञातिसंयोगः विषये संख्याय-विचार्य खत्रु तं ज्ञातिसंयोगं विप्रहास्यामः-त्यक्ष्यामः। 'से मेहावी जाणेज्जा' स मेधावी जानीयात् 'बहिरंगमेयं' बहिरङ्गमें नव-ज्ञातिसंयोगादिकम् , उक्तंच 'कस्य माता पिता कस्य, कस्य भ्राता सहोदरः' इत्यादि। ज्ञाति संयोग मुझसे भिन्न हैं, में ज्ञातिसंयोगों से भिन्न है ऐसी स्थिति में हम ज्ञातिसंयोगों में क्यों मूर्छाभाव धारण करें ? कहीं भी आनक्ति धारण करना उचित नहीं है। कदाचित् वह हो भी तो अपने में अपनी आत्मा में ही होनी चाहिए। स्व से भिन्न परपदार्थों में आसक्ति होना किसी भी प्रकार श्रेयस्कर नहीं है । वह सर्वथा अशान्ति, आकु. लता, चिन्ता, शोक और दुःख का ही कारण होती है । जैसे पशु तथा धन धान्य आदि सर्वथा बहिरंग हैं। उसी प्रकार बन्धु बान्धव भी सर्वथा भिन्न परपदार्थ हैं । अतएव उनमें ममत्वबुद्धि स्थापित करना श्रेयस्कर नहीं है। इस प्रकार जान कर हम ज्ञाति संबंध का परित्याग कर देगें, ऐसा विवेक शील पुरुष को विचार करना चाहिए। कहा भी है-'इस परिवर्तनशील संसार में कौन किसकी माता है, कौन किसका पिता है, कौन किसका सहोदर भाई है।' अर्थात् निश्चय दृष्टि से किसी સ્થિતિમાં હું જ્ઞાતિજનમાં શા માટે મૂછભાવ-વિશ્વાસ રાખું? ક્યાંઈ પણ આસક્તિ રાખવી ન જોઈએ. કદાચ આસક્તિ હોય તે તે પિતાનામાં પિતાના આત્મામાં જ હોવી જોઈએ. પિતાનાથી જાવા અન્ય પદાર્થોમાં આસક્તિ હોવી કઈ પણ રીતે શ્રેયસ્કર નથી. તે સર્વથા અશતિ, આકુલ પણું, ચિંતા, શેક, અને દુઃખનું જ કારણ હોય છે. જેમ પશુ અને ધન, ધાન્ય વિગેરે સર્વ પ્રકારથી બહિરંગ છે, તેજ રીતે બધુ, બાંધવ, વિગેરે પણ સર્વથા ભિન્ન અર્થાત્ પરપદાર્થ છે. તેથી જ તેમાં મમત્વપણું રાખવું તે શ્રેયસ્કર નથી. આ પ્રમાણે સમજીને હું જ્ઞાતિ સંબંધને ત્યાગ કરી દઈશ આ પ્રમાણે વિવેક વાળા પુરૂષે વિચારવું જોઈએ. કહ્યું પણ છે કે પરિવર્તન વાળા એવા આ સંસારમાં કોણ કોની મા છે? કેણ કેના પિતા છે? કે કોને ભાઈ છે? અર્થાત્ નિશ્ચય દષ્ટિથી કેઈ જીવને બીજા જીવ સાથે કોઈ જ For Private And Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका वि. श्रु. अ. १ पुण्डरोकनामाध्ययनम् १२१ किन्तु-ज्ञातिसंयोगाद्यपेक्षया 'इणमे। उवगीयतराग' इदमेवोपनीततरम्आसन्नतरम् , 'तं जहा' तद्यथा 'हत्था मे पाया में इस्तौ मे पादौ मे 'बाहा में बाहू मे 'ऊऊ मे' ऊरू में 'उयरं में' उदरं मे 'सीसं मे सीलं में शीर्ष मे शीलं में 'आऊ में बलं में' आयु में बलं मे 'वण्गो मे तया मे' वर्गों में त्वचा में 'छाया मे सोयं में छाया मे श्रोत्रं मे 'चक्खू मे घाणं में चक्षु में घ्राणं में 'जिह्वा मे फासा में जिह्वा मे स्पर्शा में, 'ममाइज्जइ' ममायते-एतेषु ममत्वं करोति, अनेन रूपेण जीवः शरीरे-शरीराऽवयवे ममकारम् उत्पादयति, एवं कुर्वतस्तस्य जन्तोः 'वयाउ पडिजाइ' अयप्तः परिजीयते-क्योऽधिकृत्य परिजीर्णतां प्राप्नोति वयसः परिसमाप्ति भवतीति भावः। जीव का दूसरे जीव के साथ कोई संबंध नहीं है और व्यवहार दृष्टि से ऐसा कोई जीव इस संसार में नहीं दिखता जिसके साथ अनन्त अनन्त वार सभी प्रकार के सम्बन्ध न हो चुके हों ! ऐसी स्थिति में किसे क्या कहा जाय। बुद्धिमान ऐसा भी विचार करे कि ज्ञातिसंयोग तो फिर भी बाहय पदार्थ है, उनसे अधिक भी समीप तो ये हैं, जैसे मेरे हाथ हैं, मेरे चरण हैं, मेरी पाहुएँ हैं, मेरी उरु हैं, मेरा उदर है, मेरा सिर है, मेरा शील है, मेरी आयु है, मेरा बल है, मेरा वर्ण है, मेरी स्वचा है, मेरी कान्ति है, मेरा श्रोत्र (कान) है, मेरे नेत्र हैं, मेरी घाण है, मेरी स्पर्शन इन्द्रिय है, इस प्रकार जीव अपने शरीर में और शरीर के अवयवों में સંબંધ હેતું નથી. અને વ્યવહાર દૃષ્ટિથી એ કઈ જીવ આ સંસારમાં દેખાતું નથી, કે જેની સાથે અનન્ત, અનન્ત વાર બધા જ પ્રકારના સંબંધ થઈ ચૂક્યા ન હોય ? આવી સ્થિતિમાં કોને શું કહી શકાય? બુદ્ધિશાળી પુરૂષ એ પણ વિચાર કરે કે-જ્ઞાતિ-સંગ તે આમ પણ બહારને પદાર્થ છે, પણ તેનાથી વધારે નજીક તે આ મારા હાથ છે. ५ छ, भा। माई छ, भारी ३-० छे, मा३ २८ छे, मा३ भाथु छे. મારો શીળ છે, મારું આયુષ્ય છે, મારૂં બળ છે, મારો વધ્યું છે, મારી यामडी छे, भारी ति छ, भा२१ न छे, भारी मांछे, भाई नछे. મારી જીભ છે, મારી સ્પર્શન ઇન્દ્રિય છે. આ રીતે જીવ પોતાના શરીરમાં મમત્વભાવ (મારાપણું) ધારણ કરે છે, મારું મારું કરતાં જીવનું સંપૂર્ણ सू० १६ For Private And Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir se सूत्रकृतास बहतम्-'अशनं मे वसनं मे, जाया मे बन्धुवर्गों में। इति मे में कुणिं, कालको इन्ति पुरुषाजम् ।।इति । 'वं जहा' वद्यथा 'आउसो' आयुषः 'बलाओ' बलात् 'वण्णाओ' वर्णात् 'तयाओं त्वचः 'छायाओ' छायायाः 'सोयाओ' श्रोत्रात् 'जाव' यावत् 'फासापो' स्पर्शात् 'मुसन्धितः 'संधी विसंधी भवई' सन्धि विसन्धि भवति 'वलियतरंगे गाए भवई' पबिततरङ्ग गात्रं भवति, कण्हा केसा पलिया भवंति' कृष्णाः केशाः पलिता:श्वेता भवन्ति 'तं जहा' तद्यथा 'जपि य इमं सरीरं' यदपि चेदं शरीरम् 'उराल. माहारोवइयं उदारमाहारोपचितम् । 'एयं पि य एतदपि च 'अणुपुत्वेणं' आनुपूर्व्या 'विपजहियध्वं भविस्सई' विप्रहातव्यं भविष्यति ‘एवं संखाए से भिक्खू' ममत्वभाव धारण करता है । 'मेरा मेरा' करते जीव की सम्पूर्ण आयु जीर्ण हो जाती है । कहा भी है-'अशनं मे वसनं मे' इत्यादि। ___'मेरा अशन है, मेरा वचन है (वस्त्र है) मेरी पत्नी है, मेरा बन्धु. स्वर्ग है, इस प्रकार मैं-मैं-मेरा-मेरा करते हुर पुरुष रूपी बकरे को काल रूपी वृक हजम कर लेता है।' वह मनुष्य आयु से, बल से, वर्ण से, त्वचा से, कान्ति से, कानों से, यावत् स्पर्श से हीन हो जाता है । उसकी सुघटित संधियां शिथिल हो जाती हैं-हड्डियों के जोड़ ढोले पड़ जाते हैं, चमड़ी में सलवट पड़ जाते हैं और काले काले बाल सफेद हो जाते हैं, और यह जोः उत्तम साक्षा आहार द्वारा चढया हुआ शरीर है, वह भी अनुक्रम से त्यागदेना होगा। આયુષ્ય જીર્ણ થઈ જાય છે, અને શરીર પણ જીર્ણ થઈ જાય છે. કહ્યું પણ -अशनं मे वसनं मे' त्या: भा३ अशन- २ छ, भा३ १ छ, भारी स्त्री छ, भा। अधु વર્ગ છે, આ પ્રમાણે હું અને મારું મારું કરતા કરતા પુરૂષ રૂપી બકરાને કાળ રૂપી વરૂ ખાઈ જાય છે. તે મનુષ્ય આયુથી, બળથી વર્ણથી, ચામડીથી, કાંતિથી કાનેથી યાવત પર્શથી રહિત થઈ જાય છે. તેની સંધિ ઢીલી પડી જાય છે, હાડકાનું જોડાણ નરમ ઢીલા પડી જાય છે. ચામડીમાં સળવળાટ આવી જાય છે. અને કળા કાળા વાળ સફેદ થઈ જાય છે, અને જે આ ઉત્તમ આહાર દ્વારા હિમારેલું શરીર છે, તેને પણ અનુક્રમથી ત્યાગ કરે જોઈએ. For Private And Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 2.PAAS समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् ११३. एवं संख्याय-अनेन रूपेण क्षेत्र-बान्धवशरीरादीनामनित्यतां विभाव्य-परित्यज्य चैतान , स भिक्षुः 'भिक्खायरियाए' भिक्षाचर्यायाम् , 'समुट्ठिए' समुत्थितःसमुद्यतः 'दुहओ लोग' उभयतो लोकम्-द्विधिमपि-ऐहिकाऽमुनिकमपि लोकम् 'जाणेज्जा' जानीयात् 'तं जहा' तद्यथा 'जीवा चेव अनीषा चेव' जीवाश्चैव अजीवाश्चैव 'तसा चेव थावरा चेव' असाश्चैव स्थावराश्चैव पदार्या ज्ञातव्या इति ॥मू०१३॥ ___मूलम्-इह खलु गारत्था सारंभा सपरिग्गहा, सते. गइया समणा माहणा वि सारंभा सपरिग्गहा, जे इमे तसी थावराय पाणा ते सयं समारभंति अन्नेण वि समारंभाति अण्णं पि समारभंतं समणुजाणंति। इह खलु गारत्था सारंभा लपरिग्गहा, संतेगइया समणा माहणा वि सारंभा सपरिग्गहा, जे इमे कामभोगा सचित्ता वा अचित्ता वा ते सयं परिगिण्हति अन्नेण वि परिगिण्हावेति अन्नं पि परिगिण्हतं समणुजाणति। इह खलु गारत्था सारंभा सपरिग्गहा, संतेगइया समणा माहणा वि सारंभा सपरिग्गहा, अहं खलु अणारंभे अपरिग्गहे, जे खल्लु गारत्था सारंभा सपरिगहा, संतेगइया समणा माहणा वि सारंभा सपरिग्गहा, एएसिं चेव निस्साए बंभचेरवासं वसिस्सामो, कस्स णं ते हेऊ?, जहा पुत्वं तहा अवरं जहा अवरं ___इस प्रकार विचार कर अर्थात् क्षेत्रादि, बन्धु घान्धव आदि तथा शरीर आदि की अनित्यता को जान कर इन पर ममता न करे और भिक्षाचर्या के लिए उद्यत हो जाय । वह दोनों प्रकार के लोक को जाने, यथा जीव और अजीव तथा त्रस और स्थावर ॥१३॥ આ પ્રમાણે વિચાર કરીને અર્થાત્ ખેતર વિગેરે તથા બન્યુ વર્ગ અને બાંધવ વર્ગ વિગેરે તથા શરીર વિગેરેના અનિત્ય પાને સમજીને તેના પર મમતા પણું ન કરે. અને ભિક્ષા ચર્ચા માટે ઉદ્યમ કરવા તૈયાર થઈ જાય. તે જીવ અને અજીવ તથા ત્રસ અને સ્થાવર એમ બંને પ્રકારના જીવને જાણ લે ૧૩ - For Private And Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे तहा पुव्वं, अंजू एए अणुवरया अणुवटिया पुणरवि तारिसगा चेव। जे खलु गारत्था सारंभा सपरिग्गहा, संतेगइया समणा माहणा वि सारम्भा सपरिग्गहा, दुहओ पावाई कुव्वंति इइ संखाए दोहि वि अंतेहिं अदिस्समाणो इइ भिक्खू रीएजा। से बेमि पाईगंवा ४ जाव एवं से परिणाय कम्मे, एवं से ववेय कम्मे, एवं से विअंतकारए भवतीति मक्खायं ॥१४॥ ___ छाया-इह खलु गृहस्थाः सारम्भाः सपरिग्रहाः, सन्त्येके श्रमणाः माइना अपि सारम्भाः सपरिग्रहाः, ये इमे त्रसाः स्थावराश्च प्राणाः तान् स्वयं समारभन्ते अन्येनाऽपि समारम्भयन्ति अन्यमपि समारभमाणं समनुजानन्ति। इह खलु गृहस्थाः सारम्भाः सपरिग्रहाः, सन्त्येके श्रमणाः माहना अपि सारम्भाः सपरिग्रहाः, ये इमे काममोगाः सचित्ता वा अचित्ता वा तान् स्वयं परिगृह्णन्ति अन्येनाऽपि परिपाइयन्ति अन्यमपि परिगृह्णन्तं समनुजानन्ति । इह खलु गृहस्थाः सारम्भाः, सपरिग्रहाः सन्त्येके श्रमणा माहना अपि सारम्भाः सपरिग्रहाः, अहं खल अनारम्भ अपरिग्रहः, ये खल्लु गृहस्थाः सारम्भाः सपरिग्रहाः, सन्त्येके श्रमणा माहना अपि सारम्भाः सपरिग्रहाः, एतेषां चैव निश्रया ब्रह्मचर्यवासं बत्स्यामः । कस्य खलु तद् हेतोः १ यथापूर्व तथा अपरं यथा अपरं तथा पूर्वम् , अञ्जसा एते अनुपरताः पुनरपि तादृशा एव । ये खलु गृहस्थाः सारम्भाः सपरिग्रहाः, सन्त्येके श्रमणा माहना अपि सारम्माः सपरिग्रहाः, द्विधाऽपि पापानि कुर्वन्ति, इति संख्याय द्वाभ्यामप्यन्ताभ्यामदृश्यमान इति भिक्षुः रीयेत, तद् ब्रवीमि भाच्यां वा ४ यावद् एवं स परिज्ञातकर्मा एवं स व्यपेतकर्मा, एवं स व्यन्तकारको भवतीत्याख्यातम् ॥मू० १४॥ टीका-'इह खल्ल गारत्था' इह खलु गृहस्थाः , पुत्रकळत्रपुत्रादिभिः सह गृहे तिष्ठन्तीति गृहस्था स्ते 'सारंभा सपरिग्गहा' सारम्भाः-आरम्भेण सहिताः-षट् 'इह खलु गारस्था' इत्यादि। टीकार्थ-पुत्र कलत्र आदि के साथ गृह में रहने वाले गृहस्थ कहलाते हैं। इस लोक में गृहस्थ आरंभ और परिग्रह से युक्त होते हैं। क्योंकि इह खलु गारत्था' त्या ટીકાર્થ–પુત્ર, કલત્ર વિગેરેની સાથે ઘરમાં રહેવા વાળા ગૃહસ્થ કહે વાય છે. આ લેકમાં ગૃહસ્થો આરંભ અને પરિગ્રહથી યુક્ત હોય છે. કેમકે For Private And Personal Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् १२५ कायारम्भकारकाः सपरिग्रहा:-परिग्रहेण संहिताश्च भवन्ति यतस्ते तादृशीं क्रियां कुर्वन्ति-यथा प्राणातिपातादयो भवन्ति । तथा-द्विपदचतुष्पदधनधान्यादीनां परिग्रहं कुर्वन्ति, एवम्-'संतेगइया समणा माहणा वि' सन्त्येके केचन श्रमणा माहना अपि 'सारंभा-सपरिग्गडा' सारम्माः सपरिग्रहा भवन्ति, यत स्तेऽपि गृहस्थवदेव सावधानुष्ठान कुन्ति, तथा-द्विपदचतुष्पदधनधान्यादीनां संग्रह कुर्वन्ति, सारम्भसपडिग्रहवत्त्वेन ते किं कुर्वन्तीत्याह-'जे इथे तसा थावरा पाणा' ये इमे त्रसाः स्थावराश्च पाणा-पाणवन्तो जीचा: 'ते सयं समारभंति' तान्वे ऐसी क्रियाएँ करते हैं जिनसे प्राणातिपात आदि पाप होते हैं। वे द्विपद चतुष्पद धन धान्य आदि का परिग्रह भी करते हैं। इसी प्रकार कोई कोई श्रमण और ब्राह्मण भी आरंभ और परिग्रह से युक्त होते हैं, क्योंकि वे भी गृहस्थ के समान सावध अनुष्ठान करते हैं और विपद चतुष्पद धन धान्य आदि का संग्रह करते हैं । ये जो त्रस और स्थावर प्राणी हैं, उनका स्वयं आरंभ करते हैं, दूसरों से आरंभ करवाते हैं और आरंभ करने वाले दूसरे को अच्छा समझते हैं। गृहस्थ आरंभ और परिग्रह से युक्त होते हैं और कोई कोई श्रमण और ब्राह्मण भी आरंभ-परिग्रह सहित होते हैं । यह जो कामभोग के सचित्त विपद चतुष्पद आदि तथा अचित्त हिरण्य स्वर्ण आदि साधन हैं, उनको स्वयं ग्रहण करते हैं, दूसरों से ग्रहण करवाते हैं તેઓ એવી ક્રિયા કરે છે. જેનાથી પ્રાણાતિપાત વિગેરે પાપ થાય છે. તેઓ દ્વિપદ, એટલે બે પગવાળાને ચતુષ્પદ-ચાર પગવાળાને, તથા ધન, ધાન્ય વિગેરેને પરિગ્રહ પણ કરે છે, એ જ પ્રમાણે કઈ કઈ શ્રમણ અને બ્રાહ્મણ પણ આરંભ અને પરિગ્રહથી યુક્ત હોય છે, કેમકે તેઓ પણ ગૃહસ્થની જેમ સાવધ અનુષ્ઠાન કરે છે. મને દ્વિપદ, ચતુષ્પદ, ધન, ધાન્ય વિગેરેને સંગ્રહ કરે છે. જે આ ત્રસ અને સ્થાવર પ્રાણી છે, તેને સ્વયં આરંભ કરે છે, અને બીજાઓ પાસે આરંભ કરાવે છે, અને આરંભ કરાવવાવાળા બીજાએને સારા માને છે. ગૃહસ્થ આરંભ અને પરિગ્રહથી યુક્ત હોય છે, અને કઈ કઈ શ્રમણ અને બ્રાહ્મણ પણ આરંભ અને પરિગ્રહ વાળા હોય છે. જે આ કામભોગના દ્વિપક, ચતુષ્પદ વિગેરે સચિત્ત અને ધન, સુવર્ણ, હિરણ્ય, વિગેરે અચિત્ત સાધને છે, તેને સ્વયં ગ્રહણ કરે છે. બીજાઓ પાસે ગ્રહણ કરાવે છે, અને For Private And Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૨૬ सूत्रकृत प्राणिनः स्वयं समारभन्ते 'अन्ने वि' अन्येनाऽपि 'समारंभावेति' समारम्भयन्त्रि 'अण्णं वि' अन्यमवि 'समारभतं' समारभमाणाम् 'समणुजाणंति' समनुजानन्ति, स्वयं करोति अन्येन कारयति कुर्वन्तमन्यमनुमोदते च । तदेवं प्राणातिपातं मदश्ये सम्पति भोगभूतं परिग्रहं प्रदर्शयति'इह खलु गारस्था' इह खलु गृहस्था : 'सारंभा सपरिग्गहा ' सारम्भाः सपरिग्रहाःआरम्भेग सहिताः परिग्रहेण सहिताः तथा 'संतेगया' सन्त्येके केवन 'समणा माहा वि' श्रमणा माहना अपि 'सारंभा सपरिग्गदा' सारम्भाः- आरम्भकारिणः सपरिग्रहाः- धनधान्यादिपरिग्रहवन्तो भवन्ति, अनेन किमित्याह - 'जे इमे कामभोगा सचित्ता वा अचित्ता वा' ये इमे कामभोगाः सचित्ता वा अचित्ता वा, सचित्ताः - द्विपदचतुष्पदाः, अनित्ताः - हिरण्यसुत्रर्णादयः 'ते सयं परिगिव्हंति अन् विपरिगिन्छ। वेति' 'ते' तान् कामभोगान् 'सयं' स्वयं परिगृह्णन्ति अन्येनाऽपि परिग्राहयन्ति 'अनं पि परिमितं समणुजाणंति' अन्यमपि परिगृह्णन्तं समनुजानन्ति अनुमोदन्ते शाक्यभिक्षवो मादनाथ सचितादिपरिग्रहान् स्वयं धरन्ति अन्येनापि धारयन्ति धारयन्तमन्यं समनुजानन्ति सावधकर्मानुष्ठानं ते कुर्वन्ति कारयन्ति कुर्वन्तं चान्यमनुमोदन्ते, तथा - ' इह खलु गारत्था सारंभा और ग्रहण करने वाले दूसरे का अनुमोदन करते हैं। इसी प्रकार शाक्य आदि भिक्षु और ब्राह्मण भी सचित्त आदि परिग्रह को धारण करते हैं, दूसरों से धारण करवाते हैं और दूसरे धारण करने वालों का अनुमोदन करते हैं । वे स्वयं सावय अनुष्ठान करते हैं, करवाते हैं और करने वाले का अनुमोदन करते हैं। अनएव वे विशुद्ध संयम का पालन नहीं कर सकते । उनकी पूर्व की अवस्था 'गृहस्थावस्था' और बाद की अवस्था 'स्यागी अवस्था' दोनों समान ही होती हैं । वे वास्तव में साधु नहीं हैं । अतएव साधुजन उनके साथ सम्पर्क नहीं रखते हैं । 9 ગ્રહણ કરવાવાળા ખીજાઓનું અનુમાદન કરે છે. એજ પ્રમાણે શાકય વિગેર ભિક્ષુ અને બ્રહ્મણ પણ સચિત્ત વિગેરે પરિગ્રહને ધારણ કરે છે. ખીજાએ પાંસેથી ધારણ કરાવે છે, અને બીજા ધારણ કરનારાએનું અનુમાદન કરે છે. તેઓ સ્વય' સાવદ્ય અનુષ્ઠાન કરે છે. કરાવે છે, અને સાવદ્ય અનુષ્ઠાન કરવા વાળાનું અનુમાદન કરે છે. તેથી જ તેઓ વિશુદ્ધ સંયમનુ` પાલન કરી શકતા નથી. તેમની પૂર્વ અવસ્થા (ગૃહસ્થ અવસ્થા) અને પછીની અવસ્થા (ત્યાગી અવસ્થા) અને સરખી જ હાય છે, વાસ્તવિક રીતે તેઓ સાધુ હતા નથી. તેથી સાધુજને તેમની સાથે સપર્ક રાખતા નથી. For Private And Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् सपरिग्गहा' इह खलु गृहस्थाः सारम्भाः सपरिग्रहाः 'संतेगइया समणा माइणा वि सारंभा सपरिग्गहा' सन्त्येके श्रमणाः शाक्यमिक्ष से ब्राह्मगाश्चापि सारम्माः सप. रिग्रहा भवन्ति, इत्येवं ज्ञात्वा संयत आत्मार्थीमुनि विचारयति-'अहं खलु अणारंभे अपरिग्महे' अहम्-आईतमतानुयायी खलु अनारम्भः-सावध कर्माऽनुष्ठानरहितः, आरिग्रहस्थश्च-सचित्ताऽचित्तपरिग्रहवर्जितश्चाऽस्मि किन्तु 'जे खल्लु गार. स्था सारंभा सपरिग्गहा' ये खश गृहस्थाः सारम्भाः सपरिग्रहाः “संतेगइया समणा माहणा वि सारंभा सपरिग्गहा' सन्त्येके श्रमगा माहना अपि सारम्भाः सपरिनहाः सन्ति एतेसिं चेत्र निस्तार' एतेषाम्-सारम्भ सारिग्रहाणामेव निश्रया तदाश्रयणेन 'बंभचेरवासं वसिमसामो' ब्रनवर्यवासं श्रामण्यं वत्स्यामः आचरिष्यामः। अयं भावः-आरम्भपरिग्रहरहिताः सन्तोऽपि वयं धर्माधारदेवसंरक्षणार्थमाहार :ना. दिहेतोः सारम्भस परिग्रहगृहस्थनिश्रयैव प्रव्रज्यां पारयिष्याम इति । ननु यद्येवं तन्निश्रयैव मत्रज्यापाल्पते तदा तन्नित्रयैव विहर्तव्यम्, किमर्थं ते त्यज्यन्ते भवद्भिः ? इत्याशङ्कयाह-'कस्स णं तं हे' तत् तर्हि खलु कस्य हेतोः ? केन कारणेन गृहस्थश्रमणमाहनानां त्यागोऽभिहितः ? विदिताभिपाय आचार्य उत्तरयति-हे शिष्य ! 'जहा पुवं तहा अपरं जहा अपरं तहा पुव्वं' ते गृहस्था यथा पूर्व सारम्भाः सपरिग्रहा आसन् एवमेव पश्चादपि तादृशा एव भवन्ति । एवं केचन श्रमणा माहना अपि यथापूर्व प्रवज्यापूर्वकाले सारम्भाः सपरिग्रहा आसन् तथैव 'अवरं' इति मत्रज्याऽवस्थायामपि सारम्भाः सपरिग्रहा एव भवन्ति'जहा अबरं तडा पुवं' यथा अपरस्मिन्-प्रवज्याऽजस्थायामपि सारम्भाः सपरि. ग्रहाः सन्ति तथैव प्रवम्पापूर्वकालेऽपि सारम्माः सपरिग्रहा आसन् प्रत्युत 'अंज' इति प्रत्यक्षम्, एते गृहस्थाः श्रमणा माहनाश्च 'अणुवरया' अनुपरता:-सावद्याऽनुष्ठाननिष्ठत्तिरहिताः 'अणुवटिया' अनुपस्थिताः-सम्यगुस्थानवर्जिताः, आधा इस लोक में गृहस्थ आरंभ और परिग्रह से युक्त होते हैं और कोई कोई शाक्य आदि भिक्षु तथा ब्राह्मण भी आरंभ तथा परिग्रह से युक्त होते हैं। इस स्थिति में आत्मार्थी संयमी मुनि विचार कारता है-मैं आहेत मत का अनुयायी मुनि सायद्य कर्म के अनुष्ठान से रहित हूं और આ લેકમાં ગૃહસ્થ આરંભ અને પરિગ્રહથી યુક્ત હોય છે. અને કઈ કેઈ શાક્ય વિગેરે ભિક્ષુ તથા બ્રાહ્મણે પણ આરંભ તથાં પરિગ્રહથી હેય છે યુક્ત છે. આ પરિસ્થિતિમાં આત્માથી સંયમી મુનિ વિચાર કરે છે. હું અહંત મતને અનુયાયી મુનિ સાવધ કર્મના અનુષ્ઠાનથી રહિત છું. અને સચિત્ત For Private And Personal Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे कर्मोद्दिष्टादिभोजित्वात् सावद्यानुष्ठानसेवित्वाच्च 'पुणरवि' पुनरपि प्रव्रज्या वस्थायामपि 'तारिसगा चे। तादृशा एव-गृहस्थतुल्या ए३ । 'जे खलु' ये खल 'गारत्था' गृहस्थाः सारम्भाः सपरिग्रहाः तथा-'संतेगइया' सन्त्ये के केचन श्रमणा माहना अपि सारंमा सपरिग्रहाः सन्ति, अतस्ते 'दुहओ वि पावाई कुवंति' द्विधाऽपि पापानि कुर्वन्ति, इमे शाक्यभिक्षको माइनाश्च द्विधाऽपि-सारम्भमपरिग्रहत्वाभ्यामुभाभ्यामपि 'पाबाई कम्माई' पापानि-पापजनकानि कर्माणि 'कुवंति' कुर्वन्ति 'इइ संखाय दोहि वि अंतेहिं अदिसनाणो' इति संख्याय पूर्वोक्तगृहस्थ श्रमणमाहनानां रागद्वेषत्वं साधूनां तदहितत्वं च विज्ञाय द्वाभ्यामपि अन्ताम्या मारम्भपरिग्रहाम्यामदृश्यमानः-अस्पृश्यमानः ताभ्यां रहिता स्तन् ‘इइ' इति एवं शास्त्रमर्यादया 'भिक्खू' भिक्षुः-निरवद्यान्तमासाहारभिक्षगशीलः 'रीएज्जा' रीयेत-संबरे-संयम पालयेदितिभावः । 'से बेमि' तद् ब्रवीमि-तदहं कथयामि, सचित्त अचित्त परिग्रह से वजित हूं। जो गृहस्थ हैं वे आरंभ परिग्रह से सहित हैं और कोई कोई श्रमण तथा ब्राह्मा भी आरंभ परिग्रह से सहित हैं। वे दोनों प्रकार से पाप करते हैं अर्थात् राग से और द्वेष से अथवा बाह्य तथा आभ्यन्तर रूप से पापजनक कर्म करते हुए पापों को उपार्जन करते हैं। ऐसा जानकर अर्थात् गृहस्थों तथा शाक्य आदि भिक्षुओं और ब्राह्मणों को रागद्वेष से युक्त तथा साधुओं को रागद्वेष से रहित जानकर स्वयं रागद्वेष से निवृत्त होता हुआ विचरे । यहां 'अन्त' शब्द का अर्थ रागद्वेष है। क्यों कि वे आत्मा को मोक्ष से दूर करते हैं-अधा पतित करते हैं । तात्पर्य यह है कि साधु राग और द्वेष से रहित हो कर संयम पथ में विचरण करे। અચિત્ત પરિગ્રહથી વર્જીત છું. જે ગૃહસ્થ છે, તેઓ આરંભ અને પરિગ્રહ વાળા છે. તથા કઈ કઈ શ્રમણ તથા બ્રાહ્મણ પણ આરંભ અને પરિગ્રહ વાળા છે, તે બન્ને પ્રકારથી પાપ કરે છે, અર્થાત્ રાગથી અને દ્વેષથી અથવા બાહ્ય (બહારના) અને આત્યંતર (અંદરના) રૂપથી પાપ જનક કર્મો કરતા થકા પાપનું ઉપાર્જન કરે છે. આવું સમજીને અર્થાત ગૃહસ્થ અને શાક્ય વિગેરે ભિક્ષુઓ અને બ્રાહણેને રાગદ્વેષવાળા તયા સાધુને રાગદ્વેષ વિનાના જાણીને સ્વયં રાગદ્વેષથી નિવૃત્ત થતા થકા વિચરે અહિયાં “અંત' શબ્દનો અર્થ રાગદ્વેષ છે. કેમકે તે આત્માને મોક્ષથી દૂર કરે છે, નીચે પાડે છે તાત્પર્ય એ છે કે–સાધુ રાગદ્વેષથી રહિત થઈને સંયમ માર્ગમાં વિચરણ કરે. For Private And Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बोधिनी ठीका हि. मु. म. १ पुण्डरीक नामाध्ययनम् 'पॉईण वा ४ जीये' माया यानि पूर्णका पाठः साचा । 'एवं से परिणायक' एवं स परिज्ञातकर्मा भवति प्राच्यादिदिग्भ्यः समतो यो मिरमिहाभ्यां रहितः स एव कर्मरहस्यज्ञाता भवति, 'एवं से ववेश: एवं मति स एवं भिक्षुः कर्मबन्धनरहितो भवति एवं सेविं अंत कारण भक्तीति मक्खायें एवं व्यवकारको माति स एव भिक्षुः कर्मश्चयकारको भववि, इत्याख्यातम् उक्तप्रकारेण प्रतिपादितं तीर्थकता भगवतेति ||१०१४ || मूलम् - तत्थ खलु भगवया लज्जीवनिकाया हेऊ पण्णत्ता, तं जहा - पुढवीकाए जाव तसकाए. से जहाणामए मम असायं दंडेण वा मुडीण वा लेलून वा कत्रालेण वा आउहिज्ज माणसवा हम्ममाणस्स वा तज्जिजमाणस्स वा ताडिजमाणस्त वा परियाविज्जमाणरूप वा किलाभिज्ज माणस्स वा उदविज्जमाणस्स वा जाव लोमुक्खणणमायम वि हिमांकारगं दुक्खें भयं पडिवेोम इच्चे जाण सच्चे जीवा सव्वे भूया सव्वे पाणा सव्वे सत्ता दंडेण वा जाव कवालेग वा आउट्टिज्जमाणा वा मैं कहता हूं कि पूर्वादि ६ दिशामों से आया हुआ जो माधु परिग्रह और आरंभ से रहित है, वही कर्म के स्वरूप को जानता है। इस प्रकार वह समस्त कर्मों से रहित होकर कर्मों का क्षय करता है । सावध कर्मों का अनुष्ठान करने वाले गृहस्थ, शाक्य आदि श्रमण तथा ब्राह्मण कर्मों का क्षय करने में समर्थ नहीं होते । सुनामी जम्बू समी आदि शिष्यों से कहते हैं । यही तीर्थकरों का कवर है || १४ | હું કહુ છુ કે પૂર્વ વિગેરે છ ક્રિશાએએથી આવેલા જે સાધુ પરિ ગ્રહ અને આરંભ નાના છે, એજ કાંના સ્વરૂપને જાગે છે. આ પ્રમાણે તે સવળા ક્રર્માથી રહિત થઈને કર્મો ક્ષય કરે છે. સાવદ્ય ક્રમનું અનુ ડ્રાન કરવાવાળા જીરૂં શાક વગેરે શ્રમણ તથા બ્રહ્મણુ કર્માંના ક્ષય કરવામાં સમય થતા નથી સુધર્માવામી જમ્મૂસ્વામી વગેરે શિષ્યને કહે છે કે —આજ તીય ક્રુ'शथन ॥१४॥ सु० १७ For Private And Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११० भाडे ★ इम्ममाणा वा तज्जिज्ज माणा वा ताडिज्जमाना वा परियावि ज्जमाना वा किलामिजमाणा वा उदविज्जमाणा वा जावं लोमुक्खणणमायमवि हिंसाकारगं दुक्खं भयं पडिसंवेदेति, एवं नचा सव्वे पाणा जाव सत्ता ण हंतव्वा ण अजावेयदवा ण परिघेता ण परितावेयव्वा ण उद्दवेयव्वा । से बेमि जे य अतीता जे य पडुप्पन्ना जे य आगमिस्सा अरिहंता भगवंता सव्वे ते एवमाइक्खति एवं भासंति एवं पण्णवेंति एवं परूवेंति - सव्वे पाणा जाव सत्ता ण हंतव्वा ण अज्जावेयव्वा ण परिघेतव्त्रा ण परितावेयव्वा ण उद्दवेयव्वा एस धम्मे धुवे पिइए सासए समिचलोगं खेयन्नेहिं पवेइए, एवं से भिक्खू विर पाणावायाओ जाव विरए परिग्गहाओ णो दंतपक्खालणेणं दंते पक्खालेजा णो अंजणं णो वमणं णो धूवणं णो तं परियाविएज्जा | से भिक्खू अकिरिए अलूसर अकोहे अमाणे अमाए अलोहे उवसंते परिनिब्बुडे णो आसंसं पुरओ करेजा, इमेण मे दिट्ठेण वा सुरण वा मएण वा चिन्नापण वा इमेण वा सुचरितवनियमत्रं भचेरवासेण वा इमेग वा मायावुत्तिएण धम्मेण इओ चुए पेचा देवे सिया कामभोगा णंवसवत्ती सिद्धेवा अदुक्खमसुभे वा एत्थ वि सिया एत्थ विणो सिया, से भिक्खू सदेहिं अमुच्छिए स्वहिं अमुच्छिए गंधेहिं अमुच्छिए रसेहिं अमुच्छिए फासेहिं अमुच्छिए विरए कोहाओ माणाओ मायाओ लोभाओ पेज्जाओ दोसाओ कलहाओ For Private And Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयायोधिनी टोका द्वि. श्रु. म. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् ॥ अभक्खाणाओ पेसुन्नाओ परपरिवाराओ अरहाईओ मायामोसाओ मिच्छादसणसल्लाओ इइ से महतो आयाणाओ उवसंते उवट्टिए पडिविरए से भिक्खू। जे इमे तप्तथावरा पाणा भवंति ते णो सयं समारंभइ णो अण्णेहिं समारंभावेइ अन्ने समारंभते विन समणुजाणइ, इइ से महतो आयाणाओ उवसंते उदिए पडिविरए से भिवखू । जे इमे कामभोगा सचित्ता वा अचित्ता वा ते णो सयं परिगिण्हइ णो अन्नणं परिगिहावेई अन्नं परिगिव्हंतं पि ण समणुजाणइ इइ से महतो आयाणाओ उवसंते उवट्ठिए पडिविरए से भिक्खू। जं पि य इमं संपराइयं कम्मं कज्जइ, णो ते सयं करेइ णो अपणेणं कारवेइ अन्नं पि करेंतं ण समणुजाणइ इइ से महतो आयाणाओ उवसंते उवहिए पडिविरए से भिवखू जाणेज्जा असणं वा ४ अस्सि पडियाए एगं साहम्मियं समुद्दिस्स पागाइं भूयाई जीवाई सत्ताई समारंभ समुदिस्स कीतं पामिचं अच्छिनं अणिसट्टे अभिहडं आहटुइसियं तं चेइयं सिया तं णो सयं भुंजइ णो अण्णेणं मुंजावेइ अन्नं पि भुंजतं ण समणुजाणइ, इइ से महतो आयाणाओ उवसंते उवट्टिए पडिविरए से भिक्खू । अह पुणेवं जाणेज्जा, तं जहा विजइ तेसि परक्कमे जस्सट्टा ते वेड्यं सिया, तं जहा अप्पणो पुत्ताइणटाए जाव आएसाए पुढो पमहेणाए सामासाए पायरासाए संणिहिसंणिचओ किज्जइ इह पएप्ति माणवाणं भोयणाए तत्थ भिवाव परकर्ड परणिट्टियमुण For Private And Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १३२ सुत्रकृताङ्गसूत्रे मुप्पायनेसणासुद्धं सत्थाईयं सत्यपरिणामियं अविहिसियं एसिय वेसियं सामुदाणियं पत्तमसणं कारणट्टापमाणजुतं अबलोवंजणवणलेवणभूयं संजमजायामायावत्तियं बिलमित्र पन्नगभूपूर्ण अप्पाणेणं आहारं आहारेज्जा । अन्नं अन्नकाले पाणं पाणकाले वत्थं वत्थकाले लेणं लेणकाले सवर्ण सयणकाले । से भिक्खू । मायन्ने अन्नपरं दिसं अणुदिसं वा पडिवन्ने धम्मं आइक्खे त्रिभए किट्टे उवट्टिएस वा अणुवट्टिएस वा सुस्सूसमाणेसु पवेइए, संतिविरतिं उवसमं निव्वाणं सोयवियं अजवियं मद्दत्रियं लाघवियं अणइवाइयं सवेसिं पाणाणं सव्येतिं भूयाणं जाव सत्ताणं अणुवाई कि धम्मं । से भिक्खू धम्मं किट्टमाणे णो अन्नस्स हे धम्ममाइक्खेजा, णो पाणस्त हेडं धम्म माइक्खेज्ज', णो वत्थस्स हेडं धम्मम इक्खेज्जा, णो णस्स हेउं धम्ममाइक्खेजा, जो सयगरस हे धम्ममाइक्खेजा, णो अन्नेसिं विरूवरूत्राणं कामभोगाणं हेडं धम्मामाइक्खेज्जा, अगिलाए घम्ममाइ करेज्जा नन्नत्थ कम्मनिज, रट्टाए धम्मम इक्खेज्ज । इह खलु तस्स भिक्खुस्स अंतिए धम्मं सोच्चा जिसम्म उद्वाणेणं उद्वाय वीरा अहिंस धम्मे समुट्टिया जे वस्त भिक्खुस्स अंतिर धम्मं सोच्चा णिसम्म सम्मं उट्टाणेणं उद्वाय वीरा अस्ति धम्मे समुट्टिया ते एवं सव्वो वगया ते एवं संबो वरता ते एवं सव्वोवसंता ते एवं सव्वत्ताए परिनिव्वुड तिमि । एवं से भिक्खू मट्टी धम्मविऊ नियागपडित्रपणे से जहेयं बुइयं । अदुवा पते पडमवरपोंडरीयं अदुवा अपने पउमरपोंडरीयं, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३३ समयार्थचोधिनो टोका द्वि. अ. अ. १ पुण्डरीकनामाध्यापन एवं से भिक्ख परिवगायकम्मे परिणगायसंगे परिगणायगेहवासे उवसंते समिए सहिए सया जए, सेवं चयणिज्जे, तं जहासमणेइ वा माहणेइ वा खंतेइ वा दंतेइ वा गुनेइ वा मुत्तेद वा इसीइ वा मुगीइ वा कईइ वा विऊइ वा भिक्खूइ वा लूहेइ वा तीरटोइ वा घरणकरणपारवि उनिबमि ॥सू०१५॥ छाया - तत्र ग्बलु भगतना पड्नी निकाया हेतवः प्रज्ञप्ताः । तद्यथापृथिवीकायो यावर सका, तद्यथा नाम ममाऽपातं दण्डेन वा मुष्टिना का ले टुना वा कपालेन वा आकुटयमानस्य वा हयमानस्य घा, तज्यमानस्य वा, ताध्यमानस्य पा, परिताप्यमानावा कलापमानस्य वा उद्वेग्यमानस्य वा यात रोगोरखननमात्र नापि हिंसाका दुव भगं परिसंवेदयामि इत्येवं नानादि सर्वे जीवाः समणि भूतानि सवें पायाः सर्वे सत्त्वा: दण्डेन वा यान् कपालेन वा अकुटयामाना या हन्यमना वा तज्य माना या वाडयामाना वा परिताप्यमाना वा क्लाम्यमाना वा उद्वेश्यमाना वा यापद् रोमोत्खनन सत्रमपि हिंसाकारकं दुःखं भयं पतिसंवेदयन्ति । एवं ज्ञात्वा सर्वे माणा यावत् सवाः न हनम्याः, नाऽऽज्ञापवितमः, न परिणामाः, न पत्तिापयिन्याः न उद्वे नवितव्याः, अब ब्रवीनि ये बातीतः ये च प्रत्युत्तमाः येचाऽऽगामिष्यन्तोऽर्हन्तो भगवन्तः सर्वे ते एवमाख्यानि एवं भाषन्ते एवं प्रज्ञापपनि एवं मरूपयन्ति सबै पागाः यावत् सत्त्वाः न हयाः , नाऽजापयि. तव्याः, न परिग्र द्यः, न परितापयितव्याः, नोद्वेजयितव्याः, एष धर्मः ध्रुव नित्यः शाश्वत समेत्य लोकं खेदज्ञैः पवेदिनः । एवं स भिक्षु विरतः पाणातिपातात् यावद् विस्तः परिग्रहात्, नो दन्त रक्षालनेन दा न् पक्षालयेत्, नो अजनं नो वमनं नो धूप नो तं परिपिवेत । स भिक्षरक्रि: अल्पकः अक्रोधः अमान: अमायः अगोमा उपशान्तः परिनिर्वृतः नो आशंगा पुतः कुत्-अनेन मम दृष्टेन वा श्रुतेन वा मतेन वा विज्ञातेन वा अनेन वा सुचन्तितपोनियमब्रह्मचर्य वासेन या अनेन वा यात्रामात्रावृतिना धर्मेण इतश्च्युनः पेत्य देवः स्याम् । कामभोगाः खलु वशवर्तिनः सिद्धो वा अदुःखः अशुमो का बा िस्यादत्रापि न स्यात् । सभिक्षुः शव्देषु अमूच्छितः, रूपेषु अच्छितः गन्धेषु अछि। रसेप अफ हिता स्पर्शेषु अछितः विरतः क्रोधाद् मानाद मायायाः लोमात मेम्गादेवार कहा अगाख्यानात पैशून्यात् परपरोबादाद अरविरतिभ्याम्, मायामपाम्पार For Private And Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir RECE १३५ सूत्रकृतान मिथवादर्शनशल्पाद् इति स-महत आदानाद् उशान्तः उपस्थितः प्रतिविरतः स भिक्षुः । ये इमे सस्थावरा माणा भान्ति तान् न सायं समारभते नाऽन्यः समारम्भयति अन्यान् समारभनोऽपि न समनु नानातोति म मह 1-मादानात्उपशान्त उपस्थितः प्रतिनिरतः स भिक्षुः। ये इमे कामभोगाः सचित्ता वा अवित्ता था. तान् न स्वयं प्रतिनाति नाऽन्येन प्रतिग्राह गति, अन्यमपि प्रतिगृह्णन्तमपि न समनुजानाति इति स महन आदानात् उपशान्न उपस्थितः पतिविरतः स मिक्षुः। यदपि चेदं साम्परायिकं कम क्रियते न तत् स्वयं करोति नाऽन्येन कारयति, अन्यमपि कुर्वन्तं न समनुनानाति इति स मह1 आदानाद् उपशान्त उपस्थितः पतिविरतः स भिक्षुः जानीवाद अशनं वा ४ एतत् प्रतिज्ञया एक साधर्मिक समुद्दिश्य प्राणान् भूतानि जीशन् सरसन समारभ्य समुद्दिश्य क्रीतम् उयतकम् आच्छेद्यम् अनिसृष्टम् अभ्याहृतम् अयोद्देशिकं तच्चैतदत्तं स्यात् तन्नो स्वयं भुनक्ति नाऽ-येन भोजयति अन्यमपि भान न समनुज नातीति स महत आदानाद् उपशान्न उपस्थितः प्रतिविरतः स विक्षुः। अथ पुनरेवं जानीयात् तद्यथा-विद्यते ते पराक्रमे यर्थाय ते इमे स्युः, तद्यथा-आत्मनः पुत्राघर्याय यावदादेशाय पृथक् पग्रहणाथै श्यामाशाय पातराशाय सन्निधिसन्नि. चयः क्रियते इह एतेषां मानवानां भोज नाय तत्र भिक्षुः परकृतं परिनिष्ठित मुद्गमोत्पादनैषणाशुद्धं शस्त्रातीतं शस्त्र परिणामितम् अविहिसितम् एषितं वैषि सामुदानिकं प्राप्तमशनं कारणार्याय प्रमाणयुक्तम् अक्षोपाञ्जनवणलेपनभूतं संयमयात्रामात्रावृत्तिकं विलमिव पन्नगभूतेनात्मना आहारमाहरेत् । अन्नमन्न काले पानं पानकाले वस्त्रं वस्त्रकाले लपनं लयनकाले शयनं शयनकाले । स भिक्षुः मात्रान:अन्यतरी दिश मनुदिशं वा पतिपन्नो धर्ममाख्यायेत् विभजेत् कोत्तयेत् । उपस्थितेषु वा अनुपस्थितेषु वा शुश्रूषमाणेषु मवेदयेत शान्तिनिरनिम् उपशमं निर्वाणं शौचम् आर्जवं मार्दवं लाघवम् अनतिपादिकं सर्वेषां प्राणानां सर्वेषां भूतानां यावत् सस्था नामनुविचिन्त्य कीर्तयेद् धर्मम् । स भिक्षु. धर्म कोर्तयन् नो अन्नस्य हेनो धर्म माचक्षीत, नो पानकस्य हेतोः धर्ममाचक्षीत, नो वस्त्रय हेतोः धर्ममारक्षीत, नो प्रयनस्य हेतोः धर्ममावक्षीत, नो सपनस्य हेनोः धर्ममाचक्षीत, नो अन्येषां निसपरूपाणां कामभोगानां हेतोः धर्ममाचक्षीत, अग्लानो धर्ममाचक्षीत, नाऽन्यत्र कमनिर्जरार्थाय धर्ममाचक्षीत । इह खलु तस्य भिक्ष रन्ति के धर्म श्रुत्वा निशम्म उत्थानेनोस्थाय वीगः अस्मिन् धर्म समुत्थिता: ये तस्य मिक्षोरन्तिके धर्म श्रुत्ता निशम्म सम्यगुन्यानेन अस्थाय वीराः अस्मिन् धर्मे समुस्यिता स्ते एवं सोपगता For Private And Personal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समार्थबोधिनी टीका द्वि. शु. भ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् १३५ ते एवं सर्वोपरताः ते एवं सर्वोपशान्ताः ते एवं सर्वात्मतया परिनिर्वृता इति ब्रवीमि । एवं स भिक्षुः धमार्थो धर्मवित् नियागपतिपन्नः तद्यथेदमुक्तम् । अथवा प्राप्तः पद्मरपुण्डरीकम् अथवा अपाप्तः पद्मवरपुण्डरीकम् एवं समिक्षुः परिज्ञातकर्मा परिज्ञातसङ्गः परिज्ञातगृहवास उपशान्तः समितः सहितः सदा यतः स एवं वचनीयः तव्यथा श्रमण इति वा, माहन इति वा, क्षान्त इति वा, दान्त इति वा गुप्त इति वा मुक्त इति वा ऋषिरिति वा मुनिरिति वा कृति रिति वा विद्वान् इति वा भिक्षुरिति वा रूक्ष इति वा तीरार्थी वा चरणकरणपारविद् इति वा, इति त्रवीमि ॥ सू० १५॥ टीका--'तस्थ खलु भगक्या' तत्र खल-इति निश्वयेन भगवता - तीर्थकरेण 'छज्जीवनिकाया हेऊ पन्नत्ता' पजीवनिकायाः कर्मबन्धस्य हेतवः - कारणांनि प्रज्ञप्ताः कथिताः तं जहा' द्या- 'पुढची जात्र तसकाए' पृथिवी यावत् सकाय, अत्र यावत्पदेन अकायादारभ्य वनस्पतिकायान्तानां चतुर्णा ग्रहणं भवति, तथा च - पृथिवीकायादि सकायान्ता एते षड्जीवनिकायाः कर्मबन्धस्य कारणानीत्यर्थः ' से जहाणाम २' स यथानामकः 'दंडेग वा' दण्डेन यष्ट्या वा 'मुट्ठीण वा' मुष्टिना वा 'लेलूण वा' लेष्टुना वा इष्टकादिखण्डेन 'कवालेग वा' कपालेन वा घटछपरेणेवर्थ', 'आउट्टिज्जमाणस्स' आकुटयमानस्य -मार्यमाणस्य 'हम्प्रमाणस्स' हन्यमानस्य - हननं क्रियमाणस्य 'सज्जिज्जमाणस्स वा' तर्ज्यमान स् वा अङ्गुल्यादिकं प्रदयं ममुत्पाद्यमानस्य 'ताडिज्माणस्स वा' ताड्य 'तस्थ खलु भगवया' इत्यादि । टीकार्थ - निश्चय ही तीर्थकर भगवान् ने छह जीवनिकार्यों को कर्मवन्धका कारण कहा है। जैसे पृथिवीकाय, अकाय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय । ये षटू जीवनिकाय कर्मबन्ध के कारण हैं । जैसे कोई डंडे से, मुट्ठी से, ढेले या ईट के टुकड़े से या ठीकरे से मुझ को मारता है, पीटता है, अंगुली आदि दिखला कर 'तत्थ खलु भगवया' इत्यादि ટીકા”—નિશ્ચય જ તીથ કર ભગવાને છ જીવનિકાચેને કર્મ બંધનુ ४२५ ४डेस छे. नेम-पृथ्वीद्वाय अयुडाय, ते साय, वायुभय, वनस्पतिठाय અને ત્રસકાય આ છ જીવનિકાય ક્રમ બાંધના કારણુ રૂપ છે. જેમ કેાઈ ડંડાથી, મુડીથી, ઢેખલાથી, અથવા ઈંટના ટુકડાથી અથવા ઠીકરાથી મને મારે, કે આંગળી વિગેરે બતાવીને ભય બતાવે, ચાબુક વિગેરેથી માર મારે, સતાપ For Private And Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - . - sunau...... . . - - - - - -- .-..- - - - - - -- - - -- - RESED मानस्य कार्यावादिनी, 'परियाविश्जमाणस का परिताप्यमानस्य वा-परिता वंदती का किलामिज्जमाणस्स वा बलाम्यमानस्य वा-लेशमुत्पाघमानस्य उई विमणिस्म का उद्देश्यमानस्य वा यार ताशमद्वेगमुपद्रवं प्रापयत: 'ममें मसा मम अमात-उदा मे दुखं भवति किबहुना 'जाब' यावत् 'रोमुत्रवणामायमवि' लोमोरचलनमात्रमपि-लोमोत्पाटनमात्रमति करोति हिंसाकारर्ग दुवं मय पडिसंवेदेमि' हिंसाकारकं दुःखं भयं प्रतिसोदयामि, ताडनादि जनित दुखं धाम चानु भवामि 'इवेवं जाण' सुधर्मस्वामी जन्मभृतिशिष्यान् पनि कथयति हे शिष्य ! इत्येवम्-परा प्रकारेण जानीहि, f जानीहि तबाह-मने पागा सम्वे सूपा सव्वे सीधा सवे सत्ता' सर्षे प्राणाः स भूताः सर्वे जीनाः सर्व सत्त्वाः 'दंडेण भाव कवाछेण का दण्डेन वा यावत् कालेन वा, यासदेन मुष्टिलेष्टु नो ब्रहणम् 'आकुट्टिज्जमाणा' पाकुटयमानाः कशादिभिताड यानाः 'माणा वा' हन्यमाना वा-घातं प्राप्यमागाः 'तजि माणा ना' ज्यमाना वा-अगुल्पादितजनां प्राप्यमाणाः 'ताडिनमाणावा नागपट्या भय उम्पन्न करता है, कोडे आदि से ताड़ना करता है, मगर पहुंचाता है, क्लेश उन्न करता है या किसी प्रकार का उपाय करता है, तो जैसे मुझको दुःव उत्पन्न होना है, अधिक क्या कहा जाय माग्न के.ई एक रोम मी रग्ब ड़ना है तो मैं firsी दुश्व को अनुमा करता ह, सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी म कहते हैं-हे जम्बू ! इमी प्रहार गह भी जानो कि ममी पागी म भो भू, ममी जी और ममो मा छुड़े से पारत् ट करे से, यात् शब्द से मुट्ठी तथा ईट का टुकड़ा समझ लेना चाहिए, मारे जाते हैं, व यु आदि मे प₹ जाने है.. भाहल 'दुग्यो' किये जाते हैं. अंगुलि आदि दिवाकर घनमापे जाते પહેચડે, કલેશ ઉર ન કરે અથવા કઈ પણ પ્રકારને ઉપદ્રવ કરે છે, તે જેમ મને દુઃખ ઉત્પન્ન થાય છે, વિશે શું કહેવું થાવત્ કોઈ એક રૂંવ હું પણ ઉખાડે તે હું હિંસા: ૨૪ દુઃખના અનુભવ કરું છુ. સુધર્માસ્વામી જ બૂ હવામાને કહે છે-હે જમ્બુ એ જ પ્રમાણે એ પણ કમલે કે- રઘળા પ્રાણિ સઘળા ભૂત, સઘળા છે અને સઘળા સો ડંથી કાવતું ઠીકરાથી અહિયાં યાવત શબ્બી મુદ્ધિ તથા ઇટને ટુડે સન તેનાથી મારવામાં આવે. ચબુક વિગેરેથી મારવામાં આવે, આહત અર્થાત ખી કરવામાં અાવે આંગળી વિગેરે બતાવીને ધમકાવવામાં આવે For Private And Personal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. म. १ पुण्डरोकनामाध्ययनम् दिना, 'किलामिज्जमाणा वा' क्लाम्पमाना वा-शीतोष्णादिना क्लिश्यमानाः 'उदिज्जमाणा वा' उद्वेग्यमाना वा-भयादिना उद्वेगमुपद्रवं प्राप्यमाणाः कि बहुना-'जाव लोमुक्ख गणमायमवि' कोमोत्खननमात्रमपि-लोमोत्पाटनपात्रमपि 'हिंसाकारगं दुक्खं मयं पडिसंवेदेति' हिंसाकारकं दुःखं भयं प्रतिसंवेदयन्ति-- अनुभवन्ति, यथा मम ताडनादिना दुखं भवति तथा अन्येषामपि दुःखं भरती. श्यर्थः, 'एवं गच्या एवं ज्ञात्वा 'सावे पाणा जाव सत्ता' सर्वे पाणा: सर्वे जीवाः सर्वे भूताः सर्वे सत्याः, 'ण तया' न हन्तव्याः-दण्डादिमि ने ताडयि सब्याः 'ण अजावेयधा' नाज्ञापयितव्याः--अभिमत कार्येषु न प्रवर्तयितव्याः 'न परिघेत्तमा न परिग्रहीतव्याः-इमे मम भृत्यादयो ममेति कृत्वा परिग्रहरूपेण स्वाधीनतया न स्त्री कर्तव्याः, 'ण परितावेषधा' न परितापयितव्याः-अन्नहैं, भोजन-पानी रोक कर परितप्त किये जाते हैं, सर्दी गर्मी द्वारा सताये जाते हैं, भय दिखला कर उद्विग्न किये जाते हैं, अधिक क्या कहा जाय, उनका एक बाल 'केश' भी उवाड़ा जाता है तो वे भी हिंसाकारी दुःख का अनुभव करते हैं। अभिप्राय यह है कि जैसे ताड़न आदि करने से मुझे दुःख होता है, उसी प्रकार अन्य प्राणियों को भी दुःख होता है। ऐसा जान कर सष प्राणियों जीवों भूतों और सत्यों को डंडा आदि से ताडन नहीं करना चाहिए, उन्हें अनिष्ट कार्यों में प्रवृत्त नहीं करना चाहिए, 'यह मेरे भृत्य नौकर' आदि हैं' ऐसा समझकर उन्हें अपने अधीन नहीं बनाना चाहिए अर्थात् उनकी स्वाधीनता का हनन नहीं करना चाहिए, और उनके भोजन पान में रुकावट डाल कर पीड़ित नहीं करना चाहिए और ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिए जिससे वे घबराहट में पड़ते हों। ભજન કે પાણ રેકીને સંતાપવાળા કરવામાં આવે, શદિ ગર્મિ દ્વારા સંતા. પવામાં આવે, ભય બતાવીને ઉગ પહોંચાડવામાં આવે. વિશેષ શું કહેવું તેને એક વાળ પણ ઉખાડવામાં આવે તે પણ તેઓ હિંસા જનક દુઃખ અનુભવ કરે છે. કહેવાને અભિપ્રાય એ છે કે-જેમ મારવા વિગેરેથી મને દુઃખ થાય છે, એ જ પ્રમાણે અન્ય પ્રાણિયાને પણ દુખ થાય છે, તેમ સમજીને સઘળા પ્રાણિ છે, ભૂતો અને સને ડંડા વિગેરેથી મારવા ન જોઈએ. તેઓને અનિષ્ઠ કાર્યોમાં પ્રવૃત્ત કરાવવા ન જોઈએ. “આ મારા કરે વિગેરે છે, તેમ સમજીને તેઓને પિતાને આધીન બનાવવા ન જોઈએ. અર્થાત્ તેઓના ૨વાધીન ૫ણુને નાશ કરવો ન જોઈએ. તેઓના ભજન વિગેરેમાં રોકાણ કરીને તેમને પીડા પહોંચાડવી ન જોઈએ. અને એવું કઈ કાર્ય કરવું ન જોઈએ કે–જેનાથી તેઓ ગભરાઈ જાય. सु० १८ For Private And Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - १३८ सूत्रकृतसूत्रे पानाद्यवरोधेन न पीडनीयाः 'ण उद्दवेयवा' नोद्वेज यितव्याः- उद्विग्ना न कार्यों 'से बेमि' तदहं सुधर्मस्वामी ब्रवीमि कथयामि, 'जे अतीता' येऽतीताः- भूतकाभूवन् केवखानि निर्वाणप्रभृतयः, 'जे य पडुप्पन्ना' ये च प्रत्युत्पन्नाःइदानीं विद्यन्ते ऋषमादयः 'जे य भागामिस्सा' ये चागमिष्यन्तः - पद्यनामादयः 'अरिहंता भगवंता' अर्हन्तो भगवन्तः 'सच्चे ते' सर्वे ते 'एमाइकसंति' एवमाख्या- उपदिशन्ति, सुधर्मस्वामी कथयति भो भोः शिष्याः ? सोऽहमेव कथयामि 'न कचिज्जीवो हन्तव्यो न परितापनीयः एवमेवाज्ञोपदेशः प्ररूपणा च अतीवाऽनागतवर्तमानानां तीर्थकराणामिति । 'एवं मासंति' एवं भाषन्ते से तीर्थकरा: 'एवं पण्णवेति' एवं मज्ञापयन्ति - आदिशन्ति 'एवं परूवंति एवं परूपयन्ति प्ररूपणां कुर्वन्ति यत् 'सव्ये पाणा जान सत्ताण हवा' सर्वे पाणा यावत् सच्चा न हन्तव्या दण्डादिभिः, 'ण अज्जावेपत्रा' नाज्ञापयितव्या अनभिप्रेतकार्येषु, 'ण परिवेन्च न परिग्रहीतव्याः - इमे मम भृत्या इति मन्य " मैं कहता हूं - अतीत काल में केवलज्ञानी निर्वाणा सागर आदि नामको अर्हन्त भगवान् हो चुके हैं, वर्तमान से ऋषभ अजित संभव आदि तीर्थकर हुए हैं और भविष्यत् काल में जो पद्मना शूरसेन सुपार्श्व आदि तीर्थंकर होंगे, उन सब का यही कथन है । सुत्रम स्वामी कहते हैं - हे जम्बू ! मैं करता हूं कि किसी भी जीव का हनन नहीं करना चाहिए, किसी को सन्नाप नहीं पहुंचाना चाहिए, यह आज्ञा, उपदेश और प्ररूपणा अतीत वर्त्तमान और भविष्यत् कालीन सभी तीर्थंकरों की है। सभी तीर्थकर ऐसी ही प्ररूपणा करते हैं कि सभी प्राणी भूत जीव और सरत्र हनन करने योग्य नहीं हैं, आज्ञा देने योग्य नहीं हैं, अधीन बनाने योग्य नहीं है, परितापनीय नहीं है, હું કહુ છુ.—ભૂતકાળમાં કેવળ જ્ઞાનવાળા નિર્વાણી સાગર વિગેરે નામના ? महुतं भगवान थर्ड यूडया है, वर्तमानमा ऋषभ, अमृत, संभव, विगेरे તીથ કરા થયા છે, અને ભવિષ્યમાં જે પદ્મનાભ શૂરસેન સુપાર્શ્વ' વિગેરે તીથ - કરા થશે તેઓ સઘળાનું એજ કથન છે. સુધર્માસ્વામી કહે છે—હે જમ્મૂ હું કહુ છું કે કોઈ પશુ જીવની હિંસા કવી ન જોઇએ. કોઇને પણ સંતાપ પડેાંચાડવા ન જોઈએ. આ આજ્ઞા ઉપદેશ, અને પ્રરૂપણા અતીતકાળ,- ભૂતકાળ, વર્તમાન કાળ અને ભવિષ્ય કાળના તીર્થંકરોની છે, ઘળા તીથરા એવુ કહે છે. એવી જ પ્રરૂપણા કરે છે, કે-સઘળા પ્રાણી ભૂત, જીવ, અને સત્વા હન ફરવાને ચેગ્ય નથી. આજ્ઞા કરવા ચેગ્ય નથી, આખીન બનાવવાને ચેગ્ય નથી. For Private And Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३९ समयार्थबोधिनी टीका वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् मानेन परिग्रहरूपेग स्वाधीनतया न स्वीकार्याः ‘ण परितावेयया' न परितापयितव्याः- अन्नपानाधवरोधेन, 'ग उद्दवेयवा' नो द्वेनयितना:-उद्विग्ना न कार्याः 'एस धम्मे धुवे णीयए सासए' एष धर्मः-अहिंसास्वरूप स्तीर्थकरप्रतिपादितो भ्रवः सदा स्थायी,-नित्यः उत्पादविनाशरहितः, शाश्वता-सदैकरूपे व्यवस्थितः। 'सभिच लोगे खेयन्नेहि पवेहए' समेत लोकान् खेः प्रवेदिता, ते महाशयै स्तीर्थकरः केवलज्ञानेन सर्वानेव लोकान् परिझाय-षोऽहिसारूपो धर्मों नित्यो ध्रुवः प्रतिपादितः। एवं से भिक्खू-विरए पाणावायाभो जाब विरए परिग्गडाओ' एवं स भिक्षु विरतः प्राणातिपाताद् यावत् परिग्रहाद् विरतः 'णो दंतपक वालणेणं' नो दम्सप्रक्षालनेन 'दंते पक वाले ज्जा' दन्तान् प्रक्षालयेत् , काष्ठादिना चूर्णेन दन्तान्नै परिशोधयेत् । 'णो अंनणं' नो अञ्जनं कुर्यात-नेत्रयोः कज्जलादिना ‘णो वमणं' नो वमनम् योगक्रिपया औषध्यादिना वा वमनं नैव कुर्यात् । 'णो धूवर्ग' नो धूग्नं सुगन्धिाद्रव्येण वस्त्रादिकं नैव मुबासयेत् । अथवा-रोगशान्तये धूपं न कुर्यात् । ‘णो तं परियाविपउना' नो उद्वेग पहुंचाने योग्य नहीं हैं। यह अहिंसा धर्म ध्रुव नित्य और शाश्वत है । अर्थात् सर्वदा स्थायी है, उत्पाद विनाश से रहित है और सदैव एक रूप से स्थित है । उन महापुरुषों ने समस्त लोक को केवलज्ञान से जान कर इस नित्य ध्रुव और शाश्वत अहिंसाधर्म का प्रति. पादन किया है। वह भिक्षु, जो प्राणातिपात से विरत है यावत् परिग्रह से विरत है, दन्त प्रक्षालन से अर्थात् दोनोन, चूर्ण आदि से अपने दांतों का प्रक्षालन न करे, नेत्रों में अंजन-काजल आदि न लगावे, योग क्रिया या औषध के द्वारा वमन न करे, सुगंधित द्रव्य से वस्त्र आदिको सुवासित न करे या रोग की शान्ति के लिए धूप न देवे और न धूम्रपान પરિતાપ કરવાને ય નથી, ઉદ્વેગ પહોંચાડવા યોગ્ય નથી. આ અહિંસા ધમ. ધવ, નિત્ય, અને શાશ્વત છે. અર્થાત્ સદા સ્થાયી છે. ઉત્પાદ અને વિનાશ રહિત છે. અને સદા એક રૂપથી સ્થિત છે તે મહાપુરૂએ સઘળા લેકેને કેવળ જ્ઞાનથી જાણીને આ નિત્ય, પ્રવ અને શાશ્વત એવા અહિંસા ધર્મનું પ્રતિપાદન કરેલ છે તે ભિક્ષુ છે કે જે પ્રાણાતિપાતથી વિરત છે, યાવત પરિગ્રહથી વિરત છે. દત્ત પ્રક્ષાલનથી અર્થાત્ દાતણ કે સ–પાવડર વિગે. રેથી પિતાના દાંતેને સાફ ન કરે. આંખમાં કાજળ વિગેરે ન લગાવે છે. કિયા અથવા એસડથી ઉછી ન કરે સુંગંધવાળા પદાર્થોથી કપડા વિગેરેને સંગધવાળા ન કરે. અથવા રોગની શાન્તિ માટે ધૂપ કરે નહીં. તથા પદ્મ For Private And Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताइये तं परिपिबेत्-कासादिरोगशान्त्यर्थ धूम्रपान न कुर्यात् । 'से भिक्खू स भिक्षुः 'अकिरिए' अक्रिय:-पावधक्रियया रहि: 'अल्सर' अलूकको-जीवहिंसादि. व्यापाररहितः। 'अकोहे' अक्रोधः 'प्रमाणे' अमान:-मानरहित: 'अलोहे' अलोम:-लोभवजितः 'अमाए' अमायः-मायानाम परवञ्चनम् नद्रहितः । 'उपसंते' उपशान्तः-इन्द्रिय नो इन्द्रियदमकः । 'परिनिचुडे' परिन्तिा -पायानलपशमेन शान्त इत्यर्थः, 'णो आसंसं पुरो करेज्ना' नो आशंसां पुरतः कुर्यात्-इहलोक. परलोकासारहिता-वक्ष्यमाणमकारकमाशंसनमपि न कुर्याद, तथाहि-'इमेण मे दिटेण वा' अनेन मम दृष्टेन वा 'मुएग वा मएग वा विनाएण वा' श्रुतेन वा मतेन वा विज्ञातेन वा 'इमेण वा सुचरियतानियमभवेवासेग वा' अनेन वा मुचरिततपोनियमाभिग्रहरूपब्रह्मवर्यवासेन वा 'इमेग वा जायामायावत्तिएणं' अनया वा यात्रामात्रावृत्या संयमपूर्वकशरीरयात्रानिहाय शुद्धाहारादीनां ग्रहण कृतम् 'धम्मेणं' धर्मेण 'इभो चुर' इतन्यु ': 'पेच्चा' मेत्य 'देवे मिया' देवः आदि करे । भिक्षु सावध किया से रहित हो, अलूषक अर्थात् जीव हिंसा आदि कार्यों से रहित हो क्रोध मान माया और लोभ से रहित इन्द्रियों का और मन का दमक करे, कषाय रूपी अग्नि को प्रशान्त करके शीतल स्वरूप हो, इस लोक और परलोक संबंधी कामना न करे, और यह इच्छा भी न करे कि मैंने यह जो ज्ञान देखा, लुना या मनन किया है अर्थात् श्रुन का अभ्यास किया है, तपश्चरण किया है, नियमों का पालन किया है, नाना प्रकार के अभिग्रह धारण किए हैं, ब्रह्मचर्य का पालन किया है, शरीर की यात्रा का निर्वाह करने के लिए शुद्ध और प्रास्लुक आहार पान का सेवन किया है, धर्म का आचरण किया है, है, इस सब के फलस्वरूप यह भव त्याग करने पर देव हो जाऊँ । सब પાન વિગેરે પણ ન કરે. ભિક્ષુએ સાવ ક્રિયાથી રહિત થવું. અલૂષક અર્થાત જીવહિંસા વિગેરે કાર્યોથી રહિત થવું ક્રોધમાન માયા અને લેભથી રહિત થવું. ઈન્દ્રિય અને મનનું દમન કરે. કષાય રૂપી અગ્નિને શાંત કરીને શીતલ સ્વરૂપ થાય આ લોક અને પરલોક સંબંધી કામના ન કર. અને એવી ઈરછા પણ ન કરે કે મેં જે આ જ્ઞાન જોયું, સાંભળ્યું અથવા મનન કર્યું છે. અર્થાત્ કૃતને અભ્યાસ કર્યો છે, તપશ્ચરણ કર્યું છે. નિયમોનું પાલન કર્યું છે. અનેક પ્રકારના અભિગ છે ધારણ કર્યા છે, બ્રહ્મચર્યનું પાલન કર્યું છે. શરીર યાત્રાને નિર્વાહ કરવા માટે શુદ્ધ અને પ્રાસુક આહાર પાણીનું સેવન કર્યું છે, ધર્મનું આચરણ કર્યું છે, આ બ ના ફળ સ્વરૂપ આ ભવને For Private And Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org समयार्थबोधिनी टीका द्वि. शु. ल. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् १४१ -- स्याम् 'काम मोगा ण वसत्रत्ती' काममेोगाः खलु वशवर्तिनो मम स्यु'सिद्धे वा अदुक्खमसभे' सिद्धो वा अदुःखो वा ऽशुमो वा सर्वे कामाः मदधीना भवेयु:सिद्धयोऽणिमादिका वश नो भवन्तु - दुःखाद्यशुभेभ्यो रहित भवेयमित्येवं वाळा कदापि साधुना न कर्तव्या । कुतो न कर्त्तव्या तादृशी कामना ? अनिय तत्वात्, तत्राह - 'एत्थ विसिया एत्थ विणो सिया' अत्रापि स्वात् अत्राविनो स्यात् तपोभिः कामना कदाचिद्भवति तथाविधविचित्राशु सपरिणामात्, न वा भवतीत्येवमनियमात् भीमनियमात् । ' से भिक्खू' स भिक्षुः निरवद्यभिक्षणशीलः 'सदेि अमुच्छिए' मनोज्ञेषु शब्देषु अमूच्छितोऽनासक्तः । ' रूवेद्दि अमुच्छिए' रूपेषु - मनोहारिषु असद्वस्तुषु अमूच्छितः । 'गंधेहिं अमुच्छिर' गन्धेषु अनुच्छितः । 'रसेहिं अमुच्छि' रसेषु अछि 'फसे अच्छा अछि । 'विरए कोहाओ - माणाश्रो मायाम-लोभाओ-पेज्जाओ-दोसाओ- कलहाओ - अभकखाणाओ - पेसुन्ना ओ - परपरिवायाओ - अरइरइओ' निरतः क्रोधाद् मानाद् मायायाः लोभात् प्रेम्णो द्वेषात् कलहाद् अभ्याख्यानान् पशूनान् परपरिवादाद् प्रकार के कामभोग मेरे अधीन हो जाएं, अणिमा आदि ऋद्धियां मुझे प्राप्त हो जाएँ, मैं समस्त दुःखों और अशुभों से बच जाऊ । साधु को ऐसी आकांक्षा कदापि नहीं करनी चाहिए। क्योंकि तपस्या के द्वारा कदाचित् कोई कामना पूरी होती है और कदाचित् नहीं भी होती । अर्थात् ऐसा कोई नियम नहीं है कि तपस्या से प्रत्येक की प्रत्येक कामना पूरी हो ही जाय । - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भिक्षु मनोहर शब्दों में आसक्त न हो, मनोज्ञ हगे में आसक्त न हो, इसी प्रकार गंध रस और स्पर्श में भी आवश्न न हो। वह क्रोत्र, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान पैशून्य, पर ત્યાગ કરીને દેવ ખની જા. બધા પ્રકારના કામભેગા મારે આધીન થઈ જાય અણિમા વગેરે ઋદ્ધિએ મને પ્રાપ્ત થઈ જાય, હુ` સઘળા દુ:ખેા અને અશુભેથી ખચી જાઉં. સાધુએ એવી આકાંક્ષા કયારેય પણ કરવી ન જોઇએ-કેમકે તપરયા દ્વારા કદાચ કે ઇ કામના પૂરી થાય છે, અને કોઈ કામના કદાચ પૂરી ન પણ થાય. અર્થાત્ એવા કાઇ નિયમ નથી કે–તપસ્યાથી દરેકની સમગ્ર કામનાએ પૂરી થઈ જાય. ભિક્ષુએએ મનહર એવા શબ્દોમાં આસક્ત ન થવુ'. મનેાજ્ઞ એવા સુદર રૂપેામાં આસક્ત ન થવું. એજ પ્રમાણે સુ'દર ગંધ સારા સારા રસે અને शोभां पशु व्यासस्त न वु या शेध, भान, भाया, बोल, राग द्वेष, કલા અભ્યાખ્યાન, વૈશૂન્ય, પરપરિવાઃ સયમમાં અરતિ-મપ્રીતિ અને For Private And Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतारी अरविरतिभ्याम् ‘माया मोसाओ' मायामृपाम्याम् 'मिच्छादसगसल्लायो' मियादर्शनशल्यात् '६इ से महनो आयाणाओ' इति स महत आदानात्-महतः कर्मसन्धनात् 'उपसंते उपढिए' उपशान्तः अस्थि: 'पडिविरए से भिक्खू' प्रतिविरत: सावधकार्याद पतिनिवृत्तः स भिक्षुः । 'जे इमे तसथावरा पाणा भति' ये इमे प्रसस्थावराः पाणा मन्ति । ते णो सपं समारंमा णो अण्णेहिं समारंभावे भन्ने समारमंते वा न समणुनाण' तान् न स्वयं समारभो, नाऽपन्यैः समारमयति, अन्यान समारमतो वा न समनुजानाति-नाऽनुमोदते। 'इइ से महतो आयाणाओ उपसं ते उद्विर पडिविरर से भिक्खू' इति स महत आदानादु । शान्त:-उपस्थितः प्रतिविरतः स मिक्षुः । 'जे इमे कामभोगा सचित्ता वा अविता वा ते णो सयं गिण्हेइ णो अन्नेगं परिगिव्हावे, अन्न परिगिण्हतं पिण समणुजाणा' ये इमे संसारे विद्यमानाः कामभोगाःनक चन्दनवनि तादिविषयोपभोगाः सचिता वा अचित्ता वा वर्तन्ते तान् नो स्वयं परिगृह्णाति-तद्विषयकं परिग्रहं स्वयं न करोति, नो वा अन्येन परिग्राहपति-परिग्रहं कारपति, अन्यं वा परिगृह्णन्तमपि. तद्विषयकपरिग्रहं कुर्वन्तमपि न समनु नानाति-नाऽनुमोदते इत्यर्थः । "इइ से परिवाद, संयम में अति, अमंयम में रति, माया युक्त मृषावाद और मिथ्यादर्शन शल्प से विरत हो। ऐसा साधु महान् कर्मबन्ध से निवृत्त हो जाता है और सावध कार्य का त्याग कर देता है । यह जो प्रस और स्थावर प्राणी हैं, उनका न स्वयं आरंम करता है, न दूसरों से भारंभ करवाना है और न दूसरे आरंभ करने वालों का अनुमोदन करता है। वह महान् कर्मबन्ध से निवृत्त हो जाता है । शुद्ध संयम में स्थित होता है और पाप से निवृत हो जाता है । वह माधु सचित्त और अचित्त दोनों प्रकार के काम भोग के साधनों को न तो स्वयं ग्रहण करता है, न दूसरे से ग्रहण करवाता है और न ग्रहण करने वाले અસંયમમાં રતિ-પ્રીતિ માયા યુક્ત મૃષાવાદ અને મિશાદર્શન શલ્યથી વિર1 થવું. એવા સાધુ મહન કર્મબંધથી છૂટિ જાય છે, અને સાવધ કાર્યને ત્યાગ કરી દે છે. જે આ ત્રસ અને સ્થાવર પ્રાણી છે. તેઓ સવયં આરંભ કરતા નથી. બીજાઓથી આરંભ કરાવતા નથી. અને બીજા આરંભ કરવાવાળાઓને અનુમોદન આપતા નથી. તે મહાન કર્મબંધનથી નિવૃત્ત થઈ જાય છે. અર્થાત છૂટિ જાય છે. શુદ્ધ સંયમમાં સ્થિત થાય છે. અને પાપથી નિવૃત્ત થઈ જાય છે. તે સાધુ સચિત્ત અને અચિત્ત બન્ને પ્રકારના કામોને સાપને ય ગ્રહણ કરતા નથી તથા બીજા પાસે રહણ કરાવતા For Private And Personal Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - --- - - समयार्थबोधिनी टीका विशु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् महतो आयाणामो उबसंते उअहिए पडिविरए से भिक्खू' स महत आदानास उपशान्त:-उपस्थितः, पतिविरतः-साद्य कार्यात् प्रतिनिवृत्तो भवति स मि. रितिभावः । 'जपि य इमं संपराइयं कम्मं कज्जई' यदपि चेदं साम्परायिकसंसारसम्बन्धिकषायसम्बन्धि वा कर्म क्रियते 'जो तं संयं करेई' नो तत् स्वर्ष करोति णो अण्णेणं फारवे' नो अन्येन कारयति, 'अन्न पि करें ण समषु माणइ' अन्यमपि कुर्वन्तं न समनुनानाति । 'इह से महतो आयाणाओ' इति स महत आदानाद् कर्मबन्धनात् 'उपसंते उबहिर पडिविरए' उपशान्ता-उपस्थितः -पतिविरतः 'से भिक्खू जाणेज्ना' स भिक्षुः इति जानीयात 'असणं वा ४ अस्सिं पडियार' अशनं वा पानं वा खादिमं वा स्वादियं वा एतश्चतुर्विध वस्तु पतत् पतिज्ञया 'एग साहाम्मियं समुहिस्स' एकं साधार्मिकं समुदिप 'पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई समार' प्राणान् भूतानि जीवान् सचान समारभ्य समु. दिप' समुद्दिश्य 'कीत पामिच्चं आच्छिज्ज अणिसटुं अभिहडं आटुद्देसियं' का अनुमोदन करता है। आएव वह महान् कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है, विशुद्ध संगम के अनुष्ठान में स्थित है और समस्त पापों से निवृत्त है। संसार में जो साम्परायिक कर्म किये जाते हैं अर्थात् कषायः युक्त होकर संमार की वृद्धि करने वाला कर्मबन्ध किया जाता है, उसे वह साधु स्वयं नहीं करता है। दूसरे से नहीं करवाता है और न करने वाले का अनुमोदन करता है । इस कारण वह महान् कर्मवय से मुक्त हो गया है, संयम में उपस्थित है और पाप से निवृत्त है। साधु यदि ऐसा जाने कि गृहस्थने किसी एक साधु को उद्देश्य करके प्रागों, भूतों, जीवों और सच्चों का आरंभ करके अशन, पान, નથી. તથા ગ્રહણ કરવાવાળાને અનુમોદન આપતા નથી. તેથી જ તે મહાન કર્મબંધથી મુક્ત થઈ જાય છે. વિશુદ્ધ સંયમના અનુષ્ઠાનમાં સ્થિત થાય છે. અને સઘળા પાપોથી નિવૃત્ત થાય છે. સંસારમાં જે સાંપરયિક કર્મો કરકરવામાં આવે છે, અર્થાત્ કષીય યુક્ત થઈને સંસારની વૃદ્ધિ કરવાવાળા કમ બંધ કરવામાં આવે છે, તેને તે સાધુ સ્વયં કરતા નથી. બીજાઓ પાસે કરાવતા નથી, તથા કરવાવાળાનું અનુમોદન પણ કરતા નથી. તે કારણથી તે મહાન્ કર્મબંધથી મુક્ત થઈ જાય છે. સંયમમાં ઉપસ્થિત થાય છે, અને પાપથી છૂટિ જાય છે. જે સાધુ એવું સમજે કે ગૃહસ્થ કંઈ એક સાધુને ઉદ્દેશીને પ્રાણે, ભૂતે, જીવે અને સર્વે ને આરંભ સમારંભ કરીને અાન, પાન ખાલિમ For Private And Personal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४४ सूत्रकृतागपत्रे गीतम्-द्रव्य दत्वा आनीतम् उद्यतकम् -कुसश्चिदानीतम्, आच्छेय-कुतश्चिद्धला. स्कारेण माप्तम्, अनिसृष्टम्-धनस्वामिनमनामय आनीतम् । अभ्याहृतम्-कुनविद्ग्रामात् साधु सम्मुखमानीतम्, पाहत्यौदेशिकम्-साधुमुद्दिश्य परिकल्पित चतुर्विधं आहारमित्येवं यदि साघुर्जानीयात् 'तं चेयं सिया' तच्चेदत्तं स्या। साधवे 'तं णो सयं भुजई' तादृशमाहारादिकं साधुः नो भुइके-नो भुञ्जीत 'गो अण्णेणं भुनावेई' नो अन्येन केनचिदपि भोजयति-भोजोदित्यर्थः 'अन्नंगि भुजतं ण समणुनाणइ' अन्यमपि भुञ्जन्तं न समनुजानाति-न अनुमोदने-नानु म देतत्यर्थः इति से महतो आयणामो' इति स साधुमेहत आदानात् कर्म बन्ध. नात् 'उवसंते' उपशान्तः 'उअहिर' उपस्थितः 'पडिरिए' प्रतिविरतः पू#क्त माहारादिकं त्यजति-तस्मात् महाकर्मबन्धनात् मुकः शुदसंयमे उपस्थितः-पापा. खादिम और स्वादिम तैयार किया है, या साधु के लिए मूल्य देकर खरीदा है, किसी से उधार लिया है, किल्ली से बलात्कार करके छीना है, धन के स्वामी से पूछे विना ले लिया है, कि पी ग्राम आदि से साधु के मन्मुख लाया है या साधु के निमित्त तैयार किया है तो ऐसे दिये गए या दिये जाने वाले आहार को माधु न स्वयं काम में लावे, न दूपरे को खिलाये और न खाने वाले का अनुमोदन करे। ऐमा करने वाला साधु महान् कर्मचन्धन से पच जाता है, मपम में स्थित होता है और पाप से निवृत्त हो जाता है। साधु को यदि ऐसा ज्ञ त हो कि जिसके लिए आहार बनाया गया है, वे साधु के लिए नहीं बनाया है, किन्तु गृहस्थ के निमित्त अथवा અને સ્વાદિમ તૈયાર કરેલ છે, અથવા સાધુ માટે કીંમત આપીને ખરીદ કરેલ છે, કેઈની પાસે ઉધાર લીધેલ છે, કેઈની પાસે બલાત્કાર કરીને પડાવી લીધું છે, ધનના માલિકને પૂછયા વિના લઈ લધું છે, કોઈ ગામ વિગેરેમાંથી સાધુની પાસે લાવ્યા છે, અથગ સાધુને નિમિત્તે તૈયાર કરેલ છે, તે એવી રીતે આપે અથવા આપવામાં આવનારા હારને સાધુ પિતે ઉપયોગમાં ન લે તથા એ જ છે ને ખવરાવે નહીં તથા ખાનારાઓનું અનુમોદન ન કરે. એવું કરવાવાળા સાધુ મહાન કર્મ બંધથી બચી જાય છે. સંયમમાં સ્થિત થાય છે, અને પાપથી નિ ત્ત થાય છે. ' સાધુના જાણવામાં એવું આવે કે આ આહાર બનાવેલ છે, તે સાધુ 1 ટે બત વવામાં આવેલ નથી, પરતું બહસ્થ માટે અથવા પિતાના કે ટે તેણે For Private And Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समार्थबोधिनी टीका द्वि. भु. अ. १ पुण्डरीक नामाध्ययनम् १४५ भिश्च साधुर्विज्ञेयः । ' से भिक्खू मह पुणेव जाणेज्जा' स भिक्षुग्ध पुनरेवं जानीया 'तं हा विज' तद्यथा- विद्यते 'तेर्सि परक्कमेतेषां पराक्रपः -सामर्थ्यमाहानिर्वर्तनं प्रत्यारम्भ इति, 'जस्सहा ते वेइयं सिया' यदय ते इमे स्युः, गृहइथेन यदर्थमनायो निर्मितास्ते न साधवः किन्तु ते इमे अन्ये तत्स्वनामग्राहमाह - 'तं जहा ' इत्यादि । 'तं जहा' तथा 'अप्पणो पुताइनद्वाए जाव आएसाए' आत्मनः पुत्रा यावदादेशाय - आत्मनोऽर्थं कृतं तथा पुत्रार्थाय कृतम् बाराजदासदासीकर्म करार्थं कृतं कार्यं कृतम् 'पुढो पहणाय' पृथक मह णार्थ - ग्रामान्तरप्रेषणाय कृतम् 'सामासार ' श्यामाशाय - श्यामा - रत्रिः तस्यां भोजनाय निर्मितम् । अथवा - 'पायरासाए' मातराशाय - प्रातर्मो जनाय 'संणिहि संचियां' सन्निधिभिवयः - विशिष्टाहार निष्पादनम् 'किज्जइ' क्रियते 'इइ एएसि मात्राणं भोगणाए' इतेषां मानवानां भेजनाथ सम्पादितमाहारादिकम् । 'तत्थ' तत्र ‘भिक्खू' भिक्षुः ‘परकृतम् गृहस्थैः कृतम् 'परणिट्टियमुग्गामुयायणे सणासुद्ध सत्याइयं सत्थारिणामियं परनिष्टिम् - परार्थकृतम् अत्र च चत्वारो भङ्गाःतस्य कृतं तस्यैव निष्ठितम् १, तस्य कृतम् अन्यस्य निष्ठिनम् अन्यस्य कृतं अपने निमित्त उसने बनाया है तो ऐसे आधाकर्मिक आदि दोषों से रहित आहार को स्वीकार करने में साधु को कोई दोष नहीं लगता । निर्दोष आहार भी शरीरनिर्वाह और संघन यात्रा के लिए ही ग्रहण करना चाहिए । 1 तापर्य यह है कि साधु यदि ऐसा जाने कि यह आहार गृहस्थ ने अपने लिए या अपने पुत्रादि के लिए, पुत्रवधू के लिए, घाय के लिये दासदासियों के लिये कर्मचारियों के लिए, पाहुने के लिए अथवा ग्रामान्तर में भेजने के लिए बनाया है, अथवा व्यालू के लिए, नाश्ते के लिए बनाया है, या दूसरे मनुष्यों के लिए आहार का संबंध किया है, तो भिक्षु गृहस्थ के द्वारा निष्पादित दूसरे के लिए बनाये हुए ― અનાવેલ છે, તે એ સ્થિતિમાં આધાકર્મિક વિગેરે દાષાથી રહિત એવા આહારના સ્વીકાર કરવામાં સાધુને કે,ઇ પણ દોષ લાગતા નથી. નિર્દોષ આહાર પશુ શરીરના નિર્વાહ અને સમ યાત્રા માટે જ ગ્રહ્મણ કરવા જોઈ એ. For Private And Personal Use Only તાત્પર્ય એ છે કે—સાધુના જાણુવામાં જો એવું આવે કે આ આહાર ગૃહસ્થે પોતાના માટે અથવા પેાતાના પુત્રાદિકા માટે કે પુત્રવધૂ માટે થાય માટે દાસ દાસિયા માટે કામ કરનારાઓ માટે પરાણુઓ માટે અથવા ખીજે ઠેકાણે મોકલવા માટે બનાવેલ છે, અથવા વાળુ માટે કે નાસ્તા માટે મનાવેલ છે, અથવા બીજા કોઇ માસ માટે આહારના સંગ્રહ કરેલ છે, તા ભિક્ષુ ગૃહસ્થ દ્વારા નિષ્પાદન કરેલ બીજા માટે બનાવેલ વિગેરે પ્રકારથી અહિયાં सू० १९ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतामसूत्र तस्य निष्ठितम् ३, अन्यस कृतम् अन्यस्य निष्ठितम्४. अत्र द्वितीयचतुर्थ मझो विशुद्धौ तावेव ग्राह्यौ, उद्गमोत्पादनाणाशुद्धम्, शस्त्रातीतम्, शखरिणामितम् । तत्र उद्गमोत्पादनैपणाशुदम्-उद्गमादिदोषरहितोपशुद्धम्, शस्त्रातीतम्-अग्न्यादि शस्त्र संपर्कादचित्तीकृतम्, एवं शस्त्रपरिणामितम्-अग्न्यादिशस्त्रद्वाराऽानि नींवीकृतम् अन्य थं कृतम् 'अविहिसियं' अविहिंसितं-हिंसादिसाङ्कयरहितम् स्वकायपरकाय रहितम् अतएव सर्वप्रकारैरचित्तम् ‘एसियं' एपितम्-एषणया प्राप्तम्, 'वेसियं' षिकं केवलसाधुवेपमाप्तम् 'सामुदाणिय' सामुदानिकम्-मधुरवृत्त्या प्राप्तम्, 'पचमसणं' प्राप्तमशनम् कारणहा' कारणार्थाय-क्षुधावेदनादि षट्कारणानि सन्ति, 'पमाणजुत्ते' प्रमाणयुक्तम्-नाऽपरिमितं ग्राह्य कदाचिदपि 'अक्वोवंजणवणलेषणभूयं' अक्षोपात्रनत्रणलेपनभूम्-अक्षर-शकटस्य उपाञ्जनमभ्यागः बगस्य च लेपनं तदुमयाऽऽहारमा हरेत् । 'संजमज यामायावतिय' संयम-यात्रा मात्रा इस प्रकार यहां चार भी होते हैं -(१) तस्य कृतं तस्यैा निष्ठितम् (२) तस्य कृतम् अन्यस्य निष्ठितम् (३) अन्यस्य कृतं तस्य निठिनम् , (४) अन्यस्य कृतम् अन्यस्य निष्ठिनम् । उद्गम उत्पादना और एषणा संबंधी दोषों से रहित, अग्नि आदि शस्त्रों के द्वारा अचिस बनाए हुए एवं शस्त्रों द्वारा पूर्ण रूप से अचित बने हुए, हिंमा आदि के मांकर्य (भेल सेल) से रहित अर्थात् सब प्रकार से अचित्त, एषणा से प्रास, केवल साधुवेष के कारण प्राप्त हुए, मधुरवृति से प्राप्त हुए आहार को क्षुधावेदनीय आदि छह काणों से, प्रमाणयुका ही ग्रहण करे। प्रमाण को उल्लंघन करके कदापि ग्रहण न करे। वह भी गाड़ी को चलाने के लिए लगाए जाने वाले ओंगना के समान असा घाव (गुपडा) पर लगाये जाने वाले लेप के ममान आहार को संयमयात्रा के निर्वाह के २२ नो (१:४५) थाय छे त ा प्रमाणे छ.-(१) तस्य कृतं तस्यैव निष्ठितम् (२) तस्य कृतम् अन्यस्य निष्ठितम् (3) अन्यस्य कृतं तस्य निष्ठितम् (४) अन्यस्य कृतम् अन्यस्य निष्ठितम्' दम, पाहना भने भेष सी .पोथी રહિત અગ્નિ વિગેરેથી અથવા શસ્ત્રો દ્વારા અચિત્ત બનાવેલ તથા શો દ્વારા પૂર્ણ રૂપથી અચિત્ત બનેલા હિંસા વિગેરેના ભેળસેળથી રહિત અથવા દરેક પ્રકારથી અચિત્ત, એષણાથી પ્રાપ્ત થયેલ, કેવળ સાધુ-વેષના કારણથી જ પ્રાપ્ત થયેલ મધુકર બમરાની વૃત્તિથી પ્રાપ્ત થયેલ આહારને ક્ષુધાવેદનીય વિગેરે કાર થી પ્રમાણુ યુક્ત જ ગ્રહણ કરે. પ્રમાણનું ઉલ્લંઘન કરીને કઈ પણ વખતે આહાર ગ્રહણ ન કરે. અને તે પણ ગાડ ને ચલાવવા માટે લગાવવામાં આવતા ગન (ગાડીના પડ ની ધરીમાં તેલ લગાવે તેની) માફક અથવા ઘા પર લગાવવામાં આવતા લેપની માફક સંયમ યાત્રાના નિર્વાહ માટે જ For Private And Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सार्थबोधिनी टोका द्वि. श्रु. अ. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् १४७ वृतिकम् 'लिमिव पन्नगभूषेण' क्लिप पन्नगभूतेन 'अप्पा' आत्मना 'आहार माहरेज्जा' आहारमाहरेत् सर्वदोषरहितं स्वल्पं यावत संगम-शरीरनिर्वाहो भवेत् वानदेव संकुचितेन आत्मना सर्प इवाऽऽहारं स्वीकुर्यात् यथा सर्पः शीघ्रं विलं प्रविशति तथैव स्वादनगृह्णन् आदारं कुतु इत्यर्थः, 'अन्नं अन्नकाले पाणं पाणकाले' अन्नं- मोज्यम् अन्नकाले पानं जलम्, पानकाले यस्य यः कालः तस्मिन् काले एव तस्य व्यवहारः करणीयः, 'वत्थं वत्थ काले' वस्त्रं वस्त्र काले यदा वस्त्रस्यावश्यकता भवेदेव ग्राह्यम् नान्यथा, 'लेगं लेकाले' लयतं लपनकाले, wate ऽस्मिन्निति पनं गृहम् वादिकाले अन्यदातु अनियमः 'सयणं सयणकाले' शयनं शयनकाले - जिनकल्सिनां प्रहरमात्र स्थविरकल्पिनां परद्वयं नाधिकं शयनीयम् स तु स्वकाले एवं गृहीयात् न तु कालातिक्रमे । 'सेक्खू ने अपरं दमणुदि वा पविन्ने' समिक्षु मत्रोऽन्यतरां दिशं दिशाम् अनुदिशं - दिशान्तरं वा प्रतिपन्नः - माश्रितो विहरन् गा इत्वर्थः लिए ग्रहण करे । जैले सर्प सीधा बिल में प्रवेश करता है, उसी प्रकार साधु स्वाद लिएविना ही भोजन करे । इस प्रकार भिक्षु अन के समय में अन्न और पानी के समय पानी ग्रहण करता है। जब वस्त्र की आव श्यक्ता हो तभी वस्त्र ग्रहण करता है, अन्यथा नहीं । लगनगृह भी वर्षां आदि के समय में ग्रहण करता है, दूसरे समय के लिए नियम नहीं है । शयन के समय शयन को ग्रहण करता है। जिनकल्ली साधु के लिए शयनकाल एक महर का और स्थविर कल्पियों के लिए दो प्रहर का होता है, इससे अधिक नहीं। नात्पर्य यह है कि वह प्रत्येक वस्तु उचित समय पर ही लेता है, समय का उल्लंघन करके नहीं। ऐसा कर्म की मर्यादा को जानने वाला साधु किसी दिशा, विदिशा या देश में विव આહાર ગ્રહણ કરે. જેમ સાપ સીધે જ દરમાં પ્રવેશ કરે છે, એજ પ્રમાણે સાધુએ સ્વાદ લીધા વિનાજ અહાર લેવા જોઇએ. આ પ્રમાણે બિલ્લુ અન્નના સમયમાં અન્ન અને પાણીના સમયમાં પાણી ગ્રહ કરે છે. અને જ્યારે વજ્રની જરૂર હોય ત્યારે જ વસ્ર ગ્રહણ કરે છે, તે શિવાય નહી' લયન-ઘર પણ વર્ષો કાળના સમયે ગ્રહણ કરે છે, તે શિવાયના સમય માટે નિયમ નથી, શયનના સમયે શય્યા-પથારીને ગ્રતુણુ કરે છે. જીનકલ્પી સાધુ માટે શયન કાળ એક પ્રહરના અને સ્થવિર કલ્પિકાને માટે એ પહેારના હાય છે. તેનાથી વિશેષ હાતા નથી, કહેવાનુ તાપ એ છે કે-તે દરેક વસ્તુ ચેાગ્ય સમયે જ ગ્રહણ કરે છે. સમયનું ઉલ્લંઘન કરીને લેતા નથી, એવા સાધુ કર્મીની મર્યાદાને જાણવાવાળા સાધુ કાઇ પશુ દિશા કે વિદિશામાં કે દેશમાં For Private And Personal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतासूत्र 'धम्म आइक्खे विभए किट्टे' अहिंसा लक्षगं धर्ममा पापयेत् विभजेन कीर्तयेत्सावधनिरवधविभागं कुर्यात् 'उबटिएसु वा अणुवट्टिएसु वा सुस्प्यूसमाणेनु पवेयर' उपस्थितेषु वा-धर्मबुद्धयोपस्थितेषु अनुपस्थितेषु वा-कौतुमबुद्धयोपस्थितेषु, शुश्रूषमाणेषु श्रोतुमिच्छुषु प्रवेदयेत्-जिनवचनानुसारेण निरवद्यधर्म तत्फलं च उपदिशेत् । 'संति विरति उवसमं निवाणं सोयवियं अन्नवियं मद्दवियं लापवियं अणतिवातिय' शान्तिम्-प्राणातिपातादिविरमणम् विरतिम्-इन्द्रिय नो इन्द्रियजयम्, उपशमम्, निर्वाणम्-अशेषदु.खरहितम्, शौचम्, आर्जवम्. मार्दवम्। लाघवम्, अनतिपातिकम्, तत्र शौवम्-भावद्धिरूपम्-मानवम्-सरलतोपेतम्, मार्दवम्- मृदुभावयुक्तम्, लाघाम् अतिपातिकम्-प्राणातिपातादिरहितमहिंसा लक्षणम् 'सव्वेसि पाणाणं' सर्वेषां प्रणानाम् 'सेव्वेसि भूयाणं' सर्वे पां भूतानाम् 'जाव सत्तागं' यावत् सस्थानाम्-जीवानाम् 'अणुवाई किट्टए धम्म' अनुविविन्स्य कीर्चयेद्धर्मम् साधुः पाणिनां कल्याणं विचार्य मोक्षं शान्तिप्रभृतिकं च दयोपशमादियुक्तं धर्म कीत्तयेत् । 'से भिक्खू धम्म किमाणे णो अन्नस्त धम्ममाइक्खेन्जा' रता हुआ धर्म का उपदेश करे एवं सावद्य निरवद्य का विभाग करे। सुनने के इच्छुक जो धर्म करने के लिए उपस्थित हैं अथवा अनुपस्थित हैं, उन्हें जिनवचन के अनुसार निर्दोष धर्म और धर्म के फल की प्ररूपणा करे । शान्ति, विरति इन्द्रिय और मन को विजय, उपशम समस्त दुःखों से रहित निर्वाण, शौच मन की शुद्धि सरलता, मृदुना, लाघव और अहिंसा का, समस्त प्राणियों, भूनों, जीवों और सत्यों के कल्याण का विचार करके उपदेश करे । अर्थात् प्राणियों के कल्याण का विचार करके मोक्ष, शान्ति, दया' उपशम आदि धर्म का उपदेश करे। વિચરતા થકા ધર્મને ઉપદેશ કરે. તેમજ સાવઘ અને નિરવધને વિભાગ કરે. સાંભળવાની ઈરછા વાળા જે ધર્મ કરવા તત્પર છે, અથવા અનુપસ્થિત છે, તેઓને જીન વચન પ્રમાણે નિર્દોષ ધર્મ અને ધર્મના ફળની પ્રરૂપણા કરે. શાન્તિ, વિરતિ ઈન્દ્રિય અને મનને વિજય ઉપશમ-સઘળા દુખેથી રહિત એ નિર્વાણ મોક્ષ શે ચ-મનની શુદ્ધિ સરલપણુ, મૃદુ-કમળપણું, લાઘવ અને અહિંસાને સઘળા પ્રાણિ ભૂતે, છે, અને સોના કલ્યા શુનો વિચાર કરીને ઉપદેશ કરે. અર્થાત પ્રાણિના કલ્યાણને વિચાર કરીને माक्ष, शनि, यI, S५म विगैरे मना ॥ ३२. For Private And Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. म. १ पुण्डरीकनामाध्ययनम् १४१ धर्म कीर्तियन् स भिक्षुः-नो अन्नस्य हेतोः कारणाव धर्ममावतीत । 'यो पाणस्स हे धम्ममाइखेजना' नो पानस्य हेतोः धर्ममाचक्षीत, 'णो वत्थस्स हेउं धम्ममाइखेज्जा' नो वखस्य हेतोः धर्ममाचक्षीत 'णो लेणस्महे धम्ममा: खेमा' नो लगनस्य-वसते हे धर्मशावलीत। 'यो सयमस्स हे धम्ममाइक्खेज्जा' नो शयनाय हेतो धर्म भावक्षीत 'णो अन्नेसि बिरुवरुनाणं कामभोगाणं हे धम्ममाइक्खेज्जा' नो अन्येषां विकासमागाम्-अनेकम काराणां कामभोगाना हे डोः-शब्दादिविग्यनिमित्तं धर्म माचक्षीत । 'अगिलाए' प्रा : आलानतया 'धम्ममाइक्खेज्ना' धर्ममाचक्षी । 'नन्नस्थ कम्मनिज्जरहाए धम्मः माइक्खेज्जा' नाऽन्यत्र कर्मनिर्जरात् धर्ममाचक्षीत । कर्मनिर्जराव्यतिरिक्तफल.. नभिमन्धाय धर्मोपदे ।। साधुभिः कर्त्तव्यः । इह खलु तस्स भिक्खुम्स अंतिए धम्म मोच्या' इह खलु तस्य भिक्षोरनिके धर्म श्रुमा 'णिसम्म' निशम्य-हृदये ऽधाय 'उठाणेणं उट्ठाय वीरा अस्सि धम्मे समुहया' उत्थानेन-प्रव्रज्यया उत्थाय गृहादिकं परित्यजन दीक्षां गृहोला वीरा:-कम विदारणसामथ्र्य वन्त:__धर्म का उपदेश करता हु मा साधु अन्न प्राप्ति के लिए उपदेश न करे, पानी की प्राप्ति के लिए धर्म का उपदेश न करे वस्त्र के लिए धर्म का उपदेश न करे, उपाश्रय पाने के लिए धर्म का उपदेश न करे, शाय्या प्राप्त करने के लिए धर्म का उपदेश न करे, या विविध प्रकार के काम भोगों को प्राप्त करने के लिए धर्म का उपदेश न करे । अग्लान भाव से धर्म का उपदेश करे। कर्मनिर्जरा के सिवाय अन्य किसी भी प्रयोजन से धर्म का उपदेश नहीं करना चाहिए। भिक्षु से धर्म को सुनकर और हृदय में धारण करके धीर-कर्म विदारण में समर्थ पुरुष दीक्षा अंगीकार करके, गृहत्याग करके आहेत ધર્મને ઉપદેશ કરતા થકા સાધુ અન્નની પ્રાપ્તિ માટે ઉપદેશ ન કરે. પાણીની પ્રાપ્તિ માટે ધર્મને ઉપદેશ ન કરે, વસ્ત્ર માટે ધર્મને ઉપદેશ ન કરે. ઉપાશ્રય મેળવવા માટે ધર્મને ઉ દેશ ન કરે. શય્યા પ્રાપ્ત કરવા માટે ધર્મને ઉપદેશ ન કરે. અથવા જુદા જુદા પ્રકારના કામને પ્રાપ્ત કરવા. માટે ધર્મને ઉપદેશ ન કરે. અગ્લાન ભાવથી ધર્મનો ઉપદેશ કરે કર્મની નિજ રા શિવાય બીજા કેઈ પણ પ્રયજન માટે ધમને ઉપદેશ કરે ન જોઈએ, ભિક્ષુ પાસેથી ધર્મનું શ્રવણ કરીને તેમજ તેને હૃદયમાં ધારણ કરીને વીર-કર્મ વિદાપણ કરવામાં સમર્થ પુરૂષ દીક્ષાને સ્વીકાર કરીને તથા ઘરને For Private And Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५० सूत्रकृतागसूत्रे अस्मिन् आईतधर्मे समुत्थिताः-उद्य। भान्ति । 'ते एवं समोरगया' ते वीग एवं सर्वोपगताः सर्वमोक्षकारणं सम्यगदर्शनशानवारित्रलक्षणं प्राप्ताः, ते एवं सनोवरता' ते एवं सपरताः-सवें :-पर्व पारधर्मभ्य उपरता:निवृत्ताः, 'ते एवं सम्बोवसंता' ते एवं सोपशान्ताः- मितरुषायाः 'ते एवं समसाए परिनिचुडत्ति' ते एवं सर्वात्मतया-सर्व भावेन परिनिर्वृत्ताः-उक्तगुणविशिष्टा एव सर्व कर्मक्षयकारका भवन्तीति 'बेमि' ब्रीमि-कथयामिमुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनं कथयति-हे जम्बू शिष्य ! यथा मया भगात स्तीर्थकराछूत तथा तुभ्यं कथयामि, एवं से भिक्खू' एवं स भिक्षुः 'धम्मही धमविऊ नियागपडिवणे' धर्मार्थो-धर्म:-श्रुतचारित्राख्यस्तेनार्थी, धर्मवित्-सर्वोपधिविशुद्धिधर्म नानाति, नियागपतिपन्न:-नियागः-मोक्षः शुद्र. संयमो वा तं प्राप्तः, 'से' तत् 'जहेयं बुइये यथे इमु कम् स साधुः- क्तपुरू. धर्म में उद्यमधान हो जाते हैं । वे बोर पुरुष सम्पग्दर्शन ज्ञान चारित्र और तफ्रूप मोक्ष मार्ग को प्राप्त करते हैं, समस्त सावद्य कर्मों से रहित हो जाते हैं। वे सब कषायों को जीत लेते हैं और वही समस्त कर्मों का पूर्ण रूप से क्षय करते हैं। — श्री सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं-हे जम्बू ! मैंने भगवान् तीर्थकर से जला सुना है, वैसा ही तुम से कहता हूं।। हम प्रकार वह भिक्षु श्रुत चारित्र रूप धर्म का अर्थी होता है, विशुद्ध धर्म का ज्ञाता होता है और मोक्ष या संयप को प्राप्त होता है। ત્યાગ કરીને આહત-અહંત ભગવાને ઉપદેશ કરેલા ધર્મમાં ઉઘરવાળા બની જાય છે. તે વીર પુરૂષ સમ્યકજ્ઞાન, સમ્યફદર્શન, સમ્યફચારિત્ર અને સમ્યક્ તપ રૂપ મોક્ષ માર્ગને પ્રાપ્ત કરે છે. અને સઘળા સાવધ કર્મોથી રહિત બની જાય છે. તેઓ બધા જ કષાયોને જીતી લેય છે અને એજ સઘળા કર્મોને પૂર્ણ પણાથી ક્ષય કરે છે. શ્રી સુધમરસવામી જબૂવામીને કહે છે કે—હે જબૂ! મેં ભગવાન તીયકરની પાસેથી જે પ્રમાણે સાંભળ્યું છે, એ જ પ્રમાણે તમેને કહું છું. . આ પ્રમાણે તે ભિક્ષુ કુતચારિત્ર રૂપ ધર્મની કામના વાળા હોય છે. વિણા ધર્મને જાણનારા હોય છે. અને મોક્ષ અથવા સંયમને પ્રાપ્ત કરે For Private And Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.१ पुण्डरीकनामाध्ययनम् १५१ 'षेषु पञ्चमः 'अदुवा पत्ते पउमवरपोंडरीयं' अथा अपातः पमपरपुण्डरीकम्इस श्वेतकमलं प्राप्तो न वा किन्तु-स एव सर्वेभ्यः श्रेष्ठः, 'एवं से भिक्ख परिणायकम्मे' एवं स भिक्षुः परिज्ञातकर्मा, परिज्ञातं कर्म येन सः, परिणायसंगे' परिक्षातसङ्गः-परिज्ञातः वान आम्यन्तरश्च सङ्गः-सम्बन्धो येन सः, तत्र वास:जनकजननीपुत्रपौत्रादिरूप आभ्यन्तरः सन:-कषायादिः, सपरिजया एतेषां कटु फलकमिति ज्ञात्वा प्रत्यारुपानपरिक्षया परित्यक्तः 'उपसंते' उपशान्तो जितेन्द्रियः 'समिए सहिए' समितः सहिता-पञ्च पमितिभिः सम्पन्नः, 'सया जए' सदा यतःज्ञानादि गुणसम्पन्नः, से.' स साधुः-एवं वक्ष्यमागप्रकारेण 'वयाणिज्जे' वचनोयो वक्तव्यः, 'तं जहा' तद्यथा-'समणेति वा श्रमग इति वा माहन इति वा 'खतेति वा क्षान्त इति वा क्षान्त्वादिगुणयुक्तः 'दंते ति वा' दानो जितेन्द्रिय इति वा, 'गुत्ते ति वा 'गुप्त इति वा 'मुत्तेति वा मुक्त इति वा, 'इसीइ वा' ऋषिरिति वा 'मुणीइ वा मुनिरिति वा 'कई इना' कृतिरिति वा विऊ वा' ऐसा साधु पूर्वोक्त पुरुषों में पांचर्या पुरुष है । वह उत्तम पुण्डरीक को प्राप्त करे अथवा न करे, किन्तु वही मर से श्रेष्ठ है। ऐसा वह भिक्षु कर्म के स्वरूप को जानने वाला, बाह्य और अन्तर संबंधों का ज्ञाता अर्थात् माता पिता पुत्र पौत्र आदि के बाह्य संबंध को और कपाय आदि के आभ्यन्तर संबंध को ज्ञपरिज्ञा से कटुक फल देने वाला जान कर प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग देना है। जितेन्द्रिय, पांच समितियों से सम्पन्न, सदा यतनाशील ज्ञानादि गुणों से युक्त ऐसा वह साधु इन शब्दों द्वारा कहने योग्य होता है-श्रमण, माहन, क्षान्त क्षमा भादि છે. એવા સાધુ પૂર્વોક્ત પુરૂષમાં પંચમે પુરૂષ છે, તે એ ઉત્તપ એવા જ રીક-કમળને પ્રાપ્ત કરે, અથવા ન કરે પરંતુ એ જ સૌથી શ્રેષ્ઠ છે. એ તે ભિક્ષુ કર્મના સ્વરૂપને જાણવા વાળ, બાહ–બહારના તથા આત્યંતર-અંદરના સંબંધને જાનાર અર્થાત્ માતા, પિતા, પુત્ર પૌત્ર વિગેરેના બાહ્યબહારના સંબંધને અને કષાય વિગેરેના આધંતર-અંદરના સંબંધને જ્ઞપરિ. જ્ઞાથી કડવા ફલ આપનાર જાણીને પ્રત્યાખ્યાન પરિજ્ઞાથી, તેને ત્યાગ કરે છે. જીતેન્દ્રિય પાંચ સમિતિથી યુક્ત સદા યતનાશીલ જ્ઞાન વિગેરે ગુણથી યુક્ત એ તે સાધુ આ નીચે બતાવવામાં આવેલ શબ્દને ચગ્ય ગણાય છે. -म, भान, क्षान्त, क्षमा विगेरे गुर्थी युत, वान्त, तेन्द्रिय, गुस, For Private And Personal Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir P १५२ विद्वान् इति 'भिक्खुसि वा भिक्षुरिति या लहेइ वा' रूक्ष इति वा 'सीरार्थी पति का 'चरण करणपारविकसि वेमि' चरण करणारविदिति षा इति प्रवीमि कथयामि सू०१५। ॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगदल्लम-पसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषा: कलितालतकलापालापकाविशुद्धगधपधनैकग्रन्थनिर्मापक, वादिमानमर्दक-श्रीशाहच्छत्रपति कोल्हापुरराजमदच'जैनाचार्य' पदभूषित - कोल्हापुरराजगुरुबालब्रह्मचारि-जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर -पूज्य श्री घासीलालप्रतिविरचितायां श्री "सूत्रकृताङ्गमूत्रस्य" समयार्थचोधिन्याख्यायां व्याख्यायां द्वितीयश्रुतस्कन्धे ॥ प्रथमाऽध्ययनं समाप्तम् ।। गुणों से युक्त, दान्त जितेन्द्रिय, गुप्त, मुक्त ऋषि, मुनि, कृती, विद्वान, भिक्षु, रूक्ष, तीरार्थी और चरणकरणपारवित् । ऐसा मैं कहता हूं ॥१५॥ जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घामी बालजीमहाराजकृत " सूत्रकृताङ्गसूत्र" को समयार्थबोधिनी व्याख्या का ॥प्रथम अध्ययन समाप्त ॥ भुत, ऋषि, मुनि, ति, विद्वान् , भिक्षु. ३६, ताराथी भने यर २१ पावित. આ પ્રમાણે હું કહું છું. ૧૫ જૈનાચાર્ય જેનધર્મદિવાકર પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત “સૂત્રકૃતાંગસૂત્રની સમયાઈ ધિની વ્યાખ્યાનું પહેલું અધ્યયન સમાપ્ત For Private And Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ध्ययन समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् अथ द्वितीयश्रुतस्कन्धस्य द्वितीयमध्ययनं पारम्पतेद्वितीयश्रुतस्कन्धस्य गतं प्रथमाऽध्ययनं साम्प्रतं द्वितीयमारभ्यते । अब प. माऽध्ययने पुष्करिणी पुण्डरीकदृष्टान्तेनाऽयमर्थः समर्थितः-यदिह भूखण्डे मोक्ष कारणमजानन परती कः कर्मबन्धनान्न विमुश्चति । किन्तु सम्यकद्धया पवित्रानि:करणाः-रागद्वेषरहिता उत्तमा निर्ग्रन्थाः कर्मबन्धनानि त्रोटयित्वा मोक्षमासादयन्ति । तथा-स्वकीयसदुपदेशात्-अन्यमपि मुक्तिभानं कुर्वन्ति । तत्रेयं जिज्ञासा भवति-केन कारणेन जीवो बन्धमासादयति, केन च कारणकुठारेण बन्धनं छिता मोक्षं प्राप्नोति । एतस्य प्रश्नसारस्योत्तरदानाय द्वितीयाऽध्ययनं प्रवर्तते । अस्मिन्न द्वितीय अध्ययन दूसरे श्रुतस्कंध का प्रथम अध्ययन समाप्त हुमा, अब दूसरा अध्ययन का आरंभ किया जाता है। प्रथम अध्ययन में पुष्करिणी और पुण्डरीक के दृष्टान्त द्वारा इस अर्थ का प्रतिपादन किया गया है कि इस भूमि पर मोक्ष के कारणों को न जानने वाले परतीर्थिक कर्म पन्धन से मुक्त नहीं होते। किन्तु सम्यक् श्रद्धा से पवित्र अन्तःकरण वाले, राग और वेष से रहित उत्तम निर्ग्रन्थ ही कर्मबन्धनों को तोड कर मुक्ति प्राप्त करते हैं तथा अपने सदुपदेश से दूसरों को भी मुक्ति का पात्र बनाते हैं। अथ प्रश्न यह होता है कि जीव किस कारण से कर्मबंध को प्राप्त होता है और किस कारण रूप कुठार से बन्धन को काट कर मोक्ष प्राप्त करता है? इसी महत्व पूर्ण प्रश्न का उत्सर देने के लिए दसरा मीनत अध्ययन। प्राબીજા શુધનું પહેલું અધ્યયન સમાપ્ત થયું, હવે બીજા અધ્યય નને પ્રારંભ કરવામાં આવે છે. પહેલા અધ્યયનમાં પુષ્કરિણી-વાવ અને પંડરીક-કમળ દૃષ્ટાંત્તથી આ વિષયનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવેલ છે કેઆ ભૂમિ પર મોક્ષના કારણેને ન જાણનારા એવા પરતીર્થિકે કર્મના બંધથી મુક્ત થતા નથી, પરંતુ સમ્યક્ શ્રદ્ધાથી પવિત્ર અંત:કરણવાળા રાગ અને દ્વેષથી રહિત ઉત્તમ નિજ કર્મના બંધનેને તેડીને મુક્તિને પ્રાપ્ત કરે છે. તથા પિતાના સદુપદેશથી બીજાઓને પણ મુક્તિ પ્રાપ્ત ४२१वे छे. I હવે પ્રશ્ન એ થાય છે કે–જીવ કેવા કારણથી કર્મ બંધને પ્રાપ્ત થાય છે, અને કયા કારણ રૂપ કુહાડાથી બંધનને કાપીને મોક્ષ પ્રાપ્ત કરે છે? આ મહત્વ ભરેલા પ્રશ્નને ઉત્તર આપવા માટે આ બીજું અધ્યયન स० २० For Private And Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ध्ययने द्वादशक्रियास्थानेन बन्धन त्रयोदशक्रियास्त्रानेन मोक्षो भविष्यतीति पानिपाइयिष्यति। यद्यपि बन्धनमुक्तिकारयोः घमामपि संथना, बयापिसंक्षेषण प्रकृम ता विस्तरेण प्रस्तरेष्यतीति महद्वैशिष्टयम् । या पुरुषा स्वकीय कर्माणि अपयितुमिच्छति-स प्रथमतो द्वादशप्रकारकक्रियास्थानं जानीयात् । तदनु क्रिया परित्यज्य कर्मवन्धनं श्लषयन् मोक्षभाक् स्यात्, अनेन प्रकारेण इहाऽध्ययने द्वादशक्रियास्थानानां वर्णनं करिष्यते। अत एतस्याऽध्ययनस्य क्रियास्थानाऽध्ययनमिति नाम भवति । गमनच नादिव्यापार एवं क्रियाशमायों अध्ययन प्रारंभ किया जाता है। इस अध्ययन में बारह स्थानों से बन्धन और तेरह क्रिया स्थानों से मोक्ष होता है, यह प्रतिपादन किया जाया। यद्यपि बन्ध और मोक्ष के कारणों की चर्चा पहले भी हो चुकी है किन्तु वह संक्षेप से हुई है। यहां वह विस्तार पूर्वक की जाएगी। यह इस अध्ययन की विशेषता है। जो पुरुष अपने कर्मों का क्षय करना चाहता है, उसे सर्व प्रथम बारह क्रिया स्थानों को जान लेना चाहिए। तत्पश्चात् वह उनको परित्याग करके कन्ध को शिथिल करता हुमा मोक्ष का भागी होता है। इस कारण इस अध्ययन में पारह क्रिस्थानों का वर्णन किया जाएगा। इसीलिए इम अध्ययन को 'क्रिपास्थानाध्ययन' नाम दिया गया है। चलना-फिरना आदि व्यापार ही क्रिया' शब्द का अर्थ है। किया પ્રારંભ કરવામાં આવે છે. આ અધ્યયનમાં બાર ક્રિયા સ્થાને થી બન્શન અને તેર ક્રિયા સ્થાનેથી મિક્ષ થાય છે, આ વિષયનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવશે. જો કે બંધ અને મોક્ષના કારણેની ચર્ચા પહેલાં પણ થઈ ચુકી છે, પરંતુ તે સંક્ષેપથી થઈ છે, અહિયાં તે વિસ્તાર પૂર્વક કરવામાં આવશે. એ આ અધ્યયનનું વિશિષ્ટ પણું છે. જે પુરૂષ પિતાના કમેને ક્ષય કરવાની ઈચ્છા રાખે છે, તેમાં સૌથી પહેલાં બાર કિયા સ્થાનને જાણી લેવા જોઈએ. તે પછી તે એને પરિત્યાગ કરીને કમ બન્ધનને શિથિલ (ઢીલું) બનાવતા થકા મે ક્ષના ભાગી થાય છે. આ કારણથી આ અષયનમાં બાર કિયા સ્થાનેનું વર્ણન કરવામાં આવશે. તેથી જ આ અધ્યયનને “કિયાસ્થાન, ધ્યયન' એ નામ આપવામાં આવેલ છે. ચાલવું ફરવું વિગેરે વ્યાપાર એટલે કે પ્રવૃત્તિ એજ ફિયા શાળા For Private And Personal Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - चिनी टीका द्वि. शु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् भवति । क्रिया द्विविना द्रव्यक्रिया भावकिय च । तत्र घटपटादिक्रियांमारभ्य शरीरान्तक्रिया द्रव्यक्रिया भवति । भावक्रियाष्टकारा भवति, प्रयोगो - पायकरणीय समुदाय - सम्यक्त्व सम्यमिध्यात्व- क्रियाभेदात् । एतांसी क्रियाणां स्वरूपं यथास्थानं सूत्रकृते । पतिपादयिष्यते । एतासां क्रियाणां यत्स्थानं तत् क्रियास्थानम् इत्येतादृशःक्रियास्थानस्यैव मनाऽध्ययने निर्वचनं करिष्यते । अतः परमास्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयम् । - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६५ " मूळम् - सूर्य मे आउसंतेणं भगत्रया एवमक्खायं-इह खलु किरियाठाणे नामज्झयणे पण्णते, तस्स णं अयमट्ठे, इह खलु संजूणं दुवे ठाणे एवमाहिज्जेति तं जहा धम्मे चैव अधम्मे चैव उवसंते चेत्र अणुत्रसंते चेत्र । तत्थ णं जे से पढमस्स ठाणस्स अहम्मपक्वस्स विभंगे, तस्स र्ण अयमट्टे पण्णत्ते, इह दो प्रकार की होती है - द्रव्यक्रिया और भावक्रिया । घटपट आदि की क्रिया से लेकर शरीर के अन्त तक की क्रिया द्रव्य कहलाती है। भावक्रिया आठ प्रकार की होती हैं-प्रयोग १, उपाय २, करणीय ३ समुदान ४, ५, सम्यक्व ६ और सम्यङ्घ्रिध्याव ७ क्रिया ८ इन क्रियाओं का स्वरूप सूत्रकार स्वयं ही यथास्थान प्रतिपादन करे गे। इन क्रियाओं का स्थान क्रिपास्थान कहलाता है । प्रकृत अध्ययन में इस किया स्थान का ही व्याख्यान किया जाएगा। इसके अनंन्तर संवलना आदि दोपों से रहित सूत्र का उच्चारण करना चाहिए । For Private And Personal Use Only ७, અથ છે. ક્રિશ્ના બે પ્રકારની હૈાય છે. દ્રક્રિયા અને ભાવક્રિયા ઘટ પેટ, વિગેરેની ક્રિયાથી લઈને શરીરના અંત સુધીની ક્રિષા દ્રવ્ય ક્રિયા કહેવાય छे. भावडिया या प्रारणी होय छे ते या प्रमा प्रयोग १, ३५.य કરણીય ૩, અમુદાન ૪, ઇર્યાપથ ૫, સમ્યક્ત્વ ૬, અને સમ્યક્ મિથ્યાત્વ ક્રિયા ૮, આ ક્રિયાઓનું સ્વરૂપ સૂત્રકાર પે.તે જ પ્રસંગેાપાત યથાસ્થાન પ્રતિપાદન કરશે. આ ક્રિયાઓનુ સ્થાન ક્રિયાસ્થાન કહેવાય છે. ચાલુ મ બીજા અધ્યયનમાં આ ક્રિયાસ્થાનનુ જ વ્યાખ્યાન કરવામાં આવશે તે પછી શમલતા વિગેરે ઢળેથી રહિત સૂત્રનું ઉચ્ચારણ કરવુ જોઈ એ ययतनुं पडे सूत्र 'सुयं मे आउने 'लाह Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतामणे खलु पाइणं वा ४ संतेगइया मणुस्सा भवति, तं जहा-आरिया वेगे अणारिया वेगे उच्चागोया वेगे णीयागोया वेगे, कायमंता वेगे हस्समंता वेगे सुवण्णा वेगे दुवण्णा वेगे सुरूवा वेगे दुरूवा वेगे। तेसिं च णं इमं एयारूवे दंडसमादाणं संपेहाए तं जहाणेरइएसु वा तिरिक्ख जोणिएसु वा मणुस्सेसु वा देवेसु वा जे जावन्ने तहप्पगारा पाणा विन्नू वेयणं वेयंति । तसि पि य णं इमाई तेरसकिरियाठाणाई भवंतीति मक्खायं, तं जहा-अट्ठा दंडे१ अणटादंडे२ हिंसादंडे३ अकम्हादंडे ४ दिट्टीविपरियासियादंडे ५ मोसवत्तिए६ अदिन्नादाणवत्तिए७ अज्झत्थवत्तिए८ माणवत्तिए९ मित्तदोसवत्तिए१० मायावत्तिए११ लोभवत्तिए१२ इरियावत्तिए १३ ॥सू०१॥ छाया-श्रुतं मया आयुष्मन् ! तेन भगवता एमाख्यातम् इह खल्लु क्रिया स्थानं नाम अध्ययनं प्रज्ञप्तम् , तस्य खलयमर्थः । इह खलु सामान्येन द्वे स्थाने एवमाख्यायेते तद्यथा-धर्मश्चैव अधर्मश्चैव, उपशान्तश्चैा अनुपशान्तश्चैव । तत्र खल यः स प्रयमस्य स्थानस्य अधर्मपक्षस्य विभङ्गा, तस्य खलायमर्थः प्रज्ञप्तः । इह खलु माच्यां वा ४ सत्येकतये मनुष्या भवन्ति तद्यथा-आर्या एके, अनार्या एके, उच्चगोत्रा एके, नी वगोत्रा एके, कायान एके, इस्ववन्त एके, सुवर्गा एके, दुर्वर्णा एके, सुरूश एके, दुरूपा एके, तेषां च खलिलदमेतद्रूपं दण्डसमादानं सम्प्रेक्ष्य तद्यथानैरयिकेषु वा तिरंग्योनिकेषु वा मनुष्येषु वा देवेषु वा, ये चान्ये तयाणकाराः पाणाः विद्वांसो वेदनां वेदयन्ति, ते गामपि च खलु इमानि त्रयोदशक्रियास्थानानि भवन्तीत्याख्यातम् , तद्यथा-अर्थदण्डः१ अनर्थ दण्डः२ हिमादण्डः३ अक स्मादण्डा ४ दृष्टिविपर्या पदण्ड ५ मापत्ययिकः६ अदत्तादान त्ययिका७ अध्या. स्मपत्यविकः ८ मानपत्ययि : ९ मित्रदोषपत्ययिकः १० मायाप्रत्ययिकः ११ कोममत्ययिका १२ ईपिथि ... १३ ॥५० १॥ For Private And Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. म. २ क्रिशस्थाननिरूपणम् १५७ टीका - सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिमभृतिशिष्यसमुदायं प्रति कथयति - 'आउ संतेण' हे आयुष्मन् शिष्य ! तेन 'भगवा' भगाता तीर्थकरेग महारीरेण 'पत्रमक्वायं' एवम् - ३६०माणम् आख्यातं प्रतिपादितम् 'मे सुर्य' मया श्रुतम्भगवता यदुपदिष्टं तन्मया श्रुत-तदेव क्रिगास्थानं त्वामहं वच्मि । वमनाः सावधान मनसा शृणु। '६ खलु किरियाठाणे णामज्झवणे पण्णत्ते' इह-अस्मिन् जिनशासने खलु क्रियास्थानं नामाऽध्ययनं द्वितीयस्कन्धे प्रप्तम्- कथितम् । 'तहसणं अयमट्टे' तस्य - क्रिस्थानस्य खलु अपमर्थ', 'इह खलु संजूहेणं दुबे टाणे माहिज्जेहि खलु द्वे स्थाने सामान्येन एवमाख्यायेते । 'वं जा'aur - 'मे व अधम्मे चे' धर्माधर्मवैव 'उमंते चेन अणुसंते चेत्र' उपशान्तश्वेऽनुपशान्तचैव-उपशान्तधर्मस्थानम् अनुपशान्तधर्मस्थानं च 'तत्य णं जे से पढमस्स' तत्र खल्ल यः सः मवमस्य 'ठाक्स' स्थानस्य 'अइम्मयकव स' अस्य''विभङ्गविभागः मकार इति यावत्-इह पायः सर्वोप्रवर्तते ततः सदुपदेशाद्ध प्रात अतोऽधस्य प्रथमत्व 'सुयं मे आउसंतेणं' इत्यादि । टीकार्थ - श्री सुधर्मास्वामी अपने जम्बू स्वामी आदि शिष्य समूह से कहते हैं - हे शिष्य ! आयुष्मान् भगवान् महावीर तीर्थंकर ने इस प्रकार कहा है । भगवान् ने जो कहा वह मैंने सुना है। वही क्रियास्थान मैं तुम्हें कहता हूं। जिसे सावधानचित्त होकर सुनो उसका इस जिनशासन में क्रियास्थान नामक अध्ययन कहा गया है । अर्थ यह है - सामान्य रूप से दो स्थान इस प्रकार कहे जाते हैं- धर्म और अधर्म, उपशान्त और अनुशान्त अर्थात् उपशांत धर्मस्थान और अनुपशांत धर्मस्थान । इनमें से प्रथम अधर्म स्थानका अर्थ इस प्रकार कहा गया है । ટીકાથ—શ્રી સુધર્માસ્વામી જમ્બુસ્વામી વિગેરે પેાતાના શિષ્યાને કહે છે કે—હ શિષ્યા ! આયુષ્યમાન ભગવાન મહાવીર તીર્થંકરે આ પ્રમાણે કહ્યું છે. ભગવાને જે કહ્યું તે મેં સાભળ્યું છે. એજ ક્રિયા સ્થાનનું સ્વરૂપ હું તમાને કહું છું તે તમે સાવધાન ચિત્તવાળા થઈને સાંમળા. આ જીન શાસનમાં ક્રિયાસ્થાન નામનું અધ્યયન કહેવામાં આવેલ છે, તેના અથ એ છે કે—સામાન્ય પદ્માથી એ સ્થાને આ પ્રમાણે કહેવામાં આવે છે તે એ સ્થાન ધર્મ, અને અધમ એ છે. ઉપશાંત અને અનુપશાંત અર્થાત્ ઉપશ ત ધમ સ્થાન અને અનુપ્રશાન્ત ધર્મસ્થાન તેમાં પહેલ અધમ સ્થાનના અથ આ પ્રમણે કહેલ છે. ——— For Private And Personal Use Only • Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५० सूत्रकृताङ्गसूत्रे - हुक्तम् । 'तणं अधम पष्णते' तस्य ख अपमर्थः मज्ञः 'इह खड पाहणं वा४' इह-अस्मिन् लोके खलु इति निश्वपेन 'पाइ वा पाय वा४- पाचदिदिशासु चतुर्षु 'संतेइया मणुष्पा भांति' सन्त्येकाये मनुष्या भवन्ति-अनेक कारमेदमित्रा माना विद्यन्ते, 'तं जहा' तद्यथा 'मारिया वेगे अणारिया देने' आर्या एके, अनार्या एके 'उवागोया वेगे - गीयागोया वेगे' उच्चत्रा एकेमी एके, 'कामं वेगे-इस्समं वेगे' का ववन्तो दीर्घ छाया एके-हस्वकाया एके 'सुरणा वेगे-दुण्णा वेगे' सुत्र एके केवन विशिष्टवन्तीं ति, दुर्वण एके, 'सुया वेगे - दुरूप वेगे' सुरु-सुन्दरान्त एके दुखा:- कुत्सितरूपवन्त एके 'तेर्सि च णं एयारू' तेर्पा च ख इदम् एवम्, तेषामने भेदभिन्नानां मानवानाम् इदं वक्ष्यमाणरूपकम् 'दंडसमादाणं' दण्डसमादानं भवति तेषां जीवानां पापकर्मण इच्छा मरति, इति 'संहार' वं संपे क्ष्य - सम्यगृदृष्ट्वा 'वं जह' तचवा - 'णेरइवा' नैरविकेषु नारकजीयेषु वा 'तिरिक्खजोणिरसुवा' तिर्यग्योनिकेषु जीवेषु, 'मगुम्से वा' मनुष्यजीवेषु वा - - प्रायः सभी लोग पहले अधर्म में प्रवृत्ति करते हैं, फिर सदुपदेश पाकर धर्म में प्रवृत्त होते हैं, इस कारण अधर्म पक्ष को प्रथम कहा है। For Private And Personal Use Only इस लोक में निश्चय ही पूर्व आदि सभी दिशाओं और विदिशाओं में नाना प्रकार के मनुष्य होते हैं, जैसे - कोई आर्य होते हैं, कोई अनार्य होते हैं, कोई उच्चगोत्री होते हैं कोई नीवगोत्री होते हैं, कोई लम्बे शरीर वाले तो कोई छोटे शरीर वाले होते हैं कोई ब्राह्मग आदि ऊंवे वर्ण वाले और कं ई नीचे वर्ण वाले होते हैं। कोई सुन्दर रूप वाले और कोई कुरूप होते हैं। इन नाना प्रकार के मनुष्यों की पाप कर्म करने की इच्छा होती है। यह देखकर नारकों तिच પ્રાય: સઘળા લેકે પહેલાં અધર્મમાં પ્રવૃત્ત હોય છે. અને પછી સદ્ગુ પદેશ પામીને ધમમાં પ્રવૃત્ત થાય છે. તેથી અધમ પક્ષ પડેલા કરેલ છે. આ લેાકમાં જરૂર પૂર્વ વિગેરે સઘળી દિશાએ અને વિદિશાએમાં અનેક પ્રકારના મનુષ્યેા હાય છે, જેમકે—કે ઇ આય` હોય છે. કઈ અનાય ડાય છે. કઈ ઉચ્ચ ગેાત્રવાળા હેાય છે. કાઈ નીચા ગાત્રવાળા ઢાય છે. કાઈ લાંખા શરીરવાળા તા કાઈ ઢીગણા શરીરવાળા હોય છે કઈ બ્રાહ્મણું વિગેરે ઊઁચ વધુ વાળા અને કેમ નીથા વધુવાળા હાય છે. કેસ સુંદર રૂપ વાળા અને કાઈ કટપા એટલે કે ખરાબ રૂપવાન ડૅાય છે. આ અનેક પ્રારના મનુષ્ટેતે પૂ. ૫૪મ કરવાની ઈચ્છા થાય છે. એ જોઈને નારકા, Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सार्थबोधिनी टीका द्वि. श्र. म. २ क्रियास्थाननिरूपणम् १.५९ " - 'देवा' देवनिकायेषु वा 'जे नावश्ये तहपगारा' ये चान्ये तमाम कार 'पापा' माणाः- जीवाः 'किन्नू वेवणं वेयंति' वेदनां सुखदुःखानुभवरूपां मन्ति अनुमन्ति निः- सदसद्विवेकवन्तः । 'तेर्सि पि य णं इमाई शेरस किपाठाणाई' तेवमपि च खलु इमानि त्रयोदश क्रियास्थानानि 'मतीत करवाय भवन्तीति तीर्थकरैराख्यातम् 'तं । तद्यथा-वानि च स्थानानि भग्रे माणानि 'अट्ठादंडे' अर्थदण्डः - कमपि प्रयोजनविशेषमासाद्य हिंसात्मक पापकरणदण्डः कथ्यते १ । 'अडादंडे' अनर्थदण्डः प्रयोजनमन्तरेणैव हिंसात्मक पापकरणमनर्थदण्डः २ | 'हिंसा दंडे' हिं दण्डः प्राणिनामतिपातः ३ । 'अकमहादंडे? अकस्मादण्डः (आकस्मिको दण्डः) अन्यस्याऽपराधे दण्डयतेऽन्यः ४ । 'दिट्टी विपरियासियादं डे' दृष्टिविपर्यासदण्डः दृष्टे विर्यासोऽन्यथा भावस्तेन तो दण्डः, यथा' प्रस्थरखण्डं ज्ञात्वा वाणेन पक्षिण हन्ति ५ । 'मोसवत्तिए' मृषा प्रत्यक:मनुष्यों और देवनिकायों में जो सत्-असत् के विवेकी एवं पुण्य कर्म के उदय से भाग्यवान् जीव सुख दुःख रूप वेदना का अनुभव करने हैं, उनके भी यह तेरह क्रिया स्थान तीर्थंकर भगवान् ने कहे हैं। ये तेरह क्रिया स्थान इस प्रकार हैं- - (१) अर्थदंड -- किसी प्रशेजन से हिंसा करना । (२) अनर्थ दंड- निष्प्रयोजन हिंसा करना । (३) हिंसादंड -- प्राणियों का घात करना । (४) अकस्मात् दंड --दूसरे के अपराध का दूसरे को (५) दृष्टि विपर्यास दंड --दृष्टि दोष से दंड देना, जैसे टुकडा समझ कर पक्षी को बाण से मारना । दंड देना । For Private And Personal Use Only पत्थर - का તિય ચેા મનુષ્યા અને દૈનિકાયોમાં જે સત્ મમ્રતા વિવેકને જાણનારા તથા પુણ્ય કર્મના ઉદયથી ભાગ્યવાન્ જીવ સુખ દુઃખ રૂપ વેદનાને અનુભવ કરે છે તેના પશુ આ નીચે બતાવવામાં આવેલ તે સ્થાને ભગવાને उद्या ते तेर प्रियास्थान या प्रमाछे छे.- (૧) અંદ ડ - કાઈ પણ પ્રયેાજનથી હિંસા કરવી (२) अनर्थ हैंड - विना हिंसा अरवी (3) हिंसा:ड - प्राणियोनो धात रो (૪) અકસ્માત્ દંડ.—મીજાના અપરાધના ખીજાને દંડ આપવા (૫) દૃષ્ટિ વિપર્યાસ`ડ—દૃષ્ટિ દ્વેષથી દડદેવે જેમકે-પત્થરને કડ સમજીને પક્ષીને ખાથી મારવું, Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रहतार मिधाभाषणेन पापसम्पादनम्, 'अदिनादाणवत्तिए' अदत्तादानप्रत्यायक:स्वामिना अदत्त बस्तुग्रहणम्, यथा स्तेयेन परद्रव्यग्रहणम्, 'अझयवत्तिए' अध्या स्मपत्यापिका मनसि अन्यथा चिन्तनम् ८। 'माणवति! मानपश्ययिक:जात्यादिगर्वमासाथ परापमानम्। 'मित्तदोसवत्तिए' मित्रदोषपत्ययिकःमित्रद्वेषः१०, 'मायावत्तिए' माया प्रत्यायिक:-परस्य वञ्चनम् ११ 'लोमात्तिए' लोभमत्ययिका-लोभकरणम् १२ 'इरियारहिए' इर्या पथिक:- पञ्च मितिगुमि. प्रयाप्त:-सर्वत्रोपयोगपूर्वकगमनेनी सामान्यतः कर्मबन्धो भवति १३, एने प्रयोदश क्रियास्थानानि, एमिरेव जीवस्य कर्मवन्धो भवति । एतव्यतिरिक्ता (६) मृषा प्रत्यायिक दंड --मिथ्या भाषण करके पाप करना। (७), अदत्तादान प्रत्ययिक--चोरी से पराई वस्तु लेना। (८) अध्यात्म प्रत्ययिक--मनमें अप्रशस्त चिन्तन करना। (९) मानप्रत्यधिक-जाति आदि का गर्व करके दूसरों का अपमान करना। (१०) मित्र द्वेष प्रत्ययिक--मित्रों के साथ वेष भाव धारण करना। (११) माया प्रत्ययिक-छल-कपट करके पाप करना। (१२) लोभ प्रत्यायक-लोभ करना। (१३) इविधिक-उपयोग पूर्वक गमन करने पर भी सामान्यतः कर्मबन्ध होना। इन तेरह क्रियास्थानों से जीव को कर्मयन्ध होता है। इनसे (૬) મૃષા પ્રત્યથિક દંડ–મિથ્યા ભાષણ કરીને અર્થાત્ અસચ બત્રીને પાપ કરવું તે (७) महत्तहान प्रत्याय:-यारी ४२२ पा२४ी यी सेवा. (८) मध्यम प्रत्यय:-मनमा-मप्रशस्त तिन ४२. (૯) માન પ્રત્યયિક–જાતિ વિગેરેને ગર્વ કરીને બીજાનું અપभान २t. (10) भित्र३५ प्रत्यय:-भित्री साये । . (११) मायाप्रत्यय:--७॥ ४५८ श२ ५.५ ३२७: (१२) र प्रत्याय--सोम ४२. (१३) पिथि:---3५॥ ५॥ न य A41) ४२१॥ ७ri ५५ સામાન્ય પણાથી કર્મ બંધ છે તે. આ તેર ક્રિયાથાનેથી છાને કબંધ થાય છે. તેનાથી ભિન્ન કઈ For Private And Personal Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org समयबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् १६१ न काचनाsन्या क्रिया या हि कर्मबन्धकारिणी स्यात् । एष्वेव क्रियास्थानेषु सर्वे संसारिणो जीवाः सन्तीति सू० १ । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूलम् - पढमे दंडसमादाणे अट्ठादंडवत्तिए त्ति आहिज्जइ, से जहा णामए केइ पुरिसे आय हेउं वा पाइहेडं वा आगारहेडं परिवारहेडं वा मित्तहेउं वा नागहेडं वा भूतहेडं वा जक्खहेउं वा तं दंड तसथावरेहिं पाणेहिं सयमेत्र णिसिरिति, अण्णेग त्रिणिसिराas अण्णं पि विसितं समणुजागइ एवं खलु तस्त तप्पत्तियं सावनंति आहिजड़, पढमे दंडसमादाणे अट्ठादंडवत्तिए ति आहिए ॥ सू० २||१७|| 3 छाया - प्रथमं दण्डसमादानमर्थदण्डप्रत्ययिक मिश्याख्यायते । तद्यथा-नाम कश्चिन् पुरुषः आत्म हेतोर्वा ज्ञानिहेतोर्वा आगार हेतोर्वा परिवार देतो व मित्र हेतोर्वा नागहेतो र्वा भूतहेतो व यक्षहेतोर्वा तं दण्ड प्रसस्थानरेषु प्राणेषु स्वयमेव निनति अन्येनापि निसर्जयति अन्यमपि निम्नन्तं समनुजनाति, एवं खजु तस्य तत्वस्ययिकं सावधमाधीयते प्रथमं दण्डसमादानम् अर्थदण्डप्रत्ययिकमित्याख्यातम् ||०२||१७|| टीका- 'पढ' प्रथमम् 'दंडसमादाणे' दण्डसमादानम् - क्रियास्थानं प्रथमं पाप करणस्थानम् ' अड्डा दंडवत्तिए' अर्थदण्ड प्रत्ययिकम् 'त्ति' इति 'आहि अतिरिक्त कोई ऐसी क्रिया नहीं है जो कर्मबन्ध का कारण हो । संसार के समस्त जीव इन्हीं क्रियास्थानों में वर्तमान है ॥ १ ॥ (१) अर्थदंड क्रियास्थान 'पढमे दंड समादाणे' इत्यादि । टीकार्थ- पहला दंड समादान अर्थात् किया स्थान अर्थद ंड प्रत्ययिक कहा गया है। दण्ड समादान का उद्देश और विभाग अर्थात् सामान्य એવી ક્રિયા નથી, કે જે કમ બન્ધનુ' કારણ હાય, સ'સારના સઘળા જીવો આજ ક્રિયા સ્થાનેામાં રહેલા છે. ૧૫ (૧) અંદ‘ડ ક્રિયાસ્થાન 'पढमे दमादाणे' इत्यादि ટીકા”—પહેલે દડ સમાદાન અર્થાત્ ક્રિયાથન અ`ડ પ્રત્યયિક કહેલ છે. દંડ સમાદાનના ઉદ્દેશ અને વિભાગ અર્થાત્ સામાન્ય થન અને सु० २१ For Private And Personal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतासूत्र प्रजई' भाख्यायते, प्रथमसूत्रेण उद्देशविभागौ दण्डसमादानस्य दयित्वा द्विती सूत्रेण अर्थपत्ययिकदण्डसमादानस्य लक्षणं स्वरूपं चोच्यते-'पढमें' इत्यादि । 'से जहाणामए केइपुरिसे' तयथा नाम कश्चित्पुरुषः, 'मायहेवा' ज्ञातिहेनोर्वा, 'आगारहेउवा' आगार--गृहं तद्धेतोषी 'परिवारहेउवा परिवारहे तो 'मित हे उंचा मित्रहे तो वो 'णागहेउवा' नागहेतो वा 'भूत हेउवा" भूतहतो वा 'जक्खहे उंवा' यक्षहेतो; 'तं दंडं तसथावरेहिं पाणेहि सपमे। गिसिरिति' तं दण्डं सस्थावरमाणेषु स्वयमे। निस जति-स्वयमेव प्राणदण्डदानात्मकं पापं करोति । 'अण्णेग विणिसिरावेति' अन्येनाऽपि निप्तनपति-परद्वारा माणाति पातात्मकं दण्डं कारयति 'अण्णं पि णिसिरंतं समणु नाण। अन्यमपि नि जन्तम् -ताश दण्डं कुन्तिं समनुनानाति-अनुमोदते 'एवं खलु तस्स तपनियं' एवं खलु तस्य-अनुमोदनत्तुः पुरुषस तनत्ययिकप्-आत्मज्ञास्यादि हेतुकम् 'सावज्जति आहिज्नई' सावद्यमाधीयते-काकारिताऽनुमोदिक्षामिः क्रियामि स्तस्य पुरुपस्य सारद्या मधनं भवतीति । 'पहमे' प्रथमम् 'दंडममादाणे' दण्डपमा दानम्-पापकरणस्थानम् 'अहा दंडात्तिए' आदण्डपायकम् नि आहिए' कथन और भेद प्रदर्शन करके अर्थदंड प्रत्ययिक क्रियास्थान का स्वरूप कहते हैं-कोई पुरुष अपने स्वयं के लिए, ज्ञातिजनो के लिए गृह के लिए, परिवार के लिए, मित्र के लिए, नाग भूत या यक्ष के लिए त्रस और स्थावर प्राणियों की स्वयं हिंसा करता है, दूसरे से हिमा कर. घाता है, और हिंसा करने वालो की अनुमोदना करता है। इस प्रकार किसी प्रयोजन से स्वयं हिंसा करने, कराने और अनुमोदन करने से उस पुरुष को कमबन्ध होता है। यह अर्थदण्ड प्रत्यायिक प्रथम क्रियास्थान है। मार य यह है कि अपने लिए या अपने मित्र अथवा परिवार आदि के लिए प्रस-स्थावर जीवों का प्राणानिपात करता है, करवाता ભેદ પ્રદર્શન કરીને અર્થદંડ ક્રિયાસ્થાનનું સ્વરૂપ કહે છે – કોઈ પુરૂષ પોતાના म.टे, घर मटे, परिवार भाटे, भित्रने भाट; नास, भूत, ५२१॥ यक्ष भाटे ત્રસ અને સ્થા ૨ પ્રાણિયોની પિોતે હિંસા કરે છે બીજાથી હિંસા કરાવે છે, તથા હિંસા કરવા વાળાનું અનુમોદન કરે છે. આ રીતે કે પ્રત્યે જનથી યં હિંસા કરવા, કરાવવા અને અનુમોદન કરવાથી તે પુરૂષને કર્મબંધ થાય છે. આ અર્થદંડ પ્રયિક પહેલું ક્રિયાસ્થાન છે. તાત્પર્ય એ છે કે--જે પિતાને માટે અથવા પિતાના મિત્ર અથવા પિતાના પરિવાર વિગેરે માટે ત્રસ સ્થાવર જેને પ્રાણાતિપાત કરે છે, For Private And Personal Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका वि.व. अ.२ कियास्थाननिरूपणम् इत्याख्यानम् । यः पार्थ पर.र्थ वा मित्र-परिवारा वा, सस्थारादिपागिना पाणातिगतात्मकं दण्ड करोति कारयति वा अन्यं कुर्वन्तं वा अनुमोदते तस्यपुरुषस्यार्थप्रत्यायिक दण्डसमादानं निवास्थानं पापाय भवतीति प्रथममर्थदण्ड. प्रत्ययिक क्रियास्थानम् ।।मू० २ । १७॥ मूलम्-अहावरे दोच्चे दंडसमादाणे अणहादंडवत्तिए त्ति आहिज्जइ, से जहाणामए केइपुरिसे जे इमे तसा पाणा भवंति ते णो अच्चाए णो अजिणाए णो मंसाए णो सोणियाए एवं हिययाए पित्ताए वसाए पिच्छाए पुच्छाए वालाए सिंगाए विसाणाए दंताए दाढाए णहाए प्रहारुणिए अट्टीए अट्रिमंजाए, णो हिंसिसु मेत्ति णो हिंसिंति मेत्ति णो हिंसिसंति मेत्ति णो पुत्त पोसणाए णो पसुपोसणयाए णो अगारपरिवहणताए णो समणमाहणवत्तणा हेडं जो तस्स सरीरगस्त किंचि विपरियादित्ता भवइ, से हंता छेत्ता भेत्ता लंपइना विलंपइत्ता उदवइत्ता उग्झिउं बाले वेरस्स आभागी भवइ, अणटादंडे । से जहाणामए केइपुरिसे जे इमे थावरा पाणा भांति, तं जहा-इकडाइ वा कडिणाइ वा जंतुगाइ वा परगाइ वा मोक्खाइ वा तणाइ वा कुसाइ वा कुच्छगाइ वा पव्वगाइ वा पलालाइ वा, ते णो पुत्तोसणाए णो पसुपोसणाए णो अगारपडिबूहणाए णो समणमाहणपोसणाए णो तस्त सरीर. है या करने वाले का अनुमोदन करता है, उसको अर्थदण्ड प्रत्ययिक क्रियास्थान होता है। यह प्रथम क्रिया स्थान हुभा ॥२॥ કરાવે છે અથવા કરવાવાળાનું અનુમે કરે છે, તેને અર્થદંડ પ્રચલિત રિસ્થાન કહેવાય છે. આ પહેલું કિયારથાન છે. મારા - - - For Private And Personal Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतागमत्र स्स किंधि वि परियाइत्ता भवंति, से हंता छेत्ता भेत्ता लुपइत्ता विलुपइत्ता उद्दवइत्ता उझिउं वाले वेरस्स आभागी भवइ, अणदादंडे। से जहाणामए केइपुरिसे कच्छसि वा दहंसि वा उदगंसि वा दवियसि वा वलयंसि वा णूमंसि वा गहणंसि वा गहणविदुग्गंसि वा वसि वा वणविदुग्गसि वा पव्वयंसि वा पव्वयविदुग्गंति वा तणाई ऊसविय सयमे। अगणिकायं णिसिरति अण्णेण वि अगणिकार्य णिसिरावेति अपगपि अगणिकायं णिसिरंतं समणुजाणइ अणहादंडे, एवं च खलु तस्स तप्पत्तियं सावजति आहिज्जइ, दोच्चे दंडसमादाणे अणहादंडवत्तिए ति आहिए ॥सू०३-१८॥ छाया--अथाऽपरं द्वितीय दण्डपमादानमनर्थदण्डपः पिकमित्याख्यायते, तद्यथानाम कश्चित् पुरुषः, ये इमे त्रमाः प्राणा भवनि तान् नो अर्चाय नो अजिनाय नो मांसाय नो शोणिताय एवं हृदयाय पित्ताय वसायै पिच्छाय पुन्छाय वालाय शङ्गाय विषाणाय दन्ताय दंष्ट्राय नावाय स्नायवे अस्थने अस्थिमज्जाये, नो अर्हिसिषु ममेति, नो हिपन्ति ममेति, नो हिसिष्यन्ति ममेति, नो पुत्रपोषगाय नो पशुपोषणाप नो आगारपरिदृद्धये नो श्रमणमाहनवर्तनाहेतोः नो तस्य शरीरस्य किश्चन परित्रागाय भवति स हन्ता छे ता भेता लुम्पयिता विलुम. यिता उपद्रावरिता उज्झित्य बालो वैरस्थ आभागी भाति आर्थदण्डः । तद्यथानाम कश्विा पुरुषः, ये इमे स्थावराः प्राणा भवन्ति तद्यया इकडादि वा कठिनादि र्वा जन्तुकादि वा परकादि वा मुस्तादि वा तगादि वी कुमादि वा कुच्छकादि वा पर्वकादिर्वा पलालादि वी ते नो पुत्र पोषणाय नो पशुपोपणाय नो आगारपरिवृद्धये नो श्रमणमाहनपोषणाय नो तस्य शरीरमा किश्चित् परित्राणाय भवन्ति, स हन्ता छेत्ता मेत्ता लुम्मयिता विलुम्पयिता उपद्रावयिता उज्झित्य बालो वैररयाऽऽभागी. भाति अनर्थ दण्डः । तथानाम कश्चित् पुरुषः कच्छे वा हदेवा उदके वा द्रव्ये वा वलयेवा अवतमसे वा गहने वा गहनविदुर्गे वा वने वा वनविदुर्गे वा पति वा पर्वत दुर्गे वा हमानि उत्सा उमार्य सत्यमेव अग्निकार्य For Private And Personal Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टोका वि. अ. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् निस जति अन्येनाऽपि अग्निकार्य निसर्नयति अन्यमपि अग्निकाय निस जन्तं समनुजानाति अनर्थदण्डः । एवं न खलु तस्य त प्रत्ययिक सावधमाधीयते । द्वितीय दण्डसमादानम् अर्थदण्ड सत्यपिकमित्याख्यातम् ।पू०३८। टीका-प्रथम किय स्थानम् अनर्थप्रत्यापिकं प्रदर्शित सम्मति-द्वितीय मनर्थदण्डपत्ययिक क्रियास्थानमाह- कश्चित् पुरुषः प्रयोजनं विनैव त्रस जीवान हिंसति, तस्य द्वितीयं क्रियास्थानं पापकारणं भाति, अधुना सूत्रार्थों विलिरुगते-'प्रहावरे' अथापरम् 'दीच्चे' द्वितीयम् ‘दंड पादानम् (क्रि गम्थानम्) 'अणट्ठा दंडवतिए' अनर्थदण्डपत्ययिकम् अनर्थदण्ड कारण कम् 'ति पाहिजन' इत्यापायते से नहाणाम' तद्यथानाम केइपुरिसे' कवि पुमपः 'जे इमे तमा पाणा मति' ये इमे त्रस्यन्ति-शीतोष्णादिना उद्वेगं पानुनीति सा:-जमाऽपरपर्याया भवन्ति । 'ते' तान-त्रमान जीपान हिपतोनि, पयो ननाऽभावं दर्शयति -'जो अच्चाए' नो अर्चाय-नो सकीयस्य परकीयस्य वा शरीरम्य रक्षणाय (२) अनर्थ दण्ड प्रत्यधिक क्रियास्थान 'अहावरे दोच्चे दंडममादाणे' इत्यादि । टीकार्थ-प्रथम अर्थदण्ड प्रत्ययिक क्रियास्थान कहकर अब दूसरा अनर्थदण्ड प्रत्यायिक क्रियास्थान कहते हैं--जो पुरुष बिना ही किसी प्रयोजन के जीवों की हिंसा करता है, वह दूसरे क्रिस्थान का भागी होता है। अब सूत्र का अर्थ लिखते हैं - इसके अनन्तर दुसरा दण्डसमादान अर्थात् क्रियास्थान अनर्थदण्ड प्रत्ययिक है। वह इस प्रकार है--यह जो त्रस जीव हैं अर्थात् जो स-गर्मी के कारण उद्वेग को प्राप्त होते हैं और जिन्हें जंगम प्राणी कहते हैं, उनकी जो हिंसा करता है, किन्तु निष्प्रयोजन ही हिमा (२) अनर्थ' प्रत्यय: जियाथान 'अहावरे दोच्चे दंइसमादाणे' त्यात ટીકાઈ–-પહેલું અર્થદંડ પ્રત્યયિક ક્રિય સ્થાન કહીને હવે બીજુ અર્થ દંડ પ્રચયિક યિાસ્થાન કહેવામાં આવે છે –જે પુરૂષ કોઈ પણ પ્રજન વગર જીવોની હિંસા કરે છે, તે બીજા દિયારથાનના અવિકારી બને છે. वे सूत्रन। अर्थ प्रट रे छ.આના પછી બીજે દંડસમાદાન–અર્થાત્ ક્રિયાસ્થાન અનર્થદંડ પ્રત્યયિક છે. તે આ પ્રમાણે છે –જે આ ત્રસ જીવો છે. અર્થાત્ જેઓ શદી -ગમના કારણે ઉદ્વેગ પામે છે, અને જેમને જંગમ પ્રાણી કહેવામાં આવે છે, તેમની જે હિંમા કરે છે, અને પ્રયજન વગર જ હિંસા કરે છે, પિતાના For Private And Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताचे संस्काराय वा 'णो अनिणाए नो निनाप-चर्पणे ‘णो पसाए' नो मांसाय 'गो; सोणियार'नो शोणिताय एवं हिययाए' एवं हृदयाय- हृदयनिमितमपि न 'पित्ताए वसाए पिछाए पुच्छाए वाकार' एतापता मत्स्यदीनां वधः प्रोक्तः, पित्ताय, बसायै चर्वी ति प्रसिद्धाय, पिच्छाप-पक्षाय एतापता मयूरस्य हिंसा लोकसिद्धा प्रतीयते, एतदीयपिच्छेन संमानिनी निर्मी यते, पुच्छाय-एतावता चरी गोर्वधः प्रोक्तः, तापुच्छेन चामरनिर्माणं भाति वालाय-केशाय, अजाऽऽविक प्रभृति लोमाता हिंपा प्रदर्शिता, सिंगाए विताणाए दंनाए दाढाए णहार हारु. णिए अट्ठीए अद्विमंजार' शृङ्गाय-हरिणादीनाम् विष णाय, दन्ताय-हस्तिनो दंष्टायै, नखाय-व्यवादीनाम्, स्नायवे, अस्थने, अस्थिमज्जायै ‘णो हिसिस मेति' नो बहिसिषु ममेति-इमे मत्सम्मधिनम् अमारयन्, एतदर्य न तान् मार. यति अपितु स्वभावादेव क्रीडन् वा मारयति पाणिजातम् ‘णो हिसिति मेत्ति' करता है, न अपने या दूसरे के शरीर के रक्षण या संस्कार के लिए, न चमडे के लिए, न मांस के लिए, न रुधिर के लिए, न कलेजे के लिए और न पित्त या चर्थी. पिच्छ गा वालों के लिए हिंसा करता है. न सींगों के लिए, न विषाणों के लिए, न दातों के लिए, न दाढों के लिए. न नाखून के लिए, न स्नायु के लिए, न हइ ही के लिए, न मज्जा के लिए ही हिंसा करता है। यहां पिच्छ शब्द से मयूरका वधकहा है उसके पिच्छ से बुहारी बनाए जाती है पुच्छ शब्द से चमरी गाय का वध कहा है क्यों कि उसकी पूंछ के वालों से चामर बनाए जाते हैं, याल केश शब्द से भेडों एवं बकरियों का बध मूचित किया है, दाढा शब्द से हाथी के वध की सूचना की है नव के लिए व्याघ्र आदि कोहिमा की जाती है। અથવા બીજાના શરીરના રક્ષણ અથવા સંસ્કાર માટે નહીં, તથા ને ચામડા માટે, ન માંસ માટે ન લે હી માટે, ન કાળજા માટે તથા ન પિત્ત, ચબી, પિચ્છ અથવા વાળ માટે હિંસા કરે છે. ન સીગડા માટે ન પુછ માટે, ને તે માટે ન દો મટે ન નખ માટે ન સ્નાયુઓ માટે ન હાડકાઓ માટે ન માજા માટે હિંસા કરે છે. અહિયાં પિરછ શબ્દથી મેરને વધ કહ્યો છે અને પુચ્છ શબ્દથી ચમરી ગાયની હિંસા કહી છે. કેમકેતેના પુંછડાના વાળેથી ચામર બનાવવામાં આવે છે. વાળ કેશ શબ્દથી ઘેટાં અને બકરાંઓની હિંસા સૂચિત કરેલ છેદાઠા શબ્દથી હાથીના વધની સૂચના કરેલ છે, નખ માટે વાલ વગેરેની હિંસા કરવામાં આવે છે. તેમજ એવું માનીને હિંસા કરવામાં આવતી નથી, કે આ જીવે મ ર કે ઈ સંબંધીને For Private And Personal Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. शु. म. २ क्रियास्थाननिरूपणम् १६७ नो हिमन्ति ममेति इमे मत्सम्बन्धिनं हिंसन्ति तदर्थे न तान् मारयति 'जो हिंसिस्सतिमेत्ति' नो हिंसिष्यन्ति ममेति-मत्संबन्धिनं हिंसिष्यभि तदर्थं न मारयति 'जो पुरुषोसणाए' नो पुत्रषोषणायन वा पुत्रानां वृष्त्यर्थं मारयति, ' णो पसुपोसणार' नो पशूनां चतुष्यदानां गवादीनां पोषणाय 'णो आगारपरिवृणता' नवा आगारपरिवृद्धये गृहस्य हृदयर्थम् 'णो समणमाहत्रणा हे उ" नो श्रमगमाहन वर्तनाहेतोः, श्रमणमद्दनाद्यर्थ वा न मारयति 'जो तस्स सरीरजस्स' नो तस्य शरीरस्य किचिविवरिया दिता भवः किञ्चित्परित्राणाय भवति न बालदन्तपिच्छाद्य मारयति-न वा श्रवणादीनां पोषणायन वा स्व शरीरव्यवहाराय, किन्तु प्रयोजनमन्वरेणैत्र तान हन्तीति । 'से' सः 'हंता' हन्ना-प्राणवियोगकर्ता 'छेता-छेदनकर्त्ता मागि नामिति सर्वत्र सम्बध्यते । 'भेवा' भेत' - भेदनकर्त्ता 'पता' लुम्पयिताङ्गं कर्त्तयित्वा पृथक् पृथक् कर्त्ता विलुंपइत्ता' विलुंपयिता- विशेषरूपे प्राणिनश्धर्मनेवादीनामुत्पाटयता 'उस' उपद्रावयिता उपद्रवकारी - स्थान, 'उज्झिउं' और न यह सोचकर हिंसा की जाती है कि इस जीव ने मेरे किसी सम्बन्धी को मारा था, या यह मारता है अथवा मारेगा, न पुत्र आदि के पोषण के लिए, न गाय आदि के शेष के लिए, न गृह की वृद्धि के लिए, न श्रवण या ब्रह्मग के लिए मारता है, न शरीर निर्वाह के लिए मारता है, किन्तु बिना प्रयोजन, कीडा करता हुआ या आदत के वशीभूत होकर जो हिंसा करता है, यह विवेकहीन प्राणी अनर्थदण्ड के पाप का भागी होता है और मारे जाने वाले प्राणियों के साथ बैर बांधता है। यही कहते है-वह निष्प्रयोजन हनन, करनेवाला, छेदन-भेदन करने वाला, प्राणियों के अंगो को काटकर अलग-अलग करने वाला, चमडी या नेत्र आदि को निकालने वाला, મારે છે. અથવા આ મારે છે, અથવા મારશે, ન પુત્ર વિગેરેના પૈ ષણ માટે, ન ગાય વિગેરે ચતુષ્પદ્રુ-ચાર પગવાળા જીવોના પેષણ માટે, ન ઘરની વૃદ્ધિ માટે ન શ્રમણ અથવા બ્રાહ્મણુ માટે મારે છે, ન શરીરના નિર્વાહ માટે મારે છે, પરંતુ પ્રત્યે.જન વગર જ ક્રીડા-રમત કરતાં કરતાં આદત-દેવને વશ થઈને જે હિંસા કરે છે, તે વિવેક હીન પ્રાણી અન દડના પાપને લેગવનાર બને છે. અને મારવામાં આવનારા પ્રાણિયા સાથે વેર બાંધે છે. એજ કહે છે કે—આ પ્રત્યેાજન વગર હનન કરવાવાળા છેદન -ભેદન કરવાવાળા પ્રાણિયાના અંગેને કાપીને જુદા જુદા કરવા વાળા, ચામડી અથવા આંખાને કાઢવાવાળા, ઉપદ્રવ કરનારા, અનય દંડના કડવા For Private And Personal Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૧૮ सूत्रकृतासू C उपर अर्थदण्डस्य कटुकलमिति विवे हमाकुर्वन् 'वाले' 'बाळ:विकलः जीवैः सह 'वेरस्प' वैरस्य 'आमागी भाइ' आमागो माति सर्व भागी भवति 'अणडादंडे' अनर्थदण्डः - निष्प्रयोजनदण्डः सः । 'से जहा काम' तथानाम 'केइ पुरिसे' कश्चित् पुरुषः 'जे इमे यारा पणा भवति' ये इमे स्थावराः प्राणाः पृथिव्यादयो भवन्ति 'तंज' तद्यथा - 'इक्काडाइवा' इक्काडादिर्वा वनस्पतिविशेषस्येयं संज्ञा, 'कडिणाड़ वा' कठिनादि व 'जंतुगाइ का जन्तुकादि - एते वनस्पतिविशेः 'मोकवाइवा' मुस्तकादि व 'तण ३ वा तृणादि व 'कुलाइ वा कुशादि व 'कुछगाइ वा' कुच्छकादि व 'पव्ययाइ बा' पर्वकादि व 'पलालाइ वा' पालादिर्वा ' ते णो पुतपोसणार' ते नो पुत्रपशेषणाय तांस्तान - पूर्वोपदर्शितस्थावरकायान् यान् हन्ति नो ते पुत्राय पुत्ररक्षणकं तेन सर्वेषां ज्ञातिपरिवराणां सग्रहः, 'जो परोणा' नो पशुपोषणाव 'णो आगारपरिवृडणार नो आगारपरिवृद्धये 'णो समगमाहण उपद्रवकारी, अनर्थदंड के कटुकफल को न समझने वाला वह मनबुद्ध जीवों के साथ होने वाली शत्रुना का भागी होता है, निरर्थक ही वैर का भाजन बनता है । और यह जो पृथिवी आदि स्थावर प्राणी है, जैसे इक्कड, कठिन तथा जन्तुक नामक वनस्पतियां, मोथा, तृग, कुश, कुच्छक, पर्यक, पलाल इन वनस्पतियों का पुत्र का पोषण करने के लिए हनन नहीं करता है, 'यहाँ पुन शब्द उपलक्षग है, उससे सभी ज्ञानि-परिवार आदि का ग्रहण कर लेना चाहिए' न पशुमों का पोषण करने के लिए हनन करता है, न घर को बढाने के लिए, न श्रमणमाहन के पोषण के लिए, न अपने शरीर की रक्षा के लिए हनन करता है, वह निष्य ફળને ન સમજવા વાળા, તે મંદ બુદ્ધિવાળા જીવેશની સાથે નારા શત્રુ પશુાના ભાગીદાર બને છે. નિરક જ વેરને પાત્ર બને છે. અને જે આ પૃથ્વીકાય વિગેરે સ્થાવર પ્રાણી છે, भेमई-डि-उठिन - तथा भन्तु नामनी वनस्पतियों तथा भोथा, तूर, कुश, २०५, पर्व, પક્ષાલ, આ વસ્તુ તયે જેઓ કુટુમ્બનુ પાત્રળુ કરવા માટે હતન-વધ કરતા નથી, અહિયાં (કુટુંબ શબ્દથી સઘળા જ્ઞાતિ-પરિવાર વિગેરે સમજી सेवा) न शुभे वा सुनन रे छे न घर धावा भटे, ન શ્રમણુ કે પ્તાહનના પોષણ માટે ન પાતાના શરીરની રક્ષા માટે હનન For Private And Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir E समयार्थचोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् पोसणाए नो श्रमणमाहनपोषणाय 'गो तस्स सरीरंगरस' नो तस्य शरीरस्य किंचिविपरिमाइत्ता मति' किश्चित् परित्राणाय भवन्ति ‘से हंता' स हन्ता 'छेत्ता-मेता -लुंपत्ता-विलुपश्चा-उद्दमाता' छेत्ता-छेदनकर्ता, 'भेला' भेदनकर्ता, लुम्पयिता, बिलुम्पपिता, उपद्रवपिता 'उज्झिउं बाछे वेरस्स आभागी भवई उमित्य-विवेक परित्यज्य बालो-मन्दबुद्धिः वेरस्याभागी भवति-सर्वथा वैरस्य भागी भवती त्यर्थः 'अणट्ठादंडे' अयमनर्थदण्डः, पुनरप्पाह-'से जहाणामए' तययानाम: 'केइ-पुरिसे' कश्चिन् पुरुषः 'कच्छसि वा-दहंसि वा उदर्गसि वा-दवियंसि वावळयंसि वा-मंसि वा-गगणंसि वा' कच्छे वा-तृणपुजे, हदेवा, उदके वा -समुद्रन यादिषु, द्रव्ये वा, लये वा-नदीवेष्टितस्थले, 'मंमि वा' गर्ने वा-आतमसे वा-प्रन्धकारपूर्ण स्थाने, 'गहणे वा' गहने वा 'महाविदुग्गमि वा-वर्णसि वा वणविदुग्गंसि वा -पवयंमि वा-पायविदुग्गंसि वा' गइनविदुर्गे वा, वने वा, वनविदुर्गे वा, पर्वते वा पर्वतविदुर्गे वा 'तणाई उपविय ऊपविय' तृणानि उत्सार्य उत्साय-उन्क्षिप्य उरिक्षय 'सामे आणि कायं णिमिरई' सयमेवाऽग्निकार्य योजन हनन करने वाला, छेदन करने वाला, भेदन करने वाला, काट कर पृथक-पृथक करने पाला, उग्वाड देने वाला उपद्रव करने वाला. अज्ञानी व्यर्थ ही वैर का भागी होता है। इस प्रकार किमी प्रयोजन के विना हिमा करना अनर्थदंड है। ___ और भी कहते हैं-कोई भी पुका कछार-नदी के तट पर, ताराम पर, जलाशय पर, नदी से वेटिन स्थल पर, खड्डे में, अन्धकार पूर्ण स्थान में, गहन में, गहनविदुर्ग 'जहां जाना कठिन हो ऐसे गहन स्थान में, वन में, वनविदुर्ग में, पर्वन पर पर्वत बिदुर्ग पर तृग आदि फैला-फैला कर स्वयं ही आग जलाता है, या दूसरे से भाग जल वाता કરે છે. એવા વિના પ્રજન હનન કરવાવાળા, છેદન કરવાવાળા, ભેદન કરવાવાળા, કપટ કરીને પૃથક પૃથક્ કરવાવાળા, ઉખા વાવાળા, ઉપદ્રવ કર વાળા અજ્ઞાની વ્યર્થ ફોગટ જ વેરને ભેગવનારા બને છે. આ રીતે કઈ પણ પ્રજન વગર જ હિંસા કરવી તે અનર્થ દંડ કહેવાય છે. વિશેષ કહે છે–કઈ પણ પુરૂષ કછાર-નદીના કિનારા પર તલાવ પર જલશા પર નદીથી વીંટળાયેલા સ્થળ પ, ખાડ માં અંધારાવાળા સ્થાનમાં ગહનમાં-ગહન વિદુ એટલે કે જ્યાં જવું મુશ્કેલ હોય એવા ગહન સ્થાનમાં વનમાં, વનવિ૬માં પર્વત પર, પર્યત વિદુર્ગ પર વશ વિગેરે ફેલાવીને સવયં આગ લગાડે છે, અથવા બીજની પાસે આગ લગાવે છે, सू० २२ For Private And Personal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org * १०० सुत्रकृताङ्गसूत्रे J स्टिजति करिमश्चिदपि स्थाने तृणादिकमेकत्र कृत्वा वहिं प्रज्वालयति । 'अमेण वि अगणिकायं णिसिरावे ' अन्येनाऽपि अग्निकार्य निसर्जपत्रमा लयति । 'अपि अगणिकार्य णिसिरंतं समणुजाण, अणट्टा दंडे' अम्यमवि अग्निकार्य निस्रनन्तं समनुजानावि अनुमोदते । अनर्थदण्डः । एवं खल तहस पत्तियं सावज्र्ज्जति अहिज्जए' एवं कुर्वतः खलु तस्य तत्पत्यविकं सावद्यमाख्या-तम् एतादृशपुषस्य सावधपणिघातात् सावधकर्मबन्धो भवति 'दोच्चे दंड समादाणे अण्डादंडरतिपत्ति आहिर' द्वितीयं दण्डसमादानमनर्थदण्ड पत्ययिक माख्यातमिति । मू०३ = १८ मूलम् - अहावरे तच्चे दंडसमादाणे हिंसादंडवत्तिएत्ति आहिज्जइ, से जहाणामए केइ पुरिसे ममं वा ममि वा अन्नं वा अन्न वा हिंसिसु वा हिंसंति वा हिंसिस्संति वा तं दंडं तस्थावरोह पाणेहिं सयमेव णिसिरह, अण्णा वि णिसिराइ अन्नं पि मिसिरंतं समणुजाणइ हिंसादंडे, एवं खलु तस्स तष्पत्तियं सावज्जति आहिज्जइ, तच्चे दंडसम दाणे हिंसादंड वत्तिए ति आहिए || सू० ४ ॥ १९ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छाया - अथापरं तृतीयं दण्डसमादानं हिमादण्डयि कमियते, यथा नाम कश्चित् पुरुषः मां वा मदीयं वा अयं वा अन्यदीयं वा अवि हिंसन्ति वा हिंसिष्यन्ति वा तं दण्डं सस्थावरेषु प्राणेषु स्वयमेव निम्सृजति अन्येनापि नियति अन्यपि निजतं तु नानानि हिंमादण्डः । एवं खलु तस्य तत्प्रत्ययिकं सावयनित्याधायते। ये दण्डानं हिंमादण्डमत्ययिक मित्याख्यातम् । मू०४=१९॥ है या आग जलाने वाले का अनुमोदन करतो है, उसको इसके निमित्त से पाप होता है अर्थात् इस प्रकार निर्थक जीववध करने से पाप कर्म का बन्ध होता है । यह अनर्थदण्ड प्रत्यधिक नामक दूसरा क्रियोस्थान है | ३|| અથવા અગ્નિ સળગાવવાવાળાને અનુમેદન-ઉત્તેજન કરે છે, તેને એ નિમિત્તે પાપ થાય છે, અર્થાત્ આ રીતે નિરČક જીવ હિંસા કરવાથી પાપકર્મોના મધ થાય છે. આ અનથ દડુ પ્રયિક નામનું બીજું ક્રિયાસ્થાન છે. lill For Private And Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् १७१ टीका-द्वितीयं क्रियास्थानं निरूपण तृतीयं क्रि गस्थान ह-प्रहावरे इत्यादि । 'अहारे' अथापरम् १च्चे' तृतीयम् दंडसमादाणे' दण्ड मादानम् 'हिंसादंड नि!' हिंपादण्ड पत्ययिकम् 'त्ति अहिज्जई' इत्याख्यायते 'से नहा गामए' तद्यथानाम 'के पुरिसे' कश्चिःपुरुषः 'ममं वा ममि वा' मां वा, मदो. यम्-मत्सम्बन्धिन वा 'अन्नं वा अनि वा अन्य वा, अन्यदी रम्-अन्यस्य सम्ब न्धिनं वा 'हिसिसु वा' अहिंसिषु वा 'हिति वा हिंसन्ति वा 'हिसिरसंति वा' हिसिष्यन्ति वा, एतादृशो हि पुरुषो मामिमे यथारा मारयन्ति मारयः ज्यन्ति अमारयन् ना, अथवा मत्सम्बन्धि नमिति विचार्य हिंसान अहिंसकान् वा जीवान् विनाशयति । 'तं दंडं तसथावरेडि' तं दण्डं उसस्थावरेषु 'पाणेहि' पाणे-पाणिषु 'सयमेव' सपा मिसिरई निल नति-दण्डं पायति, 'अगे. णावि णिसिरावेई' अन्येनापि नियति-अन्येनापि हिमां कारयति । 'अन्नंपि णिसिरंतं समणु नाण' अन्नमपि निमनन्तं समनुजानाति-अनुमोदते, एतादृशः पुरुषः 'हिंसाइंडे' हिंसादंड:-हिमादण्डः-हिसैव दण्डो यस्य स हिंसादण्ड:हिंसाकारको भवति । एवं खल तस्स' एवं कुर्वतः खलु तस्य पुरुषस्य 'तप्पत्नियं' (३) हिंसादण्ड प्रत्ययिक क्रियास्थान 'अहावरे तच्चे' इत्यादि . टीकार्थ-दूसरे क्रिया स्थान का निरूपण करके अब तीसरे हिंसा - दंडप्रत्ययिक क्रियास्थान का निरूपण करते हैं। वह इस प्रकार है-कोई पुरुष एमा सोचना है कि इस प्रागी न मुझको अथवा मेरे सम्बन्धी को, दूसरे को या दूसरे के सम्बन्धी को मारा था या यह मारता है या मारेगा, और ऐसा सोचकर किमी त्रस अथवा स्थावर जीव की स्वय हिंसा करता है, दूसरे से हिमा करवाता है अथवा हिमा करने वाले की अनुमोदन करता है, तो ऐसा करना हिंसादंड कहलाता है । ऐसा (3) हिसा' प्रत्यय यास्थान 'अहावरे तरचे' त्यादि ' ટીકાઈ–બીજા ક્રિયા સ્થાનનું નિરૂપણ કરીને હવે ત્રીજા હિંસાઇડ પ્રત્યયિક નામના કિયાસ્થાનનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે. તે આ પ્રમાણે છે.–કે પુરૂષ એવું વિચારે કે આ પ્રાણિએ મને અથવા મારા સંબંધિને બીજાને અથવા બીજાના સંબંધીને માર્યો હતે અથવા આ મારે છે. અથવા મારશે. અને એવું સમજીને કઈ ત્રસ અથવા સ્થાવર જીવને સ્વયં વધ કરે છે. બીજાની પાસે તેનો વધ કરાવે છે, અથવા હિંસા કરવાવાળાને અનુદર-સમર્થન આપે છે, એવું કરવું તે હિંસાદંડ કહેવાય છે, એવું કરવા For Private And Personal Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -- सूत्रकृताङ्गयो वत्मत्ययिक हिंसापत्यायिक हिंसाकारकम् 'सावज्जति आहिज्जा' सावद्यम्सावधर्मबन्धो भवतीत्याधीयते 'ताचे' तृतीयम् 'दंडसनादणे' दण्डसमादानम् क्रियास्थानम् हिंसादंडवत्तिए' हिंसादण्डमयिकम् 'आहिए' आख्यातम्' कथितम् । बहवो हि पुरुषा एतादृशा भवन्ति ये 'यद्ययं पुरुषो जीवन् तिष्ठेत् तदा मां कदाचिद् घातयिष्पति' इति मत्वा तं सायं निम्नन्ति, अन्येन वा निसर्जयन्ति अथवा घ्नन्तमन्यं प्रेरयन्ति, तेषां हिंसाकारणका सावधर्मबन्धो भवतीति सूत्रस्याऽभिप्रायः ॥ सू०४ ॥ १९ मूलम् -अहावरे च उत्थे दंडसमादाणे अकम्हादंडवत्तिरत्ति आहिज्जइ, से जहा गामए केइपुरिसे कच्छंसि वा आव वणविदुग्गति वा मियवत्तिए मियसंकप्पे मियपणिहाणे मियवहाए गंता एए मियत्तिकाउं अन्नयरस्स मिय स वहाए उसुं आयामेत्ता णं णिसिरेज्जा, से मियं वहिस्सामि त्तिकह तित्तिरं वा वगं वा चडगं वा लावगं वा कवोयगं वा वा कविं वा कजिलं वा विधित्ता भवइ, इह खलु से अन्नस्स अट्ठाए अण्णं फुसइ अकम्हादंडे । से जहा णामए केइपुरिसे करने वाले पुरुष को हिंसा के निमित्त से पापकर्म का बन्ध होता है। यह तीसरा हिंसा प्रत्ययिक क्रियास्थान कहा गया है। बहुत से पुरुष ऐसे होते हैं जो समझते हैं कि यदि यह जीव जीवित रहेगा तो कदाचित् मुझे मार डालेगा ऐसा समझकर वे उसे स्वयं ही मारदेते हैं या दूसरे द्वारा मरवा देते हैं अथवा मारने वाले का अनुमोदन करते हैं। ऐसे पुरुषों को हिंसाकारणक पापकर्म बंधता है। यह सूत्र का आशय है ॥४॥ વાળા પુરૂષને હિંસા નિમિત્ત પાપકર્મને બંધ થાય છે. આ ત્રીજુ હિંસા પ્રત્યાયિક નામનું ક્રિયાસ્થાન કહેવામાં આવેલ છે ઘણુ મનુષે એવા હોય છે કે જેઓ એ સમજે છે કે આ જીવ જીવતે રહેશે તે કદાચ મને મારી નાખશે. એવું સમજીને તેઓ વયં તેને મારી નાખે છે, અથવા બીજાનાથી મરાવી નાખે છે, અથવા મારવાવાળાને અનુમોદન-ઉત્તેજન આપે છે, એવા પુરૂષને હિંસા કારણુક પાપકર્મને બંધ થાય છે. આ પ્રમાણે સૂત્રને ભાવ છે. For Private And Personal Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् १७३ सालीणि वा वाहीणि वा कोदवाणि वा कंगूण वा परगाणि वा रालाणि वा णिलिज्जमाणे अन्नयरस्त तणस्त वहाए सत्थं णितिरेज्जा, से सामगं तणगं कुमुदगं विहीऊति कलेसुयं तणं छिदिस्सामि त्ति कट्ठ सालिं वा वीहिं वा कोदवं वा कंगुं वा परगं वोरालयं वा छि दत्ता भवइ, इति खलु से अन्नस्स अटाए अन्नं फु सइ अकम्हादंडे, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्ज आहिज्जइ, चउत्थे दंडसमादाणे अकम्हादंडवत्तिए आहिए ॥सू०५॥२०॥ - छाया-अथापरं चतुर्थं दण्डमपादानम् अस्माद्दडपत्ययिकमित्याख्यायते, तद्यथानाग कश्चि-पुरुषः कच्छे वा यावद् वनदुर्गे या मृगवृत्तिका मृगसंफल्या मृगपणिधानः मृाधाय गता एते मृगा इति का अन्यतास्य मृगस्य वधाय इपुयाम्प खलु निःमृजे।। स मृगं हनिष्यामि इति कृया तित्तिा वा वर्तकं वा चटकं वा लाकं वा कपोतकं वा का वा कपिञ्जलं वा व्यापा. दयिता भाति । इह खल सोऽन्यस्य अर्थाय अन्य स्पृशति आस्माद् दण्डः । तद्यथा नाम कश्चित्पुरुषः शालीन् वा ब्रीहीन कोद्रवान् वा कफ़न वा परकान् वा रालान् वा अपनयन् अन्यतरस्य तृणस्य वधाय शस्त्रं नि मजेत स श्यामाकं तृगकं कुमु एक बीहन्छिनं कलेमुझं तृगं छे. त्यामोति कृत्वा शालिं वा ब्राहि वा क्रोद्रवं वा कगुं वा परकं वा राल वा छेनुं भवति इति स खलु अन्याय अर्थाय अन्यं स्पृशति अकस्माद् दण्डः । एवं खलु तस तत्पत्ययिकं सावद्यम् आधीयते चतुर्थ दण्डसमादानम् अकस्माद्दण्डपत्ययिकपाख्यातम् ॥०५-२०॥ टोका-पूस्त्रेि तृतीयं हिंसापयिक दण्डममादान करितं सम्प्रति चतुर्थ मकस्माइंडपत्यायिक क्रियास्थानमाह-'अहावरे' इत्यादि । 'अहावरे' अथाऽपरम् (४) अकस्मात्दंड क्रियास्थान 'अहावरे च उत्थे' इत्यादि। टीकार्थ-तीसरा हिंसाप्रत्ययिकदंड समादान कहा गया, अब चौधा अकस्मात् दंड प्रत्ययिक क्रियास्थान कहते हैं। कोई मृग वध की (૪) અકસ્માત્ દંડ ક્રિયાસ્થાન - 'महावरे च उत्थे' त्यात - ટીકાર્થ-ત્રીજે હિંસા પ્રયિક દંડ સમાધાન કરેલ છે. –હવે આ ચો અકસમાત દંડ પ્રત્યવિક દિયાસ્થાન કહેવાય છે. કેઈ મુગધની આજી For Private And Personal Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे 'वउत्थे' चतुर्थम् 'दंडमादाणे' दण्डसपादानम् 'अम्हा दंडात्तीर' अकस्मा द्दण्डप्रत्यकिम् 'त्ति आहिज्न३' इत्याख्यायते । 'से जाणामए' तद्यथानाम 'केपुर से' कचित्पुरुषः 'कतिना जागंसि वा' कच्छे वा यात्रद्वनविदुर्गे वा यावत्पदेन इदे वा उदके वा द्रव्ये वा वलये वा गर्ने वा गहने वा गहनवदुर्गे वा बने वा वनवदुर्गे वा पर्वते वा पर्वतचिदुर्गे वा इत्येतेषां ग्रहणं भवति कस्मिन्नदी- टेऽथवा यावत्कस्मिथिन्महारण्ये वा गया 'मयत्रचिर' मृगवृत्तिकः- मृगस्य मारणात्मिका वृतिराजीविका व्यवहारो यस्य स मृगवृत्तिकः 'मियसंकपे' मृसङ्कलः - मृगवध विचारवान् 'मियाणिहाणे' मृगपणिधानः- मृगवधध्यानवान् 'मित्रा' व 'गंता' गन्ना वनं गतवान् । 'एए मियत्ति' एते मृगा इति 'काउ' कृत्वा 'अनपरस्त नियस' अग्यतरस्य मृतस्य ' बढाए' वधाय मारणाय उ आयामेत्ता' इपुं- वाणम् आयाम्य धनुषि समारोप्य 'णिसिरेज्जा' निःसृजेत् प्रक्षिपेत् । ' से मियं वद्दिस्वामि ति कट्टु हिंसकः मृगं धिष्यामि इति कला वार्ण प्रक्षिपेत्, परन्तु शरो लक्ष्यमलमनाः अन्तराले एन 'वित्तिरं वा - वट्टगं बा- चरगं वां-लावगं वा-कपोयगं वा कविता - कविजलं वा आजीविका वाला पुरुष कछार में, तालाब में, जलाशय पर, नदीवेष्टिन प्रदेश में, खड्डे में, गहन (अटवी ) में, गहन बिदुर्ग में, वन में वनविदुर्ग में, पर्वत पर पर्वतविदुर्ग पर किसी भी नदी तटया महारण आदि में जाकर मृग को मारने का संकल्प करता है, मृगवध का ध्यान करता है, मृग का वध करने के लिए ही जाता है, वह 'ये नृग है' ऐसा सोचकर किसी मृग का वध करने के लिए धनुष पर बाण चढाता है और उसे छोड देना है। उस दिन ने मृगका बच करने के विचार से वाण छोडा है, परन्तु वह वाण लक्ष्य पर न जाकर बीच ही में तीतर, वर्तक, चाटक, लावरु, कपन, कवि या कपिंजल को વિકાવાળા પુરૂષ કછારમાં, તળાવમાં જળાશયમાં, નદીવાળા પ્રવેશમાં, ખાડામાં गहुन जसमा, गहुन विदुर्गम, वनमां, वनविहुभ पर्वत पर पर्व - તના વિદુગાઁ પર, કહેવાના હેતુ એ છે કે-કેાઈ પશુ નદી કિનારે અથવા, મહા અરણ્ય વગેરેમાં જઇને મૂત્રને મારવા માટે સકલ્પ-નિશ્ચય કરે છે, મૃગવધનું ધ્યાન કરે છે, મૃગને વધ કરવા માટે જ તે ‘આ મૃગ છે’ એવો વિચાર કરીને કોઈ મૃગના વધ કરવા માટે ધનુષ પર ખાણુ ચડાવે છે. અને તેને છેડી દે છે. પરંતુ તે અણુ લક્ષ્ય પર ન જતાં વચમાં तेवर, तट, सूतर, उप है उक्लिने पीधी हे छे, अने For Private And Personal Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनो टोका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् विधिता भाइ' तित्तिर-पक्षिविशेषम् चटक-का-करीत-कपि- पिच वा वेअपिता भवति । एषु अन्यतमस्य कस्यचिद् घातो भवति । 'इह खलु से अन्नस्स अट्ठःए' इह खलु सः अन्यस्याऽर्थाय 'अण्णं' अन्यम् 'फुमई' स्पृशति हिनस्वीत्यर्थी, 'प्रकम्हादंडे' अकस्माद्दण्ड। भाति । अयं भाव:-यत्र वधकः बेध्य लक्ष्यीकृत्य वाण. मक्षिात्, किन्तु लक्ष्यस्य वेधो न जाता, परन्तु-तदन्यस्यैव वेधः 'अनाकृमणी' न्यायेन 'कामतालीय' न्यायेन वा जात इति-अपमकस्माइण्डोहि कथ्यते, अन्यस्याऽपि तदीयवाणेन मरणाद् घातकत्वं भवत्येव । पुनरप्याह-'से जहाणामए' तपथानाम 'केइपुरिसे' कवि पुरुषः कृषिला, सालीणि वा-धीहीणि वा-कोदगणि वा' शालीन वा-ब्रीहीन वा क्रोद्रवान वा 'कंगूणि वा--परगाणि या रालाणि का कडगून वा-परकान् वा रालान ना-रते धान्यविवेपाहा 'गिलिन गाणे' अपयन् 'अन्नयरस्स तणरूप' अन्य रस्म तमाम 'वार' था-छदाय सत्थंवींध देता है और इन में से किसी प्रागी का घान हो जाता है। इस प्रकार अन्य के वध लिए छोडा हुमा बाग अन्यका घात करता है तो यह अकस्मात्दंड कहा जाता है । तात्पर्य यह है कि हत्यारे ने किमी प्राणी को लक्षण करके वाण छोडा किन्तु उम पाणने लक्ष्य नहीं विधा, किन्तु मरा ही कोई प्राणी विध गया। इस प्रकार अजा कृपाणी न्याय या काकताली र न्याय चरितार्थ हो गया। य? अमानदंड कहलाता है। दूसरे का घात होने पर भी जिपके बाण से प्राणी मरागया है, वह घातक तो है ही। - और भी कहते हैं -जैसे कोई किमान शाल ब्रीहि, क्रोदन, कंगु, परग-राल, इन धान्यों का निदाण कर रहा है अर्थात इनके साथ તેમાંથી કોઈ પ્રાણિનો ઘાત-વધ થઈ જાય છે, આ રીતે બંને માટે છેરેલા બાણ અન્યને મારે છે તે તેને અકસ્માત દંડ કહેવામાં આવે છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે-હત્યારાએ કઈ પ્રાણિને ઉદ્દેશીને બણ છેડયું પરંતુ લક્ષ્ય વિંધાયું નહીં, પણ બે જુજ કઈ પ્રાણી વિધાઈ ગયું. આ રીતે અજા કૃપા ન્યાય અથવા કાકતાલિન્યાય ચરિતાર્થ થાય છે, તેને અકસ્માત્ દંડ કહેવાય છે. બીજાને વધ થવા છતાં પણ જેના બાણથી પ્રાણું કરાયું છે, તે હિંસક તે ગણુય જ છે. विशेषभां छ -रेम भेडत २ प्रीति , , વિગેરે ધાન્ય નું નિદાણ ની દવાનું કાર્ય કરી રહ્યો હોય, અર્થાત્ ધાન્યની સ થે ઉગેલા ઘાસને ઉખાડી રહ્યો હોય, તેણે કઈ ઘાસને ઉખાડવા માટે શસ્ત્ર (બર પડી ચલાવી હેય અને વિચાર્યું છે કે હું શ્યામ, તૃણ, કુમુ For Private And Personal Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सम्ममा स्त्रतामवे. णिमिरेज्जा' शस्त्रं नि सृजेत् ‘से सामगं तणगं कुमुदगं बीहि उमियं कछपुर्ण रुम छिदिस्सामि ति कटुं स पुरुषः श्यामाकं तृगकं कुमुदकं ब्रीहन्छिनं कछेसुकं तमम् पसे विशेगः तानि छेत्स्यामीति कृत्वा 'सावा-वीहि वा-को वा गुवा-परग वा रालयं वा-छिदिता माई' शालि वा-व्रीहि वा-कोद्रवं का -कशें वा-परकं वा-रालंगा-छेत्तुं भवति, 'इति-खलु से अनस्स अट्टाय अन्न फुसई' इति खलु मः अन्य अर्थाशऽन्यमें। स्पृशति-हिनस्ति, 'अाम्हादंडे' अस्माइण्डो भाति । कृषिकः क्षेत्रात् स्वामिमतवह्यादीनां वर्धनाय अनभिमततृणादिकमपनेतु मिच्छन् तृणान्तरमप नेष्यामीति मनसि निधाय तत्तगकर्तनाय शस्त्रं चालयति, परन्तु दृष्टिमान्यात् छेयाऽपेक्षयाऽच्छेद्यस्यैवाऽन्यस्य कर्तनमभूदिति सः-अकस्माद्दद्दण्डो भवति ! वस्तुतस्त्वत्र कृषिकस्य नासीन्मनोऽन्यस्य उगे हुए घास को उखाड रहा है। उसने किसी घास को उन्ख डने के लिए शस्त्र (खुरपा) चलाया और सोचा कि मैं श्यामाक, तृग, कुपुदक, ब्रीहि, कलेसुक आदि किसी घास को उखाडू किन्तु घास के बदले शालि, ब्रीहि, कोद्रय कंगु, परग या रालय धान्य में ही शस्त्र लग जाता है और वह उखड जाता है। इस प्रकार वह घाम के बदले धान्य को उख ड लेना है तो यह अकस्मात्दंड हमा। तात्पर्य यह है कि कोई किप्तान अपने खेत में शालि आदि धान्य की वृद्धि के लिए अवांछनीय घास-फूस को उखाड देना चाहता है और उसको उखाडने के लिए शस्त्र का प्रयोग करता है, किन्तु हट. दोष या असावधानता के कारण वह शस्त्र घाम में न लगकर धाम के पौधे में लग जाता हैं और मान्य का पौधा उखड जाना है। इस प्रकार जिसे उख डने का विचार किया था, वह न उखड कर धान्य દક, વિગેરે કોઈ એક ઘાકને ઉખડું, પરંતુ ઘાસને બ લે શ લી, ત્રીહી, કોદરા, કાંગ વિગેરે ધાન્યમાં જ ખરપડી લાગી જાય, અને તે ધાન્યને છોડ ઉખડી જાય, આ રીતે તે ઘ સને બદલે ધાન્યને ઉખાડી લે છે, તે આ અકસ્માત્ દંડ કહેવાય છે. તાત્પર્ય એ છે કેકેઈ ખેડુત પિતાના ખેતરમાં શાલી-ડાંગર વિગેરે અનાજને વધારવા માટે વધારે પડતા અનિચ્છનીય, ઘાસ-ને ઉખેડવા છે છે, અને તેને ઉખેડવા માટે શસ્ત્ર ચલાવે છે, પરંતુ દરેક દેશે અથવા અસાવધાનપણુને કારણે તે શસ્ત્ર ઘાસમાં ન લાગતાં ધાન્યના છેડમાં લાગી જાય, અને અનાજને છેડ ઉખડી જાય, આ રીતે જેને ઉખાડવાને વિચાર For Private And Personal Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टोका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् १७७ पर्सने, किन्तु-अन्यस्यैव कर्त्तने तदिच्छा, तथापि देवोपहतस्य कस्यचिदन्यस्य करीनं जातम् । 'एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज पाहिज्जई' एवं खलु तस्य तत्मत्ययिकं सावध माधीयते, एवं कुर्वतस्तस्य कृषिकस्य सावध कर्मबन्धो भवति। 'पउत्थे दंडसमादाणे' चतुर्थ दण्डसमादानम् 'अकम्हा दंडवत्तिए' अकस्माद्दण्डप्रत्ययिकम् 'आहिए' आख्यातम्-कथितम् ।।सू०५-२०॥ मूलम्-अहावरे पंचमे दंडसमादाणे दिदिविपरियासिया दंडवत्तिए त्ति आहिज्जइ, से जहा णामए केइपुरिसे माईहिं वा पिईहि वा भाईहिं वा भगिणीहिं वा भग्जाहिं वा पुत्तेहिं वा धूताहि वा सुण्हाहि वा सद्धिं संवसमाणे मित्ते अमित्तमेव मन्नमाणे मित्ते हयपुब्वे भवइ, दिद्विविपरियासिया दंडे। से जहा णामए केइपुरिसे गामघायंसि वा गरघायंसि वा खेडघायंसि का कब्बडघायांस वा मडंबघायंसि वा दोणमुहघायंसि वा पट्टगघायंसि वा आसमघायंसि वा सन्निवेसघायंसि वा निग्गमघायंसि वा रायहाणिघायंसि वा अतेणं तेणमिति मन्नमाणे अतेणे हयपुब्वे भवइ दिदिविपरियासिया दंडे, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जति आहि जइ, पंचमे दंडसमादाणे दिद्विविषरियासिया दंडवत्तिएत्ति आहिए ॥सू०६॥ . का पौधा उखड जाता है । यह अकस्मात्दंड है। इस प्रकार अकस्मात् दंड का सेवन करने वाले को उमके निमित्त से पापकर्म का बंर होता है। यह चौथदंड जमादान अर्थात् क्रियास्थान है, जो अकस्मात्दंड. समादान कहा गया है।॥५॥ કર્યો હતો, તે ન ઉખડતાં અનાજને છેડ ઉખડી જાય છે, તેને અકસ્માત દંડ કહેવાય છે. આ રીતે અકસ્માત દંડનું સેવન કરવાવાળાને તેના નિમિત્ત પાપકમને બંધ થાય છે. આ ચોથે દંડ સમાદાન અર્થાત ક્રિયા ન છે. જેને અકસ્માત્ દંડ સમાધાન કહેવામાં આવે છે. આપ सू० २३ For Private And Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतासने . छाया-अथाऽपरं पञ्चमं दण्डसमादानं दृष्टिविपर्यासदण्डपत्ययिकमित्या ख्यायते । तद्यथानाम कश्चित् पुरुषः मातृभिर्वा पिभिर्वा भ्रातृभिर्वा भगिनीभिर्वा मार्यामिळ पुत्र वा दुहितमिळ स्नुषाभि वा सार्धं संवसन् मित्रममित्रमेव मन्यमानः मित्रं हतपूर्वो भवति दृष्टिविपर्यासदण्डः, तथथानाम कोऽपि पुरुषो ग्रामघाते वा, नगरघाते वा, खेट्याते वा, कटघाते वा, मडम्मघाते वा द्रोण. मुखघाते वा, पट्टनघाते वा, आश्रमघाते वा, सन्निवेशघाते वा, निर्गमघातेवा, राजधानीघाते वा, अस्तेनं स्तेनमिति मन्यमानः अस्तेनं हतपूर्तो भवति दृष्टिविपयांसदण्डः । एवं खलु तस्य तत्पत्मयिकं सावधमित्याधीयते, पञ्चमं दण्डसमादानं दृष्टिविपर्यासदण्डपस्ययिकमित्याख्यातम् । ०६२१॥ ___टोका-चतुर्य क्रियास्थान निरूपित, सम्मति-श्चिम क्रियास्थानं दर्शयितुमाह-'अहावरे' अथाऽपरम् 'पंचमे' पश्चगम् 'दंडसमादाणे' दण्डसमादानं क्रियास्थानम् 'दिट्टिविपरियामियाइंड तिर ति पाहिज्जए' दृष्टिविपर्यासदण्डमत्ययिकमित्याख्यायते दृष्टेः बुद्धेविपर्यासोऽन्यथा भावः यथा शुक्ती रजतमितिपत्ययः । वस्तुतोहि शुक्तिका तबाऽऽहते, किन्तु चक्षुर्दोपबलात् तामज्ञात्वा तत्र रजतं प्रत्यभिनानद् भवति दृष्टिविपर्यासः । तमेव दृष्टिविपर्यास मूत्रकारो दृष्टान्तद्वारा दर्शयति-से जहाणामए' इति, तधयानाम 'केहपुरिसे' कश्चित्पुरुषः, 'माईहिं (६) दृष्टि विपर्यामदंड 'अहावरे पंचमे दंडममादाणे' इत्यादि। - टीकार्थ--चौथा क्रियास्मन कहा जा चुका । अब पांचवे क्रिया. स्थान का निरूपण करने के लिए कहते हैं-पांचवां क्रिस्थान दृष्टि विपर्यास प्रत्यायिक कहलाता है। दृष्टि अर्थात् बुद्धि के अन्यथाभाव को जैसे सी को चांदी समझ लेने को दृष्टिविपर्यास कहते हैं। वास्तव में कहीं सीप पड़ी है, किन्तु नेत्रों के दोष के कारण उसे चाँदी जानना दृष्टि विपर्यास है। सूत्रकार दृष्टान्न द्वारा उसे प्रदर्शित करते हैं जैसे (4) विपर्यास : 'अहावरे पंवमे दंडसमादाणे' त्यात ટીકાઈ–ચે શું ક્રિયાસ્થાન કહેવામાં આવી ગયું હવે પાંચમા ક્રિયાસ્થાનનું નિરૂપણ કરવા માટે સૂત્રકાર કથન કરે છે. પાંચમું ક્રિયસ્થાન દષ્ટિ વિપર્યાસ પ્રત્યયિક કહેવાય છે દષ્ટિ અર્થાત બુદ્ધિના અન્યથા ભાવને -જેમ સીપને ચ દી સમજી લે તેને દષ્ટિ વિપસ કહેવામાં આવે છે વાસ્તવિક રીતે કયાંક છીપ પડી હોય તેને નેત્રના દેથી ચાંદી માની લેવી, તે દષ્ટિ વિપર્યાય છે. સૂત્રકાર દૃષ્ટાન્ત દ્વારા તે સમજાવે છે જેમાં For Private And Personal Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir E समयावोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् १७२ पा-पईहिं वा-माईहिं ना-भगिणीहि वा-भाजादि का' मातृभि-िपित भिवा-भ्रातृभिर्वा भगिन निर्वा-भार्यामि पुत्तेहि वा-धूताहि वा-मुण्डाहिं वा' पुत्रैर्वा, दुहितृभिर्वा स्नुपाभिर्वा-पूनमधूभिनी, 'सद्धि संवसमाणे साध संव सन् मात्रादेरारभ्य स्नुमन्तेन सह यहादौ वासं कुर्वन् पुरु: 'मित्तममित्तमेव मनमाणे' मित्र स्वभावतः-अमित्रम्-शत्रु मन्यमान:-अवगच्छन् 'मित्ते हयपुवे' मित्र हपूर्वः, 'भवइ' भवति ।। अयमाशयः-मातामित्रं पिता चेति, स्वभावात् त्रितयं हितम् । कार्यकारणतश्चान्ये, भानि हितबुदयः॥१॥ इत्युक्याऽनुभवेन च मात्रादयः समागतो मित्राणि भवन्ति । परन्तु कश्चिदा. शयदोषात-मित्रमेव अमित्रं जानन् स्वभावतो मित्रमपि हन्ति । हन्यमानश्च न दृष्टिविप्तिमतिक्रमति, पश्चात्स एव ज्ञातततः पश्चात्तापं करोति। एतादृशः कोई पुरुष माता, पिता, भाई, भगिनी, स्त्री, पुत्र, कन्या और पुत्रवधू के साथ निवास करता है। वह अपने स्वभावतः मित्र (हितैषी) को शत्रु समझ बैठता और उसका घात कर डालता है । कहा भी है 'माता मित्रं पिता चेति' इत्यादि। माता मित्र और पिता, यह तीनों स्वभाव से ही हितकारी होते हैं। किन्तु अन्य लोग प्रयोजन विशेष से भी हित करने के इच्छुक बन जाते हैं ॥१॥ इस उक्ति के अनुमार माता-पिता आदि स्वभाव से ही। मित्र होते हैं, किन्तु कोई विचार के दोष से मित्र को ही शत्रु समझता हुआ उसका घात कर डालता है। यह उसका दृष्टि विपर्यास है। उसे जष वास्तविकता का पता चलता है तो पश्चात्ताप करना पड़ता કોઈ પુરૂન માતા, પિતા, ભાઈ બહેન સ્ત્રી, પુત્ર, કન્યા, અને પુત્રવધુની સાથે રહેતા હોય છે. તે પિતાના સ્વાભાવિક મિત્ર-હિતેચ્છને શત્રુ માની भने तर १५ ४N नाणे छे. ह्यु ५५ छ, 'माता मित्र पिताचेति' त्यात માતા, મિત્ર, અને પિતા, એ ત્રણે સ્વભાવથી જ હિત કરવાવાળા હેય છે, પરંતુ અન્ય લેક પ્રયજન વશાત્ હિત કરવાની બુદ્ધિવાળા जय छे. ॥१॥ આ કથન પ્રમાણે માતા, પિતા વિગેરે સ્વભાવથી જ મિત્ર હોય છે. પરંતુ કોઈ પુરૂષ પિતાના વિચારના દેષથી મિત્રને જ શત્રુ માનીને તેને વાત કરી નાખે છે, આ તેને દૃષ્ટિ વિષય છે. તેને જ્યારે વાસ્તવિક્તાની For Private And Personal Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८० सूत्रकृताङ्गवं स्थळे 'मन दिट्ठिविपरिया सिपादं डे' भत्रति दृष्टिविपर्यासदण्डः भवत्येवाऽयं दण्डो बुद्धिवैपरीत्यात् यथा दृष्टिविपर्ययात् - मालायां सर्प इति - अवस्मिंस्तबुद्धिरिति । उदाहरणान्तरमपि प्रदर्शयति-' से नहाणामर' तद्यथानाम 'केइपुरिसे' कश्चित्पुरुषः 'गामघायंसि वा' ग्रामयाते वा 'नगरघायंसि वा' नगरघाते वा 'खेडवासि वा कब्बडघायंसि वा-मडंत्रघायंसि वा' खेटघाते वा कटघाते वा, मघा वा है । ऐसी जगह दृष्टिविपर्यासदंड होता है। जैसे दृष्टि की विपरीतता के कारण माला में सर्प का भ्रम हो जाता है, अतद्रूपवस्तु तद्रूप प्रतीत होती है। दूसरा उदाहरण भी दिखलाते है - जैसे कोई पुरुष ग्रामघात - वाड से वेष्टिन प्रदेश को ग्राम कहते हैं उसका घात करने वाला ग्रामघातक है, आकरघात सुवर्ण एवं रत्नादिक की उत्पत्ति के स्थान को नष्ट करने वाला आकरघातक कहलाता हैं, नगर घात - अष्टादश प्रकार के कर से रहित स्थान नगर कहलाता है उसका घात करने वाला नगरघातक है खेडघात - धूली प्राकार से वेष्टित स्थान को खेट कहते हैं उसका घात करने वाला खेडघातक है, कर्वटघात - कुत्सित नगर को कर्बट कहते हैं उसका घात करने वाला कटघातक कहलाता है, महंबंधात ढाई कोस तक जिसके बीच में कोई ग्राम न हो ऐसा स्थान मंडय कहलाता है उसका घात करने वाला " સમજણ પડે છે, ત્યારે તેને પશ્ચાત્તાપ કરવા પડે છે. એવા સ્થળે દૃષ્ટિ વિપર્યાસ દંડ હ્રાય છે. જેમ દૃષ્ટિના વિપરીત પણાને કારણે માળામાં સર્પના ભ્રમ થાય છે, અતદ્રુપ વસ્તુ તદૂરૂપ દેખાય છે. For Private And Personal Use Only हवे मी उहाहर] तावे छे--प्रेम है। ३ (१) आभ धातવાડથી વી'ટાયેલા પ્રદેશને ગ્રામ-ગામ કહે છે, તેના ઘાત કરવાવાળેા ગ્રામ ઘાતક કહેવાય છે. (૨) આકાર ઘાત-સેાના અને રત્નેાની ઉત્ત્પત્તિના સ્થાનને આકર કહે છે, તેના નાશ કરવાવાળાને साम्रघात हे छे. (3) नगर. ઘાત–મઢાર પ્રકારના કર વિનાના સ્થાનને નગર કહેવાય છે. તેના ઘાત કરનાર નગરઘાતક કહેવાય છે. (૪) ખેડબ્રાત-ધૂળના પ્રાકાર-કાટથી યુક્ત સ્થાનને ખેટ કહે છે. તેના ઘાત કરવાવાળ.ને ખેડઘાતક કહેવાય છે. (૫) કટઘાત-કુત્સિત નગરને કટ કર્યો છે. તેના ઘાત કરવાવાળાને કરેંટ ઘાતક કહેવાય છે. (૬) મડબઘાત મઢી ગાઉ સુધીમાં જેની વચમાં ખીજું ગામ ન હોય, એવા સ્થાનને માખ કહેવાય છે, તેને ઘાત કરવાવાળાને મબ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टोका द्वि. अ. अ. २ क्रिणस्थाननिरूपणम् १८१ 'दोणमुहवायं स वा' द्रोगा-क्याते वा 'पट्टगघायं स वा' पत्तनधाते का 'आसमघासि वा' आश्रमवाते वा 'संनिवेसघायंसि वा संनिवेशघाते वा, 'निग्गमघायंसि वा निर्गमघावे वा निर्गपो मार्गस्तस्य घाते वा, रायहाणि घायंसि वा' राजधानीघाते वा 'अतेगं तेगमितिमन्नमाणे वा' अस्तेनं स्तेन मिति मन्यमानः 'पतेणे हयपुछे' अतेनं हतपूरें भवति। राजधान्यादिधातविषये यो वस्तुतो घाकारी स तु कचिनिर्गतः । यस्तु नःऽकरोद्घात स तत्र देवादा. मडंव घातक कहलाता है, द्रोणमुखघात-जल स्थल मार्ग से युक्त स्थान को द्रोणमुख कहते हैं उसका घात करने वाला द्रोणमुखघातक है, पत्तनघान-समस्त वस्तुओं की प्राप्ति का स्थान को पत्तन कहते हैं उसको घात करने वाले को पत्तनघातक कहते हैं। निगमघात-अनेक वणिक जनों से बसा हुआ प्रदेश निगम कहलाता है उसका घात करने वाला निगम घातक कहलाता है, आश्रम घात तापस जनों के रहने को स्थान को आश्रम कहते हैं उसका घात करने वाला आश्रमघातक कहलाता है, संवाहघात-कृषीवलों द्वारा धान्य की रक्षा के लिए बनाया गया दुर्ग भूमिस्थान अथवा पर्वत की चोटी पर रहा हुआ जनाधिष्ठित स्थल विशेष या जिसमें यहां वहां से आकर मुसाफिर लोग निवास विश्राम करें ऐमा स्थल विशेष को संवाह कहते हैं उसका घात करने वाला संवाहघातक कहलाता है, सन्निवेशघातजिसमें प्रधानतः सार्थवाह आदि रहे हों उसको सन्निवेश कहते हैं ઘાતક કહે છે. (૭) દ્રોણમુખઘાત-જળ અને સ્થળ માર્ગથી યુક્ત સ્થાનને द्रोभुम । छे, तेन धात ४२१॥ १.णाने द्रोणुभुपात उपाय छे. (८) પત્તનઘાત-સઘળી વસ્તુઓની પ્રાપ્તિના સ્થાનને પત્તન કહેવાય છે. તેને ઘાત કરવાવાળા પત્તનઘાતક કહેવાય છે. (૯) નિગમઘાતઅનેક વાણિક જનોથી વસેલા પ્રદેશને નિગમ કહેવાય છે. તેને ઘાત કરવાવાળાને નિગમઘાતક કહેવાય છે. (૧૦) આશ્ચમઘાત -તાપસના રહેવાના રથાનને આશ્રમ કહેવાય છે. તેને ઘાત કરવાવાળાને આશ્રમ ઘાતક કહેવાય છે. (૧૧) સંવાહ ઘાત-ખેડુતે દ્વારા અનાજના રક્ષણ માટે બનાવવામાં આવેલ દુર્ગભૂમિસ્થાન, અથવા પર્વતના શિખર પર પહેલા મનુષ્યના નિવાસ રૂ૫ સ્થળ વિશેષ અથ છે જેમાં જવાં ત્યાંના મુસાફરે આવીને નિવાસ કરે એવા સ્થળ વિશેષને સંવાહ કહે છે, તેને ઘાત કરવા વાળાને સંવાહ ઘાતક કહેવાય છે. (૧૨) સન્નિવેશ ઘાત-જેમાં મુખ્ય રીતે વેપારિ રહેતા હોય તેવા સ્થળ વિશેષને નિવેશ કહે છે, તેને ઘાત કરનારને સન્નિવેશ ઘાતક કહે છે. અથવા રાજધાનીને ઘાતના સમયે જે For Private And Personal Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - १८२ सूत्रकृतागस गतः तमेवाऽऽगत चौरोऽयमेवेति मन्धमानो रामपुरुगादि ईन्जीति भाति दृष्टि विपर्यासदण्डः । 'एवं खलु तस्स' एवं मलु न । 'तपति' तत्प्रत्यायिकम् -दृष्टि विपर्यासदण्डनिमित्तं सायं कर्पोपजायते। सावधमित्याधीयते । तदिदम् 'पंचमें पश्चनम् 'दंड पमाणे' दण्डसमादानं क्रियास्थानम् 'दिहि विपरियासियादंड यत्ति एत्ति आहिए' दृष्टिविपर्यासपत्ययिकपाख्यानम्, दृष्टिविपर्यासकारणकं पञ्चमं क्रियास्थानमिति कथितम् ॥पू०६=२१॥ ____ मूलम्-अहावरे छट्टे किरियटाणे मोसावत्तिएत्ति आहिज्जइ से जहाणामए केइपुरिसे आयहेडं वा जाइहेडं वा अगारहेडं वा परिवारहेडं वा सयमेव मुसं वयइ अण्णेण वि मुमं वयंतं पि अण्णं समणुजाणइ, एवं खलु तस्त तप्पत्तियं सावज्जति आहिज्जइ, छटे किरियट्टाणे मोसावत्तिएत्ति आहिए ॥सू०७॥२२॥ छाया-आथाऽपरं षष्ठं क्रियास्थानं मिथ्यापत्ययिकमित्याख्यायते। तद्यथा नाम कश्चित् पुम्पः आत्महेतो वा, ज्ञाति हेतो वा, अगारहे तोर्वा, परिचारहेतो, स्वयमेव मृषा बदति अन्येनाऽपि मृपावादयति मृपावदन्तमन्यं समनुजानाति एवं खलु तस्य तत्मत्ययिक सावध मित्याधीयते षष्ठं क्रियास्थानं मृषावादमत्ययिकमित्याख्यातम् । उसका घात करने वाला सन्निवेश घातक कहलाता है, अथवा राजधानी के घात के समय जो चोर नहीं है उसे चोर मानकर मार डालता है अर्थात राजधानी आदि के घात के विपर में वास्तव में जो घातकारी है वह तो कहीं भाग निकला और जिनने घान नहीं किया था दैववश वह कहीं से वहां आ पहुंचा, राजपुरुष उसको ही चोर समझ कर दंड देते हैं तो यह दृष्टि विपर्यास दंड है । दृष्टि विपर्यास से दंड देने वाले को उसके निमित्त से पाप कर्म का बंध होता है। यह पांचा दृष्टिविपर्यासदंड नामक क्रिया स्थान है ॥६॥ ચાર ન હોય તેને ચેર માનીને મારી નાખે છે. અર્થાત્ ર જવાની વિગેરેના ઘાતના સંબંધમાં વાસ્તવિક રીતે જે ઘાત કરતા હોય, તે ક્યાંય ભાગી ગયેલ હોય, અને જેણે ઘાત ન કર્યો હોય અને દેવવશાત્ તે કયાંયથી ત્યાં આવી ગયેલ હેય રાજપુરૂષે તેને જ ચેર માનીને દંડ આપે છે, તે તેને દષ્ટિવિપક્ષ દંડ કહેવાય છે, દષ્ટિના વિપર્યાસથી દંડ દેવાવાળાને તેના નિમિત્તે પાપકર્મને બંધ થાય છે. આ રીતે આ દષ્ટિ વિયસ દંડ નામનું नां यास्थान छ. ॥६ For Private And Personal Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् टीका-पश्चमक्रियास्थाननिरूपणानन्तरं षष्ठं क्रियास्थानं निरूपयति-'अहावरे' अथाऽपरम् 'छट्टे' षष्ठम् 'किरियट्ठाणे' क्रियास्थानम् 'मोपावत्तिए' मिथ्या. प्रत्ययिकम्-मिथ्यावादनिमित्त कम् 'त्ति आहिज्जई' इत्याख्यायते, असत्यभाषण. मेव मिथ्या, मिथ्या प्रत्यया कारण यस्य तत्-मिथ्यापत्ययिक क्रियास्थान मित्याभिधीयते । मिथ्याप्रत्ययिकस्वरूपं दर्शयति- से जहाणामए' तद्यथानाम 'केइपुरिसे' कश्चित्पुरुषः 'आयहेवा ' आत्महेतो -आत्मकारणार्थम् ‘णाइहे वा' ज्ञातिहेतो वो 'आगारहेउं वाआगारं गृह तनिमित्तकम् 'परिवारहेउवा' परिवारहेतो-परिवृत्य परि मतो वा तिष्ठन्तीनि परिवारा:-पुत्र-कला-भृत्यचतुष्पदादयः तेषां कृते। 'सयमेव' स्वयमेव 'मु' मला वदति, अपत्यगिरं संगिरते। अथवा-'अण्णेण वि मुसंवाए। अन्येनाऽपि मृपा वाइयति, अथ 'T'मुपंवदंतं पि अण्णं समणु नाणइ' ममावदन्तम्-असत्य भाषमाण मन्यं समनुजागति-तहनुमोदने। एवं खलु तस्स' एवं खलु तस्य 'तप्पत्ति' तत्तत्ययिकम् 'सारनंति' साधं निन्दितं (६) मृषा प्रस्थायिक क्रियास्थान 'अहावरे छठे किरियट्ठाणे' इत्यादि । टीकाथ-अथ छठे क्रिपास्थान का निरूपण करते हैं। वह इस प्रकार है--छठा क्रियास्थान मृषायाद के निमित्त से होता है, अत. एवं वह मृषावाद प्रत्यधिक कहलाता है। उसका स्वरूप इस प्रकार है -कोई पुरुष अपने लिए, ज्ञाति जनों के लिए, गृह के निमित्त, परिवार अर्थात् पुत्र कलन भृत्य चौपाये आदि के निमित्त स्वयं असरय भाषण करता है दूसरे से मिथ्याभाषण करवाता है अथवा मिथ्णाभाषण करने वाले का अनुमोदन करता है तो ऐमा करने से उसे मिथ्या. (६) भृपा प्रत्यय यास्थान 'अहावरे छटे किरियटःणे' त्या ટીકાઈ—પાંચમું ક્રિયસ્થાન કહ્યા પછી હવે આ છઠ્ઠા ફિયાસ્થાનનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે. તે આ પ્રમાણે છે.-છઠ્ઠા દિયાસ્થાન મૃષાવાદના નિમિત્તથી થાય છે તેથી જ તે મૃષાવાદ પ્રત્યાયિક કહેવાય છે. તે આ પ્રમાણે છે-કે ઈ પુરૂષ પિતાને માટે, જ્ઞાતિજને માટે, ઘર માટે, પરિવાર અર્થાત્ પુત્ર, કલત્ર, નેકર, ખાટલા વિગેરેના નિમિત્તે પિતે અસત્ય બેલે છે, બીજા પાસે અસત્ય વચન બેલાવે છે, અથવા મિથ્યા ભાષણ કરવાવાળાનું For Private And Personal Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -- सुत्रकृतासूत्रे कर्म अहिज्जाइ' आधीयते-समुत्पद्यते इति छटे किरियाठाणे' षष्ठं क्रियास्थानं 'मोसावत्तिए' मृषापत्ययिकम् 'त्ति आहिए' इत्यारूपातम् यो हि पुरुषः स्वात्मार्थ वा परिवारगृहापर्थ वा स्वयमसत्य शाषणं करोति, अन्यान् कारयति कुन्तं वाय. मनुमोदते-तस्य पुरुषस्य मृपावादननितसाधं कर्म भवति । पूर्व पश्चक्रियास्थाः नानि कथितानि, तेषु प्रायः सर्वत्र साक्षातारम्भस्यावाधिका न्यूना वा हिंसा भवत्येव । अतस्तेषु दण्ड पमादानमिति संशा कृता-पष्ठा देरारभ्य समाप्ति पर्यन्तं प्रायः पाणिवधो न भाति-अवो दण्डसमादानमिति नाम विहाय क्रियास्थानशब्देनैव उद हामिति ॥० ७..२२॥ भाषण हेतुक पाप कर्म का बन्ध होता है। यही मृषाप्रत्यधिक छठा क्रियास्थान कहलाता है। तात्पर्य यह है कि जो पुरुष अपने लिए या अपने परिवार आदि के लिए स्वयं असत्य भाषण करता है, दूसरों से असत्य भाषण करवाता है या असत्य भाषण का अनुमोदन करता है, उसे मृषावाद जनित पापकर्म होता है। इससे पहले जो पाँच क्रियाथान कहे गए हैं, उन सप में साक्षात् अथवा परम्परा से अधिक या कम हिंसा होती है, अतएव उन्हें 'दंड समादान' संज्ञा दी गई है। छठे से लेकर तेरहवें तक जो स्थान कहे जाने वाले हैं, उनमें प्रायः प्राणवध नहीं होता है, अत: उन्हें दंड समा. दान संज्ञा न देकर 'क्रिया स्थान' शब्द से ही कहा गया है ।।७। અનુદન કરે છે. તે તેમ કરવાથી તેને મિથ્યા ભાષણના કારણે પાપકર્મને બંધ થાય છે. એજ મૃષા પ્રત્યયિક નામનું છઠું ક્રિયાસ્થાન કહેવાય છે. તાત્પર્ય એ છે કે–જે પુરૂષ પોતાને માટે અથવા પોતાના પરિવાર વિગેરે માટે સ્વયં અસત્ય વચન બેલે છે, બીજાઓને અસત્ય વચન બોલાવે છે, અથવા અસત્ય બોલવાવાળાનું અનુમોદન કરે છે, તેને મૃષાવાદથી થવા पाणु पा५: गे छे. આનાથી પહેલાં પાંચ કિયાસ્થાને કહેવામાં આવ્યા છે. એ બધામાં સાક્ષાત અથ પરંપરાથી વધારે અથવા એછી હિંસા હોય જ છે, તેથી જ તેને દંડ સમાન સંજ્ઞા આપવામાં આવી છે. છઠ્ઠ થી આરંભીને તેમા સ્થાન સુધી જે સ્થાને કહે ામાં આવનાર છે. તેમાં પ્રાયઃ પ્રાણવધ હોતે નથી તેથી તેને “દંડસમાદાન' સંજ્ઞા ન આપતાં “કિયાસ્થાન” શબ્દથી જ हेस , 11॥ For Private And Personal Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् ... मूलम्-अहावरे सत्तमे किरियट्राणे अदिन्नादाणवत्तिएति आहिज्जइ, से जहाणामए केइपुरिसे आयहेडं वा जाव परिवारहेउं वा सयमेव अदिन्नं आदियइ अन्नेणं वि अदिन्नं आदियावेति अदिन्नं आदियंतं अन्नं समणुजाणइ, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जति आहिज्जइ, सत्तमे किरियटाणे अदिन्नादाणवत्तिएत्ति आहिए ॥सू०८॥२३॥ छाया-अथाऽपर सप्तमं क्रियास्थानमदत्तादानपत्ययिकमित्याख्यायते। तघथानाम कश्चित्पुरुषः आत्महेतो वा यावत् परिवारहेतो; स्वयमेव अदचमाददाति अन्येनाऽपि अदत्तमादापयति, अदत्तमाददानमन्यं समनुजानाति, एवं खल तस्य तत्पत्ययिकं सावधमित्याधीयते सप्तमं क्रियास्थानमदत्तादानपत्ययिकमित्याख्यातम् ।।मू० ८॥२३॥ ___टोका-पष्ट क्रियास्थानं दर्शयित्वा-सप्तम दर्शयितुमाह-'अहावरे' अथा. परम् 'सत्तमे' सप्तमम् 'किरियटाणे' क्रियास्थानम् 'अदिन्नादाणवत्तिए' अदत्तादानपत्ययिकम् , अदत्तस्याऽऽदानं-ग्रहणं तदेव प्रत्यय:-कारणं यस्य तत्तथा, 'त्ति पाहिज्जई' इत्याख्यायते 'से जहाणामए' तपथानाम 'केइपुरिसे' कविपु. रुष: 'आयहेवा' आत्महेतो वा 'जाव' यावत्-यावत्पदेन ज्ञात्यगारयोर्ग्रहणम् । 'परिवार हेउवा' परिवारहेतो वा 'सयमेव स्वयमेव 'अदिन्नं आदियई' अदन (७) अदत्तादान प्रत्ययिक क्रियास्थान 'अहावरे सत्तमे किरियट्ठाणे' इत्यादि । टीकार्थ-छठा क्रियास्थान दिखलाकर सातवां क्रियास्थान दिखलाते हैं-सातवां क्रियास्थान अदत्तादान प्रत्ययिक कहलाता है। उसका स्वरूप इस प्रकार है-कोई पुरुष अपने निमित्त अथवा यावत् परिवार के निमित्त स्वयं ही अदत्त को ग्रहण करता है अर्थात् धन के स्वामी से याचना (७) महत्तहान प्रत्यय यास्थान'अहावरे सत्तमे किरियाणे' त्यादि ટીકાર્યું–છટકું કિયાસ્થાન કહીને હવે સાતમું ક્રિયાસ્થાન બતાવવામાં આવે છે.--સાતમું કિયાસ્થાન અદત્તાદાન પ્રત્યધિક કહેવાય છે. તેનું સ્વરૂપ આ પ્રમાણે છે. કોઈ પુરૂષ પિતાના નિમિત્તે અથવા યાવત્ પરિવારને નિમિત્તે પિતે જ અદત્ત (માલિકે આપ્યા વગરનું ગ્રહણ કરે છે. અર્થાત્ ઘનના માલિક For Private And Personal Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २०६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे माददाति यस्प यद्धनम् अयाचित्यैव तस्य धनग्रहणमदत्तादानं चौर्येण परकीयद्रव्यग्रहणमिति यावत् । अथवा - 'अन्नेण वि अदिन्नं आदियावे६' अन्येनाऽपि - अदत्तं धनम् आदापयति-परिग्राहयति । 'अदिन्नं आदियंतं अन्नं समणुजाणई' अदत्तं धनमाददानम् - गृहन्तमभ्यं समनुजानाति अनुमोदते । 'एवं खलु तस्स' एवं खलु कुर्वत स्वस्थ पुरुषस्य ' सप्पत्तियं' तत्प्रत्ययिकं तन्निमित्तत्रम् अदत्तादान कारणकम् 'सावज्जंति आहिज्ज' सावयम्-अशुभकर्मेत्याधीयते - समुत्पद्यते । 'मे' सप्तमम् 'किरियद्वाणे' क्रियास्थानम् 'अदिमादाणवत्तिए' अदत्तादानप्रस्थकिम् | 'ति आहिए' इत्याख्यातम् । अयं भावः अन्यस्वामिकमस्वामिकं वा धनं स्वार्थ परार्थे वाssददानोऽन्येनाऽपि आदापयन आददानमनुमोदयंश्च, अदत्तादानजनितकर्मणा बध्यते इति सप्तममदत्तादाननामकं क्रियास्थानम् ||०८।२३ ॥ मूलम् - अहावरे अट्टमे किरियट्टाणे अज्झत्थवत्तिए चि आहिज्जइ, से जहा णामए केइपुरिसे णत्थि णं केइ किंचि Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - किये बिना ही उसके धन को चोरी से ग्रहण करलेता है, अथवा दुसरे से अदन्त धन को ग्रहण करवाता है अथवा अदन्त ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है, उस पुरुष को अदत्तादान के निमित्त से पाप कर्म का बन्ध होता है। यह अदत्तादान प्रत्यय कियास्थान कहा गया है । तात्पर्य यह कि जिस धन का स्वामी कोई दूसरा हो या कोई भी स्वामी न हो, ऐसे धन को अपने लिए या दूसरों के लिए या स्वयं ग्रहण करने वाला, दूसरों से ग्रहण करवाने वाला और ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करने वाला अदत्तादान जनित कर्म से बद्ध होता है। यह अदत्तादान प्रत्यय नामक क्रियास्थान है ॥८॥ પાંસે યાચના કર્યાં વિનાજ તેના ધનને ચારીથી ગ્રહણ કરી લે છે, અથવા બીજાની પાંસેથી અદત્તને ગ્રહણ કરાવે છે, અથવા અદત્તનુ' ગ્રહણ કરવાવા ળાનુ અનુમેદન કરે છે. તે પુરૂષને અદત્તાદાનના નિમિત્તે પાપકમને અધ થાય છે. આ અદત્તાદાન પ્રત્યય ક્રિયાસ્થન કહેવામાં આવે છે. For Private And Personal Use Only કહેવાનુ તાપ એ છે કે--જે ધનના સ્વામી કોઈ બીજો ડાય અથવા કોઈ પણ માલીક ન હાય, એવા ધનને પોતાના માટે અથવા ખીજાના માટે અથવા રવયં ગ્રહણ કરવાવાળા, ખીજા પાંસે ગ્રહણ કરાવવા વાળા અને ગ્રહણ કરવાવાળાને અનુમેદન કરવાવાળા અદત્તાદાનથી થવાવાળા ફથી ખાય છે. આ અદત્તાદાન પ્રય નામનું ક્રિયાસ્થાન છે દ્રા Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् विसंवादेति सयमेव होणे दीणे दुढे दुम्मणे ओहयमणसंकप्पे चिंतासोगसागरसंपक्ट्रेि करयलपल्हत्थमुहे अदृज्झाणोवगए भूमिगयदिहिए झियायइ, तस्स गं अज्झत्थया आसंसइया चत्तारि ठाणा एव माहिज्जति, तं जहा-कोहे माणे माया लोहे अज्झत्थमेव कोहमाणमायालोहे, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जति आहिज्जइ, अट्टमे किरियटाणे अज्झत्थवत्तिएत्ति आहिए ॥सू०९॥२४॥ ... छाया-अथाऽपरमष्टमं क्रियास्थानम् अध्यात्मपत्ययिकम् इत्याख्यायते। तथानाम कश्चित्पुरुषः नास्ति खलु कोऽपि किश्चिदिसम्बादयिता इति स्वयमेव हीनो दीनो दुष्टो दुर्मनाः आहतमनःसंकल्पः चिन्ताशोकसागरसंपविष्टः करतलपर्यस्तमुखः आर्तध्यानोपगतः भूमिगतदृष्टिः ध्यायति । तस्य खल्वाऽऽध्यात्मिकानि आसंशयितानि चत्वारि स्थानानि एवख्यायन्ते, तद्यथा-क्रोधो मान माया लोभा, अध्यात्मिका एक क्रोधमानमायालोमाः । एवं खलु तस्य तत्म. त्ययिकं सावध मित्याधीयते। अष्टमं क्रियास्थानम् अध्यात्मप्रत्ययिकमित्याख्यातम् ॥सू० ९॥२४॥ टीका-सम्मति-अष्टम क्रियास्थानमाह-'अहावरे' अथापरम् 'अट्ठमे' अष्टमम् 'किरियट्ठाणे' क्रियास्थानम् 'अज्झ यातिर' अध्यात्मपत्ययिकम्मात्मानमधिकृत्य प्रवर्त्तते- इत्यध्यात्मम् , तत्र क्रोधादिनिमित्तकम् ‘त्ति आहिलई' (८) अध्यात्म प्रस्पयिक क्रियास्थान 'अहावरे अट्टमे किरियट्ठाणे इत्यादि। टीकार्थ-आठवां क्रियास्थान अध्यात्मप्रत्ययिक कहलाता है। मात्मा के आश्रित जो हो सो आध्यात्म है। तात्पर्य यह है कि यह क्रियास्थान क्रोध आदि के निमित्त से होता है। इसका स्वरूप इस (८) अध्यात्मप्रत्ययि यिास्थान 'महावरे अट्ठमे किरियदाणे' त्याह ટીકાથે--આઠમું ક્રિયાસ્થાન અધ્યાત્મ પ્રત્યધિક કહેવાય છે. આત્માના આશ્રયથી જે હેય તે અધ્યાત્મ છે. તાત્પર્ય એ છે કે-આ ક્રિયાથાન ક્રોધ વિગેરેના નિમિત્તથી હોય છે. તેનું વરૂપ આ પ્રમાણે છેકેઈ પર એ For Private And Personal Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८८ सूत्रकृतागसूत्र इत्याख्यायते । 'से जहाणामए' तद्यथानाम 'केहपुरिसे' कश्चित्पुरुषः ‘णथि किंचि विसंवादेई' नास्ति खलु किश्चिद् विसंवादयिता-ईषदपि क्लेशकारकः, इति, तथापि 'सयमेव स्वयमेव 'होणे-दीणे-दुट्टे-दुम्मणे' हीनो दीनो दुष्टः दुर्मनाः तत्र हीनो-निन्दितप्रकृतिका, दीन:-शोकग्राही, दुष्ट:-दोषयुक्तः। दुर्मनाः-दुःखितमिव मनो विद्यते यस्य स दुर्मना:-उद्विग्नचित्तः 'ओहयमणसंकप्पे अपहतमन:संकल्पः-अपहतो विनष्ट इव विद्य ते मनसः सङ्कल्यो यस्य स तथा निराशः सन् , 'चिंतासोगसागरसंपविटे' चिन्ताशोकसागरसंपविष्टः, चिन्तया शोकसमुद्रे भविष्ट इच परिदृश्यमानः, 'करतलपल्हत्थमुहे' करतलपर्यस्तमुवः--करतले पर्यस्तं न्यस्तं मुखं यस्य स तथा, 'अट्टज्झाणोवगए' आर्तध्यानोपगतः 'भूमिगयदिट्टिए' भूमिगतदृष्टिः 'झियायइ' ध्यायति-चिन्तां करोति, दृश्यते कदाचित्कोऽपि पुरुषोऽकारणमेव चिन्तया चाऽऽतमनाः करतले मुखमाधाय भूमौ दत्ताऽाधानो ध्यायन , तत्र बाह्यचिन्ताकारणस्याऽभावात्-आन्तरेण कारणेन भवितव्यम् । किं तत्कारणं तत्राह-'तस्स' तस्य पुरुषस्य ‘णं अज्झत्थया' 'ण' खलु-निश्चयेन आध्यात्मिकानि आत्मोत्पमानि 'आसंसइया' आसंशितानि-निश्चयं विद्यमानानि, यद्वा-सन्देहप्रकार है-कोई पुरुष ऐसा है कि किसी विसंवाद बाह्य कारण के विना ही हीन, दीन, दुष्ट (दोषयुक्त) दुःखित मनवाला-उद्विग्नचित्त, हताश, चिन्ता और शोक के सागर में डुबा हुआ, हथेली पर मुख को थामें हुए, आतध्यान से युक्त एवं धरती की और नजर लगाए हुए होता है। वह चिन्ता में गुस्त रहता है। तात्पर्य यह है कि कोई-कोई मनुष्य निष्कारण ही चिन्ता से पीडित मन वाला, हथेली पर ठुड्डी थामे और नीचे की ओर दृष्टि किए कुछ सोच-विचार करता है। वहां चिन्ता का कोई बाहरी कारण नहीं होता, अतएव कोई आन्तरिक कारण होना चाहिए, वह कारण क्या है ? सो कहते हैं-ऐसे पुरुष की चिन्ता से मन में होने वाले चार હિય કે-કઈ વિસંવાદનું બાહ્ય-બહારના કારણ વિનાજ હીન, દીન, ચિન્તા અને શેકના સાગરમાં ડૂબેલે, હથેલી પર મુખને ભીને, આર્તધ્યાનથી યુક્ત તથા ધરતી તરફ નઝર લગાવેલ હોય છે, તે ચિન્તામાં મગ્ન રહે છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે--કઈ કઈ મનુષ્ય નિષ્કારણ-કારણ વિનાજ ચિન્તાથી પીડિત મનવાળા, હથેલી પર માથુ રાખેલ અને નીચેની તરફ નજર કરીને કંઈક સોચ-શેક યુક્ત બનીને વિચારતા હોય છે. ત્યાં ચિતાનું કઈ બાહ્ય કારણ હેતું નથી, તેથી જ કેઈ આન્તરિક-અંતરનું કારણ હેવું જોઈએ, તે શું કારણું છે? તે બતાવે છે-એવા પુરૂષને ચિંતાથી For Private And Personal Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् रहितानि 'चत्तारि ठाणा' चत्वारि स्थानानि ‘एवं आहिज्जंति' एवमाख्यायन्ते । 'तं जहा' तद्यथा-'कोहे माणे माया लोहे' क्रोधः-मान:-माया-लोभः 'अज्झस्थमे' आध्यात्मिका एव 'कोह-माण-माया-लोहा' क्रोध-मान-माया-लोमाः, यद्यपि क्रोधादयोऽन्तःकरणधर्माः नत्वात्मन स्ते क्रोधादयः, नचाऽऽत्मधर्मत्वे का क्षतिः-इति वाच्यम्, तथात्वे-मुक्तावस्थायामपि आत्मनि ज्ञानदर्शनवत् तत्सद्भावप्रसंगात् । तथापि-अहं क्रोधवान् इति पतीत्या व्यवहारनयाऽनुसारेण क्रोधादीनामात्मधर्मस्वीकारात् , आध्यात्मिकाः क्रोधादय इति नाऽनुपन्नम् । एतं खलु तस्स तप्पत्तियं' एवं खलु तस्य तत्प्रत्ययिक क्रोधादिकारणकम् “सावज सावा. कर्म 'त्ति आहिजनई' इत्याधीयते, एवं कुर्वत स्तस्य पुरुषस्य क्रोधादिकारणकं पापजनकं कर्म समुत्पद्यते । 'अट्टमे किरियट्ठाणे' अष्टमं क्रियास्थानम् 'अ अस्थ. वत्तिए' अध्यात्मपत्ययिकम् 'त्ति आहिए' इत्याख्यातम् , आत्मोत्पन्नत्वात आध्यात्मिका एते क्रोधादयो विकाराः मनसो विनारस्य च दूषका एवं मालिन्यकारकाश्च भवन्ति । यत्राऽयं क्रोधादिः प्राबल्येन वर्तते, तस्य पुरुषस्य आध्या. त्मिकसावद्यकर्मबन्धो भवतीति ।।मू० ९॥२४॥ कारण निश्चय कहे गये हैं। वे ये हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ । यद्यपि क्रोध आदि आत्मा के स्वाभाविक धर्म नहीं हैं, क्योंकि वे चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न होते हैं और यदि उन्हें आत्मा का स्वाभाविक धर्म मान लिया जाय तो मुक्तावस्था में भी ज्ञान-दर्शन आदि के समान उनका अस्तित्व स्वीकार करना पड़ेगा, तथापि वे आत्मा के असाधारण वैभाविक भाव हैं, और मैं क्रोधवान् हूं' ऐसी प्रतीति भी होती है, इस कारण व्यवहार नय से उन्हें आत्मा का धर्म कहा है। यह क्रोधादि विकार ही बाह्य कारण के अभाव में पुरुष की उदासीनता के कारण बनते हैं। ऐसे पुरुष को क्रोधादि के મનમાં થવાવાળા ચાર કારણે નિશ્ચયથી કહેલ છે. તે ચાર કારણે ક્રોધ, भान, माया अनेम से छे. જો કે ક્રોધ વિગેરે આત્માના સ્વાભાવિક ધર્મ નથી. કેમ કે તે ચારિત્ર મોહનીય કર્મના ઉદયથી ઉત્પન્ન થાય છે. અને જે તેમને આત્માને સ્વાભાવિક ધર્મ માની લેવામાં આવે, તે મુક્ત અવસ્થામાં પણ-જ્ઞાન, દર્શન વિગેરેની જેમ તેમનું અસ્તિત્વ સ્વીકારવું પડશે. તે પણ તે આત્માને અસાધારણ વિભાવિક ભાવ છે. અને હું કીધવાળો છું. એવી ખાત્રી પણ થાય છે. તે કારણે વ્યવહાર નથી તેને આત્માને ધર્મ કહ્યો છે. આ કોઇ વિગેરે વિકારોજ બાહ્ય કારણના અભાવમાં પુરૂષના ઉદાસીન પણાનું કારણ બને છે. - - - - For Private And Personal Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गो मूलम्-अहावरे णवमे किरियट्ठाणे माणवत्तिए त्ति आहिजह, से जहा णामए केइपुरिसे जातिमएण वा कुलमएण वा बलमएण वा रूवमएण वा तवोमएणं वा सुयमएणं वा लाभमएण वा इस्सरियमएण वा पन्नामएण वा अन्नतरेण वा मयट्टाणेणं मत्ते समाणे परं हीलेइ निदेइ खिंसइ गरहइ परिभवइ अवमण्णेइ, इत्तरिए अयं, अहमंसि पुण विसिजाइ कुलबलाइगुणोववए, एवं अप्पाणं समुक्कस्से, देहच्चुए कम्मबितिए अवसे पयाइ, तं जहा-गब्भाओ गम्भं जम्माओ जम्मं माराओ मारं गरगाओ णरगं चंडे थद्धे चवले माणी यावि भवइ, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जति आहिज्जइ, णवमे किरियहाणे माणवत्तिए ति आहिए ॥सू० १०॥२५॥ । छाया-अथाऽपरं नवमं क्रियास्थानं मानपत्ययिकमित्याख्यायते । तद्यथानाम कश्चित् पुरुषो जातिमदेन वा कुलमदेन वा बलमदेन वा रूपमदेन वा तोमदेन वा श्रुतमदेन वा लाभमदेन वा ऐश्वर्यमदेन वा प्रज्ञामदेन वा अन्यतरेग वा मद. स्थानेन मत्तः सन् परं हीलयति निन्दयति जुगुप्सति गर्हति परिभाति अवमन्यते इतरोऽयम् अहमस्मि पुनः विशिष्टजाति कुलबलादिगुणोपेतः, एवमात्मानं समुत्कर्षयेत् । देहच्युतः कर्मद्वितीयोऽशः प्रयाति, तद्यथा-गर्भतो गर्भम् , जन्मतो जन्म, मरणान्मरणम्, नरकान्नरकम्, चण्डः स्तब्धः चपळः मान्यपि भवति एवं खलु तस्य तत्पत्ययं सावद्यमित्याधीयते। नवमं क्रियास्थानं मानमत्ययिकमित्याख्यातम् ।।मु० १०॥२५॥ निमित्त से पाप का बन्ध होता है। यह अध्यात्मप्रत्ययिक नामक आठ क्रियास्थान है ॥९॥ એવા પુરૂષને ક્રોધ વિગેરેને નિમિત્તે પાપને બંધ થાય છે. આ અધ્યાત્મપ્રત્યયિક નામનું આઠમું ક્રિયાસ્થાન કહેલ છે. For Private And Personal Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयाबोधिनी रीका द्वि.श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् टीका- अष्टमं क्रियास्थानं निरूपित, सम्पति-नवमं क्रियास्थानमाह,'अहवरे' इत्यादि। 'अहावरे' अथाऽपरम् 'णमे' नवप्रम् 'किरियट्ठाणे' क्रियास्थानम् 'माणवत्तिए' मानपत्ययिकम् 'त्ति आदिनाई' इत्याख्यायते । से जहा णामए' तपथानाम 'केइपुरिसे' कश्चित्पुरुषः 'जाइमएण वा जातिमदेन वा 'कुलमएण वा' कुलमदेन वा, जाति:-क्षत्रियादिः, कुलमिक्षाकादिकम्, तन्मदेनाsमिमानेन-अहं विशिष्टजातिकुलसम्पन्नः, मदन च इमे हीनजातिकुलवन्त:इत्याभिमानं सन्धत्ते । 'बलमएग वा' बलमदेन वा-चलं सामर्थ्य शक्तिविशेष: तच शरीरवाङ्मनःसम्बन्धि, सदाश्रित्य गर्व करोति । 'रूपमएम वा' रूपमदेन पा-अहं रूपवान् अन्यस्तु न तथेत्यादिरूपप्रसंशनेन अभिमानं विभत्ति । 'तवो मएण वा' तपोमदेन-तपसो मदस्तो मदस्तेन । 'सुथमएण वा' श्रुतमदेन वा श्रूयते इति श्रुतम्-शास्त्रम् -तन्म देन, 'लाभमरण वा' लाभमदेन वा-'इस्स: (२) मानप्रत्ययिक क्रियास्थान 'अहावरे गवमे किरियट्ठाणे' इत्यादि । टीकार्थ-आठवें क्रियास्थान के निरूपण के अनन्तर अब नौवां क्रियास्थान कहते हैं-लौवां क्रियास्थान मान प्रत्ययिक कहलाता है। उसका स्वरूप इस प्रकार है-कोई पुरुष जातिमद या कुल मद से अर्थात् मैं ऐसी ऊंची क्षत्रियादि जाति का हूं ऐसा अभिमान करना यह जातिमद है में इक्ष्वाकु आदि विशिष्ट कुल में जन्मा हूं, मेरे सिवाय दूसरे हीन जाति या हीन कुल के हैं, इस प्रकार का अभिमान करता है वह कुलमद है बलमद करता है अर्थात् शरीर वचन या मन सम्बन्धी सामर्थ्य का गर्व करता है मैं सुन्दर हूं-दूसरे नहीं, इस प्रकार रूप का अभिमान करता है, तप का मद करता है श्रुन का मद करता है लाभ का मद करता है, ऐश्वर्य का (6) भानप्रत्याय लियास्थान 'अहावरे णवमे किरियठ्ठाणे' त्यादि ટીકાÉ—-આઠમા કિયારથાનનું નિરૂપણ કરીને હવે નવમું ફિયાસ્થાન માન પ્રત્યયિક કહેવાય છે. તેનું સ્વરૂપ આ પ્રમાણે છે કે પુરૂષ જાતિમદ અથવા કુળ મદથી અર્થાત હું આવી ઉંચી ક્ષત્રીય વિગેરે જાતિનો . હું દફવાકુ વિગેરે વિશેષ પ્રકારના કુળમાં જન્મ્યો છું. મારા વિના બીજા હિનનીચી જાત અને નીચા કુળના છે, આવા પ્રકારનું અભિમાન કરે છે, તે કુલમદ કહેવાય છે. તથા શરીર વચન અથવા મન સંબંધી સામર્થ્યને ગર્વ परे है, त म मह वाय छे. सुंदर छु'. मी तेवा सु२ नथी, આ પ્રમાણે રૂપનું અભિમાન કરે છે, તે રૂપમદ છે, તપનું અભિમાન For Private And Personal Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतानसूत्रे रियमएण वा' ऐश्वर्यमदेन वा 'पनामएण वा प्रज्ञामदेन वा-प्रज्ञा-बुद्धि स्तन्मदेन, 'अन्नत रेण' अन्यतरेण सर्वमदेन, पषु-एकतरमदेन वा 'मय. छाणेग' मदस्थानेन 'मत्ते समाणे' मत्तः सन् यत् किमपि-एक मदस्थानमासाद्य मत्तः-ताशाभिमानवान् 'ए' परं स्वातिरिक्तं जनम् 'हीलई हीलयति-अबहेलनां करोति, निदेई निन्दति 'खिसई' जुगुप्सते-घृगां करोति 'गरहई गई ते 'परि. भवई' परिभवति 'अमण्णेइ' अवमन्यते 'इत्तरिए अयं' इतरोऽयम्-नाऽयं विशिष्टकुलजात्यादिमान-अपि तु जात्यादिवैशिष्टयरहितः, 'अहमंसि पुग' अहमस्मि पुनः विसिटकुलबलाइगुणोववेए' विशिष्टकुलबलादिगुणोपेतः, मदतिरिक्ता एते हीनजात्यादिखिन्ना:-अहंतु जात्यादिगुणगणग्रामोपेतः, 'ए' एवंरूपामनेकामभिमानधारामुपवहन् 'अपाणं समुक्कसे' स्वकीयमात्मानं समुप येत्-सर्वत उत्कृष्टो भवेत्, अन्याऽन्याऽपेक्षं स्वात्मानमधिकाऽधिकं मन्नानः परं परिनिन्देत, तस्य स्वाभिमानिनस्तद्विधविविधनिन्दाजनितं स्वात्मोत्कर्षजनितं चयादृशमैहि-काऽऽमुष्मिकं फलं भवितुमर्हति, तादृशमशुभफलं शास्त्रकारः-स्त्रयमद करता है मज्ञा अर्थात् बुद्धि का मद करता है, इन मदों में से किसी भी एक मद स्थान से मत्त-गर्षिला-होता है और इस कारण दूसरे की अवहेलना करता है, निन्दा करता है, घृणा करता है, गर्दी करता है, अपमान करता है, और कहता है कि ये विशिष्ट जातिमान या कुलवान् नहीं है, मैं विशिष्ट कुल, जाति एवं बल आदि गुणों से सम्पन्न है, इस प्रकार अभिमान धारण करता हुआ अपना उत्कर्ष प्रकट करता है, दूसरों की अपेक्षा अपने को अधिक मानता है, ऐसे अहंकारी को इस प्रकार दूसरे की निन्दा करने से और अपना उत्कर्ष प्रकट करने से इह-परलोक संबंधी जो फल प्राप्त होता है, उसे કરે છે, શ્રતને મદ કરે છે, લાભને મદ કરે છે. ઐશ્વર્યને મદ કરે છે. પ્રજ્ઞા–અર્થાત્ બુદ્ધિને મદ કરે છે. આ મોમાંથી કોઈ પણ એક મદરસ્થાનથી મત્ત-ગર્વવાળે હેય છે, અને તે કારણે બીજાને તિરસ્કાર કરે છે. નિદા કરે છે. ઘણા કરે છે. ગહ કરે છે; પરાભવ કરે છે, અપમાન કરે છે, અને કહે છે કે–આ વિશેષ પ્રકારથી જાતિવાનું અથવા કુળવાન નથી, હું વિશેષ પ્રકારની જાત-કુળ અને બળ વિગેરેથી પુજા છું. આવા પ્રકારનું અભિમાન ધારણ કરતા થકા પિતાને ઉત્કર્ષ પ્રગટ કરે છે, બીજાઓ કરતાં પિતાને શ્રેષ્ઠ માને છે, એવા અહંકારીને આ રીતે બીજાની નિંદા કરવાથી અને પિતાને ઉત્કર્ષ પ્રગટ કરવાથી ઈહ-પરલેક સંબંધી જે ફળ પ્રાપ્ત For Private And Personal Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् मुपदर्शयति-'देहच्चुर' देहच्युतः-मृतः सन् येन शरीरेण तादृशमदम तोऽन्याना क्षिपन्नासीत् तेनाऽऽक्षेपका रिशरीरेण वि च्युतः सन् 'कम्मबितिर' कर्मद्वितीयः कमैत्र द्वितीयं सहकारि यस्य स कर्मद्वितीयः। 'असे पराई' अवशः-पराधीनः कर्ममात्रसहायः, प्रशति गच्छति । विद्यमानं शरीरं परित्यज्य पर छोकं गच्छति, 'तं जहा' तद्यथा - 'गम्भाओ गम' एकस्माद् गर्भाद गर्भान्तरम् 'जम्माओ जम्म' जन्मतो जन्मएकं जन्म प्राय पुनरपि जन्मान्तरमाप्नोति । 'माराओ मार' मरणान्मरणम्-पुनः पुन मरणधुपैति । 'जरगाओ णरग' नाकाद्दुः वाऽधिष्ठानान्नरकम्, पुनःखाधि ष्ठानम् । गर्भ जन्ममरणनरका दिवेदना-मुहुमुहुरनुभाति, इदं तदभिमानम् । एतादृशं घोरदुःखरू ाम् अभिमानक विचिन्त्य विवेकी कथमपि जात्याघभिमानं न कुर्यात् । किन्तु किपाकफलमत्त तो भेत्तव्यम्, नैताव-मात्रमेव फलमशुभात्मकशास्त्रकार स्वयं दिखलाते हैं। ऐसा अभिमानी पुरुष जय मरता है और जिस शरीर के कारण मदोन्मत्त बना था, उस शरीरको भी जव छोड़ता है, तब सिर्फ उसके किये कर्म ही उसके सहायक होते हैं। वह विवश होकर परलोक की ओर चल देता है। फिर एक गर्भ से दूसरे गर्भ में, एक जन्म से दूसरे जन्म में बार बार-मृत्यु को प्राप्त होता है। नरक से नरक को अर्थात् एक दुःख के स्थान से दूसरे दाख के स्थान को प्राप्त होता है। गर्भ जन्म, मरण एवं नरक आदि की वेदनाओं को पुनः-पुनः अनुभव करता है। अभिमान के इस दुःखमय फल को विचार कर किसी भी प्रकार जाति आदि का अभिमान न करे, परन्तु किंपाक फल के समान अभिमान से डरता रहे। થાય છે, તે શાસ્ત્રકાર પિતે બતાવે છે.-આ અભિમાની પુરૂષ જ્ય રે મરે છે, અને જે શરીરને લીધે તે આ મુદેન્મત્ત બન્યું હતું તે શરીરને પણ છેડે છે, ત્યારે કેવળ તેના કરેલા કર્મો જ તેના સહાયક થાય છે. અને તે પરવશ થઈને પરલોકમાં ચાલ્યા જાય છે. અને તે પછી એક ગર્ભમાંથી બીજા ગર્ભમાં, અને એક જન્મથી બીજા જન્મમાં ઉત્પન્ન થઈ વારંવાર મૃત્યુને પ્રાપ્ત થાય છે. એક નરકથી બીજા નરકમાં અર્થાત્ એક દુઃખ સ્થાનમાંથી બીજા દુઃખના સ્થાનને પ્રાપ્ત થાય છે. ગર્ભ, જન્મ, મરણ, અને નરક વિગેરેની વેદનાઓને વારંવાર અનુભવ કરે છે. અર્થાત્ ભગવે છે. અભિમાનના આ દુઃખમય ફળને વિચાર કરીને કેઈ પણ પ્રકારે જાતિ વિગેરેનું અભિમાન ન કરે. કેઈનું અપમાન ન કરે, પરંતુ કંપાક ફળની જેમ અભિમાનથી ડરતા રહે. सु० २५ For Private And Personal Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे मभिमानिनो भवति, अपितु-इतोऽपि अधिकं दर्शयति-परलोके इहलोकेऽभिमानी नरः 'चंडे थद्धे चवले माणी यावि भवई' चण्डः स्तब्धः चपला मानी चापि भवति, तत्र-चण्ड:-उप्रतरः, स्तब्धः-अहङ्कारी, चपल:- प्रकृत्या चञ्चला, मानी-अभिमानी चापि भवति, 'एवं खलु तस्स' एवं खलु तस्य-पुरुषस्य 'तप्पत्तियं' तत्पत्ययिकम्-मान कारण कम्-गर्व नितम् 'सावज्जति अहिज्जई' सावधं कर्म इत्याधीयते-समुत्पद्यते । अभिमानपत्ययेन कर्म समुत्पद्यते एवम्-'णवमे नवमम् 'किरियट्ठाणे' क्रियास्थानम् 'माणवत्तिए' मानपत्ययिकम् 'त्ति आहिए' इत्या. ख्याम् इति ॥५०१०२५॥ । __मूलम् -अहावरे दसमे किरियटाणे मित्तदोसवत्तिए त्ति आहिज्जइ, से जहाणामए केइ पुरिसे माईहि वा पिईहि वा भाईहिं वा भइणाहिं वा भजाहिं वा धूयाहिं वा पुत्तेहिं वा सुण्हाहि वा सद्धिं संवसमाणे तेसिं अन्नयरति अहालहगंसि वि अवराहसि सयमेव गरुयं दंडं निवत्तेइ, तं जहा-सीओदगवियडंसि वा कायं उच्छोलित्ता भवइ, उसिणोदगवियडेण वा कायं ओसिंचित्ता भवइ, अगणिकाएणं कायं उवडहित्ता भवइ, जोत्तेण वा वेत्तेण वा णेत्तेण वा तयाइ वा कण्णण वा छियाए ___अभिमानी को इतना ही अशुभ फल नहीं प्राप्त होता, अपितु इससे भी अधिक फल भोगना पड़ता है। उसे दिखलाते हैं-इस लोक या परलोक में, जो पुरुष अभिमानी है, उग्रतर है, अहंकारी है, प्रकृति से चपल है और मानी है, उसको गर्व जनित पाप कर्म का बन्ध होता है, अर्थात् अभिमान के कारण कुत्सित कर्म उत्पन्न होते हैं। यह मानप्रत्ययिक क्रियास्थान कहा गया है ॥१०॥ અભિમાનીને એટલું જ અશુભ ફળ પ્રાપ્ત થાય છે, તેમ નહીં પણ તેનાથી પણ વધારે ફળ તેને ભેગવવું પડે છે, હવે તે બતાવે છે–આ લેક અથવા પરલોકમાં જે અભિમાની પુરૂષ છે, ઉગ્રતર છે, અહંકારી છે, પ્રકૃતિથી :ચપળ છે, અને માની છે, તેને ગર્વથી થવાવાળા પાપકર્મને બંધ થાય છે. અર્થાત અભિમાનના કારણે કુત્સિત કર્મ ઉત્પન્ન થાય છે. આ માન પ્રત્યયિક ફિયાસ્થાન કહેલ છે. ૧૦ For Private And Personal Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् वा लयाए वा अन्नयरेण वा दवरएण पासाई उद्दालित्ता भवइ, दंडेण वा अट्ठीण वा मुट्ठीण वा लेलूण वा कवालेण वा कायं आउट्टित्ता भवइ। तहप्पगारे पुरिसजाए संवसमाणे दुम्मणा भवति, पवसमाणे सुमणा भवंति तहप्पगारे पुरिसजाए दंडपासी दंडगुरुए दंडपुरकडे अहिए, इमंसि लोगंसि अहिए परंसि लोगंसि संजलणे कोहणे पिट्टिमंसि यावि भवद, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जति आहिजइ, दसमे किरियट्राणे मित्तदोसवत्तिए त्ति आहिए॥सू०११॥२६॥ - छाया-अथाऽपरं दशमं क्रियास्थान मित्रदोषपत्ययिकमित्याख्यायते, तद्यथा नाम कोऽपि पुरुषः मातृभिर्वा पितृभिर्वा भ्रातृभिर्वा भगिनीभिर्वा भाभिर्वा दुहितभिर्वा पुत्र ; स्नूवाभिर्वा साध संसन् तेषामन्यतमस्मिन् अथ लघु केऽपि अपराधे स्वयमेव गुरुकं दण्डं निर्वत्र्तयति, तद्यथा-शीतोदकविकटे वा कायमुच्छोल. यिता भाति, उष्णोदकविकटे वा कायमपसिञ्चयिता भवति, अग्निकायेन कायमुपदाहयिता भवति जोत्रेण वा वेत्रेण वा नोदकेन वा त्वचा वा कशया वा छेदकेन वा लतया वा अन्यतरेण वा दवरकेण पार्थानि उद्दालयिता भवति, दण्डेन वा अस्न्या वा मुष्टिना वा लेष्टुना वा कपालेन वा कायमाकुयिता भवति। तथापकारे पुरुष. जाते संवसति दुर्मनसो भवन्ति, प्रवसति सुमनसो भवन्ति । तथापकास पुरुषजीतः दण्डपार्थी दण्डगुरुकः दण्डपुरस्कृतः अहितः अस्मिन् लोके अहितः परस्मिन् लोके संज्वलनः क्रोधनः पृष्ठमांसवादकश्चापि भवति । एवं खलु तस्य तत्प्रत्यय कसावध मित्याधीयते दशमं क्रियास्थानं मित्रदोषपत्यायिक मित्या ख्यातम् ।मू.११-२६॥ टीका- नवमं क्रियास्थान मानस्थानं निरूप्य दशमं मित्रदोषपत्ययिक निरूपयति- अहावरे' अथाऽपरम् 'दसमे' दशमम् 'किरियट्ठाणे' क्रियास्थानम् 'मित्त. (१०) मित्रद्वेष प्रत्ययिक क्रियास्थान 'अहावरे दसमे किरियट्ठाणे' इत्यादि। टीकार्थ-नौवें क्रियास्थान के निरूपण के पश्चात् दसवें क्रियास्था. (१०) भित्रद्वेष प्रत्यय: (यास्थान 'अहावरे दसमे किरियहाणे' या ટીકાથે--નવમા યિાસ્થાનના નિરૂપણ પછી દસમાં ક્રિયસ્થાનનું નિરૂ. For Private And Personal Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे दोसत्तिए मित्रदोषपत्यायिकम् 'त्ति अहिज्जई' इत्यख्यायते 'तं जहा' तद्यथा 'से जहाणामए' तद्यथानाम 'केइ पुरिसे' कश्चित्पुरुषः 'माईहिं वा पिईहिं वा माईहिं वा भइणीहि वा मज्जाहि ।। धृयाहि वा पुत्तेहि वा सुहाहि वा' मातृभिर्या पिभिर्वा भ्रातृभिर्मा, भगिनीभिर्वा भार्याभिर्वा दुहितृभिर्वा पुत्र ; स्नुषाभिर्वा 'सद्धिं संवसमाणे' सार्धं संघसन्-माता-पित-भ्रातृ-भगिन्यादिभिः सह गृहे वसन् तेसिंअन्नयरंसि तेषामन्यतमस्मिन्, तेषां मध्ये कस्याऽपि 'अहा लहुगंसि वि' अथ कचुकेऽपि 'अवराहसि' अपराधे संनाते 'सयमेव' स्वयमेव 'गरुयं दंडं निवत्तेइ' गुरुकम्-अत्युग्रं दण्ड निवर्तयति-ददाति, भगिन्यादौ देवाद्-अत्यल्पेऽपि अप. राधे जाते तदुपरि महद्दण्डं पातयति स्वयमेव, अपराधप्रकारं दर्शयति-'तं जहा' तद्यथा 'सीओदगवियडंसि वा' शीतोदकविकटे वा 'कार्य' कार्य शरीरम्अल्पापराधयितु भगिन्यादेः 'उच्छोलि ता भा' उच्छोलयिता भवति, शैशिरिकशीततरं पवनान्दोलितमपि शरीरं शीतनले पातयति, शीतसलिलेन संसिञ्चयति, अपराधकर्तुः, तथा-'उसिणोदगवियडे । वा' उष्णोदकविकटेन वा 'कायं ओसि. चित्ता भवइ' कायमपसिंचयिता भवति, ग्रीष्मकालेऽपराधिनः शरीरम्-अग्नितापितजलेन अपसिश्चयति 'अगणिकारण कायं उबडहिता भव' अग्निकायेन कायमुपदाहयिता भवति, अग्नि पजाय तत्र क्षिपति-अपराधिनम् । 'जोत्तेण नका निरूपण करते हैं-दसवां क्रियास्थान मित्र द्वेष प्रत्यायिक कहलोता है। उसका स्वरूप इस प्रकार है-कोई पुरुष माता, पिता, भाई, अगिनी, भार्या, दुहिता, पुत्र या पुत्रवधू के साथ निवास करता है। उनमें से किसी के द्वारा छोटासा अपराध हो जाने पर उन्हें स्वयं . जैसे-भगिनी आदि को शीत काल में भी शीतल जल में गिरा देता है, शीतल जलसे उनके शरीर को सींच देतो है। उष्णकाल में अपराधी के शरीर पर आग में तपा जल उंडेल देता है, अग्नि से शरीर को जला देता है-आग जला कर अपराधी को उसमें झोंक देता - પણ કરવામાં આવે છે. દસમું કિયાસ્થાન મિત્ર પ્રત્યયિક કહેવાય છે. तेनु २१३५ मा प्रमाणे छे- ५३१ भाता, पितt, HS, मिनी-उन, પત્ની, પુત્ર અથવા પુત્રવધુની સાથે રહેતે હય, તેઓ પૈકી કોઈનાથી કોઈ નાને એ અપરાધ થઈ જાય, તે તેને પિતે ભારે દંડ-શિક્ષા કરે છે, - જેમકે-બહેન વિગેરેને ઠંડા પાણીમાં પાડે છે. તેના શરીર પર ઠંડુ પાણી છોટે છે, ઉનાળામાં અપરાધીના શરીર પર અગ્નિ પર ગરમ કરેલું પાણી નાખે છે, અગ્નિથી શરીરને બાળે છે. આગ સળગાવીને અપરાધીને For Private And Personal Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् वा वेत्तेग वा' जोत्रेग वा वेत्रेण वा 'णेत्तेग वा' नोदकेन वा प्रेरकदण्डेन 'तयाइ वा' त्वचा वा-त्वनिर्मितेन 'कण्णेग वा' कशया वा छेपाए वा' छेदकेन वा-परश्यादिना 'लयाए वा' लतया वा 'अन्न रेग वा अन्यतरेण वा 'दवरएग वा' दवरकेण वा 'पासाइ उद्दालिता भवई' पार्थानि उदालयिता भवति, अर्थात्-कशादिभिः पावस्थं चर्म उत्पाट यति 'दंडेग वा-अट्ठीण वा-मुट्ठीण वालेलूण वा-कपालेग वा-कायं आउद्विता भाई दण्डेन वा-यष्टयादिना अस्थमा चा-मुष्टिना वा-लेष्टुना वा (लोष्ट्रेण) वा-कपाले न वा-घटावयवेन वा कायंशरीरम्-आकुट्टयिता भवति-हिनस्ति । दण्डादिना प्रहार्य तदीयशरीरं शिथिल. यति। तहप्पगारे पुरिस जाए' तथाप्रकारे-ईदृशभोषणकर्मकारिपुरुषजाते 'संवसमाणे संसति गृहे तदीय पुत्रकलत्रभ्रातमागिन्यादयः 'दुम्मणा भवंति' दुर्मनसो भवन्ति ‘पयसमा प्रवपति-गृहाद्विनिर्गते सति तदीयबान्धवाः 'सुमणा भवंति' सुमनसः-प्रसन्ना भवन्ति' हिमाऽये कमलानवत् इति। 'तहप्पगारे पुरिसनाए' तथाप्रकारो दुष्कर्षा पुरुष नातः । ‘दंडपासी' दण्डपार्थी-दण्डः पाछे यस्य स तथा, स्वल्पाभराधेऽपि अधिकदण्डदायकः 'दंडगुरुए' दण्डगुरुका है, जोत से, वेत से, आर लगे डंडे से, चमड़े के चावुक से, फरसा से, लता से, किसी प्रकार के रास्ते से मार-मार कर अपराधी के पार्श्व भाग की चमड़ी उधेड़ देता है या लाठी से, हटडी से, घूसे से, ढेलेसे, कपाल से शरीर पर आघात पहंचाता है। डंडे मार-मार कर शरीर को ढीला कर देता है। ऐसा पुरुष जब घर के भीतर रहता है तो उसके माता, पिता, भाई, भागिनी आदि दुःखी और उदास रहते हैं और जब वह घर से बाहर निकल जाता है तो प्रसन्न होते हैं, हिम के नष्ट हो जाने पर कमलवन के समान खिल उठते हैं। ऐसा पुरुष घगल में डंडा रखता है-थोडे से अपराध का अधिक दंड देता है, તેમાં પાડે છે, જેનરથી, વૈતથી, આર લગાવેલા ઠંડાથી, ચામડાના ચાબુકથી, ફરસાથી, લતાથી કઈ પણ પ્રકારથી મારી મારીને અપરાધીના પડખાના ભાગની ચામડી ઉખેડી નાખે છે, અથવા લાકડીથી, હાડકાધી, ઘુસ્તાથી, ઢેખલાથી, કપાળથી, શરીર પર પડા પહોંચાડે છે. કંડ મારી મારીને શરીરને ઢીલું કરી દે છે. એવો પુરૂષ જ્યારે ઘરની અંદર રહે છે, તે તેના માતા, પિતા, ભાઈ બહેન વિગેરે દુઃખી અને ઉદાસ રહે છે, અને જયારે તે ઘરની બહાર નીકળી જાય છે, ત્યારે તેઓ સઘળા પ્રસન્ન થાય છે. જેમ હિમના નાશ થવાથી કમળ વન ખીલી ઉઠે છે, તેમ તેઓ ખુશી For Private And Personal Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९८ सूत्रकृतासूत्र -दण्डो गुरुमहान् यस्य स तथा, यस्य महान दण्डो भवति स दण्डगुरुका, 'अहिए' अहिता-कस्याऽपि न हितकारी-यो वायवमपि दण्डादिना ताडयति, स कथमन्यं न ताडयिष्यति, इति-अहितो लोकानाम् । एतादृशः पुरुषः 'इमंसि लोगसि अहिए' अस्मिल्लोकेऽहित:-अहितकारकः 'परंसि लोगसि' परलोके च 'संनलणे' संलगे' संज्वलन:-सदैव जालनः-सदैव जलनस्वभावो भवति, 'कोहणे' क्रोधन:-क्रोधशीलो भवति । 'पिद्विमंसि यावि भवई' पृष्ठमांसवादकश्थापि भवति । स्वस्य पापश्लोकश्रोता अतिपिशुनो भवति, ‘एवं खलु तस्स एवं खलु तस्य दण्डपुरस्कृतनरस्य 'तपत्तियं' तत्पत्ययिक मित्रदोषकारणकम् 'सावज्ज' सावा कर्म 'त्ति आहिज्जई' इत्याधीयते-समुत्पद्यते 'दसमे' दशमम् 'किरिय. ट्ठाणे' क्रियास्थानम् 'मित्तदोसवत्तिए' मित्रदोषपत्ययिकम् 'त्ति आहिए' इत्याख्या: तम्-कथितं भवतीति ।मू०११-२६॥ मूलम्-अहावरे एक्कारसमे किरियटाणे मायावत्तिए त्ति आहिज्जइ, जे इमे भवंति-गूढायारा तमोकसिया उलूगपत्त. लहया पव्वयगुरुया ते आयरिया वि संता अगारियाओ भासाओ वि पउज्जति, अन्नहा संतं अप्पाणं अन्नहा मन्नंति, अन्नं पुट्रा अन्नं वागरंति, अन्नं आइक्खियव्वं अन्नं आइक्खति । से जहाणामए केइपुरिसे अंतो सल्ले तं सल्लं णो सयं णिहरइ दंड को ही आगे रखता है और जो किसी का हितकारी नहीं होताजो अपने भाई आदि का भी डंडे से बात करता है, वह दूसरों का क्या हित करेगा, ऐसा पुरुष इस लोक में अपना अहित करता है और परलोक में सदैव ज्वलनशील होता है, चुगल खोर होता है। ऐसे पुरुष को मित्रद्वेष प्रत्ययिक पाप कर्म का बन्ध होता है। यह मित्र द्वेषप्रत्ययिकनामक क्रियास्थान कहा गया है ॥११॥ થાય છે એ પુરૂષ બગલમાં દંડ વિગેરે રાખે છે, થોડા રમ પરાધની ભારે શિક્ષા કરે છે. શિક્ષાને જ મુખ્ય ગણે છે. અને જે કોઈનું હત કરનાર થતું નથી, જે પોતાના ભાઈ વિગેરેની સાથે પણ ઠંડાથી વાત કરે છે. તે બીજાને શું કલ્યાણ કરે? એ પુરૂષ આ લેકમાં પિતાનું અહિત કરે છે, અને પરલોકમાં હંમેશાં જવલનશીલ-બળતરાના સ્વભાવ વાળો હોય છે. ચાડિયે હોય છે, એવા પુરૂષને મિત્ર પ્રચયિક પાપકર્મને બંધ થાય છે, આ મિત્રદ્રષ પ્રત્યકિ નામનું ફિયાસ્થાન છે. ૧૧ For Private And Personal Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि.श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् णो अन्नेण णिहरावेइ णो पडिविद्धंसेइ, एवमेव णिण्हवेइ, अविउद्रमाणे अंतो अंतो रियइ, एवमेव माई मायं कटु णो आलोएइ णो पडिक्कमेइ णो गिदइ णो गरहइ, णो विउदृइ णो विसोहेइ णो अकरणाए अब्भुटेइ णो अहारिहं तबोकम्म पायच्छित्तं पडिवजइ, माई अस्सि लोए पच्चायाइ माई परंसि लोए पुणो पुणो पच्चायाइ निदइ गरहइ पसंसइ णिच्चरइ ण नियहइ णिसिरियं दंडं छाएइ, माई असमाहडसुहलेस्से यात्रि भवइ, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावजति आहिज्जइ, एक्कारसमे किरियट्ठाणे मायावत्तिए ति आहिए ॥सू० १२॥२७॥ छाया- अथाऽपरमेकादशं क्रियास्थानं मायाप्रत्ययिकमित्याख्यायते । ये इमे भवन्ति गृहाचाराः तमः काषिणः उलू कपत्रलघः पर्वगुरु काः ते आर्याअपि सन्तः अनार्या भाषा अपि प्रयुञ्जते । अन्यथा सन्तमात्मानमन्यथा मन्यन्ते अन्यत् पृष्टा अन्यद् व्यागृणन्ति अन्यस्मिन् आख्यातव्ये अन्यद् आख्यान्ति । तद्यथा नाम कश्चित् पुरुषः अन्तः शल्यः तं शल्यं नो स्वयं निहरति नाऽप्यन्येन निरियति नाऽपि प्रतिविध्वंसयति, एवमेव निहनुते पीडयमानः अन्तः अन्तः रोयते, एवमेव-मायी मायां कृत्वा नो आलोचति नो प्रतिक्रमते नो निन्दति नो गर्हते नो त्रोटयति नो विशोधयति नो अकरणाय अभ्युत्तिष्ठते नो यथाई तपःकर्म प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यते, मायी अस्मिन् लोके प्रत्यायाति मायी परस्मिन् लोके पुनः पुनः प्रत्यायाति निन्दति गर्हते प्रशंसति निश्चरति न निवर्तते । निमृज्य दण्ड छादयति, मायी असमाहतशुभलेश्यश्वाऽपि भवति एवं खलु तस्य तत्प्रत्ययिकं सावध मित्याधीयते, एकादशं क्रियास्थानं मायापत्ययिकमित्याख्यातम् ॥सू०१२=२७॥ टीका-'मित्रदोषपत्ययिकं दशमं क्रियास्थानं निरूपितं सम्प्रति माया (११) मायाप्रत्ययिक क्रियास्थान 'अहावरे एकारसमे किरियट्ठाणे' इत्यादि । टीकार्थ-मित्र द्वेष प्रत्ययिक नामक दसवें क्रियास्थान का निरूपण (૧૧) માયા પ્રત્યયિક ક્રિયાસ્થાન 'अहावरे एक्कारसमे किरियाणे' या ટીકાથ–-મિત્રદ્રષ પ્રત્યયિક નામનુ દસમાં કિયાસ્થાનનું નિરૂપણ કર For Private And Personal Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०० सूत्रकृतागसत्रे प्रत्ययिकमेकादशं क्रियास्थानं दर्शयितुमाह-'अहावरे' इत्यादि, 'अहावरे' अथाऽपरम् 'एक्कारसमे' एकादशम् 'किरियट्ठाणे' क्रिस्थानम् 'मायावत्तिए' माया. प्रत्ययिकम्-मायाकारणकम् 'त्ति आहिज्जई' इत्यार पायते । 'जे इमे भवंति' ये इमे-वक्ष्यमाणाः पुरुषा भवन्ति 'गृहायारा' गूढाचाराः, गूढोऽन्यैरदृश्य आचारो व्यवहारो येषां ते तथा, 'तमोकसिया' तमः कापिणः, यथा तथा विश्वासमु. त्पाद्य लोकानां प्रतारका:-लोकञ्चका इत्यर्थः, 'उलू गपत्तलहुया' उलू रूपया -उलूकपत्रवद् अतिलघवोऽपि-तत्रोलूकः-पक्षिविशेषः 'घूक' इति लोकप्रसिद्धः 'पन्चयगुरुया' पर्वतगुरुकाः यद्यपि ते भवन्ति तूलादपि लघवस्तथापि स्वात्मानं पर्वतद् अतिगुरुतरं मनाते, यद्यपि ते अतिदुष्टाः परवञ्चका स्तुच्छा उलूकपत्रवल्लघुका स्तथापि पर्वतवद् गुरुतर स्वामानं मन्यमानाः वयमेव सर्वतः श्रेष्ठा नान्ये इत्थं भूताः 'ते आरिया वि' ते आर्या अपि 'संता' सन्त। 'अणारियाओ' अनार्या अपयशः कुत्सिता इति यावत् 'मासाओ वि' भापा अपि 'पउज्जति' प्रयुनते-आर्या अधि-अनायाँ साद्यभाषां वदन्ति 'अन्नहा संत अपाणं अन्नहा मन्नति' अन्यथा सन्तमपि आत्मानमन्यथा मन्यन्ते, मायाविनः पुरुषा अविद्वांसोऽपि स्वात्मानं विद्वांसं मन्यन्ते इत्यर्थः, 'अन्नं पुट्ठा अन्नं वागकिया गया। अब ग्यारहवें माया प्रत्यधिक क्रियास्थान को दिखलाने के लिए कहते हैं-रहारहवां क्रियास्थान मायाप्रत्यायिक कहलाता है। जो पुरुष गूढ-जिसका दूसरों को पता न चले ऐसे आचार वाले होते हैं, लोगों को विश्वास उत्पन्न करके ठगते हैं, उलूक के पंख के समान अत्यन्त हल्के होते हुए भी अपने को पर्वत के समान-महान मानते हैं, वे आर्य होते हुए भी अनार्य भाषाओं का प्रयोग करते हैं, अन्य प्रकार के होते हुए भी अपने को अन्य प्रकार का दिखलाते हैं विद्वान् न होते हुए भी अपने को विद्वान् प्रदर्शित करते हैं, कुछ पूछने पर और ही વામાં આવી ગયું હવે આ અગિયારમું કિયાસ્થાન માયા પ્રત્યાયિક નામનું કહેવામાં આવે છે.-જે પુરૂષ ગૂઢ-એટલે કે જેને બીજાઓને પત્તો ન લાગે એવા સ્વભાવવાળો હોય છે, લેકેને વિશ્વાસમાં લઈને તેઓને ઠગે છે, ઘુવડની પાંખની માફક અત્યંત હલ્કા હોવા છતાં પણ પિતાને પર્વતની જેમ ભારે–મહાન માને છે, તેઓ આર્ય હોવા છતાં પણ અનાર્ય ભાષાઓને પ્રયોગ કરે છે, અન્ય પ્રકારના હેવા છતાં પણ પિતાને વિદ્વાનું કહેવડાવે છે, અને કંઈક પૂછવામાં આવે ત્યારે ઉલટી વાત કહે છે. ન્યાયની વાત પૂછવામાં For Private And Personal Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् २०१ रंति' अन्यत् पृश अन्यद् व्यागन्ति-न्यायमागै पृष्टा वदन्ति विपरीतम्-एवम् 'अन्न आइक्खियचे अन्नं आइक्वंति' अन्यस्मिन् आरुवातव्ये अन्यद्-माख्यान्ति पृष्टमय जीवरक्षादिकम् अपतिपाद्य प्रासङ्गिकविषयमपहागाऽपासङ्गिक माणातिपातादिकं वदन्ति । ‘से जहाणामए' तद्यथा नाम 'केइ पुरिसे' कश्चित्पुरुषः 'ओ सल्ले' अन्तः शल्य:-हृदि विद्य ते मायाशल्यं यस्य स तथा 'तं सल्लं' तं शल्पम् 'णो सयं णिहरई नो स्वयं निहरति-न स्वयं निष्काशपति हृदयात् 'णो अण्णेण वि णिहरावेई' नो अन्येनाऽपि निरियति-परद्वाराऽपि न निष्काशयति ‘णो पडि विद्धं सेइ' नो मतिविधसयति-विनाशयति तं शल्यम् । किन्तु एवमेव 'निण्हवेई' एवमेव निन्हुते-आच्छादयति । तथा-'अवि उमाणे ओ अंतो रियई' पीड्य मानः शल्यव्यथया-अतः अन्तः-मध्ये -अनर्ह दये वेदनां रीयते- अनुभवति । 'एवमेव माई' एनमेव मायावान् पुरुषः 'माय' मायाम् ‘कटु' कृत्वा ‘णो आलो. एई' नो आलोचयति-आलोचनां नैव करोति । 'णो परिकक' नो पतिक्रपते 'णो जिंदई' नो निन्दति-स्वकी पमायाम् 'जो गरहह' नो गई ते-प्रात्मानम् ‘णो विउदृइ' नो व्यावर्तयति-न निवारयति निन्दनीयां मायाम् 'णो विसोहेई' नो कुछ उत्तर देते हैं-न्याय की बात पूछने पर उलटी बात कहते हैं, जीव रक्षा आदि को स्वीकार न करके और प्रासंगिक विषय को छोड़ कर अप्रासंगिक प्राणातिपात आदि का कथन करते हैं। - जैसे कोई पुरुष हृदय में चुमे हुए शल्प को स्वयं नहीं निकालना है, दूसरे से भी नहीं निकलवाता है. न उस शल्य को नष्ट करता है, किन्तु उसे छुपाता है, और उस शल्प से भीतरही भीतर व्यथा का अनुभव करता हैं, इसी प्रकार मायावी पुरुष माया करके उसकी न आलोचना करता है, न प्रतिक्रमण करता है, न निन्दा करता है, न गहीं करता है, न उसका निवारण करता है, न विशोधन करता આવે તે બીજી જ વાત કહે છે. જીવ રક્ષા વિગેરેને સ્વીકાર ન કરતાં અને પ્રસંગોપાત ઉપસ્થિત વિષયને છેડીને અપ્રાસંગિક-પ્રસંગ વિનાના પ્રાણાતિપાત વિગેરેનું કથન કરે છે. જેમ કે પુરૂષ હૃદયમાં પેઠેલા શલ્યને પિતે કહાડ નથી, બીજા પાસે પણ કઢાવતું નથી, તેમજ એ શ૯૫ને નાશ પણ કરતું નથી, પરંતુ તેને છૂપાવે છે. તેથી તે શલ્યથી અંદર અંદર જર્મન માં જ પીડાનો અનુભવ કરે છે, એ જ પ્રમાણે માયાવી પુરૂષ માયા કરીને તેની આલોચના કરતું નથી, તથા પ્રતિકમણ કરતું નથી, નિંદા કરતું નથી, નહીં કરતે નથી, તેમજ તેનું નિવારણ કરતું નથી, તથા વિશાધન-શુદ્ધિ કરતા નથી, सू० २६ For Private And Personal Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०२ सूत्रकृताङ्गसत्रे विशोधयति-सरलभावेन तादृशीं मायाम् ‘णो अफरणाए' अब्भुट्टेइ, नोऽकरणायाभ्युत्तिष्ठते-अतःपरं मायायाः अकरणाय नोचतो भवति, अकरणेन ततो विमुच्येत । 'णो अहारिय तचोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जई नो यथाई तपः कर्म पायश्चित्तं प्रतिपद्यते, मायात आत्मानं विशोधयितुं मायां निवर्तयितुं च शास्त्रोक्तं प्रायश्चित्तं तपःकर्माऽपि नो संपादयति-येन माया विनाशो-भवेत् । 'माई करंस लोए पचायाइ' मायी अस्मिन् लोके अविश्वासपात्रता प्राप्तये दुःखानुभवाय च प्रत्यायाति । 'माई परंसि लोए' माषी परस्मिल्लोके पुनः पुनः 'पञ्चायाई अधोगतिमाप्तये प्रत्यायाति, एतादृशोहि मायो 'निंदई निन्दति परान् ‘गर. हई' गर्हतेऽन्यान् ‘एसंसई' प्रशंसति-स्वात्मानम् 'णिचाई' निश्वरति-पुनः पुन मायारूपेण असदनुष्ठानमेव करोति, 'ण णिपट्टे न निवर्तते मायारूपादनुष्ठा नात् । “णिसिरियं दंडं छाएइ निसृज्य दण्डं छादयति पाणिषु दण्डं कृत्वाऽपि तं दण्डं गोपयति । 'माई असमाहडसुहलेस्से यावि भवइ' मायी असमाहृतशुभलेश्यथापि भवति-प्रमशस्तलेश्यो भवतीति, ‘एवं खलु तस्स' एवं खलु तस्य मायिनः 'सप्पत्तियं' तत्सत्ययिक-तत्कारणकम् 'सावज्जति' सावधम् 'त्ति आहिज्जइ' इस्याधीयते, मायाकरणात्सावधकर्मणां बन्धो भवति-मायिनाम् ‘एक्कारसमे एकादशम् 'किरियट्ठाणे' क्रियास्थानम् 'मायावत्तिए' मायाप्रत्ययिकम् 'त्ति आहिजई' इत्याख्यातम् , इति एकादर्श मायापत्ययिक क्रियास्थानम् ।।मु०१२-२७॥ है और न उसे पुनः न करने के लिए उद्यत होता है न उस माया की विशुद्धि के लिए यथोचित प्रायश्चित-तपः कर्म अंगीकार करता है। ऐसा मायाचारी पुरुष इस लोक में दुःख भोगता है परलोक में बारवार दुःख भोगता है, वह दूसरों की निन्दा करता है, गर्दा करता है, अपनी प्रशंसा करता है, पुनः-पुनः मायाचार पूर्वक अनुष्ठान करता है, किन्तु माया रूप असदाचरण से निवृत्त नहीं होता है। प्राणियों की हिंसा करके भी उसे छिपाता है। वह अशुभ लेश्या वाला होता અને તે ફરી ન કરવાનો પ્રયત્ન કરતું નથી, તથા તે માયાની વિશુદ્ધિ માટે યોગ્ય પ્રાયશ્ચિત-તપ કર્મને સ્વીકાર કરતા નથી, એ માયાવી પુરૂષ આ લકમાં દુઃખ ભેગવે છે. પરલેકમાં પણ વારંવાર દુઃખ ભોગવે છે. તે બીજાઓની નિંદા કરે છે. ગર્ણ કરે છે. પોતાની પ્રશંસા કરે છે. વારંવાર માયાચાર પૂર્વક અનુષ્ઠાન કરે છે. પરંતુ માયા રૂપ અસદાચરણથી નિવૃત્ત થતા નથી. પ્રાણિયેની હિંસા કરીને પણ તેને છુપાવે છે. તે અશુભ લેશ્યા For Private And Personal Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टोका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् २०३ मूलम्-अहावरे बारसमे किरियहाणे लोभवत्तिए त्ति आहिज्जइ, जे इमे भवंति, तं जहा-आरन्निया आवसहिया गामंतिया कण्हुई रहस्तिया णो बहुसंजया णो बहुपडिविरया सवपाणभूयजीवसत्तेहि ते अप्पणा सच्चामोसाइं एवं विउंति, अहं ण हंतव्यो अन्ने हंतव्या अहंण अज्जावेयवो, अन्ने अज्जावेयठवा, अहं ण परिघेत्तत्वो अन्ने परिघेत्तव्या अहंण परितावेयवो अन्ने परितावेयत्वा अहं ण उद्दवेयव्यो अन्ने उद्दवेयठवा, एवमेव ते इथिकामेहिं मुच्छिया गिद्धा गढिया गरहिया अज्झोववन्ना जाव वासाई चउपंचमाई छदसमाई अप्पयरे वा भुज्जयरे वा भुंजितुं भोगभोगाइं कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु आसुरिएसु किदिवसिएसु ठाणेसु उववत्तारो भवंति, तओ विप्पमुच्चमाणा भुजो भुजो एलमूयत्ताए तमूयत्ताए जाइयत्ताए पच्चायंति, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावजत्ति आहिजइ, दुवालसमे किरियहाणे लोभवत्तिए त्ति आहिए । इच्चेयाई दुवालस किरियट्टाणाई दविएणं समणेण वा माहणेण वा सम्म सुपरिजाणिअव्वाई भवति ॥सू०१३॥२८॥ __छाया-अथाऽपर द्वादशं क्रियास्थानं लोभमत्ययिक मित्याख्यायते ये इमे भान्ति तयथा-भारण्यकाः आसिथिकाः, ग्रामान्तिकाः, केचिद्राहसिकाः नो बहुसंयताः नो बहुपतिविरताः सर्वपाणभूतनीवसत्त्वेभ्यः ते आत्मना सत्य. है। ऐसे मायावी को माया के निमित्त से पापकर्म का बन्ध होता है। यह मायाप्रत्ययिक ग्यारहवां क्रियास्थान कहा गया है ॥१२॥ વાળા હોય છે. એવા માયાવીને માયાના નિમિત્તથી પાપકર્મ બંધ થાય છે. આ રીતે માયા પ્રત્યાયિક નામનું અગ્યારમું ક્રિયાસ્થાન કહેલ છે. ૧રા For Private And Personal Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - २०४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे मृषाभूतानि एवं वियुञ्ज - अहं न हन्तव्योऽन्ये हन्तव्याः अहं नाऽऽज्ञापयितव्यो. ऽन्ये आज्ञापयितव्याः। अहं न परितापयितव्योऽन्ये परितापयितव्याः अहं न परिग्रहीतव्योऽन्ये परिग्रहीतव्याः अहं न उपद्रावयितव्योऽन्ये उपद्रावयितव्याः, एव मेव ते स्त्रीकामेषु मूञ्छिताः गृद्धाः ग्रथिताः गहिताः अध्युपपन्ना यावद् वर्षाणि चतुः पञ्च षड् दशकानि अल्पतरान् वा भूस्तरान् वा भुक्ता भोगान् कालमासे कालं कृत्वा अन्यतरेषु आहरिकेषु किल्बिषिकेषु स्थानेषु उपपत्तारो भवन्ति । ततो विप्रमुच्यमानाः भूयो भूयः एलमूकत्वाय तमस्त्वाय जातिमूकत्वाय प्रत्यायान्ति। एवं खलु तस्य तस्मत्ययिकं सावधमित्याधीयते द्वादशं क्रियास्थानं लोभप्रत्य. यिकमित्याख्यातम् । इत्येतानि द्वादशक्रियास्थानानि द्रव्येण श्रमणेन वा माइनेन वा सम्यक्सुपरिज्ञातव्यानि भवन्ति ।।मू०१३-२८॥ ... टीका-एकादशं क्रिस्थानं मायापत्ययिकं निरूपितं सम्पति-द्वादशं क्रियास्थानं लोभमत्यविकमारभ्यते । 'अहावरे' अथाऽपरम् 'बारसमे' द्वादशम् 'किरियट्ठाणे' क्रियास्थानम् 'लोभवत्तिए' लोभमत्ययिकम् 'त्ति आहिज्जइ' इत्या ख्यायते, 'जे इमे मवंति' ये-इमेऽये वक्ष्यमाणा भवन्ति, 'तं जहा' तद्यथा'आरनिया' आरण्यका:-अरण्यनिवासिनः-तापसाः, केचन पाखण्डिनो बने वसन्ति तत्र कन्दमूलपर्णसचित्तजलमभ्यहरन्तो भवन्ति, केचन वृक्षमूले वसन्ति, 'अहावरे धारसमे किरियट्ठाणे' इत्यादि। टीकार्थ-मायाप्रत्यधिक क्रियास्थान का निरूपण किया जा चुका । अब लोभप्रत्ययिक बारहवें क्रियास्थान आरंभ किया जाता है। बारहवां क्रियास्थान लोभप्रत्ययिक कहलाता है । ये जो लोग अरण्य में निवास करने वाले तापस होते हैं-कोई पाखडी वन में वास करते हैं और वहां कन्द मूल एवं पत्ते तथा सचित्त जल का उपभोग करते हैं, ___ (१२) सोमप्रत्यथि: [यास्थान 'अहावरे बारसमे किरियट्ठाणे' त्यात ટીકાઈ–માયાપ્રત્યયિક નામના કિયાસ્થાનનું નિરૂપણ કરવામા આવી ગયું હવે બારમા લાભ પ્રત્યયિક નામના ક્રિયાસ્થાનને આરંભ કરવામાં આવે છે.-બારમું ક્રિયાસ્થાન લેભ પ્રત્યયિક કહેવાય છે. જે આ જંગલમાં વસનારા તાપસ લોકો હોય છે, –કઈ પાખંડીઓ વનમાં વાસ કરે છે. અને ત્યાં કંદમૂળ અને પાનડા તથા સચિત્ત જળને For Private And Personal Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टोका द्वि. अ. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् २०५ केचन पर्णादिकुटि निर्माय वसन्ति, केवन ग्रामादेव व्यवहारं कुन्तिो ग्रामेएव वसन्ति, ग्रामसमीपे वा, यद्यपीमें पावण्डिनो न त्रसजन्तूनां घातं कुर्वन्ति, तथाऽपि-एकेन्द्रियजीवानां स्वनिर्वाहाय घातं कुन्त्येिव । यथा-तापसादयः-इमे द्रव्यरूपेणाऽनेकपकारकव्रतपालनं कुर्वन्तोऽपि, भावत्रतं नैव पालयन्ति । कुन: -भाश्वतकारणस्य सम्यग् ज्ञानस्याऽभावत् । अतो वस्तुत इमे व्रतहीना एव, इमे पाखण्डिनः-स्वार्थसाधनाय कल्पितामनेकधा कथामपि कुर्वन्ति । एतेषां वचः नमपि-अंशतः कवित् सत्यमसत्यं वा भवति । ते एवं कथयन्ति-वयं ब्राह्मणा स्तापसाः। अतो वयं न हन्तव्याः, कशादिभिः शूदा इमे दण्डादिना ताडनीया कोई वृक्ष के मूल में रहते हैं, कोई पत्तों आदि की कुटिया बनाकर रहते हैं, कोई ग्राम से अपना निर्वाह करते हुए ग्राम में ही निवास करते हैं या ग्राम के समीप निवास करते हैं। ये पाखंडी यद्यपि त्रस जीवों का घात नहीं करते तथापि अपने निर्वाह के लिए एकेन्द्रिय जीवों का घात करते ही हैं। तापस आदि द्रव्य रूप से अनेक प्रकार के व्रतों का पालन करते हुए भी भावव्रत का पालन नहीं करते हैं, क्योंकि भावव्रत का पालन करने के लिए सम्यग ज्ञान अपेक्षित है और वह उन्हें नहीं होता है। इस कारण वास्तव में वे व्रतहीन ही हैं। वे पाखंडी अपना स्वार्थ साधने के लिए अनेक प्रकार की कथा भी किया करते हैं। उनके वचन आंशिक रूप से सत्य या असत्य होते हैं। वे कहते हैं-हम ब्राह्मण तापस हैं, अतएव हनन करने योग्य नहीं हैं। ये शूद्र हैं, इनको चाबुक आदि से तथा डंडा आदि से ताड़न ઉપભોગ કરે છે, કેઈ ઝાડના મૂળમાં રહે છે. કેઈ પાનડા વિગેરેની કુટિરે બનાવીને રહે છે, કઈ ગામમાં પિતાને નિર્વાહ કરતા થકા ગામમાં જ રહે છે. અથવા ગામની નજીકમાં નિવાસ કરે છે. અથવા ગામની સમીપે નિવાસ કરે છે, આ પાખંડી જે કે ત્રસ જીવેને ઘાત કરતા નથી તે પણ પિતાના-નિર્વાહ માટે એકેન્દ્રિય જીવોનો ઘાત કરે જ છે. તાપ વિગેરે દિવ્યપણાથી અનેક પ્રકારના તેનું પાલન કરતા થકા પણ ભાવ વતનું પાલન કરતા નથી, કેમકે ભાવ વ્રતનું પાલન કરવા માટે સમ્યક્ જ્ઞાનની અપેક્ષા રહે છે. અને તે બેમાં તે હેતું નથી. તેથી વાસ્તવિક રીતે તેઓ વત વિનાને જ હોય છે. તે પાખંડિયે પિતાનો સ્વાર્થ સાધવા માટે અનેક પ્રકારની કથાઓ પણ કર્યા કરે છે, તેઓને વચને અંશતઃ સત્ય અથવા અસત્ય હોય છે. તેઓ કહે છે કે અમે બ્રાહ્મણે તાપસ છીએ તેથી મારવાને ગ્ય નથી આ શૂદ્ર છે, તેને ચાબકા વિગેરેથી તથા ડંડા વિગેરેથી For Private And Personal Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०६ सूत्रकृतागचे इति। एतानेव पाखण्डिनोऽधिकृत्य मूत्रकारः कथयति 'आरन्निया' इत्यादि । 'आवसहिया' आवसथिकाः कुटी निर्माय वसन्ति, 'गामतिया' ग्रामा. न्तिका:-ग्रामसमीपे एव वसन्ति 'कण्हुई रहस्सिया' केचिद्राहसिका:-गुप्तक्रिया. कर्त्तारो भवन्ति, केवन ‘णो बहुसंजया णो बहुपडिविरया' नो बहुसंयता:-नो सर्वसावधनिवृत्ता:-ते न सर्वथा निवृत्त कर्माणो भवन्ति नो बहु पतिविरता:-न सर्वव्रतपालकाः 'सबपाणभूय नीवसत्तेहि सर्वप्राणभूतजीवसत्त्वेभ्यः, 'नो बहुसंयता: नो विरता:' एतेषां जीवानां हिंसातो न सर्वथा निवृत्ताः, 'ते अप्पणा सच्चा मोसाइं एवं पउंति' ते पाखण्डिनः तापसप्रभृतयः-आत्मना-स्वयं सत्यानि मृषावचनानि च प्रयुञ्जते-वदति । तथाहि-'अहं ण हंतव्यों' अहन हन्तव्यः-दण्डादिना न ताडयितव्यः सत्यपि अवराधे, किन्तु-'अन्ने तया' अन्ये-शूद्रादयो हन्तव्याः 'अहं ण अज्जावेययो' अहं नाऽऽज्ञापयितव्यः-अनमिमतकार्येषु न प्रवर्त यितव्यः, 'अन्ने अज्जावेयगा' अन्ये-शूद्रादय आज्ञापयितव्याः, नीववर्णा करना चाहिए। ऐसे पाखंडीयों के विषय में सूत्रकार कहते हैं-वे अरण्य में निवास करने वाले, कुटीर बनाकर रहने वाले, ग्राम के समीप निवास करने वाले, कोई-कोई गुप्त क्रिया करने वाले होते हैं। वे न सर्व सावद्य से विरत होते है और न सर्व व्रतों के पालक होते हैं। समस्त प्राणों, भूतों, जीवों और सत्वों की हिंसा से सर्वथा निवृत नहीं होते हैं। वे सच्चे-झूठे वचनों का प्रयोग करते हैं। जैसे-अपराध होने पर भी मैं हन्तव्य नहीं हूं अर्थात् दंड आदि से ताडनीय नहीं हैं, अन्य शुद्रादिक हन्तव्य हैं, मैं अनिष्ट कार्यों में प्रवृत्त करने योग्य नहीं हूँ, दूसरे शूद्रादिक प्रवृत्त करने योग्य हैं, मैं दास या भृत्य पनाने મારવા જોઈએ એવા પાખંડિયેના સંબંધમાં સૂત્રકાર કહે છે કે-તેઓ જંગ. લમાં નિવાસ કરનારાઓ, કુટિ બનાવીને રહેનારાઓ, ગ્રામની સમીપમાં નિવાસ કરનારાઓમાં કઈ કઈ ગુપ્ત ક્રિયાઓ કરવાવાળા હોય છે, તેઓ સર્વ સાવદ્યથી વિરત હોતા નથી, તેમજ સર્વ વ્રતનું પાલન કરવાવાળા પણ डोत नथी. सपा, प्रा!, भूता, ७, मने सत्वानी साथी सवथा નિવૃત્ત થતા નથી, તેઓ સાચા કે બેટા વચનને પ્રયોગ કરે છે, જેમકેઅપરાધ હોવા છતાં પણ હું હંતવ્ય-મારવા ગ્ય નથી, અર્થાત્ દંડ વિગે. સેથી શિક્ષા કરવાને ગ્ય નથી, અન્ય શૂદ્ર વિગેરે હસ્તવ્ય-શિક્ષા કરવાને યોગ્ય છે, હું અયોગ્ય કાર્યમાં પ્રવૃત્તિ કરવા યોગ્ય નથી. બીજા શો વિગેરે તેવા કાર્યોમાં પ્રવૃત્તિ કરાવવા યેય છે, હૂ દાસ અથવા ચાકર બનવાને 100 For Private And Personal Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् दावेव आज्ञादिका कर्तव्याः न पुनरस्मत्सु विशिष्टेषु 'अहं ण परिघेतगो अहं न परिग्रहीतव्यः-अयं मम भृत्य इति कृत्वा स्वाधीनतया न स्वीकर्तव्यः न परिग्रहीतुं योग्यः, अपितु 'अन्ने परिवेतवा' अन्ये जीवाः परिग्रहीतव्या 'अहं ण परितावे. ययो' अहं न परितापयितव्यः, किन्तु 'अन्ने परितावेयव्या' अन्ये परितापयित. व्याः-अन्नाद्यवरोधेन ग्रीष्मतापादौ स्थापनेन मदतिरिक्ताः क्षुद्रा जन्तवः शूद्रादयः परितापयितव्याः 'अहं णो उद्दवे यलो' अहनोपदावयितव्या-विषशस्त्रादिनान मारयितव्यः, किन्तु-'अन्ने उद्दवेयना' अन्ये-पद्व्यतिरिक्त शूदादयः क्षुद्र जन्तवः उपद्रावयिताः । एवमेव ते तापमपभृतयः पाखण्डनः 'इस्थियकामेंहिं' स्त्री कामेषु वनितायां कामभोगादौ च 'मुच्छि वा मूच्छिताः-आसक्ता स्ते उपदेशका: 'गिद्धा' गृद्धाः-गृद्धिः-अभिलाषा, सा च वनितादिबाह्य वस्तुविषयिणी-तपा युक्ताः सदैव कामभोगान्वेपणे संलग्नाः, 'गढिया' ग्रथिताः-विषये प्रयिताः 'गरहिया' गर्हिताः-निन्दिता:-शिष्टैः, 'अज्झोववन्ना' अध्युपपन्न :-निरन्तरकामभोगविषयकचिन्तया व्यग्राः, 'जाव' यावत् 'वामाई च पंचमाइं छइसमाई' के लिए योग्य नहीं है, दूसरे दास बनाने योग्य हैं, मैं परितापनीय नहीं हूं अर्थात् अन्नपानी में रुकावट डाल कर अथवा धूर आदि में खड़ा करके संताप पहुंचाने योग्य नहीं है, किन्तु दूसरे परितापनीय हैं में खड़ा करके संताप पहुंचाने योग्य नहीं हूं, किन्तु मरे परितापनीय हैं, मैं विष या शस्त्र आदि से मारने योग्य नहीं हूं, दूसरे मारने योग्य हैं। इस प्रकार के वचन बोलने वाले वे तापस आदि पाखंडी स्त्रियों और कामभोगों में मूर्छित होते हैं, गृद्धियुक्त होते हैं-सदैव काम भोगों की तलाश में लगे रहते हैं विषयों में ग्रथित रहते हैं, शिष्ट जनों द्वारा निन्दित होते हैं, निरन्तर काम भोग की चिन्ता में डूबे ચોગ્ય નથી. બીજાએ દાસ બનાવવાને ગ્ય છે, હું સંતાપિત કરવાને ગ્ય નથી. અર્થાત્ અન્નપાણીમાં કાવટ કરીને અથવા તડકા વિગેરેમાં ઉભા રાખીને સંતાપવા ગ્ય નથી, પણ તેવા સંતાપ પહોંચડવાને ગ્ય બીજાએ છે, હું વિષ અથવા શસ્ત્ર વિગેરેથી મારવાને ચગ્ય નથી, બીજાએ તેવી રીતે મારવાને ગ્ય છે. આવા પ્રકારના વચને બેલવા વાળા તે તાપ વિગેરે પાખંડી, સિયે અને કામગોમાં મૂછિત હોવાથી ગૃદ્ધિઆસક્તિ યુક્ત હોય છે. તેઓ હંમેશાં કામગોની તપાસમાં લાગ્યા રહે છે. વિષમાં ગુંથાયેલા રહે છે. શિષ્ટજને દ્વારા તેઓ નિન્દિત હોય છે. હમેશાં કામગની ચિંતામાં ડૂબી રહે છે. યાવત્ ચાર, પાંચ, છ અથવા દસ વર્ષ For Private And Personal Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %ERALIA २०८ सूत्रकृताङ्गसत्रे चतुः पञ्च षड्दशकानि वर्षाणि 'अप्पयरे वा' अल्पतरान् वा 'भुज्जयरे वा' भूयस्तरान् वा ‘भोगभोगाई' भोगभोगान्-भोग्यपदार्थविषयकभोगान 'अँनित्तु' भुक्त्वा-विषयसंपर्क जनितसुखसाक्षात्कारं कृत्वा 'कालमासे' कालमासे-मरण समये माप्ते सति 'कालं किच्चा' कालं-मरणं कृत्वा-शरीरपरित्यागात्मक मरणं पाप्य 'अन्नयरेसु' अन्यतरेषु 'आसुरिएम' आसुरिकेषु-अनुष्योनिषु 'किलिपसिएसु' किल्लिषिकेषु 'ठाणेमु' स्थानेषु 'उत्तारो भवति' उपपत्तारो भवन्ति, गन्गारो मृत्वा किल्विष देवता भवन्ति, 'तओ विप्पमुच्चमाणा' तातो विप्रमुच्यमानाः-देवशरीरेण भोगमुभुज्य क्षीणे तस्कर्मणि तेत युत्या 'भुज्जो भुज्जो' भूयो भग:-गरं बारम् ‘एलमूयत्ताए' एलमूकत्याय तत्र एलो वेष स्तद्वत् मुकाः-अक्तनाचः-. भावतोऽवाक्शक्तिमन्तः तेषां भावः एलम्कत्वं तस्मै । 'तमु यत्तार' तमत्वाय जन्मनेर अन्धाय 'जाइयत्तार' जातिमूत्वाय-जन्मने मूकाय जन्नैव मूका अन्धाश्च भवन्तीति भावः-पच्चायति' प्रत्यायान्ति-प्रत्यागच्छन्ति-देवात् पच्यु. तिमवाप्य जात्याधाय पुनः पुनरागच्छन्ति एवं खलु तस्स एवं खन तस्य पाख ण्डिनः 'तप्पत्तियं तत्प्रत्यायक-लोभकारणकम् 'सावज' सावधं कर्म 'त्ति आहि ज्जई' इत्याधीयते-समुत्पद्यते, 'दुवालसमें' द्वादशम् 'किरियट्ठाणे' क्रियास्थानम् 'लोभवत्तिर' लोभपत्यायिकम् 'त्ति आहिए' इत्याख्यातम् 'इच्चेयाई' इत्येतानि 'दुवालस किरियट्ठागाई' द्वादशक्रियास्थानानि 'दविरुणं' द्रव्येण-मुक्तियोग्येन 'सम. रहते हैं यावत् चार, पांच, छह या दश वर्ष तक थोडे या बहुत भोग्य पदार्थों का भोग करके, काल अवसर प्राप्त होने पर काल करके असुरनिकाय में किल्विषी नाम के देव के रूप में उत्पन्न होते हैं। आयु कर्म के अनुसार वहाँ देव शरीर से भोग-भोग कर, कर्मके क्षीण होने पर देव लोक से चवते हैं और वास्वार गूगे मेढे के समान अव्यक्त वचन वाले होते हैं जन्म से अन्धे या जन्म से गूगे होते हैं। इस प्रकार उन पाखंडीयों को लोभ के निमित्त से पाप कर्म का बन्ध होता है। यह लोभप्रत्ययिक बारहवां क्रियास्थान कहलाता है। સુધી ઘડા કે વધારે ભાગ્ય પદાર્થોનો ઉપભોગ કરીને કાલને સમય આવતાં કાલ ધર્મ પામીને અસુરનિકામાં કિલિબષિક પણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. આયુ કર્મ પ્રમાણે ત્યાં દેવ શરીરથી ભેગ ભેગાવીને કર્મના ક્ષીણ થવાથી દેવલેથી ચવે છે. અને વારંવાર ગુંગા-તળની જેમ અસ્પષ્ટ વચને બોલે છે, જન્મથી આંધળા અથવા જન્મથી ગુંગા-હાય છે. આ રીતે તે પાખંડીને લેભના નિમિત્તથી પાપકર્મ બંધ થાય છે. આ લેભ પ્રત્યયિક નામનું બારમું ફિયાસ્થાન કહેવાય છે. For Private And Personal Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सार्थबोधिनी टीका द्वि. श्र. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् २०९ 'ण' श्रमणेन - साधुना 'माहणेग वा' माहनेन वा 'सम्म' सम्यक् ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा 'सुपरिजाणि अव्वाई भवि' सुपरिज्ञातव्यानि भवन्ति - साधुना सम्यग् एतानि क्रियास्थानानि ज्ञात्वा मत्याख्यानपरिया परित्यक्तव्यानि भवन्ति । अर्थदण्डादारभ्य लोमशत्यधिकपर्यन्तानि द्वादशकिपास्यानानि ज्ञात्वा त्याज्यानीति ॥ ०१३=२८।। मूलम् -- अहावरे तेरसमे किरियाणे ईरियावहिपत्ति आहिजह, इह खलु अत्तत्ताए संबुडस्स अणगारस्स ईरियासमियस्स भासालमिस्स एसणासमियस्स आयाणमंडमन्तणिक्खेवणा समियस्ल उच्चारपासवणखेलासंघाण जल्लपारिहाणिया समि यस् मणसमियस वयसमियरस कायसमियस्त मणगुत्तस्स वयगुत्तस्त कायगुत्तस्त्र गुत्तिंदिवस गुत्तर्वभयारिस्स आउत्तं गच्छमाणस्स आउत्तं चिद्यमाणस्स आउत्तं णिसीयमाणस्स आउत्तं तुयमाणस्स आउत्तं भुंजमाणस्स आउत्तं भासमाणस्स आउत्तं वत्थं परिग्गहं कंबलं पायपुंछणं गिण्हमाणस्स वा णिक्विमाणस्स वा जाव चक्खुप म्हणिवायमवि अस्थि विमाया सहुमा किरिया ईरियावहिया नाम कज्जइ, साय पढमसमए बद्धा बितिय समए वेइया तइयसमए गिजिण्णा सा बद्धा पुट्ठा पुट्ठा मुक्ति गमन के योग्य श्रमण को यह बारह क्रियास्थान सम्यक् प्रकार से ज्ञपरिज्ञा से अनर्थ का कारण जोन कर प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग देना चाहिए। अर्थात् अर्थदण्ड से लगाकर लोभस्यकि पर्यन्त बारह क्रियास्थान जानकर स्थागने योग्य हैं ||१३|| મુક્તિ ગમનને ચાગ્ય શ્રમણે આ ખાર ક્રિયાસ્થાનાને જ્ઞપરિજ્ઞાથી સારી રીતે અનથ કારક સમજીને પ્રત્યાખ્યાન પરિજ્ઞાથી તેના ત્યાગ કરવા જોઇએ. અર્થાત્ અદડથી આરંભીને લેભપ્રત્યયિક સુધીના બાર ક્રિયાસ્થાનાને જાણીને તેના ત્યાગ કરવા ચૈાગ્ય છે. પ્રસૂ૦૧૩શા सु० २७ For Private And Personal Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १० सूत्रकृतागसूत्रे उदीरिया वेइया णिजिण्णा सेय काले अकम्मे यावि भवइ, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावजंति आहिज्जइ, तेरसमे किरियट्ठाणे ईरियावहिए त्ति आहिज्जइ। से बेमि जे य अतीता जे य पडपन्ना जे य आगमिस्सा अरिहंता भगवंता सब्वे ते एयाई घेव तेरस किरियाणाई भामिनु वा भाति वा भासिस्तंति वा पन्नविसु वा पन्नविति वा पन्लविस्तंति वा, एवं चैव तेरसमं किरियटाणे सेविंसु वा सेवंति वा सेविस्तंति वा ॥सू०१४॥२९॥ ... छाया-अथाऽपरं त्रयोदशक्रियास्थानमैशपविकमित्यारूपाय ते । इह खलु आत्मत्वाय संवृतस्यानमारस्य ईसिभितस्य भाषासमितस्य एषणासमितस्य आदानभाण्डमात्रानिक्षेपणा समितस्य उच्चारपत्र वणखेलसिंघाग जरुल परिष्ठापना. समितस्य मनासमितस्य वचःसमितस्य कापसमितत्य मनोगुप्तस्य बनोगुप्तस्य कायगुप्तस्य गुप्तेन्द्रिस्य गुप्तब्रह्मचर्यस्य आयुक्तं गच्छ आयुक्तं रिल: आयुक्तं निपीदतः आयुक्तं स्वरवर्तनां कुर्वतः आयुक्तं भुनानस्थ आयुक्त मापमाणस्थ आयुक्तं वस्त्रं परिग्रहं कम्बलं पादपोञ्छनं गृह्णगो वा निक्षिपलो वा यावच्चक्षुःपक्ष्मनिमीलनमपि' अस्तिविमानामुक्ष्मा क्रिया ऐपिथिकी नाम क्रियते । सा च प्रथमसमये बद्धा स्पृष्टा द्वितीयसमये वेदिता तृतीयतमये निर्णा सा बद्धा स्पृष्टा उदीरिता वेदिना निर्जीर्णा एण्यत्काले अकर्म चाऽपि भवति, एवं खलु तस्य तत्मत्ययिक सावध मित्याधीयते, प्रयोदशं क्रियास्थानमैपिपिकमित्याख्यायते। तत् त्रीनि ये च अतीता:ये च प्रत्युत्पन्नाः ये च आगमिष्यन्तः अन्तिो भगवन्तः सर्वे ते एतानि चैव अयोदश क्रियास्थानानि अभाषिपुर्वा मापन्ने, वा भाविष्यन्ते वा पानिज्ञपन् वा प्रज्ञापयन्ति वा प्रज्ञापयिष्यन्ति वा। एवं चैध त्रयोदशं क्रियास्थानम् असेवन्त वा सेवन्ते वा सेविष्यन्ते वा ।।०१४-२९॥ टीका-द्वादशान्तं क्रियास्थानं निरूपित सम्म त्रयोदशं क्रियास्थानमाह'अहानरे' इत्यादि । अथाऽपरम् 'तेरसमे किरियट्ठाणे' त्रयोदशं क्रिषास्थानम् 'ईरिया (१३) इपिथिक क्रियास्थान 'अहावरे तेरसमे किरियट्ठाणे' इत्यादि। (13) पिथि लियास्थान 'महावरे तेरसमे किरियहाणे' त्यात For Private And Personal Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिती टोका द्वि. श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् वहिए' ऐपिथिकम् ति माहिम' इत्याख्यायते । इह-अस्मिन् जिनशासने खलु इति वाक्यालङ्कारे। 'अतताए' भाभस्वाय-आत्मभावाय सस्वरूपेऽत्रस्थानमात्मभावः आत्मनः स्वरूप निरतिशयसुखरूपमेव किन्तु अनादिकालिककर्ममलसंवरणात्तत्स्वरूपं पिरोहितमिव भाति । यदा तु-मानीय तबलात्-परित्यक्तगृहादिसम्बन्धी जानदीक्षश्च-विशिष्टतपथरणादिना कर्मजाले समुच्छि नत्ति, ततो. ऽस्य आलभावोपगमो भाति । एतादृशामभावोगमाय-'संवुडस्स' संतस्यसर्वदान्तनिवृत्तस्य ‘आगगारस्स' अन पारस्य-गृहादि मोहं परित्यज्य संपाप्तदीक्षस्य 'ईरियाप्तमियरस' इसिमितस्थ-ईसिमित्या सदा युक्तस्य भासा समियस्स' टीक-पारह क्रियास्थानों का निरूपण किया जा चुका। अब तेरहवा भिमाधान करते हैं। यह ऐविधिक कहलाता है। ... जिनशासन में स्वात्मस्वरूप में स्थित होना आत्मभाव कहा गया है। आरा नितिशय सुखस्वरूप है, किन्तु अनादिकालीन कर्म-मल के द्वारा अच्छादित एवं कलुषित होने के कारण वह स्वरूप तिरोहित सा हो रहा है। जब कोई भव्य जीव पूर्वोपार्जित पुण्य के बल से गृह आदि का संबंध त्याग कर दीक्षा अंगीकार करता है और विशिष्ट तपश्चर्या आदि के द्वारा कर्मों का उच्छेदन करता है तब वह आत्म भाव को प्राप्त होता है। इस प्रकार आत्मभाव को प्राप्त करने के लिए जो संवर ले युक्त है, अनगार होकर दीक्षा धारी बन चुका है, इर्या समिति से समित है भाषा ममिति से युक्त है अर्थात् सावध भाषा 1 ટીકાર્ય–બાર કિયાસ્થાનેનું નિરૂપણ કરવામાં આવી ગયું હવે તેરમું ક્રિયસ્થાન પથિક કહેવાય છે. જન શાસનમાં સ્વાત્મ સ્વરૂપમાં રહેવું તે આત્મભાવ કહેવાય છે. આત્મા નિરતિશય સુખ સ્વરૂપ છે. પરંતુ અનાદિકાળના કર્મમળ દ્વારા ઢંકાયેલ અને મલીન હોવાના કારણે તે સ્વરૂપ ગુપ્ત જેવું હોય છે. જ્યારે કઈ ભવ્ય જીવ પહેલાં પ્રાપ્ત કરેલા પુણ્યના બાથી ઘર વિગેરેના સંબધને ત્યાગ કરીને દીક્ષાને સ્વીકાર કરે છે. અને વિશેષ પ્રકારની તપશ્ચય વિગેરે દ્વારા કર્મોને નાશ કરે છે. ત્યારે તે આમભાવને પ્રાપ્ત કરે છે. આ રીતે આત્મભાવને પ્રાપ્ત કરવા માટે જેઓ સંસારથી યુક્ત છે, અનગાર થઈને દક્ષા ધારણ કરી ચૂક્યા હોય છે, ઈર્ષા સમિતિથી સમિત છે, ભાષાસમિતિથી યુક્ત છે, અર્થાત્ સાવઘ ભાષાને ત્યાગ કરી ચૂક્યા હોય છે, For Private And Personal Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - २१२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे भाषा समितस्य परिश्यक्तसाद्यभावस्य 'एसणा समियरस' एषणा समितस्यएषणासमित्या युक्तस्य ' आयाण मंडमत्तणिक खे त्रणासमिवस्स' आदान माण्ड मात्रानिक्षेपणासमितस्य - आदान माण्डमात्रानिक्षेपणानां या समितिः तया युक्तस्य 'उच्चार पासवण खेल सिंघणजलपरिहारणियासमिवस्त' उच्चारस्रवणखेलसिंधानजल्ल परिष्ठापनास जितस्य विष्ठासूत्र - फफ ष्ठीवन - नासिकामल - स्वेदजलजनितमलानां या परिष्ठापना तस्याः या समितिस्तयायुक्तस्य, 'मणसमिपहस' मनःसमितस्य ' वयसमियस्स' वचःसमितस्य- सावयवचनम योगरहितस्य 'काय समियस्स' कायसमितस्य शरीरसमित्या युक्तस्य, 'मणगुत्तस्स' मनोगुप्तस्य 'वयगुत्तस्स' वगुप्तस्य 'कायगुत्तस्व' कायगुप्तस्य 'गुनिंदियस्स' गुप्तेन्द्रियस्ययस्य सर्वाण्येवेन्द्रियाणि गुप्तानि स्ववशे स्थापितानि, विषयविमुखानीति यावत् 'गुत्तभयारिस्स' गुप्तब्रह्मचर्यस्य- सुरक्षितब्रह्मचर्यस्य 'आउच गच्छमाणस्स' आयुक्तं गच्छत्र:- सोपयोगं गमनागमनक्रियायां सर्वदोषयुक्तरूप 'आउ चिमाणरूप' आयुक्त तिष्ठतः स्थिता वपि सदोपयोगयुक्तस्य, 'आउ निसी यमाणस्स' आयुक्त निषीदतः - उपवेशनेऽपि सोपयोगमुपयुक्तस्य 'आउत्तं तुयट्टमाणस्स' सोपयुक्त स्वग्वर्त्तनां कुर्वतः पार्श्वपरिवत्तमेऽपि सर्वथोपयोगयुक्तस्य, का त्याग कर चुका है, एषणासमिति, आदान भाण्डमात्र निक्षेपणासमिति तथा उच्चारप्रस्रवण सिंघाणखेल जल्ल परिष्ठापना समिति से युक्त है अर्थात् मलसूत्र कफ थूक नासिकामल जल्ल- मैल आदि के त्यागने में यतनावान् हैं, मन वचन काय की समिति से सम्पन्न है, मन, वचन और काय की गुप्ति से गुप्त है, जिसने समस्त इन्द्रियों को गोपन (विषयविमुख) कर लिया है, जो गुप्त ब्रह्मचारी है, गमन क्रिया में उपयोगवान् है लेटने में उपयोगवान् है, खड़े होने एवं स्थित रहने में उपयोगवान् है, बैठेने में उपयोगवान् है, शरीर को खुजलाने Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir એષણા સમિતિ આદાનભાંડ માત્ર નિક્ષેપણા સમિતિ તથા ઉચ્ચાર, પ્રવણુ શિધાજી ખેલ્લ, જલ, પરિšાનિકા સમિતિથી યુક્ત છે, અર્થાત્ મળમૂત્ર ४३ थू१, नाम्नो भेल (गुंगा) भहस-भेत विगेरेना त्याग ४२वामां यतना वाणा होय छे भन, वयन याने अय समितिथी संपन्न युक्त छे, भन, વચન અને કાય ગુપ્તિથી ગુપ્ત છે. જેણે સઘળી ઇન્દ્રિયાનું ગેપન (વિષચથી વિમુખ) કરી લીધું છે, જેએ ગુપ્ત બ્રહ્મચારી છે, ગમન ક્રિયામાં ઉપયેગવાળા છે, સુત્રામાં ઉપયેગવાળા છે, ઉભા રહેવામાં ઉપયેગવાળા છે, એસવામાં ઉપયેગવાળા છે, શરીરને ખંજવાળવામાં પણ ઉપયેગવાળા છે, For Private And Personal Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थान निरूपणम् २१३ -- ! 'आउतं मुंत्रमागस्स' सोपयोगं भुञ्जानस्य- आहारसमयेऽपि उपयोगवतः, 'आउतं भासमाणस्स' सोपयोगं भाषमाणस्य मकते- आयुक्तवं निराद्यवचनप्रोक्तत्वमेव 'आउतं वत्थं परिग्गदं केवलं पायपुंछ गिण्दमागस्स' सोपयुक्तं वस्त्रं परिग्रहं कम्बलं पादमोंछने सोरक सुखवस्त्रां गृह्णनो वा, वस्त्रपरिग्रहादीनां ग्रहणमपि-उपयोगवान् सन्नेव करोति, 'पिकिमाणस्स वा' निक्षि पतोऽपि वा उपयोगयुक्त एव एतेषां वस्त्रपरिग्रहादीनां संरक्षणमपि । किं बहुना 'जाव' यावत् 'चक्रम्हणिवायमचि' चक्षुः-पक्ष निमीलनमपि, चक्षुष उन्मेष निमेषावपि सोपयोगमेव कुर्वतः यद्यत् किमपि कार्यं करोति तत्सर्व सोपयोगमेव भवति । एतादृशः पुरुषः सर्वतो विरक्तः - मानमात्राय अवकलते, मोक्षाऽधिकारी भवति, 'अस्थि विमाया सुहमा किरिया ईरियादिया नाम कज्ज' अस्ति विमात्रा - अनेकप्रकारा, स्वोकमात्रा वा दुर्विज्ञेयत्वात् । सूक्ष्मबुद्धिनापि दुःखे - नेत्र ज्ञायते एतादृशी - ऐयोपथिकी क्रिया क्रियते नाम, सूक्ष्मा सा- ऐर्यापथिकी क्रिया कर्त्तः संग्ना भवति । सा ऐपपथिकी क्रिया, 'पढसमए' प्रथमसमये में भी उपयोगवान् है, आहार करने में उपयोगवान् है, भाषण करने में उपयोगवान् है निरवद्य वचनों का ही प्रयोग करता है, वस्त्र पात्र कंपल चादछन सदोरक मुपत्ति आदि के ग्रहण करने में एवं रखने में उपयोगवान् है अधिक क्या कहा जाय, जो आंख का पलक गिराने में भी उपयोगवान् है, तात्पर्य यह कि जो प्रत्येक क्रिया उपयोग पूर्वक ही करता है ऐसा सम्पूर्ण रूप से विरक्त साधु अन्य भावना वालामोक्ष का अधिकारी होता है। ऐसे साधु को भी विविध मात्रा से अनेक प्रकार की सूक्ष्म ऐयपिथिकी क्रिया लगती है, जिसे सूक्ष्म बुद्धि वाले भी कठिनाई से ही जान सकते हैं। वह ऐर्यावधिकी क्रिया पहले 9 આહાર કરવામાં ઉપયોગ વાળા છે. માલવામાં ઉપયેગ વાળા છે. નિરવદ્ય वयानो प्रयोग उरे छे, वस्त्र, पात्र, भण, पाहछन, सहो२४ भु. પત્તી વિગેરે ગ્રહણ કરવામાં અને રાખવામાં ઉપયોગ વાળા છે, વધારે શુ કહેવાય ? જેઓ આંખના પલકારા મારવામાં પશુ ઉપયોગવાળા છે, કહેવાનું તપ એ છે કે-જેઓ પ્રત્યેક ક્રિયાએ ઉપયોગ પૂર્વકજ કરે છે, સ પૂર્ણ પણાથી વિકૃત એવા એ સાધુ અનન્ય ભાવનાવાળા મેક્ષના અધિકારી મને છે. એવા સાધુને પણ જુદી જુદી માત્રાથી અનેક પ્રકારની સૂક્ષ્મ એવી અય્યપ થિકી ક્રિયા લાગે છે. જેને સૂક્ષ્મ બુદ્ધિવાળાએ પણ મુશ્કેલીથી જ જાણી શકે છે. તે અર્પાપથિકી ક્રિયા પડેલા સમયમાં સૂક્ષ્મતમ કાળમાં-જે આગ For Private And Personal Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१४ । सुत्रकृताङ्गसूत्र -प्रथा रक्षणे सम पो हि सूक्ष्म काल , स च साशास्त्र दे। अब प्लेयः । बद्धा भवति, तश-पुट्ठा' स्पृष्टा भाति च प्रथामा रे सोत्पद्यते-आत्मना संध्यते च 'विलियसमए' द्वितीयसमये सा वेश्या वेदिता भवति तस्या अनुभवो जायते । 'तइयसमए' तृतीयसमये सा णिजिनमा निर्जी-मष्टा भवति, समुत्वद्याऽऽस्मानं स्पृशति-अनुभाषपति च-फापगता शति । अतएव सा-ऐपिथिकी क्रिया बद्धा स्पृष्टा-इति भाष्यते, बन्धाशः सहैव क्रियते योगकारणात् । बन्धो जायते, किन्तु-करायाऽपावन्न स्थीयते, स्थिती कषायत्य कारणत्वात् आएव कषायसवादेव-इजरत्र स्थीपते, 'सा बद्धा-पुट्ठा-उदीरिया-वेइया-निजिण्णा' सा बद्धा स्पृष्टा-उदीरिता वेदिता निजीओ, प्रथम समये बद्ध स्पा च भातिइति कथिता, वेदिता भवति द्वितीय समये, निर्णा च भवति तृतीयसमये 'सेय. समय में-प्रतमकाल में जो आगन से जानने योग्य हैं, बंधती है और स्पृष्ट होती है, दूसरे समय में वेदन की जाती है और तीसरे समय में निर्जीर्ण हो जानी है। तात्पर्य यह है कि ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में कषाय का उदय नहीं रहना । अतएव उस समय कषाय के निमित्त से होने वाले स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध का भी अभाव हो जाता है। किन्तु योग की विद्यमानता के कारण प्रकृति बन्ध और प्रदेशबन्ध उस समय भी होता है। अर्थात् घोग के कारण कदालिक बंधते हैं और उनमें विभिन्न प्रकार के स्वरूप भी उत्पन्न होते हैं किन्तु कषाय के अभाव के कारण वे न आत्मा में ठहरते हैं और न फल ही प्रदान कर सकते हैं। इसी कारण यहां कहा गया है कि ऐपिथिकी क्रिया प्रथम समय में મથી જાણવા મેગ્ય હોય છે) બંધાય છે. અને પૃષ્ટ થાય છે. બીજા સમયમાં વેદન કરાય છે. અને ત્રીજા સમયમાં નિજીર્ણ થઈ જાય છે. તાપર્ય એ છે કે-અગ્યારમાં બારમા અને તેરમાં ગુણસ્થાનમાં કષાયને ઉદય થતું નથી, તેથી જ એ સમયે કષાયન નિમિત્તથી થવાવાળા સ્થિતિ બંધ અને અનુભાગ બંધને પણ અભાવ થઈ જાય છે, પરંતુ રોગના વિદ્ય માન પણુથી પ્રકૃતિબંધ અને પ્રદેશ બન્ધ એ વખતે પણ હોય છે. અર્થાત્ ગના કારણે કમંદલિક બંધાય છે. અને તેમાં જુદા જુદા પ્રકારના સ્વભાવે પણ ઉત્પન્ન થાય છે. પરંતુ કષાયના અભાવના કારણે તેઓ આત્મામાં રહેતા નથી, અને ફળ પણ આપી શકતા નથી. એ જ કારણથી અહિયાં કહેવામાં આવ્યું છે કે-ઐર્યાપથિકી ક્રિયા પ્રથમ સમયમાં બદ્ધ અને સ્કૃષ્ટ For Private And Personal Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् २१५ काले अाम्मे यादि भाइ' सैर-पूर्वोक्ता क्रिया एपकाले-चतुर्पक्ष गे अमर्मता चाऽपि भवति-कर्मसंज्ञामपि परित्यजति ‘एवं खलु तम्स' एवं खलु तस्य-वीतरा. गस्थ-ऐपिथिकी क्रिया भवति तप्पत्तियं तत्पत्पयिक-ऐपिथक नजन्यम् 'सावज' सावधं कर्म 'त्ति आहज्जा' इत्माधीयो-सा-पद्यते वीरागस्याऽपि 'तेरसमे किरियाणे ईरियावहिए' त्रयोदश क्रिशस्थानमै पथिकम् 'त्ति आहिज्जइ' इत्याधीयते-इत्याख्यायते 'से बेमि' तदहं ब्रीमि-कथयामि-सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वाभिनं पति कथयति-तीर्थ करोदीरितं क्रिया-थानं तुभ्यमहं कथ यामि, 'जे य अतीता-जे य पडुप्पन्ना जे य आगमिस्सा' ये चाऽगीता:-ये च प्रत्युत्पन्नाः-ये च भविष्यन्तो-भविष्यकाले भविष्यन्ति। 'अरिहंना भारता' आर्हन्तो भगवन: 'सव्ये ते एयाई वेव किरियट्ठाणाई' सर्वे ते तीकरा:-रतानिचैव त्रयोदशक्रियास्थानानि 'भासिमु' अमाषिषुः भापितवन्तः, 'भासे ति' भाषन्ते बद्ध एवं स्पृष्ट होती है दूसरे समय में सिर्फ प्रदेशों से (अनुभाग से नहीं) उसका वेदन होता है और तीप्तरे समय में निर्जग हो जाती है। तत्पश्चात् चतुर्थ आदि समयों में उसकी कर्मसंज्ञा भी नहीं रह जाती। इस प्रकार उस निष्कपाय बीतराम पुरुष को ऐपिथिकी क्रिया होती है और उसके निमित्त से उसे सावध कर्म होता है। यह तेरहवां ऐर्यापथिक क्रियास्थान कहलाता है। - श्री सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं--हे जम्बू ! तीर्थ कर द्वारा प्ररूपित क्रियास्थान मैंने तुम्हें कहे हैं। जो तीर्थकर भूनकाल में हो चुके हैं, वर्तमान में है और भविष्य में होंगे, उन सभी अरिहन्त भगवन्तों ने यही तेरह क्रियास्थान कहे हैं, कहते हैं और कहेंगे। થાય છે. બીજા સમયમાં કેવળ પ્રદેશોથી (અનુ માગથી નહીં, તેનું વેદ થાય છે. અને ત્રીજા સમયમાં તેની નિર્જરા થાય છે. અર્થાત્ તેની કર્મ સંજ્ઞા પણ રહેતી નથી. આ રીતે તે કષાય વિનાના વીતરાગ પુરૂષને ઐય પથિકી ક્રિયા હોય છે, અને તેના નિમિત્તથી તેને સાવધ કર્મ થાય છે. આ તેરમું ઐર્યાપયિક ક્રિયાસથાન કહેવાય છે. શ્રી સુધર્માસ્વામી બૂસ્વામીને કહે છે કે – હે જરબૂ તીર્થકર દ્વારા પ્રરૂપિત ક્રિયાસ્થાન મેં તમને કહ્યા છે, જે તીર્થકર ભૂતકાળમાં થઈ ચુક્યા છે. વર્તમાનમાં છે. અને ભવિષ્યમાં થનારા સઘળા અરિહંત ભગવતેએ આ તેર याथान हा छ. हे छ, भने डेसे. तेनु प्रतिपादन थुछ, अरे छे. For Private And Personal Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्र 'भासिरसंति वा' भाषिष्यन्ते वा 'पन्नधिमु वा' प्रानिज्ञान् वा पनर्विति वा' प्रज्ञापयन्ति था 'पनविरसंति वा प्रज्ञापयिष्यन्ति वा, न केलं कथितवन्तः, कथयन्ति, कथयिष्यन्ति, किन्तु-तस्याचरणमपि स्वयं कुर्वन्ति धर्मस्याचार्यस्वात्, आचार्यलक्षणं चोक्तम् 'आचिनोति च शास्त्रार्थ माचारे स्थापयत्यपि । स्वयमाचरते यस्मादाचार्यहतेन स रगृतः ॥१॥ इत्येव दर्शयलि-वं चेत्र तेसमं किरियाण' एवमेव च त्रयोदशं क्रिया स्थानम् ‘सेवियु सेविलवन्त:-प्रतीतास्तोर्यकराः, 'सेति' सेवन्ते-दर्तमाना स्तीर्थकराः, ‘से विस्वति या' सेविष्यन्ते- भनागता तशा इति॥१४ २९॥ - मूलम्-अदुत्तरं च णं पुरिसवि अयं विषंगमाइक्खिस्सामि, इह खलु णाणापण्णाणं जाणाछंदाणं णाणातीलाणं णाणादिहीणं णाणारगं जाणारंभाणं णागाझवसाणसंजुत्तागं जाणाविहपावसुयज्झयणं एवं भवइ, तं जहा-भोमं उपायं सुविणं इन्हीं का प्रतिपादन किया है, करते हैं और करेंगे। वे इसी के अनुसार स्वयं आचरण करते हैं क्योंकि वे धर्माचार्य हैं। आचार्य का लक्षण इस प्रकार कहा गया है-जो शास्त्र के अनुसार स्वयं आचरण करता है और दूसरों को भी आचरण में स्थापित कराता है वह आचार्य कहलाता है। इस प्रकार भूत काल में जो तीर्थ कर हुए हैं उन्होंने इसी तेरहवें क्रियास्थान का सेवन किया है, वर्तमान कालीन तीर्थंकर भगवान् इसी का सेवन करते हैं और भविष्यत् कालीन तीर्थ कर भगवान् इसी का सेवन करेंगे ॥१४॥ અને કરશે. તેઓ આજ પ્રમાણે સ્વયં આચરણ કરે છે કેમકે તેઓ ધર્માચાર્ય છે. આચાર્યનું લક્ષણ આ રીતે કહેલ છે. જે શાસ્ત્ર પ્રમાણે સ્વયં આચરણ કરે છે, અને બીજાને પણ આચરણમાં સ્થાપિત કરે છે, તે આચાર્ય કહેવાય છે, આ પ્રમાણે ભૂતકાળમાં જે તીર્થકર થયા છે, તેઓએ આ તેરમા ફિયાસ્થાનનું સેવન કર્યું છુ, વર્તમાન કાળના તીર્થકર ભગવદ્ આનું જ સેવન કરે છે. અને ભવિષ્ય કાળના તીર્થંકર ભગવાન્ આનું જ સેવન કરશે. ૧૪ For Private And Personal Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१७ सार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् अंतलिक्खं अंगं सरलक्खणं वंजणं इत्थिलक्षणं पुरिसलक्खणं हयलक्खणं गयलक्खणं गोणलक्खणं मिंढलक्खुर्ण कुक्कुडलक्खणं तित्तरलक्खणं वट्टगलक्खणं लावयलक्खणं चक्कलक्खणं छत्तलक्खणं चम्मलक्खणं दंडलक्खणं असिलक्खणं मणिलक्खणं कागिलिक्खणं सुभगाकरं दुब्भगाकरं गब्भाकरं मोहणकरं आहव्वणि पागसासणि दव्वहोमं खत्तियविज्जं बंद परियं सूरचरियं सुकवरियं बहस्सइचरियं उक्कापायं दिसादाहं मियचकं वायसपरिमंडलं पसुबुद्धिं केसवुद्धि संसवुद्धिं रुहिरवुद्धि वेताल अद्ववेताल ओसोवणि तालुग्घाणि सोवागि सोवरिं दामिलिं कालिगं गोरिं गंधारिं ओवतणि उप्पयणि जंभणि थंभणि लेसणि आमयकरणि विसल्लकरणि पक्कमणि अंतद्भाणि आयमिणि एवमाइयाओ विज्जाओ अन्नस्स उं परंजंति पाणस्स हेउं पउंजंति वत्थस्स हेउं पउंजंति लेणस्स हेडं परंजंति, सयणस्स हे पउंजंति अन्नेसि वा विरुववाणं कामभोगाणं हेउं परंजंति, तिरिच्छं ते विज्जं सेवेंति, ते अणारिया विप्पडिवन्ना कालमासे कालं किवा अन्नयराई आसुरियाई किव्वसियाई ठाणाई उववत्तारो भवंति तओऽवि विप्पमुच्यमाना भुज्जो एलम्यत्ताए तमअंधयाए पञ्चायति ॥सू० १५ ॥ ३० ॥ छाया - अत उत्तरं च खल पुरुषविजयं विभङ्ग माख्यास्यामि इह खलु - नानामज्ञानां नानाच्छन्दसां नानाशीलानां नानादृष्टीनां नानारुचीनां नानारम्भाणां नानाऽध्यवसानसंयुक्तानां नानाविधपापश्रुताध्ययनमेवं भवति । तथा भौमम्, उत्पातम् स्वप्नम्, आन्तरिक्षम् आङ्गम्, स्वरलक्षणम्, व्यञ्जनम्, स्त्रीलक्षणम्, सू० २८ For Private And Personal Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - २१८ सूत्रकृताङ्गसूत्र पुरुषलक्षणम्, हालक्षणम्, गजलक्षणम्, गोलक्ष गम्, भेषलक्षणम्, कुक्कुटलक्षणम्, तित्तिरलक्षणम् वर्तकलक्षणम्, लाक्कलक्षणम् चकलक्षणम्, छत्रलक्षणम्, चर्मलक्षणम् दण्डलक्षणम्, असिलक्षणम्, मणिलक्षणम्, काकिलीलक्षणम्, सु सगाकरीम्, दुर्भगाकरीम्, गर्भकरीम, मोहन करीम्, आथर्वगी, पाकशाहनीम्, द्रव्यहोमम्, क्षत्रियविधाम्, चन्द्रचरितम्, सूर्यचरितम्, शुक्रचरितम्, वृहस्पतिचरितम्, उल्कापातम्, दिग्दाहम्, मृगचक्रम्, वायगपरिमण्डलम्, पांसुवृष्टिम् केशष्टिम्, मांसवृष्टिम् रुधिरसृष्टिम्, बैतालीम् अर्धवैताली, उपस्वापिनीम्, तालोद्घाटनीम्, श्वापाकीम्, शाम्बरीम्, द्राविडीम्, कालिङ्गीन, गौरीम्, गान्धारोम्, अपितुलीम्, उत्पतनीम्, जम्भगी, स्तम्भनीम्, श्लेषणीम्, आमयकरणीम्, विशल्यकरणीय, प्रक्रामणीम्, अन्तर्धानीम्, आयमनीम् एव मादिकाः विद्याः अन्नस्य हेतोः प्रयुञ्जते, पानस्य हेतोः प्रयुजते वस्त्रस्य हेतोः प्रयुञ्जते लपनस्य हेतोः प्रयुञ्चते शयनस्य हेतोःप्रयुञ्जते, अन्येषां वा विरूपरूपाणां कामभोगाना हेतोः प्रयुनते, तिश्वीनां ते विद्या सेवन्ते ते अनार्याः विपतिनाः कालभासे कालं कृत्वा अन्यतरेषु आसुरि केषु किल्लिषिकेषु स्थानेषु उपपत्तारो भवन्ति, सगोऽपिदि मुलाः भूयः - एलमूकस्वाय तमोऽधरवाय प्रायान्ति' ॥१५-३०॥ टीका-पापप्रत्ययिक क्रियास्थानं निरूपितम्, अतः परं यया विद्यया पुरुषो विजयी भवति, अथवा-याम वेश्यति, तामेव विद्यामुपदर्शयितुमाह'अत्तरं च ' इत्यादि, अत उत्तरं च '' इति वाक्यालङ्कारे 'पुरिसविजयं' पुरुषविजयम् विभंगमाइक्खिस्साम विभङ्ग-संक्षारकारमज्ञानम् आख्यास्यामिकथयिष्यामि, इह-अस्मिल्को के खलु-दि वाक्यालङ्कारे, निश्चयार्थे वा 'पाणापण्णाणं' नानाप्रज्ञानाम्-अनेकाकारमतिमनार ‘णाणा छंदाग' नानाछन्दसाम् ...' 'अदुत्तरं च णं' इत्यादि। टीकार्थ--पाप के कारणभूत क्रियास्थानों का निरूपण किया गया। इसके अनन्तर उस विद्या को दिखलाते हैं जिसके कारण पुरुष विजयी होता है या जिसकी वह अन्वेषण करता है। इस संसार में अनेक प्रकार की बुद्धि वाले, अनेक प्रकार के ‘अदुचरं च णं' त्यादि ટીકાર્થ–પાપના કારણભૂત કિયાસ્થાનેનું નિરૂપણ કરીને હવે એ વિદ્યા બતાવે છે કે-જેના કારણે પુરૂષ વિજયવાળે થાય છે, અથવા જેનું તે અને g-५ ४२ छ, ते विद्या मतावे छे.- આ સંસારમાં અનેક પ્રકારની બુદ્ધિવાળા અનેક પ્રકારના અભિપ્રાય For Private And Personal Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. ध्रु. अ. २ क्रियास्थान निरूपणम् - अनेक विधामा 'पान सीलार्ण' नानाशीलानाम् अनेकस्वभावानाम् 'गागादिटीज' मानाष्टीनाम् अनेकप्रकारका प्रेमताम् ' गाणारुईण' नानारुची - नाम् 'गाणारंभाणं' नानाऽऽरम्माणाम् - अनेकप्रकारकाऽऽरम्भवताम् 'णाणाज्झत्रसाणसंजुत्ताणं' नानाऽध्ययुक्तानाम्-माति कश्चन वस्त्रविक्रेता कचिद् भाण्डादीनामदर्ता, as अपितु विलक्षण पर सर्व 'णाणाविश्वावसुवज्झणं' नानाविधान एवं भत्र' एवं भवति, भवन्ति हि नानाविधाः पुरुषाः, ते स्वाऽभिप्रायेणाऽनेकम कारकपापजनकं श्रुध्ययनं कुर्वन्तो दृश्यते 'तं जहा' तद्यथा पापाः विद्याः पुरुषै रुपादीयन्ते विजयाय - ऐहिकफदोष नोगाय, तास्ता एवं परिणयन्ति नैवाभिधाभिः परलोके आत्मकल्याणं भवति. प्रत्युताऽऽभिः परलोको हीयत एव एतादृशविद्याभ्यासिनां विद्यामधिकृत्य जीवनयात्रा निहतृणां मोक्षन्तु दुराऽपेत इव भवति । ते अभिप्राय वाले अनेक प्रकार के शीलस्वभाव या आचार वाले अनेक प्रकार की दृष्टिवाले अनेक प्रकार की रूचि वाले, अनेक प्रकार के आरंभ वाले और अनेक प्रकार के अध्यवसाय वाले पुरुषों में कोई वस्त्र बेचता है तो कोई बरतन आदि लाता - वेचता है । सब एक प्रकार के मनुष्य नहीं होते। सभी एक दूसरे से विलक्षण होते हैं। अतएव वे अपनी-अपनी रूचि के अनुसार अनेक प्रकार के पापों का अध्ययन करते देखे जाते हैं । इस लोक संबंधी फल का उपभोग करने के लिए लोग जिन पाप विद्याओं को ग्रहण करते हैं, उन्हें यहाँ गिनाया जाता है। ऐसी विद्याओं से परलोक में आत्मकल्याण नहीं होता, परन्तु इनसे परलोक बिगड़ना ही है। जो इन विद्याओं का अभ्यास करते हैं और इन्हीं के सहारे जीवन निर्वाह करते है मोक्ष उनसे दूर વાળા, અનેક પ્રકારના શીલ-સ્વભાવ અથવા અચારવાળા, અનેક પ્રકારની રૂચિજાળા, અનેક પ્રકારના મારભવાળા અને અનેક પ્રકારના અધ્યવસાયવાળા, પુરૂષામાં કાઈ વસ્ત્ર વેચે છે, તે કોઇ વાસણ વગેરે વેચે છે, સઘળા મનુષ્યા એક પ્રકારના હાતા નથી. બધાજ એક બીજાથી વિલક્ષણ પ્રકારના હોય છે. તેથી જ તેઓ પોત પેતાની રૂચિ પ્રમાણે અનેક પ્રકારના પાપશ્રુતે તું અધ્યયન કરતા જોવામાં આવે છે આ લેક સંબધી ફળના ઉપભોગ કરવા માટે લેકે જે પાપ વિદ્યાને ગ્રણ કરે છે, તેને અહિયાં ગણાવવામાં આવે છે, એવી વિદ્ય.એથી પરલાકમાં આત્મકલ્યાણ થતું નથી, પરંતુ તેનાથી પરલેાક બગડે જ છે. જેએ આ વિધાઆના અભ્યાસ કરે છે, અને તેના જ આશરાથી જીવનના નિર્વાઠું કરે છે, મેક્ષ તેનાથી દૂર જ રહે છે For Private And Personal Use Only २१५ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे पताभि विद्यामि रैहिकफलमवाप्य मरणोत्तरकाले पापीयान् स परलोके पाप फल समनुभूय पुनः पापीयसी योनि मधिगच्छन्तो न कथमपि संसारचक्रं मतिक्रामन्ति । अतो मरणोत्तरमासां दुष्टफलं ज्ञात्वा विवेकिनस्ततो निवर्तन्ते, ता एवं विद्याःमन्दबुद्वीनां रुचिकराः, तद्यथा-भौमम्, भूमिसम्बन्धिशास्त्रम्, येन भूकम्पप्रभृतिवस्तूनां शुभाऽशुभं सूच्यन्ते, 'उप्पायं' उत्पातम्-उल्कापात:दिवाजम्बूकरोदनम्- गवां नेत्राभ्यां जलस्रवम् लाङपाल/कृत्य पलायनम् इत्येते उत्पाता वाच्या:-ते यत्र शिक्ष्यन्ते, तच्छाखमुत्पातशास्त्रम् ‘सुरिण' स्वप्नम् -तत्फलशुभाशुभकथनम्, 'अंतलिक्ख' आन्तरिक्षम्-अन्तरिक्षे संभवतां ही रहता है ! इन विद्याओं के द्वारा इह लोक संबंधी फल प्राप्त करके पापी पुरुष मृत्यु के पश्चात् परलोक में पाप का फल भोगता है और पुनः अत्यन्त पापमयीयोनि में जाता है। इस प्रकार वह इस संसार चक्र से बाहर नहीं निकल सकता। अत एव विवेकी जन इन विधाओं को कर्मबन्ध का हेतु जान कर त्याग देते हैं। मन्द बुद्धियों को वही विद्या रूचिकर होती है। वह पाप-विधाएं इस प्रकार हैं (१) भौम-भूमि संबंधी शास्त्र, जिससे भूकम्प आदि का शुभ या अशुभ फल सूचित होता है। (२) उत्पात-दिनमें सियारों का कदन करना, गायों के नेत्रों से आंसू बहना एवं उनका पूंछ उपर उठाकर भागना इत्यादि उत्पातों का जिस में वर्णन किया जाता है वह उत्पात शास्त्र है। (३) स्वप्न-स्वप्नों का शुभ-अशुभ फल कहने वाला शास्त्र । (४) आन्तरिक्ष-आकाश में होनेवाले मेघ आदि का આ વિદ્યાઓ દ્વારા આ લેક સંબંધી ફળ પ્રાપ્ત કરીને પાપી પુરૂષ મૃત્યુ પામ્યા પછી પરાકમાં પાપનું ફળ ભેગવે છે, અને ફરીથી અત્યંત પાપમય એનિમાં જન્મ લે છે. આ રીતે તે આ સંસાર ચક્રથી બહાર નીકળી શકતું નથી, તેથી જ વિવેકી મનુ આ વિદ્યાઓને કર્મ બંધના હેતુ રૂપ માનીને તેને ત્યાગ કરે છે. મંદ બુદ્ધિવાળાઓને એજ વિઘા રૂચિકર હોય छ. ते ५.५विधाये। या प्रमाणे छे. (૧) ભૌમ-ભૂમિ સંબંધી શાસ્ત્ર, કે જેનાથી ધરતીકંપ વિગેરેનું શુભ અથવા અશુભ ફળ સૂચિત થાય છે. (૨) ઉત્પાત-દિવસમાં શિયાળવાનું રૂદન (રડવું) કરવું. ગાની આંખોમાંથી પાણી વહેવા, તથા તેમના પુંછડા ઊંચે લઈને ભાગવું. વિગેરે ઉત્પાતનું જેમાં વર્ણન કરવામાં આવે છે, તે ઉત્પાતા શાસ્ત્ર કહેવાય છે. (૩) સ્વપ્ન-સવપ્નાઓનું શુભ અથવા અશુભ ફળ બતાવવા વાળું શાસ્ત્ર (૪) આરીક્ષ-આકાશમાં થવાવાળા મેઘ વિગેરેનું જ્ઞાન જેનાથી For Private And Personal Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२१ समथार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् मेघादीनां ज्ञानं यतो जायते-तदानरिक्षं शास्त्रम् आकाश सम्बन्धि वस्तुसूचकम् 'अंग' आङ्गम् अङ्ग सम्बन्धिशास्त्रम्, येन नेत्रस्फुरणादीनां शुभाऽशुभं ज्ञायते, नेत्रबाहुभ्रकुटिपादादीनां स्फुरणं तत्फलश्चेत्यादिः । 'सरं' स्वरम्-शब्द:-काकशृगालादीनां शब्दं श्रुत्वा तत्फलपापकं शास्त्रम् । 'लकवर्ग' लक्षणम्-हस्तपादादौ यत्रतिलशं वचकादीनां फलयोधकं लक्षगशास्त्रम् 'बंजगं' पञ्जनम् -पुरुषादिशरीरे मसतिलादि प्रख्यापकं शास्त्रम् । 'इस्थिलकावणं' स्त्री लक्षगम्-पद्मिनी-शविनीचित्रिणी-हस्तिनीत्यादिप्रभेदमख्यापकं तत्फलबोध शास्त्रं स्त्रीलक्षणम् 'पुरिसलक्खणं' पुरुषलक्षगम्-पुरुषाणामनाऽशषभशशक भेदानां फलबोधकं शास्त्रम् । 'हयलक्खणं' हयलक्षणम्-अश्वानां स्वरूपबोधकम् शास्त्रम् 'गयलक्खगं' गजलणम्-इमे समीचीना असमीचीनाश्च त्यादि बोधकम् । 'गोलक्खणं' गोलक्षणम्ज्ञान जिससे होता है ऐसा आकाश संबंधी कथन करने वाला शास्त्र। (५) आंग-अंग संबंधी शास्त्र, जिससे नेत्र आदि के फड़कने का ज्ञान होता है, अर्थात् नेत्र, बाहु, भृकुटि तथा पैर आदि के फरकना तथा उसका फल जाना जाता है। (६) स्वर-काक, शृगाल आदि के शब्दों को सुनकर उसका फल कहने वाला शास्त्र । (७) लक्षण-हाथों पैरों आदि में जौ तिल शंख चक्र आदि के फल को बताने वाला शास्त्र । (८) व्यंजन-शरीर के मस तिल आदि का फल कहने वाला शस्त्र । (९) पद्मिनी शंखिनी चित्रिणी हस्तिनी आदि भेद कहने वाला तथा उनके लक्षण आदि कहने वाला शास्त्र। (१०) पुरुष लक्षणपुरुषों के अज, अश्व, वृष, शशक आदि भेद और उनके लक्षण याय छ, मेवु मा समधी ४थन ४२वावाणु शास्त्र (५) मांग-मग સંબંધી શાસ્ત્ર, કે જેનાથી નેત્ર ફરકવા વિગેરેનું જ્ઞાન થાય છે; અર્થાત આંખ, બાહુ-હાથ, ભ્રકુટિ ભરે; તથા પગ, વિગેરેના ફરકવાનું જ્ઞાન થાય छ, तथा तन! नुन थाय छ, (6) १२-११, शिया वगेरेना શને સાંભળીને તેનું ફળ બતાવવા વાળું શાસ્ત્ર. (૭) લક્ષણ-હાથે પગે વિગેરેમાં જે તલ, શંખ, ચક વિગેરેના લક્ષણે હોય છે. તેના ફળનું નિરૂપણ કરવાવાળું શાસ્ત્ર (૮) વ્યંજન-શરીરના મસ, તલ, વિગેરેનું ફલ બતાવવા पाणु शास्त्र, (८) स्त्री १४-५मिनी, शमिनी, रित्रिी मिनी विशेरे ભેદ બતાવનારું તથા તેના લક્ષણે વિગેરેનું નિરૂપણ કરવાવાળું શાસ્ત્ર (૧૦) પુરૂષલક્ષણ પુરૂષના અજ-બરે અધ, ઘડે. વૃષ સસલે, વિગેરેના ભેદ . અને તેના લક્ષણે વિગેરેનું નિરૂપણ કરવાવાળું શાસ્ત્ર (૧૧) હય લક્ષણ For Private And Personal Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२२ सूत्रकृताङ्गसने गवां भेदादिपरिचायकं शास्त्रम् । 'मिंढकलणे' मेपलक्षणम्-अनाऽऽविषभृतीनां बोधकं शास्त्रम् ' कुदलक्खी' कुक्कुट लक्षणम् अक्कुदस्वरूपगुणस्वादीणां बोधक शाखा । 'तिवरला वग' तितिर लक्षण वर्गवत कलक्षाग-वर्तक-कल. हंसः तस्य लक्षणवोधकं शास्त्रम् वता' इति लोके प्रसिद्धः । 'लवपलक्ख गं' लावलक्षण लव-क्षिविशेष:-बट काऽपेक्षाऽदिलघुवित्तमारश्च 'छत्तल. क्ख छ लक्षणम् 'चकलकवणं' चक्र लक्षणम् 'चम्बलक वंग' चर्मलक्षणम् -चर्मणः स्वरूपचिह्न पुगपतिपादकं शास्त्रम्-चौलक्षणम् ‘दंड लस्वर्ग' दण्डलक्ष गम्-दण्डस्य-यष्टि काया:स्वरूपबोधक शास्त्रं दण्डलक्षणम्। 'असिलाखां' असिलक्ष गम्असिः -खगः तद्बोधकं शास्त्रम् असिलामम् 'मणिलक वर्ग' मणीनाम्-मरकत पक्षरागाहीना बोध कार शस्त्रं प्रणिलभगम् । 'कागिणिला वर्ग' काकिगीलक्षणम् , तत्र काकिणी-'कौडो' इति भावा प्रसिद्धा 'सुपगारं' सुमगाकरी आदि निरूपण करने वाला शास्त्र । (११) हय लक्षण-घोड़ों का स्वरूप कहने वाला शास्त्र । (१२. गज लक्षग-हाथियों के शुभाशुभ लक्षग कहने वाला शास्त्र । (१३) गोलक्षग-गायों के भेदादि कहने वाला शास्त्र। (१४) मेष लक्षा-मेढे के लग प्रतिपादन करने वाला शास्त्र। (१५) कुक्कुट लक्ष ग-नुर्गे के स्वरूप, गुग और स्वर आदि कहने वाला शास्त्र । (१६) तित्तिा लक्षा-नितुर संबंधो शात्र । (१७) वर्तक लक्षग-यता के लक्षा करने वाला शात्र । (१८) लावक लक्ष गचिड़िया से भी छोटे परन्तु उल जैसे लावक पक्षी के लक्षण कहने वाला शास्त्र, (१९) छत्र लक्षण (२०) चक्र लक्ष ग (२१) चर्म लक्षणचर्म के स्वरूप, चिह्न एवं गुग कहने वाला शास्त्र (२२) दण्ड लक्षग (२३) असिलक्षग (२४) मणि लक्षण (२५) काकिणी (कोड़ी) लक्षग ઘેડાઓનું સ્વરૂપ બનાવવાવાળું શાસ્ત્ર, (૧૨) ગજ લક્ષણું-હાથિયાના શુભ અથવા અશુભ લક્ષણ બતાવવા વાળું શાસ્ત્ર (૧૩) ગે લક્ષણ-ગાયોના ભેદ વિગેરે બતાવવા વાળું શાસ્ત્ર (૧૪) મેલસણું ઘેટા એનું લક્ષ બનાવવાવાળું શ સ્ત્ર. (૧૫) કુકુટ લસણ-કુકડાઓને સ્વરૂપ અને ગુણ, સ્વર વિગેરે ભેને બતાવना३शख (१६) तित्ति? ३३ - त२ सधी शास्त्र (१७) पत सक्षा-15ना લક્ષણે બતાવવા વાળું શાસ્ત્ર (૧૮) લવક લક્ષણ-ચલીથી પણ નાનું પરંતુ તેના જેવા લાવક પક્ષિઓના લક્ષણે બતાવવા વાળું શાસ્ત્ર (૧૯) છત્રલક્ષણ (२०) २४१३५ (२१) यम क्षय (२२) सक्ष (२३) अभिलक्ष (२४) મણિલક્ષણ (૨૫) કાકિણી (કડી) લક્ષણ (૨૬) સુભાગાકર-અસુંદરને સુંદર For Private And Personal Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका वि.थु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् विद्याम्, सु-सुन्दरो भगो यस्याः सा सुभगा, तां करोति-दुर्भगापि सुभगां निर्माति, इत्थं भूनां विद्याम्, 'दुभगाकर' दुभंगाकरीम्-शुरूपापि निन्दितरूपां करोति या सा दुर्भगाकरी ताम् 'गाकर' गर्थ करी-पस्या गर्मो न भवति तस्यै गर्मदात्रीम् 'मोदणकर' मोहनकीम् यथा विद्यमा पुरुष: स्त्री का उौ मोहितो भवतः ताम् 'आहत गि' आणीम्-जगद् विध्वंसकारिणीम् वागतासमि' पाक शासिनीम्-इन्द्रजाल विद्यामित्यर्थः, 'दवहोम' द्रव्यहोमम्-केषांश्चित् पाणिनामु चाटनाय यया मधुघृतादि-द्रव्येण होमो जायते साता विद्याम् ‘खत्तियविज्ज' क्षत्रियविद्याम्-अस्त्र शस्त्रवतीम्-अणुशक्तिवती या चंदवरिय' चन्द्रचरितम्-शीवर्ध नम्, येन शील देगेन वेपमानानि परसैन्यानि समराद् विमुखी भवन्ति । 'सूरचारियं' सूर्यचरितम्-सूर्य वैशिष्टयबोधनम् 'सुक्कचरिय' शुकचरितम्, शुक्रग्रहस्य गतिपतिपादकं शास्त्रम् 'रहस्पहचरियं बृहस्पतिचरितम् "उकापाय' उल्कापातः -तद्वद् विस्फोटकद्रव्यानपातः, "दिस्दा दिग्दाहम् 'मियचक्कं' मृगचक्रम्(२६) सुगाकर-असुन्दर को सुन्दर बना देने वाली विद्या (२७) दुर्भगाकर-सुन्दर को असुन्दर (कुरूपा) बनाने वाली विद्या (२८) गर्भ करी-गर्भवती बनाने वाली विद्या (२९) मोहन करी-स्त्रियों और पुरुषों को मोहित करने वाली विद्या (३०) आधर्वणी-जगत् का विध्वंस करने वाली विद्या (३१) पाकशासनी-इन्द्र जाल (३२) द्रव्य होमउच्चाटन करने के लिए मधु धृत आदि द्रव्यों का होन करने की विद्या (३३) क्षत्रियविद्या शस्त्रास्त्र संबंधी विद्या (३४) चन्द्रचरितचन्द्रमा की गति-चार-को कहने वाली विद्या (३५) सूर्यचरित-सूर्य के चार आदि को कहने बाली विद्या (३६) शुक्र चरित (३७) वृहस्पति चरित (३८) उल्कापात को कहनेवाला शास्त्र (३९) दिग्दाह-दिशादाह कहने वाला शास्त्र (४०) मृगचक्र-ग्राम प्रवेश के समय जानवरों के બનાવવા વાળી વિદ્યા “૧૮ દુર્ભાગાકર-સુંદરને અસુંદર “કદરૂપ બનાવવા વાળી વિદ્યા “૨૮' ગર્ભકરી-કર્ભવતી બનાવવા વાળી વિદ્યા “૨૯ મહુનકરી. સ્ત્રિ અને પુરૂષને મેહ પમાડવા વાળી વિદ્યા ૩૦' આથર્વણ-જગતને नाश ४२वाणी विधा (३१) शासनी- 1 (3२) द्रव्यम-अश्या ટન કરવા માટે મધ, ઘી વિગેરે પદાર્થોને તેમ કરવાવાળી વિદ્યા (૩૩) ક્ષત્રીય વિદ્યા-શસ્ત્રાગ્ન સંબંધી વિદ્યા (૩૪) ચન્દ્રચરિત-ચદ્રમાની ગતિચાર બતાવનારી વિદ્યા (૩૫) સૂર્યચરિત-સૂર્યના ચાર વિગેરેને બતાવવા વાળી विधा (३१) २४यरित्र (३७) यूपति यरित्र- (३८) Seztuid माया For Private And Personal Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२४ सूत्रकृतागसूत्रे वन्याः पशवो यदा ग्रामं प्रविशन्ति तेषां शुभाऽशुभफलपतिपादकं शास्त्रम्, मृगचक्रमित्यभिधीयते, 'वायसपरिमंडलं' वायपपरिमण्डलम्, काकादिपरिवर्तन संम्. चिताऽरिष्टज्ञापकं शास्त्रम् पंसुवुट्टि' पांसुवृष्टिम् धूलिवृष्टेः फलपतिपादकं शास्त्रम्, 'केसवुट्टि' केशष्टिम् केशवर्षणफलपतिपादकं शास्त्रम् 'मंसर्टि' 'मांसवृष्टिम्-मांसवर्षणननि तफल गरिपादक शास्त्रम् 'वेतालिं' वैशालीम्. यस्या विद्याथाः संसिद्धौ - सत्यां काष्ठादावपि अचेतने चेना प्रवर्तते 'अद्धवे. तालि' अर्द्धवैतालीम्-वैताली विद्यायाः प्रतिपक्षभूताम् 'ओसोगि' अपस्वापिनीम्निद्राकारिणीम् 'तालुग्घाडगि' तालोद्घाटनीम् 'सोवाणि' श्वापाकीम्-चाण्डलविद्या मित्यर्थः, 'सोवरि' शाम्बरीम्-शम्बरसम्बन्धिनी विद्याम् दामिलिं' द्राविडीम् 'कालिंगि' कालिङ्गीम् 'गोरि गौरीम् 'गंधारि' गान्धारीम् 'ओ तागि' दिखने का फल प्ररूपित करने वाला शास्त्र (४१) वायसपरिमंडलकाक आदि पक्षियों की बोली का फल कहने वाला शास्त्र (४६) पांशुवृष्टि-धुलिवर्षा का फल निरूपण करने वाला शास्त्र (४३) केश वृष्टि-केश वर्षा का फल कहने वाला शास्त्र (४४) मांसवृष्टि का फल कहने वाला शास्त्र (४५) रुधिरवृष्टि का फल कहने वाला शास्त्र (४६) वैताली-जिस विद्या से अचेतन काष्ठ में भी चेतना आ जाती दीखती है (४७) अर्द्ध वैताली-वैताली विद्या की विरोधिनी विद्या (४८) अवस्वापिनी-जिससे जागता हुआ मनुष्य सो जाता है। (४९) तालोद्घाटनी-ताला खोल देने वाली विद्या (५०) श्वपाकी-चाण्डाल विद्या (५१) शाम्बरी-शंबर संबंधी विद्या (५२) द्राविडी विद्या (५३) कालिंगी विद्या (५४) गौरी विद्या (५५) गांधारी पाणी विधा (36) हा-हा मताचा पाणु शास्त्र (४०) भृगयગ્રામ પ્રવેશના સમયે જનાવરોને જેવાના ફળને બતાવવા વાળું શાસ્ત્ર (૪૧) વાયસ પરિમંડલ-કાગડા વિગેરે પક્ષિયની બેલીના ફળને બતાવવાવાળું શાસ્ત્ર (૪૨) પાંશુવૃષ્ટિ-ધૂળ વર્ષના ફળ બનાવનારૂં શાસ્ત્ર (૪૩) કેશવૃષ્ટિ કેશवर्षाना गर्नु नि३५५ ४२वाप.गु शास्त्र (४४) मांस वृष्टि-॥र (४५) ३धिर. વષ્ટિ શાસ્ત્ર (૪૬) વૈતાલી–જે વિદ્યાથી અચેતન-સૂકા લાકડામાં પણ ચેતન આવી જાય છે. (૪) જે અર્ધવૈતાલી વૈતાલીવિદ્યાની વિરોધીની વિદ્યા (૪૮) અવસ્થાપિની જે વિદ્યાના બળથી જાગતે માણસ પણ ઉંઘી જાય છે. (૯) તાલેદઘાટની-તાઈ ઉઘાડીનાખવા વાળી વિદ્યા (૫૦) ધપાકી–ચાણડાલ વિદા (૫૧) શામ્બરી-શંબર સંબંધી વિદ્યા (પર) દ્રાવિડી વિદ્યા (૫૩) કલિંગી Iqil (५४) गौरी विधा (५५) गांधारी विद्या (५६) भ१५तनी विधा-नाये For Private And Personal Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् अवपतनीम् अधःपतनकारिणीम् ' उप्पयणि' उत्पतनीम् - ऊर्ध्वगमनकारिणीम् 'जंभर्णि' जु'भणीम् 'थंभणिं' स्तंभनीम् 'लेसणिं' श्लेषणीम् 'आमयकरिणि" आमयकरिणीम्, यथा हि विद्यया रोगः समुत्पाद्य ते, 'विसरजकरिणि" विशल्यकरणीम् - - प्राणिनां रोगापहारिणीम् 'पक्कमणि' प्रक्रामणीम् - यया भूतमेतादिभिर्वाधा ससुस्पाद्यते ! 'अंतद्धाणि' अन्तर्धानीम् - यया लोकानां चक्षुर्विषयमतिक्रामति, 'आयमिणि' आयमनीम् - ययाऽल्पमपि वस्तु बहुलीक्रियते, 'एवमाइयाओ' एवमादिकाः भौमादारभ्याऽयमनी प्रमुखाः, 'विज्जाओ' त्रियाः 'अन्नस्सहेउ' अन्नस्योदरपूरकस्य हेतोः कारणात् 'पउजंति' मयुञ्जते ते - विद्यापरिज्ञातारोऽनार्याः 'पाणस्सहेउ' पानस्य हेतो स्ताविद्याः प्रयुञ्जते, 'वत्थस्स हे पउजंति' वस्त्रस्य हेतोः प्रयुञ्जते 'लेणरस हेउ' 'उजंति' लयनस्य- गृहस्य हेतोः प्रयुञ्जते, लीयते - स्थीयते " - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विद्या (५६) अवपतनी नीचे गिराने वाली विद्या (५७) उत्पतनी ऊपर उठाने वाली विद्या (५८) जृंभणी - पगासा संबंधी विद्या (५९) स्तम्भनीस्तब्ध कर देने वाली विद्या (६०) इलेषणी विद्या - चिपका देने वाली विद्या (६१) आमयकारिणी-रोग उत्पन्न कर देनेवाली विद्या (६२) निःशल्यकारिणी - निश्शल्य निशेग बनादेने वाली विद्या (६३) प्रक्रामणी-किसी को भूत-प्रेत आदि की बाधा उत्पन्न करने वाली विद्या (६४) अन्तर्धानी -दृष्टि के अगोचर बना देने वाली विद्या (६५) आगमनी-छोटी वस्तु को बड़ा कर दिखाने वाली विद्या, इत्यादि विद्याओं का अनार्य लोग अन्न के लिए प्रयोग करते हैं, पानी के लिए प्रयोग करते हैं, वस्त्र के लिए प्रयोग करते हैं, लयन - निवास स्थान के लिए प्रयोग करते हैं भलीभलु मगासासमधीविद्या (पट) स्तम्भनी- १०६ उरी हेनारी विद्या (१०) ફ્લેશણી વિદ્યા-ચે ંટાડી દેવાવાળી વિદ્યા (૬૧) આમયકારિણી-રાગ ઉત્પન્ન કરવાવાળી વિદ્યા (૬૨) નિઃશસ્ત્ર કરણી-નિઃશલ્ય નિરોગી બનાવવાળી વિદ્યા (૬૩) પ્રસ્ક્રામણી-કોઇને ભૂત-પ્રેત વિગેરેની ખાધા ઉત્પન્ન કરવાવાળી વિદ્યા (१४) अ ंतर्धानी- दृष्टिने भगायर जनावनारी विद्या (१५) आयमनी-नानी વસ્તુને મેટી કરી ખતાવનારી વિદ્યા વિગેરે પ્રકારની વિદ્યાઓના અનાય લેાકે અન્ન માટે પ્રયેગ કરે છે. પાણીને માટે પ્રયાગ કરે છે, વસ્ત્ર માટે પ્રત્યેાગ કરે છે. તથા લયન-નિવાસ સ્થાનને માટે પ્રયેાગ કરે છે, તેમજ सू० २९ पाटनारी विद्या (१७) उत्पतनी - उपर थडाववावाजी विद्या (१८) For Private And Personal Use Only २२५ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतासो 'पुत्रकलत्रादिभिः सह यस्मिन् तल्लरनं गृहम् , तस्य हेतोः करणात् पूर्वोक्तां विद्या प्रयुञ्जते, 'सयणस्स हेउपजति' शयनस्य हेतोः-शय्याय ते प्रयुञ्जते 'अन्नेसिवा विरूवरूवाणं' अन्येषाम्-अन्नायतिरिक्तानां विरूपरूपाणामनेकरिधानाम् 'कामभो. गाणं' कामभोगानाम् 'हे' हेतोः 'पउति' प्रयुञ्जते 'ते अणारिया' ते अनार्याः 'विपडिवन्ना विपतिपन्ना 'तिरिछ तिरिश्वीनाम् 'ते विज्ज सेवेति' ते विद्या सेवन्ते, वस्तुतः इमा विद्याः परलोकपतिकूलतया नात्मकल्याणाय भवन्ति एतादृशा स्तेऽनार्याः 'कालमासे कालं किच्चा' कालमासे कालं कृत्वा 'अन्नयराई अन्यतरेषु 'आसुरियाई' आसुरिकेषु-तामसेष्विति यावत् 'किल्बिसियाई किल्लिषिकेषु 'ठाणाई' स्थानेषु 'उत्रवत्तारो भवंति' उपपत्तारो भवन्ति, 'तो वि विप्पमुच्चमाणा' सतोऽपि विषमुश्चन्तः स्वकृतकर्मणस्तत्र फलमुपभुज्य-ततो विच्युति प्राप्नुवन्तं सन्तः 'भुजो' भूयः-पुनरपि 'एलमूयत्ताए' एलमूकस्वाय-स्वाभाविकमूकतामाप्तये तथा'तम अंधयाए' तमोऽन्धस्वाय-जात्यन्धत्वाय 'पञ्चायति' प्रत्यायान्ति-पुनः पुनः संसारे एव जन्म गृह्णन्ति ॥सू०१५-३०॥ ___ यस्य नास्ति परलोकस्य चिन्ना, स हि-ऐहिकमेव सुखं बहुमन्यमानोऽनेकविधा पापक्रियां कृत्वा-धनमर्जयति, तदेव धनं सुमनसा धनमिति मनुते स पापकर्माऽनुष्ठानं परिगणयति मूलम्-ले एगइओ आयहेडं वा जाइहेडं वा सयणहेडं वा अगारहेडं वा परिवारहेउं वा नायगं वा सहवासियं वा णिस्ताए तथा अन्य अनेक प्रकार के कामभोगों के हेतु प्रयोग करते हैं। किन्तु ये विद्याएं आत्महित या परलोक से प्रतिकूल हैं। इनका सेवन करने वाले भ्रम में पड़े हैं अनार्य पुरुष मृत्यु के अवसर पर मरण करके असुर संबंधी किल्विषक स्थानों में उत्पन्न होते है। जब वहां से अपने किये कर्म का फल भोग कर चक्ते हैं तो पुनः जन्म से गूंगे और अंधे के रूप में जन्म लेते हैं और वार-चार जन्म-मरण करते हैं ॥१५॥ અન્ય અનેક પ્રકારના કામના કારણે પ્રયોગ કરે છે. પરંતુ આ વિદ્યાએ આત્મહિત અથવા પરલોકથી પ્રતિકૂળ છે. તેનું સેવન કરવાવાળા ભ્રમમાં પડેલ છે. અનાર્ય પુરૂષ મૃત્યુના અવસરે મરણ પામીને અસુર સંબંધી કિલિબષક રથનેમાં ઉત્પન્ન થાય છે. પછી ત્યાંથી પોતે કરેલા કર્મોનું ફળ ભોગવીને ચવે છે, અને ફરીથી જન્મથી ગુંગા અને આંધળાના રૂપે જન્મ લે છે. અને વારંવાર જન્મ મરણ ધારણ કરે છે. ૧૫ For Private And Personal Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ___www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् २२७ अदुवा अणुगामिए १ अदुवा उववरए २ अदुवा पडिपहिए ३ अदुवा संधिछेदए ४ अदुवा गंठिछेदए ५ अदुवा उरभिए ६ अदुवा सोवरिए ७ अदुवा वागुरिए ८ अदुवा साउणिए ९ अदुवा मच्छिए १० अदुवा गोघायए ११ अदुवा गोवालए १२ अदुवा सोवणिए १३ अदुवा सोवणियंतिए १४। एगइओ अणुगामियभावं पडिसंधाय तमेव अणुगामियाणुगामियं हंता छेत्ता भेत्ता लुपइत्ता विलुंपइत्ता उदवइत्ता आहारं आहारेइ, इइ से महया पावेहि कम्महि अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवइ। से एगइओ उवचरयभावं पडिसंधाय तमेव उवचरियं हंता छेत्ता भेत्ता लुंपइत्ता विलुपइत्ता उद्दवइना आहारं आहारेइ, इइ से महया पावेहि कम्मेहि अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवइ । से एगइओ पडिपहियभावं पडिसंधाय तमेव पाडिपहे ठिच्चा हत्ता छेत्ता भेत्ता लुंपइत्ता विलुपइत्ता उद्दवइत्ता आहारं आहारेइ, इइ से महया पावहिं कम्मेहिं अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवइ । से एगइओ-संधि छेदगभावं पडिसंधाय तमेव संधि छेत्ता भेत्ता जाव इइ से महया पावहिं कम्महिं अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवइ ।से एगइओ गंठिछेदगभावं पडिसंधाय तमेव गठिं छेत्ता भेत्ता जाव इइ से महया पावेहि कम्मेहिं अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवइ । से एगइओ उरब्भियभावं पडिसंधाय उरब्भं वा अण्णतरं वा तसं पाणं हंता जाव उवक्खाइत्ता भवइ। एसो अभिलाबो सम्वत्थ । से एगइओ सोयरियभावं पडिसंधाय महिसं वा अण्णतरं वा तसं For Private And Personal Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२८ सूत्रताको पाणं हंता जाव उवक्खाइत्ता भवइ । से एगइओ वागुरियभावं पडिसंधाय मियं वा अण्णयरं वा तसं पाणं हंता जाव उवक्खाइत्ता भवइ ।से एगइओ सउणियभावं पडिसंधाय सउणि वा अण्णयरं वा तसं पाणं हंता जाव उवक्खाइत्ता भवइ।से एगइओ मच्छियभावं पडिसंधाय मच्छं वा अण्णयरं वा तसं पाणं हंता जाव उव. क्खाइत्ताभवइसे एगइओ गोघायभावं पडिसंधाय तमेव गोणं वा अण्णयरं वा तसं पाणं हंताजाव उवक्खाइत्ता भवइ ।से एगइओ गोवालभावं पडिसंधाय तमेव गोवालं वा परिजविय परिजविय हंता जाव उवक्खाइत्ता भवइ । से एगइओ सोवणियभावं पडिसंधाय तमेव सुणगं वा अन्नयरं वा तसं पाणं हंता जाव उवक्खाइत्ता भवइ । से एगइओ सोवणियंतियभावं पडिसंधाय तमेव मणुस्सं वा अन्नयरं वा तसं पाणं हंता जाव आहारं आहारेइ, इइ से महया पावेहि कम्मेहिं अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवइ ॥सू. १६॥३१॥ . छाया-स एकतय आत्मोतो वा ज्ञातिहेतो वा शयनहे तोवो अगारहेतो. वा परिवारहेतो वा ज्ञातकं वा सहवासिकं वा निश्रित्य अथवा अनुगामिकः अथवा उपचरकः अथवा प्रतिपथिक: अथवा सन्धिच्छेदकः अथवा ग्रन्थिच्छेदक: अथवा औरभ्रिकः अथवा शौकरिकः अथवा वागुरिक अथवा शाकृनिकः अथवा मात्स्यिकः अथवा गोघातका अथवा गोपालका अथवा शौवनिकः अथवा श्वमिरन्तकः। एकतयोऽनुगामुकमावं प्रतिसन्धाय तमेव अनुगामुकाऽनुगम्यं हत्वा छित्वा भित्त्वा लोपयित्वा विलोप्य उपद्राव्य आहारमाहारयति । इति स महद्भिः पापैः कर्मभिरात्मानम् उपख्यापयिता भवति ! स एकतयः उपचरकमा प्रतिस. न्धाय तमेवोपचर्य हत्वा छित्त्वा भित्वा लोपयित्वा विलोप्य उपद्राच्य आहारमाहा For Private And Personal Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् रयति । इति स महद्भिः पापैः कर्मभिरात्मानमुपपापयिता भवति । स एकतयः पतिपथिकमा प्रतिसन्धाय तमेव प्रतिपथे स्थित्वा हत्या छित्वा भिस्वा लोपयित्वा विलोप्य उपद्राव्य आहरमाहरति इति स महद्भिः पापैः कर्मभिरात्माम् उपख्यापयिता भवति। स एकत यः सन्धिच्छेदकमा प्रतिसन्धाय तमेव सन्धि छित्वा भित्चा यावद् इति स महद्भिः पापैः कर्मभिः आत्मानम् उपख्यापयिता भवति । स एकतया ग्रन्धिच्छे इकमा प्रतिसन्धाय तामेव ग्रन्थि छित्वा मित्त्वा यावत् इति स महद्भिः पापैः कर्मभिरात्मानम् उपख्यापयिता भवति, स एकतयः औरभ्रिकमावं पतिसन्धाय उरभ्रंमा अन्यतरं वा सं पाणं हत्या यावद् उपख्यापयिता भवति । एषः अमिलापः सर्वत्र । स एकतयः शौकरिकमा पतिपन्धाय महिषं वा अन्यतरं वा त्रसंवा पाणं हत्वा याग्द् उपस गाययिता भवति । स एकतयो वागु. रिकभावं पतिसन्धाय मृगं वा अन्यतरं वा त्रसं पाणं हत्वा यानद् उपख्यापयिता भाति। स-एकतयः शाकुनिकभावं प्रतिसन्धाय शकुनि वा अन्यतरं वा त्रसं पाणं हत्वा यावद् उपख्यायिता भवति । स एकतयः मात्स्यिकभावं प्रतिसन्धाय मत्स्यं वा अन्यतरं वा सं प्राणं हत्वा यावद् उपख्यापयिता भवति । स एकतयः गोघातकमा प्रतिसन्धाय तामेय गां वा अन्यतरं वा सं पाणं हत्वा यापद् उप ख्यापयिता भवति । स एकतयः गोपालभावं प्रतिसन्धाय तमेव गोपालं वा परिविच्य परिविच्य हत्वा यावद् उपख्यापयिता भवति । स एकतयः सौवनिकमावं प्रतिसन्धाय तमेव श्वानं वा अन्यतरं वा त्रसं पाणं इत्या यावद् उपख्यापयिता भवति । स एकतयः श्वभिरन्तकभावं प्रतिसन्धाय तमेव मनुष्यं वा अन्यतरं वा त्रसं पाणं हत्वा यावद् आहारमाहारयति। इति स महभिः पापैः कर्मभिरास्मानम् उपख्यापयिता भवति ।मु०१६३१॥ । जिसे परलोक की चिंता नहीं होती वह इस लोक के सुख को ही सभी कुछ समझता हुआ अनेक प्रकार की पाप क्रियाएं करके धन उपार्जन करता है और उस धन को ही सुख का साधन मानता है। उसके पापकर्म के अनुष्ठानों की गणना करते हैं-से एगहो आयहेउं वा' इत्यादि। જેને પરલેકની ચિંતા થતી નથી તેઓ આ લેકના સુખને જ સર્વસ્વ ' માનીને અનેક પ્રકારની પાકિયાએ કરીને ધન ઉપાર્જન કરે છે. અને તે ધનને જ સુખનું સાધન માને છે. તેના પાપકર્મના અનુષ્ઠાનની ગણત્રી रे छे. 'से एगइओ आयहेउवा' त्यात For Private And Personal Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३० सूत्रकृतागपत्र टीका-'से एमतइओ' स एकायः यस्य खच पायसः पुरवस्य आत्मकल्याणभावना न विद्यते एतादृशः कश्चित्पुरुषोऽग्रे वक्ष्यमाणाऽने कविधसावध कर्म कारकः, 'आयहेउवा' आत्महेतो;-स्वमुखाय 'गाइदेउवा' ज्ञातिहेतोर्वाआत्मीयव्यक्तीनां सुखमुत्पादयितुम् 'सयण हेउवा' शयनस्य-शरीरसुखोत्पाद. कस्य शय्यादेहे तो यं 'आगारहेउवा' आगारं गृह तन्निर्माणाय वा 'परिवार हेउं वा' वरिवारहे तो वा 'णायगं वा सहवासियं वा णिस्साए' ज्ञातकं वा सहचासिकं वा निश्राय आश्रित्य-परिचित व्यक्तिहेतौ-सहमासिकारणाय वा । पापकर्मअग्रे वक्ष्यमाणं करोति, इति अग्रिमेण सम्बन्धः। 'अदुना अगुगामिए' अथवा अनुगामिकः कश्चित्यापी पुरुषो धनादिकमादाय मागे गच्छन्तं प्रति अनुगच्छति धनापहरणाय तस्य 'अदुवा उपचाए' उपचरकः-सति समये एनं हत्वाऽस्य धनं नेष्यामीति बुद्धया तस्य धनवतः सेवावृत्ति मुपचरतीति उपचरका-सेवाकारकः 'अदुवा पडिवहिए' अथवा प्रतिपथिको भाति-कस्यचिद्धनमपहत्तुं टीकार्थ-जिस पापी पुरुष के अन्तः करण में आत्म कल्याण की भावना नहीं होती, वह आगे कहे जाने वाले अनेक प्रकार के सावध कर्म करता है। अपने सुव के लिए या शया के लिए, घर बनाने के लिए अपने परिचित अथवा पड़ोली आदि के लिए वह पाप कर्म करता है। वह पापकर्म इस प्रकार हैं-कोई पापी पुरुष धन के साथ मार्ग में जाते हुए धनिक का धन छीनने के लिए उसका पीछा करता है। कोई यह सोच कर कि अवसर मिलने पर इसे मार कर धन ले जाऊंगा, किसी धनी की सेवावृत्ति करता है। कोई किसी का हरण ટીકાર્થ–જે પાપી પુરૂષના અંતઃકરણમાં આત્મકલ્યાણની ભાવના હોતી નથી, તથા આગળ કહેવામાં આવનારા અનેક પ્રકારના સાવધ કર્મો કરે છે, પિતાના સુખ માટે અથવા શય્યા માટે, ઘર બનાવવા માટે, પરિવાર માટે, પિતાના પરિચિત અથવા પાડોસી માટે પાપકર્મ કરે છે, તે પાપકર્મ આ પ્રમાણે છે-કે પાપી પુરૂષ ધનની સાથે માર્ગમાં જનારા ધનિક ધન પડાવી લેવા માટે તેને પીછો પકડે છે. કેઈ એવું માનીને તેને પીછો કરે છે કે-અવસર મળતાં અને મારી નાખીને તેનું ધન લઇ લઈશ. કઈ ધનિકની સેવા એવું માનીને કરે છે કે-વખત મળતાં તેને મારીને તેનું ધન લઈ લઈશ. કોઈ અન્યનું ધન હરી લેવા માર્ગમાં તેની સામે જાય છે. કેઈ ખાતર પાડે છે. અર્થાત્ ભીંત ખેદીને તેમાંથી For Private And Personal Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सार्थबोधिनी टीका द्वि. थु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् २३१ 'सन्धाय स्वीकृत्य 'तमेव' धनिकं स्वामिनम् ' उपचरियं' उपचर्य - संसेव्य 'हंता - छेता - भेत्ता पत्ता' हत्वा छित्वा भित्त्वा - लोपयित्वा 'विल्लुपता' विलोप्य 'उदवेत्ता' उपद्राव्य-जीवनं विनाश्य ' आहार' आहार्यम् - माध्यं धनम् आहारे' आहारयति-लुष्टयति-उपार्जयति ततो धनम् 'इति से' इत्येवं प्रकारेण . सः - स्वामिघातकारी 'महया' 'महद्भिः 'पावेहि' पापैः 'कम्मे हि' कर्मभिः 'अत्तार्ण' आत्मानम् 'उबक्खाइत्ता' उपख्यापयिता- पापिष्ठतया आत्मनः प्रसिद्धिं करोति, 'भव' ईदृशो भवति, तथा-' से एगइओ' स एकक:- कश्चित्पुरुषः 'पडिव हियभावे' 'प्रतिपथिक भावम् 'पडिसंधाय ' प्रतिसन्धाय - कुतश्चिद् ग्रामादागच्छन्तं धनिकं पुरुषं संमुखी भूत्वा तमेव पाडिपडे ठिच्चा' तमेव धनिकं प्रतिपथे स्थित्वा तस्य मार्गे स्थितः सन् 'तमेत्र देता छेता भेता-ल पड़ता- विलुं पड़ता- उद्दवइत्ता - आहारं आहारे' हवा-छिया- भित्ता-लोपथित्वा विळोप्य उपद्राव्य आहारम् - आहरणीयं धनादिकम् आहरति- अर्जयति । 'ति से' इति सः 'महया पावेहिं कम्मेहिं' महभिः पापैः कर्मभिः 'अत्ताणं' आत्मानम् 'उवक्खाइता भव' उपस्यापयिता भवति - पापिष्ठतया स्वात्मनः प्रसिद्धिकर्त्ता भवति इति भावः 'से एगइओ' स एकतयः कश्चित्पापी पुरुषः 'संधिछेद्गभावं परिसंघाय ' मतिसन्धाय छेदकभावं तस्करो भूत्वा तमेव सन्धिम् 'छेत्ता - भेत्ता जाव' सन्धि छित्वा भिवा यावत् का अन्त कर देता है और धन को हरण कर लेता है। इस प्रकार अपने स्वामी का घातक वह पुरुष घोर पापकर्म करके अपने आपको पापिष्ठ के रूप में प्रसिद्ध करता है । कोई पुरुष किसी ग्राम आदि की ओर मार्ग में जाते हुए धनिक के सामने आकर मार्ग में ही हनन, छेदन, भेदन, लुम्पन, विलुम्पन अथवा उपद्रावण ( मार डालना) करके उसके धनादि को हरण कर लेता है। इस प्रकार वह घोर पाप कर्म करके आत्मा को पापिष्ठ के रूप में प्रसिद्ध करता है । कोई पापी पुरुष सेंध लगाकर और धनवान के घर में घुस कर उसका धन हर लेता અંત કરી દે છે. અને તેનું ધન હરી લે છે. આ રીતે પેાતાના સ્વામીને ઘાત કરવાવાળા તે પુરૂષ ઘેશ્વર પાપકર્મ કરીને પાતાને પાષ્ઠિના રૂપથી પ્રસિદ્ધ કરે છે. કોઈ પુરૂષ કેાઈ ગામ વિગેરે તરફે માર્ગમાં જનારા ધનવાननी साझे काने भार्गभां४ हनन, छेहन, लेहन, सुपन, विद्युधन अथवा ઉપદ્રાવણુ (મારી નાખવા) કરીને તેના ધન વિગેરેનું હણ કરી લે છે, આ રીતે તે ઘેર પાપકમ કરીને પે.તાના આત્માને પાપી તરીકે પ્રસિદ્ધ કરે છે. ફાઇ પાપી પુરૂષ ખાતર પાડીને ધનવાનના ઘરમાં પેસીને તેના ધનનું હરણુ For Private And Personal Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - - सूत्रकृताङ्गसूत्रे -धनिकगृहे सन्धि विधाय धनिनो धनमाहरति जीविकार्थम् इति से' इति-एवं रूपेण सः 'महया' महद्भिः 'पावेहि पापैः 'कम्मे हि' कर्मभिः 'अत्ताणं' आत्मानम् 'उवक्खाइत्ता भवइ' उपख्यापयिता भवति-अयं चोर इति लोके प्रसिद्धि करोति, 'से एगइओ' स एकतयः-कोऽपि पापी जीव: 'गठिछेदगभावं पडिसं. पाय' प्रन्थिच्छेदकमावं प्रतिसन्धाय 'तं चेव गंठिं' तमेव धनिकस्य ग्रन्थिम् 'छेना-भेत्ता-जाव' छित्वा-भित्वा यावत्-धनिकं हत्वा तद्धनम् अपहरति, "इह से महया पावेहि कम्मेहि' 'इत्येवं स महद्भिः पापैः कर्मभिः 'अत्ताण' आत्मानम् 'उपक्खाइत्ता भवई' उपख्यापयिता भवति । गिरहकट्टा' इति लौकिकं नाम के प्रसिद्धं कारयति । ‘से एगइओ' स एकतयः कोऽपि पापी जीवः 'उरब्भियमा पडिसंधाय' औरभ्रिकभावं प्रतिसन्धाय-मेषपालको भूत्वा 'उरमं वा अण्णयरं वा' उरभ्रं वा अन्यतरं वा 'तसं पाणे' त्रसं प्राणम्-प्राणवन्त मित्यर्थः 'हंता जाव' हता-छित्वा-भित्ता-यावद् आहारमर्जपति-इत्येवं महता पापेना. ऽऽस्मानं पापिष्ठतया लोके 'उवक्खाइत्ता भव' उपख्यापयिता भवति 'एसो. अभिलावो सबस्थ' एषोऽभिलापः सर्वत्र वाक्यान्ते पूरणीयः, ‘स एगइओ' है, इस प्रकार वह घोर पाप कर्म करके अपने को 'यह चोर है' इस रूप में प्रसिद्ध कर लेता है। कोई पापी जीव जेब कट बन कर एवं छेदन भेदन आदि करके धनवान् के प्राण लेकर उसके धन को अपहरण कर लेता है। इस प्रकार वह घोर पापकर्म करके अपने को जेष कट के रूप में प्रसिद्ध करता है। कोई पापी मेषचालक बन कर मेड़ या किसी अन्य त्रस प्राणी का हनन, छेदन, भेदन आदि करके आहार उपार्जन करता है। इस प्रकार घोर पाप करके अपने को लोक में पापिष्ठ के रूप में प्रसिद्ध करता है। 'घोर पाप करके अपने को पापी के रूप में प्रसिद्ध करता है' यह वाक्य आगे प्रत्येक वाक्य के साथ जोड़ लेना चाहिए। કરી લે છે, આ રીતે તે ઘેર પાપકર્મ કરીને પિતાને “આ ચેર છે તેમ પ્રસિદ્ધ કરે છે, કે પાપી જીવ ગજવું કાપીને તથા છેદન, ભેદન વિગેરે કરીને ધનવાનના પ્રા લઈને તેનું ધન લઈ લે છે. આ રીતે તે ઘેર પાપકર્મ કરીને પિતાને ગજવા કાતરૂ' તરીકે પ્રસિદ્ધ કરે છે. કેઈ પાપી મેષ ચાલક બનીને બરા અથવા કોઈ બીજા પ્રાણીના હનન, દેદન, ભેદન, વિગેરે કરીને આહાર પ્રાપ્ત કરે છે, આ રીતે ઘોર પાપકર્મ કરીને પિતાને દુનિયામાં પાપિઠ તરીકે પ્રસિદ્ધ કરે છે. ઘોર પાપ કરીને પિતાને પાપીપણાથી પ્રસિદ્ધ કરે છે. તે વાક્ય આગળ દરેક વાકાની સાથે જોડી લેવું જોઈએ, For Private And Personal Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् तन्मार्गे तस्याऽभिमुखो भवति, 'अदुवा संधिच्छे यए' अथवा सन्धिच्छेदको भवति-धनमाहर्तुं तद्गृहभित्तिकादौ छिद्रं संपाद्य तेन यथागृहस्थित धनमपहरति 'अदुवा गंठिच्छेदए' अथवा ग्रन्थिच्छेदकः-ग्रन्थिच्छेदनं कृत्वा धनं गृह्णाति (गिरहकट्टा-पाकिटमार) शब्देन प्रसिद्धः 'अदुवा उरमिए' अथवा औरभ्रिको मेषादिकं चारयति, ततो वधकाय दत्वा धनमर्जयति, 'अदुवा सोपरिए' अथवा शौकरिकः-अथवा वराहमेव चारयति धनलाभाय, 'अदुवा वागुरिए' अथवा वागुरिकः वागुरां-जालं निर्माय क्षिप्त्वा च मृगादिकं बध्नाति आजीविकायै 'अदुवा साउणिए' अथवा शाकुनिका-पक्षिघातकः, कवि मार्गमावृत्य-आततस्य जालं पक्षिग एव ग्राहको भाति, 'अदुवा मछिए' अथवा कश्चिन्मात्स्यिको भवति-मत्स्योद्योगेन धनमर्जयति । 'अदुवा गोघायए' अथवा गोधातकः कश्चिद्भवति, 'अदुवा गोवालए' अथवा गोपालकः कश्चिद्भवतिगोपालनमेव करोति-ततः वधकाय दत्या धनमर्जपति, 'अदुवा सोवणिए' अथवा शौवनिकः श्वानं पालयति तस्करजन्त्वादि वधाय 'अदुवा सोवणियंतिए' अथवा श्वभिरन्तको भवति, कश्चित् श्वानं पुरस्कृत्य पाण्यन्तरस्य हिंसा मनुवर्ततेकरने के लिए मार्ग में उसके सामने जाता है। कोई सेंध लगाता है -दीवार में छेद करके उसमें घुस कर धन चुरा लेता है। कोई अन्थिच्छेद करता है-जेष कट होता है। कोई भेडे चराता है और घातकी-हत्यारा को वेचार धनोपार्जन करता है, कोई धन के लिए शूकरों को धराता है, कोई जाल बना कर मृग आदि को फंपाता है, कोई पक्षियों का घान करता है, कोई जाल फैला कर पक्षियों को पकड़ता है, कोई मछलियां मार कर धन कमाता है, कोई गायों का घात करता है, कोई गायों को पालन करके घातकी आदि को बेन कर धनोपार्जन करता है. कोई तस्कर (चोर) शदि के वध के लिए कुत्ता पालतां है अथवा कुत्ते को आगे करके-छुछ कार कर-किसी प्राणिकी ઘરમાં પ્રવેશ કરીને ચોરી કરે છે. કોઈ ગ્રંથી છેદન કરે છે. અર્થાત ગજા કાપે છે. કેઈ બકરા ચરાવે છે, અને ખાટકી-હત્યારાને તે વેચીને ધન મેળવે છે, કઈ ધન મેળવવા માટે શું રે - ભુડે ને ચરાવે છે, કોઈ જાળ બનાવીને મૃગ વિગેરેને ફસાવે છે. કેઈ પક્ષિાની હિંસા કરે છે. કોઈ માછલી મારીને ધન કમાય છે. કઈ ગાની હિંસા કરે છે. કેઈ ગાન પાલન કરીને ખાટકી-વિગેરેને વેચીને ધન મેળવે છે, કોઈ ચારના વધ માટે કુતર પાળે છે, અથવા કુતરાઓને આગળ રાખીને-ઉશ્કેરીને કંઈ પ્રાણીની सू० ३० For Private And Personal Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गले आखेटकः । उपचरकादयः किं कुर्वन्ति तत्राह 'एगइओ आणुगामियभावं. पडिस पाय तमेव अणुगामियाणुगामिय' एककः कश्चित्पुरुषोऽनुगामुकमावं मतिसन्धाय -कमपि धनिकं गच्छन्तम् अनुगम्य, तमेवांऽनुगामुकाऽनुगम्यं तादृशं धनिक पृष्ठतो गत्वा तम् 'हंता-छेत्ता-भेत्ता-लुंपइत्ता-विलुपइत्ता-उदवइत्ता' हत्वा दण्डादिना, छित्वा-खगादिना, भित्श-शुलादिना, लोपयिस्वा-केशाकर्षणादिना पीडयित्वा, विलोप्य उपद्राव्य-कशाघातादिभिरत्यन्तदुःखोत्पादने विलोप्य उपद्राव्य पाणहरणं कृत्वा 'आहार' आहारम्-आहरणीयं तत्समीपस्थ तदधीनधनधान्यादिकम् 'आहारेइ' आहारयति-लुण्टयति 'इड्र से' इति-इत्येवं प्रकारेण स एतादृशफर्मकर्ता 'महया' महद्भिः 'पावेहि पापैः 'कम्मेहि' कर्मभिः-प्राणातिपातादिव्यापारीः 'अत्ताण' आत्मानम् 'उपक्खाइत्ता भवई' उपख्यापयिता भाति । पापि. ष्ठतया स्वात्मनं लोके प्रसिद्धं करोति, 'से एगहो' स एकतयः-पुनरन्यः कोऽपि 'उवचरयमावं पडिसंधाय' उपचरकभावं-से कमावं कस्यचित् धनिकस्य पतिहिंसा करता है। अब इनके कृत्यों को प्रकट करते हैं-कोई क्रूर पुरुष मार्ग में जाते हुए किसी धनवान का पीछ करके उसे लाठियों से मारता है, खडू आदि से काट डालता है, भाले आदि से बेध देता है, केश खींच कर पीड़ा पहुंचाता है, चावुक आदि से पीटता है, अत्यन्त दुःख उपजाता है, प्राण ले लेता है और उसके धन को हर लेता है, लूट लेता है,। ऐसे कुकर्म करने वाला वह पुरुष घोर हिंसादि पाप कर्मी से अपने को विख्यात करता है-अपने आपको पापी के रूप में लोक में प्रसिद्ध करता है। कोई किसी धनिक की सेवा वृत्ति स्वीकार करके, उसकी सेवा करके हनन, छेदन, भेदन, लुपन और विलुपन करके उसके जीवन હિંસા કરે છે. હવે તેઓના કૃત્યે બતાવે છે. કેઈ કુર પુરૂષ માર્ગમાં જનારા કેઈ ધનવાનને પીછો પકડીને તેને લાકડીથી મારે છે. તરવાર વિગેરેથી કાપી નાખે છે, ભાલા વિગેરેથી તેને વીંધી નાખે છે વાળ વિગેરે ખેંચીને પીડા ઉપજાવે છે. ચાબકા વિગેરેથી મારે છે. અત્યંત દુઃખ ઉપજાવે છે. પ્રાણ લઈ લે છે. અને તેને ધનનું હરણ કરે છે. અર્થાત્ લુંટી લે છે. એવા કુકર્મ કરવાવાળે તે પુરૂષ ઘેર હિંસા વિગેરે પાપકર્મોથી પિતાને પ્રખ્યાત કરે છે. અર્થાત પિતે જ પિતાને પાપીના રૂપથી જગતમાં પ્રસિદ્ધ કરે છે. ' કેઈ પુરૂષ કે ધનવાન પુરૂષની સેવાવૃત્તિને સ્વીકારે તેની સેવા रीन बनन, छेन, मन, धन, भने विपन श२ तेनी गाना For Private And Personal Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् स-एकतयः कोऽपि पुरुषः 'सोयरियमा पडिसंधाय' शौकरिकमावं पतिसन्धाय-शूकरपालको भूत्वा 'महिसं वा अन्नयरं वा तसं पाणं जाव' महिषं वा अन्यतरं या त्रसं पाणं यावद् हत्वा छित्वा स्वकीय नीविकां करोति, स इत्येवं रूपेण महत्सावध कर्म कृत्वा स्वात्मनः लोके पापिष्ठत्वम् ‘उवक्खाहत्ता भवई' उपख्यापयिता भवति, ‘से एगइओ' स एकतयः कोऽपि पुरुषः 'वागुरियभावं पडिसंधाय' वागरिकमावं-मगघातकत्वं प्रतिसन्धाय-अङ्गीकृत्य 'मियं वा अण्ण. यरं वा तसं पाणं हंता जाव' मृगं वा तदन्यं वा त्रसं प्राणं हत्वा-छित्वा-यावद स्वस्य जीविका मर्जयति, इति स महता. पापेन युक्त:-स्वात्मनो मृगघातकतया लोके 'उबक्खाइत्ता भवई' उपख्यापयित्ता भवति, ‘से एगइओ' स एकतयः कोऽपि पुरुषः, 'सउणियभावं पडिसंधाय' शाकुनिकमावं प्रतिसन्धाय-पक्षिव्या. पानकाय स्वीकृत्य 'सउणि. वा अण्णयरं वा तसं पाणं हंता जाव' शकुनि वा अन्य। तरं वा त्रसं प्राणं हत्वा-छिता-मित्वा यावत् स्वस्याऽऽजीविका करोति । स तेन । . कोई पुरुष शूकर पालक बन कर, भैसा या किसी अन्य त्रस प्राणी का हनन, छेदन, भेदन करके अपनी आजीविका करता है। वह ऐसा घोर पाप कर्म करके अपने को पापिष्ठ के रूप में प्रख्यात करता है। कोई पापी पारधीवृत्ति अंगीकार करके मृग या अन्य किसी प्रस प्राणी का हनन, छेदन, भेदन, मारण आदि करके अपनी आजीविका चलाता है। वह घोर पाप करके अपने को मृग घातक के रूप में लोक विख्याति करता है। कोई पुरुष चिड़ीमार बन कर पक्षी या अन्य किसी प्रस प्राणी का हनन, छेदन, भेदन करके आजीविका करता है। वह घोर पाप कर्म करके अपने को महापापी के रूप में प्रसिद्ध करता है। कोई पापी मच्छीमार बन कर मत्स्य वध की वृत्ति अंगीकार करके 'मत्स्य या अन्य ब्रस प्राणी का हनन, छेदन, भेदन आदि करता है છે કે કઈ પુરૂષ ભૂંડને પાળનાર બનીને, ભેંશ અથવા બીજા કોઈ પ્રાણીનું હનન, છેદન, ભેદન કરીને પિતાની આજીવિકા ચલાવે છે, તે એવું ઘર પાપકર્મ કરીને પિતાને પાપિઠ પણથી પ્રખ્યાત કરે છે. કેઈ પાપી પારધી વૃત્તિનો સ્વીકાર કરીને મૃગ અથવા બીજા કોઈ ત્રસ પ્રાણીનું હનન છેદન 'ભેદન મારણ વિગેરે કરીને પિતાની આજીવિકા ચલાવે છે, તે ઘોર પાપ કરીને પિતાને મૃગઘાતક પણાથી જગમાં પ્રખ્યાત કરે છે. કોઈ પુરૂષ “ ચીડીમાર બનીને પક્ષી અથવા બીજા કેઈ ત્રસ પ્રાણીનું હનન, છેદન, ભેદન ’ કરીને પિતાની આજીવિકા ચલાવે છે, તે ઘોર પાપકર્મ કરીને પિતાને મહા - પાપી પણાથી પ્રસિદ્ધ કરે છે. કોઈ પાપી મચ્છી માર બનીને મય વધની. For Private And Personal Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . सूत्रकृताङ्गसने महता पापेन युक्तःसन् स्वस्य महापापी ते शब्देन प्रसिद्धिम् 'उबक वाइत्ता भाई' उपख्यापयिता भवति, ‘स एगइभो' स ए एतयः कोऽपि पुरुषः 'मच्छिषभावं पडिसंधाय' मात्स्यिकमा प्रतिसन्धाय-मत्स्यवधात्मकं कार्यमङ्गीकृय 'मच्छं था अण्णयरं वा तसं पाणं हंता जान' मत्स्यं वा अन्यतरं वा त्रसं पाणं हत्वा यावर स्वकीयजीविकां करोति, इति स जीवधात्मकं कार्य कुर्वन महता पापेन लिप्तः घात. कतया स्वस्य प्रसिद्धिं लोके कारयति, 'उवश्वाइत्ता भवई' उपख्यापयिता भवति । 'से एगहो' स एकतयः कश्चि-पुरुषः 'गोवाया भावं पडि संधाय' गोघातकभावं पतिसन्धाय-गवां मारणकार्य मङ्गीकृत्य 'तमेव गोणं वा अणयरं वा तसं पाणं हता जाव' तामेव गामन्य तरं वा असं पाणं हत्वा छित्वा यावत्स्व जीविकामर्जयति, इति स एवं महता पापेन युक्तः स्वस्याकीति लोके पसारयति, स्सस्याऽपयशसः 'उपक्खाइचा भाई' उपख्यापयिता भवति, ‘से एगइओ' स एकतयः कोऽपि पुरुषः 'गोवाल मावं पडिसंधाय' गोपालमा प्रतिसन्धाय-गवां पालकत्वमङ्गीकृत्य 'उमेर गोबालं परिनविय परिजवि। हंता जाव' तमेव -पाल्यमेव गोवालं वत्सरं परिविच्य परिविध-गोसमुदायात् बहिनीत्वा ताडयति, इति स तादृशपशुताडनादिनिषिद्ध कार्य कुर्वन्, महता पापेन युक्तः सन् स्वात्मनोऽपकीलों के 'उबक्खाइत्ता भवई' उपख्यापयिता भवति, 'से एगइओ' स एकतयः कोऽपि पुरुषः और घोर पाप करके घातक के रूप में अपनी प्रसिद्धि करता है। कोई पुरुष गोघातक बन कर गाय अथवा अन्य किसी प्रागीका हनन, छेदन, भेदन आदि करके अपनी आजीविका चलाता है। वह घोर पाप कर्म करके लोक में अपनी अपकीनि फैलाता है। कोई गोपालक बन कर उसी पालनीय गाय के बछड़े-बछड़ी को गायों के झुंड में से बाहर निकाल कर ताड़न करता है। वह पशु ताड़न आदि निषिद्ध कर्म करता हुआ घोर पाप से युक्त होकर लोक में अपने अपयश का ભેદન વિગેરે કરે છે. અને ઘેર પાપકર્મ કરીને ઘાતક પણાથી પિતાને પ્રસિદ્ધ કરે છે. કેઈ પુરૂષ ગોઘાતક બનીને ગાય અથવા બીજા કેઈ પ્રાણીનું હનન. છેદન, ભેદન, વિગેરે કરીને પિતાની આજીવિકા ચલાવે છે, તે ઘેર પાપકર્મ કરીને દુનિયામાં પિતાની અપકીર્તિ ફેલાવે છે, કેઈ ગેપાલક બનીને તે પાલન કરવા ગ્ય ગાયના વાછડા વાછડીને ગાયના ટેળામાંથી બહાર કહાડને મારે છે, તે પશુતાડન વિગેરે નિશિદ્ધ કર્મ કરતા થકા ઘેર પાપથી યુક્ત થઈને દુનિયામાં પિતાને અપયશ ફેલાવે છે, કઈ કુતરાઓને For Private And Personal Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३७ समयार्थबोधिनी टीका द्वि.श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् 'सोवणियभाव पडिसंधाय' शौवनिकमा शुनां पालन कार्य प्रतिसन्धाय-अङ्गीकृत्य 'तमेव मुगगं वा अण्णयर वा वसं पाणं हंता जा' तमेव श्वानं वाऽन्यतरं चा त्रसं पाणं हत्वा यावत्-तमेव श्वानमन्यं वा जीवं व्यापाद्य स्वस्याऽऽजीविका निर्बहति, इति स कुत्सितकर्म ननितपापेन लि: स्वस्थापकीर्तेः 'उपक्वाइत्ता भाइ' उपख्यापयिता भवति । तद्विस्तारको भवतीति यावत् 'से एगइओ' स एकतयः कोऽपि पुरु: 'सोपणियंतियभावं पडि संधाय' अभिरन्त कमावं प्रति सन्धाय-श्वभिः-कुक्कुरादि जीपहिंसकपशुद्वारा वन्यपशुहिंसनव्यापार स्वीकृत्य 'तमेव मणुस्सं वा अनयर वा त पाणं हंता जाव' तमेव मनुष्यं वा अन्यतरं . वा त्रसं पाणं हत्वा यावत् तादृश हिंसकपशुद्वारा मनुष्यादिकान जीवान् व्यापाय 'आहारं आहारेई' आहारमाहारयति-भाजीविकामुपार्न यति, इति 'से' इति सा-ताश क्रूरकर्मकारी पुरुषः 'महा' महद्भिः 'पावेहि पापैः 'कम्मे हि' कर्मभिः 'अताणं' आत्मानम्-आत्मनः 'उपक्खहत्ता भाई' अख्यापयिता भवति ताश. कर्मजनितपापलितः स्वस्याऽपकीर्तेः लोके विस्तारको भवति । इदं तु-ऐहिक ताशकर्मणः फलम्, पारलौकिक-शास्त्रवेद्य तदनुभव वेध चेति भावः ॥१६-३१।। विस्तार करता है। कोई कुत्ते का पालन करके और उसी कुत्ते का या अन्य किसी त्रस प्राणी का घात करके आजीविका-निर्वाह करता है। यह कुत्सित कर्म जनित पाप से लिए होकर अपनी अपकीर्ति फैलाता है। कोई पापी शिकारी कुत्तों के द्वारा जंगली पशुओं की हिंसा के व्यापार को अंगीकार कर मनुष्य या अन्य किसी प्राणी का हनन आदि करके आहार करता है अर्थात् जीविका उपार्जन करता है। ऐसा क्रूर कर्म करने वाला पुरुष घोर पाप कर्मों के द्वारा लोक में अपना अपयश-विस्तार करता है। यहां विविध प्रकार के घोर पापों का जो फल प्रदर्शित किया પાળીને અને એજ કુતરાને અથવા બીજા કોઈ ત્રસ પ્રાણીને ઘાત કરીને આજીવિકા–નિર્વાહ ચલાવે છે. તે નિંતિ કર્મથી થવાવાળા પાપથી લિપ્ત થઈને પિતાની અપકીતિ ફેલાવે છે. કેઈ પાપી શિકારી કૂતરાઓ દ્વારા જંગલી પશુઓની હિંસાની પ્રવૃત્તિને અંગીકાર કરીને મનુષ્ય અથવા બીજા કોઈ પ્રાણિને હનન વિગેરે કરીને આહાર કરે છે. અર્થાત્ આજીવિકા મેળવે છે. એવા કર કર્મ કરવાવાળા પુરૂષ ઘોર પાપકર્મો દ્વારા દુનિયામાં પિતાના અપજશને વિસ્તાર કરે છે. અહિયાં અનેક પ્રકારના ઘોર પાપનું જે ફળ બતાવેલ છે, તે કેવળ For Private And Personal Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३८ सूत्रकृतागसूत्रे ___मूलम्-से एगइओ परिसा मज्झाओ उद्वित्ता अहमेयं हणामित्ति कटु तित्तिरं वा वट्टगं वा लावगं वा कवोयगंवा कविं. जलं वा अन्नयरं वा तसं पाणं हंता जाव उवक्खाइत्ता भवइ। से एगइओ केण वि आयाणेणं विरुद्धे समाणे अदुवा खलदाणेणं अदुवा सुराथालएणं गाहावईणं वा गाहावइपुत्ताणं वा सयमेव अगणिकाएणं सस्ताई झामेइ अन्नेण वि अगणिकाएणं सस्ताइं झामावेइ अगणिकाएणं सस्ताइं झामंतं वि.अण्णंसमणुजाणइ इइ से महया पावेहि कम्महिं अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवइ। से एगइओ केणइ आयाणेणं विरुद्धे समाणे अदुवा खलदाणेणं अदुवा सुराथालएणं गाहावईण वा गाहावइपुत्ताणं वा उहाणं वा गोणाणं वा घोडगाणं वा गदभाणं वा सयमेव धूराओ कप्पेइ अन्नेण वि कप्पावेइ कप्पंतं वि अन्नं समणुजाणइ इइ से महया जाव भवइ। से एगइओ केगइ आयाणेण विरुद्ध समाणे अदुवा खलदाणेणं अदुवा सुराथालएणं गाहावईण वा गाहावइपुत्ताण वा उसालाओ वा गोणसालाओ वा घोडगसालाओ वा गदभसालाओ वा कंडगबोंदियाए परिपेहिता सयमेव अगणिकाएणं झामेइ अनेण वि झामावेइ झामतं वि अन्नं समणुजाणइ इइ से महया जाव भवइ । से एगइओ केणइ गया है, वह तो सिर्फ ऐहिक फल है। परलौकिक फल शास्त्र से जान लेना चाहिए या अनुभव से समझ लेना चाहिए ॥१६॥ એહિક ફળ છે. પરલેક સંબંધી ફળ તે શાસ્ત્ર દ્વારા સમજી લેવું જોઈએ. અથવા અનુભવથી સમજી લેવું જોઈએ ૧૬ For Private And Personal Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् आयाणेणं विरुद्ध समाणे अदुवा खलदाणेणं अदुवा सुराथाल. एणं गाहावईण वा गाहावइपुत्ताण वा कुंडलं वा मणि वा मोत्तियं वा सयमेव अवहरइ अन्नण वि अवहरावेइ अवहरंतं वि अन्नं समणुजाणइ हा से महया जाव भवछ। से एगहओ केणइ आयाणेणं विरुद्ध समाणे अदुवा खलदाणेणं अदुवा सुराथालएणं स्मणाण वा माहणाण वा छत्तगं वा दंडगं वा भंडगं वा भत्तगं वा लडिं वा भिसिगं वा चेलगं वा चिलिंमिलिगं वा चम्मयं वा छेयणगं वा चम्मकोसियं वा सयमेव अवहरइ जाव समणुजाणइ। इइ से महया जाव उवक्खाइत्ता भवइ । से एगइओ णो वितिगिछइ, तं जहा-गाहावईग वा गाहावइपुत्ताण वा सयमेव अगणिकाएणं ओसहीओ झामेइ जाव अन्नं पि झामतं समणुजाणइ इइ से महया जाव उवक्खाइत्ता भवइ । से एगइओ णो वितिगिंछइ, तं जहा-गाहावईण वा गाहावइपुत्ताणं वा उट्टाणं वा गोणाणं वा घोडगाण वा गहभाण वा सयमेव घूराओ कप्पेड़ अन्नेण वि कप्पावेइ अन्नं पि कप्पंतं समणुजाणइ। से एगइओ जो विविगिंछइ तं जहा-गाहावईण वा गाहावइपुत्ताण वा उसालाओ वा जाव गद्दभसालाओ वा कंटगोंदियाहिं परिपेहित्ता सयमेव अगणिकारणं झामेइ जाव समणुजाणइ। से एगइओ णो वितिगिंछइ, तं जहा-गाहावईण वा गाहावइपुत्ताण वा जाव मोत्तियं वा सयमेव अवहरइ जाव समणुजाणइ । से एगइओं णो वितिगि. For Private And Personal Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Bla सूत्रकृताङ्गसू छह, तं जहा - समणाण वा माहणाण वा छत्तगं वा दंडगं वा जात्र चम्मच्छेदगं वा सयमेत्र अत्रहरइ जाव समणुजाणइ, इइ से महया जाव उवक्खाइत्ता भवइ । से एगइओ समणं वा माहणं वा दिस्सा नानाविहेहिं पावकम्मेहि अत्ताणं उवक्खाइसा भवइ, अदुवा णं अच्छराए आफालित्ता भवइ, अदुवा णं फरुतं वंदित्ता भवइ । कालेनापि से अणुपविहस्स असणं वा पाणं वा जाव णो दवावेत्ता भवइ । जे इमे भवंति वशेनमंता भारकंता अलसगा वसलगा किवणगा समणगा पव्वयंति । ते इणमेव जीवितं धिजीवियं संपडिबूति, नाइ ते परलोगस्स अट्टाए किंचि वि सिली संति, ते दुक्खति ते सोयंति ते जूरंति से तिष्यंत ते पिहंति ते परितप्पति ते दुक्खणजूरण सोयणतिपण पिट्टण परितप्यवहबंधण परिकिलेसाओ अप्पडिविरया भवंति, ते महया आरंभेण ते महया समारंभेणं ते महया आरंभसमारंभेणं विरूववरूहिं पात्रकम् प्रकिच्चेहिं उरालाई माणुस्सगाई भोग भोगाई भुंजित्तारो भवंति तं जहा अन्नं अन्नकाले पाणं पाणकाले वत्थं वत्थकाले सयणं सयणकाले सव्वरं च हाए कयवलिकम्मे कयको उय मंगलपायच्छित्ते सिरसा पहाए कंठे मालाकडे आविद्धमणिसुवन्ने कपियमालामउली पडि बद्धसरीरे वग्घारिय सोणिसुत्तगमल्लदामकलावे अहतवत्थपरिहिए चंदकोक्ति गायसरीरे महइमहालियाए कूडागारसालाए महइ महालयंसि सीहासणंसि इरिथगुम्मसपरिवुडे सव्वराइए जो , - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समवाबोधिनी टीका लि. श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् इणा झियायमाणेणं महयाहयनदृगीयवाइयतंतीतलतालतुडि. यघणमुइंगपडुपवाइयरवेणं उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ। तस्स णं एगमवि आणत्रमाणस्स जाव चत्तारि पंच जणा आवुत्ता चेत्र अब्भुटुंति, भणह देवाणुप्पिया! किं करेमो किं आहारेमो ? किं उवणेमो? किं आचिट्टामो ? किं भे हियं इच्छियं ? किं भे आसगस्स सयइ ? तमेव पासित्ता अणारिया एवं वयंति-देवे खलु अयं पुरिसे, देवसिणाए खलु अयं पुरिसे, देवजीवणिज्जे खलु अयं पुरिसे, अन्ने वि य णं उवजीवंति, तमेव पासित्ता आरिया वयंति-अभिकंतकूरकम्मे खलु अयं पुरिसे, अतिधुन्ने अइयायरक्खे दाहिणगामिए नेरइए कण्हपक्खिए आगामिस्साणं दुल्लहबोहियाए यावि भविस्सइ, इञ्चेयस्त ठाणस्स उठ्ठिया वेगे अभिगिउझंति अष्ट्रिया वेगे अभिगिझंति, अभिझंझा उरा वेगे अभिगिझंति, एलठाण अणारिए अकेवले अप्पाड पुन्ने अणेयाउए असंसुद्धे असल्लगत्तणे असिद्धि. मग्गे अमुत्तिमर्ग अनिव्याणमग्गे अणिज्जाणमग्गे असठवदुक्खपहीणमागे एगंतमिच्छे असाहु एम खलु पढमम्स ठाणस्त अधम्मपखस्स विभंगे एवमाहिए ॥सू०१७॥३२॥ ... छाया- एकरयः पर्षाध्यादुत्थाय :मेतं हनिष्यमीति कृत्वा तित्तिरं का वर्तकं वा लावकं वा कपोतकं वा कपिञ्जलं वा अन्यतरं वा त्रसं पाणं हन्ता पावद उपख्यापयिता भवति । स एकतयः केनापि आदानेन विरुद्धः सन् अथवा सदानेन अथवा सुगस्थालकेन गाथापतीनां वा गाथापतिपुत्राणां वा स्वयमेव . ३१ For Private And Personal Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir --- _ सूत्रकृताङ्गयो । अग्निकायेन शस्यानि धमति अन्येनापि अग्निकायेन शस्यानि ध्मापयति अग्निकायेन शस्यानि धमन्तमप्यन्यं समनुजानाति इति सः महद्भिः पापैः कर्मभिः मात्मानमुपख्यापयिता भवति । स एकतयः केनाऽज्यादानेन विरुद्धः सन् अथवा खलदानेन अथवा सुरास्थालकेन गाथापतीनां वा गाथापतिपुत्राणां वा उष्ट्राणां वा गवां वा घोटकानां वा गर्दभानां वा सायमें। अादीन् कलरते अन्येनाऽपि कल्पयति कल्पमानमपि अन्यं समनुजानाति इति महद्भिर्यावद् भवति । स एक तयः केनापि आदानेन विरुद्धः सन् अथवा खलदानेन अथवा सुरास्थालकेन.गाथा पतीनां वा गाथापति पुत्राणां वा उष्टशाला वा गोशाला वा घोटकशाला वा गर्दभशाला वा कण्टकशाखामिः परिपिधाय स्वयमेवाग्निकायेन धमति अन्येनाऽपि ध्मापयति धमन्तमपि अन्यं समनुनानाति, इति स महद्भिर्यावद् भवति । स एकतयः केनाऽपि आदानेन विरुद्धः सन् अथवा खलदानेन अथवा सुरास्थालकेन गाथापतीनां वा गाथापतिपुत्राणां वा कुण्डलं वा मणि वा मौक्तिकं वा स्वयमेव अपहरति अन्येनापि अपहारयति अपहरन्तमपि अन्यं समनुजानाति इति स महंमिर्यावद् भवति । स एकतयः केनाऽपि आदानेन विरुद्धः सन् अथवा खळदानेन अथवा सुरास्थालकेन श्रमणानां वा माहनानां वा. छत्रकं वा दण्डकं वा भाण्डकं वा मात्रकं वा यष्टिकां वा वृक्षी वा चेलकं वा पच्छादन. पटी वा चर्मकं वा छेदनकं वा चर्मको शिकां वा स्वयमेव अपहरति यावत् समनुजानाति इति स महद्भिविद् उपख्यापयिता भवति, स एकतयः नो विमर्षति,. तद्यथा गाथापतीनां वा गाथापतिपुत्राणां वा सयमेवाऽग्निकायेन ओषधीः धमति यापद् धमन्तमपि अन्यं समनुजानाति इति स महद्भिविद् उपख्यापयिता भवति। स एकतयः नो विमर्षति तद्यथा-गायापतीनां वा गाथापतिपुत्राणां वा उष्ट्राणां वा गवा वा घोटकानां वा गईभानां वा स्वयमेव आयवान् कल्पते अन्येनाऽपि कल्पयति अन्यमपि कल्पमानं समनुजानाति । स एकतयः नो विमर्पति, तद्यथा-गाथापातीनां वा गाथापतिपुत्राणां वा उशाला वा यावद् गर्दभशाला वा कण्टकशाखाभिः परिपिधाय स्वयमेव अग्निकायेन धमति यावत् सानु नानाति । स एकतया नो विमर्षति, तद्यथा-गाथापतीनां वा गाथापतिपुत्राणां वा यावद् मौक्तिकं वा स्वय पेवापहरति यावत् समनु नानाति । स एकतयः नो विमपति तद्यथा-श्रमणानां वा माहनानां वा छत्रकं वा दण्डकं वा यावच्चमच्छेदकं वा स्वयमेव अपहरति यावत् समनुजाति इति स महद्भिर्यावद् उपस्थापयिता भवति । स एकतयः श्रमणं वा माहनं वा दृष्ट्या नानाविधः पापकर्मभिरात्मानमुपस्थापयिता भवति अथवा खलु For Private And Personal Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् अप्सरसः आस्फाल इता भवति अथवा पुरुष वदिना भाति कालेनाऽपि तस्याऽनुः प्रविष्टस्य अशनं वा पानं वा यावनो दापयिता भवति । ये इमें भवन्ति व्युनमन्तो भाराकान्ता अलसका वृषलकाः कृपणकाः श्रमणकाः भवन्ति । ते इदमेव जीवितं धिरजीवित सम्पति बृहन्ति । नाऽपि ते परलोकस्य अर्थाय किश्चिदपि . श्लिष्यन्ति ते दुख्यन्ति ते शोचन्ति ते जूरयन्ति ते तिप्यन्ति ते पिन्ति ते परितप्यन्ति ते दुःखनजूरणशोचनतेपनपिट्टनपरितापनवधवन्धपरिक्लेशेभ्योऽपति. विरता भवन्ति, ते महता आरम्भेण महता समारम्भेण ते महद्भयामारम्भसमार. म्माभ्यां विरूपरूपैः पापकर्मकृत्येः उदाराणां मानुष्यकाणां भोग भोगानां भोक्तारो भवन्ति । तद्यथा-अन्नमनकाले पानं पानकाले वस्त्रं वस्त्रकाले लयन लयनकाले शयनं शयनकाले स पूर्वापरं च स्नातः कृतवलिकर्मा कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्तः शिरसा स्नातः कण्ठे मालाकृत् आविद्धमणिसुवर्णः कल्पितमालामुकुटी प्रतिबद्धशरीरः प्रति. लम्बित श्रोणिसूत्रकमाल्यदामकलापः अहतवखपरिहितः चन्दनोक्षितगात्रशरीरः महति महत्यां विस्तीर्णायां कूटागारशालायां महति विस्तीर्ण सिंहासने स्त्रीगुल्मपरिवृतः सार्वरात्रेण ज्योतिषा ध्मायमानेन महताहतनाट्यगीतवादित्रतन्त्रीतलतालत्रुटिकघनमृदङ्गपटुपवादितरवेण उदारान् मानुष्कान् भोगमोगान् भुञ्जानो विहरति । तस्यैकमपि आज्ञापयतः यावचत्वारः पञ्च वा अनुक्ताश्चत्र पुरुषा अभ्युत्तिष्ठन्ति । भणत देवानुपियाः, किं कुर्मः किमाहरामः किमुपनयामः किमातिष्ठामः किं युष्मांक हितमिष्टं कि युष्माकम् आस्यस्य स्वदते । तमेव दृष्ट्वा आनार्याः एवं वदन्ति, देवः खलु अयं पुरुषः देवस्नातकः खलु अयं पुरुषः देवजीवनीयः खलु अयं पुरुषः, अन्येऽपि एनमुपजीवन्ति । तमेव दृष्ट्वा आर्याः वदन्ति, अभिक्रान्तककर्मा खलु अयं पुरुषः अनिधूर्तः अत्यात्मरक्षः दक्षिणगामी नैरयिकः कृष्णपाक्षिका आगमियति दुर्लभबोधिकश्चापि भविष्यति । इत्येतस्य स्थानस्य उत्थिता एके अभिगृध्यन्ति अनुत्थिता एके अभिगृध्यन्ति अभिझंझाकुलाः एके अभिगृध्यन्ति । एतत् स्थानम् अनार्यम् अकेवलम् अपतिपूर्णम् अनैयायिकम् असंसुद्धम् अशल्यकर्त्तनम् असिद्धिमार्गम् अमुक्तिमार्गम् अनिर्वाणभार्गम् अनिर्याणमार्गम् असर्वदुःखपहीणमार्गम् एकान्तमिथ्या असाधु एषखल प्रथमस्य स्थानस्य अधर्म पक्षस्य विभः एवमाख्यातः॥मु०१७-३२॥ टीका-'से एगइओ' स एकतयः कोऽपि पुरुषः परिसामज्झायो' पर्षन्मध्यावयत्र वचन सम्मिलितसभातः 'उद्वित्ता' उत्थाय 'अहमेणं हणामित्ति कटूटु' ह. For Private And Personal Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुत्रकृतागाचे मेनं हनिष्यामीति सभापुरतः प्रतिज्ञा कृत्या तित्तिरं वा-चट्टगं वा-लावर्ग वाकवोयं वा-कपिजलं वा-अन्नयरं वा तसं पाणं हंता भेता जाव उपक्खाइता भवई' वित्तिरं वा-वत्तकं वा-लायकं वा-कपोतं वा कपिञ्जलं वा-अन्यतरं वा सं प्राण इत्वा-मित्वा यावत् आत्मनोऽको रुपख्यापयिता भवति। अनेकप्रकारक शाणिवधं सोपयोगं कृत्वा-तत्यापेन पच्यते परलोके, ‘से एगइओ' स एकरण: पुनः कोऽऽपरः पुरुषः 'केणावि आयाणे गं' केनाऽप्यादानेन-केनापि अपमानजनककारणेन 'विरुद्धे समाणे विरुद्धः-विरोध रगतः क्रुद्धः सन् 'अदुवा' अथवा 'खलदाणेणं' खलदानेन-कुत्सितान्नप्रदानेन कुपितः 'अदुवा' अथवा 'मुरायाळएणं सुरास्थालकेन-अभीष्टार्थसिद्धयभावेन क्रुद्धः सन् 'गाहावईण वा गाहावा. पुत्ताण वा'गृहपतीनां वा गृहपतिपुत्राणां वा 'सयमेव' स्वयमेव 'अगणिकाएणं' अग्निकायेन 'सस्साई' शस्यानि 'झामेइ' धमति-दहति, 'अन्नेण वि' अन्येनाऽपि 'से एगइयो परिसामझो भो' इत्यादि । टीकार्थ-कोई-कई पुरुष ऐसे होते है जो समूह में से उठ कर 'मैं इसे मारूंगा' इस प्रकार समूह के समक्ष प्रतिज्ञो करते हैं तीतीर, पतक, सायक, कपोत, कपिंजल या अन्य किसी त्रस प्राणी का हनन आदि करके यावत् अपनी अपकीर्ति का विस्तार करते हैं। वे जान बूझ कर अनेक प्रकार के प्राणीयों का वध करके परलोक में पाप के फल से पीड़ित होते हैं। कोई पुरुष किसी कारण से कुपित होकर- खराब अन्न देने से या सुरास्थालक आदि अन्य किसी कारण से क्रुद्ध होकर किसी गाथा. पति अथवा उसके पुत्रों के धान्य को आग से जला देता है, उसके गेहूं आदि धान्य में स्वयं आग लगा देता है, या मरे से आग लगा 'से एगइयो परिसामज्ज्ञाओ' त्यादि કિર્થકઈ-કઈ પુરૂષ એવા હોય છે, કે જેઓ સમૂહમાંથી હઠીને मान भारीश' मा शते समुनी साभे प्रतिज्ञा ४२ छ, तेतर, मत, લાવક, કબૂતર, કપિંજલ અથવા બીજા કોઈ ત્રસ પ્રાણીનું હનન વિગેરે કરીને યાવત પિતાની અપકીતિને ફેલા કરે છે, તે જાણી બૂજીને અનેક પ્રકારના પ્રાણિયોની હિંસા કરીને પરલેકમાં પાપના ફળથી પીડા પામે છે. કોઈ પુરૂષ કેઈ કારણથી કે યુક્ત થઈને ખરાબ અન્ન આપવાથી અથવા સૂરાWાલક વિગેરે બીજા કેઈ કારણથી ક્રોધવાળે થઈને કઈ ગાથા પતિ અથવા તેના પુત્રોના ધાન્યને અગ્નિથી બાળી નાખે છે. તેના ઘહું વિગેરે અનાજમાં સ્વયં આગ લગાવી દે છે, અથવા બીજા પાસે આગ : For Private And Personal Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टोका द्वि. श्र. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् अन्यद्वारा 'अगणिकारणं सरसाइं झामावेइ' अग्निकायेन शस्यानि मापयति-दाहयति ततश्च तेषाम् ‘आणिकाए ससाई झामतं वि अन्नं समणुनाणई' अग्निकायेन शस्यानि धमन्नाप्यन्यं नरान्तरम् समनुजानाति-अनुमोदते, 'इइ से' इति सः 'महया पावेहि कम्प्रेहि' महभिः पापैः कर्ममिः 'अताणं' आत्मानम् 'उबक्साइत्ता भवइ' उपरूपापयिता भवति, पुरुषाणां तेषां शस्यादिकमग्निकायेन स्वयं धमन् अन्यद्वारा ध्मापयन् वा तज्जनितपापेन लिप्तः सन् स्वात्मनः पापिष्ठतया उपख्ययिता-प्रसिद्धिकारको भवति, 'से एगइयो' स एकतयः कोऽपि पुरुषा 'केणइ आयाणेणं विरुद्धे समाणे' केनाऽपे आदानेन-कारणविशेषेण विरुद्ध:क्रुद्धः सन् 'अदुवा' अथवा 'खलदाणेणं' कुत्सितान्नप्रदानेन 'अदुवा' अथवा 'मुराथालएणं वा' सुरास्थालकेन-अभीष्टसिद्धयमावेन वा प्रकुपितः सन् 'गाहावईण वा गाहवइपुत्ताण वा' गाथापतीनां वा गायापतिपुत्राणां वा 'उहागं वा- . गोणाण-घोडगाणं वा-गद्दभाणं वा' उष्ट्राणां वा-गवां वा-घोटकानां वा-गई.. भाणां वा 'सयमेव' स्वयमेव 'छुराओं' अङ्गानि-अयवान् - इस्तपादादीन् 'कप्पई' कल्पते-कल्पनमत्र कर्तनम् वण्डशः करोति कुन्तति-इत्यर्थः 'अन्नेण वि' अन्येनाऽपि 'कप्पावे' कल्पयति-कर्तयतीति 'कप्पंतं वि अन्न' कल्पमानमपि-कुन्तन्तमपिखण्डशः कुर्वन्तर्माप अन्यम् 'समणुजाणइ समनु नानाति-अनुमोदते, 'दइ से' इति सः 'महया जाव भवई' महद्भिः पापैः कर्ममिः युक्तो भवन स्वात्मनोऽपकीति वाकर जलवा देता है और जला देने वाले का अनुमोदन करता है। ऐसा करके वह महान् पाप से लिप्त होकर अपने को पापिष्ठ के रूप में प्रख्यात करता है। कोई पुरुष किसी कारण से विरुद्ध होकर सड़ा-गला अन्न देने से या मद्य स्थालक से या अन्य किसी कारण से कुपित होकर गाथापति के अथवा गाथापति के पुत्रों के, ऊंटों के गायों के, अश्वों के या गधों के हाथ-पैर आदि अंगों को स्वयं काट देता है, किसी दूसरे से कटवा લગાડાવીને બાળી નંખાવે છે. અને બાળવા વાળાનું અનુદન કરે છે. એવું કરીને તે મારા પાપથી લિપ્ત થઇને પિતાને પાપિ પણાથી પ્રખ્યાત કરે છે. કે પુરૂષ કેઈ કારણથી વિરૂદ્ધ થઈને સડેલું કે બગડી ગયેલું અનાજ આપવાથી અથવા મદ્ય દારૂથી અથવા બીજા કેઈ કારણથી કોષાય માન થઈને ગાલાપતિના અથવા ગાથા પતિના પુત્રના, ઉના, કે ગાના, ડાઓના કે ગધેડાઓના હાથ-પગ વિગેરે અંગોને સ્વયં કાપી નાખે છે. કે For Private And Personal Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गो लोके प्रख्यापयति ‘से एगइयो' स एकतयः कोऽपि पुरुषः 'के गइ आयाणेणे' केनाऽपि आदानेन-कारणविशेषेण 'विरुग्झे समाणे विरुद्ध-क्रुद्धः सन् ‘अदुवा' अथवा 'खलदाणेग' कुत्सितान्नपदानेन 'अदुवा' अथवा 'सुरास्थालकेन अभीष्टार्थाऽप्राप्त्या 'गाहावईणं वा' गाथापतीनां वा 'गाहावइपुत्ताण वा' गाथापतिपुत्राणां वा 'उद्दसालाओ वा गोणसालाओ वा गद्द रसालाओवा' उष्ट्रशाला वा-गोशाला वा-घोटकशाला वा-गर्दभशाला वा. 'कंटगोंदियाए' कण्टकशाखाभिः परिपे हित्ता' परिपिधाय-समन्ताद्वेष्टयित्वा 'सयमेव' स्वयमेव 'अगणिकाएणं' अग्निकायेन 'झाइ' धमति-अग्निप्रदीपनं करोति 'अनेण वि झामावेई' अन्येनापि ध्मापयति-परद्वाराऽग्नि वलयति 'झामतं वि अन्न समणुजाणई धमन्तं प्रदीप्तिं कुर्व-तमन्यं समनुजानाति तदनुमोदनां करोति 'इइ से महया जाव भवई' इति स महमिः याबद् भवति महद्भिः पापैः कर्मभिर्युक्तो भवन् स्वापकीर्ति लोके वितनोति । 'से एगदेता है या काटने वाले का अनुमोदन करता है। इस प्रकार महान् पाप करके वह अपने को लोक में घोर पापी के रूप में प्रसिद्ध करता है। कोई पुरुष किसी कारण से विरोधी धन कर कुपित हो जाता है अथवा कुत्सित अन्न देने से या सुरास्थालक से नाराज होकर गाथा पति या के गाथापति पुत्रों की गोशाला उष्ट्रशाला, घुड़साल या गर्दभ. शाला को कंटक शाखाओं से ढंक कर आग लगाकर भस्म कर देता है, या दूसरे से आग लगवा कर भस्म करवा देता है या आग लगा देने वाले की अनुमोदना करता है। वह महान् पापकों से युक्त होकर लोक में अपनी अपकीतिका विस्तार करता है। બીજા પાસે કપાવી નાખે છે, અથવા કાપવાવાળાનું અનુમોદન કરે છે, આ રીતે મહાનું પાપ કરીને તે પિતાને જગતમાં ઘેર પાપી તરીકે પ્રસિદ્ધ કરે છે. કોઈ પુરૂષ કોઈ કારણથી વિરે ધી બનીને ક્રોધ યુક્ત બની જાય છે. અથવા ખરાબ અન્ન આપવાથી સુરાWાલક-દારૂના ૫ ત્રથી નારાજ થઈને ગાથાપતિ અથવા ગાથા પતિના પુત્રની શાળ', ઉદ્રશાળા, ઘેડ ૨, અથવા ગર્દભશાળાને કાંટા વિગેરેથી ઢાંકીને આગ લગાવીને બાળી નાખે છે અથવા બીજા પાસે અાગ લગાડાવીને બળાવી નંખાવે છે. અથવા આગ લગાડવા. વાળાનું અનુમોદન કરે છે. તે મહાન પાપકમ થી યુક્ત બનીને જગતમાં પિતાની અપકીતિને દેલવે કરે છે. For Private And Personal Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि.श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् २५७ इओ' स एकतयः कोऽपि पुरुषः 'केणइ आयाणेणं' केनाऽषि आदानेन-कुत्सिताऽनपदानेन 'अदुवा' अथवा 'मुराथालएणं' सुरास्थालकेन-अभीष्टसिद्धयभावेन 'गाहावईण वा' गाथापतीनां वा 'गाहावइपुत्ताण वा' गाथापतिपुत्राणां वा 'कुंडलं वा-मणि वा-मोतियं वा कुण्डलं वा-मणि वा मौक्तिकं वा अलङ्कारादिकम्, 'सयमेव अवहरई' स्वयमेवाऽपहरति, 'अन्नेण वि बहरावेई' अन्येनाऽपि अपहारयतिअन्यद्वारा अपहरणं कारयति 'अवहरंतं वि अन्नं समणुनाणई' अपहरन्तमपि अन्य समनुजानाति-अनुमोदते 'इइ से महया जाव भाई' इति स महद्भिर्यावद्भवतिमहदभिः पापैः कर्मभिर्युक्तः स्वाऽपति लोके विस्तारयति । से एगइओं स एकतयः कोऽपि पुरुषः 'केणइ आयाणेणं केनाऽपि आदानेन किमपि कारण मासाद्य 'विरुज्झे समाणे' विरुद्धः सन्-विरोधमुपग: सन् 'अना' अथवा 'खलदाणेणं अदुवा सुराथालएणं' अथवा खलदानेन कुत्सितान प्रदानेन अथवा मुरास्थालकेन-अभिलषितवस्तुनोऽलाभेन साधनामुपरि क्रोधं कुर्वनराधमः कोऽपि जन: तेषां विशुद्धभावानाम्, समणाण वा मोडणाण वा' श्रमणानां वा माहनानां वा वक्ष्यमाणवस्तूनि स्वयमेवाहरति । 'छत्तगं वा-दंडगं वा-भंडगं वा-भत्तगं वालट्टि वा-भिसिर्ग वा-चेलगं वा-चिलिमिकिगं वा-चम्मयं वा छेयणगं वा-चम्मकोसियं वा-सयमेव अवहरइ जाव समणुजाणइ इइ से महया जाव उवक वाहत्ता भवई' छत्रकं वा-दण्डकं वा-भाण्डकं वा-अमत्रकं वा-यष्टिकां वा-वृसीम् वाआसनम्, चेलकं वा-प्रच्छादनपटों वा, चर्मकं वा-छेदनकं वा-शस्त्रादि, चर्म कोशिकां वा चर्मपुटकम् 'थैलीति' प्रसिद्धम् 'स्वयमेव अपहरति स दुष्पुरुषः स्तेनादि वृत्या 'जाव समणुजाणई' यावत् समनुजानाति, स्वयमपहरति अन्ये. नाऽपि अपहारयति, अपहरन्तमन्यं समनुजानाति-तदनुमोदनां करोति-इत्येव - कोई पुरुष खराब अन्न देने से सुरास्थालक से अथवा किसी अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति न होने से श्रमणों या ब्राह्मगों पर क्रुद्ध होकर उनके छाते, डंडे, भांड, पात्र, लाठी, आसन, वस्त्र, पर्दा, चर्म, छेदनक (वनस्पति काटने के शस्त्र), चर्म कोशिका या चर्मपुटक (थैली) आदि उप. करणों को स्वयं हर लेता है, दूसरे से हरण करवा लेता है या हरण કેઈ પુરૂષ ખરાબ અન્ન આપવાથી, સુરાથાલકથી અથવા કોઈ ઈષ્ટ વસ્તુની પ્રાપ્તિ ન થવાથી શ્રમણે અથવા બ્રાહ્મણે પર ક્રોધ કરીને તેઓની छत्रीय यो, पासणे, यो, भासन, पस, पहा यामा, छेन (વનસ્પતિ કાપવાનું શસ્ત્ર વિશેષ) ચર્મ કેશિકા અથવા ચર્મ પુટક (થેલી) વિગેરે ઉપકરણને અવયં હરી લે છે, બીજાની પાસે હરણ કરાવી લે છે. અથવા હરણ કરવાવાળાનું અનુમેઇન કરે છે, તે કારણે તે મહાન પાપ For Private And Personal Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४८ करणात्सः, 'महया जाव उबक्खाइत्ता भवई' महद्भिः पापकर्मभिः समनुयुक्ता स्वात्मनः पापिठत्वेन लोके-उपख्यापयिता भातीति । कारणवशात क्रोधं कृत्वाअकुर्वन् पापीयानिति पूर्वप्रकरणे प्रदर्शितम् । इह तु कारणमन्तरेणैव परानपकुर्वन् पहृष्यति तादृशः कर्मणि पापं लेशतोऽपि न विचारयति, तादृशः पुरुषः कस्यचिदनपतेर्धान्यादिकं स्वयं नाशं करोति, परेण वा नाशयति, विनाशं कुर्वन्त मन्य. मनुमोदते-इति स महापापीति दर्शयति-'से एगइओ' स एकतयः कश्चित्यापी 'गो वितिगिंछई' नौ विमर्षति-नैव किमपि विचारयति, किन्तु विचारमन्तरेणैव सावधमाचरति, 'तं नहा' तद्यथा 'गाहावईण वा-गाहाचरपुत्ताण वा' गाथापतीनां करने वाले का अनुमोदन करता है। इस कारण वह महान् पाप कर्म से युक्त होकर लोक में अपने को पापिष्ठ के रूप में प्रसिद्ध करता है। - यहां तक उन पापी पुरुषों का कथन किया गया है। जो किसी कारण से कुपित होकर दूसरों का अपकार करते हैं। अब ऐसे पापीयों का उल्लेख करते हैं जो निष्कारण ही दूसरों का अपकार करके प्रसन्न होते हैं और लेश मात्र भी पाप का विचार नहीं करते। ऐसे पुरुषों में से कोई धनपनि के धान्य आदि को स्वयं नष्ट करता है दूसरे से नष्ट करने वाले का अनुमोदन करता है । ऐशा पुरुष महापारी है यह आगे दिखलाते हैं.. कोई पापी पुरुष कुछ भी विचार नहीं करता है, विचार किये विना ही पाप का आचरण करता है, जैसे-गाधापति या गाथापति કર્મથી યુક્ત થઈને જગતમાં પિતાને પાપિષ્ક તરીકે પ્રસિદ્ધ કરે છે ' આટલા સુધી તેવા પાપી પુરૂષનું કથન કરવામાં આવ્યું છે કે જેઓ કોઈ કારણથી ક્રોધ યુક્ત થઈને બીજાઓને અપકાર કરે છે. હવે એવા પાપીને ઉલલેખ કરવામાં આવે છે કે જેઓ વિના કારણે જ બીજાઓને અપકાર કરીને પ્રસન્ન થાય છે. અને લેશમાત્ર પણ પાપને વિચાર કરતા નથી. એવા પુરૂષમાંથી કઈ ધનવાના ધાન્યને સ્વયં નાશ કરે છે. બીજાની પાસે નાશ કરાવે છે. અથવા નાશ કરવાવાળાનું અનુદન કરે છે એ પુરૂષ મહા પાપી હોય છે. તે હવે આગળ બતાવવામાં આવે છે. કંઈ પાપી પુરૂષ કંઈ પણ વિચાર કર્યા વિના જ એટલે કે વગર વિષયે જ પાપનું આચરણ કરે છે, જેમ ગાથા પતિ અથવા ગાથા પતિને For Private And Personal Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - समवार्थबोधिनी टीका डि. थु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् २४९ ww बा-गाथापतिपुत्राणां वा 'सयमेव' स्वयमेत्र 'अगणिकारणं ओसहीओ झामेई' अग्निकायेन - ज्वलद्बहिना ओषधी धन्यगोधूमादिकान् धमति दाहं करोति 'जाब' मावद - अन्येनाऽपि ध्मापयति दाहयति 'अनंपि झामंत, समणुत्राणई' धमन्त अस्मीकुर्वन्तमपि अन्यं समनुजानाति अनुमोदते, 'इइ से महया जाव उववस्वारथा भवति' इति सः महद्भिः - पापकर्मभिः संयुज्यमानः स्त्रस्य दौरात्म्यं लोके उपखवा पयति - तनोतीति' से एगइओ' स एकः कचित्पापीयानेव 'णो वितिगिछ' नीं विचिकित्सति - नो विमर्शति 'तं जहा' तद्यथा - कारणमन्तरेणैव विचारमकुर्वन् 'गाहावईण वा-गाह | बपुताण वा' गाथापतीनां वा-गाथापतिपुत्राणां वा 'उहाण वा-गोणाण वा घोडगाण वा-गहमाण वा-सयमेत्र छुराओ कप्पेड़ उष्ट्राणां वागाव वाघोटकानां वा गईमानां वा स्वयमेवावयवान् करते-कृन्तति, 'अन्नेण वि' अन्येनाऽपि 'कप्पावे' कल्पयति कर्त्तनं कारयति 'अन्नं वि कपंत' अन्यमपि कल्पमानं - कृतन्तम् 'समणु जाणई' समनुजानाति अनुमोदते 'से एगइओ जोवितिगिछ' स एकतयः अपरः कोऽपि महापापी न किमपि विचिकित्सति-विमर्श नविचारयति, अविचाय्यैव कस्यचिद् धनिकस्य अकारण पशुशालां कण्टकादिभिरवरुद्ध यपुत्रों की औषधियों को अर्थात् गेहूं आदि के पौधों को स्वयं जला देता है, या दूसरों से जलवा देता है या जला देने वाले का अनुमोदन करता है । इस प्रकार वह घोर पाप से युक्त होकर जगत् में अपनी दुरात्मता प्रकट करता है। कोई पापी विचार किये बिना ही गाथापति या गाथापति पुत्रों के ऊंटों, गायों, घोडों तथा गर्दभों के अवयवों को स्वयं काटता है, दूसरों से कटवाता है या काटने वाले का अनुमोदन करता है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कोई पापी विचार किये बिना ही किसी धनी की पशुशाला को अकारण ही कंटकों आदि से घेर कर जला देता है, दूसरे से जलवा વૃત્તિના સ્વીકાર કરીને મત્સ્ય અથવા ખીજા ત્રસ પ્રાણીનું હનન, છેદન, ઔષધિયાને અર્થાત્ ઘહું વિગેરેના છેડવાને સ્વયં બાળી નાખે છે, અથવા બીજાની પાંસે મળાવી નખાવે છે, અથવા મ.ળવાવાળાનુ' અનુમેદન કરે છે. આ રીતે તે ધાર પાપથી યુક્ત થઇને જગતમાં પેાતાનુ દુાત્મપણુ પ્રગટ કરે છે. કાઈ પાપી વિચાર કર્યા વિના જ ગાથાપતિના પુત્રાના ઉઢા, ઘેાડાઓ, તથા ગધેડ એના અવયવાને સ્વયં કાપી લે છે, બીજાની પાસે કપાવે છે, અથવા કાપવાવાળાનું અનુમાદન કરે છે. કાઇ પાપી વિચાર કર્યા વિનાજ કાઈ ધનવાનની પશુશાળાને વિના કારણે જ કાંટાઓ વિગેરેથી ઘેરીને બાળી નાખે છે, તથા તેમ કરવાવાળાનું' सू० ३२ For Private And Personal Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५० सूत्रकृताङ्गसूत्रे अग्निदीहिं करोति, अन्येनापि तथा कारयति, तथा कुर्वतं परं समनुजानाति, इंति स पापिष्वपि पापिष्ठतर इति दर्शयति । 'तं जहा' तद्यथा - 'गाइावण वागांडावर ताण वा' गाथापतीनां वा गाथापतिपुत्राणां वा 'उसालाओ' वा जान ग्रहमसालाओ वा' उष्ट्रशाला वा यावद्वर्दमशाला वा 'कंटकबोंदियाहिं परिपेहिता' कष्टकशाखाभिः परिपिधाय 'सयमेत्र' स्वयमेव 'अगणिकारणं' अग्निकार्यन 'झमे " धमति, अन्येन वा ध्मापयति, धमन्तमन्यं वा पुनः 'समणुजाणई' सम - सुजानाति - अनुमोदते 'से एगइयो णो वितिछि' स एकतयो महापापी स्वकर्मफलं न विमर्शति न विचारयति 'तं जहा' तद्यथा- 'गाहावईण वा गाहाबहपुत्ताण बाजा' गाथापतीनां वा-गावांपतिपुत्राणां वा यावत् 'मोतियं वा' मौक्तिकं बा- मौक्तिकमणिकाञ्चनादिकम् 'सयमेव अवहरइ जान' स्वयमेव अपहरति यावद, अन्येनापि अपहारयति, अपहरन्तमन्यम् 'समणुजाणः समनुजानाति - अनुमोदते 'से एगओणो वितिछि' स एकतयः कोऽपि हीनमपि न किमपि विचारयति देता है और ऐसा करने वाले का अनुमोदन करता है। वह पापियों में बहुत बडा पापी है, यह दिखलाते हैं-गाथापति या गोधापति के पुत्रों की उष्ट्रशाला यावत् गर्दभ शाला को कंटकशाखा आदि से घेर कर उसे स्वयं ही आग से जला देता है दूसरे से जलवा देता है, और जलाने वाले का अनुमोदन करता है । कोई पापी अपने कर्म के फल का विचार किये बिना ही गाथापतियों या गाथापति पुत्रों के मणिकांचन मोती आदि का स्वयं अपहरण करता है दूसरे से अपहरण करवाना है और अपहरण करने वाले का अनुमोदन करता है। कोई मतिहीन कुछ भी विचार न करके अकारण ही श्रमणों या अनुभानरे छे. ते पाथीयो भेट पायी गाय ते नावे छे.ગાથાપતિ અથવા ગાથાપતિના પુત્રની ઉન્દ્રશાળા યાત્રતું ગભશાળાને કાટા વિગેરેથી ઘેરીને તેને સ્વય' પાતે જ આગથી બાળે છે. અથવા ખીજા પાસે મળાવે છે. અને માળવાવાળાનુ અનુમાદન કરે છે. તે માટે પાપી કહેવાય છે. કાઈ પાપી પોતાના કમના ફળના વિચાર કર્યા વિના જ ગાથાપતિ અથવા ગાથા પતિના પુત્રોના મશી, કાંચન-સેતુ મેતી, વિગેરેનું સ્વય. અપહરણુ (चोरी) हरे छे. अथवा जीलनी पांसे, थोरी उरांवे छे. अथवा अपड़र ફરવાવાળાનું અનુમાન કરે છે, તે મેટા પાપી કહેવાય છે, For Private And Personal Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् .२५१ अकारणमेव 'तं जहां तद्यथा-'समणाण वा-माहगाण वा' श्रमगानां वा माहनानां वा छत्तगंवा-दंडगं वाजाव चम्मछेषणगं वा' छत्रकं वा-दण्डकं वा यावत्-चमच्छेइ. नकं वा 'सयमेव स्वयमेव 'अवहरइ जाव' अपहरति यावत् अन्येनापि अपहारयति, तथाकुर्वन्तमन्यम् ‘सरणुनाणई' समनु नानाति अनुमोदनां करोतीति से महया जावं उपक्खाहत्ता भवई' समहभिःपापकर्मभिरामान मुख्यापयिता भवति, पापिष्ठत्वेन लोके स्वात्मनोऽपकीति विस्तारयतीति से एगइओ' स एकतयः कश्चित् पुरुषः 'समणं वा माहणं वा दिस्सा' श्रमगं वा माहनं वा दृष्ट्वा 'नानाविहेहिं पावकम्मेहि नानाविधैः-अनेकप्रकारकैः पापकर्मभिः 'अताणं' आत्मानम् 'उवक्खाइत्ता भव' उपख्यापयिता भवति 'अदुवा' अथ मा ‘णं अच्छराए आफालिता भवई' अप्सरसछोटिका गः आस्फायिता भाति (चुटकीति पसिद्धा) अस्सरसो जम्भाकाले नृत्याऽभिनये वा करतलध्वनिकर्ता भवति-अथ उपसंहृतः अप्सरसः छोटिकायाः आस्फालयिता वादको भवति । साधु दृष्ट्वा तर्जन्या तर्जयति 'अदुवा' अथवा 'फरुसं वादिता भवई' परुष वादिता भाति-असभ्यावनं वदति 'कालेगावि से अणुपक्टिस' कालेनापि गोचरी समये दैववशात्ताशपुरुषगृहमनुपविष्टस्य मिक्षापयोजनायाऽऽगतस्य साधोः काले भिक्षार्थमागताय साधने 'असणं वा पाणं वा ब्राह्मणों के छाते, डंडे यावत् चर्मछे दनक कोस्वयं हरण कर लेते हैं, दूसरे से हरण करवाते हैं या हरण करने वाले का अनुमोदन करते हैं वे घोर पाप का आचरण करके अपने को पापी के रूप में प्रसिद्ध करते हैं। कोई पापी श्रमण या माहन को देख कर उनके प्रति नाना प्रकार के पापमय आचरण करते हैं. और अपने को पापी के रूप में प्रख्यात करते हैं। वे साधु को देखकर तर्जनी उंगली से धमकाते हैं-सामने से चले जाने को कहते हैं, असभ्य वमनों का प्रयोग करते है, भिक्षा के समय पर भाग्य से घर में भिक्षा के हेतु आये हुए साधु को કે મંદ બુદ્ધિવાળે પુરૂષ વગર વિચાર્યું જ વિના કારણે શ્રમણે અથવા બ્રાહ્મણને છત્રી, ઇંડા, ચાવત્ ચર્મ છેદનકને સ્વયું હરણ કરી લે છે. અથવા બીજાની પાસે હરણ કરાવે છે. અથવા હરણ કરવાવાળાનું અનુમોદન કરે છે. તેઓ ઘેર પાપનું આચરણ કરીને પોતાને પાપીપણાથી પ્રસિદ્ધ કરે છે કઈ પાપી શ્રમણ અથવા માહનને-બ્રાહ્મણ જઇને તેઓ પ્રત્યે અનેક પ્રકારને પાપ યુક્ત વ્યવહાર કરે છે, અને પિતાને પાપી રૂપે પ્રસિદ્ધ કરે છે. તેઓ સાધુને તર્જની આંગળીથી ધમકાવે છે. પિતાની સામેથી ચાલ્યા જવાનું . કહે છે. અસભ્ય વચનને પ્રયોગ કરે છે. આહારના સમયે ભાગ્યવશાત ઘર For Private And Personal Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५२ सूत्रकृतासून जाव णो दवावेना भवई' अशनं वा-भोजनन् पानं वा जलं यावनो दापयिता भवति, नो ददाति कथमपि-इति, 'जे इमे भवंति वोनमंता भारता अलसना बसकगा किरणगा समणगा पवयंति' ते दुर्मेधसः इत्थं कथयन्ति साधु दृष्ट्वा, ये इमे भवन्ति विद्यन्ते व्यनमन्तः, भाराक्रान्ताः-अलसका:-आळस्वत: वृषलका:नीशः कृपणका:- श्रमगकास्ते इमे कम प्रयाद् गृहं परित्यज्य श्रमगाः सन्तः प्रव. मन्ति-साधवो भूत्वा सुखमिच्छन्तो भवन्ति । न इमे वस्तुतो वैरग्यपूर्विकां पत्रज्या नीतवन्तः, कार्यभयादेव प्रवज्यां प्राप्तान्तः 'ते इणमे जीवितं संपडिबूहें ति' ते इदमेव जीवितं धिग्रजीवितं निन्दितजीवनमेव संप्रति वृहन्ति, साधुद्रोहमय जीवनमे साधुनीवनं मन्यन्ते । इत्थंभूनास्ते 'नाइ ते परलोगस्स अट्ठार किंचिवि सिलीसंति' नाऽपि ते परलोकस्यार्थाय किश्चिदपि श्लिष्यन्ति, किमपि कार्य तपोदानादि न कुर्वन्ति, 'ते' ते इत्थं भूताः परलोककार्यविरताः 'दुक्खंति' दुःरुपन्ति-मरणलक्षणदुःखं प्राप्नुवन्ति, 'ते सोयंति' ते शोचन्ति-दीन प्राप्नुवन्ति, 'ते जूति' ते जूरयन्ति-पश्चात्तापं लभन्ते ते तिप्पंति' ते तिप्यन्ति-शोकातिरेकेणाश्रुलालादिक्षरणं प्राप्नुवन्ति 'ते पिटुंति' ते पीड्यन्तेअशन, पान, खादिम और स्वादिम नहीं देते हैं, परन्तु ऐसा कहते हैं कि-ये बोझा ढोने वाले, आलसी, नीच, एवं कृपण हैं । कार्य करने से भयभीत होकर घर छोड कर साधु हो गए हैं और मौज उड़ाना • चाहते हैं। उन्होंने वास्तव में वैराग्य से दीक्षा नहीं ग्रहण की है, कर्तव्य से डर कर साधुवेष पहन लिया है। इस प्रकार कहकर वे साधुनों के द्रोही अपने धिक जीवन को ही उत्तम जीवन समझते हैं। वे परलोक के हित के लिए तपस्या दान आदि कुछ भी धर्म कर्म नहीं करते हैं। जब मृत्यु समीप आ जाती है तो शोक करते हैं-दीन बन जाते हैं, झूरते हैं, आंसू बहा-यहो कर रोते हैं, संताप का अनुभव પર ભિક્ષા માટે આવેલા સાધુને અશન, પાન, ખાદિમ અને સ્વાદિમ આપતા નથી. પરંતુ એવું કહે છે કે-આ બે ઉપાડવાવાળા આળસુ, નીચ, અને કંજસ છે. કામ કરવાથી ડરીને ઘર છેડી સાધુ બની ગયા છે. અને એજ મજા કરવા ચાહે છે. તેઓએ વાસ્તવિક રીતે વૈરાગ્યથી દીક્ષા ગ્રહણ કરેલ નથી. કર્તવ્યથી ડરીને સાધુવેશ પહેરી લીધું છે. આ પ્રમાણે કહીને સાધુ એને દ્રોહ કરવાવાળા એવા તેઓ પિતાના ધિક્કારવાને એ એવા જીવનને ઉત્તમ માને છે. તેઓ પારલેકના હિત માટે તપસ્યા, દાન, વિગેરે કંઇ પણ ધર્મ કાર્ય કરતા નથી. અને જ્યારે મૃત્યુ નજીક આવી જાય છે, ત્યારે શેક કરે છે. દીન-ગરીબ બની જાય છે. મૂરે છે, આંસુ પાડી પાડીને રડે For Private And Personal Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् शरीरतापं प्राप्नुवन्ति 'ते परितप्पति' ते परितप्यन्ति-परितापमनुभवन्ति-परकृत दु:खैः 'ते दुक्खण-जूरण सोयण-तिप्पण-पिट्टण-परितिप्पण-वह-बंधण-परिकिलेसाओ अप्पडिविरया भवई' ते दुःखन-जूरण-शोचन-तेपन-पीडन-परि. तापन-वध-बन्धन-परिक्शेभ्योऽपतिविरता भवन्ति, एभ्यो दुःखेभ्यः कदाचि दपि निवृत्ता न मान्ति-चातुर्गतिकसंसारे परिभ्रमन्ति 'ते महया आरंभेणं' ते महता आरम्भेण-माणिघातरूपेण ते 'महया समारंभेणे' महता समारम्भेणमाणितापरूपेण 'ते महया आरंभसमारंमेण' ते महद्भयामारम्भसमारम्माभ्याम् 'विरूवरूवेहि विरूपरूपैः-अनेकप्रकारकैः पावकिच्चेहि' पापकृत्यः 'उरालाई माणुस्सगाई' उदाराणामतिविस्त नानां मानुष्यकाना-मनुष्यसम्बन्धिनाम् 'मोन भोगाई भोग मोगानाम् 'भुजित्तारो भवति' भोक्तारो भवन्ति तमेव मनुष्यसम्बन्धि भोगमकारमिह दर्शयति-तंजहां तद्यथा-'अन्नं अमकाले' अन्नोपभोगसमये भोजनकालेऽनं प्राप्नुवन्ति 'पाणं पाणकाले' पानं-पानीयं पानकाले 'वस्थं वत्थकाले' वस्त्रं वस्त्रकाले 'लेणं लेणकाछे' लयनं-गृहं लयनकाले 'सयणं सयण काले'.शयनं-शय्या-शयनकाले भुञ्जन्ति, 'सपुवावरं च णं हाए कयबलिकम्मे' सपूर्वापरं च खलु स्नातः कृतवलिकर्मा पातमध्याह्ने सायं च स्नानादिकं विधाय करते हैं। वे दुःख, झूरण, शोक, रुदन, पिट्टन, परितापन, वध, बन्धन आदि क्लेशों से मुक्त नहीं होते हैं । चतुर्गतिक संसार में परिभ्रमण करते हैं । महान् आरंभ-जीवघात से, महान् समारंभ-प्राणातिपात से और महान् आरंभ-समारंभ से, विविध प्रकार के पापकृत्य करके मनुष्य संबंधी उदार भोग भोगते हैं। वे भोग इस प्रकार हैं-भोजन के समय भोजन करते हैं पानी के समय पानी पीते हैं, वस्त्र के समय वस्त्र, गृह के समय गृह, और शरमा के समय शय्या का उपभोग करते है। प्रातः काल मध्याह्न और सायं काल स्नान करके काक आदि को છે. તેઓ સંતાપને અનુભવ કરે છે. બીજાએ કરેલા તાપ-દુખને અનુભવ उरे छे. ते म, जु२५ ४, ३६न, पिट्टन, परिता५, १५, मन्थन, વિગેરે કલેશેથી મુક્ત થતા નથી. ચાર ગતિવાળા સંસારમાં ભટકયા કરે છે. મહાન આરંભ-જીવઘાતથી, મહાન સમારંભ પ્રાણાતિપાતથી, અને મહાન આરંભ સમારંભથી અનેક પ્રકારના પાપકૃત્ય કરીને મનુષ્ય સંબંધી ઉદાર ભેગે ભેગવે છે. તે ભેગે આ પ્રમાણે છે. -ભજનના સમયે ભજન કરે છે, પાણીના સમયે પાણી પીવે છે. વસ્ત્રના સમયે વસ્ત્ર, ઘરના સમયે ઘર, અને શય્યાના સમયે શાનો ઉપભોગ કરે છે, સવાર સાંજ અને મધ્યાહ For Private And Personal Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra है। ૧૨ www.kobatirth.org सूत्रता सू कृतं बलिकर्म - काकाद्यर्थ दत्तान्नभागो येन स कृतवकि 'कपकोउयमंगलपायच्छित्ते' कृतकौतुकमङ्गलमायश्चित्तः कृतानि कौतुकानि मसतिलकादीनि मङ्गल दध्यक्षतादि, प्रायश्चित्तं - दुःखप्नादि प्रतिघातत्वेनावश्यकरणीयत्वात् येन स कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चितः 'सिरसा पहाए' शिरसा स्नातः 'कंठे मालाकडे' कण्ठे मालाकृत् कृतकण्ठमाला 'आविद्धवणिसुवन्ने' आविद्धमणिसुवर्ण:- माविद्धे - परिधृते शरीरे मणिसुवर्णे येन स तथा, 'कलियमालामउली' कल्पितमाला मुकुटी - कल्पितः - परि धृतः मालाप्रधानो कुटो येन स तथा स्नानादिकं कृत्वा सुवर्णाऽलङ्कारालङ्कृतःमालानिर्मितमुकुटवान् भवति 'पडिबद्धसरीरे' प्रतिबद्धशरीरः- दृढावयत्रकायो युवा हृष्टपुष्टाङ्ग 'वग्वारियसोणिसुत्त गमल्लदामकलावे' पतिलम्बितश्रोणिसूत्रकमाल्यदामकलापः, कटयाश्रोणिसूत्रं दधाति शिरसि च मालामयमुकुटं विभति । 'अहतवत्थ परिहिए' अहत वस्त्र परिहितः - अह स्वच्छनवीन वस्त्रस्य धारको भवति । 'चंदणोक्खितगायसरी रे' चन्दनोचितमात्रशरीरः स्वकीयशरीरे चन्दनलेवं कारयतः 'मह महालियाएं' महत्यां विस्तीर्णायां 'कूडागारसाला ए कूटागारशालायाम् 'मह महालय सि' महवि महालये विस्तीर्णे 'सोहासणंसि' सिंहासने 'इत्थिशुम्भबलिभन्न भाग देते हैं। कौतुक, मंगल और प्रायश्चित्त करते हैं अर्थात् मस-तिलक आदि करते हैं, दधि-अक्षत आदि का मंगल करते हैं, और दुःस्वप्न आदि के फल को नष्ट करने के लिए प्रायश्वित्त कर्म करते है। शिर में माला युक्त मुक्कुट धारण किये हुए, एवं कंत्र में रत्नों और स्वर्ण के आभूषण धारण किये हुए होते हैं । दृढ शरीर वाले अर्थात् तरुण होते हैं, कमर में कंदोरा पहनते हैं, मस्तक पर माला मय मुकुट पहनते हैं, कोरे और स्वच्छ वस्त्र धारण करते हैं। उनके शरीर पर चन्दन का लेप किया जाता है। तलश्चात् वे अत्यन्त विशाल कूटागार शाला में रक्खे हुए विस्तीर्ण सिंहासन के ऊपर बैठकर रमणी કાળે સ્નાન કરીને કૌતુક, મગળ અને પ્રાયશ્ચિત્ત કરે છે. અર્થાત્ મસી (મશ) તિલક વિગેરે કરે છે. દહિં. અક્ષત વિગેરેથી મ’ગલ કાર્ય કરે છે અને દુઃસ્વપ્ન વિગેરેના ફળના નાશ કરવા માટે પ્રાયશ્ચિત્ત કમ કરે છે. મસ્તક પર માળા યુક્ત મુકુટ ધારણ કરેલા ડાય છે. તથા કંઠમાં રત્ના અને સાનાના રેશાઓ ધારણ કરેલા હાય છે. મજબૂત શરીરવાળા અર્થાત્ યુવાન હોય છે, કેડે કંદારી પહેરે છે. માથા પર માળાથી યુક્ત મુગુટ પહેરે છે. કારા અને સ્વચ્છ વસ્ત્રોને ધારણ કરે છે તેના શરીર પર ચંદનના લેપ કરેલા હોય છે. તે પછી તેઓ અત્યંત વિશાળ એવી કૂટા આર શાળામાં રાખેલાં માટા સિ‘હાસન પર બેસીને શ્રી સમૂહથી સેવાય છે. - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् -२५५ " - 1 संपरिबुडे' स्त्रीगुल्म संपरिवृतः स्त्रीसमुदायैः संसेवितो भवति । 'सव्त्रराइपुर्ण सर्व रात्रेण 'जोइणा' ज्योतिषा 'झियायमाणेणं' ध्मायमानेन 'महया हयनट्टगीयवाइयतीतळ तालतु डियघण मुइंगपदुपवाइयरवेणं महताहतनाट्यगीतवादित्रतन्त्रीखलवालत्रुटिकधनमृदङ्गपदुपवादितरवेण तत्र नाट्य-लोकप्रसिद्ध गोतमपि लोक प्रसिद्धमेव, वादित्रं वाच्यविशेषः तम्त्री-वीणा तळतालो हस्ततालः त्रुटितं वादि धनमृदङ्गः-- पटहः प्रत्येकं समासः ते पटुभिः पुरुषः मत्रादिता स्तेषां महता रवेणशब्देन 'उरालाई' उदारान्- अत्युन्नतान् 'माणुस्साई मानुष्यान् मनुष्य सम्बन्धिनः 'भोगभोगाई' भोग्यभोगान्-शब्दादिकान् 'भुंजमाणे सुखानः 'बिहरह' विहरति । एतदृशो राजस्थानीयसुखासीनो यदा किमप्याज्ञापयति तदैव किङ्कराः सर्वे उपस्थिता भवन्ति, तथाऽऽज्ञानुरोधेन कार्य कुर्वन्ति इति तद्दर्शयति 'तस्स णं एगमवि आणवेमाणस्स' तस्य खलु पूर्वोक्तपुरुषैकमपि पुरुषमाज्ञापयतः - आझ कुतः 'जान' यावत् 'चत्तारि पंच जणा अवुत्ता चेत्र अन्भुदेति' एके पुरुषे आइते सति द्वौ त्रयः- चत्वारः पञ्च वा अनुक्ताः - अनाज्ञप्ता एवं पुरुषा अभ्युतिष्ठन्ति यद्यपि कार्यवशाद एकमाज्ञापयति तथापि अनाशप्ताः - अनाहूता बहवः कार्यायोप समूह के द्वारा सेवित होते हैं। वहां रात भर दीपकों का प्रकाश रहता - | नृत्य और गान होता है। जोर-जोर से : वीणा, मृदंग ढोल और हाथ की तालियों की ध्वनि होती है । इस प्रकार श्रेष्ठ से श्रेष्ठ मनुष्यसंबंधी कामभोगों को भोगते रहते हैं। इस प्रकार राजसी सुख भोगने वाला पुरुष जब किसी किंकर को आज्ञा देता है तो उसी समय सारे किंकर उपस्थित हो जाते हैं और उसकी आज्ञा के अनुसार कार्य करते हैं। यही बात आगे दिखालाई जाती है- पूर्वोक्त सुखों को भोगने वाला जब एक किंकर पुरुष को बुलाता है तो यावत् एक के बदले चार-पांच पुरुष बिना बुलाये ત્યાં આખી રાત દીવાઓના પ્રકાશ રહે છે. નૃત્ય અને ગાન થાય છે. જોર જોરથી વીણા, મૃગ, ઢાલ અને તળીયાના અવાજ થતા રહે છે. આ રીતે ઉત્તમમાં ઉત્તમ મનુષ્ય સ’માઁધી કામભેાગાને ભાગવતા રહે છે. આ રીતે રાજસી સુખ ભાગવવાવાળા પુરૂષ જ્યારે કાઇ એક નાકરને આજ્ઞા કરે છે, તે તેજ વખતે બધા જ નાકરો ઉપસ્થિત થાય છે. અને તેની આજ્ઞા પ્રમાણે કાય કરે છે. એજ વાત હવે આગળ બતાવવામાં આવે છે. પૂર્વોક્ત સુખાને ભાગવવા વાળા પુરૂષ જ્યારે એક નાકરને પણ એલાવે તા ચાવત્ એકને અદ્દલે ચાર્ પાંચ પુરૂષા ખેલાવ્યા વિના જ હાજર થઈ For Private And Personal Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताजस्थे स्थित भवन्ति, अभ्युत्थाय अनेके किं कुर्वन्ति तत्राह-'मण देवाणुपिया' भणत-कथयत हे देशानुपियाः ! 'किं करेमो किं आहरेमो कि उवणेमो' * कुर्मः, किमाहरामा, किमुफ्नयामा-किमानीय असं यामः किं आचि. हामो' किमातिष्ठामा-कस्मिन् कार्ये वर्तामः किं भे हियं इच्छियं कि युमा हितमित्रम् 'भे' इति युष्माकम् कि भे आसगस्त सयइ' किं युष्माकम् आस्यस्य स्वदते-किं भवतां मुखाय रोचते, 'तमेव पासित्ता' तमेव तादृशं पुरुषम् दृष्ट्या 'अणारिया' अनार्याः ‘एवं वयंति' एवं वदन्ति देवे खलु अयं पुरिसे' देवः खल अयं पुरुष: 'देवसिणाए खल अयं पुरिसे' देवस्नातका- देवश्रेष्ठः खलु अयं पुरुषः देनीवणिज्जे खलु अयं पुरुषः' देवानां हि जीवना व्यतिगमयति 'अन्ने वि यणे अनीति' अपेऽप्येनमुपजीवन्ति, अन्येऽपि बहसः एनमुम्जीवन अस्याऽऽधारण स्वकीयजीवनयात्राम् आनन्दभागितया गमयन्ति 'तमेव पासित्ता आरिया वयंति' तमेव दृष्ट्वा आर्याः पुनरेवं वदन्ति भोगाद्यासक्तमानसं ते पुरुषविशेष यमनाया: पुण्यफल भोक्तारं मन्यन्ते । 'अभिक्न कू रकम्मे ख अयं पुरिसे' अयं पुरुषस्तुहाजिर हो जाते हैं और कहते हैं-हे देवों के प्यारे आज्ञा दीजिए क्या करें ? क्या लावें ? क्या अर्पण करें ? किस कार्य में लगे ! आपको क्या हितकर और क्या इष्ट है ? आपके मुख को क्या रुचिकर है ? .... इस प्रकार के सुख भोगने वाले पुरुष को देख कर अनार्य लोग ऐसा कहते हैं- यह पुरुष तो देव है ! देव ही क्या, देवों में भी श्रेष्ठ है, यह दिव्य जीवन व्यतीत कर रहा है ! इसके सहारे दूसरे भी बहुत से लोग गुलछरे उड़ा रहें हैं-सुखपूर्वक जीवन यापन कर रहे हैं ! किन्तु उसी भोगासक्त पुरुष को देख कर आयें जन इस प्रकार कहते हैं-यह पुरुष अत्यन्त ही कर कर्म करने वाला है ! यह बड़ा ही જાય છે. અને કહે છે કે હે દેવના પ્યારા ! આજ્ઞા આપે અમે શું કરીએ? શું લાવી એ? શું અર્પણ કરીએ? શું કાર્યમાં લાગીએ? અપને શું હિતકર અને ઈષ્ટ છે ? આપના મુખને શું ગમશે? આવી રીતના સુખને ભેગવવા વાળા પુરૂષને જોઈને અનાર્ય લોકો 2-20 ५३५ ते ४ थे, ३१४ शु१ वाथी ५ उत्तम छे. આ દિવ્ય જીવન વીતાવી રહેલ છે. તેની સહાયથી બીજા પણ ઘણા લોકો મજા ઉડાવી રહ્યા છે. એટલે કે સુખી જીવન વિતાવી રહેલ છે. પરંતુ એ ભેગાસક્ત પુરૂષને આર્ય જ્યારે એવું કહે છે કે –આ પુરૂષ ક્રૂર કર્મ કરવાવાળે છે. આ ઘણે જ ધૂર્ત છે. આ પિતાની રક્ષામાં For Private And Personal Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ fadhana kendra www.kobatirth.org Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gy सबयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् २५७ अभिक्रान्तक्रूरकर्मा, अत्यन्तमेव क्रूर कर्म करोति, 'अतिधुत्ते अइआयरक्खे दाहिण गामिर नेरइए कण्हपविवए' अतिधूतॊऽत्यात्मरक्षका-दक्षिणगामी नैयिका-कृष्ण पाक्षिकः, अर्द्धपुद्गलपरावर्तनकालाधिकः संसारो वर्तते स कृष्णपाक्षिका कथ्यते 'आगमिस्साणं' आगमिष्यतिकाले 'दुल्लहबोहियाए' दुर्लभवोधिका 'भविस्सो' भविष्यति, 'क्रूरकर्मणि सदेव व्याप्तत्वाद् भविष्यकाले कयमप्ययं न सुखभाव स्यात् तथा दुर्लभबोधिरपि भविष्यति । मुळभबोधित्वं नासादयिष्यति, अधर्ममयजीवनात् 'इच्चेयस्स' इत्येतस्य 'ठाणस' पूर्वोपदर्शितमानुष्यसुखस्थानस्य 'वेगे' एके-केचन मन्दबुद्वयः 'उहिया' उस्थिताः-मिक्षार्थ कृतप्रयत्ना अपि 'अभिः गिझंति' अभिगृध्यन्ति-केचिद् मन्दबुद्धयो मोक्षाय समुत्थिता अपि पूर्वोक्तस्थानमभिलषन्ति, तद्विषयकस्पृहां कुर्वन्ति 'वेगे अणुट्टिया अभिगिति एके अनुस्थिताः-गृहस्था अपि अभिगृध्यन्नि-इदं सुखस्थानमभिलषन्ति-'वेगे एके 'अभिझंझाउला' अभिझझाकुला:-तृष्णातुराः 'अभिगिझंति' अभिय. धूर्त हैं ! यह अपनी रक्षा में तत्पर रहता है ! यह दक्षिण दिशा के नरक में जाकर उत्पन्न होने वाला है ! यह कृष्ण पाक्षिक है अर्थात् अर्द्ध पुद्गल परावर्तन में भी इसका जन्म-मरण का प्रवाह समाप्त होने वाला नहीं हैं ! यह दुर्लभषोधि होगा सदैव क्रूर कृत्यों में संलग्न रहने के कारण यह भविष्यत् काल में किसी भी प्रकार सुखी होने वाला नहीं है। इसको सरलता से सम्यक्त्व मिलने वाला नहीं है, क्योंकि यह अधर्ममय जीवन जी रहा है ! - कोई-कोई मूर्ख पुरुष गृहत्यागी होकर और मोक्ष के लिए प्रयत्न शील होकर भी पूर्वोक्त सुख स्थान की इच्छा करते हैं और कोई-कोई गृहस्थ भी उसकी अभिलाषा करते हैं । तृष्णा से आतुर लोग इस તત્પર રહે છે. આ દક્ષિણ દિશાના નરકમાં જઈને ઉત્પન્ન થવાવાળે છે, આ કૃષ્ણ પાક્ષિક છે, અર્થાત્ અધ પુદ્ગલ પરાવર્તમાં પણ તેના જન્મ મરણનો પ્રવાહ સમાપ્ત થવાવાળે નથી. આ દુર્લભ બધી થશે. હંમેશાં ક્રરકર્મોમાં લાગી રહેવાથી આ ભવિષ્ય કાળમાં કઈ પણ પ્રકારથી સુખી થવાના નથી, તેને સરલતાથી સમ્યક્ત્વ મળવાનું નથી. કેમકે આ અધર્મમય જીવન જીવી રહ્યા છે. કઈ કઈ મૂર્ણ પુરૂષ ગૃહત્યાગી થઈને અને મોક્ષ માટે પ્રયત્ન શીલ થઈને પણ પૂર્વોક્ત સુખસ્થાનની ઈચ્છા કરે છે. અને કઈ કઈ ગૃહસ્થ પણ તેની ઈચ્છા કરે છે. તૃણાથી આતુર લેકે આ સુખ થાનની કામના सू. ३३ For Private And Personal Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५८ सूत्रकतारले यन्ति-विषयसुखानि अभिलषन्ति । एवं रसगौरवम् ऋद्धिगौरवं सातागौरवं चाभिलषन्ति । वस्तुतः 'एसठाणे अणारिए' एतत्-पूर्रोक्तं विषयोपप्लुतं स्थान मनार्यम्-अत्यन्तमेवाऽशोभनम् 'अकेवले' अकेवलम्, न यत्र भाति केवलज्ञानम् पतत्स्थानासीनः कथमपि केवलज्ञान न पाप्नोति अपडिपुन्ने अपतिपूर्णम्-आत्यन्तिकमुखरहितम् 'अणेयाउए' अनैयायिकम्-न न्यायो विद्यतेऽस्मिन् स्थाने 'असंसुद्धे' असंशुद्धम्, अत्र शुचित्वं नास्ति प्राणातिपातादिसङ्करात् । 'असल्लगत्तणे' अशल्यकर्तनम्-कर्मरूपं शल्यं नात्र कर्त्यते-कर्मणो निराकरणं न भवति । 'असिद्धिमग्गे' असिद्धिमार्ग:-सिद्धेरविचलसुखमाप्ते मार्गभूतं नैतत् स्थानम् 'अमुत्तिमग्गे' अमुक्तिमार्ग:-अभिहितार्थ कर्ममहीणमपि नाऽनेन मार्गेण प्राप्यते। 'अनिमाणमग्गे' अनिर्वाणमार्ग:-नायं निर्वाणस्य-परमसुखस्य मार्गः 'अणिजाणमग्गे' अनिर्याणमार्गः-नायं निर्याणस्य सकलकर्मणः आत्मनिःसरणस्य मार्गोऽपि । 'असम्बदुक्खपहीणमग्गे' असर्वदुःखपहीणमार्गः-सर्वदुःखानां विनाशनन कमपि न, 'एगंतमिच्छे एकान्तमिथ्या-एकान्ततो मिथ्याभूतं स्थानम् 'असाहु' असाधु-अशोभनमिदं सुखस्थान की कामना करते हैं एवं रस कद्धि-सातागौरव चाहते हैं! किन्तु वास्तव में यह स्थान अ य अर्थात् अधम है, केवलज्ञान से रहित है अर्थात् इस विषय-विलास के स्थान में रहने वाला पुरुष कदापि केवलज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता । यह आत्यन्तिक सुख से रहित है, न्याययुक्त नहीं है, प्राणातिपात आदि पापों के सम्पर्क के कारण अशुद्ध है, कर्म रूप शल्य को काटने वाला नहीं है, असिद्धि का मार्ग है अर्थात् अनन्त अविचल सुख की प्राप्ति का विरोधी है, मुक्तिका मार्ग नहीं है निर्माण-परम शांति का मार्ग नहीं है, निर्याण का मार्ग नहीं है, सकल दुःखों के विनाश का मार्ग नहीं है, यह एकान्त रूप से मिथ्या है, अशोभन है। यह प्रथम अधर्मपक्ष-पुण्डरीक प्रकरण કરે છે, અને રસ, ત્રાદ્ધિ સાતા ગૌરવની ઈચ્છા રાખે છે. પરંતુ વાસ્તવિક રીતે આ સ્થાન અનાર્ય અર્થાત અધમ છે. કેવળજ્ઞાન વિનાનું છે. અર્થાત આ વિષય વિલાસના સ્થાનમાં રહેવાવાળે પુરૂષ કોઈ પણ વખતે કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત કરી શકતો નથી આ આત્યંતિક સુખથી રહિત છે ન્યાય યુક્ત નથી પ્રાણાતિપાત વિગેરે પાપના સંપર્કથી અશુદ્ધ છે. કર્મ રૂપ શલ્યને કાપવા વાળા નથી, અસિદ્ધિના માર્ગ રૂપ છે. અર્થાત્ અનંત અવિચલ સુખની પ્રાપ્તિના વિરોધી છે. મુક્તિનો માર્ગ નથી, નિર્વાણ પરમશાંતિને માર્ગ તથી નિર્માણને માર્ગ નથી. સકળ દુખોના વિનાશને માર્ગ નથી. આ એકાન્ત For Private And Personal Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % E SED समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् २५९ स्थानम् ‘एस खलु' एषः खलु 'पढ मस्स' प्रथमस्य 'ठाणस्स' स्थानस्य 'अधम्मपक्खस्स' अधर्मपक्षस्य-पुण्डरीकाकरणस्य 'विभंगे एपमाहिए' विभङ्गो-विचार आख्यातः, सर्वथा दुःखानतिक्रमणात्, विदुषा एतत् स्थानं कदापि न प्रार्थानीयम् किन्तु-इतो विरक्तिरेव करणीये त भावः ॥२०१७-२३ मूलम्-अहावरे दोच्चम्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एकमाहिज्जइ, इह खलु पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा, संतेगइया मणुस्सा भवंति, तं जहा-आरिया वेगे-अणारिया वेगे उच्चागोया वेगे णीया गोया वेगे कायमंता वेगे हस्समंता वेगे सुवन्ना वेगे दुवन्ना वेगे सुरूवा वेगे दुरूवा वेगे, तेसिं च णं खेत्तवत्थूणि परिग्गहियाई भवंति, एसो आलावगो जहा पोंडरीए तहा यवो, तेणेव अभिलावेण जाव सव्वोवसंता सव्वत्ताए परिनिव्वुडे ति बेमि। एस ठाणे आरिए केवले जाव सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे एगंतसम्म साहु, दोच्चस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिए ॥सू०१८॥३३॥ छाया-अथाऽपरो द्वितीयस्य स्थानस्य धर्मपक्षस्य विभङ्गा एव माख्यायते, इह खलु प्राच्या वा प्रतीच्या वा उदीच्यां वा दक्षिणस्यां वा सन्स्येकतये मनुष्या भवन्ति, तद्यथा-आर्या एके-अनार्या एके-उच्चगोत्रा एके नीचगोत्रा एकेकायवन्त एके-हस्ववन्त एके -सुवर्णा एके-दुर्वर्णा एके मुरूपा एके-पाएके, तेषां च खलु क्षेत्रवास्तुनि परिगृहीतानि भवन्ति, एष आलापको यथा पौण्डरीके तथा नेतन्या, तेनैवामिलापेन यावत् सर्वोपशान्ताः सस्मितया परिनित्ता इति ब्रवीमि । एतत् स्थानमार्य केवलं यावत् सर्वदुःखपहीणमार्गम् एकान्तसम्यक् साधु, द्वितीयस्य स्थानस्य धर्मपक्षस्य विभङ्ग-एबमाख्यातः ।।०१८३३॥ का विचार कहा गया है। ज्ञानी पुरुष को इस स्थान की कदापि इच्छा करनी नहीं चाहिए किन्तु इससे विरक्ति ही करनी चाहिए ॥१७॥ રૂપથી મિથ્યા છે. અશભન છે. આ પહેલા અધર્મ પક્ષ-પુંડરીક પ્રકરણને વિચાર કહેલ છે. જ્ઞાની પુરૂષએ આ સ્થાનની ઈચ્છા કેઈ કાળે કરવી ન જોઈએ. પરંતુ આનાથી વિરકત જ રહેવું જોઈએ. પ્રસૂ. ૧ળા For Private And Personal Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir সুমনা . टोका-अधर्मपक्षस्य निरूपणं कृतं सम्पति-धर्मपक्षं निरूपयितुमाह'अहावरे' इत्यादि । 'अहावरे' अथाऽपरः 'दोवस्त ठाणस्स धम्मपक्वस्त द्वितीयस्य स्थानस्य-पुण्डरीकाकरणधर्मपक्षस्य 'विभंगे एवमाहिज्नई' विभङ्गःविचारः एवं-वक्ष्यमाणपकारेण आख्यायते, 'इह खच पाईणं वा' पाच्या पूर्वस्यां दिशि वा 'पडीणं वा' प्रतीच्या पश्चिमायां वा 'उदीणं वा' उदीच्याम्-उत्तरदिशि वो 'दाहिणं वा' दक्षिणस्यां दिशि वा 'संतेगइया मणुस्सा भति' सन्त्येकतयेअनेकप्रकारका मनुष्या भवन्ति 'तंजहा' तद्यथा-'पारिया वेगे' आर्याः सद्धर्माचरणशीला वा एके 'अणारिया वेगे' अनार्या वा एके 'उच्चागोया वेगे' उच्च गोत्रा वा एके-उग्रवंश्याः 'णीयागोया वेगे' नीचगोत्रा वाएके-शूद्रादयः 'कायमंता वेगे हस्समंतावेगे' कायवन्तो दीर्घकाया वा एके, इस्तवन्तः-लघुशरीरा वा एके 'सुवन्ना वेगे' सुवर्णाः-सुन्दरवर्ण पन्त एके, 'दुवन्ना वेगे' दुर्वर्णाः-कुत्सितवर्णवन्त ___ 'अहावरे दोच्चस्स ठाणस्स' इत्यादि । टीकार्थ-अधर्म पक्ष का निरूपण किया जा चुका है अब धर्म पक्ष का निरूपण करते है-अषदूसरे स्थानपुण्डरीक प्रकरण के धर्म पक्ष का विचार किया जाता है-इस लोक में पूर्व दिशा में पश्चिम दिशा में उत्तर दिशा में और दक्षिण दिशा में अनेक प्रकार के मनुष्य होते हैं। वे इस प्रकार हैं-कोई आर्य अर्थात् समीचीन धर्म का आचरण करने वाले और कोई अनार्य होते हैं, कोई उच्च गोत्री होते हैं कोई नीच गोत्री शूद्रा दिक होते हैं, कोई लम्बे शरीर वाले तो कोई छोटे शरीर वाले होते है, कोई सुवर्ण वाले तो कोई दुर्वर्ण वाले होते हैं, कोई सुन्दर रूप वाले बहावरे. दोच्चस्स ठाणस्स' त्या ટીકાથ—અધર્મ પક્ષનું નિરૂપણ કરવામાં આવી ગયું છે, હવે ધર્મ પક્ષનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે–હવે બીજા સ્થાન પંડરીક પ્રકરણના ધર્મ પક્ષને વિચાર કરવામાં આવે છે. - આ લેકમાં પૂર્વ દિશામાં પશ્ચિમ દિશામાં, ઉત્તર દિશામાં, અને દક્ષિણ દિશામાં અનેક પ્રકારના મનુષ્ય હેય છે, તે આ પ્રમાણે છે. કોઈ આય" અર્થાત સમીચીન ધર્મનું આચરણ કરવાવાળા, અને કોઈ અનાર્ય હોય છે. કોઈ ઉચ્ચ ગોત્રવાળા હોય છે. કેઈ નીચ ગોત્રવાળા શાદિક હોય છે. કેઈ લાંબા શરીરવાળા હોય છે. તે કોઈ ટૂંકા શરીરવાળા હોય છે. કઈ સારા વર્ણવાળા તે કઈ કદરૂપા હોય છે. કેઈ સુંદર રૂપવાળા For Private And Personal Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् २६१ एके 'मुरूवा वेगे दुरूवा वेगे' सुरूपाः-सुन्दराकृतयः एके, दुरूपा:-कुत्सिता. कुनय एके 'तेसि च णं खेतवत्थूनि परिग्गहियाई भवंति' तेषां च खलु-आर्यादीनां क्षेत्रवास्तूनि-क्षेत्रमन्दिराणि परिगृहीतानि भवन्ति 'एसो आलाव गो जहा पौडरीए तथा णेययो' एष आलापको यथा पौण्डरीके पुण्डरीकपकरणे कथितस्तथैव तेनैव प्रकारेण नेतव्यः-इहापि वक्तव्यः विशेषस्तु पुण्डरीकाकरणे द्रष्टव्या 'तेणेव अभिलावेण जाव समोवसंता सवत्ताए परिनिव्वुडतिबेमि' तेनैव अभिलापेन प्रकारेण यावत् सर्वोपशान्ता सर्वकषायेभ्यो नित्ता स्तथा सर्वेन्द्रियविषयेभ्यो निवृत्ताः सर्वात्मतया परिनिवृत्ताः सर्वेभ्यः प्राणातिपातादि. यो निवृत्ताः ते धर्मपक्षीयाः, इत्यह सुधन स्वामी ब्रवीमि-कथयामि यथा-भगः वत्स्थाने, ‘एम ठाणे आरिए केले जाव सम्बदुक्वाहीणमग्गे एगंतसम्मे साहु' एतत्स्थानमार्यम्-आर्यपुरुषैः सेवितम्, केवलं-केवलज्ञानप्रापकम्, यावत्-पतिः पूर्ण नैयायिकं संशुद्ध प्राणातिपातादिदोषवर्जितं शल्यकर्त्तनम्-कर्मरूपशल्यस्थ विनाशकम्, सिद्धिमार्ग सिद्धेः पापकम् मुक्तिमार्ग-मुक्तिप्रापकर, निर्वाणमार्गम् और कोई कुरूप होते हैं। ये आर्य आदि मनुष्य क्षेत्र वास्तु आदि के परिग्रहवान होते हैं, इत्यादि आलापक जो पुण्डरीक के प्रकरण में कहा गया है, उसी प्रकार यहां भी कहलेना चाहिए । यावत् जिन्होंने अपनी सब इन्द्रियों को वशीभूत करलिया है, जो सब कषायों से निवृत्त है और सब इन्द्रियविषयों से विमुख हैं, वे धर्म पक्षीय हैं, ऐसा. श्री सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं। यह स्थान (धर्मपक्ष) आर्य पुरुषों द्वारा सेवित है, केवलज्ञान की प्राप्ति कराने वाला है, प्रतिपूर्ण है, न्याय युक्क है, प्राणातिपात आदि दोषों से रहित होने के कारण विशुद्ध है, शल्यों को नष्ट करने वाला अर्थात् कर्मों का विनाशक है, सिद्धि का मार्ग है, मुक्ति का मार्ग है, निर्वाण (मोक्ष) का मार्ग है, અને કેઈ કુરૂપ હોય છે. આ આર્ય વિગેરે મનુષ્ય ક્ષેત્ર, વાસ્તુ ' વિગેરેના પરિગ્રહવાળા હોય છે. વિગેરે આલાપકે જે પુંડરીકના પ્રકરણમાં કહેલ છે, એજ પ્રમાણે અહિયાં પણ કહી લેવા જોઈએ. યાવત જેઓએ પિતાની સઘળી ઇન્દ્રિયને વશ કરેલ છે. જે સઘળા કષાયથી નિવૃત્ત છે. અને સઘળી ઇન્દ્રિયના વિષયથી વિમુખ હોય છે. તેઓ ધર્મ પક્ષના છે. એ પ્રમાણે શ્રી સુધર્માસ્વામી જંબૂ સ્વામીને કહે છે. આ સ્થાન (ધ પક્ષ) આર્ય પુરૂ દ્વારા સેવિત છે. કેવળજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ કરાવવાવાળું છે. પ્રતિ પૂર્ણ છે. ન્યાય યુક્ત છે. પ્રાણાતિપાત વિગેરે દેથી રહિત હોવાના કારણે વિશદ્ધ છે. શાને નાશ કરવાવાળા અર્થાત્ કર્મોના વિનાશક છે. સિદ્ધિના માર્ગ રૂપ છે. મુક્તિનો માર્ગ છે. નિર્વાણ (મોક્ષ) ને માગ છે. For Private And Personal Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६२ सूत्रकृताङ्गसूत्र अशेषकर्मक्षयात्मकनिर्माणस्य साधकम्, निर्याणमार्गम्, सर्वदुःख रहीग मार्ग-सर्वदुःखरहितमार्गम्, एकान्तमम्यक् साधु -अत्यन्तोत्तमम्-एवं प्रकारेण 'दोबस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स' द्वितीगस्य स्थानस्य धर्मपक्षस्य 'विभंगे एवमाहिए' विभङ्गो विचारः एवं-पूर्वपदर्शितक्रमेण आख्यातः-कथित इति ॥सू०१८=३३॥ . मूलम्-अहावरे तच्चस्स ठाणस्त मिस्सगस्स विभंगे एवमाहिज्जइ, जे इमे भवंति आरगिया आवसहिया गामणियंतिया कण्हई रहस्सिया जाव ते तो विप्पमुच्चमाणा भुज्जो एलमूयत्ताए तमुत्ताए पञ्चायंति, एस ठाणे अणारिए अकेवले जाव असव्वदुक्खपहीणे मग्गे एगंतमिच्छे असाहू, एम खलु तच्चस्स ठाणस्स मिस्सगस्स विभंगे एवमाहिए ॥सू० १९॥३४॥ - छाया-अथाऽपर स्तृतीयस्य स्थानस्य मिश्रकस्य विभङ्गः एवमाख्यायते ये इमे भवन्ति आरण्यकाः अवसथिकाः ग्रामान्तिकाः कचिद्राहसिका यावत् ते ततो विप्रमुच्यमाना भूयः एलमूकत्वाय तमस्त्वाय प्रत्यायन्ति । एतत्स्थानम् अनार्यम् अकेवलं यावद् असर्वदुःखमहीणमार्गमेकान्तमिथ्या असाधु । एष खलु तृतीयस्य स्थानस्य मिश्रकस्य विभङ्ग एवमाख्यातः । सू०१९-३४॥ टीका-धर्माऽधर्मयोविभङ्गो निरूपितो सम्मति-तृतीयं मिश्रकस्थानं प्रद. यति-'अहावरे इत्यादि, 'अहावरे' अथापरः तच्चस्स' तृतीयस्य 'ठाणस्स' स्था. निर्माण (कर्म रहित होने) का मार्ग है, समस्त दुःखों का अन्त करने का मार्ग है, एकान्त सम्यक् है । इस प्रकार दूसरे स्थान अर्थात्, धर्मपक्ष का विचार कहा गया है ॥१८॥ 'अहावरे तच्चस्स हाणस्स' इत्यादि । टीकार्थ-धर्म पक्ष और अधर्म पक्ष का विचार कहा जाचुका है। . अब तीसरे मित्रपक्ष का अर्थात् धर्माधर्म पक्ष को दिखलाते हैं-तीसरे નિર્માણ (કર્મરહિત થવાના) ના માર્ગ રૂપ છે. સઘળા દુઃખના અંત કરવાના માર્ગ રૂપ છે. એકાન્ત સમ્યફ છે. આ રીતે બીજા સ્થાન અર્થાત ધર્મ પક્ષને વિચાર કહેવામાં આવેલ છે. સૂ. ૧૮ 'अहावरे तच्चस्स ठाणस्स' त्याह ટીકાર્ય-ધર્મ પક્ષ અને અધર્મ પક્ષનું નિરૂપણ કરવામાં આવી ગયેલ છે. હવે ત્રીજા મિશ્રપક્ષને અર્થાત્ ધમધમે પક્ષને વિચાર બતાવવામાં For Private And Personal Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् २६३ नस्य 'मिस्सगस्स' मिश्रकस्य 'विभंगे एवमाहिज्नई' विभङ्ग:-विचार एवमाख्यायते 'जे इमे भवंति' ये इमे भवन्ति 'आरणिया' आरण्यका:-अरपये निवसन्त स्तापसाः 'आवसहिया' आवसथिका:-गृहं निर्माय तत्र वसन्त स्तापसपभूतयः । 'गामणियंतिया' ग्रामान्तिकाः-प्रामसमीपे निवासशीला 'कण्हुईरहस्सिया' काचि. दाहसिका:-सामुद्रिकादिद्वारा रहस्यवार्ताकर्तारः 'जाव' यावत्-ते अनार्या विभसिपमाः कालमासे कालं कृत्वा अन्यतरेषु आमुरिकेषु किरियषिकेषु उपपात्तारो भवन्ति । 'ते तो विषमुच्चमाणा' ते-तापसः मृत्वा किल्बिषा:-देवा भवन्ति, ते तत्राऽनेकमकारकभोगान् भुक्त्वा 'तो' ततो देवलोकाद् विमुच्यमाना:च्युताः सन्त: 'भुज्जो' भूयः 'एलमूयत्ताए' एलमूकवाय-स्वाभाविकमूकमव नार 'तमुत्ताए' तमस्त्वाय-जन्मान्धत्वाय 'पञ्चायति' प्रत्यायानि-मनुष्यलोके आगच्छन्ति 'एसठाणे अणारिए' एतत्स्थानमनायम्-आर्यपुरुषैरसेवितस्थानम् 'अकेवले' अकेवलम्-नैतत्स्थानं केवलज्ञानसमुत्पादकम् 'जाव' यावत् 'असम्वदु. क्खपहोणमग्गे' असर्वदुःखपहीणमार्गः, न यत्र सर्वदुःखानां क्षयो भवति । 'एगंत. स्थान-मिश्रपक्ष का विचार इस प्रकार है___ ये जो अरण्य में निवास करने वाले तापस हैं, जो घर बनाकर उसमें रहने वाले तापस आदि हैं, जो ग्राम के समीप वसने वाले तापस हैं, जो सामुद्रिक आदि द्वारा रहस्य मय वाते करनेवाले हैं अर्थात् गुप्त वार्तालाप किया करते हैं वे गलत मार्ग को अंगीकार किये हुए हैं। वे मृत्यु का अवसर आने पर मरण को प्राप्त होकर किल्विषी देवों में उत्पन्न होते हैं। ऐसे तापस जब किल्विषी देव पर्याय से च्युत होते हैं तो गूगे के रूप में उत्पन्न होते हैं,जन्मान्ध होते हैं। यह स्थान भी आर्य पुरुषों द्वारा सेवित नहीं है, केवलज्ञान का जनक नहीं है यावत् આવે છે–ત્રીજા સ્થાન-એટલે કે મિશ્ર પક્ષને વિચાર આ પ્રમાણે કહેલ છે. –જેઓ આ જંગલમાં વસનારા તાપસે છે, જેઓ ગામની નજીક વસનારા તાપસ છે જેઓ ઘર બનાવીને વસનારે તાપસે છે. જેઓ સામુદ્રિક લક્ષણો વિગેરે દ્વારા રહસ્ય યુક્ત વાત કરવાવાળા છે, અર્થાત્ ગુપ્ત વાર્તાલાપ કર્યા કરે છે. તેઓએ ખરાબ માર્ગનું અવલમ્બન કરેલ છે. તેઓ મૃત્યુને અવસર આવે ત્યારે મરણ પામીને કિબિષદેવ પર્યાયમાં ઉત્પન્ન થાય છે. એવા તાપસે જ્યારે કિબિષીદેવ પર્યાયથી યુત થાય છે, ત્યારે ગુંગાના રૂપથી ઉત્પન્ન થાય છે. જન્માંધ થાય છે. આ સ્થાન આર્ય પુરૂષ દ્વારા સેવવાને For Private And Personal Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतास्त्र मिच्छे' एकान्तमिथ्या 'असाहु' असाधु-अशोभनम् 'एस खलु तच्चस्स ठाणस्स 'मिस्सगस्स एष खल तृतीयस्य स्थानस्य मिश्रकस्य 'विभंगे एव माहिए' विमनः -विचार एवमाख पातः, अाऽपि धर्मस्याऽल्पत्वात्-अधर्मस्य च बहुसाद विवेकवता त्याग एवं करणीय इति । सू०१९-३४॥ मूलम्-अहावरे पढमस्स ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिज्जइ, इह खल्लु पाईणं वा ४ संतेगइया मणुस्सा भवंति 'गिहत्था महिच्छा महारंभा महापरिग्गहा अधम्मिया अधम्मा णुया अधम्मिट्ठा अधम्मक्खाई अधम्मपायजीविणो अधम्मपलोई अधम्मपलज्जणा अधम्मसीलसमुदायारा अधम्मेणं चेत्र वित्ति कप्पेमाणा विहरति । हण छिंद भिंद विगत्तगा लोहियपाणा चंडा रुद्दा खुद्दा साहस्सिया उकुंचणवंवणमायाणियडिकूडकवडसाइसंपओगबहुला दुस्सीला दुबया दुप्पडियाणंदा असाहू समाओ पाणाइवायाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए जाव सव्वाओ परिग्गहाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए सव्वाओ इस स्थान के सेवन से समस्त दुःखों का अन्त नहीं हो सकता। यह एकान्त मिथ्या है, अशोभन है। . यह तीसरे मिश्रपक्ष का विचार कहा गया है। यह तीसरा पक्ष प्रथम अधर्मपक्ष के समान समग्र रीतिसे पापमय नहीं है, दूसरे धर्म पक्ष के समान एकान्त धर्ममय भी नहीं है। इसमें थोड़ा धर्म और बहुत अधर्म है, अतएव इसे मिश्रपक्ष कहा है। विवेकवान् पुरुष को इस पक्ष का भी त्याग कर देना चाहिए ।।१९॥ ગ્ય નથી. કેવળજ્ઞાન જનક નથી. યાવતું આ સ્થાનના સેવનથી સઘળા દુઃખને અંત થઈ શક્તિ નથી. તે એકાન્ત મિથ્યા અને અશોભન છે. આ ત્રીજા મિશ્ર પક્ષને વિચાર કહેવામાં આવેલ છે. આ ત્રીજો પક્ષ પહેલા અધર્મ પક્ષની માફક પૂરે પૂરો પાપમય નથી, બીજા ધર્મ પક્ષની જેમ એકાન્ત ધર્મમય પણ નથી, આમાં થેડે ધર્મ અને ઘણખરો અધર્મ છે. તેથી જ - આને મિશ્ર પક્ષ કહેલ છે. વિવેકી પુરૂષે આ પક્ષને પણ ત્યાગ કરવો જોઈએ. ૧ For Private And Personal Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - --- -- ---- ---- समयार्थबोधिनी टीका वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् . २६५ः कोहाओ जाव मिच्छादंसणसल्लाओ अप्पडिविरया, सवाओ पहाणुम्मदणवष्णगगंधविलवणसदफरिसरसरूवगंधमल्लालंकाराओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए। सव्वाओ सगडरहजाणजुग्गगिल्लिथिल्लिसंदमाणिया सयणासणजाणवाहणभोगभोयर णपवित्थरविहीओ अप्पडिविरिया जावज्जीवाए। सहवाओ कय. विकामासद्धमासरूवग संववहाराओअप्पडिविरया जावजीवाए। सबाओ हिरण्णसुवण्ण धगधण्णमणिमोत्तियसंखसिलप्पवालाओ अप्पडिविरया जावजीवाए सवाओ कूडतुलकूडमाणाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए सव्वाओ आरंभसमारंभाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाओ सव्वाओ करणकारावणाओ अप्पडिविरया जाव ज्जीवाए सव्वाओ पयणपयावणओ अप्पडिविरया जावजीवाए सव्वाओ कुटपिट्टणतजणताडणवहबंधणपरिकिलेसाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए, जे जावण्णे तहप्पगारा सावजा अबोहिया कम्मंता परपाणपरियावणकरा जे अणारिएहि कज्जति तओ अप्पडिविरया जावजीवाए। से जहाणामए केइपुरिसे कलममसूरतिलमुग्गामासनिप्फावकुलस्थआलिसंदग पलिमंथगमाइएहि अयंते कूरे मिच्छादंडं पउंजंति, एवमेव तहप्पगारे परिसजाए तित्तिरवदृगलावगकवोयकविंजलमियमहिसवराहगाहगोहकुम्मसिरिसिवमाइएहिं अयंते रे मिच्छादंडं पउंसि, जावि य से बाहिरिया परिसा भवइ, तं जहा-दासेइ वा पेसेह वा भयएइ वा भाइल्लेइ वा कम्मकरएइ वा भोगपुरिसेइ वा तेसि पि य णं अन्नयरंसि वा अहा लहुगंसि अवराहसि सयमेव सू० ३४ For Private And Personal Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६६ सूत्रकृताङ्गसूर्य गरुयं दंड निवत्तेइ, तं जहा - इमं दंडेह इमं मुंडेह इमं तज्जेह इमं तालेह इमं अदुयबंधणं करेह इमं नियलबंधणं करेह इमं बिंधणं करेह इमं चारबंधणं करेह इमं नियलजुयलं संको धियं मोडियं करेह इमं हत्थछिन्नयं करेह इमं पायच्छिन्नयं करेह इमें कन्नछिन्नयं करेह इमं नक ओटू सीसमुहछिन्नयं करेह इमं drगछहियं अंगछहियं पक्खाफोडियं करेह इमं ण्यणुष्पाडिय करेह इमं दंसणुष्पाडियं वसणुष्पाडियं जिन्भुप्पाडियं ओलंबियं करेह घसियं करेह घोलिये करेह सूलाइयं करेह सूलाभिन्नयं करेह खारवत्तियं करेह वज्झत्तियं करेह सीहपुच्छियगं करेह वसभपुच्छियगं करेह दवग्गिदडूयंगं कागणिमंसख । वियंगं भत्तपाणनिरुद्धगं इमं जावज्जीवं वहबंधणं करेह इमं अन्नयरेणं असुभेणं कुमारेणं मारेह । जाविय से अभितरिया परिसा भवइ, तं जहा - मायाइ वा पियाइ वा भायाइ वा भगिणीइ वा भज्जाइ वा पुताइ वा धूताइ वा सुहाइ वा, तेसिं पियपणं अन्नयरंसि अहा लहुगंसि अवराहंसि सयमेव गरुयं दंडं णिवतेइ, सीओदगवियसि उच्छोलित्ता भवइ जहा मित्तदोसवत्तिए जाव अहिए परंसि लोगंसि, ते दुक्खंति सोयंति जूति तिष्पंति पिहंति परितप्यंति ते दुक्खणसोयणजूरणतिप्पणपिट्टणपरितपणवह बंधणपरिकिलेसाओ अप्परिविरया भवंति । एवमेव ते इस्थिकामेहिं मुच्छिया गिद्धा गढिया अज्झोववन्ना जाव वासाई चउपंचमाई छदसमाई वा अप्पतरो वा भुजतरो For Private And Personal Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् वा कालं अँजित्तु भोगभोगाइं पविसुइत्ता वेरायतणाई संचिणित्ता वहुई पावाई कम्माइं उस्सन्नाइं संभारकडेण कम्मणा से जहा णामए अयगोलेइ वा सेलगोलेइ वा उदगंसि वा पक्वित्ते समाणे उदगतलमइवइत्ता अहे धरणितलपइटाणे भवइ, एवमेव तहप्पगारे पुरिसजाए वज्जबहुले धूतबहुले पंकबहुले वेरबहुले अप्पतियबहुले दंभबहुले णियडिबहुले साइबहुले अयसबहुले उस्सन्नतसपाणघाई कालमासे कालं किच्चा धरणितलमइवइत्ता अहे णरगतलपइट्टाणे भवइ ॥सू० २०॥३५॥ छाया-अथाऽपरःप्रथमस्य स्थानस्य अधर्मपक्षस्य विभङ्गः एवमाख्यायते । इह खलु पाच्यां वा ४, सन्त्येकनये मणुष्या भवन्ति-गृहस्थाः महेच्छा महारम्माः महापरिग्रहाः अधार्मिकाः अधर्माऽनुगाः अधर्मिष्ठाः अधर्मख्यायिनः अधर्मपायजीविनः अधर्मपलोकिनः अधर्मपरञ्जनाः अधर्मशीलसमुदाचाराः अधर्मेण चैक वृत्ति कल्पयन्तो विहरन्ति । जहि छिन्धि, भिन्धि, विकर्तकाः लोहितपाणयः चण्डाः रौद्राः क्षुद्राः साहसिकाः उत्कुश्चनवश्वनमायानिकृतिकूटकपटसातिसंपयोगबहुलाः दुःशीलाः दुताः दुःपत्यानन्दाः असाधवः सर्वस्मात् माणातिपातात अपतिविरताः यावज्जीवनं यावत् सर्वस्मात् परिग्रहादप्रतिविरताः यावज्जीवनम् । सर्वस्मात् क्रोधाद् यावद् मिथ्यादर्शनशल्यादपतिविरताः, सर्वस्मात् स्नानोन्मर्दनवर्णकगन्धविलेपनशब्दस्पर्शरसरूपगन्ध माल्यालङ्कारादप्रतिविरताः यावज्जीवनम् । सर्वस्मात् शकटस्थयानयुग्यगिल्लिथिल्लिस्यन्दमानिका शयनासनयानवाहनमोग्यभोजनपविस्तरविधितः अपतिविरताः यावज्जी नम्। सर्वतः क्रयविक्रयमाषार्धमाष. रूपकसंव्यवहारादपतिविरताः यावज्जीवनम्, सर्वस्माद हिरण्यसुवर्णधनधान्यमणिमौक्तिकशङ्खशीलापवालादपतिविरता यावज्जीवनम् । सस्मिात् कूस्खलकूटमानात् अपतिविरता यावजीवनम्, सर्वस्मात् आरम्भसमारम्भादतिरिता यावजीवनम् । सर्वस्मात करणकारणतः अपतिविरताः यावज्जीवनम् । सर्वतः पचनपाचनतः अपतिविरता यावज्जीवनम्। सर्वतः कुट्टनपिट्टनतर्जनताडनवधवन्धनपरिक्लेशाद्रपतिविरताः पावज्जीवनम् । येचाऽन्ये तथापकाराः सायद्या अबोधिकाः कर्मसमारम्भाः परमाणपरितापनकराः ये अनायः क्रियन्ते ततोऽमतिविरताः यावज्जीवनम् । तद् यथा For Private And Personal Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे नाम केचित् पुरुषाः कलममसूरतिलमुद्माषनिष्पावकुलत्थालिसन्दकपरिमन्थादिकेषु अत्यन्तं क्रूराः मिथ्यादण्डं प्रयुजते एवमेव तथा प्रकाराः पुरुाजाताः तित्तिर वर्तः कलावककपोतकपिञ्जलमृगमहिषवराहग्राहगोधाकूर्मसरिसपादिकेषु अत्यन्त करा: मिथ्यादण्डं प्रयुनन्ति याऽपि च तेषां बाह्या परिषद् भवति तद्यथा-दासो वा प्रेष्यो वा भृतको वा मागिको वा कर्म करो वा भोगपुरुषो वा तेषाश्च च खलु अन्यतर. स्मिन् यथालघुकेऽप्यपराधे स्वयमेव गुरुकं दण्ड निर्वतयन्ति तद्यथा-इमं दण्डयत, इमं मुण्ड यत, इमं तर्जयत, इमं ताडयत, इमं पृष्ठबन्धनं कुरुत, निगडबन्धनं कुरुत, इम हाडी बन्धनं कुरुत, इमं चारबन्धनं कुरुत, इमें निगडयुगल कोचित मोटितं कुरुत, इमं हस्तच्छिन्नकं कुरुत, इमं पादच्छिन्नक कुरुत, इमं कर्यन्छिन के कुरुत, इमं नासिकौष्ठशीर्ष मुखच्छिन्नकं कुरुन, इमं वेदकच्छिन्नमच्छिन्नकं, पक्षस्फोटितं कुरुत, इमं नयनोत्पाटितं कुरुत, इमं दशनोत्पाटि वृषगोत्पाटितं जिह्वोत्याटितम् अलम्बितं कुरुन घर्षितं कुरुत घोलितं कुरु हु, शूलापितं कुरुत, शूलाभिन्नकं कुरुत, क्षारवर्तिनं कुरुत, वध्यवर्तिनं कुरुत, सिंहपुच्छिकं कुरुत, वृषभपुच्छितकं कुरुत, दावाग्निदग्धाङ्गं कुरुत, काकालीमांसवादिताङ्गं भक्तवान. निरुद्ध कमिमं यावज्जीवनं वधवन्धनं कुरुत, इममन्यतरेणाऽशुभेन कुमारेण मारयत । याऽपि च तस्य आभ्यन्तरिकी परिषद् भवति तद्यथा-माता वा पिता वा भ्राता वा भगिनी वा भार्या वा पुत्रा वा दुहितरो वा स्नुषा वा तेषामपि च खलु अन्यतरस्मिन् यथा लघुकेऽप्यपराधे स्वयमेव गुरुकं दण्डं निवर्तयन्ति शीतोदकविकटे उत्क्षेप्तारो भवन्ति यथामित्रदोषप्रत्ययिके यावद् अहिताः पर. स्मिन् लोके ते दुःरूपन्ति शोचन्ति जूस्यन्ति तिप्यन्ति पीड्यन्ते परितप्यन्ति, ते दुःखन शोचनतरणतेपनपिट्टनपरितापनवबन्धनपरिक्लेशेभ्योऽप्रतिविरता भवन्ति । एवमेव ते स्त्रीकामेषु मूच्छिताः गृद्धाः प्रथिताः अध्युपपन्नाः यावद् वर्षाणि चतुःपञ्च षड्दश वा अल्पतरं वा भूयस्तरं वा कालं भुक्तधा भोग्यभोगान् भविस्य वैरायतनानि सञ्चित्य बहूनि पापानि कर्माणि उत्सन्नानि सम्भारकतेन कर्मणा तद्यथा नाम अयोगोलको वा शैलगोलकोवा उदके वा पशिष्यमाणः उदक. तलमतिवर्त्य अधोधरणितलपतिष्ठानो भवति, एवमेव तथामकारः पुरुषजातः पर्यायवहुल: धुतबहुलः पङ्कबहुला वैरबहुला अप्रत्ययबहुल: दम्मबहुलः नियति बहुल सातिबहुलः अयशो बहुला उत्सन्नवसपाणघाती कालमासे कालं कृत्वा धरणितलमतिवयं अधो नरकतलपतिष्ठानो भवति ॥२०२०=३५।। For Private And Personal Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् टीका-धर्माऽधर्ममिश्रस्थानानां वर्णनं कृत्वा तत्तस्थाने निवसतां मनुष्याणां वर्णनमारभ्यते-पूर्वकथितमेशार्थ पुनर्विशदयति-'अहावरे' अथाऽपरः 'पढमस्स ठाणस्स' प्रथमस्य स्थानस्य अधम्मपक्खस्स' अधर्मपक्षस्य 'विभंगे' विभङ्गो विचारः 'एवमाहिन्नई' एवमाख्यायते 'इह खलु पाईगं वा' . प्राच्यां वा प्रतीच्या वा उदीच्यां वा दक्षिणस्यां वा ४ 'संतेगइया मणुस्सा भवंति' सन्त्येकतये-अनेकप्रकारका मनुष्या भवन्ति, तद्यथा-याच्यादि दिशासु विविधप्रकारका मनुष्या वसन्ती त दर्शयति-'गिहरा' गृहस्था:-पुत्रादिभिः सह गृहे निवसन्तः 'महिच्छा' महेच्छा:-महती इच्छा विद्यते येषां ते महेच्छा:, 'महारंभा' महान् भारम्भो येषां ते तथा 'महापरिग्गहा' महान् परिग्रहो येषां ते महापरिग्रहाः 'अधम्मिया' अधा. मिंकाः-अधर्ममेवाऽऽचरन्तः 'अधम्माणुया' अधर्माऽनुगा:-अधर्ममनुगच्छन्ति ये तेऽधर्माऽजुगा:-'अधम्मिट्ठा' अधर्मिष्ठा:-अधर्ममे स्वाभिमतमभिमन्यमानाः 'अधम्मकलाई' अधर्मख्यायिन:-अधर्मस्यैव प्ररूपका:-चर्चाकारकाः 'अधम्मपाय _ 'अहावरे पढमस्स ठाणस्स' इत्यादि। टीकार्थ-धर्म पक्ष, अधर्मपक्ष और मिश्र पक्ष का वर्णन किया जा चुका है। अब इन तीनों पक्षों में रहने वाले मनुष्यों का वर्णन करते हुए प्रथम अधर्मपक्ष में स्थित मनुष्यों का वर्णन करते हैं। ____अधर्मपक्ष में स्थित मनुष्यों का विचार इस प्रकार है-इस लोक में पूर्व आदि दिशाओं में विविध प्रकार के मनुष्य होते हैं जो पुत्रकलत्र आदि के साथ गृह जीवन व्यतीत करते हैं-गृहस्थ होते हैं। वे महान् इच्छाओं वाले, महादंभी और महापरिग्रहवान होते हैं। अधर्म से ही अपने अभीष्ट सिद्धि समझने वाले और अधर्म का ही आचरण करने वाले, अधर्मका ही अनुगमन करने वाले, 'महावरे पढमस्स ठाणस्स' त्यात - ટીકાઈ–ધર્મ પક્ષ, અધર્મ પક્ષ, અને મિશ્ર પક્ષનું વર્ણન કરવામાં આવી ગયું છે. હવે આ ત્રણે પક્ષોને આશ્રય લેનાર માણસનું વર્ણન : કરતા થકા પહેલાં અધમ પક્ષમાં રહેલા માણસનું વર્ણન કરવામાં આવે છે. ' અધર્મ પક્ષ ને આશ્રય લેનાર માણસને વિચાર આ પ્રમાણે છે – આ લેકમાં પૂર્વ વિગેરે દિશાઓમાં અનેક પ્રકારના મનુષ્ય હોય છે. જેઓ પુત્ર, સ્ત્રી વિગેરેની સાથે ગ્રહ જીવન વીતાવે છે.-અર્થાત્ ગૃહસ્થ હોય છે. { " તેઓ મહાન ઈચ્છાઓ વાળા મહાન આરંભવાળા અને મહા પરિગ્રહવાળા હોય છે, તેઓ અધર્મનું જ આચરણ કરવાવાળા અધર્મનું જ અનુગમન કરવાવાળા, અધમથી જ પિતાના અભીષ્ટની સિદ્ધિ સમજવા વાળા, અને For Private And Personal Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७० सूत्रकृतागसूत्रे जीविणो' अधर्मपायजीविनः-अधर्म-हिंसादिकं पुरस्कृत गऽऽजीविका कुर्वन्तः 'अधम्मपलोई' अधर्मपलोपिन:-अधर्ममेव मग पश्यन्तः 'अधम्मपलज्जणा' अधमपरञ्जना:-अधर्मेणैव तुष्यन्तः अन्धानपि तोषयन्तः 'अधम्मसीलसमुदायारा' अधर्मशीलसमादचार:-स्व मावत आचरणतश्च ऽधर्मान्तः 'अपम्मेण च वित्ति कप्पे. माणा' अधर्मेण चैत्र वृत्तिम्-आजीविका कलायन्त:-कुन्तः 'विहरंति' विहरन्ति. विचरन्ति । ये पुरुषाः सर्वदा एवमेव सपाज्ञापयनि परिवारान्भृत्यांश्च ‘हण छिंद भिद' जहि यष्टयादिना, छिन्धि-खङ्गादिना, भिन्धि-भल्लादिना, 'विगत्तगा' विक-काश्च ये प्राण्यङ्गकरवरणादीनाम् 'लोहियपाणी' लोहितपाणय:-माणिनां. रक्तन-रुधिरेण लोहितों पाणी येषां ते लोहितपाणयः, 'चंडा रुद्दा खुद्द' चण्डा:अतिक्रोधयुक्ताः, रौद्रा:-भयानकाः, क्षुद्रा:-नीचस्वभावकाश्च 'साहस्सिया' साहसिका:-असमीक्ष्य पापकारिणः 'उक्कुंचणचणमायाणियडिकूड कवडसाइसंपओगबहुला' उत्कुश्चनवञ्चनमायानिकृतिकूटकपटसातिसंप्रयोगबहुला:-तत्री. स्कुश्चनं-शूलाद्यारोपणार्य प्राणिनामूर्ध्वक्षेपणम् , वञ्चन-परप्रतारणम् , मायाअधर्म से ही अभीष्ट सिद्धि समझने वाले और अधर्म का ही प्रतिपादन करने वाले होते हैं। उनका जीवन प्रायः अधर्म पर ही स्थित होता है। अधर्म ही उन्हें दिखाई देता है। अधर्म से ही वे संतुष्ट होते हैं और दूसरों को संतुष्ट करते हैं। स्वभाव से और व्यव. हार से अधर्मनिष्ठ ही होते हैं वे अधर्म से ही अपनी आजीविका करते हैं। अपने परिवार वालों और भृत्यों को सदा ऐसी ही आज्ञा देते हैं कि-मारो, छेदन करो, भेदन करो। प्राणियों के हाथ पग आदि अब. यवों को काट डालते हैं। उनके हाथ रक्त से रंगे रहते हैं । वे अत्य न्त क्रोधशील, निर्दय दुष्ट स्वभाव और क्षुद्र होते हैं । विना विचारे काम करते हैं। प्राणी को ऊपर उछाल कर शूल पर झेलते हैं, दूसरों અધર્મનું જ પ્રતિપાદન કરવાવાળા હોય છે. તેઓનું જીવન પ્રાયઃ અધર્મમય જ અવલંબે છે. અધર્મ જ તેઓને દેખવામાં આવે છે. અધર્મથી જ તેઓ સંતોષ પામે છે. અને બીજાઓને સંતેષ પમાડે છે. સવભાવથી અને વ્યવહારથી અધર્મનિષ્ઠ જ હોય છે. તેઓ અધર્મથી જ પિતાની આજીવિકા ચલાવે છે. પોતાના પરિવાર અને ભૂત્યને સદા એવી જ આજ્ઞા આપે છે. કે-મારે છેદન કરશે, ભેદન કરે, તેઓ પ્રાણિયેના હાથ પગ વિગેરે અવય. યાને કાપી નાખે છે. તેઓના હાથે લેહીથી ખરડાયેલા રહે છે. તેઓ ઘણું જ ક્રોધી નિર્દય દુષ્ટ સ્વભાવવાળા અને ક્ષુદ્ર- હલકા હોય છે. વગર વિચાર્યું કામ કરે છે. પ્રાણીને ઉપર ઉછાળીને શૂળ પર લે છે, બીજાઓને ઠગે છે. For Private And Personal Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समार्थबोधिमी टीका वि. शु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् : वश्वयुद्धः, गृहमायाकरणं निकृतिः, प्राणिनां प्रवारणाय देशभाषानेपथ्यविपर्ययकरणं कस्टम्, कूटम् - कूटतोलनम् कारणतुलापस्थादेः नानाविधकरणम्अवास्तविककरणम्, एतेषां प्रयोगैर्बहुलाः- उक्तकर्म कारका: 'दुस्सीला' दुःशीलाःदुष्टाचाराः 'दुनया' दुईराः दुष्टानि व्रतानि येषां ते तथा प्राणाविपातादिकाः रका 'दुपडियाणंदा' दुष्प्रत्यानन्दाः - दुःखेन प्रसन्नचेतसः - परपीडया सुखं मन्यमानाः 'असाहू' असाधवः- कुत्सिताचरणाः 'सन्नाओ पाणाइवायाओ अयडिरिया जावज्जी' सर्वस्मात् प्राणातिपातात् - जीवहिंसातः अपतिविरताःसर्वदेव जीवहिंसन व्यापाररता: जावज्जीवनम् 'जात्र सन्नाओ परिग्गहाओ अप्प डिविरया जावज्जीवाए' यावज्जीवं यावत् सर्वस्मात् परिग्रहात् अप्रतिविरताः जीवनपर्यन्तं परिग्रहं न त्यजन्ति, सवाओ कोहायो जात्र मिच्छा सगसल्लाओ अपडिरिया' सर्वस्मात् क्रोधाद् यावद् मिथ्यादर्शनशल्याद् अपतिविरताः, आयुषः समाप्तिपर्यन्तं मिथ्यादर्शनं न त्यजन्ति, 'सनाओ व्हाणुम्मणवगंध विलेवणसफरिसरसरून गंध मल्लालंकाराओ अपडिविरया जावज्नीवाद' याव ज्जीवं सर्वस्मात् स्नानोन्मन वर्णकगन्धनिले पनशब्दस्पर्शरूपरसगन्धमाल्याऽलङ्का को उगते हैं, ठगने का ही विचार करते रहते हैं, गूढ मायाचार करते हैं, भाषा वेष आदि बदल कर लोगों को धोखा देते हैं; कम-ज्यादा नापने तौलने के लिए नाप-तोल और तराजू आदि को पलटते रहते हैं। दुष्ट शील वाले होते हैं, दुष्ट व्रतों वाले, परपीड़ा में आनन्द मान वाले, असाधु- दुराचारी, जीवन के अन्तिम श्वासतक हिंसा आदि पाव से निवृत्त नहीं होते यावत् जीवन पर्यन्त परिग्रह से निवृत्त नहीं होते, सब प्रकार के क्रोध से यावत् मिथ्यादर्शन शल्प से अर्थात् अठारहों पाप स्थानों से निवृत्त नहीं होते, जीवन पर्यन्त स्नान मर्दन, वर्णक विलेपन, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, माला, अलंकार आदि भोगोप For Private And Personal Use Only २७१ ઠગવાના વિચાર કરતા રહે છે. ગૂઢ માયાચાર કરે છે. ભાષા વેષ વિગેરે બદલીને લેાકેાને ઠગે છે. એધુ વસ્તુ માપવા તાળવા માટે માપ તેલ અને ત્રાજવા વિગેરેને ફેરવતા રહે છે. દુષ્ટ સ્વભાવવાળા હેાય છે. દુષ્ટ વત્તાવાળા, ખીજાની પીડામાં આનંદ માનવાવાળા અસાધુ-દુરાચારી જીવનના છેલ્લા શ્વાસ સુધી હિંસા વિગેરે પાપૈથી છૂટતા નથી, ખધાજ પ્રકારના ક્રોધથી યાવત્ મિથ્યાદર્શન શલ્યથી અર્થાત અઢારે પાપસ્થાનેથી નિવૃત્ત થતા નથી. लौंडगी पर्यन्त स्नान, भर्हन, वर्षा विलेपन शण्ड, स्पर्श, ३५, २५ गन्ध, માળા, અલ'કાર વિગેરે ભેગાપયેાગના સાધનાને ત્યાગ કરતા નથી. શકટ, રથ, યાન અર્થાત્ જલ, સ્થળ અને આકાશમાં સરખા પણાથી . Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७२. सूत्रकृतागपूत्रे रात् अपतिविरताः, निवृत्तिभावमकुर्वाणाः 'सन्मामो सगडरहजाण जुगगिरिलथिल्लि. सियासंदमाणिया सयणासणजागवाहणभोगभोयणपवित्थरविहीनो अपडिविरया जाजनीवाए' सर्वस्मात् शकटरथयानयुग्पगिल्लिथिल्लिस्यन्दमानिकाशयनाऽऽसनयानवाहनभोग्यमोजनाविस्तरविधितोऽपतिविरता यावज्जीवनम्, तत्र शाटरथी प्रसिद्धौ यानम्-जलस्थलनमो गमनसाधनम्, युग्य-पुरुषद्वयोक्षिप्तपानम्, गिल्लिा -पुरुषस्कन्धैरुखमाना दोलिका, थिलिल:-कावेसरादि बापानं, शिविका पालकी स्यन्दमानिका शिविकाविशेषा, एतेभ्य स्तथा शयनासनयानवाहनभोग्यभोजनमविस्तारविधिभ्यो वस्तुजातेभ्या कदापि न वियुक्ताः, अपि तु-एतेष्वेव संसारकारणेषु यावज्जीवनमोतपोता भवन्ति तेऽनार्याः, 'सयाओ कविका मासद्धमासरूपगसंववहाराओ अप्पडिविरया जावज्जी ए' सर्वस्मार-क्रय-विक्रय माषार्धमाप-रूपक-(तोला) आदि संव्यवहारादपतिविरताः यावज्जीवनम्, तथा 'सवानो हिरण्णमुवाणधणधण्णमोत्तियसंखसिलपवालायो अपडि विरया जावज्जीवाए' , सर्वस्मात् - हिरण्य-रजतसुवर्णधनद्विपदचतुष्पदादिधान्यमणिमौक्तिकभोगों का त्याग नहीं करते। शकट रथ, यान अर्थात् जल, स्थल और आकाश में समान रूप से काम आने वाला साधन, युग्य-जो यान दो पुरुषों द्वारा उठाया जाता है, गिल्लि अर्थात् पुरुषों के कंधों द्वारा वहन करने योग्य डोली, थिल्ली अर्थात् खच्चरो आदि द्वारा वहन करने योग्य यान, शिविका अर्थात् पालखी, स्यन्दमानिका-विशेष प्रकार की पालखी का जीवनपर्यंत कभी त्याग नहीं करते हैं और इन्हीं संसार के कारणों में निरन्तर संलग्न रहते हैं । जीवन के अन्त पर्यन्त क्रय-विक्रय से निवृत्त नहीं होते और माषा, आधा माषा, रुपया आदि काही व्यवहार करते रहते हैं । अन्तिम श्वास पर्यन्त वे हिरण्य, स्वर्ण, કામ આવનારા સાધન જેમકે-યુગ્ય-જે યાન–વાહન બે પુરૂષ દ્વારા ઉપાડી શકાય છે. ગિલિ–અર્થાત પુરૂષના ખભે ઉપાડવા લાયક વાહન ડેલી થિલી અર્થાત ખચ્ચરે વિગેરેથી વહન કરવા ગ્ય વાહન શિખિકા-અર્થાત પાલખી ચન્દ્રમાનિકા–વિશેષ પ્રકારની પાલખી જીંદગી સુધી ત્યાગ કરતા નથી. અને આવા જ સંસારના કારણે હંમેશાં લાગી રહે છે. જીવનના અંત સુધી તેઓ કય, વિક્રયથી નિવૃત્ત થતા નથી, માષા અર્થમાષા રૂપિયા વિગેરેને જ વ્યવહાર કરે છે તેઓ અતિ શ્વાસ પર્યન હિરણ્ય, વર્ણ, ધન, दिपह-ये पाणा, यतुष्पह-यार पाणा, धन, धान्य, मा, मोति For Private And Personal Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. म. २ क्रियास्थाननिरूपणम् शंखशीलप्रवालाद पतिविरता यावज्जीवनम्, तत्र हिरण्यं-रजतं, सुवर्ण प्रसिद्ध धनं, द्विपदचतुष्पदादिकं, धान्यं ब्रोहियादिकम्, मणिः-चन्द्रकान्तादिः, मौक्तिकं-गजमुक्ता, शिला-पाषाणविशेषः, प्रवालं-विद्रुमं (मूङ्गा) लोकप्रसिद्धम् एभ्योऽपतिविरता:-अनिवृत्ताः यावज्जीवनम् 'सव्वानो कूडतुलक्टमाणामो अपडिविरया जावजीवाए' सर्वस्मात् कूटतुलकूटमानाद् अपतिविरता यावानी: बनम् 'सबाभो आरंभसमारंभाओ अप्पडिविरया जावग्नीवार' सर्वस्माद आरम्भसमारम्भादप्रतिविरता यावज्जीवनम्, 'सबाभो करणकारावणाओ अपडिविरया जावज्जीवाए' सर्वस्मात् करण कारणाद् अपतिविरता यावज्जी. वनम्, जीवनपर्यन्तम्-सर्वेभ्यः सावध कर्मभ्यो न स्वयं निवतन्ते नवाऽन्यं निवर्त. यन्ति । 'सव्वाओ पयणपयावणाओ अपडिविरया जावनीवाए' सर्वस्मात् पचन. पाचनादिसावधक्रियातोऽपतिविरता यावज्जीवनम् 'सबाओ कुट्टनपिट्टणतज्जण ताडणवहवंधणपरिकिलेसामो अपडिविरया जावज्जीवाएं सर्वस्मात्-कुट्टन-पिट्टन तर्जन-ताडन-वध-बन्धन-परिक्लेशाद् अप्रतिविरता यावज्जीवनम्, तत्र-कुट्टन-यष्टयादिना, पिट्टन-हस्तादिना-तर्जनम्-अङ्गुल्यादिना, ताडनं-यष्टिमुष्टयादिभिः, वधः-खङ्गादिना, बन्धनं-रज्ज्यादिना, एभ्योऽपतिविरता:-अनिवृत्ताः, धन, द्विपद, चतुष्पद, धन धान्य, मणि, मुक्ता, शंख, शिला, प्रवाल आदि बहुमूल्य वस्तुओं का त्याग नहीं करते । जीवन भर कूडे तोल और कूडे नाप से निवृत्त नहीं होते। सब प्रकार के आरंभ-समारंभ जीवन पर्यन्त करते रहते हैं। अन्तिम दम तक न स्वयं पाप कर्मों से निवृत्त होते हैं और न दूसरे को निवृत्त होने देते हैं। जीवन पर्यन्तपचन पाचन आदि सावध क्रियाओं से निवृत्त नहीं होते। लकड़ी आदि से कूटने, हाथ आदि से पीटने, उंगली आदि से धमकाने, लाठी आदि से ताडन करने, खड्ग आदि से वध (मारने) करने एवं रस्सी आदि से શંખ, શિલા, પ્રવાલ, વિગેરે બહુ મૂલ્ય-કીમતી વસ્તુઓને ત્યાગ કર્તા નથી, જંદગીપર્યંત ખાટા તેલ અને ખોટા માપથી છૂટતા નથી, બધા પ્રકારના આરંભ સમારંભ જીવન પર્યન્ત કરતા રહે છે. છેલ્લા શ્વાસ સુધી પિતે પાપકમાથી છૂટતા નથી અને બીજાઓને છૂટવા દેતા નથી. જીવન પર્યન્ત પન-પાચન વિગેરે સાવદ્ય ક્રિયાઓથી છૂટવા નથી. લાકડી વિગેરેથી કૂટવા હાથ વિગેરેથી પીટવા આંગળી વિગેરેથી ધમકાવવા, લાકડી વિગેરેથી મારવા, તલવાર વિગેરેથી વધ (મારવા) કરવા અને દેરી વિગેરેથી બાંધવાથી ક્યારેય પણ For Private And Personal Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir HT: মঙ্কায় जे जावन्ने तहप्पगारा सावजा अबोडिया कम्मता परपाणपरियावणकराये वाऽन्ये तथापकाराः सावधाः अबोधिकाः कर्मसमारम्भाः परमाणपरितापनकराः, एतद्व्यतिरिक्ता ये तेषां कर्मप्रयोजकाः अबोधिकाः अन्येषां जीवानां परिपीकन परकाः 'जे अयारिपईि कज्जति तो अपडिविरया जावज्जीवाए' ये च कर्म: समारममा माणिपरितापनकरा अनायः क्रिपन्ते, ततस्तेभ्यो व्यापारेभ्योऽपतिः विरमा भवन्ति यावज्जीवनम् ते विविधा मनुष्या भुवि वसन्ता, 'से जहाणामप केइ पुरिसे' तपथानाम केचित्पुरुषा-'कलममसूरतिलमुग्गमासनिफावकुलश्य आलिसंदगपरिमंथगमाइएहि' कलम-मर-तिल-मुद्-माष-निष्पाव-कुलस्याऽलिसन्दकपरिमन्थादिकेषु-तत्र-कलमा उत्तमास्तण्डुला, ममूरतिलपद्माषा:लोकमसिदाः निष्पावा:-धान्यविशेषाः 'आलिसन्दवा:-धान्यविशेषाः, परिम न्यका:-धान्यविशेषाः कृष्ण चणका इत्यर्थः, एतेषु-धान्यविशेषेषु 'अयं वे कूरा' मिच्छादंडं पउंजेति' अत्यन्तं का मिथ्यादण्डं प्रयुञ्जन्ति तत्र अत्यन्तम्-अतिशयं क्रूरा:-घातकाः मिथ्यादण्डम्-अपराधं विनैव तेषु कलमादिषु जीवेषु अन्यथा दण्डं प्रयुञ्जन्ति कुर्वन्तीत्यर्थः, 'एवमेव तहप्पगारा पुरिसजाया एवमेव तपापकाराः बांधने से कभी निवृत्त नहीं होते। इनके अतिरिक्त दूसरे प्राणियों को परिताप पहुँचाने वाले, सावद्य एवं अयोधि जनक जो इसी प्रकार के कार्य हैं, जो अनार्य पुरुषों द्वारा किये जाते हैं, उनसे भी वे निवृत्त नहीं होते हैं। ऐसे मनुष्य एकान्त अधर्मस्थान के सेवी कहे गए हैं। कोई पुरुष कलम (उत्तम जाति के चावल), मसूर, तिल, मूंग, उडद, निष्पाव, कुलथी, अलिसन्दक, परिमन्धक (काला चना) आदि धान्यों के प्रति निर्दय या अयतनावान् होकर निरर्थक ही दंड का प्रयोग करता है अर्थात् उनका घात (विराधना) करता है। છૂટકારો પામતા નથી. આ સિવાય બીજા પ્રાણિયાને સંતાપ પહેચાડવાવાળા સાવદ્ય અને અબોધિ જનક આવા જ પ્રકારના જે કાર્યો છે, કે જેનું સેવન અનાર્ય પુરૂ કરે છે. તેનાથી પણ તેઓ છૂટકારો મેળવતા નથી. એવા માણસે નિશ્ચયથી અધર્મનું આચરણ કરવાવાળા કહેવાય છે. छ ५३५ ४सम (सारी तन यो) भसू२, da, भा, म३४, નિપાત, કળથી, આલિસન્દક (ધાન્ય વિશેષ) પરિમક (કાળ.ચણ) વિગેરે ધાન્ય તરફ નિર્દ, અર્થાત્ અયતના વાળ બનીને વિના પ્રજનથી જ उन। १५ये।। ३२ छ. अर्थात् भने। यात (१२॥धना) ७२ थे. For Private And Personal Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् २७५ प्राणातिपातकारिगोऽन्येऽपि पुरुषजाताः, तित्तिरवकला कोयकविजलची यंगमियमहिसवाराहगाहगोदकुम्मसिरिसिवमाइए हिं' तित्तिरवर्तकलावककपोत कपिञ्जलचात कम्गमहिषवराहग्राहगोधाकूर्म-कच्छपसरीमृगादिकेषु. तत्र तित्तिरादि. पक्षिविशेषेषु, तया-गादिपशुषु विविधप्राणिषु 'अयं ते कूरा मिच्छादंडं पति' एषु जीवेषु ते अत्यन्तं क्रूराः मिथ्यादण्डं प्रयुञ्जनि। 'जा वि य से बाहिरियो परिसा मवई' याऽपि च तेषां बाह्या परिषद्भवति, तेषामनार्याणां योऽपि बायः परिवारः स वक्ष्यमाणरूपो भवनि, 'तं जहा' तयथा-'दासेइ वा' दास इति वा 'पेसेइ वा प्रेष्य इति वा, तत्र दासो जलवहनादिकर्मकरः, प्रेपो ग्रामाद् प्रामान्तर पयितुं योग्यः, 'भपएइना' भृत्य इति वा-वेतनोप मोगी 'भाइल्लेइ वा' मागिक इति वा-भागमादाय क्षेत्रादौ कार्यकारीति वा, 'कम्मकरएइ वा कमकर इति वा-साधारण्येन कार्यकर्ता 'भागपुरिसेहवा' भागपुरुष इति वा-भोग्यवस्तूनां समपंका 'तेसि पि य णं अन्नयरंसि वा' तेषां-भृत्यानामपि च खलु अन्यतरस्मिन् वा, इसी प्रकार के हिंसाकारी और भी पुरुष होते हैं जो तीतर, बतक, लावक, कपोत, कपिंजल, मृग, महिष, शूकर, ग्राह, गोह, कूर्म, सरीसृप आदि पक्षियों पशुओं और जलचर आदि प्राणियों के प्रति अयत. नावान् एवं निर्दय होकर निष्प्रयोजन ही दंड का प्रयोग करते हैं। .. उन अनार्य अधर्मी पुरुषों की जो बाह्य परिषद-परिवार होती है, जैसे कि-दास (जल आदि लाने का काम करने वाला गुलाम), प्रेष्य (एक ग्राम से दूसरे ग्राम में भेजने योग्य कर्मचारी) भागिक खेती आदि में हिस्सा लेकर काम करनेवाला), कर्मचारी 'सामान्य कार्यकर्ता और भोग पुरुष (भोग्य वस्तुएं लाकर देने वाला), इन में से किसी का कारण वश छोटा-सा अपराध हो जानेपर वह अधर्मी એ જ પ્રમાણેના હિંસા કરનારા બીજા પણ પુરૂ હોય છે, જેઓ તેતર, Mad, भूतर, hिara, भृग-२५- स, शू४२, भवर, थे। आय-सरिसृ५ -સર્ષ વિગેરે પક્ષિયે પશુઓ અને જલચર પ્રણિયે વિગેરે પ્રત્યે અયતનાવાન અને નિર્દય થઈને વિના પ્રજન જ દંડને ઉપગ કરે છે. અર્થાત્ મારે છે. તે અનાર્ય અધમ પુરૂષની જે બાહ્ય પરિષદુ પરિવાર હોય છે, જેમ કે-દાસ (પાણી વિગેરે લાવવાનું કામ કરવાવાળા ગુલામ ભાગિક (ખેતિ વિગેરેમાં ભાગ લઈને કામ કરવાવાળા) કર્મચારી-(સામાન્ય રીતે કામ કરવાર) અને ભેગ પુરૂષ (ગ્ય વસ્તુ લાવીને આપનારા) તેમાંથી કોઈને For Private And Personal Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्र 'अहालहुगंसि अपराहसि' यथालघुकेऽपि अराधे कारण शान्लाते सति 'सयमेव' स्वयमेव-सोऽनार्यः ‘गरुयं दंड निवत्तेई' लघाववि अपराधे न अपराधानुकूलम् अपितु-ततोऽपि अधिकं दण्डं नियच्छति ददातीत्यर्थः, कीदृशान् दण्डान निवर्तयति तादृशपकारं दर्शयति-तं जहा' तथा 'इमं दंडेह' इमं दण्डयत सर्वस्वापहरणेन, 'इमं मुंडेह' इमं मुण्ड यत-मुण्डनं कारयत, 'इमं तज्जेह' 'इमं वर्जयत, तर्जनम्-अशुलीनिर्देशपूर्वकं कटुवाचा भर्त्सनम्, 'इमं तालेह' इमं ताडयत-दण्डादिना चपेटादिना वा, 'इमं अदुवंधणं करेह' इमम् अन्दकबन्धनं कुरुत, अन्यते वध्यतेऽनेन इत्यन्दकः (हथकडी) ति भाषायां तेन बन्धनं नियन्त्रणं यस्य तथाभूतं कुरुत, भुनी अष्टभ्य पृष्टं आरोप्य बन्धयत, 'इमं नियडबंधणं करेह' इमं निगडबन्धनं कुरुत निगडेन 'बेडीति' पसिद्धेन बन्धनं यस्य तथा भूतं कुरुत-हस्तयोः पादयोस्त्वायसीं शृङ्ख बन्धयत 'इमं हड्डिंबंधणं करेह' इमं हाडी बन्धनं कुरु।-खोट बन्धनं (खोड।) इति लोकपमिद्धं कुरुत, इमं चारगबंधणं करेह' इमं चारकबन्धनं कुरुत-करागृहे बन्धनं कुरुत, यावता बन्धनेन बद्धोऽपि यथा कथश्चित् सातिकष्टं चलति-स्वलति च, तामधनं चारकान्धनम् 'इमं नियडजुगलसंकोचियमोडियं करेह' इमं निगडयुगलसङ्कोचितमोटितम् कुरुत, निगडस्य युगलं युग्मं तेन पूर्व सङ्कुचितः पश्चाद् मोटितः-कुटलीकृतस्तथा कुरुत पुरुष उन्हें भारी दंड देता है। अर्थात् दंड देने के लिए कहता है-इसे दण्डित करो-मारो, इसका मस्तक मुंडलो, इसकी तर्जना करो-इसे धमकाओ, भर्त्सना करो, इसे डंडे लगाओ, इसे हथकडियां पहना दो अर्थात् हाथ पीछे करके बांध दो, इस के पैरों में बेडियां डालदो, इसे हडि (खोडे) में डालदो इसे कारागृह में बंद कर दो, अर्थात् ऐसे बन्धन में डालदो कि इसका चलना-फिरना कठिन हो जाय एवं चलते-चलते गिर पडे, इसके दोनों हाथों को दो बेडियों से बांधकर मरोड दो जिससे એક નાનું સરખે કારણ વશાત્ અપરાધ થઈ જાય તે તે અધર્મી પુરૂષ તેને ભારે શિક્ષા કરે છે, તે દંડ આપવા માટે કહે છે કે–આને દંડ કરો – મારો, આનું માથું મુંડાવી નાખે. આને તિરસ્કાર કરે, આને ધમકાવે, નિંદા કરે, આને દંડા લગાવે, આને હાથકડિયે પહેરાવી દે અથર્ હાથ પાછળ બાંધી દે. આના પગમાં બેડી નાખો. આને હડીમાં નાખો; આને જેલમાં પૂરી દે, અર્થાત્ એવા બંધનમાં નાખે કે આનું ચાલવું, ફરવું, કઠણ થઈ જાય, અને ચાલતા ચાલતા પડી જાય, આના બંને હાથોને બે બેડિયેથી બાંધીને મરડી નાખે. જેથી તેના હાથ તૂટી જાય, આના હાથ For Private And Personal Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 299 समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् शृङ्खलाद्वयेन बद्धाङ्गानि-तथा संकोचयत-यथाऽयं भग्नमायगात्र: स्यात् । 'इम हस्थछिन्नयं करेह' इमं हस्तन्छिन कुरुत-स्तो-करौ छिनौ -कतितो यस्य ततथाविधं कुरुत, हस्तौ कतैयतेत्यर्थः । 'इमं पायछिन्नयं करेह' इमं पादच्छिमकं कुरुत । 'हमें कनछिन्नयं करेह' इमं कर्णच्छिन्नकं कुरु । 'इमं नकोटसीसमुह. छिन्नयं करेह' इमं नासिकौष्ठशीर्ष मु वच्छिन्नकं कुरुत । नासिकादीन् कर्त्तयतेति यावत् 'इम वेयणछिन्नयं' इमं वेदकच्छिन्नकं-पुरुषचित्रकं कर्तयत, 'गछहियं पक्खाफोडियं करेह' अङ्गच्छिन्नकं पक्षस्फोटितं कुरुत, अङ्गं कर्तयत कशया प्रताड्य चर्म निःसारयतेति यावत् । इमं णपणुप्पाडियं करेह' इमं नयनोत्पाटितं कुरुतअद्य नेत्रद्वयं निष्काशपत। 'इमं दसणुप्पाडियं वप्तणुप्पाडियं जिम्भुप्पाडियं ओलं. बियं करेह' इमं दशनोत्पाटितं वृषणोत्पाटितं जिह्वोत्पाटिनमविलम्बितं कुरुन, अस्य दन्तानुत्पाटयत, अस्य जिहामुत्पाटयत, अस्याण्डकोशमुगटया शीघ्रम् रमा. दिना कण्ठे बधा वृक्षादौ अधोमुखमे लम्बयत 'घसियं करेह' घषितं कुरुतकाष्ठादिव पिताङ्ग कुरुत, 'घोलियं करेह' घोलित-दधिवत् मथितं कुरुत, 'मूलाइयं करेह' शूलानितं-शूलोपरि-समारोपितं कुरुत, 'मूलामिन्नयं करेह' शूलाऽऽभिन्नकं कुरुत-एतस्य शरीरं शूलेन आ-सर्वतोभावेन विहारयत । 'खारवत्तियं करेह' क्षारवत्तिनं कुरुत-ताडिताङ्गवणे क्षारं-लवणं क्षिपत-येनाऽस्य हाथ टूटने लगे, इसके हाथ काट डालो पांव काट डालो, इसके कान काट डालो, इसकी नाक होठ, सिर या मुख काट लो इसकी पुरुषेन्द्रिय काटलो, इसके अंग काटकर कोडे मार-मार कर चमडी उधेडलो, इसकी दोनों आंखे निकाललो, इसके दांत उखाडलो, इसकी जीभ खींचलो, इसके अंडकोष उखाड़ डालो, इसके गले में रस्सी बांध कर पेड आदि से औंधे मुंह लटका दो, इसके शरीर को रगड़ दो-काष्ट आदि के जैसे घिस दो, दही के जैसे मथ डालो, इसे शूली पर चढा दो, शूली से वेध दो, ताड़ना से हुए उसके घावों पर नमक छिडक दो, इसे કાપી નાખે, પગ કાપી નાખે, આના કાન કાપી નાખે, આનું નાક હેઠ, માથું, અથવા મુખ કાપી લે, આની પુરૂષેન્દ્રિય કાપી નાંખે. આના અંગે કાપી લે, આને ચાબુકને માર મારે. આને મારી મારીને તેની ચામડી ઉખેડી લે, આની બને આંખે કહાડી લે આના દાંતે ઉખાડી લે, આની જીભ ખેંચી લે, આને અંડકોષ ઉખેડી નાખે, આને ગળામાં દોરડું બાંધીને ઝાડ પર ઉંધે માથે લટકાવી દે. આના શરીરને રગડે અથર્ લાકડાની જેમ ઘસડે. દહીંની જેમ મંથન કરે. આને શૂળીયે ચડાવી દે શૂળીથી વિધી નાખે, મારવાથી થયેલા તેના ઘા ઉપર મીઠું ભભરાવી દે. આને વધસ્થાને For Private And Personal Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૨૮ सूत्रकृताङ्गसूत्रे महती व्यथा भवेत्। विज्झवत्तियं करेह' वधवर्तिनं कुरुत, वध्वस्थानं नीलां मारयत, 'सीहपुच्छि वर्ग करेह सिंहपुच्छगतं सिंहपुच्छच कुरुा, 'वसम 'पुच्छियगं करेह' वृषभच्तं कुरुत-उपमस्य पुच्छेऽस्य बन्धनं कुरुत । 'देवग्गिदडूयंगे कागणिमंसखावियंगं भतपाणनिरुद्वेगं करेह' दावाग्निदग्धा काकोलीमांसखादिता - काकणी कपर्दिका तत्तुल्यमेतन्मांसं कृत्वा काकेभ्यो दीयताम् भक्तपाननिरूद्धकं कुरु - अन्न जलद्वयं निरोधयत 'इमं जावज्जीवं वहबंधणं करेह' इमं यजीव धवन्धनं कुरु । - जीवनपर्यन्तं कारागारे स्थापयत । 'इमं अन्नयरेणं असुभेणं कुमारेणं मारे६' इनमन्यतरेणाऽशुभेन कुमारेण मारयत - कुस्सितं रूपेण भल्लादिभेदनलक्षणेन मारयित्वा जीवनरहितं कुरुत, एवं रूपेण इमे क्रूरा जीवोपमदं कुर्वन्ति इति । एतेषां पुरुषाणां बाह्यपरिवारविषये कथितम्, सम्पति - आन्तरपरिवारविषये आह-जा विय से अभितरिया परिसा भवई' याऽपि च तस्य - पूर्व प्रदर्शितक राज्धमपुरुषस्य - आभ्यन्तरिकी - अभ्यन्तरङ्गा परिषद्भवति, परिवारो भवतीति । 'तं जहा' तद्यथा 'मायाइ वा' मातेति वा 'पियाइ वा' पितेति वध भूमि में ले जाकर मार डालो इसे सिंह की पूंछ से बांध दों, बैल की पूंछ से बांध दो, इसके अंग आग से जला दो, इसके शरीर के मांस के कौडी जितने टुकडे कर करके कौवों को खिला दो इसका खाना-पीना बंद कर दो, इसे आजीवन कारागार में बंद रक्खो, इसको किसी बुरी मौत से मारो, अर्थात् भाला आदि से बींध बींध कर इसके प्राण ले लो, इन अधार्मिक पुरुषों का अपनी बाह्य परिषद के प्रति ऐसा अतिशय क्रूर व्यवहार होता है। आभ्यन्तर परिषद् के प्रति किस प्रकार का व्यवहार होता है सो अब कहते हैं पूर्वोक्त पापी पुरुष की अभ्यन्तर परिषद् होती है अर्थात् भीतरी परिवार होता है। वह परिवार यह है- माता, पिता, भ्राता भगिनी લઈ જઈને મારી નાખે આને સિંહના પૂંછડે બાંધી દે અળદના પૂછડે ખાંધી દો. આનું શરીર અગ્નિથી માળી નાખેા. આના શરીરના માંસના કાઢી જેવડા કકડા કરી કરીને કાગડાએને ખવરાવી દે, આવું ખાવું પીવું બધ કરી દે, અને જીદગી સુધી જેલમાં પૂરી રાખે, અને કેઈ ખરાખ મે,તથી મારા, અર્થાત્ ભાલા વિગેરેથી વીધી વીધીને આને જીવ લઈ લો. આ અધર્મી પુરૂષા પેાતાની ખાશ્રુ પરિષદ પ્રત્યે આવા અત્યંત ક્રૂર નૃવ હાર કરતા હોય છે. તે હવે બતાવે છે. પૂર્વોક્ત પાપી પુરૂષની આભ્યંતર પરિષદૂ હોય છે. અર્થાત્ આંતિરક परिवार हाय छे. ते परिवार आ प्रमाणे हाय छे. भाता, पिता, बांध, For Private And Personal Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ कियास्थाननिरूपणम् ना जननीजनको 'भायाइ वा' भ्रातेति वा 'भगिणीइ वा' भगिनीति वा सर्वत्र डा शब्दश्वार्थ-च शब्दश्च समुच्चयार्थकः, 'मज्जा इवा' मार्यति वा 'पुताइ वा पुत्रा इति वा-औरसाः कृत्रिमा वा 'धूयाइ वा मुण्डाइ वा दुहितरो वा स्नुषा वा, तत्र इहितरः-पुज्या, स्नुषा-पुत्रवधूः, इति यावत् प्रदर्शितः परिवार, सम्मति-एतस्य द्राकमकारं दर्शयति-यदा खच काकर्मा कुप्यति तदा स्वल्पं वा-महान्तं वाहपराधम् अविगणय्य महद्दण्डमेव प्रयच्छति, तदेव दर्शयति-तेसि पि य प अन्न: परसि अहालहुगंसि अपराहंसि सयमेव गरुयं दंडं णित्तेई तेषां च-आरतरि: काप्पा महापितमभृतीनाम्-अन्यतरस्मिन् लघुकेऽवि अपराधे स्वयमेव स क्रूरकर्मा तान् दण्डं निवर्तयति-तेषु दण्डान् योनयति 'सीयोदगवियसि उच्छोलिता भवह शीतोदकविकटे-उत्क्षेप्ता भवति शिशिरे शीत जलहदादौ निक्षिपति, निदाघे चतप्ते पयसि निक्षिपति 'जहा मित्तदोसवत्तिए जाव' यया मित्रदोषप्रत्यायिके यावत् मित्रदोषमत्ययिकपकरणे ये दण्डाः पदर्शिता स्तानेव दण्डान् ददातीति, एवं कुत्सिताचारमपन्नः सन् 'अहिए' अहितः, यो हि न हितो मातृपतीनामपि भार्या औरस या दत्तक आदि पुत्र, पुत्री, पुत्रवधू आदि। जब वह क्रूर पुरुष इनमें से किसी पर कुपित होता है, तष अपराध छोटा है या बड़ा, इस बात की परवाह न करके गुरुतर दंड ही उन्हें देता है । यही बात सूत्रकार कहते हैं उनका छोटासा अपराध होने पर भी उन्हें भारी दंड देता है, जैसे-शीतकाल में उन्हें ठंडे पानी में डाल देता है, इत्यादि उन सब दंड प्रकार का कथन यहां करना चाहिए जो मित्रवेष प्रत्ययिक क्रिया. स्थान में गिनाये हैं। इस प्रकार का आचरण करनेवाला पापी पुरुष अपना भी अहित બહેન સ્ત્રી સગો કે દત્તક પુત્ર, પુત્રી, પૂત્ર વધૂ, વિગેરે જ્યારે તે કૂર પુરૂષ એમના પૈકી કોઈના પર ક્રોધ યુક્ત બને છે, ત્યારે તેને અપરાધ નાને હોય કે મેટે હોય તે તરફ લક્ષ્ય ન કરતાં તેને ભારે શિક્ષા જ કરે છે. હવે એજ વાત સૂત્રકાર બતાવે છે. – જ તેને નાને સરખે અપરાધ થાય ત્યારે પણ તેને ભારે દંડ કરે છે, જેમ કે–ડીની મોસમમાં તેને ઠંડા પાણીમાં નાખે છે. વિગેરે તે સઘળા દંડોનું કથન અહિયાં કરવું જોઈએ. કે જે મિત્ર દ્વેષ પ્રત્યયિક ક્રિયાસ્થાનમાં ગણાવવામાં આવેલ છે. આવા પ્રકારનું આચરણ કરવાવાળા પાપી પુરૂષ પિતાનું પણ અહિત A .. For Private And Personal Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २९० - - सत्रकृतासो कृते-स सर्वेषामपि अहित एम ज्ञेयः, इत्थं पूनः सः 'परंसि लोगमि' परस्मिन् लोके, इतः प्रेत्य परलोकं प्राप्य स्वकृतकर्मफलमहितमेव मुक्ति-बहुवचनातया दर्शयति-'ते दुक्खंति' परलोके दुःरुपन्ति-शारीरिक-मानसिक कष्टं माप्नुवन्ति, 'सोयति' शोचन्ते-दैन्यमा पाप्नुवन्ति, 'तिपति' तिप्यन्तिअणि विमोचयन्ति पिति' पीड्य ते-मुद्रादिघातेन पीडामुत्पादयन्ति, 'परितपति' परितप्यन्ति-विविधताप-ज्वरनेत्रशूलादिकं प्राप्नुवन्ति, 'ते दुक्खग. सोयणरणतिषणष्टिनपरितापनववंधणपरिकिलेसायो अपडिविरया भवंति' ते दुस्ख नशोचनजूरगत्तेपनपिनारितापनवन्धनादिपरिक्लेशेभ्योऽपतिविरता भवन्ति, तत्र-दुःखनं-दुःखोत्पादनं शोचनं -शोकोत्पादन, जूरणं-दुर्बलीकरणं, तेपनम्-अश्रुक्षरणोत्पादनं, पिट्टनं-मुद्रादिना हनने, परितापनं-सर्वतस्तापस्योत्पादनं, वधो-घाता, बन्धन-निगडादिना एतेभ्यः परिक्लेशेभ्योऽमति. करता है और दूसरों का भी। जो अपने माता-पिता का भी हित नहीं करता, वह दूसरों का क्या हित करेगा? ऐसे पुरुष जब इस भव को त्याग कर परभव में जाते हैं तो अपने कर्मों का अहितकर फल ही भोगते हैं । वे परलोक में दुःखी होते हैं, शारीरिक और मानसिक कष्ट भोगते हैं। दीनभाव को प्राप्त होते हैं, शोक की अधिकता के कारण उनका शरीर जीर्ण हो जाता है। वे आंसू बहाते हैं, पीड़ित होते हैं, विविध प्रकार से संतप्त होते हैं-ज्वर एवं नेत्र शूल आदिको प्राप्त होते हैं। वे दुःख, शोक, जूरण, तेपन (रुदन) पिन, परितापन, वध और बन्ध आदि क्लेशों से निवृत्त नहीं होते हैं-उन्हें यह सब कष्ट बार-बार भुगतने पडते हैं। કરે છે. અને બીજાઓનું પણ અહિત કરે છે, જે પિતાના માતા, પિતાનું પણ હિત કરતા નથી, તે બીજાઓનું શું હિત કરી શકે? આવા પુરૂષ જ્યારે આ ભવને ત્યાગ કરીને પરભવમાં જાય છે, તે પિતાના કર્મોનું અહિત ફળ જ ભગવે છે. તેઓ પરકમાં દુઃખી થાય છે. શરીર સંબંધી અને માનસિક દુઃખ ભોગવે છે. દીનપણાને પ્રાપ્ત થાય છે. શેકના વિશેષ પણના કારણે તેનું શરીર શિથિલ બની જાય છે. તેઓ આંસુ સારે છે. પીડા પામે છે, અનેક પ્રકારના સંતોષવાળા બને છે. જવર અને નેત્રશૂલને प्राप्त ४२ छ. तो दम , दूर, तपन (२४) पिट्टन, परितापन વધ અને અન્ય વિગેરે કલેશેથી નિવૃત્ત થતા નથી, તેઓને આ બધા કષ્ટ વારંવાર ભેગવવા પડે છે. For Private And Personal Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका दि.श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् ૨૦ विरता-अपरिमुक्ता भवन्ति, 'एवमेव ते इथि कामेहि' एक्मे ते-पुरुषाऽधमा:स्त्रीकामेषु भोग्यविषयेषु 'मुच्छि पा गिद्धा गढिया अज्झोवान्ना मूच्छिता:-समा. सक्ताः, गृद्धाः-अत्यन्तं तद्विषयकेच्छावना, प्रथिताः-गृद्धिभावमुपगताः, अध्यु. पपन्ना स्तस्मिन्नेव विषये लीनाः 'जाव' यावत् 'वासाई' वर्षाणि 'चउपचमाई छहसमाई' चतुः पश्च षड् दश वा वर्षाणि ततः 'अप्पयरो वा भुज्जयरो वा' अल्पतरं वा भूयस्तरं वा 'कालं' कालम् 'भोगभोगाई भुं जत्नु' भोग्यभोगान् भुक्त्वा 'वेरायतणाई' वैरायतनानि इन्यमानजीवसमुदायैः सह वैरभावान् 'पविसुइत्ता' पविस्य समुत्पाद्य, 'बहूई पाबाई कम्माई संचिणिता' बहूनि पापानि कर्मणि सावध नीर. बधेन पापकर्माणि संचित्य-एकत्रीकृत्य 'उस्सन्नाई उत्सन्नानि-बहुलार्थबोधको देशीयशब्दः तेन बाहुल्येन संचित्य संमारकरेण कम्मणा' सम्भारकतेन कर्मणा, तत्र सम्भारः बहुदलिकसंयोगस्तेन कृतेन सम्पादितेन कर्मणा-अशुभकर्मभारेण युक्ताः सन्तोऽधोगतिं गच्छन्ति । 'से जहाणामए' तथानाम 'अयोगोलेइ वा' अयोगोलको वा-लोहपिण्डो वा 'सेलगोलेइ वा' शैलगोलको वा-पर्वतखण्डो वा 'उदगंसि पक्खित्ते समाणे' उदके प्रक्षिप्तः सन् 'उदगतलमइवइत्ता' उदकतळमति. वर्य-जलं विभिध 'अहे धरणितलपट्टाणे भरई' अधो धरणितळपतिष्ठानो भवति, इसी प्रकार वे अधम पुरुष स्त्री संबंधी कामभोगों में आसक्त होते हैं, अत्यन्त अभिलाषावान होते हैं, गृद्ध होते हैं और तल्लीन होते हैं। वे यावत् चार, पांच, छह या दश वर्षों तक अथवा इनसे भी कम या अधिक काल तक भोगों को भोग कर वैरायतनों को अर्थात् मारे हुए प्राणियों के साथ वैर बांध कर, विपुल पाप कर्मों का संचय करके, बहुत अधिक पाप एकत्र करके, अशुभ कर्मों के भार से युक्त होकर अधोगति में जाते हैं। जैसे लोहे का गोला या पर्वत खण्ड पानी में छोडा जाय तो वह पानी को भेद कर ठेठ नीचे जल के એજ પ્રમાણે તે અધમ પુરૂષ સ્ત્રી સંબંધી કામોમાં આસક્ત રહે છે. અત્યંત અભિલાષા વાળા હોય છે, પૃદ્ધ હેય છે, અને તલ્લીન હોય છે. તેઓ યાવત્ ચાર, પાંચ, છ અથવા દસ વર્ષે પર્યન્ત અથવા તેનાથી પણ ઓછા અથવા વધારે કાળ સુધી ભેગેને ભેળવીને વેરના સ્થાનને અર્થાત્ મારેલા પ્રાણિની સંગ્રહ કરીને ઘણું વધારે પાપ એકઠા કરીને અશુભ કર્મોના ભારથી યુક્ત થઈને અધોગતિમાં જાય છે. જેમ લખંડને ગેળે અથવા પર્વતને ખંડ પાણીમાં છોડવામાં નાખવામાં આવે તે તે પાણીને ભેદીને હેડ નીચે પાણીના તળીયે પહોંચીને ઉભું રહે છે. सू० ३६ For Private And Personal Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतागायत्र यथाऽयोगोलको जले पक्षिप्तः सन्-जलं विभिद्य पृथिवीतलपतिष्ठितं भवति, न तत ऊध्र्व गच्छति, एवमेव तहप्पगारे पुरिसजाए' एवमेव तथाप्रकार:-तादृशः पापभारा. क्रान्तः पुरुषजातः पुरुषाऽधमः 'वज्जबहुले' पर्यायबहुलः अवद्यबहुलः सावधकर्मबहुलइत्यर्थः 'धूतबहुले' धूतबहुल:-धूननं धूतं कर्मक्लेशकरणं पाणातिपातादि, तेन बहुल: पंकबहुले' पङ्कबहुलोऽधिकपापवान् 'वेरबहुले' वैरबहुल:-कृताधिकपापेन जीववैरबहुला 'अप्पत्तियबहुले' अपत्ययबहुल:-मृषावादी 'दंभवहुले' दम्भबहुल -दम्भ:-कपटस्तबहुलः 'नियडिबहुले' निकृतिबहुल:-निकृतिर्मायासहितः कपटस्तेन बहुला 'साइबहुले' सातिबहुल:-उत्कृष्टवस्तुषु अपकृष्ट वस्तूनि मिश्रीकृत्य तविक्रेता 'अयस बहुले' अयशो बहुल:-अकीर्तिबहुल: 'उस्सन्नतसपाणघाई' उत्सम प्रसप्राणघाती-उत्सन्नवहुलं तेन द्वीन्द्रियादिजीवविनाशकः एतादृशविविध मकारकाशुभकर्मकर्ता पुरुषाऽधमः 'कालमासे कालं किच्चा' कालमासे कालं कृत्वा 'धरणितलमइवइत्ता' धारणितलं रत्नप्रभादिपृथिवीतलमतिवर्त्य-अतिक्रम्य 'अहे णरगतलपइटाणे भवई' अधो नरकतलपतिष्ठानो भवति, पूर्वोक्तपापाचरणशील: पुरुषो मृत्वा अतिक्रम्य पृथिवीतलं सप्तमनरकमधिगच्छतीति ॥०२०=३६॥ तल भाग में पहुंच कर ठहरता है, फिर उपर नहीं आता, इसी प्रकार वह अधार्मिक अधम पुरुष पाप से भारी होकर, सावध बहुल होकर, प्राणातिपात आदि की बहुलता वाला होकर, अत्यन्त पापी होकर, बैर की बहुलता वाला होकर अर्थात् जीवों के साथ अत्यधिक वैर बांध कर अत्यन्त मृषावादी, दंभी, कपटी, अपयशवान् एवं बहुत प्रस प्राणियों का घातक होकर मरण का अवसर आने पर काल करके भूतल को पार करके नीचे नरकतल में जाकर स्थित होता है। तात्पर्य यह है कि पूर्वोक्त प्रकार का पापाचरण करने वाला पुरुष जय मरता है तो पृथ्वी तल को भेद कर ठेठ नरक में जाता है ॥२०॥ અને તે પછી પાણી ઉપર આવતું નથી, એજ પ્રમાણે તે અધાર્મિક અધમ પુરૂષ પાપથી ભારે બનીને, સાવધ કર્મથી વધારે ભારે બનીને પ્રાણાતિપાત વિગેરેના ભારથી અધિકપણુવાળા બનીને–અત્યંત પાપી થઈને વેરના વધારવાવાળા થઈને અર્થાત્ જીવોની સાથે અત્યંત વેર બાંધીને અત્યંત અસત્ય બોલનાર, દંભી, કપટી, અપયશવાળે, અને ઘણા ત્રસ પ્રાણિને ઘાત કરવાવાળો બનીને મરણના અવસરે મરીને પૃથ્વીને પાર કરીને નીચે તરફના તળીયે જઈને રહે છે. તાત્પર્ય એ છે કે પૂર્વોક્ત પ્રકારથી પાપાચરણ કરવાવાળે પુરૂષ જ્યારે મરે છે. ત્યારે પૃથ્વીના તળીયાને ભેટીને ઠેઠ નરકમાં જાય છે. ૨૦ For Private And Personal Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् २८३ मूलम्-ते णं णरगा अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिया णिचंधकारतमसा ववगयगहचंदसूरनक्खत्तजोइप्पहा मेदवसामंसरुहिरपूयपडलचिक्खिल्ललित्ताणुलेवणतला असुई वीसा परमदुभिगंधा कण्हा अगणिवन्नाभा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा गरगा असुभा णरएसु वेयणाओ। णो घेव णरएसु नेरइया णिहायंति वा पयलायति वा सुई वा रतिं वा धिति वा मतिं वा उबलभते, ते णं तत्थ उज्जलं पगाढं विउलं कडुयं ककसं चंडं दुग्गं तिव्वं दुरहियासं गेरइया वेयणं पञ्चणुभवमाणा विहरांति ॥सू० २१॥३६॥ ___ छाया-ते खलु नरकाः अन्तो वृत्ताः बहिश्चतुरस्राः अधः क्षुरमसंस्थानसंस्थिताः नित्यान्धकारतमसो व्यपगतग्रहचन्द्रपूर्यनक्षत्रज्योतिष्पथाः मेदोवसामांसरुधिरपूयपटलचिक्खललिप्तानुलेपनतलाः अशुचयो विश्राः परमदुर्गन्धाः कृष्णाः अग्निवर्णामाः कर्कशस्पर्शाः दुरधिसहा: अशुभाः नरकाः अशुभाः नरकेषु वेदनाः। नो चैव नरकेषु नरयिकाः निद्रान्ति वा पलायन्ते वा शुचि वा रति वा धृति वा मति वा उपलमन्ते । ते खलु तत्र उज्ज्वला प्रगाढां विपुलां कटुको कर्कशां चण्डां दुर्गा तीब्रां दुरधिः हां नैरयिकाः वेदनां पर्यनुभवन्तो विहरन्ति ॥पू०२१-३६॥ टीका-पुर्वोक्तोऽधार्मिकः पुरुषो नरकं गच्छत्तीति प्रतिपादितम्, नरकाच कीदृशा इति तत्स्वरूपप्रतिपादनायाऽऽह-ते णं णरगा' इत्यादि। 'ते णं णरगा' तें खलु नरकाः यान् खलु नरकान् ते अधार्मिकाः प्राप्नुवन्ति, 'ण' इति वाक्यालङ्कारे 'अंतो बट्टा' अन्तो वृत्ता:-अभ्यन्तरमदेशे गोलाकारावाहि चउरंसा' बहिबाह्यभागे चतुरस्राः चतुष्कोणाः 'अहे' अधो नीचैः 'खुरप्पसंठाणसंठिया' क्षुरपसंस्थान संस्थिता:-क्षुरसंस्थानवन्तः क्षुरधारावदतिशयेन तीक्ष्णाः 'णिचंधकारतमसा' 'ते णं णरगा' इत्यादि। टोकार्थ-अधर्मी पुरुष नरक में जाता है, यह कहा गया है, किन्तु मरक का स्वरूप कैसा है ? इसका उत्तर देते हैं. 'ते ण णरगा' त्या ટીકાર્થ-અધર્મી પુરૂષ નરકમાં જાય છે. એ કહેવાઈ ચૂકયું છે, પરંતુ નરકનું વરૂપ કેવું હોય છે? તે હવે સૂવકાર બતાવે છે For Private And Personal Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८ सूत्रकृता नित्यान्धकारतमसा-अन्धकारेषु तमः अन्धकारतमा-अतिशयितं तमो यत्र ते तथा -अनवरतं निबिडान्धकारबहुलाः, 'वरगयगहचंदसरनकवत्त नोइप्पहा' व्यपगतग्रहचन्द्रसूर्यनक्षत्रज्योतिष्पथा:-पत्र-नरकेषु ग्रहचन्द्रसूर्यनक्षत्रादयो न प्रतिमान्ति, एतेषां प्रकाशेन रहिता नरका भवन्ति । न केवलं तत्र विशिष्ट प्रकाशाऽभावोऽन्धकारमात्रं वा-भयपयोजकम् अपितु बहवोऽमेध्याः अपदार्थास्तत्र भवन्तीति दर्शयति-वैराग्यसंज्वलनाय 'मेद-सा-मांस-रुहिर-पूय-पडल-चिक्खिल्ललित्ताणु. लेवणतला' मेदो वसामांसरुधिरपूयपटल चिक्खलिप्तानुलेपनतलाः, तत्र-मेंद:धातुविशेषः वसा चर्वीतिलोकप्रसिद्धा तथैव मांसं रुधिरं-शोणितम्, पूर्य-पक्व शोणितम् एतेषां पटलं-समूहस्तस्य चिक्खलं-प्रचुरकर्दमस्तेन लिप्तं-युक्तम् अनु. लेपनं तलं यत्र ते तथा, मेदो मांसाघशुचिभिर्द्रव्यैः सदैव संयुक्ता नरकभूमयो भवन्ति 'असुई' अशुचयः-अशुचिभूताः वीसा' विश्रा:-कथिताः-कम्याथाकुल__ वे नरक-नारकावास भीतर गोलाकार वाले होते हैं, बाह्य भाग में चौकोर होते हैं और तल भाग में छुरे की धार के समान तीक्ष्ण होते हैं। वहां सदैव घोर अंधकार बना हुआ रहता है। वहां ग्रह, चन्द्र, सूर्य या नक्षत्रों का प्रकाश नहीं होता। यही नहीं कि वहां प्रकाश का अभाव एवं अंधकार ही भय का कारण हो किन्तु वहाँ बहुत से अशुचि पदार्थ भी होते हैं । नरक की भूमि मेद, चर्थी, मांस, रूधिर पीप आदि के समूह से लिप्स रहती है, इन अपावन पदार्थों से वहां कीचडसी धनी रहती है। वे नरक अशुधिरूप होते हैं, सड़े-गले मांस की बहुलता वाले होते है अत्यन्त दुर्गन्ध - તે નરક–નરકાવાસ અંદર ગોળ આકારવાળું હોય છે. બહારના ભાગમાં ચાર ખૂણાવાળું હોય છે. અને તળીયાના ભાગમાં છરીની ધાર સરખું અત્યંત તીક્ષણ હોય છે. ત્યાં હંમેશાં ઘોર અંધારૂં બન્યું રહે છે. ત્યાં ગૃહ, ચંદ્ર, સૂર્ય કે નક્ષત્રોને પ્રકાશ હેતે નથી. એટલું જ નહીં ત્યાં પ્રકાશને અભાવ અને અંધકાર જ ભયનું કારણ હોય તેમજ તે સિવાય ઘણા ખરા અશુચિ પદાર્થ પણ હોય છે. નરકની ભૂમિ મેદ, ચર્મી, માંસ, રુધિર–લેહી પીપ, પરૂ, વિગેરેના સમૂહથી વ્યાપ્ત રહે છે. આ અપવિત્ર પદાર્થોથી ત્યાં કાદવ થઈ જાય છે. તે નરકે અશુચિ હોય છે. સડેલા, ગળેલા, માંસના અધિકપણું વાળા હોય છે. અત્યંત ગંધવાળા For Private And Personal Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् ८५ मांसबहुलाः, अतएव-'परम-दुभगंधा, परमदुर्गन्धाश्च ताः 'कण्हा' कृष्णवर्णोंपेताः 'अगणिवन्नाभा' अग्निवर्णाभा:-अग्निरिव जाजाल्पमानाः 'कक्खडफासा' कर्कशस्पर्शा:-कठिनस्पर्शवन्तः, इत्यर्थः 'दुरहियासा' दुरधिसहा:-दु खेन सोढुं शक्याः 'असुहा णरगा' अशुभाः अशोभनाः नरकाः 'असुहा गरएसु वेयणाओ' अशुमाः नरकेषु बेदना:-नरकगतिषु वेदना अशुभाः 'णो चेव णरएम' नो चैव नरकेषु 'णिदायति' निद्रान्ति-निद्राऽनुभवं नैव कुर्वन्ति, के तत्राह-'नेरइया' नैरविका:-नरके यातनामनुमवन्तो जीवाः, तथा ते 'पलायति वा' पलायन्ते-नरकान्नान्यत्र गन्तुं शक्नुवन्ति 'सुई वा-रति बा-धिति वा, मति वा उवलभंते' शुचि-पवित्रताम्, रति-मुखम्, धृति-धैर्यम्, मर्ति-बुद्धिम् कथमपि न लभन्ते । 'ते' ते खलु नारकाः 'तत्थ' तत्र-नरकेषु 'उज्ज्वलं' उज्जलाम्उत्कृष्टाम् 'पगाढे' प्रगाढाम्-अत्यन्ताम् 'विउलं' विपुलां-महतीम् 'कडुयं' कटुकाम्-प्रतिकूलाम् 'ककस' कर्कशाम्-कठिनाम् 'चंड' चण्डाम्-रौद्राम् 'दुग्ग' दुर्गाम्-दुःखेन तरणीयाम् 'ति' तीव्राम्-हृदयविदारकतया खराम् 'दुरहियासं' दुरतिसहाम्-दुःखेन सहनयोग्याम् 'वेयणं' वेदनां यातना मित्यर्थः, उज्ज्वलां-तीव्रानुभावप्रकर्षत्वात्, विपुलां विशाला परिमाणरहितत्वात् कर्कशांप्रत्यङ्गदुःख जनकत्वात् चण्डो-भयजनका प्रतिपदेशव्यापित्वात् 'पवणुभवमाणा' युक्त होते हैं, काले वर्णवाले तथा धूम युक्त अग्नि के समान आमा वाले होते हैं उन का स्पर्श कठोर होता है। वे दुस्सह और कठोर होते हैं। वहां की वेदनाएं भी अशुभ होती हैं। नारक जीव नरक में न निन्द्रा ले पाते हैं और न वहां से अन्यत्र जा सकते हैं। उन्हें श्रुति, रति या धृति मति प्राप्त नहीं होती। वहां वे उज्ज्वल (उस्कृष्ट), अत्यन्त गाढ, विपुल, कटुक-प्रतिकूल, कर्कश, प्रचण्ड, दुस्तर, तीत्रहृदय विदारक एवं दुस्सह यातना पाप्त करते हैं। तात्पर्य यह है कि तीव्र अनुभाव की अधिकता के कारण उज्ज्वल विपुल होने के कारण विशाल, परिमाण रहित होने से कर्कश, प्रत्येक अंग में दुःख હોય છે. કાળા વર્ણવાળા તથા ધુમાડાથી યુક્ત અગ્નિની જેવી કાંતિવાળા હોય છે. તેને સ્પર્શ કર હોય છે. તેઓ દુસ્સહ અને કઠેર હોય છે. ત્યાંની વેદનાઓ પણ અશુભ હોય છે. નારક જીવે નરકમાં નિદ્રા લઇ શકતા નથી. તથા ત્યાંથી બીજે જઈ શકતા નથી. તેમને કૃતિ, રતિ, ધતિ અથવા અતિ પ્રાપ્ત થતી નથી ત્યાં તેઓ ઉજવલ (ઉત્કૃષ્ટ ગાઢ, વિપુલ ४९, प्रतिष, ४, प्रया, दुस्तर' तीव, य, विहा२४ भने दुस्स यातना-पी: प्रतछे. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે–તીવ્ર અનુભાવના અધિક પણાથી ઉજવા, વિપુલ હોવાથી વિશાલ પરિમાણ વિનાનું હોવાથી કર્કશ, દરેક અંગોમાં For Private And Personal Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्र प्रत्यनुभवन्तः ‘णेरइया' नैरयिकाः नरकेषु विद्यमाना जीवाः "विहरंति' विहरन्तिदुःखमयं समयं याश्यन्ति इति ॥२१=३६॥ . मूलम्-से जहा णामए रुक्खे सिया, पव्वयम्गे जाए मूले छिन्ने अग्गे गरुए जओ णिण्णं जओ विसमं जओ दुग्गं तओ पवडइ, एवामेव तहप्पगारे पुरिसजाए गब्धाओ गम्भं जम्माओ जम्मं माराओ मारं णरगाओ णरगं दुक्खाओ दुक्खं दाहिणगामिए गैरइए कण्हपक्खिए आगमिस्साणं दुल्लभबोहिए यावि भवइ, एसठाणे अणारिए अकेवले जाव असवदुक्खपहीणमग्गे एगंतमिच्छे असाहु पढमस्त ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिए ॥सू०२२॥३७॥ छाया-तद्यथा नाम वृक्षः स्यात्, पर्वताये जातः मुले छिन्नः अग्रे गुरुकः यतो निम्नं यतो विषमं यतो दुर्ग ततः प्रपतति एवमेव तथापकारः पुरुषजाता गर्भतो गर्भ, जन्मतो जन्म, मरणतो मरणं, नरकान्नरकं दुःखाद् दुःखं दक्षिणगामी नैरयिका कृष्णपाक्षिका आगमिष्यति दुर्लभबोधिकश्वाऽपि भवति । एतत्स्थानम् अनार्यम् अकेवलं यावदसर्वदुःख पहोणमार्गम् एकान्त मिथ्या असाधु । प्रथम स्य स्थानस्य अधर्मपक्षस्य विभङ्गः, एवमाख्यातः ॥ ०२२-३७॥ टीका-नाकिजीवानामधोगतिरेव भवति, नतूर्ध्वगति स्तत्र दृष्टा दर्शयति 'से जहाणामए' तद्यथा नाम 'रुक्खे' वृक्षः 'सिया' स्यात् स च जमक होने से चण्ड और प्रत्येक प्रदेश में कान रहने के कारण भयजनक होती है । नारक जीव ऐप्ती अतिविषम वेदना को बेदते हुए समय यापन करते हैं ॥२१॥ 'से जहाणामए' इत्यादि। टीकार्थ-अधर्मी जीव की अधोगति ही होती है, ऊर्ध्वगति नहीं, દુખ જનક હવાથી ચણડ અને દરેક પ્રદેશમાં વ્યાપ્ત રહેવાથી ભય જનક હોય છે. નારક છે આવા પ્રકારની અત્યંત વિષમ વેદનાનું વેદન કરતાં કરતાં પોતાનો સમય વીતાવે છે. ૨૧ 'से जहा णामए' त्यादि। ટીકાર્થ—અધમ ની અગતી જ થાય છે. ઉર્ધ્વગતિ થતી For Private And Personal Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका दि. शु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् 'पध्वयग्गे' पर्वताग्रे-उपरितनभागे जातः-समुत्पन्ना, जन्मना लब्धस्थितिवान, 'मूले छिन्ने अग्गे गरुए' मूले छिन्नोऽग्रे गुरुका, पर्वताऽग्रे समुत्पन्नो वृक्षो यदि मूलेन छिद्यते तदा यद् विषमं स्थलं तत्रैव पतति न तु कथमपि तस्य ऊर्च देशे गतिर्भवति, तथा-पावमाराकान्तो गुरुजी वो नरकेऽधोदेश एवं गच्छति, नत्व. स्याऽन्यत्र कथमपि गमनं संभवति। 'जो णिणं जो विसमं जो दुग्गं तो पवड' यतो निम्न यतो विषम-समरहितम् यतो दुर्ग-कष्टदायकं तत स्तुत्र प्रपतति । 'एवमेव तहप्पगारे पुरिसजाए' एवमेव तथापकारः पुरुषजातः गुरुकर्मवान् पुरुषः 'गम्भाओ गम' गर्भतो गर्भम् 'जम्म भो जम्म' जन्मतो जन्म 'माराओ मारं' मरणतो मरणम् 'गरगाओ गरगं' नरकान्नरकम्-एकस्मान्नरकाद नरकान्तरम्, 'दुक्खाओ दुक्खं दुःखतो दुःखम्-दुःखाददुःखान्तरम् 'दाहिणगा. मिए' दक्षिणगामी-दक्षिणस्यां दिशि गामी भवतीत्यर्थः जेरइए' नैरयिक:-नरकगामी च भवति 'कण्हपक्खिए' कृष्णपाक्षिकः-कृष्णानां नास्तिकानां पक्षो वर्गस्तत्र भवः-क्रूरकर्मकारी, 'आगामिस्साणं' आगमिष्यति काले 'दुल्लमबोहिए यावि इस विषय में दृष्टान्त दिखलाते हैं जैसे कोई वृक्ष पर्वत के उपरी भाग में उत्पन्न हुआ हो और उसका मूल काट डाला जाय तो वह भारी होने के कारण नीचे किसी विषम स्थान में गिरता है उसकी ऊर्ध्वगति नहीं होती, उसी प्रकार पाप के भार से युक्त पापी जीव नीचे नरक में ही जाता है। उसकी अन्यत्र गति नहीं होती। ऐसा पुरुष एक गर्भ से दूसरे गर्भ में जाता है एक जन्म के बाद दूसरा जन्म लेता है, मरण के पश्चात् दूसरा पुनः मरण करता है, बार-बार नरक में उत्पन्न होता है, और दुख के पश्चात् पुनः दुःख का भागी होता है । वह दक्षिण दिशांगामी होता है तथा कृष्ण पक्षी होता है। भविष्यत् काल में उसे घोधि दुर्लभ होती है। यह स्थान अनार्य है, નથી, આ વિષયમાં દષ્ટાન્ત બતાવવામાં આવે છે-જેમ કે વૃક્ષ પર્વતના ભાગમાં ઉત્પન્ન થયેલ હોય અને તેનું મૂળ કાપી નાખવામાં આવે, તે તે ભારે હેવાના કારણે નીચે કેઈ વિષમ સ્થાન પર પડી જાય છે. તેની ઉદવ ગતિ થતી નથી. એ જ પ્રમાણે પાપના ભારથી યુક્ત પાપી જીવ નીચે નરકમાંજ જાય છે. તેની ગતિ બીજે થતી નથી. આવા પુરૂષો એક ગર્ભમાંથી બીજા ગર્ભમાં જાય છે. એક જન્મ પછી બીજે જન્મ લે છે. અને મરણ પછી ફરીથી મરે છે. અર્થાત્ વારંવાર નરકમાં ઉત્પન્ન થાય છે. અને દુઃખની પછી ફરીથી રાખને જ ભોગવે છે. તે દક્ષિણ દિશામાં જનારે હોય છે. તથા કૃષ્ણ પક્ષી હોય છે. ભવિષ્ય કાળમાં તેને બેધિ દુર્લભ થાય છે. આ For Private And Personal Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૨૮૮ सुत्रकृतास्त्र भवई' दुर्लभबोधिकश्चापि भवति, स नारकिजीवः सदा कृष्णपक्षवानेव भवति-तथा भविष्यस्काले बोधिरपि दुर्लभा भवति-सम्यक्त्यमाप्तिरपि दुर्लभा भवतीत्यर्थः, 'एस ठाणे' एतत्स्थानम् 'अणारिए' अनार्यम् 'अकेवले जाव असम्बदुक्खपहीणमग्गे' अकेवलम्-केवलज्ञानरहितम् अपरिपूर्णम्-अन्यायकम् अशुद्धम् अशल्यकर्त. कम् असिद्धिमार्गम् अमुक्तिमार्गम् अनिर्माणमार्गम् अनिर्वाणमार्गम् , तथा-असर्व दुःखपहीणमार्गम् , सर्वदुःखानां तत्र विनाशो न भवति । 'एगंतमिच्छे' एकान्ततो मिथ्या तथा-'असाहु' असाधु-अशोभनम् 'पढमस्स' प्रथमस्य 'ठाणस्स' स्थानस्य 'अधम्मपक्खस्स' अधर्मपक्षस्य 'विभंगे एवमाहिए' विभङ्ग एवमाख्यातः, अनेन प्रकारेण प्रथमस्य स्थानस्यधर्मपक्षस्य विचारोऽभूदिति ।।मू०२२-३७॥ - मूलम्-अहावरे दोच्चस्त ठाणस्त धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिज्जइ इह खलु पाईणं वा ४ संतेगइया मणुस्ता भवंति, तं जहा-अणारंमा अपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया धम्मिट्ठा जाव धम्मेणं चैव वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति, सुसीला सुव्वया सुप्पडियाणंदा सुसाहू सव्याओ पाणाइवायाओ पडिविरया जावजीवाए जाव जे यावन्ने तहप्पगारा सावज्जा अबोहिया कम्मंता परपाणपरियावणकरा कज्जति तओ विपडिविरया जावजीवाए। से जहाणामए अणगारा भगवंतो ईरियासमिया भासासमिया केवल ज्ञान का जनक नहीं है, अपरिपूर्ण है, अन्याय मय है, अशुद्ध है, शल्य को काटने वाला नहीं है, सिद्धि मुक्ति निर्याण एवं निर्वाण का मार्ग नहीं है, वह समस्त दुःखों के नाश का मार्ग नहीं है । वह स्थान एकान्त मिथ्या है, अशोभन है, यह प्रथम अधर्म पक्ष का विचार हुआ ॥२२॥ સ્થાન અનાર્ય છે. કેવળ જ્ઞાનને ઉત્પન્ન કરવાવાળું નથી. અપરિપૂર્ણ છે, અન્યાય મય છે. અશુદ્ધ છે શલ્યને કાપવાવાળું નથી. સિદ્ધિ, મુક્તિ, નિર્માણ, અને નિવણના માર્ગ રૂપ નથી. તે સઘળા દુખના નાશને માર્ગ નથી. તે સ્થાન એકાન્ત મિથ્યા છે. અશોભન છે. આ રીતે આ પહેલા અધર્મ પક્ષને વિચાર થયે, પારા For Private And Personal Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् २८५ एसणासमिया आयाणभंडमत्तणिक्खेवणासमिया उच्चारपासवणखेलसिंघाणजल्लपडिट्ठावणियासमिया। मणसमिया वयसमिया कायसमिया मणगुत्ता वयगुत्ता कायगुत्ता गुत्ता गुर्तिदिया गुत्तबंभयारी अकोहा अमाणा अमाया अलोमा संता पसंता उवसंता परिणिव्वुडा अणासवा अग्गथा छिन्नसोया निरुवलेवा कंसपाई व मुक्कतोया संखो इव णिरंजणा जीव इव अप्पडिहयगई गगणतलंव निरालंबणा वाउरिव अपडिबद्धा सारद सलिलं व सुद्धहियया पुक्खरपत्तं व निरुवलेवा कुम्मो इव गुत्तिंदिया विहगइव विप्पमुक्का खग्गिविसाणं व एगजाया भारंडपक्खीव अप्पमत्ता कुंजरोइव सोंडीरा वसभी इव जायस्थामा सीहो इव दुद्धरिसा मंदरो इव अप्पकंगा सागरो इव गंभीरा चंदो इव सोमलेस्सा सूरो इव दित्ततेया जच्चकंचणगं व जायरूवा वसुंधरा इव सवफासविसहा सुइयहयासणी विव तेयसा जलंता। णत्थि णं तेसिं भगवंताणं कत्थ वि पडिबंधे भवइ से पडिबंधे चउब्धिहे पण्णत्ते, तं जहा-अंडएइ वा पोयएइ वा उग्गहेइ वा पगगहेइ वा जन्नं जन्नं दिसं इच्छति तन्नं तन्नं दिसं अपडिबद्धा सूइभूया लहुभूया अप्पगंथा संजमेर्ण तवसा अप्पाणं भावमाणा विहरति । तेसिं णं भगवंताणं इमा एयारूवा जायामाया वित्ति होत्था, तं जहा घउत्थे भत्ते छठे भत्ते अट्रमे भत्ते दसमे भत्ते दुवालसमे भत्ते चउद्दसमे भत्ते अद्धमासिए भत्ते मासिए भत्ते दोमासिए तिमासिए चउम्मासिए पंचमासिए . ३७ . For Private And Personal Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुगतामा छम्मासिए अदुत्तरं च गं उक्खित्तचरगा णिक्खित्तचरगा उक्खि. तणिमिखत्तचरगा अंतचरगा पंतचरगा लूहचरगा समुदाणचरगा. संसहचरगा असंसट्टचरगा तज्जायसंसट्टचरगा दिठ्ठलाभिया अदिटलाभिया पुट्ठलाभिया अपुट्ठलाभिया भिक्खलाभिया अभिपखलाभिया अन्नायचरगा उवनिहिया संखादत्तिया परिमितपिंडवाइया सुद्धेमणिया अंताहारा पंताहारा अरसाहारा विरसाहारा हाहारा तुच्छाहारा अंतजीवी पंतजीवी आयबिलिया पुरिमड्डिया निविगइया अमज्जमंसासिणो णो णियामरस भोई ब्राणाइया पडिमाठाणाइया उक्कुडुआसणिया णेसणिज्जा वीरासणिया दंडायतिया लगंडसाइणो अप्पाउडा अगत्तया अकंडुया अणिट्ठहा (एवं जहोववाइए) धुतकेसमंसुरोमनहा मध्वगायपडिकम्मविप्पमुका चिट्ठांत । ते णं एएणं विहारेणं विहरमाणा बहूई वासाइं सामन्नपरियागं पाउणंति२ बहु बहु आबाहंसि उत्पन्नास वा अणुप्पन्नंसि वा बहूई भत्ताई पच्चक्खंति पच्चक्खाइत्ता बहुई भत्ताई अणसणाए छेदिति अणसणाए छेदित्ता जस्सट्ठाए कीग्इ नग्गभावे मुंडभावे अण्हाणभावे अदंतवणगे अछत्तए अणोवाहणए भूमिसेज्जा फलगसेज्जा कट्टसेज्जा केसलोए बंभचरवासे परघरपवेसे लद्धाबलद्धे माणावमाणणाओ हीलणाओ निंदणाओ गरिहणाओ खिसणाओ तज्जणाओ तालणाओ उच्चावया गामकंटगा पात्रीसं परीसहोवसग्गा अहिया सिज्जति तमहं आराहति, तमर्ट For Private And Personal Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टोका द्वि. श्र. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् आराहित्ता चरमहि उस्सासनिस्सासेहिं अणंतं अणुत्तरं निव्वाघायं निरावरणं कसिणं पडिपुण्णं केवलवरणाणदसणं समु. प्पाडेंति, समुप्पाडित्ता तओ पच्छा सिझति बुझांति मुच्चंति परिणिव्वायंति सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति । एगच्चाए पुण एगे भयतारो भवंति, अवरे पुण पुब्बकम्मावससेणं कालमासे कालं किच्या अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवति, तं जहा-महड्डिएसु महज्जुइएसु महापरक्कमेसु महाजसेसु महाबलेसु महाणुभावेसु महासोक्खेसु ते णं तत्थ देवा भवंति महडिया महज्जुइया जाव महासोक्खा हारविराइयवच्छा कडगतुडियथंभियभुया अंगय कुंडलमट्टगंडयलकन्नपीढधारी, विचित्त हत्थाभरणा विचित्तमालामउलिमउडा कल्लाणगंधपवरवस्थपरिहिया कल्लाणगपवरमल्लाणुलेवणधरा भासुरबोंदी पलंबवणमालधरा दिवेणं स्वेणं दिव्वेणं वन्नेणं दिव्वेणं गंधेणं दिवेणं फासेणं दिव्वेणं संघाएणं दिव्वेणं संठाणेणं दिव्वाए इडिए दिवाए जुत्तीए दिव्वाए पभाए दिव्वाए छायाए दिवाए अचाए दिवेणं तेएणं दिव्वाए लेसाए दसदिसाओ उज्जोवे. माणा पभासेमाणा गइकल्लागा ठिकल्लाणा आगमेसिभद्दया यावि भवंति, एस ठाणे आयरिए जाव सव्वदुक्खपहीणमग्गे एगंतसम्मे सुसाहू । दोच्चस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिए ॥सू०२३॥३८॥ For Private And Personal Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २९२ सूत्रकृतागसूत्र ... छाया-अथाऽपरो द्वितीयस्थ स्थानस्य धर्मपक्षस्य विभङ्गा, एवमाख्यायते, इइ खलु प्राच्यां वा ४ सन्त्ये कनये मनुष्या भवन्ति तद्यथा-अनारम्भाः अपरिग्रहाः धार्मिकाः धर्मानुगाः धर्मिष्ठाः यावद् धर्मेण चैव वृत्तिं कल्पयन्तो विहरन्ति, मुशीलाः सुव्रताः मुमत्यानन्दाः मुसाधवः सर्वतः पाणातिपातात् पतिविरता: यावज्जीवनम्, यावद् यानि चान्यैः तथाप्रकाराणि सावधानि अबोधिकानि कर्माणि परमाणपरितापनकराणि क्रियन्ते ततः प्रतिविरताः यावजीवनम् । तद्यथा-नाम अनगाराः भगवन्तः ईर्यासमिताः भाषासमिताः एषणासमिताः आदानभाण्डमात्रानिक्षेपणासमिताः उच्चारमस्त्रवणखेलसिंघाणमलप्रतिष्ठापनासमिताः मनःसमिता: क्यासमिताः कायसमिता: मनोगुमाः वचोगुप्ताः कायगुप्ताः गुप्ताः गुप्तेन्द्रियाः गुप्तब्रह्मचर्याः अक्रोधाः अमानाः अमाषाः पालोमाः शान्ता प्रशान्ताः उपशान्ताः परिनिवृत्ताः अनास्रवाः अग्रन्थाः छिन्नशोका निरूपलेयाः कास्यपात्रीव मुक्ततोयाः - शङ्ख इव निरञ्जनाः जीव इवापतिहतगतयः गगनतलमिव निरवलम्बना वायुरिचामतिवद्वाः शारदसलिलमित्र शुद्धहृदयाः पुष्करपत्रमिव निरूपलेपाः कूर्म इव गुप्ते. न्द्रियाः विहग इव विषमुक्ताः खङ्गिविषाणमिवैकजाताः भारण्डपक्षीवापमत्ताः कुञ्जरइव शौण्डीराः वृषभइव जातस्थामानः सिंह इच दुर्धर्षाः मन्दर इवामकम्पाः सागरइच गम्भीराः चन्द्र इव सोमलेश्याः मूर्यइव दीप्ततेजसः जात्यकाश्चनमिव जातरूपाः वसुन्धरा इव सर्वस्पर्शविसहाः मुहुतहुताशन इव तेजसा ज्वलन्तः। नास्ति खलु तेषां भगवतां कुत्राऽपि प्रतिबन्धो भवति : स प्रतिबन्ध चतुर्विधः प्रज्ञप्तः तद्यथा-अण्डजे वा पोतके वा अपग्रहे वा प्रग्रहे वा यां यां दिशमिच्छन्ति तां तां दिशमपतिबद्धाः भुचीभूता लघुभूताः अल्पग्रन्थाः संयमेन तपसा आत्मानं भावयन्तो विहरन्ति । तेषां च खलु भगवतामियमेतद्रूपा यात्रामातात्तिरभवत्, तद्यथा-चतुर्थभक्तं षष्ठं भक्तम् अष्टमं भक्तं दशमं भक्तं द्वादशं भक्त चतुर्दशं भक्तम् अर्धमासिकं भक्त मासिकं भक्तं द्वैमासिकं भक्तं त्रैमासिकं भक्तं चातुर्मासिकं भक्तं पाश्चमासिकं पाण्मासिकम्, अत उत्तरं च खलु-उस्क्षिप्तचरकाः निक्षिप्तचरकाः उत्क्षिप्त-निक्षिप्तचराकाः अन्तचरकाः मान्तचरकाः रूक्षचरकाः समुहानचरकाः संसृष्टचरकाः असंसृष्टचरका: तनावसंसृष्टचरकाः दृष्टलाभिकाः अष्टलाभिकाः पृष्टलामिकाः अपृष्टलाभिका: भिक्षालाभिका अभिक्षालाभिकाः अज्ञातचरकाः उपनिहितकाः संख्यादत्तयःपरिमित. पिण्डिपातिकाः शुद्धषणाः अन्ताहारा प्रान्ताहाराः अरसाहाराः बिरसाहाराः रूक्षाहारा तुच्छाहाराः अन्तजीविनः प्रान्तजीविनः आचाम्लिकाः पुरिमदिका निर्विक. तिकाः अमघमासाशिनः नो निकामरसभोजिनः स्थानान्विताः प्रतिमास्थानान्विताः उत्कटा सनिकाः नैषधकाः वीरासनिकाः दण्डायतिकाः लगण्डशायिनः अमावता: For Private And Personal Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् २९३ अगतयः अकण्डूयकाः अनिष्ठीवनाः' 'एवं यथौषगतिके' धुकेशश्मश्रुरोमनखाः सर्वगात्र परिकर्मविषमुक्तास्तिष्ठन्ति । ते खलु एतेन विहारेग विहरन्त: बहूनि वर्षाणि धामण्यपर्यायं पालयन्ति बहुबळ्याम् आवायायामुत्पन्नायामनुत्पमायां वा बहूनि भक्तानि प्रत्याख्ान्ति, प्रत्याख्याय बहूनि मक्तानि अनशनेन छेदयन्ति, अनशनेन छेदयित्वा यदर्थाय क्रियते नग्नमाव: मुण्ड मावः अस्नानभाव: अदन्तवर्णका अच्छ त्रका अनुत्पानकः, भूप्रिशय्याफलकशय्या काष्ठशय्या केशलोचा ब्रह्मचर्यवासः परगृहप्रवेशः लब्धापलब्धानि मानापमानानि होलनाः निन्दनाः खिंसनानि गर्हणाः तर्जनानिताडनानि उच्चावचाः ग्रामकण्टकाः द्वाविंशतिः परीषहोपसर्गाः अधिकाः सद्यन्ते तमर्थम् आराधयन्ति तमर्थमाराध्य चरमोच्छवासनिःश्वासैः अनन्तमनुसरं नियाघातं निरावरणम्, कस्स्नं परिपूर्ण केवलवरज्ञानदर्शनं समुत्पादयन्ति सा. स्पाय तत्पश्चात् सिध्यन्ति बुध्यन्ते मुच्यन्ति परिनिर्वान्ति सर्वदुःखानामन्तं कुर्वन्ति । एकार्चया पुनरेके भयत्रातारो भवन्ति । अपरे पुनः पूर्वकर्मावशेषेण कालमासे कालं कृत्वा अन्यतरेषु देवलोकेषु देवत्वाय उपपत्तारो भवन्ति तद्यथा-महर्द्धिकेषु महा. पुतिकेषु महापराक्रमेषु महायशस्विषु महाबलेषु महानुभावेषु महासौख्येषु ते खल तत्र देवाः भवन्ति महद्धिका महाधुतिकाः यावन्महासौख्याः हारविराजितवक्षस कटकत्रुटितस्तम्भितभुजाः अङ्ग स्कुण्डलमृष्टगण्डतलकर्णपीठधराः विचित्रहस्ताभरणाः विचित्रमालामौलिमुकुटाः कल्याणगन्धपवरवस्त्रपरिहिताः कल्याणपवरमा ल्यानुलेपनधराः भास्वरशरीराः पलम्बवनमालाधराः दिव्येन रूपेग दिव्येन वर्णेन दिव्येन गन्धेन दिव्येन स्पर्शेन दिव्येन सङ्घातेन दिव्येन संस्थानेन दिव्यया ऋदया दिव्यया धुत्या दिव्यया प्रभया दिवाया छायथा दिव्यया अर्चया दिव्येन तेजसा दिव्यया लेश्यया दशदिशः उद्योतयन्तः प्रभासयन्तः गतिकल्याणा: स्थितिकल्याणाः आगामिभद्र काश्चापि भवन्ति । एतत् स्थानम् आर्य यावत् सर्वदुःखपहीगमार्गम् एकान्तसम्यक् सुसाधु । द्वितीयस्य स्थानस्य धर्मपक्षस्य विभङ्ग एवमाख्यातः ॥२३:३८॥ टीका-अधर्मपक्षो निरूपितः सम्पति-धर्मपक्षमाह-'अहावरे' इत्यादि । 'अहावरे' अथाऽपरः पूर्वस्मादधर्मपक्षाव्यतिरिक्तः 'दोचस्त'.द्वितीयस्य 'ठाणस्स' ___ 'अहावरे दोच्चस्स ठाणस्स, इत्यादि । टीकार्थ-अधर्म पक्ष का निरूपण करके अब धर्म पक्ष का कथन करते हैं प्रथम अधर्म पक्ष से विपरीत द्वितीय स्थान धर्म पक्ष का 'अहावरे दोच्चस्स ठाणस्स' त्या ટીકાર્થ—અધર્મ પક્ષનું નિરૂપણ કરીને હવે ધર્મ પક્ષનું કથન કરે છે.તે પહેલા અધર્મ પક્ષથી ઉલટુ બીજું સ્થાન ધર્મ પક્ષનું છે. હવે તેને વિચાર For Private And Personal Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतात्र स्थानस्य 'धम्मपक्खस्स' धर्मपक्षस्य 'विभंगे' विमङ्गः 'एवमाहिज्जई' एवम्वक्ष्यमाणपकारेण आख्यायते, इह-अस्मिन् लोके, खलु इति वाक्याऽलङ्कारे । 'पाईणं वा' पाच्यादिदिगविभागेषु चतुर्यु 'संतेगइया मगुस्सा भवंति' सन्त्ये कतयें मनुष्या भान्ति । 'तं जहा' तयथा-'अणारंभा' अनारम्भा:-नास्ति आरम्भ:पाणिनामुषघातादिर्येषां तेऽनारम्माः, 'अपरिग्गहा' अपरिग्रहा:-परिग्रहरहिता: 'धम्मिया' धार्मिका:-धर्मानुष्ठाने रताः 'धम्माणुया' धर्माऽनुगा:स्वयं धर्ममाचरन्ति-परानपि तदर्थ प्रयोजगन्ति 'धम्मिट्ठा' धर्मिष्ठा:-धर्ममेव स्वेष्टं मन्यमानाः, 'जात्र' यावत् 'धम्मेणं चेव वित्ति कप्पेमाणा विहरंति' धर्मेण चैत्र वृत्तिम्-आजीविका कल्प पन्तो विरहन्ति-जीपनं यापयन्ति, 'मुसीला' सुशीला:सम्यक्शीलवन्तः 'सुव्वया' मुत्रताः-सम्यग्व्रतवन्तः 'मुष्पडियाणंदा' सुपत्या. मन्दा:-सुपसन्नाः शीघ्रपानन्दवन्तः 'सुपाहू' सुसाधाः 'सम्भो पाणाइवायायो पडिविरया' सानः प्रागातिपातात्-जोवहिंसादिव्यापारात् प्रतिविरताः-निवृत्ताः 'जावज्जीवार' यावज्जीवनम् 'जाव जे यावन्ने तहपगारा' यावद् यानि यावन्ति चान्यैः-अधार्मिकपुरुषैः तथामकाराणि 'सावज्जा' सावधानि पापजनकानि 'अो. हिया' अबोधिकानि-केवलमज्ञान भावयुक्तानि 'कम्मंता' कर्माणि 'परपाणपरिया. विचार इस प्रकार कहा गया है.. इस संमार में पूर्व आदि दिशाओं में अनेक प्रकार के लोग निवास करते हैं, जैसे-अनार भी अर्थात् जीवों के घातकारी व्यवहार म करने वाले, अपरिग्रह, धर्मानुष्ठान में रत, स्वयं धर्म का आचरण करने वाले और दूसरों को धर्माचरण की प्रेरणा करने वाले धर्मनिष्ठ यावत् धर्म से ही अपनी आजीविका करके जीवन निर्वाह करने वाले, सुशील, समीचीन व्रतों से सम्पन्न, सरलता से प्रसन्न होने वाले, सुसाधु, सब प्रकार के प्राणातिपात के यावज्जीव त्यागी तथा दूसरे वामां आवे छे. આ સંસારમાં પૂર્ણ વિગેરે દિશાઓમાં અનેક પ્રકારના લેક નિવાસ કરે છે. જેમકે–ખનારંભી, અર્થાત્ જીવન ઘાતકરી વ્યવહાર ન કરવાવાળા અપરિગ્રહવાળા, ધર્માનુષ્ઠાનમાં રત, સ્વયં ધર્મનું આચરણ કરવાવાળા, અને બીજાઓને ધર્માચરણની પ્રેરણું કરવાવાળા ધર્મનિષ્ઠ, યાવત્ ધર્મથી જ પિતાની આજીવિકા કરીને જીવન નિર્વાહ કરવાવાળા સુશીલ, સારા એવા તેથી યુક્ત, સરલપણાથી પ્રસન્ન થવાવાળા, સુસાધુ દરેક પ્રકારના પ્રાણાતિ For Private And Personal Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पमयाबोधिनी टीका दि. श्रु. म. २ क्रियास्थाननिरूपणम् वणकरा' परमागपरितापनहराणि -माणातिपातसाधनपराणि कर्माणि 'कति ' क्रियन्तेऽज्ञानिमिः 'तो विपडिविरया जाव जीवाए' तत स्ताशप्राणातिपात. क्रियातः पतिविरतास्ते भवन्ति यावज्जीवनम् से जहाणामए' तद्यथानाम 'अण.. गारा' अनगाराः-ते धार्मिकपुरुषाः गृहपरिवारादिभिर्विरहिताः सन्तः 'भगवंतो' भपवन्त:-भाग्यवन्तो भवन्ति 'इरियासमिया भासासमिया' ईर्यासमिता भाषासमिता:-ते ईर्यासमितेर्भापासमितेश्च सम्यकपरिपालका भवन्ति 'एसणासमिया' एषणासमिताः 'आयाणभंडमत्तणिक्खेवणासमिया' आदानमाण्डमात्रानिक्षेपमा समिता:-धर्मोपकरणपात्रवस्त्रादीनां ग्रहणस्थापनसमितिभिर्युक्ताः भवन्ति 'उबार पासवणखेलसिंघाणजल्लपडिडावणिया समिया' उच्चारप्रसाणखेलसिंघाणमपतिष्ठापनसमिताः- मूत्रपुरीषष्ठीवनशरीरमलादिशास्रोक्तमतिष्ठापन समितिभिर्युक्ता। सदा भवन्ति । 'मणसमिया' मनःसमिताः 'वयसमिया' वासमिताः 'कायसमिया' कायसमिताः 'मणगुत्ता' मनोगुप्ताः 'वयगुत्ता, वचोगताः 'कायगुत्ता' कायगुप्ता:-मनोवाकायगुमा इत्यर्थः, 'गुत्ता' गुप्ता:-पर्वेभ्य आस्रवेभ्यः 'गुनिदिया' गुप्तेन्द्रियाः-गुमानि-विषयभोगेभ्य इन्द्रियाणि-श्रोत्रादीनि धेषा पापी लोग जिन सावद्य एवं अयोधिजनक कर्मों को करते हैं उनसे याधज्जीवन निवृत्त होते है। __ वे धर्मनिष्ठ पुरुष अनगार अर्थात् गृहपरिवार आदि से रहित होते हैं, भाग्यवान होते हैं, ईर्यासमिति भाषा समिति एषणा समिति आदान भाण्डामात्रनिक्षेपणसमिति, उच्चारप्रस्रवणखेलसिंघाण मलप्रतिष्ठापना समिति से अर्थात् पांचों समितियों से युक्त होते हैं। मन वचन और कायकी समिति से युक्त होते हैं। मनोगुप्त वचनगुप्त और कायगुप्त होते हैं । समस्त आस्रवों से गुप्त होते हैं। अपनी इन्द्रियों को विषयों से गोपन करके रखते हैं। नव पाड़ो के પાતને જીવન પર્યન્ત ત્યાગ કરવાવાળા, તથા બીજા પાપી લેકે જે સાવધ અને અબાધિ જનક કર્મો કરે છે, તેનાથી જીવન પર્યન્ત નિવૃત્ત રહે છે. તે ધર્મનિષ્ઠ પુરૂષ અનગ.૨ અર્થાત્ ઘર અને પરિવાર વિગેરથી રહિત હોય છે. ભાગ્યવાન હોય છે. ઈર્ષા સમિતિ, ભાષા સમિતિ, એષણા મૃમિતિ આદાનભા૨ડ માત્ર નિક્ષેપણું સમિતિ, ઉચ્ચાર પ્રસવણ ખેલ સિંઘાણ મલ પ્રતિષ્ઠાપના સમિતિથી અર્થાત પાંચે પ્રકારની સમિતિથી યુક્ત હોય છે. મન, વચન, અને કાયસમિતિથી યુક્ત હોય છે. મને ગુપ્ત, વચન ગુણ અને કાયમ હોય છે. સઘળા આસ્ત્રોથી ગુપ્ત હોય છે. પોતાની ઇન્દ્રિ For Private And Personal Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - सूत्रकताजपचे ते गुप्तेन्द्रियाः 'गुत्तभयारी' गुप्तब्रह्म पर्याः 'अकोहा' अक्रोधाः 'अमाणा' अमानाः, 'अमाया' अमाषाः 'अलोहा' अलोमाः क्रोधमानमायालोमादिमिः परिवर्जिताः 'संता' शान्ताः 'पसंता' प्रशान्ता:-अतिशयेन 'उपसंता' उपशान्ताः -बाशान्तरशान्तिसहिताः परिनिचुडा' परिनिवृत्ताः-समस्तसन्तापरहिता इत्यर्थः 'अमासवा' अनास्रा:-आस्र सेवनरहिता: 'अग्गंथा' अग्रन्था:-समस्तपरिग्रह रहिताः 'छिनपोया' छिन्नशोकाः छिनो पिदारितः शोकपदवाच्या संपाते येस्ते छिन्नशोकाः 'निहालेगा' निरुपलेपा:-कर्मरूपमलरहिताः 'कंपपाईव मुक्कतोया' कांस्यपात्रीव मुक्ततोयाः:-यथाकांस्यपात्रं जल ननितविकारेण न लिप्यते-तद्वत् कर्ममलैरलिप्ताः 'संखो इस णिरंजणा' शङ्ख इव निरञ्जनाः, यथा शङ्ख प्रकृत्या स्त्रच्छो न तु कालिमादिदोषैः संस्पृष्टो भवति-तथैव हि भवन्ति रागादिदोषैरनाघाताः। 'जीव इव अप्पडिहयगई' जीव इवाऽमतिहतगतयः, यथा जीनां गतिर्न मतिरुध्यते, तथा यथोक्तमहतामपि न निरुध्यते गतिः। 'गगणतलं व निरालंबणासाथ ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। क्रोध मान माया और लोभ से रहित होते हैं । शान्त, प्रशान्त, उपशान्त-बाह्य एवं आन्तरिक शान्ति से सम्पन्न होते हैं। परिनिर्वृत्त, आस्रबहारों से रहित, समग्र ग्रंथियों से रहिन छिन्नशोक-संसार के मूल को छेदन कर देने वाले अथवा शोक से रहित कर्मरूप मल से रहित, जैसे कांसे का पात्र जल के लेप से लिप्त नहीं होतो उसी प्रकार कर्ममल से लिप्त न होने वाले, जैसे शंख स्वभाव से निष्कलंक होता है, उसी प्रकार समस्त कालिमा से रहित होते हैं। जैसे जीव की गति रोकी नहीं जा सकती, वैसे भी उनकी गति में भी रूकावट नहीं डाली जा सकती। ચાને વિષયેથી ગેપન કરીને રાખે છે. નવ વાડેની સાથે બ્રહ્મચર્યનું પાલન रेछ. जोध, मान, माया, अने .मथी २डित य छ. शान्त, प्रशान्त, ઉપશાન્ત-બાહા અને આંતરિક શક્તિથી યુક્ત હોય છે. પરિનિવૃત, આવ. સાથી રહિત સઘળી થિયેથી રહિત છિન શક-સંસારના મૂળનું છેદન કરવાવાળા, અથવા શેકથી રહિત કર્મરૂપ મળથી રહિત, જેમ કાંસાને વાસણ પાણીના લેપથી લિપ્ત થતું નથી, એ જ પ્રમાણે કર્મ રૂપી મળથી - હિપાનારા. જેમ શંખ સ્વભાવથી નિષ્કલંક હોય છે, એજ પ્રમ છે સઘળા પારની કાલિમા–મલિન પશુથી રહિત હોય છે. જેમ જીવની ગતિ રે કી શકાતી નથી, તેમ તેઓની ગતિમાં પણ રોકાણ કરી શકાતું નથી. For Private And Personal Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् _ २९७ गगनतलमिव निरालम्बनाः यथा गगनतलम् आलम्बनं विनैव तिष्ठति तद्वत् स्वा. लम्बना इमे भान्ति । 'वाउरिव अप्पडिबद्धा-वायुरिव अपतिबद्धः अपतिबद्धविहारिणः 'सारदसलिलं व सुदहियया' शारदसलिलमिवशुदहृदयाः यथा-शरज्जलं निर्मलं तथा तेषामन्तःकरणमपि अकलुषितम् 'पुक्खरपत्तं व निरुवलेवा' पुष्करपत्रमित्र निरुपलेपाः यथाऽगाधपया-पूरितायामपि पुष्करिण्यां पुष्करदलं तत्स्थं तदवस्थमेव-स्त्रप्रकृतिस्थमेव किन्तु न लिप्यतेऽम्भसा, तथा इमेऽपि पुरुषधौरेयाः असारे संसारे कर्मजलै न लिप्यन्ते, 'कुम्मो इन गुर्तिदिया' कूर्मइव गुप्तेन्द्रियाः 'विहग इव विष्पमुक्का' विहग इव विषमुक्त : यथा गगनविहारिणः स्वच्छ दाः बिहमास्त. थेमे महात्मानो-ममत्वभावरहिताः स्वच्छन्दा भवन्ति । 'खग्गिविसाणं व एग. जाया' खङ्गिविषाणमिवैकजाताः यथा-खङ्गि मृगस्य विषाणमेकमेकस्वभावतो भवति 'भारंडपक्खीव अप्पमत्ता' भारण्डपक्षोवाऽप्रमत्ता:-प्रमादरहिताः 'कुंजरो इव सोंडीरा' कुञ्जर इव शौण्डीराः यथा हस्ती शौण्डीरो वृक्षादीनां विदारणे समर्थ वे आकाश के समान निरवलम्घ होते हैं अर्थात् किसी का आश्रय नहीं लेते । वायु के समान अप्रतिबद्ध विचरण करते हैं। जैसे शरद ऋतु का जल निर्मल होता है, उसी प्रकार उनका अन्त:करण निर्मल होता है। वे कमल पत्र के जैसा राग-द्वेष आदि के लेप से रहित होते हैं । कूर्म की भांति गुप्तेन्द्रिय होते हैं। जैसे आकाश विहारी पक्षी स्वाधीन होता है उसी प्रकार वे महात्मा ममत्व के बन्धन से रहित होने के कारण स्वाधीन होते हैं। जैसे गेंडे का एक ही सींग होता है, उसी प्रकार वे मोहादि से मुक्त होने के कारण एकाकी होते हैं। भारण्ड पक्षी के समान अप्रमत्त होते हैं। कुंजर के समान તેઓ આકાશની જેમ અવલખન વિનાના હોય છે. અર્થાત્ કેઈને પણ આશ્રય લેતા નથી. વાયુ પ્રમાણે રેકણ વાર વિચરણ કરે છે. જેમ શરદ્દ ઋતુનું પાણી નિર્મલકખું હોય છે, એ જ પ્રમાણે તેમનું અંતઃકરણ નિર્મલ હોય છે. તેઓ કમળના પાનની જેમ રાગ-દ્વેષ વિગેરેના લેપ વિનાના હોય છે. કાચબાની જેમ ગુખેન્દ્રિય હોય છે. જેમ આકાશમાં જનારા પક્ષિયે સ્વાધીન હોય છે, એ જ પ્રમાણે મહાત્માઓ મમત્વના બંધનથી રહિત હોવાના કારણે સ્વાધીન હોય છે. જેમ ગેંડાનું એક જ સીંગ હોય છે, તે જ પ્રમાણે તેઓ મહ વિગેરેથી મુક્ત હોવાથી એકલા જ હોય છે. ભારડ પક્ષીની જેમ અપ્રમત્ત હોય છે. કુંજરની જેમ શેડર હોય છે. सू० ३८ For Private And Personal Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वथा इमे शौण्डीराः कर्मविदारणे समर्थाः, 'वसवो इत्र जायस्थामा' वृषभ इव जातसामान तथाहि-यथा वृषभो भारवहने समर्थः तथेमेऽपि संयमरूपमारवहने समर्था भवन्ति, 'सीहो इव दुद्धरिसा' सिंह इव दुर्धर्षाः सिंहं यथा धर्षयितुं कोऽपि नशक्त:-तथैव एतानपि पुरुषसिंहान् परीपहोपसर्गा न पराभवन्ति । 'मंदरो कब अप्पकंपा' मन्दर इवाऽप्रकम्पाः यथा वायुः मेरु कम्पयितुं न समर्थः तथा एतान् महात्मनो बाद्याभ्यन्तरोपसर्गाः पराभवितुं न समर्थाः 'सागरो इव गंभीर सामर इस गम्भीराः-समुदो यथाऽऽगच्छन्तीनां नदीनामनुपमै स्तुलैः कल्लोले न शुभ्यति तथा शोकादिभिरेषामपि न द्यन्ते मनांसि । 'चंदो इव सोमलेसा' चन्द्र इव सोमलेश्या चन्द्र इव स्वभावत एव सदा शीतलाः 'मुरो इव दीत्ततेया' शौण्डीर होते हैं अर्थात् जैसे हस्ती वृक्ष आदि का विदारण करने में समर्थ होता हैं, उसी प्रकार वे कर्मों के विदारण में समर्थ होते हैं, वे वृषभ के जैसे संयम का भार वहन करने में सामर्थ्यवान होते हैं। जैसे सिंह दुर्धर्ष होता है, उसी प्रकार परीषह और उपसर्ग उनका पराभव नहीं कर सकते। वे मेरू पर्वत के समान अप्रकम्प होते हैं अर्थात् जैसे आंधी मेरू पर्वत को कम्पित नहीं कर सकती, उसी प्रकार उन्हें कठिन से कठिन उपसर्ग भी विचलित नहीं कर सकते । वे सागर के जैसे गंभीर होते हैं, अर्थात् जैसे नदियों के आने वाले जल से समुद्र में क्षोभ उत्पन्न नहीं होता, उसी प्रकार उनका मन किती भी कारण से क्षुब्ध नहीं होता। वे चन्द्रमा के समान स्वभावतः शीतल लेश्या वाले होते हैं। सूर्य के समान तप एवं संयम के तेज से देदिप्यमान અર્થાત જેમ હાથી વૃક્ષ વિગેરેને વિદ્યારણ-પાડવામાં સમર્થ હોય છે, એજ પ્રમાણે તેઓ કમેનું વિદારણ કરવામાં સમર્થ હોય છે. તેઓ વૃષભ-બળદની જેમ સંયમને ભાર વહેવામાં–ઉપાડવામાં સામર્થ્યવાળા હોય છે. જેમ સિંહ દુધર્ષ–પરાજ્ય ન પામે તે હોય છે, એ જ પ્રમાણે પરીષહ અને ઉપસર્ગ તેઓને પરાભવ કરી શકતા નથી, તેઓ મેરૂ પર્વત સરખા અપ્રકમ્પ હોય છે. અર્થાત્ જેમ વાવાઝોડું મેરૂ પર્વતને કંપાવી શકતું નથી, એજ પ્રમાણે પરીષહ અને કઠણમાં કઠણ ઉપસર્ગ તેઓને પરાભવ કરી શકતા નથી, તેઓ સાગરની જેમ ગંભીર હોય છે, અર્થાત્ જેમ નદીમાંથી આવવા વાળા પાણીથી સમુદ્રમાં ક્ષોભ થતું નથી, એજ પ્રમાણે તેઓનું મન, પણ કઈ પણ પ્રકારથી ક્ષાભ પામતું નથી. તેઓ ચન્દ્રમાની જેમ સ્વભાવથી જ શીતલ વેશ્યાવાળા હોય છે. સૂર્યની જેમ તપ અને સંયમના For Private And Personal Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् सूर्य इव दीप्ततेजसः तेजस्विनः तपःसंयमपतापयन्तः 'जच्चकंचणर्ग व जावरून जायकाञ्चनमित्र जातरूपाः -जात्या सुवर्णमिव निर्मलाः 'वसुंधरा इव - सन्त्रासविसारे सर्वस्पर्शसहा:- सबै सहा वसुमतीत्यमरात्, इमेऽपि पुरुषधौरेबा सर्वस्पर्श हा भवन्तीति । 'सुहुहुयासगोविव तेयसा जलवा' सुहुतहुताशन तेजसा ज्वलन्तः- प्रदीप्ताग्निरिव तेजसा सातिशयं जाज्वल्यमानाः 'णत्थि णं तेसिं भगवंताणं कस्थ विपडिबंधे भवइ, नास्ति खलु तेषां भगवता कुत्राऽपि प्रतिषन्धो भवति, 'से पडिबधे चउन्त्रिहे पण्णत्ते' स प्रतिबन्धश्वतुर्विधः प्रज्ञप्तः कषिलो भवति, 'तं जहा ' तद्यथा - 'अंडर वा पोयएइ वा - उम्महे वा पाहेश का' अण्डजे वा-पोतके वा - अवग्रहे वा प्रग्रहे वा तत्र अण्डजाः - हंस मयूरादिपक्षिणः, पोतका :- हस्ति - लिंग प्रभृतिशावकानि, वसति पीठफलकादिकमवग्रहिकस्, दण्डपधिजातं परिग्रहकम्, अन्येषां विहारे एतेभ्यः चतुर्भ्यः प्रतिबन्धो भवति, एष विहारे एतेभ्यः प्रतिबन्धो न भवतीत्यर्थः, 'जन्नं जन्नं दिसं इच्छंति' यां यां दिशं गन्तुमिच्छन्ति, तन्नं सन्नं दिसं आडिबद्धा सुभूया लहुया अपगंधा संजमेण होते हैं । स्वभाव से ही स्वर्ण के समान निर्मल होते हैं। पृथ्वी के समान समस्त स्पर्शो को सहन करते हैं । जिसमें घृत आदि का होम किया गया हो ऐसी अग्नि जैसे तेज से जाज्वल्ममान होती है, उसी प्रकार वे अतिशय तेज से दीप्त होते हैं। उन भगवन्तों को कहीं भी प्रतिबन्ध नहीं होता । प्रतिबन्ध चार प्रकार का कहा गया है- अंडे से उत्पन्न होने वाले मयूर आदि पक्षियों से, बच्चे के रूप में उत्पन्न होने वाले हाथी वल्गी आदि के बच्चों से, वसति-निवास-स्थान से तथा परिग्रह से अर्थात् पीठ, फलक आदि उपकरणों से, वे इन सब प्रति बन्धों से रहित होते हैं। वे जिस किसी भी दिशा में जाने की ह करते हैं, उसी में बिना रुकावट, भाव शुद्धि से युक्त, लघुभूत, अप તેજથી પ્રકાશમાન હાય છે. સ્વભાવથી જ સુવણુ સેાનાની જેમ નિ – સ્વચ્છ હાય છે. પૃથ્વીની જેમ સઘળા સ્પર્શેનેિ સહન કરે છે. જેમાં શ્રી વિગેરેના હામ કરવામાં આવ્યા હુંય, એવી અગ્નિ જેમ તેજથી દેીપ્યમાન હાય છે, એજ પ્રમાણે તે અતિશય તેજથી પ્રકાશવાવાળા હોય છે, તે ભગ વતાને કચય પણ પ્રતિબંધ હાતા નથી, પ્રતિબન્ધ ચાર પ્રકારના કહેવામાં यावेस छे.- मडे (१) अभांथी उत्पन्न थवावाणा भोर विगेरे पक्षियोंथी, (२) मय्या ३ये उत्पन्न थवावाजा हाथी विगेरेना अभ्यार्थी (3) वसतिनिवासस्थानथी (४) तथा परिअडथी अर्थात् पी, इस विगेरे उपरथी थी, તેઓ આ સઘળા પ્રતિબંધ વિનાના હોય છે. તેઓ જે કઈ દિશામાં જવાની ઈચ્છા કરે છે; તેમાંજ રાકાણુ વિના ભાવશુદ્ધિથી યુક્ત, લઘુમ્રૂત, For Private And Personal Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - ३०० सूत्रकृतात्रे तवसा अप्पा भावेमाणा विहरंति' वां तां दिशमप्रतिबद्धा: - प्रतिबन्धरहिता चीभूताः- भावशुद्धिमन्वभूताः - अल्पोपधयः- अल्लग्रन्थाः बाह्याभ्यन्तरपरि ग्रहरूपग्रन्थिरहिताः संयमेन - सप्तदशविधेन तपसा द्वादशविधेन आत्मानं भावयन्तो विहरन्ति प्रतिबन्धममत्वादिरहिताः आत्मानं संयमतपोभ्यां परिशोधयन्तो विहरन्ति । 'ते सिणं भगवंताणं इमा एयारूवा जायामायावित्ती होत्था' तेषां च भगवता मियमेतद्रूपा यात्रा मात्रा वृत्तिर्भवेत्, तत्र - यात्रा - संयमयात्रा मात्रा - तदर्थमेत्र परिमिताऽऽहारग्रहणमिति तदेवं भवति, 'तं जहा ' तद्यथा - 'चउत्थे भत्ते ' 'चतुर्थ भक्तम् 'छडे भत्ते' पष्ठं भक्तम् 'अष्टुमे मते' अष्टमं भक्तम् 'दसमे भत्ते' दशमं मक्तम् 'दुवालसमे भत्ते' द्वादशं भक्तम् 'चउदसमे मत्ते' चतुर्दशं भक्तम्, तेषां महात्मनां संयमपरिपालनाय - एतादृशी - आजीविका वृत्तिर्भवति, एकदिनस्योपवासः द्विदिनस्य दिनन्तयस्य चतुर्दिनस्य इत्यादिरूपे गाSS जीविकां कुर्वन्ति-उक्तजीविकया संयम निर्वाहयन्ति । परिमितं तदपि दिनादिभिर्मध्ये व्यवधाय विलम्बेन भुञ्जन्ती वि उपधि वाले, बाह्याभ्यन्तर परिग्रह से रहित होकर एवं सतरह प्रकार के संयम से तथा बारह प्रकार के तप से अपनी आत्मा के। भावित करते हुए विचरते हैं । उन भाग्यवान् महापुरुषों की संयम का निर्वाण करने के लिए इस प्रकार की जीविका होती है— कोई एक दिन का उपवास करते हैं, कोई दो दिन का उपवास करते हैं, कोई तेला-तीन दिन का उपवास करते हैं, कोई चौला - चार दिन का उपवास करते हैं, कोई पांच दिन का उपवास करते हैं। कोई छह दिन का उपवास करते हैं । अर्थात् कोई एक-एक दिन छोड़ कर भोजन करते हैं, कोई दो-दो दिन, कोई तीन, तीन, चार-चार, पांच-पांच और छह छह दिन छोड़ कर एक दिन भोजन અદ્વેષ ઉપધિવાળા ખાદ્ય અને માભ્યન્તર પશ્રિદ્ધથીરહિત થઈને અને સત્તર પ્રકારના સયમથી તથા ખાર પ્રકારના તપથી પેાતાના ફરતા થકા વિચરે છે. આત્માને ભાવિત Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 2 For Private And Personal Use Only - આ પ્રમાણેની આજી मे हिवसना - તે ભગવાન્ મહાપુરૂષોના સંયમના નિર્વાર્ડ માટે विडा, होय छे. - आई ये हिवसनो उपवास पुरे छे । पास करे छे. तो तेला-त्रयु हिवसना उपवास रे छे, अर्ध साચાર દિવસના ઉપવાસ કરે છે. કાઈ પાંચ દિવસના ઉપવાસ કરે છે. કાઇ છે. દિવસના ઉપવાસેા કરે છે. અર્થાત્ કેાઈ એક એક દિવસ છેડીને એકાં तेरो भाडार उरे छे, अर्ध मय दिवस छोडीने छ६-७६ आहार १रे छे. भने છ-છ દિવસે છેડીને એક કાઈ. ત્રણ ત્રણ यार-यार पांय पांथ - Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका दि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् . . ३०१ प्रकरणेन विदितं भवति, 'अद्धमासिए भत्ते' अर्धमासिकं पाक्षिकमिति, भक्तमुप वासः, 'मासिए भत्ते' मासिकं भक्तमुपवासः 'दो मासिए तिमासिए चउमासिए पंचमासिए छम्मासिए' द्वैमासिकं त्रैमासिकं चातुर्मासिकं पाश्चमासिकं पाण्मा. सिकं भक्तमुपोषणं भवति 'अदुत्तरं च णं उक्विन्तचरगा य' अत उत्तरं च खलुउक्षिप्तवरकाः-उत्क्षिप्त स्वकार्याय पाकभाननादुद्वृत्तं तदर्थमभिग्रहतश्चरन्ति तद्गवे. षणाय गच्छन्तीति उत्क्षिप्तचरकाः, के चन 'णिक्खित्त चरगा' निक्षप्तचरका:-निक्षि प्तं भाजनादनुवृतं तदर्थमभिग्रहतश्चरन्ति तद्गवेषगाय गच्छ-नीति निक्षिप्तचरकाः, केचन पुनः 'उक्खित्तगिक्वितचरगा' उत्क्षिप्तनिक्षिपचरका:-पाक माजनादुरिक्षप्तं तत्रैवाऽन्यत्र वा स्थाने यदर्थं तदर्थमभिग्रहवन्तश्चरन्ति, केचन पुन: 'अंतचरगा पंचरगा' अन्नचरका:-कोवाद्यन्नाहारकाः, प्रान्तचरकाः-पाककरते हैं। कोई एक पखवाड़े अर्धमासखमण का उपवास करते हैं, कोई एक, दो, तीन, चार, पांच या छह मास तक का उपवास करते हैं। अर्थात मासखमण करते हैं इसके अतिरिक्त कोई-कोई अभिग्रहधारी होते हैं जैसे... (१) उरिक्षप्त चरक-भोजन में से बाहर निकाले हुए आहार को ही ग्रहण करने का नियम लेकर उसी के लिए भ्रमण करने वाले। (२) निक्षिप्त चरक-हांडो में से नहीं निकाले हुए आहार को ही ग्रहण करने का अभिग्रह करने वाले और उसी के लिए अटन करने वाले । (३) उत्क्षिप्त-निक्षिप्त चरक-हडिया में से निकाले हुए. और फिर उसमें गले हुए आहार को ही ग्रहण करने की प्रतिज्ञा पाले। (४) अन्त वरक-कोद्रव आदि तुच्छ अन्न ग्रहण करने वाले। (५) દિવસ આહાર કરે છે. કેઈ એક પખવાડીયા અર્ધમાસ ખમણના ઉપવાસો ४३ छ. से, मे, प, यार, पांय अथ। छ महिना सुधीन। 8५વાસે કરે છે. માસખમણુ કરે છે. આ સિવાય કઈ કઈ અભિગ્રહને ધારણ કરવા વાળા હોય છે. જેમકે-(૧) ઉક્ષિપ્તચરક– આહારમાંથી બહાર કહાડ ધામાં આવેલ આહારને જ ગ્રહણ કરવાનો નિયમ લઈને તેના માટે જ ફરવાવાળા (૨) નિક્ષિપ્ત ચરક-વાસણમાંથી નહીં કહાડેલ આહારને જ ગ્રહણ કરવાને અભિગ્રહ કરવાવાળા અને તે માટે જ ફરનારા. (૩) ઉક્ષિપ્તનિષિપ્તચરક-વાસણમાંથી બહાર કહાડેલા અને તેમાં ચાટેલા આહારને જ ગ્રહણ કરવાની પ્રતિજ્ઞાવાળા, (૪) અન્તચરક–કેદરા વિગેરે તુચ્છ અનાજ ગ્રહણ કરવાવાળા. (૫) પ્રાન્તચરક-પાત્રમાંથી આહાર કહાડી લીધા પછી તેમાં એંટી રહેલને અ હ2 કરવાવાળા (૬) રક્ષચરક--ઘી વિગેરે વિનાનું For Private And Personal Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - पात्रादन्ने निस्सारिते तेन पात्रश्लिष्टान्नार्थ चरन्ति ये ते तथा, 'लूह चरगा' रूक्ष वरका:-रूक्षं घृतादिभिः स्नेहैरसंपृक्तस्तेन चरन्ति, 'समुदाणचरगा' समुदानचरकाः-समुदानेन भिक्षया चरन्ति ये ते तथा, उच्चनीचाऽने कगृहेभ्य एवाऽहारमानयन्ति परे पुन:-'संबवरगा' संमृष्टचरकाः खरण्टि तेन हस्तादिना दीयमानं संसृष्टं तेन चरन्ति ये ते तथा, 'असंसहचरगा' असृष्टच रका:रिक्तहस्तेनैवाऽहारं गृह्णन्त । अन्ये पुनः 'तज्जातसंसहचरगा' तज्जातसंमृष्ट चरकाः -तजातेन देयद्रव्याविरोधिना अन्नेन शाकेन वा यत्संसृष्टं हस्तादि तेन चरन्ति ये ते तथा' 'दिठ्ठलाभिया' दृष्टलामिका:-दृष्टस्यैवाऽऽहारस्य लाभ: तद्वन्तः 'अदिहलाभिया' अष्टलामिका:-अष्टम्यैव भक्तादेला मः, केचिद् दृष्टमेवाऽऽहारं गृह्णन्ति, केचिददृष्टमेवाहारं गृह्णन्ति 'पुढाभिया अपुटुलाभिया' प्रान्त चरक-पात्र में से आहार निकाल लेने पर उसमें लगा रह गया आहार ही ग्रहण करने वाले। (६) रूक्ष वरक-घृतादि से रहित सवा आहार ही लेने का अभिग्रह करने वाले। (७) समुदान चरक--छोटेबडे अनेक घरों से ही भिक्षा लेने का अभिग्रह करने वाले। (८) संसष्ट चरक-भरे हुए हाथ या पात्र से ही दिये जाने वाले आहार को ग्रहण करने वाले । (९) असंपृष्ट चरक--नहीं भरे हुए हाथ से ही भिक्षा लेने वाले । (१०) तज्जात संमृष्ट चरक-जो वस्तु दी जा रही हो उसी से भरे हुए हाथ आदि से ग्रहण करने वाले । (११) दृष्टलाभिक--नेत्रों से दीखते आहार को ही लेने वाले। (१२) अदृष्टला. भिक--अदृष्ट आहार को ही ग्रहण करने वाले । (१३) पृष्ट लाभिक-- વિગય -લુ આહાર લેવાના અભિગ્રહવાળા (૭) સમુદાનચરક-નાના પ્રકારના અનેક ઘરોમાંથી આપવામાં આવેલ આહાર લેવાના અભિગ્રહવાળા. (૮) સંસૂચક–ભરેલા હાથ અથવા પાત્રથી જ આપવામાં આવેલા આહારને જ ગ્રહણ કરવાવાળા (૯) અસંભ્રષ્ટચરક–ન ભરેલા હાથથી જ આહાર લેવાવાળા. (૧૦) તજજાત સંસૃષ્ટ ચરક–જે વસ્તુ આપવામાં આવી રહી હોય તેનાથી ભરેલા હાથ વિગેરેથી ગ્રહણ કરવાવાળા. (૧૧) દછલાભિક– આથી દેખાતા આહારને જ ગ્રહણ કરવાવાળા. (૧૨) અદલભિક–નહીં દેખાતા આહારને જ ગ્રહણ કરવાવાળ. (૧૩) પૃષ્ટલ ભિકપૂછીને આપવામાં આવેલ આહાર જ ગ્રહણ કરવાવાળા. (૧) પૂછ્યા વિના આપવામાં For Private And Personal Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - समयाबोधिनी रीका द्वि. श्र. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् पृष्टमभिकाः अपृष्टलाभिका:-केचित् पृष्ठं -प्रश्नपूर्वक केचित् अपृष्टमेव भक्तादीन लभन्ते । 'भिक्खालाभिया-अभिक्खालाभिया' भिक्षालाभिका:-अभिक्षालामिकाः-केचन याचिका भिक्षां लभन्ते केचन विना याच क्या तुच्छमेवाहारं प्राप्नु वन्ति, । 'अन्नाय चरगा' अज्ञात चरका:-अज्ञातमेवाहारं चरन्तीति-अज्ञातचरकाः -आज्ञात कुलचरका इत्यर्थः, 'उपनिहिया' उपनिहितका:-दातुः समीपस्थ मेवाऽऽहारं गृह्णन्ति, 'संखादत्तिया' संख्पादत्ता-संहातमेच पश्च सप्त वाऽऽहारं गृह्णन्ति, केचित्-'परिमितपिण्डवाइया' परिमिपिण्डपातिका-परिमितान्-प्रमाणोपेतानेव पिण्डान प्रतिगृह्णन्ति । 'सु देसणिया' शुद्धषगा:-शङ्कादिदोषरहिताः केचर मुनयः। केचन-'अंताहारा-पंताहारा-अरसाहारा-विरसाहारा-लूहाहारा' अन्नाहारा:-म. कोई पूछ कर दिये जाने वाले आहार को ही ग्रहण करते हैं। (१४) विना पूछे दिये जाने वाले आहार को ही लेने वाले। (१५) भिक्षा लाभिक--याचना करके मिले हुए आहार आदि को स्वीकार करने वाले। (१६) अभिक्षा लाभिक- पूर्वोक्त से विपरीत। मिक्षालाभिक और अभिक्षा लाभिक का अर्थ तुच्छ आहार और अतुच्छ आहार लेने वाले, ऐसा भी होता है । (१७) अज्ञात चरक---अज्ञात-अपरिचित घरों से भिक्षा लेने वोले । (१८) उपनिहितक--दाता के समीप रक्खा हुआ ही आहार ग्रहण करने वाले। (१९) संख्यादत्तिक--दत्ति की संख्या निश्चित करके ही आहार लेने वाले । (२०) परिमित पिण्डपातिक-परिमित पिण्ड लेने वाले। (२१) शुद्धैषणिक--शंका आदि दोषों से रहित आहार लेने वाले। આવેલ આહારને જ ગ્રહણ કરવાવાળા. (૧૫) ભિક્ષાલામિક–યાચના કરતાં મળેલ આહાર વિગેરેને જ ગ્રહણ કરવાવાળા. (૧૬) અભિક્ષા લાભિક–ભિક્ષા વિના મળેલાં આહારને જ ગ્રહણ કરવાવાળા, અર્થાત્ તુચ્છ અને અતુચ્છ બને પ્રકારનો આહાર લેવાવાળા (૧૭) અજ્ઞાત ચરક–અજ્ઞાત અપરિચયવાળા ઘરે માંથી જ આહાર ગ્રહણ કરવાવાળા. (૧૮) ઉપનિહિતક--દાતાની સમીપે રાખ. વામાં આવેલ આહાર જ ગ્રહણ કરવાવાળા. (૧૯) સંખ્યાદત્તિક–દત્તિની સંખ્યા નક્કી કરીને જ આહાર લેવાવાળા. (૨૦) પરિમિત પિંડપતિક-પરિમિતપિંડ આહાર લેવાવાળા. અર્થાત પ્રમાણે યુક્ત (૨૧) શુદ્ધષણિક–શંકા વિગેરે દેથી રહિત આહાર લેવાવાળા, For Private And Personal Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे जितानेच पदार्थान गृह्णन्ति, प्रान्ताहारा अवशिष्टान्येवाऽमानि गृह्णन्ति । 'अरसाहाराः जीरकादिरसर्जितानेव आहारान् वीकुर्वन्ति, 'विरसाहारा:-विगतो रसो येषु तान् थाहारान् । समाहरन्ति, रूक्षाहारा तुच्छाहारा:-चणकाद्याहारकाः 'अंतजीवी-पंतजीवी-अन्तजीविनः-पान्तजीविनः अन्तपान्ताहारेणाऽऽजीविकां कुर्वन्ति 'आयवि. लिया' आचाम्लिका:-केचन सदैव आयम्बलं कुर्वन्ति, 'पुरिमडिया' पुरिमर्द्रिकाः दिनस्यापरार्धे प्रहरद्वये एवाऽऽहारं कुर्वन्ति, 'निविग्गिया' निस्कृितिकाः-घृतादिविकृतिरहि ताऽऽहारकाः 'अमज्जमांसारिणो' अमद्यमांसाशिनः, मद्यमांसाभ्यामिह -'बुद्धि लुम्पति यद द्रव्यं मांसवृद्धिकरं तत् त्यजेत्. उपलक्षणाद् मादकद्रव्यपरिहारः 'णो णियामरसभोई' नो निकामरसभोजी-नित्यं रसमिश्रिताऽऽहारं न कुर्वन्ति । 'ठाणाइया' स्थानान्विता:-सदा कायोत्सर्गकारिणः 'पडिमाठाणाइया' प्रतिमास्था नान्विताः प्रतिमास्थानानि-द्वादश विधानि अभिग्रहविशेषातैः समन्विताः 'उक्कुडु ____ इनसे अतिरिक्त कोई अन्ताहारी मुनि भुंजी हुई वस्तु को ग्रहण करने वाले कोई प्रान्ताहारी-बचा खुचा आहार लेने वाले, तथा वासी आहार लेने वाले कोई रस वर्जित आहार लेनेवाले, कोई विरस आहार लेने वाले, कोई रुक्षाहारी, कोई तुच्छाहारी, कोई अन्त-प्रान्त जीवी, कोई सदैव आयंबिल, करने वाले, कोई पुरिमर्द्ध करने वाले अर्थात् दिन के दो प्रहर तक आहार न करने वाले, कोई घृत आदि की विकृति का त्याग करने वाले, मद्य-मांस का सेवन न करने वाले अर्थात् बुद्धि को भ्रष्ट करने वाले सभी मादक पदार्थों का त्याग करने वाले, प्रतिदिन रसमिश्रित आहार नहीं करने वाले, कायोत्सर्ग करने वाला, घारह प्रकार की प्रतिमाओं (अभिग्रहों) से युक्त, कोई उस्कुटुक आसन આ શિવાય કઈ અંતાકારીમુની શેકેલી વસ્તુને ગ્રહણ કરવાવાળા. કોઈ પ્રાન્તાહારી-વચ્ચે ઘડ્યો આહાર લેવાવાળા તથા વસી આહાર લેવાવાળા. કઈ રસવજીત આહાર લેવાવાળા કઈ વિરસ આહાર લેવાવાળા. કોઈ રૂક્ષ આહાર લેવાવાળા. કોઈ તુચ્છ આહાર લેવાવાળા કોઈ અન્ત પ્રાન્ત જીવી. કેઈ હમેશાં આંબેલ કરવાવાળા, કેઈ પુરિમડૂઢ કરવાવાળા અર્થાત દિવસના બે પ્રહર સુધી આહાર ન કરવાવાળા. કેઈ ઘી વિગેરેની વિકૃતિને ત્યાગ કરવાવાળા, મદ્ય કે માંસનું સેવન ન કરનારા. અર્થાત્ બુદ્ધિને ભ્રષ્ટ કરવાવાળા સઘળા માદક પદાર્થોને ત્યાગ કરવાવાળા દરરોજ સરસ-આહાર ન કરવાવાળા કાત્સર્ગ કરવાવાળા, બાર પ્રકારની પ્રતિમાઓ (અભિગ્રહ) થી યુક્ત, કેઈ For Private And Personal Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् ..... आसणिया' उत्कुटुकासनिका:-श्रोणीभागस्यालग्ने नोवेशन मुस्कुटुकासनम् तेनासनेन उपविशन्तीत्यर्थः, 'णेसज्जिया' नैषधका:-आप्तनं विस्तीर्य-एव भूमौ उपवि. शन्ति, 'वीरासणिया' वीरासनिकाः वीरासनं कृत्वोपविशन्ति केचन तत्र वीरासन सिंहासनोपविष्टद् भून्यस्तचरणं मुक्त नानुक प्रवस्थानम् 'दंडायतिया' दण्डायतिकाः-दण्डवत् आयतम्-मायामो येषां ते तथा, 'लगंडसाइणो' लगण्डशायिन:वक्र काष्ठन् शेरने, 'अप्पाउडा-गतया' अपाता:-आतयः, तत्र-अपावृता-प्राव, गरहिता:-सुखवत्रिका चोलपट्टकभिन्नवस्त्रं परित्यज्य-ग्रीष्मकाले ग्रीष्मातापनं शीतकाले शीतातापनं कुर्वन्तः, अगतयः-गतिविरहिताः ध्यानमग्ना इति यावत्, - लगाने वाले, कोई आसन बिछाकर भूमि पर बैठने वाले, कोई बीससन करने वाले अर्थात् पृथ्वी पर दोनों पांच टेक कर कुर्सी पर बैठे हुए मनुष्य की कुर्सी हटा लेने पर जो भासन हो जाता है, उस आसन से बैठने वाले होते हैं। कोई दंडासन करते हैं अर्थात् दंड के समान लम्बे होकर स्थित होते हैं। कोई लगडशायी होते हैं अर्थात् जैसे टेढा लकड दोनों सिरों से भूमि को स्पर्श करता है और बीच में अधर रहता है, उसी प्रकार सिर और पैर जमीन पर टेक कर शरीर के बीच का भाग अधर रखते हैं अथवा सिर और पैर को अधर रखकर बीच के भाग को जमीन से टेक कर रहते हैं। कोई प्रावरण रहित होते हैं अर्थात् मुखवत्रिका और चोलपट्टा से भिन्न वस्त्रों को त्याग कर ग्रीन काल में गर्मी की और शीतकाल में सर्दी की ओतापना लेते हैं, कोई ध्यान मग्न रहते हैं कोई खुजली आने पर भी शरीर को ઉકુટુકાસન કરવાવાળા, કેઈ આસનને ત્યાગ કરીને જમીન પર જ બેસવાવાળા, કેઈ વિરાસન કરવાવાળા. અથવા પૃથ્વી પર બનને પગ ટેકવીને ખુર્શિની માફક એટલે કે ખુર્શિ પર બેઠેલા માણસની ખુશિં હટાવી લીધા પછી જે આસન થઈ જાય છે, તે આસનથી બેસવાવાળા હોય છે. કેઈ દંડાસન કરે છે. અર્થાત દંડની જેમ લાંબા થઈને સ્થિત રહે છે. કેઈ લગંડશાયી હોય છે અર્થાત જેમ વાંકુ લાકડું બને બાજુથી જમીનને સ્પર્શ કરે છે. અને વચમાં અદ્ધર રહે છે. એ જ પ્રમાણે માથું અને પગ જમીન પર ટેકવીને શરીરને વચલે ભાગ અદ્ધર રાખે છે. અથવા માથુ અને પગને અદ્ધર રાખીને વચલા ભાગને જમીન પર ટેકવીને રહે છે. કેઈ કઈ પ્રાવરણ રહિત હોય છે, અર્થાત્ મુખવર્સિ અને ચલપટ્ટાથી જૂદા વસ્ત્રોને ત્યાગ કરીને ઉનાળામાં ગમિની અને શીશ. Lળામાં શદિ-ઠંડકની આતાપના લે છે. કેઈ ધ્યાન મગ્ન રહે છે. કોઈ આર. १० ३९ For Private And Personal Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०६ सूत्रकृतागसूत्रे डुया-अणिटुहा' अकण्डूयकाः अनिष्ठीवनाः, तत्र अकण्डूयकाः खर्जनव्यापाररहिताः सूक्ष्मत्रसजीवविराधनाभयात् अनिष्ठीवनाः कफादीनामक्षेतारः 'एवं जहोचवाइए' एवं योपपातिके-औपपातिकसूत्रे ये ये गुणाः मोक्तास्ते सर्वे एव गुणा अनुसन्धेयाः तैयुक्ताः 'धुतकेसमंसुरोमनहा' धुतकेशश्मश्रुरोमन वा:-धुताः-निवारिता केशश्मश्रुरोमनखानां संस्काराः यैस्ते तथा, इमे साधक केशश्मश्रुनखादीनामसंस्कारः, 'सब गायपडिकम्मविष्पमुका' सर्वगात्रपरिकर्म विषमुक्ताः-शरीरसंस्काररहिताः 'चिटुंति' तिष्ठन्ति 'ते ण एएणं विहारेणं विहरमाणा बहूई वासाई ते-महामतयः खलु एतेनयथोदितेन विहारेण बिहरन्तः बहूनि वर्षाणि-अनेकवर्ष यावत् 'सामन्नपरियाग श्रामण्यपर्यायम् 'पाउणंति' पाळयन्ति पाउगित्ता' पालयित्वा 'बहु बहु आवाहंसि उत्पन्नंसि वा अणुप्पन्नंसिवा' अनेकप्रकारकबाधायामुत्पन्नायां वा-अनुत्पन्नायांवा, रोगातङ्के समुपस्थितेऽसमुपस्थिते वा 'बहूई भत्ताई पञ्चवखंति' बहूनि भक्तानि नहीं खुजलाते, कोई थुक बाहर नहीं निकालते । इस प्रकार औपपातिक सूत्र में जो गुण कहे हैं, वे सब यहां भी कहलेने चाहिए। वे धार्मिक पुरुष केशों, मूछों, रोमों और नखों के संस्कार से रहित होते हैं। सम्पूर्ण शरीर के संस्कार से रहित होते हैं। . वे महामति पूर्वोक्त चर्या के साथ विचरते हुए अनेक वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन करते हैं। तत्पश्चात् अनेक प्रकार की बाधा उत्पन्न होने पर अथवा न उत्पन्न होने पर भी, रोग या आतंक (शीघ्र प्राण हरण करने वाले शूल आदि) के उपस्थित होने पर अथवा न उपस्थित होने पर भी बहुत-से भक्तों का प्रत्याख्यान करते हैं। दीर्घ વાળ આવવા છતાં પણ શરીર ખજવાળતા નથી. કેઈ થૂક બહાર કહાડતા નથી. આ પ્રમાણે ઔપપાતિક સૂત્રમાં જે ગુણ કહેવામાં આવ્યા છે. તે સઘળા ગુણે અહિયાં પણ કહેવા જોઈએ. તે ધાર્મિક પુરૂષે વાળ મૂછ, રમે અને નખના સંસ્કાર વિનાના હોય છે. સંપૂર્ણ રીતે શરીરના સંસ્કાર વિનાના હેય છે. એ મહામતિ પૂર્વોક્ત ચર્યાની સાથે વિચરતા થકા અનેક વર્ષો સુધી શ્રમણ્ય પર્યાયનું પાલન કરે છે. તે પછી અનેક પ્રકારની બાધા ઉત્પન્ન થતાં અથવા ઉત્પન્ન ન થવા છતાં પણ રેગ અથવા આતંક (શીધ્ર પ્રાણ હરણ કરવાવાળા શૂળ વિગેરે) ઉપસ્થિત થાય ત્યારે અથવા ઉપસ્થિત ન થાય તે પણ ઘણા ખરા ભક્તોનું (આહારનું પ્રત્યાખ્યાન કરે છે. લાંબા સમય સુધી For Private And Personal Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् प्रत्याख्यान्ति 'पञ्चावखाइत्ता वहूई भत्ताई अणसणाए छेदिति' प्रत्याख्याय बहूनि भक्तानि अनशनेन छेदयन्ति, दीर्घकालमनशनं कृत्वा संस्थारं समापयन्ति 'अणस. णाए' छेदित्ता' अनशनेन छेदयित्या 'जस्सट्टाए कीरह' यदर्थाय-यस्मै प्रयोजनाय मोक्षमाप्तये क्रियते एता:-क्ष्यमाणाः क्रियाः, यथा-'नग्ग भावे' नग्नभावो नग्नता 'मुंडभावे' मुण्ड भाव-शिरोमुण्डनम् 'अण्हाणभावे' अस्नानभावः 'अदत्तवणगे' अदन्तवर्णकः, स्नानाऽभावो दन्तानामपक्षालनश्च । 'अच्छ तए' अच्छत्रका 'अणोवाहणए' अनुपानकः-नस्तः उपानही यस्य सोऽनुपानकः । 'भूमिसेज्जा' भूमिशय्या-भूमौ शयनम् 'फलगसेज्जा' फल कशय्या 'कट्ठसेज्जा' काष्ठशय्या 'केसलोए' केशलोचः 'बमचेरवासे' ब्रह्मचर्यवास:-ब्रह्म वय वासः वसनं यस्य स तथा, 'परघरपवेसे' परगृहप्रवेशः-भिक्षार्थ वर्षाद्युपंपळवेम्यो व्रतरक्षार्थ वा, 'लद्धावलद्वे' लब्धापलब्धे-अयं भावः-सन्मानादिना लब्धे भिक्षादिके तिरस्कारा: दिना अपलब्धे-अमाप्ते भिक्षादिके हर्षशोकरहितः, 'माणावमाणाओ' माना. पमानानि-लब्धमानापमानानि यदर्थ वसन मानानि अपमानानि च सहते, 'हील. णाओ' हीलनाः तत्र हीलनं जन्मकों द्वाटनपूर्व निर्भर्सनम्, 'निंदणाओं' निन्दा वाक्यानि-निन्दनं कुत्सितशब्दपूर्वकं दोषोद्घाटनेन अनादरणम् 'खिसणाओ' काल तक अनशन-प्रत्याख्यान करके संथारे को समाप्त करते हैं और जिस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए नग्नता, मुण्डता, स्नान का त्याग, दन्तधावन का त्याग, छाता और जूना का त्याग, भूमिशयन, पाट पर शयन, काष्ठ पर शयन, केश लोच, ब्रह्मचर्यवास, परगृह प्रवेश अर्थात् भिक्षावृत्ति, भिक्षा का लाभ होने पर या लाभ न होने पर राग-द्वेष धारण न करके समभाव धारण किया था, भत्र्सना सहन की थी अर्थात् जन्म और कर्म प्रकट करके किये गये अपमान को सहन किया था निन्दा सहन की थी खिंसणा अर्थात् हाथ या मुख અનશનનું પ્રત્યાખ્યાન કરીને સંથારે કરે છે. અને જે ઉદ્દેશ્યને પ્રાપ્ત કરવા માટે નમ્રપણું મંડપણું સ્નાનને ત્યાગ, દાતણ કરવાને ત્યાગ છત્રી અને જેડાને ત્યાગ, ભૂમિશયન, પાટપર શયન, લાકડા પર શયન, કેશ લેચ, બ્રહ્મચર્યવાસ, પરગ્રહ પ્રવેશ. અર્થાત્ ભિક્ષાવૃત્તિ ભિક્ષાને લાભ થાય ત્યારે અથવા ભિક્ષાને લાભ ન થાય તે પણ રાગ કે દ્વેષભાવ ધારણ ન કરતાં સમભાવ ધારણ કર્યો હોય, જે પ્રજા માટે માન-અપમાન સહન કર્યું હોય, ભટ્સના તિરસ્કાર સહન કરી હોય, અર્થાત્ જન્મ, અને કર્મ પ્રગટ કરીને કરવામાં આવેલ અપમાન સહન કર્યું હોય, નિંદા સહન કરી હોય, ખિસણ For Private And Personal Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गस्थे खिमनानि-खिंसनं इस्तमुखादिविकारपूर्वकमपमाननम् , 'गरहणायो' गर्हणागईणं गुर्वादिसमक्षे दोषमुद्धाट्य विरस्कर गम्, 'तज्जगाओ' तर्जनानिअंगुल्यादिना 'तालणाओ' ताडनानि-दण्डादिना, 'उच्चावया-गामकंटगा' उबावचाः-ग्रामकण्टकाः, तत्र उच्च पचाः अनेकविधाः अनुकूलाः, प्रतिकूला, ग्रामकण्टकाः श्रोत्रमनोहराश्च शब्दाः, 'बावीसं परीसहोवसम्गा' द्वाविंशतिः परीषहोपसर्गाः 'अहियासिज्जति' अधिसह्यन्ते-तेषां सहनं क्रियते इत्यर्थः, 'तमदं भाराहंति' तार्थ मोक्षपाप्तिलक्षणमाराधयनि कृतमतयः, 'तम आराहिता' बमर्थ-मोक्षमाप्तिलक्षगमाराध्य 'चरमेहि उस्सासनिस्तासेहि' चरमरन्तिमै रुच्छ्वासनिःश्वास: 'अणंत'. अनन्तम्-नास्ति-अन्तं-परिसमाप्तिस्य तत् अनन्तम्, 'अणुत्तरं' सर्वत उत्तमम्, 'निनाघायं निर्व्याघातम् व्याघातो बाधः विनाशो वा तद्रहितमिति निर्व्याघातम्, 'निरावरणं' निरावरणम्-सर्वथा आवरणरहितम्-कोऽपि नास्ति आच्छादयिता तादृशम् । 'कसिणं' कृत्स्नम्-सकलपदार्थविषयकं सम्पूर्णमिति, 'परिपुष्णं' परिपूर्णम्-लेशतोऽपि न्यूनतारहितम् स्वभावापेक्षया पौर्णमासीचन्द्रवदखण्डम्, 'केवलपरगाणदंसणं' केवलवरज्ञानदर्शनम्केवल बेष्ठज्ञानं दर्शनश्च 'समुप्पाडेति' समुत्पादयन्ति, बायाभ्यन्तरसाधनेन मोक्षआदि विकृत करके किया जाने वाला अपमान सहन किया था, गर्दा सहन की थी, तर्जना और ताड़ना सहन की थी, इन्द्रियों के अनेक प्रकार के प्रतिकूल विषयों को सहन किया था, वाईस परीषहों और विविध प्रकार के उपसर्गों को सहन किया था, उस प्रयोजन को अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं। उस प्रयोजन को प्राप्त करके अन्तिमश्वासों वाखों में अनन्त, सर्वोत्तम, व्याघात (पाधा) से रहित, निरावरग सापूर्ण । सर्ववस्तुविषयक तथा प्रतिपूर्ण (पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान अखण्ड) केवल ज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर लेते हैं । केवलज्ञान और केवल दर्शन की उत्पत्ति के पश्चात् सिद्धि प्राप्त करते हैं । उनको એટલે કે હાથ અથવા મુખ વિકૃત કરીને કરવામાં આવનારા અપમાનને સહન હ્યું હોય, ગહ સહન કરી હોય, તને સહન કરી હોય, અને તાડન હત કર્યું હોય, ઈન્દ્રના અનેક પ્રકારના પ્રતિકૂળ વ્યાપારને-પ્રવૃત્તિને સહન કરેલ હોય? બાવીસ પ્રકારના પરીષહે અને અનેક પ્રકારના ઉપસને સહન કરેલ હોય તે પ્રજનને અર્થાત મોક્ષને પ્રાપ્ત કરી લે છે, તે પ્રોજન પ્રાપ્ત કરીને છેલ્લા શ્વાસેચ્છવાસમાં અનંત, સર્વોત્તમ, વ્યાઘાત, (ખાવા)થી રહિત નિરાવરણ સપૂર્ણ (સર્વવતુ સંબંધી) તથા પ્રતિપૂર્ણપુનમના ચન્દ્રમાની જેમ અખંડ કેવળ જ્ઞાન અને કેવળ દર્શનની ઉત્પત્તિની For Private And Personal Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् स्याऽऽावहितकालयत्ति साधनमुत्पादयन्ति ते महानुभावाः, 'समुपाडित्ता' समु. त्पाद्य केवलज्ञानम् 'तओ पच्छा' तत्पश्चात्-केवलज्ञानोस्पत्यनन्तरम्, तदेवाऽ. म्य 'सिझति' सिध्यन्नि-सिद्धिमाप्नुवन्ति, सिद्धिर्मोक्ष:-साध्यते-समुत्पात्यते केवलज्ञानेन या सा सिद्धिः, अशेषकर्मक्षयनिरतिशयानन्दारिमका, तथा-बुझंति' बुध्यन्ते-चतुर्दशलोकस्वरूपं सामान्यविशेषात्मक पदार्थजातं सम्यक् पश्यन्ति, 'मुच्चंति' मुश्चन्ति-संसाराद् विमुक्ता भान्ति,-संसार परित्य जन्तीत्यर्थः 'परिणिन्यायति' परिनिर्वान्ति-उपशान्ता भवन्तीत्यर्थः, 'सम्पदुकवाणं अंतं करेंति' सर्वदुःखाणामन्तं कुवन्ति -सर्वदुःखेभ्यो विमुक्ता भवन्तीत्यर्थः। 'एगच्चाए पुण एगे भयंतारो' एकार्चया पुनरे के भयत्रातारो भान्ति-के वन महात्मानः पुनरेकस्मिन्नेव भवे मुक्ति प्राप्नुवन्ति, 'अवरे पुण पुन्धकमावसे सेणं' अपरे पुन: पूर्वभवोपार्जितकर्मावशेषेण 'कालमासे कालं किच्चा' कालमासे-कालावसरे कालं कृत्वा-मरणं प्राप्य 'अन्नयरेसु' अन्यतरेषु 'देवलोएसु' देवलोकेषु 'देवत्ताए' देवत्वाय 'उबवत्तारो भवंति' उपपत्तारो भवन्ति, देवत्वमाप्तये देवलोकं गच्छन्ति सिद्धि से समस्त कर्मों का क्षय हो जाता है । वे निरतिशयज्ञान और आनन्दमय होते हैं। वे महापुरुष बुद्ध अर्थात् सम्पूर्ण लोक तथा अलोक को तथा समस्त सामान्य विशेषात्मक पदार्थों को स्पष्ट रूप में जानतेदेखते हैं। जन्म-मरण से सर्वथा और सर्वदा के लिए मुक्त हो जाते हैं । परिनिर्वाण अर्थात् परमशान्ति प्राप्त कर लेते हैं और समस्त दुःखों का अन्त करते हैं। . कोई-कोई भाग्यवान् पुरुष ऐसे होते हैं जो एक ही भव में मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं ! कोई-कोई पूर्व भवों में उपार्जित कर्मों के शेष रह પછી સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરે છે. તે સિદ્ધિથી સઘળા કમને ક્ષય થઈ જાય છે. તે નિરતિશય-અત્યંત જ્ઞાન અને આનંદમય હોય છે. તે મહાપુરૂષ બુદ્ધ અર્થાત્ સંપૂર્ણ લેક તથા આલેકને તથા સઘળા સામાન્ય અને વિશેષાત્મક પદા ને સ્પષ્ટ રૂપથી જાણે-ખે છે જન્મ-મરણથી સર્વથા અને સર્વદા માટે મુક્ત થઈ જાય છે. પરિનિર્વાણ અર્થાત્ પરમશાન્તિ પ્રાપ્ત કરી લે છે અને સઘળા દુઃખોને અંત કરી લે છે. કેઈ કોઈ ભાગ્યશાળી પુરૂ એવા હોય છે કે—જેઓ એક જ ભવમાં મૂક્તિ પ્રાપ્ત કરી લે છે. કેઈ કઈ પૂર્વભોમાં ઉપાર્જન કરેલા કર્મો શેષ રહી જવાથી યથા સમય મૃત્યુને પ્રાપ્ત કરીને કેઈ એક દેવ લેકમાં દેવની For Private And Personal Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे देवलोकानेव विशिनष्टि 'तं जहा' तद्यथा-'महड्डिरसु' महर्द्धिकेषु-महाऋद्धिशालिषु 'महज्जुएसु' महाद्युतिकेषु-विशिष्टा भरणप्रभायुक्तेषु 'महापरकमेसु' महापराक्रमेषु 'महाजसेसु' महायशस्विषु-विशाळकीर्तिषु 'महाबलेसु' महाबलेषुविशेषवलशालिषु 'महाणु भावेसु' महानुभावेषु-अचिन्त्यप्रभावयुक्तेषु 'महासो. खेसु' महासौख्येषु-विशिष्टसुखसाधनसंपन्नेषु 'ते तत्थ देवा भति' ते तत्र देवाः भवन्ति, देवान् वि शिनष्टि वक्ष्यमाणविशेषणैः, तथाहि-'महडिया' मह. दिकाः 'महज्जुझ्या' महाद्युतिकाः 'जार महासोक्खा' यावद् महासौख्या: 'हारविराइयवच्छा' हारविराजितवक्षसः 'कडग-तुडिय-वंमियभूया' कटकत्रुटित. स्तम्मितभुनाः, 'अंगय - कुंडल-मट्टगंडयलक.गपीठधारी' अङ्गदकुण्डलमृष्टगण्डजाने से यथा समय मृत्यु को प्राप्त होकर किसी देवलोक में देवपर्याय से जन्म लेते हैं। वे देवलोक कैसे होते हैं ? यह कहते हैं... देवलोक विशिष्ट विमान आदि महान् ऋद्धि से युक्त होते हैं महान् युति वाले अर्थात् आभरणों की विशिष्ट प्रभासे युक्त होते हैं । महापराक्रम से युक्त, महाकीर्तिवाले, महाबल, महान् प्रभाव वाले तथा विशिष्ट सुख साधनों से सम्पन्न उक्त देव विमानों में उत्पन्न होने वाले देव किस प्रकार के होते हैं यह दिखलाते हैं देव महान् ऋद्धि के धारक, महान कान्ति से सम्पन्न यावत् महान् सुख से सम्पन्न होते हैं । उनका वक्षस्थल हार से सुशोभित होता है। कटक एवं केयूर आदि आभूषणों से उनकी भुजाएं स्तब्ध सी रहती हैं। वे अंगद एवं कुंडलो से युक्त कपोल वाले होते हैं तथा પર્યાયથી જન્મ લે છે. તે દેવલે કો કેવા હોય છે? તે હવે બતાવपामा मावे छे દેવેક વિશેષ પ્રકારના વિમાન વિગેરે મહાન ઋદ્ધિથી યુક્ત હોય છે. મહાન વૃતિથી યુક્ત અર્થાત્ આભૂષણેની વિશેષ પ્રકારની પ્રમા-કાંતિથી યુક્ત હોય છે. પરાક્રમથી યુક્ત મહાનું કીર્તિવાળા મહાન બળવાળા મહાન પ્રભાવવાળા તથા વિશેષ પ્રકારના સુખ સાધનેથી યુક્ત, દેવ વિમાનેથી યુક્ત, ઉપર કહેલાં દેવ વિમાનમાં ઉત્પન્ન થવાવાળા દે કેવા પ્રકારના હેય છે? તે હવે બતાવે છે. દેવે મહાન અદ્ધિને ધારણ કરવાવાળા, મહાન કાંતિથી યુક્ત યાવત્ મહાન સુખ સપન હોય છે. તેઓનું વક્ષસ્થળ હૃદય - છાતી હારથી સુશોભિત હોય છે, તેઓની ભુજાએ કટક-કડા અને કેયૂર For Private And Personal Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् ३११ दलकर्णपीठधारिणः-अङ्गदादीनां धारकाः, 'विचित्तहत्थाभरणा' विचित्रहस्ताभरणाः, विचित्राणि हस्ताभरणानि येषां ते तथा, 'विचित्तमालामउलिमउडा' विचित्रमालामौलिमुकुटाः विचित्रा-विविधाकारा माला तया बद्धानि अतएव सुशोमितानि मौलिषु-मस्तकेषु मुकुटानि येषां ते तथा, दिलक्षणमालाब मुकुटवन्तो. भवन्ति पूर्वोपार्जितसुकृतकर्मप्रभावेण, 'कल्लाणगंधपवरवस्थारिहिया' कल्याण गन्धमवरवस्त्रपरिहिताः-सुरभिगन्धयुक्तपवरवस्त्र परिधानाः कल्याणानि-माङ्गलि. कानि पराणि-श्रेष्ठानि वस्त्राणि परिहितानि-धारितानि ये स्ते तथा, 'कल्लाण गपवरमल्लाणुलेवणधरा' कल्याणकमवरमाल्यानुलेपनधरा:-कल्याणकमालानां कल्याणकगन्धानुलेपनानाश्च धारकाः भवन्ति, 'भासुरबोंदी' भास्वरबोन्दयःभास्वरशरीरा:-प्रकाशयुक्तशरीरधारका भवन्ति । 'पलंबवगमालधरा' मलम्बानमालाधराः-वनं-जलं ततो जायमानं पङ्कजपुष्पं तस्य माला-चनमाला मध्यमपदलोपीसमासः, अथवा-वनम्-अरण्यं तत्र भवं चम्पकादिपुष्पं तेन निर्मापिता मालाकानों में कर्ण भूषण धारण करते हैं । उनके हाथों के आभूषण चित्र -विचित्र होते हैं। उनके मुकुट विचित्र मालाओं से सुशोभित होते हैं । वे कल्याणकारी श्रेष्ठ तथा सुगंधित वस्त्र धारण करते हैं। कल्याणकारी और उत्तममाला एवं अंगलोचन को धारण करने वाले होते हैं । उनका शरीर देदीप्यमान होता है-उनके शरीर से सर्वदा अद्भुन तेज प्रस्फुटित होता रहता है । वे लम्बीलटकती हुई वनमाला को धारण करते हैं । 'वन' का अर्थ है जल, उससे उत्पन्न होने वाला पुष्प-कमल, उसकी माला 'वनमाला' कहलाती है। वन-पुष्पमालावनमाला अथवा वन अर्थात् अरण्य में होने वाले चम्पक आदि के पुरुषों વિગેરે આભૂષણોથી અલંકૃત રહે છે, તેઓ અંગદ અને કુંડલેથી શોભાય. માન કપલવાળા હોય છે. તથા કાનમાં કર્ણ ભૂષણ ધારણ કરે છે. તેઓના હાથના આભૂષણે ચિત્ર-વિચિત્ર હોય છે. એમના મુગટે વિચિત્ર પ્રકારની માળાઓથી શોભાયમાન હોય છે. તેઓ કલ્યાણ કારી શ્રેષ્ઠ તથા સુગંધવાળા વસ્ત્રો ધારણ કરે છે. કલ્યાણ કા૨ક અને ઉત્તમ માળા અને અંગેચનને ધારણ કરવાવાળા હોય છે. તેઓનું શરીર દેદીપ્યમાન હોય છે. તેઓના શરીરમાંથી હંમેશાં અદૂભૂત તેજ પ્રકાશનું રહે છે. તેઓ લાંબી લટકતી એવી વનમાળાઓને ધારણ કરે છે. વનને અર્થ જળ એ પ્રમાણે થાય છે. એટલે કે પાણીમાંથી ઉત્પન્ન થવાવાળા કમળની માળા “વનમાળા કહેવાય છે. વનપુષ્પમાળા વનમાળા અર્થાત્ જંગલમાં થવાવાળા ચંપા વિગેરે પુની For Private And Personal Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१२ सूत्रकृताङ्ग सूत्रे वनमाला, अथवा - पर्णपुष्पमयीमाला वनवाला मकीर्तिता, अथवा भापादल स्थिती माला वनमाला निगद्यते, तादृशमालाधरा देवा भवन्तीति । ते देवाः स्वकीय वर्णस्पर्शद्युतितेजोभिर्दिशं प्रद्योतयन्तो भविष्यत्काले मोक्षन्ता भवन्तीति प्रतिषायते - 'दिव्वेणं-रूवेणं दिव्वेणं दण्ोणं' इत्यादिना, 'दिव्वेणं रूवेणं' दिव्येन रूपेण 'दिव्वेणं वन्नेणं' दिव्येन वर्णेन विलक्षणवर्णेन 'दिव्वेगं गंधेणं' दिव्येन गन्धेन 'दिव्वेणं फासेणं' दिव्येन स्पर्शन 'दिव्वेणं संघापणं' दिव्येन सङ्घातेन - विलक्षणशरीरसंहननेन 'दिव्वेणं संठाणेणं' दिव्येन संस्थानेन 'दिव्वा इडिए' दिorer ऋद्धया 'दिव्वाए जुईए' दिorer gear 'दिव्वाए षमाए' दिव्यया प्रभवा 'दिव्वाए छायाएं' दिव्यया छायया - कान्तया 'दिव्वाए अच्चाए' दिव्या अर्चा 'दिव्वेणं तेणं' दिव्येन तेजसा 'दिव्वाए लेमाए' दिव्या लेश्या 'दसदिसाओ उनोवेमाणा' दशदिशः सर्वा अधिकाष्ठाः उद्योतयन्तः 'पभासेमाण)' मनासयन्तः 'गइकल्लाणा' गति कल्यणाः 'ठिह कल्लाणा' स्थिति कल्याणा: 'आगमेसिभडया' की माला 'वनमाला' कहलाती है । अथवा पत्तों और पुरुषों की माला 'वनमाला' होती है । अथवा पैरों तक लटकने वाली माला 'वनमाला' कही जाती है। देव ऐसी वनमाला पहनते हैं । वे देव अपने वर्ण, स्पर्श, द्युति एवं तेज से दिशाओं को आलोकित करते हैं और भविष्य में मोक्ष जाने वाले होते हैं, यह कहते हैं वे अपने विलक्षण वर्ण से दिव्य गंधसे, दिव्यस्पर्श से, दिव्यसंघात से, दिव्य शारीरिक संहनन से, दिव्य आकृति से, दिव्य ऋद्धि से, दिव्य द्युति से, दिव्य प्रभा से, दिव्य छाया से, दिव्य कान्ति से, दिव्य ज्योति से, दिव्य तेज से, दिव्य लेश्या से समस्त दिशाओं को उद्योतित एवं प्रशासित करते हैं। भद्रगति और भद्र स्थिति वाले होते हैं । आगामी काल में भद्रक होने वाले हैं। માળા, ‘વનમાળા’ કહેવાય છે. અથવા પગ સુધી લટકતી માળા 'વનમાળા' કહેવાય છે. દેવા એવા પ્રકારની વનમાળા ધારણ કરે છે. તે દેવા પેાતાના વણું, સ્પર્શે તે અને તેજથી દિશામાને પ્રકાશમય કરે છે અને ભવિષ્યમાં મેક્ષમાં જવાવાળા થાય છે. તે હવે ખતાવે છે.-તેએ પેાતાના વિલક્ષણુ વણથી યિ ગંધથી, દિવ્ય સ્પર્શીથી દિવ્ય સંઘાતથી દિવ્ય શારીરિક સહ. નનથી, દિવ્ય આકૃતિથી દિવ્ય ઋદ્ધિથી દિવ્ય-ધ્રુતિથી ત્ર્યિ પ્રભાથી, દિવ્ય છાયાથી દિવ્ય કાંતીથી દિવ્ય જાતિથી, દિવ્ય તેજથી, દિવ્ય તેજેવેશ્યા, સઘળી દિશાઓને ઉદ્યોતિત અને પ્રકાશિત કરે છે, ભદ્રગતિ અને ભદ્ર સ્થિતિ વાળા હાય છે. આગામી કાળમાં ભદ્રંક કલ્યાણવાળા થવાવાળા હાય છે. For Private And Personal Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लमयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.२ कियास्थाननिरूपणम् आगमिष्यद्रकाः 'यावि भवंति' चापि भवन्ति 'एस ठाणे आयरिए' एतत्स्थानमार्यम् 'जाव सव्वदुक्खपहीणमग्गे' यावत्-सर्वदुःखमहीणमार्गः-एतदेव स्थानं सर्व. दुःखान्तकरं भवतीत्येतावता-आर्यत्वम् ‘एगलसम्में एकान्तसम्यक् -मिथवालाविरस्यादिदोषरहितत्वात् 'सुमाह' सुमाधु चैतत्स्थानम् , सर्वदुःखरहितत्वात् 'दोच्चस्स' द्वितीयस्य 'ठाणस्स' स्थानस्य 'धम्मपक्खस्स' धर्मपक्षस्य 'विभंगे' विभङ्ग:-विचार 'एवमाहिए' एवमाख्यातः-यथोक्तप्रकारेण द्वितीयस्य धर्मस्थानस्य विचारोऽभव. दिति । एतावता विवेकिमि धर्मपक्ष एव-आदर्तव्यः इति ॥सू० २३॥३८ मूलम्-अहावरे तच्चस्स ठाणस्स मीसगस्स विभंगे एवमा. हिज्जइ इह खलु पाईणं वा४ संतेगइया मणुस्सा भवंति, तं जहा-अप्पिच्छा अप्पारंभा अप्पपरिग्गहा धम्मिया धम्माण्या जाव धम्मेणं चैव वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति, सुसीला सुव्वया सुपडियाणंदा साहू एगच्चाओ पाणाइवायाओ पडिविरया जाव. जीवाए एगच्चाओ अप्पडिविरया जाव जे यावण्णे तहप्पगारा सावज्जा अबोहिया कम्मंता परपाणपरितावणकरा कज्जंति तओ वि एगच्चाओ अप्पडिविरया। से जहा णामए समगो. वासगा भवंति अभिगयजीवाजीवा उवलद्धपुण्णपावा आसवसंवरवेयणा णिज्जरा किरियाहिगरणवंधमोक्खकुसला असहे. ___ यह धर्म स्थान आर्यजनों का स्थान है यावत् समस्त दुःखों के क्षय का मार्ग है। मिथ्यात्व अविरति आदि दोषों से रहित होने के कारण एकान्त सम्यकू मार्ग है। समस्त दुःखों से रहित होने के कारण सुसाधु मार्ग है । दूसरे स्थान धर्मपक्ष का यह विचार कहागया है। विवेकीजनों को धर्म पक्ष का ही आदर करना चाहिए ॥२३॥ આ ધર્મસ્થાન આર્યજનેનું સ્થાન છે. યાવત સર્વ દુઃખના ક્ષયને માર્ગ છે. મિથ્યાત્વ, અવિરતિ વિગેરેથી રહિત હોવાથી સુસાધુ માગ છે આ પ્રમાણે આ બીજા ધર્મપક્ષ સ્થાનને આ વિચાર કહેવામાં આવેલ છે. વિવેકી મનુષ્યોએ ધર્મ પક્ષને જ આદર કર જોઈએ. ારકા सू० ४० For Private And Personal Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 30 L ज्ज सूत्रकृताङ्गसूत्रे देवासुरनागसुत्र गजक्ख रक्ख सकिन्नर किंपुरिस गरुलगंधध्वमहोरगाइएहिं देवगणेहिं निग्गंथाओ पावयणाओ अणइकमणिज्जा इणमेव निग्गंथे पावयणे पिस्संकिया णिक्कंखिया निव्वितिमिच्छा लद्धट्टा गहिया पुच्छियट्ठा विणिच्छियडा अभिगयट्ठा अट्ठमिंज्जा पेमाणुरागरन्ता अथमाउसो ! निग्गंथे पावणे अयं अट्टे अयं परमट्ठे सेसे अगट्टे उसियफलिहा अगुयदुवारा अचियंत्तंतेउरपरघरपवेसा चा उद्दसमुद्दिट्टपुष्णिमासिणीसु पडिपुनं पोसहं सम्मं अणुपालेमाणा समणे निग्गंथे फासुए सणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थपडिग्गहकंबलपायपुंछणेणं ओसहमे सज्जेणं पीठफलक सेजासंथारएणं पडिला भेमाणा बहूहिं सीलव्वयगुणवेरमणपच्चक्खाणपोसहोववासेहिं अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणा विहरंति । तें णं एयारुवेणं विहारेणं विहरमाणा बहूई वासाईं समणोवासगपरियागं पाउणंति पाउगित्ता आबाहंसि उत्पन्नंसि वा अणुपपन्नंसि वा बहूई भत्ताई पच्त्रक्खाएता बहूई भत्ताई अणसणाए छेति । बहूई भत्ताइं अणसणाए छेइत्ता आलोइयपडिकता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोपसु देवताए उववत्तारो भवति, तं जहा - महड्डिएस महज्जुइएसु जाव महासोक्खेसु सेसं तहेव जाव एस ठाणे आयरिए जाव एतसम्म साहू । तच्चस्स ठाणस्स मिस्सगस्स विभंगे एवं आहिए | अविरई पडुच्च वाले आहिजइ, विरइं पडुच्च पंडिए Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.२ कियास्थाननिरूपणम् आहिजइ विरया विरइं पडुच्च बालपंडिए आहिज्जइ तत्थ गं जा सा सपओ अविरई एस ठाणे आरंभट्ठाणे अणारिए जाव असव्वदुक्खप्पहीणमग्गे एगंतमिच्छे असाहू, तत्थ णं जा सा सव्वओ विरई एस ठाणे अणारंभटाणे आरिए जाव सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे एगंतसम्म साहु, तत्थ णं जा सा सवओ विरयाविरई एस ठाणे आरंभ णो आरंभट्टाणे एस ठाणे आरिए जाव सबदुक्खप्पहीणमग्गे एगंतसम्म साहु ॥सू० २४॥३९॥ छाया-अथापरस्तृतीयस्य स्थानस्य मिश्रमस्य विभङ्ग एव माख्यायते । इह खलु पाच्या वा ४ सन्त्येतसे मनुष्या भवन्ति तद्यथा-अल्पेछा अल्पारम्भाः अल्पपरिग्रहाः धार्मिका धर्मानुगाः यावद् धर्मेण चैव वृत्ति कल्पयस्तो विहरन्ति, सुशीलाः सुव्रताः मुमत्यानन्दाः साधवः एकस्मात् पाणातिपाता प्रतिविरताः यावज्जीवनम्, एकस्माद् अप्रतविरताः यावद् ये चान्ये तथापकाराः सावधाः अबोधिकाः कर्मसमारम्भाः परमाणपरितापनकराः क्रियन्ते ततोऽप्येकस्मात् अपतिविरताः। तथानाम श्रमणोपासकाः भवन्ति अभिगतजीवाऽजीवाः उपधपुण्यपापाः आसत्रसम्बरवेदनानिराक्रियाऽधिकरणबन्धमोक्षकुशलाः असहाया अपि देवामुरनाग वर्ण यक्षराक्षसकिन्नर किंपुरुषगरुड गन्धर्वमहोरगादिभिः देवगणैः निर्ग्रन्थान् प्रववनादनतिक्रमणीयाः अस्मिन्नन्थे प्रवचने निशक्षिताः निष्काक्षिताः निर्विचिकित्साः लब्धार्शः गृहीतार्थाः पृष्टार्थाः विनिश्चितार्थाः अभिगतार्थाः अस्थिमज्जाप्रेमानुरागरक्ताः इदमायुष्मन् ! नैन्यं प्रवचनम् अयमर्थः अयं परमार्थः शेषोऽनर्थः उच्छ्रितस्फाटिकाः असंवृतद्वाराः असंमतान्तःपुरपरगृहप्रवेशा: चतुर्दश्यष्टम्युद्दिष्टपूर्णिमासु प्रतिपूर्ण पौषधं सम्यगनुपालयन्तः श्रमणान् निर्ग्रन्थान् मासुकैषणीयेन अशनपानखाद्य स्वायेन वस्त्रपरिग्रहकम्बलपादमोञ्छनेन औषधभैष ज्येन पीठफलकशर पासंस्तारकेण प्रतिलाभयन्तः बहुमिः शीलवतमुणविरमण. प्रत्याख्यानपोषधोपवास: यथापरिगृहीतः तपा-कर्मभिः आत्मानं भावयन्तो विहरन्ति । ते खलु एतद्रूपेण विहारेण विहरन्तः बहूनि वर्षाणि श्रमणोपासपर्याय पालयन्ति पालयित्वा आवाधायामुत्पन्नायां वा अनुस्पन्नायां वा बहूनि मतानि प्रत्याख्यान्ति, बहूनि भक्तानि प्रत्याख्याय बहूनि भक्तानि अनशनया छेदयन्ति, बहूनि भक्तानि अनशनया छेदयित्वा आलोचितप्रतिक्रान्ताः समाधिपाता काल. For Private And Personal Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतासूचे मासे कालं कृत्वा अन्यतरेषु देवलोकेषु देवत्वाय उपपत्तारो भवन्ति । तद्यथामहर्दिकेषु महाधुतिकेषु यावन्महासौख्येषु शेषं तथैव यावद् इदं स्थानम् आर्यम् यावदेकान्तसम्यक साधु, तृतीयस्य स्थानस्य मिश्रकस्य विभङ्गः एवमाख्याता, थविरति प्रतीत्य बाळ आख्यायते, विरतिं प्रतीत्य पण्डित आख्यायते विरत्य. विरतिं प्रतीत्य बालपण्डित आख्यायते, तत्र खल या सा सर्वतोऽविरतिः इदं स्थानमारम्भस्थानाननार्य यावदसर्वदुःखहीणमार्गम् एकान्तमिथ्या असाधु । तत्र खलु या सा सर्वतो विरतिः इदं स्थानमनारम्भस्थानमार्य यावत् सर्वदुःखपहीणमार्गमेकान्त सम्यक् साधु । तत्र खलु ये ते सर्वतो विरत्यविरती, इदं स्थानमारम्भ नोआरम्भस्थानम् इदं स्थानमार्य यावत् सर्वदुःखपहीणमार्गम् एकान्त सम्यक् साधु ॥ सू० २४-३९ टीका-धर्मपक्षाऽधर्मपक्षयो निरूपणं कृत्वा-धर्माऽधर्मयोमिलितः पक्षो निरूप्यते । धर्माऽधर्माभ्यां मिलितत्वादेतस्य मिश्रपक्ष इति परिभाषा भवति । यद्यपि पक्षोऽपि-अयम्-अधर्मयुक्त एवेति वाऽतिरिच्यतेऽधर्मपक्षात् तथापि 'तच्चस्स ठाणस्स' इत्यादि। टीकार्थ-धर्म पक्ष और अधर्मपक्ष का निरूपण करके अप धर्म और अधर्म के मिश्रित पक्ष का निरूपण करते हैं । इस पक्ष में धर्म और अधर्म दोनों आंशिक रूप में विद्यमान रहते हैं, अतएव यह मिश्रपक्ष कहलाता है । यद्यपि यह पक्ष भी अधर्मयुक्त ही है अतएव अधर्म पक्ष से अलग नहीं है, तथापि अधर्म की अपेक्षा धर्म की बहु. 'तच्चस्स ठाणस्म' या ટીકાઈ—ધર્મ પક્ષ અને અધર્મ પક્ષનું નિરૂપણ કરીને હવે ધર્મ અને અધર્મના મિશ્રિત પક્ષનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે–આ પક્ષમાં ધર્મ અને અધર્મ એ બને આંશિક રૂપથી વિદ્યમાન રહે છે. તેથી જ આ મિશ્ર પક્ષ કહેવાય છે. જો કે આ પક્ષ પણ અધર્મ યુક્ત જ છે, તેથી જ અધર્મ પક્ષથી અલગ નથી, તે પણ અધર્મ કરતાં ધર્મના અધિક પણાને લીધે આ અધર્મ પક્ષ નથી, પણ ધર્મપક્ષ જ છે તેમ માનવામાં આવે છે. મુખ્ય પણાને લઈને જ શબ્દને પ્રવેશ કરવામાં આવે છે. એ ન્યાય છે. જેમ ચન્દ્રનું કથન કિરથી જ થાય છે. કલંકથી નહીં કેમકે તેનું કલંક કિરણો દ્વારા ઢંકાઈ જાય છે. તેથી આ પક્ષમાં અધર્મ, ધર્મથી પરાભૂત થઈ જાય For Private And Personal Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् अधर्माऽपेक्षया धर्मबाहुल्यात् नाऽधर्म पक्षोयम् अपितु धर्मपक्ष एव गण्यते, प्राधान्येन व्यरदेगा भवन्तीति न्यायात् । यथा चन्द्रः किरणैरेव व्यपदिश्यते, न कलङ्केन । तत्कस्य हेतोः ? किरणैः कलङ्कस्याऽभिभूतत्वात् तद्वदेतस्मिन् अपि पक्षेऽध धर्मेरभिभूतो भवति । एतस्य धर्मपक्षे एवाऽनुर्भावः। येऽल्पेच्छा अल्पपरिग्रहान्तो धार्मिकाः धर्मानुगाः उत्तमव्रतधारका तेऽत्र पक्षे समाविष्टा भवन्ति । ते पुरुषाः स्थूल गणातिपातेभ्यो निवृत्ताः, अनिवृत्ताश्च सूक्ष्मेभ्यः यन्त्रपीडनादिभिनिवृत्ताः भवन्तीति । साम्प्रतमक्षरार्थः प्रसन्यते ___ 'अहावरे' अथाऽपरः 'तच्चस्त ठागस्त' तृतीयस्य स्थानस्य 'मिस्सगस्स' मिश्रकस्य देशविरतस्थ श्रावकस्य विभंगे' बिमङ्गो विचारः 'एवमाहिज्जई' एवंवक्ष्यमाणपकारेणाऽऽख्यायते, 'इह खलु पाईणं वा४' इह खलु पाच्यां वा, पतीच्या वा, इत्यादिक्रमेण ज्ञातव्यम् , 'संतेगइया मणुस्सा भवंति' सन्त्येकतयेलता होने से यह अधर्म पक्ष नहीं है, अपितु धर्मपक्ष ही गिना जाता है। प्रधानता को लेकर ही शब्द का प्रयोगकिया जाता है, ऐसा न्याय है। जैसे चन्द्रमा का कथन किरणों से ही होता है, कलंक से नहीं, क्योंकि उसका कलंक किरणों के द्वारा ढक जाता है। इसी प्रकार इस पक्ष में अधर्म धर्म से अभिभूत हो जाता है, अतएव इसका धर्मपक्ष में ही अन्तर्भाव होता है । इस पक्ष में उनका समावेश होता है जो अल्प इच्छा और अल्प परिग्रह वाले, धार्मिक, धर्मानुगामी और उत्तम व्रतों के धारक होते हैं, वे पुरुष स्थूल प्राणातिपात आदि पापों से निवृत होते हैं, परन्तु सूक्ष्म पापों से निवृत्त नहीं होते। यन्त्र पीडन आदि पाप बहुल कृस्यों से भी निवृत्त होते हैं । अव शब्दार्थ लिखा जाता है तीसरे स्थान मिश्रपक्ष-देशविरत श्रावक का विचार आगे कहे अनुसार है-इस लोक में पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर दिशा में છે. તેથી આ પક્ષને ધર્મ પક્ષમાં જ અંતર્ભાવ થાય છે. જે અલ્પ ઈચ્છા, અને અલ્પ પરિગ્રહવાળા, ધાર્મિક, ધર્માનુગામી અને ઉત્તમ વ્રતને ધારણ કરવાવાળા હોય છે, તે પક્ષમાં આને સમાવેશ થાય છે. તે પુરૂષે સ્થળ પ્રાણાતિપાત વિગેરે પાપથી નિવૃત્ત હોય છે, પરંતુ સૂમ પાપોથી નિવૃત્ત નથી લેતા યત્ર (ઘાણીથી પીલવું. દળવું વિગેરે) પીડન વિગેરે અધિક પાપવાળા કૃત્યથી પણ નિવૃત્ત થતા નથી. હવે શબ્દાર્થ બતાવવામાં આવે છે–ત્રીજા સ્થાન મિશ્ર પક્ષ-દેશવિરત શ્રાવકને વિચાર આગળ કહ્યા પ્રમાણે છે. આ લેકમાં પૂર્વ, પશ્ચિમ દક્ષિણ For Private And Personal Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूचकृतोत्रे विविधमकारकाः मनुष्याः भवन्ति 'तं जहा' तद्यथा-'अप्पिच्छा' अल्पेच्छा:अल्पा:-स्तोकाः परिग्रहारम्भेषु इच्छा-अन्तःकरणत्ति र्येषां ते तया, ईषदिच्छा. वन्तः, 'अपारंभा' अल्गारम्मा:-अल्पः आरम्भः कृष्यादिना पृथिव्यादिजीवोपमदों येषां ते तथा, 'अप्पारिगहा' अल्पपरिमाः-अलाः परिग्रह:-धनधान्यादि. स्वीकाररूपो येषां ते तया, 'धम्मिया' धार्मिका:-धर्मेण-प्राणातिपातादि विरमयरूपेण चरन्ति ये ते तथा, 'धम्माणुया' धर्मानुबा-धर्मभनुगन्छन्ति ये ते तथा, 'जाव' यावत्-यावत्पदात्-'धम्मिट्ठा' धर्मष्टा:-धर्म एव इष्टः-प्रियो येषां ते तथा, 'धम्मक्खाई' धर्मख्यातयः-धर्मात् ख्याति:-मसिद्धि र्येषां ते तथा, अथवा धर्मख्यायिनः धर्म-श्रुतवारित्राख्यमाख्याति-भव्येभ्यः प्रतिपादयन्ति ये ते तया, 'धम्मप्पलोई धर्मपलोकिन:-धर्ममेव प्रलोकयन्ति पश्यन्ति ये ते तथा, 'धम्मपलंगणा' धर्मपरञ्जनाः, धर्मे प्ररज्यन्ति-आमज्जन्ति ये परायणा स्ते तथा, 'धम्म समुयाया। धर्मसमुदाचारा:-धर्मः समुदाचारः-सदाचारो येषां ते तथा 'धम्मेणं चेव वित्ति कापेमाणा' धर्मेग चैत्र वृत्ति जीविकाव्यवहारं कल्पयन्त:-कुर्वन्त इति यावत् । 'विहरंति' विहरन्ति-समय यापयन्ति । कयम्भूनाः मिश्राक्षाऽवलम्बिनः देशविरता स्तत्राह-'मुसीला' सुशीलाः-शोभनाचारवन्तः 'मुत्भया' सुन्नता:कोई-कोई मनुष्य ऐसे होते हैं, जो अल्प इच्छा वाले, अल्प आरंभकृषि आदि के द्वारा जीवघात रूप सावा व्यापार वाले अल्प परिग्रह घाले अहिंसा आदि धर्म का आचरण करने वाले, धर्मानुगाली, धर्मनिष्ठ-धर्म प्रेमी, धर्म का कथन करने वाले अथवा धर्म के कारण ख्याति प्राप्त करने वाले, धर्म से प्रसन्न होने वाले धर्मपरायण, धर्म का समीचीन आचरण करने वाले, धर्म पूर्वक ही अपनी आजीविका करते हुए यावत् विचरते हैं। मिश्रपक्ष का अबलम्बन करनेवाले देशविरति श्रावक कैसे होते हैं ? शोभन आचार वाले, शोभन व्रतों वाले, सरलता से प्रसन्न होने અને ઉત્તર દિશામાં કઈ કઈ મનુષ્ય એવા હોય છે, જેમાં અલ્પ ઈચ્છાવાળા, અલ્પ આરંભ-કૃષિ ખેતી વિગેરે દ્વારા જીવઘ ત રૂપ સાવધ વ્યાપાર ધાળા, અ૫ પરિગ્રહવાળા અહિંસા વિગેરે ધર્મનું આચરણ કરવાવાળા, ધર્માનુગામી, ધર્મનિષ્ઠ ધર્મ પ્રેમી, ધર્મનું કથન કરવાવાળા, ધર્મને જ દેખ વાવાળા, ધર્મથી પ્રસન્ન થવાવાળા, ધર્મપરાયણ, ધર્મનું સારી રીતે આચરણ કરવાવાળા, ધર્મ પૂર્વક જ પિતાની આજીવિકા ચલાવતા થકા વિચરે છે. મિશ્રપક્ષનું અવલંબન કરનારા દેશ વિરતિ શ્રાવક કેવા હોય છે? શોભન આચારવાળા, સાશા ગ્રતાવાળા સરલપણુથી પ્રસન્ન થવાને યોગ્ય For Private And Personal Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.२ कियास्थाननिरूपणम् शोभनव्रतवन्तः 'सुपडि पाणंदा' मुमत्यानंहाः -सुष्टु पत्यानन्दः-चित्ताहादो येषां ते तथा, तथा-'साहू' साधा-साधुसमीपे व्रतधारकाः श्रमणाः 'एगचाओ' एकस्मात् स्थूलात् 'पाणाइवायाओं' प्रागातिरातात्-जोवहिमातः 'पडिविरया' प्रतिविरताः-देशविरतिरूपेण निवृत्ता इत्यर्थः, 'जाव जीवाए यावज्जीवनम्यावत्पर्यन्तं प्राणान् धारयन्ति तावत्पर्यन्तं नित्ताः स्थूल नी वहिसातः ‘एगचाओ अपडिविरया' एकस्मात् सूक्ष्मपाणानिपातात् -अतिविरताः स्थूलपाणातिपाते. भ्यो निवृत्ता अपि, किन्तु सूक्ष्मपणातिपातेभो न विस्ताः 'जाव जे पावन्ने तह पगारा' भारत-ये चान्ये तथा प्रकारा स्तादृशाः साना सावध :-गापयोजकाः 'अबोहिया' अबोधिका-बोधाऽभावप्रयोजकाः 'कमला' कर्मममारम्भाः परपाण - परितावणकरा' परमाणपरितापनकरा:-अन्यसत्पीडोत्सादकाः कज्जत' क्रिपते 'तो वि' ततोऽपि 'एगच्चाओ' एकस्मात्-भारणाणातिपातपरितापनात्-‘अप्प डिविरया' अपतिविरता:-एवं मृपावादादावपि ज्ञेयम्, 'से जहाणामए' तद्यथा नाम 'समणोबासगा' श्रमणोपासका:-श्रमणं-साधुपासते ये ते श्ररणोपासका इत्यर्थः । भवन्ति ते श्रावकाः। 'अभिगयजीवाजी' अभिगतजीवाऽजीया-अभि योग्य और साधु-लज्जन होते हैं । स्थूल मागातिपान से, एक देश रूप से यावज्जीवन निवृत्त होते हैं किन्तु सूक्ष्म प्राणातिपात से निवृत्त नहीं होते हैं । इसी प्रकार अन्य पाप जनक एवं अबोधि उत्पन्न करने वाले कार्यों से, जो अन्य प्राणियों को परिताप उपजाने वाले हैं, उनमें से किसी-किसी से निवृत्त नहीं होते हैं। तात्पर्य यह है कि देश विरति वाले धर्माधर्म पक्षीय पुरुष सभी पापों से देश निवृत्त होते हैं, सर्वथा नहीं। इस मिश्रस्थान में श्रमणों के उपासक (साधु की सेवा करने वाला) अर्थात् श्रावक जन होते हैं। वे जीव और अजीव के स्वरूप के यथार्थ અને સાધુ-સજજન હોય છે, સ્થૂલ પ્રાણાતિપાતથી એકદેશ રૂપથી યાજછવ નિવૃત્ત હોય છે, પરંતુ સૂક્ષ્મ પ્રાણાતિપાતથી નિવૃત્ત થતા નથી. એ જ પ્રમાણે અન્ય પાપ જનક અને અબાધિ ઉત્પન કરવાવાળા કાર્યોથી જેઓ બીજા પ્રાણિયોને સંતાપ પહોંચાડવાવાળા હોય છે. તેમાંથી કેઈ કેઈથી, નિવૃત્ત થતા નથી. તાત્પર્ય એ છે કે દેશ વિરતિવાળા ધર્માધર્મ પક્ષવાળા પુરૂષ સઘળા પાપથી દેશ નિવૃત્ત હોય છે. સર્વથા નિવૃત્ત હેતા નથી. આ મિશ્રરથાનમાં શ્રમના ઉપાસક (સાધુની સેવા કરવાવાળા) અર્થાત શ્રાવક જ હોય છે, તેઓ જીવ અને અજીવના સ્વરૂપને યથાર્થ રૂપથી For Private And Personal Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२० सूत्रकृतासूत्रे गतौ-यथावस्थितरूपेण ज्ञातौ जीवाऽजीवौ यस्ते तथाविधा भवन्ति, एवम् 'उत्रलद्धपुण्णपावा' उपलब्धपुण्यपापाः, उपलब्धे परमार्थतो ज्ञाते पुष्पपापे यैस्ते तथाविधाः, तथा 'आसव-संवरवेयणाणिज्जराकिरियाहिगरणबंधमोकावकुमला' आखासंबरवेदनानिर्जराक्रियाऽधिकरणबन्धमोक्षकुशलाः, तत्र आस्रवः-आखाति-प्रविशति अष्टविधं कर्मसलिलं येन आत्मतरसि स आस-मिथ्यात्वाऽविरतिपमाद कवाय. योगरूपः, संवरः-संत्रियते-निरुद्वयते आसाम येन परिणामे स तथा समिति गुप्तिमिरात्मसरसि आस्रवत्कर्मसलिलानां स्थगनमित्यर्थः' वेदना-मसिदैव, निर्जरा-निर्जरणम्-कर्मणां जीवपदेशेभ्यः परिशटनम् , क्रिया:-कायियादिकाः, अधिकरणम्, अधिक्रियते नरकगतियोग्यतापनः पाप्यते आत्ता येन तत् आत्मा. धिकरणं द्रव्यतः खड्गयन्त्रादि, भावतः क्रोधादि । बन्धः-जीवस्य कर्मपुद्गल. रूप से ज्ञाता होते हैं। पुण्य-पाप के स्वरूप के जानकार होते है, आस्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बंध और मोक्ष के ज्ञान में कुशल होते हैं । जिसके द्वारा आत्मा रूपी सरोवर में कर्मरूपी जल आता है, उसे आस्रव कहते हैं । मिथ्यात्य, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग आस्रव हैं । जिस परिमाण के द्वारा आत्र का निरोध होता है, वह समिति, गुप्ति आदिरूप परिणाम संवर कहलाता है। तात्पर्य यह है कि आते हुए कर्म रूपी जल का रुक जाना संवर है। आत्म प्रदेशों से बद्ध कर्मों का देश से हटना निर्ज।। है । कायिकी आदि पच्चीस प्रकार की सावध प्रवृत्ति को क्रिया कहते हैं । जिम के कारण आत्मो नरक या तिर्यचगति का अधिकारी बनता है, वह अधिकरण कहलाता है। अधिकरण के दो भेद हैं । द्रव्य से खड्ग या यंत्र आदि જાણનારા હોય છે. પુણ્ય પાપના સ્વરૂપને જાણવા વાળા હોય છે. આ સ્ત્ર, સંવર, નિર્જર, ક્રિયા, અધિકરણ, બંધ અને મેક્ષના જ્ઞાનમાં કુશળ હોય છે. જેના દ્વારા આત્મા રૂપી સરેવરમાં કમરૂપી જળ આવે છે, તેને આસ્રવ કહેવાય છે. જે પરિણામ દ્વારા આમ્રવને નિરોધ થાય છે. તે સમિતિ, ગુપ્તિ વિગેરે રૂ૫ પરિણામ સંવર કહેવાય છે તાત્પર્ય એ છે કેઆવતા એવા કર્મ રૂપી જળનું કાઈ જવું તે સંવર છે. આત્મ પ્રદેશથી બદ્ધ તે કર્મોનું દેશથી હટવું તે નિર્જરા છે. કાયિકી વિગેરે પચ્ચીસ પ્રકારની સાવધ પ્રવૃત્તિને ક્રિયા કહે છે. જેના કારણે આત્મા નરક અથવા તિર્યંચ ગતિને અધિકારી બને છે, તે અધિકરણ કહેવાય છે. અધિકરણના બે ભેદ છે. દ્રવ્યથી ખડગ અથવા યંત્ર વિગેરે અને ભાવથી કોલ વિગેરે અધિકરણ For Private And Personal Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सामयाबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् सम्बन्धः, मक्षा-सकलकर्मक्षये सति जीवस्य कर्मसंयोगापादितरूपरहितस्य साथ. पर्यवसानम् । 'असहेज्ज' असहाया-बाह्यसहायरहिता अपि 'देवासुरनागसुवष्णजक्खरकरवसकिन्नरकिंपुरिसगरुलगंधव्यमहोरगाइएहिं देवगणेहि देवासुरनागसुवर्णयक्षराक्षसकिन्नरकिंपुरुषगरुडगन्धर्वमहोगादिभिर्देवगणैः, तत्र-देवा:-वैमानिकार, असुरा:-असुरकुमाराः, नागा:-नागकुमाराः, सुवर्णकुमारा:-भवनपतिविशेषाः, यक्ष राक्षसकिरकिंपुरुषा:-यन्तरविशेषाः, गरुडा:-गरुडध्वजार, गन्धर्वमहोरगा। -ज्यन्तरविशेषाः तत्त्रभृतिभिर्देवगणः 'निग्गंयाभो' निन्थात् 'पाययणाभो' प्रव. चनात् 'अणइकमणिज्जा' अनतिक्रमणीयाः भवन्ति ते श्रावकाः, साहाय्यरहिता अपि देवादिभिरपि प्रबलबलीयतेनोमिराविष्टैरपि प्रतिपन्थिमिः प्रचलिता और भाव से क्रोध आदि अधिकरण हैं । जीव और कर्मणवर्गगा के पुद्गलों का क्षीर-नीर के जैसा संबंध होना बन्ध है। समस्त कर्मों का क्षय होजाने पर आस्मा से कर्म वर्गणोनों का अन्त हो जाना और स्वाभाविक शुद्ध स्वरूप की उपलब्धि हो जाना मोक्ष आत्माकी सादिअनन्त शुद्ध पर्याय है। __ श्रावक आस्रव आदि इन सब के स्वरूप के ज्ञाता होते हैं। किसी की सहायता की अपेक्षा नहीं रखते अथवा यों कहना चाहिए कि असहाय होने पर भी देवता भी उन्हें निर्ग्रन्धमवचन से विचलित नहीं कर सकते । वैमानिक देव, असुरकुमार, नागकुमार, गरुडकुमार एवं सुपर्णकुमार नामक भवनपति देव तथा यक्ष राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष गंधर्व एवं महोरग नामक व्यन्तर देव प्रपल शक्तिमान होने पर भी श्रमणोपासकों को जिनशासन से चलायमान करने में समर्थ છે. જીવ અને કાશ્મણ વગણના પુદ્ગલેનું ક્ષીર અને નીરની માફક સંબંધ થવો તે બંધ છે. સમસ્ત કર્મોને ક્ષય થવાથી આત્માથી કર્મવર્ગને અંત થવે અને સ્વાભાવિક શુદ્ધ સ્વરૂપની ઉપલબ્ધિ થઈ જવી તે મોક્ષ છે. આ મોક્ષ આત્માના સાદી અનંત શુદ્ધ પર્યાય છે. શ્રાવક આસ્રવ વિગેરેના સમગ્ર સ્વરૂપને જાણવાવાળા હોય છે. તેઓ કોઈની પણ સહાયતાની અપેક્ષા રાખતા નથી, અથવા એમ કહેવું જોઈએ કે અસહાય હોવા છતાં પણ દે પણ તેઓને નિન્ય પ્રવચનથી હટાવી શકતા નથી. વૈમાનિક દે, અસુરકુમારે નાગકુમાર, ગરૂડકુમાર, અને સુપ કુમાર, નામના ભવનપતિ દે તથા યક્ષ રાક્ષસે કિન્નર, જિંપુરૂષ, ગંધવ અને મહારગ નામના વ્યન્તર દેવ પ્રબળ શક્તિમાન હોવા છતાં પણ . શ્રમપાસકને જનશાસનથી ચલાયમાન કરવામાં સમર્થ થઈ શકતાં નથી. सू० ४१ For Private And Personal Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गरे तीर्थकरमवचनात् ते श्रावकाः न भवन्ति 'इणमेव निश्गंथे पात्रयणे' अस्मिन मैन्ये प्रवचने 'मिस किया' निश्शङ्किताः संशयरहिताः 'णिक्कं खिया' निष्कां क्षिता:- परदर्शनीय स्पृहया वर्जिताः, 'निम्िितमिच्छा' निर्विचिकित्सा:-फप्रति सन्देवरहिताः 'लदह ।' लब्धार्या :- कन्धाः परिज्ञाता अर्था:- सूपार्थाः गुरूपदेशादयो चैते धार्थाः अर्थ धरणात्- 'गहिया' गृहीतार्थाः - गृहीतः - सम्मा aiser येस्ते गृहीतार्था:- अर्थावधारणात् 'पुच्छियड्डा' पृष्टार्थाः- गुरुभिः संदिrette sanonia 'विणिच्छपट्टा' विनिश्चितार्थाः- सूत्रार्थविषयकनिश्चयवन्तः पार्थानां विनिश्वात् 'अभिगयद्वा' अभिगतार्थाः - पृष्टार्थाधिगमात् 'अडिमिंजा पेमाणुरागरत्ता' अस्थिमज्जा मेमानुरागरक्ताः, अस्थि मज्जादिव्वपि जैन पवचनानुरागेण रञ्जिता भवन्ति ते - अस्थिमज्जा - ततो धातुविशेषः तासु प्रवचनानुरागेण रञ्जि ताः - श्रावकाः, 'अयमाउसो' इदम्-आयुष्मन् ! 'निम्गंथे पाय' नैग्रन्थं वचनम् 'अ' अपम् 'अद्वे' अर्थः, 'अयं परमडे' अयं परमार्थः- मोक्षप्रापकः, जिनोदितसदुपदेश एव सर्वथा सत्यः, 'से से अगद्वे' शेषम् - एतद्व्यतिरिक्तम् अनर्थम् 'उसियफलिहा' नहीं हो सकते। वे निर्ग्रन्थप्रवचन में निश्शंक होते हैं परकीय दर्शनों की अभिलाषा नहीं करते धर्मक्रिया के फल में संदेह नहीं करते। वे धार्थ होते हैं अर्थात् गुरु के उपदेश से सूत्र एवं अर्थ को श्रवण करते हैं । श्रवण करके अर्थ को ग्रहण करते हैं । ग्रहण करने के पश्चात् यदि संदेह होता है तो गुरु से अर्थ पूछ लेते हैं। पूछ कर उसे सम्यकू प्रकार से निश्चित करलेते हैं और समग्रतया समझ लेते है । उनकी रग-रग में जिन प्रवचन के प्रति गहरा अनुराग होता है । उनकी श्रद्धा ऐसी होती है कि- 'हे आयुष्मन् ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन हो अर्थ है, यही परमार्थ है इसके अतिरिक्त सब अनर्थ है-अनर्थ कारी है। ऐसा लोगों को उपदेश देते हैं वे स्फटिक के समान निर्मल अन्तःकरण वाले તેઓ નિન્ય પ્રવચનમાં નિશ' હાય છે. પારકા દર્શનેાની ઈચ્છા કરતાં નથી. ધર્મક્રિયાના ફળમાં સદૈઠુ કરતા નથી. તેએ લખ્યાથ હોય છે. ઋર્થાત્ ગુરૂના ઉપદેશથી સૂત્ર અને અધનું શ્રવણ કરે છે. શ્રવણ કરીને અને ગ્રહણુ કરે છે, ગ્રહણ કર્યા પછી જો સદૈડુ હાય તે ગુરૂને અથ પૂછી લે છે, પૂછીને તેને સારી રીતે નિશ્ચિત કરી લે છે. અને પૂરી રીતે સમજી લે છે. તેની રગે રગમાં જીત પ્રવચન પ્રત્યે ગાઢ અનુરાગ હાય છે. તેઓની શ્રદ્ધા એવી હાય છે કે હું આયુષ્મન્ આ નિગ્રન્થ પ્રવચન જ અર્થ છે. આજ પરમાથ છે. એ શિવાય બધું અનથ છે. અનથ કારક છે. લેાકાને એ પ્રમાણેના આદેશ આપે છે. તેઓ સ્ફટિકની જેમ નિર્દેલ અતઃ કરણવાળા હાય છે. તેથ્યના For Private And Personal Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लमयाबोधिनी टीका वि.व. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् ३२३ उच्छूितस्फाटिकाः-स्फटिकवन्निर्मलामा रगाः 'अगुपवारा' असंवृतद्वाराःअप्रावृतद्वारा दानार्थम् 'अचियत्तते उरपरघरपवेषा' असंमतान्तापुरपरगृहपवेशाःते श्रावकाः राज्ञामन्तःपुरवत् परगृह प्रवेशं नेच्छन्ति, 'चाउद्दसमुदिट्ठपुष्णि मासिणीमु' चतुर्दश्यष्टम्युद्दिष्टपूर्गिमासु-एतासु तिथिषु 'पडिपुन्नं पोसहं सम्म अणुपाछेमाणा' प्रतिपूर्ण पौषधं-तदाख्यं क्रियाविशेषं सम्यगनुपालयन्तः 'समणे निग्गथे श्रमणान् निम्रन्थान् 'फामुएसणिज्ने प्रासुषणीयेन दोषविरहितेन 'असणपाणखाइमसाइमेणं' अशनपानखाघस्वाद्येन-चतुर्विधाहारेण 'वस्थाडिगाहकंबलपायपुंछणेणं' वस्त्रपरिग्रहकम्ब उपायोछनेन-तत्र-वस्त्रं-प्रसिद्धम्, प्रतिग्रहः -पात्रादिः, कम्बलः, पादपोछन-रजोहरणम् 'ओसहभेसज्जेणं' औषधभैषज्येन 'पीठफलगसेज्जासंथारएणं' पीठफलकशय्यासंस्थारकेण तत्र पीठम्-आसनम् फलक:-पाटविशेषः शय्या-बृहत्संसारकः पडिलामेमाणा' पतिलाभयन्तः-एतानि वस्तूनि साथवे ददानाः 'बहूहि' बहुभिः 'सीलव्वयगुणवेरमणपच्चक्खाणपोसहो. ववासेहि' शीलवतगुणविरमणमत्याख्यानपौषधोपवासैः-तत्र-शीकानि-सामयिक होते हैं। उनके द्वार दान के लिए सदा खुले रहते हैं वे इतने विश्वासपात्र होते हैं कि राजा के अन्तःपुर में प्रवेश करने पर भी कोई उन पर शंका नहीं करता तथापि राजा के अन्तःपुरमें तथा परगृह में वे श्रावक प्रवेश करने की इच्छो भी करते नहीं ! अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा तिथियों में प्रतिपूर्ण पोषध व्रत का पालन करते हैं। वे निर्ग्रन्थ श्रमणों को प्राप्तुक (अचित्त) और एषणीय (निर्दोष) अशन, पान, खादिम और स्वादिम ये चार प्रकार का आहार प्रदान करते हैं, वस्त्र, पात्र कंवल, रजोहरण, औषध, भेषज पीठ-पाट, शय्या और संस्तारक दान દ્વારે દાન માટે સદા ખુલા રહે છે. તેઓ એટલા વિશ્વાસ પાત્ર હોય છે કે-રાજાના અંતઃપુરમાં પ્રવેશ કરવા છતાં પણ તેના પર કોઈ શંકા લાવતું નથી. તથાપિ રાજાના અંતઃપુરમાં તથા પરગૃહમાં તે પ્રવેશવાની ઈચ્છા પણ કરતા નથી. અષ્ટમી, ચતુર્દશી, અમાવસ્યા અને પુનમ વિગેરે તિથિમાં પ્રતિપૂર્ણ પિષધ વ્રતનું પાલન કરે છે. તે નિર્ગસ્થ શ્રમણને પ્રાસુક (ચિત્ત) અને એષણીય નિષ) અશન, પાન, ખાદિમ અને સ્વાદિમ રૂપ २ रनो माहा२ मा १७, पात्र, ४ , २०२३२५, भोपथ, अपन, पी8, पाट, शय्या-मारतर-पथारी. अने सस्ता हैन रे छे. અર્થાત્ આપે છે. શીલવતેથી અર્થાત્ સામાયિક દેશાવકાશિક, પિષધ અને અતિથિ સંવિભાગ દ્વતથી, પાંચ અણુ વતેથી ત્રણ ગુણ વ્રતથી ચાર શિક્ષાત્રતેથી, For Private And Personal Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूकता देशावकाशिक पोषप्रातिथिसंविभागाख्यानि, जानि-पश्चाणुव्रतानि, गुणाः-त्रीणिगुणव्रतानि-विरमण-मिथ्यात्वान्निवर्तनम्-पत्याख्याने पर्व दिनेषु त्याज्यानां परित्याज्यानां परित्यागः, पोषधोपवास:-पोष-पुष्टिं धर्मस्य वृद्धि धत्ते इति पोषधी चतुर्दश्यष्टम्यामावास्यापूर्णिमादिपर्वदिनेषु अनुष्ठेयो धर्मविशेषः एभिः 'अहापरि. गहिएहि' यथापरिगृहीतः- शाखोक्तप्रकारपरिगृहोतैः यथोक्तोपवासादिमिः 'तबोकम्मेहि' ताः कर्ममि:-अनशनादिनाकरणविशेषः 'अपाणं भावमाणा' आत्मानं भवयन्तः 'विहरंति' विहरन्ति, तथावि : श्रापमाः 'ते णं एयारूवेणे' ते खलु एतद्रूपेण 'विहारंग विहरमाणा' विहारेण विहरन्त:-मोक्षमार्गे विवरन्तः 'बहूई वासाई' बहूनि वर्षाणि 'समगोवासगपरियागं' श्रमणोपासकपर्यायम् पाउणंति' पालयन्ति, 'पाउणिवा' पालयित्वा 'आवाईसि उप्पन्नंसि वा' आवाधायाम्-रोगातङ्के उत्पन्नायां वा 'अणुप्पन्नंसि वा' अनु. स्पन्नायां वा 'बहूई' भताई पचक्खायति' बहुनि भक्तानि प्रत्याख्यान्ति प्रत्याख्याय-बहुकालपर्यन्तम् अनशनं कृत्वा 'बहूई भत्ताई अणसणाए छेदेति' बहूनि भक्तानि-अनशनया छेश्यन्ति 'बहूई भताई अणसणाए छेयइत्ता' बहूनि भक्तानि अनशनया छेदयित्वा 'आलोइयपडिक्कता समाहिपत्ता' आलोचितपतिकरते हैं । शीलवतों से अर्थात् सामायिक, देशावकाशिक, पोषध और अतिथि संविभाग व्रत से पांच अणुव्रतों से, तीन गुणवतों से, चार शिक्षाव्रतो से तथा पोषधोपवास से और शास्त्रोक्त विधि के साथ ग्रहण किये हुए अनशन आदि तपश्चरणों से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरते हैं। वे श्रावक इसप्रकार की प्रवृत्ति करते हुए अर्थात् मोक्षमार्ग में विचरण करते हुए बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक पर्याय में रहकर किसी प्रकार का रोग या आतंक उत्पन्न होने पर अथवा उत्पन्न न होने पर भी बहुसंख्यक भक्तों (भोजनों) का प्रत्याख्यान करते हैं अर्थात् लम्बे समयतक अनशन करते हैं और फिर आलोचना तथा प्रतिक्रमण તથા પિષધપવાસથી અને શાસ્ત્રોક્ત વિધિ સાથે ગ્રહણ કરવામાં આવેલ અનશન વિગેરે તપશ્ચરણેથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા વિચારે છે. તે શ્રાવકે આવા પ્રકારની પ્રવૃત્તિ કરે છે. અર્થાત્ મેક્ષ માર્ગમાં વિચરણ કરતા થકા ઘણા વર્ષો સુધી શ્રમણોપાસક પર્યાયમાં રહીને કઈ પણ પ્રકારના રોગો અથવા આતંક ઉત્પન્ન થાય ત્યારે અથવા ઉત્પન્ન ન થાય તે પણ અનેક પ્રકારના ભક્ત (આહાર-જન) નું પ્રત્યાખ્યાન કરે છે. અર્થાત લાંબા સમય સુધી અનશન કરે છે. અને તે પછી આ લેચના તથા પ્રતિકમણું For Private And Personal Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् ३२५ क्रान्ताः समाधिपाता:-संस्तारकं पूरयित्वा स्वकीय पापमालोच्य प्रतिक्रमणं च कृमा समाधि पाप्य 'कालमासे कालं किच्चा' कालमासे कालं कृत्वा-कालावसरे कालं प्राप्य 'अन्नवरेसु देवकोगेसु देवताए उवातारो भवंति' अन्यतरेषु देवलोके देवत्वाय उपरत्तारो भान्ति-कालं कृषा देलोकं गच्छन्ति, 'तं जहा' तद्यथा'महडिएसु महज्जुइएसु जार महासोक्खेसु' महर्दिकेषु महायुतिकेषु यावद् महासौख्येषु अत्र यावत्पदेन एतेषां ग्रहणम् 'महडिया' महद्धिका:-विशिष्टविमानपरिवारादियुक्ताः 'महज्जुइया' महाद्युतिकाः-विशिष्टशरीराभरणादिपमामास्वराः 'महाबलाः-विशिष्टबलशालिन: 'महासोक्खा' महासौख्या:-विशिष्टसुवसंपन्ना: एतादृशगुणविशिष्टेषु 'सेसं तहेव जाव' शेष तथैव यावत्, पूर्वपकरणे यावन्तो गुणा:-विशेषणप्रकाराः देवलोकस्य प्रदर्शिता जावद्विशेषणवत्सु देवलोकेषु गच्छकरके, समाधि को प्राप्त होकर, संथारा समाप्त करके, यथाकाल देहोत्सर्ग (शरीरस्याग) करके किसी भी देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होते हैं। .. वे देव लोक दीर्घकालीन स्थिति वाले महान् युति से युक्त यावत् महान् सुखप्रद होते हैं। यहाँ 'यावत्' पद से इन विशेषणों को ग्रहण करना चाहिए-महर्दिक अर्थात् विशिष्ट विमान परिवार आदि से युक्त, महाद्युतिक अर्थात् विशेष प्रकार की शरीर आभरण आदि की प्रभा वाले, महायल और महासुखसाधनों से सम्पन्न होते हैं । इस से पहले वाले प्रकरण में देवलोकों के जो गुण कहे गए हैं, उन सब को यहां भी समझ लेना चाहिए। पूर्वोक्त श्रावक ऐसे देवलोकों में उत्पन्न होते हैं। કરીને સમાધિને પ્રાપ્ત થઈને સંથારે સમાપ્ત કરીને યથા કાળ દેહત્સર્ગ (શરીર ત્યાગ) કરીને કેઈ પણ દેવ લેકમાં દેવ પણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. તે દેવ લેક લાંબા કાળની સ્થિતિવાળા મહાન વૃતિથી યુક્ત યાવત્ મહાન સુખને આપવા વાળા હોય છે. અહિંયાં યાવ૫દથી આ નીચે આપવામાં આવેલ વિશેષાણે ગ્રહણ કરવા જોઈએ. મહદ્ધિક-અર્થાત વિશેષ પ્રકા. રના વિમાન પરિવાર વિગેરેથી યુક્ત, મહાદ્યુતિક-અર્થાત વિશેષ પ્રકારના શરીરના આભૂષણે વિગેરેની પ્રભાવાળા, મહા બળ અને મહા સુખ સાધનથી યુક્ત હોય છે. આનાથી પહેલાના પ્રકરણમાં દેવ કોના જે ગુણે કહ્યા છે, તે બધાને અહિયાં પણ સમજી લેવા જોઈએ. પૂર્વોક્ત શ્રાવક એવા દેવકમાં ઉત્પન્ન થાય છે. For Private And Personal Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतागसूत्र स्ति, 'एस ठाणे आयरिए' इदं स्थानमार्यम्-आर्यपुरुषैः समाचरितम् 'जाव एगंत सम्मे साहू' यावद् एकान्तसम्यक साधु, अब यावत्पदेन-केवलं परिपूर्ण सुंशुद्धं सिद्धिमार्ग मोक्षमार्ग निर्वाणमार्ग सर्वदुःखपहीणमार्गम्, एकान्ततः समीचीनं न तु कदाचित् साधु-कदचिदसाधु इत्येवं रूपेण संदिग्धम् 'तबस्स ठाणस्म मिस्स. मस्स विमंगे एवं आहिए' तृतीयस्य स्थानस्य मिश्रकस्य मिश्रकाऽपरनाम्न एवं विभङ्गः-विचार आख्यातो भवति 'अविरइं पडुच बाले आहिज्जई' अविरतिं प्रतीत्य बाल आख्यायते "विरइं पडुच पंडिए आहिज्जई विरतिं प्रवीत्य पण्डित इत्याख्यायते, अयमाशयः-भिथ थानाधिकारी-अविरत्यपेक्षया बाल इति कथ्यते, विरत्यपेक्षा च पण्डित इनि मण्यते, उभयाऽपेक्षया बालपण्डित इति भण्यते 'विरशविरई पडुन्च बालपं डेए आहिज्जइ' विरत्यविरती प्रतीत्य बाळपण्डित यह मिश्रस्थान आर्य पुरुषों द्वारा आचरित है यावत् एकान्त सम्यक् है अच्छा है। यहां 'यावत्' पद से इन विशेषणों को समझ लेना चाहिए-केवल, परिपूर्ण, संशुद्ध, सिद्धिमार्ग, मोक्षमार्ग, निर्याणमार्ग, निर्वाणमार्ग, समस्त दुःखों के विनाश का मार्ग। इनकी व्याख्या पूर्ववत् समझ लेनी चाहिए। तृयीय स्थान मिश्र पक्ष का विचार इस प्रकार कहा गया है। इस स्थान में आंशिक (देश से) अविरति और आंशिक (देश से) विरति कही गई है। अतः इस स्थान वाले अविरति की अपेक्षा से बाल और विरनि की अपेक्षा से पण्डित करलाते हैं। दोनों की अपेक्षा से उन्हें 'बाल-पण्डिन' कहते हैं । આ મિશ્રસ્થાન આર્ય પુરૂ દ્વારા આચરેલ હોય છે. યાવત્ એકાન્ત સમ્યક છે. સુંદર છે. અહિયાં યાવત્ શબ્દથી આ વિશેષણે સમજી લેવા. કેરળ, પરિપૂર્ણ, સંશુદ્ધ, સિદ્ધિ માર્ગ, મોક્ષ માર્ગ, નિર્માણ માર્ગ, નિર્વાણ માર્ગ, સઘળા દુઃખના વિનાશને માર્ગ આ બધા પદેની વ્યાખ્યા પહેલાં કહેવામાં આવી ગયેલ છે, તે પ્રમાણે સમજી લેવી જોઈએ. ત્રીજા સ્થાન મિશ્ર પક્ષને વિચાર આ પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે. આ સ્થાનમાં આંશિક (દેશી) અવિરત અને આંશિક (દેશથી) વિરત કહેલ છે. તેથી આ સ્થાનવાળા અવિરતિની અપેક્ષાથી બાળ અને વિરતિની અપેક્ષાથી પંડિત કહેવાય છે. બંનેની અપેક્ષાથી તેઓને માલપંડિત કહે છે. For Private And Personal Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -- समयाबोधिनी टीका लि. श्रु. म. २ क्रियास्थाननिरूपणम् ३२७ आख्यायते, 'तत्व णं जा सा सव भो अविरई एस ठाणे प्रारंभठाणे अगारिए' तत्र खलु या सा सांतोऽविरतिः इदं स्थानमारम्भस्थानमनार्यम् 'जाब अपनदुक्ख पहीणमग्गे एर्गतमिच्छे अस हू' यावदसर्वदुःवहीणमार्गमेकान्तमिथ्या असाधु । 'तत्थ णं जा सा सम्बो विरई' तत्र या सा सस्तो विरतिः 'एस ठाणे अणारंभहाणे आरिए' इदं स्थानमनारम्मस्थानमार्यम्, 'जाव सम्वदुक्खपहीणमग्गे एगंतसम्मे साहू' यावत् सर्वदुःखपहीणमार्गमेकान्तसम्यक साधु सत्य णं जा सा सम्बयो विश्याविरई तत्र येते सर्वतो विरत्यविरती 'एस ठाणे आरंभ णो भारंभट्टाणे: इई स्थानमारम्मनोभारम्मस्थानम् ‘एमठाणे आरिर' इदं स्थानमार्यम्, 'जार सम्बदुक्खपहीणमग्गे गंतसम्म साहू' यावत्सर्वदुःखपहीणमार्गम्-एकान्तसम्यक साधु ॥म. २४३९।। मूलम्-एवमेव समणुगम्ममाणा इमेहि चेव दोहि ठाणेहि समोयरंति, तं जहा-धम्मे चेत्र अधम्मे चेव उवसंते चेत्र अणुवसंते चेव, तत्थ णं जे से पढमस्स ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिए, तत्थ णं इमाइं तिन्नि तेवढाई पावादुयसयाई. इन तीनों स्थानों में सर्वथा अविरति का स्थान आरंभ का स्थान है। यह स्थान सर्वथा अनार्य है यावत् समस्त दुःखों के विनाश का मार्ग नहीं है । एकान्तलाज्य है, असाधु-असमीचन है। इनमें जो सर्व विरलि का स्थान है, वह अनारम्भ का स्थान है आर्य है यावत् दुःखों के विनाश का मार्ग है, एकान्ततः सम्यक एवं साधु है। तीसरा जो देशविरतिस्थान है, वह अरंभ एवं नो आरंभ का स्थान है, यह भी आर्यस्थान है यावत् समस्त दु.खों के विनाश का मार्ग है। एकान्त सम्यक् और साधु है ।।२४॥ - આ ત્રણે સ્થાનમાં સર્વથા અવિરતિનું સ્થાન આરંભસ્થાન છે. આ સ્થાન સર્વથા અનાય છે. યાવત્ સમસ્ત દુઃખોના વિનાશને માર્ગ નથી. તે એકાન્ત ત્યાગ કરવા ચેમ છે. અસાધુ અસમીચીન છે. તેમાં જે સર્વ વિરતિનું સ્થાન છે. તે અનારસ્મનું સ્થાન છે. આર્ય છે. યાવત સમસ્ત ના વિનાશને માર્ગ છે. એકાન! સમ્યફ અને સાધુ છે. ત્રીજુ જે દેશવિરતિ સ્થાન છે. તે આરંભ અને નૈ આરંભનું સ્થાન છે આપણા આર્યસ્થાન યાવત સમસ્ત मेना नाशनी भाग छे त सभ्य भने साधु छ. सू. २४॥ . For Private And Personal Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 14 सूत्रकृतात्सूत्रे भवतीति मक्खायाई, तं जहा - किरियावाईणं अकिरियावाई अन्नाणियवाईणं वेणइयवाईणं, तेऽवि परिनिव्वाणमाहंसु, तेऽवि मोक्खमाहंसु तेऽवि लवंति सावगे । तेऽवि लवंति सावन्तारो || सू० २५॥४०॥ छाया -- एवमेत्र समनुगम्यमानाः अनयोरेव द्वयोः स्थानयोः सम्पतन्ति तद्यथा धर्मे चैत्र अधर्मे चैत्र उपशान्ते चैत्र अनुपशान्ते चैन, तत्र खलु योऽसौ प्रथमस्प स्थानस्य अधर्मपक्षस्य विभङ्ग एवमाख्यातः तत्र खलु अमूनि त्रीणि त्रिषष्टानि प्रावादुकशतानि भवन्ति इत्याख्यातानि तद्यथा- क्रियादिनाम क्रियावादिना मज्ञानवादिनां विनयवादिनाम् । तेऽपि परिनिर्वाणमाहुः, तेऽपि मोक्षमाहुः, तेऽपि लपन्ति श्रावकान् । 'तेऽविलपन्ति श्रावयितारः ॥ ०२६=४० ॥ टीका- 'एवमेव समणुगम्ममाणा' एवमेत्र समनुगम्यमानाः- रूपायमानाःसंक्षेपतो विचार्यमाणाः सर्वे पन्थानः 'इमेहिं चेन दोहिं ठाणेहिं समोयरंति' अनयो रेव धर्माधर्मयोः द्वयोः स्थानयोः संपतन्ति, 'तं जहा' तद्यथा-धम्मे चैव-प्रघम्मे 'चैव' धर्मे चैव अधर्मे चैव 'उवसंते चेत्र अणुवसंते चेव' उपशान्ते चैव - अनुपशान्ते धर्मक्षेप एवं सर्वमतानामन्त पत्रो भवति, इति ताभ्यां भिन्नपक्षस्य न संभवः, 'तत्थ णं जे से पढपस्स ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगें एवमाहिए' तत्र - तस्मिन् पक्षे - एतेषां माचादुकं - मवादानां समावेशस्तत्राह - ' तत्थ' इत्यादि । तत्र योऽन प्रथमस्य स्थानस्याऽधर्भपक्षस्य विभङ्ग एवमाख्यातः प्रथमपक्षस्य पूर्व 'एवमेव समणुगम्यमाणा' इत्यादि । S टोकार्थ-पही संक्षेप से कहा जाय तो सभी पक्ष इन दो स्थानों में अन्तर्गत हो जाते हैं, यथा-धर्म में और अधर्म में, उपशान्त में और में। तात्पर्य यह है कि परस्पर विरुद्ध धर्म पक्ष और अधर्म अनुपशान्त पक्ष में ही सब पक्षों क समावेश हो जाता है। इन दो से भिन्न तीसरा कोई पक्ष सम्भव नहीं है । 'एवमेव समम्ममाणा' त्याहि ટીકા”—જો સક્ષેપો કહેવામાં આવે તે સઘળા પક્ષે આ એ સ્થાનામાં 'તત થઈ જાય છે. જેમકે—ધમાં અને અધમમાં ઉપશાન્તમાં અને અને અનુપશાન્તમાં તપ એ છે કે-પરસ્પર વિરૂદ્ધ ધ પક્ષ અને અધમ પક્ષમાં જ સઘળા પક્ષાના સમાવેશ થઇ જાય છે. આ એ પક્ષથી ભિન્ન ત્રીજો ફોઈ પક્ષ સમ્ભવિત નથી. For Private And Personal Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. शु. म. २ क्रियास्थाननिरूपणम् ३२९ ग्रादृशो विस्तारेण विचारः कृतः 'तत्थर्ण इमाई तिन्नि तेवडाई' तत्राऽमूनि त्रीणि त्रिषष्टानि त्रिषष्ट्यधिकानि, 'पावादुयसयाई भवतीति मक्खायाई' मावादुकशातानि भवन्ति इत्याख्यातानि प्रथममधर्मपक्षे त्रिषष्ट्यधिकत्रीणि शतानि तेषामन्तर्भावो भवतीति पूर्वाचार्यैः कथितम् 'तं जहा ' तद्यथा - 'किरियावाईणं अकिरियात्रा अन्माणियवाईण 'वेणइयवाईणं' क्रियावादिनाम् - अक्रियावादिनाम् अज्ञानवादिनाम् विनयवादिनाम् एते परस्परं विवदमाना वादिनः भवन्ति 'ते वि' तेsपि 'परिमित्राणमाहंसु' परिनिर्वाणमाहुः 'ते वि मोक्खमासु' तेऽपि मोक्षमाडुः ते सर्वेsvata मोक्षवादिनो भवन्ति, तथा-'ते लवंति सावगे' तेऽपि पन्ति श्रावकान - तेsपि स्वधर्मोपदेशं स्व-स्वमतावलम्विभ्यः कुर्वन्ति । 'ते वि लवंति सावरसारो' तेऽपि श्रावयितारो पन्ति - स्वकीयधर्मस्योपदेष्टारो भवन्तीति सू. २५=४० मूलम् - ते सव्वे पात्राडया आदिगरा धम्माणं णाणापन्ना नाणाछंदा णाणासीला णाणादिट्टी णाणारुई णाणारंभा जाणाज्झत्रसाणसंजुत्ता एवं महं मंडलिबंधं किच्चा सव्वे एगओ चिति । पुरिसे य सागणियाणं इंगलाणं पाई बहुपडिपुन्नं अओमएणं संडास एणं गहाय ते सव्वे पावाउए आइगरे धम्माणं णाणापन्ने जाव णाणाज्झवसाणसंजुत्ते एवं वयासी-हं भो पावाउवा ! आइगरा धम्माणं णाणापन्ना जाव णाणा अज्झवसाण पहले अधर्मस्थान का जो विचार किया गया है उसमें तीन सौ सठ वादियों (पाखंडियों) का अन्तर्भाव है। जाता है, ऐसा पूर्वा'चार्यों ने कहा है। वे वादी इस प्रकार हैं-क्रियाबादी अक्रियावादी, भज्ञानिक - अज्ञानवादी और विनयवादी । यह सब परस्पर में विवाद करने वाले वादी हैं। वे भी मोक्ष की प्ररूपणा करते हैं तथा अपनेअपने मतावलम्बियों को धर्म का उपदेश करते हैं ||२५|| પહેલા અધમ સ્થાનના જે વિચાર કરવામાં આવેલ છે. તેમાં ત્રણસે ત્રેસઠ વાઢિયા (પાખડિયા) ના અંતર્ભાવ થઈ જાય છે, એ પ્રમાણે પૂર્વાચાર્યા डेल छे. ते वाहय मा प्रभाछे छे. -हियावादी, अडियावाही अज्ञानिए, અજ્ઞાનવાદી અને વિનયત્રાદી છે, તે પણ માક્ષની પ્રરૂપણા કરે છે. તથા પાત પોતાના મતને અનુસરનારાઓને ધર્મના ઉપદેશ આપે છે. ારંપા ” ४२ For Private And Personal Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताहर संजुत्ता । इमं ताव तुम्भे सागणियाणं इंगालाणं पाइं बहुपडिपुन्नं गहाय मुहुत्तगं मुहुत्तगं पाणिणा धरेह, णो बहु संडासगं संसारिय कुजा णो बहु अग्गिथंभणियं कुज्जा णो बटुसाहम्मियक्यावडियं कुजा णो बहु परधम्मियवेयावडियं कुज्जा उज्जुया णियागपडिवना अमायं कुठवमाणा पाणिं पसारेह, इति वुझ्चा से पुरिसे सेसिं पावादुयाणं तं सागणियाणं इंगालाणं पाई बहुपडिपुन्ने अओमएणं संडासएणं गहाय पाणिसु णिसिरइ, तए णं ते पावादुया आइगरा धम्माणं णाणापन्ना जाव णाणाअज्झवसाण संजुत्ता पाणिं पडिसाहरांति, तए णं से पुरिसे सवे पावाउए आइगरे धम्माणं जाव णाणाझवसाणसंजुत्ते एवं क्यासी-हं भो पावादुया ! आइगरा धम्माणं गाणापन्ना जाव णाणाज्झवसाणसंजुत्ता! कम्हा गं तुब्भे पाणिं पडिसाहरह?, पाणि नो डहिज्जा, दड्डे किं भविस्तइ ?, दुक्खं दुक्खंति मन्नमाणा पाणिं पडिसाहरह, एस तुला एस पमाणे एस समोसरणे, पत्तेयं तुला पत्तेयं पमाणे पत्तेयं समोसरणे, तत्थ णं जे ते समणा माहणा एवमाइक्खंति जाव परूति-सवे पाणा जाव सव्वे सत्ता हतवा अजावेयव्या परिघेतव्वा परितावेयव्वा किलामेयत्वा उद्दवेयवा, ते आगंतु छेयाए ते आगंतु भेयाए जाव ते आगंतुजाइजरामरणजोणिजम्मणसंसारपुत्वभवगब्भवासभवपवंचकलंकलीभागिणो भविस्संति, ते बहूर्ण दंडणाणं बहूर्ण मुंडगाणं तजणाण तालणाणं अदु बंधणाणं जाव घोलणाणं For Private And Personal Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् माइमरणाणं पिइमरणाणं भाइमरणाणं भगिणीमरणाणं भजापुत्तधूतसुण्हामरणाणं दारिदाणं दोहग्गाणं अप्पियसंवासार्ण पियविप्पओगाणं बहुणं दुक्खदोम्मणस्ताणं आभागिणो भवि संति, अणादियं च णे अणवयग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकंताणं भुनो मुजो अणुपरियहिस्संति, ते णो सिज्झिस्संति णो चुझिस्संति जाव णो सव्वदुक्खाणं अंतं करिस्संति, एस तुला एस पमाणे एस समोसरणे पत्तेयं तुला पत्तेयं पमाणे पत्तेयं समोसरणे। तत्थ णं जे ते समणा माहणा एवमाइक्खंति जाव एवं परूवेति-सचे पाणा सत्वे भूया सव्वे जीवा सन्चे सत्ता ण हंतव्या ण अज्जावेयव्वा ण परिघेत्तवा ण उद्दवेयवा ते णो आगंतु छेयाए ते णो आगंतु भेयाए जाव जाइजरामरणजोणिजम्मणसंसारपुणभवगम्भवासभववंचकलंकली-भागिणो भविस्संति, ते णो बहूर्ण दंडगाणं जाव णो बहूर्ण मुंडणाणं जाव बहूणं दुक्खदोम्मणस्ताणं णो भागिणो भवि. संति, अणादियं च णं अणवयग्गं दोहमद्धं चाउरंतसंसारकतारं भुजो भुजो णो अणुपरियटिस्संति, ते सिन्झिस्संति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करिस्सति ॥सू० २६॥४१॥ - छाया-ते सर्वे पावादुका आदिकराः धर्माणां नानामज्ञाः नानाच्छन्दसो नानाशीनानाष्टयो नानारुचयः नानारम्भाः नानाऽध्यवसानसंयुक्ताः एकं महान्तं मण्डालन्धं कृत्वा सवें एकतस्तिष्ठन्ति पुरुषश्चकः साम्निकानाम् अमाराणां पात्री बहुमतिपूर्णाम् अयोमयेन संदंशकेन गृहीत्वा तान् सर्वान् पावादुकान् आदिकरान् धर्माणां नानाप्रज्ञान् यावद् नानाऽध्यवसानसंयुक्तान् एवमवादीत इंडो प्रावादुका ? आदिकराः धर्माणां नानापज्ञाः यावन्नानाऽध्यवसानसंयुक्ताः। For Private And Personal Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतामहे इमां तावद् यूयं साग्निकानामगाराणां पात्री बहुप्रतिपूर्णां गृहीत्वा मुहूर्तक मुहूर्त पाणिना धरत नो बहुसंदंशकं सांसारिकं कुरुत नो अग्निस्तम्भनं कुरुत नो बहु साधर्मिकवैयावृत्त्यं कुरुत नो बहुपरधार्मिकवैयावृत्य कुरुत ऋजुकाः नियागपतिपन्नाः अबायां कुर्वाणाः पाणि प्रसारयत । इत्युक्त्वा स पुरुष स्तेषां पावादुकानां तां साग्निकानामङ्गाराणां पात्री बहुपतिपूर्णाम् अयोमयेन संदंश केन गृहीत्वा पाणिषु निसृजति, ततः खलु ते पावादुका आदिकराः धर्माणां नानाप्रज्ञा यावन्नानाऽध्य. कसानसंयुक्ताः पाणि प्रतिसंहरन्ति ततः खलु स पुरुषः तान सर्वान भाषादुकान आदिकरान् धर्माणां यावद् नानाध्यवसानसंयुक्तान एवमवादीत् , हो मावादुकाः ! आदिकराः धर्माणां नानापज्ञाः यावन्नानाध्यवसानसंयुक्ताः! कस्मात् खलु यूयं पाणि प्रतिसंहरथ पाणिं नो दहेत् , दग्धे कि भविष्यति ? दुःवं दुःख मिति-मन्यमानाः पाणि प्रतिसंहरथ, एषा तुला एतत् प्रमाणम् एतत् समवसरणम् प्रत्येकं तुळा प्रत्येकं प्रमाणं प्रत्येकं समवसरणम् । तत्र ये ते श्रमणाः माहनाः एवमा. रुयान्ति यावत् मरूपयन्ति सर्वे पाणाः यावत् सर्वे सत्त्वाः हनाव्या आज्ञापयितव्याः परिग्रहीतव्याः परितापयितव्याः क्लेशयितव्याः उपद्रावयितव्याः, ते आगामिनि छेदाय ते आगामिनि भेदाय यावर ते आगामिनि जातिजरामरणयोनिजन्मसंसारपुनर्भवगर्भवासभवमपञ्चकलंकलीमागिनो भविष्यन्ति । ते बहूनां दण्डनानां बहूनां मुण्डनानां तर्जनानां ताडनाना मुबन्धनानां यावद् घोलनानां मातमरणानां पितृमरणानां भ्रात मरणानां भगिनीमरणानां भार्यापुत्रदुहितम्नुषामरणानां दारिद्रयाणां दौर्भाग्यानामपियसहवासानां मियविप्रयोगानां बहूनां दुःखदौमनस्या नामामागिनो भविष्यन्ति, अनादिकं च खलु अनवदनं दीर्घमध्वं चातुरन्तसंसारकान्तारं भूयो भूयः अनुपर्यटिष्यन्ति, ते नो सेत्स्यन्ति नो भोत्स्यन्ति यावन्नो सर्वदुःखानामन्तं करिष्यन्ति । एषा तुला एतत् प्रमाण मेतत् समवसरणम् , प्रत्येक दुका प्रत्येकं प्रमाण प्रत्येकं समवसरणम् । तत्र खलु ये ते श्रमणाः माहनाः एवमा. ख्यान्ति यावदेवं मायन्ति सर्वे माणा सर्वाणि भूतानि सर्वे जीवाः सर्वे सचाः न हन्तव्याः नाज्ञापयितव्याः न परिग्रहोतव्याः नोपदावयितव्याः ते नो आगा. मिनि छैदाय ते नो आगामिनि भेदाय यावज्जातिजरामरमयोनि जन्मसंसारपुनभक्गर्भवासमवप्रपञ्चकलंकलीभागिनो भविष्यन्ति । ते नो बहूनां भवां यावमो बहनां गुण्डनानां यावद् बहूनां दुःखदौर्मनस्यानां नो भागिना भविष्यन्ति। मनादिकं च खल अनवदनच दीर्घषधं चातुरन्तसंसारकान्तारं भूयो भूयः नो अनुपठिष्यन्ति। से सेत्स्यन्ति ते भोत्स्यन्ति यावत् सर्वदुःखानामन्वं करिबन्ति ।।५० २६॥४१॥ For Private And Personal Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सैमयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूप टीका-पर्वधर्माणां प्रधानभूतो धर्कोऽहिंसाधर्मः स च सर्वशास्त्रागां सारभूत इति धोतयितु मुमतिपूरक पइविंशतितम मूत्रमाह-'ते सः' इत्यादि । 'ते सन्चे ते सर्वे 'पागाउया' पापादुका:-प्रवरवाऽलम्बिनो ये सर्वज्ञपतिपादि. तमागमं न मन्यन्ते तेषां नाम मात्रादुका स्ते संख्या विष्ट्यधिकत्रिशतसंहपकार, आदिकराः, एते वादिनः एवं वदन्ति क्यो । धादिकार के सानिमे भादि. करास्ताह-'धम्माण' धांगाम, ते कयंभूतास्तत्राह-'णाणापमा' नानामज्ञा:अनेकपकारकमतिमन्तः 'गाणाछंद' नानाछन्दसोऽनेकप्रकारकाऽभिप्रायन्ना, 'णाणासीला' नानाशीला:-नानावान्तः 'णाणादिहो" नानादृष्टया-नानासहित दर्शनं येषां ते तथा, 'णाणाई' नानारुवयः नानाऽभिप्रायवन्तः 'गामारंभा' नानारमा अनेकपकारकाऽऽरम्ममामातरः 'गागाझवसागसंजुना' नानाऽध्यसा संयुक्ताः-अनेकपकारकनिश्च पन्तः 'एग महं मंडलिबंध किया ___ अहिंसाधर्म सब धर्मों में प्रधान है और वही समस्त शास्त्रों का सार है। इस तथ्य को प्रकट करने के लिए युकिन पूर्वक छब्बीसवां सूत्र कहते हैं 'ते सव्वे' इत्यादि । टीकाथे-जे। अन्य मत का अवलम्बन करने वाले और सर्वज्ञ के द्वारा प्रतिपादित आगम को न मानने वाले वादी है, उन्हें यहां प्रावादुक' कहा है । संख्या में वे तीन सौ त्रेत हैं। उनका यह कहना है कि हम ही धर्मों की आदि करने वाले हैं। वे नाना प्रकार की प्रज्ञा वाले हैं अर्थात् उनकी समझ परस्पर विरोधी होने से अनेक प्रकार की है। उनके अभिप्राय, शील व्रत, दर्शन ओर रुचि भो नाना प्रकार को हैं। वे अनेक प्रकार के आरंभ समारंभ किया करते हैं। और उनके निश्चय भी अनेक प्रकार के होते हैं। અહિંસા ધર્મ સઘળા ધર્મોમાં પ્રધાન મુખ્ય છે. અને એજ શાસ્ત્રોને સાર છે. આ સત્ય-તથ્યને બતાવવા માટે યુક્તિ પૂર્વક છવ્વીસમું સૂત્ર કહે वामां आवे छे.-'ते सव्वे' याहि । ટીકાર્થ-જેઓ અન્ય મતનું અવલમ્બન કરવાવાળા અને સર્વજ્ઞ દ્વારા પ્રતિપાદન કરવામાં આવેલા આગમને ન માનવાવાળા વાદી છે. તેઓને અહિયાં “પ્રાવક કહેલ છે. તે એ ત્રણને ત્રેપઠની સંખ્યામાં છે. તેઓનું કહેવું એ છે કે અમે જ ધર્મની આદી કર વાળા છીએ તે અનેક પ્રકારની પ્રજ્ઞાવાળા છે. અર્થાત તેઓની સમજણ પરસ્પર વિરોધી હવામી અનેક પ્રકારની છે. તેઓને અભિપ્રાય શીલ-વત દર્શન અને રૂચિ પણ અનેક પ્રકારની છે. તેઓ અનેક પ્રકારને આરંભ સમારંભ કર્યા કરે છે. અને તેઓને નિશ્ચય પણ અનેક પ્રકાર હોય છે. . . For Private And Personal Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतशिस्त्र सम्वे एगो चिटुंति' एकं महान्तं मण्डलिवन्धं कृत्वा सर्वे एकत स्तिष्ठन्ति-स्वमतपचारार्थ समुदिता एकत्र तिष्ठन्तीत्यर्थः, योकत्र कचित्स्थाने सर्वे इमे उपविष्टारो भवेयुः तदा इमान कोऽपि पुरुषः पृच्छन्-भो भोः ! एकं वहिपूर्णपात्रं हस्ते कुरुत, तदा ते तथा कुयुः तत स्तेषां इस्तौ अधक्ष्यतः-ततः केचा वदन्ति अहो अत्याहितम्, भवनो हस्तौ मन्मलितो। स वदति तावता का हानिः, ते वदन्ति तव पीडा जायते। ततस्तान संबोध्य. प्रबोधयन स आह-यथा वह्निसंपर्काद्भवतापङ्गपीडा तथैव सर्वेषां प्राणिनामपि असमतां पीडा जायते । तस्मान केऽपि जीवाः पीडनीयाः, संहवा:अमुमेव दृष्टान्तमुपादाय सर्वे जीवा रक्षणीया:-अहिंसेव पालनीया. दया च भूतेषु विधेया । कश्चिदेक आस्तिकस्तान प्रतिबोधयितुमाह-'पुरिसे य' इत्यादि । 'पुरिसे य' पुरुषश्चकः 'सागणियाणं इंगालाण' साग्निकानामङ्गाराणाम् ‘पाई' पात्रीम् 'बहुपडिपुन्न अओमएणं' वहिमतिपूर्णाम् अयोमयेन 'संडासएण' संदेश केनकोहदण्डेन 'गहाय' गृहीत्वा ते सचे' तान् पावादकान्-अनेकपकारक-मतवादिनः 'आइगरे धम्माणं' धर्माणामादिकरान् ‘णाणापन्ने नानापज्ञान 'जाव णाणाझा. सागसंयुत्ते' यावत्-नानादुध्यवसानसंयुतान् ‘एवं क्यासी' एवमवादी-तान मावादुकान्-एवं कथिमान्-पुरुषोऽग्निपात्रं गृहीत्वा 'हं भो पाउया' ह भोः मावादुका:- भो भोः नानामतावलम्बिनः ! 'आइगरा धम्माणं' धर्माणामादिकरा, 'णाणापन्ना' नानामज्ञाः 'जाव णाणाअज्झरसाणसंजुत्ता' यावन्नानाऽध्यवसानसंयुक्ताः, 'इमं तात्र तुम्भे सागणियाणं इंगालणं पाई' इमां तावद् यूयं साग्नि कानामगाराणां पात्रीम्, 'बहुपडिपुन्न' बहुपतिपूर्णाम् 'गहाय' गृहीत्वा 'मुहुनयं मुहुत्त' मुहूर्त मुहूर्तकम् 'पाणिणा धरेह' पाणिना धरत-इस्तेन ग्रहगं कुरुत 'णो । ये सब प्रावोदुक गोल चक्कर घना कर एक स्थान पर बैठे हो ऐसे समय में कोई पुरुष अग्नि के अंगारे से परिपूर्ण भाजन को लोहे की संडासी से पकड़ कर उन धर्मों की आदि करने वाले, नाना प्रकार की प्रज्ञा वाले यावत् नाना प्रकार के निश्चय वाले प्रापादुकों से कहेहे परवादियों ! अग्नि के अंगारों से भरे हुए इस भाजन को लेकर આ સઘળા “પ્રાવાદુક વાદીઓ ગેળ ચક્ર બનાવીને એક સાથે બેડા હોય તેવા સમયે કે પુરૂષ અગ્નિના અંગારાથી ભરેલા પાત્રને લેખંડની સકસીથી પકડીને તે ધર્મોના આદિ કરવાવાળા, અનેક પ્રકારની પ્રજ્ઞા બુદ્ધિ વાળ, યાત્ અનેક પ્રકારના નિશ્ચયવાળા “પાવાદુકો વાદીને કહેવામાં આવે કે-હે પરવાદિયે ! અગ્નિના અંગારાથી ભરેલા આ પાત્રને લઈને તમે For Private And Personal Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयाबोधिनी टीका वि. श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् संडासगं संसरियं कुवा' नो संदशकं सांसारिक कुरुत-संदंशकसाहास्येन-संदंशकस्य बलेन मा गृह्नत। 'णो बहुअग्गिथंभणियं कुज्जा' नो अग्निस्तम्भनं कुरुत 'गो बहुसाहम्मियवेयावडियं कुज्जा' नो साधर्मिकवैयावृत्यं कुरुत, स्वधार्मिकान् भने नाग्निना उपकारं मा कुरुत, 'णो बहुपरधम्मियषेयावडियं कुज्जा' परधार्मिकाणां यावृत्यमपि नो कुरुत, किन्तु-'उज्जुयाणियागपडिबन्ना अमायं कुच्चमाणा पाणि पसारेह' जुकाः नियागपतिपन्नाः अमायां कुर्वाणाः पाणि प्रसारयत, 'हा बुधा' इत्युक्त्वा 'से पुरिसे' स पुरुष: 'तेसिं पावायाण' तेषां पागदुकानाम् 'त' तास 'सागणियाण इंगालाणं पाई' साग्निकानामगाराणां पात्रीम् 'बहुपडिपन्न अयोमा एणं' परिपूर्णामयोमयेन लोहनिर्मितेन 'संडासएणं' संदंशकेन 'गहाय' गृहीत्वा 'पाणिमु निसिरइ' पाणिषु निमृजति-हस्ते प्रक्षिपति, तएणं तं पावादुया आइगरा धम्माणं गाणापन्ना' ततः खलु ते मागदुकाः धर्माणामादिकरा नानाप्रज्ञाः 'जाव गाणा अज्झक्साणसंयुत्ता' यावन्नानाऽध्यवसानसंयुक्ताः 'पाणि पडिसाहरंति' पाणि -हस्तं प्रतिसंहरन्ति-हस्तौ संकोचयन्ति-वहितः पृथक्कुर्वन्ति 'तए णं से पुरिसे' तदनु स पुरुषः 'ते सव्वे पावाउए' तान सर्वान् प्रावादुकान 'आइगरे धम्माणं' आप लोग थोड़े समय तक अपने-अपने हाथ से पकड़िए । संडासी की सहायता मत लीजिए । अग्नि का स्तंभन भी मत कीजिए। साधर्मिकों का वैयावृत्य मत कीजिए अर्थात् इस अग्नि से अपने सार्मिकों का उपकार न कीजिए। और न पर धार्मिकों का वैयावृत्य कीजिए। किन्तु सरल एवं मोक्षाराधक धन कर कपट न करते हुए हाथ फैलाइए। __इस प्रकार कह कर वह पुरुष उन धर्म की आदि करने वाले परधादियों के हाथों में उस अग्नि के अंगारों से परिपूर्ण भाजनों को संडासी से पकड़ कर रखने लगे, तब वे धर्म की आदि करने वाले, नाना प्रकार की प्रज्ञा वाले यावत् नाना प्रकार के निश्चयों वाले पर. થોડા થોડા સમય સુધી પિત પિતાના હાથથી પકડે, સાડસીનું સહાયપણું લેવું નહીં. અગ્નિનું સ્તંભન પણ ન કરવું. અર્થાત્ તે અગ્નિથી પિતાના સાધર્મિકનું વૈયાવૃત્ય કરો પરંતુ સરળ અને મેક્ષારાધક બનીને કપટ ન કરતાં હાથ ફેલા અર્થાત્ હાથ ધરો. આ પ્રમાણે કહીને તે પુરૂષ તે ધર્મના આદિ કરવાવાળા પરવાદિના હાથમાં તે અગ્નિના અંગારાથી પરિપૂર્ણ ભરેલા પાત્રોને સાંડસીથી પકડીને રાખવા લાગ્યા. ત્યારે તે ધર્મના આદિ કરવાવાળા અનેક પ્રકારની પ્રજ્ઞાવાળા, થાવત્ અનેક પ્રકારના નિશ્ચયવાળા પરવાદિયે પિતાના હાથને સંકેચીને For Private And Personal Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जाय णागारमसाणसंजुते' धर्माणामादिकरान् यावन्नानाऽध्यवसानसंयुक्तान 'एवं क्यासी' एवमयादीत 'हं भो वाउया। हं हो पावादुकाः ! 'आइगस धर्माणामादिकरा: 'णाणापन्ना' नानाप्रज्ञाः 'जाव गाणायज्झरसाणसंजुत्ता' पावन्नानाऽध्यवसानसंयुक्ताः 'कम्हाणं तुम्मे पाणि पडिसाइरह' कस्मात् कारणात् खड यूयं पाणि पतिसंहरय-कथं वहिन हस्तं पृथक् कुरुथ 'पाणि नो उहिज्जा' पाणि नो दहेदिति प्रतिवचनम्-ते मतवादिन एवं कथयन्ति-पाणिः अस्माकं म भस्मी भूतो भवेदतः संहरामा । परान पुनः पृच्छति-दड्रे कि भविस्साई' दग्धे कि भविष्यति-यदि हस्तौ दहेन तदा कि युष्माकम् 'दुक्खं दुक्खंति मन्न. भाणा पाणि पडिसाहह' दुःखं दुश्वमिति मन्यमानाः पाणि पतिसंहस्थ, यदि पहिमज्वालनेन ते दुःखं भवतीति मत्वा पाणिपतिसंहस्थ, तदा-एव नीति जीव मात्र शेगा। एतदेव सर्वना प्रवलं प्रमाणमिति । तदुक्तम्पादिक अपने हाथों को सिकोड़-संकोचित कर लेते हैं अर्थात् उस भाजन को हाथों में लेने को तैयार नहीं होंगे। तब वह पुरुष उन धर्म की आदि करने वाले यावत् नाना प्रकार के निश्चय वाले वादियों से इस प्रकार कहे-हे धर्म की आदि करने वाले, यावत् नाना प्रकार का निश्चय करने वाले परवादियों ? आप अपने हाथ क्यों सिकोडते हैं ? इस अग्नि के। हाथ में लेते क्यों नहीं हैं ! तब वे प्रावा. दुक उत्तर देंगे कि-हमारा हाथ जल जाएगा ! अर्थात् हाथ जल जाने के भय से हम हाथ सिकोड़ रहे हैं। तब वह पुरुष कहता है-हाथ जल जाने से क्या हानि है। तब वे कहेंगे-दुःख होगा । तब वह पुरुष कहता है-पदि अग्नि से जलने के कारण तुम्हें दुःख का अनुभव होता है तो લઈ લે છે. અર્થાત તે પાત્રને હાથમાં લેવા માટે તૈયાર થતા નથી, ત્યારે તે પુરૂષ તે ધર્મોની આદિ કરવાવાળા યાવત અનેક પ્રકારના નિશ્ચયવાળા વાદિને આ પ્રમાણે કહ્યું- હે ધર્મના આદિ કરવાવાળા, અનેક પ્રકારની પ્રજ્ઞાવાળા, થાવત્ અનેક પ્રકારને નિશ્ચય કરવાવાળા પરવાદિયે તમે તમારા હાથે કેમ સંકેચી લે છે? આ અગ્નિને હાથમાં કેમ લેતા નથી? ત્યારે તે પ્રાવાદુકે ઉત્તર આપશે કે-અમારા હાથે બળી જશે. અર્થાત્ હાથ બળવાના ભયથી અમે હાથ સંકેચી રહ્યા છીએ. ત્યારે તે પુરૂષ કહે છે કે હાથ બળી જવાથી શું નુકશાન છે ? ત્યારે તેઓ કહેશે કે-દુઃખ થશે. ત્યારે તે પુરૂષ કહે છે કે-જે અગ્નિથી બળવાને કારણે તમને દુઃખને For Private And Personal Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समार्थबोधिनी टीका द्वि. शु. म. २ क्रियास्थाननिरूपणम् 'प्रत्याख्याने च दाने च सुखदुःखे प्रियाऽप्रिये । अत्मौपम्येन पुरुषः प्रमाणमधिगच्छति' ।। इति ।। 'एस तुला एस पमाणे एस समोसरणे पत्तेयं तुला पत्तेयं पमाणे पर्यं समोसरणे' एषा तुला तुलानाम - साहइयम् - अन्यजीवेन सह एतत्प्रमाणम्, एतत्समवसरणम्, समवसरणं धर्माणामभिप्रायः यथा अस्माकं दुःखं न संमतं तथा प्रत्येकजीवानाम् । प्रत्येकं तुला, प्रत्येकं प्रमाणम्, प्रत्येकं समवसरणम् स्वानुभूतदुःखममार्ण - यथा यया कयाऽपि पीडया भवतां मनो दुःखयति तथैव सर्वे प भवतीति स्वानुभूतानुभवप्रमाणेन सम्यग् ज्ञास्त्रा हिंसया प्रतिनिवर्त्तयथ । सर्व धर्मापेक्षा वस्तुतोऽहं सर्वतः प्रधाना। तामेाऽहिंसां शाखकारो दृष्टान्तद्वारा प्रदर्शयति । 'तत्थ णं जे ते समणा मारणा पत्रमा इक्वंति जान परूवे ति प्रत्येक प्राणी के लिए भी यही नीति समझनी चाहिए। यही सबसे बड़ा प्रमाण है। कहा भी है- 'प्रत्याख्याने च दाने च' इत्यादि । टीकार्थ- 'प्रत्याख्यान, दान, सुख, दुःख, प्रिय और अप्रिय के विषय में मनुष्य अपनी ही उपमा से सही निर्णय पर पहुँचता है। ३३७ वह पुरुष कहता है - यही यथार्थ निर्णय करने की तुला (तराजु) है, यही प्रमाण है, यही समवसरण है । जैसे व्यथा से आपके मन को दुःख होता है, उसी प्रकार सब प्राणियों को दुःख होता है, स्वानुभव प्रमाण से इस तथ्य को जानकर हिंसा से निवृत्त होना चाहिए। अहिंसा ही सब धर्मों में प्रधान धर्म है । उसी को शास्त्रकर दृष्टान्त द्वारा दिखलाते हैं અનુભવ થાય છે, તે દરેક પ્રાણીને પણ એજ હકીકત સમજવી જોઇએ. એજ સૌથી મેટું પ્રમાણ છે. કહ્યું પણ છે કે— 'प्रत्याख्याने च दानेच' त्याहि प्रत्याभ्यान, हान, सुख, दु:ख, प्रिय, भने अप्रियना संबंधभां मनुष्य પેાતાની જ ઉપમાથી દાખલા ચેાગ્ય નિશ્ ય કરી શકે છે. For Private And Personal Use Only તે પુરૂષ ફરીથી કહે છે કે--આાજ ચાગ્ય નિશ્ય નિશ્ચય કરવાની તુલા (त्राभ्वा छे, साथ अमाणु के साथ समवसरण छे, प्रेम व्यथा - पीडाथी પેાતાના મનમાં દુઃખ થાય છે, એજ પ્રમાણે સઘળા પ્રાણિયાને દુઃખ થશે. પેાતાના અનુભવના પ્રમાણથી ધમ' આ તથ્ય-સત્યને જાણીને હિંસાથી નિવૃત્ત થવું જોઈએ. અહિંસા જ સઘળા ધર્મોમાં મુખ્ય ધર્મ છે, તેને જ શાસ્ત્રકાર દૃષ્ટાન્તથી હવે ખતાવે છે, सु० ४३ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे , ar खलु ये ते श्रमणा माहना एवमाख्यान्ति - कथयन्ति यावत् प्ररूपयन्ति छोकेभ्यः, किन्ते प्रतिपादयन्ति तत्राह - 'सव्ये पाणा जात्र सव्वे सत्ता हतब्बा' सर्वे प्राणाः यावत् सर्वे जीवाः सर्वे भूताः सर्वे सचाः हन्तव्याः दण्डादिविस्वाडयितव्याः 'अज्जावे पन्ना' आज्ञापयितव्याः अनभिमतकार्येषु प्रवर्त्तयितव्या 'परिषेच्या परितावेयन्ना किलामेयन्वा उदवेयन्त्रा' परिग्रहीतव्याः- दासदासीरू पेण परिग्रहेण स्वाधीने नेतव्याः परितापयितव्याः - अन्नपानाय वरोधेन ग्रीष्मातपादौ स्थापनेन पीडनीयाः, क्लेशयितम्याः- तत्र क्लेशो बन्धनादिना खेदोत्पादनम्, उपद्रावयितव्याः- विपशखादिना मारयितव्याः एवमुपदिशन्ति, ते श्रमणाः परतीर्थिकाः एवमुपदिशन्तः एवं क्रोशन्तम, हिंसाजन्यपापफलमाह से भागेतुबाए' ते आगामिनि छेशप, यथेदानों तान् छिन्दन्ति तथा भविष्यकाळे इहैवजन्मनि भवान्तरे वा स्वयमपि उच्छिन्ना भविष्यन्तीति-स्वोच्छेदाय 'ते आगंतुभेयाए' ते अगामिनि भेदाय - भविष्यत्काले भेदनादि प्राप्त्यर्थम् 'जाब ते आगंतु जाइजरामरणजोणिजम्मण संसारपुणमवगन्भवासभवपर्वचकलं कळी भागिणो भविस्संति' यावत्ते आगामिनिजातिजरामरणयोनिजन्मसंसार पुनर्भवगर्भवासभत्रप जो श्रमण और ब्राह्मण ऐसा कहते हैं यावत् लोगों के सामने प्ररूपण करते हैं कि सभी प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्वों का हनन करना चाहिए, दास-दासी रूप में ग्रहण करना चाहिए, उनको भोजन - पानी रोक कर अथवा धूप आदि में खडा करके संताप पहुंचाना चाहिए, बन्धन आदि में डालकर खेद उत्पन्न करना चाहिए, विष या शस्त्र आदि से मार डालना चाहिए, ऐसा कहने वाले, बकवाद करने वाले वे श्रमण और ब्राह्मण भविष्यत् काल में, इसी जन्म में अथवा आगामी जन्म में अपना ही छेदन-भेदन आदि करने वाले हैं, उन्हें आगे चलकर छिन्न-भिन्न होना पडेगा । उन्हें जाति नरक एवं निगोद જે શ્રમણુ અને બ્રાહ્મણ એવું કહે છે કે--યાવત્ લકાની સામે પ્રરૂપણા કરે છે કે સઘળા પ્રાણિયા, ભૂતા, જીવા અને સત્વેનુ હનન કરવું જોઇએ. તેએના આહાર-પાણી રોકીને અથવા તડકા વિગેરેમાં ઉભા રાખીને સતાપ પહેાંચાડવા જોઇએ. ધન વિગેરેમાં નાખીને તેઓને ખેદ કરાવવા लेडो, विष-अथवा शस्त्र विगेरेथी भारी नामवा लेहा थे. मेवु देवावा. ળામા મકવાદ કરવાવા, શ્રમણ અને બ્રહ્મણું ભવિષ્ય કાળમાં આાજ જન્મમાં અથવા આવનારા જન્મમાં પેાતાનુ' જ છેદન, ભેદન વિગેરે કરે છે, તેને પેાતાને જ આગળ પર છિન્ન, ભિન્ન થવું પડશે. તેઓને નરક અને નિગેાદ વિગેરેમાં ઉત્પત્તિ, જરા, મરણ, જન્મ પુનઃભવ, વારંવાર ભવ્ For Private And Personal Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् पञ्चकलंफलीमागिनो भविष्यन्ति, तत्र-नरकनिगोदादी जाति रुत्ततिः जरा-वार्धक्यम्, मरणं-मृत्युः, जन्म-नरकनिगोदादि योनिषु जननं जन्म, संसारपुनर्भयःसंसारे पुनः पुनर्जन्मग्रहणम्, गर्भवासः-पुनपुनर्गर्भपातिः, भवप्रपश्चा-सांसारिक प्रपश्चः, कलं कलीमायो नाम संसारगर्मादिपर्यटनम् एतेनागन्तु जातिजरामरगादीन भजन्ते ये ते तथा भूता भविष्यन्तीति । ये इत्थमुपदिशन्ति जोवहिंसाम्. तथा ये कुर्वन्ति च प्राणातिपातम्, नैतावदेव, किन्तु-इहैव भवे-'ते बहूर्ण दंडणाणं' ते बहूनां दण्डनानाम् 'बहूर्ण मुंडणाण' बहूनां मुण्डनानाम्, 'तजणाणे तर्जनानाम् अङ्गुरयादिना 'तालगाणं' ताडनानाम् दण्डादिना 'जाव घोलगाण' यावद् घोल. नानाम्-दधिभाण्डवन्मथनानाम्, यावत्पदेन-उन्धनानाम्, 'कसा' इति प्रसिद्धा. नाम तथा-'माइमरणाणं पिइमरणाणं भाइमरणाणं भगिणीमरणाणं' मानमरणानां पितृमरणानां भगिनीमरणानाम् 'मज्जापुत्तधूनसुहामरणाणं' भार्या-पुत्र-दुहितस्नुषा मरणानाम्, 'दारिदाण' दारिद्रयाणाम् 'दोहग्गाणं' दौर्भाग्यानाम्, अपि. यसंघासाणे' अभियसहवासानाम् 'पियविप्पोगाणं' मियविषयोगानाम् 'बहूगं' दुक्खदोम्मगस्साण' दुःखदौमनस्यानाम् 'आभागिणो भविसति' आभागिनो भविष्यन्ति-उपरोक्तानां वियोगजनितदुःखानां मागिनो भविष्यन्ति-हिंसाकारोऽनुमोदयितारो वा परतीथिकाः, तथा-'अगाइयं च ण' अनादिकं च खलु, नास्तिआदियस्य सोऽनादिः अनादिरे। अनादिकस्तम् 'अणप्रयागं' अनादनम्-न विद्यते आदि में उत्पत्ति, जरा, मरण, जन्म, पुनर्भव-पुनः-पुन भवधारण गर्भवास एवं भव भ्रषण का भागी होना पडेगा। जीवहिंसा का उपदेश देने वाले और जीवघात करने वाले इसी भव में बहुत-से दण्ड, मुण्डन, तर्जना, ताड़ना और घोलना (मथन) एवं उबंधन आदि के पात्र होते हैं। ये पितृमरण, मातृमरण, भ्रातृमरण, भागिनीमरण, पत्नी मरण, पुत्र मरण, दुहिता मरण, पुत्रवधूमरण, दरिद्रता, दुर्भाग्य, अनिष्ट संयोग, इष्टवियोग इत्यादि दुःखों और दौमनस्यों के भागी होंगे वे अनादि अनन्त, दीर्घ कालीन चारगति वाले संसार रूपी धन ધારણ, ગર્ભવાસ અને ભવભ્રમણના ભાગી થવું પડશે. જીવ હિંસાને ઉપદેશ આપવાવાળા અને છાની હિંસા કરવાવાળા આજ ભવમાં ઘણા એવા દંડ, મુંડન, તજના તાડના અને ઘોળવું (મંથન) તથા ઉદ્દે બંધન વિશેરિના પાત્ર બનવું પડે છે. તેઓ પિતૃ મરણ-પિતાના મરણ-માતાના મરણ, ભાઈને મરણ, બહેનના મરણ સ્ત્રીના મરણ, પુત્ર મરણ, પુત્રી મરણ, પુત્રવધૂનું મરણ, દરિદ્રપણુ, દુર્ભાગ્ય અનિષ્ટ સંગ ઈષ્ટ વિગ વિગેરે દુખે અને દોર્મના ભાગી બનશે. તેઓ અનાદી, અનંત, દીઘ કાળ સંબધી For Private And Personal Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतास्त्रे अवदन-पर्यन्तो यस्य तथाभूतम्-अन्तरहितम् 'दीहमदं' दीर्घमध्वम्, 'चाउरंतसंसारकंता' चातुरन्तसंसारकान्तारम्, चतुरन्तं चतुर्विमागं नरकत्वादिभेदेन वदेव चातुरन्तं तच्च तत् संसारकान्तारं च चातुर्गतिकसंसारारण्यम् 'मुन्नो भुनो' भूयो भूयो भूयोऽनन्तवारमिति यावत् 'अणुपरियटिस्संति' अनुपर्यटिष्पन्ति-परिभ्र. मणं करिष्यन्ति ते णो सिन्झिस्संति' ते नो सेत्स्यन्ति-सिद्धिगति कदापि न प्राप्स्यन्ति । 'णो बुझिस्संति' नो भोत्स्यन्ति-बोधमागिनः केवलिनो न भविष्यन्ति 'जाव णो सम्बदुक्खाणं अंतं करिस्सति' यावन्नो सर्वदुःखानामन्तं करिष्यन्ति-सर्वाणिशारीरिकमानसादीनि तेषामन्तं-नाशं न करिष्यन्ति, 'एस तुला' एषा तुला-स्वयू. थिकानामपि 'एस पमाणे' एतत्पमाणम्-परपीडा न कर्तव्या एतदेव प्रमाणमन्यद. प्रमाणम् 'एस समोसरणे' एतत्समवसरणम्-आगमसारः-परपीडा न कर्तव्या इत्येवं प्रत्येकं जीवं मति सादृश्यम्, 'पत्तेयं तुला' प्रत्येकं तुला 'पत्तेयं पमाणे' प्रत्येक प्रमाणम्-परपीडा न कर्त्तव्या इत्येवं प्रत्येकं जीवं प्रतिप्रमाणम् ‘पत्तेयं समोसरणे प्रत्येकं समवसरणम्-परपीडा न कर्तव्या इत्येवं प्रत्येकं जीव पति शास्त्रसार, हिंसकानां मार्ग प्रदर्थाऽहिंसकानां मार्गमाह-'तत्य ण जे ते समणा माहणा एव माइक्खंति जाव पवेति' तत्र खलु ये ते श्राणा माहना एवमाख्यान्ति यावदेवं में वार-वार अर्थात् अनन्त वार परिभ्र नण करेंगे। वे सिद्धि नहीं प्राप्त कर सकेगे, बोध के भागी नहीं होंगे, यावत् सर्व शारीरिक-मानसिक दुःखों का अन्त नहीं कर सकेंगे। यही सब के लिए तुला है और यही प्रमाण है कि दूसरों को पीड़ा नहीं पहुंचाना चाहिए। इसके अति. रिक्त अन्य अप्रमाण है। परपीडा न उत्पन्न करना ही समवसरण अर्थात् आगम का सार है। यह सभी प्राणियों के लिए समान है। प्रत्येक के लिए प्रमाण है । प्रत्येक के लिए यही आगम का सार है। ચાર ગતિવાળા સંસાર રૂપી વનમાં વારંવાર અર્થાત્ અનંતવાર પરિભ્રમણ કરશે. તે સિદ્ધિ પ્રાપ્ત નહીં કરી શકે, બંધના ભાગી થશે નહીં. યાવત તેઓ શારીરિક અને માનસિક દુખેને અંત કરી શકશે નહીં. આજ બધાને માટે તુલા સમજવી. અને એજ પ્રમાણ છે કે-બીજાઓને પીડા કરવી ન જોઈએ. આ શિવાય બીજું અપ્રમાણે છે. આ પીડા ન ઉપજાવવી એજ સમવસ અર્થાત્ આગમને સાર છે. આ પણ પ્રાણ માટે સમાન છે. દરેકને માટે પ્રમાણ છે. દરેકને માટે આજ આગમને સાર છે તેમ સમજવું. For Private And Personal Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि.श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् परूपयन्ति, कि तत्तत्राह-सव्वे पागा सम्बे भूया सव्वे जीया सव्वे सता ण हंतव्वा ण अन्नावेयव्वा ण परिवे तव्या' सर्वे प्राणाः सा भूताः सर्वे जोवाः सों सत्त्वाः न हन्नाव्याः, नाऽज्ञापयितव्याः, न परिग्रहोतव्याः ‘ण उद्दवे कथा' नो पदावयितव्याः, ये महानु मावा एवमुपदिशनि पाल पनि चाऽहिंसोपदेशं तेषामेते दण्डा न भवन्ति इति दर्शयन्ति । 'ते गो आगंतु छे गए' ते नो आगामिनि छाय भवन्तीतिशेषः, 'ते णो आगंतु भेषाए' ते नो-आगन्तुकभेदाय 'जाव जा जरामरण नोणि नम्मणसंपारपुणभागमवासमवपवंचकलं कलोभागिगो भविसति' याग्जातिजरामरण योनिजन्मसंसारपुनर्भवावासमपश्चलोभागिनो भः विष्यन्तोति शेषः । व्याख्यात-पूतोऽयं ग्रन्थ । 'ते णो बहूगं दंडगाणे ते नो बहूनां दण्डानाम् 'जाव णो बहूणे मुंडणाणं' यावन्नो बहूनां मुण्डनानाम्-बहूना तानां बहूनां ताडनानां बहूनामवन्धनानां यावा निगडबन्धनानां हाडिबन्धनानां चारकबन्धनानां निगड़युगळसंकुचितमोटितानां हस्तछिन्नकानां कर्णछिन्नकानां हिंसकों का मार्ग बतलाकर अहिंसकों का मार्ग कहते हैं-जो श्रमण और ब्राह्मण ऐसा कहते एवं प्ररूपणकरते हैं कि-सब प्राणियों भूतों जीवों और मत्त्वों का हनन नहीं करनाचाहिए, उन्हे उनके अनिष्ट कर्म में नहीं लगाना चाहिए, अपना गुलाम नहीं बनना चाहिए, उनको पूर्वोक्त दंड कुफल नहीं भुगतने पड़ते। आगामी काल में उनको छेदन और भेदन का पात्र नहीं होना पडता, यावत् उत्पत्ति, जरा, मरण, जन्म, संसार, पुनर्भव, गर्भवास एवं भवप्रपंच का पात्र नहीं बनना पड़ता। उन्हे वहूत से दंड, मुंडन, तर्जना, ताडना, उद्धन्धन, निगडपन्धन, हडिबन्धन, चारकबन्धन, दोनों हाथ मरोड कर हथ. कडियों के बन्धन, हस्तछेदन, पदछेदन, कर्ण छेदन, नासिका-छेदन, - હિંસકને માર્ગ બતાવીને હવે અહિંસકોને માર્ગ બતાવવામાં આવે છે. જે શ્રમ અને બ્રાહ્મણ એવું કહે છે એવી પ્રરૂપણ કરે છે. કે-સઘળા પ્રાણિયે, ભૂતે, જીવે અને સોનું હનન કરવું ન જોઈએ. તેને તેના એગ્ય કર્મમાં લગાવવા ન જોઈએ. તેઓને પૂર્વોકત દંડ-કુફળ ભેગવવું પડતું નથી. આગામી કાળમાં તેઓને છેદન અને ભેદનના પાત્ર થવું પડતું નથી. યાવત્ ઉત્પત્તિ, જરા, મરણ જન્મ સંસાર, પુનર્ભવ, ગર્ભવાસ અને सप अपयन। पात्र मन ५ नथी. त्याने घणा , भुन, तना તાડન, ઉબધન, નિગડ બંધન, હઠિબંધન ચારક બંધન, અને હાથ મર3A 1450 धन, त छैन, ५४ छैन, छेन, नhिat- For Private And Personal Use Only Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताचे नासिकाछिन्नकानाम् ओष्ठछिन्नकानां शीर्षकछिन्नकानां मुखछिन्नकानां वेदछिन्नकानां हृदयोत्पाटितानां नयनवृषणदशनवदननिहोत्याटितानां घर्वितानाम् एतेषामर्थाः दशाश्रुस्किन्धे षष्ठेऽध्ययने दशमसूत्रे २३५ पृठे द्रष्टयाः । 'जाव. वहणं दुक्खदोम्मणस्साणं" यावद् दुःख दौमनस्यानाम् ‘णो भागिगो भविस्संति' नो भागिनो भविष्यन्ति-अहिंसावतपालनात् कथमपि दण्ड मागिनो न भविष्यन्ति, कारणाऽभावाद 'अणाइयं च णे' अनादिकं च खलु 'अणस्यगं' आबग्रम् 'दीहमद्धं' दीर्घमध्वम् 'चाउरंतसंसारकंतारं' चातुरन्तसंसारकान्तारम् 'भुजो भुजो' भूयो भूम णो अगुपरियट्टिसति' नो अनुपर्य टिष्यन्ति । 'ते सिग्नि स्संति' ते सेत्स्यन्ति सिद्धिं गमिष्यन्तीत्यर्थः । 'ते बुझिसति' ते भोत्स्यन्ति 'जाव सम्बदुक्खाणं अंतं करिस्संति' यावत्सर्वदुःखानामन्तं करिष्यन्ति, सेत्स्यन्ति -सिद्धि माप्स्यन्ति, भोत्स्यन्ति-केवलिनो भविष्यन्ति, मोक्ष्यन्ति कर्मबन्धनात्, परिनिर्वास्यन्ति सर्वथा सुखिनो भविष्यन्ति, सर्वाणि च तानि दुःखानि-शारीर मानसादीनि तेषां मन्तं-विनाशं करिष्यन्तीति ॥ मू० २६=११ ॥ ओष्ठ छेदन, शिर छेदन, मुख छेदन, लिंगछेदन, हृदयोत्पाटन (हृदयको उखाडना) नयन, अण्डकोष, दन्त वदन एवं जिह्वा के उत्पाटन आदि व्यथाओं का भागी नहीं होना पडता (दशाश्रुन कंध के छठे अध्ययन के दशम सूत्र पृ० २३५ में इन यातनाओं के विषय में विशेष देखना चाहिए। ) यावत् उन अहिंसकों को न अनेक प्रकार के दुःखों का सामना करना पड़ता है और न दौमनस्यों का ही। वे अनादि अनन्त दीर्घकालीन-दीर्घ मार्ग वाले चातुर्गतिक संसार अरण्य में पुनः -पुनः भ्रमण नहीं करेंगे । वे सिद्ध होंगे, बुद्ध होगे यावत् समस्त छेन 21-88नु छैन, शिर छेन, भु५ छन, न यो पाटन, यिने 63) नयन, माम अन्ष, द्वांत, भुम, अनेसने हा વિગેર વ્યથા-પીડાઓને ભેગવવી પડતી નથી. દશાશ્રુતસ્કંધના છઠ્ઠા અધ્ય. યનના દસમા સૂત્ર પૃ. ૨૩૫ માં આ યાતનાઓના સંબંધમાં વિશેષ પ્રકારથી વર્ણન કરવામાં આવેલ છે તે જીજ્ઞાસુઓએ ત્યાંથી જોઈ લેવું યાવતું તે અહિંસકેને અનેક પ્રકારના દુઃખને સામને કરે પડતું નથી. તથા કોમનસ્યનો પણ સામનો કરવો પડતો નથી. તેઓ અનાદિ અનંત દીઘ કાલીન-દીર્ઘ માર્ગવાળા, ચાતુર્ગતિક-ચાર ગતિવાળા સંસાર રૂપી અરણ્યજગલમાં વારંવાર ભ્રમણ કરતા નથી, તેઓ સિદ્ધ થશે. બુદ્ધ થશે યાવત For Private And Personal Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समापार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् मूलम्-इच्छेतेहिं बारसहि किरियाठाणेहिं वहमाणा जीवाणों सिझिसु णो बुझिसु णो परिणिव्वाइंसु जाव नो सबदुक्खाणं अंतं करेंसु वा णो करेंति वा णो करिस्संति वा। एयंसि घेव तेरसमे किरियाठाणे वट्टमाणा जीवा सिन्झिसु बुझिसु मुञ्चिसु परिणिव्वाइंसु जाव सबदुक्खाणं अंतं करेंसु वा करंति वा करि संति वा । एवं से भिक्खू आयही आयहिए आयगुत्ते आयजोगे आयपरकमे आयरखिए आयाणुकंपए आयनिप्फेडए आयाणमेव पडिसाहरेज्जासि तिबेमि ॥सू० २७॥४२॥ 'इति वीयसुयक्खंधस्स किरियाठाणे नामं बीईयमज्झयणं समत्तं' ___ छाया-इत्येतेषु द्वादशम क्रियास्थानेषु वर्तमाना जीवा नो असिध्यन् नो अबुध्यन् नो अमुञ्चन् नो परिनिवृत्ताः यावन्नो सर्वदुःखानामन्तमकार्वा नो कुर्वन्ति वा नो करिष्यन्ति वा । एतस्मिन्नेव प्रयोदशे क्रियास्थाने वर्तमाना जीवाः असिध्यन् अबुध्यन् अमुश्चन् परिनिवृत्ताः यावत्सर्वदुक्खानामन्तमकाए वो कुन्ति वा करिष्यन्ति वा । एवं स भिक्षुः आत्मार्थी भात्महितः आत्मगुप्तः आत्मयोगः आत्मपराक्रमः आत्मरक्षितः आत्मानुकमका आत्मनिस्सारकः आस्मानमेव प्रतिसंहरेदिति ब्रवीमि ॥ सू०२७-४२॥ ॥ इति द्वितीयश्रुतस्कन्धीय द्वितीयाऽध्ययनम् ॥ टीका-अस्मिन् द्वितीयाऽध्ययने त्रयोदशक्रियास्थानानां विस्तरेण निरू. पणं कृतम् । तत्र न आद्वादशक्रियास्थानं संसारकारणम्, त्रयोदशे तु-तद्विपरीत शारीरिक-मानस दुःखों का अन्त करेंगे। कर्म बन्धन से छुटकारा प्राप्त करेंगे और सर्वथा सुखी होंगे ॥२६॥ 'इच्चेएहि वारसहि' इत्यादि। टीकार्य-प्रकृत दूसरे अध्ययन में तेरह क्रियास्थानों का विस्तार पूर्वक निरूपण किया गया है। उनमें प्रथम के बारह क्रिया स्थान संसार સઘળા શારીરિક-શરીર સંબંધી અને માનસિક-મન સંબંધી દુને અંત કરશે. કર્મ બંધથી છુટકારે પ્રાપ્ત કરશે, અને સર્વથા સુખી થશે. માસૂ૨૬મા 'इच्चेएहिं बारसहि" त्या ટીકાર્ય–આ ચાલુ બીજા અધ્યયનમાં તેર દિયાસ્થાને વિસ્તાર પૂર્વક નિરૂપણ કરવામાં આવી ગયું છે, તેમાં પહેલાના ૧૨ બાર ફિયાસ્થાને For Private And Personal Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४४ - www.kobatirth.org सूत्रकृताङ्गने नित्याऽपरिमेयाऽऽनन्दात्मकमोक्षकारणमित्यपि व्यवस्थापितम् । अतो द्वादशक्रियास्थान सेवकाः संसारगतिम् आत्रयोदशोप सेवकास्तु मोक्षमित्येतमर्थं प्रदर्शयन् - अध्ययनोपसंहारव्याजेन सूत्रमानमयति- 'इच्चे ते हि' इत्येतेषु 'वारसहिं' द्वादशसु 'किरिया ठाणेहिं' क्रियास्थानेषु पूर्वोपदर्शितद्वादश क्रियास्थानेषु 'बट्टमाणा' वचमानाः 'जीवा' जीवाः प्राणिनः मोहनीय कर्मवशात् 'णो सिर्जिझसु' नो असिध्यन् -सिद्धि - मोक्षं न प्राप्तवन्तः 'णो बुज्झिंतु' नो अवुध्यन्- बोधं केवलज्ञानं कथमप्रि न प्राप्तवन्तः, 'णो मुर्चिस' नो अनुञ्चन्न कर्मभ्यो मुक्तन्ः 'णो परिजिन्वासु' नो परिनिवृत्ताः - मोक्षं न प्राप्ता इत्यर्थः । 'जाव णो सन्दुक्खाणं अंतं करें वा' यावत् नो सर्वदुःखाना मन्तमकार्षु व सर्वदुःखानामन्तं न कृतवन्तः, एतेन - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir के कारण हैं। तेरहवां क्रियास्थान उनसे विपरीत है। वह नित्य अपरिमित सुख रूप मोक्ष का कारण है, यह भी कहा जा चुका है। अतएव बारह क्रियास्थानों का सेवन करने वाले संसार को प्राप्त करते हैं और तेरहवें क्रिया स्थान का सेवन करने वाले मोक्ष को प्राप्त करते हैं । इस अर्थ को प्रकाशित करते हुए अध्ययन के उपसंहार के रूप में सूत्रकार कहते हैं इन पूर्वोक्त बारह क्रियास्थानों में वर्तमान जीवों ने भूतकाल में मोहनीय कर्म के उदय होने के कारण सिद्धि प्राप्त नहीं की है केवल ज्ञान प्राप्त नहीं किया है, कर्मों से मुक्ति प्राप्त नहीं की है परिनिर्वाण को प्राप्त नहीं किया है, यावत् समस्त दुःखों का अन्त नहीं किया है। बाहर क्रिया स्थानों में रहे हुए जीव वर्तमान में भी दुःखों का अन्त नहीं करते हैं और न भविष्य में अन्त करेंगे । સંસારના કારણ રૂપ છે. તેરમુ ક્રિયાસ્થાન તેનાથી ઉલ્ટુ છે. અર્થાત્ તે નિત્ય અપરિચિત સુખ રૂપ, મેાક્ષનું કારણ છે. તે પણ કહેવામાં આવી ગયું છે તેથી જ ખાર ક્રિયાસ્થાનાાનું સેવન કરવાવાળાએ સહસારને પ્રાપ્ત કરે છે અને તેરમા ક્રિયાસ્થાનનું સેવન કરવાવાળા મેાક્ષને પ્રાપ્ત કરે છે. આ અને સ્પષ્ટ કરતા થકા અયયનના ઉપસ′હાર રૂપથી સૂત્રકાર કહે છે,-— આ પૂર્વીક્ત ખર ક્રિયાસ્થાનમાં રહેનારા જીવાએ ભૂતકાળમાં માહુનીય કર્મીના ઉદય થવાને કારણે સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરી નથી. કેવળ જ્ઞાન પ્રાપ્ત કર્યું" નથી. કમાંથી મુક્તિ પ્રાપ્ત કરી નથી. પરિનિર્વાણ પ્રાપ્ત કરેલ નથી, ખાર ક્રિયા સ્થાનામાં રહેલા જીવા વમાનમાં પણ દુઃ ખાનેા ત કરતા નથી. અને ભવિષ્યમાં પણ અન્ત કરશે નહીં', For Private And Personal Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.२ क्रियास्थाननिरूपणम् द्वादशक्रियास्थानेषु विद्यमानाः जीवाः कथमपि सर्वदुः वनामन्तम् ‘णो करें तिवा' नो कुर्वन्ति, वर्तमानकालेऽपि द्वादशक्रियास्थानेषु विद्यमानाः ‘णो करिस्सति वा नो करिष्यन्ति वा-सर्वदुःखानामित्यनुपञ्जनीयम् । द्वादशक्रियास्थानेषु विध.. मानस्य मोक्षाचसंभवं दर्शषित्वा, त्रयोदशक्रियास्थाने विद्यमानस्य मोक्षादिसंभावनां दर्शयति-'एयंसि चेन तेरसमे किरियाठाणे' एतस्मिन्नेव त्रयोदने क्रियास्थाने 'वट्टमाणा' वर्तमानाः 'जीवा' जीवा: 'सिम्झिनु' असिध्यन्-सिद्धि गताः 'बुझिंमु' अबुयन्-बोधं प्राप्तवन्तः 'मुच्चिसु' अमुञ्चन् संसारकान्तारम् 'परिणिनाइंसु' परिनिवृत्ताः-मोक्षमधिगतवन्तः 'जाव सव्व दुक्खाणं अंतं करें सुझ यावत्सर्वदुःखानामन्तमकार्षुर्वा । अतीतकाले ये-एतस्य त्रयोदशस्थानस्य-आसे. वनादहचोऽभवन् दुःखान्तकराः 'करंति वा' कुन्ति वा, वर्तमानेऽपि बहवो दुःखान्तकरा भवन्ति, भविष्यन्ति च-नविष्यतिकाले सर्वदुःखाऽन्तकारा बहवः, 'एवं से मिक्खू एवं स भिक्षुः एवम्-अनेन प्रकारेण द्वादशक्रियास्थानस्य वर्जयिता -भिक्षुः 'आयट्ठी' आत्मार्थी-आत्मनोऽर्थः आत्मार-मोक्षप्राप्तिलक्षणः स विद्यते यस्य स तथा, 'आयहिए' अस्महितः आत्मनः हितं कल्याणं यस्य स तथा, 'आयगुत्ते' आत्मगुप्ता-आत्मा गुप्तो यस्य स तथा, 'आयनोगे' आत्मयोगः कुशलमनः प्रवृत्तिरूपः स यस्यास्ति स तथा, 'आयपरकमें आत्मपराक्रमः-आत्मनि इस प्रकार वाहर क्रिया स्थानों में विद्यमान जीवों के लिए सिद्धि आदि की प्राप्ति असंभव है, यह दिखलाकर अब तेरहवे गुग स्थान में विद्यमान जीवों को मोक्ष प्राप्ति आदि संभव दिखलाते हैं-तेरहवें क्रिया स्थान में वर्तमान जीवों में सिद्धि प्राप्ति की है, केवल ज्ञान प्राप्त किया है संसार कान्तार से मुक्ति प्राप्त की है, परिनिर्वाग प्राप्त किया है यावत् समस्त दुःखों का अन्त किया है । वर्तमान काल में जो इम क्रिया स्थान में वर्तमान हैं और भविष्यत् में वत्तो, उन्हें सिद्धिमुक्ति प्राप्त होगी। उनके समस्त दुखों का अन्त होगा। આ રીતે બાર કિયા સ્થાનમાં રહેવાવાળા જેને માટે સિદ્ધિ વગે. રની પ્રાપ્તિ અસંભવ છે. એ બતાવીને હવે ૧૩ તેરમાં ગુખાનમાં રહેલા અને મોક્ષની પ્રાપ્તિનો સંભવ વિગેરે બતાવે છે. ૧૩ તેરમા કિયા સ્થાનમાં રહેવાવાળા જ સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરે છે, કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત કરે છે. સંસાર રૂપી કાન્તા૨-જગલમાંથી મુક્તિ પ્રાપ્ત કરી છે. પરિનિવાણ પ્રાપ્ત કરે છે. યાવત્ સઘળા દુઃખને અંત કરેલ છે. વર્તમાન કાળમાં જેઓ આ કિયાસ્થાનમાં રહેલા છે, અને ભવિષ્યમાં આ ક્રિયાસ્થાનમાં રહેશે. તેઓને સિદ્ધિ અને મુક્તિ પ્રાપ્ત થશે. અને તેઓના સઘળા દુખેને અંત થશે. '. सु०४४ For Private And Personal Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संयमे पराक्रमो यस्य स संयमपराक्रमकारकः 'आयरक्खिए' आत्मरक्षित:-आस्मा. रसियो दुर्गतिपाप्तेन संसाराग्निनिवारणेन स आत्मरक्षितः 'आयाणुकंपए' भारमानुकम्पका-आत्मानमानवपरिहारेण अनुकम्पते इत्यात्माऽनुकम्पका 'आयनिफेडर' आत्मनिस्सारका-आत्मानं संसारान्निस्सारयतीति आत्मनिःसारकर साधुः । 'आयाणमेव पडिसाहरेजासि' आस्मानमेव पतिसंहरेत, आत्मान सर्वपापेभ्यो द्वादशक्रिशस्थानेभ्यो निवर्सयेत्, 'त्ति बेमि' इति ब्रवीमि-इत्यह अमेस्वामी कथयामि श्री तीर्थकरमुखाच्छ्रत्वा ।।२७४२।। इति श्री-विश्वविख्यातनगवल्लमादिपदभूषितवालब्रह्मचारि - 'जैनाचार्य' पूज्यश्री-घासीलालबतिविरचितायां श्री सूत्रकृताङ्गसूत्रस्य "समयार्थबोधिन्या. ख्यया" व्याख्यया समलङ्कृतम् द्वितीयश्रुतस्कन्धस्य क्रियास्थाननामकं द्वितीयाऽध्ययनं समाप्तम् । .. बारह क्रिया स्थानों का त्यागी आत्मार्थी-आत्मकल्याण में उयत, आत्महितैषी, आत्म गुप्त, आत्मा को विषयादि से गोपन करने वाला, आत्मयोगी-प्रात्मस्वरूप में रमण करने वाला मात्रम पराक्रम करने वाला, आत्मानुकम्पी आश्रय का त्याग करके आत्मा पर अनुकम्पा करने वाला और आत्मनिस्तारिक-आत्मा को संसार से मारने वाला भिक्षु अपने आपको समस्त पापों से दूर रक्खे। 'त्ति बेमि' सुधर्मास्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं-हे जम्बू ! जैसा तीर्थकर भगवान के मुख से मैंने सुना है वैसा ही तुम्हें कहता हूं ॥२७॥ द्वितीय श्रुत स्कन्ध का द्वितीय अध्ययन समाप्त । બાર કિયાસ્થાનેનો ત્યાગ કરવાવાળા એવા આત્મ કલ્યાણમાં ઉદ્યમવાળા, આત્મ હિતૈષી, આત્મ ગુપ્ત, આત્માને વિષય વિગેરેથી ગોપન કરવાવાળા, આત્માગી-આત્મ-સ્વરૂપમાં રમણ કરવાવાળા, આત્મ પરાક્રમી-સંય. મમાં પરાક્રમ કરવાવાળા, દુર્ગતિથી આત્માનું રક્ષણ કરવાવાળા, આત્માનું કેપી-આસવને ત્યાગ કરીને આત્મા પર અનુકવા-દયા કરવાવાળા, અને આત્મ નિસારક-આત્માને સંસારથી તારવાવાળા ભિક્ષુ-મુનિ પિતાને સઘળી पापायी २ २०. સુધર્મા હવામી જખ્ખ સ્વામીને કહે છે કે–હે જંબૂ તીર્થકર ભગવાને નની પાસેથી જે પ્રમાણે મેં સાંભળેલ છે, એ જ પ્રમાણે હું તમને g. ॥सू० २७॥ બીજા શ્રુતસ્કંધનું બીજું અધ્યયન સમાપ્ત કર - અધ્યયન સમાસ ૨-૨ For Private And Personal Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सार्थबोधिनी टीका द्वि. अ. अ. ३ आहारपरिज्ञानिरूपणम् ॥ अथ द्वितीयश्रुतस्कन्धे तृतीयमध्ययनम् ॥ द्वितीयं क्रियास्थाननामकमध्ययनं निरूप्य तृतीयमध्ययनं निरूप्यते । अतीताऽनन्तराऽध्ययने प्रतिपादितं यत्-पः साधुदयक्रियास्थानं परित्यज्य त्रयोदशं क्रियास्थानमारावयति, आराधयन् सावयसर्वकर्मभ्यो निवृत्तः स्वकीयं कर्म व्यक्तिग जय मोक्षगतिमापादयति । परन्तु आहारशुद्विमन्तरेण साच्यानुष्ठानान्निवृत्ति में सम्भवतीत्यत आहारपरिज्ञार्थं तृतीयमध्ययन नारभ्यते । प्रक्रान्ताऽध्ययने प्रतिपादविष्यति - जीवः प्रायशः प्रतिदिनमाहारमाहरति, तदभावे शरीरनिर्वाहाऽसंमात् । सम्पति सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमाह ३४७. तृतीय अध्ययन का प्रारंभ क्रियास्थान नामक द्वितीय अध्ययन का निरूपण करके अब क्रम प्राप्त तृतीय अध्ययन का निरूपण करते हैं। पिछले अध्ययन में कहा गया है कि जो साधु बारह क्रियास्थानों को त्याग कर तेरहवें क्रियास्थान की आराधना करता है, वह समस्त सावध कार्यों से निवृत्त होकर और समस्त कर्मों का क्षय करके मोक्षगति प्राप्त करता है। किन्तु आहार शुद्धि के बिना सावध अनुष्ठान से निवृत्त होना संभव नहीं है । अतएव आहारपरिज्ञा के लिए तीसरे अध्ययन का आरंभ किया जाता है। प्रकृत अध्ययन में यह कहा जायगा कि जीव प्रायः प्रतिदिन आहार करता है, क्योंकि आहार के अभाव में शरीर का निर्वाह संभव नहीं है । अतः अब सूत्रानुगम में अस्खलित गुणों से युक्त सूत्र का उच्चारण किया जाता है - 'सुर्य मे आउस तेणं' इत्यादि । For Private And Personal Use Only ત્રીજા અધ્યયનના પ્રારંભ ક્રિયાસ્થાન નામના ખીજા અધ્યયનનું નિરૂપશુ કરીને હવે ક્રમપ્રાપ્ત આ ત્રીજા અધ્યયનનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે—પાછલા અધ્યક્ષનેામાં કહેવામાં આવ્યું છે કે જે સાધુ ૧૨ ખાર ક્રિયાસ્થાનાાને ત્યાગ કરીને તેરમા ક્રિયાસ્થાનની આરાધના કરે છે. તે સઘળા સાવધ કાર્યોથી નિવૃત્ત થઈને અને સઘળા કર્માના ક્ષય કરીને મેક્ષગતિને પ્રશ્ન કરે છે. પરંતુ આહારશુદ્ધિ વિના સાવદ્ય અનુષ્ઠાનથી નિવૃત્ત થવું સંભવતું નથી. તેથી જ આહાર પરિજ્ઞા માટે શ્રા ત્રીજા અધ્યયનના આરભ કરવામાં આવે છે. આ અધ્યયનમાં એ કહેવામાં આવશે કે જીવ પ્રાયઃ દરરાજ આહાર કરે છે. કેમકે-અહાર વિના શરીરના નિર્વાહ સંભવતા નથી. હવે સૂત્રાનુગમમાં અસ્ખલિત ગુણેાવાળા સૂત્રનુ ઉચ્ચારણ કરવામાં આવે છે. તેનું પહેલું સૂત્ર આ પ્રમાણે છે.'सुयं मे आउ तेणं' धत्याहि Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्र मूलम्-सुयं मे आउसं तेण भगवया एवमक्खायं इह खलु आहारपरिणाणामज्झयणे, तस्त णं अयमढे-इह खलु पाईणंवा४ सबओसव्वाति चणं लोगसि चत्तारि बीयकाया एवमाहिति, तं जहा-अग्गबीया मूलबीया पोरबीया खंधवीया, तेसिं च णं अहाबीए णं अहावगासेणं इहेगइया सत्ता पुढवीजोणिया पुढवीसंभवा पुढवीवुकमा तज्जोणिया तस्संभवा तदुवकमा कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थ वुकमा णाणाविहजोणियासु पुढधीसु रुक्खत्ताए विउद्वंति। ते जीवा तेसिंणाणाविहजोणियाणं पुढवीणं सिणेहमाहात, ते जीवा आहारेंति पुढवीसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वगस्सइसरीरं। णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति परिबिद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं। अवरेऽवि यणं तेसि पुढविजोणियाणं रुक्खाणं सरीराणाणावणाणाणागंधा णाणारसा जाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपोग्गलविउविया ते जीवा कम्मोववन्नगा भवंतीति मकवायं ।सू. ११४३। . छाया-श्रुत मया आयुष्मता तेन भगवता-एव माख्यानम् इह खलु आहारपरिज्ञानामाध्ययनम् तस्य खलु अयमर्थः, इह खलु प्राच्यां वा ४ सर्वतः सर्वस्मिंश्च खलु लोके चत्वारो बीनकाया एवमाख्यायो, तद्यथा अग्रवीजाः मूलबीजाः पर्वबीजाः स्कन्धवीजाः। तेषाश्च खलु यथावोजेन यथावकाशेन इहैकतये सत्त्याः पृथिवीयोनिकाः पृथिवीसम्भवाः पृथिवीव्युत्क्रमाः तद्योनिकाः तत्सम्भवास्तव्युत्क्रमाः कर्मोपगाः कर्मनिदानेन तत्र व्युत्क्रमाः, नानाविधयोनिकासु पृथिवीषु वृक्षतया विवर्तन्ते । ते जीवाः नानाविधयोनिकानां तासां पृथिवीनां स्नेहमाहारयन्ति । ते जीवा आहारयन्ति पृथिवीशरीरमशरीरं तेजः शरीरं वायुशरीरं वनस्पतिशरीरम् । नानाविधानां त्रसस्थावराणां प्राणानां शरीरमचित्तं कुर्वन्ति परिविध्वस्तं तच्छरीरं For Private And Personal Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिक्षानिरूपणम् ३४२ पूर्वाहारितं त्ववाहारितं विपरिणतं सारूपीकृतं स्यात् । अपराण्यपि च खलु तेषां पृथिवीयोनिकानां वृक्षाणां शरीराणि नानापर्णानि नानागन्धानि नानारसानि नानास्पर्शानि नानासंस्थानसंस्थितानि नानाविधशरीरपुद्गलविकारितानि । ते जीवाः कर्मोपपन्नाः भान्तीयाख्यातम् ॥सू०१-४३॥ .. ___टीका-सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनं कथयति-भगवान् श्रीमहावीरः-आहारपरिज्ञानामकाध्ययनस्य वर्णनं कृतवान् । इहलोके बीन कायनामको जीवो भवति, तस्य शरीरं बीजमेव अतः स बीजकाय इति कथ्यते। स च चतुर्विधः-अग्रबीजों मूलबीजः पर्वबीजः स्कन्धबीजश्न, इत्यामेवाभिमायं दर्शयति-'सुयं में इत्यादि 'आउसंतेणं भगवया' आयुष्मता भगवता महावीरस्वामिना तीर्थकरेण, 'एवमक्खायं' एवं वक्ष्यमाणपकारेणाख्यातं सदसि कथितम् , 'सुयं मे तन्मया सुधर्मस्वामिना श्रुतम्, 'इह खलु आहारपरिणाणामायणे' इह खलु आहारपरिज्ञानामकाऽध्ययनम् । आहारस्य सोयकर्त्तव्यत्वाऽकर्तव्यत्वस्य प्रतिपादनातएतस्याऽध्ययनस्य 'आहारपरिज्ञा' इति नाम भवति । 'तस्स णं अयम्डे' तस्या. टीकार्थ-सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं-भगवान् श्री महावीर ने आहार परिज्ञा नामक अध्ययन का वर्णन किया है। इस लोक में बीजकाय नामक जीव होता है। उसका शरीर बीज ही होता है, अाएव वह बीजकाय कहलाता है। वह चार प्रकार का है-अनः बीज, मूलषीज, पर्वधीज और स्कंधथीज । इसी अर्थ को सूत्रकार दिखः लाते हैं-आयुष्मान भगवान महावीर स्वामीने इस प्रकार समवसरण में कहा है ! मैंने (सुधर्मा स्वामी) ने भगवन्मुखसे हे जम्बू ! सुना है। यहां आहार परिज्ञा नामक अध्ययन है। इस अध्ययन में आहार के संबंध में कर्त्तव्य अकर्तव्य का प्रतिपादन करने के कारण इस अध्ययन का नाम 'आहारपरिज्ञा' है । इस अध्ययन का यह अर्थ है ટીકા સુધર્માસ્વામી જંબુસ્વામીને કહે છે કે- ભગવાન શ્રી મહાવીર હવામીએ આહાર પરિક્ષા નામના અધ્યયનનું વર્ણન કરેલ છે. આ લેકમાં બીજાય નામના જ હોય છે. તેનું શરીર બીજ રૂપ જ હોય છે. તેથી જ તે બીજાય કહેવાય છે. તે ચાર પ્રકારના છે–અબીજ, મૂલબીજ, પર્વબીજ, અને કંધબીજ, આ જ વિષય હવે સૂત્રકાર બતાવે છે.-આયુષ્માન ભગવાન મહાવીર સ્વામીએ આ પ્રમાણે સમવસરણમાં કહેલ છે. મેં (સુધર્મા સવામીએ દે જમ્બુ ભગવાન પાસેથી સાંભળ્યું છે. For Private And Personal Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - ३५० सूत्रकृतासून ऽयमर्थः 'इइखल पाईणं वा ४' इह खल पाच्या वा प्रतीच्या वा उदीच्या वा अवास्यां वा ४, 'सनओ समावति' सर्वतः सर्वस्मिन्नपि 'लोगंसि चचारि बीयकाया एव माहिज्जति' लोके चत्वारो बीनकाया एमाख्यायन्ते । 'तं जहा' तद्यथा-'अग्गवीया' अग्रवीना:-अग्रे-उपरितनमागे बीनं येषां तेऽग्रबीजाः यथा तिलतालाम्रादयः 'मूलबीया' मूलबीजा:-मूलमेव बीजमुत्पत्तिकारणं येषां ते मूलबीजा:-कमलकन्दमभृतयः, 'पोरबीया' पर्वबीजा:-पणि 'ग्रन्यो पत्र वा बीजं येषां ते पर्वबीजाः इक्षुप्रमुखाः 'खंबीया' स्कन्धः 'स्थूडएव. बीज' येषां ते स्कन्धवीजा:-शल्लकी प्रभृतयः 'तेसिं च णं अहाबी.. एणं अहावभासेण' तेषाश्च खलु यथा बोजेन यथाऽवकाशेन, तत्र तेषां चतुर्विधानां वनस्पतिकायिकानां यथाबीजेन यद्यस्य बीजमुत्पत्तिकारणं तद् यथाबीज तेन यथाबीजेन, यथा शाल्यकुरस्य शाजिबीजम्-उत्पत्तिकारणम्, यथाऽवकाशेन इस लोक में पूर्व आदि चारों दिशाओं में चार प्रकार के बीजकाय कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-अग्रवीज जिन वनस्पतियों के अग्र भाग (ऊपरी भाग) में बीज हो। जैसे तिलताल आम आदि के वृक्ष। मूलबीज-मूल ही जिनका बीज अर्थात् उत्पत्ति स्थान हो, वह मूलबीज है जैसे कमलकन्द आदि। पर्वबीज-पर्व ही जिनका उत्पत्तिस्थान हो जैसे इक्षु आदि । स्कंधबीज-स्कंध ही जिनका बीज हो, जैसे शल्लकी आदि। इन बीजकाय जीवों में जो जीव बीज से और जिस अवकाश (प्रदेश) में उत्पन्न होने की योग्यता वाले होते हैं, वे जीव उसो बीज और उसी प्रदेश में - અહિયાં આહારપરિજ્ઞા નામનું અધ્યયન છે. આ અધ્યયનમાં આહારના સંબંધમાં કર્તવ્ય, અકર્તવ્યનું પ્રતિપાદન કરવાના કારણે આ અધ્યયનનું નામ “આહાર ના' એ પ્રમાણે છે. આ અધ્યયનને આ નીચે બતાવ્યા પ્રમાણેને ભાવ છે. આ લેકમાં પૂર્ણ વિગેરે ચાર દિશાઓમાં ચાર પ્રકારના બીજકાય કહેવામાં આવ્યા છે. તે આ પ્રમાણે છે. ૧ અગ્રખીજ જે વનસ્પતિયે ના અ. ભાગમાં (ઉપરના ભાગમાં) બીજ હોય જેમકે તલ તાડ અને આંબાના વૃક્ષ વિગેરેમાં હોય છે, તે અગ્નબીજ કહેવાય છે. . (૨) મૂલબીજ-મૂળ જ જેનું બી હેય અર્થાત ઉત્પત્તિ સ્થાન હોય, કમળકંદ મૂળા વિગેરે. તે મૂળબીજ કહેવાય છે. (3) पा -५ ना बी२४ ३५ डाय रेभ. शेखी बिरे. (४) ४५ मी-२४५२ मी हाय रेभ Asal वगरे. - આ બીજકાય એમાં જે જીવ બીથી અને જે અવકાશ (પ્રદેશોમાં ઉત્પન્ન થવાની ચેપગ્યતાવાળા હોય છે. તે બીજો એજ બીજ અને એજ પ્રદે. For Private And Personal Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समपारोपिनी टीका शि. श्रु. अ. ३ आहारपरिशानिरूपणम् -यो यस्याऽवकाशः-यद् यस्योत्पत्तिस्थानम्-तेन यथाऽकाशेन, तदेवम्'इहेगड्या सत्ता पुढयी नोणिया' इहैकतये सवाः पृथिवीयोनिकाः तदेवं यया बीजेन यथावकाशेन, इह जगति केचन समाः माणिनः तथाविधकोदयात् वनपतित्पद्यन्ते वनस्पतिषु उत्पधमाना अपि पृथिवीयोनिका भवन्ति । 'तहा-पुनकी समवा' पृथिवीसम्भवाः वृथिव्यां सम्मा -सदा भवनमुत्पत्तिर्येषां ते तथा। 'पुटली. बुकमा" पृथिवीव्युत्क्रमाः पृथिव्यामेव वि-विविधम् उस्माबरयेन क्रमः-क्रम दे तथा, पृथिव्यामेव क्रमणलक्षणवृद्धि प्राप्ता भवन्ति । 'तज्जोणिया' तयोनिका पृथिवीकारणका अपि तस्संभवा:-तत्संमवाः पृथिवीतः समुत्पन्नाः 'तदुक्का' सव्युत्क्रमा:-पृथिव्यां वदिताः, 'कम्मोवगा' कर्मोपगा:- कर्मवलाद वनस्पति भायादागत्य तेष्वेव वनस्पतिकायेषु पुनः समुत्सद्यन्ते 'कम्मणियाणेणं' कर्मनिदानेन, तथा ते जीवाः कर्मनिदानेन=कर्मकारणेन समाकृष्यमाणा: 'तस्थ दु. कमा' तत्र व्युत्क्रमा:-तत्र-वनस्पतिकाये व्युत्क्रमा:-समागताः 'माणाविहमोनि यास पुढवीसु' नानाविधयोनिकासु पृथिवीषु 'रुक्खत्ताए विउति' वृक्षतया विवर्तन्ते-उत्पद्यन्ते । 'ते जीवा तेसि गाणाविहजोणियाणं पुढवीण सिणेहमा. ति' ते-वनस्पतिमीवाः नानाविधयोनिकानां तासां पृथिवीनां स्नेह-स्निग्धमा पृथ्वी पर उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार कोई जीव कर्मोदय से वनस्पति में उत्पन्न होकर भी पृथ्वीयोनिक होते हैं। वे पृथ्वी पर स्थित रहते और पृथ्वी पर ही अनुक्रम से वृद्धि को प्राप्त होते हैं। वे पृथ्वी पर उत्पन्न होने वाले, पृथ्वी पर रहने वाले और पृथ्वी पर ही वृद्धि को प्राप्त होने वाले जीव कर्म के बल से और कर्म के निदान से वनस्पति काय से आकर नाना प्रकार की योनि वाली पृथ्वी में वृक्ष हप में पुनः उत्पन्न होते हैं। वे वनस्पति जीव नाना प्रकार की योनिवाली उस पृथ्वी के स्नेह का आहार करते हैं। वे जीव पृथिवी शरीर अ. શમાં પૃથ્વી પર ઉત્પન્ન થાય છે. આ રીતે કે જીવ કર્મના ઉદયથી વન સ્પતિમાં ઉત્પન્ન થઈને પણ પૃથ્વીયેનિક હોય છે. તે બધા પૃથ્વી પર જ સ્થિત રહે છે. અને પૃથ્વી પર જ અનુક્રમથી ઉત્પન્ન થવાવાળા, પૃથ્વી પર સ્થિર રહેવાવાળા, અને પૃથ્વી પરજ વૃદ્ધિને પ્રાપ્ત થવાવાળા જ કર્મના બળથી અને કર્મના નિદાનથી, વનસ્પતિકાયથી આવીને અનેક પ્રકારની નીવાળી પૃથ્વીમાં વૃક્ષ-ઝાડપણાથી ફરીથી ઉત્પન્ન થાય છે. તે વનસ્પતિકાય છે અનેક પ્રકારની પેનીવાળી તે પૃથ્વીના નેહને આહાર કરે છે. તે બીજે પૃથ્વી શરીર, અપૂ શરીર, વાયુ શરીર, અગ્નિ For Private And Personal Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे चिक्कण तारूपमाहारयन्ति पिबन्ति वृक्षरूपेण परिणता स्ते जीवाः पृथिवीस्नेहं पिबन्ति । 'ते जीना आहारे ति' ते जीवा - आहारयन्ति आहारं कुर्वन्ति पुढवीसरीर' पृथिवी शरीरम् । 'आउसरीरं' अशरीरम् । 'ते उसरीरं ' तेजः शरीरम् - उष्णतारूपम् । 'वाउसरीरं' वायुशरीरम् | 'वणस्तर सरीरं' वनस्पविशरीरम्, आहस्यन्तीति पूर्वेण सम्बन्धः । वृक्षादिरूपेग समुत्पन्ना स्ते जीवाः 'णाणाविहा तसथावराणं पाणाणं' नानाविधानां त्रतस्थावराणां प्राणानां जीवानाम्, 'सरीरं चित्तं कुव्यंति' शरीरं देहं स्वकायेनाश्रित्याऽचित्तं कुर्वन्ति, पुनस्तदेव 'परिविद्धस्थं' परिविध्वस्तं - नष्टप्रायं त्र सस्थावराणाम् 'तं सरीरं' तच्छरीरम् 'पुण्वाहारियं' पूर्वाहारितम् - पूर्वस्मिन् काले उपयुक्तम्, 'तथा हारियं तवाहारितम् - उत्पश्यन न्तरं स्वग्द्वारा - आहारितं पृथिव्यादीनां शरीरम् आहायच, 'विपरिणय' विपरिण: तम् 'सारूविकडं संत' सारूपी कृतं स्यात् ते वृक्षादि जीवाः पृथिवी कायशरीरमाहारितं तच्छरीरं स्वस्वरूपेण विपरिणमयन्ति-स्व स्वरूपं कुर्वन्तीति यावत्, 'अवरेवियणं तेसिं पुढवी जोणियाणं रुक्खाणं' अपरेsपि च खलु पृथिवी योनिकानां वृक्षा णामपराण्यपि यानि शरीराणि पृथित्रीशरीराज्जातानि, 'सरीरा' शरीराणि 'नांना port' नानावर्णानि विलक्षणरूपेणेति पृथिव्यादिरूपाऽपेक्षया भवन्ति । तथा 'गाणा गंधा' नानागन्धानि - पृथिव्यां यावत् गन्धस्तदपेक्षया विभिन्नगन्धसम्पन्नानि शरीर अग्निशरीर, वायुशरीर और वनस्पति शरीर का भी आहार करते हैं। नाना प्रकार के त्रस एवं स्थावर जीवों के शरीर को अचित्त कर देते हैं। पृथ्वी के शरीर को अचिल करते हैं और पहले आहार किये हुए तथा उत्पत्ति के पश्चात् स्वचा आहार किये हुए पृथ्वी काय आदि के शरीर को अपने शरीर के रूप में परिणत कर लेते है। उन पृथिवीयोकि वृक्षों के अन्य शरीर भी होते हैं जो अनेक प्रकार के वर्ण, गंध, रस, स्पर्श एवं नाना प्रकार की अवयव रचनाओं से युक्त तथा अनेक प्रकार के पुद्गलों से बने हुए होते हैं। શરીર,અને વનસ્પતિ શરીરને! પશુ આહાર કરે છે, તેઓ અનેક પ્રકારના ત્રસ અને સ્થાવર જીવાના શરીરને અર્ચિત્ત કરી દે છે. પૃથ્વીના શરીરને અચિત્ત કરે છે. અને પહેલાં આહાર કરેલ તથા ઉત્પત્તિની પછી ત્વચા-ચામડીના-છાલ દ્વારા આહાર કરેલા પૃથ્વીકાય વિગેરેના શરીરને પોતાના' શરીર રૂપથી પરિણુમાવી લે છે. તે પૃથ્વી ચેાનિવાળા વૃક્ષાના ખીજાશરીશ પણ હાય છે. જે અનેક પ્રકારના વણુ, ગંધ, રસ, સ્પર્શ અને અનેક પ્રકારના અવયવેની રચન એથી યુક્ત તથા અનેક પ્રકારના પુદ્ગલાથી બનેલા હાય છે, For Private And Personal Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . समयार्थबोधिनी टीका वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिशानिरूपणम् भत । जाणारसा' नानासानि-पृथि रपेक्षया विभिन्नरसयुक्तानि, 'गाणा. फास नानास्पानि तदपेक्षया विभिन्नस्पर्शवनि, 'गाणासंठणमंठिया नाना संस्थानसंस्थितानि, अनेकपकारकसंस्थानयुक्तानि। 'गागाविहसरीपुर गालविरः वित्ता' नानाविधशरीरपुद्गलविकारितानि-नानारसीयविपाका नानापुद्गलोपचयार मुरूप संस्थाना हाल्पसंहननाश्च स्युरिति भावः। ननु जीवा वृक्षरूपेण पृथिव्यादिभ्यो जायन्ते, तत्र परमेश्वरः कारणम्, कालादि वी कारणं स्यात् इत्याशङ्का परिहरति-'ते जीमा कम्पोचवन्ना भवति सिमक्खाय' ते जीशः कोपपन्ना भवन्ति, न तु तत्रेश्वरः कालो वा कारणम् । वृक्षशरीरधारणे स्वकृतं कमैन हेतुर्भवति, न कालादिरिति तीर्थकरराख्यातम्कवितामिति ॥०१-४३ ॥ मूलम्-अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता रुक्खजोणिया रुखसंभवा रुखवुकमा, तज्जोणिया तस्संभवा तदुवककमा कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थ वुक्कमा पुढवीजोणिएहि सखेहि रुक्खताए विउद॒ति, ते जीवा तेसिं पुढवी जोणियाणे रुक्खाणं सिणेमाहारेंति, ते जीवा आहारैति पुढवीसरीरं आउ. तेउवाउवणस्तइसरीरं, णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुवंति, परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तया. वे जीव वृक्ष के रूप में पृथपी आदि से उत्पन्न होते हैं तो उनकी उत्पत्ति में परमेश्वर अथवा काल आदि कोई कारग होगा ? इस शंका का निवारणार्थ सूत्रकार कहते हैं-वे जीव अपने कर्मों के वशीभून होते हैं। ईश्वर या काल कारण नहीं है परन्तु वृक्ष का शरीर धारण करने में उनके द्वारा कृन कर्म ही कारण होता है। ऐमा तीर्थकर भगवन्तों ने कहा है ॥१॥ તે જો વૃક્ષઝાડના રૂપથી પૃ ી વિગેરેમાંથી ઉત્પન્ન થાય છે. તે તેની ઉત્પત્તિમાં પરમેશ્વર અથવા કાળ વિગેરે કઈ કારણ હશે ? અ. શંકાનું નિવારણ કરતાં સૂત્રકાર કહે છે કે-તે બીજે પિતાના કર્મોને વશ હેમ છે. ઈશ્વર અથવા કાળ તેમાં કારણ નથી. પરંતુ વૃક્ષનું શરીર ધારણ કરવામાં તે દ્વારા કરેલા કર્મો જ કારણ હેય છે. એ પ્રમાણે તીર્થકર ભગવાને એ डेछ. सू. १॥ स०४५ For Private And Personal Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकताइसके हारियं विपरिणामियं सारूविकडं संतं, अवरेऽवि य णं तेसिं. रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सरीरा णाणावन्ना णाणागंधा जाणा रसा णाणाफासा गाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपुरगल विउविया ते जीवा कम्मोववनगा भवंतीति मक्खायं ॥सू०२॥४४॥ । छाया-अथाऽपरं पुराऽऽरख्यातम् इहकतये सचा वृक्षयोनिकाः वृक्षसम्भवा वसन्युरक्रमा । तोनिका स्तत्सम्भवा स्तदुपक्रमाः कर्मोपगा: कर्मनिदानेन तत्र व्युत्क्रमाः पृथिवीयोनिकेषु वृक्षेषु वृक्षतया विवर्तन्ते । ते. जीवाः तेषां पृथिवी. योनिकानां वृक्षाणां स्नेहमाहारयन्ति, ते जीवा आहारयन्ति पृथिवीशरीमप्तेजो. वायुवनस्पतिशरीरम् । नानाविधानां त्रसस्थावराणां प्राणानां शरीरमचित्तं कुर्वन्ति । परिविश्वस्तं तच्छरीरं पूर्वाहारितं स्वचाहारितं विपरिणामितं सारूपीकृतं स्यात् । अपराण्यपि तेषां वृक्षयोनिकानां वृक्षाणां शरीराणि नानावर्णानि नानागन्धानि नानारसानि नानास्पर्शानि नानासंस्थानसंस्थितानि नानाविधशरीरपुदलविकारितानि । ते जीवाः कोपपन्नका भवन्तीत्याख्यातम् मू०२-४४।। - टीका-पृथिवीयोनिकान् वनस्पतीन् वृक्षान् निरूप्य वृक्षयोनिक्षत्र रूपमाह-'अहावरं पुरक्खायं' अथाऽपरं पुराख्यातम्, अनन्तरं तीर्थ करदेवेनाऽपरो. वनस्पतिभेदः प्रदर्शिता, 'इहेगइया सत्ता रुक्ख नोणिया' इहैकतये सचा जीवा. वृक्षयोनिकाः, वृक्षा एव योनिः-उत्पत्तौ कारणं येषां ते, वृक्षोपरि समुत्पन्ना इत्यर्थः, 'रुक्खसंभवा' वृक्षसम्भवाः-वृक्षे एव वर्तमानाः 'रुक्खवुकमा वृक्षव्यु. 'अहावरं पुरक्खाय' इत्यादि। . टीकार्थ-पृथ्वीयोनिक वृक्षों का निरूपण करके अब वृक्ष योनिक वृक्षों का स्वरूप कहते हैं-तीर्थकर भावान् ने वनस्पति का दूसरा भेद कहा है। वह भेद है वृक्षयोनिक वृक्ष जो वृक्ष वृक्ष के ऊपर उत्पन्न होता है, वह वृक्षयोनिक वृक्ष कहलाता है। वृक्ष से उनकी उत्पत्ति होती है । वृक्ष में ही वे वर्तमान रहते हैं और वृक्ष में ही वृद्धि को प्राप्त _ 'अहावर पुरक्खाय' त्याल ટીકાથ–પૃથ્વી એનિવાળા વૃક્ષનું નિરૂપણ કરીને હવે વૃક્ષનિવાળા વૃક્ષોનું નિરૂપણ કરે છે -તીર્થકર ભગવાને વનસ્પતિને બીજે ભેદ કહેલ છે. તે ભેદ વૃક્ષનિક વૃક્ષ એ પ્રમાણે છે. જે વૃક્ષ, વૃક્ષ ઉપર ઉત્પન્ન થાય છે, ૩ તે વૃક્ષોનિવાળા વૃક્ષે કહેવાય છે. વૃક્ષથી તેઓની ઉત્પત્તિ થાય છે. વૃક્ષમાં જ તેઓ સ્થિત રહે છે, અને વૃક્ષમાં વધે છે, વૃક્ષોનિવાળા, વૃક્ષમાં ઉત્પન્ન, For Private And Personal Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. अ. अ. ३ आहारपरिज्ञानिरूपणम् 'रक्रमा:-वृक्षे एव वर्द्धनशीलाः । 'तज्जोणिया' तयोनिकाः वृक्षयोनिकाः । 'तस्संभवा' तत्सम्माः 'तदुकमा तव्युत्क्रमा:-वृक्षे एव वर्द्धमाना, न केवलं वृक्षा एव कारणं वृक्षयोनिवृक्षाणाम्, किन्तु-'कम्मोवा' कर्मोपगा:कर्मवशवर्तिनः, 'कम्मनियाणेणं' कर्मनिदानेन-कर्मनिमित्तेन तत्थ बुकमा' तत्र वृक्षे वर्द्धमानाः 'पुढीजोणियाण रुक्खेहि पृथिवीयोनिकेषु वृक्षेषु 'रुक्खचाए बिउति' वृक्षतया-वृक्षरूपेण विवर्तन्ते । तादृशजीवा वृक्षरूपेण वृक्षोपरि जायन्ते । 'ते जीवा तेसिं पुढवीजोणियाणं रुकवाणं' वृक्षोपरिविद्यमानास्ते वृक्षयोनिक वृक्ष जीवाः पृथिवीयोनिकानां वृक्षाणाम् 'सिणेहमाहारेति' स्नेहम्-स्निग्धभावमाहा. रयन्ति, वृक्षरसस्याऽऽहारं कुर्वन्ति, 'ते जीवा' ते-वृक्षयोनिकवृक्षनीया 'आहारेति' आहारयन्ति 'पुढवीसरीरं आउते उचाउवणस्सासरीर' पृथिवीशरीरम् अप्तेजोवायुवनस्पतिशरीरम्, आहारयनीतिशेषः । तथा ते वृक्षयोनिकलनीका "गाणाविहाण तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति' नानाविधानाम्अनेकपकाराणां त्रसस्थावराणां प्राणानां-जीवानां यच्छरीर सकायेनाश्रित्य अचित्तं कुर्वन्ति । सचित्तस्यापि तच्छीरस्याऽचित्त मां नयन्ति, 'परिविद्धत्थं परि होते हैं। वृक्ष योनि वाले, वृक्ष में उत्पन्न होने वाले और वृक्ष में ही वृद्धि प्राप्त करने वाले वे जीव भी अपने कर्मों के अधीन होते हैं। कर्म के निमित्त से वृक्ष में बढ़ते हुए वे जीव पृथ्वीयोनिक वृक्षों में वृक्ष रूप से उत्पन्न होते हैं । वृक्ष के ऊपर पैदा होते हैं। वृक्ष के ऊपर उत्पन्न होने वाले वे वृक्षयोनिक वृक्षों के स्नेह का आहार करते हैं। वे पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति के शरीर का भी आहार करते हैं । वे अनेक प्रकार के बस और स्थावर जीवों के शरीर को अपने शरीर से आश्रित करके अचित्त कर देते हैं। अर्थात् उनके सचित्त शरीर का रस खींच कर उन्हें अचित्त कर देते हैं। अचित्त થવાવાળા, અને વૃક્ષમાંજ વધવાવાળા તે છે પણ પિતપિતાના કર્મોને આધીન હોય છે કર્મના નિમિત્તે વૃક્ષમાં વધતા એવા તે જ પૃથ્વીયેાનિક વૃક્ષમાં વૃક્ષપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. વૃક્ષના ઉપર ઉત્પન્ન થાય છે, વૃક્ષના ઉપર ઉત્પન્ન થવાવાળા તે વૃક્ષનિક વૃક્ષ, પૃથ્વીનિક વૃક્ષોના સ્નેહને આહાર કરે છે. તેઓ પથરી, જલ, તેજ, વાયુ અને વનસ્પતિના શરીરને પણ આહાર કરે છે તેમાં અનેક પ્રકારના ત્રય અને સ્થાવર જીવના શરીરને પિતાના શરીરથી આશ્રિત કરીને અચિત કરી દે છે. અર્થાત્ તેઓના સચિત્ત શરીરને રસ ખેંચીને તેઓને અચિત્ત કરી દે છે. અચિત્ત કરેલા તથા For Private And Personal Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५६ सुकृता सूर्य विश्वस्त प्-नष्टपाय 'तं सरीर' तच्छरीरम् 'पुजाहारिये पूहारितम् - पूर्वकाले अत्मसात्कृतम्, ' तयाहारियं' वचाऽऽहारितम्, विपरिणामियं सारू विकर्ड संवं' परिणामितं सत् सरूपकृतं स्यात् तानि शरीराणि स्व स्वरूपाणि कुर्वन्ति, 'अपरेत्रियणं तेर्सि' अपराण्यपि च खलु तेषाम् 'रुववजोगियाणं रूक्वार्ण' -वृक्षयोनिकानां वृक्षाणाम् 'सरीरा' शरीराणि भवन्तीति शेषः । कथंभूतानि तानि शरीराणि - इति जिज्ञासायां तद्विशेषगानि आह 'णाणावण्णा' नानावर्णानि, 'जाणागंधा' नानागन्धानि 'णागारसा' नानारसावि 'णाणा फासा' नानस्पशनि 'णाणासंठाण संठिया' नानासंस्थान संस्थितानि 'णाणाबिहसरीरखे गगलविउब्जिया' नानाविधशरीर गलविकारितानि, एतेगं व्याख्यानं पूर्वसूत्रे कृतमेव नाऽतः "पुनरत्र क्रियते, तत्तु तत एव द्रष्टव्यम्। 'ते' वे वृक्षा जीवाः 'कम्मोववन्नगा' कर्मोपपन्ना:- कर्मपराधीना अस्वतन्त्रः सन्तः तादृशशरीर प्राप्ता भवन्ति, इति तीर्थकरेणाऽऽरूपातम् - कथितमिति । ०२-४४ | किए हुए तथा पहले आहार किए हुए एवं त्वचा के द्वारा आहार किए हुए पृथ्वी आदि के शरीरों को पचा कर वे अपने रूप में परिणत कर लेते हैं । उन वृक्षयोनिक वृक्षजीवों के अन्य शरीर भी होते हैं। वे अनेक प्रकार के वर्ण वाले, अनेक प्रकार के गंध वाले, अनेक प्रकार के रस वाले और अनेक प्रकार के स्पर्श वाले, अनेक प्रकार के अस्कार वाले तथा अनेक प्रकार के शरीरपुद्गलों से उत्पन्न होते हैं । इनका व्याख्यान पूर्वसूत्र में किया जा चुका है, अतएव यहां नहीं करते वे वृक्षजीव कर्मों के अधीन होकर उस शरीर को प्राप्त हुए हैं, ऐसा तीर्थकर भगवान् ने कहा है ॥२॥ પહેલાં આહાર કરેલ અને છ.દ્રારા આહાર કરેલા પૃથ્વી વિગેરેના શરીરને પચાવીને તેએ પેાતાના રૂપથી પરિણુમાવી દે છે. તે વૃક્ષયાનિવાળા વૃક્ષકાય જીવેના અન્ય શરીરે પણ હાય છે. તે અનેક પ્રકારના વણુ વાળા, અને અનેક પ્રકારના ગંધવાળા, અનેક પ્રકારના રસાવાળા, અને અનેક પ્રકારના સ્પશવાળા, અનેક પ્રકારના આકારવાળ, તથા અનેક પ્રકારના શરીર પુદ્ગલેાથી ઉત્પન્ન થાય છે. તેનુ વ્યાખ્યાન પૂર્વ સૂત્રમાં કરવામાં આવી ગયુ` છે. તેથી જ અહિયાં કરવામાં આવતું નથી. તે વૃક્ષછવા કર્માંને આધીન થઈને તે શરીરને પ્રાપ્ત થયા છે, એ પ્રમાણે તીથકર ભગવાનેાએ કહ્યુ` છે, સૂ॰ શા For Private And Personal Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि.श्रु. अ. ३ आहारपरिज्ञानिरूपणम् मूलम्-अहावरे पुरक्खायं इहेगइया सत्ता रुख जोणियां रुक्खसंभवा रुक्खवुक्कमा तज्जोणिया तस्संभवा तदुवकमा कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थ वुक्कमा रुख जोणिसु रक्खेसु रुक्खत्ताए विउदृति, ते जीवा तेसिं पुढवीजोणियाणं रुक्खाणं सिंणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारेति पुढवीसरीरं आउतेउवाउवणस्सइसरीरं, तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुन्नति, परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणामियं सारूविकडं संतं अवरेऽवि य क तेसिं रुक्ख जोणियाणं रुक्खाणं सरीरा णाणावन्ना जाव ते जीवा कम्मोववन्ना भवंतीतिमक्खायं ।।सू०३॥४५॥ छाया-आयाऽपर पुराऽऽध्यातम् इहैकतये सवाः वृक्षयोनिका, वृक्ष सम्भवाः वृक्षव्यु-क्रमाः । तयोनिका स्तत्संभगस्तदुपक्रमाः कर्मोपगाः कर्मनिदा नेन तत्र व्युत्क्रमाः वृक्षयोनिकेषु वृक्षेषु वृक्षतण विवर्तन्ते । ते जीवा स्तेषां पृथिवीयोनिकानां वेशागां स्नेहमाहारयन्ति, ते जीवा आहारयन्ति पृथिवीशरीर मप्तेजोवायुननस्पतिशरीरम् । त्रप्तस्थावरागां पाणानां शरीरमवित्तं कुर्वन्ति । परिविध्वस्तं तच्छरीरं पूर्वाहारितं त्वचाहारित विपरिणामितं स्वरूपीकृतं स्यात् । अपराण्यपि च खलु तेषां वृक्षयोनिकानां वृक्षाणां शरीराणि नानावर्णानि यावत्ते.. जीवाः कर्मों वपन्नका भवन्तीत्याख्यातम् ।।मू०३-४५॥ . टीका-सर्वमप्यत्र पूर्वमूत्र समानमेव । आः पूर्वसूत्रव्याख्यानेन व्याख्यात.' मेव भवतीति ॥सू०३-४॥ मूलम्-अहावरं पुरक्वायं इहेगइया सत्ता रुक्खजोणिया रुक्खसंभवा रुक्खबुकमा तज्जोणिया तस्संभवा तदुवकमा कम्मोवगा कम्मनियाणेणं तत्थ वुक्कमा रुक्खजोणिएसु सखेसु मूलत्ताए कंदत्ताए खंधत्ताए तयत्ताए सालत्ताए पवालत्ताए For Private And Personal Use Only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतास्त्र पत्तत्ताए पुप्फत्ताए फलत्ताए बीयत्ताए विउदृति, ते जीवा तेसिं रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारेंति पुढवी सरीरं आउतेउवाउवणस्सइसरीरं, णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुवंति। परिविद्धत्थं तं सरीरगं जाव सारुविकडं संतं, अवरेऽवि य णं तेसिं रुक्खजोणियाणं मुलाणं कंदाणं खंधाणं तयाणं सालाणं पवालाणं जाव बीयाणं "अहावरं पुरक्खायं' इत्यादि। टीकार्थ-तीर्थकर भगवान ने वनस्पतिकायिक जीवों का तीसरा मे भी कहा है। कोई जीव वृक्ष में उत्पन्न होते हैं, वृक्ष पर रहते हैं और वृक्ष पर ही वृद्धि को प्राप्त होते हैं । ये वृक्षयोनिक, वृक्षोत्पन्न और वृक्ष से ही वृद्धि को प्राप्त जीव भी कर्म के अधीन होकर, कर्म के निमित्त से वृक्षों से उत्पन्न होने वाले वृक्षों के स्नेह का आहार करते हैं। शेषव्याख्यान पूर्वसूत्र के अनुसार ही समझ लेना चाहिए। पूर्व सूत्र में वृक्षों में उत्पन्न होने वाले वृक्षों का वर्णन किया था। वे पृथ्वीयोनिक वृक्षों के स्नेह का आहार करते हैं जा कि ये वृक्षयोनिक, वृक्षों के रस का आहार करते हैं । यही उन वृक्ष जीवों और इन वृक्षो जोधों में अन्तर है॥३॥ .. 'अहावर पुरक्खाय' त्यति ટકાથે—તીર્થકર ભગવાને વનસ્પતિકાયિક જીવોને ત્રીજો ભેદ પણ કહેલ છે, કેઈ જ વૃક્ષમાં ઉત્પન્ન થાય છે. વૃક્ષ પર રહે છે. અને વૃક્ષ પર જ વધે છે. તે વૃક્ષયોનિક, વૃક્ષથી ઉત્પન્ન થયેલા, અને વૃક્ષથી જ વૃદ્ધિને પ્રાપ્ત થયેલા છે પણ કમને આધિન થઈને કર્મના નિમિત્તથી વૃક્ષોમાં આવીને વૃક્ષપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. વૃક્ષોથી ઉત્પન્ન થવાવાળા વૃક્ષોના સ્નેહને આહાર કરે છે. બાકીનું કથન બીજા સૂત્રમાં કહ્યા પ્રમાણેજ સમજી લેવું જોઈએ. પૂર્વસૂત્રમાં વૃક્ષામાં ઉત્પન્ન થવાવાળ, વૃક્ષેનું વર્ણન કરવામાં આવ્યું હતું તે પૃથ્વી નિવાળા વૃક્ષોના સનેહનો આહાર કરે છે, જ્યારે કે આ વૃક્ષે વૃક્ષ નિવાળા વૃક્ષોના રસને આહાર કરે છે. એજ તે વૃક્ષ છે અને આ વૃક્ષ જેમાં અંતર છે. સૂ૦ ૩ For Private And Personal Use Only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका डि. शु. भ. ३ आहारपरिशानिरूपणम् सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा जाव णाणाविहसरीरपोग्गल विउदिया । ते जीवा कस्मोववन्नगा भवतीति मक्खायं ॥ सू० ४ ४६ ॥ छाया - अथाऽपरं पुराख्यातम् इहैकतये सच्चा वृक्षयोनिका वृक्षसंभवा वृक्षव्युत्क्रमाः, तद्योनिका स्वरसंभवा स्तदुपक्रमाः कर्मोपगाः कर्मनिदानेन तत्र व्युत्क्रमाः, वृक्षयोनिकेषु वृक्षेषु मूलतया कन्दतया स्कन्धतया वक्तया सालतया: प्रवालतया पत्रतया पुष्पतया फलतया बीजतया विवर्त्तन्ते । ते जीवा स्तेषां वृक्षयोनिकानां वृक्षाणां स्नेहमाहारयन्ति, ते जीवा आहारयन्ति पृथिवीशरीरमप्तेजोवायु वनस्पतिशरीरं नानाविधानां सस्थावराणां प्राणानां शरीरमवित्तं कुर्वन्त । परिविध्वस्तं तच्छरीरं यावत् सारूपीकृतं स्यात् । अपराध्यपि च खल तेषां वृक्षोनिकानां मूलानां कन्दानां स्कन्धानां स्वचां शालानां मत्रालानां यावद् बीजानां शरीराणि नानावर्णानि नानागन्धानि यावनानाविधशरीर पुद्गल विकारितानि भवन्ति । ते जीवाः कर्मोपपन्नका भवन्तीत्याख्यातम् ॥०४-४६ ।। टीका - 'अहावरं ' अथाऽपरम् 'पुरखखायं' पुराख्यातम् - पुरा - पूर्वस्मिन् काळे देवासुरपरिषदि आख्यातम्, तीर्थकरेण वनस्पतिजीवानाम् अन्येऽपि मेद प्रभेदाः कथिताः उपलक्षणाद् वर्त्तमानेऽपि भविष्यत्कालेऽपि वनस्पतिनिरूपणं ज्ञेयम् ते इसे सन्ति । तथाहि 'रहेगा' इकतये 'सत्ता' सच्चा:- जीवा', 'रुखजोणिया ' वृक्षयोनिका, वृक्षाः योनिः - उत्पत्तिस्थानं येषां ते तथा 'रुक्ख से भवा' वृक्षसम्मत्राः- वृक्षात् समुत्पद्य वृक्षे एव स्थितिमन्तो विद्यमाना इत्यर्थः । तथा 'अहावरं पुरकखायं' इत्यादि । टीकार्थ- पूर्वकाल में तीर्थकर भगवान् ने समवसरण में विराजमान होकर वनस्पतिकाय के अन्य भेद प्रभेद भी कहे हैं। उपलक्षण से यह भी समझ लेना चाहिए कि वर्तमान कालीन तीर्थकर कहते हैं और afarsenior तीर्थकर कहेंगे। वे भेद प्रभेद इस प्रकार हैं . कोई कोई जीव वृक्षोनिक वृक्ष से उत्पन्न होने वाले वृक्ष में स्थित रहने वाले और वृक्ष में वृद्धि पाने वाले होते हैं। ये जीव कर्म के 'अहावर' पुरखायं' इत्याहि ટીકા પૂર્વકાળમાં તીય કર ભગવાને સમવસરણમાં બિરાજમાન થઇને વનસ્પતિકાયના બીજા પણ ભેદ અને પ્રભેદ કહ્યા છે. ઉપલક્ષણથી એ પણ - સમજી લેવુ' જોઈ એ કે-વર્તમાન કાળના તીથ કર કહે છે, અને ભવિષ્ય કાળના તીર્થંકરા કહેશે. તે ભેક પ્રભેદ આ પ્રમાણે છે.— કાઈ ફાઈ જીવા વૃક્ષચેાનિક વૃક્ષામાંથી ઉત્પન્ન થવાવાળા, વૃક્ષમાં સ્થિત રહેવાવાળા, અને વૃક્ષમાં વધાવાળા હાય છે, આ જીવે. કમને વશ થઈને For Private And Personal Use Only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 美 ३६० सूत्रकृताङ्गसू 'घुमा' मा वृक्षे एव विवर्द्धमानाः 'तज्जोगिया' तयं निका 'तं संभवा' तत्सम्भवा 'तमुत्रक्का' तदुपक्रमाः वृक्षादेवोत्पद्यन्ते वृक्षे पत्र 'तिष्ठन्ति वृक्षे एव विवर्द्धन्ते । 'कम्भोग' कर्मोपगाः- कर्मवशाः 'कम्मनिवाणेणं' कर्मनिशनेन - कर्ममे गया 'तत्थ बुकपा' तत्र व्युह्क्रमाः- तत्रैधनानाः ! 'रुक्ख जोणि सु' वृक्षयोनिकेषु 'रुक्खेपु' वृक्षेषु 'मूलवार' मूलनया, तत्र सूत्रम्-भूमिस्थित भनिविशेषस्तेन रूपेण 'कंदलाए' कन्दतया मूलानामुपरि वृक्षावयवविशेषः कन्दस्तेन रूपेण 'धताएं' स्कन्धतया - कन्दस्पोपरिमागस्तेन रूपेग 'तयत्ताए' वक्तया 'सालताए' सालतया - बूरच्छाखारूपेण 'पवालसाए' प्रबालतया - किसचयरूपेण 'सत्ता' पत्रतया 'पुष्कताएं' पुष्पतया 'फलताएं' फलतया 'बीयताए 'बीजतया 'विउति' विवर्त ते कर्माधीनास्ते जीवाः मूलादारभ्य बोजपर्यन्तं तेभर स्वराद्रवेण समुत्पद्यन्ते । मूलादारभ्य वीजपर्यन्ता ये जीवाः सन्ति तेषु मत्येक जीवो मित्र मिन एव ततदूपेण तत्र तत्रोत्पद्यते, वृक्षस्य सर्वाङ्गव्यापको जीवस्तु एभ्यो दशजी वेभ्यो भिन्नः सन् वृक्षे उत्पद्यते इति भावः । वृक्षावयवतथा समु पन्नास्ते जीवाः 'सिक्ख गोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारे वि' तेषां वृक्ष योनि Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वशीभून और कर्म के निमित्त से वृक्ष में उत्पन्न होते, स्थित रहते और वढते हैं । ये वृक्षयोनिक वृक्षों में मूल रूप से, कंद रूप से, स्कंध रूप से, छाल रूप से, शाखा रूप से, कौंपल रूप से, पत्र रूप से, पुष रूप से, फल रूप से और बीज रूप से उत्पन्न होने हैं । इस प्रकार वृक्ष के अवयवों के रूप में उत्पन्न हुए वे जीव उन वृक्षयोनिक वृक्षों के स्नेह को आहार करते हैं मूलसे लेकर बीजपर्यन्त के जो जीव होते है वे प्रत्येक जीव भिन्न होते हुए उसीरूप से वहाँ वहां उपन्न होते हैं वृक्ष व्यापकजीव इस दस प्रकार के जीवों से भिन्न है और वृक्ष में उत्पन्न होते हैं । अर्थात् वृक्ष के द्वारा ग्राण किये हुए स्नेह से તથા ક્રમના નિમિત્તે વૃક્ષામાં ઉત્પન્ન થાય છે. સ્થિત રહે છે અને વધે છે. આ ચેાનિવાળા જીવા વૃક્ષામાં મૂળ રૂપે, કદરૂપે, ધરૂપે, છાલરૂપે, ડાળરૂપે, કુ ળરૂપે, પત્રરૂપે, પુષ્પરૂપે, ફળરૂપે અને ખી રૂપથી ઉત્પન્ન થાય છે. આ રીતે વૃક્ષના અત્રયવાના રૂપથી ઉત્પન્ન થયેલા તે જીવે તે વૃક્ષ ચેાનિવાળા વૃક્ષાના સ્નેહના આહાર કરે છે. મૂળથી આરસીને ખીજ સુધી જે જીવા હાય છે, તે પ્રત્યેક જીવા જુદા જુદાં હાવા છતાં એજ રૂપે ત્યાં ઉત્પન્ન થય છે. વૃક્ષનું સર્વાંગ વ્યાપક જીવ આ દસ પ્રકારના જીવાથી જુદા અને વૃક્ષમાં ઉત્પન્ન થાય છે. અર્થાત્ વૃક્ષદ્વારા ગ્રહણુ કરવામાં આવેલ For Private And Personal Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिशानिरूपणम् कानां वृक्षाणां स्नेहमाहारयन्ति-भोज्यतया आददते, वृक्षोपात्तमेव स्नेहं समनन्तः स्वस्थितिं कुर्वन्ति, 'ते जीरा आहारे ति' ते जीवा आहारयन्ति, 'पुढतीसरीरं आउतेउवाउवणस्सइसरी' पृथिवीशरीरम् -अप्तेजोवायुनिस्पतिशरीरम् आहार. यन्ति इति पूर्वेण सम्बन्धः। 'णाणाविहाण' नानाविधानाम्, 'तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुवंति' बसस्थावराणां प्राणानां शरीरमचित्तं कुर्वन्ति । अचित्तीकृत्य 'परिविद्धत्यं' परिविध्वस्त-नष्टमायम्, 'तं सरोर' तच्छरीरम् 'नाव' यावत् सारूविकडं संत' सारूपीकृतं स्यात् । तच्छरीरं विपरिणमय्य : स्वस्वरूपेण विपरिणमयति 'अवरेऽवि य णं' अपराण्यपि च खलु 'तेर्सि' तेषाम् ‘रुकखनोणियाण' वृक्षयोनिकानाम् 'मलाणं' मूलानाम् 'कंदाण' कन्दानाम् 'खंधाण' स्कन्धा. नाम्, 'तयाण' त्वचाम् 'सालाण' शालानाम् 'पवालाण' प्रबालानाम् 'जाव' यावत् 'बीयाण' बीनानाम् 'सरोरा' शरीराणि 'णाणावणा' नानावर्गानि विभिन्न वर्णानि 'णाणागंधा' नाना गन्धानि 'जाव' यावत् 'जाणाविहसरीरपोग्गल विउनिया' नानाविधशरीरपुद्गलविकारितानि-विविधपकारकशरीरपुद्गलनिष्पादि. तानि वृक्षाऽपेक्षयाऽपराणि शरीराणि भवन्ति, ते जीवाः 'कम्मोववन्नगा' कर्मों पपन्नकाः कर्मवशीभूतास्तत्रोत्पन्नाः-कर्मणा हृतशरीरा इति यावत् भवन्ति, न तुईश्वराद्यपेक्षतत्तच्छरीरका भवन्ति। 'ति मक्खाय' इत्याख्यातं तीर्थकरादिभिरिति ॥मू०४-४६। पोषण प्राप्त करते हैं । वे पृथ्वी अप, तेज वायु और वनस्पति का भी आहार करते हैं और नाना प्रकार के स तथा स्थावर जीवों के शरीर को अचित्त करते हैं । अचित्त किये हुए उस शरीर को यावत् अपने शरीर के रूप में परिणत कर लेते हैं। उन वृक्षों से उत्पन्न मूल, कन्द, स्कंध, छाल, शाखा, कोपल यावन पीज रूप जीवों के शरीर नाना प्रकार के वर्ण तथा नाना प्रकार के गंध से युक्त होते हैं तथा नाना प्रकार के पुद्गलों से बने होते हैं वे जीव भी कमके वशीभूत होकर નેહથી પિષણ મેળવે છે. તે પૃથ્વી, અપૂ તેજ વાયુ અને વનસ્પતિના શરીરનો પણ આહાર કરે છે, અને અનેક પ્રકારના ત્રસ સ્થાવર જના શરીરને અચિત્ત બનાવે છે. અચિત્ત કરવામાં આવેલા તે શરીરને યાવત પિતાના શરીરના રૂપે પરિમાવી લે છે. તે વૃક્ષમાં ઉત્પન્ન થયેલાં મૂળ, ६, २४, ७स, शाम-n५१-यात् श्री ३५ रोना शरीर भने પ્રકારના ગધથી યુક્ત હોય છે. તે જ પણ કર્મને વશ થઈને ત્યાં ઉત્પન્ન स०४६ For Private And Personal Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतानने मूलम्-अहावरे पुरक्खायं इहेगइया सत्ता रुक्खजोणिया रुक्खसंभवा रुखवुकमा तज्जोणिया तस्संभवा तदुवकमा कम्मोववन्नगा कम्मनियाणेणं तत्थ बुकमा रुक्खजोणिएहिं रुक्खेहि अज्झारोहताए विउदंति, ते जीवा तेप्ति रुक्खजोणिपाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारेति, ते जीवा आहारोंति पुढवीसरीरं जाव सारूविकडं संतं, अवरे वि य ज तेसिं रुक्खजोणियाणं अज्झारुहाणं सरीराणाणावण्णा जाव भवंतीति मक्खायं ।५।४। छाया-अथाऽपर पुराख्यातम् इहै कतये सत्याः-वृक्षोयोनिका-वृक्ष सम्भवा:-वृक्षव्युत्क्रमाः, तद्योनिकास्तरसम्मका स्तापक्रमाः कोपपन्न काः कर्म निदानेन तत्र व्युत्क्रमाः वृक्षयोनि केषु वृक्षेषु अध्यारुहनया विवर्तन्ते । ते जीवास्तेषां वृक्षयोनिकानां वृक्षाणां स्नेहमाहारयन्ति । ते जीवा आहारयन्ति पृथिवीशरीरं यावत् सारूपीकृतं स्यात् । अपराण्यपि च खलु तेषां वृक्षयोनिकानामध्यारूहाणां शरीगणि नानावर्णानि यावद् भान्तीत्याख्यातम् ।।०५-१७॥ टीका-वृक्षादेव समुत्पन्ना स्तत्रैव स्थितिमन्तस्तदंशेन वर्द्धमानाः पूर्वमूत्रे कधिताः। इह च वृक्षयोनिक वृक्षेषु ऊर्बभागे एव अध्यारूहनामकवनस्पतिविशेषा स्तेभ्य एव, वृक्षेभ्यः समुत्पन्ना भवन्तीति कथ्यते । 'अहावर पुरक वाय' अथाऽपर पुराऽऽख्यातम् 'इहेगइया सत्ता' इहैकनये सत्त्याः-वनस्पतिविशेषा यहां उत्पन्न होते हैं । ईश्वर आदि कोई उन्हें वहां उत्पन्न नहीं करता है । ऐसा तीर्थ र भगवन्तों ने कहा है ॥३॥ 'अहावरं पुरक्वायं' इत्यादि। टीकार्थ-पूर्व सूत्र में कहा जा चुका है कि जीव वृक्ष से उत्पन्न, वृक्ष में स्थित और वृक्ष में से ही वृद्धि प्राप्त करने वाले, वृक्ष के मूल થાય છે. ઈશ્વર વિગેરે કઈ તેઓને ત્યાં ઉત્પન્ન કરતા નથી. એ પ્રમાણે ती4:२ सानाये 3 छ. ॥सू० ४॥ . 'महावर पुरखाय' या ટીકા–પૂર્વસૂત્રમાં કહેવામાં આવેલ છે કે જે વૃક્ષથી ઉત્પન્ન, વૃક્ષમાં રિથા અને વૃક્ષથી જ વધવાવાળા વૃક્ષના મૂળ, કંદ, વિગેરે રૂથી For Private And Personal Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिज्ञानिरूपणम् स्तीर्थकरः प्रतिपादिताः, 'हाख जोणिया रुवसं भवा' वृक्ष गेनिकाः-पक्षपोनि समुत्पन्नाः क्षसम्भवाः, 'रुक्खवुकमा' वृक्षादेव जाताः वृक्षे वर्तमानाः वृक्षादेव बर्द्धमानाः, 'तज्जोणिया' तघोनिका:-वृक्ष योनिमनुत्पन्नाः तस्स मवा' तत्सम्मवाः 'तदुककमा' तदुरक्रमाः-तत्र वर्द्धमानाः 'कम्मोधनमा' कर्मोप नका:-कर्मपरवशा वृक्षोत्पन्नाक्षे स्थिताः वृक्षादेव वर्द्ध मानाः कर्मतन्त्राः, 'कम्म नियाणेण' कर्मनिदानेन कर्मनिमित्तेन, 'तत्थ बुकमा' तत्र-वृक्षे व्यु-क्रमावर्द्धमानाः 'रुक्खनोणिएहि' वृक्षयोनिकेषु 'रुस्खेहि' वृक्षेषु-वृक्षो भागेषु 'अज्झारोहत्तार' अन्यारुहाया 'विउति' विवर्तन्ते-समुपद्यन्ते अध्यासानामकवनस्पतिौशिष्टय रूपेग 'ते जीवा' ते जीवा:- क्षयोनिकवृक्षे समुत्पन्नाः अध्यरुहनामाया प्रसिद्धाः वनस्पतिविशेषनीवाः, 'तेसिं' तेषाम् 'रुषवनोणि' याण' वृक्षयोनि कानाम् 'रुकवाण' वृक्षाणाम् 'सिणेहमाहारेति' स्नेहमाहारयन्ति -तदुपभुक्तस्नेहभावसम्पत्या जीपति ते जीवा आहारेति' ते जीवा आहारयन्ति 'पुढवीसरीर जा पृथिवीशरीर यावर-अप्ते नोवायुवनस्पतिशरीरमाहारयन्ति । नानाविधानां सस्थावराणां माणिनां शरीरमचित्तं कुर्वन्ति, तद. कंद आदि रूप से उत्पन्न होते हैं। यहां वृक्ष के आश्रित रहे हुए वृक्ष में उत्पन्न होने वाले जीवों का कथन करते हैं। तीर्थकर भगवान ने कहा है कि कोई कोई वनस्पतिजीव वृक्ष में उत्पन्न, वृक्ष में स्थित और वृक्ष में बढने वाले होते हैं। कर्म के अधीन होकर ही वृक्ष में उत्पन्न होते हैं, वृक्ष में स्थित रहते हैं और वृक्ष में वृद्धि प्राप्त करते हैं । वे वनस्पतिकाय में आकर वृक्ष से उत्पन्न वृक्ष में अध्यारह वनस्पति के रूप में उत्पन्न होते हैं। वे जीव वृक्षयोनिक वृक्षों के रस का आहार करते हैं और पृथ्वी आदि पूर्वोक्त सभी शविरों का भी आहार करते हैं तथा उनको अपने शरीर के रूप में परिणत कर ઉત્પન્ન થાય છે. અહિયાં વૃક્ષના આશયથી રહેલા અને વૃક્ષામાં ઉત્પન્ન થવા વાળા છાનું કથન કરે છે. તીર્થકર ભગવાને કહ્યું છે કે-કઈ કઈ વનસ્પતિ છે વૃક્ષમાં ઉત્પન્ન, વૃક્ષમાં સ્થિત અને વૃક્ષમાં વધવાવાળા હોય છે. તેઓ કમને અધીન થઈને જ વૃક્ષમાં ઉત્પન્ન થાય છે. વૃક્ષમાં સ્થિત રહે છે. અને વૃક્ષમાં વધે છે. તેઓ વનસ્પતિકાયમાં આવીને વૃક્ષામાં ઉત્પન્ન થઈ વૃક્ષમાં રહેલા વનસ્પતિરૂપે ઉત્પન્ન થાય છે. તે છે વૃક્ષાનિક, વૃક્ષોના રસને આહાર કરે છે. અને પૃથ્વી વિગેરે પૂર્વોક્ત સઘળા શરીરને પણ આહાર કરે છે. તથા તેઓને પિતાના શરીરના રૂપથી પરિણમાવી લે છે. તે વૃક્ષ નિવાળા For Private And Personal Use Only Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्र चित्तीकृत्य-विध्वस्तं तच्छरोर विपरिणमय्य 'सारूविकडं संत' सारूरीकृतं स्यात्, तेषां शरीराणि स्वात्मसाकुर्वन्तः सरूपरूपमेव कुर्वन्ति । 'अपरे वि य' अपराण्य. पि च, 'ण' इति वाक्यालङ्कारे 'तेसिं' तेषाम् ‘सा व जोणि पाणं' वृक्षयोनिकानाम् 'अज्झारुहाणं' अध्यारहाणाम्-वनस्पतिविशेषाणाम् 'सरीरा' शरीराणि-भोगायतनानि ‘णाणावण्णा' नानावर्णानि 'जाव' यावत्-नानारसगन्ध स्पर्शसम्पन्नानि 'भवंति'. भवन्ति । तानि च शरीराणि स्वकृतकर्मवलाद् भवन्ति, न तु कालेश्वर कृतकृपयेति तीर्थकरैः प्रतिपादितम् । इममेवार्थम् 'जाव मकवाय' यावदा. ख्यातमिति-अयमागमः प्रतिपादयतीति ।।मू०५-४७॥ मूलम्-अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता अज्झारोह जोणिया अज्झारोहसंभवा जाब कम्मनियाणेणं तत्थ वुकमा रुख जोणिएसु अज्झारोहेसु अज्झारोहत्ताए विउटुंति, ते जीवा तेसिं रुक्खजोणियाणं अज्झारोहागं सिणेहमाहारेति, ते जीवा आहा. रेति पुढवीसरीरं जाव सारूविकडं संतं, अवरे वि य णं तेसि अज्झारोहजोणियाणं अज्झारोहाणं सरीरा णाणावन्ना जाव मक्खायं ॥सू० ६॥४८॥ छाया- अथाऽपर पुराऽऽख्यातम् इहैकतये सत्वा अध्यारूहयोनिका अध्यारुहसंभवाः, यावत् कर्मनिदानेन तत्रोपक्रमाः वृक्षयोनिकेषु-आध्यामहेषुअध्यारुहतया विवर्तन्ते । ते जीवा स्तेषां वृक्षयोनिकानामध्यारुहाणां स्नेहमाहारयन्ति । ते जोत्रा आहारयन्नि पृथिवीशरीरं यावत् सारूपीकृतं स्यात्, अपराण्यपि च खलु तेषामध्यारुहयोनिकानामध्यारूहाणां शरीराणि नानावर्णानि यावदाख्यातानि ॥१०६-४८॥ लेते हैं। उन वृक्षयोनिक अध्यारुह नामक वृक्षों के शरीर नाना वर्ण गंध रस और स्पर्श वाले होते हैं । वे शरीर अपने अपने उपार्जित कर्मों के अनुसार होते हैं, काल अथवा ईश्वर के करने से नहीं होते, ऐसा तीर्थकरों ने कहा है। 'जाव मक्खायं' यह शब्द इसी अर्थ को सूचित करते हैं ॥५॥ અધ્યારૂહ ઉપર ચડવાવાળા) નામના વૃક્ષોના શરીર અનેક વર્ણ, ગંધ, રસ અને સ્પર્શવાળા હોય છે. તે શરીર પિત પિતાના ઉપાર્જન કરેલા કર્મો અનુસાર હોય છે, કાળ અથવા ઈશ્વરના કરવાથી થતા નથી, એ પ્રમાણે તીર્થંકરોએ डत छ.."जाव मक्खायं स पाय मे अथन मताव छ. सू. ५ . For Private And Personal Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि.श्रु. अ. ३ आहारपरिशानिरूपणम् ३६५ टीका-गतपबन्धेनाऽधारुहवनस्पतिकायावच्छिन्ननीयस्वरूपं पदय सम्पति -अध्यारुहयोनि का रुइतनाति शरीरावच्छिन्नेऽपि भवतीति तीर्थ का निर्देश इति दर्शयितुं पर ग्रन्थोऽजताय ते। 'अहावरं' इत्यादि । 'अहावरं' अथाऽपाम् 'पुरक्खायं' पुराऽऽस्तावम, तीर्थकरेणान्योऽपि प्रकारो दशा, 'इइ गइया' इहै काये 'सत्ता' सत्चा:-जीवाः 'अज्झारोहजोणि या अध्यारुहयोनिका!-वृक्षयोनिकाऽध्यारुहवनस्पतिविशेषा एव योनिः-उत्पत्तिस्थान येषां तेऽध्यारुहयोनिका वनस्पतिविशेषाव च्छिन्ननीवाः अध्यारहवनस्पतिमाता इत्यर्थः, 'अझारोहसमा अध्यारुहसंभवा:तस्थितिका इत्ययः अध्यारहाणां वृद्धथा बढुंगनाः, 'जाव कम्मनियाणेणे' यावत्कर्मनिदानेन-कर्मनिमित्त मामाघ 'तत्थ वुकमा तत्रोपक्रमाः तत्र-अध्या. 'अहावरं पुरक्खाय' इत्यादि। टोकार्थ--पिछले सूत्र में अध्यारुह (वृक्षों के ऊपर बढने वाली) बल्ली लता वनस्पतिकाय के जीवों का स्वरूप कहा गया। अब अध्यारुह योनिक अध्यासह वनस्पतिकाय भी होते हैं, ऐसे तीर्थ कर के कथन को दिखलाने के लिए सूत्र कहा जाता है। तीर्थकर भगवान ने वनस्पतिजीवों का अन्य प्रकार भी कहा है। वह इस प्रकार है-अध्यारुह योनिक अर्थात् वृक्षयोनिक अध्यारह नामक वनराति ही जिनकी योनि है, ऐसे जीव, अर्थात् वे जीव जो अध्यारह वनस्पति से उत्पन्न होते हैं और अध्यारुह वनस्पति की वृद्धि होने पर बढ़ते हैं। वे कर्म के निमित्त से अध्यारह वनस्पति में 'अहावर पुरक्खाय' या ટીકાર્થ–પાછલા સૂત્રમાં અધ્યારૂહ (વૃક્ષના ઉપર વધાવાવાળી વેલ) વનસ્પતિકાયના જીનું સ્વરૂપ પ્રગટ કરવામાં આવેલ છે. હવે અધ્યારૂહ નિવાળા, અધ્યારૂ વનસ્પતિકાય પણ હોય છે, એ પ્રમાણેના તીર્થંકર ભગવાનના કથનને બતાવવા માટે આ સૂત્ર કહેવામાં આવે છે. તીર્થકર ભગવાને વનસ્પતિ અને અન્ય પ્રકાર પણ બતાવેલ છે. તે પ્રકાર આ પ્રમાણે છે. –અધ્યારૂહ નિવાળા અથત વૃક્ષનિક અધ્યારુ નામની વનસ્પતિ જ જેમની નિ અર્થાત્ ઉત્પત્તિ સ્થાન હોય છે, એવા છે અર્થાત તે છે કે જેઓ અધ્યારૂહ વનસ્પતિમાંથી ઉત્પન્ન થાય છે. અને અધ્યારૂહ વનસ્પતિ વધવાથી વધે છે. તેઓ કર્મના નિમિત્તે અધ્યારૂહ For Private And Personal Use Only Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सत्रकृतीशने रुह एत्र वर्द्ध नशीलाः, 'रुक व नोणिए मु' वृक्षयोनि केषु 'अन्झारोहेनु' अपारु. हेषु-अध्यारुहनामकवनस्पतिविशेषेषु अझारोह तार' अध्याताया-अध्यारुहस्वरूपेण 'विउटृति' विवर्तन्ते-सतरूपविस्तारं संपादयन्ति, 'से जीना सिं रुश्व नोणि. याण सिणेहमाहारेति' ते नोवा:-अधारूहमाऽपि अध्यारुहावछिन्नाः ते वृक्ष योनिकानामध्याहाणां स्नेह-स्नेहभागमाहास्यनि-नदीवरसामनीय जीवन्ति बर्द्धन्ते च, 'ते जीवा आहारेति पुढवीपरीरं जात्र सारूविकडं संत' ते जीभ आहारयन्ति पृथिवीशरीर यावत्-प्रपते नोवायु पनस्पतिशरीरमाहारयन्ति । आहार कृत्वा नानाविधाना प्रस्थावराग शरीरमवितं कुनि, अचित्तोकृत्य विधस्त विपरिणमितं तच्छरीरं सारूपीकृतं स्यात्, तच्छरोरं स्वात्मसाकमा स्वस्वरूाता नयन्ति, 'तेसिं अज्झारोहजोणियाणं आज्झारोहाणं' तेरामध्यारुहयोनिकानाम् अध्यारुहनीवानाम्, 'भारे वि सरीरा' अमरापपि शरीराणि 'णागावण्णा' नाना वर्णानि-नानारसगन्धस्पर्शयुक्तानि भवन्तीति, 'जाव मक्खाय' यावदाख्यातानि तानि शरीराणि तीर्थ करैरिति ।।०६-४८॥ मूलम्-अहावरं पुरक वायं इहेगइया सत्ता अज्झारोहजोणिया अज्झारोहसंभवा जाव कम्मनियागेणं तत्थ वुकमा अज्जा. रोहजोणिएसु अज्झारोहत्ताए विउहंति, ते जीवा तेसिं अज्झा. रोहजोणियाणं अज्झारोहाणं सिणेहमाहारैति, ते जीवा आहारति ही अध्यारुह रूप से वृद्धि को प्राप्त होते हैं। वे वृक्ष गेनिक अपारूहों के स्नेह का आहार करते हैं एवं पृथ्वी, अप, तेज, वायु तथा वनस्पति के शरीरों का आहार करते हैं और उस आहार को अपने शरीर के रूप में परिणत कर लेते हैं । उन अध्यारुह योनिक अध्यारह जीवों के नाना वर्ण, नाना गेध, नानारस और नाना स्पर्श वाले अनेक शरीर होते हैं । ऐसा तीर्थकर भगवंतों ने कहा है ॥६॥ વનસ્પતિમાં જ અધ્યારૂહપણથી વધે છે. તે વૃક્ષ નિવાળા અધ્યારૂના स्नेहन मा२ ४३ 2. Yी, १५, av, वायु, तथा वनस्पतिन। शरी. પાને પણ આહાર કરે છે. અને તે આહારને પોતાના શરીર રૂપે પરિણ માવી લે છે, તે અધ્યારૂડ નિવાળા અધ્યારૂહ જેના અનેક વર્ણ, અનેક ગંધ, અનેક રસ, અને અનેક સ્પર્શવાળા અને શરીરે હોય છે. એ . प्रमाणे ती ४२ पाने ४३a छे. सू. १-४८॥ For Private And Personal Use Only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थचोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिक्षानिरूपणम् पुडवीसरीरं आउसरीरं जाव सारूविकडं संतं, अवरे वि यण तेसिं अज्झारोहजोणियाणं अज्झारोहाणं सरीरा णाणावना जाव मक्खायं । सू०७॥४९॥ छाया-आयाऽपर पुराख्यातम् इहैकतये सत्वाः अध्यारुहयोनिकाः अध्या. रुहसम्भवाः यावत् कर्मनिदानेन तत्र व्यु-क्रमाः अध्यारुहयोनिकेषु अध्यारुहत्या विवर्तन्ते । ते जीता स्तेषामध्यारुहयोनिकानामध्याहाणां स्नेहमाहारयन्ति, ते जीना आहास्यन्ति पृथिवीशरीरमप्शरीरं यावत् सारूपीकृतं स्यात् । अपराण्यपि च खलु तेषामध्यारुहयोनिकानामध्यारुहाणां शरीराणि नानावर्णानि यावदाख्यातानि । मु०७-४९॥ टीका--'अहावर' अथाऽपरम् 'पुरावा' पुराख्यातम्, तीर्थकरेण वृक्षयोनिकाऽध्यारुहयोनिकाऽधारुहादुपरिअपि वनस्पतिविशेषो जीवो भवतीति पति. पादितः, 'इहे गइया' है कतये 'सत्ता' सत्ता:-जीवाः 'अज्झारोहजोणिया' अध्यारुहयोनिकाः, अध्यारुहो योनिः- उत्पत्तिकारणं येषां ते तथाभूता भवन्तीति, 'अज्झारोहसंभवा' अध्यारुहसंभवा:-तत्रैव मिद्यमानाः 'जाव' यावत् 'कम्म नियाणेण' कर्मनिदानेन-कर्मणाऽऽकृष्टाः, 'तस्थ बुकमाः-तत्र व्युत्क्रमाः-तत्रैव बीमामा, 'अज्झारोहजोणिएसु' अध्यारुहयोनिकेषु अज्झारोहत्ताए' अध्यारुहतया-अध्यारुहम्वरूपेण 'विउद॒ति' विवर्तन्ते उत्पद्यन्ते जायन्ते इति यावत्, 'ते जीवा तेसिं अज्झारोहजोगियाणं अज्झारोहाणं सिणेहमाहारेति' ते-उपरि कविता 'अहावरं पुरक्खाय' इत्यादि। टीकार्थ-तीर्थकरों ने वृक्षयोनिक अध्यारहयोनिक अध्यारुह जीवों के ऊपर भी वनस्पतिकाय के जीवों का अस्तित्व कहा है। वह इस प्रकार है____कोई कोई जीव अध्यारहयोनिक अर्थात् अध्यारुह से उत्पन्न होने वाले, अध्यारह के आश्रित रहने वाले और अध्यारुह में ही बढ़ने वाले होते हैं। वे कर्म के वशीभूत होकर अध्यारुह योनिक जीवों में अध्यारुह रूप से उत्पन्न होते हैं । वे जीव उन अध्यारुहयोनिक अध्या. 'अहावर पुरक्खाय' इत्यादि ટીકાર્થ– તીર્થકરોએ વૃક્ષ નિવાળા અધ્યારૂહ કેનિક અધ્યારૂહ જીવોની ઉપર પણ વનસ્પતિકાયના જીવે નું અસ્તિત્વ કહેલ છે તે આ પ્રમાણે છે કોઈ કઈ જીવ અધ્યારૂહ નિવાળા અર્થાત્ અધ્યારૂહથી ઉત્પન્ન થવાવાળા, અધ્યારૂહના આશયથી રહેવાવાળા, અને અધ્યારૂહમાં જ વધવાવાળા હોય છે. તેઓ કમને વશ થઈને અદયાહન વાળા ઓમાં અધ્યાહ For Private And Personal Use Only Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे ३६८ जीवा बनस्पतिविशेषशरीराऽवच्छिन्नाः तेषामध्यारुहयोनिकानामध्याहाणां स्नेहरसनिष्पत्तिम् आहारयन्ति तदीय भुज्यमानरसं भज्यमानाः-जीवन्ति दद्धन्ते च । 'ते जीवा आहारेति' ते जीवा अ हारयन्ति 'पुढतीसरीरं आउ सरीर जाव सारू. विकड़े संत' ते- उपरितना जीवाः आहारयन्ति पृथिवीशरीरम् अप् यावत् तेजोवायुबनस्पतिशरीरम् । सारूपीकृतं स्यात् तमात्मसात्कृत्वा स्वस्वरूपमें कुर्वन्ति । 'तेसिं अज्झारोहजोणियाणं अज्झारोहाण' तेषामध्यारुहयोनिकानामध्यारहाणाम् 'अवरे वि' अपराण्यपि 'सरीरा' शरीराणि 'णाणावण्णा जाव मक्खायं नानावर्णानि शदाख्यातानि,नानावर्णरसगन्धस्पर्भवन्ति, अन्यानि शरीराणि तीर्थकरेण प्रतिपादितानि, इतोऽधिकः पूर्वसूत्राज्ज्ञेयः ।।मु०७-४९॥ . मूलम्-अहावरं पुस्क्खायं इहेगइया सत्ता अज्झारोहजोणिया अज्झारोहसंभवा जाव कम्मनियाणेणं तत्थ वुक्कमा अज्झारोहजोणिएसु अन्झारोहेसु मूलत्ताए जाव बीयत्ताए विउठंति, ते जीवा तेप्तिं अज्झारोहजोणियाणं अज्झारोहाणं सिणेहमाहारेंति, जाव अवरेऽवि य णं तेसिं अज्झारोहजोणियाणं मूलाणं जाव बीयाणं सरीरा णाणावन्ना जाव मक्खायं ॥सू० ८॥५०॥ छाया-अथाऽपर पुराख्यातमिहैकतये सत्या अध्यारुहयोनिकाः अध्यारुहसम्मवाः यावत् कर्मनिदानेन तत्र व्युत्क्रमाः अध्यारुहयोनिकेषु आध्यारुहेषु मूल. रुह के स्नेह का आहार करते हैं । वे पृथिवीकाय, असाय, तेजस्काय, वायुकाय एवं वनस्पतिकाय के शरीरों का भी आहार करते हैं और उन्हें अपने रूप में परिणत करते हैं। उनके अध्यारूह योनिक अध्या. रूह वनस्पतिजीवों का अन्य शरीर भी नाना वर्ण, गंध, रस और स्पर्श वाले होते हैं, ऐसा तीर्थकर भावान् ने कहा है ॥७-४९॥ પણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. તે છે તે અધ્યારૂ નિવાળા અધ્યારૂના અને હને આહાર કરે છે. તે પૃથ્વીકાય, અપકાય, તેજાય, વાયુકાય અને વનસ્પતિકાયના શરીરને પણ આહાર કરે છે. અને તેઓને પિતાના રૂપથી પરિમાવે છે તેઓના–અધ્યારૂહ યે નિવાળા, અધ્યારૂહ વ પતિ ના અન્ય શરીરે પણ અનેક વર્ણ, ગંધ, રસ અને સ્પર્શવાળ હોય છે એ પ્રમાણે તીર્થકર ભગવાને કહેલ છે. સૂ. ૭-૪લા For Private And Personal Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिक्षानिरूपणम् तया यावद् वीजतया विवर्तन्ते, ते जीवास्तेषामध्यादयोनिकानामध्यारहाणां स्नेहमाहारयन्ति, यावदपराण्यपि च खलु तेषामध्याहयोनिकानां मूलानां यावत् बीजानां शरीराणि नानावर्णानि याबदाख्यातानि ।सू०८-५०॥ । टीका--'अहावर पुरक्खाय' अथापरं पुराख्यातम्, श्रीतीर्थकरेग अध्यारुहवृक्षाणामपरोऽपि प्रकारः कथितः, स च तमें। विशदयन्नाह-तथाहि-'इहेगइया' इहैकतये सत्त्वाः जीश भवन्तीति शेषः, 'अज्झारोहजोणिया अज्झारोहसंभवा' अंध्यारुहयोनिका अध्यारुइसम्भाः 'जार कम्मनियाणेणे' यावत्कर्मनिदानेनकर्मकारणेन 'तत्य बुक्समा तत्र व्युत्क्रमाः 'अज्झारोहजोगिएस' अध्यारुहेयोनिकेषु 'अज्झारोहेसु' आध्यारुहेषु 'मूलत्ताए' मूल नया 'जाव बीयत्ताए विउ. इंति' यावद् बीजतया विवतन्ते,-मूळकन्दस्कन्ध शाखापवालात्रपुष्पफलवी नान्तस्वरूपेण जायन्ते, ते जीवा तेर्सि' ते जोया मूलादारभ्य बीजान्तोकारेण जायमाना, तेषाम्-'अज्झारोहजोणियाण' अध्यारुहयोनिकानाम् अज्झारोहाणं' अध्यारहाणाम् ‘मिणेह माहारेति' स्नेहम्-ग्नेहभावमाहारयन्ति-उपभुञ्जते, 'जाव' यावत् 'अरे विय गं' अपराण्यपि च खलु "तेर्सि' तेषाम् 'अज्झारोहजोणियाण' अध्यारुहयोनिकानाम्, 'मूलाण' मूलानाम् 'जाव' यावत् 'बीयाणं' 'अहावरं पुरक्खाय' इत्यादि । टीकार्थ-- तीर्थकर भगवान् ने अध्यारूह वृक्षों का एक अन्य प्रकार भी कहो है । उसी को स्पष्ट करते हैं कोई कोई जीव अध्यारूहयोनिक होते हैं, अध्यारूह वृक्षों में ही स्थित रहते हैं और वहीं बढ़ते हैं। वे अपने पूर्व कृत कर्म के अधीन होकर वहां आकृष्ट होते हैं और अध्यामहयोनिक अध्यारूह वृक्षों के मूल कन्द, स्कन्ध, शाखा, कोंपल, पत्र, पुष्प, फल, बीज आदि रूप से उत्पन्न होते हैं । ये मूल कंद आदि के जीव उन अध्यारुहयोनिक अध्यारुह वनस्पति जीवों के 'अहावरं पुरस्खाय” त्या ટકાથ–તીર્થકર ભગવાનોએ અધ્યારૂહ વૃક્ષને એક બીજા પ્રકાર પણ કહેલ છે. હવે તેને સ્પષ્ટ કરીને બતાવે છે – કોઈ કોઈ જી અધ્યાસહ નિવાળા હોય છે. અધ્યારૂહ વૃક્ષે માં જ સ્થિત રહે છે. અને અધ્ય રૂહવૃક્ષમાં જ વધે છે તેઓ પોતાના પૂર્વકૃત કર્મને અધીન થઈને ત્યાં આકૃષ્ટ થાય छे. सन अध्या३७योनि सध्या३७ साना भूण४४, ४ध, शामा-1, કંપળ પત્ર–પાન, પુષ્પ, ફળ બી વિગેરે રૂપથી ઉત્પન્ન થાય છે. આ મૂળ, કદ, વિગેરેના જીવે તે અધ્યારૂહ નિવાળા અધ્યારૂ વનસ્પતિ ના स०४७ For Private And Personal Use Only Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतास्त्र बीजानाम् 'सरीरा' शरीरागि 'माणावण्णा' नानावर्णानि 'जाव मक्खाय' याव. दाख्यातानि, मूलादिवीजानानाम्-जीवानाम् अपराग्यपि नानावर्णानि भवन्तीति तीर्थकरैः प्रतिपादितानि, इहलोके केचन जीवा अध्यारहवृक्षादुत्पन्ना स्तत्रैवाऽत्र स्थितास्तेनैव चद्धमाना भवन्ति, ते पूर्वभवसश्चितकर्ममेरितास्तत्रतत्र भवान्तरे समागच्छन्ति, तथाऽध्यारुहक्षयोनिकाऽध्यारुहवृक्षाणां मूल मन्दादेरारभ्य फल. पोजान्तस्वरूपेण समुपद्यन्ते, ते जीवा मुलायाकारेण समायाताः अध्यारुहः योनिकाऽध्यारहवृक्षाणां स्नेहमास्वादयन्ति तेषाम्-अध्यारुायोनिकाऽध्यामा वृक्षीयमूलादेरारभ्य वीनान्तानां नानावर्णस्पर्शरसान्धविशिष्टानि विभिन्नानि नानाशरीराणि-अपि भवन्तीति तीर्थकरैरुादिष्टानि, इति ॥मू०८-५०॥ स्नेह का आहार करते हैं, यावत् उनके नाना वर्ण गंध रस स्पर्श वाले अन्य शरीर होते हैं। ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है। तात्पर्य यह है कि इस लोक में कोई कोई जीव अध्यारुह वृक्ष से उत्पन्न होते हैं, उसी में स्थित रहते और उसी में बढ़ते हैं पूर्व भव में संचित कर्म से प्रेरित होकर वे वहां आते हैं और अध्यारहयोनिक अध्यारह वृक्षों के मूल कन्द से लेकर फल एवं बीज आदि के रूप में उत्पन्न होते हैं । मूल आदि के रूप में आये हुए ये जीव अध्या. रुहयोनिक अध्यारह वृक्षों के स्नेह का आहार करते हैं । उन अध्या. रुहयोनिक अध्यारह वृक्षों के मूल कन्द आदि रूप में उत्पन्न जीवों के नाना प्रकार के वर्ण, गंध, रस और स्पर्श से युक्त अनेक प्रकार के शरीर भी होते हैं । ऐसा तीर्थकरों ने देखा है और वैसा ही उपदेश दिया है ॥८॥ નેહને આહાર કરે છે. યાવતુ તેના અનેક વર્ણ, ગંધ, રસ, સ્પર્શવાળા અન્ય શરીર હોય છે. એ પ્રમાણે તીર્થકરોએ કહેલ છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે–આ લેકમાં કઈ કઈ જીવો અધ્યારૂડ વૃક્ષથી ઉત્પન્ન થાય છે. તેમાં જ સ્થિત રહે છે, તેમાં વધે છે. પૂર્વ ભવમાં સંચિત કરેલા કર્મોથી પ્રેરિત થઈને તેઓ ત્યાં આવે છે. અને અધ્યારૂહ નિવાળા અધ્યારૂડ વૃના મૂળ, કન્દથી લઈને ફળ અને બી વિગેરેના રૂપે ઉત્પન્ન થાય છે. મૂળ વિગેરે રૂપમાં આવેલા આ છો અધ્યારૂહ એનિવાળા, અધ્યારૂડ વૃક્ષના નેહને અહાર કરે છે. તે અધ્યારૂહ નિક અધ્યારૂહ વૃક્ષે ના મૂળ, કંદ, વિગેરે રૂપે ઉત્પન્ન થયેલા જીવોને અનેક પ્રકા રના વર્ણ, ગંધ, રસ, અને સ્પર્શથી યુક્ત અનેક પ્રકારના શરીરે પણ હોય છે. એ પ્રમાણે તીર્થંકર ભગવાનેાએ જોયેલ છે. અને ઉપદેશ કરેલ છે. સૂ. ૮ For Private And Personal Use Only Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिक्षानिरूपणम् ३७१ मूलम्-अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता पुढविजोगिया पुढविसंभवा जाव णाणाविहजोगियासु पुढवीसु तणत्ताए विउहृति, ते जीवा तेसिं णाणाविहजोणियाणं पुढवीणं सिणेहमाहा. रेति जाव ते जीवा कम्मोववन्ना भवंतीति मक्खायं ।सू.९।५।। ___ छाया-अथाऽपर पुराख्यातमिहै कतये सत्त्वाः पृथिवीयोनिकाः पृथिवीस मनाः यावन्नानाविधयोनिकासु पृथिवीषु तृणतया विवर्तन्ते । ते जीवा स्तासां 'नानाविधयोनिकानां पृथिवीनां स्नेहमाहारयन्ति यात्ते जीवाः कोपपन्नका भवन्तीत्याख्यातम् ॥९-५१॥ ___टीका-'अहावर पुरक वाय' अथाऽपर पुराख्यातम् इहे गया' इहै कतये 'सत्ता' सत्तास्तृणादिवनस्पतिरूपेण सञ्जायन्ते, 'पुढीनोणिया' पृथिवीयोनिकाः, पृथिवीयोनिरुत्पत्तिकारणं येषां तथाभूताः भवन्ति, तथा 'पुढवीसभवा' पृथिवीसम्भवाः-पृथिवीतो जाताः पृथिव्यामेव वर्तमानाः पृथिव्याः रसमास्वादयन्तो वदन्तेऽपि तत्रैव । इत्थंभूनास्तृणलावनस्पतिविशेषा जीवाः 'जाव' यावत् ‘णाणाविहजोणियासु पुढवीसु' नानाविधयोनिकासु-अनेकप्रकारकजातीयकामु पृथिवीषु 'तणत्ताए तृणतया-तृणाकारेण 'विउटुंति' विवर्तन्ते समुत्पद्यन्ते, 'ते जीवा:-ते तृणादिलघुस्थूलशरीरावच्छिन्नाः पाणिविशेषाः 'तेति' तासाम् ‘णाणाविहजोणियाणं' नानाविषयोनिकानाम्, ओकाऽने कविनातीयजातीयकानाम, 'पुढवीणं' 'अहावरं पुरक्खायं इत्यादि। टोकार्थ--तीर्थकर भगवान् ने वनस्पतिकायिक जीवों का अन्य प्रकार भी कहा है । कोई कोई जीव पृथ्वी से उत्पन्न होते हैं। पृथ्वी पर ही स्थित होते हैं और पृथ्वी पर ही वृद्धि को प्राप्त होते हैं। वे अनेक प्रकारकी पृथ्वी के ऊपर तृण के रू। में उत्पन्न होते हैं। छोटे या बड़े शरीर से युक्त वे प्राणी उस नाना प्रकार की जाति वाली पृथ्वी के स्नेह 'अहावरं पुरक्खाय' इत्यादि ટીકા–તીર્થકર ભગવાને વનસ્પતિ કાયવાળા જેનો બીજો પ્રકાર પણ કહેલ છે. કેઈ કઈ છે પૃથ્વીકાયથી ઉત્પન્ન થાય છે. પૃથ્વીકાય પર જ સ્થિત રહે છે. અને પૃથ્વીકાય પર જ વધે છે. તેઓ અનેક પ્રકારના પૃથ્વીકાય ઉપર તૃ રૂપે ઉત્પન્ન થાય છે. નાના કે મોટા શરીરે થી યુક્ત તે પ્રાણયો તે અનેક પ્રકારની જાતવાળી પૃથ્વીના સનેહને આહાર કરે છે, For Private And Personal Use Only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - सूत्रकृताचे पृथिवीनां 'सिणेहमाहारेति' स्नेहमाहारयन्ति, ते तृणजीवाः पृथिव्या रसमेवोपभुञ्जते, 'जाय ते जीवा कम्मोचवन्नगा' यावत्ते जीवा म्हणाधवच्छिन्नाः स्वकृत कर्माऽनुरूपेणैव तृणशरीरकाः भवंतीति मक्खाय' भवन्तीत्याख्यातम् । देवाधि देवस्तीर्थकरोऽन्यमपि जीवभेदमब्रवीन केचन जीवाः पृथिवीतो जाताः पृथिव्यामेव स्थिताः पृथिव्या वर्द्ध नेन वर्धमाना भवन्नोऽने कनातीयकपृथिव्यु परि तणादिरूपेण जायन्ते, ते नानामकारकपृथिव्याश्चोदमयं रसमाददाना भवन्ति न भवन्ति पुनः प्रभवस्तत उद्धत्तमात्मानं स्वकृतकमधृताकारा इति-तीर्थकरुपदिष्टम् ॥मू०९-५१॥ मूलम् -एवं पुढविजोणिएसु तणेसु तणताए विउति जाव मक्खायं ॥सू० १०॥५२॥ छाया---एवं पृथिवीयोनिकेषु तणेषु वणतया विवर्तन्ते यावदाख्यातम् ।।मु०१०-५२॥ का आहार करते हैं। यावत् वे तृणादि जीव अपने किये कर्म के अनुसार ही तृणशरीर वाले होते हैं । ऐसा तीर्थकर भगवान ने कहा है। तात्पर्य यह है कि कोई जीव पृथ्वी से उत्पन्न हुए पृथ्वी पर ही स्थित रहते हैं । और पृथ्वी पर ही बढते हैं । वे नाना प्रकार की पृथ्वी पर तृण आदि पर्याय में उत्पन्न होते हैं और पृथ्वी के रस को आहार रूप में ग्रहण करते हैं। वे अपने कर्मों के अधीन होने के कारण उससे अपना उद्धार करने में समर्थ नहीं होते। किये हुए कर्मों का भोग करते हैं। ऐसा तीर्थकर भगवान् ने कहा है । ॥९॥ યાવત તે તૃણદિ જીને પિતે કરેલા કર્મ પ્રમાણે જ તૃણ શરીર હોય છે. એ પ્રમાણે તીર્થકર ભગવાને કહેલ છે. તાત્પર્ય એ છે કેકઈ જીવ પૃથ્વીથી ઉત્પન્ન થાય છે. અને પૃથ્વી પર જ સ્થિર રહે છે. અને પૃથ્વી પર જ વધે છે. તેઓ અનેક પ્રકારની પૃથ્વી પર તૃણ-ઘાસ વિગેરે પર્યાયથી ઉત્પન્ન થાય છે. અને પૃથ્વીના રસને આહાર રૂપે ગ્રહણ કરે છે. તેઓ પોતાના કર્મોને આધીન હોવાથી તેનાથી પિતાને ઉદ્ધાર કરવામાં સમર્થ થતા નથી. કરેલા કર્મોને ભોગવે છે. એ પ્રમાણે તીર્થકર ભગવાને કહેલ છે. સૂ. ૯ાા For Private And Personal Use Only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिक्षानिरूपणम् टीका--'एवं' एवं यथा पृथिव्यां तृण नातीयका जीवाः सम्भनन्ति, तथापृथिवीयोनिकवणेष्वपि जीवा भवन्ति, 'पुटवोजोणि रसु' पृथिवीयोनिकेषु-पृथिव्यां जायमानेषु 'तणे' त गेषु-नृग नातीयकेषु 'तण नाए' तृणतया-तृणरूपेण 'विउद्धृति' विवर्तन्ते-समुम्पयन्ते तृणजातीयका जीवाः । 'ज.व मक्खाय' याव. दाख्यातम् तृणरूपेण जायन्ते-वर्द्धन्ते तेनैव लद्रसमेवाऽऽस्वादयन्ति-इत्यादि सर्व पूर्वव्याख्यानस्पृक तत एव अनुसन्वेयम् ।।मू०१०-५२॥ मूत्रम्-एवं तण जोणिएसु तणेसु तणत्ताए विउदृति, तण. जोणियं तणसरीरं च आहारैति जाव मक्खायं । एवं तणजोणिएसु तणेसु मूलत्ताए जाव बीयत्ताए विउदृति ते जीवा जाव एवमक्खायं । एवं ओसहीण वि चत्तारि आलावगा। एवं हरियाण वि चत्तारि आलावगा ॥सू० १२॥५३॥ ___ छाया--एवं तृगयोनिकेषु तणेषु तृणतया विवर्तन्ते, तग योनिकं तृणशरीर. श्वाऽऽहारयन्ति यावदारुपातम्, एवं तग योनिकेषु तृणेषु मूलतया यावद बीनतया विवर्तन्ते ते जोषाः यावदेवमाख्यातम्. एवमौषधीष्वपि चत्वार आलापमा एवं हरित अपि चचार आलापकाः ॥१० ११-५३॥ टीका-'एवं तगजोणि एसु' पूपिदर्शि करू पे ग-तृग योनि के षु-तृ गोद्भवेषु 'तणेसु' तृणेषु केचन जीवाः 'तण तार' तगतया-तृगस्वरूपेण 'विउति' विवर्तन्ते-समु. ‘एवं पुढविजोगिएसु' इत्यादि। टीका-जिस प्रकार पृथिवोयोनिक तृग जीव कहे गए हैं, उसी प्रकार पृथ्वीयोनिक तृगों में तृग रूप से उत्पन्न होने वाले जीव भी होते हैं । वे जीव पृथ्वीयोनिक तृणो में उत्पन्न होते हैं । उन्ही में स्थित रहते हैं और उन्हीं में बढ़ते हैं। उन्हीं के रस का आस्वादन करते हैं। इत्यादि समस्त कथन पूर्वसूत्र के अनुसार ही समझ लेना चाहिए ॥१०॥ ‘एवं पुढवी जोणिरसु' त्यहि ટીકાર્યું–જે રીતે પૃથ્વી એનિવાળા તૃણઘાસને જ બતાવ્યા છે. એજ પ્રમાણે પૃથ્વી નિવાળા માં તૃણ રૂપે ઉત્પન્ન થવાવાળા જીવ પણ હેય છે. તે જીવે પૃથ્વી યે નિવાળા તૃણે-ઘાસમાં ઉત્પન્ન થાય છે. તેમજ સ્થિત રહે છે. અને તેમાંજ વધે છે. તેના રસને આસ્વાદ ગ્રહણ કરે છે. વિગેરે સઘળું કથન પૂર્વ સૂત્રમાં કહ્યા પ્રમાણે જ સમજી લેવું જાઈએ સૂ ૧૧ For Private And Personal Use Only Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .३७४ सूत्रकृतास्त्रे स्पद्यन्ते तृणयोनिकतृणेषु गरूपे ग जायमाना जीः 'तग जोणियं तृणयोनिकम् 'तणसरीरं च तृगं शरीरश्च 'आहारेति' आहारयन्ति -अहारं कुर्वनि, 'जाव मक्खाय' यावदारुपातम् । उत्पतिस्थितिवर्द्धनाहारादिकं सर्व पूर्ववदेव बोध्यम् । 'एवं तण जोगिएसु, एवं तृणयोनिकेषु 'तणेमु' तृणेषु 'मूलत्ताए' मूलनया-मूल स्वरूपेण 'जाव बीयत्ताए' यावद् बीजतया-बीजस्वरूपेग 'विउति' विपत्तन्ते मूलादारभ्य बीनपर्यन्तस्वरूपेण जीवाः समुत्पद्यन्ते, ते इमे च जीवाः मूलफलाधवच्छिन्नाः वृक्षाधवच्छिन्नजीवाऽपेक्षया विलक्षणाः भिन्नाश्च भवन्ति, ते जीवा जाव मक्खायं' ते जीवाः याबदाख्यातम् । ते पूलाधवच्छिन्ना जीवाः वृक्षादिकानां रसमाहारयन्तीत्यादिसर्व पूर्ववदेव योजनीयम् । ‘एवं ओसहीण वि चत्तारि आला 'एवं तणजोगिएसु' इत्यादि। टीकार्थ-पिछले सूत्र में जैसे पृथ्वीयोनिक तृगों में तृण रूप से उत्पन्न जीवों का अस्तित्व कहा है। उसी प्रकार कोई कोई जीव तृण. योनिक तृगों में तृण रूप से भी उत्पन्न होते हैं । ये जीव तृणयोनिक तृण जीवों के शरीर का आहार करते हैं। इत्यादि सब कथन पूर्ववत् ही समझ लेना चाहिए। इसी प्रकार तृणयोनिक तृणों में मूल कन्द आदि यावत् बीज रूप से उत्पन्न होते हैं । मूल फल आदि के जीव वृक्ष आदि के जीवों से विलक्षण एवं पृथक होते हैं । मूल आदि के जीव वृक्ष आदि के रस का आहार करते हैं, इत्यादि सब पूर्ववत् समझना चाहिए। इसी प्रकार औषधि वनस्पति के भी चार आलापक होते हैं। यथा ‘एवं तणजोणिएसु' त्या ટીકાર્યું–આના પહેલા સૂત્રમાં પૃથ્વિયે નિક તુમાં તૃણપણથી ઉત્પન્ન થયેલા જીના આસ્તિવના સંબંધમાં જે પ્રમાણે કથન કરવામાં આવ્યું છે એજ પ્રમાણે કઈ કઈ તૃણનિક જીવ તુષ જીવોના શરીરને અહાર કરે છે. વિગેરે પ્રકારનું સઘળું કથન પહેલાં કહ્યા પ્રમાણે જ સમજી લેવું જોઈએ. એજ પ્રમાણે તૃણનિક તૃમાં મૂળ, કંદ, વિગેરે યાવત્ બીજ રૂપે ઉત્પન્ન થાય છે. ફળ વિગેરેના છ વૃક્ષ વિગેરેના થી વિલક્ષણ અર્થાત્ જુદા પ્રકારના અને ભિન્ન હોય છે. મૂળ વિગેરેના છે. વૃક્ષ વિગેરેના રસને આહાર કરે છે. વિગેરે સઘળું કથન પહેલાની જેમ સમજી લેવું જોઈએ. એજ પ્રમાણે ઔષધિ-વનસ્પતિમાં પણ ચાર પ્રકારના આલાપકે થાય For Private And Personal Use Only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिशानिरूपणम् वगा' एन मौपाधिन्वपि चत्वार पालापकाः, यथा-पृथिवीयोनिका वृक्षाः१, वृक्षयोनिका वृक्षाः२, वृक्षयोनिका अध्य:रुहाः३, अध्यारुहयोनिका अध्यारुहाः ४ । एवं पृथिवीयोनि काः तृगाः१, तगयोनिकास्तृणाः२, तृणयोनिका अध्यारुहाः३, . अध्यारुहयोनिका अध्यारुहाः ४,। एवं पृथिवीयोनिका औषधयः१, औषधियोनिका औषधयार, औषधियोनिका अध्यारुहाई, अध्यारुहयोनिका अध्यारुहाः४, । एवं रूपेग हरितादिधपि आला. पकाचस्वारो ज्ञातम्यास्तथाहि पृथिवीयोनिका हरिताः१, हरितयोनिका हरिताः२, हरितयोनिका अध्यारुहाः३, अध्यारुहयोनिका अरुहाः४, ‘एवं हरियाण वि चत्तारि आलागा' एवं हरितेजपि चत्वार आलापकाः पूर्वपदर्शितरूपेण योजनीयाः ॥सू०११-५३॥ मूलम्-अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता पुडविजोगिया पुढवि. संभवा जाव कम्मनियाणेणं तत्थ वुकमा णाणाविहजोणियासु पुढवीसु आयत्ताए वायत्ताए कायत्ताए कूहणत्ताए कंटुगताए उच्वेहनियत्ताए निव्वेहणियत्ताए सच्छत्ताए छत्तगत्ताए वासाणियत्ताए कूरत्ताए विउदंति, ते जीवा तेसिं गाणाविहजोणियाणं पुढवीणं सिणेहमाहाति, ते वि जीवा आहारेति पुढविसरीरं जाव संतं, (१) पृथ्वीयोनिक वृक्ष (२) वृक्षपोनिक वृक्ष (३) वृक्षयोनिक अभ्यारुह और (४) अध्यारुह योनिक अध्यारह । इसी प्रकार (१) पृथ्वीयोनिक ओषधि (२) ओषधियोनिक ओषधि (३) ओषधियोनिक अध्पारुह और (४) अध्यारु योनिक अध्यारुह । इसी प्रकार हरित आदि में भी चार चार आलापक जानना चाहिए । जैसे-(१) पृथिवीयोनिक हरित (२) हरितयोनिक हरित (३) हरितयोनिक अध्यारह और (४) अध्यारुहयोनिक अध्यारुह ॥११॥ છે. તે આ પ્રમાણે સમજવા (1) પૃથ્વયેનિક ઔષધિ (૨) ઔષધિનિક औषधि (3) सोधिये निमध्या३९ (४) अध्या३४ योनि अध्या३७ ! આજ પ્રમાણે હરિતલીલા વિગેરેમાં પણ ચાર ચાર આલાપકે સમपा. २४-- पृथियोनि रित (२) ६२त यानि रित (3) स्तियोन अध्या३९ (४) अध्या३७ योनि २५६५३७ ॥सू. ११॥ For Private And Personal Use Only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतासूत्रं अवरेऽवि य गं तेसिं पुढविजोगियागं आयत्ताण जाव कूराणं सरीरा णाणावण्णा जाव मक्खायं एगोचेव आलावगो सेसा तिणि णत्थि। अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता उद्गजोणिया उदगसंभवा जाव कम्मनियाणेणं तत्थ बुकमा णाणाविहजोणिएसु उदएसु रुक्खत्ताए विउदंति, ते जीवा तेसिं गाणा. विहजोणियाणं उदगाणं लिणेहमाहारेति, ते जीवा आहारैति पुढविसरीरं जाव संतं। अवरेऽवि य णं तेसिं उदगजोणियाणं रुक्खाणं सरीरा णाणावण्गा जाव मक्खायं। जहा पुढविजोणियाणं रुक्खाणं चत्तारि गमा अज्झारहाण वि तहेव, तगाणं ओसहीणं हरियाणं चत्तारि आलावगा भाणियव्वा एकेके ।' अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता उदगजोणिया उदगसंभवा जाव कम्मणियाणेणं तत्थ वुक्कमा, णाणाविहजोणिएसु उदएसु उदगत्ताए अवगत्ताए पणगत्ताए सेवालत्ताए कलंबुगत्ताए हडताए कसेरूगत्ताए कच्छभाणियत्ताए उप्पलत्ताए पउमत्ताए कुमुयत्ताए नलिणत्ताए सुभगत्ताए सोगंधियत्ताए पोंडरिय महापोंडरियत्ताए सयपत्तत्ताए सहस्सयत्तत्ताए एवं कल्हारकोकणयत्ताए अरविंदत्ताए तामरसत्ताए भिसमिसभुणालपुक्खलत्ताए पुक्खलच्छिमगत्ताए विउद्भृति ते जीवा तेसिं जाणाविहजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेति, ते जीवा आहारेंति पुढवीसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि य णं तेसिं उदगजोणियाणं उदगाणं जाव For Private And Personal Use Only Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थयोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिशानिरूपणम् ३७७ पुक्खलीच्छभगाणं सरीरा णाणावण्णा जाव भक्खायं एगो चेव आलावगो ॥सू०१२॥५४॥ छाया--अथाऽपरं पुराऽख्यातम् इहैकतये सत्वाः पृथिवीयोनिकाः पृथिवीसम्भवाः यावत् कर्मनिदानेन तत्र व्यु-कपा-नानाविधयोनिकासु पृथिवीषु आयतया वायतया कायतया कूहणतया कन्दुकतया उपनिहिकतया निर्वहणि तया सच्छ. तया छत्रकतया वासानिकतया कातया विवर्तन्ते । ते जीवा स्तानां नानाविधयोनिकानां पृथिवीनां स्नेहमारयन्ति, तेऽपि जीवा आहायन्ति पृथिवीशरीर यावत् स्यात् । अपराण्यपि च खलु तेषां पृथिवी योनि का नामार्याणां यावत् कूराणां शरीराणि नानावर्णानि यावदाख्यातानि एक वाऽऽ लापकः शेवयो न सन्ति । यथाऽपरं पुराख्यातम् इहैकतये सचा उदकयोनिका उदकसम्भाः यावत् कर्मनिदानेन तत्र व्युत्क्रमाः नानाविधयोनिकेषु उदकेषु वृक्षनया विश्र्तो। ते जीवा स्तेषां नानाविधयोनिकानामुदकानां स्नेहमाहारयति, ते जीवा आहारयन्ति पृथिवीशरीरं यावत् स्यात् । अपराण्यपि च खलु तेषामुदकयोनिकानां वृक्षाणां शरीराणि नानावर्णानि यावदाख्यातानि! यथा पृथिवीयोनिकानां वृक्षाणां चत्वारो गमाः, अध्यारुहाणामपि तथैव तृगानामोषधीनां हरितानां चत्वार पालापका मणितव्या एकैकम् । अथाऽपरं पुरारुपातमिहकतये सत्चाः उदायोनिका उदकसंभवा रावत् कमनिदानेन तत्र न्युत्क्रमाः, नानाविधयोनिकेषु उदकेषु उदकतया अवतया पनकतया 0 वालतया कलम्बु तथा हडतया कसे रुकतया कच्छ. भाणियतया उत्पलतया पद्मतया कुमुदतया नलिनतया सुभगतया सुगन्धिकतया पुण्डरीकमहापुण्डरीकतया शतपत्रतया सहस्रपत्राया एवं कल्हारकोकनदतया अर. विन्दतया तामरसतया विसविसमृणालपुष्करतया पुष्कराक्षकतया विवर्तन्ते, ते जीवा स्तेषां नानाविधयोनिकानामुदकानां स्नेहमाहारयन्ति । ते जीवा आहार, यन्ति पृथिवीशरीरं यावत् स्यात्, अपराण्यापि च खलु तेषामुदकयोनिकानामुदकानां यावत् पुष्कराक्षकाणां शरीराणि नानावर्णानि यादाख्यातानि। एकश्चैव आलापकः ।।५०१२-५४॥ टीका--पुनरप्याह-'अहावर' अथाऽारम् 'पुरकखायं पुराख्यातम् 'इहेगा. या सत्ता' इहैकतये सत्या-वनस्पतिमाणिनः 'पुढचीजोणिया' पृथिवीयोनिकाः 'अहावरं पुरक्खाय' इत्यादि। टीकार्थ-तीर्थकर भगवान ने वनस्पति का अन्य भेद भी कहा 'अहावर पुरक्खाय' या ટીકાર્ય–તીર્થકર ભગવાને વનસ્પતિના અન્ય-બીજા ભેદ પણ કહ્યા सू० ४८ - - For Private And Personal Use Only Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - ૨૦૯ सूत्रकृतात्रे पृथिव्येव योनिरुत्पत्तिस्थानं येषां ते तथाभूता भवन्ति 'पुढची संभवा' पृथि वीसम्भवाः पृथिवीतो जाताः, 'तत्थ वुक्कमा' तत्र व्युत्क्रमा' - पृथिव्यामेव वर्द्धनशीलाः 'जाव कम्पनियाणे' यावत्कर्मनिदानेन कर्मणाऽऽकृष्यमाणाः सन्त एव तत्र समुत्पद्यन्ते । ' जाणाविह जोगियासु पुढवीसु' नानाविधयोनिका पृथिवी 'आयत्ताए' आर्यतया भार्याख्यवनस्पतिविशेषरूपेण 'वायताए' वायतया - तदाख्यवनस्पतिविशेषरूपेण 'कायता ए' कायतया 'कूहणत्ताए' कूरणतया 'कंगचाए' कन्दुकतया 'उच्वेहणियतार' उपनिहिकतया 'निव्वेहनियत्ताए' निर्वेहणिकतया 'सच्छताए' सच्छत्रतया 'छत्तगत्ताए' छत्रकनया, 'वासाणियत्ताए' वासानिकतया 'क्रूरताए' क्रूरतया - उत्तन्नामकवनस्पतिविशेषरूपेण 'विउर्हति' विवर्तन्ते तद्रूपेण समुत्सयन्ते, 'ते जीवा तेसिंणाणाविश्नोजिया' ते जीवा स्तासां नानाविधयशेनिकानाम् 'बुढवीणं' पृथिवीनाम् 'सिणेहमाहारेति' स्नेहं गतस्नेहभावम् आहारयन्ति - आस्वादयन्तीत्यर्थः, 'ते वि जीवा' तेऽपि जीवाः 'आहारेति' आहारयन्ति आहारं कुर्वन्तीत्यर्थः किमाहारयन्ति तत्राsse 'पुढवीसरीर जात्र संतं पृथिवीशरीरं यावत् स्यात् अर्थाचे जीवाः है, वह इस प्रकार है-कोई कोई वनस्पतिजीव पृथिवीयोनिक पृथ्वी से उत्पन्न होने वाले, पृथ्वीसंभव पृथ्वी में स्थित और पृथ्वीव्युत्क्रान्त अर्थात् पृथ्वी में ही बढने वाले होते हैं । यावत् वे अपने कर्म के निमित्त से कर्म से आकृष्ट होकर ही वहां उत्पन्न होते हैं । नाना प्रकार की योनि वाली पृथ्वी में 'आर्य' नामक वनस्पति के रूप में तथा वायु, काय, कुहण, कंदुक, उपनिहिका, निर्वेहणिका, सच्छत्र, छत्रक, वासनिका, क्रूर इत्यादि वनस्पतियों के रूप में उत्पन्न होते हैं। ये वनस्पतिकाय के जीव उन नाना प्रकार की योनियों वाली पृथ्वी के स्नेह को आहार करते हैं । वे पृथ्वी आदि छहों कार्यों के शरीरों , Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir છે. તે આ પ્રમાણે સમજવા કાઇ કાઇ વનસ્પતિ જીવા પૃથ્વિર્યેાનિકથી ઉત્પન્ન થવાવાળા પૃથ્વીસ ભત્ર, પૃથ્વીમાં સ્થિત અને પૃથ્વીમાં વ્યુત્ક્રાંત અર્થાત્ પૃથ્વીમાં જ વધનારા હાય છે. યાવત્ તેએ પાતાના કર્મના નિમિત્તથી ક્રમ થી ખે'ચાઇને જ ત્યાં ઉત્પન્ન થાય છે. અનેક પ્રકારની યોનીવાળી પૃથ્વીમાં ‘આય' નામની વનસ્પતિ રૂપે તથા વાયુ, કાય, કુડણુ ક‘દુક અપનિહિકા, નિવહુણિકા, સચ્છત્ર, છત્રક વાસનિકા, કર વિગેરે વનસ્પતિયોના રૂપથી ઉત્પન્ન થાય છે. આ વનસ્પતિ કાયના જીવો તે અનેક પ્રકારની ચેાનિવાળી પૃથ્વીના સ્નેહના માહાર કરે છે. તે પૃથ્વી વિગેરે છએ કાયના શરીરાને For Private And Personal Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिक्षानिरूपणम् पृथिव्यादीनां षणामपि जीवनिकायानां भक्षणं कृत्वा तेषां शरीर स्वात्म सात्कुर्वन्ति, 'अबरे वि य णं तेसि पुढवी नोगियागं आयत्ताणं जाव कूराणं' अपराण्यपि च खल्लु तेषां सकर्म मोगाप समुत्पन्नानां पृथिवीयोनिकानाम्आर्यादारभ्य करान्तानां जीवानाम् 'सरीरा' शरीराणि, ‘णाणावण्णा जाव मक्खाय' नानावर्णरसगन्धस्पर्शविशिष्टानि भवन्तीति, आख्यातानि तीर्थकरैरिति, 'एगो चेव आलावगो सेता तिणि पत्थि' एतन्नेक एवाऽऽलापको भवति, शेषास्त्रय आलापका न सन्ति न भवन्तीत्यर्थः, 'अहावरं' अथा. ऽपरम् 'पुरकावाय' पुराऽऽख्यातम् इहेगइया सत्ता' इहैकनये सत्या:-मागिनः 'उदगजोणिया' उदकयोनिका-उदकेषु जायमानाः 'उदगसंमवा' उदकसम्भवाःउदकस्थितिकाः 'जाब कम्पनियाणे' यावत्कर्भ निदानेन-कर्मप्रेरिताः सन्तः 'तस्थ वुकमा तत्र-जले एव व्युत्क्रमा:-जले परिवर्द्ध मानाः ‘णाणाविहजोणिएसु उदएम' नानाविधयोनिकेषु अनेकजातीय केषु उदकेषु रुकवत्ताए विउति' वृक्ष. तया विवर्तन्ते समुत्पधन्ते, इह जगति अने के जीवा जले उत्पधन्ते जले तिष्ठन्ति का आहार करते हैं और उन्हें अपने शरीर के रूप में परिणत करते हैं। उन आर्य से लेकर क्रूर पर्यन्त के पूर्थोक्त वनस्पति जीवों के अन्य शरीर भी होते हैं जो नाना वर्ण, गंव, रस और स्पर्श से युक्त होते हैं। ऐसा तीर्थ करी ने कहा है। इसमें एक ही आलापक है, शेष तीन आलापक नहीं होते हैं। तीर्थकर भगवान ने कहा है कि कोई-कोई जीव जलयोनिक, जल में स्थिा और जल में हो वृद्धि प्राप्त करने वाले होते हैं। यावत् वे अपने कर्म से प्रेरित होकर नाना प्रकार की योनि वाले जल में वृक्ष रूप से उत्पन्न होते हैं । तात्पर्य यह है कि इस लोक में अनेक जीव ऐसे આહાર કરે છે. અને તેને પોતાના શરીરપણથી પરિણમાવે છે. તે અનાર્યથી લઈને કર પર્વતના પૂર્વોક્ત વનસ્પતિ જીવોને બીજા શરીરે પણ હેય છે, કે જે અનેક વર્ણ, ગંધ, રસ, અને સ્પર્શથી યુક્ત હોય છે. એ પ્રમાણે ती :- a छे. આમાં એક જ આલાપક હોય છે. બાકીના ત્રણ આલાપ દેતા નથી. તીર્થકર ભગવાને કહ્યું છે કેકઈ કઈ જીવો જલનિક, જલમાં સ્થિત, અને જલમાં જ વૃદ્ધિ પ્રાપ્ત કરવાવાળા હોય છે. યાવત તેઓ પિતાના કર્મથી પ્રેરિત થઈને અનેક પ્રકારની નિવાળા, પાણીમાં વૃક્ષપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે-આ જગતમાં અનેક જીવો એવા હેય For Private And Personal Use Only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८० - सूत्रकताङ्गसत्रे जले वर्द्धन्ते च-ते स्वसम्पादितपूर्व कर्मप्रेरिताः जले जायन्ते तेऽनेकप्रकारक जले वृक्षरूपेण समुत्पद्यन्ते । 'ते जीवा' ते जीवाः जले वृक्षरूपेण समुत्पना जलजा ज्ञेयाः । 'तेसि नानाविहजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेति' तेषां नाना विधयोनिकानामुदकानां स्नेहं स्नेहभावविशेषमेाऽऽहारयन्ति-आस्वादयन्तीत्यर्थः, 'ते जीवा' ते जीवाः जले जायभाना जल ना:-जलस्नेहाऽऽद्वारकाः 'आहारे ति' आहारयन्ति, किमाहारयन्ति तत्राह-'पुढवीसरीरं जाव सं।' पृथिवीशरीरं यावत् स्यात्, पृथिव्यादि षड्नीय निकायानां शरीराणि भुक्त्वा स्वरूपेण परिणामयन्ति, 'अबरे वि य णं' अपराण्यपि च खलु तसि उदगजोणियाणं रुक खाणं सरीरा णाणा. वण्णा जाव मक्खाय' तेषामुदकयोनिकानां वृक्षाणां नानावर्णानि यावदाख्यातानि, उदकयोनिकानामपराण्यपि नानावर्णस्पर्शा दियुक्तानि शरीराणि भान्तीयाख्यातानि । 'जहा' यथा 'पुढवी जोणियाण' पृथिवी योनिकानाम् 'रुकखाणं' वृक्षाणाम् 'चत्तारि गमा' चत्वारो गमा:-भेदाः अन्झारुहाग वि तहेव तणाणं ओसहोणं हरियाणं चत्तारि आलावगा माणिषव्या एक केक के' तथैव अध्यारुहागामपि तथैव तगा. नामोषधीनां हरितानां च चत्वार आलाप का भणितव्याः-पथा पृथिवीयोनि केषु वृक्षेषु हैं जो जल में उत्पन्न होते हैं, जल में स्थित रहते हैं और जल में पढते हैं। वे अपने किये पूर्वकर्मों से प्रेरित होकर जल में उत्पन्न होते हैं और अनेक प्रकार के जल में वृक्ष रूप से जन्म लेते हैं । वे जीव नाना प्रकार की योनि वाले जल के स्नेह का आहार करते हैं, पृथ्वीकाय आदि के शरीरों का भी आहार करते हैं और उसे अपने शरीर के रूप में परिणत करते हैं। उन जलयोनिक वृक्षों को अन्य शरीर भी नाना वर्ण गंध रस एवं स्पर्शवाले होते हैं। जैसे पृथिवीयोनिकों में वृक्ष, तृग, ओषधि और हरित के भेद से चार आलापक कहे हैं, वैसे जल के विषय में नहीं कहना चाहिए । છે કે જેઓ પાણીમાં ઉત્પન્ન થાય છે. પાણીમાં સ્થિત રહે છે. અને પાણીમાં જ વધે છે, તેઓ પોતે કરેલા પૂર્વ કર્મોથી પ્રેરિત થઈને પાણીમાં ઉત્પન્ન થાય છે. અને અનેક પ્રકારના વૃક્ષરૂપે પાણીમાં જન્મ લે છે. તે અનેક પ્રકાર રની નિવાળા જીવો પાણીના નેહને આહાર કરે છે. પૃથ્વીકાય વિગે. રેના શરીરને પણ આહાર કરે છે અને તેને પિતાના શરીર રૂપે પરિણ માવે છે. તે જલનિવાળા વૃક્ષોને અનેક પ્રકારના વર્ણ, ગંધ રસ અને સ્પર્શવાળા બીજા શરીરે પણ હોય છે, જેમ પૃથ્વી નિકમાં વૃક્ષ, તૃણ, ઔષધિ અને હરિત લીલેતરીના For Private And Personal Use Only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिज्ञानिरूपणम् ૩૮૨ चत्वार आलापकाः-वृक्षतृणौषधिहरितादिभेदाः कथिताः तथा उदकपकरणे उदकयोनिकवृक्षेष्वपि चत्वारो वक्तव्याः किन्तु उदकयोनिको वनेषु वृक्षेषु एक एव भेो ज्ञातव्यः, अभ्यारुहाणां वगानामोषधीनां हरितानामपि चत्वार आलापका भणितव्याः प्रोक्तव्याः एकैकम् - प्रत्येकश इति । अन्येऽ पे भेदा वनस्पतिविशेषाणां वीरैरुपदिष्टाः तथाहि - 'अहावरे' अथाऽपरम् 'पुरकखायें' पुरा ख्यातम् - पूर्वस्मिन्काले प्रतिपादितम् 'इहेगड्या' इहेकतये 'सत्ता' सच्चा:- वनस्पतिविशेषाः उदकीयाः, 'उदगजोणिया' उदकमोनिकाः उदकमेव योनि रुत्पत्तिस्थानं येषां तें तथा उदकोत्पत्तिकाः 'उद्गसंवा' उदके सम्मान्ति ये ते तथाउदकस्थितिका: 'जात्र कम्पनियाणेणं' यावत्कर्मनिदानेन स्वकर्मप्रेरिताः सन्तः 'तत्थ बुकमा ' तत्र व्युत्क्रमाः जले वर्द्धमानाः, 'णागाविह जोगिएसु उदएस' नानाविघयोनिषद के उदगत्ताएं उदकतया अनेकप्रकारकाः जलादेवोत्पद्यमा नास्तत्र स्थितिकास्तत्रैव विद्यमानाः परिवर्द्धमानाः स्वकर्मप्रेरिताः विविधजातीयकजलेषु उदक- कवक - पनक - शैवाल - पद्मादिखरूपेण समुत्यन्ते जीवा वनस्पतिविशेषाः, 'उद्गत्ताए' इत्यारभ्य 'पुत्रखलच्छिमवत्तार' इत्यन्तः पाठो यथा व्याख्यात एव द्रष्टव्यः एतेषां वनस्पतिविशेषाणां लौकिकं नाम लोकादेव 'यदि संभ वेत्' अवगन्तव्यम् । इह तु छायामात्रमेव पर्याप्तम् । 'ते जीवा तेसि णाणाविह यहां एक ही भेद जानना चाहिए। अध्यारुह, तृग, ओषधि और हरित के भी चार आलापक कहना चाहिए । 1 तीर्थंकरों ने वनस्पति के अन्य भेद भी कहे हैं। वे इस प्रकार हैं कोई कोई जीव जलयोनिक, जलसंभव एवं जल में बढ़ने वाले होते हैं। वे अपने कर्म के वशीभूत होकर वहां उत्पन्न होते हैं और उदक, कवक, पनक, शैवाल, पद्म आदि वनस्पति रूप से जन्म लेते हैं । इन वन स्पतियों के लोक में प्रसिद्ध नाम यथासंभव लोक से ही समझना ભેદથી ચાર આલાપકેા કહ્યા છે, એજ પ્રમાણે પાણીના વિષયમાં કહેવાના નથી. અહિયાં એક જ ભેદ સમજવાના છે. અધ્યારૂહ, તૃણુ ઔષધિ અને રિત-લીલાતરીના પણ ચાર આલાપક સમજવા, ત થ કરાએ વનસ્પતિના ખીજા ભેદ પણ કહ્યા છે. તે આ પ્રમાણે છેકાઈ કાઈ જીવો જલયોનિક, જલ સંભવ, અને જલમાં વધાવાવાળા હોય છે. તેઓ પેાતાના કને વશ થઈને ત્યાં ઉત્પન્ન થાય છે. અને ઉક, કવક પનક, શેવાળ પદ્મ વગેરે વનસ્પતિ પણાથી જન્મ લે છે. આ વનસ્પતિયાના લેકમાં પ્રસિદ્ધ નામે યથાસંભવ લેાકેાથી જ સમજી લેવા જોઇએ. અહિં For Private And Personal Use Only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८२ सूत्रकृतागसूत्रे जोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेति' ते उदकाधवच्छिन्नाः बनस्पतिनीगा अनेकविधाः अयोनि कानामुदकानां स्नेहयाहारयन्ति, तमेवोपनीव्य जीवन्ति, 'ते जीवा आहारे ति पुढवीसरोरं जाव सं ते जीवा आहारयन्ति पृथिवीशरीर यावत् स्यात्-पृथिव्यादीनां शरीरमुरभुज्य स्वरूपेग परिणयन्ति, 'आरेवि य णं तेसिं उदगमोणियाणं उदगाणं जाव पुकवलच्छिमगाणं सरीरा पाणावणा जाव मक्खाय' अपराण्यपि च खलु तेषामुदकादारभ्य पुष्कराक्षपर्यन्तानां ततोऽन्यान्यपि शरीराणि नानावर्णस्पर्शादिमन्ति भान्ति, इति तीर्थकरादिभिराख्यातानि, किन्तु 'एगो चेव आलावगो' आलापकश्चैक एव, न तु पूर्ववचत्वार इहाऽऽलापकाः ॥सू०१२-५४॥ मूलम्-अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता तेसिं चेव पुढवीजोणिएहिं रुखेहिं रुख जोणिएहिं रुक्खेहिं रुक्ख जोणिपहि मूलहिं जाव बीएहिं रुक्ख जोणिएहिं अज्झारोहेहि अज्झारोह. जोणिएहिं अज्झारोहेहिं अज्झारोहजोगिएहिं मूलहिं जाव बीएहिं पुढविजोणिएहिं तणेहि तणजोणिएहि तणेहिं तणजोणिएहिं मूलेहिं जाव बीएहिं एवं ओसहीहि वि तिन्नि आलावगा, एवं चाहिए। यहाँ तो उनका उल्लेख मात्र ही पर्याप्त है। वे जीव अनेक प्रकार के अयोनिक अप् के स्नेह का आहार करते हैं और उसी के सहारे जीवित रहते हैं। वे पृथ्वी आदि के शरीर का भी आहार करते हैं और उन उदक आदि जीवों के नाना वर्ण गंध रस और स्पर्श वाले अन्य शरीर भी होते हैं । ऐसा तीर्थकरों ने कहा है । यहां एक ही आलापक होता है, पहले के समान चार आलायक नहीं होते ॥१२॥ તેને ઉલેખ માત્ર જ બસ છે. તે છ અનેક પ્રકારના અકાય નિક, અપુ-જલના આહાર કરવાવાળા, હેય છે અને તેનાજ આશ્રયથી જીવતા રહે છે. તેઓ પૃથ્વી વિગેરેના શરીરને પણ આહાર કરે છે. અને તેને પિતાના શરીરના રૂપથી પરિણમાવી લે છે. તે ઉદક વિગેરે જેના અનેક વર્ણ, ગંધ, રસ અને સ્પર્શવાળા બીજા શરીર પણ હોય છે. એ પ્રમાણે તીર્થકરેએ કહેલ છે. અહિયાં એક જ આલાપક હોય છે, પહેલાંની જેમ ચાર આલાપકે અહિયાં હોતા નથી. સૂ૦ ૧૨ For Private And Personal Use Only Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपारशानिरूपणम् ३८३ हरिएहिं वि तिन्नि आलावगा, पुढविजोगिएहि वि आएहिं काएहिं जाव कूरेहिं उदकजोणिएहि रुखेहिं रुक्ख जोणिएहिं रुक्खेहि रुक्खजोणिएहिं मूलेहिं जाव बीएहि, एवं अज्झारोहेहि वि तिन्नि तणेहिं पि तिष्णि आलावगा, ओसहीहि पि तिणि हरिएहिं पि तिणि उदगजोणिएहि उदएहि अवएहिं जात्र पुश्खलच्छिभएहिं तसपाणत्ताए विउदृति। ते जीवा तेसिं पुढविजोणियाणं उदगजोणियाणं रुक्खजोणियाणं अज्झारोहजोणियाणं तमजोणियाणं ओसहीजोणियाणं हरियजोणियाशं रुक्खाणं अज्झारोहाणं तणाणं ओसहीणं हरियाणं मूलाणं जाव बीयाणं आयाणं कायाणं जात्र कूराणं उदगाणं अवगाणं जाव पुक्खलच्छिभगाणं सिणेहमाहात, ते जीवा आहारेति पुडविसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि य ज तेसि रुक्खजोणियाणं अज्झारोहजोणियाणं तणजोणियाणं ओसहि. जोणियाणं हरियजोणियाणं मूलजोणियाणं कंदजोणियाणं जाव बीयजोणियाण आयजोणियाणं कायजोणियाण जाव कूरजोणियाणं उदगजोणियाणं अवगजोणियाणं जाव पुक्खलच्छिभगजोणियाण तसपाणाणं सरीरा णाणावरुणा जाव मक्खायं ॥सू. १३॥५५॥ __छाया-अथाऽपरं पुराख्यातम्-इहैकत ये सत्त्याः तेष्वेव पृथिवीयोनिकेषु वृक्षेषु, वृक्षयोनिकेषु वृक्षेषु, वृक्षयोनिकेषु मूलेषु, यावद्बीजेषु, वृक्षयोनिकेश्वध्यारुहेषु, अध्यारुहयोनिकेषु अध्यारुहेषु, अध्यारुहयोनिकेषु मूलेषु, यावद्वीजेषु, पृथिवी. योनिकेषु तृणेषु, तृणयोनिकेषु तृणेषु, तशयोनिकेषु मूठेषु, चावद्वीजेषु, एवमोपीप्वपि त्रय आलापकाः, एवं हरितेष्वपि त्रय आलापकाः। पृथिवीयोनिकेयपि आर्येषु कायेषु यावत्करेषु, उदकयोनिकेषु वृक्षेषु, वृक्षयोनिकेषु वृक्षेषु, वृक्षयोनिकेषु मूलेषु, यावद्बीजेषु। एवमध्यारुहेष्वपि त्रयः तृणेष्वपि त्रय आलापकाः, For Private And Personal Use Only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतास्त्रे ओषधिष्वपि त्रयः, हरितेष्वपि त्रयः, उदकयोनिकेषु उदकेषु अबकेषु यावत्पुष्क राक्षभगेषु समाणतया विवर्तन्ते । ते जीवास्तेषां पृथिवी योनिकानाम् उदक योनिकानां वृक्षयोनिकानामध्याहयोनिकानां तृगयोनिकानामोषधियोनिकानां हरितयोनिकानां वृक्षाणामध्याहाणां खणानामोषधीनां हरितानां मूलानां यावद्वीजानामार्याणां कायानां यावत्कूगमामुद कानामवकानां यावन् पुष्कराक्ष भगानां स्नेहमाहारयन्ति। ते जीवा आहारयन्ति पृथिवी शरीरं यावत् स्यात्, आरा पपि च खलु तेषां वृक्षयोनिकानामध्यारुयोनिकानां तृणयोनिकानामोषधियोनिकानां हरितयोनिकानां मलयोनिकाना कन्दयोनिकानां यावद्धोजमोनिकानामाषयोनिकानां काय. योनिकानां यावत् कायोनिकानामुद कयोनि कानामाकयोनिकानां यावत् पुष्कराक्ष भगयोनिकानां समागानां शरीराणि नानापर्णा ने याबदारु तानि।।पू.१३-५५॥ - टीका--अपरोऽपि वनस्पतिजीवभेदस्तीर्थकरेण कथितस्तमाह-'अहावर' अथाऽपरम् 'पुरक वायं' पुराख्यानम् 'इहे गइया' इहैकत ये 'सत्ता सञ्चा:-वनस्पतिविशेषनीवाः तेपि चेव पुढधीनोणि एहि रुक्खे हि' सेवे। पृथिलीयोनिकेषु वृक्षेषु-पृथिव्युत्पन्नवृक्ष जीवेषु समाणतया विवर्तन्ते-इति अग्रेण सह सम्बन्धः । 'रुख जोणिएहि रु खेहि' वृक्षयोनिकेषु-वृक्षोत्पन्ने षु वृक्षेषु 'रुक वजोणिएहि मूलेहि' वृक्षयोनिकेषु-क्षोत्पन्नेषु मूलेषु 'जार बीयेहि' यावद्गीजेषु 'रुक्खजोणिएहि अज्झारोहेर्डि' वृक्षयोनिकेषु-वृक्षोत्पन्नेषु अध्यारुहेषु 'अज्झारोहजोणि एहिं अज्झारोहे हिं' अध्यारुद शेनिकेषु-अध्यारुहोत्पन्नेषु अध्यारुहेषु 'अज्झारोह 'अहावरं पुरक्खाय' इत्यादि । टीकार्थ-तीर्थकर भगवान् ने वनस्पतिकाय के अन्य भेद भी कहे हैं इस लोक में कोई-कोई जीव उन पृथवीयोनिक वृक्षों में, वृक्षयोनिक वृक्षो में मूल कन्द यावत् वीज पर्यन्त अवयवों में, वृक्षगेनिक अध्यारह वृक्षों में, अध्यारुहयोनिक अध्यारहों में अध्यारुहयोनिक मूल से लेकर 'अहावरं पुरक्खायं त्या ટીકાઈ–તીર્થકર ભગવાને વનસ્પતિકાયને અન્ય બીજા ભેદે પણ हा छ, ते या प्रमाणे छे. આ લેકમાં કઈ કઈ જીવો તે પૃથ્વીનિક વૃક્ષે-ઝ ડામાં, વૃક્ષयोनिवृA-3मा भूम, ४-४, यावत् मी सुधीना अपयमा वृक्षय.नि, અધ્યારૂહનિવૃક્ષેમાં, મૂળથી લઈને બીજ સુધીના અવયવોમાં વૃક્ષોનિક અધ્યારૂહવૃક્ષોમાં, અધ્યારૂહનિક અધ્યારૂમાં અધ્યારૂહનિક મૂળથી લઈને બી સુધીના અવયમાં પૃથ્વીનિક તૃણ-ઘામાં,તૃણનિક તુમાં, For Private And Personal Use Only Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिज्ञानिरूपणम् ३८५ जोणिएहि मलेहिं' अध्यारुह योनि के षु - अध्यारुहोसन्नेषु मूलेषु 'जाब बीएस' यावद्वीजेपु, 'पुढवी जोणिएहि तणेहि' पृथिवीयोनिकेषु तृणेषु पृथिव्युत्पन्नतृमेषु 'तण जोणिएहि तणेहि' तृणयोनिकेषु तृणेषु-तृणोत्पन्नतृणजीवेषु 'तणजोणिएहि मूलेहिं जाव बोरहिं' तृणयोनिकेषु तृणोत्यनेषु मूलेषु यावद्वजेषु यावत्पदेन कन्दस्कन्धत्वक्शालपवालशाखापत्र पुष्प फलानां संग्रहः । ' एवं ओसहीहि वि तिन्मि 'आकावगा' एवमोषधीष्वपि प्रय आलापका :- त्रय एव भेदाः पृथिवीयोनिका ओषधयः १, ओषधियोनिका ओषधयः २, ओषधियोनिका मूलकन्दस्व शाखामका " पत्रपुष्पफलवीजजीवाः, एते त्रय आलापका ज्ञातव्या, एवं हरिए वितिभि आलावा' एवं हरितेष्वपि ओषधिवत् त्रय आलपकाः 'पुढवीजोणिहि वि' पृथिवीaahar 'आ िकाएहिं जाव कूरेहिं' आर्येषु कार्येषु यावत्कूरेषु-या स्पदेन कणकण्डूयकः- उब्वेणि कनिच्हणिक सर्व कवर्तकवासणिकानां ग्रहणम् भवतीति । 'उदगजोगिएहि रुक्खेहि' उदकयोनिकेषु वृक्षेषु 'रुक्खजोणिएहिं रुवखेहि' वृक्षयो निकेषु वृक्षेषु 'रुक्खजोणिएहिं मूलेहिं' जाव बीएहिं' वृक्षयोनिकेषु मूलेषु यावदबीजेषु 'एवं अझारुहेडि वि तिनि' एवम् अध्यारुहेष्वपि ओषधिवत् त्रय आलापका ज्ञातव्या इति शेषः, 'तणेहि वि तिष्णि आलावगा' तृणेष्वपि ओषधिवत् त्रय आलापकाः 'ओसहीहि वितिष्णि आलावगा' ओषधिष्वपि पृथिवीयोनिकदोषधिवत् त्रय आलापकाः, 'हरिएहि वितिष्णि' हरितेष्वपि त्रयः, 'उदगजोणिएहि उदरहिं अनएहिं जाव' उदकयोनिकेषु तत्कारणकेषु उदकेषु अबकेषु यावत 'gक्खल च्छिभएहि पुष्कराक्षमगेपु, अत्र यावत्पदेन - पनकशैवालकंक बीज तक के अवयवों में पृथ्वीयोनिक तृणों में, तृणयोनिक तृणों में, तृणयोनिक मूल, कंद आदि बीज तक के अवयवों में, इसी प्रकार ओषधि तथा हरितके तीन आलापकों में, पृथ्वीयोनिक आय, काय तथा कूर नामक वृक्षों में, जलयोनिक वृक्षों में, वृक्षयोनिक वृक्षों में, वृक्षयोनिक मूल यावत् बीजों में, इसी प्रकार अध्यारुहों, तृणों, તૃણુચેાનિવાળા મૂળ, કં, વિગેરે ખીજ સુધીના અવયયવોમાં ઔષધિ તથા હરિત-લીલેાતરીના ત્રણ આલાપમાં પૃથ્વીાનિક આય કાય, તથા ક્રૂર નામના વૃક્ષમાં, જલયાનિક વૃક્ષેામાં, યેનિક વૃક્ષામાં વૃક્ષાનિક મૂળ, ચાવતા ખીમાં અને એજ પ્રમાણે અયાહા, તૃણ્ણા ઔષધિયા તથા सू० ४९ For Private And Personal Use Only . Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतामो अंजु बहड ककसेरुककच्छमाणितकोत्सलामकुमुदनलिनसुभगसुगन्धिकपुण्डरीकमहापु हरीशतपनसहरपत्रकल्हारककोकनदारविन्दसमरसविसविसमृगालपुष्कराणांक नस्पतिजीवानां संग्रहः। तसयाणताए' समाणतया-त्रसजीवस्वरूपेग, पिउदंति' विवर्तन्ते समुत्पद्यन्ते इत्यर्थः । ते जीवा' ते उदकयोनिकसवादौ प्रसरूपेण सञ्जाता जीवाः 'तेसिं' तेषाम् 'पुढचीजोणियाणं' - पृथिवीपोनिकाना-पृथिवीकारणकानां वृक्षाणाम्, 'उदगनोणियाणं' उदकयोनिकाना क्षाणाम्, 'रुक्खजोपियाणं' वृक्षयोनिकानां 'वृक्षाणाम् इति अग्रेण सम्बन्धी 'अम्झारोहजोणियाण' अध्यारुहयोनिकानाम् 'तणजोणियाणं' तृणयोनिकानाम, 'मोसहोजोणियाण' औषधियोनिकानाम् 'हरियजोणियाणं 'हरित योनिकानाम् 'रूखाम' वृक्षाणाम् 'अज्झारुहाणं' अध्यारहाणाम्, 'तणाणं' तृणानाम् 'ओसही पोषधीनाम् 'हरियाणं' हरितानां जीवानाम् 'मूलाणं' मूलानाम् 'जाव बीयाणं' प्रापद्वीनानाम्-यावत्पदेन कन्दत्वक् शाखामशाखामालपत्रपुष्पाणां संग्रहः, 'आयाणं कायाणं जाव कूराणे' आर्याणां कायानां यावत्कूराणाम् 'उदगाणं अबगाणे जाव पुक्खलच्छिमगाणं' उदकानामरकानां यावत्पुष्कराक्षभगानम्, अभ्रयावत्पदेन-पनक शैवाल केत्याधारभ्य पुष्करान्तानां वनस्पतिजीवानां ग्रहणं पूर्ववद् बोध्यम्, एतेषाम् 'सिणेहमाहारे ति' स्नेहम्-स्निग्धभावमाहारयन्ति 'ते जीवा आहारेति पुढवीसरीरं जाव संत' ते जीवा आहारयन्ति पृथिवीशरीरं यावदप्तेनो ओषधियों तथा हरितों के तीन तीन आलापकों में, उदकयोनिक अवक और पुष्कराक्षों में त्रस प्राणी के रूप में उत्पन्न होते हैं। वे जीव पृथिवीयोनिक वृक्षों के, उदकोनिक वृक्षों के, वृक्ष योनिक वृक्षों के, अध्यारहयोनिक वृक्षों के तृणपोनिक वृक्षों के ओषधियोनिक वृक्षों के हरित योनिक वृक्षों के तथा वृक्ष, अध्यामह, तृण, ओषधि, हरित, मूल, बीज, आयवृक्ष, कायवृक्ष, कूरवृक्ष, एवं उदक, अवक तथा पुरु कराक्ष वृक्षों के स्नेह का आहार करते हैं। वे पृथ्वीकाय હરિતે-લીલે તરીના ત્રણ ત્રણ આલાપમાં ઉદક નિવાળા, અવક, અને પુષ્કરક્ષામાં ત્રસ પ્રાણી પણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. તે જો પૃથ્વીનિક વસેના, ઉદક નિવાળા વૃક્ષના વૃક્ષ નિવાળા વૃક્ષના અધ્યારૂહ નિવાળા વૃક્ષના, તૃણનિવાળા વૃક્ષોના ઔષધિનિક वृशाना, रितयोनिः वृक्षाना तथा वृक्ष; या३७, तृण, भौषधि, सस्त, भूस, मी, मायवृक्ष, आयवृक्ष, २वृक्ष, अने , तथा पु०७२।१, वृक्षाना નેહને આહાર કરે છે. તે પૃથ્વીકાય વિગેરેના શરીરને પણ આહાર કરે For Private And Personal Use Only Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir intrafat टीका द्वि. श्र. अ. ३ आहारपरिज्ञानिरूपणम् ૩૮૭ वायुवनस्पतिशरीरम् विपरिस्वस्वरूपं कुर्वन्ति 'अवरेत्रि य णं तेसि रुक् वजोणियाण' अपरापि च खञ्च तेषां वृक्षयोनिकानाम् 'मूलजोणियाण केंद्र जोणियाणं जाब चीजोणियाणं मूलकन्दस्कन्धवशालपालप पुष्पफलबीजयोनि काम् 'आयनोगियाणं कायजोगियाणं जार करजोगिया ' आययोनिatri काययोनिकानां यावत् कूयोनि कानाम् 'उदग जोणियाणं अनगजोणियाणं जात्र पुवच्छिम जोगियाण' उगपोनिकानाम् अवकयोनिकानां यावत् पुष्क राक्ष भगयोनिकानाम् 'तसगगाणं सरोरा णाणावण्णा जान मक्वायं' माणानां शरीराणि नानावर्णानि यावत् - नानारसानि नानागन्धानि नानास्पर्शयुक्तानि भववीति तीर्थकुद्धिराख्यातम् - कथितमिति । मू०१३-५५ ।। मूलम् - अहावरं पुरकखायं णागाविहाणं मणुस्ताणं तं जहाकम्मभूमगाणं अकम्मभूमगाणं अंतरदीवगाणं आरियाणं मिलखुयाणं, तेसिं चणं अहावीएणं अहावगासेणं इत्थीए पुरिसहस ये कम्मकडाए जोणिए एत्थ णं मेहुणवत्तियाए णामं संजोगे समुत्पज्जइ, ते दुहओ त्रि सिणेहं संचिण्णंति, तत्थ णं जीवा इत्थित्ताए पुरिसगत्ताए णपुंसगत्ताए विउहंति, ते जीवा माओ उयं पिउसुक्कं तं तदुभयं संसट्टे कललं किव्त्रिसं तं पढमत्ताए आहारमाहारेति, तओ पच्छा जं से माया णाणाविहाओ रस आदि के शरीरों का भी आहार करते हैं। उन वृक्षोनिक, अध्यारुह योनिकोनिक ओषधियोनिक, हरितयोनिक, मूलयोनिक, कंदयोनिक यात्रत् बीजयोनिक, आययोनिक काययोनिक यावत् कूरोनिक, उदकयोनिक, अवरुयोनिक यावत् पुष्कराक्ष भगयोनिक प्राणियों के नानावर्ण, गंध, रस, सरीवाले अन्यान्य शरीर भी होते हैं । ऐसा तीर्थकर भगवान् ने कहा है ॥१३॥ છે; એ વૃક્ષ ચેાનિવાળા, અધ્યારૂઢ ચેાનિવાળા, તૃણુ ચેાનિવાળા, ઔષધિયા निवाजा, इश्तियेोनिवाजा, (सीसोतरीनी योनिवाजा) भूण योनिवाणा, ध्यानिवाला, यावत् मी योनिवाजा, साययेोनिवाजा, अययोनिवाजा, यावत् ‘સૂર્યેાનિવાળા, ઉચેાનિવાળા, વકયોનિવાળા, યાવત્. પુષ્કરાક્ષભગયેાનિવાળા ત્રસ પ્રાણિયાના અનેક વણુ ગધ, રસ, સ્પર્શવાળા ખીજા શરીરો પણ હાય ४. मे प्रभा तीर्थ १२ लगवाने उडे छे. सू० १३॥ For Private And Personal Use Only Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८८ सूत्रकृतासूत्र विहीओ आहारमाहारेइ, तओ एकदेसेणं ओयमाहाति, आणुपुवेण वुड्डा पलिपागमणुपवन्ना तओ कायाओं अभिनिवट्टमाणा इत्थि वेगया जणयंति पुरिसं वेगया जणयति नपुंसगं वेगया जणयंति, ते जीवा डहरा समाणा माउक्खीरं सपि आहाति आणुपुठवणं वुड्डा ओयणं कुम्मासं तसथावरे य पाणे ते जीवा आहारैति, पुढ विसरीरं जाव सारू वि कडं संतं, अवरेऽवि य णं तेसिं गाणाविहाणं मणुस्तगाणं कम्मभूमगाणं अकम्भूमगाणं अंतरद्दीवगाणं आरियाणं मिलक्खूणं सरीरा णाणावण्णा भवंतीति मक्खायं ॥सू०१४॥५६॥ छाया-अथाऽपरं पुराख्यातं नानाविधानां मनुष्याणां तद्यथा-कर्मभूमिगानामकर्मभूमिगानामन्ती गानाम् आर्याणां म्लेच्छानां तेषां च खलु यथाबीजेन यथाऽधकाशेन स्त्रियः पुरुषस्य च कर्मकृत योनौ अत्र खलु मैथुनप्रत्ययिको नाम संयोगः समुपद्यते । ते द्वयोरपि स्नेहं संचिन्वन्ति, तत्र खलु जीवाः स्त्रीतया पुस्तया नपुंसकतया विवर्तन्ते ते जीवाः मातुरातवं पितुः शुक्रं तत् तदुभयं संसृष्टं कलुष किलिषं तत् प्रथमतया आहारमाहारयन्ति । तत्पश्चात् या सा माता नानाविधान रंसविधीन् आहारान् आहारयन्ति तत एकदेशेन ओनाहारयन्ति । आनुपूर्पण वृद्धाः परिपाकमनुमाताः ततः कायतोऽभिनिवर्तमानाः स्त्रीभाव के जनयन्ति, पुरुषभावमेके जनयन्ति, नपुंपकभारमे के जनयन्ति, ते जीवाः बालाः सन्तः मातुः क्षीरं सर्पिराहारयन्ति आनुपूर्पण वृद्धा ओदनं कुल्माष त्रसस्थावरांश्च प्राणान् ते जीवा आहारयन्ति । पृथिवीशरीरं यावत् सारूपी कृतं कुर्वन्ति । अपराण्यपि च खलु तेषां नानाविधानां मनुष्याणां कर्म भूमिगानामकर्मभूमिगानामन्तीगानामार्याणं म्ले. च्छानां शरीराणि नानावर्णानि भवन्तीत्याख्यातम् ॥-१४-५६।। टीका--सम्प्रति मनुष्पवरूपमाह-प्रहावा' अथाारम् 'पुरक्वाय' पुरा: ख्यातमू-कथितम् 'णाणाविहाणं मणुस्साणं नानाविधानाम्- भनेकपकाराणां मनु. 'अहावरं' पुरक्वायं' इत्यादि । टीकार्थ--अय मनुष्य का स्वरूप कहते हैं-जीर्थकर भगवान ने अहावर पुरक्खाय' या ટીકાઈહવે માણસનું વરૂપ કહેવામાં આવે છે. તીર્થકર ભગવાને For Private And Personal Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिशानिरूपणम् ३८९ ध्यागां स्वरूप कथितमिति पूर्वेणान्वयः, 'तं जहा तयथा 'कम्मभूमगाणं' कर्मभूमिगानाम्, केचन कर्मभूमिगाः कर्मभूमी कवचन समुपद्यन्ते तेषाम्, 'अकम्मभूमगाणं' आर्मभूमिगानाम् केचन अकर्मभूमिगाः अकर्मभूमौ जायन्ते तेषाम्, 'अंतरदीरगाणं अन्तद्वीपकानाम् अन्तद्वीपकेषु केचन जायन्ते तेषाम्, 'आरियाणं' आर्याणाम् के वनाऽऽर्या भवन्ति तेषाम् 'मिलक्खुयाणं' म्लेच्छा। केचन जायन्ते तेषाम् 'तेसिं च णं' तेषां च खलु अनेकपकाराणां मनुष्याणाम् 'अहावीएणं' यथा बोजेन-बीजमनतिक्रम्य यथावीनं तेन-स्वबीजाऽनुसारेण 'हावगासेणं' यथाकाशेन साकाशाऽ सारेण उत्पत्तिर्भवति, तदुःपत्तौ को हेतु स्तत्र'ह-इत्थीए' इत्यादि । 'इत्थीए' वि : 'पुरिसस्स य' पुरुषस्य च 'कम्मकडाए जोणिए' कर्मकृतयोनौ-कर्मकायोनिरेव तेपानुत्पत्तौ हेतुस्तत्र ते मनुष्याः समुत्स्यन्ते इति भावः । एत्थ णं मेहुणवत्तियाए' अत्र-कर्मकृतयोनौ खलु मैथुन प्रत्ययिकः 'णाम संजोगे समुप्पन्नई' नापसंयोगः समुत्पद्यते-उत्पत्तिकारणभूतयोनौ स्त्रियाः पुरु (स्य वा कम हेतु को मैथुनसंयोगो जायते, तादृशसंयोगाऽन. न्तरम् उत्पद्यमानाः 'ते दुह पो वि' ते-जीवाः द्वयोरपि स्त्रीपुंसोः 'सिणेहं संचिणंति' स्नेहं संचिन्वन्ति, द्वयोरपि स्नेहस्य-स्निग्ध मावस्याऽऽहारं कुर्वन्तीत्यर्थः । 'तत्थ णं जीना इत्थित्तार पुरिसताए णपुंपगत्ताए विउति' तत्र खलु जीता। अनेक प्रकार के मनुष्यों का स्वरूप कहा है । वह इस प्रकार है-कोई मनुष्य कर्मभूमिज होते हैं, कोई अकर्मभूमिज होते हैं और कोई अन्तर्वीपज होते हैं। कोई आर्य होते हैं, कोई अनार्य-म्लेच्छ होते हैं। इन जीवों की उत्पत्ति अपने अपने बीज और अवकाश के अनुसार होती है। स्त्री और पुरुष का पूर्वकर्म के अनुसार निर्मित योनि में मैथुन प्रत्ययिक संग उत्पन्न होता है । उस संयोग के अनन्तर उत्पन्न होने वाले दोनों के स्नेह का आहार करते हैं। वे जीव वहां स्त्री रूप से, અનેક પ્રકારના મનુષ્યોનું સ્વરૂપ કહ્યું છે. તે આ પ્રમાણે છે. -કેઈ માણસ કર્મભૂમિ જ હોય છે. કેઈ અકર્મ ભૂમિ જ હોય છે. અને કોઈ અન્તર દ્વીપ જ હોય છે. કેઈ અન્ય હોય છે. કેઈ અનાર્ય હોય છે. એટલે કે મ્યુચ્છ હોય છે. આ જીવોની ઉત્પત્તિ પિત પિતાના બીજ અને અવકાશ પ્રમાણે થાય છે. સ્ત્રી અને પુરૂષને પૂર્વ કર્મ પ્રમાણે નિર્મિત યોનિમાં મિથુન વિષયક સંયોગ ઉત્પન્ન થાય છે. તે સંયોગ પછી ઉત્પન થવાવાળે જીવ બનેના સ્નેહને આહાર કરે છે. For Private And Personal Use Only Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतासूत्र खीतया पुरुषतया नपुंपकतया विवर्तन्ते, तादृश योनौ जीवाः स्त्रो पुनपसमावेन समुत्पद्यन्ते 'ते जीवा माओ उप पिउसुकं तं तदुनयं संसटुं कलसं किब्धिसं तं पढ़मत्ताए आहारमाहारेति' ते समुत्सद्यमाना जोषाः प्रथपतया-सर्वतः पथमं मातुरात पितुः शुक्रं तदु मयं संसृष्ट-परस्परमिलितं कलुपम् -मलिनं किलिषम् - अपवित्र माहारमाहारयन्ति, ते जीवाः प्रथमतः पित्रोः शुकयोगिते ए। स्वशीर निर्माणार्थ गृहन्ति तो पच्छ।' ततः पश्चात् 'जं से माया णा गाविहाभो' या सा माता नानाविधान 'रसविहीओ' रमविधीन-रसान्वितान्-रस संयुक्तान् 'आहार' आहारान-भक्षणीय िशेषान् 'आहारेइ' आहारयति-तदीयमाता भक्षयति, 'तओ एकदेसेणं' ततः तदनन्तरम् एकदेशेन-मातृभुक्त हारस्यैकदेशेन न तु सम्पूर्ण तया ते समुत्पत्स्यमानजीवाः 'ओयमाहारेति' ओजः-उत्सतिस्थाने आहार पुद्गलसमूहम् आहारयन्ति आणुपुग्वेण वुढा' आनुपूर्येण-क्रमशः वृद्रा:-आहारपाकपरम्परयाऽभिवृद्धाः सन्तः गर्भावस्था पूर्णीकृत्य 'पलियागमणुगन्ना' परिपाक पुष्टिभावमनुमाप्ताः-आपन्नाः 'तमो कायाओ' ततः कायात्-मातुः शरीरात् 'अभिनिवट्टमाणा' अभिनिवर्तमाना:-निस्तरन्नो बहिरागच्छन्तः 'इत्यि वेगया. पुरुष रूप से और नपुंसक रूप से उत्पन्न होते हैं । वे जीव वहाँ सर्वप्रथम माता के आर्तव और पिता के शुक्र के सम्मिश्रण को, जो मलिन और अपवित्र होता है, उसका भाहार करते हैं अर्थात् अपने शरीर आदि का निर्माण करने के लिए माता पिता के रजबीर्य को ग्रहण करते हैं । तत्पश्चात् वे जीव माता जो नाना प्रकार के रसयुक्त पदार्थों का आहार करते हैं। उसके एकदेश (भाग) का, सम्पूर्ण का नहीं, ओज आहार करते हैं । वे धीरे धीरे वृद्धि को प्राप्त होते हुए, गर्भावस्था पूर्ण होने पर, पुष्टि को प्राप्त करके माता के शरीर में से તે ત્યાં આપણાથી, પુરૂષ પણાથી અને નપુંસક પણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. તે જીવે ત્યાં સૌથી પહેલાં માતાના આર્તવ અને પિતાના શુકના સંમિશ્રણને કે જે મલિન અને અપવિત્ર હોય છે, તેને આહાર કરે છે અર્થાત્ પિતાના શરીર વિગેરેનું નિર્માણ કરવા માટે માતા પિતાના રજ, વિર્યને ગ્રહણ કરે છે. તે પછી એ જ માતા જે અનેક પ્રકારના રસયુક્ત પદાર્થોનો આહાર કરે છે, તેના એક દેશને (ભાગ) સંપૂણને નહીં જ. આહાર કરે છે. તેઓ ધીરે ધીરે વૃદ્ધિને પ્રાપ્ત થતા થકા ગર્ભાવસ્થા પૂરી થયા પછી પુષ્ટિ મેળવીને માતાના શરીરમાંથી બહાર આવે છે. તેમાં કઈ For Private And Personal Use Only Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org मयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्र. अ. ३ आहारपरिज्ञानिरूपणम् 'जणयंति' स्त्री भावमेके जनयन्ति - स्त्री स्वरूपेण समुत्पद्यन्ते - जन्म गृह्णन्ति 'पुरिसं वेगया जणयंति' पुरुषभावमेके जनयन्ति पुरुषरूपेणाऽपरे समुपयन्ते, 'कुं सगं वेगया जणयंति' नपुंसकभार मेके जनयन्ति नपुंसकरूपेण समुत्पद्यन्ते, जीवा डहरा समाणा' ते जीवाः गर्भनिर्गता बालाः सन्तः 'माउक्खीरं सर्व आहारेति' मातुः क्षीरं दुग्धं सर्विश्वाऽऽहारयन्ति-मातुरुदसनिःसृताः मातु स्तनाभ्यां निरसृतं दुग्धं बालरूपेण वृद्धाः सन्तः सर्पि घृतमाहारयन्ति, 'आणु: पुवेणं बुड्ढा ओषणं कुम्मासं उसथावरे य पाणे ते जीवा आहारे ति' गर्भान्निर्ग च्छन्तः पूर्वजन्माभ्याससंस्कारवशात् स्तन्यं पिवन्तो विकशन्तः, आनुपूर्व्येण क्रमशः प्रवृद्धाः ओदन कुल्माषादिकं सस्थावरांव माणान् अन्नादौ पतितान् सस्थावरान् जीवानां शरीराणि ते जीना आहारयन्ति, 'ते जीवा अ हारेति पुढवीरं जाव साविक संत' ते जीवा आहारयति पृथित्रीशरीरं यावत् सरूपी स्यात्, पृथिव्यादिकायान भुक्त्वा तान् स्वस्वरूपेण परिणमयन्ति इति । 'अरे विवणं तेर्सि गाणारहाणं मस्सगाणं' अपराण्यपि च खलु तेषां नानाविधानां मनुष्यागाम् 'कग्मभूमगाणं' कर्मभूमिकानाम् 'अक्रम्म भूमगाणं' अकर्मभूमिकानाम् ' अंतर For Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बाहर आते हैं और कोई स्त्री रूप में, कोई पुरुष रूप में और कोई नपुंसकरूप में जन्म ग्रहण करते हैं। तत्पश्चात् वे माता के स्तनों से निक लने वाले दूध का आहार करते हैं और जब कुछ बडे हो जाते हैं तो घुन का आहार करते हैं। तात्पर्य यह है कि गर्भ से निकलते ही पूर्व जन्म के अभ्यास के संस्कार के वश से माता का दूध पीते हैं। फिर अनुक्रम से वृद्धि को प्राप्त होते हुए ओदन (मान) कुल्माष तथा स और स्थावर जीवों का आहार करते हैं। वे जीव पृथ्वीका आदि के शरीरों का भक्षण करते हैं और उसे अपने शरीर के रूप करते हैं। उन कर्मभूमिज, अकर्मभूभिज, और अन्तदपि में परिणत मनुष्यों के સ્ત્રીપણાથી, કાઈ પુરૂષ પશુાથી, અને કાઈ નપુંસક પણાથી જન્મ ગ્રહેણુ કરે છે. તે પછી તેઓ માતાના સ્તનમાંથી નીકળતારા દૂધને માહાર કરે છે. અને જ્યારે કઇક માટા થાય છે, ત્યારે ઘીને! અહાર કરે છે તાપ એ છે કે−ગમ થી નીકળતાં જ પૂત્ર જન્મના અભ્યાસના સસ્કાર વશાત્ માતાનુ દૂધ પીવે છે, તે પછી અનુક્રમથી વધતાં એદન (ભાત) કુમાાંશ તથા ત્રસ અને સ્થાવર જીવાને આહાર કરે છે. તે જીવા પૃથ્વીકાય વિગેરેના શરીરનું ભક્ષણ કરે છે. અને તેને પેાતાના શરીરપણાથી પરિમાવે છે, તે For Private And Personal Use Only Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३९२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे हीगाणं' अन्त:पकानाम् 'आरियाण' अर्याणाम् 'मिलक्खु ग' म्लेच्छानाम् ‘सरीरा' शरीराणि 'णाणावणा' नानावणानि 'भांतीति मक्खाय' भवन्तीत्याख्यातानि । समुत्पद्यमाना जोवाः कर्मक्शान्मातापित्रो विलक्षणसंयोगवशाद्भभाई भनमानाः पश्चात्स्वकर्मवशः स्त्रीपुनपुंसकाऽन्यतमतया जायमानाः -उदरे मात कवलितान्न. रसभोक्तारः पाप्य जन्माऽनादिविविध माग्यं भुजानाः अनि वर्द्धन्ते इति सङ्कलितोऽर्थः ॥मू०१४-५६॥ . पञ्चेन्द्रियेषु मोक्षाधिकारिस्वान्मनुजजन्मवतां निरूपणमभिनीय पञ्चेन्द्रिय जलचरजीवानिणेतु सूत्रमारभते-'अहावर" इत्यादि । ___मूलम्-अहावरं पुरक्खायं णाणाविहाणं जलचराणं पंचि. दियतिरिकखजोणियाणे, तं जहा-मच्छाणं जाव सुंसुमाराणं, तेसिं च णं अहावीएणं अहावगासेणं इत्थीए पुरिसस्स य जो नाना प्रकार के होते हैं और कोई आर्य तथा कोई अनार्य होते हैं उनके अनेक प्रकार के वर्गादि वाले शरीर होते हैं। अभिप्राय यह है कि उत्पन्न होने वाला जीव माता और पिता के विलक्षग संयोग से गर्भ अवस्था में आता है। तत्पश्चात् अपने कर्म के अनुसार स्त्री, पुरुष या नपुंसक में से किसी एक रूप में उत्पन्न होता है। वह जय माता के उदर में होता है तो माता के द्वारा किए हए. आहार के रस को ग्रहण करता है। जब उसका जन्म हो जाता है तो विविध प्रकार के भोज्य पदार्थों का उपभोग करता हुमा अनुक्रम से बढ़ता है ॥१४॥ કર્મભૂમિમાં ઉત્પન્ન થવાવાળા, અકર્મ ભૂમિમાં ઉત્પન્ન થવાવાળા, અંતરદ્વીપમાં ઉત્પન થનારા મનુષ્ય જેઓ અનેક પ્રકારના હોય છે. અને કઈ કઈ આર્ય તથા કોઈ અના હોય છે. અનેક પ્રકારના વર્ણાદિવાળા શરીર હોય છે. કહેવાને અભિપ્રાય એ છે કે–ઉત્પન્ન થવાવાળા જ માતા અને પિતાના વિલક્ષણ સંગથી ગર્ભ અવસ્થામાં આવે છે. તે પછી પિતાના કર્મ પ્રમાણે સ્ત્રી પુરૂષ અથવા નપુંસકમાંથી કોઈ એક રૂપે ઉત્પન થાય છે. તે જ્યારે માતાના ઉદરમાં હોય છે. તે માતા દ્વારા કરવામાં આવેલ આહારના રસને ગ્રહણ કરે છે. જ્યારે તેને જન્મ થઈ જાય છે, તે પછી અનેક પ્રકારના ભેજય પદાર્થોને ઉપભેગ કરતા થકા અનુક્રમથી વધે છે. સૂ૦૧૪ For Private And Personal Use Only Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिक्षानिरूपणम् ३९३ कम्मकडा तहेव जाव तओ एगदेसेणं ओयमाहारैति आणुपुवेणं वुड्डा पलिपागमणुपवन्ना तओ कायाओ अभिनिवमाणा अंडं वेगया जणयंति पोयं वेगया जणयंति, से अंडे उब्भिजमाणे इत्थि वेयगा जणयंति पुरिसं वेयगा जणयंति नपुंसर्ग वेगया जणयंति ते जीवा डहरा समाणा आउसिणेहमाहारैति आणुपुत्वेणं वुड्डा वणस्तइकायं तसथावरे य पाणे, ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि य णं तेसिं गाणा विहाणं जलचरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं मच्छाणं सुंसुमाराणं सरीरा णाणावण्णा जाव मक्खायं । अहावरं पुरक्खायं णाणाविहाणं चउप्पयथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं, तं जहा-एगखुराणं दुखुराणं गंडीपयाणं सणप्फयाणं, तेसिं च णं अहाबीएणं अहावगासेणं इत्थीए पुरिसस्स य कम्मकडा जाव मेहुणवत्तिए णाम संजोगे समुप्पजइ, ते दुहओ सिंणेहं संधिण्णंति, तत्थ णं जीवा इत्थित्ताए पुरिसत्ताए जाव विउदृति, ते जीवा माओउयं पिउसुक्कं एवं जहा मणुस्साणं इत्थि पि वेगया जणयंति पुरिसंपि णपुंसगं पि, ते जीवा डहरा समाणा माउक्खीरं सपि आहारेंति आणुपुत्रेणं वुड्डा वणस्सइकार्य तसथावरे य पाणे, ते जीवा आहारोंति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि य णं तेसिं णाणाविहाणं घउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाण एगखुराणं जाव सणप्फयाणं सरीरा णाणावण्णा जाव मक्खायं। स. ५० For Private And Personal Use Only Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सकताजसने .... अहावरं पुरक्खायं णाणाविहाणं उरपरिसप्पथलयरविदियतिरिक्ख जोणियाणं, तं जहा-अहीणं अयगराणं आलालियाणं महोरगाणं, तेसिं च णं अहा बीएणं अहा. मासेणं इत्थीए पुस्सिस्स जाव एत्थ णे मेहुणे एवं तं चेक, जाणतं अंडं वेगया जणयंति पोयं वेगया जणयंति, से अंडे उभिजमाणे इतिथं गया जणयंति पुरिसं पि गपुसगं विते जीवा डहरा समागा वाउकायमाहारेंति आणुपुट्वेणं वुड्डा मस्सइकायतसथावरे य पाणे, ते जीवा आहारैति पुढवि. सरीरं जाव संतं, अवरेऽवि य गं तेसिं जाणाविहाणं उरपरिमध्पथलयरपंचिंदियतिरिक्ख जोणियाणं अहीणं जाव महोरगाणं सशीरा णाणावण्णा जाणागंधा जाव मक्खायं । ___ अहावरं पुरक्खायं णाणाविहाणं भुयपरिसप्पथलयरपंचिं. दियतिरिक्ख जोणियाणे, तं जहा-गोहाणं नउलाणं सीहाणं सरडाणं सल्लाणं सरवाणं खराणं घरकोइलियाणं विस्तंभराणं मुसगाणं मंगुसाणं पइलाइयाणं विरालियाणं जोहियाणं चउ. प्पाइयाणं, तेसिं च णं अहाबीएणं अनावगासेणं इत्थीए पुरिसरस य जहा उरपरिसप्पाणं तहा भाणियव्वं जाव सारूवि कडं संतं, अवरेऽवि य णं तेसिं गाणाविहाणं भुयपरिसप्पपंचिंदियथलयरतिरिक्खजोणियाणं तं जहा-गोहाणं जाव मक्खायं । अहावरं पुरक्खायं णाणाविहाणं खचरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं, तं जहा-चम्मपक्खीणं लोमपक्खीणं समुग्गपक्खीणं विततपक्खीणं तेसिं च णं अहावीएणं अहावकासेणं इत्थीए For Private And Personal Use Only Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.३ आहारपरिशानिरूपणम् ३९५ जहा उरपरिसप्पाणं नाणतं, ते जीवा डहरा समाणा माउगात्त सिणेहमाहारांति आणुपुव्वेणं वुड्डा वणस्तइकायं तसथावरे य पाणे, ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि य णं तेसिं णाणाविहाणं खचरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं चम्म पक्खीणं जाव मक्खायं ॥सू०१५।५७॥ छाया-अथाऽपरं पुराख्यातं नानाविधाना जलचराणां पञ्चेन्द्रियतिर्यग्यो निकानाम्, तद्यथा मत्स्यानां यावत् शिशुभारागाम्, तेषां च खलु यथाबीजेन यथाऽनकाशेन स्त्रिगः पुरुषस्य च कर्मकृतस्तथैव यावत तत एकदेशेन ओनमाहारयन्ति । आनुपूर्या वृद्धाः परिपाकमनुप्राप्ताः ततः कायादभिनिवर्तमानाः अण्डमेके जनयन्ति पोतमेके जनयन्ति, तस्मिन् अण्डे उद्भिद्यमाने स्त्रियमे के जनयन्ति पुरुषमेके जनयन्ति, नपुंसकमे के जनयन्ति । ते जीवा दहराः सन्तः अपों स्नेहमाहारयन्ति आनुपूर्व्या वृद्धाः वनस्पतिकायं त्रसस्थावरांश्च प्राणान् ते जीवा आहारयन्ति पृथिवीशरीरं यावत् स्यात् । अपराण्यपि च खलु तेषां नानाविधानां जलचरपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां मत्स्यानां शिंशुमाराणां शरीराणि नानावर्णानि यावदाख्यातानि । अथाऽपरं पुराख्यातं नानाविधानां चतुष्पदस्थल वरपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां, तद्यथा-एकखुराणां द्विखुराणां गण्डीपदानां सनखपदाना, तेषां च खलु यथा बीजेन यथावकाशेन स्त्रियाः पुरुषस्य च कर्मकृतो यावन्मैथुनप्रत्ययिको नाम संयोगः समुत्पद्यते, ते द्वयोरपि स्नेहं संचिन्वन्ति, तत्र खलु जीवाः स्वीतया पुरुषतया गाव विवर्तन्ते, ते जीवाः मातुरात पितुः शुक्रमेवं यथा मनुष्याणा स्त्रियमप्ये के जनयन्ति पुरुषमपि नपुंसकमपि । तें जीवा दहराः सन्तः मानुः क्षीरं सपिराहारयन्ति । आनुपूज्या वृद्धाः वनस्पतिकार्य सस्थावरांश्च माणान् ते जीवा आहारयन्ति पृथिवीशरीरं यावत् स्यात् । आराण्यपि च खलु तेषां नानाविधानां चतुष्पदस्पल परपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाम् एकखुराणां यावत् सनख पदानां शरीसणि नानावर्णानि यावदाख्यातानि। अथाऽपरं पुराख्यातं नानाविधानामुरःपरिसर्प स्थलचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योमिकानाम्, तद्यथा-महीनामजगराणामाशालिकानां महोरगाणाम् । तेषां च खलु यथा पोजेम यथाऽवकाशेन खियाः पुरुषस्य यावद् अत्र खलु मैथुनमेव तच्चैवावतम् । For Private And Personal Use Only Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतास्त्र अण्ड मेके जनयन्ति पोतमे के जनयन्ति, तस्मिन्नाडे उद्भिद्यमाने स्त्रियमे के जनयन्ति पुरुषमपि नपुंसकमपि । ते जीवा दहरा सम्म वायुकायमाहारयन्ति, आनुषा वृद्धाः वनस्पतिकायान् सस्थावरांश्च प्राणान् । ते जीवा आहारयन्ति पृथिवीशरीर यावत् स्यात् । अपराण्यपि च खलु तेषां नानाविधानामुरंपरिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यम्योनिकानामहीनां यावन्महोरगाणां शरीराणि नानावर्णानि नानागन्धानि यावदाख्यातानि ।। अथाऽपर पुराख्यातं नानाविधानां भुं न परिसर्पस्थलचरपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाम्, दद्यथा-गोधानां नकुलानां सिंहानां सरटानां सल्लकाना सरघाणां खराणां गृहकोकिलानां विश्वम्भराणां मूषकाणां मनुषाणां पदललितानां विडा. कानां योधानां चतुष्पदाम्, तेषां च खलु यथाबीजेन यथावकाशेन स्त्रियाः पुरुष स्य च यथा उर परिसांगा तथा भणितव्यं यावत् सारूपीकृतं स्यात् । अपराप्यपि च खलु तेषां नानाविधानां भुनपरिसर्पपश्चेन्द्रियस्थल वरतिर्यग्योनिकानां तद्यथा गोधानां यावदाख्यातानि। अथाऽपरं पुराख्यातं नानाविधानां खवरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाम्, तद्यथा -चर्मपक्षिणां रोमपक्षिणां समुद्गपक्षिणां विततपक्षिणाम्, तेषां च खलु यथा बीजेन यथाऽवकाशेन स्त्रियाः यथा-उर-परिसर्माणामाज्ञप्तम् । ते जीवाः दहराः सन्तो मातृगात्रस्नेहमाहारयन्ति, आनुपूर्व्या वृद्धाः वनस्पतिकायं त्रपस्थावरांश्च प्राणान । ते जीवा आहारयन्ति पृथिवीशरीरं यावत् स्यात् । आराण्यपि च खलु तेषा नानाविधाना खचरपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाना चर्मपक्षिणा यावदाख्यातानि ॥सू.१५ ५७।। ‘पञ्चेन्द्रिय प्राणियों में मनुष्य ही मोक्ष का अधिकारी होता है, अतएव सर्वप्रथम उनका निरूपण किया गया है । अथवा यों कहना चाहिए कि पंचेन्द्रिय जीव मनुष्य, तिर्यच, देव और नरक, चारों गतियों में होते हैं। किन्तु सर्वविरति के अधिकारी मनुष्य पंचेन्द्रिय ही होते हैं। उनके बाद तिर्थ चपंचेन्द्रिय ही देशविरत के अधिकारी हैं। - પંચેન્દ્રિય પ્રાણિયમાં મનુષ્ય જ મોક્ષને અધિકારી હોય છે, તેથી જ સર્વ પ્રથમ તેનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે, અથવા એમ કહેવું જોઈએ કે –પંચેન્દ્રિય જીવ, મનુષ્ય, તિર્યંચ, દેવ, અને નરક ચારે ગતિમાં હોય છે. પરંતુ સર્વ વિરતિના અધિકારી મનુષ્ય પચેન્દ્રિય જ હોય છે. તે પછી તિર્યંચ પચેન્દ્રિય જ દેશ વિરતિના અધિકારી છે. તેથી જ ચારિત્રની દષ્ટિથી For Private And Personal Use Only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir intedfari atar fr. शु. अ. ३ आहारपरिज्ञानिरूपणम् ३९७ टीका - अतः परं तिर्यग्योनिकपञ्चेन्द्रियमत्स्यकुम गोधादीनां स्वरूपमुपवर्णयति स्पिन् । 'अद्दावर" अयावर पुराख्यातं तीर्थकरेण 'णाणाविहाणं जलयराणं' नानाविधानां जलवराणाम्, 'पंविदियतिरिव वजोणियाणं' पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाम् 'तं जहां' तद्यथा 'मच्छा जान सुनुमाराणं' महस्यानां यावत् शिशुमाराणाम् पाववदेनच्छावधान करादीनां संग्रहः तथा च मत्स्यगोधा प्रभृतीनां शिशुवारपर्यन्तानां स्वरूपं निरूपयतीति, 'तेसि च णं' तेषां च खल 'अहावीर अदरक से गं' यथावीजेन यथाऽवकाशेन इत्थी पुरिसल्स कम्म कडा तर जातभातराः पुरुषस्य च कर्मकृतस्तचैत्र यावत्-तत एकदेशेन ओमाहारयन्ति ते जीवा मातापित्रोः संयोगे जाते सति स्वकर्मफलोपभोगाय अतिर्यद्यते । 'आणु वेण बुढा पलियाम मणुपन्ना' आनुपूर्येण क्रमशः पदः परिपाकमनुपासः पुष्टिं माप्ताः 'तत्रो कायाओ अभिनवनागतः कायात्-नाहोराद् अभिनिवर्तमानाः - बहिराग - अनएव चारित्र की दृष्टि से दूसरा नंबर तिर्यवों का है । इस कारण मनुष्यों का प्रतिपादन करने के पश्चात् नियै च पंचेन्द्रिय जीवों की प्ररूपणा की जाती है। वे इस प्रकार हैं- 'अहोवरं पुरवायें' इत्यादि । टीकार्थ - तीर्थंकर भगवान् ने तिर्यंचयोनिक मत्स्य, कर्म, गोधा आदि पंचेन्द्रिय जलचर जीवों का कथन किया है। वे इस प्रकार हैंमत्स्य यावत् सुंसुमार। यहां 'यावत्' शब्द से कच्छप गोधा और मकर नामक जीवों का ग्रहण करना चाहिए। इन जीवों की उत्पत्ति बीज और अवकाश के अनुसार पूर्वकृत कर्म के उदय से स्त्री और पुरुष का संयोग होने पर स्त्रीकी योनि द्वारा होती है । इत्यादि सब कथन पूर्व ખીજો નંબર તિય ચાના છે. તે કારણે મનુબ્યાનું પ્રતિપાદન કર્યાં પછી તિય ચ पथेन्द्रिय भवनुं निइय समां आवे छे, ते याप्रमाणे छे.- 'अहावर पुरकखायं' त्यिादि टीडार्थ - तीर्थ ४२ लगवाने तियय येोनिवाणा मत्स्य, अयभा, घो વિગેરે પચેન્દ્રિય જલચર-પાણીમાં રહેવાવાળા, જીવોનુ કથન કર્યું છે, તે આ પ્રમાણે છે.—મત્સ્ય યાવત્ સુસુમાર, અહિયાં યાત્ શબ્દથી કાચમા, धो, मने भधर નામના જીવો શ્રેણુ કરાયા છે. આ જીવની ઉત્પત્તિ બીજ અને અવકાશ પ્રમાણે પૂષ્કૃત કર્મના ઉડ્ડયથી સ્ત્રી અને પુરૂષના સંચાગ થવાથી સ્ત્રીની ચૈાનિથી થાય છે. વિગેરે સઘળુ' કથન પૂર્વ સૂત્રમાં For Private And Personal Use Only Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૨૮ सूतासूत्रे --- तो मातुरुदरात्, 'अंड वेगया जजयंति पोषं वेगवा जगवति' इमें के जनयन्ति पोतमेके जनयन्ति, अवाजा मत्स्यादयः पोतनाथाऽन्ये व्यवहिते, अण्डमुद्भिद्य निर्गच्छन्तः केचन स्त्रीभावमासादयन्ति पुत्रं नपुंसकत्वमन्ये, 'ते जीवा डहरा समाणा आउसिणेहमाहारे ति' ते जीवाः दहरा:-बालभावमापन्नाः सन्तः अयं स्नेहमाहारयन्ति । यावद् चाल्यं प्राप्ताः जलस्ने वा मुग्भुञ्जाना एत्र शरीरं पुष्णन्ति 'आणुपुब्वेगं घुडू' आनुपूर्व्येण क्रमशः वृद्राः - क्रमशो वाल्यमति क्रामन्तः, 'कार्य तस्थावरे य पाणे' वनस्पतिकार्य सस्थावरांच प्राणानाहारयन्ति, ते जीवा जवरा : 'आदरें 'ति पुढविसरीरं जात्र संतं' पृथिवीशरीरं यात्रस्यात् पृथिव्यादीनां शरीरं भुक्त्वा स्वरूपे परिणमयन्ति 'अरे वि य णं' अपरा सूत्र के अनुसार समझ लेना चाहिए। यावत् गर्भ में स्थित वह जीव माता के द्वारा किये हुए आहार के रस को एकदेश से ग्रहण करता है । वह अपने कर्मों का फल भोगने के लिए जलचर तिर्यंचों में जन्म लेता है। गर्भ में अनुक्रम से बढ़ता हुआ और पुष्टि को प्राप्त होता हुआ वह माता के उदर से बाहर निकलता है । कोई अण्डज होता है, कोई पोनज होता है । अण्डे के फटने पर जे जीव उससे बाहर आते हैं, उनमें कोई स्त्री, कोई पुरुष और कोई नपुंसक होते हैं। वे जब तक बालभाव अर्थात् बाल्यावस्था में रहते हैं तब तक जल के स्नेह का आहार करते हैं और अपने शरीर को पुष्ट करते हैं। जब अनुक्रम से बड़े होते हैं तो वनस्पतिकाय का तथा प्रस एवं स्थावर प्राणियों का • કહ્યા પ્રમાણે સમજી લેવું. યાવતુ ગર્ભમાં રહેલ તે જીવ માતાએ કરેલા આહારના રસનું એક દેશથી ગ્રહણ કરે છે. તે પાતાના કર્મનું ફળ લાગ વવા માટે જલચર તિય ચેમાં જન્મ લે છે. ગર્ભમાં અનુક્રમથી વધતા થકા અને પુષ્ટિ મેળવતા થકા તે માતાના ઉદરમાંથી બહાર નીકળે છે. તેમાં કંઇ અંડજ–ઇંડામાંથી થવાવાળા હાય છે, તેા કેાઈ પાતજ હાય છે. ઈંડાના ફૂટવાથી જે જીવો બહાર આવે છે, તેમાં ાઈ શ્રી કાઈ પુરૂષ અને કાઇ નપુંસક હાય છે, તેઓ જ્યાં સુધી ખાવભાવ અર્થાત્ માલ્યાવસ્થામાં એટલે કે નાનપણમાં રહે છે, ત્યાં સુધી જળના સ્નેહના આહાર કરે છે, અને પાતાના શરીરને પુષ્ટ બનાવે છે. અનુક્રમથી વધતાં વધતાં જ્યારે માટ થાય છે, ત્યારે વનસ્પતિ કાયનેા તથા ત્રસ અને સ્થાવર પ્રાણિયાના આહાર કરે છે. તે પૃથ્વીકાય વિગેરેના આહાર કરીને તેને પાતાના શરીર રૂપે 1 For Private And Personal Use Only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्र. म. ३ आहारपरिज्ञानिरूपणम् व्यपि च खलु तसिं' तेषाम् ‘णागाविहाणं' नानावि गनाम्-अनेकजातीयकानामा 'जस्चरपंचिंदियतिरिक्ख नोगियाणं मच्छाणं जाव सुसुमाराणं. सरीरामाणावमा जाव मक्खायं' जलचरपञ्चेन्द्रियतिर्ययोनिकानां मत्स्यानां कच्छपानां मोधान शिशुपाराणां शरीराणि नानावर्णानि नानारसानि नानागन्धानि नानास्पर्शयुक्तानि याबदाख्यातानि, कश्चन सकतकर्मफलोपभोगाय कर्मबलाउजलचरपञ्चेन्द्रियमास्यस्वादिमावमापन्नो मतुरुदरे आगच्छति । तत्र मातृभुक्ताऽन्नरसेन शरीरं वदयार काले ततो निर्गत्य जलस्नेहेन शरीरं वर्द्धयित्वा तदनु प्रसादीन् जीवान. भक्षयन् जीवनयात्रा निर्वहति, एतेषां जीवानां नामावरसगन्धान्ति विभिन्गनि शीरणि भवन्तीति तीर्थका आख्यातानि, जलपरपञ्चेभियनी रानां स्वरूपं यथोत्पत्तिकं आहार करते हैं। वे पृथ्वीकार आदि का आहार करके उसे अपने शरीर के रूप में परिणत करते हैं। उन नाना प्रकार के जलचर पंचे. न्द्रिय नियंचयोनिक मच्छो कच्छपों, गोधों, मकरों तथा सुसुमारों के नांना वर्ण गंध रस और स्पर्श वाले अनेक शरीर कहे गए हैं। तात्पर्य यह है कि कोई जीव अपने कर्मफल को भोगने के लिए कर्म के वशीभूत होकर जलचर पंचेन्द्रिय मत्स्य आदि पर्याय को प्राप्त होकर माता के उदर में आता है, वह वहां माता के द्वारा भोगे हुए रस से शरीर की वृद्वि करता हुआ समय आने पर बाहर निकलता है और जल के स्नेह से अपने शरीर की वृद्धि करता है। तत्पश्चात् वह बस आदि जीवों का भक्षण करता हुआ अपनी जीवन यात्रा का निर्वाह करता है। इन जीवों के नाना वर्ण रस गंध और स्पर्श वाले विभिन्न शरीर तीर्थंकरों ने कहे हैं। પરિણમવે છે. તે અનેક પ્રકારના જળચર પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ નિવાળા માછલા, કાચબા , મઘર તથા સુસુમારોના અનેક વર્ણ, ગંધ રસ અને સ્પર્શવાળા અનેક શરીર કહ્યા છે. તાત્પર્ય એ છે કે—કઈ જીવ પિતાના કર્મના ફળને ભેગવવા માટે કર્મને વશ થઈને જલચર પંચેન્દ્રિય મત્સ્ય, વિગેરેના પર્યાયને પ્રાપ્ત થઈને માતાના ઉદરમાં આવે છે. તે ત્યાં માતા દ્વારા ભગવેલા રસથી શરીરની વૃદ્ધિ કરતા થકા સમય આવતાં બહાર નીકળે છે. અને જલના સ્નેહથી પિતાના શરીરને વધારે છે. તે પછી તે ત્રસ વિગેરે જીવોનું ભક્ષણ કરતા થક પિતાની જીવન યાત્રાને નિર્વાહ કરે છે. આ જીવોના અનેક વર્ણ, રસ, ગંધ, અને સ્પર્શવાળા જુદા જુદા શરીરે તીર્થંકર ભગવાને કહ્ના છે. For Private And Personal Use Only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४०० सूत्रकृताङ्गस्त्र व्याख्याय स्थलचरचतुष्पदादि वान स्वरूप दर्शयितुमाह-'अहावरं पुरकखार्य' अथाऽपरंपुगख्यातम्-अनेक जातीयकस्थलचरचतुष्पदजीवविषये तीर्थ करादिमिराख्यातम् । तदहं सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिने तुभ्यं कथयामि ‘णाणाविहाणं' नाना विधानाम् 'चउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं' चतुष्पदस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाम् स्वरूपं तीर्थकृताऽऽख्यातमिति पूर्वेणाऽन्वयः, 'तं जहा' तयथा 'एग खुराणं' एक खुराणाम् अश्चादीनाम् 'दुखुगणं' द्विखुराणाम्, गोमहिषादीनाम् 'गंडीपयाणं' गण्डीपदानाम्-फल कसदृशगोलाकारपदानाम्-हस्तिगण्डकादीनाम्, 'सणफयाणं' सनखपदानाम्-व्याघ्रसिंहकादीनाम् 'तेसि च णं अहा ___ यहां तक जलचर पंचेन्द्रिय जीवों के स्वरूप का उत्पत्ति से लेकर व्याख्यान करके अब स्थलचर चतुष्पद आदि जीवों का स्वरूप दिख. लाने के लिए कहते हैं____ अनेक जातियों वाले स्थलचर चतुरुपद जीवों के विषय में तीर्थकरों ने कहा है । हे जम्बू ! वही कथन मैं तुम्हें कहता हूं। ऐसा सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं। नाना प्रकार के चतुष्पद स्थलचर पञ्चेन्द्रिय तियेंचों का स्वरूप जो तीर्थंकर भगवान् ने कहा है। वह इस प्रकार है-स्थलचर चतुष्पद (भूमि पर चलने वाले चौपाये) कोई एक खुर वाले होते हैं, जैसे घोड़ा आदि, कोई दो खुरों वाले होते हैं, जैसे-गाय, भेस आदि, कोई गंडीपद होते हैं, जैसे-हाथी गैंडा आदि, कोई नाखूनों से युक्त पैरों वाले होते हैं। जैसे-व्याघ्र, सिंह भेड़िया આટલા સુધી જલચર પચેન્દ્રિય જીવોના સ્વરૂપને ઉત્પત્તિથી લઈને કથન કર્યું છે. હવે થલચર-જમીન પર રહેવાવાળા ચતુપદ-ચાર પગેવાળા વિગેરે જીવોના સવરૂપ દેખાડવા માટે કહેવામાં આવે છે.– અનેક જાતવાળા સ્થળચર, ચેપગી જીવેના સંબંધમાં તીર્થકોએ કહેલ છે હે જબૂ એજ કથન હવે હું તમને કહું છું -આ પ્રમાણે સુધ મસ્વામી જંબૂ સ્વામીને કહે છે. અનેક પ્રકારના ચેપગ સ્થલચર પંચેન્દ્રિય તિયાનું સ્વરૂપ જે તીર્થકર ભગવાને કહેલ છે. તે આ પ્રમાણે છે.–સ્થલ ચર ચેપગે (જમીન પર ચાલવાવાળા) કેઈ એક ખરીવાળા હોય છે, જેમ કે ઘોડા વિગેરે કઈ બે ખરીવાળા હોય છે, જેમ કે-ગાય, ભેંસ વિગેરે. કોઈ ગરીપદ હોય છે, જેમકે-હાથી, ગેંડા વિગેરે. કેઈ નખવાળા પગવાળા હે છે. જેમ કે-વાઘ-સિંહ, વરૂ વિગેરે. આ જેની ઉત્પત્તિ પિતાને બીજ For Private And Personal Use Only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिक्षानिरूपणम् .. ४०१ बीएणं अहावहावगासेणं' तेषां चख च यथावोजेन यथाकाशेन स्वकीयबीजेन स्व. कीयावकाशेन च 'इत्थीए पुरिसस य' त्रिपाः पुरुषस्य च 'कम्म जाव मेहुणवत्तिर णाम संजोगे समुप्पज्जई' कर्मकृतः कर्मवशेन कर्म कनयोन्यां मैथुनप्रत्ययिको नाम: मैथुनकारणभूतः संयोगः समुत्पद्यते । समुत्पत्स्यमानजीवानां कर्मप्रेरितो मैथुन्यः श्रीपुरुषयो विलक्षणः संयोगो गर्भधारणपयोनको भवति. 'ते दुइओ सिणेहं संचि. गति' ते-जीवा:प्रथमतो गर्भ द्वयोरपि स्नेह-मातापित्रोः स्नेहमा संचिन्वन्तिपाप्नुवन्ति । 'तत्थ णं जीवा इस्थिताए पुरिसत्ताए जाव विउद्वंति' तत्र खलु जीव : स्त्रीतया पुरुषतया नपुंसकतया यावद्विवर्तन्ते । स्त्रीपुंगोविलक्षणसं नोगानन्तरं चतुरुपद जीवा गर्ने आगच्छनिा, ते प्रथमतो मातापित्रोः स्नेहमेवोपभुनते । तस्मिन् गर्भ ते-एकखुरादयः जीवाः स्त्रीभावेन पुरुषभावेन नपुंसकमावेन च यथा कर्म समुत्प धन्ते 'ते जीवा मानो उयं पिउसुक्कं एवं जहा मणुस्साणं' ते जीवा मातुरात पितुः शुक्रमाहारयन्ति, एवं यथा मनुष्याणाम्। इतः परं मी मनुष्यबज्ज्ञेयम् । 'इत्थि पि वेगया जगयंति पुरसं पि ण पगं वि' स्त्रियमे के जनयन्ति, पुरुषमणि नपुंसकमपि-एके पुरुषमपि जनयन्ति, एके नपुंसकमपि जनयन्ति-ते जीराः स्त्रीतया पुरुषतया नपुंसकतया च तत्तद्रूपेण समुत्पद्यन्ते, 'ते जी डहरा समाणा आदि। इन जीवों की अपने बीज और अवकाश (स्थान) के अनुसार स्त्री पुरुष का कर्मकन योनि में मैथुन प्रत्ययिक संयोग होने पर उत्पत्ति होती है, अर्थात् जय कोई जीव उत्पन्न होने वाला होता है तो स्त्री और पुरुष का कर्म के उदय से प्रेरित मैथुन नामक विलक्षण संयोग होता है, उस संयोग के कारण गर्भधारण होता है। जीव उस गर्भ में उत्पन्न होता है। सर्व प्रथम वह माता पिता के स्नेह (रज वीर्य) का उपभोग करता है। उस गर्भ में वह जीव स्त्री, पुरुष या नपुंसक के रूप में कर्म के अनुसार उत्पन्न होता है। इत्यादि सब कथन मनुष्य के समान समझना चाहिए। स्पष्ट होने से तथा विस्तार से बचने के लिए અને અવકાશ (થાન) પ્રમાણે સ્ત્રી અને પુરૂષના કર્મકૃત નિથી મૈથુન સંબંધી સંયોગ થવાથી થાય છે. અર્થાત જ્યારે કોઈ જીવ ઉત્પન્ન થવાના હોય તે સ્ત્રી અને પુરૂષના કર્મના ઉદયથી પ્રેરિત મૈથુન નામને વિલક્ષણ સંયોગ થાય છે. તે સંગના કારણે ગર્ભ ધારણ થાય છે. જીવ તે ગર્ભમાં ઉત્પન્ન થાય છે. સૌથી પહેલાં તે માતા પિતાના સ્નેહ (રજવાય) નો ઉપ ભંગ કરે છે. તે ગર્ભમાં તે જ સ્ત્રી, પુરૂષ, અથા નપુંસકના રૂપથી કર્મ પ્રમાણે ઉત્પન્ન થાય છે. વિગેરે સઘળું કથન મનુષ્ય પ્રમાણે સમજવું સ્પષ્ટ सू०.५१ For Private And Personal Use Only Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ०९ सूत्रकृतामसूत्र माडकावीर सप्पि आहारेति' ते जादहरा:-बालाः सन्तः मातुः क्षीरं सर्विराहारयन्ति, बालकाले मातरम्नन्धि दुग्मादिकं भुनते इत्यर्थः, 'आणुपुग्ने दुला वणस्सइकायं तसथावरे य पाणे' आनुपूर्वेग-क्रमशः प्रवृद्धास्ते जीवा:-वन स्पतिकार्य प्रसस्थावरांश्च प्राणानाहारयन्ति, 'ते जीवा आहारति पुढतीसरीरं जाव हंत ते जीवा आहारयन्ति पृथिलीशरीरं यावस्थात, ते जीवाः पृथिव्यादीनां परोरं भक्षयन्ति-मक्षयित्वा च तान्यात्मसात्कृत्या स्वरूपेग परिपाकमन्त भाग्य परिणमयन्तीत्यर्थः । 'अबरे वि य णं' अपरायपि च खच 'तेसिं' तेषाम् 'पाणाविहाणं चउपयशल एप चिदियतिरिक्ख नोणियाण' नानाविधानां चतुष्पदहलचरपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाम्, 'एगखुराणं' एकखुराणाम् 'जाव' यावत्द्विखुराणां गण्डीपदानाम् ‘सणहफाण सा वरदानाम् 'सी'शरीराणि 'गाणा. चण्णा' मानावर्णानि 'जाव मक्खायं यावदाख्यातानि, अनेकजातीयस्थलचरचतु. पदानामपराण्यपि शरीराणि नानावर्णरसगन्धस्पर्शवन्ति भवन्तीति, एक ही विषय को बार-बार प्रत्येक पाठ में विस्तार से कहने की आवश्यकता नहीं है। - इन जीवों में से कोई स्त्री रूप में, कोई पुरुषरूप में और कोई नपुंसकरूप में उत्पन्न होते हैं। वे जब छोटे होते हैं तो माता का दूध आदि पीते हैं। अनुक्रम से जब बड़े होते हैं तो वनस्पतिकाय तथा प्रस और स्थावर जीवों का आहार करते हैं । वे पृथ्वी आदि के शरीर का भक्षण करके उसे अपने शरीरके रूप में परिणत कर लेते हैं । इन नाना प्रकार के चतुष्पद स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यचों के, जो कि एक बुर वाले दो खुरों वाले, गंडीपद या नख सहित पैर वाले होते हैं, एनके शरीर नाना वर्ण आदि वाले कहे गए हैं। હેવાથી તથા વિસ્તાર ભયથી એક જ વિષયને વારંવાર દરેક પાઠમાં વિતર પૂર્વક કહેવાની જરૂર રહેતી નથી. આ છમાંથી કેઈ સ્ત્રી પણુથી કે પુરૂષ પણાથી તે કેઈ નપુંસક પણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. તેઓ જ્યારે નાના હોય છે, ત્યારે માતાનું દૂધ વિગેરે પીવે છે. અનુક્રમથી જ્યારે મોટા થાય છે, તે વનસ્પતિકાય તથા ત્રસ અને સ્થાવર જીવેને આહાર કરે છે. તેઓ પૃથ્વી વિગેરેના શરીરને આહાર કરીને તેને પોતાના શરીરપણુથી પરિણમાવે છે. આ અનેક પ્રકાર. ચોપગ રથલચર પંચેન્દ્રિય તિર્યંચના કે જેઓ એક ખરીવાળા, બે ખરવાળા, બંડીપદ, અથવા નખવાળ પગોવાળા હોય છે. તેઓના શરીરે અનેક વર્ણ વિગેરેથી યુક્ત હોય છે. For Private And Personal Use Only Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिशानिरूपणम् .. ४०३ . चतुष्पदपश्चेन्द्रियाणां स्वरूपमुपवर्ण्य सांदीनामुर परिसणां स्वरूपोप. वर्णनमाह-'अह' अथानन्तरम् 'गागाविहाण' नानाविधानामने जातीनाम् 'उरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्वजोणियाण' उर परिसर्प स्थलचरपश्चेन्द्रियतिर्यः ग्योनिकानाम् 'अवर' अपरं स्वरूाभेदादिकश्च 'पुरक वायं' पुराख्यातम्, तीर्थकरपादैः 'तं जहा' तद्यथा 'अहीणं' अहीना-सर्पाणाम् 'अय गराण' अजमराणाम् 'आसालियाण' आशालिकानाम् ‘महोरगाणं' महोरगाणाम्-महासर्पाणाम् 'तेसिं च णं' तेषां च खलु 'अहावीपण' यथाबीजेन 'अहावकारीण' यथावकाशेन 'इस्थीए' स्त्रियाः 'पुरिसस्स य' पुरुषस्य च 'जाव एत्थ ण मेहुणे' यावदत्र खलु मैथुनम्, 'एवं तं चेव णाणत्तं' एवं तच्चैवाज्ञप्तम् । इमे सर्पाः उत्पत्तियोग्यवीजा. वकाशाभ्यां समुत्पद्यन्ते तथा-एष्वपि स्त्रीपुंसोः पारस्परिको मैथुननामा विलक्षण: संयोगो जायते, तादृशे जायमाने संयोगे कर्मप्रेरिता जीवा एतेषां योनिषु समुत्पधन्ते, शेषं पूर्ववदरगन्तव्यम् । एषु उरःपरिसपेंषु 'अंडं वेगया जणयंति' अण्ड मेके चतुष्पद पंचेन्द्रियों के स्वरूप का वर्णन करके सर्प आदि उरपरि सर्प जीवों का स्वरूप कहते हैं। . इसके अनन्तर नाना प्रकार के उर परिसर्प स्थलचर तियं च पंचे न्द्रियों के स्वरूप एवं भेद आदि का कथन तीर्थंकरों ने किया है। वह इस प्रकार है-सर्प अजगर, आशालिक और महोरग (महासर्प) आदि की अपने बीज और अवकाश के अनुसार उत्पत्ति होती है। इनमें भी स्त्री पुरुष का परस्पर में मैथुन नामक संयोग होता है, इस संयोगके होने पर कर्म के द्वारा प्रेरित जीव योनि में उत्पन्न होते हैं। शेष-सष कथन पहले के समान ही समझ लेना चाहिए। इनमें कोई अण्डे को પગ પાંચેન્દ્રિય જીના સ્વરૂપનું વર્ણન કરીને સર્પ વિગેરે ઉપરિસર્પ વિગેરેનું સ્વરૂપ બતાવે છે.-આ પછી તીર્થકરો દ્વારા અનેક પ્રકારના ઉરઃ પરિસર્પ, સ્થલચર તિયચ પંચેન્દ્રિયાનું સ્વરૂપ અને ભેદ વિગેરે કથન કરવામાં આવેલ છે. તે આ પ્રમાણે છે.–સર્પ, અજગર, આશાલિક અને મહારગ (મહાસ૫) વિગેરેની ઉત્પત્તિ પિતાના બીજ અને અવકાશ અનુસાર થાય છે. તેમાં પણ સ્ત્રી પુરૂષને પરપરમાં મૈથુન નામને સંયોગ થાય છે. આ પ્રકારનો સંયોગ થવાથી, કર્મ દ્વારા પ્રેરિત છવ યોનિથી ઉત્પન્ન થાય બાકીનું સઘળું કથન પહેલાં કહ્યા પ્રમાણે જ સમજી લેવું જોઈએ. તેમાં કઈ ઈડને ઉત્પન્ન કરે છે. કેઈ પોત-બચ્ચું-ઉત્પન્ન કરે છે. ઇંડુ ફૂટવાથી For Private And Personal Use Only Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गो ननयन्ति, 'पोयं वेगया जणयंति' पोतमे के जनयन्ति, ‘से अंडे उभिज्जमाणे इत्थि वेगया जणी' तस्मिन्नाडे -उद्भिद्यमाने-स्फुटिते सति एके स्त्रियम्स्त्रीजातीकं जनयन्ति, 'एगे पुरिसं वि णपुंसगं पि' पुरुषमपि नपुंसकमपि जनयन्तीति, समुत्पधन्ते, शुक्राधिक्ये पुरुषो भवति शोणिताऽधिक्ये वी भवति, शुक्रशोणितयोः समत्वे नपुंसको जायते, कर्मप्रभावादेव यथायथं जननं जीवानाम् तत्र तु बाह्य कारणानां गौणत्वमेवेतिसारः । 'ते जीवा डहरा समाणा वाउकायमाहारेति' समुत्पन्नाः अण्डानिर्भिध बहिरागता स्ते जीवाः सर्पदहराः-बाला! सन्तो वायुकायमाहारयन्ति, 'आणुपुत्वेणं वुड।' आनुपूर्वेण-क्रमशो द्धमाना वृद्धाः, 'वणस्सइकायं तसथावरपाणे' वनस्पतिकार्य सस्थावरमाणान् क्रमश: प्रवर्द्ध मानाः सादिजीशः वनस्पतित्रसस्थावरकायान् यथारूचि यथालामम्गहारयन्तो जीवनयात्रा निर्वहन्ति । ते जीवा आहारे ति पुढवीसरीरं जाव संत' ते जीवाः पृथिव्यादिशरीराण्यपि भुनानाः तानि स्वात्मसात् स्वशरीररूपेण परिणम उत्पन्न करते हैं। कोई पोत को उत्पन्न करते हैं। अण्डे के फटने पर कोई स्त्री, कोई पुरुष और कोई नपुंसक के रूप में उत्पन्न होते हैं। शुक्र की अधिकता हो तो पुरुष होता है, शोणित की अधिकता होने पर स्त्री और शुक शोणितकी समानता होतो नपुंसक होता है। इनके पुरुष आदि होने में प्रधान एवं अंतरंग कारण तो कर्म ही है। शुक्र शोणित आदि वाह्य कारण गौण हैं। - जब ये सर्प आदि जीव अण्डे से बाहर आते हैं और बालक होते हैं वायुकाध का आहार करते हैं। कम से बडे होने पर वनस्पतिकाय तथा त्रस और स्थावरकाप का अपनी रुचि एवं प्राप्ति के अनुसार आहार करते हुए जीवनयात्रा का निर्वाह करते हैं । पृथ्वी आदि का उप. કેઈ સ્ત્રી, કેઈ પુરૂષ, અને કેઈ નપુંસક પણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. શુક્રનું અધિકપણું હોય તે પુરૂષ અને શાણિતનું અધિક પણું હેય તે સ્ત્રી ઉત્પન્ન થાય છે. તથા શુક્ર અને શણિતનું સરખા પણું હેય તે નપુંસક થાય છે. તેઓના પુરૂષ વિગેરે હવામાં મુખ્ય અને ખાસ કારણ તે કર્મ જ છે. शु, शोणित विगेरे तो गो २ - જ્યારે આ સર્પ વિગેરે છ ઇંડામાંથી બહાર આવે છે, અને બાળક હોય છે, ત્યારે વાયુકાયને આહાર કરે છે, અને કમથી મેટા થાય ત્યારે વનસ્પતિકાય તથા ત્રસ અને સ્થાવર કાયને પોતાની રૂચી અને પ્રાપ્તિ પ્રમાણે આહાર કરતા થકા જીવન યાત્રાને નિર્વાહ કરે છે. પૃથ્વી વિગેરેને For Private And Personal Use Only Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिज्ञानिरूपणम् ४०५ यन्ति, अन्य त्स मनुष्यपकरणज्ज्ञातव्यम् 'अवरेऽ वि य ? अपराण्यपि च खलु तेसिं' तेषां सर्प जोवानाम् 'उरपरिसप्पथलपरपंचिंदियतिरिक्ख नोणियाण' उरःपरिसर्पस्थलचरपश्चन्द्रिपतिर्यग्योनि कानाम् 'अहीण' अहीनाम् ‘जाव महोरगाण' यावद्-अजगराशालिकमहोरगाणाम् , 'सरीरा' · शरीराणि ‘णाणावण्णा" नानावर्णानि 'णाणागंधा' नानागन्धानि 'जाव मक्खाय' याक्दाख्यातानि । अयमाशय:-उपःपरिसदारभ्य महोरगपर्यन्तानां स्थल वरपञ्चेन्द्रिगतियायोनिकनीयानां विभिन्न नानावर्ण रसगन्धस्पर्शवन्ति अपराष्पपि च खलु शरीराणि भवन्तीति । ___ उम् परितांदोन्निरूप्य भुन परिमाणां स्वरूपाणि दर्शयितुमाह-'अहावरपुरक्वायं' अथाऽपर पुराख्यातम् , इतः परं पृथिव्यां सञ्चरणशीलानां पश्चेन्द्रिय जीवानां स्वरूपमाख्यातं तीर्थकरेग ‘णाणाविहाणं' नानाविधानाम् 'भुयारिसप्पथल. यरपंचिदितिरिक्ख नोणियाणं' भुजपरिसर्पस्थलचरपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाम् 'तं जहा' तद्यथा-'गोहाणं' गोधानाम् 'नउलाण' नकुलानाम् 'सीहाणं' सिंहानाम् 'सरभोग करके ये जीव उसे अपने शरीर के रूप में परिणत करते हैं इत्यादि सब वक्तव्यना मनुष्य के प्रकरण के अनुसार समझ लेना चाहिए। सर्प यावत् महोरग आदि उपरिसर्प स्थल चर पंचेन्द्रिय तिर्यचों के नाना वर्ण, गंध, रस और स्पर्श वाले शरीर होते हैं। . इस प्रकार उरपरिसा, सर्प आदि का निरूपण करके भुजपरिसरों का स्वरूप दिखलाते हैं-'अहावरं पुरक्खायं णाणाविहाणं भुयपरिसप्प' इत्यादि। तीर्थकर भगवान् ने नाना प्रकार के स्थल वर भुजपरिसर्प पंचे. न्द्रिय नियंचों का स्वरूप कहा है। वे इस प्रकार हैं-गोह, नकुल, - ઉપભેગા કરીને આ છે તેને પિતાના શરીર રૂપે પરિણુમાવે છે. વિગેરે સઘળું કથન મનુષ્યના પ્રકરણમાં કહ્યા પ્રમાણે સમજી લેવું સર્પ યાવત મહારગ વિગેરે ઉર પરિસર્પ, થલચર પચેયિ તિર્યંચના અનેક પ્રકારના qg, मध, २स, अने २५शवाय ॥२॥ ३य छे. . આ રીતે ઉરઃ પરિસર્પ, સર્પ વિગેરેનું નિરૂપણ કરીને ભુજ પરિસ પનું સ્વરૂપ હવે સૂત્રકાર બતાવે છે.— ___ अहावरं पुरक्खायं णाणाविहाण भुयपरिसप्प०' त्या ..... તીર્થકર ભગવાને અનેક પ્રકારના સ્થળચર ભુજ પરિસર્ષ પંચેન્દ્રિય तिय-यानु २१३५ डे छे. ते मा प्रमाणे समायु, ।, नाणीया, सिंह, For Private And Personal Use Only Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रताङ्गसूत्र डाणं' सरटानाम् सल्लाण' शललकानाम् ‘सरघाण' सरघाणाम् ‘ख राण' खराणाम् , नकुलवच्चलनशीलानाम् 'घरकोइलि गाणं' गृहकोकिलानाम् 'विस्संभराणं' विश्वम्भराणाम्-जन्तु विशेषाणाम् 'मुसगणं' मुषकाणाम् 'मंगुसाणं' मङ्गुषाणाम्-नकुलजातिविशेषाणाम् 'पइलाइयाण' पदलालिवानाम्-हस्तबलचलनशीलसर्पजातीनाम् 'विरालियाणं' विडालानाम् 'जोहीयाणं' योधिकानाम्-जन्तुविशेषाणाम् *चउप्पाइयाणं' चतुष्पदाम् , 'तेसिं च ण' तेषां च खलु 'अहवीएणं' यथावीजेन 'अहाबकासेग' यथाऽवकाशेन 'इत्थीए पुरिसस्त य' स्त्रियाः पुरुषस्य च 'जहाउरपरिसप्पाणं तहा भाणिय' यथोरस्परिसर्पाणां भणितं तथा भुनपरिसणामपि भणितव्यम् 'जाव सारूविकडं संतं' यावत्सारूपी कृतं स्यात् , मनुष्यप्रकरणबज्ज्ञातव्यम् , तथाहि-कर्मकृतयोनौ अत्र मैथुनमत्ययिको नाम संयोगः समुत्पद्यते ते जीवा द्वयोरपि मातापित्रोः स्नेहं संचिन्वन्ति तत्र जीवाः स्त्रीतया पुरुषतया नपुंसकतया विवर्त-ते, ते जीवाः मातुरात पितुः शुक्रं तदुभयं संमृष्टम्-ऋतुवीर्य मिश्रितं, कलुषम् , किलिषम्-घृणायुक्तं प्रथमतया आहारयन्ति, ततः पश्चात् सा माता नानाविधान रसान्वितान् आहारानाहारयति, ततस्ते जीवा एकदेशेन सिंह, सरट, शल्लक, सरघ, खर (जो नकुल के समान चलते हैं), गृहकोकिला (छिपकली), विश्व भर (विस भरा), मूषक, मंगुस (एक जाति का नकुल) पदललित (पदल), बिडाल, योधिक और चतुष्पद आदि । इन जीवों की बीज और अवकाश के अनुसार उत्पत्ति होती है इत्यादि कथन पूर्ववत् जान लेना चाहिए। तात्पर्य यह है कि कर्मकृत योनि में मैथुन प्रत्ययिक नामक संयोग उत्पन्न होता है। तदनन्तर वहां जीव स्त्री, पुरुष और नपुंसक के रूप में उत्पन्न होते हैं। सर्व प्रथम वे माता पिता के रजवीर्य का आहार करते हैं। पश्चात् माता जो नाना प्रकार के रस वाला आहार करती है, उसमें स२८, २ सय, ५२, (२ नाजियानी भयाले छ.) गायिका (७५४सीमl) विश्वम२ (विसस) भूष४ (४५) भ'शुस (मे प्रारी नजिया) પદલિત (પદ) બિલાડી ધિક અને ચોપગ વિગેરે. આ જીવની ઉત્પત્તિ બી અને અવકાશ પ્રમાણે થાય છે. વિગેરે કથન પૂર્વવતુ-પહેલાં કહ્યા પ્રમાણે સમજી લેવું. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે—કમકૃત નિમાં મૈથુન, પ્રત્યાયિક નામનો ગ ઉત્પન્ન થાય છે. તે પછી ત્યાં જીવ સ્ત્રી, પુરૂષ અને નપુંસક પણાથી ' ઉત્પન્ન થાય છે. સૌથી પહેલાં તેઓ માતા પિતાના રજ અને વીર્યને આહાર કરે છે. તે પછી માતા જે અનેક પ્રકારના રસવાળે આહાર કરે છે. For Private And Personal Use Only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिशानिरूपणम् 100 भोज आहारयन्ति, आनुपूव्र्येण वृद्धाः परिपाकमनुप्राप्ताः ततः कायान्निस्तरका स्त्रीमावमेके जनयन्ति पुरुषभावमेके जनयन्ति नपुंसकभावमे के जनयन्ति, जीवा बालाः मातुः क्षीरं सर्पिराहारयन्नि, क्रमशो वृद्धा ओदनं कुल्मापं असस्थामरांच प्राणानाहारयन्ति पृथिवीशरीरं यावत् सारूपीकृतं स्यादिति । 'अवरेऽविय ' अपराण्यपि च खलु सेसि गाणाविहाणं तेषां नानाविधानाम् 'भ्यपरिसरअळयरपंचिदियतिरिक्खाणं' भुजपरिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रिगतिरथाम् , 'गोहाणं' जार मकवाय गोधानां यावदाख्यातानि, सर्वमत्रत्यर्णनं पूक्ताद विज्ञेयम्। अस्मिन् पकरणे खेचरपक्षिणा स्वरूपं भेदादिकं च निरूपयितुमाह-'अहावर अथाऽपरम् 'पुरकखाय' पुगख्यातम् ‘णाणाविहाण नानाविधानाम् , 'चर. पंचिंदियतिरिकाव नोणियाण' खवायनेन्द्रियतियग्योनिकानाम 'जहां तद्यथासे एक देश से ओज आहार करते हैं। फिर क्रम से बढते हुए जब परि पक्वता को प्राप्त होते हैं तो माता के उदर से बाहर निकलते हैं, एवं कोई पुरुष के, कोई स्त्रीके और कोई नपुंसक के रूप में जन्म लेते हैं। वे जीव जब बाल्यावस्था में रहते हैं तो माता के दूध का आहार करते हैं। अनुक्रम से जय बडे होते हैं तो ओदन, कुल्माष तथा त्रस एवं स्थावर प्राणियों का आहार करते हैं और उसे अपने शरीर के रूप में परिणत करते हैं। उन गोह आदि भुजपरिसा स्थलचर तिर्यंच पंचे. न्द्रिय जीवों के नाना वर्ण रस गंध स्पर्श वाले अनेक शरीर होते हैं, ऐसा कहा गया है। . अब खेनर पक्षियों के स्वरूप एवं भेद आदि को प्ररूपण करते हैं -'अहावरं पुरक्खायं णाणाविहाणं खचरपंचिंदियः' इत्यादि। તેમાંથી એકદેશથી એજ આહાર કરે છે. તે પછી કમથી વધતાં જ્યારે પી. પકવ થાય છે, ત્યારે માતાના ઉદરમાંથી બહાર નીકળે છે. કેઈ પુરૂષપણાથી, કઈ સ્ત્રી પણુથી, અને કોઈ નપુંસક પશુથી જન્મ લે છે. તે છે. જ્યારે બાલ અવસ્થામાં રહે છે, ત્યારે માતાના દૂધને આહાર કરે છે. અને અનુ. ક્રમથી મોટા થાય છે. ત્યારે ભાત, કુભાષ, તથા ત્રસ અને સ્થાવર પ્રાણિયોને આહાર કરે છે. અને તેને પિતાના શરીરપણાથી પરિણમાવે છે. તે ઘે વિગેર ભુજ પરિસર્પ સ્થલચર તિર્યંચ પંચેન્દ્રિય જેના અનેક વર્ણ, રસ, ગંધ સ્પર્શવાળા અને શરીર હોય છે એ પ્રમાણે કહેલ છે. હવે ખેચર–આકાશમાં ફરનારા પક્ષિયોના સ્વરૂપ અને ભેદ વિગેરેનું नि३५, ४२१॥मा मावे छ.--'अहावर पुरकखायं णाणाविहाणं खचरपंचिंदिर For Private And Personal Use Only Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४०८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे 'चमपक्खीणं' चर्मपक्षिणाम् च गादर' इति लोके प्रसिद्धानाम् 'लोपाक वीण मोमपक्षिणाम् , लोमैव प्रधान येषां ताशानां गगरचरकाकगृ द्वादीनाम् । 'समुग्गपकवी' समुद्गपक्षिणाम् 'वित नपकावीणं' विनतपक्षिणाम् , एतेषां विभिन्न मक्षिणामुत्पत्तिविषये तीर्थकृता एवं कथितम् । तथाहि-तेपि च णं अहावीएणं अशवगासेण' तेषां च खलु चर्मपक्षिमभृतिकानां यथाबीजेन यथाकाशेन इन्थीए' खिया पुरुषस्य वा समुत्पत्ति भवतीति । जहा उरपरिमपाणं' यथोरः परिप गां तथैवेहाऽपि सर्व बोध्यम् । 'जाणत्तं' आज्ञप्तम्-कथितमिति यावन् 'ते जीवा डहरा समाणा माउगात्त सिणेहमाहारेति' ते जीवा दहराः बालाः सन्तः गर्भा द्विनिःसृता यावद्धाल्यं मातुःशरीर स्नेहमेवाऽऽहारयन्ति, 'अणुपुज्वेणं वुड्डा वण स्सइकायं तसथावरे य पाणे' आनुा -क्रमशो वृद्धा:-प्रवर्द्धमानाः वनस्पतिकाय मपरान् त्रसस्थावरांश्च पाणान् आहारयन्ति । ते जीवा आहाति पुढवीपरीरं जाव संत' ते जीवा आहारयन्ति पृथिवीशरीरं यावत् स्यात्, एतेषां भक्षणं कृत्वा तानि तीर्थंकर भगवान ने चर्मपक्षी (चमगादड़, लोमपक्षी (रोमों की प्रधा. नता वाले काक गीध आदि पक्षी), समुद्गपक्षी, विततपक्षी आदि खेचर पंचेन्द्रिय तिर्य चों का कथन किया है। इन पक्षियों की बीज के अनुसार और अवकाश के अनुमार ही उत्पत्ति होनी है। उरपरिसर्प जीवों के विषय में जो कथन किया गया है, वही सब यहां भी समझ लेना चाहिए। ये जीव जब गर्भ से बाहर आते हैं और छोटे होते हैं, तब माता के शरीर के स्नेह का आहार करते हैं ! अनुकम से बडे होने पर वनस्पतिकाय तथा बस स्थावर प्राणियों का आहार करते हैं। इस प्रकार वे पृथ्वी शरीर आदि का आहार करके उसे अपने शरीर आदि त्यादि ती ४२ माने यक्षी (141) भिक्षी (२-३१३વાળા) એટલે કે કાગડા ગીધ વિગેરે) પક્ષી સમુદ્ર પક્ષી વિતત પક્ષી વિગેરે બેચર પંચેન્દ્રિય તિર્યંચનું કથન કરેલ છે. આ પક્ષિઓની ઉત્પત્તિ બીજ પ્રમાણે અને અવકાશ પ્રમાણે જ થાય છે. ઉરઃ પરિસર્ષ જીવેના સંબંધમાં જે કથન કરવામાં આવેલ છે, તે જ સઘળું કથન અહિયાં પણ સમજી લેવું. આ છે જ્યારે ગર્ભમાંથી બહાર આવે છે, અને નાના હોય છે, ત્યારે માતાના શરીરના સનેહને આહાર કરે છે. અનુકમથી મોટા થયા પછી વનસ્પતિકાય તથા ત્રણ સ્થાવર વિગેરે પ્રાણિયને આહાર કરે છે. આ રીતે તે જ પૃથ્વી શરીર વિગેરે આહાર કરીને તેને પોતાના શરીર વિગેરે For Private And Personal Use Only Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.३ आहारपरिशानिरूपणम् शरीराणि स्व स्वरूपेण परिणमयन्ति, अत्रापि उरःपरिसर्पपकरणं द्रष्टव्यम् , 'अबरेऽपि य णं' अपराण्यपि च खलु 'तेसिं' तेषाम् ‘णाणाविहाण' नानाविधा नाम् 'खचरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं' खचरपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाम् , 'चम्म पक्खीण' चर्मपक्षिणाम् 'जाव मक्वाय' यावल्लोमपक्षिसमुद्रगविततानामाख्यातानि, तेषां पक्षिणामपराण्यपि नानावर्णरसगन्धस्पर्शयुक्तानि शरीराणि भवन्तीति तीर्थकेता प्रतिपादितानि, अन्यत्सर्वं पूर्वदिशाऽवसेयम् इति ।मु० १५॥५७॥ ___ मूलम्-अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता णाणाविहजोणिया णाणाविहसंभवा जाणाविहयुकमा तज्जोणिया तस्संभश तदु वकमा कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तस्थ वुकमा णाणाविहाण तंसथावराणं पोग्गलाणं सरीरेसु वा सचित्तेसु वा अधित्तेसु वा अणुसूयत्ताए विउदृति, ते जीवा तेसिं गाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सिणेहमाहारैति, ते जीवा आहारोति पुढवीसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि य णं तेसिं तसथावरजोणियाणं अणुसूयगाणं सरीरा णाणावण्णा जाव मक्खायं । एवं दुरूवसंभवत्ताए, एवं खुरदुगत्ताए ॥सू०१६।५८॥ छाया-अथाऽपरं पुराख्यातमिहे के सत्त्वाः नानाविधयोनिकाः नानाविधंसम्भवाः नानाविधच्युन्क्रमाः, तद्योनिका स्तत्सम्भवा स्तदुपक्रमाः कर्मों पगाः कर्मनिदानेन सत्र व्युत्क्रमाः, नानाविधानां सस्थावराणां पुद्गलानां शरीरेषु वा सरिसेषु का अचित्तेषु वा अनुस्यूततया विवर्तन्ते, ते जीवा स्तेषां नानाविधानां त्रसस्थावराणां के रूप में परिणत करते हैं। यह सब कथन भी उपरिसर्प के कथन के अनुसार ही समझना चाहिए। इन चर्मपक्षियों, लोमपक्षियों, समुदगपक्षियों के अर्थात् खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यचों के नाना वर्ण, रस, गंध और स्पर्श वाले अनेक शरीर तीर्थंकर भगवान् ने कहे हैं ॥१५॥ રૂપે પરિણાવે છે. આ સઘળું કથન પણ ઉર પરિહર્પના કથન પ્રમાણે જ સમજી લેવું જોઈએ. આ ચર્મ પક્ષિયે, લેમ પક્ષિ, સમુદ્ગ પક્ષિયો તથા વિતત પક્ષિયોના અર્થાત્ બેચર પંચેન્દ્રિય તિર્યના અનેક વર્ણ રસ ગંધ એને સ્પર્શવાળ અનેક શરીરો તીર્થકર ભગવાને કહ્યા છે. સૂ૦ ૧૫ स० ५२ For Private And Personal Use Only Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतास्त्र पाणानां स्नेहपाहारयन्ति । ते जीता आहारथन्नि पृथिवी शरीरं यावत् स्यात् । अपराण्यपि च खल्ल तेपां नपस्थावरमोनिकानामनुस्यूतकानां शरीराणि नानावर्णानि याबदाख्यातानि । एवं दुरूपसम्भवतया एवं चर्मकीटनया मू०१६-५८॥ टीका--पञ्चेन्द्रियप्राणिनां स्वरूपं दर्शविता-विकले न्द्रपस्वरूपमाह-'अहा. ६२' इत्यादि । ये जीवास लस्थावराणां सचित्ताऽचित्तदेहेषु समुत्पद्य तान्याश्रित्य स्थितिमन्तो भवन्ति-वर्द्धन्ते च, तेषां जीवानां विकलेन्द्रियाणामिह प्रकरणे निरूपणं भवति । 'अहावरे' अथाऽपरम् 'पुरक वायं पुरख्यातं तीर्थकरेण, पूर्व स्मिन् काले तीर्थकरा अन्यविधजीपवर्णनं कृत ना, 'इहे गइया सत्ता णाणाविह जोगिया' इहै तये सत्ता कालिक्षादयो जीवाः नानाविधयोनिका:-अनेमका रकयोनिषु समुत्पद्यमाना भवन्ति 'गाणाविहसंवा नानाविध सम्भवाः, तथाऽनेक प्रकारकयोनिषु स्थिता भवन्ति । 'णाणाविहवुकमा' नानाविधव्युत्क्रमाः अनेक प्रकारकयोनिष्वेव विवर्द्धन्ते । 'तज्जोणिया तासमा तदुरकमा तद्योनिकास्त 'अहावरं पुरक्खायं' इत्यादि। टीकार्थ-पंचेन्द्रिय जीवों का स्वरूप दिखला कर अब विकलेन्द्रिय जीवों का स्वरूप कहते हैं । जो जीव त्रस और स्थावर प्राणियों के सचित्त और अचित्त शरीरों में उत्पन्न होकर उन्हीं के आश्रय में रहते हैं और बढते हैं, उन्हीं विकलेन्द्रिय जीवों का यहां निरूपण किया गया है। पूर्वकाल में तीर्थकरों ने अन्य प्रकार के प्राणियों का भी कथन किया है। कोई कोई जीव, जैसे जू, लीख आदि अनेक प्रकार की योनियों वाले होते हैं। वे अनेक प्रकार की योनियों में उत्पन्न होते हैं, ____ 'अहावरं पुरक्खाय' याle ટીકાર્થ–પંચેન્દ્રિય જીનું સ્વરૂપ બતાવને હવે વિમલેન્દ્રિય જીવોનું સ્વરૂપ બતાવવામાં આવે છે.–જે જીવ ત્રસ અને સ્થાવર પ્રાણિના સચિત્ત અને અચિત્ત શરીરમાં ઉત્પન્ન થઈને તેઓના જ આશ્રયથી રહે છે. અને વધે છે. તે વિકલેન્દ્રિય જીવોનું અહિયાં નિરૂપણ કરવામાં આવે છે. પૂર્વકાળમાં તીર્થકરો અન્ય પ્રકારના પ્રાણનું પણ કથન કરેલ છે. કઈ કઈ જીવ જેમકે જે લીખ, વિગેરે અનેક પ્રકારની નિયવાળા હોય છે. તેઓ અનેક પ્રકારની નિમાં ઉત્પન થાય છે. અનેક પ્રકારની એનિચિમાં સ્થિત રહે છે, અને અનેક પ્રકારની નિયોમાં વધે છે, અને પિત For Private And Personal Use Only Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिक्षानिरूपणम् ४११ सम्भवास्तदुपक्रमाः यू हादिजीवाः 'कम्मोवगा' को पगा:-पूर्वक कर्मानुगामिनः सन्तः 'कम्मनियाणेग' कर्मनिदानेन-कर्मनिमित्तेन 'तस्थ वुकमा तत्र व्युत्क्रमाःअनेकप्रकारकयोनिषु समुत्पन्नास्तत्रैव स्थिताः तत्र वृद्धि प्राप्तान्तः स्वकृत कर्मानुः गामिनः कर्मबलादेव अनेकविधयोनिषु जायन्ते। 'णाणाविहाणं तसथावराणं पोग्गलाणं' नानाविधानां त्रपस्थावराणां पुद्गलानाम् 'सरीरेसु वा सचित्तेसुवा अचित्तेसु वा' शरीरेषु वा-सचित्तेषु वा अचित्तेषु वा 'अगुसूयत्तार विउटृति' अनु. स्यूततया विवर्तन्ते-ते. जीवा अनेकमकारकत्रसस्थावराणां सचित्ताऽचित्तदेहेषु आश्रिताः समुत्पद्यन्ते। 'ते जीवा तेसि गाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सिणेहमाहारेति' ते युकादयो जीवाः तेषां नानाविधानां त्रसस्थावराणां पाणिनां स्नेहमाहारयन्ति, 'ते जीवा आहारेति पुढधीसरीरं जाव संत ते यू कादयो जीवा आहारयन्ति पृथिवीशरीरं यावत् स्यात, ते पृथिव्यादि जीवानामपि शरीराणि भक्षयन्ति भक्षयित्वा च कालेन स्वस्वरूपे परिणमयन्ति, 'अबरेऽपि य णं' आरायपि च खलु 'तेसिं' तेषाम् 'तसथावरजोणियाणं' त्रसस्थावरयोनिकानाम्-यूकादिविकलेन्द्रियजीवानाम् 'अणुसूपगाणं' अनुस्यूतकानाम्-तदाश्रिततया स्थिति कानाम् ‘सरीरा' शरीराणि 'णाणावण्णा' नानावर्णानि 'जाव मकवायं' यावदाख्यतानि एवं दुरूवसंभवत्ताए' एवं दूरूपसम्भवतया-अनेनैव प्रकारेण मूत्रपुरीषेभ्योऽपि विकलेन्द्रिय अनेक प्रकार की योनियों में स्थित होते हैं और अनेक प्रकार की योनियों में बढ़ते हैं। अपने अपने पूर्वकृत कर्मानुगामी होकर कर्म के अनुसार ही वहां उनकी उत्पत्ति, स्थिति और वृद्धि होती है। वे नाना प्रकार के बस और स्थावर जीवों के सचित्त और अचित्त कलेवरों में उत्पन्न होते हैं और अनेक विध बस स्थावर प्राणियों के स्नेह का आहार करते हैं। वे जू आदि विकलेन्द्रिय जीव उनके शरीरों का भी आहार करते हैं और उन्हें अपने शरीर के रूप में परिणत कर लेते है। उनके नाना वर्ण आदि से युक्त अनेक प्रकार के शरीर होते हैं। इसी પિતાના પૂર્વોક્ત કર્યાનુગામી થઈને કર્મ પ્રમાણે જ ત્યાં તેની ઉત્પત્તિ, સ્થિતિ અને વૃદ્ધિ થાય છે. તેઓ અનેક પ્રકારના ત્રસ અને સ્થાવર જીના સચિત્ત અને અચિત્ત કલેવર (શરીરો) માં ઉત્પન્ન થાય છે. અને અનેક પ્રકારના ત્રસ અને સ્થાવર પ્રાણિના સ્નેહને આહાર કરે છે તે જ વિગેરે વિકલેન્દ્રિય જીવે તેઓના શરીરોને પણ આહાર કરે છે. અને તેને પિતાના શરીરના રૂપમાં પરિણમાવે છે. તેમના અનેક વર્ણ વિગેરેથી યુક્ત અનેક પ્રકારના For Private And Personal Use Only Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतसूत्रे जीवा जायन्ते एवं खुरदुत्ता' एवं चर्मकीटतया - अनेनैव प्रकारेण गोमहिपादिशरीरेष्वपि चर्म हीटतया बहवो जीवाः समुत्पद्यन्ते विकलेन्द्रियाः स्वकर्मकृतपापफलभोगाये | | ०१६ - ५८ ॥ मूलम् - अहावरं पुरखायं इहेगइया सत्ता णाणाविह जोणिया जाव कम्मणियाणेणं तत्थ वुक्कमा णाणाविहाणं तस्थावराणी पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा तं सरीरगं वायसंसिद्धं वा वायसंगहियं वा वायपरिग्गहियं वा उढवाएसु उड्डभागी भवइ अहे वासु अभागी भवइ तिरियवाएसु तिरियभागी भवइ, तं जहा - ओसा हिमए महिया करए हरतणुर सुद्धोदय, ते जीवा तेसिं णाणाविहाणं तस्थावराणं पापाण सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारैति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि य णं तेसिं तसथावरजोणियाणं ओसाणं जाव सुद्धोदगाणं सरीरा णाणावण्णा जाव मक्खायं । अहावरं पुरखायं इहेगइया सत्ता उद्गजोणिया उद्गसंभवा जाव कम्मणियाणेणं तत्थ वुकमा तसथावर जोगिएसु उदसु उद्गत्ताए विहंति, ते जीवा तेसिं तसथावरजोणियाणंउदगाणं सिणेहमाहारेति, ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि य णं तेसिं तस्थावरजोणियाणं उद्गाणं सरीरा पाणावण्णा जाव मक्खायं । { प्रकार मल मूत्र से भी विकलेन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति होती है । गाय भैंस आदि के शरीर में भी चर्मकीट रूप में बहुत से विकलेन्द्रियजीव उत्पन्न होते हैं और अपने कर्मों का फल भोगते हैं ॥१६॥ शरीरो होय छे. प्रमा भद, भूत्री पायु विश्लेन्द्रिय भवानी उत्पत्ति થાય છે. ગાય, ભેંસ વિગેરેના શરીરમાં પણ ચકીત પણાથી ઘણા એવા નિકલે. ન્દ્રિય જીવ ઉત્પન્ન થાય છે. મને પેાતાના કર્માંનું ફળ ભાગવે છે. પ્રસૂ૦૧૫ For Private And Personal Use Only Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिज्ञानिरूपणम् ४१.३. अहावरं पुरखायं इहेगइया सत्ता उदगजोणियाणं जाव कम्मनियाणेणं तत्थ बुकमा उदगजोगिएसु उदयसु उद्गत्ताए विउति, ते जीवा तेसिं उद्गजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेति, ते जीवा आहारैति पुढवीसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि यणं तेसिं उदगजोणियाणं उदगाणं सरीरा णागावण्णा जाव मक्खायं । अहावरं पुरखायं इहेगइया सत्ता उद्गजोणियाणं जाव कम्मनियाणेणं तत्थ वुक्कमा उद्गजोणिएसु उदयसु तसपाणत्ताए विउति, ते जीवा तेसिं उदगजोणियाणं उदगाणं: सिणेहमाहारेति, ते जीवा आहारेति पुढवीसरीरं जात्र संतं, अवरेऽवि य णं तेसिं उद्ग जोणियाणं तसपाणाणं सरीश जाणावण्णा जाव मक्खायं ॥सू० १७५७ ॥ छाया - अथाऽपरं पुराख्यातम् इहैकतये सच्चाः नानाविधयोनिका यावत् कर्मनिदानेन तत्र व्युकमा: नानाविधानां तस्थावराणां प्राणानां शरीरेषु सचितेषु वा अवितेषु वा तच्छरीरं वातसंसिद्धं वा वातसंगृहीतं वा वातपरिगृहीतं वा ऊर्ध्ववातेषु ऊभागी भवति, अधोवातेषु अधोभागी भवति, तिर्यग्वातेषु: तिर्यग्भागी भवति तद्यथा - अवश्यायः हिमकः महिका करक: हरततुकः शुद्धोदकम्, ते जीवास्तेषां नानाविधानां त्र स्थावराणां माणानां स्नेहमाहारयन्ति, ते जीवा आहारवन्ति पृथिवीशरीरं यावत् स्यात् । अपराण्यपि च खलु तेषां त्रसस्थावरयोनिकानाम् अवश्यायानां यावच्छुद्धोदकानां शरीराणि नानावर्णानि यावदाख्यातानि । अथाऽपरं पुरावतम् इहैकये सच्चाः उदकयोनिकाः उदकसम्भवा यावत् कर्मनिदानेन तत्र व्युत्क्रमाः सस्थावरयोनिकेषु उदकेषु उदकतया विवर्तन्ते । ते जीवा तेषां त्रसस्थावरयोनि कानामुदकानां स्नेहमाहारयन्ति, ते जीवा आहारयन्ति पृथिवीशरीरं यावत् स्यात्, अपराण्यपि च खलु तेषां त्रसस्थावरयोनि कानामुदकानां शरीराणि नानावर्णानि यावदाख्यातानि । अथाऽपरं पुराख्यातम् इहैकतये सच्चाः उदकयोनिकानां यावर कर्मनिदानेव तत्र व्युत्क्रमाः उदकयोनिकेषूदकेषु उदकतया विवर्तन्ते ते जीवा स्तेषामुदक t For Private And Personal Use Only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir પશે सूत्रकृतासूत्र योनिकानामुदकानां स्नेहमाहार यन्ति । ते जीना आहारयन्ति पृथिवीशरीरं यावत् स्थाव । अपराण्यपि च खल्ल तेषाम् उदकयोनिकानामुदकानां शरीराणि नानवर्णानि याबदाख्यातानि । अथाऽपरं पुराख्यातम् इहैकतये सवाः उदकयोनिकानां यावत् कर्मनिदानेन तत्र व्यु क्रमाः उदकयोनि के पूद केषु समाणतया वित्तन्ते । ते जीवा स्तेषामुदकयोनिकानामुदकानां स्नेहमाहारयन्ति, ते जीवाः आहारयन्ति पृथिवी शरीरं यावत् स्यात् अपराणापि च खलु तेपामु गोपिकानां सपण नां शरीराणि नानावर्णानि यावदाख्यातानि ॥पू०१७-५७॥ ___टीका-'इह खलु संसारे-अनेके जीवाः पूर्वकृतकर्मवशगा, वायुयोनिका अकाये समुत्पद्यन्ते, यथा-प्रवश्याय हिमक महिकादयः, तेषामेव जीवानामिह प्रकरणे स्वरूपं निरूप्यते । 'अहावरं पुरक्खाय' अथाऽपरं पुराख्यातम्, तीर्थकरे. णेति शेषः, 'इहे गइया' इहैकतये 'सत्ता' सत्ता:-पाणिनः 'णाणाविह नोणिया' नानाविधयोनिका:-अनेकप्रकारकयोनिषु समुत्पन्नाः सन्तः 'जाव' यावत् 'कम्म णियाणेण तत्थ वुक्पा' कर्मनिदानेन तत्र व्यु-क्रमा:-स्वकृतकर्मनिमित्तेन तत्र-वायु: योनिकाऽफाये समुत्पन्ना सतौर स्थिता स्तत्रैव वर्तनशीलाः, वायुयोनिकाऽकाये समुत्पद्यन्ते जीवाः 'णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं' नानाविधानां त्रसस्थावराणां पाणानाम्, तत्र मण्डूकादयस्त्रसाः, लवणहरितादयः स्थावरास्तेषां पाणिनाम् 'अहावरं पुरक्खायं' इत्यादि ! टीकार्थ-इस संसार में अनेक जीव पूर्वकृत कर्मके अधीन होकर वाययोनिक अप्काय में उत्पन्न होते हैं, जैसे अवश्याय महिका आदि इस प्रकरण में उन्हीं का स्वरूप कहा जाएगा। तीर्थकर भगवान ने कहा है कि इस लोक में कोई कोई जीव विविध प्रकार की योनियों में उत्पन्न होते हुए कर्म के उद्य से वायुः योनिक अप्काय में आते हैं। वे वहीं स्थित होते और वृद्धि को प्राप्त 'अहावर पुरक्खाय' त्या ટીકાથ-આ સંસારમાં અનેક ઈવે પહેલાં કરેલા કર્મને આધીન થઈને વાયુનિક અપકાયમાં ઉત્પન્ન થાય છે, જેમકે–અવસ્થા મહિકા ઝાકળ આદિ આ પ્રકરણમાં તેના વિશેજ કથન કરવામાં આવશે તીર્થકર ભગવાને કહ્યું કે – આ લેકમાં કઈ કઈ છે અનેક પ્રકા રની નિમાં ઉત્પન્ન થતા થકા કર્મના ઉદયથી વાયુયોનિક અપકાયમાં આવે છે. તેઓ ત્યાંજ સ્થિત હોય છે. અને વૃદ્ધિ પામે છે. તેઓ ત્રસ અને For Private And Personal Use Only Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिक्षानिरूपणम् ४१५ 'सरी रेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा' शरीरेषु सचित्तेषु वा अचित्तेषु वा वायुयो. निकापफायरूपेण समुत्पद्यन्ते। 'तं सरीरगं वायसंसिद्ध वा वायसंगहियं वा, वायारिग्गहियं वा' तच्छरीरं वातसंसिद्धं वा वातेन निष्पन्नं वा, वात संगृहीतं वा वातपरिगृहीतं वा, तदष्कायशरीरं वायुना उत्पादितं सोऽकायो वात जनित इत्यर्थः अतोऽकायस्योपादानकारणं वायुरेच, वायुना तद्द्वारेण संगृहीत पायुद्वारेणैव धारितमपि भवति । अत एव-'उड्डयाएमु उडभागी भवइ, अहेवाएK अहेभागी भवइ, तिरियवाएस तिरियभागी भवई' तदकायशरीरम् ऊर्व गतेषु ऊर्ध्वभागि भवति, अधोवातेषु अधोभागि भवति, तिर्यग्वातेषु तिर्यग्भागि भवति, इत्यादि, एवमग्रेऽपि-वायुकारणकं तच्छरीरमिति निर्णीयते । 'तं जहा' तद्यथा-'ओसा' अश्यायः-'ओस' इति लोके प्रसिद्धम् 'हिमए' हिप्रकः 'हिमम्' इति लोकपसिद्धम्, 'महिया' महिका-अल्पजलवृष्टिजलतुषारश्च 'करए' 'करकःकठिनमेघोदकम् 'ओला' इति प्रसिद्धम् 'हरतणुए' हरतनु:-द्वा-यादि होते हैं। वे उस और स्थावर प्राणियों के सचित्त और अचित्त शरीरों में अप्काय रूप से उत्पन्न होते हैं। उनका शरीर वायुकाय से बना हुभा और वायुकाय के द्वारा संगृहीत होता है। वायुकाय ही उनके शरीर को धारण करता है। इसी कारण अप्काय का वह शरीर वायु के ऊपर जाने पर ऊंचा जाता है, वायु के नीचे जाने पर नीचे जाता है और वायु के तिछे जाने पर तिर्खा जाता है। इससे यह निर्णय होता है कि अप्काय का वह शरीर वायुकारणक होता है। वायुयोनिक अप्काय के जीव ये हैं । ओस, हिम, महिका अर्थात् पाँच रंग की धूमिका (धूवर), ओला, हरतनुक (धान्य के पौधों पर विद्यमान जलबिन्दु) शुद्धोदक સ્થાવર પ્રાણિના સચિત્ત અને અચિત્ત શરીરમાં અપકાય પણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. તેઓના શરીરે વાયુકાયથી બનેલા અને વાયુકાય દ્વારા ગ્રહણ કરાયેલા હોય છે. વાયુકાય જ તેના શરીરને ધારણ કરે છે. એ જ કારણે અપકાયનાં તે શરીરે વાયુ ઉપર જતાં ઉંચે જાય છે. અને વાયુ નીચે જાય ત્યારે નીચે જાય છે. અને વાયુ તિ જાય ત્યારે તિર્થી-(વાંકા ચુકાઈ જાય છે. આનાથી એ નિર્ણય થાય છે કે-અપકાયનું તે શરીર વાયુ કારણકે વાળું હોય છે. વાયુનિક અપકાયના જીવે આ છે.-એસ, હીમ, મહિકા (ધુમ્મસ) અર્થાત્ પાંચ રંગની પૂમિકા એલા હતyક (અનાજના ફૂલ પર રહેનારા જલબિંદુ) For Private And Personal Use Only Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे - चान्योपरि विद्यमानं जलादिविन्दु', 'सुद्धोदर' शुद्धोकम् - सामान्य जलम् 'ते जीवा - णाणाविहाणं तस्थावराणं पागागं विणेदमाहारेति' ते वायुयोनिका अष्काविकास्तेषां नानाविधानां संस्थावराणां प्राणानां स्निग्धभावमाहारयन्ति । 'ते 'जीना आहारेति पुढ़वीसरीर जाव संतं ' ते जीवा आहारयन्ति पृथिवीशरीरं याजस्यात् तेषां शरीरमचित्तं कुर्वन्ति विनष्टं तच्छरीरं पूर्वान्च्याहारितं विपरिणामितम् meeri कृतं भवति, 'अवरे वि य णं' अपराण्यपि च खलु 'तेर्सि तस्थावरजोणियाणं असा जाव सुद्धोदगाणं सरीरा णाणारणा जाव मक्खाये' तेषां त्रस स्थावर योनि कानामवश्यायानां हिममहिका करकरतनुकानां शुद्धोदकानां शरीराणि नानावर्ण-रसगन्धस्पर्शयुक्तानि भवन्तीति आख्यातानि भगवता तीर्थकृतेति । वायुयोनिकाऽकायान्- जीवानुपदर्श्य अध्योनिकान् अकाय देवोत्पन्नान् - अष्कायान् जीवान् दर्शयितुनाह - 'अहावरं ' इत्यादि । 'अहावरं पुरकखायें' अथावर' पुराख्यातम् 'इहेगइया सत्ता' इहैकतये सच्चाः - इह-अस्मिन् लोके सच्चाः - जीवाः 'उदग जोणिया' उदकयोनिकाः- उदकं - जलमेव विद्यते योनिः - उत्पत्ति(सामान्य जल) ये वायुगोनिक अप्काय के जीव नाना प्रकार के त्रस और स्थावर प्राणियों के स्नेह (रस) का आहार करते हैं । पृथ्वीकाय आदि के शरीरों का भी आहार करते हैं। उनके शरीर को अचित्त बना देते हैं और वह उनके शरीर के रूप में परिणत हो जाना है। उन ओस यावत् शुद्धोदक जीवोंके शरीर नाना वर्ण, रस, गंध और स्पर्श से युक्त होते. हैं, ऐसा तीर्थंकर भगवान् ने कहा है । 'अहावरं पुरखाये' इत्यादि । वायुगोनिक अपूकाय जीवों का स्वरूप दिखला कर अप्काययोनिक अकाय के जीवों का निरूपण करते हैं। इस संसार में कोई कोई अकाय के जीव अपकाययोनिक होते हैं। उनकी अप्रकार से શુદ્ધોદક (સામ ય જલ) આ બધા વાયુયેનિક અકાયના જીવે અનેક પ્રકારના ત્રસ અને સ્થાવર પ્રાણિયાના સ્નેહ–(રસ) ના આહાર કરે છે. પૃથ્વી. કાય વિગેરેના શરીરને પણ આહાર કરે છે. તેમના શરીરને અચિત્ત બનાવી દે છે. અને તે તેના શરીરરૂપે પરિણત થઈ જાય છે. તે આસ આવતા શુદ્ધોદક સુધીના જીવાના શરીર અનેક વર્ણ, રસ, ગંધ, અને પશ`થી યુક્ત ડાય છે. એ પ્રમાણે તીર્થંકર ભગવાને કહ્યુ છે. 'अहावर' पुरकखायं' छत्याहि વાયુચેાનિક અસૂકાયનું સ્વરૂપ અતાવીને હવે અસૂકાય ચે.નિવાળા અકાયના જીવે નું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે. આ સસારમાં કોઇ કોઈ પ્રકાયના જીવા અપ્રાય ચૈાનિવાળા હાય છે. તેઓની ઉત્પત્તિ અપ્ For Private And Personal Use Only Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिशानिरूपणम् कारणं येषां ते तादृशजीवाः 'उद्गसंभवा' उदकसम्भवाः-उदके स्थितिमन्तः 'जाव' यावत् 'कम्मनियाणेणं तत्थ वुकमा' कर्मनिदानेन-सतकर्मनिमित्तेनस्वकर्मवशगाः सन्तः तत्र-उदके व्युत्कमा:-प्रवर्द्धमानास्ते जीवाः 'तसथावरजोमिएसु उदगत्ताए विउति' सस्थावरयोनिकेषु उदकेदकतया-उदकस्वरूपेण विवर्तन्ते-समुत्पद्यन्ते । 'ते जीना तेसिं तपथावरजोणियाणं उदगाणं सिहमाहारेति' ते- उदयोनिका जीवा स्वसस्थावरयोनिकानाम् उदकानां स्नेहमाहार यन्ति-स्नेहभावमाहारयन्ति, 'ते जीवा आहारेति पुढवीसरीर नाव संत ते जीवा: पृथिवीकायादीनां शरीरमपि आहारयन्ति, आहार्य च सरूपे परिणम यन्ति । 'अवरे वि य णं तेसिं तसथावरजोणियाणे उदगाणं सरीरा णाणावण्णा जाव मक्खायं तेषां सस्थावरयोनिकानामुदकानामपराण्यपि च खलु शरीराणि नानावर्णरसगन्धस्पर्शवन्ति भवन्तीति तीर्थकताऽऽख्यातानि-प्रतिपादितानि । 'अहावरं पुरक्वायं' अथाऽपरं पुराख्याम्, पुनराह-उदकसम्भवा उदकयोनिका उदकव्युत्क्रमाः, तत्सम्भवा स्तद्योनिका स्तदुपक्रमाः कर्मवशगाः 'इहे गइया सत्ता' उत्पत्ति होती है, अप्काय में स्थिति होती है और अप्काय में ही वृद्धि होती है। अपने कर्म के वशीभूत होकर वे जीव त्रस और स्थावर योनिक, जल में जल रूप से उत्पन्न होते हैं । वे अप्योनिक अप्काय जीव उस स्थावर योनिक उदक के स्नेह का आहार करते हैं । तथा पृथ्वी आदि के शरीर का भी आहार करते हैं और उसे अपने शरीर के रूप में परिणत करते हैं । इन जीवों के नाना वर्ण, रस, गंध और स्पर्श वाले अनेक प्रकार के शरीर होते हैं, ऐसा तीर्थंकर भगवान ने कहा है। तीर्थंकर भगवान ने अन्य प्रकार के जीव भी कहे हैं। वे जीव उदकयोनिक उदक में उदक रूप से अपने कर्मों के वशीभूत होकर કાયથી થાય છે. આ કાર્યમાં સ્થિત થાય છે. અને અપૂકાયમાં જ વૃદ્ધિ થાય છે. પિતાના કર્મને વશ થઈને તે જીવે ત્રસ અને સ્થાવર નિવાળા જળમાં જળ રૂપે ઉત્પન્ન થાય છે. તેઓ અપનિક અપકાયના જી ત્રસ અને સ્થાવર નિવાળા પાણીના સ્નેહને આહાર કરે છે. તથા પૃથ્વી વિગેરેના શરીરને પણ આહાર કરે છે. અને તેને પોતાના શરીરના રૂપથી પરિણમાવે છે. આ જીવેના અનેક વર્ણ, રસ, ગંધ, અને સ્પર્શવાળા અનેક પ્રકા. રના શરીરે હોય છે. આ પ્રમાણે તીર્થકર ભગવાને કહેલ છે. તીર્થકર ભગવાને બીજા પ્રકારના છ પણ કહ્યા છે. તે જ ઉદક નિવાળા, પાણીમાં પાણીના રૂપથી પિતાના કર્મોને વશ થઈને ઉત્પન્ન For Private And Personal Use Only Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गले इहकतये सत्वाः 'उपजोणियाण जाव कम्मनियाणे गं तस्थ वुकपा' उदकयोनिकानां यावस्कर्म निदाने-स्वकर्मनिदानेन -सकर्मनिमित्तेन तत्र व्यु क्रमा:-बर्द्धन सीलाः, 'उद्गजोगिएसु उदगत्ताए विउदंति' उदकयोनिकेषु उदकतया विवर्तन्ते -जलरूपेण समुत्पद्यन्ते, 'ते जीवा स्तेषामुदकमोनिकानाम् उदकानां स्नेहमाहारपन्ति, पस्मिन्नुभूताः प्रतिष्ठिता बर्द्धमानाश्च तेषामेव रसनिष्पत्तिमुपभुनानाः प्रार्धमाना अपि भान्ति, 'ते जीवा आहारेति पुढीसरीरं जाव संत ते जीवा भाहास्यन्ति पृथिवीशी यात् स्यात, माहा पृथिवीपभृतीनां शरीराणि सरूपे परिणमयन्ति, 'अवरे विण तेसिं उदगनोणियाणे उगाणं सरीराणाणावण्णा जाव मक्खाय' तेपामुदयोनि कानासुदकालाम्-अम्मायिकानां जन्तूनामपराण्यापि च खलु शरीराणि नानावर्णगन्धरसस्पर्शयुक्तानि भवतीत्य ख्यातानि तीर्थकतेति । 'अहावरं पुरक्खाय' अथाऽपरं पुराख्यातम्-माः पां श्रीमता तीर्थकरेण उदकयोनिकप्तकायजीवानां स्वरूपं निरूपापिनम्। 'इहेगपा सत्ता उदग जोणियाणं जाव कम्मणियाणे तत्य वुरामा उगनोगिरनु उहासु तसपाणत्ताए विजदंति' इहैकतये सत्या उदायोनि कानां या कर्मनिदानेन तत्र व्युत्क्रमा उत्पन्न होते हैं। वे उन उदकयोनिक उदक जीवों के रस का आहार करते हैं और पृथ्वी काय आदि का भी आहार करते हैं और उन्हें अपने रूप में परिणत कर लेते हैं। अर्थात् वे जल में उत्पन्न होते हैं। जल में रहते हैं और जल में बढ़ते हैं, उसी जल के रस का उपभोग करते हुए बढते हैं और साथ ही पृथ्वी आदि के शरीर का भी उपभोग करते हैं। उन उदक जीवों के नाना वर्ण, गंध ग्म और स्पर्श वाले अनेक शरीर होते हैं। तीर्थकर भावान ने जोकों के अन्य भेइको कहे हैं। कोई कोई जीव अपने कर्म के वशीभूत होकर उदयो न उदक में बम रूप से उत्पन्न होते हैं, उसी में स्थित होते हैं और उसी में वृद्धि को प्राप्त થાય છે. તેઓ એ ઉદનિક ઉદકવાળા જીવોના રસનો અ હાર કરે છે અને પૃથ્વીકાય વિગેરેને પણ આહાર કરે છે. અને તેને પિતાના રૂપથી પરિણમા છે. અર્થાત જે પાણીમાં ઉત્પન્ન થાય છે. પાણીમાં રહે છે, અને પાણીમાં વધે છે. એ જ પાના રસનો ઉપભેગ કરતાં થકા વધે છે. અને સાથે જ પૃથ્વી વિગેરેના શરીરને પણ ઉપભેગ કરે છે તે ઉદનિવાળા પાણિના જીના અનેક વર્ણ, ગંધ, રસ અને સ્પર્શવાળા અનેક શરીર હોય છે. તીર્થકર ભગવાને જીવના બીજા ભેદ પણ કહ્યા છે.—–કે ઈ કઈ જીવ પિતાના કર્મને વશ થઈને ઉકનિક ઉદકમાં ત્રસ પણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. તેમાં સ્થિત રહે છે. અને તેમાંજ વૃદ્ધિ પ્રાપ્ત કરે છે. તે છ ઉદક નિવાળા For Private And Personal Use Only Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिज्ञानिरूपणम् उदकयोनिकेरकेषु त्रसपागनया विवर्तन्ते । तिष्ठन्त्यस्मिल लोकेऽने के जीवाः स्वकृतपुराकृत कर्मक्शमाः सनो वान्त उदायोनि के यूदकेषु समागतान्तस्तत्रउदकयोनिकेषु उद केषु वमनीवरूपेण समुत्पन्नाः। ते जीवा तेसिं उदगजोणि. याणं उदगाणं सिणेहमाहारेति' ते-उदकमोनिका जीता स्तेषामेव उदक योनि कानामुदकानां स्नेहमाहास्यन्ति-स्नेह-स्निग्ध माविम हार पनि । 'ते जीवा आहा. रयन्ति पुढवीसरीरं जाव सं ते जीवा आहारयन्ति पृथिलीशरीरं यावत्स्यात् । 'ते-उदकयोनिका उइके स्थिताः सनीः पृथिव्यादीनामपि शरीर भक्षयन्ति, 'अवरे वि य णं तेसि उगजोणियाणं तसाणाणं सरीरा णाणावणा जाव मक्खाय' अपराण्य प च खलु तेषामुद कयोनिकानां त्रमाणानां शरीराणि नानावर्णानि यातदाख्यातानि, नानावर्णगन्धरसस्पर्शयुक्तानि भवन्तीति तीर्थकता आख्यातानि प्रतिपादितानि ।। मू०१७-६९॥ मूलम्-अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता गाणाविहजोणिया जाव कम्मणियाणेणं तत्थ वुकमा णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा अगणिकायत्ताए विउति ते जीवा तेसिं णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सिणेहमाहारंति, ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि य णं तेसिं तसथावरजोणियाणं अगगीणं सरीरा णाणावण्णा जाव मक्खायं, सेसा तिन्नि आलावगा जहा उदगाणं । अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता णाणाविहजोणियाणं जाव कम्मणियाणेणं तत्थ वुक्कमा, णाणाविहाणं तसथावराणं होते हैं। वे जीव उदकयोनिक उदक के स्नेह का आहार करते हैं। वे पृथ्वी आदि के शरीर का भी आहार करते हैं । उन उदयोनिक त्रस प्राणियों के नाना वर्ण रस गंध स्पर्श वाले नाना शरीर होते हैं। ऐसा तीर्थंकर भगवान ने कहा है ॥१७॥ ઉદકના સનેહને આહાર કરે છે. તેઓ પૃથ્વી વિગેરેના શરીરને પણ આહાર કરે છે. તે ઉદનિક ત્રસ પ્રાણિયેના અનેક વર્ણ, ગંધ, રસ અને સ્પર્શ વાળા અનેક શરીરે હોય છે. એ પ્રમાણે તીર્થકર ભગવાને કહ્યું છે. જાસૂ૦ ૧ળા For Private And Personal Use Only Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२० सूत्रकृताङ्गसूत्र पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा चित्तेसु वा वाउकायत्ताए विउ. दृति, जहा अगणीणं तहा भाणियवा, चत्तारि गमा।सू.१८।६०। छाया-- अथाऽपरं पुराख्यातमिहै कतये सत्याः नानाविधयोनिकाः यावत् कर्मनिदानेन तत्र व्युत्क्रमाः नानाविधानां त्रसस्थावराणां पाणानां शरीरेषु सचिः तेषु वा अवित्तेषु वा अग्निकायतया विवर्तन्ते । ते जीवास्तेषां नानाविधानां बसस्थावराणां प्राणानां स्नेहमाहारयन्ति । ते जीवा आहारयन्ति पृथिवीशरीरं यावत् स्यात् । अपराण्यपि च खलु तेषां सस्थावरयोनि कानामग्नीनां शरीराणि नानावर्णानि यावदाख्यातानि । शेषास्त्रय आलापकाः यथोदकानाम् । अथाऽपरं पुराख्यातमिहै कतये सत्त्वाः नानाविधयोनिकानां यावत् कर्मनिदानेन तत्र व्युत्क्रमाः, नानाविधानां त्रसस्थावराणां प्राणानां शरीरेषु सचित्तेषु वा अचित्तेषु वा वायु. कायतया विवर्तन्ते, यथाऽग्नीनां तथा भणितव्याश्चत्वारो गमाः ||पू०१८-६०॥ ___टीका-सम्पति-अग्निकायाजीवानां स्वरूपमाह-'अहावरं' इत्यादि । 'अहावरं पुरक्खाय' अथापरं पुराख्यातम् . अपरोऽपे प्रकारो जीवानां प्रतिपादित स्तीर्थकरेण । 'इहेगइया सत्ता णाणाविह नोणिया जाव कम्मणि गणेणं तत्थ वुकमा णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अवितेसु वा अगणिकायत्ताए विउति' इहैकतये सत्वाः-प्राणिनः नानाविधयोनिकाः-नानाविधयोनिषु समुत्पन्नाः अग्निकायाः यावल्कमनिदानेन-पूर्वपूर्वजन्मसम्मादितकर्मप्रेरणया तत्र सम्भवास्तत्र वर्द्धनशीलाः कर्मवश गाः तत्र व्यु-क्रमाः-बर्द्ध नशीलाः नानाविधानामनेकप्रकारकाणां सस्थावराणां प्राणानां शरीरेषु सचित्तेषु वा अचित्तेषु वा परस्पर 'अहावरं पुरक्खाय' इत्यादि। टीकार्थ-अय अग्निकायिक जीवों का स्वरूप कहते हैं। तीर्थंकर भगवान् ने जीवों का एक अन्य प्रकार भी कहा है। कोई कोई जीव अनेक योनिक अग्निकार के होते हैं। वे कर्म के वशीभूत होकर अनेक योनियों में उत्पन्न होते हैं, वहां स्थित रहते हैं और वहां बढते हैं। घे नाना प्रकार के बस और स्थावर प्राणियों के हाथी के दांत आदि अहावर पुरक्खाय' या ટીકાઈ–-હવે અગ્નિકાયવાળા જીનું સ્વરૂપ બતાવવામાં આવે છે. તીર્થકર ભગવાને જીવેને એક બીજો પ્રકાર પણ કહેલ છે કેઈ કોઈ જીવ અનેક નિવાળા અગ્નિકાયના હોય છે. તેઓ કમને વશ થઈને અનેક નિમાં ઉત્પન્ન થાય છે. ત્યાં સ્થિત રહે છે. અને ત્યાં જ વધે છે. તેઓ અનેક તે પ્રકારના રસ અને સ્થાવર પ્રાણિયેના હાથીના દાંત વિગેરે સચિત્ત શારી. For Private And Personal Use Only Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिज्ञानिरूपणम् ४२१ युध्यमानानां पञ्चन्द्रियहस्तिमहिषादीनां दन्तशृङ्गादिषु, अचित्तेपु वा घर्षितास्थिपस्तंरादौ अग्निकायतया विवर्तन्ते-अग्निकायरूपेण समुत्पद्यन्ते, इति प्रत्यक्षपमाणम् । इह लोके कियन्तो जीवाः पूर्व भवे नानाविधयोनिषु समुद्य, तत्र सम्मादितकर्मवले नाऽने प्रकारकासस्थावरागां सचित्ताऽचित्त देहेषु-अग्निकायस्वरूपेण समुत्पद्यन्ते इत्यर्थः । ते जीवा तेसिं गाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सिणेह. माहारेंति' ते जीवास्तेषां नानाविधानां त्रसस्थावराणां प्राणानां स्नेहमाहारयन्ति । अनेकप्रकारकत्रसादिजीवानां स्नेहभावमाहारयन्ति, 'ते जीवा आहारेति पुढवी. सरीरं जाव संत' ते जीवा आहारयन्ति पृथिवी शरीरं यावत्स्यात्-पृथिव्यादीनां शरीरमपि आहारयन्ति आहार्य च तानि शरीराणि स्वस्वरूपे परिणमयन्ति । 'अवरेऽ वि य णं तेसि तसथावर नोणि गणं अगगीग सरीरा णागावणा नाव मकवाय' तेषां त्रसस्थावायोनिझानामग्निकायानी जीवानाम् अपराण्यपि च खलु शरीराणि नानावर्णादियुक्तानि भान्तीति तीर्थकताऽऽख्यातानि । 'सेता तिनि आलावगा जहा उदगाणं' शेषास्त्रप आलापका यथा उदकानाम् । तथाहियथा वायुयोनिका अकायाः १, उदकयोनिका उदकनीमाः २, उदकयोनिकाः सचित्त शरीरों मे तथा घिसे हुए पाषाण आदि अचित्त शरीरों में अग्निकाय के रूप में उत्पन्न होते हैं। वे जीव अनेक प्रकार के त्रस और स्थावर प्राणियों के स्नेह रस का आहार करते हैं और पृथ्वी आदि के शरीरों का भी आहार करते हैं और उस आहार को अपने शरीर के रूप में परिणत करते हैं। उन अनेक प्राप्त स्थावरयोनिक अग्निकाय के जीवों के ओर भी नाना वर्ण, रस, गंध और स्पर्श वाले शरीर होते हैं, ऐसा तीर्थंकर भगवान ने कहा है। शेष तीन आलापक उदक जीवों के समान समझना चाहिए। अर्थात् जैसे वायुयोनिक अप्काय, उदकयोनिक उदकजीव, उदकयोनिक त्रस માં તથા ઘસવામાં આવેલા પત્થર વિગેરે અચિત્ત પદાર્થોમાં અગ્નિકાય પણથી ઉત્પન્ન થાય છે. તે જે અનેક પ્રકારના ત્રસ અને સ્થાવર પ્રાણીયોના સ્નેહ રસને આહાર કરે છે. અને પૃથ્વી વિગેરેના શરીરને પણ આહાર કરે છે. અને તે આહારને પોતાના શરીર રૂપે પરિણુમાવી દે છે તે અનેક વસ અને સ્થાવર નિવાળા અગ્નિકાયના જીના બીજા પણ અનેક વણું બંધ - રસ અને સ્પર્શ વાળા શરીરો હેય છે. એ પ્રમાણે તીર્થકર ભગવાને કહ્યું છે. બાકીના ત્રણ આલાપકે દિક-પાણીના છ પ્રમાણે સમજી લેવા. અર્થાત્ જેમ વાયુનિવાળા, અપૂકાય ઉદકનિક ઉદકજી, ઉદનિક રસ For Private And Personal Use Only Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir કરર सूत्रकृताङ्गसूत्रे वसनीवाः३, तथा वायुयोनिका अग्निकायाः१, अग्नियोनिका अग्निकाया:, अग्नियोनिकास्त्रमनीवा ३, एवं क्रपेग शेपास्त्रप आलापका ज्ञाता इति । सम्पति वायुकायमाह-'अहावरं पुरक वाय' अथाऽपरं पुराख्यानम् 'इहेगइया सत्ता णाणाविहजोणियाणं जाव' इहैकनये सत्वा:-जोवाः नानाविध योनिकाना यावत् 'कम्मणिगणेगं' कम निदानेन 'तस्थ वुरमा' तत्र व्यु-क्रमा:- तौर प्रवर्धमानाः, 'णाणाविहाणं नसथावरणं पागाणं' नानाविधानां त्रसम्याराणां प्राणानाम्, सरीरेसु सचित्तेपु वा अचित्तेसु वा वाउकायत्ताए' शरीरेषु सचित्तेषु वा अचित्तेषु वा वायुकापतया 'विउटुंति' विवर्तन्ते, इहलोके कियन्तो जीवाः पूर्वभवेऽनेकपकारकयोनिषु समुपद्य तत्र स्वकृतकर्मवलेन प्रसस्थावरजीवानां सचित्ताऽचित्तशरीरेषु आयुकायतया समुपद्यते, 'जहा प्राणीणं तहा भाणियमा चत्तारि गमा' यथाऽनीनां तथाऽत्रापि चत्वार आलापका भणितम्या:-प्रकाशनीयाः। वायुकाया:१, वायुमोनिकाऽहायाः२, वाघुपोनिकामिकायाः३, वायुयोनिका खना', एवं क्रमेण चत्वारः आलापका ज्ञातव्याः ।।मु०१८-६॥ जीव कहे हैं। उसी प्रकार वायुयोनिक अग्निकाय, अग्नियोनिक अग्निकाय और अग्नियोनिक त्रसकाय इस क्रम से तीन आलापक जानना चाहिए। अब वायु काय के विषय में कहते हैं-इस लोक में कितनेक जीव ऐसे हैं जो पूर्व भवों में अनेक प्रकार की योनि में उत्पन्न होकर अपने किये कर्म के बल से घस और स्थावर जीवों के सचित्त तथा अचित्त शरीरों में वायु काय के रूप में उत्पन्न होते हैं। अग्नि जीवों के जैसे चार आलापक कहे गए हैं, उसी प्रकार यहां भी चार आलापक कहना चाहिए। वे यों हैं-(१) वायुकाय (२) वायुयोनिक अकाय (३) वायुयोनिक अग्निकाय और (४) वायुयोनिक त्रस । सू० १८॥ કહેલા છે. એ જ પ્રમાણે વાયુનિવાળા અગ્નિકાય, અગ્નિયેનિક અગ્નિકાય, અને અગ્નિનિક ત્રસકાય આ કમથી ત્રણ અલાકે સમજી લેવા જોઈએ વાયુકાયના સંબંધમાં હવે કથન કરે છે.–આ લેકમાં કેટલાક જ એવા હોય છે જેઓ પૂર્વભવમાં અનેક પ્રકારની નિ માં ઉત્પન્ન થઈને પિતે કરેલા કર્મના બળથી ત્રસ અને સ્થાવર જીવેના સચિત્ત તથા અચિત્ત શરીરમાં વાયુકાય પણથી ઉત્પન્ન થાય છે. અગ્નિ પ્રમાણે આના પણ ચાર આલાપકે કહ્યા છે. તે તે પ્રમાણે ચાર આલાપ સમજી લેવા. ते 4 प्रमाणे छ.-(१) वायुय (२) वायु यानि (3) वायु यान, भाभકાય અને (૪) વાયુનિવળ ત્રસ જાસૂ૦ ૧૮ For Private And Personal Use Only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - समयार्थषोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिक्षानिरूपणम् मूलम्-अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ताणाणाविहजोणिया जाव कम्मणियाणेणं तत्थ वुकमा णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा पुढवित्ताए सकर ताए वालुयत्ताए इमाओ गाहाओ अणुगंतवाओ'पुढवी य सकरा वालुया य, उबले सिला य लोणू से। अयतउयतंबसीसग, रुप्पसुवपणे य वइरे य ॥१॥ हरियाले . हिंगुलए मणोतिला सालगंजणपवाले। अभपडलभवालय बायस्काए मणिविहाणा ॥२॥ गोमेज्जए य रयए अंके फलिहे य लोहियक्खे य। ____मरगयमसारगल्ले, भुयमोयगइंदणीले य ॥३॥ चंदणगेरुय हंसगब्भपुलए सोगंधिए य बोद्धध्वे। — चंदप्पभवेरुलिए जलकंते सूरकते य' ॥४॥ एयाओ एएसु भणियवाओ गाहाओ जाव सूरकंतताए विउइंति, ते जीवा तेसिं णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सिणेहमाहारांति, ते जीवा आहारंति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरेऽवियणं तेहिं तमथावरजोगियागं पुढवीणं जाव सूरकंताणं सरीरा णाणावपणा जाव मक्खायं, सेसा तिपिण आलावगा जहा उदगाणं ॥सू०१९।६१।। छाया-आधाऽपरं पुराख्यातम् इहैकतये सत्याः नानाविषयोनिकाः यावत् कर्मनिदानेन तत्र व्युत्क्रमाः नानाविधानां सस्थाहरणां माणात शरीरेषु सचि तेषु वा अचित्तेषु वा पृथिवीतया शर्कर तथा वालकतया इमा गाथा अनुगन्तव्याः'पृथवी च शर्करा व लुका च, उपलः शिला च लवणम् । अयस्त्रपुताम्रशीशक, रुप्यसुवर्णानि च वज्राणि च ॥१॥ For Private And Personal Use Only Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra R www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरितालं हिङ्गुलकं मन शिला शशक। ञ्जनमबालाः । पावालुका बादरकारी मणिविधानाः ॥२॥ गोमेचकं व रजतमङ्के स्फाटिकं च लोहिताख्यञ्च । मरकतमसारगल्वं, भुमोचकमिद्रनीलश्च ॥३॥ चन्दन साकं सौगन्धिकञ्च बोद्धव्यम् । चन्द्रवैये जलकान्तः सूर्यकान्तथ | ४|| सूत्रकृताङ्गसूत्रे एता एतेषु भणितव्याः गाथा यान्तु सूर्यकान्ततया विवर्तन्ते । ते जीवा स्तेषां नानाविधानां सस्थावराणां प्राणानां स्नेहमाहारयन्ति, ते जीना आहारयदि पृथिवीशरीरं यावत् स्यात् । अपराण्यपि च खलु तासां सस्थावरयोनिकानां पृथिवीनां यावत् सूर्यकान्तानां शरीराणि नानावर्णानि यावदाख्यातानि शेषास्त्रयः आलापका यथोदकानाम् । मु०१९-६१।। टीका - अनन्तरं तीर्थकृताऽपि जी (मकारा दर्शिताः, तथाहि - 'अहावरं पुरखायं' अथाऽपरं पुराख्यातम् 'इहेगड्या सत्ता' हैकतये सच्चाः इह लोकेऽनेकप्रकारका जीवाः 'णाणाविह जोणिया' नानाविधयोनिकाः - विविधभकारक योनिसमुत्पन्नाः सन्तः 'जाव कम्मणियाणेणं' यावत्कर्मनिदानेन तत्र तत्र सम्पादित स्वकर्मप्रभावेण 'तत्थ बुकमा ' तत्र व्युत्क्रमाः कर्मनिमित्तेन तत्रैव पृथिवी कार्य समुत्पद्य स्थितिमाप्य वर्धमानाः 'णाणाविद्वाण' नानाविधानाम् ' तस्थावराणं पाणाणं' त्रस स्थावराणां प्राणानाम्, 'सरीरेसु सचित्तेसु अचित्तेषु वा' सचितेषु अचितेषु वा शरीरेषु 'पुढविताए सकरत्तार वाढ्यत्ताएं पृथिवीतया शर्करतया बालुकतया विवर्तन्ते उत्पधन्ते तत्र शर्करा लघुप्रस्तरखण्डः, बालुका- 'रेती' तिप्रसिद्धा- अयं भावः कति जीवाः " 'अहावरं पुरस्वायं' इत्यादि । इस टीकार्य - तीर्थंकर भगवान् ने जीवों के अन्य प्रकार भी कहे हैं । लोक में नाना प्रकार की योनिवाले नाना प्रकार के जीव हैं । वे अपने कर्मों के कारण उन योनियों में आते हैं, वहां रहते हैं और वहां ही बढते हैं । विविध प्रकार के श्रम और स्थावर प्राणियों के सचित्त और अमित शरीरों में पृथ्वी रूप में शर्करा (पाषाण के छोटे खण्डों ) For Private And Personal Use Only 'अहावर' पुरखायं' छत्याहि ટીકા-તીથ કર ભગવાને જીવેના બીજા પ્રકારે પણ કહ્યા છે. આ લેાકમાં અનેક પ્રકારની ચાનીવાળા અનેક જાતના જીવે છે, તેઓ પાતે કરેલા કર્માને કારણે તે ચેાનિયામાં આવે છે. ત્યાં રહે છે. અને વધે છે, અનેક પ્રકારના ત્રમ તથા સ્થાવર પ્રાણિયાના સચિત્ત અને ચિત્ત શરીરમાં પૃથ્વીપણાથી શકશ–પત્થરના કકડા નાના નાના કકડાના રૂપથી તથા વાલુકા (રેત)ના Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२५ ८ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिज्ञानिरूपणम् पूर्वकृतस्वकर्मोदयात् उसस्थावरमाणिनां सचित्तेषु-अचित्तेषु वा शरीरेषु, तत्रसचित्तेषु पृथिवीरूपेण तथा-दन्तिमस्त केषु मुक्तारूपेण स्थावरवंशप्रभृतिषु मुक्ता फलरूपेण, एवमचित्तप्रस्तरादौ लवणरूपेण, तथा-नानामकारकपृथिवीषु शर्करा बालुकासितालवणादिरूपेण उत्पद्यन्ते इति । 'इमाओ गाहाओ अणुगंतवाओ' प्रकृ. तविषये इमाः-चक्ष्यमाणा गाथा अनुगन्तव्याः । शास्त्रवर्णिता गाथा अनुगमनीया 'पुदवी य सक्करा' पृथिवी च शर्करा 'बालुया य उवडे' चालुका च उपलः-पाषाणः 'सिलाय कोणूसे' शिलाच लवणः, तत्र लवणो लोकप्रसिद्धः, 'अपतउयतंयमीस रुप्पमुवण्णे य वइरे य' अयस्वपुताम्रशीशक रूप्यसुवर्णानि च वत्राणि च, तत्र अयःलोहः, अपुः-गंगा। 'इरियाले हिंगुलए मणोसिला सासगंजणपवाले' हरितालं के रूप में तथा वालुका (रेत) के रूप में प्रसिद्ध है। कहने का भाव यह है कि कितनेक जीव पहले किये अपने कर्म के उदय से त्रस एवं स्थावर प्राणियों के सचित्त अथवा अचित्त शरीरों में अर्थात् सचित्त में पृथ्वी के रूप में तथा हाथी के मस्तक में मुक्ता के रूप से तथा स्थावर में वांस आदि में मोती के रूप में एवं अचित्त में-पत्थर में लवण रूप से (सेंधव) नाना प्रकार की पृथ्वीयों में शर्करा, वालुका लवण आदि रूप से उत्पन्न होते हैं। तथा इसी प्रकार के अन्य रूपों में उत्पन्न होते हैं। उन रूपों को जानने के लिए इन गाथाओं का अनुसरण करना चाहिए। शास्त्र में वर्णित वह गाथाएँ इस प्रकार हैं- . (१) पृथ्वी (२) शर्करा (३) वालुका (४) उपल (पाषाण) (५) शिला (६) लवण-ऊष (खारी) (७) लोहा (८) रांगा (९) तांबा (१०) शीशा રૂપે પ્રસિદ્ધ છે. કહેવાને આશય એ છે કેકેટલાક વે પહેલાં કરેલા પિતાના કર્મના ઉદયથી ત્રણ અને સ્થાવર પ્રાણિના સચિત્ત અથવા અચિત્ત શરીરમાં અર્થાત્ સચિત્તમાં પૃથ્વીના રૂપે તથા હાથીના માથામાં મતીના રૂપે તથા સ્થાવરમાં વાંસ વિગેરેમાં મેતી રૂપે એવં અચિત્તમાં પત્થરમાં લવણ રૂપે (સીંધાલુણ) અનેક પ્રકારની પૃથ્વીમાં શરા, વાલુકા, લવણ વિગેરે રૂપે ઉત્પન્ન થાય છે. તથા આવા પ્રકારના બીજા રૂપમાં ઉત્પન્ન થાય છે. તે રૂપને જાણવા માટે આ ગાથાઓનું અનુસરણ કરવું જોઈએ शामा १ ते गाया। भा प्रभाए छ.-(1) पी (२) २४२॥ (3) पासु। (४) Sa-पाषा (५) शिक्षा (६) a-G५ (मार) सु० ५४ For Private And Personal Use Only Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४२.६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे 913 १६ १९ २० हिङ्गुलकं मनःशिला, शशकाअने इनौ रत्नविशेषौ, मवालो विद्रुमः, 'अबम २१ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२ पङलभत्रालयबायरकाए, अभ्रपटलाभ्रवालुकाबादरकाय:, तत्र - अभ्रपटलं गगनस्य जलावसायः अभ्रवालुका तु जलावसाययुक्ता धूलि, बादरकायः पृथिवीभेद, 'मणिविहाणा' मणिविधानाः 'गोमेज्जए य रयए अंके फलि य लोहिय 2 ૨૩ २४ २५ હ્રદ क्य' गोमेद्यकं च रजतमङ्कं स्फटिकञ्च लोहिताख्यञ्च, 'मरगयमसारगल्ले २९ ५७ मोदीले य' मरकतो मसारगल्लो भुजमोचकमिन्द्रनीलच । 'चंदणगेरुय ૩૪. 30 33 ३२ ३३ 34 पुलर सोधिए य बोद्धव्वे' चन्दन गेरुकहंसगर्भपुलाकं सौगन्धिकं च बोद्ध ३६ • 30 ३९. व्यम् । 'चंदप्यभ-वेरु लिए-जलकंते - सूरकं ते य' चन्द्रमभं-चैर्य-जलकान्तःसूर्यकान्तव । उपर्युक्तनायासु ये ये-उक्तास्तेभ्य आरभ्य सूर्यकान्तपर्यन्तयोनिषु समुत्पन्नाः समुत्पत्स्यमानाश्च ते ते पृथिवीजीवाः । 'याओ एएस (११) चांदी (१२) स्वर्ण (१३) वज्र (१४) हरताल (१५) हिंगुलक (१६) मैनसिल (१७) शासक (१८) अंजन ( १९) प्रवाल ( २० ) अभ्रपटल ( आकाश का जलावसाय) (२१) अभ्रवालुका जलावसाय से युक्त धूल (ये बादर पृथ्वीकाय के भेद हैं) अब मणियों के भेद कहते हैं (२२) गोमेद (२३) रजत (२४) अंक (२५) स्फटिक (२६) लोहिताक्ष (२७) मरकत (२८) मसारगल्ल (२९) भुजपरिमोचक (३०) इन्द्रनील (३१) चन्दन (३२) गेरुरु (३३) हंमगर्भ (३४) पुलाक (३५) सौगंधिक (३६) चन्द्रप्रभ (३७) बैडूर्य (३८) जलकान्त और (३९) सूर्यकान्त, ये सब मणियों के प्रकार हैं। For Private And Personal Use Only (७) बादु (८) रांगु (८) तांभु (१०) शीसु (११) यांही (१२) स्व (13) वल (१४) इरताज (१५) डिंगो (११) मैनसिल (१७) शासक (१८) भन (१८) प्रवास (२०) अपरस (आमशना सविसाय) (२१) अब्राम सा વસાયથી યુક્ત ધૂળ (આ બાદર પૃથ્વીકાયના ભેદો છે. હવે મણિચેના ભેદો डेवामां आवे छे. (२२) गोमेह (२३) २४ (२४) २४ (२५) २३टिड (२६) बोहिताक्ष (२७) भरत (२८) भसार गल्स (२८) भुभ परिभाय (३०) ४न्द्र नीस (३१) थंडन (3२) ३४ ( 33 ) (सगर्भ (३४) पुसा ( 34 ) सौग ंधिक (3) यन्द्रयल (३७) वैडूर्य (३८) स ंत मने ( 36 ) सूर्य या मधा મણિયાના પ્રકાશ છે. Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ३ आहारपरिशानिरूपणम् ४२७ भणियबाओ गाहाभो जाव मुरकंतताए विउति' एतेषु भगितल्या एता गाथाः यावत्सूर्यकान्ततया विवर्तन्ते, तत्र गोमेद्य-रत्नविशेषः, रजतम्-'चान्दीति' लोकमसिद्धम्, अङ्को रत्नविशेषः, एवं सूर्यकान्ताः सर्वेऽपि रत्नविशेषा ज्ञातव्याः। ते जीवा स्तत्तदयोनिषु समुत्पद्यन्ते 'ते जीवा तेसिं गाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सिणेहमाहारेति' ते जीग स्तेषां नानाविधानां त्रसस्थावराणां जीवाना स्नेहमाहारयन्ति । 'ते जीवा आहारेति पुढवीसरीरं जाव संत' ते जीना आहार. यन्ति पृथिवीशरीरं यावत् स्यात् । 'मारे विय गं ते मि तसथावरजोणियाणं पुढवीणं जाव सरकताणं' अपराण्यपि खलु तेषां उसस्थावरयोनिकानां पृथिवीनाम् यावत्सूर्यकान्तानाम् । 'सरीर।' शरीराणि 'णाणावण्णा जाव मक्खायं' नानावर्णानि यावदाख्यातानि 'सेमा तिणि आलावगा जहा उदगाणं' शेषास्त्रय आलापकाः, यथोदकानाम्-पृथिवीकायाः१, पृथिवीयोनिकपृथिवीकायाः२, पृथिवीयोनिकत्रसकायाः३, उदकात् त्रय आलापकाः वेदिनव्याः ॥१९-६१॥ मूलम्-अहावरं पुरक्खायं सव्वे पाणा सव्वे भूया सब्वे जीवा सम्वे सत्ता णाणाविहजोणिया णाणाविहसंभवा णाणाविह वुकमा सरीरजोणिया सरीरसंभवा सरीरवुकमा सरीराहारा कम्मोवगा कम्मनियाणा कम्मगइया कम्मठिइया कम्मणा चेव विपरियासमवेति। से एवमायाणाहि से एवमायाणित्ता आहारगुत्ते सहिए समिए सया जए ति बेमि ॥सू०२०॥ ॥बियसुयक्खंधस्स आहारपरिणगा णाम तईयमज्झयगं समत्तं॥ ___ इन गाथाओं में जिनका उल्लेख किया गया है, इन सब सूर्य कान्त पर्यन्त योनियों में उत्पन्न होनेवाले जीव पृथ्वीकाय हैं। वे जीव नाना प्रकार के अस और स्थावर जीवों के स्नेह का आहार करते हैं। बे पृथ्वीकाय भादि का भी आहार करते हैं। उन स स्थावरयोमिक पथ्वी जीवों के अन्य भी नाना वर्ण रस गंध स्पर्श वाले शरीर कहे गए हैं, उन्हीं के अनुसार जानना चाहिए ॥१९॥ આ ગાથાઓમાં જેઓને ઉલેખ કરવામાં આવેલ છે. તે બધા સૂર્યકાન્ત સુધીની નિમાં ઉત્પન્ન થવાવાળા જીવ પૃથ્વીકાય છે. તે જીવે અનેક પ્રકારના ત્રસ અને સ્થાવર જીવેના સનેહને આહાર કરે છે. તેઓ પૃથવીકાય વિગેરેને પણ આહાર કરે છે. તે ત્રસ સ્થાવર નિવાળા પૃથ્વીકાય જેના બીજા પણ અનેક વર્ણ, ગંધ, રસ, અને સ્પર્શવાળા શરીર કહ્યા છે. તે પ્રમાણે સમજવા. સૂ૦ ૧૯ી For Private And Personal Use Only Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ધરત सूत्रकृताङ्गसूत्रे छाया - अथाऽपरं पुरारूपातम् सर्वे प्राणाः सर्वाणि भूतानि सर्वे जीवाः सर्वे सच्चाः, नानाविधयोनिकाः नानाविधसम्भवाः नानाविधव्युत्क्रमाः, शरीरयोनिक : शरीरसम्भवाः शरीरव्यु क्रमाः शरीराहाराः कर्मोपगाः कर्मनिदानाः कर्मगतिकाः कर्मस्थितिकाः कर्मणा चैव विपर्यासमुपयन्ति । तदेवं जानीहि तदेवं ज्ञात्वा आहारगुप्तः सहितः समितः सदा यतः इतिब्रवीमि ॥३०२०|| || द्वितीय स्कन्धस्य आहारपरिज्ञानाम तृतीयमध्ययनं समाप्तम् ॥ टीका - अतः परं शास्त्रकारोऽध्ययनार्थमुपसंहारम् सामान्यरूपेण सर्वपाणिनामवस्थां दर्शयित्वा साधुभिः परिपाक मनोविधेयमिति दर्शयति- 'अहावर " पुरवखायं' अथाऽपरं पुराख्यातम् - तीर्थकरेणापरमपि वस्तु पुरा प्रतिपादितम् । 'सव्वे पाणा' सर्वे प्राणाः प्राणिनः, 'सवे भूया' सर्वाणि भूतानि 'सव्वे जीवा' सर्वे जीवाः 'सच्चे सत्ता' सर्वे सत्त्व 'णाणाविहजोणिया नानाविधयोनिका:अनेकप्रकारकयोनिसमुद्भवाः, 'गाणाविहसंभवा' नानाविधसम्भवः अनेकप्रकारकयोनिषु स्थिताः, वर्तमानाः 'णानाविधयुकमा' नानाविधव्युत्पाः इहलोके ये केचन जीवाः, अनेकप्रकारकयोनिषु समुपद्यन्ते - तिष्ठन्ति वर्द्धन्ते च । 'सरीर जोणिया शरीरयोनिका :- शरीरमेव योनिः - उत्पत्तिस्थानं येषां ते तथा शरीरोत्पन्नाः - लिक्षानू कादयः । तथा-'सरोरसं पवा' शरीरसम्भवाः - शरीर एव स्थिताः 'अहावरं पुरखायं' इत्यादि । टीकार्थ - शास्त्रकार अब अध्ययन के अर्थ का उपसंहार करते हुए सामान्य रूप से सभी प्राणियों की दशा का वर्णन करवाकर यह कहते हैं कि साधुओं को संयम का पालन करने में मन लगाना चाहिए। तीर्थकर भगवान् ने पूर्वकाल में अन्य वस्तु भी कही है । संसार के सभी प्राणी, सर्वभूत, सर्व जीव और सर्व सत्व अनेक प्रकार की योनियों में उत्पन्न होते हैं, अनेक प्रकार की योनियों में स्थित हैं और अनेक प्रकार की योनियों में वृद्धि को प्राप्त होते हैं । इन में लीख जूं 'अहावरं पुरखाये' त्याहि ટીકા—શાસ્ત્રકાર હવે અધ્યયનના અર્થને ઉપસ દ્વાર કરતાં સામાન્ય પણાથી પણ પ્રાણિયાની દશાનુ વર્ણન કરાવીને એ કહે છે કે—સાધુઓએ સયમનું પાલન કરવામાં મન લગાવવું જોઈ એ. તીથકર ભગવાને પૂર્વકાળમાં અન્ય વિષય સ''ધી પણ કથન કરેલ છે. સ'સારના સઘળા પ્રક્રિયા, સઘળા ભૂતા સઘળા જીવા અને સઘળા સત્વ અનેક પ્રકારની ચેનિયામાં ઉત્પન્ન થાય છે અનેક પ્રકારની ચેનિ ચામાં સ્થિત રહે છે. અને અનેક પ્રકારની ચેનિયેામાં વધે છે. તેમાં લીખ, For Private And Personal Use Only Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयबोधिनी टीका द्वि. थु. अ. ३ आहारपरिज्ञानिरूपणम् ४२९ शरीरादेव जायमानाः, 'सरीरवुक्कमा' शरीरव्युत्क्रमाः शरीरे एक परिवर्धमाना भक्तो दृश्यन्ते । 'सरीराहारा' शरीराहाराः- मनुष्यादिशरीरस्यैवाऽऽहारं कुर्वन्ति । 'कम्मोद' कर्मोपगाः- स्वस्त्रकर्मवशगाः 'कम्मणियाणा' कर्मनिदानाः - कर्मैव निदानमादिकारणं येषां ते तथा कर्मातुमासाद्य तत्र तत्र जायन्ते, 'कम्म गइया' कर्मगतिकाः- कर्मानुसार गतियुक्ताः, 'कम्मद्विश्या' कर्मस्थितिकाःकर्मानुसारस्थितिमन्तः 'कम्मणा चे विवरियासमुवेति' कर्मणा चैत्र विपर्यासम् अनेकविध गतिमुपयन्ति । 'से एवमावाणादि' तदेवं जानीहि जीराः कर्मपराधीनाः कालाsधीना भवन्ति । 'से एवमायाणित्ता' तदेवं ज्ञात्वा 'आहारगुले' आहारः- सदोपाहारान्निवृतो भव, 'सद्दिए' सहितः निरवद्याहारयुको भव 'समिए' समितः - पञ्च समितिसमितो मा 'सयाजए' सदा यतः - संगमे यतनावान् भव 'त्ति बेमि' इति ब्रवीमि सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनं कथयति- हे शिष्य ! एवमेत्र यथोक्तं मया जीवविषये आहारादिकं कर्मस्वरूपं त्वं जानीहि ज्ञात्वा च आदि शरीरयोनिक हैं अर्थात् शरीर में उत्पन्न होते हैं, शरीर में स्थित होते हैं और शरीर में ही बढते देखे जाते हैं। वे मनुष्य आदि के शरीर का ही आहार करते हैं। अपने अपने कर्म के वशीभूत हैं। कर्म ही उनका आदि कारण है। कर्म के अनुसार उनकी गति होती है, कर्म के अनुसार स्थिति होती है और कर्म से ही उनमें उलटफेर होना है । अतएव यह समझो कि संसार के समस्त प्राणी कर्म के अधीन हैं। ऐसा जानकर सदोष आहार से निवृत्त होओ, निर्दोष आहार से युक्त होओ, समितियों से समित तथा सदैव संयम में यातनावान् बनो । 'ति वेमि' सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं - हे शिष्य ! जीव के आहार आदि के विषय में तथा कर्म स्वरूप के विषय में मैंने जो कहा - જૂ વિગેરે શરીર સ`ખ'ધી ચેાનિવાળા છે, અર્થાત્ શરીરમાં ઉત્પન્ન થાય છે. શરીરમાં સ્થિત હોય છે, અને શરીરમાં જ વધતા દેખાય છે. તે મનુષ્ય વિગેરેના શરીરને જ આહાર કરે છે. પેાત પેતાના કમને વશ થયેલા છે. કમજ તેઓનું આદિકારણ છે. કમ પ્રમાણે તેઓની ગતિ થાય છે. કમ પ્રમાણે જ સ્થિતિ હોય છે. અને કથી તેએામાં ઉલટ પાલટ થાય છે. તેથી જ એમ સમજવુ' કે–જગના સઘળા પ્રાથિયા કને જ આધીન છે, આ પ્રમાણે સમજીને સદોષ-દોષવાળા આહારથી નિવૃત્ત થવું. નિર્દોષ આહારથી યુક્ત થવુ. સમિતિયેથી સમિત તથા હુંમેશાં સંયમમાં યતનાવાન્ મના. For Private And Personal Use Only 'त्ति बेमि' सुधर्मस्वामी स्वामीने! -- हे शिष्य ! भवना આહાર વિગેરેના સંબંધમાં તથા કના સ્વરૂપના સબંધમાં મે' જે કથન કર્યું Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - सूत्रकृतामसूत्र आहारसमितिगुप्त्यादिभिर्युक्ता सदा संयमपरिपालने प्रयत्नवान् भवेति कथयामि । सर्वेऽमी पाणिनो द्धैः कर्मभिरायत्ताः भासाधाऽऽपाय तत्तच्छरोरं तस्मिन् शरीरे भवन्ति तिष्ठन्ति पद्धन्ते च पौनःपुन्येन शरीरमाहरन्तः सावधकर्मणा पापं सञ्चित्य भ्रमन्ति संसारचक्रमितस्ततः । अत: सावधं कर्माऽनुष्ठानं नहीहि, संयमं पालय । एष उपदेशः शास्त्राज्ञानुशासनं च तीर्थकृताम् । 'वियसुयखंधस्प' द्वितीयश्रुतस्कन्धस्य 'आहारपरिणाणाम' आहारपरिज्ञानाम 'तईयमझ समत्तं तृतीयमध्ययनं समाप्तम् ।मु०२०॥ इति श्री-विश्वविख्यातजगवल्लभादिपदभूषितबालब्रह्मचारि - ‘जैनाचार्य' पूज्यश्री-घासीलालबतिविरचितायां श्री मूत्रकृताङ्गसूत्रस्य "समयार्थबोधिन्या रूयया" व्याख्यया समलङ्कृतम् द्वितीय श्रुतस्कन्धीयाऽऽहारपरिज्ञानाम . तृतीयाऽध्ययनं समाप्तम् ।। है, उसे जानो और जान कर आहार संबंधी समिति से युक्त तथा गुप्ति आदि से सम्पन्न होकर सदा संयम पालन में प्रयत्नवान् बनो। यही मैं कहता हूं। सभी प्राणी कर्मों के अधीन हैं और विभिन्न शरीरों को प्राप्त करके उनमें उत्पन्न होते, स्थित रहते और बढते हैं। वे वारंवार शरीर धारण करके पापमय कृत्य करते हैं, पापों का संचय करते हैं और संसार अटवी में परिभ्रमण करते हैं। अतएव सावध कर्मों को तज दो और साधु दीक्षा को धारण करके, आहार शुद्धि से युक्त तथा शुद्ध और बुद्ध बनकर संयमपालन संबंधी अन्तराय को दूर करो। यही तीर्थंकरो का उपदेश है, यही शास्त्राज्ञा हैं और यही अनुशासन हैं ॥२०॥ ॥दूसरा श्रुनस्कन्ध का तीसरा अध्ययन समाप्त ॥ છે. તેને સમજો અને સમજીને આહાર સમિતિથી યુક્ત તથા ગુપ્તિ વિગેરેથી યુક્ત થઈને સદા સંયમ પાલન કરવામાં પ્રયત્નવાન બને, એજ હું કહું છું. સઘળા પ્રાપ્તિ કર્મને જ અધીન છે અને જુદા જુદા શરીરને પ્રાપ્ત કરીને તેમાં ઉત્પન્ન થાય છે. સ્થિત રહે છે. અને વધે છે. તેઓ વારંવાર શરીરને ધારણ કરીને પાપ મય કૃત્યો કરે છે. પાપને સંગ્રહ કરે છે. અને સંસાર રૂપી જંગલમાં ભટકતા રહે છે. તેથી જ સાવધ કર્મોનો ત્યાગ કરે. અને સાધુ દક્ષને ધારણ કરીને આહાર શુદ્ધિથી યુક્ત તથા શુદ્ધ અને બુદ્ધ બનીને સંયમ પાલન સંબંધી અંતરાયને દૂર કરો. એજ તીર્થકરેને ઉપદેશ છે. એ જ પ્રમાણે શાસ્ત્રની આજ્ઞા છે. અને એજ અનુશાસન છે. સૂ૦૨ને છે બીજા શ્રુતસ્કંધનું ત્રીજું અધ્યયન સમાપ્ત ર-૩ For Private And Personal Use Only Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थपोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ." प्रत्याख्यानक्रियोपदेशः अथ चतुर्यमध्ययनं प्रारभ्यते-- वतीयाऽध्ययनाऽन्ते-'आहारविशुद्धिः कर्तव्या' इत्युपदिष्टम् । आहारविभुः दया श्रेयःमाप्तिः तदमावे चाऽनर्थप्राप्तिः, इति-अन्वयव्यतिरेकाभ्यां साधनभूताया आहारविशुद्धेः श्रेयः मास्तिकारणतां ज्ञात्वा श्रेयसोऽयिभिराहारगुप्तिः कर्ता क्या । परन्तु-आहारविशुद्धिर्न पत्याख्यानमन्तरेण सम्भवति, अत आहारविशुद्धः पारणभूतमत्यावशनोपदेशाय चतुर्थाऽस्ययनस्य पारम्मो भाति । मूलम्-सुयं मे आउसं तेणं भगवया एवमक्खायं । इह खलु पच्चक्खाणकिरिया णामज्झयणे तस्त णं अयमटे पण्णते। आया अपच्चक्खाणी यावि भवइ। आया अकिरिया कुसले याधि भवइ । आया मिच्छा संठिए यावि भवइ, आया एगंत. दंडे यावि भवइ, आया एगंतबाले यावि भवइ, आया एमंत चतुर्थ अध्ययन का प्रारंभ तीसरे अध्ययन के अन्त में आहार शुद्धि का उपदेश दिया गया है। आहार शुद्धि से कल्याण की प्राप्ति होती है और उसके अभाव में अनर्थ की प्राप्ति होती है । इस प्रकार अन्वय और व्यतिरेक के द्वारा आहार विशुद्धि श्रेयम् का कारण है। ऐसा जानकर श्रेयस (कल्याण) के अभिलाषी पुरुषों को आहार गुप्ति का सेवन करना चाहिए । परन्तु आहार की विशुद्धि प्रत्याख्यान के विना संभवित नहीं है, अतएव आहारशुद्धि के कारणभूत प्रत्याख्यान क्रिया का उपदेश देने के लिए चौथे अध्ययन का आरंभ किया जाता है-'सुयं मे आउसं तेणं' इत्यादि। यथा अध्ययन प्रारત્રીજા અધ્યયનના અંતમાં આહાર શુદ્ધિને ઉપદેશ આપેલ છે. આહાર શુદ્ધિથી કલ્યાણની પ્રાપ્તિ થાય છે અને તેના અભાવમાં અનર્થ થાય છે. આ રીતે અન્વય અને વ્યતિરેક દ્વારા આહાર વિશુદ્ધિ કલ્યાણનું કારણ છે. એ પ્રમાણે જાણીને કલ્યાણની ઈચ્છા રાખવા વાળા પુરૂએ આહાર ગુપ્તિનું સેવન કરવું જોઈએ. પરંતુ આહારની વિશુદ્ધિ પ્રત્યાખ્યાન વિના સંભવતી નથી. તેથી જ આહારશુદ્ધિને કારણે ભૂત પ્રત્યાખ્યાન ક્રિયાને ઉપદેશ આપવા માટે આ ચેથા અધ્યયનને પ્રારંભ કરવામાં આવે છે.–આ અધ્ય यननु पडे सूत्र मा प्रभाय छे. 'सुयं मे भाउसं वेणं' त्यादि. For Private And Personal Use Only Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir સર सूत्रकृताङ्गसूत्रे , सुने यात्रि भवइ आया अवियारमणत्रयणकायवके यात्रि भवइ, आवा अप्पsिहयअपञ्चकखाय पावकम्मे यावि भवइ, एस खलु भगवया अक्खाए असंजए अविरए अप्पाडहयअपsarareness सकरिए असंबुडे एगंतदंडे एगंतवाले एतत्ते से बाले अवियारमणत्रयणकायवक्के सुविणमत्रिण पस पात्रेय से कम्मे कज्जइ ॥ सू० १-६३ ॥ छाया -- श्रुतं मया - आयुष्मन् तेन भगवता एवमाख्यातम् । इह खलु प्रत्याख्यानक्रियानामाऽध्ययनं तस्य च अयमर्थः प्रज्ञप्तः । आत्मा अप्रत्याख्यानी अि भवति, आत्माक्रिया कुशलचापि भवति, आत्मा मिध्यास्थितश्चापि भवति, आत्मा एकान्तदण्डथापि भवति, आत्मा एकान्नबालवाऽपि भवति, आत्मा एका. न्त सुप्तश्वाऽपि भवति, आत्माड - विचारमनोव वनकायवाक्यथाऽपि भवति, आत्माऽप्रतिहताऽप्रत्याख्यातपापकर्माचाऽपि भवति । एष खलु भगवता आख्या तोऽसंयतोऽविरतोऽप्रतिहताऽप्रत्याख्यातपापकर्मा सक्रियोऽसंहृत एकान्तदण्ड एकान्तबाळ एकान्तसुप्तः । स बालोऽविचारमनोवचनकायवाक्यः स्वप्नमपि न पश्यति, पापं च स कर्म करोति ॥०१-६३ ॥ टीका- 'मे' मया 'आउस' हे आयुष्मन् जम्बू ! 'तेनं भगवया' तेन भगवता तीर्थकरेण श्रीमहावीरस्वामिना 'एवमकखायें' एवम् वक्ष्यमाणं वचः आख्यातम् - प्रतिपादितमिति 'सुर्य' श्रुतम् - श्रवणविषयीकृतम् तदेवाहं भवते कथयामि । तथाहि - ' इह खलु पच्चक्खाणकिरियाणामज्झणं इह खलु - जिनशासने प्रत्याख्यान क्रियानामाऽध्ययनम् 'तस्स णं अयमद्वे पण्णत्ते' तस्य क्रियानामाऽध्य टीकार्थ- सुर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं, हे आयुष्मन् जम्बू ! तीर्थकर भगवान् श्रीमहावीरस्वामी ने ऐसा प्रतिपादन किया है, मैंने सुना है । वही मैं तुम से कहता हूं। जिनशासन में प्रत्याख्यान क्रिया नामक अध्ययन कहा गया है। उस अध्ययन में यह अर्थ प्रति ટીકા - સુધર્મા સ્વામી જંબૂ સ્વામીને કહે છે—ડે જમ્મૂ તીથંકર ભગવાન્ શ્રી મહાવીર સ્વામીએ આ પ્રમાણેનું પ્રતિપાદન કર્યું છે. તે મે સાંભળ્યુ छे, म हु तमोने उहु छु . આ જીનશાસનમાં પ્રત્યાખ્યાન ક્રિયા નામનુ અધ્યયન કહેલ છે. તે અધ્યયનમાં આ પ્રમાણુન્ય અથ પ્રતિષાદન કરેલ છે. -આત્મા પ્રત્યાખ્યાની પણ હાય છે, અર્થાત્ આત્મા પેાતાના અનાદિ વિકૃત For Private And Personal Use Only Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - समार्थबोधिनी टीका द्वि. शु. अ. ४ प्रत्याख्यानक्रियोपदेशः ४३३ यनस्य 'णमिति वाक्यालङ्कारे' अयमर्थः कथितः 'आया अपचकखाणी यात्रि भव' आत्मामत्याख्यानी चापि भवति - आत्मा स्वभावत एवापत्याख्यानी भवति अनादिस्वभावच्चाद् अपिशब्दात् प्रत्याख्यान्यपि भवति उक्तहेतौ मूले जीवबोधनाय जीव इति पदमप्रयुज्य - आत्मेति कथनं साभिप्रायम् । सोऽयमभिप्रायः प्राणधारणात् जीव इति कथ्यते, अतति सततं भवाद्भवान्तरं गच्छतस्यारमा, तथा चाssत्मेति पदं प्रयुज्य अयमर्थो दर्शितः । यश्सा वद्य कर्माण्यपरित्यजन् कर्म बलात् सर्वदैव गमनशीलो न तु कथमपि महता कालेनाऽपि शान्ति प्राप्नोति । किन्तु सर्वदैवेतस्ततः परिभ्रमति, 'आया अकिरिया कुठे यात्रि भवइ' आत्मापादित किया गया है - आत्मा अपस्याखयानी भी होता है। अर्थात् आत्मा अपने अनादि विकृत स्वभाव से ही अप्रत्याख्यानी है । यहाँ मूल में 'भी' शब्द का प्रयोग यह सूचित करता है कि कोई कोई आत्मा प्रत्याख्यानी भी होता है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूलपाठ में 'जीव' का बोध कराने के लिए 'जीव' शब्द का प्रयोग न करके 'आमा' शब्द का जो प्रयोग किया गया है। उसका विशेष अभिप्राय इस प्रकार है - प्राणों को धारण करने के कारण जीव कहा जाता है और जो एक भव से दूसरे भव में गमन करता रहता है, वह अस्मा कहलाता है यहां 'आत्मा' शब्द का प्रयोग करके यह अर्थ प्रकट किया गया है कि सावद्य कृत्यों को न त्याग करके कर्म के वह वशवर्ती होकर जो सर्वदा गमनशील है, दीर्घकाल व्यतीत हो जाने पर भी जिसे शान्ति नहीं मिली है, जो सदा इधर उधर भटकता फिरता है, वह आत्मा अप्रत्याख्यानी होता है । સ્વભાવથી જ અપ્રત્યાખ્યાની છે. અહિયાં મૂળમાં ‘મી’ શબ્દના પ્રયાગ એ સૂચવે છે કે-કાઇ કાઇ આત્મા પ્રત્યાખ્યાની પણ હોય છે. તેમ સમજવું. મૂલ પાઠમાં ‘ઝવ’ના બેધ કરાવવા માટે ‘જીવ’શબ્દના પ્રયાગ ન કરતાં ‘આત્મા' શબ્દના જે પ્રયાગ કરવામાં આવ્યેા છે, તેના વિશેષ અભિ પ્રાય આ પ્રમાણે છે.—પ્રાણાને ધારણ કરવાના કારણે જીવ કહેવાય છે. અને જે એક ભવથી ખીજા ભવમાં ગમન કરતા રહે છે, તે આત્મા કહેવાય છે. અહિયાં આત્મા' શબ્દના પ્રયૈગ કરીને એ અર્થે પ્રગટ કરેલ છે કેસાવદ્ય કૃત્યને ત્યાગ ન કરતાં કમને વશવી થઈને જે હંમેશાં ગમન શીલ છે, દી કાળ વીતી જાય તેા પણ જેને શાંતિ મલતી નથી. જે હમ્મેશાં આમ તેમ ભટકતા ફરે છે, તે આત્મા અપ્રત્યાખ્યાની ડાય છે. सू० ५५ For Private And Personal Use Only Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकतास्त्रे कियाकुशलश्चाजी, शुभकियां न करोति-तादृशोऽपि भवति । कश्चन-अपि शब्दाच्छुभक्रियाकारी अपि भाति । 'आया मिन्छासंठिए यावि भवई' आस्मा मिश्यासंस्थितथापि भाति मिथ दृष्टिरपि भवति जीव इत्यर्थः, अपि शब्दात् सम्यग्दृष्टिरपि, 'आया एगंतदंडे यावि भाई' अात्मा एकान्तदण्ड थाऽपि भवति, पकानदण्डको हिंसकः अपि शब्दादहिसका, 'आया एगंतवावे यावि भवइ' भास्मा एकान्तवालवाऽपि, भाति, एकान्ततोऽज्ञानी अपि शब्दात् ज्ञानी अपि - भवति 'आया एर्गतमुत्ते यावि मवई आत्मा-रकान्तसुप्तच, अपि शन्दात् पति.. बुद्धोऽपि, सुप्तरत् सुप्तः यथा द्रव्यमुपनः पुरुषः शब्दादिविषयान् न जानाति तथैव भावमुप्त आत्मा हिताहितमाप्तिपरिहारपिकलश्च । 'आया अवियारमण आत्मा अक्रियाकुशल भी होता है अर्थात् काई आत्मा ऐसा भी होता है जो शुभ क्रिया नहीं करता है। यहां पर भी 'भी' शब्द से यह सूचित किया है कि कोई आत्मा शुभ किसकारी भी होता है। __ आत्मा मियादृष्टि भी होता है और 'भी' शम से सम्यग्दृष्टि भी होता है। इसी प्रकार आत्मा एकान्तदण्डहिंसक भी होता है और 'भी' शब्द से कोई कोई अहिंसक भी होता है। आत्मा एकान्त पाल (अज्ञानी) भी होता है और 'भी' शब्द से ज्ञानी भी होता है । आत्मा एकान्ततः सुप्त भी होता है और कोई कोई प्रति. बुद्ध भी होता है । यहां सुप्त के समान जो हो वह सुप्त कहा गया है। जैसे द्रव्यनिद्रा से सुप्त पुरुष शब्दादि विषयों को नहीं जानता है, उसी प्रकार भाव से सुप्त पुरुष को हित की प्राप्ति और अहित के આત્મા અકિયા કુશળ પણ હેય છે. અર્થાત કેઈ આત્મા એવા પણ હોય છે. કે જે મક્રિયા કરતા નથી અહિયાં પણ ‘મી” શબ્દથી એ બતાવ્યું છે કે કોઈ આત્મા ક્રિયાકારી પણ હોય છે. આત્મા મિથ્યા દષ્ટિ પણ હોય છે. અને “મી” શબ્દથી સમષ્ટિ પણે હોય છે. એ જ પ્રમાણે આમ એકાન્ત દંડ હિંસક પણ હેય છે. અને “ભી” શબ્દથી કઈ કઈ અહિંસક પણ હોય છે. આત્મા એકાત બાલ (અજ્ઞાની) ५५ डाय छे. अने, 'मी' शपथी ज्ञानी ५४ हाय छे. मात्मा सन्तत: ! સુસ પણ હોય છે. અને કેઈ કોઈ પ્રતિબુદ્ધ પણ હોય છે. અહિયાં સુપ્ત સરખા જે હોય તેને સુસ કહેલ છે. જેમ દ્રવ્ય નિદ્રાથી સુતેલા પુરૂષને શબ્દ વિગેરે વિષયેનું જ્ઞાન હેતું નથી. એ જ પ્રમાણે ભાવથી સૂતેલા પુરૂષને હિતની પ્રાપ્તિ અને અહિતના પરિહાર–ત્યાગનું જ્ઞાન હોતું નથી. આત્મા For Private And Personal Use Only Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समार्थं बोधिनी टीका द्वि श्रु. अ. ४ प्रत्याख्यान क्रियोपदेश: } aणकायत्रक्के यात्रि माह आत्माऽविवारपनो वचनकायश्वापि भवति, तत्र मनोऽन्तःकरणम्, वागूनाजी काय देहः, अर्धपतिपादकं पदसमूहात्मकं वाक्यमेकं सुवन्तं तिङन्तं वा तत्र विचाररहितः सन् आत्मा अविचारितमनोवाक् कायवाक्यो भवति - सावद्य निरवद्य विचाररहितो भवति, अपिशब्दाद् विवारितमनोवाक्कायवाक्यति । 'आया अप्पडिय प्रपञ्चकखायपात्रकम्मे यावि भव आत्मा - अपहिताऽपत्याख्यातपापकर्माऽपि भवति, प्रतिहतं - वर्तमानकाले स्थि स्वनुभागहासेन नाशितं प्रत्याख्यातं पूर्वकृताविचारनिन्दया भविष्यत्यकरणेन निराकृतं पापं कर्म येन स प्रतिहत प्रत्याख्यातपापकर्मा तद्भिन्नोऽप्रतिहताऽप्रत्याख्यातपापकर्मा, अपिशब्दात् प्रतिहत प्रत्याख्यातपापकर्माऽपि भवतीति । परिहार का ज्ञान नहीं होना है । आत्मा अपने मन, वचन, काय और वाक्य का विना विचारे उपयोग करने वाला भी होता है । मन अर्थात् अन्तःकरण, वचन अर्थात् वाणी, काय अर्थात् देह । किसी अर्थ का प्रतिपादन करने वाला पर्दों का समूह वाक्य कहलाता है, कोई पद सुबन्त होता है, कोई तिङन्त होता है। तात्पर्य यह है कि प्रत्याख्यान से रहित आत्मा विचार हीन होता है। वह सावध एवं निरवद्य का विचार न करके मन, वचन, काय और वाक्य का प्रयोग करता है । आत्मा अपने पापकर्मी को प्रतिहत और प्रत्याख्यात नहीं भी करता है । वर्तमान काल में कर्म की स्थिति और अनुभाग को कम करके नष्ट करना प्रतिहत करना कहलाता है। पूर्वकृत अतिचार की निन्दा करना और भविष्य में उस पापकर्म को न करने का संकल्प करना प्रत्याख्यात પેાતાના મન, વચન, કાય, અને વાકયના વગર વિચાર્યે ઉપયેગ કરવાવાળા પણ હાય છે. મન અર્થાત્ અંતઃકરણુ, વચન અર્થાત્ વાણી કાય, અર્થાત્ રહુ કાઈ પણ અંનું પ્રતિપાદન કરવાવાળા પદોના સમૂહ વાકય કહેવાય छे, अई सुमन्त यह होय छे. अर्ध तिङन्त यह होय छे. તાપય એ છે કે—પ્રત્યાખ્યાન વિનાના આત્મા વિચાર વગરના હાય છે. તે સાવદ્ય અને નિરવને વિચાર ન કરતાં મન, વચન કાય અને વાકયના પ્રયોગ કરે છે. આત્મા પેાતાના પાપકમેનિ પ્રતિહત અને પ્રત્યા ખ્યાનથી પણ કરતા વમાન કાળમાં કર્મીની સ્થિતિ અને અનુભાગને ક્રમ કરીને નાશ કરવું તે પ્રતિહત કરવુ કહેવાય છે. પહેલાં કરેલા અતિચારની નિંદા કરવી અને ભવિષ્યમાં તે પાપકર્મને ન કરવાના સકલ્પ કરવા તે For Private And Personal Use Only Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - सूत्रकृताङ्गसूत्र 'एस खलु भगाया अक्खाए असंजए अविरए अप्पडिहय पच्चक्खायपावकम्मे सकिरिए अपवुडे एगंनदंडे एगंतबाले एगंतमुत्ते' एप खलु भगवता-आख्यातः असंयतोऽविरतो पतिहनाऽपत्याख्यातपापकर्मा सक्रियोऽवृतः एकान्त दण्डः एकान्तवालः एकान्तसुप्तः, तत्र असंपतः-वर्तमानकालीनसावधानुष्ठानपत:अविरतः-अनीतानगगतपापात् अनिवृत्तः, अप्रतिहताऽपत्याख्यातपापकर्मा पापकर्मनिरतः सक्रियः सावधक्रियावान् असंता-आम्रपाकर्मनिरोधकव्यापाररहितः। एकान्तदण्डकः-हिंसाः एकान्तबाला-एकान्तऽज्ञानी एकान्तमुप्तासुप्तवत् सुप्ता, एनाशो जीवो यथोक्तविशेषणविशिष्टः-एकान्तदण्ड इत्यादि करना कहलाता है। 'भी' शब्द से यह सूचित किया गया है कि कोई कोई आत्मा पापकर्म को प्रतिहत और प्रत्यागत करने वाला भी होना है। इस प्रकार जो आत्मा प्रत्याख्यानो नहीं है, उसे भगवान ने असंयत, अविरत अप्रतिहत अप्रत्याख्यातपापकर्मा, सक्रिय, असंवृत, एका. न्तदण्ड, एकान्तबाल तथा एकान्त सुप्त कहा है। वर्तमान काल में मावद्य कृत्यों में जो प्रवृत्ति कर रहा हो वह असंयत कहलाता है। अतीत और अनागत कालीन पाप से जो निवृत्त न हो वह अविरत कहा जाता है जो पापकर्म में रत है वह अप्रतिहन अप्रत्याख्यातपापकर्मा कहलाता है। जो सावध क्रिया से युक्त हो, वह सक्रिय है। जो आते हुए कर्मों को रोकने वाले व्यापार से रहित हो वह असंवृत कहलाता है। एकान्तदण्ड का अर्थ है हिंसक । एकान्तबाल अर्थात् अज्ञानी । एकान्त सुप्त की व्याख्या पहले की जा चुकी है। પ્રત્યાખ્યાન કરવું કહેવાય છે. “” શબ્દથી એ સૂચિત કરેલ છે કે-કેઈ કેઈ આત્મા પાપકમને પ્રતિહત અને પ્રત્યાખ્યાત કરવાવાળા પણ હોય છે. - આ રીતે જે આત્મા પ્રત્યાખ્યાની નથી હતા તેને ભગવાને અસં. યત, અવિરત, અપ્રતિહત, અપ્રત્યાખ્યાત પાપકર્મા, સક્રિય, અસંવૃત, એકાન્ત દંડ, એકાન્ત બાલ તથા એકાન્ત સુ કહેલ છે વર્તમાન કાળમાં સાવધ કૃમાં જે પ્રવૃત્તિ કરી રહ્યા હોય તે અસંયત કહેવાય છે. અતીત અને અનાગત કાળના પાપથી જે નિવૃત્ત ન હોય તે અવિરત કહેવાય છે. જે પાપકર્મમાં રત છે, તે અપ્રતિહત અપત્યાખ્યાત પાપકર્મો કહેવાય છે, જે સાવધ ક્રિયાઓથી યુક્ત હોય તે સક્રિપ છે. જે આવતા કર્મોને રોકવાવાળી પ્રવૃત્તિથી રહિત હોય તે અસંવૃત્ત કહેવાય છે. એકાન્તદંડને અર્થ હિંસક એ પ્રમાણે છે. એકાનાબાળને અર્થ અજ્ઞાની એ પ્રમાણે સમજ. અને એકાંતસુખની વ્યાખ્યા પહેલાં કરવામાં આવી ગઈ છે. For Private And Personal Use Only Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.४ प्रत्याख्यानक्रियोपदेशः शब्दैराख्यातस्तीर्थकता । ‘से बाले अवियारमणक्यण कायवक्के' स बालः अवि. चारमनोवचनकायवाक्यः-सोऽज्ञानी मनोवचनकायवि वाररहितः-हिताऽहितप्राप्तिपरिहारविचाररहितः 'सुविणमवि ण पस्सइ' स्वप्नमपि न पश्यति, पटुज्ञानरहितः श्रुचारित्रलक्षणं धर्म स्वप्नेऽपि न पति, 'पावे य से कम्मे कज्जई' पापं च कर्म तेन क्रियते-तत्र तेन बालेन पापं कर्म-प्राणातिपातादि क्रियते ॥५०११६३॥ मूलम्-तत्थ चोयए पन्नवगं एवं वयासी-असंतएणं मणेणं पावएणं असंतियाए वईए पावियाए असंतएणं कारणं पावएणं अहणंतस्त अमणक्खस्स अवियारमणवयगकायवकस्त सुविणमवि अपस्सओ पावकम्मे णो कज्जा, कस्स णं तं हेडं? चोयए एवं बबीई-अन्नयरेणं मणेणं पावएणं मणवत्तए पावे कम्मे कज्जइ, अन्नयरीए वईए पावियाए वतिवत्तिए पावे कम्मे कज्जइ, अन्नयरेणं कारणं पावएणं कायवत्तिए पावे कम्मे कज्जइ, हणंतस्स समणक्खस्म सवियारमणवयणकायवक्कस्स सुविणमवि पासओ एवं गुणजातीयस्त पावे कम्मे कज्जइ। पुणरवि चोयए एवं बबीइ तत्थ णं जे ते एवमाहंसुअसंतएणं मणेणं पावएणं असंतीयाए वईए पावियाए असं. ऐसा अज्ञानी जीव मन वचन काय और वाक्य का विना विचारे प्रयोग करता है, हित की प्राप्ति और अहित के परिहार के विचार से रहित होता है । वह यथार्थ ज्ञान से रहित पुरुष स्वप्न में भी श्रुत. चारित्र धर्म को नहीं देखना । वह अज्ञानी पापकर्मों का संचय करता है और प्राणातिपात हिंसा आदि कृत्य करता है ॥१॥ એવા અજ્ઞાની છે મન, વચન, કાય અને વાકયને પ્રેગ વગર વિચાર્યું કરે છે. હિતની પ્રાપ્તિ અને અહિતને પરિહારના વિચારથી રહિત હેય છે. તે યથાર્થ જ્ઞાન વિનાને પુરૂષ સ્વમમાં પણ શ્રુત ચારિત્ર ધર્મને જેતા નથી. તે અજ્ઞાની પાપ કર્મોને સંચય કરે છે. અને પ્રાણાતિપાત-હિંસા વિગેરે કૃત્ય કરે છે. સૂ૦ ૧ For Private And Personal Use Only Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे तएणं कारणं पावएणं अहणंतस्स अमगक्खस्म अवियारमणवयणकायवक्कस्त सुविणमवि अपस्तओ पावे कम्मे कज्जइ, तत्थ णं जे ते एवमाहंसु मिच्छा ते एवमाहंसु। तत्थ पन्नवए चोयगं एवं वयामी-तं सम्मं जं मए पुवं वुत्तं, असंतएणं मणेणं पावएणं असंतियाए वईए पावियाए असंतएणं कारणं पावएणं अहणंतस्त अमणक्खस्स अवियारमणवयणकायवक्कस्त सुविणमवि अपस्सओ पावे कम्मे कजइ, तं सम्म, कस्स णं हेउं ?। आयरिए आह-तत्थ खलु भगवया छज्जीवणिकायहेऊ पण्णत्ता, तं जहा-पुढवीकाइया जाव तसकाइया, इच्चेएहिं छहिं जीवणिकाएहिं आया अप्पडिहयपञ्चक्खायपावकम्मे निच्चं पसढविउवायचित्तदंडे, तं जहा-पाणाइवाए जाव परिग्गहे कोहे जाव मिच्छादंसणसल्ले । आयरिए आह-तत्थ खलु भगवया वहए दिटुंते पण्णत्ते, से जहा णामए वहए सिया गाहाइस् वा गाहा. घइपुत्तस्स वा रगो वा रायपुरिसस्त वा खर्ण लद्भूर्ण पविसिस्सामि खणं लद्भू वहिस्सामि संपहारेमाणे से किं नुहु नाम से वहए तस्स गाहावइस्स वा गाहावइपुत्तस्स वा रण्णो वा रायपुरिसस्त वा खगं लघृणपविस्तामि खणं लभ्रूणं वहिस्सामि पहारेमाणे दिया वा राओवा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिए निच्चं पसहविउवायचित्तदंडे भवइ ?, एवं वियागरेमाणे समियाए वियागरे चोयए हंता भवइ । आयरिए आह-जहा से For Private And Personal Use Only Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. शु. अ. ४ प्रत्याख्यानक्रियोपदेशः वहए तस्त गाहावइस्स वा तस्स गाहावइपुत्तस्स वा रण्णो वा रायपुरिसस्स वा खणं लधूणं पविसिस्लामि खणं लक्षूणं वहिस्सामिति पहारेमाणे दिया वा राओ वा सुत्ने वा जागरमाणे वा अमितभूप मिच्छासंठिए निच्वं पसद विडवायश्चित्तदंडे, एवमेव बाले वि सव्वेसिं पाणाणं जाव सबेसिं सत्ताणं दिया वा राओ वा सुते वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिए णिच्चं पसढवि उवायवित्तदंडे, तं जहा - पाणाइवाए जाव मिच्छादंसणसल्ले, एवं खलु भगवया अक्खाए असंजए अविरए अप्पडियअपच्चकखायपावकम्मे सकिरिए असंतुडे एगंतदंडे एतबाले एंगंतसुत्ते यावि भवइ, से बाले अवियारमणवयणकायवक्के सुविणमवि ण पहलइ पात्रे य से कम्मे कज्जइ । जहा से वह तस्स वा गाहावइस्स जाव तस्स वा रायपुरिसस्स पत्तेयं पत्तेयं चित्तसमादाए दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिए निच्चं पसढविउवायचित्तदंडे भवइ, एवमेव वाले सव्वेसिं पाणाणं जाव सवेसिं सत्ताणं पत्तेयं पत्तेयं चित्तसमादाए दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिए निच्चं पसढविउवायचित्तदंडे भवइ ॥ सू० २--६४॥ For Private And Personal Use Only ४३९ छाया- -तत्र ने दकः प्रज्ञापकमेवमवादीत् असता मनसा पापकेन असल्या वाचा पापिकया असता कायेन पापकेन अघ्नतोऽमनस्कस्य अविचारमनोवचनकायवाक्यस्य स्वप्नमप्यपश्यतः पापं कर्म न क्रियते । कस्य खलु हेतो:, नोदक एवं ब्रवीति - अन्यतरेण मनसा पापकेन मनः प्रत्ययिकं पापं कर्म क्रियते, अन्यतुरया वाचा पापिकया वाक्पत्ययिकं पापं कर्म क्रियते, अन्यतरेण कायेन पापकेन Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org L vo सुत्रकृताङ्गपुत्रे कार्यप्रत्ययिक पापं कर्म क्रियते, घातः समनस्कस्य सविचारमनोवचन काय वाक्यस्य स्वप्नमपि पश्यतः एवंगुणजातीयस्य पाप कर्म क्रियते । पुनरवि नोदकः एवं प्रवीति तत्र खलु ये ते एवमाहुः असता मनमा पापकेन असत्यावावा पापिया असता कायेन पापकेन अनतोऽमनस्कस्य अविदारमनोवचन का पवाक्यस्य स्वप्नमध्यपश्यतः पापं कर्म क्रियते । तत्र खलु ये ते एत्रमाहु मिथ्या ते एत्रमाहुः । तत्र मलापको नोदकमेवमवादीत् तत्सम्यग् यन्मया पूर्वमुक्तम्- असता मना पापकेन असत्या वाचा पापिका असता कायेन पापकेन अनतोऽपनस्कस्य अविचार मनो वचनकार्यवाक्यस्य स्वप्नमध्यपश्यतः पापं कर्म क्रियते तत् सम्यक्, कस्य खलु हेतोः ? - आचार्य आह तत्र खलु भगवता षड्जीवनिकायहेतवः प्रज्ञमाः तद्यथा- पृथिवीकायिका यावत् कायिकाः, इस्येतैः पत्रभिर्जीवनिकारात्मा अपहिताऽपत्यारूपात पापकर्मा नित्यं प्रशठव्यतिपातचितदण्डः तद्यथा-प्राणातिपाते यावत् परिग्रहे क्रोधे यावन्मिथ्यादर्शनशल्पे । आचार्य आह-तत्र भगवता वधकदृष्टान्तः प्रज्ञप्तः, तद्यथानाम वधकः स्याद् गाथापतेर्वा गाथापतिपुत्रस्य वा राज्ञो वा राजपुरुषस्य वा, क्षणं छापवेक्ष्यामि क्षणं लब्ध्वा हनिष्यामि इति सम्प्रधारयन् स किं नु नाम वध कः तस्य गाथा गाथापतिपुत्रस्य वा राज्ञो वा राजपुरुषस्य वा क्षणं लब्ध्वा प्रवेक्ष्यामि क्षणं लब्ध्वा हनिष्यामीति संपधारयन् दिवा वा रात्रौ वा सुप्तो वा जाग्रद्वा अमित्रभूतः मिथ्यासंस्थितः नित्यं प्रशठव्यतिपात चित्तदण्डो भवति ? एवं व्यागीर्यमाणः समेत्य व्यागृणन्नोदकः हन्त, ? भवति । आचार्य आह यथा स वधकः तस्य गाथापतेव गाथापतिपुत्रस्य वा राज्ञो वा राजपुरुषस्य वा क्षण लब्धा मवेक्ष्यामि क्षणं लब्ध्वा हनिष्यामीति सम्प्रधारयन् दिवा वा रात्रौ वा सुप्तो वा जाग्रत् वा अमित्रभूतः मिथ्यासंस्थितः नित्यं प्रशठव्यतिपातचित दण्डः, एवमेव वालोपे सर्वेषां प्राणानां यावत् सर्वेषां सचानां दिवा वा रात्रौ वा सुमो वा जाग्रदवा अमित्रभूतः मिथ्यासंस्थितः नित्यं पशठव्यतिपात चित्तइण्डः । तद्यथा प्राणातिपाते यावदमिथ्यादर्शनशल्ये, एवं खलु भगवता आख्यातः असंयतः अविरतः अप्रतिहतामत्याख्या तपापकर्मा सक्रियः असंवृतः एकान्तदण्डः एकान्तबालः एकान्तसुतश्वापि भवति, स बालः अविचारमनोवचनकायवाक्यः स्वप्नमपि न पश्यति पापञ्च कर्म क्रियते यथा स वधक स्तस्य वा गाथापतेर्यावत् तस्य वा राजपुरुषस्य प्रत्येकं प्रत्येकं चित्तं समादाय दिवा वा रात्रौ वा सुप्तो वा जाग्रद्वा अमित्रभूतमिवासंस्थितः नित्यं प्रशठव्यतिपातचितदण्डो भवति एवमेव वालः सर्वेषां प्राणानां यात सर्वेषां सत्वानां प्रत्येकं प्रत्येकं चित्तं समादाय दिवा वा रात्रीवा सुप्तो वा जाग्र वा अमित्रभूतः मिथ्यासंस्थितः नित्यं प्रशठव्यतिपातचितदण्डो भवति ।। ०२-६४।। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.५ प्रत्याख्याधियोपदेशः ४१ टीका-'तस्थ' तत्र 'चोयए' नोदकः-प्रश्नकर्ता पनाग' प्रज्ञापकमानार्यम् 'एवं वयासी' एवमवादी-प्रश्नकर्ता आचार्य पृच्छति-किं तद्रवीति-तदेव दर्शयति शास्त्रकारः-हे पूज्याचार्य ! 'असंतएणं' असता-अविद्यमानेनाऽपत्तेन अनेन 'मणेणं पावएणं पापकेन मनसा 'असंतियाए चईए पावियाए' असत्या -अविद्यमानया पापिकया वाचा 'असंतएणं कारणं पावएणं' असता-अविद्यमानेन पापकेन कायेन 'अहणतस्स अमणक्खस्स अवियारमणक्यणकावयास्स मुविणमवि अपस्सो पावकम्मे गो फनई अध्नतोऽमनस्कस्य-हिंसामकुर्वतो हिंसाविषयक मनोव्यापाररहितस्य, अविचारमनोवचनकायवाक्यस्य-हिंसाविषयकमनोवचनकायविचाररहितस्य स्वप्नमपि अपश्यतः स्वप्नावस्थायां कृतं कर्म नोपचयं याति तथैव स्पष्टविज्ञानवतः पाप कर्म न क्रियते पाप कर्म न बध्यते, पापसहितमनोवचनकापरहितेन जीवादिहिंसामकुर्वता पुरुषेग पाप कर्म न बध्यते, पापसहित मनोवचनकायरहितेन जीवादिहिंसामकुर्वता पुरुषेण पापं कर्म कथमपि न सम्भवति, तस्थ चोयए' इत्यादि। टीकार्थ-प्रश्नकर्ता प्रज्ञापक आचार्य से कहता है, हे पूज्य आचार्य, जिसका मन पाप से युक्त नहीं है, जिसकी वाणी पापमय नहीं है और जिसकी काया पापयुक्त नहीं है, जो प्राणी का घात नहीं करता, जिस का मन वचने काय और वाक्य हिंसा के विचार से रहित है जो पापकरने का स्वप्न भी नहीं देखता अर्थात् जिसमें ज्ञान की थोड़ी-सी ही अव्यक्त मात्रा है, ऐसा प्राणी पापकर्म का बंध नहीं करता है। अर्थात् जिसका मन, वचन और काय पाप से रहित है और जो जीवहिंसा नहीं करता है, ऐसे पुरुष को किसी भी प्रकार पापकर्म का बन्ध नहीं होता है। 'तत्थ चोयए' त्यादि ટીકાર્થ–પ્રશ્ન કર્તા પ્રજ્ઞાપક આચાર્યને કહે છે કે–હે પૂજ્ય આચાર્ય ! જેઓનું મન પાપયુક્ત હોતું નથી. જેમની વાણી પાપમય નથી અને જેમની કાયા પાપયુક્ત નથી, જે પ્રાણી ઘાત કરતા નથી. જેનું મન, વચન, અને કાય હિંસાના વિચાર વિનાનું છે, જે પાપ કરવાનું સ્વપ્ર પણ દેખતા નથી. અર્થાત જેમાં જ્ઞાનની છેડી અવ્યક્ત માત્રા છે. એવા પ્રાણી પાપકર્મથી બંધાતા નથી. અર્થાત્ જેનું મન, વચન, અને કાયા પાપ વિનાના છે, અને જે જીવહિંસા કરતા નથી, એ પુરૂષ કોઈ પણ પ્રકારના પાપકર્મને બંધક થતું નથી. सू० ५६ For Private And Personal Use Only Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे कस्मादेवाशः पुमाः पापं कर्म न करोति, तत्राह-'कस्स गं ते हे ऊ' कस्य खलु देतो पापं न भवति, 'चोयए एवं बबीई नोदकः-प्रश्नकर्ता एवं ब्रवीति-तस्य कथं न पा व भाति तत्पति यति । 'अनपरेणं' अन्यतरेग 'मणेणे' मनसा 'पावर' पाकेन-पापयुक्तेन 'मणपत्तिए' मनःप्रत्यायिक-मनाकारणकम् 'पावे कम्मे काजइ पाप कर्म क्रियते-कर्माश्रवद्वारभूतेन मनसा तस्मत्ययिक पाप कर्य सम्पादित भवतीति भावः, तथा-'अन्नयरीए' अन्यतरया 'बईए' वाचा 'पापियाए' पापिकया 'बइवत्तिए' वापस्ययिकम्-वचनकारणकम् 'पावे कम्मे कज्जई' पाप कर्म क्रियते-काश्राद्वारभूतया वाचा-बचनेन वाककारणकं पाप भवति 'अनपरेण कारणं पावएणं कायवत्तिए पावे कम्मे कज्जई' अन्यतरेण कायेन पापकेन-पापविशिष्टेन शरीरेण का प्रययिकम्-कायः प्रत्ययः -कारण यस्य पापस्य तादृशं पापं कर्म क्रियते, कर्माश्राद्वारभूतपापयुक्तरेव मनो. पचनकायैः तत्तपत्ययिक पाप कर्म सम्भवति । तदेव दर्शयनि-हणतस्स' नतो हिंसां सम्पादयतः 'समणक्खस्स' समनस्कस्य-मगोव्यापारयुक्तस्य 'सवियार मणवयणकायवकस्स' सविचारमनोश्चन-कायवाक्यस्य-मनोवचनकायवाक्यतः विचारयुक्तस्य 'सुविणमवि' स्वप्नमपि पासओ' पश्यत:-स्पष्टविज्ञानयुक्तस्य किस हेतु से उसे पाप नहीं होता ? इस विषय में प्रश्नकर्ता ऐमा कहता है-जब मन पापमय होता है तभी उसके द्वारा पापकर्म सम्पादित किया जाता है। जब वचन पापयुक्त होता है, तभी उसके द्वारा पाप का बन्ध होता है । जब पाप का कारणभून काय हो तभी कायजनित पापकर्म का बन्धन हो सकता है। तात्पर्य यह है कि पापयुक्त मन वचन काय के द्वारा पापकर्म होना संभव है । इमी बान को स्पष्ट करके यह . कहता है-जो प्राणी हिंसा करता है, हिंसायुक्त मनोव्यापार से युक्त है, जो समझ बूझ करके मन वचन और काय की प्रवृत्ति करता है કયા કારણથી તેને પાપ થતું નથી ? આ વિષયમાં પ્રશ્ન કરનાર એવું કહે છે કે જ્યારે મન પાપમય થાય છે, ત્યારે જ તેના દ્વારા પાપકર્મ સંપાદન કરાય છે. જ્યારે વચન પાપ યુક્ત હોય છે, ત્યારે તેના દ્વારા પાપને બંધ થાય છે. જ્યારે પાપના કારણ રૂપ કાર્ય–શરીર હોય ત્યારે જ કાયાથી થનાર પાપકર્મને બંધ થાય છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે પાપયુક્ત મન, વચન, અને કાર્યો દ્વારા પાપકમ થવાનો સંભવ છે. એજ વાત સ્પષ્ટ રીતે હવે કહે છે -જે પ્રાણિ હિંસા કરે છે, હિંસાવાળા મનના વ્યાપાર-પ્રવૃત્તિથી યુક્ત હોય છે, જે જાણ બૂજીને મન, વચન, અને કાયાની પ્રવૃત્તિ કરે છે. For Private And Personal Use Only Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. व. अ. ४ प्रत्याख्यानक्रियोपदेशः 'एवं गुणजातीयम्स' एवं यथोक्तगुणजातीयस्थ-समनस्कत्यादिविशिष्टस्य 'पावे कम्मे कज्जई पाप कर्म क्रियते-पापकर्मबन्यो भाति, नान्यस्य। हिंसापापयुत मनोवचनकायवत एव पापकर्मसम्भवः, न तु तद्भिन्नकायरतः पापकर्मसम्भवः कार णाभावे कार्याऽभावस्याऽन्यत्र निर्णीतत्वात् । 'पुगरवि चोयए एवं बवीई' पुनरपि नोदक:-प्रश्नकर्ता एवं ब्रवी ते । 'तत्य णं जे ते एवमाहंमु' तत्र ये ते एवेमाहुः 'असंतएणं मणेणं पावएण' असता पापकेन मनसा, पापरहितेन मनसेत्यर्थः । 'असंगीयाए वईए पावियाए' असत्या पापिकया वाचा-पापरहितवचनेनेति यावत् । 'असंतएणं कारणं पावएणं' असता पापकेन कायेन, पापरहितशरीरेणेत्यर्थः, 'अहणतस्स' अघ्नतः-हिंसामकुर्वतः 'अमणक्खस्स' अमनस्कस्य पापरहितमनोवतः 'अवियारमणवयणकायवकास' अविचारमनोवचनकायवाक्यस्य-मनोवचनकायः विचाररहितस्य 'मुविणमवि अपस्सो ' स्वप्नमपि आश्यतः-अव्यक्तविज्ञानवतः, और जो स्पष्ट ज्ञान से सम्पन्न है, वह ऐसी विशेषतामों वाला जीव ही पापकर्म करता है, जिसमें पाप के पूर्वोक्त कारण नहीं है, उसे पापकर्म का बंध नहीं हो सकता, क्योंकि यह पहले ही निर्णय किया जा चुका है, कि कारण के अभाव में कार्य नहीं होता है। प्रश्नकर्ता पुनः कहता है-जो ऐसा कहते हैं कि पापरहित मन से, पापरहित वचन से, पापरहित काय से, हिंसा न करते हुए को, पापरहित मन वाले को विचार हीन मन वचन काय और वाक्य वाले को तथा अस्पष्ट ज्ञान वाले को भी पापकर्म होता है, वह ठोक नहीं हैं। प्रश्नकर्ता का आशय यह है कि जो समनस्क है, सोच समझ कर मनवचन काय की प्रवृत्ति करता है हिंसा करता है, उसी को पापकर्म અને જે સ્પષ્ટ જ્ઞાનથી યુક્ત છે, એવા વિશેષપણાવાળે જીવ જ પાપ કર્મ કરે છે. જેમાં પાપના ઉપર કહેલા કારણે નથી. તેને પાપકર્મને બંધ થઈ શકતો નથી. કેમકે એ પહેલાં જ નિર્ણય કરવામાં આવેલ છે. 3-४ारना समापभा १ नथी. પ્રશ્ન કરનાર ફરીથી કહે છે કે – જેઓ એવું કહે છે કે–પાપ વિનાના મનથી પાપ વિનાના વચનથી પાપ વિનાના શરીરથી હિંસા ન કરનારાઓને પાપ રહિત મનવાળાને, વિચાર વિનાના મન વચન કાય અને વાકયવાળાને તથા અસ્પષ્ટ જ્ઞાનવાળાને પણ પાપકર્મ થાય છે. એ બરોબર નથી. પ્રશ્ન કરનારાને ભાવ એ છે કે-જે સમનક છે, એટલે કે સમજી વિચારીને મન, વચન અને કાયની પ્રવૃત્તિ કરે છે, હિંસા કરે છે, તેને જ પાપકર્મને બંધ For Private And Personal Use Only Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४४४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे 'पावे कम्मे कज्ज' पाप कर्म क्रियते, 'तत्थ णं जे ते एवमाहं मिच्छाते एवमाहंसु' सत्र येते एमाडु मिथ्या ते एवमाहु:, यथोक्तमनस्कत्वादिगुणविशिष्टोऽपि शिष्टः पापं कर्म करोतीति तन्मिथदेव अयं भावः समनस्कत्वादिगुण विशिष्ट पनोवाक्कायवाक्यवत एव एवं पापकर्मबन्धो भवति न तु अमनस्कत्वादिगुणविशिष्टमक्कायवत इति अभिप्रायः प्रश्नकर्त्तुरिति । I Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शास्त्रकारः समाधत्ते - तत्थ पन्नत्रए चोयगं एवं वयासी' तत्र - समुत्थितवादे प्रज्ञापकः तीर्थ कृतानभिप्रायवेता नोदकं - प्रश्नकर्त्तारं लक्षी कृत्येवं वक्ष्यमाणं वचोऽMarata | अवादीदित्यत्र भूतकाळप्रयोगेण प्रज्ञापयति उत्तरवाक्यप्रतिपाद्यस्याऽनादित्वम् । पूर्वकाले हि एवं निर्णयोऽकारि तीर्थकृतेवि, 'तं सम्मं जे मए पुत्रं युतं' तत् सम्यग् यन्मया पूर्वमुक्तम् । किमुक्तं पूर्वं तदेव दर्शयति- 'असंतपणं मणेणं का बन्ध होता है । जो इससे विपरीत है अर्थात् अमनस्क है तथा समझ बूझ कर पाप में मन वचन काय की प्रवृत्ति नहीं करता, वह पापकर्म का बन्ध नहीं करता है। अब शास्त्रकार उसका समाधान करते हैं । इस प्रकार विवाद उपस्थित होने पर तीर्थंकर के अभिनय के ज्ञाता आचार्य ने प्रश्नकर्त्ता को लक्ष्य करके निम्नोक्त प्रकार से उत्तर दिया। यहां 'अवादीत् ' अर्थात् उत्तर दिया, इस भूतकालीन क्रिया के प्रयोग से यह सूचित किया गया है कि उत्तर रूप वाक्य के द्वारा प्रतिपाद्य अर्थ अनादि है । तीर्थकर ने पूर्वकाल में ऐसा ही निर्णय किया था । आचार्य कहते है- मैंने पहले जो कहा है वह सम्यक है। पहले क्या कहा है, वह दिखलाते हैं-पापयुक्त मन न होने पर पापयुक्त થાય છે. આનાથી જેએ ઉલ્ટા છે. અર્થાત્ અમનસ્ક છે, તથા સમજી વિચારીતે પાપમાં મન, વચન અને કાયની પ્રવૃત્તિ કરતા નથી. તે પાપકમના અધ કરતા નથી. હવે શાસ્ત્રકાર તેનુ સમાધાન કરે છે.—આવી રીતે વિવાદ ઉપસ્થિત થાય ત્યારે તી કરના અભિપ્રાયને જાણવાવાળા આચાર્યે પ્રશ્ન કરવાવાળાને उद्देशाने हुवे पछी उडेवामां भावनारी उत्तर मध्ये मडियां 'अवादीत् ' અર્થાત્ ઉત્તર આપ્યા. આ ભૂતકાળ સંબધી ક્રિયાના પ્રયાગથી એ સૂચવેલ છે કે–ઉત્તર રૂપ વાકય દ્વારા પ્રતિપાદન કરવામાં આવેલ અર્થ અનાક્રિ છે. તીર્થંકર ભગવાને પૂર્વકાળમાં એજ પ્રમાણેના નિશુય કરેલ છે. આચાય કહે છે. -મે પહેલાં જે કહેલ છે. તે ખરાખર છે. પહેલાં શુ કહેલ છે ? તે હવે બતાવે છે.—પાપમુક્ત મન ન હોવાથી તથા પાપ યુક્ત For Private And Personal Use Only Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ४ प्रत्याख्यानक्रियोपदेशः पावएणं' असता मनप्ता पापकेन-पापरहितेनाऽपि मनसा पापं भातीति, 'असं. तियाए वईए पावियाए' असल्या वाचा पापिकया 'असंतएणं कारणं पावएणं' असता कायेन पापके न 'अणंतस्म' अध्नतो हिं पामकुर्वतः 'अणक वस्त' अमनस्कस्य 'अवियारमणश्यण काय वास्म' अविचारमनोवचनकायवाक्यस्थः 'मुवि. णमवि आस्सो ' स्वप्नमपि अपश्यत:-अव्यक्तविज्ञानवतः 'पावे कम्मे कन्नई पापं कर्म क्रियते-हे नोदक विचाररहित ! यन्मया पतिज्ञातं यत्-ययोक्तगुणविशिटानां पाप कर्म भातीति-तत्सर्वमपि सत्यमेव नाऽपत्यम् -अपता मनमा असता. वचनेन असता कायेनाऽपि अविचारमनोवाकायव्यापारेगापि पापं भाल्येवेत्य. भिपायः, । पुनः नोदकः पृच्छति-'तं सम्मं कस्स णं तं हेऊ' तत्समीचीनं पाप भात्ये वेति कस्य हेतोः । भवदु सम्यगेव तत्र को हेतुरित्यर्थः, आचार्यः सुधर्म स्वामी आह-तत्थ खलु भगवया छ नीव णि कायहेऊ पपत्ता' तत्र खलु भगरता षड़नीवनिकायहेतवः प्रज्ञा:-कथिताः षट्पकारा जीवाः कर्मबन्धनहेत वो भवः वचन और काय न होने पर प्राणी का घात न करने वाले, अमनस्क (मन से रहित) मन वचन और काय संबंधी विचार से रहित, और अस्पष्ट ज्ञान वाले जीव को भी पापकर्म होता है । आशय यह है कि-हे प्रश्नकर्ता ! मैंने पहले जो कहा है कि पूर्वोक्त प्रकार के जीवों को भी कर्मबन्ध होता है सो सत्य ही है, असत्य नहीं अर्थात् पापमय मन वचन और कोय न होने पर भी एवं मनवचन काय संबंधी विचार न होने पर भी पाप होता है। प्रश्नकर्ता पुनः प्रश्न करता है-आपने जो कहा है, उसमें हेतु क्या है? आचार्य कहते हैं-भगवान ने छह जीवनिकायों को कर्मबन्धका कारण कहा है। वे जीवनिकाय इस प्रकार हैं-पृथ्वीकाय से लेकर उसकाय વચન અને કાય ન હોવાથી પ્રાણીને ઘાત ન કરવાવાળા, અમનસ્ક, (મન વિનાના) મન, વચન, અને કાય સંબંધી વિચાર વિનાના અને અસ્પષ્ટ જ્ઞાનવાળા, જીવને પણ પાપકર્મ હોય છે કહેવાને આશય એ છે કે હું પ્રશ્ન કરવાવાળા ! મેં પહેલાં જે કહેલ છે, કે-પૂર્વોક્ત પ્રકારના જીને પણ કમબંધ થાય છે, તે સત્ય જ છે. અસત્ય નથી. અર્થાત્ પાપમય મન, વચન અને કાય ન હોવા છતાં પણ અને મન, વચન તથા કોય સંબંધી વિચાર ન હોવા છતાં પણ પાપ થાય છે. પ્રશ્ન કરનાર ફરીથી પ્રશ્ન કરે છે કે- આપે २ यु छ, तमां तु शुठे? આચાર્ય કહે છે કે ભગવાને છ જવનિકાને કમબંધનું કારણ કહેલ છે. તે જીવનિકા-પૃથ્વીકાયથી લઈને ત્રસકાય સુધીની છે. આ છે For Private And Personal Use Only Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir न्तीति तीर्थकृद्भिरादिष्टम् । तत्र के जीवा कर्मबन्धन हेतवातवाह-'तं जहा' तयया -'पुढवीकाइया जान तमकाइया' पृथिवी कायादारभ्य सकायपर्यन्ताः । 'इच्चे. एहि छहिं जीवणिकाएहि' इत्येतेः षड्मिनी निकायैः 'आया' आत्मा 'अप्पडि. हयअपच्चक्खायपावकम्मा' अप्रतिहताऽपत्याख्यातपापकर्मा-न प्रतिहतं-वर्तमान काले स्थित्यनुभागहासेन न नाशितं तथा न प्रत्याख्यातं पूर्वक तातिवारनिन्दया भविष्यत्यकरणेन न निराकृतं पापकर्म -पापाऽनुष्ठानं येन सोऽतिहताऽपर - ख्यातपापकर्मा, यः पुरुष एषां जीवानां हिमया समुत्पन्नपापस्य तपःप्रभृतिभिः सत्कर्मभिर्विशं न करोति तथा-अनागतपापाना प्रत्याख्यानं वा न करोति, किन्तु-'णिच्चं नित्यम् 'पसढविउवायचित्तदंडे' प्रशठव्यतिपातचित्तदण्डः-सर्वदैव माणिनां निष्ठुरदण्डदाने संलग्नचित्तः, सदा दण्डं प्रयच्छति 'तं जहा' तद्यथा'पाणाइवाए जा परिग्गहे कोहे जाव मिच्छादसणसल्ले' पाणातिपाते यावत् परिग्रहे क्रोधे यावद् मिथ्यादर्शनशल्ये-माणातिशतादारभ्य परिग्रहान्ते पाप कर्मणि, एवं क्रोधादारभ्य मिथ्यादर्शनान्ते शल्यकर्मणि अनिवृत्तो भवतीति प्रत्यक्ष पर्यन्त । इन छह जीवनिकाय के जीवों की हिंसा से उत्पन्न होने वाले पाप को जिस प्राणी ने प्रतिहत नहीं किया है अर्थात् वर्तमानकाल में स्थिति एवं अनुभाग का हाप्त करके नष्ट नहीं किया है और प्रत्याख्यात नहीं किया है अर्थात् पूर्वकृत पाप की निन्दा करके एवं भविष्य में पुनःन करने का संकल्प न करके हटाया नहीं है-इन जीवों की हिंसा से उत्पन्न होने वाले पाप को तपस्या आदि के द्वारा नष्ट नहीं किया है और आगामी काल संबंधी पापों का प्रत्याख्यान नहीं किया है, किन्तु जो सदैव निष्ठुर. चित्त होकर प्राणियों को दंडदेने में लगा रहता है, जो प्रागातिपात से लेकर परिग्रह तक के और क्रोध से लेकर मिपादर्शन शल्य तक के જવનિકાયના જીવોની હિંસાથી ઉત્પન્ન થવાવાળા પાપને જે પ્રણિયે કિયા નથી, અર્થાત વર્તમાનકાળમાં સ્થિતિ અને અનુભાગને હાસ કરીને નાશ કરેલ નથી, તથા પ્રત્યાખ્યાન કરેલ નથી. અર્થાત પહેલાં કરેલા પાપની નિંદા કરીને તથા ભવિષ્યમાં ફરીથી તેવા પાપ ન કરવાને સંકલ્પ ન કરીને પાપને તપસ્યા વિગેરે દ્વારા હટાવ્યા નથી, તથા ભવિષ્યકાળ સંબંધી પાપનું પ્રત્યા. ખ્યાન કર્યું નથી, પરંતુ જે હમેશાં કઠેર ચિત્તવાળા થઈને પ્રાણિયને મારવામાં લાગ્યા રહે છે. જે પ્રાણાતિપાતથી લઈને પરિગ્રહ સુધીના ક્રોધથી લઇને મિથ્યા દર્શન શલ્ય સુધીના પાપથી નિવૃત્ત થતા નથી. તેને જરૂર For Private And Personal Use Only Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका वि. अ. अ.४ प्रत्याख्यानक्रियोपदेशः सिद्धमेवेदं सत्यं नाऽस्माभिरसत्यभाषणं क्रियते-इति सिद्धान्तिनां सिद्धान्तः। ततः परमाचा? वक्ति-भो भो:-अत्र विषये भगवता तीर्थकरेण वधकष्टार न्तोऽपि दर्शितः, इत्येतदर्थ पतिपादयति, सुधर्मस्वामी माह-'तत्थ खलु भगवया तत्र खलु-शि वाक्यालङ्कारे भगवता 'वहए दिलुते पणते वकष्टान्ता पाम:-कथितः 'से जहाणामए वहए सिया' तथानाम वा स्यात् 'गाहाव. इस वा' गाथापते वा 'गाहपुसस्स वा' गाथापतिपुत्रस्य वा 'रण्यो वा' राशो का 'रायपुरिसस्त वा' राजपुरुषस्य वा 'खगं' भणम्-समयमासरं वा 'लर्ण' लब्ध्वा-माप्य 'पविस्सामि' प्रवेश्यामि-प्रवेशं करिष्यामि खणं लदधृणं वहिस्सामि' क्षणं लब्ध्वा वषिष्यामि, 'संपहारेमाणे' सम्पधारयन-तवि. षयकंविचार मनसि कुर्वन् ‘से कि नुहुनाम से वहर' स किं नु नाम वधकः, 'से' तस्य चिन्ताविषयस्य 'गाहाचहस्स' गाथापतेः 'गाहावइपुत्तरस वा गाथापतिपुत्रस्य वा 'रणो वा' राज्ञो वा 'रायपुरिसस्स वा राजपुरुषस्य वा 'खणं लद्धण' क्षण छब्ध्वा 'पविस्तामि' प्रवेक्ष्यामि 'खणं लधुगं वहिस्सामि' क्षणं लब्ध्या वधिष्यामि । 'संपहारे माणे' संप्रधारयन्-विनिश्चिन्छन् 'दिया वा रायो वा मुत्ते वा पापों से निवृत्त नहीं होता है, उसे अवश्य ही पापकर्म का बन्ध होता है। यह सत्य प्रत्यक्षसिद्ध है । अतएव हमारा कथन असत्य नहीं है। यही सिद्धान्तवेत्ताओं का सिद्धान्त है। ___ आचार्य श्री पुनः कहते हैं-इस विषय में तीर्थंकर भगवान ने वधक का दृष्टान्न कहा है, वह इस प्रकार है-कोई वधक किसी गाथापति का, गाथापति के पुत्र का, राजा का अथवा राजपुरुष का वध करना चाहता है और विचार करता है कि मौका पाकर मैं इसके घर में प्रवेश करूंगा, मौका पाकर इसका बध करूंगा, इस प्रकार मन में विचार करता हुआ वह पुरुष गाथापति, गाथापति पुत्र, राजा अथवा राज. પાપકર્મને બંધ થાય છે. આ સત્ય પ્રત્યક્ષ સિદ્ધ છે. તેથી જ અમારૂં કથન અસત્ય નથી. આજ સિદ્ધાન્તને જાણનારાઓને સિદ્ધાંત છે. આચાર્ય શ્રી ફરીથી કહે છે– આ વિષયમાં તીર્થકર ભગવાને વધકનું દુષ્ટાન્ત કહેલ છે. તે આ પ્રમાણે છે કે ઈ હિંસક પુરૂષ કેઈ ગાથાપતિને કે ગાથા પતિના પુત્રને, ૨ જાને અથવા રાજપુરૂનો વધ કરવાની ઈચ્છા કરે છે, અને તે વિચાર કરે છે કે-લગ જોઈને હું આના ઘરમાં પ્રવેશ કરીશ અને લાગ જોઈને આને વધ કરીશ. આ પ્રમાણે મનમાં વિચાર કરતે થકે તે પુરૂષ ગાથા પતિ, ગાથા પતિ પુત્ર, રાજા અથવા રાજપુરૂષના ઘરમાં અવસર For Private And Personal Use Only Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतास्त्र - - जागरमाणे वा अमिन भूए मिन्छा ठिप' दिवा वा रात्रौ वा सुपो वा जाग्रद् वा अमित्रभूतो मिश्यासंस्थि:-प्रमदाविरतिकषाययुक्तः सन्, 'णिचं' निस्यम्प्रतिदिनम् 'पदविउ गयचित्तदंडे मवई' प्रगतिपातचित्तदण्डो भवति, मक. पंग शठः प्रशठः तथा-पतिपाते-प्राणातिपाते चित्तं-मनो यस्य स व्यतिपात. चिनः स्वपरदण्ड हेतुत्वाद् दण्डः प्रशचासौ व्यतिपातचित्त दण्डश्चेति प्रशठव्यतिपातचित्तदण्डः । एवं प्रतिदिनमनुचिन्तयन् स वधः तस्य गृहपते मित्रं अजुर्वेति विचारय-ति सुधर्मस्वामी नोदकं प्रति कथयति-सुधर्मस्वामिन स्तादशरष्टान्तशब्दश्रणान्तरं स विचार्य निश्चित्य च वदति, यदयं स वधक स्तस्य हन मामिलाषी शत्रुरेव भवितुमर्हति । यद्यपि क्षणाऽभावान्न मारयति-नयातद्वधचिन्तनात् स शत्रुरेव न मित्रमिति स नोदकः स्वीचकार । 'एवं वियागरेमाणे समियाए वियागरे चोयए हता भाइ' एवं व्यागीर्यमाण:-बोध्यमानः अनेन प्रकारेण आचार्येण प्रबोध्यमानः समेत्य-समभावं प्राप्य व्यागृगान्-अवगतार्थत्वात् स्वीकारोति हन्त ? भवति-हे भगवन् ? स घातक एव स वधको न तु तस्य रक्षक इति । पुरुषके घरमें प्रवेशकरने के लिये विचारता है एवं दिन, रात, सोते और जागते सदैव उनका अमित्र और उनके प्रतिकूल रहता है, वह उनका हिंसक कहा जा सकता है या नहीं ? तात्पर्य यह है कि जो पुरुष दिन रात सोते जागते गाथापति आदि का घात में तत्पर रहता है, भले ही वह घात नहीं कर पाया है, उसे हिंसक कहना चाहिए या नहीं ? आचार्य श्री के दृष्टान्त को श्रवण करके और वस्तुस्वरूप का निश्चय करके प्रश्नकर्ता कहता है-हाँ, ऐसा पुरुष उसका घातक ही है, शत्रु ही है। यद्यपि अवसर न मिलने के कारण वह घात करता नहीं है, फिर भी निरन्तर उनके घातका विचार करते रहने से वह उनका घातक ही है, मित्र नहीं है। મેળવીને પ્રવેશ કરવા માટે વિચારે છે. અને રાત દિવસ, સૂતાં અને જાગતાં હંમેશાં તેને દુશ્મન બનીને તેનાથી પ્રતિકૂળ રહે છે. તે તેને હિંસક કહેવાય છે કે નહીં? તાત્પર્ય એ છે કે-જે પુરૂષ રાતદિવસ સૂતાં અને જાતાં ગાથાપતિ વિગેરેના ઘાતમાં તત્પર રહે છે, ભલે પછી તે ઘાત કરી ન શકે. હોય, તે પણ તેને હિંસક કહેવાય કે નહીં? આચાર્ય દષ્ટાન્તને સંભળાવીને અને વરત સ્વરૂપને નિશ્ચય કરીને પ્રશ્ન કરનારને કહે છે કે-હા એ પુરૂષ તેને ઘાતક જ છે. શત્રુ જ છે. જો કે લાગ ન મળવાથી તે ઘાત કરી શક્યા નથી, તે પણ હંમેશા તેના ઘાતને વિચાર કરતા રહેવાથી તે તેને ઘાતક જ છે. મિત્ર નહી! For Private And Personal Use Only Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. म.४ प्रत्याख्यानक्रियोपदेशः .. सुधर्मस्वामी प्राह-'जहा से वहए तस्स गाहावइस्स वा तस्स गाहावइपुत्त. स्स वा' यथा स वधक रतस्य, गाथापते वा तस्य गाथापतिपुत्रस्य वा 'रष्णों वा' रामो वा रायपुरिसस्स वा' राजपुरुषस्य वा 'खणं लद्धृर्ण' क्षण लब्ध्वा 'पविस्सामि' मवेक्ष्यामि खणं लघृणं वहिस्सामि त्ति संपहारेमाणे' क्षण बच्चा वधिण्यामीति संप्रधारयन-इत्येवं हृदि निर्णयन् 'दिया वा राओ वा दिवा वा रात्रौ वा 'सुत्तो वा जागरमाणे वा' सुप्तो वा जाग्रद्वा 'अमित्तभूए वा' अमित्रभूतः-शत्रुभावमुपगतो वा 'मिच्छासंठिए' मिथ्यासंस्थितः "णिच्चं पसढविउवायचित्तदंडे' नित्यं "प्रशठव्यतिपातचित्तदण्ड:-प्रकर्षेण शठः प्रशठा व्यतिपाते चित्तं मनो यस्य स व्यतिपातचित्तः स्वपरदण्ड हेतुत्वाईण्डः प्रशठश्चासौ व्यतिपातचित्तदण्डश्चेति प्रशठव्यतिपातचित्तंदण्डः । एवमेव बाले वि सम्वेसि पाणाणं जाव सध्वेसि सत्ताणं' एवमेव बालोऽज्ञानी प्राणी अपि सर्वेषां प्राणिनां यावत् सर्वेषां सत्त्वानाम् 'दिया वा राओवा' दिवा वा रात्रौ वा 'मुत्ते वा जागरमाणे वा' सुप्तो वा जाग्रता 'अमित्तभूए वि' अमित्रभूतोऽपि 'मिच्छासंठिए' मिथ्यासंस्थितः-असत्य बुद्धियुक्तः 'णिच्चं पसढविउवायचित्तदंडे' नित्यं प्रशठव्यतिपातचित्तदण्डः 'तं जहा' तद्यथा 'पाणाइवाए जाब मिश्छादसणसल्ले' प्राणातिपाते यावन्मिथ्यादर्शनशल्ये, व्यव प्रश्नकर्ता द्वारा यह स्वीकार करने पर आचार्य कहते हैं जैसे बंधक सोचता है कि मैं गाथापति, गाथापति पुत्र, राजा या राजपुरुष के घर में अवसर पाकर प्रवेश करूंगा और अवसर पाकर उनका घात करूंगा, ऐसा मन में निश्चय करता हुआ वह दिन, रात, सोते और जागते उनका शत्रु बना रहता है, उनकी हिंसा में संलग्न चित्त रहता है, अतएव वधक ही है, इसी प्रकार अज्ञानी प्राणी भी सभी प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्वों का दिनरात सोते और जागते अमित्र-शत्रु ही बना रहता है, वह असत्य बुद्धि से युक्त है, उनके प्रति शठनापूर्ण हिंसा का भाव रखता है। वह प्राणातिपात यावत् मियादर्शनशल्य में स्थित है, इसी પ્રશ્ન કરનાર દ્વારા આ પ્રમાણે સ્વીકાર કરી લેવાથી આચાર્ય કહે છે કે જેમ હિંસક વિચાર કરે છે કે-હું ગાથા પતિ, ગાથા પતિને પુત્ર રાજા અથવા રાજપુરૂષના ઘરમાં અવસર મળતાં પ્રવેશ કરીશ અને લાગ જોઈને તેને વધ કરીશ. આ પ્રમાણે મનમાં નિશ્ચય કરતે થકે તે રાત દિવસ સૂતાં અને જાગતાં તેને શત્રુ બની રહે છે. અને તેની હિંસા માટે સંલગ્નચિત્ત રહે છે. તેથી તે તેને વધક જ છે. એ જ પ્રમાણે અજ્ઞાની પ્રાણું પણ અઘળા પ્રાણી, ભૂતે જ સોના રાતદિવસ અમિત્ર શત્રુ જ બન્યા રહે છે. તે અસત્ય બુદ્ધિથી For Private And Personal Use Only Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - स्थित इति शेषः । एवं खख भगक्या अक्खाए' एवम्-अतएव कारणाद् भगवता तीर्थकरेण एतादयो बाला पुरुष आरूयात:-कविता, असंयतादिबैगुण्यविशिष. सपा-'असंजए' असंयत:-वर्तमानकालिकसाव चाऽनुष्ठानसहितः आख्यात इति जिया सर्व प्रथमान्तेन योजमीया। 'अविरए अविरता-पिरतिमावजितः 'का. बिस्वभरवसायपारकामे अप्रतिदताऽपत्याख्यापापकर्मा न पतितं वर्तमान काले विपनुभागहासेन न नाधितं तथा न पत्यासात तातियार निया भविम्बसारणेन न निराहतं पापं कर्म-पानुष्ठानं येन स तयापापविमान बिना पापवियोधनम् अनागतपापस्य मत्याख्यानेन संवरण न कृतं येन समास इति भावः। 'सकिरिए' सक्रिया-सारयक्रियायुक्तः 'असंवुडे' असंतः-संबरपाय. सीता एगंतदंडे' एकान्तदण्डः-जीवेषु सर्वदेव प्राणातिपातादिक्रियायुक्त 'एगतपाडे' एकान्तबाला-अत्यन्ताऽज्ञानी 'एगंतसुत्ते' एकान्तसुप्त:-मिशभावमुपगतः 'यावि भवई' चापि भवति । यथा सुप्तो न कमपि शुभं व्यापारयनि, तथाऽयमपि बाला शुभक्रियासु सुप्त इस सुप्त इति कथ्यते, 'अवियारमणवयणकायवके' अवि. मारण भगवान् तीर्थकर ने कहा है कि ऐसा बाल अर्थात् अज्ञानी पुरुष असंयत है अर्थात् वर्तमानकालीन पाप के अनुष्ठान से युक्त है, अविरत है अर्थात् विरति के भाव से रहित है, उसने अपने पापों को प्रतिहत और प्रत्याख्यात नहीं किया है, अर्थात् भूतकालीन पापों को प्रायश्चित्त के द्वारा नष्ट नहीं किया है और भविष्यकालीन पापों का प्रत्यारूपान नहीं किया है वह सारध क्रिया से युक्त है, संघरभारले रहित है, और एकान्तदंड है अर्थात् निरन्तर हिंसादि कृत्यों से मुक्त है। वह एकान्त अज्ञानी, एकान्तसुप्त अर्थात् मिथ्याभाव को प्राप्त होता है। जैसे सोया पुरुष कोई शुभव्यापार नहीं करता, उसी प्रकार यह અત્ત છે. તેના પ્રત્યે શઠતાથી યુક્ત હિંસાને ભાવ રાખે છે, તે પ્રાણાતિપાત યાવત મિથ્યાદર્શન શ૯માં સ્થિત રહે છે. એજ કારણે ભગવાન તીર્થકરે કહ્યું છે કેએવા બાલ અર્થાત્ અજ્ઞાની પુરૂષ અસંમત છે અર્થાત વર્તમાનકાળ સંધી પાપના અનુષ્ઠાનથી યુક્ત છે, અવિરત છે. અર્થાત્ વિરતિ ભાવથી રહિત છે. તેણે પોતાના પાપને પ્રતિહત અને પ્રત્યાખ્યાત કર્યા નથી. અથત ભૂતકાળના પાપને પ્રાયશ્ચિત્ત દ્વારા નાશ કરેલ નથી. અને ભવિષ્યકાળ સંબંધી પાપન પ્રત્યાખ્યાન કરેલ નથી તે સાવદ્ય કિયાથી યુક્ત છે, સંવર ભાવ વિનાના છે. અને એકાન્ત દંડ છે, અર્થાત્ હમેશાં હિંસા વિગેરે કૃત્યોથી યુક્ત રહે છે. તે એકાત અજ્ઞાની એકાત સુપ્ત અર્થાત્ મિથ્યાભાવને પ્રાપ્ત २५ सूतका ५३५ शुभ व्यापार र नयी, मे ये For Private And Personal Use Only Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समवाबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ४ प्रत्याख्यानक्रियोपदेशः पारममोवचनकायवाक्पः-स बाला विचाररहितमनोवचनादियुक्तः 'मुविणमविण पस्सह पावे य से कम्मे कज्जई स्वप्नमपि न पश्यति-स्वप्नेऽपि धर्म न जानाति, अथ तस्य पाप कर्म क्रियते-पापकर्मबन्धो भवति, 'जहा से वहए' यथा स वधकः 'तस्स वा गाहावइस्स जाव तस्स वा रायपुरिसस्स पतेयं पत्तेयं तस्य का माथापते यौवत्तस्य राजपुरुषस्य वा प्रत्येक प्रत्येकम्-एकैकम्, अब यावत्पदेन गाथापतिपुत्रस्य राजश्व ग्रहण भवति, 'चित्तसमादाय दिया वा रामो वा सुते वा जागर माणे वा' चित्तसमादाय-बधेषु स्वकीयां घातमनोवृत्तिमाय दिवा वा रात्रौ वा सुप्तो वा आश्रद्वा, 'अमित्तभूर' अमित्रभृतः-शत्रुमावमुपपन्नः, 'मिच्छासंठिए' मिया संस्थिता-असत्यधुद्धियुक्ता, 'णिचं' नित्यम् 'पसहविउवायचित्तदंडे भवई' प्रशठध्यतिपातचित्तदण्डो भवति-प्रकर्षेण शठः प्रशठः व्यतिपाते-प्राणातिपाते चित्रंमनो यस्य स तथाभूत-धूर्ततायुरूपनोवृत्तिमान 'एवमेव बाले' एवमेव बालो यथा वधको न निवृत्त पापकर्मा-तथा बालोऽपि न निवृत्तपापकर्मा 'सम्वेसि पाणाणं' सर्वेषां पाणिनाम् 'जाव सम्धेसि सताणं' यावत् सर्वेषां सतानाम् अत्र यावत्पदेन सर्वेषां भूतानां सर्वेषां जीवानां सर्वेषां सत्चानाम् इत्येषां पदानां प्रहगं भवति 'पत्तेयं अज्ञानी जीव भी शुभ क्रियाओं में प्रवृत्ति नहीं करता, अत एव सुप्त के समान है। वह विचार रहित मन वचन काय एवं वाक्य वाला है। धर्म करने का स्वप्न भी नहीं देखता है। उसे पापकर्म का बन्ध होता है। जैसे वह घातक गाधापति, गावापतिपुत्र, राजा या रानपुरुष के पात में चित्त लगाये रहता है और दिन, रात, सोते जागते उनके प्रति शत्रुता रखता है, उनको धोखा देता है और अस्यन्त प्रत्तता के साथ उनके घात का विचार करता रहता है, उसी प्रकार पापकर्म से विरत न होने वाला बाल जीव भी पापों से निवृत्त नहीं होता। वह આ સાલી જીવ પણ શુભ ક્રિયાઓમાં પ્રવૃત્તિ કરતા નથી. એથી જ સુતેશાની જેમ જ છે. તે વિચાર વિનાના મન વચન, અને કાયવાળા છે. તેઓ યમ કરવાનું સ્વમ પણ દેખતા નથી. તેને પાવને બંધ થાય છે. જેમ તે ઘાતક ગાથાપતિ, ગાાતિ યુગ, રાજા ભથવા રાજાને બત કરવામાં ચિત્ત પરોવી આપે છે, અને શત દિવસ સૂતાં કે બગલ તેની પ્રત્યે શત્રુપણું રાખે છે, તેને દોરે છે, અને અત્યંત સૂર્તપણાની કે તેના જાને વિચાર કરે છે, એ જ પ્રમાણે પાપકર્મથી નિવૃત્ત ન થનાર હાલઅજ્ઞાની છવ પણ પાપથી નિવૃત્ત થતા નથી તે પ્રાણી, જવ જીવ For Private And Personal Use Only Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतो पत्तेयं' प्रत्येकं प्रत्येकम् एकैकम् 'वित्तसमादाय' चित्तं समादाय वध्येषु घातकमनोवृत्तिमादाय 'दिवा वा राओ वा' दिवा वा रात्रौ वा 'सुते वा जागरमाणे वा' सुप्तो वा जाग्रद्वा 'अमित्तभूए' अमित्रभूतः 'मिच्छासं ठए' मिथ्यासंस्थितः 'णिच्चं ' नित्यम् ' पसढविश्वायचित्तदंडे' प्रशठव्यतिपात चित्तदण्डः 'भव' भवति, यथावधकस्य समयाद्यभावेन वध्यस्य मारणाऽसम्भवेऽपि तद्विषयकाऽनिष्ट चिन्तनरूपाSataध्यानाद हिंसकत्वं नातिवर्तते । तथा-संयमविरत्याद्यमावतोऽज्ञानिनोजीवसघातस्य साक्षात्पाणातिपाताऽभावेऽपि चिन्वाद्वारा हिंसकरवं नाऽपैति । अतो यदुक्तम्- अज्ञानिनां हिंसकत्वं भवत्येव तत्सम्यगेव व्यवस्थितमिति | सू० २।६४ | प्रत्येक प्राणी, भून, जीव और सत्व के प्रति घातक मनोवृत्ति धारण करके दिन और रात, सोता हुआ और जागता हुआ उनका शत्रु बना रहता है, प्रतिकूल व्यवहार करता है और अत्यन्त शठतापूर्वक उनकी हिंसा की बात ही सोचता रहता है। तात्पर्य यह है कि जैसे उक्त घानक पुरुष को घात करने का अव सर नहीं मिलता और इस कारण वह घात नहीं कर पाता, फिर भी घात की बात ही सोचते रहने से अपने अप्रशस्त चिन्तन के कारण वह हिंसक ही कहलाता है, उसी प्रकार संयम एवं विरति आदि से रहित अज्ञानी जीव जीवनिकायों की साक्षात् हिंसा नहीं करता, फिर भी हिंसा का चिन्तन करते रहने के कारण हिंसक ही है। अतएव अज्ञानी जीव हिंसक होते ही हैं, यह कथन समीचीन ही हैं ॥२॥ અને સવપ્રત્યે ઘાતકમનેવૃત્તિ ધારણ કરીને શત દિવસ સૂતા થકા અથવા જાગતા થકે તેના શત્રુ ખને છે. અને પ્રતિકૂળ-ઉલ્ટો વ્યવહાર કરે છે. અને અત્યંત શઢ પણાથી તેની હિંસાની વાતના જ વિચાર કરે છે. તાપ એ છે કે—જેમ તે ઘાતક પુરૂષને ઘાત કરવાને મે મળતા નથી, અને તે કારણથી તે ઘાત કરી શકતા નથી, તેા પણ ઘાત કરવાના જ વિચાર કરતા રહેવાથી પાતાના અપ્રશસ્ત ચિંતનના કારણે તે હિંસક જ કહેવાય છે. એજ પ્રમાણે સંયમ અને વિરતિ વિગેરે વિનાના અજ્ઞાની જીવ જીવનિકાયાની સાક્ષાત્ હિઁંસા કરતા નથી. તે પણ હિંસાનું ચિંતન કરતા રહેવાથી હિંસક જ ગણાય છે. તેથી જ અજ્ઞાની જીવ હિંસક જ હાય છે. એજ કથન ચેાન્ય છે. ાસૂ॰ રા For Private And Personal Use Only Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. म. प्रत्याख्यानकियोपदेशः मूळम्-जो इणट्रे समहे इह खलु बहवे पाणा भूया जीवा सत्ता संति जे इमेणं सरीरसमुस्सएण णो दिटावा णो सुया वा नाभिमया वा नो विन्नाया वा जेसिं णो पत्तेयं पत्तेयं चित्तसमायाए दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिए णिचं पसढवि उवायचित्तदंडे तं जहा पाणाइवाए जाव मिच्छादसणसल्ले॥सू०३॥६५॥ ... छाया--नायमर्थः समर्थः इह खल बहवः प्राणाः भूताः जीवाः सत्वाः सन्ति, ये अनेन शरीरसमुच्छ्रयेग न हष्टा वा न श्रुता वा नाभिमता वा न विज्ञाता वा येषां नो प्रत्येकं वित्तं समादाय दिवा वा रात्रौ वा सुप्तो वा जाग्रता अमित्रभूता मिथ्यासंस्थितः नित्यं प्रशठव्यतिपातचित्त दण्डः तद्यथा माणातिपाते यावद् मिथ्यादर्शनशल्ये ।।सू. ३॥६५॥ टीका-पुनरप्याह नोदका ‘णो इगट्टे समहे' नायमर्यः समर्थः-यदुक्तं भगरता सर्वे जीवाः सर्वेषां हिंसका स्तन युक्त तत्राह-कथनायमों युक्तस्तत्राह-'इह खलु बहवे पाणा भूया जीवा सता संति' इह संसारे खलु-निश्चयेन बहवः पाणाः भूताः जीवाः सर्वे सचाः साः स्थावरमूक्ष्मवादरभेदभिन्नाः सन्ति । 'जे इमेगं सरीरसमुस्सएणं' येऽनेन शरीरसमुच्छ्र पेण-शरीपरिचयेन 'गो दिट्ठा वा नो सुशा वा नाभिमया वा नो विनाया वा' अस्माभिः न दृष्टा वा न श्रुता वा धणेन्द्रियेण, ____णो इणद्वे सम?' इत्यादि। टीकार्थ-प्रश्न कर्ता पुनः कहता है-यह अर्थ समर्थ नहीं है, अर्थात् आपने जो कहा है कि अज्ञान और अविरत जीव सब प्राणियों के हिंसक हैं, यह कथन ठीक नहीं है। इस संसार में बहुत से ऐसे स और स्थावर तथा सूक्ष्म और बादर प्राणी हैं जिनके शरीर का परिमाण इतना छोटा होता है कि वह न कभी देखा जाता है और न - ‘णो इणटे समढे त्यात ટીકાથ–પ્રશ્ન કરનાર ફરી થી કહે છે. આ કથન બરાબર નથી. અર્થાત્ આપે જે કહ્યું છે, કે–અજ્ઞાની અને અવિરત જીર સઘળા પ્રાણિના હિંસક છે. આ કથન બરોબર નથી. આ સંસારમાં ઘણા એવા ત્રણ અને ' સ્થાવર તથા સૂક્ષ્મ અને બાદર પ્રાણી છે, કે જેને શરીરનું પ્રમાણ એટલું નાનું હોય છે કે-તે કયારેય જોઈ શકાતું નથી, તેમ સાંભળી પણ શકાતું નથી. न For Private And Personal Use Only Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मामिमता वा-विशेषतः इष्टरूपेण न स्वीकृताः, न विज्ञाता वा-इमे शत्रको मित्राणि वा इत्येव रूपेण न विज्ञाताः 'जेसि णो पत्तेयं पतेयं चित्तसमायाए' येषां नो प्रत्येकं प्रत्येक चित्तं समादाय-न वध्येषु घातकमनोवृत्तिमादाय दिया वा राओं वा' दिवा वा रात्रौ वा 'सुते वा जांगरमाणे वा' सुमो वा जाग्रता 'अमित्त पूर' अमित्रभूतो "मिच्छासठि' मिथ्यासस्थिता-असत्यधुद्धियुक्तः 'निच्च पसढ. पिउपायचित्तदंडे' नित्यं प्रशठव्यतिपातचित्त दण्डः प्रकर्षण शठः प्रमठः व्यतिपातेमाणातिपाते चित्तं-मनोवृत्तिर्यस्य स प्रशठव्यतिपातचित्तः सपरदण्डहेतुस्वाद् दण्डः -स चासो दण्डश्चेति पशठव्यतिपातचित्तदण्डः, 'तं जहा पाणांइवाए जाव मिच्छा. दसंणतल्ले तयथा प्राणातिपाते यावद् मिध्यादर्शनशल्ये ॥सू०३-६६॥ सुना जाता है। हम यह भी नहीं जानते कि वे हमारे शत्रु हैं या मित्र हैं। अर्थात् हम उन्हें देखते भी नहीं हैं, सुनते भी नहीं हैं। ऐसे जीवों के विषय में, एक एक पाणी को लेकर घातक मनोवृत्ति धारण की जाए, दिन रात सोते और जागते उनके प्रति शत्रुना धारण की जोए, असत्य घुद्धि रक्खी जाए, अत्यन्त शठतापूर्वक उनके प्राणातिपात में मन लगाया जाए और प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शन शल्य तक पापों में प्रवृत्ति की जाए यह कैसे संभव हो सकता है। तापर्य यह है कि इस जगत् में बहुत से ऐसे सूक्ष्म जीव हैं जो हमारे देखने सुनने में भी नहीं आते। उनके प्रति हिंसा की भावना उत्पन्न नहीं होती। ऐसी स्थिति में उनकी हिंसा का पाप कैसे लग सकता है ? ॥३॥ અમે એ પણ જાણતા નથી, કે તેઓ અમાશ શત્રુ છે, કે મિત્ર છે? થત અમે જયારે તેને દેખતા પણ નથી, એવા ઝવેના સંબંધમાં એક એક પ્રાણીને લઈને ઘાતક માવૃત્તિ ધારણ કરવામાં આવે. રાત દિવસ સૂતાં કે જાગતાં તેમના પ્રત્યે શત્રુ પણું ધારણ કરવામાં આવે. અસત્ય બુદ્ધિ રાખવામાં આવે. અત્યંત શઠ૫ણ પૂર્વક તેઓના પ્રાણાતિપાતમાં મન લગાઢ શકાય, અને પ્રાણાતિપાતથી લઈને મિથ્યાદર્શન શય સુધીના પાપમાં પ્રવૃત્તિ કરવામાં આવે. આ કેવી રીતે સમાવી શકે? તાત્પર્ય એ છે કે–આ જગતમાં ઘણા એવા સક્ષમ છે છે કે જેઓ અમારા દેખવા કે સાંભળવામાં પણ આવતા નથી. તેના પ્રત્યે હિંસાની ભાવના ઉત્પન્ન થતી નથી. એવી સ્થિતિમાં તેઓની હિંસાનું પાપ કેવી शैले नामी १ ॥सू0 31 For Private And Personal Use Only Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - समायोधिती टीका वि. श्रु. अ.४ प्रत्याख्यानक्रियोपदेशः सूकम्-आयरिए आह-तत्थ खल्लु भगक्या दुवे विटुंता पष्णता, लं जहा-संनि दिटुंते य असंनि दिटुंते य, से किं तं संनि दिस॒ते । जे इमे संनिपंचिंदिया. पज्जत्तगा एएसिणं छ जीवनिकार पडुरुच तं जहा-पुढाकाय जाय तसकार्य, से एगहो पुडवीकारणं किच्चं करेइ वि कारवेइ वि, तस्स गं एवं भवाएवं खलु अहं पुढवीकारणं किञ्चं करेमि वि कारवेमि वि, जो पैर गं से एवं भवइ इमेण वा इमेण का, से एएणं पुढीकारणं किच्चं करेइ वि कारवेइ वि से गं तओ पुढवीकायाओ असंजय अविरयअप्पडिहयअपञ्चक्खायपावकम्मे यावि भवइ, एवं जाव तसकाए त्ति भाणियवं से एगइओ छ जीवनिकाएहि किच्चं करेइ वि कारवेइ वि, तस्स णं एवं भवइ-एवं खलु छ जीवनिकाएहि किच्चं करेमि वि कारवेमि वि, णो चेव णं से भवइ-इमेहि वा इमेहि वा, से य तेहिं छहिं जीवनिकाएहि जाव कारवेइ वि से य तेहिं छहिं जीवनिकाएहिं असंजय अविरय अप्पडिहय अप चक्खायपावकम्मे, तं जहा-पाणाइवाए जाव मिच्छादसणसल्ले, एस खलु भगवया अक्खाए असंजए अविरए अप्पडिहयअपच्चक्खायपावकम्मे सुविणमवि अपस्सओ पावे य से कम्मे कज्जइ से तं संनिदिटुंते । से किं तं असंनिदिटुंते ? जे इमे असन्निणो पाणा, तं जहा-पुढवीकाइया जाव वणस्सइकाहया छटा वेगइया तसा पाणा, जेसिं णो तक्काइ वा सन्नाइ का पन्नाइ वा मणाइ वा वई का सयं का करणाए अन्नेहि वा For Private And Personal Use Only Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतास्त्र कारावेत्तए करतं वा समणुजापित्तए, तेऽवि णं बाला सक्वेसि पाणाणं जाव सवेसि सत्ताणं दिया वा राओ वा सुत्ता वा जागरमाणा वा अमित्तभूया मिच्छासंठिया निरचं पसंढविङपायचित्तदंडी तं जहा-पाणाइवाए जा मिच्छादसणपल्ले इथेव जांव णी चेव मणो णों चेव वई पाणाणं जाव सत्ताणं दुखणयाए सोयणयाए जूरणयाए तिप्पणयाए पिणयाए परितप्पणयाए ते दुक्खणसोयण जाव परितप्पणवहबंधण'परिकिलेसाओ अप्पडिविरया भवंति । इइ खलु से अप्तन्नि णो 'ऽवि सत्ता अहोनिसिं पागाइवाए उवक्खाइज्जति जाव अहोनिसि परिग्गहे उवक्खाइज्जति जाव मिच्छादसणसल्ले. उवक्खाइज्जंति एवं भृयवाई' सव्वजोणिया वि खलु सत्ता सन्निणो हुच्चा असन्निणो होति असन्निणो हुच्चा सन्निणो होति, होच्चा सन्नी अदवा असन्नी, तत्थ से अविविचित्ता अविधणिता असंमच्छित्ता अणणुताबित्ता असन्नि कायाओवा सन्निकाए संकमंति सन्निकायाओ वा असन्निकायं संकमंति सन्निकायाओ वा सन्निकायं संकमंति, असन्निकायाओ वा असन्निकार्य संकमंति, जे एए सन्नी वा असन्नी वा सव्वे ते मिच्छायारा. निच्चं पसढविउवायचित्तदंडा, तं जहा-पाणाइवाए जाव मिच्छादसणसल्ले, एवं खलु भगवया अक्खाए असंजए अविरए अप्पडिहयअपच्चक्खायपावकम्मे सकिरिए असंवुडे एगंतदंडे एगंतबाले एगंतसुत्ते से बाले अवियारमणवयण कायवक्के सुविणमविण पासइ पावे य से कम्मे कजइ ।सू०४।६६। For Private And Personal Use Only Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका वि.व. अ. ४ प्रत्याख्यानक्रियोपदेशः छाया-आचार्य आह-तत्र खलु भगाता द्वौ दृष्टान्तौ प्रज्ञप्तौ तद्यथा-संजिदृष्टान्तश्चाऽसंशिष्टान्तश्च, स कः संज्ञिदृष्टान्तः। ये इमे संक्षिपश्चेन्द्रियाः पर्या. स्तकाः, एतेषां खलु षड्जीवनिकायान् प्रतीत्य, तद्यथा-पृथिवीकार्य यावत् त्रस. कायम् । स एकतयः पृथिवी कायेन कस्यं करोति अपि कारयत्यपि, तस्य खल्वे भवति । एवं खल्वहं पृथित्रीकायेन कृत्यं करोम्यपि कास्याम्यपि नो चैव खेल तस्यैवं भाति, अनेन वाऽनेन वा, स एतेन पृथिवीकायेन कृत्यं करोस्यपि-कारयत्यपि स खलु ततः पृथिवीकायादसयताऽविरताऽपतिहताऽपत्याख्यातपाप कर्मा चापि भवति । एवं यावत् त्रसकायेषपि भणितव्यम् । स एकतयः पहः जीवनिकायैः कृत्यं करोयपि कारयत्यपि तस्य खल्वेवं भाति । एवं खलु षड् जीवनिकायैः कृत्यं करोम्यपि कारयाम्यपि नो चाखल तस्यैवं भवति, एभिवाएभिवा, स च तैः षभिर्जीवनिकयैः कृत्यं करोत्यपि कारयत्यपि । स च तेभ्यः पडू जीवनिकायेभ्योऽसंयताऽविरताऽप्रतिहताऽप्रत्याख्यातपापकर्मा । तद्यथा पाणा तिपाते यावद् मथ्यादर्शनशल्ये। एष खलु भगवता आख्यातोऽसंयतोऽविरतोऽ. प्रत्याख्यातपापकर्मा स्वप्नमप्यपश्यन् पापं च कर्म स करोति तदेतत् संझिदृष्टान्तः । स. कोऽसंज्ञिदृष्टान्तः ? ये इमे असंझिनः प्राणाः तद्यथा-पृथिवीकायिका याबद्वनस्पतिकायिकाः षष्ठा एकतये त्रसाः प्राणाः । येषां नो तर्क इति वा. संज्ञा इति चा, प्रज्ञा इति वा, मन इति वा, वाग्वा, सायं वा कर्तुमन्यै वा कारयितुं कुर्वन्तं वा समनुज्ञातुम्, तेऽपि खलु बालाः । सर्वेषां प्राणानां यावत्सर्वेषां सत्यानां दिवा वा, रात्रौ वा, सुप्ता वा, जाग्रतो वा, अमित्रभूता मिथ्यासंस्थिताः, नित्यं. प्रशठव्यतिपातचित्तदण्डाः। तद्यथा-माणातिपाते यावद् मिथ्यादर्शनशल्ये । इत्येवं यावत्-नो चैव मनो नो चैव वाक् पाणानां यावत् सत्यानां दुःखनतयाशोचनतया जूरणतया-तेपनतया-पिट्टनतया-परितापनतया ते दुःखनशोचन यावत्परितापनवधबन्धनपरिक्लेशेभ्योऽपतिविरता भवन्ति । इति खलु तेऽसंज्ञि. नोऽपि सत्ताः अहर्निशं प्राणातिपाते उपाख्यायन्ते यावदहनिशं परिग्रहे-उपा ख्यायन्ते यावद् मिथपादर्शन शल्ये-उपारू गायन्ते (एवं भूतो वादी) सर्वयोनिकाः अपि खलु सत्याः संज्ञिनो भूत्वाऽसंज्ञिनो भवन्ति । असंझिनो भूत्वा संज्ञिनो भवन्ति । भूत्वा संझिनोऽथवाऽसंज्ञिनस्तत्र तेऽविविच्याऽविध्याऽसमुच्छिद्याऽननुता. प्याऽसंज्ञिकायात् वा संज्ञकायं सकामन्ति । संज्ञिकायाद्वाऽसंज्ञिकायं संक्रामन्ति । संज्ञिकायाद्वा संज्ञिकार्य संक्रामनि। असंज्ञिकायाद्वाऽसंज्ञकायं संक्रामन्ति । ये एते संझिनो वाऽसंझिनो वा, सर्वे ते मिथ्याचाराः नित्यं प्रशठव्यतिपातचित्त स० ५८ For Private And Personal Use Only Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पत्रकतामनसे दण्डाः। प्रथा-प्राणातिपाते याद् मिथ्यादर्शनशल्ये । एवं खलु भगवता आख्यातोऽसंयते ऽविरतोऽलिहताऽमत्याख्यातपापकर्मा-सक्रियोऽसंवृत एकान्त एण्ड एकातिषल एकान्तमुरतः। स बालोऽविचारमनोवचनकायवाक्य: स्वप्नमपि म.पश्यति-पापं च कर्म क्रियते ॥०४-६६॥ .. टीका-अतएव न सर्वे हिंसका स्तत्र आचार्यः माह-तस्थ' तत्र-हिंसका अहिंसकविषये खलु-इति वा वाक्ल ङ्कारे पूर्ववृत्तस्य प्रज्ञापको वा। 'भगवया' भगवता-अशेषगुणशालिना तीर्थकरेण 'दुवे दिलुता पणत्ता' द्वौ-द्विपकारको दृष्टान्तौ प्रज्ञप्तौ-प्रदर्शितो, 'तं जहां-तद्यथा 'संनिविटुंते य असंनिदिटुंते य' संझि दृष्टान्तश्चाऽसंशिष्टान्तः। संज्ञा-कायिकत्राचिकमानसिकचेष्टा सा विद्यते यस्य स संज्ञी, तस्य दृष्टान्तः संशिष्टान्तः । तद्भिन्नोऽसंजिदृष्टान्तः, 'से किं तं संनि दिटुंते' स कः संझिदृष्टान्तः 'जे इमे संनिपंचिंदिया पज्जत्तमा एएसिणं छजीव. निकाए पड्डुच्च' ये इमें सजिएचन्द्रियाः पर्याप्तका जीवाः सन्ति एतेषां मध्ये पृथिवीकायादारभ्य त्रसकायपर्य तान् पडू नीवनिकायान् प्रतीत्य-आश्रित्य षड्जीव 'तत्य खलु भगवया' इत्यादि। टीकार्थ-आचार्य श्री उत्तर देते हुए कहते हैं-इस विषय में सर्वगुणसम्पन्न भगवान् श्री तीर्थंकर देव ने दो दृष्टान्त कहे हैं। वे इस प्रकार हैं-संज्ञिदृष्टान्त और असं ज्ञ दृष्टान्त। जिन जीवों में संज्ञा अर्थात् कायिक, वाचिक और मानसिक चेष्टा पाई जाती हैं, वे संज्ञी कहलाते हैं। उसका दृष्टान्त संज्ञि दृष्टान्त कहलाता है । इससे विपरीत असंज्ञि दृष्टान्त समझना चाहिए। इनमें से संज्ञि दृष्टान्त क्या है ? यह जो संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव हैं, इनमें पृथ्वी काय से लगा कर त्रसकाय पीनन पट्र जीवनिकायों 'तत्थ खलु भावया' त्यादि ટીકાઈ–આચાર્ચશ્રી ઉત્તર આપતાં કહે છે કે આ વિષયમાં સર્વગુણ સમ્પન્ન ભગવાન શ્રી તીર્થકર દેવે બે દષ્ટાનો કહ્યા છે. તે આ પ્રમાણે છે.–સંગ્નિદષ્ણાત અને અસં િદષ્ટ ન જે જીવોમાં સંજ્ઞા અર્થાત્ કાયિક, વયિક, અને માન સિક ચેષ્ટા મેળવવામાં આવે છે. તેઓ સંસી કહેવાય છે. તેનું દૃષ્ટાન્ત સંશ દૃષ્ટાન્ત કહેવાય છે. તેનાથી વિપરીત અર્થાત્ ઉલટુ અસંજ્ઞિ દષ્ટાન્ત સમજવું. - આ પૈકી સંજ્ઞિ દષ્ટાન્ત શું છે? જે આ સરી પચેન્દ્રિય પર્યાપ્ત છે, છે, તેઓમાં પૃથ્વીકાયથી લઈને ત્રસકાય પર્યન્તના ષટૂકા માંથી કઈ કઈ For Private And Personal Use Only Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्र. अ. ४ प्रत्याख्यानक्रियोपदेशः निकायविषये इत्यर्थः 'तं जहा' तद्यथा 'पुढवीकार्य जाव तसकायं' पृथिवीकार्य यावर सकारम् , यावत्पदेन-अप्तेजोवायुपनस्पतीनां संग्रहः । 'से एगइओ पुढवी. कारणे किच्चं करेइ वि कारवेइ वि स एकतयः पृथिवी कायेन जीवेन कृत्यंस्त्रीय कार्य जातम्-आहारादिकं करोति कारयति च । 'तस्स णं एवं भवई' तस्य खलु कार्यकत्र्तः पुरुषस्य एवं भवति-स एवमेव वक्त्तुं शक्नोति 'एवं खलु अहं पुढवीकारणं किच्चं करेमि वि कारवेमि वि एवं खलु अहं पृथिवीकायेन कृत्यं कार्य करोम्यपि कारयाम्यपि अनुमोदयाम्पपि णो चेव णं से एवं भवइ इमेण वा इमेण वा' नो चैत्र खलु तस्य-कार्यकर्तः पुरुषस्यैवं भवति-तस्य विषये नैवं कथयितुमन्यैः शक्यते यद् अनेनाऽनेन वा--अमु काऽमुकपृथिवीकायेन स्वकृत्यं करोति कारयति वा, इति । ‘से एएगे पुढवीकारणं किच्चं करेइ वि कारवेइ विस एतेन-अमुकेन पृथिवी कायेन कृत्य-कार्य करोत्यपि, कारयत्यपि यदास पृथिवीकायेन कार्य करोति. कारयति तदा नैवं कथयितुं शक्यते यदयममुकेनैव पृथिवी. कायेन कार्य करोति कारयति अमुकेन व्यक्तिविशेष कार्य न करोति न वा कारयति में से कोई-कोई मनुष्य पृथ्वीकाय से अपना आहार आदि कृत्य करता है और करवाता है। उसके मन में ऐसा विचार होता है कि मैं पृथ्वी काय से अपना काम करता हूं या कराता हूं (या अनुमोदन करता हूं)। उसके सम्बन्ध में ऐसा नहीं कहा जा सकता कि वह अमुक पृथ्वी से ही कार्य करता या कराता है, सम्पूर्ण पृथ्वी से नहीं करता या नहीं कराता है। उसके संबंध में तो यही कहा जाता है कि वह पृथ्वीकाय से कार्य करता है और कराता है। अतएव वह सामान्य रूप से ही पृथ्वीकार्य का विराधक कहलाता है। सामान्य में सभी विशेषों का समावेश हो जाता है, अतएवं यह नहीं कहा जा सकता कि वह अमुक पृथ्वीकाय का विराधक है, अमुक का नहीं। इस कारण वह મનુષ્ય પૃથ્વીકાયથી પિતાને આહાર વિગેરે કાર્યો કરે છે, અને કરાવે છે. તેમના મનમાં એ વિચાર હોય છે કે હું પૃથ્વીકાયથી પિતાનું કામ કરે છું. અથવા કરાવું છું (અથવા અનુમોદન કરું છું) તેઓના સંબંધમાં એવું કહી શકાતું નથી કે તે અમુક પૃથ કાયથી જ કાર્ય કરે છે. અથવા કરાવે છે, સંપૂર્ણ પૃથ્વીથી કરતા નથી કે કરાવતા નથી. તેના સંબંધમાં તે એજ કહી શકાય કે- પૃથ્વીકાયથી કાર્ય કરે છે. અને કરાવે છે. તેથી જ તે સમાન્ય પણાથી જ પ્રવિકાના વિરાધક કહેવાય છે. સામાન્યમાં સઘળા વિશે સમાવેશ થઈ જાય છે. તેથી જ એ કહી શકાતું નથી કે તે For Private And Personal Use Only Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % 3D = सुत्रकृतास्त्रे अपि, किन्तु-समान्यत एव पृथिवीकायान् विराधयतीत्युच्यते । अतः स सामान्यतः सवछिन्नं पृथिवीकायानां विराधक एवेति। 'से णं तभी पुढवीकायामो असनप-अविरय-अप्पडिहय अपञ्च वायपावकम्मे यावि भवई' स खलु एतादृशः पुरुषस्ततः पृथिवीकायजीवात्-असंयताऽविरताऽप्रतिहताऽपत्याख्यातपापकर्मा चापि भवति तत्राऽसंयतः-वर्तमानकालिकसावधाऽनुष्ठानप्रवृत्तः, अविरत:-अती. ताऽनागतापादनिकृतः, अपतिहताऽपस्याख्यातपापकर्मा-न पत्राख्यातं पूर्वकता. तिचारनिन्दया भविष्यत्करणेन तश-न पतिहतं-न निराकृत-न नाशितं पापं. कर्म येन स तथा, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः। एवं जाव तसकायेति भाणियन्वं' एवं यावत् समायेयपि भागाव्यम् । पकायेन कार्य कुर्वन्-तत्रापि सामान्यतो विराधकत्वं नातिवर्तते । 'से एगो छ जीवनिकारहिं किच्चं करेइ विकारवेइ वि' सामान्यतः पृथ्वीकाय के जीवों का विराधक है । ऐसा जीव पृथ्वीकार के विषय में संयत नहीं होता अर्थात् वर्तमान काल में सावध अनुष्ठान में प्रवृत्त होता है, विरत नहीं होता अर्थात् अतीत और अना. गत संबंधी पापों से निवृत्त नहीं होता, पाप को प्रतिहत और प्रत्याख्यात नहीं करता, अर्थात् पूर्वकृत पाप की निन्दा नहीं करता और भविष्य में न करने का संकल्प नहीं करता। जो पृथ्वीकाय के विषय में कहा गया है, वही उसकाय तक सभी कायों के विषय में कहना चाहिए । जसकाय के द्वारा जो कार्य करता या कराता है, वह सामान्य रूप से त्रसहाय का विरावक कहलाता है। कोई छहों कायों से कार्य करता और करवाता है। उस पुरुष को ऐसा અમુક પૃથ્વીકાયના વિરાધક છે. અને અમુકને નથી. આ કારણે તે સામાન્યતઃ પૃથ્વીકાયના જીવન વિરાધક છે. એવા છે પૃથ્વીકાયના સંબંધમાં સંયત થતા નથી. અર્થાત્ વર્તમાનપળમાં સાવધ અનુષ્ઠાનમાં પ્રવૃત્ત થાય છે. વિરત થતા નથી. અર્થાત ભૂતકાળમાં કરેલા અને ભવિષ્યકાળમાં થનારા પાપથી નિવૃત્ત થતા નથી. પાપને પ્રતિડત અને પ્રત્યાખ્યાતા કરતા નથી, અર્થાત્ પહેલાં કરેલા પાપની નિંદા કરતા નથી. અને ભવિ. ધ્યમાં ન કરવાને સંકલ કરતા નથી. જે પૃથ્વીકાયના સંબંધનાં કહેવામાં આવેલ છે, એ જ ત્રસકાય સુધી સઘળા કાના સંબંધમાં કહેવું જોઈએ. ત્રસકાય દ્વારા જે કાર્ય કરે છે કરાવે છે, તે સામાન્ય પણાથી ત્રસકાયના વિરાધક કહેવાય છે. કેઈ છએ For Private And Personal Use Only Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. प्रत्याख्यानक्रियोपदेशः ४६१ स एकतयः षङ्जीवनिकायः कृत्यं करोत्यपि कारयत्यपि तस्स णं एवं भवई' तस्य पुरुषस्य खल्वेवं भवति, ‘एवं खलु छजीपनिकाएहि किच्चं करेमि वि कारवेमि वि' एवं खलु पड़ नीवनिकायः कृत्य-कार्य करोम्पपि कारयाम्यपि 'णो चेत्रणं से एवं भवई' नो चैव खलु तस्य-पुरुषस्यैवं भवति तस्य विषये एवं वक्तुं न शक्यते कैरपि यत् 'इमेहि वा इमेहिं वा एमिनो एभिर्वा-स एमिरेभिरेव स्त्रीय कार्य करोति कारयति वेति वक्त्तुं न शक्यते, किन्तु सामान्यतः 'से य तेहिं छहिं जीवनिकाएहिं जाव कारवेइ वि स च तैः षड्मिर्जीवनिकायै विकरोति कारपत्यपि यावत्पदेन करोतीत्यस्य ग्रहणम्, 'से य तेहिं छहिं जीवनिकाए' स च सामान्यतः कार्यकारी तेभ्यः षड् जीवनिकायेभ्यः 'असंजय अविरय-अपडिहय-प्राच. काखाय पायकम्मे' तं जहा-पाणाइवाए जाव मिच्छ दसण सल्ले' असंयताऽविरताऽ. प्रतिहताऽपत्याख्यातपापकर्मा तद्य-प्राणातिपाते यावद्मिथ्यादर्शनशल, स पुरुषः पूषोंदीरित षड्जीवनिकायेभ्यो विरतिसंयमादियो रहितः, अकृतपायश्चित्तप्रत्याख्यानः प्रागातिपातादारभ्य मिथ्यादर्शनशल्यान्तः पापकमैव भवति । स खलु भगवया अक्खाए असंजए अविरए अपडिहय अपच्चक्वायपावकम्मे' एप खलएतादृशः पुरुषोहि भागवता-तीर्थकरेग आख्यात:-कथितः असंयतः असंगतस्वरूपेण, तथा अविरतः तथा-अप्रतिहताऽपत्यारूपातपापकर्मा 'सुविणमपि अपस्सओ' स्वप्नमपि अपश्यन्-संयमविरत्यादिरहितः 'पावे य से कम्मे कज्जईस विचार नहीं होता कि मैं अमुक अमुक काय से कार्य करूं और अमुक अमुक से न करूं। वह तो सामान्य रूप से छहों जीवनिकायों से कार्य करता और करवाता है । अतएव वह छहों जीवनिकायों की हिंसा से असंयत है, अविरत है । अप्रतिहत और अप्रत्याख्यात पापकर्म वाली है। वह प्रामातिपात से लेकर मिथ्यादर्शन शल्य तक अठारहो पाएस्थानों का सेवन करने वाला है। तीर्थकर भगवान ने ऐसे पुरुषको असंयत, अविरत, अप्रतिहत एवं अप्रत्याख्यात पापकर्म वाला और કાથી કાર્ય કરે છે, અને કરાવે છે. તે પુરૂષને એ વિચાર થતો નથી કે - હું અમુક અમુક કાય–શરીરથી કાર્ય કરું. અને અને અમુક અમુકથી ન કરું એ તે સામાન્ય પણથી છએ જવનિકાયાથી કાર્ય કરે અને કરાવે છે તેથી - જ એ છ એ જવનિકાયોની હિંસાથી અસંયત છે, અવિરત છે. અપ્રતિહત અને અપ્રત્યાખ્યાત પાપકર્મ વાળા છે. તે પ્રાણાતિપાતથી લઈને મિથ્યાદર્શન - શલ્ય સુધી અઢારે પાપસ્થિાનેનું સેવન કરવાવાળા છે. તીર્થકર ભગવાને એવા પુરૂષને અસંયત, અવિરત, અપ્રતિહત અને અપ્રત્યાખ્યાત પાપકર્મવાળે For Private And Personal Use Only Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६२ सूत्रकृतार . पाप कर्म करोत्येव, 'से तं संनिदिही' स सं दृष्टान्तः प्रदर्शितो भगवतेति शेषः, यथा कश्चिदग्रामघातादौ प्रवृत्तो यद्यपि न तेन विवक्षितकाले केचन पुरुषा दृष्टा स्तथाप्यसौ तत्पवृत्तिनिवृत्तेरभावात् तद्योग्यतया तद्घातक एव, प्रकृतेऽनीति'से किं तं असग्निदिळे ते' स कोऽसंशिदृष्टान्तः ? 'जे इमे असन्निणो पाणा जहा ये इमेऽसंज्ञिनः प्राणा सधथा-'पुढवीकाझ्या जाव वणस्सइकाइया छटा वेगइया तसा पाणा' पृथिवीकायिका यावद्वनस्पनिकायिकाः-पृथिवीकायादारभ्य वनस्पतिकायपर्यन्ता जीवाः षष्ठा एकाये त्रसाः प्राणा:-षष्ठा स्वपनाम का असं. झिनो ये जीवाः सन्ति 'जेसि णो तत्काइ वा संनाइ वा पन्नाइ वा मगाइ वा वई क सयं वा करणाए अन्नेहि वा कारावेत्तए वा करंसं वा समणुजाणित्तए येषां स्वप्न भी न देखने वाला अर्थात् संयम और विरति से सर्वथा रहित कहां है। वह पापकर्म करता ही है। यह संज्ञि दृष्टन कहा गया है। ___ आशय यह है कि जैसे कोई कोई पुरुष समग्र ग्राम के घात में प्रवृत्त हो और उस समय वह किसी विशिष्ट मनुष्य को न देखता हो, तो भी ग्रातघातक होने से उस ग्राम के अन्तर्गन उस मनुष्य का भी घातक कहलाता है, इसी प्रकार जो षट् काय के जीवों का घातक है वह चाहे किसी जीव को देखे या न देखे, उसका घातक ही कहलाएगा। ___ अब असंज्ञि दृष्टान्त क्या है ? ये जो असंज्ञी प्राणी हैं, जैसे पृथ्वी. कायिक यावत् वनस्पतिकायिक और कोई कोई त्रसकायिक, जिनकी यह पोध नहीं होता कि कर्तव्य क्या है और अमर्त्तव्य क्या है, जो संज्ञा से हीन हैं अर्शत् पूर्व प्राप्त पदार्थ की उत्तरकाल में पर्यालोचना અને સ્વ પણું ન દેખવાવાળે અર્થાત્ સંયમ અને વિરતિ વિગેરેથી સર્વથા રહિત કહ્યો છે. તે પાપકર્મ કરે જ છે. આ સંજ્ઞિ દષ્ટાન્ત કહેલ છે. કહેવાને ભાવ એ છે કે-જેમ કે ઈ પુરૂષ સંપૂર્ણ ગામને ઘાત કર. "વામાં પ્રવૃત્તિવાળે હેય, અને તે વખતે કઈ વિશેષ માણ ને ન દેખું, તે પણ ગ્રામઘાતક હોવાથી તે ગામના અંતર્ગત એ મનુષ્યને પણું ઘાતક કહેવાય છે. એ જ પ્રમાણે જે ષયના છ ઘાત કરનાર છેતે કે કઈ જીવને બે અથવા ન દેખે પણ તેને ઘાતક જે કહેવાય છે. . હવે અસંજ્ઞિનું દષ્ટાન્ત બતાવવામાં આવે છે. જે આ અણિ પ્રાણી છે, જેમકે-વૃશ્ચિકાયિક યાવત્ વનસ્પતિકાયિક અને કઈ કઈ ત્રસકાયિક, " જેમને એ બધ હેત નથી કે કર્તવ્ય શું છે? અને અકર્તવ્ય શું છે? જે સંજ્ઞા વિનાના છે, અર્થાત્ પહેલા પ્રાપ્ત કરેલા પદાર્થની ઉત્તર કાળમાં For Private And Personal Use Only Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ कोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.४ प्रत्याख्यानक्रियोपदेशः नो तर्क इति वा संज्ञेत वा-प्रज्ञेति वा-मन इति वा-वाग्वा-स्वयं वा कर अन्य व कारयितुं कुर्वन्तं वा समनुज्ञातुम्, तत्र-तर्क:-उहः-किमिदं कृतव्यम कर्तव्य वेत्येवमात्मकः, संज्ञानं संज्ञा-पूर्वोपलब्धार्थे उत्तरकाले पर्यालोचना, प्रज्ञाने मना-रक युद्धयोत्पेक्षणम् , मननं मनो मति:-सा चाचग्रहादिरूपा मन:-अन्नाकर णम् , प्रशस्यवर्णा वाक, एतानि न विद्यन्ते येषाम् , येषां जीवानां तकदियो न सन्ति 'ते विगं वाला सम्वेसिं पाणाणं जाव सन्धेसि सत्ताण' तेऽपि वालाअज्ञानिनो जीवाः येषां तकदियो न भवन्ति, सर्वेषां पाणवतां भूवानां जीवाना समानाम् 'दिया वा रामो वा मुत्ता वा जागरमाणा वा' दिवा वा रात्रौ वा मुसा वा जाग्रतो वा, 'अमित्तभूगा मिच्छासंठिया' अमित्रभूना मिथ्यासंस्थिता:-असत्य. बुद्धियुक्ताः 'निच्चं पसढविवायचित्तदंडा' नित्यं प्रशठव्यतिपातचित्तदण्डा:धूर्ततापूर्वक वधवृत्तिमन्तः। 'तं जहा' र यथा-'पाणाइव ए जाव मिच्छादसण सल्ले' प्राणातिपाते-प्राणिनां हिंमा धर्मणि यावद् मिथ्यादर्शनशल्ये, 'इच्चेवं जान णो चेव मणो पो चे। वई पाणाणं जाव सत्ताणं दुक्खणयाए' इत्येवं यावत् नो चैव मनो नो चैव वाक् माणानां यावत्सत्त्वानां दु खनतया 'मोयण याए' शोचनतया नहीं कर सकते, जिनमें प्रज्ञा नहीं है अर्थात् अपनी बुद्धि से सोचने की शक्ति नहीं है, जिनमें मनन करने का सामर्थ्य नहीं है, वाणी नहीं है, जो न स्वयं कुछ कर सकते हैं और न दूसरों से करवा सकते हैं और न करने वाले का अनुमोदन कर सकते हैं, ऐसे तर्क एवं संज्ञा आदि से रहित प्राणी भी समस्त प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों के दिन रात, सोते जागते सदैव शत्रु बने रहते हैं, उन्हें धोखा देते हैं और अत्यन्त शठता पूर्वक घात करने में संलग्न रहते हैं। वे प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शन शल्य पर्यन्त अठारहों पापों का सेवन करते रहते हैं। यद्यपि उनको मन तथा वाणी होते नहीं हैं। પર્યાલચના કરી શકતા નથી. જેમનામાં પ્રજ્ઞા નથી. અર્થાત પિતાની બુદ્ધિથી વિચારવાની શક્તિ નથી, જેમનામાં મનન કરવાનું સામર્થ્ય નથી, વાણી નથી. જે સ્વયં કઈ કરી શ તા નથી. તથા બીજાઓ પાસે કોઈ કરાવી શકતા નથી. એવા તર્ક અને સંજ્ઞા વિગેરેથી રહિત પ્રાણ પશુ સઘળા પ્રણિયે, ભૂત, જીવ અને સોના રાતદિવસ સૂતાં કે જાગતાં હંમેશાં શત્રુ બન્યા રહે છે. તેને દગે દે છે. અને અત્યંત શઠતા પૂર્વક ઘાત કરવામાં લાગ્યા રહે છે તેઓ પ્રાણાતિપાતથી લઈને મિથ્યાદર્શન શલ્ય સુધી અઢારે પાપનું સેવન કરતા રહે છે. જો કે તેમને મન તથા વાણું લેતા નથી, For Private And Personal Use Only Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे 'जूरणयाए तिषणयाए पिट्टण गार परितपणयाए' जूरणत या तेपनतया पिहनत या परितापनतया ते दुक् वणसोयण जाव परितपण वहबंधणपरिकिले साओ' ते दुःखनश्रीचन यावत्सरितापनवधवन्धनपरिक्शेभ्यः तत्र-बधो मरणम्, बन्धनं रज्ज्यादिना 'अपडिविरया भवति' अपतिविरता भवन्ति, दुःखतया मरण दुःखरूपेग शोचनंदैन्यमापणम्, जूण-शोकातिरेकाच्छीरजीर्णतामापणम्, तेपनं-शोकातिरेकानश्रु बालादि क्षरणमापणम् , परितेपनं शरीरसन्तापः, यधपि असंशिजीवेषु मनोन भवति तथापि ते सर्वाने जीवान शोचन्ति-परितापयन्ति । यद्वा-सहैव शोक परितापपीडनमधवन्धनादिकं कुर्वन्तः पापकर्मभ्यो न निवृत्ताः, अपि तु-पाप कर्मणे निरता एव भान्तीति । 'इइ खच से असन्निगो वि सत्ता अहो नि पाणाइवार उवक्रवाइज्जति' इति-पूर्वोक्तपकारेण खल तेऽसंझिनोऽपि-संज्ञाप्रज्ञादिरहिता अपि सत्त्वाः-प्राणिनः पृथिवीकायिकादयः, निशम्-राबिन्दिवम् , माणातिपाते-जीवहिंसाकर्मणि विद्यमानाः प्राणातिपाते कर्तव्ये तद्योग्यतया तदसंपाप्तापि ग्रामघातकवदुपाख्यायन्ते । 'जाव अहोनिसि परिग्गहे उपक्वाइ जति' यावदहनिशं परिग्रहे विद्यमानाः उपाख्शायन्ते यावद्मिध्यादर्शनशल्ये उपाख्यायन्ते-कथ्यन्ते । संज्ञारहिता अपि दूरवर्तिनोऽपि सूक्ष्मतरा अपि माणाफिर भी वे प्राणियों, भूतो, जीवों और सत्त्वों को दुःख पहुंचाने, शोक उत्पन्न करने, झुगने, रुलाने, वधकरने, परिताप देने, या उन्हें एक ही माथ दःख, शोक संताप पीड़न वध, बंधन आदि करने के पापकर्म से विरत नहीं होते हैं, परन्तु पापकर्म में निरत (तत्पर) ही रहते हैं। इस प्रकार वे असंज्ञी एवं संझी प्रज्ञा आदि से रहित भी पृथ्वी. काधिक आदि प्राणी रातदिन प्राणातिगत में वर्तते हैं । वे चाहे दुसरे प्राणियों को न जानते हों तो भी ग्रामघातक के समानसिक कहलाते हैं। वे परिग्रह में यावत् मियादर्शनशल्य में अर्थात् मभी पापों में वर्तमान होते हैं। તે પણ તેઓ પ્રણિયે, ભૂલે, જી અને સને દુઃખ પોંચાડવા માટે શાક ઉત્પન્ન કરવા, ઝરાવવા, રડાવવા, વધ કરવા, પરિતાપ પહોંચાડવા અથવા તેમને એકી સાથે જ દુઃખ શોક, સંતાપ, પીડન, બંધન વિગેરે કરવાના પાપકર્મથી વિરત થતા નથી. પરંતુ પાપકર્મમાં નિરત-તપર જ રહે છે. આ રીતે તે અસંસી અને સંજ્ઞા પ્રજ્ઞા વિગેરેથી રહિતપણ પ્રવીકાયિક વિગેરે પ્રાણી દિવસરાત પ્રાણાતિપાતમાં વર્તતા રહે છે. તેઓ ચાહે બીજા પ્રાણિ ચોને ન જાણતા હોય, તે પણ ગામવાતક પ્રમાણે જ હિંસક કહેવાય છે. તેઓ પરિગ્રહમાં યાવત્ મિથ્યાદર્શનશલ્યમાં અર્થાત્ સઘળા પાપમાં વર્તમાન હોય છે, For Private And Personal Use Only Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. म. ४ प्रत्याख्यानक्रियोपदेशः २४६५ : तिपातादि परिग्रह मिथ्यादर्शनशल्यान्ते पापकर्मणि ओतमोता इत्येव कथ्यन्ते । ( एवं भूतवादी) 'सच्चजोणिया वि' सर्वयोनिका अपि 'खल सत्ता संनिणो हुचा 'असंनिणो हुंति असंनिणो हुच्चा संनिणो दौति' खलु इति निश्वपार्थकः सचाप्राणिनः संझिनो भूत्वाऽसंज्ञिनो भवन्ति । असंझिनो भूखा संज्ञिनो भवन्ति, कर्म 'पराधीना हि जीवाः। ते च जीवा यथाकर्म संज्ञिनोऽपि संज्ञामनुभवन्तोऽपि कर्म याद असंज्ञिनो भवन्ति ! असंज्ञिनो जीवाः कर्मबलात् कालान्तरे संझिनो भवन्ति । ''होच्चा संनी अदुवा असन्नी' भूत्वा संज्ञिनः अथवाऽसंज्ञिनः 'तस्थ से अविविचित्ता अवि धुणिता असंमुच्छिता अणणुतावित्ता मसंनिकायाओ वा संक्रमति संनिकायाओ वा असं निकार्य संकर्मति' तत्र तत्तद्योनौ अविविश्य स्वस्मात् पापं कर्म अपृथक्कृत्य, अविधूय पापम् पापममक्षालय, असमुच्छिद्य-पापमच्छिवा, अननुताव्य-पश्चात्तापमकृत्वा तदा वाकमंचला असंज्ञिकायात् संज्ञिकार्य संक्रामन्ति । गच्छन्ति तादृशस्य कर्मणः फलोपभोगाय । यद्वा-संज्ञिकायाद असंज्ञिकार्य संक्रा मन्ति संज्ञिशरीराद संज्ञिशरीरे आगच्छन्ति । असंज्ञिशरीरात संज्ञिशरीरे समाग च्छन्तीति । 'संनिकायाओ वा संनिकायं संकमंति असंनिकायाओ वा असंनिकार्य कमंत' अथवा - संज्ञिकायात संज्ञिकायमेव संक्रामन्ति । असंज्ञिकायात् - असंज्ञि सभी योनियों के प्राणी निश्चय से संज्ञी होकर ( भवान्तर में ) असंज्ञी हो जाते हैं और असंज्ञी होकर संज्ञी हो जाते हैं, क्योंकि संसारी जीव कर्म के अधीन हैं, अतएव कर्म के उदय के अनुसार fafभन्न पर्यायों को धारण करते रहते हैं। जो जीव विभिन्न (अनेक) योनियों में रहकर पापकर्म को दूर नहीं करते, पाप का प्रक्षालन नहीं करते, वे कर्मोदय के वशीभूत होकर असंज्ञी पर्याय से संज्ञी पर्याय में उत्पन्न हो जाते हैं, संज्ञीपर्याय से असंज्ञीपर्याय में जन्म लेते हैं । अथवा संज्ञी पर्याय से संज्ञीपर्याय में और असंज्ञीपर्याय से असंज्ञीपर्याय સઘળી ચેાનિચેના પ્રાણી નિશ્ચયથી સન્ની થઈને (ભવાન્તરમાં) અંસ'જ્ઞી થઈ જાય છે. અને અસી થઈને સજ્ઞી થઈ જાય છે, કેમકે-સ સારી જીવ કને આધીન છે, તેથી જ કર્મના ઉદય પ્રમાણે જૂદા જૂદા પર્યાયને ધારણુ કરે છે. જે છત્ર જૂદી જૂદી અનેક ચેાનિયામાં રહીને પાપકને દૂર કરતા નથી પાપને ધોઈ નાખતા નથી, તે કર્મના ઉદયને વશ થઈને અસંજ્ઞી પર્યાયથી સંજ્ઞી પર્યાયમાં ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. સ`રી પર્યાયથી અસન્ની પર્યા યમાં જન્મ લે છે. અથવા સન્ની પર્યાયથી સંજ્ઞી પર્યાયમાં અને અસસી પર્યાયધી અસંજ્ઞી પર્યાયમાં પણ ઉત્પન્ન થઇ જાય છે. એવા કાઈ નિયમ सू० ५९ For Private And Personal Use Only Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कायमेव संकामन्ति । यथार्म यथ श्रुतम् । नायमस्ति नियमो यत् संज्ञी संझी एव भवेत् । असंज्ञी च असंज्ञी एव भवेत्, कर्माऽधीनस्य हि वैचित्रयम् , कर्मचाऽऽकेक्लशान स्वाधिकार न त्यजति, अत्य जन् जीवान् उच्चाव वान् सदृशतया विसदृशतया उत्त योमयतया परिभ्रामयति । 'जे एए संनी या असंनी या सन्चे ते मिच्छायारा विच्छ पसाविश्वायचिनदंडा, तं जहा पाणाइवाए जाय मिच्छदिसणसर' पे एते संझिनो वाऽसंज्ञिनो वा जीरा इति शेषः, ते सवें मिथ्याचारा:-अवि. सुद्धाचाराः, अपत्याख्यानित्वात् , नित्यं प्रशठनिपातचित्तदण्डाः। इमे सर्वे जीवा: मिथ्याचारा स्तथैव सर्वदा शठतायुक्तधूर्ततायुक्तहिंसात्मकचित्तवृत्ते. धारणकर्तारः सन्ति । तथा-प्राणातिपाते यावद् मिथ्यादर्शनशल्ये, माणातिपातादारभ्य नियादर्शनशल्यान्तपापकर्मणि निरताः सन्तीति। 'एवं खनु भगवया अक्वाए असंजए अविरए अपडिहयपच्चकवायपानकम्मे सकिरिए' एवं खलु-अस्मात् कारणादेव भगता तीर्थकरेण अरू पाता, असंयत:में भी उत्पन्न हो जाते हैं। ऐसा कोई नियर नहीं है कि संजी जीव भवान्तर में संज्ञी के पर्याय में ही उत्पन्न हो और असंज्ञी जीव मरकर असंज्ञी ही हो। संज्ञो असशी आदि की विचित्रता कर्म के अधीन ही है, और जब तक मुक्ति प्राप्त न हो जाय तब तक उसका प्रभाव नष्ट नहीं हो सकता और जबतक कर्म का प्रभाव नष्ट न हो जाय तब तक उन जीवों को उच्च, नीच सदश और विसदृश योनियों में घुमाता ही रहता है। . ये संज्ञी और असंज्ञी जीव, सभी अशुद् आचार वाले हैं, सदा शठता से युक्त हैं और हिंसात्मक चित्तवृत्ति को धारण करने वाले हैं। वे प्राणातिपात से लगाकर मिश्यादर्शनशल्य तक के भी पापों में निरत होते हैं, इम कारण श्री तीर्थकर भगवान ने इन पाप में तत्पर નથી કે સંજ્ઞી જીવ ભવન્તરમાં સંસી પર્યાયમાં જ હોય. સંજ્ઞી, અસંજ્ઞા વિગેરેનું વિચિત્ર પણ કર્મને આધીન છે. અને જ્યાં સુધી મુક્તિ પ્રાપ્ત ન થઈ જાય, ત્યાં સુધી તેને પ્રભાવ નાશ પામતો નથી. અને જ્યાં સુધી કર્મને સદ્ પ્રભાવ નાશ ન પામે ત્યાં સુધી તે એને ઉંચ નીચ, કે સરખા અને વિસ નિમાં ફેરવતા જ રહે છે. આ સંજ્ઞી અને અસંજ્ઞી જીવ, સઘળ અશુદ્ધ આચારવાળા છે. હમેશાં ધૂર્ત પણાથી યુક્ત છે, અને હિંસાત્મક ચિત્તવૃત્તિને ધારણ કરવાવાળા છે. તેઓ પ્રાણાતિપાતથી લઈને મિથ્યાદર્શન શલ્ય સુધીના સઘળા પાપમાં તત્પર રહે છે. તે કારણે તીર્થકર ભગવાને આ પાપમાં તત્પર રહેલા For Private And Personal Use Only Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सार्थबोधिनी टीका fa. थु. अ. ४ प्रत्याख्यानक्रियोपदेशः संयमरहितः, अविरतः -- वैराग्यरहितः, अमतिहासाख्यात गपकर्मा-पापकर्मइन प्रत्याख्याता भवति, तथा - 'सकिरिए' सक्रियः - सावध कर्मयुक्तः 'असंबुडे' असंत:-संबर रहितः 'एगंतदंडे' एकान्तदण्डः - पाणिनां सदा दण्डकारकः 'एतवाले' एकान्तवालोऽज्ञानी 'एगंवसुते एकान्तसृप्तः नियमतोऽज्ञानन्द्रियाऽभिभूतः । 'स बाल:- एतादृशोऽज्ञानी मति, तथा - 'अवियारमणवयणकायवक्के' अविचार मनोव वनकायवाक्पः- मानसिकवाचनिककायिक विचाररहितः कर्तव्या कर्तव्यविचाररहितमनो वचनकायवाक्यशनित्यर्थः, 'सुविणमवि ण पास' स्वप्नमपि न पश्यति, यत्पापं स्वप्नेऽपि न ज्ञायते तस्याऽपि कर्त्ता भवत्येवाडविरमित्वात् । किन्तु 'पावे य से कम्मे कज्ज' पापञ्च कर्म स करोत्येव, अतो यदुक्तम्-तोऽविरतः पुरुषः संज्ञी वा असंज्ञी वा पापं कर्म करोत्येवेति सत्यमेव प्रतिपादितमिति भावः ||६० ४ || ६६ ॥ मूलम् - नोदए आह-से किं कुब्वं किं कारवं संजयविरयपडिहयपञ्चकखायपात्रकम्मे भवइ ? आयरिए आह- तत्थ खलु દેવ जीवों को असंपत, अविरत क्रियायुक्त और असंवृत कहा है। पापकर्मों को प्रतिहत और प्रत्याख्यात न करने वाला भी कहा है। ऐसा जीव एकान्तदंड - हिंसक, एकान्तपाल अज्ञानी, एकान्त सुप्त - अज्ञाननिद्रा से अभिभूत होता है । वह विचाररहित मन वचन कायवाला है । उसको कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य का विवेक नहीं होना । अविरतिमान् होने के कारण वह स्वप्न में भी जिस पाप को नहीं जानता, उसका भी कर्त्ता होता है । वह पापकर्म करता है। तात्पर्य यह है कि असंयत एवं अविरत जीव, चाहे संज्ञो हो या असंज्ञी, अवश्य ही पापाकर्म करता है, यह जो कहा गया है सो समीचीन ही कहा गया है ||४|| For Private And Personal Use Only જીવને અસયત, અવિરત, ક્રિયાયુક્ત અને સવ્રત કહ્યા છે. પાપ મેનેિ પ્રતિહત અને પ્રત્યાખ્યાત ન કરવાવાળા પણ કહ્યા છે. એવા જીવે એકાન્ત દંડ–સિક એકાન્ત માલ-મજ્ઞાની એકાન્તસુપ્ત-અજ્ઞાન નિદ્રાથી પરાજીત થાય છે. તે વિચાર વિનાના મન, વચન અને કાયવાળા છે, તેને કર્તવ્ય અને અકતવ્યના વિવેક હાતા નથી. અવિરતિમાન્ હાવાના કારણે તે સ્વપ્રમાં પણ જે પાપને જાણતા નથી, તેને પણ કરવાવાળા હેાય છે. તેએ પાપકમ જ કરે છે. તાત્પય એ છે કે-ચાહે સન્ની હાય કે--અસ'ની હોય તેએ પાપકમ આવશ્યજ કરે છે. જે આ કહ્યું તે ખરેખર જ કહ્યુ છે. પૂજા Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६८ सूत्रकृताङ्गसूत्र भगवया छज्जीवणिकायहेऊ पण्णत्ता, तं जहा-पुढवीकाइया जाव तसकाइया, से जहाणामए मम असायं डंडेण वा अट्ठीण वा सुट्टीण वा लेलूण वा कवालेण वा आतोडिज्जमाणस्स वा जाव उवदविज्जमाणस्स वा जाव लोमुक्खणणमायमवि हिंसाकडं दुक्खं भयं पडिसंवेदेमि, इच्चेवं जाण सव्वे पाणा जाव सब्वे सत्ता दंडेण वा जाव कवालेण वा आतोडिज्जमाणा वा हम्ममाणा वा तज्जिज्जमाणा वा तालिज्जमाणा वा जाव उवद्दविज्जमाणा वा जाव लोमुक्खणणमायमवि हिंसाकारं दुक्खं भयं पडिसंवेदेति, एवं णच्चा सत्वे पाणा जाव सम्वे सत्ता न हंतवा जाव ण उद्दवेयव्वा, एस धम्मे धुवे जिइए सासए समिच्च लोगं खेयन्नेहिं पवेदिए, एवं से भिक्खू विरए पाणाइवायाओ जाव मिच्छादंसणसल्लाओ, से भिक्खू णो दंतपक्खालणेणं दंते.पक्खालेज्जा, णो अंजणं णो वमणं णो धूवणित्ते पि आइत्ते, से भिक्खू अकिरिए अलूसए अकोहे जाव अलोभे उवसंते परिनिव्वुडे, एस खलु भगवया अक्खाए संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे अकिरिए संवुडे, एगंतपंडिए भवइ ति.बेमि ॥सू० ५॥६७॥ इइ बीयसुयक्खंधस्स पच्चक्खाणकिरियाणाम घउत्थ मम्झयणं समत्तम् ॥२-४॥ छाया-नोदकः-स किं कुर्वन् किं कारयन् कथं संयतविरतपत्याख्यातपापकर्मा भवति ? आचार्य आह-तत्र खलु भगवता षड्जीवनिकायहेतवः मज्ञप्ता, तद्यथा-पृथिवीकायिका यावत् वसकायिकाः । तद् यथानाम मम असातं दण्डेन वा, अस्थना व', मुष्टिना वा लेष्टुना वा कपालेन वा आतोधमानस्य वा याषद For Private And Personal Use Only Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.४ प्रत्याख्यानक्रियोपदेशः ४९ उपद्रापमाणस्य वा यावद् रोमोत्खननमात्रमपि हिंसाकृतं दुःखं भयं पतिसंवेदयामि, इत्येवं जानीहि सर्वे माणा यावत् सर्वे सत्त्वाः दण्डेन वा यावत् कपालेन वा आतोद्यमाना वा हन्यमाना वा तज्यमाना वा. ताडयमाना.वा यावद् उपद्राव्यमाणा वा यावद् रोमोत्खननमात्रमपि हिसाकरं दुःखं भयं प्रतिसंवेदयन्ति । एवं ज्ञात्वा सर्वे पाणा यावत् सर्वे सत्त्वाः न हन्तव्याः यावन्नोपद्रावयितव्याः, एष धर्मः ध्रुनो नित्यः शाश्वाः समित्य ले के खेदज्ञः पवेदितः। एवं स भिक्षु विरता माणातिपाततो यावन्नि पादर्शनशल्पतः । स भिक्षु नौ दन्तपक्षालनेन दन्तान पक्षाच्येत् नो अननं नो वमनं नो धूरनमपि आददी। स भिक्षुरक्रियः अलूषकः अक्रोधो यावद् अकोमः उपशान्तः परिनिर्वृत्तः। एष खलु भगवता आस पातः संगतविरततिहापत्याख्यातपापकर्मा अक्रियः संवृतः एकान्तपण्डितो भवतीति ब्रीमि ॥९०५६७॥ ___टीका-पुनरपि नोदकः प्रश्नकर्ता प्रश्नं करोति-से कि कुछ कि कारवं कहं संनयविश्यपडिहयाच्च वायपावकम्मे भाई स:- मनुष्यादि ीः किम्कीदृशं कर्म कु किवा कारयन् कथं-केन पकारेण संयंतविरतपतिहत. प्रत्याख्यातपापकर्मा भाति, कथं संयतो भवति-कथं विरतो भवति-सर्वेभ्यः पापकम्यः कथं वा पति नपत्याख्यातपापकर्मा भवतीति, तत्र-संपतत्वं वर्तमान कालिक सावधानुष्ठानरहितत्वम् , विरतत्वम्- प्रतीताऽनागतपापान्निवृत्तिमत्वम् । प्रतिहतं-वर्तमानकाले स्थित्यनु मागहा सेन नाशितं तथा प्रत्याख्यातं-पूर्वकृताति नारनिन्दया भविष्यत्यकाणे निराकृतं पापं कर्म येन स प्रतिहतप्रत्याख्यात 'से किं कुष्यं' इत्यादि। टीकार्थ-प्रश्नकर्ता पुनः प्रश्न करता है-मनुष्य प्रादि प्राणी कौन सा कर्म करता हुआ और कोन सा कर्म कराता हुआ, किस प्रकार से संयत, विरत तथा पापकर्म का घात और प्रत्याख्यात करने वाला होता है? ... वर्तमानकालिक पापमय कृप से रहित होना संयत होना कह लाता है । भूत और भविष्यत् काल संबंधी पाप से निवृत्त होना विरत होना कहलाता है। कर्म के प्रतिहत होने का अभिमाय है वर्तमान S: ‘से किं कुठव' या ટીકાથ–-પ્રશ્ન કર્તા ફરીથી પ્રશ્ન પૂછે છે કે-હે ભગવન મખ્ય વિગેરે ' પ્રાણી કયું કર્મ કરતા થકા કેવા પ્રકારથી સંયત વિરત તથા પાપકમને धात भने प्रत्याच्यात ४२वावा डाय छे ? . - વર્તમાનકાળ સંબંધી પાપમય કૃત્યથી રહિત થવું તે સંયત થવું કહે. વાય છે ભૂત અને ભવિષ્યકાળ સંબંધી પાપથી નિવૃત્ત થવું તે વિરત થવું For Private And Personal Use Only Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -- सूत्रकृतामले पापकर्मा, इति नोदकस्याशयः । आचार्य अह-'तत्थ ख भगवथा छ नीवनिकाय हेऊ पणत्ता' तत्र खल भगवता षड्जीवनिकायाः कर्मबन्धहेत्वः प्रज्ञप्ता कथिताः, 'तं जहा' तद्यथा-'पुढवीकाइया जाव तसकाइया' पृथिवीकायिका यावत् प्रसकायिकाः, 'से जहा णामए मम असायं दंडेण वा अट्ठीण वा मुट्ठीण का लेलुग वा कवालेण वा आतोडिज्जमागस्त वा जाव उवद्दविजमाणस्स वा तद्यथा नाम मम अमातम्-दुःखं भवति, दण्डेन वा ताडनादिना, अस्पना वा, मुष्टिना वा लेष्टुना वालोष्टेन वा, कपालेन वा-घटावयवेन आनोद्यमानस्य वा-ताज्यमा नस्य यावदुपद्राव्यमाणस्य वा 'जाव लोमुक्रवणणमायमवि हिंसाकडं दुखं मयं पडिसंवेदेमि' यावद् रोमोत्खननमात्रमपि हिंसाकृतं दुःखं भयं पतिसंवेदयामि, काल में स्थिति और अनुभाग का ह्रास करके उसे नष्ट करना और प्रत्याख्यात को अर्थ है पूर्वकृत अतिचारों की निन्दा करके तथा भविष्य में न करने का संकल्प करके उसे दूर करना। भावान् ने षट् जीनिकायों को कर्मबन्ध का कारण कहा है। वे षट् जीवनिकाय ये हैं-पृथ्वीकाय यावत् त्रसकाय । जैसे डंडे से, हड्डी से, मुट्ठी से, ढेले से अथवा ठीकरे से ताड़न करने पर या उपद्रव करने पर यहां तक कि एक रोम उखाड़ने से भी मुझे हिंसा जनित्र दुःख एवं भय का अनुभव होता है, इसी प्रकार समस्त प्राणो यावत् सत्व भी डंडा मुष्टि आदि से आघान करने पर, तर्जन, ताडन करने पर उपद्रव करने पर यावत् रोम उखाड़ने पर भी हिंसाजन्य दुःख और भय का अनुभव करते हैं। કહેવાય છે કર્મથી પ્રતિહત થવાને અભિપ્રાય એ છે કે વર્તમાનકાળમાં સ્થિતિ અને અનુભાગને હાસ કરીને તેને ન શ કરે. અને પ્રત્યાખ્યાનનો અર્થ એ છે કે–પહેલાં કરેલા અતિચારોની નિંદા કરીને તથા ભવિવ્યમાં ન કરવાનો સંકલ્પ કરીને તેને દૂર કરવા. ભગવાને ષજીવનિકાને કર્મબંધનું કારણ કહેલ છે. તે બદ્રજવનિ. કાય આ પ્રમાણે છે –પૃથ્વીકાય થાવત્ ત્રસકાય જેમ ડંડાથી, હાડકાથી, મૂદિથી ઢેખલાથી અથવા ઠીંકરાથી તાડન કરવામાં આવે છે અથવા ઉપદ્રવ કરવામાં આવે તે એટલા સુધી કે એક રેમ-રૂંવાડું ઉખાડવાથી પણ મને હિંસાથી થવાવાળું દુઃખ અને ભયને અનુભવ થાય છે. એ જ પ્રમાણે સઘળા પ્રાષિ થાવત્સ પણ ડંડા, મુઠિ વિગેરથી આઘાત કરવાથી તર્જન, તડન, કરવાથી, ઉપદ્રવ કરવાથી યાવત્ રોમ ઉખાડવાથી પણ હિંસાથી થવાવાળા દુઃખ અને ભયને અનુભવ કરે છે. For Private And Personal Use Only Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समार्थबोधिनी ठीका द्वि. ध्रु. अ. ४ प्रत्याख्यानक्रियोपदेश: બળ आचार्यः कथयति भो यथा मां कश्विद्दण्डादिना ताडयति उपद्रावयति किं बहुना रोममात्रस्यापि उत्पादनेन दुःखं भयं च जायते । 'इच्चेवं जात्र सव्वे पाणा जान सच्चे सत्ता' इत्येवं जानीहि सर्वे प्राणाः सर्वे भूताः सर्वे जीवा यावत्सर्वे सया, 'दंडेग वा जाव कपालेण आतोडिज्जमाणा वा हम्ममाणा वा तजिज्ञभाषा वा तालिज्जमाणा वा' दण्डेन वा यावत्कपालेन वा आतोद्यमाना वा इन् माना वा वर्ज्यमाना वा ताडयमाना वा यावत्पदेन अस्थमा वा मुष्टिना पा लेना वेति पदामा संग्रह: 'जाब उपदविज्नमाणा वा जात्र लोमुक्खगणमायमचि हिंसाकडे दुक्खं भयं संवेदेति यावद् उपद्राव्यमाणा वा यावद्रोमोत्खननमात्रमपि हिंसाकृतं दुःखं भयं संवेदयन्ति । अपमाशय - यथा मां कश्चित् दण्डादिना ताडयति, किंबहुना रोमोत्पाटनमपि करोति, तदाऽतीव मनसि दुःखं जायते, अहमनुभवामि दुःखं मयश्च तथैव सर्वे जीवा दण्डादिभिस्ताडयानाः दुःखं भगञ्चानुभवन्ति । 'एवं गच्चा सव्वे पाणा जाब सच्चे सत्ता न तुच्या जाव ण उवदवे बध्वा' एवं ज्ञात्वा यथा दण्ड दि महारो मां दुःखा करोति तथाऽन्यानपि दुःखायते इति झाश्वा सर्वे प्राणाः प्राणिनो यावत्सर्वे सच्चा न हन्तव्या यावन्नोपद्रावयितव्याः, न आज्ञापयितव्याः न परिग्रहीतव्याः न परितापयितव्याः यावत्पदेनैतेषां ग्रहणम्, तत्र न हन्तव्याः दण्डादिभिर्न ताडयितव्य, नाऽऽज्ञापयितव्याः अनभि 1 9 - आशय यह है-जैसे डंडा आदि से मुझे कोई ताड़न करता है उद्यथा पहुँचाता है, यहां तक कि कोई एक रोम उखाड़ना है, उस समय मन में दुःख उत्पन्न होता है । उस समय मैं दुःख और भय का अनुभव करता हूं, उसी प्रकार अन्य सब प्राणी भी दण्डा आदि से ताड़न करने पर 'दुःख और भय का अनुभव करते हैं। तो जैसे दण्डमहार आदि मेरे लिए दुःखप्रद है, उसी प्रकार अन्य प्राणियों को भी दुःखदायी होता है। ऐसा जान कर किसी भी प्राणी यावत् किसी भी सत्य का न हनन करना चाहिए और न उपद्रव કહેવાનેા આશય એ છે કે--જેમ ડડા વિગેરૈથી મને કોઇ તાડન કરે છે, પથા દુઃખ પહેોંચાડે છે. એટલે સુધી કે કેઇ એક રૂંવાડું પણ ઉખાડે તે ૧ખતે મનમાં દુઃખ ઉત્પન્ન થાય છે. તે વખતે હું દુઃખ અને ભયના અનુભત કરૂ છુ. એજ પ્રમાણે બીજા બધા પ્રાણ્યિા પણ દડા વિગેરેથી મારવામાં આવ્યેથી દુઃખ અને ભષના અનુભન્ન કરે છે. For Private And Personal Use Only જેમ 'ડપ્રહાર વિગેરે મારા માટે દુઃખ દેનાર છે, એજ પ્રમાણે બીજા પ્રાણિયાને પણ તે દુઃખકારક જ ાય છે. મા પ્રમાણે સમજીને ક્રાઈ પણ પ્રાણીનું યાવત્ કાઇ પણ સત્વનું હનન કરવુ ન જોઈ એ તેમજ ઉપ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गमने मतकार्येषु न प्रवर्तयितव्याः, न परिग्रहीतव्याः-इमे इत्यादयो ममेति कल्या परिग्रहरूपेण स्वाधीनतया न स्वीकर्तव्याः, न परितापायितव्या:- अन्नपानाधव रोधेन ग्रीष्मात गादी स्थापनेन च न पोडनीयाः, नोपदावयितव्याः न विषशस्त्रा. दिना मारयितव्याः । 'एए धम्मे धुवे' एषः- अहिंसारूपो धर्मों निश्चितः णिइए' निस्या-धम्तरहितः 'सामए' शाश्वत:-सनातन इत्यर्थः। 'समिच्चलोग समिः स्य लोकम्-लोकवरूपं ज्ञात्वा 'खेम्नेहि खेदज्ञैः-खेदं-परकीयदु ख जानन्तीति खेदशा-तीर्थकरास्त । 'पवेइए' प्रवे दिता-केवलज्ञानेन दृष्ट्वा कथितः अहिंसा धर्मः। एवं से भिक्खू विरए पाणाइवायाभो मिच्छादसणसरलामो' एवं से भिक्षुः विरतः प्राणातिपाततो यावद् मिथ्वादर्शनश्ल्यात् । अहिंसैव परमो धर्म इति ज्ञात्वा प्राणातिपातादारभ्य मिथ्यादर्शनशल्यान्तपापकर्मभि विरतो भवति । 'से भिक्खू' स मिक्षुः -अहिंसाधर्मतत्त्वज्ञः 'णो दंतपखालणेण दंते पक्खालेज्जा' नो दन्तपक्षालनेन दन्तान् पक्षालयेत् । 'णो अंजण' नो अञ्जनम् - करना चाहिए न उन पर हुक्म चलाना चाहिए, न दास आदि बनाकर अपने अधीन बनाना चाहिये और न अन्न पानी आदि में रुकावट डालकर परिताप देना चाहिए और न विष शस्त्र आदि के द्वारा मारना चाहिए। यह अहिंसा धर्म ध्रुव-निश्चित है, नित्य आदि और अन्त से रहित है, शाश्वन सनातन है। लोक के स्वरूप को जानकर परपीड़ा को पहचानने वालों ने अर्थात् तीर्थ करों ने यह धर्म कहा है । इस प्रकार भिक्षु अहिंसा को परमधर्म जानकर प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य पर्यन्त सभी पापों से विरत होता है । अहिंसा धर्म तत्व का वेत्ता मुनि दन्नधावन (दातौन) से दांतों का प्रक्षालन न करे। आंखों में अंजन न आंजे । औषध का प्रयोग करके अथवा પણ કરવું ન જોઈએ. તેના પર હુકમ ચલાવવું ન જોઈએ. દાસ વિગેરે બનાવીને તેઓને પિતાને આધીન બનાવવા ન જોઈએ. તથા આહાર પાણીમાં રોકાણ કરીને પરિતાપ પહોંચાડ ન જોઈએ તથા વિષ શા વિગેરે દ્વારા મારવા ન જોઈએ આ અહિંસા ધમ ધ્રુવ,-નિશ્ચિત છે. નિત્ય આદિ અને અન્ત રહિત-વિનાનો છે. શાશ્વત સનાતન છે. લેકના સ્વરૂપને જાગીને પરપીડાને ઓળખવાળાઓએ અર્થાત્ તીર્થકરેએ આ ધર્મ કહ્યો છે. આ પ્રમાણે ભિક્ષુ અહિંસાને પરમ ધર્મ સમજીને પ્રાણાતિપાતથી લઈને મિથ્યાદર્શન શલ્ય સુધીના સઘળા પાપોથી વિરત થાય છે. અહિંસા ધર્મને જાણનારા મુનિ દત્તધાવન (દાતણુ) થી દાંતને ન દેવે આંખમાં અંજન-કાજળ ન આજે ઔષધને પ્રવેગ કરીને અથવા યૌગિક ક્રિયા દ્વારા For Private And Personal Use Only Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ." प्रत्याख्यानक्रियोपदेशः अञ्जनेन नेत्रे नाञ्जयेत् । 'नो वमगं' औषधिरयोगेण यौगिकपक्रियया वा वमनं न कुर्यात् , 'णो धूवाणित आइत्ते' नो धूपनमपि आददीत-धूपादिसुगन्धितद्रव्येण शरीरं वस्त्रं वा नो वासयेत् । ‘से भिक्खू स भिक्षुः-पूोंदीरितगुगविशिष्टा. 'अकिरिए' अक्रिय:-सावधव्यापारविवर्जितः, 'अलूसए' अलूपका-हिंसादिकुरिसत.. व्यापाररहितः । 'अकोहे' अक्रोधः 'जाव' यावत् 'अलोमे' अलोमो-लोमरहितः 'उवसंते' उपशान्तः 'परिनिव्वुडे' परिनिर्वृत्ता-सर्वपापरहितो भवेत् । 'एस खलु भगवया अक्खाए' एष खलु भगवता आख्यातः 'संनयविरयपडिहयपन. क्खायपारकम्मे' संयतविरतपतिहतमत्याख्यातपापकर्मा, तत्र वर्तमानकालि. कपापरहितः संयतः, भूतकालिकपापरहितो विरता, प्रतिहतमत्याख्यातपापकर्मा प्रतिहत-स्थित्यनुभागहासेन नाशितं तथा प्रत्याख्यातं पूर्वातिचारनिन्दया भविध्यत्यकरणेन निराकृतं पापं धर्म येन स तथा, 'अकिरिए' अक्रिया-सावधवमरहितः 'संधुडे' संवृतः-आस्रवपरित्यागेन 'एगंतपंडिए' एकान्तपण्डितः-सर्वथा पण्डित:, 'भवई' भवति इति भगवता कथितः, 'त्तिबेमि' इत्यहं ब्रवीमि ॥०५॥६७॥ इति श्री-विश्वविख्यात नगदल्लमादिपदभूषितवालब्रह्मवारि - ‘जैनाचार्य' पूज्यश्री-घासीलालबतिविरचितायां श्री सूत्रकृताङ्गसूत्रस्य “समयार्थबोधिन्याः ख्यया" व्याख्यया समलङ्कृतम् द्वितीयश्रुतस्कन्धीयाऽऽहारपरिज्ञानाम चतुर्थाऽध्ययनं समाप्तम् ।। यौगिक क्रिया के द्वारा वमन न करे। धूप आदि सुगंधित द्रव्यां से शरीर या वस्त्र को वासित न करे । उल्लिखित गुणों से सम्पन्न भिक्षु सावध क्रियाओं से रहित, हिंसा असत्य आदि कुत्सित व्यापारों से रहित, क्रोधमान माया और लोभ से रहित, उपशान्त तथा परिनिर्वृत्त अर्थात् समस्त पापों से रहित होता है। ऐसे भिक्षु को भगवान् ने संयत, विस्त, प्रतिहत प्रत्याख्यातपापकर्मा, अक्रिय, संवृत और एकान्तपण्डित कहा है ॥५॥ द्वितीयश्रुतस्कन्ध का चतुर्थ अध्ययन समाप्त ॥२-४॥ વમન (ઉલટી) ન કરે. ધૂપ વિગેરે સુગંધિત દ્રવ્યથી શરીર અથવા વસ્ત્રને सुमधपान रे. ઉપર બતાવવામાં આવેલા ગુણેથી યુક્ત ભિક્ષુ સાવદ્ય ક્રિયાઓથી રહિત હિંસા અસત્ય વિગેરે કુત્સિત વ્યાપારોથી રહિત ક્રોધ, માન, માયા. અને લેભથી રહિત ઉપશાન્ત તથા પરિનિવૃત્ત અર્થાત્ સઘળા પાપથી રહિત હોય છે. એવા ભિક્ષુને ભગવાને સંયત, વિરત, પ્રતિહત પ્રત્યાખ્યાત પાપકર્મા, અકિય, સંવૃત અને એકાન્ત પંડિત કહેલ છે. સૂઇ પા છે બીજા ગ્રુતરકંધનું એથું અધ્યયન સમાપ્ત ર-કા स. ६० For Private And Personal Use Only Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४७४ सूत्रकृताइयो ॥ अथ द्वितीय श्रुतस्कन्धस्य-पश्चममध्ययनं प्रारभ्यते ॥ साम्पनं पञ्चममध्ययनं पारम्य ते, अस्य चायमभिसम्ब-धः, चतुर्थाध्ययने प्रत्याख्यानक्रियोक्ता, सा चाचारव्यवस्थितस्य सतो भवतीति अतस्तदनन्तर. माचारश्रुताऽध्ययनमभिधीयते । अथवाऽनावारपरिवनेनेन सम्यकपत्याख्यानमस्खलितं भवत्यतेऽाचारश्रु मध्ययनं भवति, अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य प्रथमांगाथामाहपरम्-आदाय बंभचेरं च आसुपन्ने इमं वइं। अस्सि धम्मे अणायारं नायरेज्ज कयाइ वि ॥१॥ छाया--आदाय ब्रह्मवयं च-माशुपन इदं वचः। ___अस्मिन् धर्म अनाचारं नाचरेच कदापि हि । १॥ पांचवे अध्ययन का प्रारंभ अब पांचवां अध्ययन प्रारंभ किया जाता है। इसका संबंध इस प्रकार है-चौथे अध्ययन में प्रत्याख्यान क्रिया का कथन किया गया है। प्रत्याख्यान क्रिया आचार में स्थित साधु में ही हो सकती है, अत एव प्रत्याख्यान क्रियाका कथन करके आचारश्रुत नामके अध्ययन कहा जा रहा है। अथवा अनाचार का त्याग करने से निर्दोष सम्यक् प्रत्याख्यान हो सकता है, अतएव यह अनाचार श्रुनाध्ययन भी है। इस संबंध से प्राप्त इस अध्ययन का प्रथम सूत्र कहते हैं-'आदाय बंभ. चेरं च' इत्यादि। शब्दार्थ-'आसुपन्ने-माशुप्रज्ञः' कुशल प्रज्ञावान् पुरुष 'इमं वई -इदं वचः' इस अध्ययन में कहे जाने वाले वचनों को बंभचेरं-ब्रह्मचर्य પાંચમાં અધ્યયનને પ્રારંભ – હવે આ પંચમું અધ્યયન પ્રારંભ કરવામાં આવે છે આનો સંબંધ આ પ્રમાણે છે–ચેથા અધ્યયનમાં પ્રત્યાખ્યાન ક્રિયાનું કથન કરવામાં આવેલ છે. પ્રત્યાખ્યાનકિયા આચારમાં સ્થિત સાધુમાં જ થઈ શકે છે. તેથી જ પ્રત્યાખ્યાન ક્રિયાનું કથન કરીને આચારશ્રત નામનું આ પાંચમું અધ્યયન કહેવામાં આવી રહ્યું છે. અથવા અનાચારનો ત્યાગ કરવાથી નિર્દોષ સગ્ય પ્રત્યાખ્યાન થઈ શકે છે. તેથી જ આ અનાચાર થત અધ્યયન પણ કહેલ છે. આ સંબંધથી પ્રાપ્ત થયેલ આ અધ્યયનનું પહેલું સૂત્ર આ પ્રમાણે કહ્યું છે – 'मादाय बंभचेरं च' त्या शहाथ-'आसुपाने - आशुप्रज्ञः' ज्ञावान् पुष तथा 'इम-वई-इदं. वच' मा अध्ययनमा वामां माना। क्यानाने तथा 'बंभचेर- ब्रह्मचर्य' For Private And Personal Use Only Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समार्थबोधिनी टीका द्वि. शु. अ. ५ आचारत निरूपणम् अन्वयार्थ : - (आसुप-ने) आशुप्रज्ञः - पटुपज्ञः (इमं नई) इदं वचः - इमां वाचम् (चंमवेरं) ब्रह्मवर्यम् सस्वतपो भूतदयेन्द्रियनिरोधलक्षणं चादाय परिगृय (अहिंस) अस्मिन् जैनेन्द्रे (धम्मे ) धर्मे - सर्वज्ञपणीतधर्मे व्यवस्थितः ( कयाइ) कदापि हि (अणायारे) अनाचारम् - सावचाऽनुष्ठानरूपम् ( नाय रेज्ज) नाचरेत् न कुर्यात् इति ॥ १ ॥ टीका- 'आपने' आशुमज्ञः पटुपज्ञः - शीघ्रबुद्धिः - संसारमार्गः असत्यः, मोक्षमार्गः सत्यः एवं रूपेण सदसद्वस्तुनोर्ज्ञाता पुरुषः 'इमं वई' इदं समस्ता ध्ययनेनापि अधीयानं वचः- वाक्यम् तथा-'वंभचेरं च आदाय' ब्रह्मचर्यच - सत्यतपो जीवदयेन्द्रियनिरोधलक्षणम् आदाय परिगृद्य 'अस्सि धम्मे' अस्मिन् - जिनेन्द्रप्रति गदितत्रह्मचर्यात्मकधर्मे व्यवस्थितः । 'काइवि' कदापि हि कथमपि तथा ब्रह्मचर्य को ग्रहण करके 'अहिंस-अस्मिन्' जिनेन्द्र प्रतिपादित इस 'धम्मे- धर्मे' धर्म में स्थित होकर 'कथावि-कदापि हि' 'अणाधारं अना'चारम्' सावध अनुष्ठान रूप अनाचार 'नायरेज्ज - नाचरेत्' न करे ॥१॥ अन्वयार्थ - कुशल प्रज्ञावान् पुरुष इस अध्ययन में कहे जाने वाले aari को तथा ब्रह्मचर्य को ग्रहण करके जिनेन्द्र प्रतिपादित धर्म में स्थित हो कदापि अनाचार का सेवन न करे || १ || टीकार्थ - दुःखरूप संसार का मार्ग असत्य है और मोक्ष का मार्ग परम सत्य है, इस प्रकार सत्-असत् वस्तु को जानने वाला बुद्धिमान् पुरुष इस अध्ययन में कहे जाने वाले वचनों को तथा सत्य, तप, जीवदया, इन्द्रियनिरोध रूप ब्रह्मचर्य को ग्रहण करके जिनेन्द्र भगवान् के ब्रायने अणु उरीने अस्थि-अस्मिन् कनेन्द्र हेवे 'धम्मे- धर्मे' धर्मभां स्थित रखीने 'कयाइवि - कदापि हि' अनाचारम्' अनायार भेटले ! सावध अनुष्ठान ३५ नाचरेत्' सेवन ४२ नहि ॥१॥ વચનને તથા બ્રહ્મચર્યંને ગ્રહણ કરીને ધમ માં સ્થિત રહીને કયારેય અનાચારનુ iu For Private And Personal Use Only प्रतिपाहन रेलमा पशु समये 'अण्णायार' - मनायारतु' 'नायरेज्ज - અન્વયાય —કુશલ પ્રજ્ઞાવાન્ પુરૂષ આ અધ્યયનમાં કહેવામાં આવનાર જીનેન્દ્ર ભગવાને પ્રતિપાદન કરેલ સેવન ન કરે. ॥૧॥ ટીકા —દુઃખરૂપ સંસારના માર્ગ અસત્ય છે. અને મેક્ષ માળ પરમ સત્ય છે. આ રીતે સત્-અસત્ વસ્તુને જાણવાવાળા બુદ્ધિમાન્ પુરૂષ, આ અધ્યયનમાં કહેવામાં આવવાવાળા વચનાને તથા સત્ય, તપ, જીવદયા, ઇન્દ્રિય નિરોધ રૂપ બ્રહ્મચય ને ગ્રહણ કરીને જીનેન્દ્ર ભગવાન દ્વારા પ્રરૂપણા કરવામાં Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतागपत्र 'अणायारं' अनाचारम्-आचारपतिकूलमाचरणम्-सावद्यानुष्ठानलक्षणम् 'नायरेन्ज' नाचरेत् अनाचारसेवन कथमपि न कुर्यादिति ।।गा.-१॥ मूलम्-अणाइयं परिन्नाय अणवदग्गेइ वा पुणो । सासयमसासए वा, इइ दिट्टि न धारए ॥२॥ छाया-अनादिकं परिज्ञाय अनवदग्रेति वा पुनः । शाश्वनमशाश्वतं वा इति दृष्टि न धारयेत् ॥२॥ अन्वयार्थः--(अणाइयं) अनादिकम् -आदिरहितम् (वा पुणो) वा पुनः (श्रणवदग्गे) अनवदग्रम्-अपर्यवसानम् -अनन्तम् इति (परिनाय) परिज्ञाय-सालोकं प्रमाण द्वारा ज्ञात्वा (पासर) शाश्वतम्-अविनश्वाम् (भसासए) अशाश्वतम्विनश्वरम् (इइ दिदि) इति दृष्टिम्-एतादृशी-सर्व एकान्तनित्यः एकान्ताऽनित्यो वा, इति बुद्धिम् (व धारए) न धारयेत्-न कुर्यादिति ॥२॥ द्वारा प्ररूपित इस धर्म में स्थित होकर कदापि अनाचार अर्थात् कुहिलत निषिद्ध या सावध आचार को सेवन न करे ॥१॥ . 'अण्णाायं' इत्यादि। शब्दार्थ-'अणाइयं-अनादिकम्' आदि रहित वा पुणो-वा पुनः' अथवा 'अणवदग्गेह-अनवयम्' अनवग्र अनन्त-अन्तरहित ऐसा परिन्नाघपरिज्ञाय' सर्वलोकको प्रमाण द्वारा जानकर 'सासए-शाश्वतम्' शाश्वत है अथवा 'असासए-प्रशाश्वतम्' अशाश्वत-विनश्वर है 'इह दिदि-इति दृष्टिम्' ऐसी एकान्त दृष्टिको 'न धारए-न धारयेत्' धारण न करे ॥२॥ - अन्वयार्थ --सम्पूर्ण लोक को प्रमाण के द्वारा अनादि और अनन्त जान कर यह शाश्वत ही है या अशाश्वत ही है, ऐसी एकान्त बुद्धि को धारण न करे ॥२॥ આવેલા આ ધર્મમાં રિથત થઈને કે ઈ પણ વખતે અનાચાર અર્થાત કુત્સિત, નિષિદ્ધ અથવા સાવદ્ય આચારનું સેવન ન કરે. જ્યાં 'अणाइयं त्या शाय'--'अणाइयं-अनादिकम्' माहिति वा पुणो-वा पुनः' 2424॥ 'अणवदग्गेइ-अनवदनम्' मन -मनन्त २५५ वसान परिन्नाय-परिहाय' प्रभार द्वारा oneीने 'सासए-शाश्वतः' शाश्वत ॥ छे. अथवा 'असासएअशाश्वतः' भयावत or छे. 'इइ दिद्धि-इति दृष्टिम्' वाट न धारए-न धारयेत्' धार न ४२. ॥२॥ અન્વયાર્થ–સંપૂર્ણ લેકને પ્રમાણ દ્વારા અને દિ અને અનન્ત જાણીને આ શાશ્વત જ છે. અથવા અશાશ્વત જ છે. એવી એકાન્ત બુદ્ધિ ધારણ ન કરે. રા For Private And Personal Use Only Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् टोका--'श्रणाइयं' अनादिकम्-नादिः-प्रथमोस्पतिधिने यस्य तदनादि. कम्-आदिरहितम् । 'पुणों' पुनः, तथा-'अणवदग्गेइ' अनवदनम्-न विधते अब दग्रं पर्यन्तं यस्य सोऽनवदग्रं तदेवं भूतम् 'परिन्नाय' परिज्ञाय-लोकोऽयं चतुर्दश रज्ज्वारमको धर्माधर्मादिरूपो वा अनादिरन्तरहितश्चेति प्रमाणतः 'सासए' शाश्वः तमेव-शश्वदर्भवतीति शाश्वतम्-नित्यं सांख्यमताभिपायेणानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावम् एकान्तनित्यमेवाकाशादिवस्तु 'असासए' अशाश्वतम्-एकान्तमनित्यम्-विनश्वरम् 'दिहि' दृष्टिम्-अभिप्रायम्-इदन्तद् एकान्तनित्यम् इरन्तद् एकान्तमनित्यमित दृष्टिमाग्रहं न धारयेत् । एतादृशं कदाग्रहं न कुर्यात्कथमपि । किन्तु सर्वमेव वस्तु द्रव्यरूपेण नित्यं पर्यायरूपेग अनित्यमित्येव जानीयादिति भावः। २॥ . ___टीकार्थ--जिसकी आदि प्रथम उत्पत्ति-न हो, वह अनादि कहलाता है। जिसका अन्त न हो उसे अनन्त कहते हैं। यह चौदह रज्जु परिमाण वाला अथवा धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय मय लोक आदि और अन्त से रहित है, ऐसा प्रमाण से जानकर ऐसा अभिप्राय धारण न करे कि यह नित्य ही अथवा अनित्य ही है। इस प्रकार का कदाग्रह धारण करना योग्य नहीं है, क्योंकि प्रत्येक वस्तु द्रव्य रूप से नित्य और पर्यायरूर से अनित्य है। सांस मा के अनुसार लोक कभी उत्पन्न नहीं होता और सदैव स्थिर एक स्वभाव में रहता है। बौद्धमत में यह एकान्त विनश्वर है अर्थात् क्षण क्षण में सर्वथा नष्ट होता रहता है, यह दोनों एकान्त अभिप्राय है, अतएव मिथ्या हैं ॥२॥ ટકાઈ_જેની આદિ અર્થાત ઉત્પત્તિ ન હોય, તે અનાદિ કહેવાય છે. અને જેનો અન્ત અત્ નાશ ન હોય, તેને અનંત કહે છે. આ ચૌદ રાજના પ્રમાણવાળા અથવા ધર્માસ્તિકાય, અધર્માસ્તિકાય વાળે લેક-સંસાર આદિ અને અંત વિનાને છે. એ રીતે પ્રમાણથી જાણીને એ અભિપ્રાય ધારણ ન કર है-म नित्य छे. अथवा मनित्य छे. मा प्रभावनेहाई-सोटी આગ્રહ ધારણ કર એગ્ય નથી. કેમકે-દરેક વસ્તુ દ્રવ્યપણાથી નિય અને પર્યાયપણથી અનિત્ય છે. સાંખ્ય મત પ્રમાણે લેક કયારેય ઉત્પન્ન થતું નથી. અને હંમેશાં સ્થિર એક સ્વભાવમાં રહે છે. બૌદ્ધ મત પ્રમાણે આ એકાન્ત વિનશ્વરનાશ પામવાવાળો છે. અર્થાત્ ક્ષણે ક્ષણે સર્વથા નાશ પામતે રહે છે. આ બંને એકાન્ત અભિપ્રાય છે, તેથી જ તે મિથ્યા છે સૂર For Private And Personal Use Only Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७४ सूत्रकृतानपत्रे मूलम्-एएहिं दोहि ठाणेहिं वैवहारो ण विजई। एएहिं दोहिं ठाणेहि अणायारं तु जाणए ॥३॥ . छाया-एताभ्यां द्वाभ्यां स्थानाभ्यां व्यवहारो न विद्यते । एताभ्यां द्वाभ्यां स्थानाभ्या मनाचारन्तु जानीयात् ॥३॥ . अन्वयार्थ:--'एएहि' एनाभ्याम्-एकान्तनित्यमेकान्ताऽनित्यमित्यम्युपगमाभ्याम् 'दोहि' द्वाभ्याम् 'ठाणेहि' स्थानाभ्याम्-पक्षाचार 'कबहारो' व्यवहार -शास्त्रीयो लौकिको वा 'ण विजनई' न विद्यते-न भाति, तथा-'एरहि' एता. भ्यामेव 'दोहि' द्वाभ्याम्-एकान्तनित्यत्वस्वीकारेकान्तानित्यत्वस्वीकाराभ्याम् 'एएहिं दोहि ठाणेहिं' इत्यादि। शब्दार्थ-'एएहि-एताभ्यां' एकान्त नित्य और एकान्त अनित्य 'दोहि-दाभ्यां' इन दोनों 'ठाणेहि' स्थानाभ्याम्' स्थानोंसे अर्थात् पक्षों से 'ववहारो-व्यवहारः' शास्त्रीय अश्वा लौकिक व्यवहार ‘ण विज्जह न विद्यते' नहीं होता। तथा 'एएहि-एताभ्याम्' इन दोहिं-द्वाभ्याम्' दोनों 'ठाणेहि-स्थानाभ्याम्' स्थानों से 'अणायारं-अनाचारम्' अना. चार 'जाणए-जानीयात्' जानना चाहिए । अर्थात् एकान्त नित्य और एकान्त अनित्य पक्षमें से किसी एक पक्षका स्वीकार करना अनाचार है यह सर्वज्ञ के आगम से बाहर है ॥३॥ __ अन्वयार्थ-- एकान्त नित्य और एकान्त अनित्य इन दोनों स्थानो अर्थात् पक्षों से शास्त्रीय अथवा लौकिक व्यवहार नहीं होता। तथा इन दोनों स्थानों से अनाचार जानना चाहिए । अर्थात् एकान्त नित्य एएहिं दोहि ठाणेहि' या शाय-एएहि-एताभ्याम्' मेन्त नित्य भने सान्त भनित्य 'दोहिं द्वाभ्यां' मा मन्ने 'ठाणेहिं-स्थानाभ्याम्' स्थानायी सात पक्षाची 'ववहारो-व्यवहारः' शाखीय अ५१ ली ०५वडा२ 'ण विज्जइ-न विद्यते' था नथी तथा 'एहि-एताभ्याम्' मा 'दोहिं-द्वाभ्याम्' भन्ने 'ठाणेहि-स्थानाभ्याम्' २थानायी 'अणायार-अनाचारम्' मनायार 'जाणए-जानीयात्' । . अर्थात् એકાન્ત નિત્ય અને એકાન્ત અનિત્ય પક્ષમાંથી કંઈ એક પક્ષને સ્વીકાર કરે તે અનાચાર છે. આ સર્વજ્ઞના આગમથી બહાર છે તેમ સમજવું. આવા '' अन्याय ---Dird नित्य भने त भनित्य मा भन्ने स्थान અર્થાતું પક્ષેથી શાસ્ત્રીય અથવા લૌકિક વ્યવહાર થતું નથી. આ બન્ને For Private And Personal Use Only Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थषोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् 'ठाणेहि स्थानाम्याम्, 'अणायारं' अनाचारम् 'जाणर' जानीयादिति। अनयोरे. कतरस्य स्त्रोकारे अनाचारो मौनीन्द्रागमबाह्य रूपो भातीति ३ । टंका---एकान्तनिस्यानित्यपक्षे व्यवहारो न भविष्यतीति सूत्रकारः स्वय. मेव दर्शयति-'एएहि' इत्यादि । 'एएहि एताभ्याम् 'दोहि' द्वाभ्याम् 'ठाणेहि' स्थानाभ्याम्-पक्षाभ्याम्-सर्व वस्तु एकान्ततो नित्यमेकान्ततोऽनित्यमित्याकाराभ्यामितियावत् , 'ववहारो' व्यवहारः-लौकिको लोकोत्तरी चा ऐहिकामुष्मिक रूपो यः प्रवृत्तिनिवृत्तिलक्षणः 'ण विज्जई' न विद्यते न भवति एकान्तनित्य : पक्षाऽभ्युपगमे एकान्ताऽनित्यतापक्षाऽभ्युपगमे वा, व्यवहारः शास्त्रीयो वा लौकिको वा न संभवेत्, 'एएहिं' एताभ्याम् 'दोहि' द्वाभ्याम् 'ठाणेहि' स्थाना. भाम्-एकान्तनित्याऽनित्याभ्याम् 'भगायारं तु जाणए' अनाचारं-मौनीन्द्रागम बाथरूमं जानीयात्, एकान्तनित्यपक्षाऽभ्युपगमे एकान्तानित्यपक्षाऽभ्युपगमे च अनाचारो भाति । अन एताभ्यामेवाऽनाचारं जानीयात् । किन्तु-एतव्य. तिरिक्त उमयात्मक एव पक्षः स्वीकर्तव्य इति । सामान्यसमन्मयिनमंशं द्रव्या और एकान्त अनित्य पक्ष में से किसी एक पक्ष को स्वीकार करना अनाचार है। यह सर्वज्ञ के आगम से बाहर है ॥३॥ टीकार्थ-सूत्रकार स्वयं दिखलाते हैं कि एकान्त नित्य और एकान्त अनित्य पक्ष में व्यवहार नहीं बन सकता। सब वस्तुएं एकान्ततः नित्य ही हैं अथवा अनित्य ही हैं, इन दोनों पक्षों में से किसी भी एक पक्ष से लौकिक या लोकोत्तर, इहलोक संबंधी या परलोक संबंधी प्रवृत्ति निवृत्ति रूप व्यवहार नहीं होता है । अतएव इन दोनों एकान्त पक्षों के द्वारा अनाचार जानना चाहिए अर्थात् यह दोनों एकान्त पक्ष जिनागम से बाह्य हैं। इन दोनों से भिन्न कथंचित् नित्य कथंचित् થાનેથી અનાચાર સમજવો જોઇએ. અર્થાત્ એકાન્ત નિત્ય અને એકાન્ત અનિત્ય એ બે પક્ષ પૈકી કોઈ એક પક્ષને સ્વીકાર કરે તે અનાચાર છે. આ સર્વજ્ઞના આગમથી બહાર છે પારા ટીકાર્થ–સૂત્રકાર પિતે બતાવે છે કે–એકાન્ત નિત્ય અને એકાત અનિત્ય પક્ષમાં વ્યવહાર થઈ શક નથી સઘળી વસ્તુઓ એકાન્તતઃ ! નિત્ય જ છે. અથવા અનિત્ય જ છે. આ બન્ને પક્ષોમાંથી કઈ પણ પક્ષથી લૌકિક અથવા લોકોત્તર આલેક સંબંધી અથવા પરલેક સંબંધી પ્રવૃત્તિ નિવૃત્તિ રૂ૫ વ્યવહાર થતું નથી. તેથી જ આ બને એકાન્ત પક્ષો દ્વારા અનાચાર સમજે જોઈએ, અર્થાત્ આ ને એકાન્ત પક્ષ જીનાગમથી બહાર છે. For Private And Personal Use Only Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Ver सूत्रकृतास्त्र स्मकमाश्रित्य स्यान्नित्य इति भरति, तथा प्रतिक्षणं रूपपरिवर्तनकारिणं विशेषांशमाश्रित्य स्या निम्य इति भवति, तदुक्तम् - घटमौलिसुवर्णार्थी नाशे स्यादस्थितिष्वयम् । शोकपमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ।। अर्थात् कस्याश्चिद्राजकन्यायाः सुवर्ण कलश आसीत् , राजा च सुवर्ग कारद्वारा वही सदीय सुवर्णकलशं गलितं कारयित्वा स्वकीयराजकुमाराय ततः सुवर्णात् शिरोंमुकुट निर्मापितवान् , राजकन्या च तं विषयमवगत्य शोकातिशया जाता, राजअनित्य पक्ष ही स्वीकार करने योग्य है। प्रत्येक वस्तु सामान्य अर्थात् द्रव्य अंश से सदैव विद्यमान रहती है, अतएव नित्य है किन्तु उसको विशेष अर्थात् पर्याय अंश क्षण क्षण में बदलता रहता है, वह नई पुरानी होती रहती है, अतएव अनित्य भी है। कहा भी है-'घट मौलि सुवर्णार्थी' इत्यादि। ___घट मुकुट और स्वर्ण का अभिलाषी नाश. उत्पाद और ध्रुवता पर्यायों में क्रमशः शोक, प्रमोद और मध्यस्थभाव को प्राप्त होता है, अतएव सिद्ध होता है कि प्रत्येक वस्तु उत्पाद, विनाश और ध्रौव्य से युक्त है। तात्पर्य यह है कि कल्पना कीजिए-एक राजा को एक प्रिय लड़की है और एक गुणवान लड़का है। लड़की का स्वर्ण को पना घट है, रानाने उस स्वर्णमय घटको सुवर्णकार द्वारा गलवाकर राजकुमार के लिये मुकुट बनवाया है। ऐसी स्थिति में घटको मिटाकर मुकुट बनवाया जाने से लड़की को આ બન્નેથી જૂદા કથંચિત્ નિત્ય કથંચિત અનિત્ય પક્ષ જ સ્વીકાર કરવાને ગ્ય છે. દરેક વસ્તુ સામાન્ય અર્થાત્ દ્રવ્ય, અંશથી હંમેશાં વિદ્યમાન રહે છે. તેથી જ તે નિત્ય છે. પરંતુ તેના વિશેષ અર્થાત્ પર્યાય અંશ ક્ષણ ક્ષણમાં બદલાતા રહે છે. તે નવીન અને જૂના થતા રહે છે. તેથી જ અનિત્ય ५५ छ. ४थु ५० छे.-घरमौलि सुवर्णार्थी' त्या ઘટ, મુગુટ, અને સેનાની ઈચ્છાવાળા નાશ, ઉત્પાદ અને ધ્રુવપણું પર્યામાં કમથી શેક, પ્રમોદ-આનંદ અને મધ્યસ્થ ભાવને પ્રાપ્ત થ ય છે. तेथी । सिद्ध थाय छे. ४-४२४ १२तु अपात, विन. मने प्रीव्यथा युक्त छ. ४ातु त५य से छे ।-४८१ना । 3-2 २.०ने से प्रिय पुत्री छ, અને એક ગુણિયલ પુત્ર છે; પુત્રીને સેનાને ઘડે છે, રાજાએ તે સેનાના ઘડાને એની પાસે ગળાવીને કુમાર માટે તેને મુગુટ બનાવો. આ સ્થિતિમાં ઘડાને ભાંગીને (ઘટ રૂપથી મટાડીને) મુકુટ બનાવવાથી તે છોકરીને દુઃખ For Private And Personal Use Only Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.५ आचारंश्रुतनिरूपणम् कुमारश्च सुवर्णमुकुटलाभात् प्रमोदातिशयं प्रलेभे, राजा च न शोकवान न का प्रमोदवान् किन्तु शोकममोदमाध्यस्थ्यं गतः घटस्य नाशेऽपि तदीयसुवर्णस्य ताद. वस्थ्यात् । तत्र यदि पदार्थ एकान्ततो नित्य स्तदा राजकन्यायाः कथं शोका, यदि च एकान्ततोऽनित्य स्तदा राजकुमारस्य कथं हर्षा तिशयः, राज्ञश्च शोकपमो. दावपि न जातो, इत्यपि कथम् , तस्मात् पदार्थः कथञ्चिन्नित्यः कश्चिदनिस्या, अयमेव पक्षः श्रेयान् , न तु एकान्ततो नित्यः, एकान्ततोऽनित्यश्चेति पक्षा, व्यवहारविरुद्धत्वादनाचारत्वाच्च तदेवं नित्याऽनित्यपक्षयो व्यवहारो न विद्यते अनयोरेव अनाचारं जानीयादिति ॥ ३॥ म्लम्-समुच्छिहिति सत्थारो सटवे पाणा अणेलिसा। गंठिया वा भविस्संति सासयंतिव णो वैए ॥४॥ छाया-समुच्छेत्स्यन्ति शास्तारः सर्वे पाणा अनीदृशाः । ग्रन्थिका वा भविष्यन्ति शाश्वता इति नो वदेत् ॥४। शोक होता है, क्योंकि उसकी अभीष्ट वस्तु नष्ट होती है, लड़के को प्रसन्नता होती है, क्योंकि उसकी इष्ट वस्तु प्राप्त होती है और स्वयं राजा मध्यस्थ रहता है, क्योंकि उसकी दृष्टि में सोना सोने के रूप में कायम ही है, न उसका विनाश हुआ है न उत्पत्ति हुई है। इस प्रकार प्रत्येक वस्तु विनाश उत्पाद और स्थितिशील ही है। यदि वस्तु त्रिरूप न होती तो इन तीनों व्यक्तियों के मन में तीन प्रकार की भावनाएं और तज्जनित शोक, प्रमोद और माध्यस्थ्य क्यों होता है ? इससे स्पष्ट है कि प्रत्येक वस्तु कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य है ॥३॥ થાય છે. કેમકે–તેની પ્રિય વસ્તુને નાશ થાય છે. અને છેક ખુશી થાય છે, કેમકે તેને પ્રિય વસ્તુની પ્રાપ્તિ થાય છે. તથા સ્વયં રાજા મધ્યસ્થતટસ્થ રહે છે. કેમકે તેની દષ્ટિમાં સેનું સનારૂપેથી કાયમ જ છે. તેને નાશ થયે નથી, તથા ઉત્પત્તિ પણ થઈ નથી. આ પ્રમાણે દરેક વસ્તુ વિનાશ ઉત્પત્તિ અને સ્થિતિના સ્વભાવ વાળી જ છે. જે વસ્તુ ત્રણે રૂપવાળી ન હત, તે આ ત્રણે વ્યક્તિના મનમાં ત્રણ પ્રકારની ભાવના અને તેનાથી થવાવાળા શેક, આનંદ અને માધ્યસ્થ-તટસ્થ પણું કેમ થાત ? આથી સ્પષ્ટ થાય છે કે-દરેક વસ્તુ કથંચિત્ નિત્ય અને કથંચિત્ અનિત્ય છે. સૂ૩ सु० ६१ For Private And Personal Use Only Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पताजास्त ". अन्वयार्थ:- सत्यारो) शास्तारः-शासनस्य प्रति यतारः-तीर्थकराः । बहनुयायिनव भव्यजीवाः (मुच्छिहिति) समुच्छेत्स्यन्ति क्षयं प्राप्स्यन्ति अथवा 'समुच्छिहिति' इत्यादि। शब्दार्थ-सस्थारो-शास्तार' शास्ता अर्थात् शासन के प्रवर्तक तीर्थंकर तथा उनके अनुयायी भव्य जीव 'समुच्छिहिति-समुच्छे. सान्ति' उच्छेदको प्राप्त होंगे अर्थात कालक्रप्रसे सभी मुक्ति प्राप्त कर खेंगें सबके मुक्त हो जाने पर जात् जीयों से शून्य अर्थात् भव्यजीवों से रहित हो जायगा, क्यों कि काल की आदि और अन्त नहीं है। अथवा 'सम्वे पाणा-सर्वे प्राणाः' सभी जीव 'अणेलिसा-अनीदृशाः परस्पर विसदृश हैं, सभी जीव 'गंठिया-अधिका' कर्मों से बद्ध ही 'भविस्संति-भविष्यन्ति' रहेंगे अथवा 'सासयंति व जो वए-शाश्वता इति नो वदेत्' सर्वजीव शाश्वत ही है, ऐमा नहीं कहना चाहिए। यदि सष जीव मुक्त हो जाएं तो जगत् जीवशून्य होने से जगत् ही नहीं रहेगा भतएव ऐसा कहना उचित नहीं है, ऐसा भी नहीं कहना चाहिए की सभी जीव कर्मबद्ध ही रहेंगे अथवा तीर्थकर सर्वदा स्थित रहेंगे यह सब एकान्त वचन मिश्या है ॥४॥ अन्वयार्थ- शास्ता अर्थात् शासन के प्रवर्तक तीर्थ कर तथा उनके 'समुच्छिहिति' त्या शपथ-'सत्यारो-शास्तारः शास्त। अर्थात् शासनना प्रवि तीर्थ ४२ तथा ताना अनुयायी म०य 'समुच्छिहिति-चमुच्छेत्स्यन्ति' ઉદને પ્રાપ્ત કરશે. અર્થાત્ ક લકમથી સઘળા મુક્તિ પ્રાપ્ત કરી લેશે. બધા મુક્ત થઈ ગયા પછી જગત જીથી શૂન્ય અર્થાત્ ભવ્ય જી વગરનું सनी नशे म नी माहि सने मत हात नथी. 24। 'सव्वे पाणा सर्वे प्रणाः' सपणा । 'अणे लिसा-अनीदृशाः' मन्योन्य विसई छ. मधा | 'गठिया-ग्रन्थिकाः' थी मा 'भविस्संति भविष्यन्ति' २२शे. मथ 'सासयंति व णो वए-शाश्वता इति नो वदेत्' सघना यो शत छ. તેમ કહેવું ન જોઈએ જે બધા જ છે મુક્ત થઈ જાય તે જગતુ જીવ વગરનું થવાથી જગત જ રહેશે નહીં તેથી જ તેમ કહેવું બરાબર નથી. એમ પણ કહેવું ન જોઈએ કે-સઘળા જીવે કર્મબદ્ધ જ રહેશે. અથવા તીર્થકર હંમેશાં રિથત રહેશે. આ બધા એકાન્ત વચને મિથ્યા છે. પાકા • અથાર્થ–-શાસત અર્થાત્ શાસન પ્રવર્તાવનાર તીર્થકર તથા તેમના For Private And Personal Use Only Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.५ आचारश्रुतनिरूपणम् ४८३ सर्वे भव्यजीवाः सिद्धिं गमिष्यन्ति कालक्रमेण, तदा-सर्वेषु मुक्तेषु कालस्याऽनाधनन्तत्वात्ततो जगज्जीवविरहितं स्यात् । ‘सने पाणा' सर्वे प्राणाः पाणिनः यावज्जीवाः (अणेलिप्सा) अनीदृशाः-विसदृशाः विभिन्ना इति यावत् । (गठियावा) ग्रन्थिका रा (भविरसंति) भविष्यन्ति-प्रन्थिकर्म तद्वन्तः सर्वे जीवा भविष्यन्ति । बद्धा एव स्थास्यन्ति इत्यर्थः । (सासयंति व णो वए) शाश्वा इति नो वदेत्, सर्वे जोवा मुक्ता भविष्यन्ति तदा जगदुच्छिन्नं स्यात्, जीवरहितत्वात् । अथवा सर्वे बद्धा एक स्थास्यन्ति तीर्थ कराः सर्वदा स्थास्यन्त्येव इत्येकान्तवचनं नो वक्तव्यमिति ॥१॥ टीका-'सत्यारों' शास्तारः भव्याश्च 'समुच्छिहिति' समुच्छेत्स्यन्तिउच्छेदं कर्मबन्धनराहित्य प्राप्स्यन्ति सर्वभव्यानां मुक्तिगमनेन भव्यशून्यो लोकः स्यादिति, एवम् 'सासयं तिव' शाश्वता:-नित्याः सर्वदा अवस्थायिन एव भरिप्यन्ति इत्यपि 'नो वए' नो वदेत् तथा-'सव्वे पाणा' सर्वे प्राणाः जीवाः 'अणे. अनुयायी भव्य जीव उच्छेद को प्राप्त होंगे अर्थात् कालाक्रम से सभी मुक्ति प्राप्त कर लेगे। सब के मुक्त हो जाने पर जगत् जीवों से अर्थात् भव्य जीवों से रहित हो जायगा, क्योंकि काल की आदि और अन्त नहीं है । अथवा सभी जीव परस्पर विसदृश हैं, सभी जीव कर्मों से बद्ध ही रहेंगे, सब जीव शाश्वत ही हैं, ऐसा नहीं कहना चाहिए। यदि सब जीव मुक्त हो जाएं तो जगत् जीवशून्य होने से जगत् ही नहीं रहेगा अतएव ऐसा कहना उचित नहीं है। ऐसा भी नहीं कहना चाहिए कि सभी जीव कर्मबद्ध ही रहेंगे अथवा तीर्थंकर सदैव स्थित रहेंगे। यह सब एकान्त वचन मिथ्या हैं ॥४॥ टीकार्थ-तीर्थ कर और भव्य जीव उच्छेद को प्राप्त हो जाएंगे अर्थात् कर्मवन्धन से रहित होकर मोक्ष में चले जाएंगे, तब यह लोक भव्य. जीवों से शून्य हो जाएगा। अथवा तीर्थंकर और सब भव्य जीव सदैव અનયાયી ભવ્ય જીવ ઉદને પ્રાપ્ત થશે. અર્થાત્ કાલકમથી બધા જ મુક્તિ પ્રાપ્ત કરી લેશે બધા જ મુક્ત થયા પછી જગત્ જીવેથી અર્થાત ભવ્ય જીવથી પતિ બની જશે. કેમકે કાળની આદિ અને અન્ત નથી. બધા જ પરસ્પર વિસદેશ અથવા બધાજ જે કર્મોથી બદ્ધ જ રહેશે. બધા જ જીવે શાશ્વત જ છે. તેમ કહેવું ન જોઈએ. જે બધા જ જી મુક્ત થઈ જાય તે જગત જીવ શ થવાથી જગત જ નહીં રહે તેથી જ તેમ કહેવું ચગ્ય નથી. એમ પણ કહેવું ન જોઈએ કે બધા જ કર્મબદ્ધ જ રહેશે. અથવા તીર્થકર સદા કાયમ જ રહેશે. આ બધા એકાન્ત વચને મિથ્યા છે. જો ? ' ટીકાળું–તીર્થકર અને ભવ્ય જીવે ઉદને પ્રાપ્ત થઈ જશે અર્થાત કર્મના બંધ વિનાના થઇને મેક્ષમાં જશે. ત્યારે આ લેક ભવ્ય છે For Private And Personal Use Only Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४८४ सूत्रकृताङ्गसूत्र लिसा' अनीदृशाः-विसदृशाः-विलक्षणा एव न कयश्चित् तेषां परस्पर सादृश्यमस्ति इत्यपि नो वदेत् , तथा-'गंठिया वा भविसति' ग्रन्थिका वा भविष्यन्ति कर्मग्रन्ययुका एक सर्वे जी भविष्यन्ति इत्यपि नो वदेत् ॥४॥ मूलम्-एएहिं दोहिं ठाणेहिं ववहारो ण विजइ। एएहिं दीहिं ठाणेहिं अणायारं तु जाणए ॥५॥ छाया--एताभ्यां द्वाभ्यां स्थानाम्य व्यवहारो न विद्यते । एताभ्यां द्वाभ्यां स्थानाभ्याम् अनाचारन्तु जानीयात् ॥५॥ स्थित ही रहेगे-कोई मोक्ष नहीं प्राप्त करेगा, ऐसा नहीं कहना चाहिए। सभी प्रागी परस्पर विलक्षण ही हैं, उनमें किश्चित् भी समानता नहीं है, ऐसा भी नहीं कहना चाहिए ॥४॥ -- 'एएहिं दोहि ठाणेहि' इत्यादि । __ शब्दार्थ--'एएहि-एताभ्याम्' इन 'दोहि-द्वाभ्याम्' दोनों एकान्त नित्य और एकान्त अनित्य 'ठाणेहिं-स्थानाभ्याम्' पक्षों से 'ववहारोंव्यवहारः' शास्त्रीय अथवा लौकिक व्यवहार 'ण विज्जह-न विद्यते' संभवित नहीं है अतएव 'एएहि-एताभ्याम्' इन दोहि-द्वाभ्याम्' दोनों 'ठाणेहि-स्थानाभ्याम्' पक्षों के सेवनको 'अणायारं-अनाचारं' अनाचार 'जाणए-जानीयात्' जानना चाहिए, कल्याणकी अभिलाषा रखने वाले को किसी भी एकान्त पक्षका अवलम्बन नहीं करना चाहिए ५। વિનાને થઈ જશે. અથવા તીર્થકર અને સઘળા ભવ્ય જ હંમેશા સ્થિત જ રહેશે. કેઈ એક્ષને પ્રાપ્ત કરશે નહીં તેમ કહેવું ન જોઈએ. સઘળા પ્રાણિ પરસ્પર વિલક્ષણ જ છે. તેમાં કિંચિત્ પણ સરખા પણું નથી. તેમ પણ કહેવું ન જોઈએ. સૂ૦૪ 'एएहि दोहि ठाणेहि' त्याहि । - शहा- 'एएहि-एताभ्याम्' मा 'दोहि-द्वाभ्याम्' भन्ने मेन्त नित्य भने त मनित्य 'ठणेहि-स्थानाभ्याम्' ५२थी ‘ववहारो-व्यवहारः' शास्त्रीय मnalls व्यवहार 'विजइ-न विद्यते' समवित नयी तथा 'एएहिएताभ्याम्' 241 'दोहिं-द्वाभ्याम्' भन्ने "ठाणेहि-स्थानाभ्याम्' पक्षाना सेवनने 'अणायारं-'अनाचारम्' मनाया२ 'जाणए-जानीयात्' ong नये. यानी ઈચ્છા રાખવાવાળાએ કે એકાન્ત પક્ષનું અવલમ્બન કરવું ન જોઈએ. પાપા અન્વયાર્થ—-આ બને એકાત નિત્ય અને એકાન્ત અનિત્ય પક્ષોથી શાસ્ત્રીય અથવા લૌકિક વ્યવહાર સંભવિત નથી. તેથી જ બને એકાન્ત For Private And Personal Use Only Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.५ आचारश्रुतनिरूपणम् ___ अन्वयार्थ :--(एएहि) एताभ्याम् (दोहि) द्वाभ्याम्-एकान्तनित्यानित्याभ्याम् 'ठाणेहि' स्थानाम्याम्-पक्षाभ्याम् (ववहारो) व्यवहारः-शास्त्रीयो कौकिको वा (ण विज्नई) न विद्यते-न संभवति, (एएहिं) एताभ्याम् 'दोहि' द्वाभ्याम् (ठाणेहि) स्थानाभ्याम् अवलम्बिताभ्याम् (अगायारं तु) अनानारन्तु-अक्रमम् (जाणए) जानीयात्, अत एकान्तः पक्षो न सेव्यः श्रेयोऽथिमिः । एकान्ततरा-एकतरपक्षाऽवलम्बनाभिनिवेशो न श्रेयान् ॥५॥ टीका--'एएहिं दोहि ठाणेहिं' एताभ्यां द्वाभ्यां स्थानाभ्यां सर्वे शास्तार: क्षयं यास्यन्ति शाश्वा वा भविष्यन्ति, यद्वा-सर्वे प्राणिनोऽनीदृशाः विसदृशाः, तथा-सर्वे ग्रन्थिका एक भविष्यन्ति हत्याकाराभ्यां पक्षाभ्याम् ववहारो ण विजनई' व्यवहारो न विद्यते, अपम्भावः-यदुक्तं सर्वे शास्तारः क्षयं यास्यन्ति तदयुक्तक्षयकारणभूतस्य कर्मणोऽभावात् न वा सर्वे शास्तारः शाश्वता एव, अन्वयार्थ-इन दोनों एकान्त नित्य और एकान्त अनित्य पक्षों से शास्त्रीय अथवा लौकिक व्यवहार संभावित नहीं है। अतएव दोनों एकान्त पक्षों के सेवन को अनाचार जानना चाहिए । कल्याण की अभिलाषा रखने वाले को किसी भी एकान्त पक्ष का अवलम्बन नहीं करना चाहिए ५। टीकार्थ-सभी तीर्थकर क्षय को प्राप्त हो जाएंगे या सिद्धि प्राप्त कर लेंगे अथवा सब शाश्वत ही हैं, सभी प्राणी सर्वथा विसदृश की हैं, सब जीव सकर्मक ही रहेंगे, इस प्रकार के दोनों एकान्त पक्षों से व्यवहार नहीं हो सकता । भाव यह है-सभी शास्ता तीर्थकरों का क्षय हो जाएगा, यह कहना अयुक्त है, क्योंकि क्षय के कारणभूत कर्म का अभाव है। सब शास्ता शाश्व न ही हैं, यह कहना भी समीचीन नहीं है, क्योंकि भवस्थकेवली-अर्हन्त सिद्धिगमन करते हैं, अर्थात् પક્ષોના સેવનને અનાચાર સમજવો જોઈએ કલ્યાણની અભિલાષા રખવાવાળાએ કઈ પણ એકા ત પક્ષનું અવલમ્બન કરવું ન જોઈએ. પા ટીકાઈ–સઘળા તીર્થક ક્ષયને પ્રાપ્ત થઈ જશે. અથવા સિદ્ધિને પ્રાપ્ત કરી લેશે. અથવા બધા શાશ્વત જ છે. સઘળા પ્રાણિ સર્વથા વિસદશ જ છે. સઘળા જી સકર્મક જ રહેશે આ પ્રમાણેના બને એકાત પોથી વ્યવહાર થઈ શક નથી. કહેવાને ભાવ એ છે કે--સઘળા શાસન કરવાવાળા તીર્થકરને ક્ષય થઈ જશે. તેમ કહેવું તે અગ્ય છે. કેમકેક્ષય થવાના કારણે ભૂત કર્મને અભાવ છે સઘળા શાસન કરવાવાળા તીર્થ કરે શાશ્વત જ છે. તેમ કહેવું તે પણું 5 ગાય નહીં. કેમકે-ભવમાં . For Private And Personal Use Only Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गो मवस्थ केवलिनां शास्तृगां सिद्धिगमनसद्भावात् न शाश्वताः, अत: प्रवाहाऽपेक्षया शाश्वत उपत्यपेक्षया अशाश्चात्य व 'ए'हिं दोहि ठाणेहि गायारं तु जागए' एताभ्यामेर द्वाभ्यां स्थानाभ्यामनानारं तु जानीयात् अयं भावः-सरे पाणा अनीशा इत्यपि न वक्तव्यम् सर्वे जीवाः कर्मपराधीनतया विलक्षगा अपि समाना अपि एतदेव वक्तव्यं न तु एकान्तपक्षः स्वीतियः । न वा ग्रन्यिका एवं भवि. ष्यन्ति इत्यपि न वक्तव्यम् उल्लसिनवीयतया के वन ग्रन्थिरहिताः केचन तथा विधपरिणामाभावाद् ग्रन्थियुक्ता एवेति ५।। मूलम्-जे केइ खुड्डगा पाणा अदुवा संति महालया । सरिसं तेसिं 'वेति असरिसंती य णो वए ॥६॥ मोक्ष में चले जाते हैं, अतएव वे शाश्वत नहीं हैं हां प्रवाह की अपेक्षा भले शाश्वत कहा जाय किन्तु व्यक्ति की अपेक्षा अशाश्वत हैं। अतएव दोनों एकान्त पक्षों के सेवन से अनाचार जानना चाहिए। सब प्राणी विसदृश ही हैं, ऐसा भी नहीं कहना चाहिए। सब जीव कर्मों के अधीन होने के कारण विलक्षण हे.ने पर भी स्वभावत: समान हैं। अतएव उनमें शुद्ध आत्मस्वरूप-चैतन्य की अपेक्षा से समानता भी है और कर्मोदय आदि की विसदृशता के कारण अस. मानता भी है । सब जीव सकर्मक ही रहेंगे, यह कहना भी ठीक नहीं, क्यों कि वीर्य का उल्लास होने पर कोई जीव निष्कर्मदशा को भी प्राप्त करेंगे, किन्तु जो अ भव्य हैं अथवा भव्य होने पर भी समु. चित सामग्री नहीं प्राप्त करेगे, वे सकर्म रहेगे ॥५। રહેવા વાળા કેવલી અને સિદ્ધિ ગમન કરે છે. અર્થાત્ મેક્ષમાં જાય છે. તેથી જ તેઓ શાશ્વત નથી. હા, પ્રવાહની અપેક્ષાએ ભલે શાશ્વત કહેવામાં આવે. પરંતુ વ્યક્તિની અપેક્ષાથી અશાશ્વત છે. તેથી જ અને એકાન્ત પક્ષના સેવનથી અનાચાર સમજવું જોઈએ સઘળા પ્રાણિયે વિસદશ જ છે. તેમ પણ કહેવું ન જોઈએ. સઘળા જ કર્મને આધીન હોવાના કારણે વિલક્ષણ હોવા છતાં પણ સ્વભાવથી સરખા જ છે, તેથી જ તેઓમાં શબ્દ આત્મસ્વરૂપ ચતન્યની અપેક્ષાથી સમાનપણું છે. અને કર્મોદય વિગેરેના વિસદશ પણ થી અસમાન પણું પણ છે સઘળા જ સકર્મક જ રહેશે. તેમ કહેવું પણ ઠીક નથી. કેમકે–વીર્યને ઉલ્લાસ થવાથી કોઈ જીવ નિકમ દશાને પણ પ્રાપ્ત કરશે. પરંતુ જે અભવ્ય છે, અથવા ભવ્ય હોવા છતાં પણ ગ્ય સામગ્રી પ્રાપ્ત નહીં કરી શકે તેઓ સકર્મ રહેશે. For Private And Personal Use Only Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका हि. श्रु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् छाया--ये केचित्क्षुदकाः पाणा अथवा सन्ति महालया। सहशं तेषां वैरमिति असदृशमिति च नो वदेत् ६। अन्वयार्थ:--(जे केइ) ये केचित् (खुड्गा) क्षुदकाः-एकेन्द्रियाः अल्पशरीरचन्ता वा, (गणा) प्राणाः-पाणिनो जीवाः, (अदुवा) अथवा-ये केचित् (महा. बया) महालया:-विशिष्टदेहवन्तः पश्चेन्द्रिया अश्वगजादयः 'सति' सन्ति-विद्यन्ते (तसि) तेषाम्-क्षुद्राणां महालयानां वा (सरिस) सदृशम्-समानमें रूपकमेव . 'जे का खुड्डगा पाणा' इत्यादि। - शब्दार्थ -'जे केह-ये केचित्' जो एकेन्द्रिय आदि 'खुडगा-क्षुद्रकाः क्षुद लघुकायवाले 'पाणा-प्राणा:' प्राणी है 'प्रधा-अथवा' अथवा जो कोई 'महालया-महालयाः' घोडा हाथी आदि महाकाय 'संति-सन्ति' पश्चेन्द्रिय प्राणी है 'तेनि-तेषाम्' उन दोनों की हिमा से 'सरिसं-सहशम् समान ही वैर होता है। अथवा 'असरिसं-असदृशम् असमान बेरं-वैरम्' वैर होता है 'त्ति-इति' ऐसा 'जो वए-नो वदेत नहीं कहना चाहिए अर्थात् लघुकाय और महाकाय प्राणिका घात करनेसे समान ही हिंसा होती है, ऐसा एकान्त कथन नहीं करना चाहिए और उनका घात करने पर असमान ही हिंसा होती है, ऐसा एकान्त वचन भी नहीं बोलना चाहिए ॥गा०६॥ अन्वयार्थ--जो एकेन्द्रिय आदि क्षुद्र लघुकायवाले प्राणी हैं अथवा जो कोई अश्यहाथी आदि महाकाय पंचेंद्रिय प्राणी हैं, उन दोनों की 'जे केइ खुड़गा पाणा' त्या शहाथ-'जे केइ-ये केचित्' २ मेन्द्रिय विगेरे 'खुङगा-क्षुद्रकाः' क्षुद्र सधुया 'पाणा-प्राणाः' प्राणी छे, 'अदुवा-अथवा' अथवा 'महालया-महालया:' हाथी थे. विगेरे महाय-मोटा शरीरवाणा 'संतिमन्ति' पन्द्रिय प्राणी छे. 'तेसि-वेषाम्' ते मन्नेनी हिंसायी ‘सरिसं-सह शम' समान ३२ थाय छ, अथवा 'असरिसं-असदृशम्' असमान वेरवेरम्' ३२ थय छ 'त्ति-इति' में प्रमाणे ‘णो वए-नो वदेत्' हे न જોઈએ. અર્થાત્ લઘુકાય અને મહાકાય (નાના મેટા) પ્રાણીને ઘાત કરવાથી સરખી જ હિંસા થાય છે. એ પ્રમાણે એકાન્ત કથન કરવું ન જોઈએ. અને તેનો ઘાત કરવાથી અસમાન હિંસા જ થાય છે, એ પ્રમાણે એકાન્ત વચન પણ બલવું ન જોઈએ. ગાદો અન્વયાર્થ-જે એકેન્દ્રિય વિગેરે ક્ષુદ્ર લઘુકાયવાળા પ્રાણી છે. અથવા જે ઘડા હથી વિગેરે મહાકાય પંચેન્દ્રિય પ્રાણી છે. એ બનેની હિંસાથી For Private And Personal Use Only Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतामसूत्र (असरिस) अस वा (वेरति) वैर हिंमन मिति (णो वए) इत्येवं नो वदेव अनयो लघु दीर्घ काय तो जी क्योारणे समाना हिंमा भवतीत्यपि एकान्तवचने न वदेव-न वक्तव्यं भवेत् । तथाऽनयोर्मारणे विभिन्नैव हिंसा जागते. इत्यपि एकान्तबचो न वाच्यम् किन्तु-हिंसेति मत्वा अनेकान्तवचनमेव प्रयोक्तव्यमिति । टीका---'जे केइ' ये केचित् ‘खुड्डगा' क्षुद्रकाः-रघुकायाः 'पाणा' पाणिनः एकेन्द्रियदीन्द्रीयादयोऽल्पकाया वा पश्चन्द्रियजीवा मूषकादयः ‘अदुवा' अथग 'महालया' महालया-दीर्घशरीरा:-हस्त्यादयः 'संति' सन्ति-विद्यन्ते 'तेर्सि' तेषाम्-मुद्रकायानां कुन्नादीनाम् महाकायानां हस्त्यादीनां च हनने 'सरिस वे' सदशम्-तुल्यं समानमेव वैरं कर्मबन्धः वैरं वज्र कर्म विरोधलक्षणं वा तुलपप्रदेश त्वात सर्वजन्तूनाम् 'इति' इत्येव रूपेण एकान्तेन 'णो वए' नो वदेत् अथवा अन्तरिसंती य' असदृशम्-असमानमेव तद् व्यापादने मारणे 'वे' वैरं कर्मबन्धः हिंसा से समान ही वैर होता है, अथवा असमान ही वैर होता है, ऐसा नहीं कहना चाहिए । अर्थात् लघुकाय और महाकाय प्राणी का घात करने से समान हिंसा ही होती है, ऐसा एकान्त कथन नहीं करना चाहिए और उनका घात करने पर असमान ही हिंसा होती है, ऐसा एकान्त वचन भी नहीं बोलना चाहिए ॥६॥ टीकार्थ--जो एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय आदि अथवा चूहा आदि पंचेन्द्रिय लघुकाय अर्थात् छोटे शरीर वाले प्राणी हैं अथवा जो हाथी आदि महाकाय प्राणी हैं, इन दोनों प्रकार के प्राणियों का हनन करने पर समान ही वैर अर्थात् कर्मबन्धन अथवा समान ही विरोध रूप वैर होता है, क्यों कि सभी प्राणी समान प्रदेशों वाले हैं, ऐसा एकान्त कहना उचित नहीं है । अथवा इन लघुकाय और महाकाय, दोनों सरभु ४ ३२ थ.4 छ. 4441 असमान ३२ थाय छे. तेम हेतुन અર્થાત્ લઘુકાય અને મહાકાય પ્રાણીને ઘાત કરવ થી સરખી જ હિંસા થાય છે. એવું એકાન્ત કથન કહેવું ન જોઈએ અને તેઓને ઘાત કરવાથી અસમાન सा थाय छे ते सान्त क्यन ५९ मोत न से . ॥६॥ ટીકા–જે એકેન્દ્રિય દ્વીન્દ્રિય વિગેરે અથવા ઉદર વિગેરે પંચેન્દ્રિય લઘુકાયવાળા અર્થાત્ નાના શરીરવાળા પ્રાણિ છે, અથવા હાથી વિગેરે મહાકાય પ્રાણી છે. આ બન્ને પ્રકારના પ્રાણિની હિંસા કરવાથી સરખેજ વેર અર્થાત્ કર્મબંધ અથવા સરખેજ વિરોધ રૂ૫ વેર થાય છે. કેમકે– સઘળા પ્રાણી સરખા પ્રદેશેવાળા છે. તેમ એકાન્ત રૂપે કહેવું તે યેગ્ય નથી. અથવા આ લઘુકાય અને મહાકાય અને પ્રકારના છ નું હનન કર For Private And Personal Use Only Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्यबोधिनी टीका वि. श्रु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् इन्द्रियविज्ञानकायानां विसदृशत्यात् सत्यपि प्रदेशतुल्यत्वेन सदृशं वैर मित्यपि नो वदेव यदि वध्यापेक्षः कर्मबन्धो भवेत् तदा तद्वशात् कर्मणोऽपि सादृश्यमसा. दृश्यं वा वक्तुं युज्यते न स्वेवं किन्तु अध्यवसायवशात् कर्मबन्धो भवति ततश्च तीवाऽध्यवसायिनोऽल्पसत्वव्यापादनेऽपि महद्वैरम् अामस्य त महाकायसनव्यापादनेऽपि स्वल्पमेव वैरमिति ॥६॥ मूलम्-एएहि दोहि ठाणेहिं ववहारो ण विज्जइ । एएहि दोहिं ठाणेहि अणायारं तु जाणए ॥७॥ छाया-एताभ्यां द्वाभ्यां स्थानाभ्यां व्यवहारो न विद्यते एताभ्यां द्वाभ्यां स्थानाभ्यामनाचारन्तु जानीयात् ॥७॥ प्रकार के जीवों का हनन करने पर एक-सा वैर नहीं होता है, क्यों कि उनकी इन्द्रियों में, ज्ञान में और काय के परिमाण में विसशता है । इस प्रकार जीवप्रदेशों की तुल्यता होने पर भी समान वैर नहीं होता है, ऐसा एकान्त कथन भी उचित नहीं है। __ यदि हनन किये जाने वाले जीव शरीर की लघुता अथवा महत्ता के अनुसार ही कर्म का धन्ध होता तो कर्मबन्ध की समानता और असमानता कही भी जा सकती थी, किन्तु ऐसा नहीं है। कर्मबन्ध का प्रधान आधार अध्यवसाय है। अतएव तीव्र अध्यवसाय से छोटे जीव की हिंसा करने पर भी महान् वैर हो सकता है और मन्द भाव से या विना इच्छा के बडे जीव का घात करने पर भी अल्प वैर होता है । अतएव वैर के विषय में अनेकान्त पक्ष ही युक्ति संगत है। दोनों प्रकार के एकान्तवचन ठीक नहीं हैं ॥३॥ વાથી એક સરખું જ વેર થતું નથી. કેમકેતેઓની ઈન્દ્રિમાં, જ્ઞાનમાં અને કાયના પરિમાણમાં વિસદશ પણું છે. આ પ્રમાણે જીવ પ્રદેશનું સરખાપણું થવા છતાં પણ સમાન વેર થતું નથી. તેમ એકાન્ત કથન પણ યોગ્ય નથી. જે હનન કરવામાં આવનારા છાના શરીરનું લઘુપણું–નાનાપણું અથવા મે ટાપણા પ્રમાણે કર્મને બંધ થતે હેત તો કર્મબંધનું સરખાપણું અને અસમાનપણું કહી પણ શકાત, પરંતુ એવું નથી. કર્મબંધને મુખ્ય આધાર અધ્યવસાય છે, તેથી જ તીવ્ર અધ્યવસાયથી નાના છની હિંસા કરવા છતાં મહાન વેર થઈ શકે છે અને મંદભાવથી અથવા ઈચ્છા વગર મોટા જેને ઘાત કરવા છતાં અલ્પ વેર થાય છે. તેથી જ વેરના વિષયમાં અને કાન્ત પક્ષજ યુક્તિ સંગત છે, અને પ્રકારના એકાન્ત વચને ઠીક નથી. દા सू. ६२ For Private And Personal Use Only Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गयो । एएहि दोहि ठाणेहिं' इत्यादि । शब्दार्थ-'एएहिं -एताभ्याम्' इन 'दोहि-छाभ्याम्' दोनों 'टाणेहिस्थामाभ्याम्' स्थानों से अर्थात् अल्पकाय और महाकाय वाले जीवों की हिंसा से सदृशही वैर उत्पन्न होता है, अथवा विसदृश ही वैर उत्पन्न होता है, इन दोनों एकान्त वचनों से 'वहारो-व्यवहार' व्यवहार 'विज्जइ-न वियते' नहीं होता, बध्य जीव की अल्पकायता अथवा महाकायता ही एकमात्र कर्मबन्ध की तरतमता का कारण नहीं है किन्तु बधक का तीव्र भाव, मन्द भाव, ज्ञात भाव, अज्ञात भाव, अल्पवीर्यस्व, एवं महावीर्यत्व भी कर्मबन्ध के तारतम्पका कारण है, ऐसी स्थिति में बन्यजीव की अपेक्षा से ही बन्ध की सदृशता एवं विसदृशता अथवा न्यूनाधिक्ता मानना संगत नहीं है। अतएव 'एएहि-एताभ्याम्' उक्त 'दोहि-द्वाभ्याम्' दोनों 'ठोहिं-स्थानानाम् एकान्त पक्षों से किसी भी एक पक्ष को स्वीकार करता है वह उसका 'अणायारं -अनाचारम्' अना. चार ही 'जाणए-जानीयात्' जानना चाहिए ॥७॥ __अन्वयार्थ--इन दोनों पक्षों से अर्थात् अल्पकाय और महाकाय जीवों की हिंसा से सदृश ही वैर उत्पन्न होता है अथवा विसदृश ही 'एएहि दोहि ठाणेहि' या शहाथ-'एएहिं -एताभ्याम्' मा 'दोहि-द्वाभ्याम्' माने 'ठाणेहि-स्थानाभ्याम' पसाथी अर्थात् म६५४ाय भने महायानी साथी समान ३२ ઉત્પન્ન થાય છે, અથવા વિદૃશ વેર ઉત્પન્ન થાય છે. આ બન્ને એકાન્ત. क्यनाथी 'ववहारो-व्यवहारः' व्यवहार 'न विज्जइ-न विद्यते' थत नथी. अर्थात આ બન્ને એકાન્ત પક્ષ બરોબર નથી. વધ્ય-મારવાને ગ્ય એવા જવનું અલપકાય પણું અથવા મહાકાય પણું જ એકમાત્ર કર્મબન્ધના તારતમ્ય. તાનું કારણ નથી. પરંતુ મારનારાને તીવ્ર ભાવ, મવભાવ, જ્ઞાતભાવ, અજ્ઞાતભાવ, અપ વિર્ય પણું અને મહા વીર્યપણું પણું કર્મ બંધના તાર તમ્મનું કારણ છે. આવી સ્થિતિમાં વિધ્ય જીવની અપેક્ષાથી જ બન્ધનું સદશપણું અથવા વિદેશપણું અથવા ન્યૂનાધિકપણું માનવું સંગત નથી. તેથી જ 'एहि-एताभ्याम्' 6 दोहि-द्वाभ्याम्' भन्ने 'ठाणेहि-स्थानाभ्याम्' अन्त પક્ષમાંથી કઈ પણ એક પક્ષને સ્વીકાર કરીને જે પ્રવૃત્ત થાય છે. તે 'अणायारं-अनाचारम्' मनाया२ ४ 'जाणए-जानीयात्' समान मे. ॥७॥ અન્વયાર્થ– આ બને પોથી અર્થાત અલ્પકાય અને મહાકાય જીવોની હિંસાથી સરખું જ વેર પેદા થાય છે, અથવા વિસદશ વેર ઉત્પન્ન થાય For Private And Personal Use Only Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् टीका--अन्वयार्थः टोकागम्यः । 'एएहि' एताभ्याम्-अनन्तरोक्ताभ्याम् 'दोहि' द्वाभ्याम् 'ठाणेहि स्थानाभ्याम् अनयो वा स्थानयोरल्पकायसवमहा कायसवव्यापादनापादितकर्मबन्धसदृशत्वविसटशवयोः 'ववहारे।' व्यवहार:व्यवहरणम् ‘ण विज्जई' न विद्यते न-नैव युज्यते इत्यर्थः तथाहि-न वध्यस्य सदृशत्वमसदृशत्वं चैकमेव कर्मबन्धस्य कारणं किन्तु वधकस्य तीव्रभावो मन्दभावो ज्ञानभावोऽज्ञान मावोऽलावीयत्वमहाबीयवादिकं तदेवं वध्यधकयो. विशेषात् कर्मवन्धविशेष इत्येवं व्यवस्थिते वध्यमेशाश्रित्य सदृशस्वासशस्वव्यवहारो न विद्यते तथा 'एएहि' एताभ्याम् 'दोहिं ठाणेहि' द्वाभ्यां स्थानाभ्यां प्रवृतस्य 'अणायार' अनाचारम् 'जाणए' जानीयात् 'तथाहि-जीवसाम्यात्कर्म बन्ध सदृशत्वमुच्यते तदयुक्त यतो न जीवव्यापादनेन हिंसा, तस्य नित्यत्वेन वैर उत्पन्न होता है, इन दोनों एकान्तों से व्यवहार नहीं होता अर्थात् ये दोनों ही एकान्त पक्ष ठीक नहीं हैं। वध्य जीव की अल्पकायता या महाकायता ही एक मात्र कर्मबन्ध की तरतमता का कारण नहीं है, किन्तु वधक का तीव्र भाव, मन्दभाव ज्ञातभाव, अज्ञातभाव, अल्पवीर्यत्व एवं महावीर्यत्व भी कर्मबन्ध के तारतम्य का कारण हैं। ऐसी स्थिति में वध्य जीव की अपेक्षा से ही बन्ध की सदृशता विसदृशता अथवा न्यूनाधिकता मानना संगत नहीं है। अतएव उक्त दोनों एकान्त पक्षों में से किसी भी एक पक्ष को स्वीकार करके जो प्रवृत्त होता है, वह उसका अनाचार ही समझना चाहिए ॥७॥ टीकार्थ--जीव की सदृशता के कारण कर्मबन्ध की सदृशता कही जाती है, सो उचित नहीं है । वस्तुतः जीव का मर जाना हिंसा नहीं है છે. આ બન્ને એકાન્ત વચનેથી વ્યવહાર થતું નથી. અર્થાત્ બને એકાન્ત પક્ષ ઠીક નથી. વધ્ય જીવનું અપકાયપણું અથવા મહાકાય પણું જ એક માત્ર કર્મ બંધની તરતમતાનું કારણ નથી. પરંતુ વધકને તીવ્ર ભાવ મદભાવ જ્ઞાતભાવ અજ્ઞાતભાવ, અલ્પવિર્ય પણું તથા મહાવીર્યપણું પણ કર્મબંધના તારતમ્યનું કારણ છે. આ પરિસ્થિતિમાં વધ્યજીવની અપેક્ષાથી જ બંધની સદૃશતા વિસદશતા અથવા જૂનાધિકપણું માનવું સંગત નથી. તેથી જ ઉક્તબને એકાન્ત પક્ષમાંથી કઈ પણ એક પક્ષને સ્વીકાર કરીને જે પ્રવૃત્ત થાય છે, તે તેને અનાચાર જ સમજ જોઈએ. પાછા ટીકાથે--જીવની સદશતાને કારણે કર્મબન્ધનું સદશપણું કહેવામાં આવે છે, તે બરાબર નથી. વસ્તુતઃ જીવતું મરી જવું તે હિંસા નથી. પરંતુ For Private And Personal Use Only Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गपत्रे व्यापादयितुमशक्यत्वात् अपि तु इन्द्रियादि व्यापादनेन हिंसा भवति किं च भाव. युक्तस्यैव कर्मबन्धो भवति, न हि औषधं कुर्वतो वैद्यस्य आतुरविपत्ती हिंसा भवति वैद्यस्य मारणविषयकाध्यवसायामागत्, सर्पबु द्वया रज्जुनतोऽपि जनस्य भावदुष्टत्वद् हिंसा भवत्येवेति भावः ॥७॥ मूलम्-आहाकम्माणि भुजंति, अण्णमण्णे सम्मुणा । उवलित्ते त्ति णो जाणिजा, अणुवलित्ते त्ति वा पुणो॥८॥ एएहि दोहिं ठाणेहि, ववहारो ण विज्जई । एएहिं दोहिं ठागेहिं, अणायारं तु जाणए ॥९॥ छाया--आधाकर्माणि भुञ्जते, अन्योऽन्यं स्वकर्मणा । उपलिप्तानिति जानीयादनुपलिप्तानिति वा पुनः ।।८। आभ्यां द्वाभ्यां स्थानाभ्यां, पवहारो न विद्यते । आभ्यां द्वाभ्यां स्थानाभ्यामनाचारं तु जानीयात् ॥९॥ किन्तु मारने वाले का हिंसारूप अध्यवसाय हो हिंसा का कारण है। वैद्य सदभावनापूर्वक रोगी का उपचार कर रहा हो और रोगी की मृत्यु हो जाय तो वैद्य को उसकी हिंसा का पाप नहीं लगता, क्योंकि वैद्य का अभिप्राय उसे मारने का नहीं होता। इसके विपरीत यदि कोई सर्प समझ कर रस्सी को मारता है तो भाव से दुष्ट होने के कारण वह हिंसा का भागी होता है ॥७॥ 'आहाकम्माणि भुजेति' इत्यादि। शब्दार्थ-'आहाकम्माणि भुजंति-आधाकर्माणि भुञ्जते' साधुके लिए षटूकायका उपमर्दन करके तैयार किया गया आहार पानी आदि મારવાવાળાને હિંસારૂપ અધ્યવસાય-વ્યવહાર પ્રવૃત્તિ જ હિંસાનું કારણ છે. વૈદ્ય સદ્દભાવના પૂર્વક રોગીને ઉપચાર કરી રહેલ હોય, અને રોગી મરી જાય, તે વૈદ્યને તેની હિંસાનું પાપ લાગતું નથી. કેમકે વૈદ્યને હતું તેને મારાને હેતે નથી તે જ પ્રમાણે જે કંઈ સર્પ સમજીને દરીને મારે છે, તે ભાવથી દુષ્ટ હોવાના કારણે તે હિંસાને ભાગી બને છે. ____ आहाकम्माणि भुंजंति' त्या शाय- 'आहाकम्माणि भुंजंति-आधाकर्माणि भुञ्जते' पटायर्नु ७५. મન (હિંસા) કરીને સાધુ માટે તૈયાર કરવામાં આવેલ આહાર પાણી વિગેરે For Private And Personal Use Only Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. थु. अ. ५ आचारत निरूपणम् જીરૂ C अन्वयार्थः - साध्वर्थ पटुकायोपमर्दनपूर्वक निष्पादितमनादिकमाघाकर्म कथ्यते तदुपखानानां साधूनामाधाकर्मिको दोषो भवतीति सिद्धान्तः, तथापि कथञ्चित् प्रमादतः (आहाकम्माणि भुजंति) ये साधव आधाकर्माणि भुञ्जते, तान् (अण्णमण्णे सम्मुणा) अन्योऽन्यं स्वकर्मा (उवलितेति वा उपािनिति वा (पुणो ) पुनः (अणुवतेि चि वा) अनुपलिप्तानिति वा (गो) नो ( जाणिज्ना) जानीयात् न देदिति । आधाकर्मिकाहारमोजने कृते सति साधवः चिकगकर्मणोपलिप्ता भवन्त्येवेत्यपि एकान्तं वचो न वक्तव्यम् । चिकणकर्मणोपलिप्ता न भवन्ति इत्यपि न वक्तव्यमिति । नवमगाथाया अर्थः स्पष्ट एवेति ।। ८ । ९ ।। आधाकर्मिक कहलाता है जो साधु आधाकर्मिक आहार करता है वे 'अण्णमण्णे - अन्योऽन्यम्' अन्यो अन्य- परस्पर सम्मणा स्वकर्मणा' अपने कर्म से 'जवलित्तेत्ति वा उपलितानितिवा' पापकर्म से उपलिप्त होते हैं ऐसा 'पुणो- पुनः' अथवा 'अणुवलितेति वा अनुपलिप्तानिति वा' अनुलिप्त होते हैं ऐसा एकान्त वचन 'णो जाणिज्जा - न जानीयात्' नहीं कहना चाहिए । अतएव किसी भी एकान्त पक्षको स्वीकार करना अनाचार समझना चाहिए || गा० ८ || ९ || अन्वयार्थ - - साधु के लिए षट्काय का उपमर्दन करके तैयार किया गया आहार पानी आदि आधाकर्मिक कहलाता है । जो साधु आधाकर्मिक आहार करते हैं, वे पापकर्म से लिप्त होते ही हैं अथवा लिप्त नहीं ही होते, ऐसे दोनों प्रकार के एकान्त वचन नहीं कहना चाहिए। इन दोनों एकान्त स्थानों से व्यवहार नहीं होता । अतएव किसी भी एकान्त पक्ष को स्वीकार करना अनाचार समझना चाहिए ॥८-९ ॥ આધાર્મિક કહેવાય છે. જે સાધુ આધાર્મિક આહાર કરે છે, તેએ ‘[« मण्णे-अन्योऽन्यम्' ५२३५२ 'कम्मुणा - स्वकर्मणा' येताना थी 'उत्तेत्ति वा3ıfscarfafa al' uusual sulard (1) 24. 24 got-ga:" अथवा अणुवलितेचि वा-अनुलिप्तानिति वा' अनुपसित होय छे से अभा शेान्त वथन 'णो जाणिज्जा - न जानीय तू' डेबु नलेो तेथी नई प એકાન્ત પક્ષને સ્વીકાર કરવા તે અનાચાર સમજવે. ૮-૯ અન્યયા --સાધુ મ ટે ષટકાયનું ઉપમન કરીને તૈયાર કરવામાં આવેલ આહાર પાણી વિગેરે માધાર્મિક કહેવાય છે. જે સાધુ આધામિક આહાર કરે છે. તેઓ પાપકમથી લિપ્ત થાય જ છે. અથવા લિપ્ત થતા નથી, એવા બન્ને પ્રકારના એકાન્ત વચન કહેવા ન જોઇએ. આ બેઉ એકાન્ત સ્થાનાથી વ્યવહાર થતા નથી. તેથી જ કે.ઈ પણ એકાન્ત પક્ષને સ્વીકાર કરવા તે અનાચાર સમજવા જોઇએ. ૧.૮- લા For Private And Personal Use Only Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकृताङ्गो टीका--कथश्चिन् प्रमादेन गृहीतमाधाकर्मिकमन्नादिकं सर्वथा प्रतिष्ठापनीयं नैवोपमोक्तव्यमिति सिद्धान्तः, तथापि कथश्चिन् प्रमादेन गृहीत्वा तदन्नमुपभुक्तवान् चेत् तदा एनं साधु चिकाकर्म बनातीति एकान्तेन नो वदेव तथा चिक्कणकर्म एनं न बध्नातीत्यपि न वदेत् । नामगाथार्थः स्पष्ट एवेति ।।८।९॥ मूळम्-जमियं ओरालमाहारं, कैम्मगं च तहेव य । सव्वत्थ वीरिय अस्थि, गर्थि सम्वत्थ वीरियं ॥१०॥ छाया--यदिदमौदारिकमाहारकं कर्मगञ्च तथैव च । सर्वत्र वीर्यमस्ति, नास्ति सर्वत्र वीर्यम् ॥१०॥ टीकार्य-किसी प्रकार प्रमाद के कारण यदि आधाकर्मी आहार ग्रहण कर लिया हो तो वह सर्वथा परठ देना चाहिए, उसका उपभोग नहीं करना चाहिए। यह सिद्धान्त का आदेश हैं। तथापि प्रमाद से ग्रहण किये आधाकर्मी आहार को भोग लिया हो तो भोगने वाला चिकने कम बांधता ही है, ऐसा एकान्तवचन न कहे और चिकने कर्म नहीं बांधता है ऐसा एकान्तवचन भी न कहे ॥८-९॥ 'जमियं ओरालमाहारं' इत्यादि। शब्दार्थ-'जमियं-यदिदं' यह जो दिखाई देने वाला 'ओरालंऔदारिकम्' औदारिक शरीर है 'आहारं-आहाकम्' आहारक शरीर है 'च' और 'कम्मगं-कार्मण' कार्मण शरीर है 'तहेव य-तथैव च' और 'च' शब्द से वैक्रिय एवं तैजस शरीर है ये पांचों शरीर एकान्ततः ટકર્થકઈ પણ પ્રકારથી પ્રસાદના કારણે જે આધાર્મિ દેશવાળે આહાર ગ્રહણ કરી લીધું હોય તે તે સર્વથા પરઠવી દેવો જોઈએ. તેને ઉપભેગ કરવો ન જોઈએ. આ પ્રમાણે સિદ્ધતને આદેશ છે. તે પણ પ્રમાદથી ગ્રહણ કરવામાં આવેલ આધાકમિ આહારને ભેળવી લીધું હોય તે ભેગવવાવાળે ચિકણું કર્મ બાંધે જ છે. એ પ્રમાણે એકાત વચન કહેવું ન જોઈએ તથા ચિકણું કર્મ બંધ નથી, એ પ્રમાણેના એકાન્ત વચન ५६ ४३ नहीं ॥॥० ८-८.। _ 'जमिय बोरालमाहारं' इत्यादि शहाथ-'जमिय-यदिद' २ मा unwi भातु 'ओरालं-औदारि. कम्' मो२िशरीर छे. 'आहार'-आहरकम्' २२: शरी२ छे, "च' भने 'कम्मगं-कार्मणम्' आम शरीर छ, 'तहेव य-तथैव च' म 'च' शvथी વૈક્રિય તથા તેજસ શરીર છે, આ પાંચે શરીરે એકાન્તતઃ ભિન્ન પણ નથી, For Private And Personal Use Only Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थचोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् १९५ अन्वयार्थ:--(जमियं) यदिदं-परिदृश्यमानम् (ओरालं) औदारिकं शरीरम् (आहारं) आहारकं शरीरम् (च कम्मगं) च-पुनः कार्मणं शरीरम् (तहेव य) तथैव च, च शब्दाद् वैक्रियतेजसशरीरयोः परिग्रहः, एतानि शरीराणि एकान्ततः माभिन्नानि कारणभेदात न वा एकान्ततो भिन्नानि कारणभेदात्, अत एकान्तवचनं न वक्तव्यम्, एवम्-(सक्वत्थ वीरियं अस्थि) सर्वत्र वीर्यमस्ति इत्यपि एकान्ता बचनं न वक्तव्यम् (एवं सव्वस्थ वीरियं नथि) सर्वत्र वीर्य नास्ति इत्यपि एकान्त वचनं न वक्तव्यम्, एकान्तवचनस्याऽनाचारत्वादिति ॥१०॥ भित्र भी नहीं है, क्यों की एक ही देश और काल में उपलब्ध होते है और सभी पुद्गल परमाणुओं से निर्मित हैं। अतएव इन के भेद और अभेदके सम्बन्ध में एकान्तवचन कहना नहीं चाहिए 'सपस्थ बीरियं अस्थि-सर्वत्र वीर्य अस्ति' सर्वत्र वीर्य है, अर्थात् सभी पदार्थों में प्रत्येक पदार्थ की शक्ति विद्यमान है, अथवा 'सम्वत्थ वीरियं नस्थि-सर्वत्र वीर्य नास्ति' सर्वत्र वीर्य विद्यमान नहीं है, ऐसा एकान्त वचन भी नहीं कहना चाहिए ॥गा०१०॥ ___ अन्वयार्थ-यह जो दिखाई देने वाला औदारिक शरीर है, आहा. रक शरीर है, कार्मण शरीर है और 'च' शब्द से वैक्रिय तथा तैजस शरीर हैं यह पांचों शरीर एकान्ततः भिन्न भी नहीं है, क्योंकि एक ही देश और काल में उपलब्ध होते हैं और सभी पुद्गलपरमाणु मों से निर्मित हैं । अतएव इनके भेद और अभेद के संबंध में एकान्त. वचन नहीं कहना चाहिए । सर्वत्र वीर्य हैं अर्थात् सभी पदार्थों में કેમકે એક જ દેશ અને એક જ કાળમાં ઉપલબ્ધ-પ્રાપ્ત થાય છે. અને બધા જ પુલ પરમાણુઓથી બનાવેલ છે. તેથી જ આના ભેદ અને અમે हना समयमा सन्त क्यन उवा न ये. 'सम्वत्थ वीरियं अत्थिसर्वत्र वीर्यमस्ति' ५ वी छ. अर्थात् सबा पहाभा १२४ पहानी शहित २७सी छे. अथवा 'सत्य वीरियं नदिय-सर्वत्र वीर्य नास्ति' मधे શક્તિ વિઘમનિ નથી. એ રીતથી એકાન્ત વચન પણ કહેવા ન જોઈએ. ૧ અન્વયાર્થ–જે આ દેખવામાં આવનારૂં ઔદારિક શરીર છે, આહારક શરીર છે, કાર્મણ શરીર છે, અને ચ શબ્દથી વૈક્રિય અને તૈજસ શરીર છે, આ પચે શરીર એકાન્તના જુદા નથી. કેમકે એક જ દેશ અને કાળમાં પ્રાપ્ત થાય છે. અને બધા જ પુલ પરમાણુઓથી નિમિત છે. તેથી જ તેના ભેદ અને અભેદના સંબંધમાં એકાન્ત વચન કહેવા ન જોઈએ, For Private And Personal Use Only Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्र टीका-'जमियं' यदिदम् ‘पोरालं' औदारिकं शरीरम् 'आहार' आहारकञ्च शरीरम् 'हे।' तथैव 'कम्मग च' कर्मगश्च कार्मणं शरीरम्, तत्सर्व मे कमेव इत्येकान्तवचनं न वक्तव्यम् । न वा परस्परं सर्वथा विभिन्नमे। इत्यप्ये. कान्तवचनं न वक्तव्यम्, अष्टमगाथायाम् आहारसम्बन्धेऽनाचारो वर्णितः अतः इह गाथायाम् आहारं गृह्णतः कर्तुः शरीरस्य सम्बन्धेनाचारो वर्ण्य ते । घरीरं पञ्चविधम् औदारिकम् १, वैक्रियम्, आहारकम् ३, तैनसम् ४, कार्मणम् ५, एतानि सर्वाणे शरीराणि एकरूपाण्येवेति-'एकान्तवचनै न बक्तव्यम्. कुन: -कारणभेदात् । औदारिकशरीरस्य कारणम्-उदारपुद्गलाः । वैक्रियशरीरस्य कारणं प्रत्येक पदार्थ की शक्ति विद्यमान है अथवा विद्यमान नहीं है, ऐसा एकान्तवचन भी नहीं कहना चाहिए ॥१०॥ . टीकार्थ--यह-जो औदारिक शरीर है, आहारक शरीर है, कार्मण शरीर है, यह सब एक ही हैं, ऐमा एकान्तवचन नहीं कहना चाहिए और यह परस्पर भिन्न ही हैं, ऐसा एकान्तवचन भी नहीं कहना चाहिए। आठवी गाथा में आहार के संबंध में अनाचार का वर्णन किया गया था। इस गाथा में आहार ग्रहण करने वाले के शरीर के संबंध में अनाचार का वर्णन किया गया है। शरीर पांच प्रकार के हैं-औदारिक शरीर १, वैकिघशरीर २,' आहारकशरीर ३, तैजसशरीर ४, कार्मणशरीर ५ ये पांचों शरीर एक रूप ही हैं, ऐसा एकान्तवचन नहीं बोलना चाहिए. क्योंकि इनके कारणों में भेद होने से भिन्नता है । औदारिक शरीर उदार या स्थूल બધે જ વીર્ય છે. અથવા બધા જ પદાર્થોમાં દરેક પદાર્થની શક્તિ વિદ્યમાન છે. અથવા વિદ્યમાન નથી. એવું એકાન્ત વચન પણ કહેવું ન જોઈએ ૧૦ ટકાથ– આ જે ઔદારિક શરીર છે, આહારક શરીર છે, કામણશરીર છે, આ બધા એક જ છે. એ પ્રમાણે એકાત વચન કહેવું ન જોઈએ અને આ પરસ્પર ભિન્ન જ છે, એ પ્રમાણેના એકાન્ત વચન પણ કહેવા ન જોઈએ. આઠમી ગાથામાં આહારના સંબંધમાં અનાચારનું વર્ણન કરવામાં આવ્યું હતું, અને આ ગાથામાં આહાર ગ્રહણ કરવાવાળાના શરીરના સંબં. ધમાં અનાચારનું વર્ણન કરવામાં આવેલ છે. શરીર પ ચ પ્રકારના હોય છે. જેમકે–દારિક શરીર (1) વૈક્રિય शरी२ (२) मा२४ शरी२ (3) तेरस शरी२ (४) भने म । शरीर (4) આ પાંચે શરીર એક રૂપ જ છે, એ પ્રમાણે એકાન્ત (નિશ્ચિત) વચન કહેવું ન જોઇ , કેમકે તેમના કારણોમાં ભેદ હોવાથી ભિન્ન પણ છે. દારિક For Private And Personal Use Only Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् ૨૦ विक्रियपुद्गलाः, आहारकशरीरस्याहारवर्गणाः पुनलाः, तैजसशरीरस्य तेजःपुद्गलाः, कार्मणशरीरस्य कर्मणाः कारणम् । एवं स्थिते कारणभेदान्न एतेषामेकस्व' गवाश्ववत् । नाऽपि सर्वथा भेद एव एतेषां शरीराणाम् इत्यपि एकान्तवचनं नं बक्तव्यम् । एकत्रैवोपलम्भात्, आत्यन्तिकभेदे एतेषां स्थितौ देशकालादिभेदो 'भवेत, गृहदारादिवत् । न तु भेदो दृश्यते कारणस्य काळादेः । तस्मान्न सर्वथा भेदक्ष किन्तु कथञ्चिदेतेषां भेदः कश्चिदभेदः इत्येव सर्वानुमासिद्धो निष्कलङ्की राजमार्गः अत एकान्तमिममेकान्तमभिनमिति वचोऽनाचार सेवनमेव । 'सत्य' सर्वत्र 'वीर' वीर्यम् बलम् 'अस्थि' अस्ति-विद्यते, 'सत्य' सर्वत्र 'वीरियं' वीर्यम्बकम् 'णस्थि' नास्ति न विद्यते सर्वस्मिन् वस्तुनि सर्वशक्तिर्विद्यते, पुद्गलों से बनता है, वैक्रिय शरीर वैक्रियवर्गणा के पुगलों से बनता है, आहारकशरीर का कारण आहारकवर्गणा के पुद्गल है, तेजसशरीर का कारण तेज और कार्मणशरीर का कारण कर्मवर्गणा है । इस प्रकार जैसे गौ और अश्व एक नहीं है, उसी प्रकार ये शरीर भी कारणों में भिन्नता होने से एक नहीं हैं। पांचों शरीर सर्वथा भिन्न ही हैं, ऐसा एकान्त वचन भी नहीं कहना चहिए, क्योंकि गृह और दारा के जैसे एक ही जगह पाये जाते हैं। सर्वथा भेद होता तो इनके देश काल आदि में भेद होता । इस प्रकार इनमें सर्वथा भेद भी नहीं है, परन्तु कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद है । यही अनुभव सिद्ध और निर्दोष राजमार्ग है। ऐसी स्थिति में इन्हें एकान्तभिन्न या एकान्त अभिन्न कहना अनाचार का सेवन करना है । - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir શરીર ઉદ્ગાર અથવા સ્થૂલ પુદ્ગલેાથી બને છે. વૈક્રિય શરીર, વૈક્રિય વણાના પુદ્ગલાથી બને છે. આહારક શરીરનું કારણુ આહારક વગણાના પુદ્દગલે છે. તેજસ શરીરનું કારણુ તેજ અને કામણુ શરીરનું કારણુ કવણા છે. આ પ્રમાણે જેમ ગાય અને ઘેડે એક નથી એજ પ્રમણે આ શરીર પણ કારણેામાં જુદાપણું હાવાથી એક નથી. પાંચે શરીર સર્વથા ભિન્ન જ છે. આ પ્રમાણેનું એકાન્ત વચન–નિશ્ચય વચન પણ કહેવુ ન જોઇએ. કેમકે-આ ઘર અને સ્ત્રીની માફ્ક એક જ સ્થળે જોવામાં આવે છે. સવથા ભેદ હાત તે તેના દેશ, કાળ વિગેરેમાં ભેદ આવત! આ રીતે તેએકમાં સથા ભેદ પણ નથી. પરંતુ કથાચિત્ ભે અને કથ'ચિત્ અભેદ છે. આજ અનુભવ સિદ્ધ અને નિર્દોષ રાજમાર્ગ છે, આ સ્થિતિમાં આને એકાન્ત ભિન્ન અથવા એકાન્તે અભિન્ન કહેવુ તે અના ચારનુ' સેવન કરવા જેવું છે, सू० ६३ For Private And Personal Use Only Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताइयो सर्वत्र वस्तुनि सर्वशक्ति स्तीत्यपि एकान्तवचनं नो वक्तव्यम्, तत्तद्वचनमपि पर्सतेऽनाचाराऽऽरणे । अयमाशयः सांख्यन पे-सवें पदार्थाः प्रकृतिस्थमूला: प्रकृतियोपादानं समानं सर्वेषामिति कारणगुणस्य सर्वत्रैव सद्भावात् सर्वे सर्वात स्मकाः पदार्थाः । सर्वाऽपि शक्तिः सर्वत्र वर्तते । अन्ये च-देशकाळ-स्वभावादि भेदात्सर्षे सर्वेभ्यो विभिना इति एतेषां नये नैका शक्तिः सर्वत्र सिदा । तदुभयमपि-एकान्तवादवचनमेव, अयुक्तं चैत्-अस्माकं नये नयविदाम् । तथाहि यदि सर्वस्य सर्वात्मकन्यं सिध्येत् न सिध्येद् जन्ममरणसु खित्वदुःखिस्वबन्धमोक्षादीनां लौकिकी शास्त्रीया चाऽनुपेक्षणीया व्यवस्था । अतः सर्वथाऽभेदैकान्तो न सर्वत्र सामर्थ्य है, सर्वत्र वीर्य नहीं है, अर्थात् सब वस्तुओं में सर्व शक्तियां विद्यमान हैं अथा सब में सब शक्तियां नहीं हैं, ऐसा कहने से भी अनाचार होता है । तात्पर्य यह है कि सांख्यमत के अनुसार समस्त पदार्थों का कारण प्रकृति है। वह सब का उपादान कारण है । उपादान कारण के गुण सभी कार्यों में पाये जाते हैं, अतः सभी पदार्थ सर्वात्मक हैं, सघ में सब शक्तियां विद्यमान हैं। दूसरों का कहना है कि देश, काल स्वभाव का भेद होने से भी पदार्थ सब से भिन्न हैं । इनके मन में एक शक्ति सर्वत्र सिद्ध नहीं है । यह दोनों एकान्त मान्यताएं समीचीन नहीं हैं। यदि सब सत्मिक हों तो जन्म, मरण, सुख, दुःख, बन्ध और मोक्ष आदि की लौकिक और शास्त्रीय व्यापार, जिनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती, सिद्ध नहीं होती। इस कारण एकान्त अभेदपक्ष આ બધે જ સામર્થ્ય છે. બધે વીર્ય નથી. અર્થાત સઘળી વસ્તુઓમાં બધી જ શક્તિ રહેલી છે. અથવા બધામાં બધી શક્તિ નથી. એ પ્રમાણે કહેવું ન જોઈએ. કેમકે એમ કહેવાથી પણ અનાચાર થાય છે. તાત્પર્ય એ છે કે-સાંખ્યમત પ્રમાણે દરેક પદાર્થોનું કારણ પ્રકૃતિ છે. તે બધાનું ઉપાદાન કારણ છે ઉપાદ ના કારણના ગુણ બધા જ કાર્યમાં મળી આવે છે. તેથી બધા જ પદાર્થો સર્વાત્મક છે. બધામાં બધી જ શક્તિ રહેલી છે. બીજાઓનું કહેવું છે કે દેશ, કાળ, અને સ્વભાવને ભેદ હોવાથી બધા જ પદાર્થો બધાથી જુદા છે. તેઓના મત પ્રમાણે એક શક્તિ બધે જ સિદ્ધ નથી, આ બને એકાત માન્યતાઓ બરોબર નથી. જે બધાજ સર્વામક હય, તે જન્મ, મરણ, સુખ, દુઃખ, બન્ધ અને મેક્ષ વિગેરેની લોકિક અને શાસ્ત્રીય વ્યવસ્થાઓ કે જેની ઉપેક્ષા કરી શકાય તેમ નથી. તે સિદ્ધ થતી નથી. તે કારણથી એકાત અભેદ પક્ષ બરાબર નથી. એકાન્ત For Private And Personal Use Only Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समार्थबोधिनी टीका द्वि श्रु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् युक्तियुक्तः । सर्वथा भेदपक्षेऽपि - 'अयमेव दुष्टो दोष आपयेत । तस्मात् प्रमेयत्वज्ञेयश्वादिना सर्वेषां सर्वात्मकत्वं कथञ्चिदभेदः । तत्तद्रूपेण देशकालाद्यवस्थाभेदेन च कथञ्चिद्भेद इत्येव मनोरमः पन्थाः || १० || मूलम् - एएहिं दोहि ठाणेहिं, ववहारो ण विज्जइ । एएहिं दोहि ठाणेहिं, अणायारं तु जाणए ॥ ११ ॥ णत्थि लोए अलोए वा नैवं सन्नं निवेसए । अस्थि लोए अलोए वा, एवं सन्नं निवेसे ॥ १२ ॥ छाया - एताभ्यां द्वाभ्यां स्थानाभ्यां व्यवहारो न विद्यते । एताभ्यां द्वाभ्यां स्थानाभ्या मनाचारन्तु जानीयात् ॥ ११ ॥ नास्ति लोकोऽलोको वा नैवं संज्ञां निवेशयेत् । अस्ति लोकोsaint वा एवं संज्ञां निवेशयेत् ॥ १२ । ठीक नहीं है । एकान्त भेदपक्ष में भी यही दुष्ट दोष आता है । अतः प्रमेयत्व, ज्ञेयत्व आदि सामान्य धर्मों की अपेक्षा सब में कथंचित् अभेद भी है । अवस्था भेद से कथञ्चित् भेद भी है। इस प्रकार कथंचित् भेदाभेद पक्ष ही सत्य मार्ग है । दोनों एकान्तों का सेवन करना अनाचार है ||१०|| ४९९ 'एएहि दोहि ठाणेहिं' इत्यादि । शब्दार्थ- 'लोए-लोका' लोक 'नस्थि-नास्ति' नहीं है और 'अलोएअलोकः' अलोक नहीं हैं' 'एवं एवम्' ऐसी 'सनं संज्ञां' बुद्धि 'ण णिवेसिए - न निवेशयेत्' नहीं रखनी चाहिए, किन्तु 'लोए अलोए वाअस्थि-लोको अलोको वा अस्ति' लोक अथवा अलोक विद्यमान है ભેદ પક્ષમાં પણ આજ પ્રમાણે દુષ્ટ દેષ આવે છે. તેથી પ્રમેય પશુ, ज्ञेयપશુ, વિગેરે સામાન્ય ધર્મોની અપેક્ષાએ બધામાં કથ'ચિત્ અભેદ પણ છે. અવસ્થા ભેદથી કંચિત્ ભેદ પણ છે. આ રીતે કથાચિત ભેદ્દાલે પણ જ સત્યમાગ છે. બન્ને એકાન્ત પક્ષેાનુ સેવન કરવું તે અનાચાર છે. ૧૦ના 'एहि दोहि ठाणेहिं' इत्यादि शब्दार्थ –'लोए - लोक:' । 'नत्थि - नास्ति' नथी अप 'नत्थि - नास्ति' विद्यमान नथी. 'एवं - एवम्' शुद्धि 'ण णिवेखए- न निवेशयेत्' राजवीन लेखे. खेो' 'अस्थि - अस्ति' विद्यमान छे. 'वा' अथवा For Private And Personal Use Only भने 'अलोए- अलोकः ' मेवी 'सन्नं - संज्ञाम्' परंतु 'लोए - लोकः ' 'अलोए- अलोकः' भ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५०० सूत्रकृतास्त्र अन्वयार्थ:-(लोए) लोकश्चतुर्दशरज्ज्वात्मकः (नस्थि) नास्ति, एवम् (अलोए) अलोको लोकभिन्ना नास्ति (एव) एवमीहशीम् (सन्न) संज्ञां-बुद्धिम् (ण णिवेसए) ननिवेशयेत्-न कुर्यात् किन्तु (लोए अलोए वा) लोकोऽलोकोवा (अस्थि) अस्तिविद्यते (एव) एवमीदृशीम (सन्नं) संज्ञा-बुद्धिम् (निवेसए) निवेशयेत्-कुर्यादिति। टीका-भेदाभेदपक्षयोर्व्यवहारस्य समाधातुमशक्यत्वात् सर्वथा भेदाश्रयः हिमप अनाचारसेवनम् । सर्वथाऽभेदपक्षोऽपि अनाचारसेवनमेव । शेषमतिरोहिताथै व्याख्यातश्च ॥११॥ 'लोए' लोकश्चतुर्दशरजग्यात्मकः-जीवाऽजीवादीनामाधारस्थानम् 'अलोए वा' अलोको वा लोकातिरिक्तोऽलोकः, 'नस्थि' नास्ति 'एवं' एवमीदृशीम् ‘सन्नं' संज्ञाम् 'ण णिवेसए' न निवेशयेत्-नास्ति लोको नास्त्यलोको वा ईदृशीं बुद्धि न कुर्यात् । किन्तु–'लोए अलोए वा' लोकोऽलोको वा 'अस्थि' अस्ति-विद्यते 'एवं' एवम्-ईदृशीम् 'सन्न' संज्ञा-बुद्धिम् 'निवेसए' निवेशयेत-लोकाऽलोकाऽभाव. विषयकबौद्धवासनावासितां बुद्धिं परित्यज्य तयोर्भावविषयिणी बुद्धिमेव कुर्यात् । 'एवं-एवम्' इस प्रकारकी ‘सन्नं-संज्ञाम्' बुद्धि 'निवेसए-निवेशयेत्' रखनी चाहिए ।११.१२॥ . अन्वयार्थ--लोक और अलोक नहीं है, ऐसी बुद्धि नहीं रखनी चाहिए, किन्तु लोक है और अलोक है इस प्रकार की बुद्धि रखनी चाहिए ॥११-१२॥ टीकार्थ-चौदह रज्जु परिमाणवाला तथा जीव अजीव आदि द्रव्यों का आधारस्थान लोक कहलाता है । लोक से अतिरिक्त जो आकाश है यह अलोक है । यह लोक और अलोक नहीं है, ऐसा नहीं समझना चाहिए, किन्तु लोक और अलोक है, ऐसी बुद्धि रखनी चाहिए । लोक एवं अलोक के अभाव के विषय में बौद्धों की जो मान्यता है, उसका बत्थि-अस्ति' विद्यमान छ. 'एवं' या प्रमाणे नी 'मन्नं -संज्ञाम्' मुद्धि 'निवेसए -निवेशयेत्' रामवी नई. ॥११-१२।। અન્વયાર્થ–લેક અને અલક નથી. એવી બુદ્ધિ રાખવી ન જોઈએ પરંતુ લેક છે અને અલક પણ છે, આ પ્રકારની બુદ્ધિ રાખવી જોઈએ. ૧૧-૧૨ા ટકાથં ચૌદ રાજુ પરિમાણુ–પ્રમાણુવાળા તથા જીવ અજીવ વિગેરે દ્રોને આધાર સ્થાન લેક કહેવાય છે. લોકથી અતિરિક્ત જે આકાશ છે, તે અલક છે. આ લેક અને અલેક નથી. તેમ સમજવું ન જોઈએ. પરંતુ લોક અને અલેક છે, તેવી બુદ્ધિ ધારણ કરવી જોઈએ. લેક અને અલેકના અભાવના સંબંધમાં બૌદ્ધોની જે માન્યતાઓ છે, તેને ત્યાગ કરીને તેના For Private And Personal Use Only Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् ५०१ तन्म स्वीकारे सर्वलोकमसिद्धसिद्धाऽबाधितव्यवस्थायाः समर्थयितुमशक्यत्वात् । अपमाशयः- 'सर्व शून्यतावादिविवादिमते यथा स्वप्ने परिदृश्यमानाः पदार्थाः न सत्याः, अपि तु-मिथ्याभूताः । तथा-जामदादि समयेऽपि उपलभ्यमाना मिथ्यैत्र । यतो हि-कारणवलेन पदार्थाः प्रतिभावनि, कारणं परमाणवः तस्यैव सत्ता न सिद्धयति । अतीन्द्रियत्वात्, विचार्यमाणे स्वरूपव्यवस्थित्यमावात् । अत एवोक्तम् 'यथा यथा च चिन्त्यन्ते विशीयन्ते तथा तथा। यदेतत्स्वयमथैम्यो, रोचते तत्र केवलम् ॥१॥ त्याग करके उनके सद्भाव को स्वीकार करना चाहिए। उनके मत को स्वीकार कर लेने पर समस्त लोक में प्रसिद्ध, प्रमाण से सिद्ध और व्यवहार से अबाधित जो व्यवस्था है, उसका समर्थन नहीं किया जा सकता। ___आशय यह है-जैसे स्वप्न में दिखाई देने वाले पदार्थ सत्य नहीं किन्तु मिथ्या होते हैं, उसी प्रकार जाग्रत् दशा में प्रतीत होने वाले पदार्थ भी मिथ्या ही है, ऐसा शून्यवादो का मत है । उनका कथन है कि कारण के होने पर ही पदार्थ की सत्ता हो सकती है। कारण परमाणु माने जाते हैं और उनकी सत्ता ही नहीं है, क्यों कि वे इन्द्रियों से अगोचर हैं और विचार करने पर उनका स्वरूप सिद्ध नहीं होता है । कहा भी है-'यथायथा च चिस्यन्ते' इत्यादि। . 'संसार के पदार्थों के विषय में ज्यों ज्यों विचार किया जाता है, स्यों स्यों वह असिद्ध होते जाते हैं, उनका अभाव सिद्ध होता जाता સદ્ભાવને સ્વીકાર કરે જોઈએ. તેમના મતને રવીકાર કરવાથી સઘળા લેકમાં પ્રસિદ્ધ પ્રમાણથી સિદ્ધ અને વ્યવહારથી અબાધિત જે વ્યવસ્થા છે, તેનું સમર્થન કરવામાં આવતું નથી. કહેવાનો આશય એ છે કે જેમ સ્વપ્નમાં દેખવામાં આવતે પદાર્થ સાચે નથી પરંતુ મિયા હોય છે. એ જ પ્રમાણે જાગ્રદેવસ્થામાં દેખવામાં આવનાર પદાર્થ પણ મિષા જ છે. આ પ્રમાણેને શૂન્ય વાદીનો મત છે, તેઓનું કહેવું છે કે-કારણના અસ્તિત્વમાં જ પદાર્થની સત્તા હોઈ શકે છે. કારણ પરમાણુ માનવામાં આવે છે. અને તેની સત્તા જ નથી. કેમકે–તેઓ ઈન્દ્રિયોથી અગોચર-ન દેખાય તેવા છે. અને વિચાર કરવાથી તેઓનું સ્વરૂપ सिद्ध थतु नथी. यु ५५ छ ।-'यथा यथा च चिन्त्यन्ते' त्यहि સંસારના પદાર્થોના સંબંધમાં જેમ જેમ વિચાર કરવામાં આવે. તેમ તેમ તે અસિદ્ધ થતા જાય છે. તેનો અભાવ સિદ્ધ થતો જાય છે. જ્યારે For Private And Personal Use Only Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૧૦૨ अपिच - 'बुद्धया विविच्यमानानां स्वभावो नाऽत्रधार्यते । अतो निरभिलव्यास्ते निःस्वमात्राव देशिताः ॥१॥ इति एवन्ते लोकात्म कालो काम कार्य पोरमा व्यावर्णयन्ति । तदेतन्मतं न सम्यक् । सर्वाऽनुवसिद्धार्थ क्रियासमर्थाऽवाधितार्थानां वाङ्मात्रेण निराकर्तुमशक्यत्वादिति ॥१२॥ मूलम् - णत्थिं जीवा अजीवा वा सूत्रकृताङ्गसूत्रे वं सन्नं निवेर्सए । अस्थि जीवा अजीवा वा एवं सन्तं निवेए ॥१३॥ १० छाया - न सन्ति जीवा अजीवा वा नैवं संज्ञां निवेशयेत् । सन्ति जोवा अजीवा वा एवं संज्ञां निवेशयेत् ॥ १३॥ | जब पदार्थों को स्वयं ही यह रुचता है तो हम क्या करें ? और भी कहा है- 'बुद्धया विविच्यमानानाम्' इत्यादि । 'जब पदार्थों का बुद्धि से विवेचन करते हैं तो उनका कोई स्वभाव निश्चित नहीं होता। इसी कारण हमने उन्हें अवक्तव्य और निस्स्वभाव कहा है ।' इस प्रकार शून्यवादी लोक और आलोकरूप पदार्थों का अभाव कहते हैं, किन्तु उनका यह मत ठीक नहीं है । पदार्थों से अर्थक्रिया होती है, यह सबके अनुभवसे सिद्ध है, अतएव अर्थक्रिया से सिद्ध अबाधित पदार्थों का वचन मात्र से निषेध नहीं किया जा सकता ।११-१२॥ ' णत्थि जीवा' इत्यादि । शब्दार्थ -- 'जीवा - जीव: : ' जीव अथवा 'अजीवा-मजीवा' अजीव 'स्थि-न सन्ति' नहीं है 'एवं एवम्' इस प्रकार की 'सन्न -संज्ञाम्' પદાર્થાને જ એ ગમે છે, તે અમે શું કરીએ? બીજું પણ કહ્યુ છે કે'बुध्या विचिन्त्यमानानाम्' त्यहि જયારે પદાર્થીના વિચાર બુદ્ધિથી કરવામાં આવે તે તેના કોઈ પણ સ્વભાવ નિશ્ચિત થતા નથી. તેજ કારણથી અમે તેને અવક્તવ્ય અને નિઃ સ્વભાવ-સ્વભાવ વગરના કહેલ છે. For Private And Personal Use Only આ પ્રમાણે શૂન્યવાદી, લેક અને અલેક રૂપ પદાર્થોના અભાવ કહે છે, પરંતુ તેઓનું આ કથન ખરેખર નથી, પાચેર્ઘાથી અક્રિયા થાય છે, આ ખધાના અનુભવથી સિદ્ધ વાત છે. તેથી જ અક્રિયાથી સિદ્ધ અખા ષિત પદાર્થોના વચન માત્રથી નિષેધ કરવામાં આવી શકતા નથી. ૫૧૧-૧૨૫ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थयोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् अन्वयार्थ:-(जीवः) जीवा उपयोगलक्षगाः तथा-(अजीवा) अजीरा:-धर्मा धर्माकाशपुद्गलाः (गस्थि) न सन्ति-न विद्यते (एवं) एवम्-ईदृशीम् (सन्न) सबुद्धिम् (ण निवेसए) न निवेशयेत्-न कुर्यात् किन्तु (अस्थि जीवा अजीवा वा) सन्ति जीवा अजीवा वा (एवं) एवम्-ईदृशीम् (मन्नं) संज्ञाम्-बुद्धिम् (निवेसए) निवेशयेत्-कुर्यात् ॥१३॥ टीका-'जीवा अजीवा वाणस्थि' जीवा उपयोगलक्षणाः, अनीचा स्तभिन्ना धर्माऽधर्माकाशपुद्गलाः 'गस्थि' न सन्ति एवं' एवम् ईडशीम् ‘सन्न' संज्ञा बुद्धिम् (ण) नैव 'निवेसए' निवेशयेत्-कुर्यात् , नास्ति जीवादिपदार्थ एवं बुद्धि नैव-कथमपि कुर्यात् । किन्तु-'जीग अजीवा वा अस्थि' जीवा अनीवा वा सन्ति संज्ञा-बुद्धिको 'ण णिवेसए-न निवेशयेत्' धारण नहीं करना चाहिए किन्तु 'अस्थि जीवा अजीवा वा-सन्ति जीवा अजीवा वा' जीव हैं और अजीव हैं एवं-एवम्' ऐसी सन्न-सज्ञां' बुद्धि को 'निवेसए-निवेशयेत्' धारण करना चाहिए ॥गा०१३॥ ___ अन्वयार्थ--जीव नहीं हैं अथवा अजीव नहीं हैं, इस प्रकार की संज्ञा धारण नहीं करना चाहिए, किन्तु जीव हैं और अजीव हैं, ऐसी संज्ञा धारण करना चाहिए ॥१३॥ टोकार्थ-उपयोग लक्षण वाले जीवों का अस्तित्व नहीं है अथवा जीव से भिन्न धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश, पुद्गगल और काल रूप अजीवों का अस्तित्व नहीं है, इस प्रकार की बुद्धि नहीं 'णत्थि जीवा' ४त्यादि शहाथ-'जीवा-जीवाः' ७१५थवा 'अजीवा-अजीवाः' १७१ ‘णस्थि-न मन्ति' नथी. 'एवं-एवम्' मा प्रभारीनी 'सन्न-संज्ञां' सज्ञा मुद्धिने 'ण णिवे मए-न निवेशयेत्' धार ४२वी ननसे. परंतु अस्थि जीवा अजीवा वा -प्रन्ति जीवा अजीवा-वा' १ छ, अथवा मल छ, एवं-एवम् सेवा सन्न-संज्ञाम्' सशा मुद्धिने 'निवेसए-निवेशयेत्' धारण ४२वी. न . ॥१३॥ અન્વયાર્થ-જીવ નથી. અથવા અજીવ નથી. આ પ્રકારની સંજ્ઞા ધારણ કરવી ન જોઈએ. પરંતુ જીવ છે, અને અજીવ છે. એવી સંજ્ઞા ધારણ ४२वी स. ॥3॥ ટીકાર્ય–ઉપગ લક્ષણવાળા જીનું અસ્તિત્વ નથી. અથવા જીવથી ભિન્ન ધર્માસ્તિકાય, અધર્માસ્તિકાય આકાશ, પુદગલ, અને કાળ રૂપ અજી નું અસ્તિત્વ નથી. આવા પ્રકારની બુદ્ધિ રાખવી ન જોઈએ. પરંતુ જીવ છે, અને અજીવ છે. તેવું સમજવું જોઈએ, ચાર્વાક મતના અનુયાયી શરી For Private And Personal Use Only Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५०४ सूत्रकृतागो एवं सन्नं' एवम्-ईदृशी संज्ञां बुद्धिम् 'निवेसए निवेशयेत्-कुर्यादित्यर्थः । चावाकमतानुयायिनः अस्ति शरीरादि व्यतिरिक्तो जीव इति नानुमन्यन्ते । किन्तुभरीराकारपरिणतभूतसंघातस्वरूप एव जीव इति । एवं ब्रह्माऽद्वैतवादी वक्ति, यदयं समस्तोऽपि प्रपश्च: आत्मनो विवसरूपः । अतो न आत्मव्यतिरिक्तं किमपि पस्तुजातं विद्यते, आत्मैव एकः परमार्थः सन् । एतदुभयमतं न सम्यक-इति प्रकृतगाथया सूत्रारो वक्ति-'णस्थि' इत्यादि। अयमाशय:-चैतन्यं न भूतमात्रस्य गुण सम्मवति तथात्वे सति भूनाऽऽ(ब्ध घटादावपि चैतन्यमुपलभ्येत । नत्वे भति तस्माच्चैतन्यं न गुणभूतः, किन्तु-यस्य स गुणः स एव स्वतन्त्रोऽनादि रखना चाहिए, परन्तु जीव हैं और अजीव हैं, ऐसा समझना चाहिए। चार्वाक मत के अनुयायी शरीर से भिन्न जीव का अस्तित्व नहीं मानते। उनका कथन है कि शरीर की आकृति में परिणत हुए पृथ्वी आदि भूनों के समूह से ही चैतन्य की उत्पत्ति हो जाती है-जीव की पृथक कोई सत्ता नहीं है। इससे विपरीत ब्रह्माद्वैतवादी की मान्यता ऐसी है कि जगत् का यह सारा प्रपंच (फैलाब) आत्मा का ही स्वरूप है। आत्मा से भिन्न कोई अजीव पदार्थ नहीं है । एक मात्र आत्मा ही परमार्थ है। मृत्रकार का कथन है कि यह दोनों मन्तव्य सत्य नहीं हैं ! आशय 'यह है-चैतन्य भूतों का धर्म होता तो भूतों से निर्मित घट आदि में भी चैतन्य की उपलब्धि होती। मगर ऐसा होता नहीं है, अतएव चैतन्य भूतों का गुण नहीं है । किन्तु जिसका वह गुण है वही जीव कहलाता है और वह भूतों से भिन्न तथा अनादि है। રથી ભિન્ન જીવનું અસ્તિત્વ માનતા નથી. તેઓનું કથન છે કે શરીરની આકૃતિમાં પરિણત થયેલા પૃથ્વી વિગેરે મહાભૂતના સમૂહથી જ ચૈતન્યની ઉત્પત્તિ થઈ જાય છે. જીવની જૂદી કઈ પ્રકારની સત્તા નથી. તેનાથી ઉલ્ટા બ્રહ્મા-દ્વૈતવાદીની માન્યતા એવી છે કે-જગતને આ સમગ્ર વ્યવહાર ફેલાવ) - આત્માનું જ સ્વરૂપ છે. આત્માથી જૂદે કઈ પણ અજીવ પદાર્થ નથી, કેવળ આત્મા જ પરમાર્થ છે. સૂત્રકારનું કથન છે કે આ બંને પ્રકારના મન્ત સત્ય નથી. કહે. વાને આશય એ છે કે–ચૈતન્ય ભૂતને ધર્મ થઈ શકતું નથી! જે તે ભતેને ધર્મ હેત તે ભૂતોથી બનાવવામાં આવેલ ઘટ, વિગેરેમાં પણ ચેતન્યની પ્રાપ્તિ થાત જ પરંતુ તેવું થતું નથી, તેથી જ ચૈતન્યભૂતનો ગુણ નથી પરંતુ જેને તે ગુગ છે તે જીવ કહેવાય છે અને તે ભૂતથી ભિન્ન .तथा अनामिछ. For Private And Personal Use Only Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी रीका द्वि. श्रु. अ.५ आचारश्रुतनिरूपणम् ५०५ जीव इति । तथा-वेदान्तिमतमपि न स चीनम् -यत:-यतः स्याऽऽत्मपभवस्वे जगतो विचित्रता न स्यात्, एचमेक एन यद्याऽऽ पा भवेत्तदा कश्चिद्धदः कश्चिनमुक्ता-कश्चित्सुखी-कश्चिदुःखी-इत्यादि व्यवस्था सर्वलोके सर्वाऽनुभवसिद्धा न व्यवस्थिता स्यात् । अतो जीना अजीवाश्च सन्तीति स्वीकर्तव्यमेव ॥१३॥ - मुहम्-स्थि धम्म अधम्मे वा णेवं सन्नं णिवेसए । अस्थिं धम्म अधम्मे वा एवं सन्नं णिसए ॥१४॥ छाया-नास्ति धर्मोऽधर्मों वा नै संज्ञां निवेशयेत् । अस्ति धर्मोऽधर्मों वेत्येवं संज्ञो निवेशयेत् ॥१४॥ इसी प्रकार वेदान्तियों का मन भी समीचीन नहीं है। क्यों कि समस्त पदार्थ यदि एक ही आत्मा से उत्पन्न हुए होते तो उनमें परस्पर विचित्रतान होती इसके सिवाय यदि आस्मा एक ही होता तो कोई बद्ध होता है, कोई मुक्त, कोई सुखी और कोई दुःखी, इत्यादि व्यवस्था, जो सभी के अनुभव से सिद्ध है, वह न होती। अतएव जीवों और अजीवोंदोनों का ही अस्तित्व स्वीकार करना चाहिए । यही युक्तिसंगत है ॥१३॥ 'णत्थि धम्मे' इत्यादि। शब्दार्थ-'णस्थि धम्मे अधम्मे वा-नास्ति धोऽधर्मो वा' धर्म नहीं है और अधर्म नहीं है 'णेवं सन्नं निवेत्तए-नैव संज्ञां निवेशयेत्' इस प्रकार की संज्ञी-बुद्धि धारण न करे किन्तु 'अस्थि धम्मे अधम्मे वा-भस्ति धर्मोऽधर्मों वा' धर्म है और अधर्म भी है ‘एवं सन्नं निवेसए'-एवं संज्ञा निवेशयेत्' ऐसी संज्ञा-बुद्धि धारण करे। ॥१४॥ આજ પ્રમાણે વેદાતિનો મત પણ બરોબર નથી. કેમકે–સઘળા પદાર્થો જે એક આત્માથી જ ઉત્પન્ન થયેલા છે તે તેએામાં પરસ્પર વિચિત્ર પણું ન થાત આ શિવાય જે આત્મા એક જ હોત તે કઈ બદ્ધ હોય છે, તેમે કઈ મુક્ત હોય છે. કોઈ સુખી હોય છે, તે કઈ દુઃખી હોય છે. વિગેરે વ્યવસ્થા કે જે દરેકના અનુભવથી સિદ્ધ છે, તે હેત નહીં. તેથી જ છે અને અજી-બન્નેનું અસ્તિત્વ સ્વીકારવું જોઈએ એજ યુક્તિ સંગત છે. ૧૩ 'णत्थि धम्मे' त्या शहाथ--'णस्थि धम्मे अधम्मे वा-नास्ति धर्मोऽअधर्मो वा' धर्म नथी,, अन अपम ५५ नथी. 'णेवं सन्न निवसए-नै संज्ञां निवेशयेत्' मावा . २नी संज्ञा (भुद्धि) था२५ ४२वी नही ५२ 'अस्थि धम्मे अधम्मे वा-अस्ति धोऽधर्मो वाघ भने म छ. 'एवं सन्न निवेसए-एवं संज्ञा निवेशयेत्' से प्रभाएनी संज्ञा (मुद्धि) धारण ४२वी ४. ॥१४॥ स० ६४ For Private And Personal Use Only Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - ५०६ सूत्रकृतागले ... अन्वयार्थ :-(गस्थि धम्मे अधम्मे व:) नास्ति धधर्मों वा (णेव सन्न णिवेसए) नैवं संज्ञाम्-बुद्धिं निवेशयेत्-कुर्यात् किन्तु (अत्यि धम्मे अधम्मे वा) अस्ति विद्यते धर्माऽधौं घा (एवं सन्नं णिवेसए) एवमीदृशीं संज्ञां बुद्धि निवेशयेत्-कुर्यादिति ॥१४॥ टीका-'धम्मे धर्मः 'अधम्मे वा' अधओं वा 'णत्यि नास्ति 'एवं' अनेन प्रकारेण 'सन्न' संज्ञाम्-मतिम् ‘ण णिवेसए' न निवेशयेत् । अर्थान् धर्माऽधर्मों नस्तः। किन्तु-कालस्वभावनियतीश्वरादिकारणादेव जगतः सम्भव इति मत्वा धर्माऽधर्मयोः सत्वं वारयमिकेचन वादिनः । तन्न सम्यक्, यतो धर्माऽधर्मयोरकारणत्वे जगतो वैचित्र्यं न सिध्येत् । दृश्यते हि लोके एकस्मिन्नेव काले जायमानानाम ने केषां मध्ये केचन सुभगाः केचन दुर्भगा भवन्निन, केचन सुखिनः अन्वयार्थ-धर्म नहीं है अथवा अधर्म नहीं है, इस प्रकार की संज्ञा (बुद्धि) धारण न करे किन्तु धर्म और अधर्म है, ऐसी संज्ञा (घुद्धि) धारण करे ॥१४॥ टीकार्थ--धर्म का अस्तित्व नहीं है अथवा अधर्म का अस्तित्व नहीं है, ऐसी बुद्धि न करे, परन्तु ऐसी बुद्धि धारण करे कि धर्म और अधर्म दोनों का अस्तित्व है। कोई कोई वादी काल, स्वभाव, नियति या ईश्वर आदि कारणों से ही जगत् की उत्पत्ति मानकर वे धर्म अधर्म के अस्तित्व का निषेध करते हैं, किन्तु यह सत्य नहीं है, क्योंकि धर्म और अधर्म को यदि कारण न माना जाय तो जगत् में जो विचित्रमा दिखाई देती है, यह सिद्ध नहीं हो सकती । इस लोक में एक ही काल में उत्पन्न અન્વયાર્થ-ધર્મ નથી અથવા અઘ પણ નથી. આ પ્રકારની સંજ્ઞા બુદ્ધિ ધારણ ન કરવી. પરંતુ ધર્મ અને અધમ છે તેવી સંજ્ઞા ધારણ કરે. ૧૪ ટીકાઈ––ધર્મનું અસ્તિત્વ નથી, અથવા અધર્મનું અસ્તિત્વ પણ નથી. આ પ્રમાણેની બુદ્ધિ રાખવી નહી પરંતુ ધર્મ અને અધર્મ બને છે, તે પ્રમાણેની બુદ્ધિ ધારણ કરવી. કઈ કઈ પરમતવાદી કાલ, સ્વભાવ, નિયતિ અથવા ઇશ્વર વિગેરે કારણથી જ જગની તેઓ ઉત્પત્તી માનીને ધર્મ અને અધર્મના અસ્તિત્વને નિષેધ કરે છે. પરંતુ આ સત્ય નથી. કેમકે—ધર્મ અને અધર્મને જે કારણ માનવામાં ન આવે તે જગતમાં જે વિચિત્રપણુ દેખવામાં આવે છે, તે સિદ્ધ થઈ શકત નહીં. આ લેકમાં એક જ કાળમાં ઉત્પન્ન થવાવાળા મનુષ્યોમાં For Private And Personal Use Only Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५०७ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् केचन दुःखिनो भवन्ति । एतादृशं वैचित्र्यं धर्माऽधर्मयोः सत्त्वे सत्येव समर्थयितुं शक्येत, नाऽन्यथा । यद्यपि कारणं कालादिरपि भवति, तथापि-धर्माऽधर्मसहकृतानामेव कालादीनां कारणत्वस्वीकारात । तदुक्तं शास्त्रे-- 'न हि कालादिहितो केवळएहितो जायए किंचि वि। इह मुग्गरंधणाइविता सव्वे समुदिया हेऊ' ॥इति।। अतो धर्माऽधी न स्तः, इति कथमपि विवेकिभिः स्वीकर्तुं न शक्यते । अतः'धम्मे धर्मः-श्रुनचारित्राख्य आत्मपरिणामः । 'अधम्मे' अधर्मः मिथ्यात्वाऽविरतिप्रमादकषाययोगाः आत्मपरिणामाः अधर्मपदवाच्याः। 'अत्थि' सन्ति एवं सन्नं णिवेसए' इति संज्ञां निवेशयेत्-कुर्यात् । अर्थात्-कुशास्त्रपरिशीलनजनितमति परित्यज्य शास्त्र ननितमति धारयेत् 'धर्माऽधौं स्तः' एतादृशीमिति ॥१४॥ होने वाले मनुष्यों में कोई भाग्यवान् या कोई बहुत सुन्दर होते हैं और कोई अभागे या कुरूप होते हैं, कोई सुखी और कोई दुःखी होते हैं। इस प्रकार की विसदृशता धर्म अधर्म के होने पर ही सिद्ध हो सकती है, अन्यथा नहीं यद्यपि काल आदि भी यथायोग्य कारण होते हैं, तथापि धर्म और अधर्म से सहकृत हो कर ही वे कारण हो सकते हैं। शास्त्र में कहा है-'न हि कालादिहितो' इत्यादि । अकेले काल आदि से कोई भी कार्य उत्पन्न नहीं हो सकता। मूंगका पकना भी अकेले काल आदि को कारण मानने पर सिद्ध नहीं हो सकता। अतएव धर्म अधर्म काल आदि सब मिलकर ही कारण होते हैं। इस प्रकार विवेकी जन किसी भी प्रकार स्वीकार नहीं कर सकते कि धर्म और अधर्म का अस्तित्व नहीं है अतएव धर्म अर्थात् श्रुत કઈ ભાગ્યવાનું અને સુંદર હોય છે. તથા કેઈ અભાગીયા અને કદરૂપા ઠેય છે. કોઈ સુખી અને કઈ દુઃખી હોય છે. આવા પ્રકારનું વિષમપણું ધમ અને અધર્મ હોય તેજ સિદ્ધ થાય છે. અન્યથા નહીં. જોકે-કાલ વિગેરે પણ યથાયોગ્ય કારણ હોય છે. તે પણ ધર્મ અને અધર્મથી સહેકૃત થઈને त २५ । २ टे. शासभा छ --'न हि कालादिहितो' त्यादि એકલા કાલ વિગેરેથી કોઈ પણ કાર્ય સિદ્ધ થઈ શકતું નથી. “મગ પકવવાનું પણ એકલા કાળ વિગેરે માનવાથી સિદ્ધ થતું નથી. તેથી જ ધમ અધર્મ કાલ વિગેરે બધા મળીને જ કારણ બને છે. - આ રીતે વિવેકી મનુષ્ય કઈ પણ એક પ્રકારને સ્વીકાર કરી શકતા નથી. કે-ધર્મ અને અધર્મનું અસ્તિત્વ નથી. તેથી જ ધર્મનું અસ્તિત્વ અર્થાત For Private And Personal Use Only Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५०८ सकताजसत्र मूलम्-त्थि बंधे व मोक्खे वाणेवं सन्नं णिवेसए । अस्थि बंधे व मोखे वा एवं सन्नं णिसए ॥१५॥ छाया- नास्ति बन्धो वा मोक्षो वा नैव संज्ञां निवेशयेत् । ___ अस्ति बंधो वा मोक्षो वेत्येवं संज्ञां निवेशयेत् ॥१५॥ अन्वयार्थः-(गस्थि बंधे व) नास्ति बन्धो वा-कर्मपुद्गलानां जीवेन सह. सम्बन्धः (ण मोक्खे वा) न मोक्षो वा-मोक्षो बन्धनविश्लेषरूपः (णे सन्नं निवेसए) एवं चारित्र रूप आमपरिणाम अवश्य है तथा मिथ्यात्व, अधिरति, प्रमाद, कषाय और योग रूप अधर्म का अस्तित्व भी अवश्य है। ऐसा समझना चाहिए । अर्थात् कुशास्त्रों के परिशीलन से उत्पन्न हुई कुमति को त्याग कर धर्म और अधर्म हैं, ऐसो शास्त्र जनित सदबुद्धि को ही धारण करना चाहिए ॥१४॥ 'णस्थि बंधे व मोक्खे वा' इत्यादि । शब्दार्थ-'गस्थि बंधे व-नास्ति बन्धो वा' यन्न अर्थात् कर्मपुङ्गलों का जीव के साथ सम्पन्ध नहीं है 'ण मोक्खो वा-न मोक्षो वा' और मोक्ष भी नहीं है 'णेवं मन्नं निवेसए-नैवं संज्ञां निवेशयेत्' इस प्रकार की बुद्धि धारण न करे किन्तु 'अस्थि बंधे व मोक्खे वा-अस्ति बन्धो वा मोक्षो वा' बन्ध है और मोक्ष है 'एवं सन्नं निवेसए-एवं संज्ञां निवे. शयेत्' ऐसी बुद्धि धारण करे ॥गा० १५॥ - अन्वयार्थ--बन्ध अर्थात् कर्मपुद्गलों का जीव के साथ सम्बन्ध नहीं है और मोक्ष भी नहीं है, इस प्रकार की बुद्धि धारण न करे किन्तु बन्ध है और मोक्ष है ऐमी बुद्धि धारण करे ॥१५॥ શ્રત અને ચારિત્ર રૂપ આત્મપરિણામ અવશ્ય છે. તથા મિથ્યાત્વ, અવિરતિ, પ્રમાદ, કષાય, અને ગરૂપ અધર્મનું અસ્તિત્વ પણ અવશ્ય છે જ તેમ સમજવું જોઈએ. અર્થાત કુશાસ્ત્રોના પરિશિલનથી. ઉત્પન થયેલી કુમતિને છેડીને ધર્મ અને અધર્મ છે, એવી શાસ્ત્રથી ઉત્પન્ન થવાવાળી સદ્દબુદ્ધિને જ ધારણ કરવી જોઈએ. ૧૪ 'णत्थि बंधे व मोक्खे वा' त्यादि शहाथ---'णस्थि बंधे व-नास्ति बंधो वा' मध अर्थात् भगवान ०१ साथैन। समय नथी. 'ण मोक्खो वो-न मोक्षो वा' ने भाक्ष ५ नथी. 'णेवं सन्न निवेसए-नैवं संज्ञां निवेशयेत्' मावा प्रा२नी गुद्धिने घार न ४३. ५२'तु 'मथि बंधे व मोखे वा-अस्ति बन्धो वा मोक्षो वा' म छ, भने भाक्ष ५२ छ, 'एवं सन्न निवेसए-एवं संज्ञां निवेशयेत्' थे प्रभाकुनी मुद्धिन धारण ४२. ॥१५॥ For Private And Personal Use Only Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् नैवम् ईदृशीं संज्ञां बुद्धि निवेशयेत्-न कुर्यात् । किन्तु (अस्थि बंधे व मोक्खो वा) अस्ति बन्धो वा मोक्षो वा (एवं सन्न णिवेसए) एवमीहशीं संज्ञां-बुदि निवेशयेत्-कुर्यादिति ॥१५॥ टोका-'बंधे व मोक्खे वा णस्थि' बन्धो वा मोक्षो वा नास्ति-तत्र बन्न चातुर्गतिकः संसारः, मोक्षश्वाशेषकर्मक्षयरूपः 'णेवं सन्नं णिवेसए' नै ai निवेशयेत्-ईदृशीं बुद्धिं न कुर्यात् , किन्तु-'बंधे व मोक्खे वा अत्थि' बन्धो वा मोक्षो वा अस्ति एवं सन्नं णिवेसए' एवम्-एतादृशीं संज्ञा-मति निवेशयेतुधारयेत् । बन्धमोक्षयोरश्रद्धा परित्यज्य तयोः श्रद्धा करणीया। अश्रद्धा खल अनाचारमध्यपातिनी, सा च श्रेषोऽणिभिरत स्त्याज्य इति । केचन-बन्ध. मोक्षयोः सद्भावं नाङ्गी कुर्वन्ति प्रतिपादयन्ति च ते इत्थम् । तथाहि-'आत्मा नाम' अमृतः तस्य मूर्तेन कर्मपुद्गलेन सह सम्बन्धाभावात् कथं बन्धः स्यात् , नहि हि. अमत्तस्याऽऽकाशस्य मूर्तेन छेपो दृछः श्रुतो वा सम्भवति । ___ तदुक्तम्-'वर्षातपाभ्यां कि व्योम्नः इत्यादि टीकार्थ--बन्ध नहीं है और समस्त कर्मों का क्षय रूप मोक्ष नहीं है, इस प्रकार समझना योग्य नहीं है। किन्तु ऐसा समझना चाहिए कि बन्ध है और मोक्ष है। बन्ध और मोक्ष के विषय में अश्रद्धा का परित्याग करके उन पर श्रद्धा धारण करना चाहिए । अश्रद्धा अनाचार में गिराने वाली है, अतएव जो अपना कल्याण चाहते हैं, उन्हें दूर से ही उसका त्याग कर देना चाहिए। कई लोग बन्ध और मोक्ष का सदभाव स्वीकार नहीं करते और इस प्रकार कहते हैं-आत्मा अमूर्त है और कर्मपुद्गल मूर्त हैं। ऐसी અયાર્થ––બંધ અર્થાત્ કર્મ પુદ્ગલેને જીવની સાથે સંબંધ નથી. અને મોક્ષ પણ નથી. આ રીતની બુદ્ધિ ધારણ ન કરે પરંતુ બંધ છે અને મોક્ષ પણ છે. એવી બુદ્ધિ ધારણ કરે. ૧પ ટીકાર્થ–બ નથી અને સઘળા કર્મોનો ક્ષય રૂ૫ મોક્ષ પણ નથી આ પ્રમાણે વિચારવું તે યોગ્ય નથી. પરતુ બબ્ધ છે, અને મોક્ષ પણ છે, આ પ્રમાણેનો વિચાર કરે જોઈએ બન્યા અને મોક્ષના સંબંધમાં અશ્રદ્ધાને ત્યાગ કરીને તેના પર શ્રદ્ધા ધારણ કરવી જોઈએ. અશ્રદ્ધા અનાચારમાં પાડવાવાળી છે. તેથી જ જેઓ પિતાના કલ્યાણની ભાવના રાખે છે, તેઓએ ઘરથી જ તેને ત્યાગ કરવો જોઈએ, કેટલાક લેકે બંધ અને મોક્ષના સદૂભાવને સ્વીકાર કરતા નથી, અને આ પ્રમાણે કહે છે કે--આત્મા અમૂર્તી છે, અને કર્મ પુદ્ગલ મૂર્ત છે, For Private And Personal Use Only Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५१० सूत्रकृताङ्गसूत्रे 2 वर्षवितं भवति गगनमातपेन वा परिशुष्यति, तत्कस्य हेतोः १ अमूर्तस्वादाकाशस्य । बन्धनाभावे च बन्धपरित्यागरूपो मोक्षोऽपि न सम्भावितः । सुश्च बन्धविलेषार्थत्वात् । अप्रसक्तप्रतिषेधस्य कर्तुमशक्यत्वात् इति मतं तन सम्यक् | अमृतस्यापि विज्ञानस्य यथा - मूर्त्तेन मेद्य ब्राह्मी - वनस्पत्यादिना सम्बन्धे सत्येव उपकारानुपकारयोः सम्भवो दृष्टा तथा आत्मनोऽपि कर्मपुद्गलेन सह सम्बन्ध सम्भवे बाधकस्यासम्भवात् । अनादिकालादयमात्मा तैजसकार्मणस्थिति में अमूर्त आत्मा का मूर्त्त कर्मपुद्गलों के साथ कैसे बन्ध हो सकता है ? अमूर्त आकाश का किसी भी मूर्त पदार्थ के साथ लेप नहीं हो सकता । न ऐसा होना देखा है, न सुना है । कहा भी है'व पतिपाभ्यां किं व्योम्नः' इत्यादि । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बर्षा होने से अकाश गीला नहीं हो जाता और न धूर पड़ने से वह तपता ही है। उस पर इनका कोई प्रभाव नहीं होता, क्यों कि वर्षा और धूप मूर्त है और आकाश अमूर्त है। हां, चमडे पर उनका प्रभाव अवश्य पढ़ना है, क्यों कि चमड़ा स्वयं मूर्त्त है । इस प्रकार जब अमूर्त होने के कारण आश्मा बद्ध ही नहीं होता तो मोक्ष की बात ही क्या है ? बन्धका नाश होना मोक्ष कहलाता है । बन्धन के अभाव में मोक्ष संभव नहीं है। यह मत समीचीन नहीं है। यद्यपि ज्ञान अमूर्त है, फिर भी मदिरा तथा ब्राह्मी वनस्पति आदि के द्वारा उनका उपकार अनुपकार આવી સ્થિતિમાં અમૂત આત્માને! સંબધ મૂત એવા કમ પુદ્ગલેાની સાથે કેવી રીતે થઈ શકે ? અમૃત આકાશના લેપ કોઇ પણ મૂત્ર પદાર્થની સાથે થઇ શકતુ નથી. આ પ્રમાણે થતું જોવામાં આવ્યું નથી તેમજ સાંભળવામાં पशु भवेत नथी. धुप है- 'वर्षातपाभ्यां किं व्योग्नः' इत्याहि વર્સાદ થવાથી આકાશ ભીનુ' થતું નથી અને તડકા પડવાથી તે તપતુ પશુ નથી, તેના પર વર્ષાંદુ કે તડકાના કઇજ પ્રભાવ હાતા નથી. કેમકે-વર્ષાદ અને તડકા મૂત છે. અને આકાશ અમૃત છે. હા ચામડા પર તેના प्रभाव ४३२ पड़े छे. मडे यामडु स्वयं भूर्त छे. આ પ્રમાણે જયારે અદ્ભૂત હાવાના કારણે આત્મા અદ્ધ જ થતા નથી, તે પછી મેાક્ષની વાત જ ક્યાંથી થઈ શકે? બધા નાશ થવા તે મેક્ષ કહેવા છે. અન્યના અભાવમાં મેાક્ષના સભવ જ રહેતા નથી. આ મત ખરાખર નથી. જોકે જ્ઞાન અમૃત છે, તે પણ મદિરા-મધદારૂં તથા બ્રાહ્મી નામની વનસ્પતિ દ્વારા તેના ઉપકાર અથવા અપકાર થાય For Private And Personal Use Only Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir C मस्याशक्यत्वात् । कति मति परिमाखमतिरपने समयार्थबोधिनी टीका दि.श्रु. अ.५ आचारश्रुतनिरूपणम् ५११ शरीराभ्यां सम्बद्ध एवाऽऽवर्तते । अतः कथञ्चित्स मूनोंऽपि । स्वरूपतः स्वभाव. तश्च अमृतॊऽपि, 'ज्ञान-दर्शन-चारियात्मकोऽपि' तैजसकार्मणशरीरसम्बन्धान्मूर्तोऽपि भवति । अतस्तस्य कर्मपुद्गल सम्बन्धात्मकबन्धनस्य अभावप्रतिपाद. नस्याशक्यत्वात् । बन्धसम्भवे च तदभावात्मकमोक्षोऽपि सम्भवत्येव । अतः चन्धमोक्षौ न विद्यते इति मति परित्यज्य बन्धमोक्षौ विद्यते इत्येतादृशों मतिमेव धारयेत् । न तु-कुतर्केण आग्रहेण शास्त्रमतिरपने येति ॥१५॥ मूलम्-नस्थि पुण्णे व पावे वा गैवं सन्नं णिवेसए । अस्थि पुण्णे व पावे वा एवं सन्नं णिवेसेए ॥१६॥ . छाया-नास्ति पुण्यं वा पापं वा नै संज्ञां निवेशयेत् । अस्ति पुण्यं वा पापं वा एवं संज्ञां निवेशयेत् ॥१६॥ होता ही है । इसी प्रकार आत्मा का कर्मपुद्गल के साथ यदि सम्बन्ध हो तो इसमें कोई बाधक नहीं है । है । इसके अतिरिक्त संसारी आत्मा अनादि काल से तैजस और कामण शरीरों के साथ बद्ध होने के कारण कथंचित् मृत ही है। अर्थात् अपने मूल भून शुद्ध स्वभाव की अपेक्षा से आत्मा अमूर्त है ज्ञान-दर्शन चारित्र और तपमय है, फिर भी तेजस और कार्मण शरीर के साथ सम्बन्ध होने के कारण मूर्त भी है,। इस अपेक्षा से आत्मा का कर्मपुद्गलों के साथ पन्ध होना निर्याध है और जब पन्ध होता है तो उसका अभाव भी संभव ही है ! अतएव पन्ध और मोक्ष नहीं हैं, इस प्रकार की बुद्धि को त्याग कर यही बुद्धि धारण करना चाहिए कि पन्ध भी है और मोक्ष भी है। कुतर्क और कदाग्रह करके शास्त्र संगत समझको त्याग देना उचित नहीं है ॥१५॥ જ છે. એ જ પ્રમાણે કર્મ પુદ્ગલની સાથે જે આત્માને સંબંધ હોય તે તેમાં કંઈ જ બાધ નથી. આ સિવાય સંસારી આત્મા અનાદિકાળથી તેજસ અને કામણ શરીરોની સાથે બદ્ધ હોવાથી કથંચિત્ મૂર્તજ છે. અર્થાત્ પિતાના મૂળભૂત શુદ્ધ સ્વભાવની અપેક્ષાથી આત્મા અમૂર્ત છે. જ્ઞાન, દર્શન ચારિત્ર અને તપમય છે. તે પણ તૈજસ અને કાશ્મણ શરીરની સાથે સંબંધ હોવાથી મૂર્ત પણ છે. આ અપેક્ષાથી કર્મ પુદ્ગલની સાથે આત્માનો બંધ થે નિબંધ–બાધ-દોષ વગરને છે. અને જયારે બંધ થાય છે, તે તેને અભાવ પણ સંભવે છે. તેથી જ બંધ અને મેક્ષ નથી. આવા પ્રકારની બુદ્ધિને ત્યાગ કરીને એવી જ બુદ્ધિ ધારણ કરવી જોઈએ કે-બન્ધ પણ છે અને મેક્ષ પણ છે. કુતર્ક અને કદ ગ્રહ કરીને શાસ્ત્ર સંગત સમજણને છેડી દેવી તે ચગ્ય નથી, ૧પા For Private And Personal Use Only Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रतामा ___ अन्वयार्थः- (गस्थि पुण्णे व पावे वा) नास्ति पुण्यम्-शुभपकृतिलक्षणं का पाप-पुण्यविपर्ययलक्षणं वा 'णेवं सन्न णिवेसए' नैवम्-नेहशी संहां-बुद्धिं निवे. भयेत्-कुर्यात्, किन्तु-(अत्यि पुण्णे व पावे वा) अस्ति-विद्यते पुण्यं वा पापं वा (एवं सम्नं णिवेसए) एवम्-एतादृशीमेव संशां बुद्धि निवेशयेत्-कुर्यादिति ॥१६॥ टीका-'पुणे व पावे वा णस्थि' पुण्यं वा-शुभप्रकृतिलक्षणम् यमाश्रित्य पुण्यात्मा, इति व्यपदेशो भाति, पापं वा-अशुभक्रियाजनितमधोगतिकारणम्, थेन नरकनिगोदादिकुमतिभवति, येन वा पापात्मेति व्यपदेशो जायते, इमे 'णस्थि पुण्णेव पावे वा' इत्यादि । शब्दार्थ-'पस्थि पुण्णे व पावे वा-नास्ति पुण्यं वा पापं वा' पुण्य नहीं है, अथवा पाप नहीं है जैवं सन्नं निवेसए-नैवं संज्ञां निवेशयत्' ऐसी बुद्धि धारण करना उचित नहीं हैं किन्तु 'अस्थि पुण्णे व पावे वा-अस्ति पुण्यं वा पापं वा' पुण्य और पाप है 'एवं सन्न निवेसए-एवं संज्ञा निवेशयेत्' ऐसी बुद्धि धारण करना उचित है ।१६॥ अन्वयार्थ-पुण्य नहीं है अथवा पाप नहीं है, ऐसी बुद्धि धारण करना उचित नहीं है, किन्तु पुण्य और पाप है ऐसी घुद्धि धारण करना उचित है ।१६॥ टीकार्थ--शुभ प्रकृतियों को कहते हैं-जिन के कारण 'यह पुण्यात्मा है, ऐसा व्यवहार होता है वह पुरुष है । जो अशुभ क्रिया से उत्पन्न हो और अधोगति का कारण को वह पाप कहलाता है। इससे नरक ‘णत्थि पुण्णेत्र पाबे वा' या शार्थ -'णत्थि पुष्णे व पावे वा-नास्ति पुण्यं वा पाप वा' पुण्य नथी, अथवा पा५ ५ नयी ‘णेव सन्न निवेदए-नैव संज्ञां निवेशयेत्' । प्रभार मुद्धिथी पिया ते मशष२ नथी. परंतु 'अस्थि पुण्णे व पावे वा-अस्ति पुण्य वा पाप'वा' पुश्य अने ५५ छे. एवं सन्न निवेसए-एवं सज्ञां निवे. शयेत्' से प्रभायेनी मुख धार ४२वी योग्य छे. ॥१६॥ અન્વયાર્થ–પુણ્ય નથી. અને પાપ પણ નથી. એ રીતની બુદ્ધિ ધારણ કરવા નથી. પરંતુ પુણ્ય છે અને પાપ પણ છે. એવી બુદ્ધિ ધારણ ४२वी नये. ॥१६॥ ટીકાથ––શુભ પ્રકૃતિ બતાવવામાં આવે છે. જેનાથી આ પુણ્યાત્મા છે, એ પ્રમાણેને વ્યવહાર થાય છે, તે પુણ્ય છે અને જે અશુભ ક્રિયાથી ઉત્પન્ન થયેલ હોય અને અધોગતિનું કારણ હોય તે પાપ કહેવાય છે. આનાથી For Private And Personal Use Only Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मार्थबोधिनी टीका fr. शु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् " 1 पुण्यपापे न स्तः । 'नेवं सन्नं णिवेपुर' नै संज्ञां निवेशयेत् । किन्तु - 'पुण्णेब पावे वा अस्थि' पुण्यं वा पापं वाऽस्ति । एवं सन्नं णिवेतए' एवं संज्ञां निवेशयेत् - धारयेत् इत्येवं बुद्धिं कुर्यादित्यर्थः केचन - पुण्यस्यास्त्विं न स्वीकुर्वन्ति किन्तु यदा पापस्य न्यूनता तदोत्पद्यते सुखम् । यदा च पापाधिक्यन्तदा वर्धते दुःखम् । केचन पापस्यैवाऽस्तित्वं न मन्यन्ते मन्यन्ते च पुण्योत्कर्षे सुखम्, न्यूनतायाश्च पुण्यस्य दुःखप्रादुर्भावम् के वनो भयोरपि अस्तित्वमनादृत्याssद्रियन्ते स्वभावतो जगतो व्यवस्थाम् । परन्तु शास्त्रकारस्तेषां मतं निराकरोतिपुण्यं पापं वा नास्तीति बुद्धिर्न विधेया, अपितु अस्त्येवेति व्यवस्थिता बुद्धि निगोद आदि दुर्गति प्राप्त होती है । यह पुण्य और पाप है, ऐसी बुद्धि रखनी चाहिए - कोई कोई पुण्य का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते। वे कहते हैं कि जब पाप की कमी होती है, तब सुख उत्पन्न होता है और जब पाप की अधिकता होती है तो दुःख उत्पन्न होता है । इस प्रकार एक पाप को स्वीकार करने से ही सुख और दुःख की व्यवस्था घटित हो जाती हैं इससे विपरीत कोई पाप का अस्तित्व नहीं मानते हैं। उनका मन्तव्य यह है कि पुण्य की प्रबलता से सुख की और न्यूनता से दुःख की उत्पत्ति होती है । कोई ऐसे भी हैं जो पुण्य और पात्र दोनों का ही अस्तित्व अंगीकार नहीं करते। वे स्वभाव से ही जगत् की सुखदुःखसंबंधी व्यवस्था मानते हैं । परन्तु शास्त्रकार इन सब भ्रान्त मतों का निराकरण करते हुए નરક નિગેાદ વિગેરે ક્રુતિ પ્રાપ્ત થાય છે. આ પુણ્ય અને પાપ નથી, આવા પ્રકારની બુદ્ધિ રાખવી ન જોઇએ. પર`તુ પુણ્ય છે, અને પાપ પણ છે, એ પ્રમાણે બુદ્ધિ રાખવી જોઈ એ For Private And Personal Use Only ફ્રાઈ કાઇ અન્ય મતવાળા પુણ્યનું અસ્તિત્વ સ્વીકારતા નથી, તેમા કહે છે કે—જ્યારે પાપ એછુ થાય છે ત્યારે સુખની પ્રાપ્તિ થાય છે. અને જ્યારે પાપ અધિક પ્રમાણમાં હોય ત્યારે દુઃખ પ્રાપ્ત થાય છે, આ રીતે એક પાપના જ સ્વીકાર કરવાથી સુખ અને દુઃખની વ્યવસ્થ ખરેખર ઘટી જાય છે. કોઈ કોઈ પુણ્ય અને પાપ બન્નેના અસ્તિત્વના સ્વીકાર કરતા નથી. તેઓ સ્વભાવથી જ જાના સુખ દુઃખ સંબંધી વ્યવસ્થાને સ્વીકાર કરે છે. પરંતુ શાસ્ત્રકાર આ સઘળા ભ્રાન્ત-ભમાવવાવાળા મતેાનું નિરાકરણ કરતાં सु० ६५ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रमिफेया। पुण्यपापयो विद्यते परस्परं सम्बन्ध: एकस्याऽपि सद्भावे-उमयो। सवावस्याऽवश्यमङ्गीकर्तव्यत्वात् स्वभावमाश्रित्य जगतो व्यवस्थास्वीकारे सर्वासा क्रियाणां नरर्थक्यं स्यात् । अतः पुण्यपापयोः स्थिति राश्यकी । पुण्यपापयो रिस्थ निर्दिष्टं स्वरूपं जिनशास्त्रे-तथाहि-यच्छुभं पुद्गलकर्म तत्पुण्यम् । यदशुभमथ बस्पापम्, सर्वज्ञनिर्देशात् । अतः पुण्यपापे स्तः, इत्येवं मति निश्चितां धारयेत् । मतु-तदभावविषयिणी मतिं कुर्यादिति ॥१६॥ सम्--णस्थि आसवे संवरे वा जैवं सन्नं णिवेसए। अस्थि आसवे संवरे वा एवं सन्नं णिसए ॥१७॥ या-नास्स्याश्रवः संवरो वा नै संज्ञां निवेशयेत् । ___अस्त्याश्रवः संवरो वा एवं संहां निवेशयेत् ॥१७॥ कहते हैं-पुण्य और पाप नहीं है ऐसी समझ नहीं रखनी चाहिए, किन्तु दोनों का अस्तित्व समझना चाहिए । पुण्य और पाप का परस्पर में संबंध है । एक के सद्भाव में दोनों का सद्भाव अवश्य स्वीकार करना पड़ता है, यदि जगत् की व्यवस्था स्वभाव के आधार पर स्वीकार की जाय तो सनी क्रियाएं निरर्थक हो जाएंगी । अतएव पुण्य और पाप की स्थिति आवश्यक है। जिनशास्त्र में पुण्य और पाप का स्वरूप इस प्रकार कहा है शुभ कर्म पुण्य कहलाता हैं और अशुभ कर्म पाप, ऐसा सर्वज्ञ भगवान का कथन है। अतएव यही निश्चित बुद्धि धारण करना चाहिए कि पुण्य और पाप है । ऐसा नहीं समझना चाहिए कि इनका अस्तित्व नहीं है ॥१६॥ કહે છે કે–પુણ્ય અને પાપ નથી, એવી સમજણ રાખવી ન જોઈએ. પરંતુ અનેનું અસ્તિત્વ સમજવું જોઈએ પુણ્ય અને પાપને પરસ્પરમાં સંબંધ છે. એકના અભાવમાં બનેના સદુભાવને સ્વીકાર અવશ્ય કરવું જ પડે છે. જે જગતની વ્યવસ્થા સ્વભાવના આધાર પર સ્વીકારવામાં આવે, તે સઘળી ક્રિયાઓ નિરર્થક બની જશે. તેથી જ પુય અને પાપની સ્થિતિ જરૂરી છે. જેને શાસ્ત્રમાં પુણ્ય અને પાપનું સ્વરૂપ આ પ્રમાણે કહેલ છે, શબ કર્મ પુણ્ય કહેવાય છે, અને અશુભ કર્મ પાપ કહેવાય છે. આ પ્રમાણે સર્વર ભગવાનનું કથન છે. તેથી જ એજ નિશ્ચિત રૂપે બુદ્ધિથી વિચારવું -५९य भने ५५ छ, अपु समावु न ये ५९५ अने પાપનું અસ્તિત્વ નથી૧૬ For Private And Personal Use Only Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् अन्वयार्थः--‘णत्थि आसवे संवरे बः) नास्ति आन-माणातिपातादिरूपः कर्मबन्धकारणम् संघर:-प्रासानिरोधलक्षणः, एतौ न स्तः (णेवं सन्नं णिवेसए) नैवं-नैवैतादृशी संज्ञां-बुद्धिं निवेशयेत्-कुर्यात् किन्तु (अस्थि आसवे संपरे वा) अस्ति आनवः संवरो वा (एवं सन्नं णिवेसए) एवमीही संज्ञा-बुद्धिं निवेशयेत्-कुर्यादिति ॥१७॥ . टीका--'आसवे संवरे वा गस्थि' आस्रः संरो वा नास्ति, तत्रास्रवःबास्रपति-भविशति कर्म येन सः प्राणातिपातादिरून आस्रवः-कर्मोपादानकारणम् तन्निरोधलक्षणः संवरः, एतौ न विद्यते, 'ए। ईदृशीर 'सन्न' संज्ञां-बुद्धि ' गन 'णिवेसए' निवेशयेत्-धारयेत् । किन्तु-'आसवे संवरे वा अस्थि-आस्रवा 'णस्थि आसवे संवरे वा' इत्यादि। शब्दार्थ-'णस्थि आसवे मंवरे वा-नास्ति आस्रवः संवरो वा' प्राणातिपात आदि कर्म पन्धका कारण आस्रव नहीं है अथवा आस्रवके निरोध रूप संवर नहीं है 'णेवं सन्नं निवेनए-नैवं संज्ञा निवेशयेत्' ऐसी बुद्धि धारण करनी नहीं चाहिए ॥१७॥ अन्वयार्थ--प्राणातिपात आदि कर्मषन्ध का कारण आस्रव नहीं है अयश आत्र निरोध रूप संघर नहीं है, ऐसी बुद्धि नहीं धारण करना चाहिए, किन्तु आस्त्रव और संबर है, ऐसी बुद्धि धारण करना चाहिए।१७। टीकार्थ--जिसके द्वारा कर्म आत्मा में प्रवेश करते हैं, वह प्राणा तिपात आदि मानव कहलाता है । आस्रव का निरोध संबर है ! इन दोनों की सत्ता नहीं है, इस प्रकार की बुद्धि रखना ठीक नहीं है, किन्तु आस्रव है और संवर है, ऐमी बुद्धि रखना ही उचित है। 'थि आसवे संबरेवा' त्यात शा---'णस्थि आसवे संवरे वा नास्ति आत्रवः संवरो वा' प्रायातिપાત વિગેરે કર્મ બંધનું કારણ આસ્રવ નથી. અથવા આસવના નિરોધ રૂપ १२ नथी, णेवं सन्नं निवेसए-नैवं संज्ञां निवेशयेत्' में प्रभानी मुद्धि ધારણ કરવી ન જોઈએ તેના - અવયાર્થ–પ્રાતિપાત વિગેરે કર્મબંધના કારણ રૂપ આસવ નથી. અથવા ખાસ્ત્રવના નિરોધ રૂપ સંવર નથી, એવી બુદ્ધિ ધારણ કરવી ન જોઈએ. ૧ ટીકાર્થ–-જેના દ્વારા કર્મ આત્મામાં પ્રવેશ કરે છે, તે પ્રાણાતિપાત વિગેરે આશ્વર કહેવાય છે, આસવનો નિરોધ-રોકવું તે સંવર છે. આ બન્નેની સત્તા નથી. આ પ્રમાણેની બુદ્ધિ ધારણ કરવી ઠીક નથી. પરંતુ For Private And Personal Use Only Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५१६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे संवरो वाऽस्ति ' एवं ' ईदृशीम् 'सनं' संज्ञाम् 'णिवेसए' निवेशयेत् धारयेत् । यमाश्रिन्य कर्माssन्मनि आखानि - प्रविशति स अ श्रवः - माणातिपातादिः । तादृशाश्रवस्य संवरणं - प्रतिबन्धनं संवरः - अस्रवनिरोधलक्षणः, इमौ - आस्रव संवरौ अवश्यमेव मन्तव्यौ, न स्तः, इमौ इति न मन्तव्याविति सूत्रार्थः । केचिदेवं प्रतिपादयन्ति किमयमात्रवः आत्मनो भिन्नभिन्नो वा ? यदि भिन्नस्तदा स नाssस्रः । नहि आत्मनोऽत्यन्तभिन्नेन तेनाऽऽत्रवेण आत्मनि कर्म प्रवेशयितुं शक्यते यथा घटादिना । तथा च यथा घटादिरात्मनि कर्मप्रवेशपितुं न शक्नोति तथाssसवोऽपीति । नाप्यभिन्न इति पक्षः । तथात्वे तस्याऽऽत्मस्वरूपत्वेन मुक्तात्मन्यपि तत्सम्भवमसङ्गात् - उपयोगवत् । तस्मात् आस्रव इति परिभाषा मिथ्यैव । आस्रवाऽभावे च तन्निरोधात्मकसंवरोऽपि नैव स्वीकर्त्तव्य कोई-कोई कहते हैं- आस्रव आत्मा से भिन्न है या अभिन्न है ? यदि भिन्न है तो वह आस्रव हो ही नहीं सकता क्यों कि जो आत्मा से सर्वथा भिन्न है, वह घट आदि पदार्थों के समान आत्मा में कर्म को प्रविष्ट नहीं करा सकता । अर्थात् जैसे घट आत्मा से सर्वथा भिन्न होने के कारण आत्मा में कर्म के प्रवेश का कारण नहीं हो सकता, उसी प्रकार आपका माना हुआ आसव भी कर्मप्रवेश का कारण नहीं हो सकेगा, क्यों कि वह आत्मा से भिन्न है । कदाचित् आत्मा से अभिन्न मानो तो उसे आत्मा का ही स्वरूप मानना पडेगा । आत्मा का स्वरूप होने से मुक्तात्मा में भी उसकी सत्ता स्वीकार करनी पडेगी । जैसे उपयोग की सत्ता मानी जाती है। अतएव आस्रव की આસ્રવ છે, અને સ‘વર પશુ છે, એ પ્રમાણેની બુદ્ધિ રાખવી તેજ ચેાગ્ય છે. કોઈ કાઈ કહે છે, આસવ આત્માથી જુદો છે ? કે એક જ છે ? જો જાદા હાય, તે તે આસ્રવ જ થઇ શકતે નથી, કેમકે જે આત્માથી સથા ભિન્ન છે, તે ઘટ વિગેરે પદાર્થોની જેમ આત્મામાં કર્મોના પ્રવેશ કરાવી ન શકત, અર્થાત્ જેમ ઘટ-ઘડા આત્માથી સથા જુદા હવાના કારણે આત્મામાં કમના પ્રવેશનું કારણ થઈ શકતુ નથી, એજ પ્રમાણે આપે માનેલ આસ્રવ પણ પ્રવેશનુ કારણ થઈ શકશે નહીં કેમકે તે આત્માથી ભિન્ન છે. કદાચ આત્માથી અભિન્ન માના તે તેને આત્માનું જ સ્વરૂપ માનવું પડશે. આત્માનુ સ્વરૂપ હાવાથી મુક્તાષામાં પણ તેની સત્તાના સ્વીકાર કરવા પડશે. જેમ ઉપયાગની સત્તા માનવામાં આવે છે. તેથી જ આસ્રવની For Private And Personal Use Only Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् ५१७ इति तन्मतं निराकर्तुपाह -भादुक्तं न सम्यक्, आस्रो वा-संघरोवा नास्तीति न स्वीकर्तव्यम् । किन-अस्त्येवेति मन्तव्यम् । योऽयमेकान्तभेदाभेदवादे दोषः प्रतिपादितः स तथैव । आ-रचैकान्तपक्षे दोषमालोच-अनेकान्त पादस्थ प्ररूपणं कृतवता भगरता तीर्थकाजीकोऽयमा आत्मनः सकाशात् कथश्चिद भिन्नः कथञ्चिदभिन्नश्च । तथात्-न कोऽपि दोषः पदमादधाति अईदर्शने । इतरत्र दर्शनान्तरे तु तत्साम्राज्य मजय्यम् । अतएव आस्रसंगरौं न स्त इति न, अपि तु-आम्रपः संवरश्वाऽस्त्येवेति सिद्धान्तसिद्धः ॥१७॥ मूलम्-त्थि वेयणा पिंजरावा, णेवं सन्नं णिवेसए। अस्थि वेयणा गिजरा वा, एवं सन्नं णिवेसए ॥१८॥ कल्पना मिथ्या है । इस प्रकार जब आस्रव की ही सत्ता सिद्ध नहीं होती तो उसका निरोधस्वरूप संघर भी स्वीकार नहीं किया जा सकता। ____ इस अभिमत का निराकरण करते हुए कहा गया है आपका कथन सम्यक् नहीं है। आस्रव अथवा संघर नहीं है, ऐसा स्वीकार नहीं करना चाहिए, बल्कि उनका अस्तित्व मानना चाहिए। एकान्त भेदपक्ष और अभेदपक्ष में आपने जो दोष प्रदर्शित किए हैं, वे ठीक ही हैं, परन्तु हमारे मत में उनके लिए कोई अवकाश नहीं है, क्योंकि सर्वज्ञ तीर्थकर भगवान ने एकान्तवाद को स्वीकार न करके अनेकान्तवाद की ही प्ररूपगा की है। आस्रव आत्मा से कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिष है। अतएव जैनदर्शन में कोई दोष नहीं आता। अतएव आस्रव और संबर का अस्तित्व सिद्ध है॥१७॥ કપના મિથ્યા છે. આ પ્રમાણે જ્યારે આસ્રવની સત્તા જ સિદ્ધ થતી નથી, તે તેના નિરોધ સ્વરૂપ સંવરને પણ સ્વીકાર કરવામાં આવશે નહીં. આ મતનું નિરાકરણ કરતાં કહે છે. કે- આપનું કથન એગ્ય નથી. આમ્રવ અથવા સંવર નથી. એ પ્રમાણેને વિચાર કરે ન જોઈએ કે તેનું અસ્તિત્વ સ્વીકારવું જોઈએ. એકાન્ત ભેદ પક્ષ અને અભેદ પક્ષમાં આપે જે દેષ બતાવ્યા છે, તે ઠીક જ છે. પરંતુ અમારા મત પ્રમાણે ભેદ અને અભેદ પક્ષ માટે કંઈજ અવકાશ નથી, કેમકે-સર્વજ્ઞ તીર્થકર ભગવાને એકાત વાદને સ્વીકાર ન કરીને અનેકાન્તવાદની જ પ્રરૂપણ કરી છે. આસવ આમાથી કથંચિત ભિન્ન અને કથંચિત્ અભિન છે. તેથી જ જૈનદર્શનમાં કઈ પણ દેષ આવતે નથી. તેથી જ આસ્રવ અને સંવરનું અસ્તિત્વ સિદ્ધ થાય છે. ૧ળા ....... . . For Private And Personal Use Only Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५१८ सूत्रकृतामसूत्र छाया-- नास्ति वेदना निर्जरा वा, नैवं संज्ञां निवेशयेत् । अस्ति वेदना निर्जरा वा, एवं संज्ञा निवेशयेत् ॥१८॥ 'अन्वयार्थी--(णस्थि वेयणा णिज्जरा वा) नास्ति वेदना-या कर्मानुभवलक्षणा तथा-निर्जरा वा-कमपुद्ग शाटनलक्षणा न विद्यते (णेवं सन्नं णिवेसए) नैवम्-नैतादृशी संज्ञा- बुद्धिं निवेशयेत्-कुर्यात् किन्तु-(अस्थि वेयणा निजजरा वा) अस्ति-विद्यते एव वेदना तथा-निर्जरा (एवं सन्नं णिवेसए) एपम्-ईदृशी संज्ञां-बुद्धि निवेशयेत् -कुर्यादिति ॥१८॥ टीका--'वेयणा णिज्जरा वा णस्थि' वेदना निर्जरा वा नास्ति 'णेवं सन्नं णिवेसए' नै संज्ञा निवेशयेत्, वेदना नास्तीति वा-निर्जरा नास्तीति वा, एवं स्थि वेषणा णिज्जरा वा' इत्यादि । शब्दार्थ-'गत्थि वेयणानिज्जरा वा-नास्ति वेदना निर्जरा वा वेदना (कर्मों का अनुभव) और निर्जरा (भुक्तकर्मपुद्गलोका) आत्मा से पृथक होना) नहीं है 'णेवं सन्नं निवेनए-नैवं संज्ञा निवेशयेत्' इस प्रकार की बुद्धि धारण न करे किन्तु 'अस्थि वेपणा निज्जरा वा-अरित वेदना निर्जरा वा वेदना और निर्जरा है ऐसी बुद्धि धारण करे ॥१८॥ ___ अन्वयार्थ--वेदना(कर्मों का अनुभव) और निजरा (भुक्त कर्म पुद्गलों का आत्मा से पृषक होना) नहीं है, इस प्रकार की बुद्धि धारण न करे किन्तु वेदना और निर्जग है, ऐनी बुद्धि धारण करे ॥१८॥ टीकार्थ -न तो कर्मपुद्गलों का वेदन करना पडता है और न वेदन किए पुद्गल आत्मा से पृथक् ही होते हैं, ऐसी धारणा रखनी ‘णस्थि वेयणा णिज्जरा वा' या महा---'णत्थि वेयणा णिजरा वा-नास्ति वेदना निर्जरा वा' वेहना (કમેના અનુભવો અને નિજ૨ (ભેગલા કર્મપુદ્ગલેનું આમાથી અલગ ५) नथी. 'णेव सन्नं निवेसए- नैवं संज्ञां निवेशयेत्' मा प्रानी मुद्धि पार न ४२ परंतु 'अस्थि वेयणा निज्जरा वा-अस्ति वेदना निर्जरावा' વેદના અને નિર્જરા છે, એ પ્રમાણેની બુદ્ધિ ધારણ કરે. ૧૮ अन्याय--वना (भनि। मनुम) मने नि सुत भy. ગલેનું અત્પાથી પૃથક્ થવું) નથી આ રીતની બુદ્ધિ ધારણ કરવી નહીં પરંતુ વેદના અને નિર્જરા છે, એવી બુદ્ધિ ધારણ કરે ૧૮ ટીકાર્થ –કમ પુદ્ગલેનું વેદન કરવું પડતું નથી. અને વેદન કરવામાં આવેલ પુ૬મલે આમાથી જુદા થતા નથી. એ પ્રમાણેની ધારણા રાખવી For Private And Personal Use Only Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समवायोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् पकारिकां मति नै विभ्रियात् । किन्तु-'वेयणा' वेदना 'णिज्जरा व निर्जरा पा 'अस्थि' अस्ति-विद्यते 'वं' इत्येवम् 'सन्न' संज्ञां-बुद्धिम् णिचेमए' निवेशयेत्-निश्चिनुयात् । वेदनानिर्जरयोः स्थितिरावश्यकी इत्थं विवृणुयात् । कर्मणां फलोपभोगो वेदना। आत्मप्रदेशेभ्यः कर्मपुद्गलानां विश्लेषो निर्जरा। इमौ द्वावपि पदार्थों न विद्यते इति केषांश्चिन्मतं ते कथयन्ति-अनेकपल्योपमसागरोपमसमयेनापि क्षपणयोग्यं कर्म मुहूर्तानापि, क्षपयन्ति, अज्ञानिनो यानि कर्माणि वर्षशतैरपि न भरयन्ति तान्येवाहितानि कर्माणि पंचसमितिगुप्तित्रययुताः पुरुषधौरेया उच्छ्वासमात्रेणैव विनाशनि, इति शास्त्रमदर्शितः सिद्धान्तः । ठीक नहीं है, किन्तु उपार्जित कर्मों का वेदन करना पडता है और वेदन करने के पश्चात् वे आत्मा से पृथक हो जाते हैं, ऐसा समझना चाहिए। बद्ध कमों के रस का अनुभव करना वेदना है और आत्मप्रदेशों से कर्मपुदगलों का संबंध छूट जाने को निर्जरा कहते हैं। किसी के मत के अनुसार इन दोनों का ही अस्तित्व नहीं है। उनका कहना है कि अनेक पल्योपम और सागरोपम जितने दीर्घकाल में क्षय होने योग्य कर्म अन्तर्मुहूर्त में क्षय किया जा सकता है। अज्ञानी जीव जिन कर्मों का सैकडों वर्षों में भी क्षय करने में समर्थ नहीं होते, उन्हीं कर्मों को पांच समिति और तीन गुप्तियों से युक्त उत्तम पुरुष एक उच्छवास जितने अल्प काल में ही क्षय कर डालते हैं, यह शास्त्रसिद्ध सिद्धान्त है। अतः बद्ध कर्मों का क्रम से अनुभव न होना वेदना का अभाव सिद्ध होता है। जब वेदना का अभाव है तो निर्जरा का अभाव तो स्वतः सिद्ध हो जाता है। તે બરાબર નથી, પરંતુ પ્રાપ્ત કરેલા કમેનુ વેદન કરવું પડે છે. અને વેદન કર્યા પછી તેઓ આત્માથી અલગ થઈ જાય છે. તેમ સમજવું જોઈએ. બદ્ધકર્મોના રસને અનુભવ કરે તે વેદના છે અને આત્મપ્રદેશથી કર્મપુદગલેને સંબંધ છૂટ જ તેને નિજ રા કહે છે. કેઈના મત પ્રમાણે આ બંનેનું અસ્તિત્વ જ નથી, તેઓનું કહેવું છે કે અનેક પળે પમ અને સાગરોપમ જેટલા લાંબા કાળે નાશ થવાને ગ્ય કર્મને અંતર્મહતમાં ક્ષય કરી શકાય છે. અજ્ઞાની છ સેંકડે વર્ષે પણ જે કર્મોનો ક્ષય કરી શકતા નથી, એજ કર્મોને ક્ષય, પાંચ સમિતિ અને ત્રણ ગુપ્તિથી યુક્ત ઉત્તમ પુરૂષ એક ઉચ્છવાસ જેટલા ટૂંકા સમયમાં જ કરી નાખે છે. આ શાસ્ત્રસિદ્ધ સિદ્ધાંત છે. તેથી બદ્ધ ને કમથી અનભવ ન થે તે વેદનાનો અભાવ સિદ્ધ થાય છે. જ્યારે વેદનાનો અભાવ છે. તે નિજેરાને અભાવ તે સ્વતઃ સિદ્ધ થઈ જાય છે, For Private And Personal Use Only Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२० सूत्रकृताङ्गस अतो बद्धानां कर्मणां क्रमशोऽनुभवाभावाद वेदना नास्तीति मन्यमानानां मये वेदनाया अभावे निर्जराया अपि स्वतोऽभाव एव सिद्धः । परन्तु तन्मतं न सम्यक्, यतस्तपसा प्रदेशाभावेन च कतिपय कर्मणामेव विनाशः सम्प्रवति, न तु सर्वेबाम् । ततश्व - शेषाणामुदीरणोदयाभ्यामनुमवो भवेदेव । अतो वेदनासद्भावोऽ वश्यमेवाङ्गीकार्यः । तदुक्तमागमे - 1 'पूर्वत्र दुचिगाणं दुपडिक्कंताणं कम्माणं वेत्ता मोक्खो णत्थि adsent' छाया - पूर्व दुवीर्णानां दुष्यतिक्रान्तानां तेषां कर्मणां वेदयित्वा मोक्षः, मास्ति अवेदfear | कर्मणां वेदनादेव मोक्षो भवति, न तु अवेदयित्वा मोक्षो भवतीति दृष्टान्तगाथाऽभिप्रायः । अनेन प्रकारेण वेदनाया यदा सिद्धिर्भवति सदा निर्जरा सिद्धिस्तु - आर्थिक्येव भवति । अतो विवेकिभिर्वेदना निर्जरे न स्व इति न स्वीकर्तव्ये । अपि तु ते स्व इत्येव स्वीकर्तुं कृतिभिर्योग्ये इति ॥ १८ ॥ उनका यह मत समीचीन नहीं है । तपस्या के द्वारा प्रदेशाभाव होकर कुछ ही कर्मों का विनाश होता है, सब का नहीं। शेष कर्मों का विपाकोदय द्वारा नाश होता है। जिनका तपश्चर्या द्वारा विनाश होता है, उनका भी प्रदेशों से वेदन तो होता ही है। इस प्रकार चाहे प्रदेशों से वेदन हो, चाहे विपाक से, वेदन तो होता ही है, । अतएव वेदना का सद्भाव मानना आवश्यक है । आगंम में कहा है- 'पुवि दुचिण्णाणं' इत्यादि । कदाचार के द्वारा उपार्जित और सम्यक् प्रतिक्रमण न किये हुए कर्मों को भोगने से ही मोक्ष प्राप्त होता है, न भोगने वाले को मोक्ष नहीं होता है। इस प्रकार से जब वेदना की सिद्धि होती है तो निर्जरा તેમાના આ મત ચૈાન્ય નથી. કારણ કે—તપસ્યા દ્વારા પ્રદેશાભાવ થઇને કઇક જ ક્રમાંના વિનાશ થાય છે. બધાના નહી', ખાકીના કર્મોના વિપાકાય દ્વારા નાશ થાય છે. તપશ્ચર્યા દ્વારા જેના નશ થાય છે, તેનુ· પણ પ્રદેશાથી વેદન તેા થાય જ છે. આ રીતે ચાહે તેા પ્રદેશેાથી વેદન હાય, ચાહે વિપાકથી વેદન હાય, પશુ વેદન તા થાય જ છે. તેથી જ વેદનાના सद्भाव भानवे। ते भरी है. आगममा छुछे - 'पुर्वित्र दुचिण्णा' ईत्यादि કદાચાર--કુશચાર દ્વારા પ્રાપ્ત કરવામાં આવેલ અને સમ્યક્ત્ રીતે પ્રતિક્રમણ કરવામાં ન આવેલા કાંને ભેાગવવાથી જ મેાક્ષ પ્રાપ્ત થાય છે. ન લેાગવવા વાળાને માક્ષ પ્રાપ્ત થતે નથી, આ રીતે જ્યારે વેદનાની સિદ્ધિ For Private And Personal Use Only Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . ५२१ समयार्थयोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् मूलम्-णत्थि किरिया आकिरिया वा, णेवं सन्नं णिवेसए । अत्थिं किरिया अकिरियां वा, एवं सन्नं णिवेसए ॥१९॥ गया--नास्ति क्रिया अक्रिया वा, नैवं संज्ञां निवेशयेत् । ___ अस्ति क्रिया अक्रिया वा, एवं संज्ञां निवेशयेत् ॥१९॥ - अन्वयार्थ:--(गस्थि किरिया अकिरिया वा) नास्ति क्रिया-परिस्पन्दल. क्षणा, अक्रिया-तदभावरूपा वा-इमे द्वे न विद्यते (णेवं सन्न निवेसए) नैव पताशी संज्ञा-बुद्धिं निवेशयेत्-कुर्यात् किन्तु-(अस्थि) अस्ति-विद्यते एच की मिद्धि तो अर्थ से हो ही जाती है। अतएव विवेकी जनों को वेदना और निर्जरा का अस्तित्व स्वीकार करना चाहिए ॥१८॥ ‘णस्थि किरिया अकिरिया' इत्यादि । शब्दार्थ-'पस्थि किरिया अकिरिया वा-नास्ति क्रिया अक्रिया वा, परिस्पन्दन रूप क्रिया नहीं है और अक्रिया भी नहीं है ‘णेवं सन्नं निवेसए-नैव संज्ञां निवेशयेत्' इस प्रकार की बुद्धि धारण नहीं करनी चाहिए किन्तु किरिया अकिरिया वा अस्थि-क्रिया अक्रिया था अस्ति' क्रिया है और अक्रिया भी है 'एवं सन्नं निवेसए-एवं संज्ञां निवेशये ऐसी बुद्धि धारण करनी चाहिए ॥१९॥ __ अन्वयार्थ-परिस्पन्दन रूप क्रिया नहीं है और क्रिया का अभाव रूप अक्रिया भी नहीं है, इस प्रकार की बुद्धि धारण नहीं करनी થાય છે, તે નિર્જરાની સિદ્ધિ અર્થથી જ થઈ જાય છે. તેથી જ વિવેકી પુરૂષોએ વેદના અને નિર્જરા બનેનાં અસ્તિત્વને સ્વીકાર કરે જઈએ.૧૮ 'णत्थि किरिया अकिरिया वा' त्यादि शा--'णत्थि किरिया अकिरिया वा-नास्ति क्रिया अक्रिया वा' परि. ५.हन ३५ लिया नथी. तम मठिया ५ नथी. 'णेव सन्नं निवेसए-नै संज्ञां निवेशयेत्' । प्रमाणेन भुद्धि २१५ न . ५२'तु किरिया भकिरिया वा अस्थि-क्रिया अक्रिया वा अस्ति' या छे. मन मडिया पर छ, 'एव सन्नं निवेसए-पव सज्ञां निवेशयेत्' ५ प्रमाना भुद्धि पार કરવી જોઈએ. ૧૯ અન્વયાર્થ–પરિસ્પન્દન રૂપ ક્રિયા નથી અને ક્રિયાના અભાવ રૂપ અક્રિયા પણ નથી. આ રીતની બુદ્ધિ ધારણ કરવી ન જોઈએ. પરંતુ ક્રિયા છે, અને અક્રિયા પણ છે, એવી બુદ્ધિ ધારણ કરવી જોઈએ. ૧ स० ६६ For Private And Personal Use Only Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे (किरिया अकिरिया वा) क्रिया अक्रिया वा ( एवं सन्नं णिवेसर) एवमीदृशीं संज्ञां - बुद्धि निवेशयेत् - कुर्यादिति ॥ १९ ॥ टीका- 'किरिया' क्रिया 'अकिरिया वा' अक्रिया वा गमनागमनादिरूपा क्रिया - तदभावोऽक्रिया । 'णत्थि ' नास्ति - क्रिया अक्रिया वा नास्ति 'एवं सन्नं' एवं संज्ञाम् - बुद्धिवेशयम् 'ण' न 'णिवेसए' निवेशयेत् -- निर्दिशेत् । किन्तु 'ater' क्रिया 'अकिरिया वा अक्रिया वा क्रियाया अभावः । अस्थि' अस्ति ' एवं ' एत्रम् - इत्येवं रूपेण 'सन्नं' संज्ञाम्- बुद्धिम् 'णिवेसर' निवेशयेत् - व्यापारयेत् । सांख्यो हि गगन वत् व्यापकत्वं स्वीकृत्य तत्राऽऽत्मनि क्रियां न मन्यते । तथा - बौद्धः सर्वेषां क्षणिकत्वमङ्गीकृत्य - उत्पन्यतिरिक्तक्रियाया अभावं मन्यते । तदुभयमपि न सम्यक् | यत आत्मनो व्यापकत्वे जन्मादिव्यवस्था न स्यात्, अक्रियत्वादात्मनः । तथा - बौद्धमते उत्पच्यतिरिक्त क्रियाया अस्वीकारे परिदृश्यचाहिए किन्तु क्रिया है और अक्रिया भी है, ऐसी बुद्धि धारण करनी चाहिए || १९ ॥ टीकार्थ-गमन आगमन आदि व्यापार को क्रिया कहते हैं और उसका अभाव अक्रिया है । इन दोनों का अस्तित्व नहीं है, ऐसा नहीं समझना चाहिए किन्तु यह समझना चाहिए कि दोनों का अस्तित्व है । सांख्य मत वाले भात्मा को आकाश के समान व्यापक स्वीकार करके आत्मा में क्रिया का अस्तित्व नहीं मानते । बौद्ध लोग समस्त पदार्थों को क्षणिक मानकर उनमें उत्पत्ति के अतिरिक्त अन्य कोई क्रिया का स्वीकार नहीं करते | यह दोनों मत युक्तिसंगत नहीं है। आत्मा को सर्वव्यापी मान लिया जाय तो जन्म आदि की व्यवस्था नहीं बैठ सकती, क्योंकि सर्वव्यापक होने से आत्मा क्रिया नहीं कर सकेगा । ટીકાથ—ગમન આર્ગમન વિગેરે રૂપ પ્રવૃત્તિને ક્રિયા કહે છે. અને તેના અભાવને અક્રિયા કહે છે. આ બન્નેનુ' અસ્તિત્વ નથી. એમ સમજવુ 1 ન જોઈએ. પરંતુ એમ સમજવુ જોઇએ, કે-ખન્નેનુ' અસ્તિત્વ છે. સાંખ્ય મતવાદીયા આત્માને આકાશની જેમ વ્યાપક હાવાનું... સ્વીકા રીને ખાત્મામાં ક્રિયાનું અસ્તિત્વ માનતા નથી બૌદ્ધો બધા જ પદાર્થીને ણિક માનીને તેમાં ઉત્પત્તિ શિવાય બીજી કાઈ પણ ક્રિયાના સ્વીકાર રતા નથી. આ બન્ને મત યુક્તિ યુક્ત નથી. આત્માને સર્વવ્યાપી માની તેવામાં આવે, તે જન્મ વિગેરેની વ્યવસ્થા ઘટી શકતી નથી, કેમકે-તે સવવ્યાપક હાવાથી આત્મા ક્રિયા કરી શકશે નહીં! For Private And Personal Use Only Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् मानक्रियान्तरस्य कर्ता कः स्यात् । तथात्मनि सर्वथा क्रियाया अमावे बन्धनोक्षादि व्यवस्थायामनास्था स्यात् । अतो विविख्य विवेकिभिः क्रियाऽक्रियोला योरपि सत्त्वमवसमभ्युपगन्तव्यम् ॥१९॥ मूलम्-त्थि कोहे व माणे वा, णेवं सन्नं णिवेसए । अत्थिं कोहे व माणे वा, एवं सन्नं णिवेसेए ॥२०॥ छाया-नास्ति क्रोधो वा मानो वा, नैवं संज्ञां निवेशयेत् । अस्ति क्रोधो वा मानो वा, एवं संज्ञां निवेशयेत् । २०॥ बौद्धमत के अनुसार उत्पत्ति के अतिरिक्त अन्य क्रिया स्वीकार न को जाय तो प्रत्यक्ष दिखाई देने वाली इन विभिन्न क्रियाओं का कर्ता कौन है ? इसके अतिरिक्त आत्मा में यदि क्रिया का सर्वथा अभाव मान लिया जाय तो बन्ध और मोक्ष आदि की व्यवस्था नहीं बन सकेगी। अतएव विवेकी जनों को सम्यक् विचार करके क्रिया अक्रिया दोनों की ही सत्ता का अवश्य स्वीकार करना चाहिए ॥१९॥ 'णथि कोहे व माणे वा' इत्यादि । शब्दार्थ-'गस्थि कोहे वा माणे वा-नास्ति क्रोधो वा मानो वा क्रोध नहीं है अथवा मान नहीं है 'एवं सन्नं निवेसए-एवं संज्ञां निवेशयेत्' इस प्रकार की बुद्धि नहीं रखनी चाहिए, किन्तु 'अस्थि कोहे व माणे वा-अस्ति क्रोधो वा मानो वा' क्रोध और मान है 'एवं सन्नं निवेसएएवं संज्ञां निवेशयेत्' इस प्रकार की बुद्धि धारण करनी चाहिए ॥२०॥ બૌદ્ધ મત પ્રમાણે ઉત્પત્તિ શિવાય અન્ય ક્રિયાને સ્વીકાર કરવામાં ન આવે તે પ્રત્યક્ષ દેખવામાં આવનારી આ જૂદી જૂદી ક્રિયાઓને કર્તા કોણ છે ? આ શિવાય આત્મામાં જે ક્રિયાને સર્વથા અભાવ માનવામાં આવે, તે બધ અને મોક્ષ વિગેરેની વ્યવસ્થા બની શકશે નહી તેથી જ વિવેકી જનેએ સમ્યફ વિચાર કરીને ક્રિયા અને અકિયા બનેની સત્તા અવશ્ય સ્વીકારવી જ જોઈએ. ૧લા 'णत्थि कोहे व माणे वा' त्याह ___शाय-'पत्थि कोहे व माणे वा-नास्ति क्रोधो वा मानो वा'. ध नया अथ१॥ भान नथी. 'णेवं सन्नं निवेसए-एव संज्ञा न निवेशयेत्' भाव पानी भुद्धि पा२५५ ४२वी न २७. ५२'तु 'अस्थि कोहे व माणे वा-अस्ति क्रोधो वा मानो वा' ोध भने भान छ, 'एवं सन्न निवेनए-एवं संज्ञां निवेशयेत्' भापा પ્રકારની બુદ્ધિ રાખવી જોઈએ. ૨૦ For Private And Personal Use Only Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्र अन्वयार्थ:--(गत्थि कोहे व माणे पा) नास्ति-न विद्यते क्रोधो वा-स्वपरा. मनोरमीतिलक्षणः, तथा-मानो गर्यो वा न विद्यते (णे सन्नं णिवेसए) नवमीरशी संज्ञां-बुद्धि निवेशयेत्-कुर्यात् किन्तु-(अस्थि कोहे व माणे वा) अस्तिवियते एव क्रोधो वा मानो वा (एवं सन्ने णिवेसए) एवमीदृशीं संज्ञा-बुदि निवेशयेत् कुर्यादिति ॥२०॥ - टीका-'कोहे व क्रोधो वा 'माणे वा' मानो वा 'गस्थि' नास्ति ‘एवं सन्न' एवं संज्ञाम् ‘ण णि वेसए' न निवेशयेत्-नैवं संज्ञा विवृणुयात् । किन्तु-'कोहेच माणे वा अत्यि' क्रोधो वा मानो वाऽस्ति एवं सन्नं णिवेसए' एवमेव संज्ञां निवे. शयेत-धारयेत् । क्रोधो मानश्च न सत्पदार्थ इति कैश्चिदभिहितः तन्न सयुक्तिका मत्यक्षेणाऽनुमानादिनाऽपि सिद्धयोरनयो निराकर्तुमशक्यत्वात् । प्रपाणसिद्धस्याऽपि अन्वयार्थ-क्रोध नहीं हैं अथवा मान नहीं है, इस प्रकार की धुद्धि नहीं धारण करना चाहिए किन्तु क्रोध और मान है, इस प्रकार की धुद्धि धारण करना चाहिए ॥२०॥ टीकार्थ-स्व और पर के प्रति अप्रीति होना क्रोध का लक्षण है। मान का अर्थ गर्व या अभिमान है। यह क्रोध और मान नहीं हैं, इस प्रकार की बुद्धि रखना ठीक नहीं है, किन्तु क्रोध है और मान है, ऐसी ही बुद्धि रखना चाहिए। - किसी का कहना है कि क्रोध और मान की सत्ता नहीं है। उनका यह कथन ठीक नहीं है। क्यों कि प्रत्यक्ष से और अनुमान आदि प्रमाणों से सिद्ध क्रोध और मान का निराकरण करना संभव नहीं है। प्रमाण से सिद्ध वस्तु का भी अभाव मानने से जगत् में कोई અયાર્થ–ધ નથી, અથવા માન પણ નથી. આવા પ્રકારની બુદ્ધિ ધારણ કરવી ન જોઈએ. પરંતુ કોય અને માને છે. આવા પ્રકારની બુદ્ધિ पार ४२वी नसे. ॥२०॥ ટીકાર્ય–વ અને પરના પ્રત્યે અપ્રીતિવાળા થવું તે કંધનું લક્ષણ છે. માનને અર્થ ગર્વ અથવા અભિમાન છે, આ ધ અને માન નથી, આવા પ્રકારની બુદ્ધિ ધારણ કરવી એગ્ય નથી. પરંતુ કોઇ છે. અને માન છે, એવી જ બુદ્ધિ રાખવી જોઈએ. કેઈનું કહેવું છે કે--ક્રોધ અને માનની સત્તા નથી, તેઓનું આ કથન ઠીક નથી. કેમકે-પ્રત્યક્ષથી અને અનુમાન વિગેરે પ્રમાણે થી સિદ્ધ એવા ક્રોધ અને માનનું નિરાકરણ કરવું સંભવિત થતું નથી. પ્રમાણુથી સિદ્ધ વસ્તુને For Private And Personal Use Only Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् वस्तुनोऽभावे जगतो व्यवस्थैवाऽनवस्थिता स्यात् । अतो विकृण्वदिस्तयोः क्रोधमानयोः सत्त्वं मान्यमिति संक्षेपः ॥२०॥ मूलम्-णस्थि माया व लोभे वा णेवं सन्नं णिवेसए । अस्थि माया व लोभे वा एवं सन्नं णिवेसए ॥२१॥ छाया--नास्ति माया वा लोभो वा, नैवं संज्ञां निवेशयेत् । ___अस्ति माया वा लोभो वा, एवं संज्ञां निवेशयेत् ॥२१॥ अन्वयार्थः--(गस्थि माया व लोभे वा) नास्ति-न विद्यते माया वा-परवचनरूपा, लोभो वा, इमौ द्वौ न विद्यते इति (णेवं सन्नं णिवेसए) नैवम्-एतादृशीं संज्ञां-बुद्धि निवेशयेत्-कुर्यात् किन्तु (अस्थि माया व लोभे वा) अस्ति-विद्यते एव माया वा लोभो वा (एवं सन्नं णिवेसए) एवम्-ईशी संज्ञा-बुद्धि निवेशयेत्-कुर्यात्, इति ॥२१॥ व्यवस्था ही नही रहेगी अतएव क्रोध और मान का अस्तित्व अवश्य मान्य करना चाहिए ॥२०॥ 'णस्थि माया व लोभे वा' इत्यादि । शब्दार्थ-'णत्थि माया व लोभे वा-नास्ति माया व लोभो वा' माया परवंचना' नहीं है, अथवा लोभ नहीं है 'णेवं सन्नं णिवेसए-नैवं संज्ञा निवेशयेत्' इस प्रकार की बुद्धि नहीं रखनी चाहिए किन्तु 'अस्थि माया वा लोभे चा-अस्ति माया वा लोभो वा' माया और लोभ है 'एवं सन्नं निवेसए-एवं संज्ञांनिवेशयेत्' ऐसी बुद्धि रखनी चाहिए॥२१॥ __ अन्वयार्थ-भाया. (परवंचना) नहीं है अथवा लोभ नहीं है, इस प्रकार की बुद्धि नहीं रखनी चाहिए किन्तु माया और लोभ है ऐसी बुद्धि रखनी चाहिए ।२१। અભાવ માનવાથી જગતમાં કઈ પણ વ્યવરથા જ રહી શકશે નહીં. તેથી જ ક્રોધ અને માનનું અસ્તિત્વ અવશ્ય માનવું જોઈએ. મારા ‘णत्थि माया व लोभे वा त्याह शहाय-'णस्थि माया व लोभे वा-नास्ति माया वा लोभो वा' माया (५२ वयन-भीने छत२१॥ ते) नथी अथवा डोस नथी. 'णेवं सन्न निवेसए-नैव संज्ञां निवेशयेत्' मा ५२नी सुद्धि रामवी न ये. परंतु 'अस्थि माया वा लोभे वा-अस्ति माया वा लोभो वा' माया मनाम छ, 'एवं सन्न निवेसए-एव संज्ञां निवेशयेत्' सेवा सुद्धि पा२ ५२वी नसे. ॥२१॥ मन्वयार्थ-भाया (परयना) नथी अथवा सोभनथी मा (५२नी द्धि રાખવી ન જોઈએ પરંતુ માયા અને લેભ છે. એવી બુદ્ધિ રાખવી જોઈએ. ર૧ For Private And Personal Use Only Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२६ सुपतास्त्रे , टीका--'माया व लोभे वा णत्थि' माया वा लोभी वा नास्ति, ‘एवं सन्न' एवं संज्ञाम्-बुद्धिम् ‘ण गिवे ए' न निवेशयेत्-न कुर्यात्, किन्तु-'माया व लोभे वा अस्थि एवं सन्नं णिवेसए' माया वा लोभो वाऽस्तीत्येवं संज्ञाम्-एवमेव बुद्धि निवेशयेत्-व्यवहरेत् । केचन-मायालोभयोः सत्वं नाऽभ्युपगच्छन्ति, तन्न सम्यक् । सः प्राणिभिरनुभूयमान योरनयोः प्रत्याख्यातुमशक्यत्वात् । अनुभूयमान. स्याऽपि सद्वस्तुनोऽालापमिलापे घटादीनामपि सत्त्वं न सेत्स्यति । अतो मायालोभयोः सद्भावमेव मन्येत, इत्यनुमोदन्ते जेना इति ॥२१॥ मूलम्-त्थि पेज्जेब दोसे वा, जेवं सन्नं णिवेसए। . अस्थि पेज्जे व दोसे वा, एवं सन्नं णिवेसए ॥२२॥ . छाया---नास्ति प्रेम च द्वेषो बा, नैवं संज्ञां निवेशयेत् । ___ अस्ति भेम च द्वेषो वा, एवं संज्ञां निवेशयेत् ।।२२।। टीकार्थ--माया नहीं है, लोभ नहीं है, इस प्रकार की बुद्धि धारण न करे । किन्तु माया और लोभ है, ऐसी बुद्धि धारणकरे । कोई माया और लोभ की सत्तो स्वीकार नहीं करते, परन्तु यह ठीक नहीं है। प्रत्येक प्राणी के अनुभव में आने वाले माया एवं लोभ का निषेध नहीं किया जा सकता। अनुभव में आने वाली वस्तु का भी यदि अपला (छिपाना) किया जाएगा तो घट आदि की सत्ता भी सिद्ध नहीं होगी। अतः माया और लोभ का अस्तित्व स्वीकार करना चाहिए ॥२१॥ _ 'णत्यि पेज्जे व दोसे वा' इत्यादि । शब्दार्थ--‘णत्यि पेज्जे व दोसे बा-नास्ति प्रेम च द्वेषो वा' प्रेम अर्थात् राग और द्वेष नहीं है 'णेवं सन्न निवेसए-नैव संज्ञां निवेशयेत्' ટકાથે--માયા નથી, અને લેભ પણ નથી, આવા પ્રકારની બુદ્ધિ ધારણ ન કરે. પરંતુ માયા અને લેભ છે. એવા પ્રકારની બુદ્ધિ ધારણ કરે કઈ કઈ મતવાળાએ માયા અને લેભની સત્તાને સ્વીકાર કરતા નથી. પરંતુ તે બરાબર નથી. દરેક પ્રાણિના અનુભવમાં આવવાવાળા માયા અને લેભને નિષેધ કરી શકાય તેમ નથી. અનુભવમાં આવનારી વસ્તુને પણ જે અપલાપ (છુપાવવું) કરવામાં આવશે તે ઘટ વિગેરેની સત્તા પણ સિદ્ધ થશે નહીં તેથી માયા અને લેભના અસ્તિત્વને સ્વીકાર કરે જોઈએ. સૂ૦૨૧ 'णत्थि पेज्जेव दोसे वा' त्यात शाय-'णत्थि पेज्जे व दोसे वा-नास्ति प्रेम च द्वेषो वा' प्रेम अर्थात् २॥ सन द्वेष नथी. 'णेव सन्नं निवेसए-नैव सज्ञां निवेशयेत्' मे प्रमाणुनी समry पादि। For Private And Personal Use Only Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् ५२७ अन्वयार्थः-- (गस्थि पेज्जे व दोसे वा) नास्ति-न विद्यते प्रेम-प्रीतिलक्षणं द्वेषो वा-प्रेमविपरीतः (णेवं सन्नं णिवेसए) नैवम्-नैवैतादृशी संज्ञा बुद्धिं निवे. शयेत्-कुर्यात् किन्तु (अस्थि पेज्जे व दोसे वा) अस्ति विद्यते एव प्रेम च द्वेषो वा 'एवं सन्नं णिवेसए' एवमीशी संज्ञां बुद्धि निवेशयेत्-कुर्यादिति ॥२२॥ टीका--'पेग्जे व प्रेम च तत्र प्रेम-पीतिलक्षणं पुत्रकलादि रागः, तद्विपरीतः 'दोसे वा' द्वेषो वा 'णस्थि' नास्ति-एतौ द्वावपि न विद्यते इति केषां. चिन्मतम्, तथाहि-मायालोभौ एवाश्यवौ विद्यते न पुनस्तत्समुदायरूपेऽबरवी प्रेमरूपोऽस्ति तथा-क्रोधमानौ एव स्तः न तत्समुदायरूपोऽवयवी द्वेष इति । ऐसी समझ रखना ठीक नहीं है किन्तु 'अस्थि पेज्जे व दोसे वा--अस्ति प्रेम च देषो वा' राग और द्वेष है 'एवं सन्नं निवेसए-एवं संज्ञां निवेशयेत्' ऐसी ही बुद्धि रखनी चाहिए ॥२२॥ ___अन्वयार्थ--प्रेम अर्थात् राग और द्वेष नहीं हैं ऐसी समझ रखना ठीक नहीं है किन्तु रोग है और द्वेष है, ऐसी बुद्धि ही रखनी चाहिए ॥२२॥ टीकार्थप्रीति अर्थात् पुत्र कलत्र आदि परिवार संबंधी राग प्रेम कहलाता है । द्वेष इस से विपरीत होता है। यह दोनों नहीं है, ऐसा किन्हीं २ का मत है । वे कहते हैं-माया और लोभ राग कहलाते हैं, अतएव इन दोनों अवयवों के अतिरिक्त दोनों का समूह रूप अवयवी राग, अलग नहीं है । इसी प्रकार क्रोध और मान-इन दोनों अंशों से भिन्न द्वेष का कोई पृथक् अस्तित्व नहीं है। इस प्रकार का विचार करना समी त परामर नया. परंतु 'अस्थि पेज्जे व दोसे वा-अस्ति प्रेम च द्वेषो वा' २१॥ छ, अने द्वेष ५ छ. 'एवं सन्न निवेसए-एवं संज्ञां निवेशयेत्' से પ્રમાણેની બુદ્ધી જ રાખવી જોઈએ. મારા અન્વયાર્થ—-પ્રેમ અર્થાત રાગ અને દ્વેષ નથી એવી સમજણ રાખવી ઠીક નથી. પરંતુ રાગ છે, દ્વેષ છે એવી બુદ્ધિ રાખવી જોઈએ. મારા ટીકાથ–-પ્રીતિ અર્થાત્ પુત્ર, કલત્ર વિગેરે પરિવાર સંબંધી રાગ, પ્રેમ કહેવાય છે. છેષ તેનાથી જુદા પ્રકાર હોય છે. આ બને નથી. એ પ્રમાણે કેટલાકને મત છે. તેઓ કહે છે કે-માયા અને લેભ ગ કહેવાય છે. તેથી જ આ બને અવયે શિવાય બનેના સમૂહ રૂપ અવયવી રાગ, જુદે નથી. એજ પ્રમાણે ક્રોધ અને માન, આ બને અંશથી જુદા એવા શ્રેષનું કઈ જુદું અસ્તિત્વ જ નથી. આવા પ્રકારનો વિચાર કર એગ્ય નથી. પ્રેમ છે, અને દ્વેષ For Private And Personal Use Only Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२८ सूत्रकृतागसूत्रे 'एवं" एतादृशीम् ‘सन्न' संज्ञाम्-बुद्धिम् ‘ण निवेसए' न निवेशयेत्-न कुर्यात् । किन्तु-पेज्जे व प्रेम वा 'दोसे वा' द्वेषो वा 'अस्थि' अस्ति ‘एवं सन्नं शिवेसए' एवं संज्ञां बुद्धि निवेशयेत्-एवमेव विचारं कुर्यात् । इष्टेषु प्रेम भवति, अनिष्टेषु च द्वेषो भवति । इति सर्वेषामनुभवसिद्धः, इति अनुभूतयोरनको प्रेमद्वेषयोरपलापस्य कर्तुमशक्यत्वात् । अपितु-अनुमानस्य स्व स्वरूपस्य यथा न कोऽपि अपलापं करे। ति, अनुभूयमानत्वादेव । तथेमी अपि नाऽपलपित्तुं योग्यौ, इति ॥२२॥ मूलम्-त्थि चाउते संसारे, जेवं सन्नं णिवेसए । अस्थि चाउरंते संसारे, एवं सन्नं गिवेसए ॥२३॥ छाया-नास्ति चातुरन्तः संसारो, नैव संज्ञां निवेशयेत् । अस्ति चातुरन्तः संसार, एवं संज्ञां निवेशयेत् ॥२३॥ उचित नहीं है । प्रेम है और द्वेष है. ऐसा ही विचार करना चाहिए। क्योंकि इष्ट वस्तुओं पर प्रेम और अनिष्ट वस्तुओं पर द्वेष होता है, यह तथ्य सभी के अनुभव से सिद्ध है। अतएव अनुभवसिद्ध प्रेम और द्वेष का अपलाप (छिपाना) नहीं किया जा सकता। अनुमान का और अपने स्वरूप का कोई भी अपलाप नहीं करता, क्योंकि उनका अनुभव होता है। इसी प्रकार प्रेम और वेष भी अपलाप करने योग्य नहीं है ॥२२॥ 'स्थि चाउरंते संसारे' इत्यादि । शान्दार्थ-'पस्थि चाउरते संसारे-नास्ति चातुरन्तः संसारः' नरक, देव, मनुष्य और तिर्यंच इन चार गतियों वाला संसार नहीं है, किन्तु પણ છે, એ પ્રમાણેને જ વિચાર કરે જોઈએ. કેમકે-ઈટ વસ્તુઓ પર પ્રેમ અને અનિષ્ટ વસ્તુઓ પર ઠેષ હોય છે. આ સત્ય બધાના જ અનુભવથી સિદ્ધ એવા પ્રેમ અને દ્વેષનો અ૫લાપ (છૂપાવવું) કરી શકાતું નથી. અનુમાનને અને પિતાના સ્વરૂપને અ૫લાપ કઈ પણ કરતું નથી. કેમકે-તેઓને અનુભવ હોય છે. એ જ પ્રમાણે પ્રેમ અને દ્વેષ પણ અપલોપ કરવાને યોગ્ય નથી. મારા ‘णत्थि चाउरते ससारे' त्यहि शा---'णत्थि चाउरते ससारे-नास्ति चातुरन्तः संसारः' ना२४, हेव, मनुष्य अन तिय"५ मा प्रभानी या२ गति संसार नथी, `णेव सन्नं निवेसए-नैव संज्ञां निवेशयेत्' । प्रमाणेना सम४५ रामवी राम२ नथी. For Private And Personal Use Only Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir “समर्थबोध का द्वि. थु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् _ अन्वयार्थ:- (णत्थि चाउरं ते संसारे) नास्ति न विद्यते चतुरन्तः चातुर्गतिक नारकतिर्यदेवगतिलक्षणः संसारः (वं 'सन्नं निवेर) एव संज्ञा - बुद्धि न निवेशयेत् न कुर्यात् किन्तु - (अस्थि चाउर संसारे) अस्ति चातुरन्तः - चातुर्गतिकः संसारः ( एवं सन्नं णिवेद) एवम् - ईदृशी संज्ञा बुद्धि निवेशत्- कुर्यादिति ॥२३॥ टीका- 'वाउरते' चातुस्तदुर्गतिकः 'पारे णस्थि' संसारो नास्ति ' एवं ' एवम् ईशी 'सन्न' संज्ञाम् - विचारणाम् 'र्ण विसर न निवेशयेत् कथमपि न कुर्यात् । अपितु 'वाउरंते' चातुरन्तयतुगतिक से तारे' संसारा अस्थि' अस्ति 'एवं सन्नं पिवेषण' एक्म्-ईदृशीं संज्ञां बुद्धि विचारं निर्णय वा निवेशयेत् कुर्यात् । अयमाशय:- परिव्याधातुकः सेवा, नरकवि-तिर्यग्गति-मनुजगति-देवगतिभेदात् । नत्र दुःखस्याऽधर्मकस्यास्यन्तिकी पटकुष्टता सा नारकगतिः । यत्र च सुखदुःखयीमध्यावस्था सानुगतिः यत्र सुखस्य परोत्कृष्टता सा देव'अत्थि चाउरंते संसारे अस्ति चातुरन्तः संसारः चारगतिरूप संसार है "एवं सग्नं निवेस ए- एवं संज्ञां निवेशयेत्' ऐसी बुद्धि रखनी चाहिए ॥ २३ ॥ अन्वयार्थ--नरक, देव, मनुष्य और तिर्यचाइना चारातियों वाला संसार नहीं है, ऐसी बुद्धि रखना योग्य नहीं है । किन्तु चार गति रूप संसार है, ऐसी बुद्धि रखनी चाहिए ||२३|| टीकार्थ-चातुर्गतिक संसार नहीं है, इस प्रकार विचार करना या रखना सर नहीं है, अपितु चातुर्गतिक संसार है, ऐसा ही विचार रखना चाहिए। आशय यह है - यह दिखलाई देने वाला संसार चातुर्गतिक है। इसमें चार गतियां हैं - नरकगति, तिर्यचगति, देवगति और मनुष्यगति । A 3. '५२'तु 'अत्थि चाउरंते खसारे अस्ति चातुरन्तः संसारः' या गति३५ ससार ४, ‘एवं सज्ञां निवेशयेत्' मा प्रभाषेनी मुद्धि धारा १२वी हो. ॥२॥ અન્વયા—નારક દેવ, મનુષ્ય અને તિચ આ ચાર ગતિય ગતિયાવાળા સ'સાર નથી. એવી બુદ્ધિ રાખવી ચેગ્ય નથી. પરંતુ ચાર ગતિ રૂપ સંસાર छे. ते प्रभानी शुद्धि रावी ટીકા . ॥२॥ ચાર ગતિવાળા સાર નથી, આ પ્રકારના વિચાર કરવા તે ચેાગ્ય નથી. પરંતુ ચાર ગતિવાળા સ`સાર છે, આ પ્રમાણેના જ વિચાર ધારણ કરવા જોઈએ. For Private And Personal Use Only કહેવાને આશય એ છે કે-આ દેખવામાં આવતા સંસાર-જગત્ ચર અતિ વાળે છે. તે ચાર ગતિ પ્રમાણે સમજવી, નÆગતિ તિર્યંચગતિ “વ્હેવગતિ सू० ६७ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतास्त्रे पतिः । तत्र तिर्यङ्मनुष्यगत्योः प्रत्यक्षेणाऽनुमानापलापाः। किन्तु-नारकदेवनयोग्दर्शनात्ते गती न स्तः, इति संसारो न चातुर्गतिकः अपि तु-द्विगतिक एव संसार इति केचिदाहुस्तन्मतं निराकत्तुं मूत्रकारो वक्ति । चातुरन्तः संसारो नास्तीति न मन्तव्यं मन्तव्यन्तु तथाविध एव चतुरन्तः संसार इति । अत्राऽयमभिप्राय:यद्यपि-नारका देवाश्च प्रत्यक्षेणाऽस्मदादिवन्नाऽनुभवपथमधिरोहन्ति, तथापि-अनु. मानाऽऽगमाभ्यां तज्जातीययोस्तयो स्तयोः सिद्धिः पुष्टिश्च सम्भवे देव । भवन्ती.. जहां पुण्यकर्मजनित सुख मर्वोत्कृष्ट है, वह देवगति कहलाती है। जहाँ अधर्म के फलरूप दुःख की सर्वोत्कृष्टता है, वह नरकगति कहलाती है। जहां सुख और दुःख की मध्यम अवस्था होती है, वह मनुष्यगति और तियंचगति है। इनमें से मनुष्य और तिर्यंच तो प्रत्यक्ष देखे जाते हैं, अतएव उनका निषेध नहीं किया जा सकता । किन्तु देव और नारक दिखाई नहीं देते, अतएव ये दोनों गतियां नहीं हैं । इस कारण संसार चातुर्गतिक नहीं वरन् द्विगतिक ही है, ऐसा कोई कोई कहते हैं। उनके मत का निराकरण करने के लिए सूत्रकार कहते हैं-संसार चार गति वाला नहीं है, ऐसा नहीं मानना चाहिए बल्कि यही मानना चाहिए कि वह चार गति वाला ही है । आशय यह है कि यद्यपि हमारे जैसे नारक और देव प्रत्यक्ष से प्रतीत नहीं होते हैं, तथापि अनुमान और आगम प्रमाण से उनकी सिद्धि और पुष्टि होती ही है। અને મનુષ્યગતિ, જ્યાં પુણ્ય કર્મથી થવાવાળું સુખ સર્વોત્કૃષ્ટ હેય છે, તે દેવગતિ કહેવાય છે. અને જ્યાં અધર્મના ફળરૂપ દુઃખનું સર્વોત્કૃષ્ટપણું છે, તે નરક ગતિ કહેવાય છે. જ્યાં સુખ અને દુઃખની મધ્યમ અવસ્થા હોય છે, તે મનુષ્યગતિ અને તિય"ચ ગતિ છે. આમાંથી મનુષ્ય અને તિર્યંચ તે પ્રત્યક્ષ દેખવામાં આવે છે. તેથી જ તેને નિષેધ કરવામાં આવતું નથી. પરંતુ દેવ અને નારકે દેખવામાં આવતા નથી. તેથી આ બંને ગતિ નથી, તેથી સંસાર ચાર ગતિવાળે નહીં પણ બે ગતિવાળે જ છે. આ પ્રમાણે કેટલાક કહે છે. તેઓના મતનું નિરાકરણ કરવા માટે સૂત્રકાર કહે છે કે-સંસાર ચાર ગતિવાળે નથી. તેમ માનવું નહીં બલ્ક એમ જ માનવું જોઈ એ કે સંસાર ચાર ગતિવાળે જ છે. કહેવાનો આશય એ છે કે—જે કે તિર્યંચ અને મનુષ્યની માફક નાક અને દેવે પ્રત્યક્ષ રૂપે દેખાતા નથી, તે પણ અનુમાન અને આગમના પ્રમાણથી તેઓની સિદ્ધિ અને પુષ્ટિ થઈ જ જાય છે. ઉત્તમ પુણ્યના For Private And Personal Use Only Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ५ आधारश्रुतनिरूपणम् होत्कृष्टफलभोक्तारो देहा अपकृष्टफल माजो नारकाः । सर्वज्ञाऽऽगमोऽपि एतयो स्सत्वं वदति, अनुभूयन्ते च प्रत्यक्षेण तारागणाः । यद्यपि-अवान्तरभेदात् - अनेकगतिकः संसार इति वक्तुं युक्तम्, तथापि-असामान्यरूपेण चातुर्गतिक एम अतश्चातुर्गतिकः संमारो नास्तीनि वादो विवदतां वादिनां मोहविजृम्भित इव निस्सारः प्रतिभाति । यतो दि-अनेकपदमपि न व्याइन्यते । चातुर्गतिका संसारो. ऽस्स्येव, इति विचारश्चनुरम इति । ॥२३॥ मूलम्-त्थि देवो व देवी वा, णेवं सन्नं णिवेसए । अत्थिं देवो व देवी वा, एवं सन्नं णिवेसए ॥२४॥ छाया-नास्ति देवो वा देवी वा, नैवं संज्ञां निवेशयेत् । अस्ति देवो वा देवी वा, एवं संज्ञां निवेशयेत् ।।२४।। उत्कृष्ट पुण्य फल के भोक्ता देव और निकृष्ट पाप फल के भोक्ता नारक होते हैं। सर्वज्ञ प्रतिपादित आगम भी देवों और नारकों के अस्तित्व का विधान करता है । तारागण प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं। यदि अवान्तर भेदों की गणना की जाय तो संसार में अनेक गतियां हैं, फिर भी सामान्य रूप से चार ही गतियां होती हैं। अतएव संसार चातु. गैतिक नहीं है, ऐसा कहना मूढतापूर्ण एवं निस्सार है । संसार चातु. गैतिक है, यही कथन समीचीन है ॥२३॥ 'स्थि देवो व देवी वा' इत्यादि ।। शब्दार्थ-'देवो व देवी वा णस्थि-देवो वा देवी वा नास्ति' देव नहीं है, देवी नहीं है, 'णेयं सन्नं निवेसए-नैवं संज्ञा निवेशयेत्' ऐसी बुद्धि रखना ठीक नहीं है किन्तु 'देवो व देवी वा अस्थि-देवो वा देवी वा ફળને ભગવનાર દેવ, અને અધમ પાપના ફળને ભોગવનાર નારક હોય છે. સર્વજ્ઞ દ્વારા પ્રતિપાદન કરવામાં આવેલ આગમ પણ દે અને નારકોના અસ્તિત્વનું વિધાન કરે છે. તારાગણ પ્રત્યક્ષ જોવામાં આવે છે. જે અવા ત્તર ભેદની ગણના કરવામાં આવે તે સંસારમાં અનેક ગતિ છે. તે પણ સામાન્ય પણથી ચાર જ ગતિ કહેલ છે. તેથી જ સંસાર ચાર ગતિવાળે નથી, તેમ કહેવું મૂર્ખતાથી પૂર્ણ અને વિસ્તાર છે. સંસાર ચાર ગતિવાળો છે. આ પ્રમાણેનું કથન જ ચગ્ય છે. ૨૩ 'त्थि देवो व देवी वा' हत्या शहाथ---'देवो व देवी वा पत्थि-देवो वा देवी वा नास्ति' हे नथी, भने यी ५५५ नथी, 'णेव सन्न निवेनए-नैव संज्ञां निवेशयेतू' या प्रमा For Private And Personal Use Only Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir জুগনায় अन्नया- (देवो न देवी वा शास्थि) देवो वा देवी वा नास्ति न विद्यते (लेसनं शिवेसर), एवम्-ईदृशीं संज्ञां-मति न निवेशयेत्-न कुर्यात् किन्तु दिवो देवी वा दिय). देवो वा-देवी. वा. अस्ति-विद्यते (एवं सन्नं णिवेसए) एवमीही संज्ञा. मतिं विचारं वा निवेशयेत्-कुशदिति ॥२४॥ . ___टीका--'देवो व देवी वा' देवो वा देवी वा 'गत्थि' नास्ति एवं सन्न' एवं संज्ञाम्य मिचेसए न. निवेशयेत्-न कुर्शत्-देवा वा देव्यो वा न सन्तीति विचारो न करणीय:-|-अप्रत्यक्षा-इमेऽतो.न सन्तीति विचारं ये केचन कुर्वन्ति, तत्र विचार: बनाऽवनौ जागच्छास्त्रकारो वक्ति-देवादीनामसत्चविचारो हेय एवेति । तत्र तु देवा अस्ति! देव, और देवियां हैं एवं सन्नं निवेसए-एवं संज्ञां निवेशयेत्' इस प्रकार की बुद्धि रखनी ही उत्तम है ।।२४॥ अवधार्थ-देव नहीं हैं, देवी नहीं हैं, ऐसी बुद्धि रखनी ठीक नहीं किन्तु देव और देवियां हैं, इस प्रकार की बुद्धि रखना ही सत्य है ॥२४॥ टीकार्य-देवों और, देवियां का अस्तित्व नहीं है, ऐसा विचार नहीं करना चाहिए। इनका प्रत्यक्ष देखना नहीं होता है, अतएव ये नहीं हैं, ऐसा जो सोचते हैं, उनके प्रति विचार रूपी वन की भूमि में जागृत् शास्त्रकार कहते हैं -देव आदि के नास्तित्व का विचार तज देने योग्य हैं। देव हैं, और देवियां भी हैं यही विचार श्रेयस्कर है । यही नी मुद्धि धारण ४२वी नहीपरतु अत्यि देवो व देवी वायो वा देवी वा : अस्तेि . मनपीये। 'एवं सन्न निवेसप-एवं संजी निवेशयेत्', २४ પ્રમાણેની બુદ્ધી રાખવી તેજ સત્ય છે. ૨૪ અન્વય-દેવા નથી તેમ જ દેવી પણ નથી એવી બુદ્ધિ રખધી ઠીક નથી પરતું દેવ અને દેવિ છે, એ પ્રકારની બુદ્ધિ રાખવી એજ ” सायु. ॥२४॥ ટીકાર્થ–દેવ અને દેવીનું અસ્તિત્વ નથી આ પ્રમાણે વિચાર કર ન જોઈએ. દેવ અને દેવિયે પ્રત્યક્ષ દેખાતા નથી તે પરથી જ તેઓ નથી તેમ કહેવું ખુબર નથી. દેવ અને દેવી નથી આમ કહેનારાઓના વિચાર રૂપી વનની ભૂમીમાં જાગૃત એવા શાસ્ત્રકાર કહે છે કે–દેવ વિગેરે નથી. એ પ્રમાણે વિચાર ત્યાગ કરવા ગ્ય છે, દેવ છે, અને દેવિયો પણ છે. આ પ્રમાણેને વિચાર જ કલ્યાણ કારક છે. તેથી એ જ વિચાર કર એગ્ય For Private And Personal Use Only Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् या देव्यो वा सन्त्येवाऽयमेव श्रेयान् विचारः सर्वदा करणीयः । अनुमानाऽऽग. माभ्यां प्रमाणभूताभ्यामेतेषामस्तित्वसद्भावात् । २४॥ मूलम् - त्थि सिद्धी असिद्धी वा, णेवं सन्नं णिलए। अत्थिं सिंद्धी असिद्धी वा, एवं सन्नं णिवेसए ॥२५॥ छाया-नास्ति सिद्धिरसिद्धिर्श, मैं संज्ञा निवेशयेत् । अस्ति सिद्धिसिद्धिर्वा, एवं संज्ञा निवेशयेत् ॥२५॥ विचार करना चाहिए। प्रमाणभूत अनुमान और आगम से उन का अस्ति स्व सिद्ध है। कोई कोई पुण्यशाली जीव उन्हें स्वप्न में देखते भी हैं॥२४॥ 'णस्थि सिद्धी असिद्धी वा' इत्यादि। शब्दार्थ- 'सिद्धी स्थि-नास्ति सिद्धिः सिद्धि-(समस्त को का क्षयरूप) नहीं है और 'असिद्धी वा-असिद्धो वा' असिद्धि भी नहीं है 'णेवं सन्नं निवेसए-नैवं संज्ञां निवेशयेत्' ऐसा विचार करना योग्य नहीं है, किन्तु 'अस्थि सिद्धी असिद्धी धा-अस्ति सिद्धिरसिद्धि वी' सिद्धि है, और असिद्धि भी है "एवं सन्नं निवेसए-एवं संज्ञा निवेशयेत' ऐसा विचार करना चाहिए ॥२५॥ अन्वयार्य-सिद्धि (सहस्त कों का क्षयस्वरूप) नहीं है और असिद्धि भी नहीं है। ऐसा विचार करना योग्य नहीं है, किन्तु सिद्धि है और अमिद्धि भी है, ऐसा विचार करना चाहिए ॥२५॥ છે, પ્રમાણભૂત અનુમાન અને આગમથી તેઓનું અસ્તિત્વ સિદ્ધ થાય છે. કઈ કઈ પુણ્યશાળી જીવ તેને સ્વપ્રમાં પણ દેખે છે. રા. 'ण त्थि सिद्धी असिद्धी बा' त्याह शा-- सिद्धी पत्थि-नास्ति सिद्धिः' सिद्धी (सघा ना क्षयना। ३५) नथी. भने 'असिद्धी -सिद्धि वा दि ५ नथी. 'णेवं सन्न निवेसए-नै संज्ञां निजशयेत' मा अमानो विश्व योग्य नथी. परत 'अस्थि सिद्धी असिद्धी बा-अस्ति सिद्धिरसिद्धि र्वा' सिद्धि छे. अने मसिद्धि ५ छ, 'एवं सन्न निवेसए-एवं अज्ञां निवेशयेत्' या प्रमाणे नो पिया२ ४२ मे. १२५॥ અન્વયાર્થ–-સિદ્ધિ (સમસ્ત કર્મોનો ક્ષય રૂ૫) નથી અને અસિદ્ધિ પણ નથી, એ વિચાર કરે યોગ્ય નથી. પરંતુ સિદ્ધિ છે. અને અસિદ્ધિ પણ છે એ વિચાર કર જોઈએ. પા For Private And Personal Use Only Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५३४ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थ : - (गस्थि) नास्ति न विद्यते (सिद्धी) सिद्धि रशेषकर्मक्षयरूपा (असिद्धी वा) असिद्धि: - सिद्धि व्यतिरिक्ता (णेवं सन्नं वेिसर) नैवम् नेदृशों पूर्वोक्त संज्ञां बुद्धि निवेशयेत्कुर्यात् किन्तु - ( अस्थि सिद्धी असिद्धी वा) अस्ति - विद्यते एव सिद्धरसिद्धिश्व ( एवं सनं णिवेसर) एवडशीं संज्ञां बुद्धि निवेशयेत् कुर्यादिति । २५|| टीका- सिद्धी' सिद्धिः - अशेषकर्मक्षयरूपा मोक्षापरपर्याया । 'असिद्धी' असिद्धिस्तद्विपरीता संसाररूपा सिद्धा प्रसिद्धा च । 'णस्थि' ते न स्तः न विधेते ' एवं सन्नं' एवम् - एकादशीं संज्ञां विचारधाराम् 'ण णिवेसर' न निवेशयेत् - नैव कुर्यात् । किन्तु सिद्धी' सिद्धि: 'असिद्धी वा' असिद्धिश्व 'अस्थि' अस्तिविद्यते ' एवं सन्नं णिवेसए' एवं संज्ञां निवेशयेत - अस्ति मिद्धिरसिद्धिश्वेत्येवं निर्णयोनिर्णेयः तयोः समभ्युपेतव्यम् । असिद्धिः - संसार स्तद्रूपवर्णनं पूर्वत्र गाथायां गीतम् । अशेषकर्मक्षयरूपा सिद्धिरपि सिद्धा विद्यते एव । कर्मचयसञ्चितोऽत्यन्तं टीकार्थ-- सिद्धि का अर्थ है- समस्त कर्मों का क्षय हो जाने पर अनन्त ज्ञान, दर्शन और सुख रूप शुद्ध आत्मस्वरूप की उपलब्धि, उसे मोक्ष भी कहते हैं। सिद्धि से जो विपरीत हो, वह असिद्धि है, अर्थात् शुद्ध स्वरूपकी उपलब्धि न होना और संसार में भ्रमण करना यह दोनों ही नहीं है, ऐसा विचार नहीं करना चाहिए। किन्तु ऐसा विचार करना चाहिए कि सिद्धि भी है और असिद्धि भी है। असिद्धि अर्थात् संसार के स्वरूप का वर्णन पूर्वगाथा में किया गया है । समस्त कर्मों का क्षय रूप सिद्धि भी सिद्ध ही है। किसी पुरुष का, किसी समय, संचित किया हुआ कर्मसमुदाय क्षीग हो जाता है, क्योंकि वह समुदाय है । जो जो समुदाय होता है उसका कभी न कभी क्षय ટીકા-સિદ્ધિ એટલે સમસ્ત કર્મોનો ક્ષય થયા પછી અનંત જ્ઞાન, મન'ત દર્શન, અને અનત સુખ રૂપ શુદ્ધ આત્મસ્વરૂપની પ્રાપ્તિ, તેને મેક્ષ પણ કહે છે. સિદ્ધિથી જે ઉલ્ટુ હોય તે અસિધ્ધિ છે અર્થાત્ શુધ્ધ સ્વરૂપની પ્રાપ્તિ ન થવી, અને સ'સારમાં ભટકવું. આ બન્ને નથી. આ પ્રમાણેના વિચાર કરવા ન જોઈ એ. પરતુ એવા વિચાર કરવા ોઇએ કે સિધ્ધિ પણ છે, અને અસિધ્ધિ પણ છે. અસિદ્ધિ અર્થાત્ સંસારના સ્વરૂપતુ. વણુન આના પહેલાની ગાથામાં કરવામાં આવેલ છે. સમસ્ત કર્માંના ક્ષય રૂપ સિદ્ધિ પણ સિદ્ધ જ છે. કાઈ પુરૂષે કાઇ વખતે સાંચિત કરેલ ક સમુદાય ક્ષીણુ થઇ જાય છે. કેમકે તે સમુદાય For Private And Personal Use Only Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका वि. श्रु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् कस्यचित्कदाचित् क्षीयते । समुदायत्वात्, परिदृश्यमानघटादिसमुदायवत् । इत्याधनुमानेनाऽऽगमेनाने न-बृहत्या प्रवृत्या च महापुरुषाणां सिद्धिः सिद्धयति । अयं भावः-सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणस्य मोक्षमार्गस्य सर्वथा कर्मक्षयस्य पीडोपशमादिनाऽध्यक्षेण दर्शनादत:-कस्यचिदात्यन्तिककर्महानिसिद्धरस्ति सिद्धिरिति, । तथोक्तम्-'दोषावरणयोहानि निःशेषाऽस्त्यतिशायिनी । क्वचिद् यश स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षयः ॥इत्यादि । __ असिद्धेः स्वरूपं तु सुनिरूपितमेवाऽस्माभिः सर्वैरनुभूतमनुभूयमानञ्च । अा इमे न इति विचारणा सर्वथाऽरमणीया । इमे विशे ते इति ज्ञानं ज्ञानमतोऽन्यथाऽज्ञानम् ।२५। अवश्य होता है, जैसे घट समुदाय का । इत्यादि अनुमानों से अगम प्रमाण से और महापुरुषों द्वारा सिद्धि के लिए प्रवृत्ति करने से सिद्धि की सिद्धि होती है । भाव यह है कि सम्यग्दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र रूप मोक्ष मार्ग की, सर्वथा कर्मक्षय की पीड़ा के उपशम से कर्म का क्षय प्रत्यक्ष देखा जाता है, अतः यह भी समझा जा सकता है कि किसी आत्मा के कर्मों का सर्वथा क्षय भी होता है । कहा भी है'दोषावरणयोर्हानि' इत्यादि। जैसे मल को नष्ट करने के कारण मिलने पर बाह्य और आभ्यन्तर मल का नाश हो जाता है, इसी प्रकार रागादि दोषों का भी किसी आत्मा से सर्वथा क्षय हो जाता है।' ___ अमिद्धि का स्वरूप तो स्पष्ट से सिद्ध ही है । उसका हम सब ने છે. જે જે સમુદાય હોય છે. તેને ક્ષય ક્યારેને કયારે પણ થાય છે જ જેમ ઘટ સમુદાયને ક્ષય, આ વિગેરે અનુમાનથી અને આગમન પ્રમાણેથી અને પુરૂષ દ્વારા સિદ્ધિને માટે પ્રવૃત્તિ કરવાથી સિદ્ધિની સિદ્ધિ થાય છે. કહેવાને ભાવ એ છે કે– સમ્યક્ દર્શન, જ્ઞાન અને ચારિત્ર રૂપ સમ્યક તપ મેક્ષ માર્ગની સર્વથા કર્મક્ષયની પીડાના ઉપશમથી કમને ક્ષય પ્રત્યક્ષ જોવામાં આવે છે. તેથી એ પણ સમજી શકાય તેમ છે કે કઈ मात्मान। भनिसपथा क्षय ५९ छे. 'दोषावरणयोर्हानि' त्याहि. જેમ મળ-મેલને નાશ કરવાનું કારણ મળવાથી બાહ્ય--બહારને - અને આભ્યન્તર-અંદરને મેલ નાશ પામે છે, એ જ પ્રમાણે રાગ વિગેરે દેને તથા આવરણને પણ કઈ આત્મામાં સર્વથા ક્ષય થઈ જાય છે. અસિદ્ધિનું સ્વરૂપને સ્પષ્ટ રીતે સિદ્ધ જ છે. અમે બધાએ તેને For Private And Personal Use Only Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ' सूत्रकृतशिस्त्रे मूळम्-स्थि सिद्धी नियं ठाणे णवं सन्नं णिवेसए । अस्थि सिद्धी नियं ठाणं एवं सन्नं णिवेसए ॥२६॥ छाया--नास्ति सिद्धि निजं स्थानं नैवं सं निवेशयेत् । अस्ति सिद्धि जिं स्थान मेवं संज्ञां निवेशयेत् ॥२६॥ अनुभव किया है और कर रहे हैं। अन्न एव सिद्धि और अविद्धि नहीं है, इस प्रकार की विचारणा रमणीय नहीं है। यदि किसी को रमणीय प्रतीत होती भी है, तो तब तक झीरमाणीव है जब तक उन पर ठीक प्रकार से विचार नहीं किया है। दोनों का अस्तित्व है, ऐसा ज्ञान ही संम्यग्ज्ञान है। इसके विपरीत अज्ञान है ।। ५।। 'णधि सिद्धी नियं ठाणे' इत्यादि। शब्दार्थ-'णस्थि सिद्धि णियं ठाणं-नास्ति सिद्धिनिजं स्थान सिद्धि -जीवका कोई अपना निजीस्थान नहीं है। अर्थात् ईषत्वारभारा नामक पृथ्वी नहीं है, 'णेवं सन्नं निवेसए-नैवं संज्ञां निवेशयेत्' इस प्रकार की बुद्धि रखनी नहीं चाहिए। किन्तु 'अस्थि सिद्धी नियं ठाणं-अस्ति सिद्धि निजं स्थानं सिद्धि, जीवका निजी स्थाल है, 'एवं सन्नं निवेलए-एवं संज्ञां निवेशयेत्' इसी प्रकार की बुद्धि धारण करनी चाहिए । २६॥ અનુભવ કરેલ છે. અને કરીએ છીએ તેથી જ સિદ્ધિ અને સિદ્ધિ નથી. આવા પ્રકારને વિચાર કરવો યોગ્ય નથી જે કે ઈને તે યોગ્ય લાગે પણ ખરી તે તે ત્યાં સુધી જ રમણીય અને એગ્ય લાગે કે જયાં સુધી તેના પર સારી રીતે વિચાર કરવામાં ન આવે –બનેનું અસ્તિત્વ છે, એવું જ્ઞાન જ સમ્યફજ્ઞાન છે તેનાથી જુદું હોય તે અજ્ઞાન છે. ઘર પ 'णत्थि सिद्धी नियं ठाणे' त्याह Avan--'णत्थि सिद्धी णियं ठाणे-नास्ति सिद्धिनिजं स्थान' पनु । ५५ पोतानु स्थान नथी, अर्थात् पासा। नामी पृथ्वी नथी, ‘णेवं सन्न निवेसए-नैव संज्ञां निवेशयेत्' मा प्रभानी मुद्धी रामवीन नये. परत 'अत्थि सिद्धी नियं ठाणं-अस्ति सिद्धि निजं स्थान' पनि स्थान छ ‘एवं सन्न निवेसए-एवं सज्ञां निवेशयेतू' मा प्रमाणुनी मुद्धी धार ४२वी नो , ॥२६॥ For Private And Personal Use Only Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् ___ अन्वयार्थ:-(गस्थि सिद्धी णियं ठाणं) सिद्धिः-सकलकर्मक्षयरूपा जीवस्य निजं स्वकीयं स्थानम्-ईपस्याग्भारारूपं नास्ति-न विद्यते (णेवं सन्नं णिवेसए) पूर्वोक्तं स्थान नास्तीत्येवं रूपां संज्ञा-बुद्धिं न निवेशयेत्-न कुर्यात् किन्तु-अस्थि सिद्धी नियं ठाणं' अस्ति-विद्यते एव सिद्धि जीवस्य निजं स्थानम्-ईषत्मार भारारूपम् (एवं सन्नं पिवेसए) एवम् ईसी संज्ञां निवेशयेत्-कुदिति ॥२६॥ - टीका-'सिद्धी णियं ठाणं णत्यि' सिद्धि जीवस्य निजम्-स्वीयं स्थान मास्ति । एवं सन्न ण णिवेसए' एवं संज्ञा-बुद्धि न निवेशयेत्-न कुर्यात् । अपितु-'सिद्धी णिय ठाणं अस्थि सिद्धिरेव जीवस्य नैज-स्वामाविक स्थानमस्ति । 'एवं सन्नं णिवेसए' एवम्-ईदृशी संज्ञा-बुद्धिं निश्चयं निवेशयेत् । यथा-बद्धस्य जीवस्य किञ्चित्स्थानं भवति, तथा मुक्तस्यापि जीवसस्य केनचित्स्थानेन भाव्यम्, तत्तु स्थानं लोकोप्रभाग एवं । तदुक्तम्-'कर्मविषमुक्तस्योर्ध्वगतिः' इति । कर्मतन्त्रपरतन्त्रोऽस्वतन्त्रो जोवस्तत्स्थानमनुभवति, कमरहितो जीवः स्त्रीय लोकाग्रं स्थानमेति ॥२६॥ ____ अन्वयार्थ--सिद्धि-जीव का अपना कोई स्थान नहीं है अर्थात् ईषत्प्रारभारा नामक पृथ्वी नहीं है, इस प्रकार का विचार नहीं करना चाहिए। किन्तु मिद्धि-जीव का अपना स्थान है, इसी प्रकार का विचार करना चाहिए ॥२६॥ टीकार्थ--सिद्धि-जीव का निजी स्थान नहीं है, इस प्रकार की संज्ञा (समझ) धारण करना ठीक नहीं है, किन्तु सिद्धि ही जीव का अपना स्थान है, इस प्रकार की संज्ञा धारण करना चाहिए। जैसे बद्ध जीव का कोई स्थान होता है, उसी प्रकार मुक्त जीवराशि का भी कोई स्थान अवश्य होना चाहिए । वह स्थान लोक का अग्रभाग ही है । जो 'जीव कर्मों से पूर्णरूप से मुक्त हो जाता है, उसे ऊर्ध्वगति की प्राप्ति होती है।' भ-क्या--सिद्धि, नु' पोतार्नु । स्थान नथी. अर्थात् षत्माભારા નામની પૃથ્વી નથી. આ પ્રકારને વિચાર કરવો ન જોઈએ. પરંતુ સિદ્ધિ એ જીવનું પોતાનું સ્થાન છે. એ પ્રકારનો વિચાર કરવો જોઈએ .રા - ટીકાર્થ–-સિદ્ધિ જીવનું નિજસ્થાન નથી, આ પ્રમાણેની સમજણ ધારણ કરવી ઠીક નથી પરંતુ સિદ્ધી જ જીવનું નિજસ્થાન છે, આ પ્રમાણેની બુદ્ધી ધારણ કરવી જોઈએ. જેમ બદ્ધ જીવનું કેઈ સ્થાન હોય છે, એ જ પ્રમાણે મુક્ત જીવરાશીનું પણ કોઈ સ્થાન અવશ્ય હોવું જ જોઈએ. તે સ્થાન લેકને અગ્રભાગ જ છે. જે જીવ કમેથી પૂર્ણ રીતે મુક્ત થઈ જાય છે, તેને स० ६८ For Private And Personal Use Only Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૫૮ सूरिथ साहू साहू वा, जैवं सन्नं णिवेस - सूत्रकृताङ्गसूत्रे । अस्थि साहू साहू वा, एवं सेन्नं पिवेसे ॥२७॥ छाया नास्ति साधुरसाधु नैवं संज्ञा निवेशयेत् । अस्ति साधुरसाधु एवं संज्ञां निवेशयेत् ||२७|| अन्वयार्थ (गस्थि) नास्ति न विद्यते (साहू) साधु (असावा) असा. पुत्रौ नास्ति (णेत्रं सम्नं णिषेमर ) एवम् - ईदृशीं संज्ञा - बुद्धिन निषेशयेद-म ऐसा कहा गया है। जो जीव कर्मों के अधीन हैं वे अनेक स्थानों का अपने कर्मोदय के अनुसार अनुभव करते हैं, किन्तु निष्कर्म जीव का स्थान तो लोक का अग्रभाग ही है ||२६|| 'गरि साह असाहू वा' इस्थादि । शब्दार्थ - स्त्रि साहू नास्ति साधुः' न कोई साधु है, 'बा असाहू - वा असाधुः' अथवा न कोई असाधु है 'णेवं स नं निवेस एनैव संज्ञा निवेशयेत्' इस प्रकार की बुद्धि धारण करनी उचित नहीं है, अर्थात् संपूर्ण चारित्र गुण का अभाव होने से कोई साधु नहीं है और जब कोई साधु ही नहीं है, तो उसके प्रतिपक्ष असाधु की भी सत्ता नही है ऐसा समझना भ्रम पूर्ण है किन्तु 'अस्थि साहू साहू वा -अस्ति साधुरसाधु 'व' माधु है और असाधु भी है 'एवं सन्नं निवेसए एवं संज्ञां निवेशयेत्' ऐसी ही समझ धारण करनी चाहिए ॥२७॥ अन्वयार्थ -- न कोई साधु है, न असाधु है, इस प्रकार की बुद्धि ઉર્ધ્વ ગતિ પ્રાપ્ત થાય છે. તેમ કહેવામાં આવ્યું છે. જે જીવ કર્મોને આધીન છે, તેએ અનેક સ્થાનાને પેાતાના કર્માદય પ્રમાણે અનુભવ કરે પરંતુ નિષ્ક જીવનું સ્થાન તા લેકના અગ્રભાગ જ છે. રા ' णत्थि साहू साहू वा' त्याहि For Private And Personal Use Only शद्वार्थ -- 'जत्थि साहू - नास्ति साधुः । साधु नथी, 'वा असाहूवी अथवा सधु नथी. 'णेवं सन्नं निवॆसए - नैव' संज्ञां मिषेश ચૈત્' આ પ્રમાણેની બુદ્ધિ ધારણ કરવી ચેપગ્ય નથી. અર્થાત્ સંપૂર્ણ ચારિત્ર કુંણના અભાવ હાવાથી કોઇ સાધુ નથી, અને જયારે કાઈ સા જ નથી તા તેના પ્રતિપક્ષરૂપ અસાધુની સત્તા પણ નથી. એમ સમજવું. ભ્રમમૂલક 9. परंतु 'अस्थि साहू साहू वा अस्ति साधुरसाधुत्र' साधु छे, भने असाधु पालु छे, 'एव वन्नं निवेखए- एवं संज्ञां निवेशयेत्' मा प्रभाषेनी ४ सभજણ રાખવી જોઇએ. રા - અન્વયા”-–કોઈ સાધુ નથી તેમ કોઈ અસાધુ નથી. આવા પ્રકારની Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयाबोधिनी टीका वि.श्रु. अ. ५ आवारश्रुतनि पणम् कुर्यात्-सम्पूर्णचारित्रगु गाऽ पाग न साधु विद्यते इत्यर्थः, किन्तु (अथि साहूअसाहू वा) अस्ति साधुःसाधु ( एवं सन्नं णिवेसए) एवम्-ईदृशों संज्ञाम्बुद्धिं निवेशयेत्-कुदिति ॥२७॥ ____टीका-'साई' साधुः-स्वी मोक्षात्मकं परार्थ वा यः सघ्नोति प्राणातिपातादिभ्यो विरक्तो ज्ञानदर्शनचारित्रात्मकरत्नत्रयाऽऽराधको वा भवति स साधु रिति विवेकः । 'असाहू वा' असाधु-साधुत्वरहितोऽसाधुः । पूर्व प्रतिपादितः साधुरसाधु थ नास्तीति ‘णस्थि' पदेनाह-एवं' एव मित्येवम् 'सन्नं' संज्ञाम्विचारणाम्-'ण णिवेसर' न निवेशयेत्-न निर्णीयात् । अपितु-साहू' साधुः 'असाहू वा' अपाधु 'अस्थि' अस्ति 'एवं सन्नं' एवं संज्ञा-विचारधाराम् 'णिवेसर' निवेशयेत्-अभावं व्यावर्त्य भावं परिशेश्येत् । अस्ति केषाश्चिदयं धारण करना उचित नहीं है । सम्पूर्ण चारित्र गुग का अभाव होने से कोई साधु नहीं है और जब साधु ही नहीं है तो उसके प्रतिपक्ष असाधु की भी सत्ता नहीं है, ऐसा ही समझना चाहिए ॥२७॥ टीकार्थ--जो अपने मोक्ष रूप अर्थ (हित) को तथा परहित को सिद्ध करता है, वही साधु कहलाता है । या प्राणातिपात आदि अढारे पापों से विरक्त एवं सम्यक् ज्ञान दर्शन, चारित्र और तप का जो साधक है, बही साधु है। जिसमें यह साधुता न पाई जाय वह असाधु है। यह साधु और असाधु नहीं है, ऐसी विचारणा नहीं करनी चाहिए, किन्तु साधु है और असाधु है, ऐसा विचार करना चाहिए ।। બુદ્ધિ રાખવી તે ગ્ય નથી. અર્થાત્ સંપૂર્ણ ચારિત્ર ગુણને અભાવ હેવાશી કોઈ સાધુ નથી. અને જ્યારે સાધુ જ નથી તે તેના પ્રતિપક્ષ રૂપ માસા: ધુની સત્તા પણ નથી જ એમ સમજવું તે બ્રમપૂર્ણ છે. પરંતુ સાધુ છે. અને અસાધુ પણ છે, એમ જ સમજવું જોઈએ ઈરછા --२ मा पोत.ना मोक्ष३५ ५-हितने तथा १२लित सिरे છે, તેજ સાધુ કહેવાય છે, અથવા પ્રાણાતિપાત વિગેરે અઢાર પૂપિથી વિરત અને સમ્યક્ જ્ઞાન, સમ્યફ દર્શન, સમ્યક ચારિત્ર અને સમ્યક્ તપના જેએ સાધક છે, તેજ સાધુ છે. આવું સાધુપણ એમાં ન હોય, તેઓ અસાધુ છે, આ સાધુ અને અસાધુ નથી, એ પ્રમાણેને વિચાર કરવો ન જોઈએ. પરંતુ સાધુ છે, અને અસાધુ પણ છે, એ વિચાર રાખવું જોઈએ. For Private And Personal Use Only Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५४० सुत्रकृतासूत्रे , सिद्धान्त :- तथाहि - ज्ञानदर्शनचारित्रात्मकरत्नत्रयाणां पूर्णतया प्रतिपालनं न भवति यस्य कस्याऽपि । अतोऽनाराधितरत्नत्रयात्मकत्वात्साधुरेव नास्तीति । यदा - साधुरेव नास्ति तदा तत्प्रतिपक्षी भूतोऽसाधुरपि नास्ति उभयोः परस्परं सापेक्षत्वात् । परन्तु विवेकिभिस्तन्त्रितं न मन्तव्यम् । यश्च पुरुषधौरेयः सदोपयोगवान - रागद्वेषरहितो हितः सर्वेषां सरसंयमः शास्त्रोक्त पद्धत्या शुद्धाहारगवेषकः सम्यगूदृष्टिमान् स एव साधुः सिद्धः । यद्ययं कदाचिदजानतः प्रमादाद्वा अशुद्धमप्याहारं शुद्धमिति मत्त्रा सोपयोगं भुङ्गे तदाऽपि - भावशुद्धत्वात्सम्पूर्णरूपेण रत्नत्रयाराधक किन्हीं किन्हीं लोगों का ऐसा अभिप्राय है कि ज्ञान, दर्शन चारित्र और तप रूप रत्न चतुष्टय का चाहे कोई पूर्ण रूप से पालन नहीं कर सकता । अतएव रत्न चतुष्टय की सम्पूर्ण रूप से आराधना न करने के कारण कोई साधु ही नहीं है । जब कोई साधु ही नहीं है तो उसका प्रतिपक्ष असाधु भी नहीं हो सकना, क्योंकि साधु और असाधु परस्पर सापेक्ष हैं । किन्तु विवेकशील जनों को ऐसा नहीं मानना चाहिए । जो उत्तम पुरुष सदा यतनावान् रहता है, रागद्वेष से रहित होता है, सब का हितकर सुसंयमवान्, शास्त्रोक्त पद्धति से निर्दोष आहार की गवेषणा करने वाला तथा सम्यग्दृष्टि होता है, वही साधु है । कदाचित् अनजान में या प्रमाद के वशीभूत होकर अशुद्ध आहार को भी शुद्ध समझ कर उपयोग के साथ खाता है, तब भी भाव से शुद्ध होने के कारण वह सम्पूर्ण रूप से रत्नचतुष्टय का आराधक ही है । કાઇ કંઈ લોકોના એવા અભિપ્રાય છે કે--જ્ઞાન, દશન, ચારિત્ર અને તપ રૂપ રત્ન ચતુષ્ટયનું-ચારે રત્નાનુ` કાઈ પૂર્ણ પણાથી પાલન કરી શકતા નથી, તેથીજ હ્ન ચતુષ્ટયનું પૂરી રીતે આરાધન ન કરી શકવાથી કાઇ સાધુજ નથી. જ્યારે કોઈ સાધુ જ નથ્થુ, તે તેના પ્રતિપક્ષરૂપ અસાધુ પણ નથી જ કેમકે સાધુ અને અસાધુ અને પરસ્પર સાપેક્ષ-એક ખીજાની અપેક્ષાવાળા છે. પરંતુ વિવકવાળા પુરૂષાએ તેમ માનવુ ન જોઇએ. જે ઉત્તમ પુરૂષ સદા યતનાવાન્ રહે છે, રાગદ્વેષ વિનાના હોય છે. મધાનું હિત કરવાવાળા સુસ ચમવાન્ શાસ્ત્રોક્ત પદ્ધતિથી નિર્દોષ આહારની ગવેષણા કરવાવાળા તથા સમ્યક્ દૃષ્ટિ હાય છે, એજ સાધુ કહેવાય છે કદાચ અજાગુતા અથવા પ્રમાહને વશ થઇને અશુદ્ધ આહારને પણ શુદ્ધ સમજીને ઉપયાગ સાથે આહાર કરે છે, તે પણ ભાવથી શુદ્ધ હાવાના કારણે તે સપૂર્ણ પણાથી રત્નચતુષ્ટચન આરાધકજ કહેવાય છે. મા રીતે સાધુની સિદ્ધિ થઈ જવાથી તેના For Private And Personal Use Only Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संबोधिनी टीका द्वि. शु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् ઇશ્ एव । इत्थं यदा साधुः सिध्यति सेत्स्यति वाऽसाधुरपि तत्प्रतिपक्षभूतः । अतो. विवेकिमिः साधुरसाधु व नास्तीति न मन्तव्यम् । अपितु साधुरसाधुश्च इत्युभा वपि स्तः, इति मन्तव्यम् ||२७|| मूल-त्थि केल्लाणपावे वा वं सन्नं पिए । अस्थि कल्लापावे वा एवं सन्नं णिवेसेंए ||२८|| छाथ - नास्ति कल्याणं पापं वा नैव संज्ञां निवेशयेत् । अस्ति कल्याणं पापं वा एवं संज्ञां निवेशयेत् ||२८|| अन्वयार्थः - (कल्लाण) कल्याण - कल्याणात्मकं वस्तु तथा (पावे वा पा वा - दुःखकारणम् (गत्थि ) नास्ति न विद्यते ( एवं ) एवमीशीम् (सन्नं) इस प्रकार साधु की सिद्धि हो जाने पर उसके प्रतिपक्ष असाधु की भी सिद्धि हो जाती है । अतएव विवेकी जनों को ऐसा नहीं मानना चाहिए कि साधु और असाधु नहीं है ||२७| 'स्थि कल्लापावे वा' इत्यादि । 1. शब्दार्थ - - ' कल्लाण - कल्याणम्' कल्याण अथवा कल्याणकारी वस्तु तथा 'पावे वा - पापं वा' पाप दुःख का कारण 'णस्थि - नास्ति' नहीं है 'एवं - एवम्' ऐसी 'सन्नं संज्ञां ' बुद्धि 'ण निवेसर-न निवेशयेत्' 'न धारयेत्' धारण न करे, किन्तु 'कल्लाणे पावे वा अस्थि-कल्याणं पापं वा अस्ति' कल्याण है और पाप भी है, ' एवं सन्नं निवेसप - एवं संज्ञा निवेशयेत्' इसी प्रकार की बुद्धि धारण करनी चाहिए ||२८| अन्वयार्थ - - कल्याण या कल्याणकारी वस्तु तथा पाप दुःख का कारण नहीं है, विवेकी आत्मा को इस प्रकार की बुद्धि नहीं धारण પ્રતિપક્ષ સાધુની પણ સિદ્ધિ થઈ જાય છે. તેથી જ વિવેકીજએ સાધુ અને અસાધુ નથી તેમ માનવુ` કે વિચારવું ન જોઈ એ રા ' णत्थि कल्लापावे वा' धत्याहि For Private And Personal Use Only शब्दार्थ - - ' कल्लाण-कल्याणम्' गृह्यालु अथवा उत्या उरवावाजी वस्तु qui ‘qà ai-¶¶ ar' 414-g: sy 'fer-arfea' dul, ‘qa'-qan' - प्रभाषेनी 'सन्नं-संज्ञां' शुद्धि 'ण निवेसए-न निवेशयेत्' धारण ४२वी न 'हो. परंतु 'कल्डाण पावे वा अस्थि - कल्याणं पाप वा अस्ति' इत्याशु 'अने पाप हे, 'एव' सन्न निवेषएवं संज्ञां निवेशयेत्' आ प्रभानी शुद्धि ધારણ કરવી જોઇએ ૫૮૫ અન્વયા --કલ્યાણુ અથવા કલ્યાણકારી વસ્તુ તથા પાપ અર્થાત્ દુઃખના Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५.२ संघकृतामसने संज्ञा बुद्धिम् (ण णिवेसए)-न निवेशयेत्-'न कुर्यात् किन्न-कल्लाणपावे वा अस्थि) कल्याणं पापं वाऽसि-विद्यते (एवं सन्नं णिवेसए) एवम्-ईदृशी संज्ञांबुद्धिं निवेशयेत्-कुर्यादिति ।।२८।। ____टीका-आत्मव्यतिरिक्तस्य सर्वस्याभावात् 'कल्लाण' कल्याणम् ‘पावे ।' पापं वा 'णस्थि' नास्ति 'एवं सन्न' एवम्-ईदृशी संज्ञाम्-बुद्धिम्-' णिवेसए' न निवेशयेत्, किन्तु- 'कल्लाण पावे वा अस्थि कल्याणं पापं वाऽस्ति, तत्र-कल्याणं वाल्छितार्थप्राप्तिः। पापं वा-प्राणातिपातादिलक्षणम् । 'एवं' एवमेव 'सन्न' संज्ञाम् -बुद्धिम् ‘ण निवेसए' न निवेशयेत् न कुर्यात् कल्याणकल्याणवतोः पापपापनतोश्च सत्वमवश्यमभ्युपेयम्, अद्वैतमते जगद्विचित्रता स्यादिति । बौद्धो हि सर्वस्यापि अशुचित्वम्-आत्मरहितत्वश्च मन्यते । अतः कल्याणं तद्वान वा नास्तीति कथयति करनी चाहिए। किन्तु कल्याण है और पाप भी है, इसी प्रकार की बुद्धि धारण करनी चाहिए ॥२८॥ टीकार्थ--आत्मा से भिन्न सभी पदार्थों का अभाव होने के कारण कल्याण और पाप नहीं है, इस प्रकार की संज्ञा नहीं रखनी चाहिए, किन्तु कल्याण और पाप है, ऐसी संज्ञा ही धारण करनी चाहिए। अभीष्ट अर्थ की प्राप्ति को कल्याण कहते हैं, और हिंसा आदिको पाप कहते हैं। कल्याण का और कल्याणवान् का तथा पाप और पापवान् का अस्तित्व अवश्य स्वीकार करना चाहिए । अगर अद्वैत को स्वीकार किया जाय तो अयाधित अनुभव से सिद्ध यह जगत् की विचित्रता संगत नहीं हो सकती । बौद्धों की मान्यता है कि सय अशुचि और अनात्मक है, अतएव कल्याण और कल्याणवान् कोई नहीं है, उनका કારણ રૂ૫ પાપકર્મ નથી આ રીતની બુદ્ધિ ધારણ કરવી ન જોઈએ. પરંતુ કલ્યાણ છે અને પાપ પણ છે. એ રીતની બુદ્ધિ ધારણ કરવી જોઈએ, ર૮ ટીકાર્થ–-આત્મા શિવાયના સઘળા પદાર્થોને અભાવ હેવાના કારણે કલ્યાણ અને પાપ નથી. આ પ્રમાણેની સંજ્ઞા-બુદ્ધિ ધારણ કરવી ન જોઈએ. ઈષ્ટ વસ્તુની પ્રાપ્તિને કયા કહે છે, અને હિંસા વિગેરેને પાપ કહે છે. કલ્યાણનું અને કલ્યાણવાનનું તથા પાપ અને પાપવાનનું અસ્તિવ (વિદ્યમાનપણુ) અવશ્ય સ્વીકારવું જ જોઈએ. જે અદ્વૈતને સ્વીકારવામાં આવે, તે અબાધિત અનુભવથી સિદ્ધ આ જગતનું વિચિત્રપણું સંગત થઈ શકત નહીં. બૌદ્ધોની માન્યતા છે કે-બધું જ અશુચિ-અશુદ્ધ અને અનાત્મક જ-આમા વિનાનું છે. તેથી જ કલ્યાણ કે કલ્યાણવાનું કેઈ પણ નથી. તેઓનું આ કથન સત્ય For Private And Personal Use Only Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ५ आधारश्रुतनिरूपणम् सम्न सम्यक् प्रतिभाति । सर्वस्याऽशुचिस्वे तदुपास्यदेवानपि अशुचिरतिवर्त्ततइति गता दर्शनकथा: । अतः सर्वे पदार्था अशुचिरूपा इति न श्रद्दध्महे । स्वद्रव्य क्षेत्रकालादिरूपेण मोऽपि असन्तः परद्रव्यादिना स्युः। अतः सामान्यता कल्याणस्य निराकरण न सम्यक् । अतः सदेव कल्याण पापं चेति।२८। मलम् केल्लाणे पावए वा, वि वैवहारो ण विजइ। . 'जं वैरं तं ने जागति, समणा बालपंडिया ॥२९॥ छाया- कल्यागः पापको वापि व्यवहारो न विद्यते । यद्वैरं तम्न जाननि श्रमणा बालपण्डिताः ॥२९॥ यह कथन सत्य नहीं है। सब को अशुचि मानने पर उनके उपास्य देव को भी अशुचि मानना पडेगा। ऐसी स्थिति में उनका दर्शन (त) ही लुप्त हो जाता है । अतः दृश्यमान सय पदार्थो को अशुधि मही मानना चाहिए । सघ स्वकीय द्रव्य क्षेत्र काल और भाव से सत् हैं और परद्रव्य क्षेत्र काल और भाव की अपेक्षा असत् हैं । इस प्रकार साधारणतया कल्याण का निराकरण करना ठीक नहीं है। कल्याण और पाप दोनों का अस्तित्व है ॥२८॥ 'कल्लाणे पावए वावि' इत्यादि । शब्दार्थ--'कल्लाणे पावए वावि-कल्याणः पापको वापि' कोई पुरुष एकान्ततः कल्याणवान है, अथवा पापवान् है ऐसा 'ववहारो-व्यवहार' व्यवहार 'प-विज्जह-न विद्यते नहीं होता है तो भी 'बालपंडिया समणा-बालपण्डिताः श्रमणाः' जो शाक्य आदि श्रमण बालपंडित નથી. બધાને જ અશુચિ–અપવિત્ર માનવાથી તેમના આરાધ્ય દેવને પણ અશચિ જ માનવા પડશે આ સ્થિતિમાં તેઓનાં દર્શન–મંતને લેપ થઈ જાય છે. તેથી જ બધા જ પદાર્થોને અશુચિ–અપવિત્ર માનવા ન જોઈએ. બધા જ પિતાના દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ અને ભાવની અપેક્ષાથી સાત છે, અને પરના દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ અને ભાવની અપેક્ષાથી અસત્ છે. આ પ્રમાણે સાધારણ પણથી કલ્યાણનું નિરાકરણ કરવું તે બરાબર નથી, કલ્યાણ અને પાપ બન્નેનું અસ્તિત્વ છે તેમ માનવું જોઈએ. ૨૮ 'कल्लाणे पावए वा वि' त्यादि शहाथ-'कल्लाणे पावर वावि कल्याणः पापको वापि' ४ ५३५ એકાન્તતા-નિશ્ચિત રૂપથી કલ્યાણવાનું છે અથવા પાપવાન છે. એ પ્રમાણેને 'ववहारो-व्यवहारः' ०२१७२ 'ण विजइ-न विद्यते' या नथी. तो १२ बाल पंड़िया समणा-बालपण्डिताः श्रमणाः ॥४य विगैरे नभ माहित छ, For Private And Personal Use Only Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५४४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे - अन्वयार्थ:-(कल्लाणे पावर वावि) कल्याण:-कल्याणगन तत्र कल्याण पान्छितार्थमाप्तिस्तद्वान् अथवा पापान न हि कश्चिदेकान्ततः कल्याणवान् एका. स्वतः पापकान् वा इत्याकारकः (ववहारो) व्यवहारः (ग विज्जइ) न-नै विद्यते न्भवति, यद्यपि एका स्थिति तथापि (बाळपंडिया समणा) वालपण्डिताः श्रमणार धागा सदसद्विवेकविकलाः सन्तः स्वात्मानं पण्डितं मन्यमानाः शाश्चादयः (जं वेरं तं पा जाणंति) यद् बैरमे कान्तपक्षाश्रयात् समुत्पद्यमानं वैरं कर्मबन्धरूप तवरं कर्मबन्धलक्षणं न जानन्ति, इति ॥२९॥ टीका-'कल्लाणे' कल्याणम्-वाच्छिनार्थमाप्तिरूपम् वद्वान् 'पावए बावि' पापको वापि पापवान्-इत्येतादृशः 'वहारोण विज्ज व्यवहारो लोके न विद्यते। है अर्थात् सत् असत् के विवेक से रहित होते हुए भी अपने आप को पण्डित मानते हैं वे एकान्त पक्षका अवलम्बन से उत्पन्न होने वाले 'ज वेरं तं ण जाणंति-एवैरं तन्न जानाति' जो वैर होता है उनको अर्थात् कर्म बन्धको नहीं जानते है ।।२९।। ... अन्वयार्थ-कोई पुरुष एकान्ततः कल्याणवान है या पापवान् है, ऐसा व्यवहार नहीं होता है, फिर भी जो शाक्य आदि श्रमण बाल पंडित हैं अर्थात् सत् असत् के विवेक से रहित होते हुए भी अपने आपको पण्डित मानते हैं, वे एकान्त पक्ष का अवलंबन से उत्पन्न होने वाले वैर को अर्थात् कर्मबन्धन को नहीं जानते हैं ॥२९॥ टीकार्थ-अभीष्ट अर्थ की प्राप्ति कल्याण और उससे विपरीत पाप कहलाता है । यह पुरुष सर्वथा कल्याण का भाजन है, एकान्त पुण्यवान અર્થાત્ સત્ અસતના વિવેક વિનાના હોવા છતાં પણ પિતાને પંડિત માને तान्त पक्षना वीरथी थवावा ' वेर तं ण जाणति-यद्वैर तन्न जानाति' २ ३२ छे, तेने अर्थात् भगधने लता नथी. ॥२६॥ અવયાર્થ–કોઈ પુરૂષ એકાન્તતઃ કલ્યાણવાનું છે અથવા પાપવાન છે એવો વ્યવહાર થતું નથી છતાં પણ જે શાકય વિગેરે શ્રમણ બાલપંડિત છે અર્થાત્ સત્ અસના વિવેકથી રહિત હોવા છતાં પણ પિતે પિતાને પંડિત માને છે. તે એકાન્ત પક્ષના અવલમ્બનથી ઉત્પન્ન થવાવાળા વેરને અર્થાત્ કર્મબંધને જાણતા નથી. ૫રલા ટીકાઈ–-ઈષ્ટ વસ્તુની પ્રાપ્તિ કલ્યાણ કહેવાય છે અને તેનાથી ભિન્ન પાપ કહેવાય છે. આ પુરૂષ સર્વથા કલ્યાણનું પાત્ર છે. એકાન્ત પુણ્યશાળી For Private And Personal Use Only Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका वि. अ. अ. ५ आचारश्रतनिरूपणम ५४५.. अयं सर्वथा कल्याणवान् अयं सर्वथा पापावान इत्येतावान व्यवहारो लोके नाऽऽ. लोक्यते । तथापि 'बालपंडिया' बालपण्डिता आत्मानं पण्डितं मन्यः माना इमें बौद्धादयो विवेकरहिताः 'समणा' श्रमणाः 'जं वेरं' यद्वैरम्-एका. न्तपक्षाऽवलम्बनजनितं बन्धनं यत् 'तं ण जाणंति' तन्नैव जानन्ति शावयादयः पण्डितमानिनः । कथिदेवं मन्यते-कश्चिदेकान्तरूपेण. कल्याणवानेव, कश्चिदे कान्तरूपेण पापवानेव । किन्तु-नाऽयं पक्षो युक्तियुक्तः। अपितु-न कोऽपि पदार्थ एकान्तेन विद्यते, सार्वत्रिको हि हितोऽनेकान्तः पक्ष एव । कयश्चित्कल्याणवान। कपश्चिञ्च पापान इत्येव पक्षः सत्यः श्रेयांश्च । एवं विधेऽपि-एकान्तपक्षजनित कर्मबन्धनं न जानन्ति परदर्शनशः । अतस्तेऽहिंसाधर्मस्य, तथाऽनेकान्तपक्षस्या अयणं नैव कुर्वन्तीति भावः ॥२९॥ है और यह एकान्ततः पापी है, ऐसा व्यवहार लोक में नहीं देखा जाता। फिर भी अपने आपको पण्डित मानने वाले अज्ञानी शाक्य आदि श्रमण एकान्त पक्ष क आश्रयण करते हैं। एकान्त पक्षों को ग्रहण करने से जो कर्मबन्ध होता है, उसे वे नहीं जानते। कोई कोई ऐसा समझता है-यह पुरुष एकान्त पुण्यवान है और अमुक एकान्त पापी ही है, किन्तु ऐसा समझना सत्य नहीं है। कोई भी पदार्थ एकान्तात्मक नहीं है। सर्वत्र अनेकान्तपक्ष ही हितकर है। अतएव कथंचित् कल्याणवान और कथंचित् पापवान ऐसा पक्ष ही श्रेयस्कर है । ऐसी स्थिति होने पर भी अन्यमतावलम्बी, एकान्त पक्ष का स्वीकार करने से जो कर्मबंध होता है, उससे अनभिज्ञ (अनजान) हैं। यही कारण है कि वे अनेकान्तवाद का-अहिंसा का आश्रय नहीं लेते ॥२९॥ છે. અને આ એકાન્તતઃ પાપ છે, આ પ્રમાણેને વ્યવહાર લેકમાં-જગમાં દેખવામાં આવતું નથી. તે પણ પિતાને પંડિત માનવાવાળા અજ્ઞાની શાક્ય વિગેરે શ્રમણ એકાત પક્ષને આશ્રય કરે છે. એકાત પક્ષનો સ્વીકાર કરવાથી જે કર્મબંધ થાય છે, તેને તેઓ જાણતા નથી. કેઈ કોઈ એવું સમજે છે કેઆ પુરૂષ એકાત પુણ્યવાન છે. અને અમુક વ્યક્તિ એકાન્ત પાપી જ છે, પરત તેમ માનવું બરોબર નથી, કેઈ પણ પદાર્થ એકાંતાત્મક નથી. બધે જ અનેકાન્ત પક્ષ જ હિતકર છે. તેથી જ કથંચિત્ કલ્યાણવાન અને કર્થ ચિત પાપવાન એ પ્રમાણેનો પક્ષ જ શ્રેયસ્કર છે. આ પ્રમાણેની સ્થિતિ હોવા છતાં અન્ય મતવાળા, એકાન્ત પક્ષને સ્વીકાર કરવાથી જે કર્મને : અંધ થાય છે, તેનાથી અજાણ છે, એજ કારણ છે કેતેઓ અનેકાન્તવાદને - એટલે કે અહિંસાને આશરો લેતા નથી. ૨૯ For Private And Personal Use Only Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एवम्-असेसमवैखयं वावि सव्वदुक्खेइ वा पुणो । वैज्झा पाणा ण वज्झत्ति, इति वायं में नीसरे॥३०॥ कापा-अशेषमक्षयं वापि सर्वदुःखमिति वा पुनः । अशा माणा न बध्याः इति, इति वाचं न तिम्सजेत् ॥३०॥ अन्वयार्थ:-(असेस) अशेष-सम्पूर्ण वा (अक्खयं) अक्षय-शाश्वतं. नित्यम् (घा पि) पापि (वा) वा-अथवा (पुगो) पुनः (सादुखेइ का) सर्व जगद् दुम्स स्पमिति वा न स्वीकुर्यात् एकान्तनित्यस्य एकान्तदुःस्वरूपस्याऽभावान (पाणा बमा न बत्ति) प्राणा-अपराधिनो जीवाः वध्याः-व्यापादयितुं योग्यार अथवा न वध्या:-अवध्या भवन्ति (इइ) इत्याकारकम् (वायं) वाचं-वचनम् (न नीसरे) मन्नैव साधुः निःसृजेन-देन, इति ॥३०॥ - 'असेसमक्खयं वाचि' इत्यादि। शब्दार्थ-'असेसं-अशेषम्' समस्त पदार्थ 'अकखयं-अक्षय' शाश्वत निस्थ है 'वा-वा' अथवा एकान्ततः अनित्य ही है 'पुणो-पुनः' फिर 'सव्व दुक्खेइ-सर्व दुःग्यम्' संपूर्ण जगत् दुःखमय है ऐसा मानना नहीं चाहिए 'पाणा वज्झा न वज्झंत्ति-प्राणाः वध्याः न बध्या' यह अप. राधी प्राणी वध करने योग्य है, अथवा वध करने योग्य नहीं है 'इइइति' इस प्रकार का 'वायं-वाचं' वचन भी 'न नीसरेह-न निमजेत' साधु को बोलना नहीं चाहिए ॥३०॥ __ अन्वयार्थ-समस्त पदार्थ शाश्वत नित्य हैं, अथवा एकान्ततः अनित्य ही हैं, सम्पूर्ण जगत् दुःखमय है, ऐसा नहीं मानना चाहिए। 'असेसमाखयं वावि' या शहाथ-'असे स-अशेषम्' सधा पार्थो ‘अक्खयं-अक्षय' शकत अर्थात् नित्य छे. 'वा-वा' या मेन्तत: अनित्य छे. 'पुणो-पुनः' anी 'सव्वदुक्खेइ-सर्व दुःखम्' 'पू सत् हु:समय छ, म भानपुन नसे. 'पाणा वज्झा न वज्झचि-प्राणाः वध्याः न वध्याः' मा अपराधी पाए भावाने यो५छ ? , भाव। योग्य नथी ? 'इइ-इति' मा प्रभारनी 'वाय-वाचं' qien ५५ 'न नीसरेइ-न निःसृजेतू' साधुणे मानवी मे. ॥३०॥ . भया-सा पा शाश्वत-नित्य छे. ४५१ सन्तत: અનિત્ય છે. સંપૂર્ણ જગત દુઃખમય છે. તેમ માનવું ન જોઈએ, આ રાપર For Private And Personal Use Only Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.५ आचार श्रुतनिरूपणम् टीका-'असे समक्खयं वावि' अशेष-सम्पूर्णम् अक्षय-शामतं यथा तथा जगति विद्यमानः सर्वोऽपि पदार्थ एकान्तरूपेष नित्यः 'वावि' वापि-अथवा एकान्तरूपेणाऽनित्य एव इत्येवं न मन्तव्यम् । अपितु सर्व नित्याऽनित्यात्मक मित्या विवेकिमिरादर्तव्यम् । तथा-'पुगो सम्बदुक्खेइ वा' पुनः सर्व दुःखमेवेत्यपि न मन्तव्यम् । चारित्रपरिणतेः सुखस्यापि दर्शनात् किन्तु-कश्चिद्दुःखा. स्मकम्, कश्चित्सुखात्मकञ्च 'पाणा वज्झा न वझति, इइ वायं न नीसरे' प्राणा वध्या न वध्या इति, एतादृशीम् 'वाय' वाचम्-बचो न निःसृजेत् । अपराधिन अपि माणिन इमे वध्याः-घातयितुं योग्या इति । अथवा-न वध्या इति, नैवं कथमपि साधुर्वदेत् , केवल दयार्थ यतेत । न हि कोऽपि-एकान्तरूपेण वध्योऽवध्यो वा, सर्वत्रैकान्तपक्षविरही अनेकान्त एव पक्षो मनोरमः ॥३०॥ यह अपराधी प्राणी वध करने योग्य है या वध करने योग्य नहीं है, इस प्रकार का वचन भी साधु को उच्चारण नहीं करना चाहिए ॥३०॥ ____टीकार्थ-जगत् में विद्यमान सभी पदार्थ सर्वथा नित्य हैं अथवा सर्वथा अनित्य है, ऐसा मानना युक्तिसंगत नहीं है। विवेकी जनों को सभी पदार्थ नित्यानित्य ही समझना चाहिए । इसके अतिरिक्त ऐसा भी नहीं कहना चाहिए कि यह सारा जगत् दुःखमय ही है। यहाँ चारित्रवानों की सुख परिणति रूप सुख भी देखा जाता है। अतएव जगत् दुःखमय भी है और सुखमय भी है। __ अमुक अपराधी प्राणी वध करने योग्य है या वह बध करने योग्य नहीं है, साधु को ऐसे वचन का प्रयोग भी नहीं करना चाहिए। साधु तो केवल दया के लिए उद्यम करे । अपराधी को वध રાધી પ્રાણી વધ કરવા યોગ્ય છે, અથવા વધ કરવા ગ્ય નથી. આ પ્રમાથતું વચન પણ સાધુએ બોલવું ન જોઈએ ૩૧ કાર્થ-જગમાં વિદ્યમાન સઘળા પદાર્થો સર્વથા નિત્ય છે, અથવા સર્વથા અનિત્ય છે, તેમ માનવું યુક્તિ યુક્ત નથી. વિવેકી રૂએ સઘળા પદાર્થો નિત્ય અને અનિય જ સમજવા જોઈએ. આના સિવાય એમ પણ જ કહેવું જોઈએ કે આ સમગ્ર જગત્ દુઃખમય જ છે, અહીંયાં ચારિત્રવા એની ચુખ પરિણતિ સુખરૂપ પણ દેખામાં આવે છે. તેથી જ જગત ખરક પણ છે અને સુખરૂપ પણ છે. અમુક અપરાધી પ્રાણુ વધ કરવાને ગ્ય છે, અથવા તે વધ કરવાને યોગ્ય નથી, સાધુએ એવા વચનને પ્રયોગ પણ કર ન જોઈએ. સાધુએ For Private And Personal Use Only Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५४८ सूत्रकृतासूत्रे मूलम्-दीसंति समियायारा भिक्खुणो साहजीविणो। एए मिच्छोवजीवंति ईइ दिटुिं न धारए ॥३१॥ छाया--दृश्यन्ते समिताचारा भिक्ष ः साधु नीविनः । .. एते मिथ्योपजीवन्ति, इति दृष्टिं न धारयेत् . अन्वयार्थः-(साहुजीविणो) साधुनीविनः (समियाया।) समिताचारा:-संय. मादिमन्तः (भिक्खु गो) भिक्षा-निरवधभिक्षणशीलाः (दीसंति) दृश्यन्ते (एए. करने योग्य कहने से हिंसा का अनुमोदन होता है और अवध्य कहने से अपराध का अनुमोदन तथा राजकीय कानून का विरोध होता है। अतएव ऐसे प्रसंग पर साधु को मौन ही रहना चाहिए ॥३०॥ 'दीसंति समियायारा' इत्यादि - शमार्थ-'साहुजीविणो-साधुनीविनः' निष्पाप जीवन व्यतीत करने वाले तथा 'समियायारा-समिताचाराः' यतना पूर्वक आचरण करनेवाले 'भिक्खुणो-भिक्षवः' निरवध भिक्षा ग्रहण करने वाले पुरुष 'दीसंति-दृश्यन्ते' देखे जाते हैं 'एए मिच्छोवजीवंति-एते मिथ्योपजीवन्ति' वास्तव में ये मिथ्याचारी हैं अर्थात् कपट पूर्वक आजीविका करते हैं 'इइ दिष्टुिं न धारए-इति दृष्टिं न धारयेत्' इस प्रकार की दृष्टि धारण करनी नहीं चाहिए ॥३१॥ - अन्वयार्थ-निष्पाप जीवन व्यतीत करने वाले तथा यतनापूर्वक તે કેવળ દયાને માટે જ પ્રયત્ન કરતા રહેવું. અપરાધીને વધ કરવાને ગ્ય કહેવાથી હિંસાનું અનુમોદન થાય છે, અને અવધ્ય કહેવાથી અપરાધનું અનુમાદન અને રાજકીય કાયદાને વિરોધ થાય છે. તેથી જ આવા પ્રસંગે સાધુએ મૌન જે ધારણ કરવું જોઈએ. એજ ઉત્તમ માર્ગ છે. ૩મા 'दीसंति समियायारा' त्या 'शा-'साहुजीविणो-साधुजीविनः' निहाप ५१५. १२D. 4. चाता पाणा तथा 'समियायारा-समिताचाराः' यतना' माय२५५. ४२१॥ 'पासा. 'भिक्खुणो-भिक्षवः' निर१ लिAL Aai y३५। 'दीसंति-दृश्यो ' वामां आवे छे.. 'एए मिच्छोवजीवंति-एते मिथ्योपजीवन्ति' वास्तqिsa तसा मिथ्यायारी छ, अर्थात् ४५८ पूर्व मालवा रे छ, 'इइ दिक्षिक धारए-इति दृष्टि न धारयेत्' । प्रमाणुनी टि २९ ४२वी न . usu અન્વયાર્થ-નિષ્પાપ જીવન વિતાવવાવાળા તથા યતના પૂર્વક આભાર For Private And Personal Use Only Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् ५४९ मिच्छोवजीवति) एते साधवो मिथ्योपनीवन्ति-सकपटजीविका कुन्नि (इइ दिर्टि न धारए) इति-एतादृशीं दृष्टिम् -दर्शनं ज्ञानम्, न-नैव धारयेत्-कुर्यादिति ॥३१॥ टोका-'साहुनोविणो' साधु नीविनः-साधुना विधिना जीवन्ति 'समियायारा' समिताचाराः-शास्त्रोक्तरोत्या आत्मसंपमान्तः तया शास्त्रप्रतिपादिताऽऽवारवन्तः । 'भिक्खुगो' भिक्षा-निरवधभिक्षणशीला:-उत्तमरीत्या जीवनयात्रायायापयितारः 'दीसति' दृश्यन्ते-नैते किमपि दुःखयन्ति शान्ता दान्ता जितेन्द्रिया जितकषायाः स्तिमिता इत्थंभूता भुवि विचरन्तः साबो दृश्यन्ते, 'एए' एते साधवः स्वदर्शनाऽनुयायिनः 'मिच्छोवनोवेति मिथ्योपजीवन्ति-मिथ्योपनीविनः एते साधुलिङ्गवारिणो न साधको वीतरागा' अपितु सरागा कपटरीत्या परवञ्च नादिना वा जेवन्ति । 'इइ दिहिँ न धारए-इति दृष्टिं न धारयेत्-नैवमभिप्राय आचरण करने वाले, निरवद्य भिक्षा ग्रहण करने वाले पुरुष देखे जाते हैं, वास्तव में ये सर्व मिथ्याचारी हैं, कपटपूर्वक आजीविका करते हैं, इस प्रकार की दृष्टि धारण नहीं करनी चाहिए ॥३१॥ टीकार्थ-प्रशस्त विधि से जीवन यापन करने वाले, शास्त्रोक्त रीति से संपम का पालन करने वाले, शास्त्रप्रतिपादित आचार से सम्पन्न, निर्दोष भिक्षा ग्रहण करने वाले महात्यागी साधु देखे जाते हैं। वे किसी को पीड़ा नहीं पहुंचाते । शान्त, दान्त, जितेन्द्रिय और कषायविजेता होकर इस भूतल पर विचरते हैं। ऐसे परहितकारी साधुओं के विषय में ऐसा नहीं समझना चाहिए कि ये मिथ्याचारी हैंकपटी हैं, साधु का वेष धारण करके भी साधु नहीं हैं, वीतराग नहीं हैं। किन्तु ये सराग हैं, मायाचार करके दूसरों को ठगते हैं। ......... કરવાવાળા નિવદ્ય ભિક્ષા ગ્રહણ કરવાવાળા જે પુરૂષ દેખવામાં આવે છે. તેઓ વાસ્તવિક રીતે મિથ્યાચારી છે. કપટ પૂર્વક આજીવિકા કરે છે. આ રીતની દષ્ટિ ધારણ કરવી ન જોઈએ. ૩૧ ટીકાથ–પ્રશસ્ત વિધીથી જીવન વીતાવવા વાળા તથા શાસ્ત્રોક્ત રીતે સંયમનું પાલન કરવાવાળા, શાસ્ત્રમાં પ્રતિપાદન કરેલ આચારથી યુક્ત નિર્દોષ ભિક્ષા ગ્રહણ કરવાવાળા મહાત્યાગી વૈરાગ્યમૂતિ સાધુએ જોવામાં આવે છે. તેઓ કોઈને પણ દુઃખ ઉપજાવતા નથી શાન્ત, દાન્ત, જીતેન્દ્રિય અને કષાયને જીતવાવાળા બનીને આ પૃથ્વી પર વિચરે છે એવા પરોપકારી - સાધુઓના સંબંધમાં એવું ન માનવું જોઈએ કે આ મિથ્યાચારી છે, કપટી છે; સાધુને વેષ ધારણ કરવા છતાં પણ તે સાધુ નથી. વીતરાગ નથી, પરંતુ : આતે સરાગ છે, માયાચાર કરીને બીજાઓને ઠગે છે. For Private And Personal Use Only Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir NABROTHER ५५० सूत्रकृतीशप कुर्यात् । इमे ने साधकः किन्तु वञ्चका इस्पेताहशीं मतिं कथमपि न कुर्यात् । परेषां चेतसोवृत्तेश्वार्वाग्रहमा ज्ञातुमशक्यत्यादिति ॥३१॥ मूलम्-दक्खिणाए पंडिलंभो, अस्थि वाणस्थिं वा पुणो। ण वियागरेज्ज मेहावी, संतिमांगं च बेहए ॥३२॥ छाया-दक्षिणायाः पतिलम्मा, अस्ति वा नास्ति वा पुनः । नव्यामृणीयाच्च मेधावी शान्तिमार्गश्च वर्धयेत् ॥३२॥ अन्वयार्थ:--(मेहावी) मेधावी-प्रज्ञावान् पण्डितः (दक्षिणाए) दक्षिणायाः तात्पर्य यह है कि ये साधु नहीं हैं, ठग हैं, इस प्रकार की बुद्धि साधुओं के विषय में नहीं धारण करनी चाहिए, क्यों कि अल्पज्ञ जीप दूसरों की चित्तवृत्ति को जान नहीं सकता है ॥३१॥ 'दक्षिणाए पडिलं मो' इत्यादि । शब्दार्थ-'मेहावी-मेधावी' प्रज्ञावान् पुरुष 'दक्खिणाए-दक्षि. पाया' अन्नादि दान की 'पडिलंभो-प्रतिलम्भा' प्राप्ति अमुक व्यक्ति के घर में होती है अथवा 'पुणो णस्थि वा-पुन: नास्ति वा' अमुक के घर में नहीं होती है 'ण विधागयेज्जा-न व्यायगीयात्' ऐसा कथन न करे किन्तु 'संतिमग्गं च बूहए-शान्तिमाग च वर्धयेत्' शान्ति मार्ग को चढावे अर्थात् जिस वचन से मोक्षमार्ग की सम्यक् आराधना हो उसी वचन का प्रयोग करे ॥३२॥ अन्वयार्थ-प्रज्ञावान पुरुष अन्नदान आदि की प्राप्ति अमुक के रवान' ता५य मेछ-मा साधु नथी. मछ, भावा. प्रारना વિચાર સાધુઓના સંબંધમાં રાખવું ન જોઈએ. કેમકે-અપગ્ર જીવ બીજાના ચિત્તના ભાવને સમજી શકતા નથી. ૩૧ . 'दक्षिणाए पडिलंभो' त्यादि शा-'मेहावी-मेधावी' मुद्धिमान ५३५ 'दक्खिणाए-दक्षिणायाः' मन विरे हानी पखिलंभो-प्रतिलम्भः' प्राति म ४ व्यतिना ५२म थाय , मया 'पुणो गत्थि वा-पुनः नास्ति वा' अभुना घरमा यती नथी, 'ण वियागरेग्जा-न व्यागृणीयात्' से प्रभा नही ५२ मंतिमग च जूहएशान्तिमार्ग व वर्धयेत्' aili भान १५.२ अर्थात् २ पाथी मोक्ष भागी સારી રીતે આરાધના થાય, એવા જ વચને પ્રવેશ કરે ૩રા અન્નયાર્થ–પ્રજ્ઞાવાન પુરૂ અન્નદાન વિગેરેની પ્રાપ્તિ અમ્રને ઘેર For Private And Personal Use Only Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. म. ५ आवारश्रुतनिरूपणम् -अस्मादिदानस्य (पडिलं भो) प्रतिळम्मा-माप्तिः (अस्थि वा) अमुकस्य गृहे समागता माप्तिर्भवतीति वा (पुणो णस्थि वा) पुनः नास्ति वा-पुनरथवा अमुकस्य गृहे अन्नादिप्रातिन भवतीति वा (ण वियागरेज्जा) न-ने व्यागृणीयातू-वदेत् किन्तु(संतिमग्गं च बृहर) शान्तिमार्गश्च वर्धयेत-किन्तु येन वचनेन मोक्षमार्ग: सम्यगाराधितो भवेत् तादृशमेव वचनं वदेदिति ॥३२॥ टीका--'मेहाको' मेवाती-सदविवेचनशी पुरुषः, 'दक्षिणाए' दक्षिगा-दानस्य 'पडिलंमो' प्रतिलम्मा प्रातिः 'अस्थि वा पुणो गरियका अस्ति वा पुनः नास्ति वा-अमुकगृहे सम्पय दान लभ्यते पुनः शुकहे अभादिदान सम्यक् न लभ्यते-इति वचः 'ण वियागरेज्जा' न पायगीयात् -एतादृशं वा कथमपि साधुभिर्न वक्तव्यं कस्यापि पुरतः। च-किन्तु 'संतिमर्ग च यूहए' शान्तिमार्ग च वधयेत् । 'ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूपो मोक्षमामों यथार्थ वर्धते वादशं शासनिर्णीत वचनं वाच्यम् ।।३२॥ घर में होती हैं अथवा अमुक के घर में नहीं होती है, ऐसा न कहे। किन्तु शान्तिमार्ग को घढावे अर्थात् जिसवचन से मोक्षमार्ग की सम्यक अाधना हो, उसी वचन का प्रयोग करे ॥३२॥ ___टीकार्य-सत् असत् की विवेचना करने में निष्णात पुरुष पेसे वचन म कहे कि अमुक के घर आहार दान आदि की सम्पक् प्राप्ति होती है और अमुक के घर प्राप्ति नहीं होती। साधु को किसी के सामने ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए परंतु शांति मार्ग को बहावे कि जिनसे ज्ञान दर्शन चारित्र और तप रूप मोक्षमार्ग की वृद्धि हो ॥३२॥ થાય છે, અથવા અમુકને ઘેર થતી નથી તેમ ન કહેવું. પરંતુ શાંતિમાર્ગને વધારે અર્થાત જે વચનથી મોક્ષ માર્ગની સમ્યફ આરાધના થાય એવા વચનને પ્રવેશ કરે છેરા ટીકાથ-સત્ અને અસનું વિવેચન કરવામાં કુશળ પુરૂષ એવા વચન ન કહે કે-અમુકના ઘરમાં આહાર દાન આદિની સારી પ્રાપ્તિ થાય છે, અને અમુકના ઘરમાં પ્રાપ્તિ થતી નથી. સાધુએ કેઈને પણ તેમ કહેવું ન જોઈએ. તેમણે એવા જ વચને પ્રગ કર જોઈએ કે જેનાથી જ્ઞાન, દર્શન, ચારિત્ર અને તપ રૂપ મેક્ષમાર્ગને વધારે થાય, માસરા For Private And Personal Use Only Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्ग मूलम्-इच्चेएहिं ठाणेहि जिंणदिडेहिं संजए। धारयंते उं अप्पाणं आमोक्खाय परिवएजासि ___ तिबेमि ॥३३॥ खाया--इत्येतैः स्थान जिनदृष्टैः संपतः । - धारयस्तास्मानम् आमोक्षाय परिप्रजेदिति ब्रवीमि ॥३३॥अन्वयार्य:--(च्चेपहि) इत्येतैः-पूर्वोक्तपदर्शितैः (जिणदिवेहि) जिनदृष्टैःतीर्यकरपदर्शितैः (ठाणेहि) स्थान: (संनए) संयतः- युक्तः साधुः (अप्पाणं धारः संते उ) आत्मानं धारयन् तु (आमोक्खाय परिषएज्जासि) अमोक्षाय-मोक्षपाति पर्यन्तं परिव्रजेत्-संयमपालनं कुर्यादिति सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनं कथयति इत्येवमहं ब्रवीमि-कथयामीति ॥३३॥ पच्चेएहिं ठाणेहि' इत्यादि। ... शब्दार्थ-'इच्चेएहि-इत्येतेः' इस अध्ययन में पूर्वोक्त जिणदिहिजिनदृष्टैः' जिन भगवान् द्वारा प्रदर्शित 'ठाणेहि-स्थानः' स्थानों के द्वारा 'संजए-संयतः साधु 'अप्पाणं धारयंते उ-आत्मानं धारयन् तु' अपनी आत्मा को संयम में धारण करता हुआ आमोक्खाय परिचएज्जासिआमोक्षाय परिव्रजेत्' तब तक संयम का पालन करता रहे कि जबतक मोक्ष प्राप्त न हो जाय 'त्तिबेमि-इति ब्रवीमि' ऐसा मैं कहता हूं ॥३३॥ अन्वयार्थ-'इम अध्ययन में प्रतिपादित पूर्वोक्त जिन भगवान के बारा दृष्ट स्थानों के द्वारा साधु अपनी आत्मा को संयम में धारण करता हुआ तब तक संयम का पालन करता रहे जब तक मोक्ष न प्राप्त हो जाय । ऐसा मैं कहता हूं ॥३३॥ 'इच्चेएहि ठाणेहि' त्यादि साथ-इच्चेएहि-इत्येतैः' मा अध्ययनमा पूर्वरित न माने मतावता 'ठाणेहि-स्थान' स्थानोथी 'संजए-संयतः' साधु- 'अप्पाणं धारए उआत्मानं धारयन् तु' मामाने सयममा घा२९५ ४२ता ५४, 'आमोक्खाय परिवएज्जासि-आमोक्षाय परिब्रजेत्' या सुधी मोक्ष प्राप्त न थाय त्या सुधी સંયમનું પાલન કરતા રહેવું. એ પ્રમાણે હું કહું છું. ૩૩ અન્વયાર્થ–આ અધ્યયનમાં પ્રતિપાદન કરેલ પૂર્વોક્ત જીન ભગવાન દ્વારા બતાવેલ સ્થાને દ્વારા સાધુ પિતાના આત્માને સંયમમાં ધારણ કરતા થયા ત્યાં સુધી સંયમનું પાલન કરતા રહે કે જ્યાં સુધી મોક્ષ પ્રાપ્ત ન થાય, मे प्रमाणे ः ॥33॥ For Private And Personal Use Only Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् ___टीका-'इच्चे रहि' इत्येतेः 'जिणदितुहिः-तीर्थकरोक्तैः-'ठाणेहि स्थान 'संजए' संयतः-युक्तः साधुः 'अप्पाणं' आत्मानम् 'धारयंते उ' धारयंस्तु 'आमो. स्वाय' आमोक्षाय 'परिचएग्जासि' परिव्रजेत् मोक्षपर्याप्तिपर्यन्तं संयमं पालये. दित्यर्थः । एतदध्ययनोक्तं जिनवचनं श्रुत्वा तदनुष्ठानेन स्वात्मानं धारयन्-स्थिरी. कुर्वन् मोक्षार्थ प्रयत्नो विधेय इति । 'तिवेमि' इति ब्रवीमि, इति-सुधर्मस्वामी कथयति जम्बूस्वामिनं मति, इति भावः ॥३३॥ इति श्री-विश्वविख्यात नगद्वल्लभादिपदभूषितवालब्रह्मचारि - 'जैनाचार्य' पूज्यश्री-घासीलालबविविरचितायां श्री सूत्रकृताङ्गसूत्रस्य "समयार्थबोधिन्याः . ख्यया" व्याख्यया समलङ्कृतम् द्वितीयश्रुतस्कन्धे आचारश्रुतनामकम् । पञ्चममऽध्ययनं समाप्तम् ॥२-५॥ टीकार्थ-तीर्थकर भगवान के द्वारा दृष्ट एवं उपदिष्ट स्थानों में अपनी आत्मा को धारण करतो हुआ साधु मोक्षप्राप्ति पर्यन्त संयम का पालन करे। अर्थात् इस अध्ययन में प्ररूपित जिनवचनों को सुन कर, उनके अनुसार आचरण करता हुआ, उनमें अपने को स्थिर करता हुआ, साधु मोक्ष के लिए प्रयत्नशील रहे । अर्थात् जय तक मोक्ष प्राप्ति नहीं हो तब तक संयम का पालन करे। सुधर्मास्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं-हे जम्बू! जैसा मैंने भगः वान् से सुना है वैसा ही तुम्हें कहता हूं ॥३३॥ जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत __ “सूत्रकृताङ्गसूत्र" की समयार्थयोधिनी व्याख्या के द्वितीय श्रुनस्कन्ध का पंचम अध्ययन समाप्त ॥२-५॥ ટીકાથું–તીર્થકર ભગવાન દ્વારા બતાવેલ અને ઉપદેશેલ સ્થાનમાં પિતાના આત્માને ધારણ કરતા થકા સાધુ દેશની પ્રાપ્તિ થતા સુધી સંયમનું પાલન કરે. અર્થાત્ આ અધ્યયનમાં પ્રરૂપણ કરેલ જીતવચનેને સાંભળીને તે પ્રમાણે આચરણ કરતા થકા તેમાં પિતાને સ્થિર કરતા થકા સાધ મેક્ષ માટે પ્રયત્નવાનું રહે અર્થાત જ્યાં સુધી મોક્ષની પ્રાપ્તિ ન થાય ત્યાં सुधी यमर्नु पालन ४२. સુધમ સ્વામી જંબૂ સ્વામીને કહે છે કે—હે જબૂ! મેં ભગવાન પાસેથી જે પ્રમાણે સાંભળ્યું છે, એ જ પ્રમાણે તમેને કહું છું. . ૩૩ જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત ‘સૂત્રકૃતાંગસૂત્રની સમયાર્થ બેધિની વ્યાખ્યાનું બીજા ભુતસ્કંધનું પાંચમું અધ્યયન સમાસ /૨-પા सू० ७० For Private And Personal Use Only Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्र ॥ अथ पष्ठमध्ययनमारभ्यते ॥ अथ श्री. आर्द्रककुमारकथाधनधान्यसमद्धे मगध ननपदे आसीद्वसन्तपुरनामनगरम् । तत्र सदा सामान यिकपालनतत्परः सामायिको नाम कुटुम्बी प्रतिवसति । तस्य सदोरकमुखवत्रिका प्रमाणिकाऽऽसनादिकसामायिकोपकरणानि अतीव पियाणि आसन् । स पतिदिन मुभयकालं, सामायिक कुर्वन् आस्ते । तस्य सफलोऽपि कुटुम्बः सामायिकप्रिय एव । स च संसारासारतां ज्ञात्वा संसाराद्विरक्तः सपत्नीकः समन्तभद्राचार्यसमीपे पत्रजितः, स संयममाराधयन् साधुभिः सार्ध विहरति । सोऽन्यदा स्व. पत्नी साध्वी भिक्षामटन्तीं दृष्ट्वा तथाविधमोहोदयान पूरितारनुस्मरणेन तस्या छढे अध्ययन का प्रारंभ आईक कुमार की कथा धन और धान्य से ममृद्ध मगध प्रदेश में वसन्तपुर नामक नगर था। वहां सदा सामायिक व्रत का आचरण करने वाला सामायिक मामक गृहस्थ निवास करता था। उसे डोरा युक्त मुखवस्त्रिका, पूजनी, आसन आदि सामायिक के उपकरण अत्यन्त प्रिय थे। वह प्रतिदिन दोनों समय सामायिक किया करता था। उसका सारा परिवार सामायिक का प्रेमी था। वह संसार की असारता को जान कर संसार से विरक्त होकर पत्नी सहित समन्तभद्राचार्य के समीप दीक्षित हो गया। संयम की साधना करता हुआ वह साधुमों के साथ विचरने लगा। उसकी पत्नी साध्वियों के साथ विचरने लगी। वह एक बार अपनी छ। अध्ययनमा प्रारंभ भाद्र उभारनी ४था--- ધન અને ધાન્યથી ભરેલા મગધ દેશમાં વસન્તપુર નામનું નગર હતું ત્યાં હંમેશાં સામાયિક વ્રતનું આચરણ કરવાવાળા, સામાયિક નામના ગૃહસ્થ રહેતા હતા, તેમને દેરા યુક્ત મુખવસ્ત્રિકા-મુહપત્તી-પૂજની, આસન, વિગેરે સામાયિકના ઉપકરણે ઘણા પ્રિય હતા, તેઓ દરરોજ બને સમયે સામાયિક કરતા હતા, તેમને બધે પરિવાર સામાયિકમાં પ્રેમવાળો હતો. તે સંસારની અસારતાને સમજીને સંસારથી વિરક્ત થઈને પિતાની પત્નીની સાથે “સમન્ત ભદ્રાચાર્ય' નામના આચાર્યની પાંસે દીક્ષિત થયા. સંયમની આરાધના કરતા થકા તે સાધુઓની સાથે વિહાર કરવા લાગ્યા, તેમની પત્ની સાથ્વીની સાથે વિહાર કરવા લાગી. તે એકવાર પિતાની સાથ્વી For Private And Personal Use Only Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रककुमारचरितम् मासक्तो जातः, ततस्तस्याऽभिप्रायः केनाऽपि साधुना प्रत्तिन्यै निवेदिता, सा च पवर्तिनी तां समाहूर कथितरती, ततः सा सपतिमनुरक्तं ज्ञात्वा भक्तप्रत्याख्यानं कृत्वा परित्यज्य स्वदेहं दशमे देवलोके गता। ततो विदितत्तः स साधुरपि गुरुमापृच्छय भक्तं प्रत्याख्याय दशमे देवलोके देवत्वेन समुत्पन्नः । ततऽयुत्वा आई कपुरे नगरे रिपुमर्दनभूपस्य आई वतीनाम्न्यां देव्याम् आई ककुमारनाम्ना पुत्रो जातः, तत्पत्नी अपि स्वर्गच्युमा धनपतिष्ठिरः पुत्रीरूपेण काममञ्जरी. नाम्ना समुत्पन्ना। अपूर्वरूपलापसम्मन्ना तारुण्यमवाप्तवती। अथाऽन्यदा साध्वी पत्नी को भिक्षार्थ भ्रमण करती देख कर मोहकर्म के उद्य से तथा पहले भोगे हुवे भोगों का स्मरण हो आने से उस पर आसक्त हो गया। किसी साधुने उसके अभिप्राय को जान कर प्रवर्तिनी से कह दिया। प्रवर्तिनी ने उस साध्वी को बुला कर समग्र वृत्तान्त कहा। साध्वी ने अपने पति को अपने प्रति अत्यंत अनुरक्त जान कर भक्तप्रत्याख्यान करके देह का त्याग कर दिया, वह दशम देवलोक में गई। तत्पश्चात् जब उस साधु को यह वृत्तान्त विदित हुआ तो उसने भी अपने गुरु से आज्ञा प्राप्त करके भक्तपत्याख्यान किया। वह भी दशम देवलोक में देव हुआ। देवलोक की स्थिति पूर्ण करके वह देव आद्रकपुर नगर में रिपुमदन नामक राजा की आर्द्रवती नामक रानी की कुंख से पुत्र रूप में जन्मा, उसका आईक कुमार नाम हुआ। उसकी पत्नी भी स्वर्ग से પત્નીને ભિક્ષાને માટે ભ્રમણ કરતી દેખીને મોહકર્મના ઉદયથી, તથા પહેલાં ભગવેલા ભેગેનું સ્મરણ થઈ આવવાથી તેના પર આસક્ત થઈ ગયા કોઈ સાધુએ તેને હેતુ સમજીને પ્રવર્તિનને કહી દીધું. પ્રવર્તિનીએ તે સાધ્વીને લાવીને બધે વૃત્તાંત કહ્યો. સાધ્વીએ પિતાના પતિને પિતા પ્રત્યે અનુરાગવાળે જાણીને ભકત પ્રત્યાખ્યાન કરીને શરીરને ત્યાગ કર્યો. તે દશમા દેવલોકમાં ગઈ તે પછી જ્યારે તે સાધુને આ વૃત્તાન્તની ખબર થઈ તે તેણે પણ પિતાના ગુરૂની આજ્ઞા લઈને ભકતપ્રત્યાખ્યાન કર્યું. અર્થાત આહાર પાણિનો ત્યાગ કરીને શરીરને ત્યાગ કર્યો અને તે પણ દેશમાં દેવલેકમાં દેવ થયો. દેવકની સ્થિતિ પૂર્ણ કરીને તે દેવ આર્દક નગરમાં રિમર્દન નામના રાજાની આદ્રકવતી નામની રાણીની કૂખથી પુત્ર રૂપે જન્મ ધારણ કર્યો અને તેનું નામ આદ્રકકુમાર એ પ્રમાણે રાખવામાં આવ્યું. તેની પત્ની પણ સ્વર્ગથી ચવીને ધનપતી નામના શેઠિયાને ઘેર પુત્રીપણાથી જન્મી. અને તેનું નામ કામમંજરી એ પ્રમાણે રાખવામાં આવ્યું તે કાળે કરીને અદૂભૂત રૂપ અને લાવણ્યથી યુક્ત થઈને તરૂણાવસ્થાને પ્રાપ્ત થઈ For Private And Personal Use Only Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५५६ सूत्रकृतागास्क आईकपिता रिपुर्द भू राजगृहे श्रेणिकस्य राज्ञः स्नेहवर्द्धनार्थ प्राभृतं प्रेषितवान् तदवसरे आर्द्र केण पृष्ठं तस्य श्रेणिकस्य राज्ञः पुत्रोऽपि विद्यते न वेति, तत स्तपित्रा रिपुदनेन कथितं सकलकलानिपुणो विलक्षणलक्षणपूर्गों विविधविद्या. निपुणो विनीतो विद्यतेऽभयकुमारनामा श्रेणिकस्य पुत्र इति, तदनन्तरम् आई को. ऽपि अभयकुमाराय प्राभृतं प्रेषितवान् । भूपभृत्यो राजगृहे गत्वा श्रेणिकभूषायपाभूतं निवेदितवान् श्रेणिकेण राज्ञा संमानितश्व, अकमहितं प्राभृतम् अभयकुमाराय दत्तवान कथितस्नेहवचनम्, ततोऽभयकुमारेण चिन्तितं नूनमसौ भव्यः आसनसिद्धियोग्यो यो मया सह प्रीतिमिच्छति । ततोऽभयकुमारेण सविधिचव कर धनपति श्रेष्ठी के घर पुत्री के रूप में जन्मी। उसका नाम काममंजरी रक्खा गया। वह अद्भुत रूप लावण्य से युक्त होकर तरुणावस्था को प्राप्त हुई। एकवार आक के पिता रिपुमर्दन राजाने राजगृह नगर में श्रेणिक राजा की प्रीतिवृद्धि के लिए कोई उपहार भेजा। उस समय आईकने पूछा-श्रेणिक राजा का कोई पुत्र है या नहीं ? किसीने कहा कि समस्त कलाओं में कुशल अद्भुन लक्षणों से सपन्न, अनेक विद्याओं का वेत्ता और विनयवान् अभयकुमार नामक श्रेणिक का पुत्र है। तष आर्द्रक ने भी अभयकुमार को उपहार भेजा। रिपुमर्दन के सेवक ने राजगृह जाकर श्रेणिक राजा को उपहार (भेट) समर्पित किए। श्रेणिक ने उसका सन्मान किया। आईक के द्वारा प्रेषित उपहार अभयकुमार को दिया, स्नेहपूर्ण वचन भी कहे। अभय कुमार ने विचार किया। वह (आक) भय और शीघ्र मोक्षगामी होना એકવાર આદ્રકકુમારના પિતા રિપુમન રાજાએ રાજગૃહનગરમાં શ્રેણિક રાજાની પ્રીતિ વધારવા માટે કેટલિક ભેટ મોકલી તે વખતે આદ્રકે પૂછ્યું કે-શ્રેણિક રાજાને કઈ પુત્ર છે કે નહી ? કેઈએ કહ્યું કે-સઘળી કળાએમાં કુશળ, અદૂભૂત લક્ષણેથી યુક્ત, અનેક વિદ્યાઓને જાણનાર અને વિનય યુક્ત અભયકુમાર નામને શ્રેણિક રાજાને પુત્ર છે. ત્યારે આદ્રકે પણ અભયકુમાર માટે ભેટ મોકલી. રિપુમદનના સેવકે રાજગૃહ નગરમાં જઈને શ્રેણિક રાજાને ભેટ અર્પણ કરી. શ્રેણિક રાજાએ તેનું સન્માન કર્યું. આદ્રકે મલેલ ભેટ અભયકુમારને આપી અને સનેહયુક્ત વચને પણ કહ્યા. અભયકુમારે વિચાર કર્યો કે -તે આદ્રક ભવ્ય અને શીધ્ર મોક્ષગામી હે જોઈએ. કે જે મારી સાથે For Private And Personal Use Only Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थयोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रककुमारचरितम् सामायिकपुस्तक सदोरकमुख वत्रिका प्रमानिकारजोहरणं सामायिकयोग्यमासना. दिकं च प्रेषितं कथितं च २.साभृतिकम् एकाने द्रष्टरूपम् । स च मृत्य आईकपुर गत्वा यथोक्तं कथयित्वा अभयकुमारेण प्रपेतमाभूतमर्पयदा ककुमाराय, आईककुमारश्च तादृशमामृतकम् एकान्ते दृष्ट्वा सञ्जातजातिस्मरणः सन् धर्मे प्रतिबुद्धो मातः, ततः संयमजिज्ञासावन्तं पुत्रं ज्ञात्वा तपिता चिन्तयति, ततः कचिद. न्यत्रापि ममपुत्रो गमिष्यतीति मनसि कृत्वा अन्यत्र मा गच्छतु इति भयात् पञ्च. शनमुभटै नित्यं रक्षितः ततः आर्द्र कोऽश्वशालायां गत्वा प्रधानाऽश्वेन पलायित. चाहिए जो मेरे माथ प्रीति करने की अभिलाषा रखता है । यह सोच कर उसने आईक के लिए सविधि सामायिक की पुस्तक, डोरा सहित मुखवस्त्रिका, पूजनी, रजोहरण तथा सामायिक के योग्य आसन आदि भेजे और उन्हें एकान्त में देखने के लिए कह दिया। सेवक आर्द्रकपुर पहुंचा। अभयकुमार का संदेश कह कर उसने आईक कुमार को वह उपहार दिये। आर्द्र कुमार ने वह उपहार एकान्त में देखे तो उसे जातिस्मरण उत्पन्न हो गया। वह धर्म में प्रतिबुद्ध हुआ। आद्रक को अब संयम ग्रहण करने की इच्छा हो गई। यह देख कर पिता विचार करने लगा-यह कहीं भाग जाएगा। कहीं भाग न जाय, इस भय से राजा ने उसकी देखभाल के लिए पांच सौ योद्धा नियुक्त कर दिए। फिर भी आर्द्रककुमार अश्वशाला में जाकर और वहाँ से एक बढिया घोड़ा लेकर भाग गया। સહ રાખવાની ઈચ્છા રાખે છે. આમ વિચારીને તેણે આદ્રકુમાર માટે સવિધિ સામયિકનું પુસ્તક, દેરા સહિત મુખવસ્ત્રિકા-મુહપત્તી, પૂજની અને રજોહરણ તથા સામાયિકને યોગ્ય આસન વિગેરે મોકલ્યા. અને તેને એક ન્તમાં જોવાનું કહી મોકલાવ્યું સેવકે આદ્રકપુર પહોંચીને અભયકુમારને સંદેશો કહીને તેણે આદ્રક કુમારને તે ભેટ આપી. આદ્રકુમારે તે ભેટ એકાન્તમાં જોઈ તે તેને જાતિસ્મરણ જ્ઞાન ઉત્પન્ન થયું. અને તેથી ધર્મમાં પ્રતિબુદ્ધ થયે અ દ્રક કુમારને હવે સંયમ ધારણ કરવાની પ્રબળ ઈચ્છા થઈ ગઈ તે જોઈને તેના પિતા વિચાર કરવા લાગ્યા કે-આ કયાંક ભાગી જશે, તે કર્ષાઈ ભાગી ન જાય એટલા માટે રાજાએ તેની દેખરેખ માટે પાંચ દ્ધાઓની નીમણુક કરી. અર્થાત તેના રક્ષણ માટે પાંચસે દ્ધાઓ રાખ્યા તે પણ આદ્રકકુમાર અશ્વ શાળામાં જઈને અને ત્યાંથી એક ઉત્તમ ઘેડો. લઈને નાશી ગયા. For Private And Personal Use Only Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५५८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे वान् ततः पव्रज्यां गृह्णन् देवेन निषिद्ध, भो भो मित्र ! सम्मति - भोगावली कर्म aafशष्टं विद्यतेऽतो दीक्षां मा गृहाण, तथापि - परमवैराश्यसम्पन्नः मत्रजितो वसन्तपुरे रम्यके द्याने मिक्षुप्रतिमां प्रतिपन्नः रान कायोत्सर्गे स्थितः । प्रतिमास्थित दृष्ट्वा ततः सवयस्काभिः सहचरोभिः क्रीडन्त्या श्रेष्ठिदारिकया काम खर्या अयं मम भर्त्ता इत्युक्ते सति सन्निहितदेवेन सद्भिद्वादशकोटिमिता सुवर्णदृष्टिः कृता । राजा तत्सुवर्ण गृह्णन् देवेन निषिद्धः, इदं सुवर्णमस्या एव बालिकायाः, तत स्वत्पित्रा गृहीतं सुवर्णम् अनुकृोपसगं ज्ञात्वा आर्द्रकमुनिरन्यत्र गतः । इतः पुत्रीकरणार्थं राज्ञा समाहूता कुमाराः स्वयम्बरे समायान्ति' पुत्र्या कथितं जब वह दीक्षा ग्रहण करने लगा तो देवताने उसे रोका और कहा- हे मित्र ! तुम्हारा भोगावती कर्म अभी तक शेष है, इस कारण दीक्षा मत अंगीकार करो। परन्तु वैराग्य की उत्कृष्टना के कारण उसने दीक्षा ले ली । एक बार आर्द्रक मुनि वसन्तपुर नगर के रम्यक उद्यान में भिक्षु की प्रतिमा अंगीकार करके कायोत्सर्ग में स्थित था। प्रतिमा स्थित मुनि को देख कर अपनी समवयस्क सहेलियों के साथ क्रीड़ा करती हुई सेठ की लड़की काममंजरी ने कहा- 'यह मेरा पति है।' इस प्रकार कहते ही देवने साढ़े बारह करोड़ सोनैया की वर्षा की। उस स्वर्ण को राजा ग्रहण करने लगा । देवने उसे रोक कर कहा- यह स्वर्ण इस बालिका का ही है। तब बालिका के पिता ने वह स्वर्ण ले लिया। अनुकूल उपसर्ग समझ कर आर्द्रक सुनि वहां से अन्यत्र चले गए । જ્યારે તે દીક્ષા ધારણ કરવા લાગ્યા ત્યારે દેવાએ તેને દીક્ષા ન લેવા સૂચન કર્યું” અર્થાત્ રોકવા પ્રયત્ન કર્યો અને હ્યું કે-ડે મિત્ર! તમારે ભગવવાનુ ક્રમ હજી ખાકી છે, તેથી તમે દીક્ષા ન લે, પરંતુ વૈરાગ્યના ઉત્કૃષ્ટપણાને લીધે તેણે દીક્ષા લઈ લીધી એકવાર આ કમુનિ વસન્તપુર નગરના રમ્યક ઉદ્યાનમાં ભિક્ષુની પ્રતિમાના સ્વીકાર કરીને કાર્યસત્રમાં સ્થિત હતા. પ્રતિમામાં સ્થિત રહેલા મુનિને જોઈ ને પોતાની સરખી .ઉમ્મરવાળી સાહેલીયાની સાથે ક્રીડા કરી રહેતી શેઠની પુત્રી કામમાંજરીએ કહ્યુ` કે-આ તા મારા પતિ છે, આ પ્રમાણે કહેતાં જ ધ્રુવે સાડાબાર કરોડ સેાના મહારાના વર્ષાદ વરસાન્યા. તે સેનાને રાજા લેવા લાગ્યા, તેથી દેવે રાજાને રાકીને ગૃહ્યું કે-આ સેતું. ખાલિ કાનુ જ છે. ત્યારે તે ખાલિકાના પિતાએ તે સેાનું લઇ લીધું. અનુકૂળ ઉપસર્ગ સમજીને આદ્રકમુનિ ત્યાંથી ખીજે ચાલ્લ્લા ગયા. For Private And Personal Use Only Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५५९ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आईककुमारचरितम् हे तात! एते कुमाराः स्वस्वस्थानं यान्तु अहं तु आई काय दत्ता यत्सम्बन्धिधनं त्वया गृहीतम्, पित्रोक्तं तत्वं कथं जानासि, तयोक्तं ज्ञानदर्शनाजानामि । ततो राजा पुच्या दानशाला प्रारब्धा, दानशालायां स्थिता सती भिक्षार्थियोऽन्नदानं ददाति। ततो द्वादशवर्षेषु व्यतीतेषु सत्सु कदाचिद्भवितव्यवशादसौ आर्द्रकमुनि स्तत्रैव विर. रन गतः पादचिन्नदर्शनादुपलक्षितच तया, ततः सा बाला सपरिवारा तत्पृष्ठे गता, आककुमारोऽपि देवतावचनं स्मरन् ताशकर्मोदयात् पतिभग्नवतः सन् तया सार्ष भोगं मुन्नानो विहरति एकः पुत्रोऽपि जातः, आद्रकेण कथितं तव पुत्रोऽभूमि इधर उस लड़की को वरण (स्वीकार) करने के लिए अनेक कुमार आने लगे। लड़की ने कहा-पिताजी। यह वर अपने अपने स्थान पर चले जाएं। मैं तो आईक को दी जा चुकी हूं, जिसका धन आपने ग्रहण किया है। पिता-तुझे यह कैसे पता चला ? लड़की-ज्ञान दर्शन के बल से। तत्पश्चात् सेठ की लड़की ने दानशाला प्रारंभ की। वह दानशाला में रह कर भिक्षुकों को दान दिया करती थी। पारह वर्ष व्यतीत हो जाने के बाद होनहार के अनुसार आर्द्रक मुनि विवरते-विचरते वहीं आ पहुंचे। उनके चरणों के चिह्न देख कर लड़की ने उन्हें पहचान लिया। वह अपने परिवार के साथ उनके पीछे पीछे गई। आईककुमार भी देवता के वचन का स्मरण करता हुआ कर्मोदय के वशीभूत होकर तथा व्रतों को भंग करके उसके साथ भोग भोगने लगा। समय बीतने पर एक આ તરફ તે કન્યાને વરવા માટે અનેક કુમાર આવવા લાગ્યા. કન્યાએ -पिता ! मा मा पोत पाताने स्थान यादया गय. हुता આદ્રક કુમારને વરી ચૂકી છું. કે જેનું ધન આપે સ્વીકારેલ છે. અર્થાત अब यु छ, . શેઠે કહ્યું–તને તે કેવી રીતે માલુમ પડ્યું ? न्या-ज्ञान शनना था. તે પછી શેઠની તે કન્યાએ દાનશાળા બેલી, તે દાનશાળામાં રહીને ભિક્ષુકને દાન આપ્યા કરતી હતી. બાર વર્ષ વીત્યા પછી હેનહાર (થવા કાળના બળથી) પ્રમાણે આદ્રક મુનિ વિચરતા વિચરતા ત્યાં જ આવી પહોંચ્યા. તેના ચરણેના ચિન્હને જોઈને તે કન્યાએ તેને ઓળખી લીધા, તે પિતાના કુટુંબની સાથે તેઓની પાછળ પાછળ ગઈ આદ્રકકુમાર પણ દેવે ના વચનને સ્મરણ કરતા કરતા કર્મોદયને વશ થઈને તથા વ્રતને ભંગ કરીને તેની સાથે ભેગ ભેગવવા લાગ્યા. અને તેનાથી તેમને એક For Private And Personal Use Only Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६० सूत्रकृताङ्गसूत्रे वोहकः, अह स्वकार्य संयमरूपमाचरामि, तया सुतज्ञापनार्य सूत्रकर्तनमारब्धं पृष्टं च पुत्रेण हे मातः ! किमिदमारब्धं त्वया, तयोक्तं हे पुत्र ! तब पिता पत्रज्यां ग्रहीष्यति त्वं च शिशुः द्रव्याऽर्जनेऽसमर्थः कोऽस्माकं रक्षका स्यात् । ततो. ऽहमनया वृत्या जीवनमिच्छामीति, हे मातः ! अहंतातं बध्नामि क्व यास्यतीति । ततस्तेन बालेन तस्कारोस्पन्नबुद्धया तस्कर्तितमूत्रेण मञ्चोपरि सुप्तः पिता वेष्टितः, पित्रा चिन्तितं यावन्तोऽमी वेष्टनमूत्रतन्तव स्तावद्वर्षाणि मयाऽत्र स्थावस्थायां स्थातव्यं भवेत् । तन्तवश्व द्वादश, ततोऽसौ द्वादशवर्षाणि गृहे स्थितः ततः प्रवजितः सूत्रार्थनिपुण एकाकी विहरन् राजगृहं प्रति पस्थितः । तदन्तराले तदक्षणार्थ पुत्र भी उत्पन्न हो गया। तय आईक ने कहा तुम्हारा निर्वाह करने वाला यह पुत्र हो गया है, अब मैं अपना कार्य संयमपालन करूंगा। तय काममंजरी ने अपने लड़के को जताने के लिए सूत कातना आरंभ किया। यह देखकर लड़के ने कहा-माता, तूने यह क्या शरु कर दिया है ? ४माता-तुम्हारे पिता दीक्षा अंगीकार करेंगे और तुम अभी बच्चे हो, द्रव्य उपार्जन नहीं कर सकते। मेरा रक्षक कौन है ? मृत कांत कर ही में अपनी आजीविका चलाऊंगी। __ लड़का-माता, मैं पिताजी को बांध कर रक्खूगा। आखिर जाएंगे कहाँ ? तपश्चात् उस बालक को उसी समय एक युक्ति (सूझ) पैदा हुई। उसने माता का कांता सूत लेकर मांचे पर सोये पिता को लपेट दिया। पिता ने विचार किया-जितने लपेटे यह लगाएगा उतने वर्षों तक मैं घर में रहूंगा। પુત્ર પણ થયું. તે પછી આર્દકે કહ્યું કે–તમારે નિર્વાહ કરવાવાળે આ પુત્ર થઈ ગયો છે, હવે હું મારું સંયમ પાલનનું કાર્ય કરૂં. ત્યારે કામમં. જરીએ પિતાના પુત્રને સમજાવવા માટે સૂતર કાંતવાને આરંભ કર્યો. તે हेभान तना पुत्र यु 2-3 भा! ते मा शुश३ ४२ छ ? માતા–તમારા પિતા દીક્ષા અંગીકાર કરશે, અને તું હજી નાને છે, તેથી ધન કમાઈ શકીશ નહી. તે મારૂ પિષણ અને રક્ષણ કે શું કરશે? તેથી સૂતર કાંતીને જ મારી આજીવિકા ચલાવીશ. ।७२- भा. भा। पिताने मांधीन मत्र १ रामोश. તે પછી વિચાર કરતાં તે બાળકને તે સમયે જ એક યુક્તિ (સમજ) સુજી આવી તેણે માતાએ કાંતેલ સૂતર લઈને ખાટલા પર સૂતેલા પિતાને વીંટાળી દીધું. તેના પિતાએ વિચાર કર્યો કે-આ છેક જેટલા આંટા વીંટાળશે. मेटा वर्षी सुधी ३२ २ही.. For Private And Personal Use Only Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि.श्रु. अ. ६ आईककुमारचरितम् यानि पूर्व तत्पित्रा पश्चसु भटशतानि नियुक्तानि तानि कुमारे पलायिते सति राजभयात् ततो निर्गल्य तत्राटव्यां चौरवृत्या जीवन्ति, तैराकमुनि दृष्टः उपलक्षितच, तेन मुनिना पृष्टास्ते किमिदम् अनार्य कर्म आरब्धं युष्माभिः, तैश्च राजभयादिकं इथितम् आई का निवचनात् पबुद्धा ते प्रत्रजिताः । तथा राजगृहनगरप्रवेशे हस्तिनापब्रह्मणश्च वादे पराजिताः, आर्द्रकमुनेर्मागें कश्चिद् राजा कृतसैन्यनिवेशो विद्यते तस्य राज्ञो हस्ती आलानबद्धोऽस्ति, मुनिदर्शनेन __ लड़के ने बारह लपेटे लगाए, अतएव वह बारह वर्षों तक फिर घर में रहा ! फिर दीक्षित हो गया। सूत्र और अर्थ में निपुण होकर वह एकाकी विचरण करता हुआ राजगृह नगर की और चला। आक के पिताने पहले जिन पांच सौ पुरुषों को उसकी रखवाली के लिए नियुक्त किया था, आईक के भाग जाने पर राजा के भय के कारण वे भी भाग गए थे और जंगल में चौर्यवृत्ति करके अपना निर्वाह कर रहे थे। उन लोगों की आईक पर नजर पड़ गई। उन्होंने उसे पहचान लिया। वे जब उसे पकड़ने लगे तो मुनि ने पूछ। अरे, यह क्या अनार्य कर्म कर रहे हो? तब उन्होंने राजभय आदि का सब वृत्तान्त कह सुनाया। परन्तु आईक के वचनों से उनको भी वैराग्य उत्पन्न हुआ और वे दीक्षित हो गए। राजगृह नगर में प्रवेश करते समय हस्तिता. पसों तथा ब्राह्मणों को बाद में पराजित किया। છોકરાએ બાર આંટા વીંટનથી તેને ત્યાર પછી બાર વર્ષ સુધી ઘેર રહ્યા. તે પછી દીક્ષા ધારણ કરી લીધી. સુત્ર અને તેના અર્થમાં કુશળ થઈને તેઓ એકલા જ વિહાર કરતા કરતાં રાજગૃહ નગર તરફ ગયા. આદ્રકકુમારના પિતાએ પહેલાં જે પચસે પુરૂષોને તેમની રક્ષા કરવા માટે નીમેલા હતા તેઓ આદ્રકકુમારના નાશી જવાના કારણે રાજાના ડરથી ભાગી છૂટ્યા હતા અને જંગલમાં રહી ચુર્યવૃત્તિ કરીને પોતાના નિર્વાહ કરતા હતા. તે લોકોની આદ્રક મુનિ પર નજર પડી. તેઓએ તેમને ઓળખી લીધા. તેઓ જ્યારે તેમને પકડવા લાગ્યા તે આર્દિક મુનિએ પૂછ્યું કે અરે! આ અનાર્ય કર્મ શા માટે કરો છો ? ત્યારે તેઓએ રાજભય વિગેરે સઘળું વૃત્તાંત તેમને કહી સંભળાવ્યું. તે પછી આદ્રકના વચનોથી તેઓને પણ વૈરાગ્ય ઉપન થઈ આવ્યું. અને તેઓ બધા જ. રાશિત થઈ ગયા. રાજગૃહ નગરમાં પ્રવેશ કરતી વખતે હરિતતાપસ અને બ્રાહ્મણને વાદ વિવાદમાં હરાવ્યા. २० ७१ For Private And Personal Use Only Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६२ सूत्रकृतास्त्रे स बन्धनविमुक्तो जातः, नृपेणोक्तं हे आई कपुने ! कथं तब दर्शनेन हस्ती बन्धनमुक्तो जातः, मुनिराह 'ण दुक्खणं वारणपासमोयणं गयस्स मत्तस्य वर्णमि रायं । जहा हु तत्थावलिएण कम्मुणा सुदुक्रवणं मे परिहाइ मोयण' ॥१॥ छाया-न दुष्करं वारणपाशमोचनं गजस्य मत्तस्य वने च राजन् । यथा तु तत्रावलिकेन तन्तुना मुदुल्कर में प्रतिभाति मोचनम् ॥ हे राजन् ! द्रव्यबन्धनबद्ध गनस्थ बन्धनमोचनं न दुष्करम् विन्तु को. वलितन्तुबदस्य मम बन्धनमोचनं सुदुष्कर में प्रतिभाति तत्र यदा कर्मबन्धनं मम त्रुटितं तदा हस्तिनो बन्धनं त्रुटितं तत्र किमाश्चर्यमिति भावः । ॥ इति आर्द्रककुमार कथा ॥ रास्ते में एक राजा ने सेना सहित पड़ाव डाल रक्खा था। उस राजा का हाथी खंभे से बंधा हुआ था। मुनि को देख कर वह बन्धन से मुक्त हो गया। तब राजा ने पूछा-हे आद्रक मुनि ! तुम्हें देखते ही यह हाथी बन्धन से कैसे छूट गया ? मुनिने उत्तर दिया-'न दुक्खरं वारणपासमोयणं.' इत्यादि । ___ भौतिक बन्धन से बद्ध हाथी का बन्धन टूट जाना क्या बड़ी बात है ? कर्मावली के तन्तुओं से बंधे हुए मेरे बन्धनों का टूटना ही मुझे तो कठिन प्रतीत होता है। किन्तु जब मेरे बन्धन छिन्न भिन्न हो गए तो हाथी का बन्धन छिन्नभिन्न हो जाय, यह कौन से आश्चर्य की बात है ? आद्रककुमार की कथा समाप्त રસ્તામાં એક રાજાએ સેના સહિત પડાવ નાખેલ હતું. તે રાજાને હાથી થાંભલા સાથે બાંધેલ હતે. મુનીને જોઈને તે બંધનથી છૂટિ . ત્યારે તે રાજાએ તેમને પૂછયું કે-હે આદ્રક મુનિ ! તમને દેખતાં જ આ હાથી બંધનથી કેવી રીતે છૂટિ ગયે ? મુનીએ તેઓને ઉત્તર આપતાં કહ્યું ४-'न दुक्खणं वारणपासमोयण' त्यादि. ભૌતિક બંધનથી બંધાયેલા હાથીનું બાંધન તૂટી જવુ તેમાં શું મોટી વાત છે? કર્માવલીના તાંતણાઓથી બાંધેલા આ મારા બંધને તૂટવા એજ મને તે કઠણ જણાય છે. પરંતુ જ્યારે મારા બંધને છિન્ન ભિન્ન થઈ ગયા. તે પછી આ હાથીના બંધને છિન્નભિન્ન થઈ જાય તેમાં આશ્ચર્ય જેવું શું છે? આર્દકકુમારની કથા સમાપ્ત For Private And Personal Use Only Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir narauttarer fr. शु. अ. ६ आर्द्रकमुने गौशालकस्य संवादनि० पञ्चशतपरिवारपरिवृत आर्द्रकमुनि महावीरवन्दनार्थं प्रस्थितः तत्र मार्गे द्वादश शनिरिव मार्गे मिलितो गोशालकः, तेन गोशाळकेन सार्द्धं तस्य यथा विवादो जातस्तथा पंष्ठाध्ययने दर्शयति-तत्राह - गतं पञ्चममध्ययनं सम्पति षष्ठमध्ययनमारभते तदनेन सह अयमभिसम्बन्धः - पञ्चमाऽध्ययने यदुक्तं पुरुषोत्तमेनाऽनाचारहपागो विधेयस्तथा - आचारपरिपालनं कर्तुरार्द्रकमुनेः प्रश्नोत्तरं प्रतिपादयिष्यते । अनेन सम्बन्धेनायातस्य षष्ठाध्ययनस्येदं प्रथमगाथा मूत्रमाहमूलम् - पुराकडे अद्द ! इमं सुणेह, मेगंतयॉरी समणे पुराऽऽसी । "से भिक्खुणो उवणेत्ता अंणेगे, १६ pras हि पुढो वित्रेणं ॥१॥ पांच सौ शिष्यों से परिवृत्त आर्द्रक मुनि भगवान् महावीर को बन्दना करने के लिए रवाना हुए। मार्ग में बारहवें शनि के समान गोशालक मिल गया । उसके साथ उनका जो विवाद हुआ, उसका वर्णन छठे अध्ययन में किया गया है । पांचवा अध्ययन समाप्त हुआ। अब छठा आरंभ करते हैं। पांचवे के साथ इसका संबंध इस प्रकार है- पांचवें अध्ययन में कहा गया है कि उत्तम पुरुष को अनाचार का त्याग करना चाहिए और आचार का पालन करना चाहिए। इस अध्ययन में अनाचार के त्यागी और आचार के पालक आईक मुनि के प्रश्नोत्तर कहे जाएंगे। इस सम्बन्ध से प्राप्त छठे अध्ययन का यह प्रथम सूत्र है - 'पुरा कडे अद्द ! इमं सुणेह०' इत्यादि । તે પછી પાંચસે શિષ્યેાથી ઘેરાઈને તે આંક મુનિ ભગવાન્ મહાવીર સ્વામીને વંદના કરવા માટે રવાના થયા. માર્ગમાં ખારમા શનિની માફક એશાલક મળી ગયા. તેમની સાથે તેને જે વિવાદ થયા, તેનું વર્ચુન આ છઠ્ઠા અધ્યયનમાં કરવામાં આવેલ છે. પાંચમુ. અધ્યયન સમાપ્ત કરીને હવે આ છઠ્ઠા અયયનને પ્રારંભ કરવામાં આવે છે. પાંચમાં અધ્યયનની સાથે આ અયનના સંબધ આ પ્રમાણે છે.-પાંચમાં અધ્યયનમાં કહેલ છે કે-ઉત્તમ પુરૂષે અનાચારના ત્યાગ કરવા જોઇએ. અને આચારનું પાલન કરવુ. જોઇએ. આ અધ્યયનમાં અનાચારના ત્યાગ કરવાવાળા, અને આચારનું પાલન કરનારા એવા આ કમુનિના અને એશાલકના પ્રશ્નોત્તરી કહેવામાં આવશે. આ સંબધથી પ્રાપ્ત થયેય આ छठ्ठा अध्ययनतुं पडे सूत्र 'पुराकडं अद इमं सुणेह०' इत्यिाहि छे. For Private And Personal Use Only Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्र छाया-पुराकृतम् आद्र ! इदं शृणुत, एकातचारी श्रमणः पुराऽऽसीत् । स भिक्षनुपनीयाऽनेकान् आख्यातीदानों पृथग्विस्तरेण ॥१॥ अन्वयार्थ:--भगवन्महावीरसमोपे गच्छन्तमाककुमार प्रति गोशालकः आह-(अ६) हे आद्रक ! (पुराकडं) महावीरेण यत् पूरा-पूर्वकाले कृतम् (इमं मुणेह) इदं शृणुत यूयम् (समणे) श्रमणो महावीरः (पुरा) पुरा पूर्वकाले (एगंतयारी आसी) एकान्तचारी-एकाकीविहरणशील आसीत् किन्तु-'इपिंह से' इदानीं स महावीर (अणेगे भिक्खुणो उवणेत्ता) अनेकान् भिक्षुन् शिष्यान् उपनीय (पुढो) पृथक् पृथक (वित्थरेण) विस्तरेण-सविस्तरं यथा स्यात् तथा (आइक्खइ) आख्याति देशनां ददातीति ॥१॥ शब्दार्थ-भगवान के समीप जाते हुए आर्द्रक कुमार को गोशालकने कहा-'अह-आईक' हे आर्द्र! 'पुराकडं-पुराकृतम्' महावीरने पहले जो आचरण किया 'इमं सुणेह-इदं श्रुणुत' 'उसे तुम सुनो 'समणेश्रमणः' श्रमण भगवान् महावीर स्वामी 'पुरा-पुरा' पूर्वकाल में 'एगंतयारी आसी-एकान्तचारी आसीत् एकाकी-अकेले ही विचरण किया करते थे, किन्तु 'इण्हि से-इदानीं सः' अब वह महावीर 'अणेगे भिक्खुणो उवणेत्ता-अनेकान् भिक्षुन् उपनीय' अनेक भिक्षु शिष्यों को इकट्ठा करके 'पुढो-पृथकू' पृथक पृथकू वित्थरेण-विस्तरेण विस्तार पूर्वक 'आइक्खह-आख्याति' 'उपदेश दिया करते हैं ।।गा० १।। अन्वयार्थ-भगवान् के समीप जाते हुए आई क कुमार को गोशा. लक ने कहा-हे आईक! महावीर ने पहले जो आचरण किया, उसे सुनो। श्रमण महावीर पूर्वकाल में एकाकी विचरण किया करते थे શબ્દાર્થ– ભગવાનની પાસે જતા એવા આદ્રક મુનિને શાલકે કહ્યું'अह!-आई उ माद्र 'पुराकडं-पुराकृतम्' महावीर स्वाभीमे पडसारे भायर ४३८ छ, 'इम सुणेह-इम श्रुणुत' त तमे सांसयो, 'समणे-श्रमणः' श्रमय भावी२ 'पुरा-पुरा' पूर्वमा ‘एगंतयारी आसी-एतान्तचारी आसीत्' ही विहार ४२ता ता. ५२'तु 'इहि से-इहानी सः' ३ ते महावीरस्वाभा 'अणेगे भिक्खुणो उवणेत्ता - अनेकान् भिक्षन् उपनीय' मन (मक्षु शिष्योन ४४॥ ३रीने 'पुढो-पृथक्' भूहा ! 'वित्थरेण-विस्तरेण विस्तार " ' 'आइक्खइ-आख्याति' पढेश मापे छ. ॥१॥ અન્વયાર્થ– ભગવાન સમીપજતા એવા આદ્રક કુમારને શાલકે કહ્યું- હે અ ક! મહાવીર સ્વામીએ પહેલાં જે આચરણ કર્યું તે તમે સાંભળે. શ્રમણ મહાવીર પહેલાં એકાકી–એકલા વિચરણ કરતા હતા પરંતુ For Private And Personal Use Only Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुने गौशालकस्य संवादनि० ५६५ टीका - अस्ति स्म मगधदेशे वसन्तपुरे राजकुमार आर्द्रकः । स च भगवतो महावीरतीर्थकरस्य देशां श्रोतुकामो गतवान् । गच्छाश्च तस्य मार्गे गोशालको - मिलितः पृष्टात्रांश्च कुत्र गच्छसि ? आई क आह-देशनां श्रोतुं तीर्थंकररूप | गौशाल केन विहस्योक्तम् न तस्य देशना श्रोतुं योग्या । यतो हि स महावीरः पुरैकान्तचारी, इदानीन्तु वहून उपनीय शिष्यान् अतिसङ्कले सदसि देशनां ददाति । अतस्तस्य विपरीता मतिर्जाता, नेदानी मे कान्तचारी - न वान्तमान्तभोजनाशीरित्यादिविषयप्रतिपादनार्थ मुत्तरप्रत्युत्तररूपेण अर्थप्रतिपादनाय सूत्रकारः सूत्रं प्रस्तौति । (अव) हे किन्तु अब वह अनेक भिक्षु शिष्यों को इकट्ठा करके पृथक पृथक विस्तार पूर्वक उपदेश दिया करते हैं ॥१॥ टीकार्थ-मगध देश में वसन्तपुर नगर में आर्द्रक राजकुमार था । वह तीर्थंकर भगवान् महावीर की धर्मदेशना श्रवण करने को चला। मार्ग में उसे गोशालक मिला। उसने पूछा- कहां जा रहे हो ? आर्द्रक ने उत्तर दिया तीर्थंकर की देशना सुनने के लिए जा रहा हूं । तब गोशालक ने मुस्करा कर कहा- उनकी देशना सुनने योग्य नहीं है। क्योंकि महावीर पहले एकाकी विचरण करते थे, किन्तु अब बहुसंख्यक शिष्यों को एकत्र करके खचाखच भरी हुई सभा में उपदेश करते हैं। उनकी तो मति उलटी हो गई है। वह अब न एकान्तविहारी हैं और न अन्तप्रान्त आहारी हैं, इत्यादि विषय का प्रतिपादन करने के लिए उत्तर प्रत्युत्तर रूप में आगे के सूत्र हैं । प्रकृत सूत्र का अर्थ इस હવે તેઓ અનેક ભિક્ષુ શિષ્યાને એકઠા કરીને અલગ અલગ વિસ્તારપૂર્વક उपदेश आये छे. ॥१॥ ટીકા- મગધ દેશમાં વસતપુર નગરમાં આર્દ્ર* રાજકુમાર હતા તે તીર્થંકર ભગવાન્ મહાવીર સ્વામીની પાંસે ધમ દેશના સાંભળવા માટે ચાલ્યું, માર્ગોમાં તેને ગેશાલક મન્યા. તેણે તેને પૂછ્યું' છે કે-તમે કયાં જાઓ છે ? આદ્ર કે ઉત્તર આપ્યા કે-તીર્થંકર ભગવાનની દેશના સાંભળવા માટે હું જાઉં છું. ત્યારે ગોશાલકે હસીને કહ્યું કે તેની દેશના સાંભળવા લાયક નથી કેમકે મહવીર સ્વામી પહેલાં એકાકી વિચરણ કરતા હતા. પરંતુ હવે અનેક સખ્યામાં શિષ્યાને એકઠા કરીને ખીચાખીચ ભરેલી સભામાં ઉપદેશ આપે છે. તેએન બુદ્ધિ વિપરીત થયેલી છે. તેએ હવે એકાન્ત વિહારી રહ્યા નથી. તથા અન્ત પ્રાન્ત આહાર કરવા વાળા પણ રહ્યા નથી વિગેરે વિષયનું સમર્થન કરવા માટે ઉત્તર અને પ્રત્યુત્તરના રૂપે આગના સૂત્રો કહ્યા છે. આ ચાલુ સૂત્રના અર્થ આ પ્રમાણે છે.-હું આદ્રક ! મહાવીરે પહેલાં જે કરેલ છે, તે For Private And Personal Use Only Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६६ सूत्रकताको आईक ! 'पुराकडं इमं सुणेह' महावीरेण पूर्व यत्कृतं तदिह शृणु । श्रुत्वा च विचारय, तानन्तरं ते ईहाचेत् तदन्तिक गन्तव्यम् । 'समणे' श्रमणो भगान् महावीरः 'पुरा एगंतयारी आसी' पुरा-पूर्वम् एकानचारी आसीत्-एकाकी विहरणशीलोऽभवत् तथा तपस्वी च । 'इण्डि से' इदानीं सः 'अणेगे' अनेकान् 'भिक्खुगो उवणेत्ता' भिक्षून उपनीय अनेकान् शिष्यन् समीपे स्थापयित्वा 'पुढो' पृथक् पृथक् 'वित्थरेणं आइक्वई विस्तरेण आख्याति-यः एकान्तवासमकरोत् स इदानीं जनाकुले सन् देशनां ददाति। इति पूर्वोक्तविरुद्धमाचरतीति कथं स उपगन्तव्य इति ॥१॥ मूलम्--सा आजीविया पटवियाऽथिरेणं, समागओ गणओ भिक्खुमज्झे । आइक्खमाणे बहुजन्नमत्थं, न संधयाई अवरेण पुंवं ॥२॥ छाश--साऽऽजीविका प्रस्थापिताऽस्थिरेग समागतो गणशोभिक्षुमध्ये । आचक्षाणो बहुजन्यमर्थ न सन्दधात्यपरेग पूर्वम् ।।२। प्रकार है-हे आर्द्रक ! महावीर ने पहले जो किया, उसे सुनो, समझो और फिर भी इच्छा हो तो उनके समीप जाओ। श्रमण भगवान महावीर पहले अकेले ही विचरण किया करते थे और तपस्वी थे। किन्तु आज कल वह अनेक शिष्यों को अपने पास रखते हैं और उन्हें पृथक पृथक विस्तार से उपदेश देते हैं। उनका यह आचार पूर्वोत्तर विरुद्ध परस्पर विरोधी है। ऐसी स्थिति में उनके पास जाने से क्या लाम?॥१॥ 'सा आजीविया पट्टचिया' इत्यादि। शब्दार्थ-'अस्थिरेण-अस्थिरेण' अस्थिरचिस महावीरने 'सा आजी. विया-सा आजीविका यह आजीविका 'पट्टविय-प्रस्थापिता' जीवनતમે સાંભળો, સમશે અને તે પછી પણ તમારી ઈચ્છા હોય તે તેઓની પાસે જ જે. શ્રમણ મહાવીર પહેલાં એકલા જ વિહાર કરતા હતા. અને તપસ્વી હતા. પરંતુ હાલમાં તેઓ અનેક શિષ્યને પોતાની પાસે રાખે છે. અને તેઓને અલગ અલગ વિસ્તાર પૂર્વક ઉપદેશ આપે છે, તેઓને આ આચાર પૂર્વોત્તર વિરૂદ્ધ-પરસ્પર વિરોધી છે. આવી સ્થિતિમાં તેઓની પાસે જવાથી શું લાભ થવાને છે? પગા૦૧ 'सा आजिपिया पद विया' इत्यादि शा-'अस्थिरेणं-अस्थिरेण' मस्थिर चित्तपा महावीरे 'सा आजी. बिया-सा भाजीविका' मा शतनी मालवा 'पदविया प्रस्थापिता' मनावी For Private And Personal Use Only Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आईकमुने!शालकस्य संवादनि० ५६७ अन्वयार्थः- (अत्थिरेणं) अस्थिरेण-चञ्चलचित्तेन महावीरेण (सा आजी. विया) सा आजीविका-जीवननिर्वाहः (पट्ठविश) प्रस्थापिता कल्पिता-जीवननिर्वाहाय सर्व दम्भमात्रं तेन कृतमित्यर्थः, (सागओ गणओ भिक्खुमज्झे) समागतः-सभामध्ये उपविष्टो गणशो भिक्षुमध्ये (बहुजन्नमत्थं) बहुजन्यमर्थम्अनेकलोकहितम् उपदेशम् (आइक्खमाणो) आचक्षाणः-ददत् (अवरेण पुम्वं न संघयाई) अपरेण-एतत्कालिकेन व्यवहारेग पूर्व-पूर्वकालिको व्यवहारो न सन्दधाति-सर्वथा न मिलति-पूर्वापरविरुद्धमेव भवतीति ॥२॥ ____टीका-'अस्थिरेण' अस्थिरेण-चञ्चलेन तेन महावीरेण 'सा आजीविया निर्वाह के लिए दंभ अंगीकार करलिया है 'समागो गणो भिक्खु. मज्झे-समागतः गणशः भिक्षुमध्ये वह सभामें जाकर साधुओं के बीच 'बहुजन्न मत्थं बहुजन्यमर्थम्' बहुत लोगों के हित के लिए 'आइक्खमाणो -आचक्षाण' उपदेश देते हैं। 'अवरेण पुत्वं न संधयाई-अपरेण पूर्व न सन्दधाति' उनका वह वर्तमान व्यवहार पूर्वकालिक व्यवहार से मेल नहीं खाता, यह परस्पर विरुद्ध आचरण है ॥गा०२॥ ___ अन्वयार्थ-अस्थिरचित्त महावीर ने यह आजीविका बना ली है जीवननिर्वाह के लिए दंभ अंगीकार कर लिया है। वह सभा में जोकर साधुओं के बीच बहुत लोगों के हित के लिए उपदेश देते हैं। उनका यह वर्तमानकालिक व्यवहार पूर्वकालिक व्यवहार से मेल नहीं खाता। यह परस्पर विरुद्ध आचरण है ॥२॥ टीकार्य-चंचल महावीर ने अपनी आजीविका चलाने के लिए यह सीधी छ. अर्थात् अपन मिडि भाटे हमने। २५७४२ ४३री बीघा छे. 'समागओ गणो भिक्खुमज्झे-समागतः गणशः भिक्षुमध्ये' ते समामा ने साधुसानी क्यमा बहुजन्नमत्थं-बहुजन्यमर्थम्' पबनाना हित भाटे 'आइक्खमाणो-आचक्षाणः' अपहेश मा छे. अवरेण पुव्वं न संधयाई-अपरेण पूर्व न सन्दधाति' तमना मा त भान या व्यवहारने भूतमा मायरे व्यवहानी સાથે મેળ ખાતો નથી. આ એક બીજાથી વિરૂદ્ધ પ્રકારનું આચરણ છે. ગારા અન્વયાર્થ—અસ્થિર ચિત્તવાળા મહાવીર સ્વામીએ દંભને રવીકાર કરી લીધે છે. તેઓ સભામાં જઈને સાધુઓની વચમાં ઘણા લોકોના હિત માટે ઉપદેશ આપે છે. તેમના આ વર્તમાન કાળને વ્યવહાર પહેલાના વ્યવહાર સાથે મળતું આવતું નથી. આ આચરણે એકબીજાથી જુદા પડે છે. કેરા - ટીકાઈ–ચંચલ સ્વભાવના મહાવીરે પિતાની આજીવિકા ચલાવવા માટે For Private And Personal Use Only Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गास्त्रे पट्टविया' सा आजीविका प्रस्थापिता-स्वजीवनयात्रानिहाय उपायः कृतः 'समागओ' समागतः- सभामध्ये विद्यमानः । 'गणओ' गणश:-अनेकशः 'भिक्खु मज्झे' भिक्षुमध्ये-अनेकेषां भिषगां मध्ये विद्यमानः 'बहुजन्नमत्थ' बहुजन्यमर्थम्-अनेकेषामुपकारदर्शनाय देशनावाचं ददाति । 'अवरेण पुवं न संधयाई' अपरेण पूर्व न सन्दधाति-पूर्णच राऽपराचारयोः समन्वयो न भवति । किन्तुविरोध उपस्थापितः ॥२॥ मूलम् एगंतमेवं अदुवा वि इपिह, दो उ वण्णमन्नं न समेति जम्हा। पुष्विं च इहि च अणागयं वा एगंतमेवं पडिसंदेधाइ ॥३॥ छाया-एकान्तमेश्मथवाजीदानी द्वावन्योऽयं न समितो यस्मात् ! पूर्वञ्चदानीचानागतं वा एकान्तये प्रसिन्दधाति ।।३॥ उपाय किया है। वह अनेक भिक्षुओं के मध्य में बैठ कर यष्टुत जनों के उपकार के लिए देशना देते हैं । परन्तु उनका यह आचार पहले के आचार से संगत नहीं है ॥२॥ 'एगंतमेवं अदुवा वि' इत्यादि। शब्दार्थ- 'एवं-एवम्' इस प्रकारसे 'एगंतं एकान्तम्' 'महावीर का एकान्त विचरण ही सम्पक आचार हो सकता है 'अदुवा-अथवा' अथवा 'इम्हि-इदानीं' इस समय का बहुतों के बीच देशना देने का आचार ही म. म्यक हो सकता है 'दो उ वण मण्ण-द्वाप्यन्यो यं' परस्पर विरुद्ध दोनों आचार 'जम्हा न ममेंति-यस्मात् न समितः' समीचीन नहीं हो सकते। आईक उत्तर देते हैं --- 'पुब्धि-पूर्व' पूर्व कालमें इहि-इदानी' આ ઉપાય કરેલ છે. તે અનેક ભિક્ષુકની વચમાં બેલીને ઘણા મનુષ્યના ઉપકાર માટે દેશના–ધર્મોપદેશ આપે છે પરંતુ તેમને આ આચાર-આચરણ પહેલાના આચારની સાથે સંગત થતું નથી. અર્થાત્ બંધ બેસતું નથી. કેરા _ 'एगंतमेवं अदुवा वित्यादि शहाथ-एवं-एवम्' मा शत 'एगंत-एकान्तम्' महावीर स्वाभानु मेन्त वियर ११ माया२ ॥ 'अदुवा-अथवा' अथवा 'इण्हि-इदानी' આ વર્તમાન સમયના અનેક જનની વચમાં રહીને દેશના દેવારૂપ આચાર 1 योग्य ५५ श दोउ वण्णमण्णं-द्वावप्यन्योऽन्ये' ५२२५२ १३.६ मेवा मा भन्ने मायार 'जम्हा न समेइ-यस्मात न समितः' सभीयान येयी ४ाय नही. गोशाना 4. Yथन मा उत्तर भापत ४७ छ ?--'पुब्बि-पूर्व For Private And Personal Use Only Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुनेगोशालकस्य संवादनि० ५६९' अन्वयार्थः ---(एव) एवम् -अनेन प्रकारेण (एगंत) एकान्तमेव-एकान्तचारित्वादिकं सम्यक (अदुवा वि) अथवाऽपि (इण्डि) इदानीमेतत्कालिकं बहुजनसमक्ष भाषणादिकमेव सम्भक (दो उ वणमन्न) द्वावपि अन्योऽन्यम्-परस्परम् (जम्हानसमें ति) यस्मारकारणात् न समिता-समी वीनतां न गच्छतः, आकः कथयति(पुन्वि) पूर्वम् (इपिह) इदानी-वर्तमानकाले (अगागयं वा) अनागतं वा-मविष्य स्कालेऽपि (एगसमेत्र) एकान्तव-एकविध वमेव (पडिसंदधाइ) प्रतिसंदधातिन तु पूर्वापरयोनिरोधः कथमपि संभवतीति ॥३॥ टीका- 'एवं' एवम्-भनेन प्रकारेग 'एगंत' एकान्तचारित्वम्-तमः संयपशीलत्वं कि युक्त धर्मों वा 'अदुरा नि' अशाऽपि 'इण्हि' इदानीम् अस्मिन्समये इस वर्तमान कालमें और 'अणागय बा-अनागतंबा' भविष्य काल में 'एगंत मेव-एकान्तमेव' भगशन तो एकान्त का हो अनुभव करते हैं। अत एक पाउसदलाइ-प्रतिदधाति' उनका पहले और वर्तमान के आचरण में किसी भी प्रकार का विरोध आता नहीं हैं ॥गा०३॥ ___ अन्वधार्थ-यातो महावीर का एकान्त विचारण ही सम्यक् आचार हो सकता है या इस समय का बहुतों के बीच देशना देने का आचार ही सम्यक् हो सकता है। दोनों परस्पर विरुद्ध आचार समीचीन नहीं हो सकते। ___ आईक उत्तर देता है-पूर्वकाल में, वर्तमान काल में और भविष्य. स्काल में भगवान तो एकान्त का ही अनुभव करते हैं। अतएव उनके पहले के और अब के आचरण में किसी भी प्रकार का विरोध नहीं है॥शा भूतमा 'इण्हि-इदानी" ५तभान जमा अने 'अणागयं-वा अनागतं वा' भविष्यमा 'गतमेव-एकान्तमेव' मावान् तो सान्तन or मनु रेछ. तेथी। 'पडिसंधाइ-प्रतिसंदधाति' तमना पडसाना अने पत मानना આચારમાં કોઈ પણ પ્રકારને વિરોધ આવતો નથી, તેમ સમજવું ૩ અન્વયાર્થ–મહાવીર સ્વામીનું ભૂતકાળનું એકાન્ત વિચરણ જ સમ્યા હોઈ શકે છે. અથવા આ વર્તમાન કાલીન ઘણાઓની સાથે રહીને દેશના આપવા રૂપ આચારણ જ સમ્યફ થઈ શકે છે. પરસ્પર વિરૂદ્ધ એવા બને આચાર એગ્ય હોઈ શકે નહીં ગોશાલકના આ કથનને ઉત્તર આપતાં આ મુનિ કહે છે કે–પૂર્વકાળમાં અને ભવિષ્યકાળમાં ભગવાન તે એકાન્તને જ અનુભવ કરે છે. તેથી જ તેઆના પહેલાના અને હાલના આચરણમાં કોઈ પણ પ્રકારનો વિરોધ આવતું નથી. આવા स. ७२ For Private And Personal Use Only Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतागले 'दो उवण्णमन्नं' द्वौ अपि अन्योऽन्यम् 'जम्हा' यस्मात्कारणात् 'न समें ति' नसमितः, अनेन प्रकारेण प्राथमिकैकान्तचारित्वव्यवहारः सम्यक् । अथवाएतत्कालिकबहुजनाकुलवास एव सम्पक स्मात् । न तु एतद् द्वयमपि समीचीनं सम्भवति । यतो द्वयोरपि परस्परविरोधात्, अन्योऽन्ययोः पारस्परिक सम्मेलनं न संभवति । इदानी जीविका संपादयति, तदुक्तम्-'छत्र छात्रं-पात्रं वस्त्रं यष्टिं च चर्चयति भिक्षुः । वेषेण परिकरेण च कियताऽपि विना न भिक्षाऽपि ॥इति।। - अयं भावः-यधेकान्त चारित्वं श्रेयः पूर्वमश्रितत्वात् ततः सर्वदा अन्यनिरपेक्ष तदेव कर्तव्यम्, अथ चेदं साम्प्रतं बहुपरिवारावृत्तं स्वात्मानं साधु मन्यसे ततः टीकार्थ-इस प्रकार या तो पहले वाला उनका एकान्नचारित्व धर्म चित हो सकती है अथवा इस समय का आचार सभा में धर्मदेशना नेरूप आचार उचित हो सकता है। ये दोनों आपस में विरोधी ग्यवहार उचित नहीं हो सकते । सत्य तो यह है कि आजाल महावीर भाजीविका साधन कर रहे हैं। कहा है-'छत्रं छात्रं पात्र वस्त्रं' इत्यादि। ... 'साधु अपने पास जो छत्र, छात्र (शिष्य) पात्र, वस्त्र और दंड स्वता है, सो आजीविका के लिए ही रखता है। क्योंकि वेष और भाडम्बर के विना भिक्षा भी नहीं मिलती।' ... तात्पर्य यह है-र्याद महावीर का पूर्वकालिक एकान्त चारित्र ही भेपस्कर था तो दूसरों की परवाह न करते हुए सदैव उप्ती का पालन भरना चाहिए था। और यदि बहुसंख्यक परिवार से युक्त होना ही ટીકાર્ય–આ રીતે અગર તે પહેલાં ભૂતકાળમાં તેમણે આચરેલ એકાન્ત ચારિત્રરૂપ ધર્મ ગ્ય કહી શકાય, અથવા તે વર્તમાન સમયમાં સભામાં ધર્મદેશના આપવા રૂપ આચાર ગ્ય કહી શકાય. પરસ્પરમાં વિરૂદ્ધ એવા આ બને આચાર એગ્ય કહી શકાય નહીં. સાચું તે એ છે કે-હાલમાં महावीर मालविनु उपान ४री २६छ. यु छ -'छत्रं, छात्र, पात्रं, वस्त्र' त्यादि साधु पोतानी पांसे रे ७३, छात्र (शिध्या) पात्र, १७ भने ખે છે, તે આજીવિકા મેળવવા માટે જ રાખે છે. કેમકે વેષ અને આડઅરિ વિના ભિક્ષા પણ મળતી નથી. " કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે–જે મહાવીર સ્વામીએ ભૂતકાળમાં આચ એકાન્ત ચારિત્ર જ કલ્યાણ કારક હતું. તે પછી બીજા ની પરવાહ કર્યા વિના હંમેશાં તેનું જ પાલન કરવું યેગ્ય હતું. અને જે બહુ સંખ્યા For Private And Personal Use Only Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुनेगोशालकस्य संवादनि० र तदेवाऽऽदावपि आचरणीयमासीत्, अपि च द्वे अप्येते छायाऽऽतपवदत्यन्तविरोधिनी वृत्तेनैकत्र समवायं गच्छतः तथा यदि मौनेन धर्मस्ततः किमियं माता प्रबन्धेन धर्मदेशना, अथाऽनयैव धर्मदेशनया धर्मस्ततः किमिति पूर्व मौनव्रतं दो, यस्मादेवं तस्मात् पूर्वोत्तरव्याघात इति भावः । इति गोशालकस्योक्तिः। आई कः कथयति-पुनि पूर्व-पाकाले 'इण्डिं' इदानीश्च 'अणागयं ' अनागतं वा-भविष्य कालेऽपि, सर्वदाऽपि स भगान् महावीरस्सामी 'एगंतमेव' एकान्त वारित्वमेव 'पडिसंदधाई प्रतिसन्दधाति-एकान्तवासमेवाऽनुभवति । अय. माशय:-यथा भगवान पूर्वमे कान्तासमनुभान्नासीन्, तथेदानीमपि एकान्तवास. मेवाऽनुभवति, भविष्यकालेऽपि-अनुमविष्यति, अतस्तस्य तीर्थ करस्य चञ्चलसाधु का लक्षण है तो पहले से ही इसीका आचरण करना उचित था। ये दोनों आचार धूप और छाया की भांति परस्पर विरुद्ध हैं। दोनों सत्य नहीं हो सकते । परन्तु मौन रहना धर्म है तो विस्तार से धर्मदेशना देने की क्या आवश्यकता है ? यदि यह धर्मदेशना ही धर्म है तो पहले क्यों मौन धारण किया था ? ___ गोशालक के इस प्रकार कहने पर आई कने कहा भगवान महावीर स्वामी भूतकाल में, वर्तमान काल में तथा भविष्यकाल में भी अर्थात् सर्वदा ही एकान्तचारी हैं। वे सदैव एकान्तवास का ही अनुभव करते हैं। तात्पर्य यह है कि-भगवान् जैसे पूर्वकाल में एकान्तवास का अनुभव करते थे उसी प्रकार इस समय भी करते हैं । भविष्यत् काल में भी વાળા પરિવારથી યુક્ત રહેવું સાધુને યેગ્ય હેય તે પહેલેથી જ તે પ્રમાણે આચરણ કરવું એગ્ય કહી શકાત, તડકા અને છાયાની જેમ આ બન્ને વ્યવહાર પરસ્પરમાં વિરોધી છે, તેથી એ બને વ્યવહાર સત્ય હોઈ શકે નહીં. જે મૌન રહેવું તે ધર્મને 5 હેય તે વિસ્તાર પૂર્વક ધર્મદેશના આપવાની શી જરૂર છે? અને જે આ ધર્મદેશના આપવી તેજ ગ્ય હોય તે પહેલાં મૌન ધારણ શા માટે કર્યું હતું? ગોશાલકના આ પ્રમાણે કહેવાથી આકે તેમને ઉત્તર આપતાં કહ્યું કે-ભગવાન મહાવીરસ્વામી ભૂતકાળમાં, વર્તમાન કાળમાં અને ભવિષ્ય કાળમાં પણ અર્થાત ત્રણે કાળમાં સદા એકાન્તચારી જ છે. તેઓ કાયમ એકાત વાસને જ અનુભવ કરે છે કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે–ભગવાન્ જેમ પૂર્વકાળમાં એકાન્ત વાસને અનુભવ કરતા હતા. એ જ પ્રમાણે આ સમયે પણ એકાન્તવાસને જ અનુભવ For Private And Personal Use Only Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतास्त्र समावत्वकथनं पूर्वपरव्यवहारयोः पार्थस्यकथनं चाऽज्ञानविजृम्भितमेव । यद्यपि दानी जनसमूहे धर्ममुपदिशति, तथापि नै तस्य विप्रियः पियो वा, रागपरहितत्वाव पूर्व चतुधिघातिकर्मक्षयार्थं वाक्संयत आसीत् इदानीन्तु-अघातिकर्मनां पयार्य वर्गादिशति जनसमूहे, न तु जीविकार्थ न वा रागद्वेषादिति ॥३॥ लम्-समिञ्च लोगं तसथावराणं खेमंकरे समणे माहणे वा। आइक्खमाणोवि सहस्समझे एगंतयं साहयइ तहच्चे॥४॥ छाया-समेत्य लोक सस्थावराणां क्षेमङ्करः श्रमणो माहनो वा। - आचक्षाणोऽपि सहस्रमध्ये एकान्तकं साधयति तथार्चः ॥४॥ एकान्तवास का ही अनुभव करेंगे। अतएव भगवान महावीर प्रभु कोचं. चलचित्त कहनाअथवा उनके पूर्वकालीन एवं वर्तमानकालीन व्यवहार में असंगति यतलाना नितान्त अज्ञान का फल है। भगवान् यद्यपि इस समय जनसमूह में धर्मदेशना करते हुए विचरते हैं, तथापि उन्हें न कोई प्रिय है, एवं न कोई अप्रिय है। वे सर्वथा वीतराग है पहिले घातिकर्मों का क्षय करने के लिए वचनसंयम (मौन) रखते थे। इस समय अघातिकर्मों का भय करने के लिए धर्म का उपदेश करते हैं । वे न जीविका निर्वाह के लिए धर्मोपदेश करते हैं और न रागद्वेष से प्रेरित होकर ही ॥३॥ 'समिच्च लोग इत्यादि। शब्दार्थ--'समणे-श्रणमः' श्रमण और 'माहणे-माहनः' माहन (मा-मत हन-मारो जीवों को ऐसा उपदेश देनेवाले) महावीर केवल કરે છે. અને ભવિષ્ય કાળમાં પણ એકાતવાસને જ અનુભવ કરશે. તેથી જ ભગવાન મહાવીર સ્વામીને ચંચલ ચિત્તવાળા કહેવું અથવા તેના પૂર્વકાળના વ્યવહારમાં અને વર્તમાન વ્યવહારમાં અસંગતપણું બતાવવું તે કેવળ અજ્ઞાનનું જ ફળ છે. ભગવાન જે કે વર્તમાન કાળમાં જનસમુદાયને ધર્મદેશના આપતા થકા વિચરે છે. તે પણ તેઓને કેઈ પ્રિય નથી તેમ કઈ અપ્રિય પણ નથી. તેઓ સર્વથા વીતરાગ છે. પહેલાં ઘાતિકમેને ક્ષય કરવા માટે વચન સંયમ (મૌન) રાખતા હતા, અને વર્તમાનમાં અવાતિ કર્મોને ક્ષય કરવા માટે ધર્મને ઉપદેશ આપે છે. તેઓ આજીવિકા મેળવવા માટે મને ઉપદેશ આપતા નથી, તેમ રાગદ્વેષને વશ થઈને પણ ધર્મદેશના આપતા નથી. ગા. ફા _ 'ममिच्च लोग' या , शहाथ-'समणे-श्रमणः' श्रभर अने. 'माहणे-माहनः' भाहन (भा-न -હન મારો જીને ન મારો એ પ્રમાણે ઉપદેશ આપવા વાળ) મહાવીર For Private And Personal Use Only Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका शि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुनेगौशालकस्य संवादनि० ५७६ - अन्वयार्थ:-(समणे) श्रमण स्तपस्वी (माहणे वा) माहनो वा-माहन जीवानित्येवं प्रवृत्तिर्यस्य तादृशो महावीरः (लोग) लोकम्-चतुर्दशरज्ज्यात्मकम् (समिञ्च) समेत्य-केवलज्ञानेन ज्ञात्वा (तसथावराण) प्रसस्थावरजीवनाम् (खेमंकरे) क्षेमङ्करः-कल्याणकारकः (सहस्समज्ञ) सहस्रमध्ये अनेन देवाऽसुरादिमध्ये (आइक्खमाणे वि) आचक्षाणोऽपि-धर्ममुपदिशभपि (एगतयं साहया) एकान्तकं साधयति-एकान्तवाश्मेवाऽनुभवति रागद्वेषरहितत्वात् 'तहच्चे तथा:-तथैवपूर्ववदेव अर्चा-लेश्या यस्य तादृशः सर्वदा चित्त तेरेकरूपेणैव स्थितत्वादिति ॥४॥ ज्ञान के द्वारा 'लोग-लोकं चौदह रज्जुपमाण लोकको 'समिच्च-समेत्य' जानकर 'तसथावराणं-त्रसस्थावराणां त्रस एवं स्थावर जीवों के 'खेमं. करे-क्षेमं करः कल्याणकरने वाले हैं 'सहस्समझे-सहस्र मध्ये वे सुरों एवं असुरों के मध्य में 'आइक्खमाणोषि-आचक्षाणोऽपि' धर्मोपदेश करते हुवे भी 'एगंतयं साहयइ-एकान्तकं साधयति' एकान्तवासका ही अनुभव करते हैं 'तहच्चे-तथाच!' उनकी अर्चा लेश्या सदैव एकरूप रहती है ॥४॥ अन्वयार्थ-श्रमण और माहन (मा-मत, हन मारो जीवों को, ऐसा उपदेश देने वाले) महावीर केवलज्ञान के द्वारा चतुर्दशरज्जुपरिमाण लोक को जान कर उस और स्थावर जीवों के कल्याणकर हैं। वे सुरों और असुरों के मध्य में धर्मोपदेश करते भी एकान्त की ही साधना करते हैं अर्थात् रागद्वेषरहित होने से एकान्तवाल का ही अनुभव करते हैं। उनकी अर्चा लेश्या सदैव एकरूप रहती है ॥४॥ स्वामी विज्ञान द्वारा 'लोग-लोकम्' यौह २४ प्रमाणपणा सोने 'समिच्च-समेत्य' यान तसथावराण-त्रसथावराणाम्' उस भने स्थावर वानु' 'खेमं करे-क्षेमकरः' ह्याएर ७२१। । छे. 'साइरसमज्झे-सहस्रमध्ये' ते। वो भने असुमारानी क्यमा 'आइक्खमाणो वि-आचक्षाणोऽपि' घमशना भा५। छतों पर 'एगंतयं साहया-एकान्तकं साधयति' त. पासनी १ अनुभव ४३ छ. 'तहच्चे-तथार्चः' तमानी अर्या-श्या मेशा એક રૂપ જ રહે છે. ગાકા स-याथ---श्रम भने भान (भा- उन-भारे। वान न मारे। એ ઉપદેશ આપવાવાળ) મહાવીરસ્વામી કેવળજ્ઞાન દ્વારા ચૌદ રાજુ પ્રમાણ વાળા લેકને જાણીને ત્રણ અને સ્થાવર ના કલ્યાણ કરવાવાળા છે. તેઓ સુરે અને અસુરની મધ્યમાં ઉપદેશ કરતા હોવા છતાં પણ એકાન્તની જ સાધના કરે છે. અર્થાત રાગદ્વેષ રહિત હોવાથી એકાન્તવાસને જ અનુભવ કરે છે. તેઓની અચલેશ્યા સદા એકરૂપ જ રહે છે. એક For Private And Personal Use Only Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकताकस्से टीका-'समणे माहणे वा लोगं समिच्च' श्रमण:-कर्मनिर्जराहेतोः तपस्वी माइनो वा तीर्थकरो कोक समेत्य-द्वादशमकारकतपःप्रवृत्तो जीवन्मा हन, इति-प्रवृत्तिर्यस्य तादृशो भगवान महावीरः केवलज्ञानेन चतुर्दशरज्जात्मक लोक जगत् ज्ञात्वा 'तसयावराणं खेमंकरें उसस्थावराणां जीवानां क्षेमङ्कर-कल्या. णकारकः 'सहस्समज्झे' सहस्रमध्ये-द्वादशविधमुराऽसुरादिपरिषन्मध्ये स्थितः सन् 'आइक्खमाणो वि' आचक्षाणोऽपि-विस्तरेण धर्मकथामुपदिशमपि एर्गतयं साहयई एकान्तक, साधयति, एकान्तवासमेवाऽनुभवति रागद्वेषरहितत्वात् 'तहच्चे' तथा:-तथैव-प्राग्वदेव अर्चा-लेश्या यस्य स तथार्चः, अथवा-अर्चा-शरीरं तव मागवद् यस्य स तथार्चा, तथाहि-अशोकायष्टमातिहार्योपेतोऽपि नोत्सेक याति नाऽपि शरीरसंस्काराप यत्नं विदधाति, स हि भगवान् आत्यन्तिकरागद्वेषप्र. हाणादेकाफी मपि जनाग्वृितोऽप्येकाकी न तस्य तयोरवस्थयोः कश्चिद्विशेषोऽस्ति। ___टीकार्थ-कर्मनिर्जरा के हेतु से अत्युत्र तप करने से तपस्वी तथा माहन अर्थात् द्वादश प्रकार के तप में प्रवृत तथा जीवों का घात न करने का उपदेश देने वाले भगवान् श्री महावीर केवलज्ञान के द्वारा सम्पूर्ण लोक को जान कर त्रस एवं स्थावर प्राणियों के क्षेमंकर हैं। वारह प्रकार की समवसरणसभा में विराजमान होकर विस्तारपूर्वक धर्मदेशना करते हुए भी वे एकान्त का ही अनुभव किया करते हैं, क्यों कि उनके रागद्वेष का पूर्ण रूप से क्षय हो चुका है। उनकी लेश्या अर्चा गा शरीर पूर्ववत् ही है। अशोकक्ष आदि आठ महाप्रातिहार्यों से सम्पन्न होने पर भी उन्हें अहंकार नहीं है। शरीर. संस्कार के लिए वे यत्न नहीं करते हैं । भगवान् वीतराग एवं आत्म ટીકર્થ-કર્મનિર્જરા માટે આયુર તપ કરવાવાળા હેવાથી તપરવી તથા માહન અર્થાત્ બાર પ્રકારના તાપમાં પ્રવૃત્ત તથા ને ઘાત (હિંસા) ન કરવાને ઉપદેશ આપવા વાળા ભગવાન્ મહાવીર સ્વામી કેવળજ્ઞાન દ્વારા સંપૂર્ણ લેકને જાણીને ત્રસ અને સ્થાવર પ્રાણના ક્ષેમંકર છે. બાર પ્રકારની સમવસરણ સભામાં બિરાજમાન થઈને વિસ્તાર પૂર્વક ધર્મદેશના આપવા છતાં પણ તેઓ એકાન્તને જ અનુભવ કરે છે. કેમકે તેઓના ગદ્વેષને પૂર્ણ રીતે ક્ષય-નાશ થઈ ચુકેલ છે. તેઓની વેશ્યા, અર્ચા, અથવા શરીર પહેલા પ્રમાણે જ છે. અશોક વૃક્ષ વિગેરે આઠ પ્રકારના મહાપ્રાતિહાર્યોથી યુક્ત હોવા છતાં પણ તેઓને અહંકાર નથી. શરીરના સંસ્કાર માટે તેઓ પ્રયત્ન કરતા નથી. ભગવાન વીતરાગ અને આત્મનિષ્ઠ For Private And Personal Use Only Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुनेर्गोशालकस्य संवादनि० ५७५ तदुक्तम्-रागद्वेषो विनिनित्य किमरण्ये करिष्यसि । ___अथ नो निर्जितावेतौ किमरण्ये करिष्यसीति ।।गा० १॥ मूलम्-धम्मं कहतस्स उ गस्थि दोसो, खंतस्स दंतस्स जिइंदियस्स। भासा य दोसे य विवज्जगस्त, गुणे य भासा य णिसेवगस्त ॥५॥ छाया-धर्म कथयतस्तु नास्ति दोषः क्षान्तस्य दान्तस्य जितेन्द्रियस्य । भाषायाः दोषस्य विवर्जकस्य गुणश्च भाषाया निषेत्रकस्य । ५॥ निष्ठ होने के कारण जनसमूह से घिरे होने पर भी एकाकी हैं। उनके लिए दोनों अवस्थाएँ समान हैं। कहा भी है-'रागद्वेषौ विनिर्जित्य' इत्यादि। 'यदि राग और द्वेष पर विजय प्राप्त करलिया है तो अरण्य में जाकर क्या करेगा? और यदि रागद्वेष नहीं जीते हैं तो भी जंगल में चले जाने से क्या लाभ ? ॥४॥ 'धम्मं कहंतस्स' इत्यादि। शब्दार्थ-'धम्म-धर्म' श्रुत चारित्र धर्मका 'कहतस्स-कथयतः' उपदेश देनेवाले को 'दोसो णस्थि-दोषो नास्ति' कोई दोष नहीं होता। क्यों कि-'खंतस्य-क्षान्तस्य' क्षान्त क्षमायुक्त 'दंतस्स -दान्तस्य' दान्त 'जिइंदियस्स-जितेन्द्रियस्य जितेन्द्रिय 'य-च' और 'भासाय दोसे विव. ज्जगस्स-भाषायाः दोषविवर्जकस्थ' भाषा के दोषों को छोडकर 'भासाહેવાથી જનસમૂહથી ઘેરાયેલા હોવા છતાં પણ એકલા જ છે. તેને બને अस्थायी सरभी . खुप छ है- 'रागद्वेषौ विनिर्जित्य' त्या જે રાગ અને દ્વેષ પર વિજય પ્રાપ્ત કરી લીધું હોય તે જંગલમાં જઈને શું કરવાનું બાકી રહે છે અને જે રાગદ્વેષ જીતેલ નથી તે પછી જંગલમાં જઈને શું લાભ થવાનો છે? પગાકા ____ 'धम्म कह तस्त्र' या मा- 'धम्म-धर्म' श्रुत यात्रि३५ मन 'कहंतस्स-कथयतः' अपहेश पावणाने 'दोस्रो णस्थि-दोषो नास्ति' ॐ४ ५४ होष नथी. भ3'खंतस्स-क्षान्तस्य' क्षान्त-क्षमाशात अने, 'दतस्स-दान्तस्य' हान्त तथा 'जिई. दियस्स-जिवेद्रियस्य' waन्द्रिय 'य च' अन 'भामा य दोसे विवज्जगस्स-भाषायाः For Private And Personal Use Only Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थ:-(धम्म) धर्म-श्रुनचारित्रलक्ष गम् (कहंतस्स) कथयतः-उपदिशतः (दोसो गस्थि) दोषो नास्ति कस्मात् (खंतस्स) क्षन्तियुक्तस्य (दंतस्स) दान्तस्यदमनेन विजितमनमः (जिइंदियस्म) जितेन्द्रियस्थ (अ) च-पुन (भासा य दोसे य विवज्जगस्स) भाषायाः दोषस्य विवर्जकल्य-भाषादोषरहिस्स (भासाय निसेव गस्स) भाषाया निषेत्रकस्य-भाषासेपनम् (गुणे य) गुणश्व-गुणरूपं भवति न तु दोषायेति भावः ॥५॥ टीका- 'धम्म' धर्मम्-श्रुतचारित्रलक्षणम् 'कहतस्स उ' कथयतस्तु धर्मकथा कथयतस्तस्य 'दोसो दोषः 'गत्यि' नास्ति. धर्ममुपदिशतोऽपि कथं न दोषस्त पाह--'खास' क्षानास्य-सपया समापरीषहसहनशीलसा 'दंत' दान्तस्यविवेकाङ्कासनेन विजितमनमः निइंदिवस जितेन्द्रियस्य-जितानि-स्ववि षयप्रवृत्तिनिषेधेन इन्द्रिपाणि यस्य द्वादशस्य 'भासाय दोसे य विवज्जास' भाषाया दोषस्य विकस्य-भाषादोषाः-असत्य सत्यामृषाकर्म शासभ्यशब्दोय णिसेवगस्सा' भाषाया निषेधास्य-भाषाका प्रयोग करने वाले को तो वह 'गुणे घ-गुण श्व' गुण ही होता है।५।। अन्वयार्थ-श्रुनचारित्र धर्म का उपदेश करने वाले को कोई दोष नहीं होता , क्योंकि क्षान्त-क्षमायुक्त, दान्त, जितेन्द्रिय और भाषा संबंधी दोषों को त्याग कर भाषा का प्रयोग करने वाले को तो गुण ही होता है ॥५॥ टीकार्थ-श्रुत और चारित्र रूप धर्म का कथन करने वाले भगवान् महावीर को कोई दोष नहीं होना है। इसका कारण यह है कि भगवान् घोर परीषह और उपसर्ग को सहन करने में समर्थ हैं, मनोविजयी हैं, जितेन्द्रिय है अर्थात् इन्द्रियों के विषयों में रागद्वेष से रहित है तथा भाषा के समस्त दोषों से रहित हैं। असत्य होना, सत्यासत्य होना, दोषविवर्जकस्य भाषाना होपना त्याने 'भासा य णिसेवगास-भाषाया निषेवकस्य' मावाने प्रयास ४२वाणानता ते 'गुणे य-गुणश्च' शु४ डाय छ ।मा०५॥ અન્વયાર્થ– શ્રતચારિત્ર ધર્મને ઉપદેશ કરવા વાળાને કંઈજ દોષ હિતે નથી. ક્ષાન્ત-ક્ષમાયુક્ત દાન્ત, જીતેન્દ્રિય અને ભાષાના દેને ત્યાગ કરીને ભાષાને પ્રવેશ કરવાવાળાને તે ગુણ જ હોય છે. ટીકાથ–શ્રત અને ચારિત્ર રૂપ ધર્મને ઉપદેશ આપવા વાળા ભગવાન મહાવીરને કંઈ પણ દોષ લાગતું નથી. તેનું કારણ એ છે કે-ભગવાન ઘેર પરીષહ અને ઉપસર્ગ સહન કરવામાં સમર્થ છે મનોવિજયી છે. જીતેન્દ્રિય છે. અર્થાત ઈદ્રિયોના વિષયમાં રાગદ્વેષ વિનાના છે. તથા ભાષાના સઘળા દેથી રહિત છે. અસત્ય કેવુ, સત્યાસત્ય હે, કર્કશપણુંવાળું દેવું. કઠોરપણું હોવું અને For Private And Personal Use Only Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. भु. अ. ६ आर्द्रकमुनेगोशालकस्य संवादनि० ५७ च्चारणादयस्तद्विवर्जकस्य 'भासाय णिसेवगस्स गुणे य' भाषाया निषेत्रकस्य गुणश्च, तथा भाषाया ये गुणा:-हित्तमितदेशकालानुरूपाऽसंदिग्धभाषणादय स्तन्नि षेत्रकस्य-ब्रुवतो नास्ति दोषः, छद्मस्थस्य वाहुल्येन मौनव्रतमेव श्रेयः, समुत्पन्न केवलज्ञानस्य भाषणमपि गुणायैवेति भावः ॥५॥ मूलम्-महवए पंच अणुव्वए य तहेव पंचासवसंवरे य । विरति इंह सामणियमि पुन्ने लत्रावसकी समणे तिमि ॥६॥ छाया- शहावतान् पश्चाणुवांश्च तथैः पञ्चास्वसंवरांश्च । विरतिमिह श्रामण्ये पूर्ण लपाववष्की श्रमण इति ब्रवीमि ॥६॥ . कर्कशतो (कठोरपना) होना, असभ्य (अशीष्ट) शब्दों का उच्चारण करना इत्यादि, भाषा के दोष हैं। भगवान हन सय दोषों से रहित हैं। वे भाषा के गुणों का सेवन करते हैं अर्थात् हित, मित, देशकाल के अनुरूप, असंदिग्ध वाणी बोलते हैं। इस कारण उन्हें दोष कैसे हो सकता है! छनस्थ अवस्था में मौन श्रेयस्कर है किन्तु केवलज्ञान उत्पन्न होने पर भाषण करना ही गुणकारी है ॥५॥ 'महब्धए पंच अणुव्वए य' इत्यादि। शब्दार्थ--'आई कमुनि गोशालकसे कहते हैं-हे गोशालक । भगवान् महावीर 'लवावसक्की-लवाववष्को' घातिक कर्म से दूर हो गई हैं। 'समणे-श्रमणः' तपश्चरणशील संयम में वर्तमान साधुओं के लिए 'पंच महन्धए-पञ्चमहाव्रतान्' प्राणातिपात विरमण आदि पांच महाઅસ (અશીષ્ટ) શબ્દનું ઉચ્ચારણ કરવું. વિગેરે ભાષાના દે છે. ભગવાન આ બધા દે વિનાના છે. તેઓ ભાષાના ગુણનું સેવન કરે છે. અર્થાત હિત, મિત, અને દેશકાળને અનુરૂપ, અસંદિગ્ધ વાણી બોલે છે. આ કાફે તેઓને દોષ કેવી રીતે હોઈ શકે છે? છદ્મસ્થ અવસ્થામાં મૌન ધારણ કરી એજ શ્રેયસ્કર છે. પરંતુ કેવળજ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય ત્યારે ભાષણ કરી એજ ગુણ કારક છે. ગા૦૫ 'महव्ययं पंच अणुव्वए य' त्यादि सन्हा- शाas ! भावान् महावीर 'लवावसको-लवावष्वकी' पातियाथी छूटी गयेा छ, 'समणे-भ्रमणः' तपश्चरgle मधुमाने आरे 'पंचमहब्बए-पञ्चमहाप्रतान्' प्रायातिपात विRHI GR in Hindi सू० ७३ For Private And Personal Use Only Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ASC www.kobatirth.org सूत्रकृताङ्गसुत्रे अन्वयार्थः -- आर्द्रकमुनिः कथयति - हे गोशालक ! (लवावसक्की) लवावच्वकी-पातिकर्मणो दूरवर्ती (समणे) श्रमण स्वपचरणशीलः भगवान् महावीरः साधूनुद्दिश्य (पंचमहन्त्रप) पञ्चमहाव्रतान् प्राणातिपातविरमणादीन् (पंच अणुन्नए) पञ्चानुवतान् लघुमाणातिपातविरमणादीन् श्रावकोदेशेन (देव) सथैव (पंचासदसंबरे य) पञ्चास्रवसंवरांश' पंञ्चास्त्रवान् प्राणातिपातादीन् कर्मणः प्रदेशद्वारभूतान संवरांच-दशम कारकसंयमांथ (पुन्ने सामणिमि) पूर्णे श्रामण्ये - संयमे सः (विरह) विरर्ति-साधकर्मणो निवृत्तिम् च शब्दात् जीवाजीव पुण्यपापवन्धनिर्जरामोक्षाणं चोपदिशतीति (तिमि ) इत्यहं व्रीमि - कथयामीति ॥ ६ ॥ टीका- आई कनिः कथयति - 'लवावसकी सरणे' लावष्वष्की श्रमण:लत्रः - कर्म तस्मादवकी - आ-दूरम् सर्पगशील इति वावयष्की, श्राम्यतीतिबतों का तथा पंच अणुत्रए - पञ्च अणुव्रतान्' पांच अणुव्रत 'तहेवतथैव' तथा 'पंचासवे - पश्चास्त्रयः' पांच आस्त्रयों का 'संवरे य-संवरां ' सतरह प्रकार के संवरों का 'पुन्ने सामणियंमि-पूर्णे श्रावये' पूर्ण संघम में वर्तते हुए सावद्य कर्म की निवृत्ति का और पुण्य पाप बन्ध निर्जरा एवं • मोक्ष का उपदेश करते हैं । 'सिबेमि इति ब्रषीमि' ऐसा मैं कहता हूँ ||६|| अन्वयार्थ - आवक मुनि गोशालक से कह रहे हैं - हे गोशालक ! भगवान् महावीर घातिक कर्मों से दूर हो चुके हैं- हे तपश्चरणशील हैं वे पूर्ण श्रमण्य संयम में वर्तते हुए साधुओं के लिए प्राणातिशतविरमण आदि पांच महाव्रतों का, श्रावकों के लिए पांच अनों का तथा पांच आस्रवों का, सत्तरह प्रकार के संयम का, fara का अर्थात् सावध कर्मों की निवृत्ति का और पुण्य, पाप, बन्ध, निर्जरा एवं मोक्ष का उपदेश करते हैं। ऐसा मैं कहता हूँ ॥ ६ ॥ तथा 'प'च अणुव्व - पञ्च अणुश्रतान्' पांय आयुक्त 'तहेव - तथैव' तथा 'पचासवे - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्रवः' पांय भासवानुं 'संवरेय-संवरध' सत्तर अमारना सवनु' 'पुन्नेसोमणियमि- पूर्ण श्रामण्ये' पू' श्रामस्यमां रखीने 'विरई - विरतिः' अर्थात् सावध ક્રમની નિવૃત્તિને અને પુણ્ય, પાપ, અન્ય, નિરા અને મેક્ષના ઉપદેશ આપે છે. એ પ્રમાણે હું કહુ. છુ. ગાા અન્વયાય—દ્ર કમુનિ ગે શાલકને કહે છે કે—હે ગોશાલક ! ભગ વાત્ મહાવીર ઘાતિયા કર્મોથી દૂર થઈ ચૂક્યા છે. તપશ્ચરણ શીલ છે. તેઓ પૂર્ણ શ્રામણ્ય સત્યમમાં વતા થકા સાધુએ માટે પ્રાણાતિપાત વિરમણુ વિગેરે પાંચ મહાવ્રતાના અને શ્રાવક માટે પાંચ અણુવ્રતાના તથા પાંચ આસવાના સત્તર' પ્રકારના સંયમના વિરતિ અર્થાત્ સાવધ કર્મોની નિવૃત્તિના અને પુછ્યું, अध निशाने मोक्षना उपदेश करे छे. रोभ हु हु छ For Private And Personal Use Only Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - -- समयार्थबोधिनो टोका द्वि. श्रु. अ. ६ आई कमुनेगोशालकस्य संवादनि० ५७ श्रमणः-द्वादशविधतपश्चरणशीलः, कर्मणो दूरवती भगवान् महावीर', 'महन्धर पंच अणुधए य' महान तान् पश्चाऽणुबांध उपदिशति पात्रताधुमुद्दिश्य पश्चमहा। व्रतान्-प्राणातिपातादिविरमणलक्षणान् तथा-श्रावकाय पश्चानुव्रतान् स्थूल माणातिपातादिविरमणलक्षणान् 'तहेव' तथैव 'पंचासवसंवरे य' पञ्चाश्रवसंवरच -पञ्च आश्रवान् पाणातिपातीन मिथ्यात्वाविरत्यादीन् संवरांश्च सप्तदशपकारकसंयमान 'पुन्ने सामणियमि।' पूर्णे श्रामण्ये संयमे 'विरति इह विरतिम् उपदि. शतोति-सावद्यकर्म गो नियत्तिम्, च शब्दात् जीवाजीवपुण्यपापनिर्जरामोक्षांश्च एतानुपदिशशीत्यर्थः, आई गोपाल कंपति कथयति-तिबेमि' इति-हे गोशालक! इत्यहमा कः कथयामोति। भगवान् तीर्थ करो महावीरः स्वयमाचरति एतान् टोकार्थ-लव का अर्थ है घातिक कर्म । उससे जो दूर हट जाता है वह 'लगावसकी' कहलाता है । बारह प्रकार के तपश्चरण में जो सदा निरत रहता है वह 'श्रमण' कहा जाता है। भगवान् महावीर. इन गुणों से विभूषित हैं । वे पात्र का विचार करके साधुओं के लिए पांच महावतों का, श्रावकों के लिए पांच अणुव्रतों का प्राणातिपात आदि अथवा मिथ्यात्व आदि पांच आस्रवों का, सत्तरह प्रकार के संयम का पूर्ण श्रामण्य में विरति अर्थात् पापमय कृत्यों से निवृत्ति का उपदेश देते हैं । 'च' शब्द से जीव, अजीव, पुण्य, निर्जरा और मोक्ष का भी उपदेश देते हैं। आईक गोशालक से कहते हैं-ऐसा मैं आईक कहता हूँ। आशय यह है की तीर्थकर भगवान् श्री महावीर स्वयं चारित्र का पालन करते हैं और जनसमूह में साधुओं के लिए पांच महाव्रतों का ટીકાર્થ– લવને અર્થ ઘાતિયા કર્મ છે. તેનાથી જે દૂર ખસી જાય તે 'लवावसककी' उपाय छे. ५.२ प्रारना त५श्वरमा रे सा रहे. તે શ્રમણ કહેવાય છે. ભગવાન શ્રી મહાવીર આ ગુણેથી શેભાયમાન છે. તેઓ પાત્રને વિચાર કરીને સાધુઓને પાંચ મહાવ્ર તથા શ્રાવકે માટે પાંચ અણુવ્રતને અને પ્રાણાતિપાત વિગેરે અથવા મિથ્યાત્વ વિગેરે પાંચ આર્સ વેને સત્તર પ્રકારના સંયમને પૂર્ણશ્રામમાં વિરતિ અર્થાત્ પાપમય કોથી નિવૃત્તિનો ઉપદેશ આપે છે. “ર' શબ્દથી જીવ, અજીવ, પુણય નિજેરે, અને મોક્ષને પણ ઉપદેશ આપે છે. - આદ્રકમનિ વિશેષમાં શૈશાલકને કહે છે કે-આ પ્રમાણે હું આદ્ધક કહુ છું. કહેવાને આશય એ છે કે-તીર્થકર ભગવાન શ્રી મહાવીર સ્વયં થાપિ ત્રનું પાલન કરે છે. અને જનસમૂહમાં સાધુઓ માટે પાંચ મહાવ્રતનાં તથા For Private And Personal Use Only Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - PRITAMR . MR. ......... . सूत्रकृतासो नमा जिनसम्हे साधुमुद्दिश्य पञ्चमहावतानां श्रावकोद्देशेन पश्चाऽणुव्रतानामाख. पामा संवराणां पूर्ण श्रामण्ये विरतेश्च निर्जरामोक्षाणां चोपदेशं ददातीति भावः॥६॥ इल्म-सीओदगं सेवउँ बीयकायं आहाय कम्मं तह इत्थियाओ। एगंतचारिस्सिह अम्हधम्मे, तवरितणो णाभिसमेइ पावं ॥७॥ छाया--शीतोदकं सेवा बीजकायम् आधाकर्म तथा स्त्रियः । एकान्तचारिण इहाऽस्मद्धर्मे तपस्विनो नाभिसमेति पापम् ॥७॥ आन्वयार्थ:--भो आईक ! (एगंत चारिस्सिह) एकान्तचारिण इह (त. स्सिणो) तपस्विन:-तपश्चरणशीलस्य (अम्ह धम्मे) अस्मद्धर्मे 'सीमोदग' शीतो. तथा श्रावकों के लिए पांच अणुब्रतों का और आश्रव, संवर विरति, निर्जरा एवं मोक्ष का उपदेश करते हैं।६।। 'सीओदगं सेवउ बीयकायं' इत्यादि। शब्दार्थ--गांशालक कहते हैं-हे आईक ! 'एगंतचारिस्सिहएकान्तचारिण इह' जो पुरुष एकान्त चारी और तवस्सिणो-तपस्विनः' तपस्वी है 'अम्हधम्मे-अस्मद्धर्मे' वह हमारे धर्म के अनुसार 'सीओ. इंग-शीतोदकं' शीतल जलका 'बीयकायं-बीजकायम् बीजकायका "आहाय कम्म-आधार्मिकम् आर्धाकर्मी आहार का और 'इस्थियाओ -स्त्रिया' स्त्रियों को 'सेवउ-सेवतां' सेवन करते तो भी 'पावं-पापम्' पाप 'नाभिसमेह-नाभिसमेति' नहीं लगता है ॥गा-७॥ - अन्वयार्थ-गोशालक कहता है-हे आर्द्रक ! जो पुरुष एकान्त 'चारी और तपस्वी है, वह हमारे धर्म के अनुसार शीतजल का, बीजશ્રાવકે માટે પાંચ અણુવ્રતને અને આસવ, સંવર, વિરતિ, નિર્જરા અને મોક્ષને ઉપદેશ આપે છે. ભાગ ૬ __ 'सीओदग सेवउ बीयकायं' त्यात .. शहाथ-- ड छ.--3 मा ! 'एगंतचरिस्सिह-एकान्तधारिण इह' रे ५३५ सन्तयारी भने 'तवस्मिणो-तपस्विनः' त५५वी छे. 'अम्ह धम्मे-अस्मद्धमें से सभा। धर्म प्रमाणे 'सीओदग'-शीतोदकम् ॥ पाथीन 'बीयकायं-बीजकायम्' भी आयर्नु 'अहाय कम्म-आधार्मिकम्' माथा. 6 माहानु भने 'इत्थियाओ-खियः' रियोर्नु 'सेवउ-सेवता' सेवन १ छ, ते ५५ 'पाव- पापम्' ५।५ 'नाभिसमेइ-नाभिसमेति' सातु नथी ॥७॥ અન્વયાર્થી--ગે શાલક આદ્રકમુનિને કહે છે કે--હે આદ્ગક ! જે પુરૂષ શિકાન્તચારી અને તપસ્વી છે. તેઓ આપણા ધર્મ પ્રમાણે ઠંડા પાણીનું For Private And Personal Use Only Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका दि. शु. अ. ६ आर्द्रकमुनेगोशालकस्य संवादनि० ५.१ दकम् (सेवउ) सेवताम् (चीय कार्य) बीजका यम् (आहायकम्म) आधार्मिक तथा-(इत्थियाओ) स्त्रिया-स्त्रीः सेवमानस्यापि (पावं) पापम् (नाभिसमेइ) नाभिसमेति-पापं न भवतीति ॥७॥ ___टीका-गोशालकः कथयति-त्वयेदमुक्तं यत्परार्थ प्रवृत्तस्याशोकादिपातिहार्यपरिग्रहः शिष्यादिपरिकरः धर्मदेशना न दोषाय यथा तया-मम मतेऽपि एत. छीतोदकादिभोजनं न दोषायेति, 'सीभोदग' शीतोदकम् 'बीयकायं' बीजकायमपि 'आहायकम्म' आधार्मिकं भोजनम्, तथा-'इत्थियाओ' स्त्रिया-स्त्रीः 'सेव:' सेवताम्-एतेषां निषेवणं कुर्वन्नपि 'एगंतवारिस्सिह' एकान्तचारिण:-एकाकि. विहारिणः, 'तपस्सिणो' तपस्विनः-परिवानास्य 'अम्हधम्मे' अस्मद्धम 'पावं' पापम् णाभिसमेई' नाभिसमेति-न लगति। इत्थं गोशालकः स्वधर्मसिद्धान्त काय का, आधाकर्मी 'आहार का और स्त्रियों का सेवन करे तो भी उसे पाप नहीं लगता । ७॥ ___टोकार्थ-गोशालक बोला तुम्हारा कथन है कि जो वीतराग है एवं परहित के लिए प्रवृत्त है, उसके लिए अशोक वृक्ष आदि परिग्रह, शिष्यादि परिवार तथा धर्मोपदेश करना दोष का कारण नहीं है, इसी प्रकार हमारे मत में सचित्त जल का सेवन, बीज काय का भक्षण, आधार्मिक आहार तथा स्त्रियों का सेवन करने वाला भी एकान्त. चारी और तपस्वी पाप का भागी नहीं होता है। गोशालक आईक को अपना मत बतलाता हुआ कहता है-अहो आईक ! हमारा यह सिद्धान्त है कि जो तपस्वी है और एकान्तचारी બીજકાનું આધાકર્મી આહારનું અને પ્રિનું સેવન કરે તે પણ તેને પાપ લાગતું નથી. ઘણા ટીકાર્થ–મેશાલકે કહ્યું–તમારું કહેવું છે કે-જે વીતરાગ છે, અને પરહિત માટે સદા પ્રવૃત્ત છે, તેઓને માટે અશોકવૃક્ષ વિગેરે પરિગ્રહ શિષ્ય વિગેરે પરિવાર તથા ધર્મને ઉપદેશ કરે તે દોષનું કારણ નથી. એજ પ્રમાણે અમારા મત પ્રમાણે સચિત્ત પાણીનું સેવન, બીજકાયનું ભક્ષણ, આધાર્મિક આહાર તથા પ્રિનું સેવન કરવાવાળા પણ એકાતચારી અને તપસ્વી પાપના ભાગી થતા નથી. ' ગોશાલક આદ્રકને પિતાને મત બતાવતાં કહે છે કે–અહે આદ્રકા અમારે આ સિદ્ધાંત છે કે-જે તપવી હોય છે, અને એકાન્તચારી હોય છે, For Private And Personal Use Only Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - ५८२ स्कृता प्रदर्शयति-आई के प्रति, भोः ! मदीय एष सिद्धान्तः, यो हि तपस्वी एकान्तचारी स यदि शीतजलस्य बीनकन्दादीनां स्त्रीणामपि उपभोगं करोति, तदाऽपि तस्य पापकर्मबन्धो न जायते इति ॥७॥ मूलम्-सीओदयं वा तहबीयकायं आहायकम्मं तह इत्थियाओ। एयाइं जाणं पडिसेवमाणा अगारिणो अस्समणा भवंतिा। छाया--शीतोदकं वा तथा बीनकायम् आधाकर्म तथा स्त्रियः। ___एतानि जानीहि पतिसेवमाना अगारिणो अश्रमणा भवन्ति ॥८॥ अन्वयार्थ :--(सीओदगं) शीतोदकम् (तह) तथा (बीयकाय) बीनकायम्सचित्तबीजयुक्तं वनस्पतिकायम् (तह) तथा (आहायकम्म) आधाकर्म (तह) तथा है वह यदि शीतल जल का बीज कन्द आदि का यहां तक कि स्त्रियों का भी भोग करे तो भी उसे पापकर्म नहीं बंधता ॥७॥ 'सीयोदगं वा तह बीयकार्य' इत्यादि। . .. शब्दार्थ-'सीमोदगं-शीतोदकम्' जो शीतल जलका 'तहा-तथा' तथा बीयकायं-बीजकायम्' बीजकायका अर्थात् सचित्त बीजों वाली वनस्पतिकाय का तह-तथा' तथा 'इत्थियाओ-स्त्रिया' स्त्रियों का 'एघाई-एतानि' इन सबको 'पडिलेवमाणा-प्रतिसेवमानाः' सेवन करते हैं वे चाहे तप करते हो अथवा न करते हो किन्तु ये 'अगारिणो-अगा रिणः' गृहस्थही है। 'अस्समणा-अश्रमणा:' वे श्रमण नहीं हो सकते। 'जाणं-जानीहि' इस घातको समझलो यह गोशाल कके प्रति आईक का कथन है॥८॥ _ अन्वयार्थ-जो शीतल जल का, चीनकाय का अर्थात् सचिस તે જે ઠંડા પાણીનું બીજકાય આદિનું એટલા સુધી કે સ્ટિયનું પણ સેવન કરે તે પણ તેને પાપકર્મને બંધ થતું નથી. ગા ૦૭ ___'सीओदग वा तह बीयकाय त्याहि Awar-'सीओदगं-शीतोदकम्' Anane 'तहा-तथा' तथा 'बीय. काय-बीजकायम्' माय मर्यात सयित्त भी वाणी वनस्पति तह-तथा' 'इत्थियाओ-स्त्रियः' रियो 'एयाई-एतानि' 20 अयानु “पडिसेवमाणा-प्रतिसे. वमानाः सेवन रैछे. तमा यात त५ पुरता हाय अथवा न उरता होय, परंतु तसे। 'अगारिणो-अगारिणः' ७२५ ४ छे. 'अस्समणा-अश्रमणाः' तसे। अभय 5 शता नथी. 'जाणं-जानीहि' पात समो . मा શૈશાલક પ્રત્યે આદ્રકનું કથન છે. ગા૦૮ અયાર્થ—જેઓ શીતલ જલનું બીજકાયનું અથત સચિત્ત બીવાળી For Private And Personal Use Only Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका दि. शु. अ. ६ आर्द्रकमुनेगोशालकस्य संवादनि० ५८३ (इत्थियागो) स्निगः-स्त्रीः (एयाई) एतानि (पडि सेवमाणा) प्रतिसेवमानाः-एतेषां सेवनकर्तार स्तपाकारिणोऽकारिणो वा भवन्तु किन्तु एते (भारिणो) अगा. रिणो गृहस्था एव । (अस्तमणा) अश्रमणा:-न श्रमणाः नेते साधो भवन्तीति (जाणं) जानीहि-हे गोशालक ! इत्याकः कथयति ॥८॥ टीका-सुगमा ॥८॥ मूलम्-सिया य बीयोदंगहथियाओ, पडि सेवमाणा समणा भवतु। अगारिणो वि समणां भवंतु, सेवंति उ ते वि तहप्पगारं ॥९॥ छाया--स्याच्च बीजोदकस्त्रियः प्रति सेवमानाः श्रमणा भवन्नु । अगारिणोऽपि श्रमणा भवन्तु सेवन्ते तु तेऽपि तथाष फारम् ।९।। पीजों वाली वनस्पति का, आधार्मिक आहार का और स्त्रियों का सेवन करते हैं, वे चाहे तप करते हों या न करते हों, किन्तु गृहस्थ ही हैं । वे श्रमण नहीं हो सकते। इस बात को समझ लो यह गोशालक के प्रति आद्रंक का कथन है ॥८॥ टीका सरल है ॥८॥ 'सिया य वीयोदगहथियाओ' इत्यादि। शब्दार्थ-फिरसे आईक मुनि कहते हैं-बीज आदिका सेवन करने वालों की साधुता का निषेध करके अब उस मतमें बाधक युक्ति दिखलाते हैं-'सियाय - स्थाच्च कदाचित् 'बीयोदाइस्थियाओ-बीजोदकस्त्रियः' सचित्तबीज सचित्त जल और स्त्रियों का 'पडिसेवमाणा-प्रतिसेवमाना" વનસ્પતિનું આધાકર્મ આહારનું અને સિનું સેવન કરે છે. તેઓ તપ કરતા હાય અથવા ન કરતા હોય પરંતુ તેઓ ગૃહસ્થ જ છે. તેઓ શ્રમણ થઈ શકતા નથી. એ વાત સમજી લે. આ પ્રમાણે ગે શાલકને આદ્રકમુનિએ કહ્યું. ૮ આ ગાથાને ટીકાર્ય સરળ છે. ... 'सीया य बीओदगइत्थियाओ' त्याह શબ્દાર્થ–ફરીથી આદ્રક મુનિ બીજ વિગેરેનું સેવન કરવાવાળાઓના साधुपयाना निषेध ४शन हवे भतनी मा युति मता छ. 'सियायस्याच्च' ४४य 'बीयोदगइत्थियाओ-बीजोदकस्त्रियः' सयित्त भी साथित्तपाणी, भने श्रियानु 'पड़िसेवमाणा-प्रतिसेवमानाः' सेवन ४२१/वाणा ५९५ 'समणा For Private And Personal Use Only Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतासूचे - अन्वयार्थ:--पुनराईको मुनिः पाह-बीजाधु भोगकारिणां साधुत्वं पतिः विध्याऽत्र साधकाऽभावान् दर्शयन् बाधकमपि ब्रूते । (सियाय) स्याञ्च (बीयोदगइत्थियाओ) बीजोदकस्त्रियः बीजं शीतोदकं तथा-नि: (पडि सेवमाणा) प्रतिसेवमानाः, एतेषां सेवनकारोऽपि (समणः) श्रमणा:-गायो भवन्तु । किमपराद्धम् । (ते वि) ते-गृहस्था अपि (तहपगारं) तथाप्रकार-शीतोदकादिकम् (सेवंति उ) सेवन्ते एव, यदि शीतोदकादिसेवनकर्तारः साधो भवेयु स्तदा गृहस्था अपि साधकः स्युः । यत उभयोरपि असेव्यसेवनस्य समानता । अतो भवसिद्धान्तसिद्ध साधुवपरिभाषा न समीचीना, गृहस्थेऽपि तस्याः सत्त्वात्।९। ।टीका-सुगमा ।।९॥ सेवन करने वाला भी 'समणा-श्रमणाः' यदि साधु हो सकता है, तो गृहस्थों ने क्या अपराध किया है ? अर्थात् उन्हें भी साधु क्यों न मान लिया जाय ? 'ते वि-ते अपि' वे भी 'तहपगारं-तथाप्रकारम्' सचित्त जल आदि का सेवंति उ-सेवन्ते एव' सेवन करते हैं। जय सचित्त जल और स्त्रीका दोनों ही सेवन करते हैं, तो साधु आर गृहस्थ में अंतर ही क्यारहा ऐसा मानने पर तो सथ गृहस्थ भी साधु ही कहलाएंगे क्योंकि वह युक्ति, गृहस्थ में भी घटित होती है ।९। ___ अन्वयार्थ-आईक मुनि बीज आदि का सेवन करने वालों की साधुना का निषेध करके अब उस मत में बाधकयुक्ति दिखलाते हैंसचित्त बीज, सचित्त जल और स्त्रियों का सेवन करने वाले भी यदि साधु हो सकते हो तो गृहस्थों ने क्या अपराध किया है ? उन्हें भी साधु क्यों न मान लिया जाय ? वे भी सचित्त जल आदि का सेवन श्रमणाः' ने साधु मनी २४ता अाय, तो क्यामे ॥ १५२१६ या छ ? अर्थात् तमोर पण साधु म न माना ? 'वेवि-तेऽपि' ते ५g 'तहप्प. गारं-तथाप्रकारम्' सथित्त पाणी विगेरेनु सेवंति उ-सेवन्ते एव' सेवन કરે જ છે. જ્યારે સચિત્ત પાણી અને ચિયે નું સેવન આ બન્ને કરે છે, તે પછી સાધુ અને ગૃહસ્થમાં શું ફરક છે? આમ માનવાથી તે બધા ગૃહસ્થ પણ સાધુ જ કહેવાશે. તેથી જ આપે સાધુની જે વ્યાખ્યા કરી છે, તે બરે. બર નથી. કેમકે તે ગૃહસ્થામાં પણ ઘટે છે. ગા૦૯ અન્યયાર્થ–આદ્રક મુનિ બીજ વિગેરેનું સેવન કરવાવાળાના સાધુપણાને નિષેધ કરીને હવે તે મતના ખંડનની યુક્તિ બતાવે છે.–સચિત્ત બીજ સચિત્તજલ અને સિનું સેવન કરવાવાળા પણ જે સાધુ થઈ શકતા હોય તે ગૃહસ્થોએ શું અપરાધ કર્યો છે? તેઓને પણ સાધુ કેમ For Private And Personal Use Only Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रमग्रारंबोधिनी टीका द्वि.श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुने!शालकस्य संवादनि० मूलम्-जे यावि बीयोदंगभोइभिक्खू , भिक्खं विहिं जायंति जीवियट्री। ते णाइसंजोगमवि पहाय कायोवगाणंतकरी भवंति।१०। छाया-- ये चापि बीजोदकमोजिमिक्षयो, भिक्षाविधि यान्ति जीवितार्थिनः । ते ज्ञातिसंयोगमपि प्रहाय, कायोपगा नान्तकरा भवन्ति ॥१.० तो करते हैं । जब सचित्त जल और स्त्री का सेवन दोनों ही करते हैं तो साधु और हाथ में अन्तर ही क्या रहा? ऐसा मानने पर तो सब गृहस्थ भी माधु ही कहलाएँगे। अतएव आपने साधु की जो परिभाषा कहती है, वह ठीक नहीं है, क्योंकि वह गृहस्थ में भी घटित होती ॥९॥टीका सरल ही है ॥९॥ 'जे याचि बीयोदाभोइभिक्खू इत्यादि । शब्दार्थ---आईक मुनि पुनः कहते हैं-जे यावि-ये चापि' जो 'भिक्खू-भिक्षुः' भिक्षु होकर भी 'बीयोदगभोह-धीजोदकमोजिना सचित्त बीज एवं सचित्त जलका सेवन करते हैं, और 'जीवियद्योजीवितार्थिनः' जीवननिर्वाह के लिए 'भिक्खं विहिं जायंति-भिक्षाविधियान्ति' भिक्षावृत्ति करते हैं ते णाइसंजोगमवि पहाय-ते ज्ञाति संयोगमपि प्रहाय' वे अपने ज्ञाति जनों बन्धु, बान्धवों के संपर्क को त्यागकरके भी 'कायोवगा-कायोपगाः' अपनी कायाका ही पोषण करने માની લેવામાં ન આવે? તેઓ પણ સચિત્ત જલ સ્વી વિગેરેનું સેવન કરે છે. જે સાધુ અને ગૃહસ્થ અને સચિત્ત જલ અને સ્ત્રિોનું સેવન કરતા હોય તે સાધુ અને ગૃહસ્થમાં શું ફેર છે? જો એમ જ માનવામાં આવે તે સઘળા ગૃહસ્થો પણ સાધુ જ કહેવાશે. તેથી જ આપે સાધુની જે પરિભાષા કહી છે તે બરાબર નથી. કેમકે તે ગૃહસ્થોમાં પણ ઘટિત થાય છે. પાક ટીકાર્થ સરલ જ છે. તેથી અલગ બતાવેલ નથી. 'जे यावि बोयोदगभोइभिक्खू त्या शहाथ-इशयी माद्र मुनि ४ छे-'जे यावि-ये चापि'२ भिखू भिक्षुः' मा ५२ ५५ 'बीयोदगभोई-बीजोदकभोजिनः' सथित भीम सथित पाषानु सेवन ४रे छ, भने 'जीवियद्दी-जीवितार्थिन' पनिalk ४२०॥ भाट 'भिक्खं विहं जायंति-भिक्षाविधि' भिक्षावृत्ति दे ति गाह संजोगमवि पहाय-ते ज्ञातिसंयोगमपि प्रहाय' तेसो त तिanata माधवाना सपना त्या परीने ५४ 'कायोवगा-कायोपगा। पाताना शरीरनु सु० ७४ For Private And Personal Use Only Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुत्रकृतास्त्र अन्वयार्थः-पुनराई को मुनिः प्राह-(जे यावि) ये चापि, च शब्दस्त्वर्थे, तथा च ये तु (भिक्खू) भिक्षवः, ये साधुवेषं परिगृह्यापि (बीयोदगमोइ) बीजोदकभोजिनो भवन्ति, तथा-(जीवियट्ठी) जीवितार्थिनः-उदरम्मरयः (भिक्खं विहिजायंति) मिक्षाविधिं यान्ति, ये भूत्वाऽपि साधवः बीजकायान् शीतोदकादिकं सेवन्ते तथोदरपोषणाय भिक्षावृत्ति कुर्वन्ति । ते (गाइसंजोगमविप्पहाय) ते पूतिकर्मनिरत : रुकी यज्ञातिब धुवान्धवानां कर्मकराः संयोग प्रहायाऽपिपरित्यज्याऽपीति । (कायोवगा) कायोरगाः-देवेघोषणेषु नमानसाः (गंतकरा भवंति) नान्तकारा भवन्ति-उदरम्भरयो कोके कर्मणां न विनाशका, भवन्ति अन्तकरा न भवन्तीति ॥१०॥टीका-सुगमा ॥१०॥ कम्-इमं वयं तु तुम पाउकुवं पावाइणो गरिहँसि सबएव। पावाइणो पुढो किंट्रयता सयं सयं दिहि करेंत पाउं।११। वाले हैं ऐसे भिक्षाजीवी-पेटू अपने कर्मों का 'णंतकरा भवंति-नान्त करा भवन्ति' अन्त नहीं कर सकते हैं और न उनके जन्म मरणका ही भन्त आसकता है ॥१०॥ • अन्वयार्थ-आद्रक मुनि पुनः कहते हैं-जो भिक्षु होकर भी अपित्त बीज और सचित्त जल का सेवन करते हैं और जीवन निर्वाह के लिए भिक्षावृत्ति करते हैं, वे अपने ज्ञातिजनों, एवं आत्मीय षन्धु. पाययों के संपर्क को त्याग करके भी अपने काय काही पोषण करने वाले हैं ऐसे भिक्षाजीवी-पेटू अपने कर्मों का अन्त नहीं कर सकते और न बनके जन्म-मरण का ही अन्त आ सकता है ॥१०॥टीका सरल है ॥१०॥ पास ४२पापा 2. 0 लक्षापी-पेटस। पाताना भान 'गंतकरा भवति-नान्तकरा भवन्ति'. मत ४री शाता नथी. तथा तमना - भरपना અંત કરી શકતા નથી. પગા૦૧ અન્વયાર્થ–આદ્રક મુનિ ફરીથી કહે છે કે–જે ભિક્ષક થઈને સચિત્ત બીજ અને સચિત્ત જલનું સેવન કરે છે. અને જીવન નિર્વાહ માટે શિક્ષા ત્તિ કરે છે. તેઓ પિતાના જ્ઞાતિજન અને આત્મીય બંધુ બાંધના સંપર્કને હને પણ પિતાના શરીરનું જ પિષણ કરવા વાળા છે. એવા ભિક્ષાજવી ટણ પિતાના કર્મોને અંત કરી શકતા નથી. તેમજ પિતાના જન્મમરમને પણ અંત કરી શક્તા નથી. ૧ કે આ ગાથાને ટીકાથે અન્વયાર્થ પ્રમાણે છે. જેથી અલગ આપેલ નથી, For Private And Personal Use Only Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थयोधिनी टीका वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुनेगोशालकस्य संवादनि० ५. छाया--इमां वाचं तु तं प्रादुष्कुर्वन् प्रवादिनो गर्हसे सर्वानेव। प्रवादिनः पृथक् कीर्तयन्तः स्वको स्वका दृष्टिं कुर्वन्ति प्रादुः ॥११॥.. अन्वयार्थः- गोशालक:-आक्षिपन् कथयति-भोः आर्द्रकमुने ! वीजोदकादिः । सेवमाना न मुच्यन्ते अपितु बन्धनमाजः, इति विकत्थमानः सर्वानेव शास्त्रकतो: निन्दसि । (इमं वयं तु) इमां वाचं तु (पाउकुत्र) मादुष्कुर्वन्-बहिष्पाकाश्यं नयन (तुम) स्वम् (सब्ध एन) सर्वा नेत्र (पावाइणो) प्रादिनः-भावादुकान-शास्त्रकारान, 'इमं वयं तु तुम पाउकुव्वं' इत्यादि । शब्दार्थ-गौशालक आक्षेप करता हुआ कहता है-हे आईक मुनि ! सचित्त जल और बीज आदिका सेवन करनेवाले मुक्ति प्राप्त नहीं करते, किन्तु कर्मवन्ध के भागी होते हैं, 'इमं वयंतु-इमां वाचं तु' इस प्रकार कावचन 'पाउकुव्वं-प्रादुष्कुर्वन्' कहकर 'तुम-स्वम्' तुम 'सव्वएव-सर्वानेव' सभी 'पाचाहणी-प्रावादिनः' प्रवादुक अर्थात् विभिन्न शास्त्रों का वर्णन करनेवाले और ज्ञान के आकार जैसे की 'गरिहसि-गर्हसे' निन्दा करते हो, ये शास्त्रकार 'पुढो-पृथक' वे भिन्न भिन्न प्रकार का कियंता-कीर्तयन्नः कथन करते हुए 'सयं सयं-स्वकीयां स्वकीयां' अपनी अपनी 'दिड-दृष्टिम्' दृष्टि की 'पाउकरें ति-प्रादुष्कु चन्ति' प्रकट करते हैं । किन्तु तुमारे इस कथनसे उन सभी पर आक्षेप होता है। इस प्रकार तुमने उच्छंखल होकर अनुचित आक्षेप किया है।११॥ __ अन्वयार्थ-गोशालक आक्षेप करता हुआ कहता है-हे आद्रक मुनि ! बीज आदि का सेवन करने वाले मुक्ति प्राप्त नहीं करते, किन्तु 'इम वयं तु तुम पाउकुव' त्यात શબ્દાર્થ – શાલક આક્ષેપ કરતાં કહે છે કે હે આદ્રક મુનિ ! સચિન અને જલ બીજ વિગેરેનું સેવન કરવાવાળા મુક્તિ પ્રાપ્ત કરી શક્તા નથી. ५२'तु मम धना ली थायछे. 'इम वयं'तु-इम वाचं तु' मा प्रमाणे पयन 'पाउकुव्व-प्रादुष्कुर्वन्' डीने 'तुम-त्वम्' तमे 'सव्व एव-सर्वानेव' या 'पावाइणो' मा प्रा अर्थात् ॥ Ter शाबानु प न ४२१।१।७, मन ज्ञानना मा१३५ छ, तमानी गरिहसि-गर्हसे' नि ४२। छ।. या शास। 'पुढो-पृथक् तेस। Ye कियंता-कीर्तयन्तः' ४थन ४२त! 231 'सय सयस्वकीयां स्वकीयां' पात पातानी दिद्धि-दृष्टिम्' ने 'पाउकरें ति-प्रादुष्क. वन्ति' प्रगट २ छ, ५२ तमा२६ मा ४थनथी ते मा ५२. मा५ सावे છે. આ રીતે તમે ઉછું ખેલ પણુથી અગ્ય આક્ષેપ કર્યો છે પગાા ૧૧ અન્વયાર્થી–ગોશાલક આક્ષેપ પૂર્વક કહે છે–હે આદ્રક મુનિ બી વિગેરેનું સેવન કરવાવાળા મુક્તિ મેળવી શક્તા નથી. પરંતુ કર્મબંધના ભાગી For Private And Personal Use Only Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतागसर्व (गरिहसि) गईसे-निन्दसि-सर्वेषां निन्दावचनं वदसि, (पावाइणो) प्रवादिनःपावादकास्तत्तत् तीर्थकरास्तत्तच्छास्त्रवर्णनमहिम्ना तत्तज्ज्ञानाकाराः (पुढो) पृथक्पथक (किट्टयंता) कीर्तयन्तः-कथयन्तः (सयं सयं) स्वकीयां पकीयाम् (दिटिं) हिम (पाउकाति) पादुष्कुर्वन्ति-स्वस्वसिद्धान्तान् दर्शयन्तः तेषां श्रेष्ठत्वं वर्णयित्वाऽपि त्वदीय कयनेन ते सर्वे आक्षिप्ता भवन्ति । इति-उच्छृङ्घलेन त्वयाऽ. संगतं कृतमिति प्रष्टुराक्षेपः ॥११॥ मूलम्-ते अन्नमन्नस्लें उ गैरहमाणा, अक्खंति भो समणा माहणा य । सतो य अत्थी असतो य जत्थी, - गरहामो दिहिं जे गरहामो"किंचि ॥१२॥ छाया-तेऽन्योऽन्यस्य तु गर्हमाणा आख्यान्ति भोः श्रमणा माहनाश्च । स्वतथाऽस्ति अस्वतश्च नास्ति, गर्हामहे दृष्टिं न गमि हे किश्चित् ॥१२॥ कर्मबन्ध के भागी होते हैं, इस प्रकार कहकर तुम सभी शास्त्रकारों की निन्दा कर रहे हो । सभी प्रावादक अर्थात् जो विभिन्न शास्त्रों का वर्णन करने वाले और ज्ञान के आकर हैं वे भिन्न भिन्न प्रकार का कथन करते हुए अपनी दृष्टि प्रकट करते हैं। किन्तु तुम्हारे इस कथन से उन सभी पर आक्षेप होता है ! इस प्रकार तुमने उच्छंखल हो कर अनुचित आक्षेप किया है ॥११।टीकार्थ अन्वयानुरूप है ।।११।। -'ते अनमन्नस्स' इत्यादि। ... शब्दार्थ-'ते समणा माहणा य-ते श्रमणा ब्राह्म गोश्च' वे श्रमण और माहन 'अन्नमनस्त-अन्योऽन्यस्य' एक दूसरे की निन्दा और બને છે, આ પ્રમાણે કહીને તમે બધાજ શાસ્ત્રકારની નિંદા કરી રહ્યા છે બધાજ પ્રાવાદુક અર્થાત્ જે આ જૂદા જૂદા શારોનું વર્ણન કરવાવાળા અને જ્ઞાનની ખાણ રૂપ છે. તેઓ જુદા જુદા પ્રકારનું કથન કરતા થકા તિપિતાનું દૃષ્ટિબિંદુ પ્રગટ કરે છે. પરંતુ તમારા આ કથનથી તેઓ બધા પર આક્ષેપ થાય છે. આ રીતે તમેએ ઉછુંબલ બની અાગ્ય આક્ષેપ કરેલ છે. ૧૧૫ આ ગાથાને ટીકાર્ય સરળ છે. તેથી અલગ આપેલ નથી. 'वे अन्नममस्म' या हा -'ते समणा माहणा य-ते श्रमणो ब्राह्मगाश्च ते श्रभ। भने wist 'अग्नमनस्व-अन्योऽन्यस्य' मे मीना निही अने १५४२री रे छ. For Private And Personal Use Only Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुने!शालकस्य संवादनि० ५८९ अन्वयार्थः-आई को गोशालकायोत्तरयति-हहो गोशालक ! नाऽहं कमपि निन्दामि, अपि तु माध्यस्थ्य मास्थाय निर्मलदृष्टया वस्तुस्थिति निरूपयामि । ते दार्शनिकाः स्वमतं पुष्यन्त स्तुष्यन्तो निन्दन्ति परान्, तदायशास्त्रान्तःपाति तत्कथनमेव दर्शयामि । तदुक्तम्हँसी करते हैं 'उ-तु' किन्तु 'गरहमाणा-गर्हमाणाः' निन्दा करते हुए 'अक्खंति-आख्यान्ति' वे कहते हैं कि 'सतो य अस्थि-स्वतश्चास्ति' मेरे दर्शन में प्रतिपादित अनुष्ठान से ही धर्म और मोक्ष होता है 'असतो य नत्यि-अस्वत श्च नास्ति' दूसरों के दर्शनों में कथित अनु प्ठानसे धर्म अथवा मोक्ष नहीं होता है। 'गरहामो दिढ़ि-गोमहे दृष्टिम्' हम उनकी उस एकान्तदृष्टि की गहीं करते हैं पदार्थ सत् ही है या नित्य ही है, इत्यादि एकान्तवादकी निन्दा करते हैं । इसके सिवाय और क्या कहते है ? जो भी कोई एकान्त दृष्टि का अवलम्बन करके वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन करता है, उसका प्रतिपादन यथार्थ नहीं है। ऐसा हम कहते हैं । 'ण गरहामो किंचि-न गर्हामहे किश्चित्' इसमें किसी की निन्दा नही है ॥१२॥ __अन्वयार्थ-वे श्रमण और माहन एक दूसरे की निन्दा और हंसी करते हैं। वे कहते हैं कि मेरे दर्शन में प्रतिपादित अनुष्ठान से ही धर्म और मोक्ष होता है, दूसरों के दर्शनों में कथित अनुष्ठान से धर्म 'उ-तु' ५२ 'गरहमाणा-गर्हमाणाः' निहा १२ता या 'अक्खंति-आख्यान्ति' तम्या ५ -'सतो य अत्थि-स्वतश्चास्ति' भा२॥ ४शनमा प्रतिपाइन ७२० अनुहानथी । घम' मन मोक्ष थाय छे. 'असतो य पत्थि-अस्वतश्च नास्ति' બીજાઓના દર્શનેમાં કહેલા અનુષ્ઠાનથી ધર્મ અથવા મેક્ષ મળતો નથી. 'गरहामो दिदी-गहमो दृष्टिम्' भभे तमानी मा सन्तष्टिन नही કરીએ છીએ. પદાર્થ સતજ છે, અથવા નિત્ય જ છે, વિગેરે એકાન્તવાદની નિંદા કરીએ છીએ. આ સિવાય બીજુ શું કહીએ છીએ ? જે કંઈ એકાન્ત દષ્ટિનું અવલખન કરીને વસ્તુ સ્વરૂપનું પ્રતિપાદન કરે છે, તેઓનું પ્રતિपाइन यथा नथी. से प्रभाये हुई छु'. 'ण गरहामो कि चि'-न गर्दामहे किचित्' मामा धनी ५ हिना मा नथी. ॥ १२॥ અન્વયાર્થ–તે શ્રમણ અને બ્રાહ્મણ પરસ્પર એક બીજાની નિંદા અને મશ્કરી કરે છે. તેઓ કહે છે કે--મારા શાસ્ત્રમાં પ્રતિપાદિત કરેલ અનુષ્ઠાનથી જ ધર્મ અને મોક્ષ થાય છે. બીજાઓના શાસ્ત્રોમાં કહેલા અનુષ્ઠાનેથ થામ For Private And Personal Use Only Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - - - सकता 'ने निरीक्ष्य बिसकण्टककीटकूटान्, सम्यक्पथा व्रजति तान परिहत्य दुरान् । कुज्ञातकुत्सितकुमार्गकुदृष्टदोषांस्तांस्तान् विचारणपरस्य पराऽपवादः॥१॥ या मोक्ष नहीं होता। हम उनकी इस एकान्त दृष्टि की गर्दा करते हैं। पदार्थ सत ही है ? अथवा नित्य ही है इत्यादि एकान्तवाद की निन्दा करते हैं, इसके सिवाय और हम क्या कहते हैं ? जो भी कोई एकान्त दृष्टि का अवलम्बन करके वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन करता है, उसका प्रतिपादन यथार्थ नहीं है, ऐसा हम कहते हैं इसमें किसीकी निन्दा नहीं हैं ॥१२॥सुगम होने से टीकार्य नहीं दिया हैं। भावार्थ--आद्रक मुनि गोशालक को उत्तर देते हैं-हे गोशालक ! मैं किसी की निन्दा नहीं करता, किन्तु मध्यस्थभाव धारण करके, निर्दोष दृष्टि से सही वस्तुस्थिति को कहता हूं । वे प्रवादी ही अपने मत का पोषण करते हुए और उसी में संतोष मानते हुए दमरों की निन्दा करते हैं। उनके शास्त्र का कथन दिखलाते हैं 'नेत्रों वाला पुरुष अपने नेत्रों से खड्ढा कांटा कीड़ा और कूट को देख कर और उनसे बच कर अच्छे मार्ग से चलता है। इसी प्रकार यदि कोई पुरुष मिथ्याज्ञान, मिथ्याशास्त्र, मिथ्यामार्ग और मिश्यादृष्टि के दोषों को जान कर सन्मार्ग का आश्रय लेता है तो ऐसा करना किसी की निन्दा करना नहीं कहलाता।' કે મેક્ષ થતો નથી, હું તેઓની આ એક તરફી દષ્ટિની નિંદા કરૂં છું પદાર્થ સતજ છે. અથવા નિ ય જ છે. વિગેરે પ્રકારના એકાતવાદની નીંદા કરું છું. આ સિવાય બીજું શું કહું છું? જે કઈ એકન દષ્ટિનું અવલમ્બન કરીને વસ્તુ સ્વરૂપનું પ્રતિપાદન કરે છે. તેનું તે પ્રતિપાદન યથાર્થ નથી જ તેમ હું કહું છું. આ કથનમાં કોઈની પણ નિંદા નથી જ ૧૨ા सावार्थ-वे माद्र मुनिशाने उत्तर भा५तi ४९ छे ।શાલક ! હું કેઈની પણ નિંદા કર નથી. પરંતુ મધ્યસ્થ ભાવ ધારણ કરીને નિર્દોષ દષ્ટિથી ખરી વસ્તુ સ્થિતિ જ કહું છું. તે પ્રવાદી જ પિતાના મતનું પિષણ કરતા થકા અને તેમાં જ સંતોષ માનતા થકા બીજા ઓની નિંદા કરે છે. તેઓના શાસ્ત્રનું કથન બતાવે છે. - અ વાળો પુરૂષ પિતાની આંખેથી ખાડા, ટેકરા, કીડા અને કાંકરા વિગેરે જઈને અને તેનાથી બચીને સારા માર્ગથી ચાલે છે. એ જ પ્રમાણે જે પુરૂષ મિથ્યાજ્ઞાન, મિથ્યા શાસ્ત્ર, મિયામાર્ગ, અને મિથ્યા દુટિના દેશોને જાણીને સન્માર્ગને આશ્રય લે છે. તે તેમ કરવું તે કેઈની પણ નિદા કરવી કહી શકાય નહીં. For Private And Personal Use Only Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी का द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुनेगोशालकस्य संवादनि० ६२१ न हि वस्तुस्वरूपमतिपादनं निन्दा कस्याऽपि महापुरुषस्य । सति हि तथा-'शीतं जलमुष्णोऽग्निः' इति तत्वकथनपपि निन्दास्पृग्वचनं जायेत, एतत्सर्वमपि सूत्रेण अध्नाति सूत्रकृत् । 'ते समणा माहणा य ते साधवः श्रमणा माहनाश्च ब्राह्मणाश्च 'अन्नमन्नस्स' अन्योऽन्यस्य-परस्परस्य परस्परमन्यस्याऽन्यो निन्दा हास्यं च कुर्वन्ति। 'उ' तु 'गरहमाणा' गर्हमाणा:-निन्दन्तः 'अवंति' आख्यान्ति-कथयन्ति । 'सतो य अत्थी' स्वतश्वास्ति-मदीयदर्शनोक्ताऽनुष्ठानेन धर्मों मोक्षो वा भवति । 'असतो य पत्थी' अस्वतश्च नास्ति, परकीयदर्शनरीत्या कर्माऽनुष्ठानेन धर्मादयो न भवन्ति, इति ते कथयन्ति । 'गरहामो दिहि' गहमिहे दृष्टिम्, वयन्तेषामेकान्त दृष्टिम् । 'सन्ने पदार्थः-नित्य एक वा' इत्यायेकान्ता दृष्टि या तामेव केवलं निन्दामः । 'ण गरहामो किंचि' न गर्हामहे किश्चित् । एकान्तदृष्टे निदां कुर्मः, नत्वन्यत् किमपि ब्रूमः। वस्तुतस्तु-यस्य कस्याऽपि निरूपणम् एकान्तदृष्टि मुपगृह्यत्र सम्भवति । एकान्तदृष्टिमते पदार्थस्वरूपनिरूपणं न सम्भवति इति कथयामो नैतावता कस्यापि निन्दा भवति-इति आद्र कोक्तिः ॥१२॥ टीका-सुगमा ॥१२॥ मूलम्-ण किंचि रूवेणऽभिधारयामो सदिट्रिमग्गं तु करेk पाउं। मैग्गे इमे किट्टिएँ आरिएंहिं अणुत्तरे सप्पुरिसेहिं अंजु।१३। छाया- न कञ्चन रूपेणामिधारयामः स्वदृष्टिमार्गश्च कुर्मः पादुः। मार्गोऽयं कीर्तित आय्यैरनुत्तरः सत्पुरुषैरजुः ॥१३॥ वस्तु के स्वरूप का प्रतिपादन करना किसी की निन्दा करना नहीं कहा जाता है। ऐसा न माना जाय तो जल शीतल है, अग्नि उष्ण है। इस प्रकार की वास्तविकता को प्रकट करना भी निन्दा करना कहलाएगा। यह सब सूत्रकारने सूत्र के द्वारा ही दिखलाया हैं ॥१२॥ 'ण किंचि हवेणऽभिधारयामों इत्यादि। • शब्दार्थ--आईक मुनि कहते हैं-'किंचि-कमपि' हम किसी श्रमण વસ્તુ સ્વરૂપનું પ્રતિપાદન કરવું કોઈની પણ નિંદા કરવી કહેવાય નહીં. એમ માની ન લેવાય કે-પાણી ઠંડુ છે, અગ્નિ ગરમ છે,” આ પ્રમાણેના વાસ્તવિક પણને બતાવવું તે પણ નિન્દા કરવી તેમ કહેવાશે આ બધું કથન સૂત્રકારે સૂત્રદ્વારા જ બતાવ્યું છે. ૧૨ 'णकिचि रूपेणऽभिधारयामो' त्यादि साय-- अनि ४ --'कि चि-कमपि' ५५ श्रम For Private And Personal Use Only Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूचकताबो . अन्वयार्थः-(किंचि) कश्चन-कमपि श्रमणं माहनं वा (रूवेण) रूपेण स्वरूपेण -जुगुप्सिताऽवयवाङ्गाऽवयवोद्घाटनेन (ण अभिधारयामो) न-नैव अभिधार ग्रामा-गर्हणाबुद्धया नोद्घाटयामः किन्तु-(मदिहिमगं तु) स्वदृष्टिमार्ग तु-तदभ्यु. पातं दर्शनं सिद्धान्तम् (पाउकरेमु) मादुष्कुम:-प्रकाशयामः। मोक्षमार्गस्तु-(आरिएहि) आयः (सप्पुरिसे हिं) सत्पुरुषः-सन्तश्च ते पुरुषास्तः सर्वज्ञ:-अधर्मदूरवत्तिमिः (इमे मग्गे) अयं मार्गः-सम्यग्दर्शनादिरूपः (अणुत्तरे) अनुत्तरः-न विद्यते उत्तरः अथवा माहन के 'रूवेण-रूपेण' रूप अथवा वेषकी ‘ण अभिधारयामो -नाभिधारयाम:' निंदा नहीं करते हैं उसके अंग अथवा उपांग की बुराई नहीं करते' किन्तु 'सदिटिमग्गं तु-स्वदृष्टिमार्ग तु' केवल अपने दर्शनका मार्ग ही 'पाउंकरेमु-प्रादुष्कुर्मः' प्रकाशित कर रहे हैं 'इमे मग्गे-अयं मार्ग:' यह सम्यक् दर्शन आदिरूप मार्ग 'अणुत्तरे- अनुत्तरः' सर्वोत्तम है अर्थात् पूर्वापर विरुद्ध न होने के कारण तथा जीवाजीवादि पदार्थ-तत्वों की यथार्थ प्ररूपणा करने के कारण अनुत्तर है, क्योंकि -यह 'आरिएहि-आर्यैः' आर्य 'सप्पुरिसेहि-सत्पुरुषैः' सत्पुरुषों-सर्वज्ञों के द्वारा 'अंज किटिया-अञ्जः कीर्तितः' सरल कहा गया है।॥१३॥ . अन्वयार्थ--आईक पुनः कहते हैं-हम किसी श्रमण या माहन के रूप या वेष की निन्दा नहीं करते । उसके अंग या उपांग की बुराई नहीं करते । केवल अपने दर्शन का मार्ग ही प्रकाशित कर रहे हैं। यह सम्यग्दर्शन आदि रूप मार्ग सर्वोत्तम है अर्थात् पूर्वापरविरुद्ध न मया मानना 'रूवेण-रूपेण' ३५ अय। वेषनी 'ण अभिधारयामो-नाभि धारयामः' नि! ४२ नथा. तभना में 44 sinानी भुरा मतापत। नथी. ५२ 'सदिट्ठिमग्गंतु-स्वदृष्टिमार्गन्तु' व चाताना शनने भाग 'पाकरे मु-प्रादुष्कुर्मः' प्राट ४३ छु'. 'इमे मग्गे-अयं मार्ग:' मा सभ्य शन विगैरे ३५ भाग 'अणुत्तरे-अनुत्तरः' सर्वोत्तम छ, अर्थात् पूर्वा५२ १ि३६ ન હોવાથી તથા જીવ અજીવ વિગેરે તત્વોની યથાર્થ પ્રરૂપણ કરવાથી અનુત્તર -सव | छ, १५ 'आरिएहि-आय:' माय 'सप्पुरिसेहि-सत्पुरुषैः' सत्५३॥ -सज्ञा द्वारा 'अंजू किट्टिया-अजुः कीर्तितः' १२० ४ वामां आवे छे. १३॥ અન્વયાર્થ––ફરીથી આદ્રક મુનિ કહે છે-હું કઈ પણ શ્રમણ અથવા માહનના રૂપ અથવા વેષની નિંદા કરતું નથી. હું કેવળ અમારા શાસ્ત્રનો માર્ગજ પ્રગટ કરું છું. આ સમ્યગ્ર દર્શન રૂપ માર્ગ જ સર્વોત્તમ છે. અર્થાત્ તે પૂર્વાપર વિરૂદ્ધ ન હોવાના કારણે તથા જીવાદિ તત્વનું પ્રરૂપણ For Private And Personal Use Only Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आईकमुनेर्गोशालकस्य संवादनि० ५९३ -प्रधानो यस्मात् तथाविधोऽनुत्तरः पूर्वापराव्याहतत्वात् यथावस्थितजीवादिस्वर रूपनिरूपणाचार्य धर्मोऽनुत्तरः (अंजू किट्टिए) अञ्जुः कीर्तितः प्रोक्त इति ॥१३॥ ॥टीका-सुगमा ॥१३॥ मूलम्-उड्ड़े अहेयं तिरिय दिलासु, तसा य जे थावरा जे ये पाणा। सूकाहि वाभि दुगुंछनाणो, जो भारहई वसिमं किंचि लोएँ ॥१४॥ छाया--जयस्तियंग दिशासु, साश्च ये स्थावरा ये च पाणाः। भूमेशङ्कामिर्जुगुप्समानो नो गर्हते संयमवान् किञ्चिल्लोके ॥१४॥ होने के कारण नया जीवादि तत्वों की यथार्थ प्ररूपणा करने के कारण अनुत्तर है, कि यह आर्य सत्पुरुषों सर्वज्ञों के द्वारा कहा गया है ।१३॥ टीका सुगम है । १३॥ 'उड़ें अहेयं तिरियं दिसासु' इत्यादि। शब्दार्थ-'उर्दू-ऊर्ध्वम्' अर्ध्व दिशामें 'अहेयं-अधश्च' अयो दिशामें 'तिरिय दिसासु-तिर्यग दिशासु' तिर्की दिशामें 'जे य तसा जे य थावरा पाणा-येच त्रसाः ये च स्थावराः प्राणा' जो उस और स्थावर प्राणी है 'भूयाहिसंकाभि-भूताभिशङ्काभिः' उन भूतोंका हिंसा की शंका से 'दुगुंछमाणो-जुगुप्तमानः धृणा करने वाला अर्थात उनकी विराधना से पाप समझ कर बचने वाला 'बुसिम-संयमवान मंयमवान पुरुष 'लोए-लोके' इस लोक में 'किंचि-कंचन' किसी की કરવાના કારણે અનુત્તર-સર્વશ્રેષ્ઠ છે. કેમકે આ માર્ગ આર્ય સંપુરૂષ એવા સર્વજ્ઞો દ્વારા નિર્દિષ્ટ છે. ૧૩ આ ગાથાને ટીકાર્ય સરળ હોવાથી જૂદે બતાવેલ નથી. 'उडूढ' अहेयं तिरिय दिसासु' त्याह शाय--उड्ढ'-ऊर्ध्व' 4 दिशामा 'अहेयं-अधः' अधी दिशाभी 'तिरिय दिसास--तिर्यदिशा' तिछी हिशासामा 'जे य तसा जे य थावरा पाणाये च बसाः' ये च स्थावराः प्राणाः' २ स भने स्था१२ प्राय। छे, 'भूयाहि काभि-भूताभिशङ्काभिः' डिंसानी थी 'दुगुछमाणो-जुगुप्समानः" १२वापाणा मथात् तमन्ना पिनाथी ५।५ मानीने भयवापामा 'सिम-सेय. मवान् ' सयभवान् ५३५ 'लोए-लोके' मा सोम किचि-कंचन पर सू० ७५ For Private And Personal Use Only Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir AS सूत्रकृताङ्गस्त्रे अन्वयार्थ:-(उड़) ऊर्ध्वदिशि (अहेयं) अधोदिशि (तिरियं दिसासु) तिर्यग्दिशामु (जे य तसा पाणा) ये च प्रसाः प्राणाः-पाणिनः-द्वीन्द्रियादयोः जीवाः तथा-(जे य थावरा पाणा) ये च स्थावराः प्राणाः-पृथिव्यप्तेजो वायुवनस्पतिलक्षणा जीवाः सन्ति (भूयाहिसंकाभि) भूताभिशङ्काभिः-प्राणातिपातशङ्कया (दुगुंछ. माणो) जुगुप्समानः-घृणां कुर्वन् (सिम) संयमवान् पुरुषः (लोए) कोके-स्थावरजङ्गमात्मके (गो) नो (किंचि) कञ्चन (गरिहई) गहते-निन्दतीति ॥१४॥ 'णो गरहई-नो गर्हते' निंदा नहीं करता। अर्थात् हे गोशालक! प्राणियों के वधसे घृणा करने वाला साधु किसी की निंदा नहीं करता है यह हमारा धर्म है,। इस कारण मुझ निरपराधी पर निंदा करने * अपराधका आरोप करना तुम्हारे लिए उचित नहीं है। मैं किसीकी निंदा न करके वस्तु स्वरूप का ही प्रतिपादन कर रहा हूं ॥गा०१४॥ . अन्वयार्थ-ऊर्ध्व दिशा में, अधोदिशा में और तिर्की दिशाओं में जो त्रस और स्थावर प्राणी हैं, उनकी हिंसा से घृणा करने वाला भर्थात् उनकी विराधना से पाप समझ कर वचने वाला संयमवान पुरुष इस लोक में किसी की भी गर्दा नहीं करता। अर्थात् हे गोशालक ! प्राणियों के वध से घृणा करने वाला साधु किसी की निन्दा नहीं करता यह हमारा धर्म है । इस कारण मुझ निरपराधी पर निन्दा करने के भराध का आरोप करना तुम्हारे लिए उचित नहीं है। मैं किसी की निन्दा न करके वस्तुस्वरूप का ही प्रतिपादन कर रहा हूं ॥१४॥ . णो गरहंइ-नो गर्हते' नि! ४२al नी. अर्थात् है गोशाख ! प्रालियोन વધથી ઘણા કરવા વાળા સાધુ કેઈની પણ નિંદા કરતા નથી. આ અમારે -ધર્મ છે. આ કારણે નિરપરાધી એવા મારા પર નિંદા કરવાને આરેપ કરે તે તમારા જેવાને નથી. હું કોઈની નિંદા કર્યા વિના વસ્ત સ્વરૂપનું જ પ્રતિપાદન કરી રહેલ છું. ૦૧૪ અન્વયાર્થ–ઉર્વદિશામાં અદિશામાં અને તિછદિશામાં જે રસ અને સ્થાવર પ્રાણી છે, તેની હિંસાથી ઘણુ કરવાવાળા અર્થાત્ તેની વિરાધિનાથી પાપ સમજીને બચવાવાળા સંયમવાનું પુરૂષ આ લેકમાં કેઈની પણ નિંદા કરતા નથી. અર્થાત્ હે ગોશાલક પ્રાણિના વધથી છૂણું કરવાવાળા સાધુ કોઈની પણ નિદ કરતા નથી. આ અમારો ધર્મ છે. તે નિરપરાધી એવા મારા પર નિંદા કરવાને આક્ષેપ મૂકવે તે આપના જેવાને એગ્ય નથી. હું તે કેઇની પણ નિંદા કર્યા વિના વધુ સ્વરૂપનું જ પ્રતિપાદન કરૂં છું. ૧૪ For Private And Personal Use Only Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका fिr. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुने गौशालकस्य संवादनि० टोका - पुनः स्व सद्धर्मनिरूपणायाऽऽह -(उड्ड) इत्यादि, (उड्ड) कर्वऊर्ध्वदिशि (अहेयं) अधोदिशि ( तिरियं दिसासु) तिर्यगू दिशासु- ऊर्ध्वोऽस्तिर्यग् दिशासु (जेय तसा जे य थावरा पाणा) ये च त्रसाः द्वीन्द्रियादयः प्राणाः ये व स्थावराः पृथ्वीकायादयः प्राणाः प्राणिनो विद्यन्ते, (भूवाहिसं कामि) भूताभिश ङ्काभिः तेषां भूतानां विनाशयङ्गामिः 'दुर्गुछमाणो' जुगुप्समानः- घृणां कुर्वन् एतेषा विराधनेन सावधक्रिया भनि तथा 'वुसिमं' संयमवान् पुरुषः 'लोए' लोके 'जो' नो 'किंचि' कञ्चन 'गरहई' गर्हते, भूतानां वधशङ्कया घृणां कुर्वन् साधुः कमपि न निन्दतीति हे गोशालक ! एवं मदीयो धर्मः । एवंविधे मयि - अनपराद्धेऽपराध्यति निन्दकस्ववाचो निष्फला युक्तिस्तव । नाऽहं निन्दामि निन्दयामि वा किन्तु वस्तुस्वरूपं प्रतिपादयामि, इति ॥ १४ ॥ मूलम् - आगंतगारे आरामगारे समणे उ भीते ण उवेति वासं । क्खा हु 'संती हवे मणुस्सा 93 ऊँणातिरित्ता य लवा लेवा य ॥१५॥ छाया - आगन्त्रगारे आरामगारे श्रमणस्तु भीतो नोपैति वासम् । दक्षा दि सन्ति बहवो मनुष्या ऊनातिरिक्ताश्च लपालपाश्च ॥१५६ टीकार्थ- आर्द्रक मुनि अपने धर्म की प्ररूपणा करने के लिए फिर कह रहे हैं-ऊँची, नीची और तिर्धी दिशाओं में जो बस और स्थावर प्राणी हैं, उन प्राणियों की हिंसा से घृणा करते हुए अर्थात् जीवों की हिंसा से सावध क्रिया होती है, ऐसा समझते हुए संयमी पुरुष लोक में किसी की भी गह नहीं करते हैं। हे गोशालक ! यह मेरा धर्म है । इस कारण मैं निरपराधी हूँ, फिर भी तुम मुझे निन्दा करने का अपराधी कह रहे हो, तुम्हारा यह कहना अयुक्त है। मैं निन्दा नहीं करता कराना, केवल वस्तुस्वरूप का ही प्रतिपादन कर रहा हूं ||१४|| ટીકા—માક મુનિ પેાતાના ધર્માંની પ્રરૂપણા કરવા માટે ફરીથી કહે છે કે—ઉંચી, નીચી, અને તિી દિશાએામાં ત્રસ અને સ્થાવર જે પ્રાણિયા છે, તે પ્રાણિયાની હિંસાથી ઘૃણુા કરતા થકા અર્થાત્ જીવાની હિ'સાથી સાવધ ક્રિયા થાય છે, તેમ સમઝતા થકા સયમી પુરૂષ જગાઁ કોઈની પણ નિંદા કરતા નથી, હું ગેાશાલક ! આ મારો ધર્મ છે. તેથી નિરપરાધી છુ. તા પણ તમેા અને નિંદા કરવારૂપ અપરાધી કહી રહ્યા છે, તમારૂ' આ કથન યેાગ્ય છે. હુ નિંદા કરતા નથી. તેમ નિંદા કરાવતો પણ નથી. પણ કેવળ વસ્તુ સ્વરૂપનું જ પ્રતિપાદન કરૂ છું. ગા૦૧૪મા For Private And Personal Use Only Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . . . . सूत्रकृताकारले - अन्वयार्थ:-गोशालक आई कमुनि प्रत्याह-(समणे उभीते) भीतस्तु अषणो महावीरस्वामी, मो.! तव तीर्थकरो भयभीतः सन् (आगंतगारे) आगन्त्र पारे आगन्तॄणामागारे-आगन्तुकावासे-धर्मशालायाम् (आरामगारे) आरामगारे -आरामः स्यादुपयनं तत्रत्यगेहेऽपि, (वास ण उवेइ) वास स्थिति नोपैति भीत: सन् किनामशर्मविन्दति जनाकुले न वसति । कथं नो पैति तत्राह-हेतुम् । (बहवे मशुस्सा जगातिरित्ता य लवालवा य दक्खा हु संती) बहवो मनुष्या ऊनातिरिक्ताश्च "आगंतगार आरामगारे' इत्यादि। शब्दार्थ-'समणे उभीते-श्रमणस्तु भीतः' श्रमण महावीर भिर सरपीक है, क्योंकि 'आगंनगारे-आगन्तगारे' वे आगन्तुकावास-धर्म शाला में 'आरामगारे-आरामगारे' तथा उद्यानों में बने मकानों में पासण उवेइ-वासं न उपैति' ठहरते नहीं है, उनके वहां नहीं ठहरने का कारण यही है कि 'बहवे मणुस्सा जगातिरित्ता लवालवा य दक्खा हुसंति-बहवे मनुष्याः ऊनातिरिक्ता लपालपाश्च सन्ति' वहां बहुत से न्यून, अधिक, वक्ता मौनी अथवा दक्ष पुरुष निवास करते हैं, ॥१५॥ अन्वयार्थ-गोशालक आर्द्रक मुनि से कहता है-श्रमण महावीर “भोर डरपोक हैं, क्यों कि वे आगन्तुकावास धर्मशाला या सराय में तथा उद्यानों में बने मकान में नहीं ठहरते हैं। उनके वहां नहीं ठहरने का कारण यही है कि वहां बहुत से न्यून, अधिक, वक्ता, मानी या 'आगतगारे आराम गारे' इत्यादि शा---गोशालs भाद्र भुनान । छ.-'समणे उभीते-श्रमणस्तु. भीतः श्रमर महावीर निरु त २४ छे. भ.-'आगंतगारे-आगन्तगारे' तमे। भागन्तुपास अर्थात् धर्म शाम तथा 'आरामगारे-आरामगारे' Gधा. नामा मनापामा मा भानामा 'वास ण उवेइ-वासं न उपैति' निवास ४२ता 'नथी. त्या तेलातुं न २हेवार्नु ४२५ मे छे -'बहवे मणुस्सा उणातिरित्ता बालवा य दक्खा हु संति-बहवे मनुष्याः ऊनातिरिक्ता लपालपाश्च सन्ति' लi પણ ખરા ન્યુન અધિક, વક્તા, મૌની, અથવા દક્ષ પુરૂષ નિવાસ કરે છે. ૧પ. અન્વયાર્થ-ગે શાલક આદ્રક મુનીને કહે છે કે-શ્રમણ મહાવીર ભીરૂ થત ડરપોક છે. કેમકે તેઓ આગન્તુકાવાસ-ધર્મશાલા વિગેરેમાં તથા બાઘામાં બનાવેલ મકાનમાં રહેતા નથી. તેઓ ત્યાં ન રહેવાનું કારણ એજ છે કે–ત્યાં ઘણા એવા ન્યૂન અથવા અધિક વક્તા વિગેરે પુષે નિવાસ કરે છે. પિતાનાથી જે ઉતરતા હોય કે ન્યૂન કહેવાય છે. પિતાનાથી જે ઉત્તમ For Private And Personal Use Only Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुने!शालकस्य सेवादनि० ५७ सपालपाश्च दक्षा हि सन्ति, तत्र-ऊनाः स्वापेक्षया हीना:-अतिरिक्ता जात्यादिना अधिकाः लपा वा-वक्तारः, अला:-मौनव्रतिकाः विद्यादियुक्ताः, दक्षा:-प्रखर. पण्डिताः सन्तीति, अस्मिन् प्रदेशेऽनेके दार्शनिका बुद्धिमन्तः शास्त्रे कृतपरिश्रमा बताऽवधाना वर्णनादिभिः श्रेष्ठा उन्मज्नन्ति, यदि प्रश्नं कुर्युस्ते तदा किमुत्तरं देयमिति विविच्य जनाकुलावास दूरात्परिहरन् भीत इवैकान्ते वसति-गच्छति च तत्रैव, यत्रैषां सम्भावना न सम्भवेत् ॥१५॥ मूलम्-महाविणो सिक्खियबुद्धिमंता, सुत्तेहि अत्थेहि य णिच्छयन्ना। पुच्छिसु मा णो अणगारा अन्ने, इति संकमाणो ण उवेति तत्थ ॥१६॥ दक्ष पुरुष निवास करते हैं। अपनी अपेक्षा जो हीन हों वे न्यून को जाते हैं और जात्यादि से अतिरिक्त को अधिक कहे गए हैं, अधिक या सुन्दर भाषण करने वाले वक्ता (लप) कहलाते हैं। मौन साधना करने वाले मौनी कहलाते हैं तथा विद्यासिद्ध आदि च्या प्रखर पण्डित दक्ष, कहलाते हैं । पूर्वोक्त सार्वजनिक स्थानों में अनेक दार्शनिक बुद्धिशाली शास्त्राध्ययन में परिश्रम करने वाले, सावधान तथा वर्णन करने आदि में श्रेष्ठ पुरुष आते जाते रहते हैं। महावीर सोचते हैं कि अगर वे प्रश्न कर बैठेगे तो मैं क्या उत्तर दंगा! इस प्रकार भयभीत होकर वे मनुष्यों से व्याप्त स्थानों से बचते हैं और ऐसे स्थानों में ही ठहरते हैं जहाँ उनके आने की कोई संभावना न हो ॥१५॥ टीका सरल है ॥१५॥ કેટિના હોય તે અધિક કહેવાય છે. સુંદર પ્રવચન કરવાવાળા વક્તા (૧૫) કહેવાય છે. મૌન ધારણ કરવાવાળા મૌનિ કહેવાય છે. તથા વિદ્યા સિદ્ધ વિગેરે પ્રખર પંડિત દક્ષ કહેવાય છે. પૂર્વોક્ત સાર્વજનિક સ્થાનમાં અનેક દાર્શનિક, બુદ્ધિશાળી શાસ્ત્રાધ્યયનમાં શ્રેમ કરવાવાળા સાવધાન તથા વર્ણન કરવામાં શ્રેષ્ઠ પુરૂષે આવતા જતા રહે છે, તેથી મહાવીરસ્વામી વિચારે છે કે જો તેઓ કોઈ વિષયમાં પ્રશ્ન કરી બેસશે તે હું શું ઉત્તર આપીશ? આ રીતે ડરપોક થઈને તેઓ મનુષ્યથી વ્યાપ્ત સ્થાનેથી બચતા રહે છે. અને એવા સ્થાનમાં વસે છે કે જ્યાં તેવાઓને આવવાને સંભવ જ ન હય, ગા૫પા આ ગાથાને ટીકાથી સરળ જ છે. જેથી આપેલ નથી, For Private And Personal Use Only Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२४ सूत्रकृताङ्गसूत्र छीया-मेधाविनः शिक्षितबुद्धिमन्तः सूत्रेष्वर्थेषु च निश्चयज्ञाः । - मा पाक्षुरनगारा अन्ये इति शङ्कमानो नो पैति तत्र ॥१६॥ अवयार्थ:-(मेहाविणो) मेधाविनः-व्रतग्रहणधारणासम्पन्नाः (सिक्खिय) शिक्षिताः-यद्वा वयप्रमागनिपुणाः (बुद्धिमंता) बुद्धिमन्तः-औत्पत्तिक्यादिबुद्धियुक्ताः (सुत्तेहि) सूत्रेषु-व्याकरणादिमूत्रविषये (अत्थेहि) अर्थेषु-तत्तच्छास्त्रपतिपायेषु. 'मेहाविणो सिक्खियबुद्धिमंता' इत्यादि। शब्दार्थ-'मेहाविणो-मेधाविनः' मेधावी अर्थात् व्रतों के ग्रहण और धारण करने की मतिवाले सिक्खियबुद्धिमंता-शिक्षित. घुद्धिमन्तः' प्रमाणों में निपुण, एवं बुद्धिमान् औत्पत्ति की आदि घुद्वियों से युक्त 'सुत्तहि-सूत्रेषु' सूत्रों में अर्थात् शास्त्रके मूलपाठ में तथा 'अत्थेहि-अर्थेषु' उनके अर्थ में 'घ-च' और 'णिच्छपन्ना-निश्च यज्ञा' निश्चय को जानने वाले 'अन्ने-अन्ये' अन्य -परदर्शन वाले 'अण गारा-अनगाराः' अनगार 'मा णो पुच्छिन्तु-मा अस्माकं प्राक्षुः' मुझसे कोई प्रश्न न कर बैठे 'इति संकमाणो-इति शंकमानः' इस प्रकार की आशंका करते हुए महावीर 'तत्थ-तत्र' उन जनाकूल स्थानों में 'ण उवेति-नौपैति' नहीं जाते हैं ।गा०१६॥ - अन्वयार्थ-मेधावी अर्थात् व्रतों के ग्रहण और धारण करने की मतिवाले, शिक्षित-प्रमाणों में निपुण, बुद्धिमान् औत्पत्तिकी आदि बुद्धियों से युक्त, सूत्रों में अर्थात् शास्त्र के मूलपाठ में तथा उनके 'मेहाविणो सिक्खियबुद्धिमता' त्यात शाय-महाविणो-मेधाविनः' मेधावी अर्थात् प्रतीने घडय भने पा ४२वानी भतीवर 'सिक्खि यबुद्धिमंता-शिक्षितबुद्धिमन्तः' शिक्षित अर्थात् પ્રમાણમાં પ્રવીણ અને બુદ્ધિમાન એટલે કે ઔત્પત્તિકી વિગેરે બુદ્ધિથી पुश्त 'मुत्तेहि-सूत्रेषु' सूत्रोमा अर्थात् शालना भू१॥i तथा 'अत्थेहिअर्थेषु' तेनाममा 'य-च' भने 'णिच्छ यन्ना-निश्चयज्ञाः' निश्वयन ना२। 'अन्ने-अन्ये' अन्य-५२६शवाणा 'अणगारा-अनागाराः' साधु ‘मा णो पुच्छिसु -मा अस्माकं प्राक्षुः' भने । प्रश्न न छ मेसे 'इति संकमाणे-इति शङ्कमानः' प्रमानी शा ४२ता थ। महावी२ 'तत्थ-तत्र' मेगन व्यास स्थानमा ‘ण उवेति-नोपैति' ता नथी. ॥१९॥ અન્વયાર્થ–મેધાવી અર્થાત્ વતેને ગ્રહણ અને ધારણ કરવાની મતિબુદ્ધિવાળા શિક્ષિત પ્રમાણમાં નિપુણ, બુદ્ધિમાન ઔત્પત્તિકી વિગેરે બુદ્ધિથી યુક્ત શાસ્ત્રને મૂળ પાઠમાં તથા તેના અર્થમાં નિપુણ એવા પરદર્શન For Private And Personal Use Only Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुने!शालकस्य संवाद न०.५९९ (य) च (पिच्छयन्ना) निश्चयज्ञाः (अन्ने) अन्ये (अणगारा) अनगारा:-साधव:परदार्शनिकाः (मा णो पुच्छिसु) मा अस्माकं प्राक्षुः (इति संकमाणो) इति शङ्कमानः-शङ्का मनसि कुर्वनित्यर्थः । (तस्थ) तत्र-जनाकुले स्थाने (ण उवेति) नो पैतिन गच्छति महावीरस्वामी, यद्यहं जनाऽऽकुले स्थाने गमिष्यामि तदा तत्र वसन्तः परसाधवो मां किमपि प्रक्ष्यन्ति तदोत्तरं दातुमहमसक्तः किं करिष्यामि कथं वा तत्र स्थास्यामि महती मेऽपतिष्ठा स्यादिति तव तीर्थकरो नोपैति ॥१६॥ टीका-सुगमा ॥१६॥ मूलम्-णो कामकिच्चा ण य बालकिच्चा, रायाभिओगेण कुओ भएणं। वियावारेज्जा पसिणं न वा वि, सकामकिच्चे णिहं आरियागं ॥१७॥ छाया-न कामकृत्यो न च बाळकृत्यो राजाभियोगेन कुतो भयेन । ___व्यागृणीयात्मश्नं न वापि स्वकामकृत्ये नेहाणाम् ।।१७॥ अर्थ में निपुण परदर्शनी साधु मुझसे कोई प्रश्न न कर बैठे, इस प्रकार की आशंका करते हुए महावीर उन जनसंकुल स्थानों में नहीं जाते हैं ! ये सोचते हैं कि कदाचित् किसी ने कोई प्रश्न किया तो मैं उसका उत्तर नहीं दे सकूँगा ! उस समय मैं क्या करूंगा ! कैसे वहां हूंगा! मेरी बड़ी अप्रतिष्ठा होगी। यह कारण है कि तुम्हारे ती कर ऐसे स्थानों में जाते ही नहीं हैं ॥१६॥ टीका सुगम है ॥१६॥ 'णो कामकिच्चा ण य बालकिच्चा' इत्यादि। शब्दार्थ--'मुनि आर्द्रक उत्तर देते हैं-भगवान महावीरस्वामी ‘णो कानकिच्चा-न कामकृत्यः' निष्प्रयोजन कोई कार्य नहीं करते हैं और વાળા સાધુ મને કઈ પ્રશ્ન ન પૂછે આવા પ્રકારની શંકા કરીને મહાવીર સ્વામી તેવા પ્રકારના જન સંકુલ-ઘણા જનેથી યુક્ત એવા સ્થાનમાં જતા નથી. તેઓ વિચારે છે કે કદાચ કઈ કંઈ પ્રશ્ન પૂછી લેશે તે હું સમ્યકુ રીતે તેને ઉત્તર આપી શકીશ નહીં, તેવે વખતે હું શું કરીશ કેવી રીતે ત્યાં રહીશ? તેવે વખતે મારી મોટી અપ્રતિષ્ઠા થશે, એ જ કારણથી તમારા તીર્થકર એવા સ્થાનમાં જતા નથી. ૧૬ ટીકા સુગમ છે. शहाथ-पाई भुनि उत्तर आपे छ-मगवान् महावी२२वामी ‘णो कामकिच्चा-न कामकृत्य.' प्रयोग विनानु । ५९ सय ४२ता नथी. अने 'ण य बालकिच्चा-न च बाळकृत्यः' माasी म १५२ वियायु: ।। ५४ For Private And Personal Use Only Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतागणे - अन्वयार्थ:--आईको गोशालकं प्रत्याह-महावीरस्वामी (गो कामकिच्चा) नो कामकृत्या-नो कामकृत्यं-निष्प्रयोजनं कार्य न करोति (ण य वालकिच्चा) न च बालकृत्यः-न वा बालक बदविचारितं कर्म करोति, न वा-(रायाभिओगेण) राजाभियोगेन-राज्ञ आज्ञयाऽपि न करोति (कुओ भएणं) कुतो भयेन-भयेन कथं वदेत् अर्थात् कस्मादपि भयान्न वदतीत्यर्थः किन्तु-सकाकिच्चेणिह आयरियाण) स्वकामकृत्येनेहाऽऽचाणाम्-स्वेच्छाकारितया स भगवान् इह-जगति आर्याय तथा उपार्जिततीर्थकरनारकर्मणः क्षपणाय च धर्मोपदेशं करोति, (पसिणं 'ण य घालकिच्चा-न च बालकृस्यः' न बालक के समान विना विचारे ही कोई कार्य करते हैं । 'न वा रायाभिप्रोगेग-न वा राजाभियोगेन' वे राजा के भयसे भी धर्मका उपदेश नहीं करते हैं 'कुप्रो भएणं-भयेन कुतः' तो दूसरे के भय से तो उपदेश करेंगे ही कैसे ? 'सकामकिच्चे जिह आरियाणं-स्वकाम कृत्येनेहाऽर्शणां" भगान् उपार्जित किये हुए तीर्थ कर नाम कर्मका क्षय करने के लिये आर्य जनों को उपदेश देते है, अथवा 'पसिणं वियागरेज्जा-प्रश्नं व्यागृणीयात्'-अथवा निरवध प्रश्नका उपदेश देते हैं, सावा प्रश्न का उत्तर नहीं देते हैं ॥गा०१७॥ ___ अन्वयार्थ--मुनि आर्द्रक उत्तर देते हैं -भावान महावीर न निष्प्र. योजन कोई कार्य करते हैं और न बालक के समान विना विचारे कोई कार्य करते हैं। वे राजा के भय से भी धर्म का उपदेश नहीं करते हैं तो दूसरे के भय से तो उपदेश करेंगे ही कैसे ? भगवान् उपार्जित ३२ता नथी. 'ण वा रायाभिभोगेण-न वा राजाभियोगेन' तमे। RIMAL Pथी ५५ यमन अपहेश ४२ता नयी. 'कुओ भएणं-भयेन कुतः' ते पछी मील. साना उथी । ५३२ ४२वानी पात १ ४यां रही ? 'सकाम किच्चे जिह मारियाण-स्वकामकृत्येनेहाऽर्याणाम्' लगवान् 3410 ४२वामा मासा ती २ નામકમને ક્ષય કરવા માટે આર્ય પુરૂને ઉપદેશ આપે છે. અથવા “afa वियागरेजा-प्रश्न व्यागृणीयात्' निरवध प्रश्रोन हत्तर मा छ, सावध પ્રશ્નોને ઉત્તર આપતા નથી. ગા૦૧ળા અન્વયાર્થ—આર્દિકમુનિ ઉત્તર આપતા કહે છે કે–ભગવાન મહાવીર સ્વામી પ્રયજન વિના કોઈ કાર્ય કરતા નથી. તેમજ બાલકની માફક વગર વિચાર્યું કંઈજ કાર્ય કરતા નથી. તેઓ રાજાના ભયથી ધર્મને ઉપદેશ કરતા નથી તે પછી બીજા કેઈના ભયથી તે ઉપદેશ કેમ કરે? ભગવાન ઉપા For Private And Personal Use Only Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खमयाबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुने!शालकस्य संवादनि० ६०१ वियागरेज्जा) पश्नं निरवद्याश्नोत्तरं व्यागृगीयात् न वाऽपि व्यागृणीयातसावद्यस्योत्तरं न ददातीति ॥१७॥ टीका--आईकमुनि गोशालकं पति कथयति-भो गोशालक! भगवान महावीरस्वामीणो कामकिच्चा' नो कामकृत्या-प्रयोजनमन्तरेण किमपि कार्यन करोति । ‘ण य बालकिच्चा' न च बालकृस्पः-बालकवदविचार्य न किमपि कुरुते कार्यम् । न वा 'रायाभिभोगेण राजाऽभियोगेन-राज्ञा आज्ञया राजभयेन च धर्मोपदेशं न करोति । 'भरण कुभो' भयेन कुतः-भयेन तु सर्वथा नैव करोति धर्मोपदेशं स देवाधिदेवः । 'पसिणं वियागरेज न वावि' प्रश्नं व्यागृणीयान्नवा. ऽपि-कदाचिभिरवधपश्नोत्तरं ददाति-न वाऽपि ददाति सावधप्रश्नोत्तरम्, 'स. कामकिच्चेणिह आरियाण' सकामकृत्येनेहाऽऽर्याणाम्-स्वेच्छाकारितया-स भगवान इह-जगति-आर्याय धर्ममुपदिशति, तथा-स्वकीयतीर्थकरनामकर्मणः क्षयाय धर्मोपदेशं करोतीति भावः ॥१७॥ किये हुए तीर्थकरनामकर्म का क्षय करने के लिए आयजनो को उपदेश देते हैं । किमी के प्रश्न का उत्तर देते है या नहीं भी देते है। अर्थात् निरवद्य प्रश्न का उत्तर देते है, सावद्य प्रश्न का उत्तर नहीं देते है।१७॥ टीकार्थ-आईक मुनि ने गोशालक से कहा-हे गोशालक ! भगवान् महावीर स्वामी प्रयोजन के बिना कोई कार्य नहीं करते। बालक के समान विना विचारे भी कोई कार्य नहीं करते। वे देवाधिदेव राजा के भय से धर्मोपदेश नहीं देते, किसी के भी भय से उपदेश नहीं देते । कदा. चित् निरवद्य प्रश्न का उत्तर देते हैं और सावध प्रश्न का उत्तर नहीं भी देते ! वे तीर्थ कर नामकर्म के क्षय के लिए आर्यजनों को धर्मदे. शना देते हैं ॥१७॥ જીત કરેલ તીર્થંકર નામ કર્મને ક્ષય કરવા માટે આર્યજનેને ઉપદેશ આપે છે. કેઈના પ્રશ્નોને ઉત્તર આપે પણ છે અને નથી પણ આપતા અર્થાત નિરવા પ્રશ્નોને ઉત્તર આપે છે. સાવધ પ્રશ્નોને ઉત્તર આપતા નથી. ૧ ટીકાથ–આદ્રક મુનિ ગોશાલકને કહે છે–હે ગોશાલક ! ભગવાન મહાવીરસ્વામી પ્રોજન વિના કેઈ પણ કાર્ય કરતા નથી. તેમજ બાલકની જેમ વગર વિચાર્યું પણ કઈ કાર્ય કરતા નથી. તેઓ દેવાધિદેવ એવા રાજાના ડરથી ધર્મોપદેશ આપતા નથી. તે પછી બીજાના ભયની તે વાત જ શી કરવી? અર્થાત્ કેઈના પણ ડરથી તેઓ ઉપદેશ આપતા નથી કદાચ નિરવદ્ય પ્રશ્નનો ઉત્તર આપે છે, અને સાવદ્ય પ્રશ્નનો ઉત્તર આપતા નથી. તેઓ તીર્થકર નામકર્મના ક્ષય માટે આ જનેને ધર્મદેશના આપે છે. ૧ળા सु. ७६ --- -- - For Private And Personal Use Only Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - -- मूलम्-गंता च तत्थ अदुवा अगंता, वियागरेज्जा समियासु पन्ने। अणारिया दंसणओ परित्ता, इति संकमाणो णे उति तत्थ ॥१८॥ छाया-गत्वा च तत्राऽथवाऽगत्वा, व्यागृगीयात्समतयाऽऽशुपज्ञः। __ अनार्या दर्शनतः परीता इति शङ्कमानो नोपैति तत्र ॥१८॥ अन्वयार्थ:--(आसुगन्ने) आशुमज्ञः (गंता) गत्या (तस्थ) तत्र-प्रश्नकः समीपम् (अदुवा) अथवा (अगंता) अगस्वैव प्रश्नकर्तुः समीपम् (वियागरेज्जा) 'गंता च तत्थ अदुवा अगंता' इत्यादि। शब्दार्थ--'आसुपन्ने-अशुपज्ञः' सर्वज्ञ महावीर 'तस्थ-तत्र' प्रश्न करनेवाले के समीप 'गंता-गत्वा' जाकरके 'अदुवा-अथवा' अथवा 'अगंता-अगत्वा' न जाकर भी 'समिया-समतया' समभावसे 'वियागरेज्जा-व्यागृणीयात्' धर्मका उपदेश अथवा प्रश्नों के उत्तर देते हैं। रागद्वेष से युक्त होकर कभी भी भाषण नहीं करते, 'अणारिया-अनार्या:' अनार्य जन 'दसणओ-दर्शनात् सम्यक्त्व 'परित्ता-परीता' भ्रष्टरहित होते हैं 'इति संकमाणो-इति शङ्कमान:' ऐसी आशंका से 'तत्य -तत्र' उनके पास अनार्य देशमें 'न उवेति-नोपैति' नहीं जाते हैं। भय के कारण न जाते हों ऐसा कहना उचित नहीं है ॥गा०१८॥ अन्वयार्थ-सर्वज्ञ महावीर स्वामी श्रोताओं के समीप जाकर 'ताव तत्थ अदुवा अगता' त्यादि शाय--'आसुपन्ने-आशुत्रज्ञः'. सर्प भी२२१ामी 'तत्थ-तत्र' प्रश्न ४२वावाजानी पांसे 'ग'ता-गत्वा' ने 'अदुवा-अथवा' अथवा 'अगंता भागत्वा' या विना पा 'समिया -समतया' सममाथी 'वीयागरेज्जा-व्यागृ. णीयात' धर्मना ६५श अथवा प्रशोना उत्तरे। माछ. रागद्वषथी युत यह भाषा ४२॥ नथी. 'अणारिया-अनार्या:' अनाया । 'दसणओ -दर्शनात्' सम्यवथी परित्ता-परीता' ब्रटमेट सम्म विनाना डाय छ. 'तत्थ-तत्र' या तमानी पांसे मनाय शम 'न उति-नोपैति' लता તથી, ભયને કારણે તેઓની સમીપે જતા નથી તેમ નથી. ૧૮ અન્વયાર્થ–સર્વજ્ઞ મહાવીર સ્વામી શ્રોતાઓની પાસે જઈને અથવા For Private And Personal Use Only Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि श्रु. अ. ६ आईकमुने!शालकस्य संवादनि० ६०३ व्यागृणीयात्-प्रश्नोत्तरं वदति (समिया) समतया-समभावेन न तु रागद्वेषाकुलो वदति (अणारिया) अनार्याः (दंसणओ) दर्शनाव-सम्यक्त्वात् (परित्ता) परीताः भ्रष्टाः (इति संकमाणो) इति शङ्कमानः-इति जानानः 'तस्थ' तत्र-अनार्यदेशे (न उवेति) नोपैति-न गच्छति न तु-भयान्न गच्छतीति ॥१८॥ ___टीका--'आसुपन्ने' आशुप्रज्ञऽतीव बुद्धिमान् सर्वशो भगवान् 'तत्थ' तत्रप्रश्नकर्तुः समीपे 'गंता च' गत्वा च 'अदुवा' अथवा 'अगंता' अगत्वा वा 'समिया' समतया-सममावेन न तु रागद्वेषाभ्यामाकृष्यमाणः 'वियागरेज्जा' व्या. गृणीयात्-यदि प्रश्नकर्तुं रुपकारं पश्यति-तदा तत्समीपे धर्ममुपदिशति । यदि कदाचित्-अमव्यस्वादिदोषदुष्टः प्रश्नकर्ता भवेत्तदा तत्र नोपदिति । उपदेशमपि समभावतयैव ददाति न तु विषमां दृष्टिमाश्रित्य । विषमष्टिकारणयोः राग. अथवा न जाकर भी समभाव से धर्म का उपदेश या प्रश्नों का उत्तर देते हैं। रागद्वेष से युक्त होकर भाषण नहीं करते । अनार्य जन सम्यक्त्व से भ्रष्ट-रहित होते हैं, ऐसी आशंका से उनके पास अनार्य देश में नहीं जाते हैं। भय के कारण न जाते हों, ऐसा नहीं है ॥१८॥ ___टीकार्थ-आशुप्रज्ञ अर्थात् सर्वज्ञ सर्वदर्शी भगवान श्रोताओं के समीप जाकरके अथवा विना गये समभाव से उपदेश करते हैं, राग वेष से युक्त होकर नहीं। अगर प्रश्नकर्ता का उपकार होना देखते हैं. तो उपदेश देते हैं । अगर कोई अभव्यत्व आदि दोष से दूषित प्रश्न कर्ता हा तो उपदेश नहीं देते। उपदेश देते हैं तो समभाव से ही देते हैं विषम भाव से नहीं, क्योंकि विषम भाव के कारण रूप राग और द्वेष ગયા વિના પણ સમભાવથી ધર્મને ઉપદેશ અગર પ્રશ્નોને ઉત્તર આપે છે. રાગદ્વેષથી યુક્ત થઈને ભાષણ કરતા નથી. અનાર્ય અને સમ્યક્ત્વથી રહિત હોય છે. તેવી શંકાથી તેમની પાસે અર્થાત્ અનાર્ય દેશમાં જતા નથી. ભયને કારણે ન જતા હોય તેમ નથી. ૧૮ ટીકાર્ય–આશુપ્રજ્ઞ અર્થાત્ સર્વજ્ઞ સર્વદશી ભગવાન્ શ્રોતાઓની પાસે જઈને અથવા ગયા વિના જ સમભાવથી ઉપદેશ આપે છે. રાગવાળા બનીને ઉપદેશ કરતા નથી, જે પ્રશ્ન કર્તાને ઉપકાર થાય તેમ જુએ છે તે તેને ઉપદેશ આપે છે. અથવા કેઈ અભવ્ય વિગેરે દેષથી દૂષિત વ્યક્તિ પ્રશ્ન કરે છે, તે તેને ઉપદેશ આપતા નથી. જેને ઉપદેશ આપે છે, તે સમભાવથી જ ઉપદેશ આપે છે. વિષમપણાથી ઉપદેશ કરતા નથી. કેમકે-વિષમપણાથી ઉપદેશ આપતા નથી. કેમકે વિષમભાવના For Private And Personal Use Only Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६०४ सूत्रकताजस्त्रे द्वेषयोरभावात् । 'अगारिया' अनार्याः 'दसणओं' दर्शनतः 'परित्ता' परीता:विभ्रष्टाः इति संकमाणे' इति शङ्कमानः 'तत्थ' तत्र-तत्समीपे 'ण उवेति' नोपैति, इमे दर्शनतो विभ्रष्टा अनार्याः, इति शङ्कमानः तत्समीपं नोपगच्छति, अशुभभूमौ शुभवीजवपनस्याऽयुक्तत्वात् भयान्न गच्छनीति न, अपि तु-अनार्यस्वात् फलाऽभावशङ्कया नोपैतीति जानीहि ॥१८॥ मूत्रम्-पन्नं जहा वंणिए उदयट्टी आयस्स हेडं पंगरेइ संग। तंऊवमे सर्मणे णायपुत्ते इच्चैव मे होई मई वियका ॥१९॥ छाया--पण्यं यथा वणिगुदयार्थी, आयस्य हेतोः प्रकरोति सङ्गम् । तदुपमः श्रमणो ज्ञातपुत्रः, इत्येव मे भवति मति वितर्का ॥१९॥ उनमें नहीं है। जो अनार्य हैं एवं सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं, उनके समीप वे नहीं जाते। ऊपर भूमि में बीज योना उचित नहीं है, इसी प्रकार अनार्यों और दर्शन भ्रष्टों को उपदेश देना व्यर्थ है। किन्तु यह कहना मिथ्या है कि वे भय के कारण उनके समीप नहीं जाते। जाना निष्फल समझ कर ही वहां नहीं जाते ॥१८॥ 'पन्नं जहा वणिए उदयट्ठी' इत्यादि । . शब्दार्थ-'जहा-पथा' जैसे 'उदयही-उदयार्थी लाभ का अभि. लाषी 'वणिए-वणिक्' वणिक् जन 'आयहेउ-आयस्य हेतोः' लाभ की इच्छा से 'पन्नं-पण्यं' क्रय विक्रय योग्य वस्तु का 'संगं पकरेह -संगं प्रकरोति' संग्रहकरता है अर्थात् महाजन के पास संबंध रखने का કારણ રૂ૫ રાગ અને દ્વેષ તેઓમાં રહેતા નથી. જે અનાર્ય હોય છે, અને સમ્યફ દર્શનથી ભ્રષ્ટ થયેલા હોય છે, તેઓની સમીપે તેઓ જતા નથી. ઉષર જમીનમાં બી વાવવા તે યોગ્ય નથી. એ જ પ્રમાણે અનાર્યો અને ભ્રષ્ટ થયેલાઓને ઉપદેશ આપે તે નકામું છે. પરંતુ એવું કહેવું કેતેઓ ડરના કારણે તેમની પાસે જતા નથી તે એગ્ય નથી. કિંતુ તે કથન મિથ્યા જ છે. ત્યાં જવું નિષ્ફળ માનીને જ તેઓ ત્યાં જતા નથી. ૧૮ ____ 'पन्नं जहा वणिए उदयट्ठी' त्या शहाथ-'जहा-यथा' २ 'उदयट्ठी-उदयार्थी' सामने ४२ पापा 'वाणिए-वणिकू' पणि 'आयहेउ-आयस्य हेतोः' anनी २७tथी “पन्नं-पण्यं' य विय ३२१साय पस्तुनो 'संगं पकरेइ-सङ्ग प्रकरोति' सब ४रे छे. भयात भडाना साथे स५५ रामपान। विया२ ४२ छे. 'समणे नायपुत्ते For Private And Personal Use Only Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयाथबोधिनी टीका वि. श्रु. अ. ६ आईकमुने!शालकस्य संवादनि० ६०५ अन्वयार्थः-(जहा) यथा (उदयट्ठी) उदयार्थी-लाभार्थी (वणिए) वणिक (आयस्स हेउ) आयस्य-लाभस्य हेतो:-कारणात् (पन्न) पण्यम् -क्रयविक्रययोग्य वस्तु गृहीत्वा (संग) सङ्गम्-सम्बन्धं महाजनस्योपैति-करोति (समणे नायपुत्ते) श्रमणो ज्ञातपुत्र: (तमे) तदुपम:-तत्सदृशः (इति मे होइ मई वियका) इति-इत्येवं मे-मम मतिः-ज्ञानम्, वितर्का भवतीति ।।१९।। टीका--'जहा' यथा-येन प्रकारेण 'उदयट्ठो' उदयार्थी-लाभार्थी 'वणिए' वणिक् 'पन्न' पण्यम्-क्रयविक्रययोग्य वस्तु गृहीत्या 'आयस्स हेउ' आयस्य हेतोः 'संग पगरे।' सङ्गं मकरोति-यथा कश्चिद् वणिग्लाभाय महाजनैरतिधनव्यवहारिभिः सह सङ्गं विधत्ते । 'तकनमे-तदुपमः-तस्य-लाभकारिणो वाणेजः उपमा विद्यते यस्मिन् सः तादृश एवाऽयं साजात्यात् । 'नायपुत्वे समणे' ज्ञातपुत्रः श्रमणो महावीरः तदुपमः-तत्सदृशः 'इच्चेव मे मई वियका होइ' इत्येवं मे-मम मतिर्वितर्का-भवति । व्यवहार करता है 'समणे नायपुत्ते-श्रमणो ज्ञातपुत्र' ज्ञानपुत्र श्रमण भी 'तत्रमे-तदुपम:' उसी के समान है 'इति मे मई होर वियका-इति मे मतिः भवति वितर्का' ऐसी मेरी मति वितर्क वाली होती है ॥१९॥ . अन्वयार्थ--जैसे लाभ का अभिलाषी वणिक लाभ की इच्छा से क्रय विक्रय योग्य वस्तु का संग्रह करता है अर्थात् महाजन के पास जाता है, ज्ञातपुत्र श्रमण भी उसी के समान हैं। ऐसी मेरी मति और वितक है ॥१९॥ __टीकार्थ-जिस प्रकार लाभ का अर्थी वणिक पण्य-क्रयविक्रय करने योग्य वस्तु को लेकर आय के लिए व्यापारियों का समर्क साधता, ऐसे ही ज्ञातपुत्र श्रमण हैं। अर्थात् वे जहाँ जाने से लाभ देखते हैं वहां जाते हैं। ऐसी मेरी मति है, और ऐसा ही मेरा वितर्क है। -श्रमणो ज्ञातपुत्रः' शातपुत्र श्रम ५ 'तव मे-तदुपमः' र प्रमाणे छ. 'इति मे मई होइ वियक्का-इति मे मतिः भवति वितर्का' से प्रमाणे भारी पुद्धि વિતર્ક યુક્ત થાય છે. ૧લા અન્વયાર્થ–લાભની ઈચ્છાવાળો વાણિયે જેમ લાભની ઈચ્છાના કારણે કય વિક્રય યોગ્ય વસ્તુને સંગ્રહ કરે છે. અર્થાત્ મહાજન પાસે જાય છે. જ્ઞાતપુત્ર શ્રમણ ભગવાન પણ તેની સમાન જ છે. તેમ મારી મતિ છે અને વિતર્ક છે. ૧૯ ટીકાથ–જે પ્રમાણે લાભની ઈચ્છા રાખવાવાળે વેપારી ક્રિય વિક–ખરીદ વેચાણ કરવા ગ્ય વરતુ ખરીદીને આવક માટે બીજા વ્યાપારીને સંબંધ રાખે છે. જ્ઞાતપુત્ર શ્રમણ મહાવીર પણ એ પ્રમાણે જ છે. અર્થાત તેઓ જ્યાં જવાથી લાભ દેખે છે, ત્યાં જ જાય છે. આ પ્રમાણે મારી મતિ અને વિતર્ક છે. For Private And Personal Use Only Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६०६ सुत्रकृताङ्गसूत्रे गोशालक आई कमाक्षिपति भोः ! आईक ! त्वदीयो महावीरो यत्र लाभं पश्यति, तत्रैव धर्ममुपदिशति नाऽन्यत्र, यथाहि-वणिक् स्वद्रव्यको रल्पैस्तुभिरेका सम्पूर्णी नावं देशान्तरे नेतुमसमर्थः सन महाजनैः सङ्गं विधाय आदाय तदीय. द्रव्यजातं ततो व्रजति तद्वन्महावीरोऽपीति मे तर्कः ॥१९॥ मूलम्-नवं न कुज्जा विहुणे पुराणं चिचाऽमई ताइय साह एवं। एतो क्या बंभवतित्ति वुत्तं तस्सो दयट्री समणेत्ति बेमि ॥२०॥ छाया--नवं न कुर्याद्विधूनपति पुराणं त्यक्त्वाऽमति त्रायी स आह एवम् । . एतावता ब्रह्मवतमित्युक्तं तस्योदयार्थी श्रमग इति ब्रवीमि ॥२०॥ - आशय यह है--गोशालक आद्रक से कहता है कि तुम्हारे महावीर जहां लाभ देखते हैं, वहीं धर्मका उपदेश देते हैं । अतएव वह मुनाफाखोर व्यापारी लाभ कमाने के लिए दूसरों के पास अपना माल ले जाता है, उसी प्रकार वह भी दूसरों के पास जाते हैं ॥१९॥ .. 'नवं न कुज्जा विहुणे पुराणं' इत्यादि। शब्दार्थ-'नवं न कुज्जा-नवं न कुर्यात् भगवान महावीर नवीन कर्मबन्ध नहीं करते हैं किन्तु 'पुराणं-पुराण' पूर्व बद्ध कर्मों का विहणे -विनयति' क्षय करते हैं 'ताह-वायी' षट् जीवनिकायों के रक्षक 'स-स' वे भगवान् एवं आह-एवमाह' ऐसा कहते हैं कि-'अमई-अमनिम्' कुमति को चिच्चा-त्यक्त्वा' त्यागकर 'एयोक्या-एतावता त्याग करना मात्र से 'बंभवतित्ति-बह्मव्रतमिति' मोक्ष प्राप्त करता है, कुमति કહેવાને આશય એ છે કે–ગોશાલક આદ્રકને કહે છે કેતમારાં મહાવીરસ્વામી જ્યાં લાભ દેખે છે, ત્યાંજ ધર્મને ઉપદેશ આવે છે. બીજે નહીં. તેથી જ હું કહું છું કે તે નફાખોર વ્યાપારી જેવા છે. જેમાં વ્યાપારી લાભની ઈચ્છાથી બીજાઓની પાસે પિતાને માલ લઈ જાય છે. એ જ પ્રમાણે તેઓ પણ બીજાઓની પાસે જાય છે. તે લાભ હોય તે જ જાય છે. ૧લા .. 'नवं न कुज्जा विहुणे पुराण' त्यात शहा-'नवं न कुज्जा-नवं न कुर्यात्' भगवान् महावीर नवीन - मध ४२ता नथी. परतु 'पुराण-पुराणम्' पूर्वमा भान। 'विहणे-विधूनयति' क्षय ४२ छ. 'ताइ-त्रायी' ५८ नियनु रक्षण ४२११ 'ख-सः' ते मा. । पान् ‘एवं आह-एवमाह' २५ मे प्रमाणे हे छ है-'अमई-अमतिम्' शुभतिनु चिन्वा-त्यक्त्वा' त्यापरीने 'एयोवया-एतावता' त्याग ४२१॥ मात्रथा 'बभवत्तित्ति-ब्रह्मवतमिति' मोक्ष प्राप्त 3रे छे. सुमतिना त्याने प्रात For Private And Personal Use Only Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थचोधिनी का हि. श्रु. अ. ६ आईकमुनेगोशालकस्य संवादनि० ६०७ ___ अन्वयार्थ:-(नवं न कुन्जा) नव-नवीन कर्म न कुर्यात्-न करोति (पुराणे) पुराणं पूर्वकालिक बद्धकर्म (विहूणे) विधूनयति-अपनयति (अमई) अमति-कुमतिम् (चिच्चा) त्यक्त्वा-परित्यज्य (ताइ य) वायी-पड्जीवनिकायरक्षकः स भग वान् (एव) एवम् (आह) आह-कथयति (एयोवया) एतावता (बंभवत्ति ति) ब्रह्ममोक्षो भवतीति (बुन्त) उक्तम्-कथितम् (तस्स) तस्य-मोक्षस्य (उदयट्टी) उद. यार्थी-लाभार्थी (समणे तिबेमि) श्रमशो महावीर इति ब्रवीमि-कथयामीति ॥२०॥ टीका-भगवान महावीर), 'नवं न कुज्जा" नवं न कुर्यात-नूतनं कर्म न करोति, 'पुगणं विहणे' प्राक्तनं-संपाराऽऽपादक कर्म विधूनयति-क्षपयति । के त्याग को ही ब्रह्मवत 'बुसं-उक्तम्' कहागया है 'तस्स-तस्य' उन मोक्ष का 'उदयट्ठी-उदयार्थी लाभ की इच्छावाले 'समणेत्ति बेमि-श्रमण इति धीमि' श्रमण भगवान महावीर है, ऐसा मैं कहता हूं ॥२०॥ __ अन्वयार्थ--भगवान महावीर नवीन कर्मबन्ध नहीं करते हैं, किन्तु पूर्वबद्ध कोका क्षय करते हैं । षट् जीवनिकायों के रक्षक भग. वान् ऐसा कहते हैं कि कुमति को त्याग कर ही कोई मोक्ष प्राप्त करता है। कुमति का त्याग करने से ही ब्रह्मवत कहा गया है। श्रमण भगवान् उसी मोक्षवत (ब्रह्मत्रत) के अभिलाषी हैं ॥२०॥ टीकार्थ-आर्द्रक मुनि गोशालक से कहते हैं- भगवान् के लिए तुमने व्यापारी का जो दृष्टान्त दिया है सो वह एकदेश से या सर्वदेश से ? एक देश से हो तो वह हमें भी इष्ट है, क्योंकि भगवान जहां उपदेश की सफलता देखते हैं, वहीं धर्मोपदेश देते हैं। दूसरा पक्ष 'वुत्त-उक्तम्' डेस छे. 'तस्स-तस्य' ते मोक्षना 'उदयट्ठी-उदयार्थी' सानी रिछावणा 'समणेत्ति बेमि-श्रमण इति ब्रवीमि' श्रमाणु भगवान महावीर छे. मे प्रमाणे छु.॥२०॥ - અન્વયાર્થ–ભગવાન શ્રી મહાવીર નવીન કમબંધ કરતા નથી. પરંતુ પૂર્વ બદ્ધ કર્મોને ક્ષય કરે છે. ષ જીવનિકાચાના રક્ષક ભગવાન સ્વયં એવું કહે છે કે-કુમતિને ત્યાગ કરે તેને જ બ્રહ્મવત કહ્યું છે. શ્રમણ ભગવાન એજ મક્ષ વ્રત (બ્રહ્મત્રત) ના અભિલાષી છે. મારા ટીકાર્યું–આદ્રક મુનિ ગોશાલકને કહે છે કે –ભગવાન મહાવીર માટે તમોએ વ્યાપારીનું દૃષ્ટાંત આપ્યું તે તમોએ એકદેશથી આપેલ છે કે સર્વ દેશથી આપેલ છે જે એક દેશથી એ દષ્ટાન આપેલ હોય તે તે અમને પણ માન્ય છે, કેમકે-ભગવાન જ્યાં ઉપદેશની સફળતા જુવે છે, ત્યાંજ ધર્મો. For Private And Personal Use Only Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir tot सूत्रकृताङ्गस्ये से ताई एवं आहे' स महावीर स्वायो षड्जीवनिकायरक्षक स्वयमेव-'स आह एवं' स एवमाह-कथति । 'अमई चिच्चा' अमति त्यक्त्वा परित्यज्य मोक्षं प्राप्नोति पुरुषः । 'एयोवया' एतावता कुमतित्यागेनै 'बंभवत्तित्ति' ब्रह्मवतमिति वुत्तं' सम् 'तस्सोदयट्ठी' तस्य मोक्षारुपास्योदयार्थी-अभिलाषुकः 'समणे तिचेमि' श्रमण इति ब्रजीम्यहम् । आर्दकः कथयति-भो भो गोशालक ! मगवतो मरावीरस्य स्वया वणिय दृष्टान्तः प्रदर्शितः स दृष्टान्त एकदेशेन सर्वात्मना चा? नाघः तस्ये. हत्वात् । यत्रोपदेशफलं पश्यति तत्रोपदिशति - धर्म भगवान् । द्वितीयस्तु नैत्र सम्भवति, यतो हि भगवान् सर्वेषां रक्षकः । नवीनं कर्म न बध्नाति पुराणं चाऽपनयति कुबुद्धिमपहाय विहरति-सदुपदेशं च ददाति । स्वयमेव स ब्रवीति कुमतित्यागो मोक्षमाप्नोति' स स्वयं कुमतित्यागी । . स मोक्षोदयार्थी इत्यह ब्रीमि । आर्द्र कस्योत्तरं गोशालक प्रतीति भावः ॥२०॥ मूलम्-समारभते वर्णिया भूयगामं परिग्गहं चेव ममायमाणा। तेणाइसंजोगमविप्पहाय आयस्स हेउं पैगरंति संगं ॥२१॥ छाया-समारभन्ते वणिजो भूतग्रामं परिग्रहं चैव ममीकुर्वन्ति । . ते ज्ञातिसंयोगमपि पहाय आयस्य हेतोः पकुर्वन्ति सङ्गम् ॥२१॥ ठीक नहीं है, क्योंकि भगवान सभी प्राणियों के रक्षक हैं । वे नवीन कर्मों का बंध नहीं करते हैं और पुरातन (पूर्वके) कर्मों का क्षय करते है। कुमति का त्याग करके भ्रमण करते हैं और सदुपदेश देते हैं। वे स्वयं यही कहते हैं कि कुमति का त्यागी ही मुक्ति पाता है । इस कारण वे मोक्षोदय के अर्थी हैं, ऐसा मैं कहता हूँ। यह गोशालक के प्रति आईक मुनि का उत्तर है ॥२०॥ 'समारभंते' इत्यादि। शब्दार्थ-आईक पुनः गोशालक से कहते हैं-हे गोशालक ! પદેશ આપે છે. બીજો પક્ષ બરાબર નથી. કેમકે ભગવાન સઘળા પ્રાણિનું રક્ષણ કરવા વાળા છે. તેઓ વન કર્મોને બંધ કરતા નથી. અને પૂર્વના કરેલા કર્મો ક્ષય કરે છે. તેઓ કુમતિને ત્યાગ કરીને વિચરે છે. અને સદુપદેશ આપે છે. તેઓ સ્વયં એજ કહે છે કે-કુમતિને ત્યાગ કરનાર જ મુક્તિ, પામે છે. તેથી તેઓ મોક્ષના ઉદયને ઈચ્છનારા છે. એ પ્રમાણે હું કહું છું. આ પ્રમાણે ગોશાલકે આદ્રકને ઉત્તર આપે છે. ગા૨માં 'समारभवेत्यादि શબ્દાર્થો-આકમુનિ ફરીથી ગોશાલકને કહે છે.– ગોશાલક ! For Private And Personal Use Only Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समथार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुनेगोशालकस्य संवादनि० ६०९ ___ अन्वयार्थः---आद्रेको गोशालकं प्रति कथयति-भोः ! (वणिया) वणिज:व्यापारकारः (भूयगाम) भूतग्राम-माणिसमुदायम् (समारभंते) समारभन्तेआरम्भसमारम्भं कुर्वन्ति, तथा-(परिग्गहं) परिग्रहम् (चेव) चैत्र (ममायमाणा) ममीकुर्वन्ति-अर्थात्-परिग्रहेऽपत्यदारधनादौ ममेत्यहंकारं ब्रनन्ति-ममत्वबुद्धि दधतीत्यर्थः, (ते) ते वणिजः (गाइसंजोगमषिप्पहाय) धातीनां परिवाराणां संयोगं यथायथ स्वस्वामिभावादिसम्बन्धम् अविपहाय-अत्यक्त्वा (आयस्स हेडे) आयस्य-मूलद्रव्यतो लब्धस्याः वृद्ध हेतौ (संग) सङ्गम्-अयोग्यैरपि सह सम्बन्धम् (पगरंति) प्रकुर्वन्ति, वणिजस्तु यथायथं व्यापारं कुर्वन्तः घातयन्ति जीवान् 'वणिया-वणिजः' व्यापारी लोग 'भूयगाम-भूतग्राम' प्राणी समूहका 'समारभंते-समारभन्ते' आरंभ समारंभ करते हैं तथा 'परिग्गहं चेव -परिग्रहं चैव' परिग्रह के ऊपर 'ममायमाणा-ममीकुर्वनित' ममता रखते हैं अर्थात् पुत्र, कलत्र, धन, आदि पर ममस्वभाव धारण करते हैं 'ते-ते' वे वणिक् जन 'पाइसंजोगमविप्पहाय-ज्ञातिसंयोगविग्रहाय' पारिवारिक जनों के संयोगको अर्थात् स्वस्वामी संबन्धको त्याग न करते हुए 'आघस्य हेउ-आयस्स हेतोः' लाभ के लिए 'संगं-सङ्गम्' संबंध न करने योग्य लोगों के साथ भी संबंध 'पगरंतिप्रकुर्वन्ति' करते हैं ॥२१॥ अन्वयार्थ-आईक पुनः गोशालक से कहते हैं-हे गोशालक ! व्यापारी लोग प्राणिसमूह का आरंभ समारंभ करते हैं तथा परिग्रह पर ममता रखते हैं अर्थात् पुत्र, कलत्र धन आदि पर ममत्व भाव धारण करते हैं। वे पारिवारिक जनों के संयोग को अर्थात् स्वस्वामी 'वणिया-वणिजः' वेपारीयो 'भूयगाम-भूतग्राम" प्राणी समूहना 'समारभतेसमारभन्ते' मा म अने सभाम रे छे. तथा 'परिग्गह चेव-परिग्रह चैव' परियन ५२ 'ममायमाणा-ममीकुर्वन्ति' ममता रामेछे. अर्थात पुत्र, सत्र धन, विगेरे ७५२ ममत्वमा थार रे छ. 'ते-ते' ते पारीयो णाइसंजोगम विष्पहाय-ज्ञातिसंयोगमविप्रहाय' परिवाना माणसाना सयसन अर्थात स्वस्वामी धनी त्या न ७२di 'आयस्स हे-आयत्य हेतोः' वाम भाट 'संगसङ्गम्' समय । १२वाने योग्य सोहीनी साथै ५५ सय पारंति-प्रक वन्ति ' ४२ छ. ॥२१॥ અન્વયાર્થ—-આદ્રક ફરીથી ગોશાલકને કહે છે. હે ગોશાલક વ્યાપારી લકે પ્રાણિ સમૂહને આરંભ સમારંભ કરે છે. તથા પરિગ્રહ પર મમતા ખે છે. અર્થાત પુત્ર કલત્ર ધન વિગેરેમાં મમત્વ બુદ્ધિ રાખે છે. તે પરિવાसू०७७ For Private And Personal Use Only Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६१० सूत्रकृताङ्गो सथाऽपरित्यज्येव परिवार परिग्रहे ममत्वानो दिग्विदिक्षु धावन्ति । गत्वा चाऽन्यः सहाऽसंबद्धबद्धसौजन्या आयमन्विच्छन्ति । भगवांस्तु-निरीहोऽपरिग्रहो जीवरक्षका केवलं परोपकारमासाद्यैव धर्मोपदेशेन पराननुगृह्णाति । इत्युभयो महदन्तरमाकाशपातालयोरिवेति ॥२१॥टीका-सुगमा ॥२१॥ (मूळम्-वित्तेसिणो मेहुणसंपगाढा ते भोयणट्ठा वर्णिया वेयंति। वयं तु कामेसु अज्झोववन्ना अणारियों पेमरसे गिद्धा ॥२२॥ छाया-वितैषिणो मैथुनसंप्रगाढा स्ते भोजनार्थ वणिजो ब्रजन्ति । वयन्तु कामेष्वध्युपपन्ना अनार्याः प्रेमरसेषु गृद्धाः ॥२२॥ संबंधी को न त्यागते हुए लाभ के लिए संबंध न करने योग्य लोगों के साथ भी सम्बन्ध करते हैं ॥२१॥ तात्पर्य यह है कि व्यापारी यथायोग्य व्यापार करते हुए वे जीवों का घात करते हैं। वे परिवार संबंधी स्नेह के त्यागी नहीं होते हैं। परिग्रह संबंधी ममता के कारण दिशाओं और विदिशाओं में दौड़ धूप करते रहते हैं। दूसरों के साथ सौजन्य दिखला कर लाभ की इच्छा करते हैं । किन्तु भगवान् निष्काम हैं, अपरिग्रही हैं, जीवों के रक्षक हैं, केवल परोपकार भाव से ही धर्मोपदेश देकर दूसरों का अनुग्रह उपकार करते हैं । इस प्रकार दोनों में महात् अन्तर है ।।२१।। टीका सुगम है ।।२१॥ રના જનના સંપર્કને રવ સ્વામિ સંબંધને ત્યાગ કર્યા વિના લાભ માટે ન કરવા યોગ્ય લોકેની સાથે પણ સંબંધ કરે છે. ૨૧ ટીકાર્થ–-વ્યાપારિ યથાયોગ્ય વેપાર કરતા થકા જીવને ઘાત કરે છે. તેઓ પિતાના પારિવારિક સંબંધના સ્નેહને ત્યાગ કરવાવાળા હતા નથી પરિગ્રહ સંબંધી મમતા દ્વારા દિશા અને વિદિશાઓમાં દેડાડ કરતા રહે છે. બીજાઓની સાથે સજજન પણું બતાવીને પોતાના લાભની જ ઈચ્છા રાખે છે. પરંતુ ભગવાન નિષ્કામ છે. અપરિગ્રહ વાળા છે, જેનું રક્ષણ કરવા વાળા છે. કેવળ પરે પકાર બુદ્ધિથી જ ધર્મોપદેશ આપીને બીજાઓ પર અનુગ્રહ અર્થાત્ ઉપકાર કરે છે. આ રીતે બનેમાં મહાનું અંતર છે. ૨૧ આ ગાથાની ટીકા સરળ હેવાથી જુદી આપી નથી, For Private And Personal Use Only Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. अ. अ. ६ आर्द्रकमुनेगर्गोशालकस्य संवादनि० ६११ अन्वयार्थ:-आकः पुनरपि गोशालकं कथयति-(वणिया) वणिजः (वित्तसिणो) वित्तैषिणो धनाभिलाषिणो भान्नि, तथा-(मेहुणसंपगाढा) मैथुनसंप्रगाढा-मैथुनेऽत्यन्तासक्तमानसा भवन्ति । (ते भोयणट्ठा वयंति) ते भोजनार्थ व्रजन्ति-वणिजो भोजनोपलब्ध्य इतस्तनो भ्रमन्ति, तु-मोऽस्मादेव कारणा (कामेसु) कामेषु (अज्झोववन्ना) अध्युपपन्नाः-कामाऽऽसक्ताः (प्रेमरसेसु) प्रेमरसेषु (गिद्धा) गृद्धाः (अणारिया) अनार्यास्ते इति (वयं) वयम्-कथयामः। तान् वणिवृत्तीनिति धनिः । तस्मिन्ननेकवारं क्रयविक्रयपचनपाचनादिके तथा परिग्रहे धनधान्य द्विपदचतुष्पदादिके नि-निश्चयेन श्रिताः बद्धाः निःश्रिता वणिजो भवन्तीति ॥२२॥ टीका-मुगमा ॥२२॥ 'वित्तेसिणो मेहुणसंपगाहा' इत्यादि । शब्दार्थ-फिर से आईक मुनि गोशालक से कहते हैं-'वणियावणिजः' व्यापारी जन 'वित्तसिणो-वितैषिणः' धन के अभिलाषी होते हैं। तथा 'मेहुणसंपगाढा-मैथुनसंप्रगाढाः' मैथुन में आसक्त होते है 'ते भोयणट्ठा वयंति-ते भोजनार्थ व्रजन्ति' वे भोजन के लिए इतस्ततः भ्रमण करते हैं 'कामेसु-कामेषु जो कामभोगों में 'अन्झोव. वन्ना-अध्युपपन्ना' आसक्त होते हैं, तथा 'पेमरसेसु-प्रेमरसेषु' स्नेहरस में 'गिद्धा-गृद्धाः' आसक्त होते हैं, उनको 'अणारिया-अनार्याः' अनार्य है ऐसा 'वयंतु-वयन्तु हम कहते हैं ॥२२॥ ____ अन्वयार्थ-आद्रक गोशालक से फिर करते हैं-व्यापारी जन धन के अभिलाषी होते हैं, एवं मैथुन में भी आसक्त होते हैं; वे भोजन वित्तेसिणो मेहुणसंपगाढा' या शहाथ-३ मा भुनि ४ थे.-'वणिया-वणिजः' व्यापारियो 'वित्तेसिणो-वित्तैषिणः धन मा २छ। पाय छे. तया 'मेहुणसंपगाढा-मैथुनसंप्रगाढाः' भैथुनमा आमति वाणा हाय छे. 'ते भोयणद्वा वयंति. ते भोजनार्थ ब्रजन्ति' तमा न भाटे ४ भाभ:तेम म . 'कामेसु कामेषु' २। मलामीमा 'अझोक्वन्ना-अध्युपपन्नाः' मासात डाय छ, तथा 'पेमरसेसु -प्रेमरसेषु' २७ २सभा 'गिद्धा-गृद्धाः' भासहित राय छे. त्याने 'अणारिया-अनार्या.' मनाय तेम 'वयं तु-वयन्तु' अमे तोही छीस. १२२॥ અન્યથાર્થ આદ્રક ગોશાલકને ફરીથી કહે છે કે-વ્યાપારી લેક ધનની ઈચ્છા વાળા હોય છે. તથા મૈથુનમાં આસક્ત હૈય છે. અને જન માટે For Private And Personal Use Only Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्कृताङ्गो मूलम्-आरंभगं चेव परिग्गहं च, अविउस्सिया णिस्सिय आयदंडा। तेसिं च से उदए जं क्यासी, चउरंतणंता य देहाय है ॥२३॥ छाया-आरम्मकं चैव परिग्रहश्चाऽव्युत्सृज्य निःश्रिता आत्मदण्डाः। तेषां च स उदयो यमवादीश्चतुरन्तानन्ताय दुःखाय नेह ॥२३॥ के लिए इधर उधर भ्रमण करते हैं । किन्तु जो कामभोगों में आसक्त हैं तथा स्नेह रस में गृद्ध हैं, उनको हम अनार्य कहते हैं ॥२२॥ तात्पर्य इस कथन का यह है कि भगवान महावीर को व्यापारी की उपमा देना योग्य नहीं हैं । व्यापारी गृहस्थ होते हैं, अतः वे क्रय-विक्रय, पचन पाचन आदि सावध क्रियाएँ करते हैं तथा धन धान्य द्विपद चतुष्पद आदि परिग्रह में मूर्छित रहते हैं । मैथुन के त्यागी नहीं होते। किन्तु भगवान ऐसे नहीं हैं । वे समस्त आरंभ समारंभ परिग्रह से अतीत हैं और पूर्ण ब्रह्म वर्य के धारक हैं ॥२२।। टीका सुगम है ॥२२॥ 'आरंभगं चेव परिग्गहं च' इत्यादि । शब्दार्थ-'आरंभगं-आरम्भक' प्राणातिपातआदि आरंभ तथा 'परिग्गह-परिग्रहं' धन धान्य आदिपरिग्रहको 'अविउस्तिय-अन्युः स्मृज्य' न स्याग करके व्यापारी 'णिस्सिय-निश्रिता।' उसमें आसक्त આમ તેમ ભ્રમણ કરે છે. પરંતુ જે કામમાં આસક્ત હોય છે અને નેહ રસમાં વૃદ્ધ હોય છે તેઓને અમે અનાર્ય કહીએ છીએ. ારા કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે–ભગવાન મહાવીરને વ્યાપારીની ઉપમા આપવી તે બરાબર નથી. વ્યાપારિ ગૃહસ્થ હોય છે. તેથી તેઓ કયવિક્રય ખરીદ વેચાણ, પચન, પાચન વિગેરે સાવદ્ય ક્રિયાઓ કરે છે. તથા ધન ધાન્ય દ્વિપદ, ચતુષ્પદ વિગેરે પરિગ્રહમાં મૂર્જિત હોય છે. મૈથુનને ત્યાગ કરનારા હતા નથી. પરંતુ ભગવાન એવા નથી. તેઓ બધા જ આરંભ અને પરિગ્રહથી પર છે. અને પૂર્ણ બ્રહ્મચર્યનું પાલન કરવાવાળા છે. પર આ ગાથાને ટીકાથે સરળ છે. જેથી જૂદે આપેલ નથી. 'भारं भग चेव परिगहच' त्यहि शहाथ--'आरंभग-आरम्भकं' प्रातिपात विशेरे माम तथा परिगह-परिग्रह' धन, धान्य, विगरे परिवहन। 'अविउस्त्रिय-अव्युत्सृज्य' त्याग नश व्यापारी णिस्सिय-निश्रिताः' मा मासत थाय छे. 'आयदंडा For Private And Personal Use Only Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आद्रकमुने!शालकस्य संवादन. ६१३ अन्वयार्थः--(आरं भगं चेव) आरम्भकम्-माणातिपातादिलक्षणम् (परिग्गहं च) धनधान्यादिलक्षणम् (अविउस्सिय) अव्युत्सृज्यापरित्यज्य (गिस्तिय) नि:श्रिताः-बद्धाः (आयदंडा) आत्मदण्डा ये वणि नः (तेसिं च) तेषां च (से उदर) स उदयः-धनलाभादिरूपः (जं वयासी) यमवादी: (म चउरंतणंताय दुहाय) स चतुरन्तानन्ताय दुःखाय (णेह) नेह वणिजां लाभः संसारदुःखाय न तु सुखाय, तीर्थकरस्योदयश्च केवलज्ञानप्राप्तिकक्षणो न तथा किन सुखायेति ॥२३॥ .. होते हैं 'आयदंडा-आत्मदंडाः' वे अपनी अत्माको दण्डित करने वाले हैं, तुमने 'तेसिं-तेषां' उनका जबयासी-यमवादी' जो उदय कहा है, 'से उदए-स उदयः' यह उदय 'चाउरंतणताय दुहाय-चतुरन्तान. न्ताय दुःखाय' चतुर्गतिरूप और अनंत दुःखका कारण होता है, 'णेह -नेह' वह उदय कभी नहीं भी होता है, अर्थात् ऐकान्तिक नहीं है, तीर्थकर भगवान का उदय केवल ज्ञान प्राप्तिरूप है, वह व्यापारी के उदयके तुल्य न होकर केवल प्लुख का ही कारण होता है ॥२३॥ .. अन्वयार्थ --प्रागातिपात आदि आरंभ तथा धन धान्य आदि परिग्रह को न त्याग कर के व्यापारी उस में आसक्त होते हैं। वे अपनी आत्मा को दण्डिन करने वाले हैं । तुमने उनका जो उदय कहा है, वह चतुर्गतिक एवं अनन्त दुःख का कारण होता है । वह उदय कभी नहीं भी होता है अर्थात् एकान्तिक नहीं है । तीर्थकर भगवान् का उदय केवलज्ञानप्राप्ति रूप है। वह व्यापारी के उदय के समान न होकर सुख का कारण ही होता है ॥२३॥ मात्मदण्डाः' तसा पोताना आत्मान ६ पापामा छे. तमे वेसिं-वेषी' 'जं क्यासी-यमवादीत्' २ लक्ष्य ४ छ. 'से उनए- उदयः' ते हय 'चाउरत. गंतोय दुहाय-चतुरन्तानन्ताय दुःखाय' यतुमति ३५ अने मनतमन ३५ 34 छ. 'णेह-नेह' ते 684 यारेन ५५ था य अर्थात् मन्ति હેતું નથી. તીર્થકર ભગવાનને ઉદય કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્તિ રૂપ છે. તે વ્યાપારીના ઉદય પ્રમાણે ન થતાં કેવળ સુખના જ કારણ રૂપ હોય છે. ર૩ અન્વયાર્થ–પ્રાણાતિપાત વિગેરે આરંભ તથા ધન ધાન્ય વિગેરે પરિ બહ ત્યાગ ન કરવાથી વ્યાપારી લેક તેમાં આસક્ત રહે છે. તેઓ પિતાના આત્માને દંડિત કરવા વાળા હોય છે. તમે તેમને જે ઉદય કહ્યો છે. તે ચાતર્ગતિક અને અનંત દુઃખના કારણરૂપ હોય છે. તે ઉદય કયારેક ન પણ હાય અર્થાત્ કાયમ થાય જ તેમ એકાતિક નથી. તીર્થંકર ભગવાનને ઉદય કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્તિ રૂપ છે. તે વ્યાપારીના ઉદય જે હેતે નથી પણ સુખના કારણ રૂપ જ હોય છે. પરવા For Private And Personal Use Only Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतागसूत्रे टीका-आर्द्रको गोशालक पाह-'आरंमग चे' आरम्मत एव शब्दोऽप्यर्थक स्तस्य च परिग्रहेण सहाऽन्धयः, तत्रारम्भं प्राणातिपातादिलक्षणम् 'परिगहं च' परिग्रहम्-परिग्रहः-धनधान्यादिस्वीकारलक्ष गस्तम् ‘अविउस्सिया' अव्युत्सृश्यअपरित्यज्य 'णिस्सिय' निःश्रिताः बद्धाः 'आयदंडा' आत्मदण्डा:-आत्मानमेव दण्ड यन्ति-विनाशयन्ति प्रागातिपातादिककरणेनेति आत्मदण्डाः 'तेति' तेषाम् -आरम्मपरिग्रहवताम् ‘से उदए' स उदयः-धनादीनां लामस्वरूपः । 'जं क्यासी' यमुदयम्-त्वमपि उदयमवादीः, स उदयः 'चउरंतणनाय दुहाय' चतुरन्ताऽनन्ताय दुःखाय भवति भविष्यति चेति ज्ञेयः, चतुरन्तश्चतुर्गतिकः संसारः अनन्तःपर्यवसान'रहितस्तदर्थम् उदयोभवतीत्यर्थः, वस्तुतो धनादीनामायात्मक उदयो नाऽऽत्यन्तिकसुवाय । अपि तु-चातुर्गतिक संसारस्य पापको दुःखजनकश्च भवति (णेह) नेह धनधान्यादीनां लाभोदयोऽपि एकान्तेन न भाति किन्तु यावत्पुण्योदय स्तावदेव भवति । अयं भावः-हे गोशालक ! वणिनां यो लाभः स संसारदुःखायैव टोकार्थ--आईक गोशालक से कहते हैं-हिंसादि रूप आरंभ को तथा धन धान्य आदि रूप परिग्रह को त्याग न करके जो उसमें आसक्त होते हैं, वे अपनी आत्मा को दुःखी बनाते हैं। उनका वह धनलाभ आदि रूप उदघ, जिसको तुमने भी उदय कहा है, चतुर्गतिक तथा अनन्त संसार का कारण होता है । वह वास्तव में न तो आत्यन्तिक सुख के लिए होता है और न ऐकान्तिक सुख के लिए ही होता है । जब तक पुण्य का उदय है तय तक ही रहता है। ...ओशय यह है-हे गोशालक ! व्यापारियों का लाभ संसार के , ટીકાર્થ–આદ્રક મુનિ ગોશાલકને કહે છે કે–હિંસા વિગેરે આરંભને તથા ધન, ધાન્ય વિગેરે રૂપ પરિગ્રહને ત્યાગ ન કરીને તેમાં જે આસક્ત હોય છે, તે પિતાના આત્માને સુખી બનાવે છે. તેઓને તે ધન લાભ વિગેરે પ્રકારને ઉદય, કે જેને તમે પણ ઉદય કહેલ છે, તે ચતતિક તથા “અનંત સંસારનું કારણ હોય છે. તે વાસ્તવિક રીતે જ તે આત્યન્તિક સુખ માટે હેય છે, અને એકતિક સુખ માટે પણ તે નથી. જયાં સુધી પુણ્ય ઉદય હોય છે, ત્યાં સુધી જ તે સુખ રહે છે. કહેવાને આશય એ છે કે-હે ગે શાલક! વ્યાપારિને લાભ સંસારના २ . For Private And Personal Use Only Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११ समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्र कमुने!शालकस्य संवादनि० ६१५ भवति सोऽपि च लाभो न स्वेच्छामात्रेण यथेष्टं भवति किन्तु यावत्पुण्योदय स्तावदेव भवतीति ॥२३॥ मूलम्-णेगंत णचंतिय उदए एवं वयंति ते दो विगुणोदयंमि। से उदए साईमणंतपत्ते तमुदयं साहयेइ ताई णाई ।२१: । छाया-नैकान्तिको नास्यन्तिक उदय एवं, वदन्ति तो द्वौ विमुणोदयौः ।। स उदयः साधनन्तमाप्त स्तमुदयं साधयति प्रायी ज्ञायी ॥२४॥ दुःखों का ही कारण होता है। वह लाभ जब तक पुण्योदय है तभी तक रहता है और स्वेच्छा मात्र से यथेष्ट नहीं होता ॥२३॥ . गंतणच्चंतिय' इत्यादि । शब्दार्थ- 'एवं उदए-एवं उदयो धनलाभ आदि रूप पूर्णोक्त उदय 'णेगंतणच्चंति य-नैकान्तिको नात्यंतिकश्च' न ऐकान्तिक है और न आस्पन्तिक है ऐसा ज्ञानी जन कहते हैं । 'ते दो विगुणोदयंमि-तो छौ विगुणोदयो' उदय में वह दोनों गुग रहित है, वह वास्तव में उदय नहीं है वह उदय गुणरहित है, किन्तु 'से उदए-स उदयः' तीर्थकर भगवान् का वह उदय 'साहमणतपत्ते-साधनन्तप्राप्तः' सादि और अनैत है 'ताई णाई-प्रायी ज्ञायी' जीवों के त्राता और सर्वज्ञ भगवान् 'तमुदयंतमुदयं वह केवलज्ञान लक्षण उदय का 'साहयइ-साधयति' दूसरों को भी उपदेश करते हैं ।गा. २४॥ દુઃખનું જ કારણ હોય છે. તે લાભ, જયાં સુધી પુણ્યને ઉદય હોય છે, ત્યાં સુધી જ રહે છે. અને સ્વેચ્છા માત્રથી યથેચ્છ પ્રકારને તે લાભ હેતું નથી. ર૩ 'णेगत णचंतिय त्यात शा--'एवं उदए- एवम् उदयः' धन am विगैरे प्रश्न पतi a य 'णेगत णचंतिय-नैकान्तिको नात्यंतिकश्च' ति: नथी तभ मायति ५५ नथी. या प्रमाणे ज्ञानीभने। ४. छे. 'ते दो विगुणोदयमितौ द्वौ विगुणोदयौ' २ यम मन्ने गुऐ। डाता नथी. वास्तवि: शत a य वात नथी. य गुण पानी छे. परंतु 'से उदए-स उदयः' तीय ४२ सवान। त य 'साइमणंतपत्ते-साद्यनन्तप्राप्तः' साह भने मनात छे. 'तमुदयं-तमुदय' ते 3 शान ३५ अयने 'ताई णाई-त्राया ज्ञायी' वोनु त्रा-२क्ष ४२वापार भने स मशवाने 'साहयइ-साधयति' બીજાઓને પણું ઉપદેશ આપે છે. પારકા For Private And Personal Use Only Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतागलो - अन्वयार्थः-(एवं उदए) एवम्-पूर्वोक्तः-उदया-धनलाभादिरूपः (णेगंतण. चंतिय) नैकान्तिको नात्यन्तिकश्य, (ते दो विगुणोदयंमि) तो द्वौ विगुणोदयौगुणवर्जितौ (से) सः (उदए। तीर्थकरस्योदयः लामा (साइमणंतपत्ते) साधनन्त. माता-सादिमनन्तं च प्राप्तः 'तमुदा' तं-केवलज्ञानलक्षणमुदयम् 'ताई णाई' पायी-जीवरक्षका, ज्ञायी-सर्वश: 'साहयई' अन्यानपि साधयति उपदेशद्वारा पापयतीति 'वयंति' वदन्ति विद्वांसः॥२४॥ ____टीका-पुनरपि आर्द्रक आह-हे गोशालक ! वणिजो धनादिः कदाचिह्न पति-न वा भवति, कहिचिल्लाभमपेक्षमाणस्य महती हानिरेव, अतो विदि. तर विद्वद्भिः वणिजा लाभे नास्ति स्थायीगुण इति कथ्यते । भगवता तीर्थकरेण कर्मनिर्जराद्वारेण लब्धो लामो लामः कथ्यते । येन च भाति दिव्य ___ अन्वयार्थ--धन लाभादि रूप पूर्वोक्त उदय न ऐकान्तिक है और न आत्यन्तिक है, ऐसा ज्ञानी जन कहते हैं । जिस उदय में यह दोनों गुण नहीं है, वह वास्तव में उदय नहीं है-वह उदय गुणरहित है। किन्तु तीर्थकर भगवान का उदय सादि और अनन्त है। जीवों के त्राता और सर्वज्ञ भगवान उस उद्य का दूसरों को भी उपदेशकरते हैं ॥२४॥ टीकार्थ--आद्रक फिर कहते हैं-हे गोशालक ! व्यापारियों को धन आदि की प्राप्ति कभी होती है, कभी नहीं भी होती । कभी लाभ की अपेक्षा रखते हुए बहुत बड़ी हानि हो जाती है। अतएव ततज्ञानियों का कथन है कि वर्षणको के लाभ में स्थायी गुण नहीं है। અન્વયાર્થ–-ધન લાભ વિગેરે પ્રકારને પહેલાં કહેલ ઉદય એકાન્તિક નથી, તેમ આત્યંતિક પણ નથી, તેમ જ્ઞાનીજને કહે છે. જે હૃદયમાં આ બને ગુણ નથી તે વાસ્તવિક રીતે ઉદય જ નથી. અર્થાત તે ઉદય ગુણહીન છે. પરંતુ તીર્થકર ભગવાનને ઉદય સાદિ અને અનંત છે. જેનું ત્રાણ કરવાવાળા સર્વજ્ઞ ભગવાન એ ઉદયન બીજાઓને પણ ઉપદેશ આપે છે. રજા ટીકાથ–- ફરીથી આદ્રક મુની કહે છે કે હે શાલક! વ્યાપારીને ધન વિગેરેની પ્રાપ્તિ કયારેક થાય છે, અને ક્યારેક નથી પણ થતિ, કયારેક લાભની આશા રાખવા છતાં પણ બહુ મોટી નુકશાની પણ આવી જાય છે. તેથી જ તત્વજ્ઞાનીનું કથન છે કે વ્યાપારીના લાભમાં સ્થાયી–ગુણ હોતું નથી. For Private And Personal Use Only Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir enereatfunी टीका द्वि. शु. अ. ६ आईकमुने गौशालकस्य संवादनि० ६१७ ज्ञानप्राप्तिः । स लाभोऽनन्त केवलज्ञानप्राप्तिलक्षणः परमो लाभः स च सादिरनन्तः । एतादृशं दिव्यज्ञानप्राप्तिलक्षणमपूर्वकाभं लब्ध्वाऽन्यानपि उपदेश द्वारा तं लाभं दिव्यज्ञानलक्षणं मापयति । तीर्थकरो महावीरो ज्ञातपुत्रः स्वयं सर्वपदार्थज्ञाता मध्यान् संसारादुत्तारयति । अतो न स वणिग्गु विदग्ध इति सूत्रेण प्रकाशयति । 'ए' एवं पूर्वोक्तः उदयः - वणिजां सावद्य कर्माऽनुष्ठानजनितनादिरूपः । 'गंत मच्चति यः नैकान्तिको नात्यन्तिकच लाभार्थ प्रवृत्तस्य लाभो भविष्यत्येवेति न नियमः कदाचिद् हानिरपि संभवति स न सर्वकालभावी संरक्षयदर्शनात् तथा न आत्यन्तिक इति 'वयंति' वदन्ति विद्वांसः 'ते दो' तौ द्वौ तीर्थंकर भगवान् कर्मों का क्षय कर के जो लाभ प्राप्त करते हैं वही वास्तविक लाभ है । वह लाभ है केवलज्ञान की प्राप्ति । वह परम लाभ है और सादि अनन्त है। भगवान् दिव्यज्ञान के अपूर्वलाभ को प्राप्त करके उपदेश के द्वारा दूसरों को भी वह लाभ प्राप्त कराते हैं। तीर्थकर भगवान् महावीर स्वयं सब पदार्थों को जानकर भव्य जीवों को संसार से तारते हैं। अतएव वह वणिक् के समान नहीं है, यह बात सूत्र के द्वारा प्रकाशित करते हैं। सावध क्रियाओं के अनुष्ठान से होने वाला धनादि का लाभ रूप उदय न ऐकान्तिक है और न आत्यन्तिक है । लाभ के लिए प्रवृत्ति करने वाले को लाभ होगा ही, ऐसी बात नहीं है, कभी कभी हानि भी हो जाती है। तथा यदि लाभ हो भी जाता है तो वह मदा के लिए नहीं होता, क्योंकि उसका क्षय होना देखा जाता है। अतएव जो उदय ऐकान्तिक और आत्यन्तिक नहीं है, તીર્થંકર ભગવાન કમાંના ક્ષય કરીને જે લાભ મેળવે છે, તેજ ખરેખર વાસ્તવિક લાભ છે. તે લાભ કેવળ જ્ઞાનની પ્રાપ્તિના છે. તે પરમ શ્રેષ્ઠ લાભ છે, અને સાદિ અન’ત લાભ છે. ભગવાન્ શ્રી મહાવીરસ્વામી દિવ્ય જ્ઞાનના લાભ મેળવીને ઉપદેશ દ્વારા ખીજાએને પણ એ લાભ પ્રાપ્ત કરાવે છે. તીર્થંકર ભગવાન મહાવીર સ્વય' સઘળા પદાર્થને જાણીને ભવ્ય જીવેાને સંસારથી તારે છે. તેથી જ તેઓ વ્યાપારી જેવા નથી. આ વાત સૂત્ર દ્વારા બતાવતાં કહે છે-સાવધ ક્રિયાએના અનુષ્ઠાનથી થવાવાળા ધન વિગેરેના લાભ રૂપ ઉદય એકાન્તિક નથી, તેમ આર્યન્તિક પણ નથી, લાભને માટે પ્રવૃત્તિ કરવાવાળા સવ વ્યાપારચાને લાભ થશે જ એમ હેતુ નથી, કયારેક કચારેક નુકશાન પણ થઈ જાય છે, તથા જો લાભ થઈ પણ જાય તે તે કાયમ માટે હાતા નથી. કેમકે તેના નાશ થતા જોવામાં આવે છે. તેથી જ જે ઉદ્દય એકાન્તિક અને सु० ७८ For Private And Personal Use Only Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - सूत्रकृतास्ते 'विगुणोदयमि' विगुणोदयौ यो उदयो नैकान्तिको नात्यतिको तो द्वानपि उदयौ गुणवर्जितो, किं तेन लामरूपेण यो न आत्यन्तिको नैकान्तिकश्च, 'से उदए' स उदयः यमुदय भगवानाप्तवान् । 'सादिमणंतपत्ते' साधनन्तप्राप्तः, भगवता लब्ध उदयः सादिरनन्तश्च । तमुदयं तादृशं सादिमनन्तात्मक केवलाऽपरनामानधुदयं भगवानन्यान् ‘साहयई साधयति उपदेशद्वारेण प्रापयति । भगवान् 'ताईणाई' आयी-पड्जीवनिकायरक्षका, ज्ञायी-सर्वज्ञश्चेति तदेवं भगवता सह तेषां पगिजा निर्विषे किनां कथं सर्वसाधर्म्यमिति ॥२४॥ साम्पतं कृत देवसमवसरणसिंहासनाधुपभोगं कुर्वन्नपि आधाकर्म कृत वसतिनिषेत्रकसाधुवत् कथं तदर्थकृतेन कर्मगा भगवान् न लिप्यते इत्येतद् गोशालकमतमाशङ्कय माह-'अहिंसयं' इत्यादि, वह गुणरहित है। उस लाभ से क्या लाभ की जो ऐकान्तिक और स्थापी न हो। किन्तु भगवान् ने तो ऐसा उदय प्राप्त किया है जो सादि और अनन्त है अर्थात् जो एकवार प्राप्त होकर सदा के लिए स्थायी है। भगवान् उसी उदय की दूसरों के लिए प्ररूपणा करते हैं। वे जीवमात्र के त्राता (पक्षक) और सर्वज्ञ हैं। इस प्रकार भगवान् को व्यापारियों के साथ तुलना करना उचित नहीं है। उनमें कोई ममानना नहीं है ॥२४॥ • देवों द्वारा निर्मित समवसरण सिंहासन आदि का उपभोग करते हुए भी भगवान् आधार्मिक उपाय का सेवन करने वाले साधु के समान कर्म से लिप्त क्यों नहीं होते ? गोशालक के इस मत की आ. शंका करते हुए मूत्रकार कहते हैं-'अहिंसयं सवपयाणुकंपि' इत्यादि। આત્યંતિક નથી, તે ગુરુ રહિત છે. તેવા લાભથી શું લાભ કે જે એકાતિક અને સ્થાયી ન હોય! પરંતુ ભગવાને તે એ ઉદય પ્રાપ્ત કરેલ છે કે–જે સાદિ અને અનંત છે અર્થાત્ જે એક વાર પ્રાપ્ત થઈને સદાને માટે સ્થાયી હોય છે. ભગવાન એજ ઉદયની પ્રરૂપણ બીજાને માટે કરે છે. ભગવાન જીવ માત્રના ત્રાતા=રક્ષણ કરવાવાળા અને સર્વજ્ઞ છે. આવા ભગવા. નની તુલના વ્યાપારિની સાથે કરવી તે યોગ્ય નથી. તેમાં કંઈ જ સરખા પણું રહેલ નથી. મારા દેવોએ રચેલ સમવસરણ સિંહાસન વિગેરેને ઉભેગ–સેવન કરવા છતાં પણ ભગવાન આધાર્મિક ઉપાશ્રયનું સેવન કરવાવાળા સાધુની જેમ કર્મથી કેમ લિપ્ત થતા નથી? ગોશાલકના આ અભિપ્રાયને આશ્રય કરીને सूत्र॥२ ४९ छे-अहिंस्रयं सवपयाणुकवि' त्यादि For Private And Personal Use Only Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयाथैबोधिनी टीका द्वि. शु. अ. ६ आर्द्रकमुतेग शालकस्य संवादनि० ६१९ मूलम् - अहिंसयं सव्वपयाणुकंपिं, धम्मेठियं कम्मविवेगहेडं । तमायदंडे हिं समायरंता अबोहिये ते पडिरूवमेयं ॥ २५ ॥ छाया - अहिंसकं सर्वमजानुकम्पिनं, धर्मे स्थितं कर्मविवेकहेतुम् । तमात्मदण्डैः : समाचरन्तः, अवोधेस्ते प्रतिरूपमेतत् ||२२|| अन्वयार्थः -- ( अहिंसयं) अहिंसकम् ( सन्नपयाणुक पिं) सर्वत्र जानुकम्पिनम् :- सर्वजीवेषु दयाशीलम् (धम्प्रेद्वियं) धर्मे स्थितम् (कम्मविवेग) कर्म विवेक हे तुम् - कर्मनिर्जराकारणम् इत्थंभूतं तीर्थकरं देवम् (तमायदंडे हिं समायरता ) तमारमदण्डैः समाचरन्तः - आत्मदण्डा भवन्तः ये पुरुषाः भवत्सदृशाः सन्ति ते भग वति वणिकां समाचरन्ति नाऽन्ये विद्वांसः, (ते) ते-तत्र (अचोहिए) अबोधेरज्ञानस्य (डिमे) प्रतिमेतत्तुल्यमेवेति ॥ २५॥ शब्दार्थ –'अहिंसयं-अहिंसक' अहिंसक 'सच्चपथाणुकंपिं - सर्व प्रजानुकम्पिनं' प्राणी मात्र की अनुकंपा करनेवाले 'धम्मेटियं धर्मे स्थितम्' धर्म में स्थित 'कम्मविवेग हेडं - कर्मविवेकहेतुम' निर्जरा के हेतु देवाधिदेव को 'आयडेहिं समायरंता - आत्मदण्डैः समाचरन्तः' आप अपनी आत्मा को दण्डित करनेवाले व्यापारियों के समान कहते हैं यह 'ते-ते' आप का 'अबोहिए- अबोधेः' अज्ञान के 'पडिरूवमेव प्रतिरूपमेव' अनुरूप ही है ॥गा. २५ ॥ अन्वयार्थ - अहिंसक, प्राणी मात्र पर अनुकम्पा करने वाले, धर्म में स्थित, निर्जरा के हेतु देवाधिदेव को आप अपनी आत्मा को दण्डित 'करने वाले व्यापारियों के समान कहते हैं, यह आपके अज्ञान के अनुरूप ही है ||२५|| शब्दार्थ–'अहिंसयं-अहिंसकं' अडिस 'सव्वपय: णुकंपि सर्वप्रजानु कम्पिनं' आणी भात्री अनुपा उरवावाजा 'धम्मे ठियं धर्मे स्थितं धर्भाभां स्थित, 'कम्मविवेगद्देव कर्मविवेक हेतुम्' निराना हेतु देवाधिदेवने 'आयडेहिं समायरता - आत्मदण्डैः समाचरन्तः' पोताना आत्माने हउवावाजा वेथारियानी भरेर । छो. या उथन 'ते ते' तभारा 'अबोहिए - अबोधेः' अज्ञानना 'पडीरूवमेव-प्रतिरूपमेव' अनु३५०४ हे ॥२५॥ અન્વયા —અહિ સક-પ્રાણી માત્ર પર અનુકંપા કરવાવાળા, ધમ માં સ્થિત નિરાના હૅતુ એવા દેવાધિદેવને આપ પોતાના આત્માને ઇતિ કરવાવાળા વ્યાપારિયાની સાથે સરખાવે છે તે આપના અજ્ઞાન પણાને ચેગ્ય જ છે. ઘરપા For Private And Personal Use Only Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतानले टीका--भो गोशालक ! 'अहिंसयं' अहिंसकम्-नास्ति हिंसा-माणातिपातादिरूपा यस्य तम् 'सापयागुरपि सर्व पजाऽनुकम्पिनम्-सर्वमनासु-सकल. माणिषु अनुकम्पाशालिनम् 'धम्मे ट्ठियं धर्म-अहिंसादौ स्थितम्-सदा विद्यमानम् 'कम्मविवेगहे' कर्मविवेकहेतुम्-कर्मनिर्जराकारणम् एतादृशमपि तीर्थकर भग वन्तं महावीरम् 'तमायदंडेहिं समायरंता' तमात्मदण्डैः समाचरन्त:-आत्मानं दण्डयन्ति ये पुरुषा:-भवत्सदृशास्ते एवं वणिक्तुल्यं जल्पन्ति । नाऽपरे विद्वांसः, 'पयं' एतद् भगवतो निन्दा वणिक्तुल्यकथनम् 'ते' ते-तव 'अबोहिए' अबोधेरज्ञानस्य 'पडिरूवं' प्रतिरूपमेव, अज्ञानफलम् । अशोकवृक्षादि पाविहार्या दिकं भगवतोऽतिशयेन स्वयमेव भवति देवकृता पुष्पवृष्टिरपि अचित्तैव जायते, देवाधर्थमेव अचित्तपुष्पवृष्टिभवति न तु भगवदर्थम्, तत्र भगवतोऽनुमोदनाभावाद् रागद्वेषरहितत्वाचे एतदेव सूत्रकारेण दर्शितमिति भावः ॥२५॥ ____टीकार्थ-हे गोशालक ! जो भगवान हिंसा से सर्वधा रहित हैं, जो प्राणीमात्र पर अनुकम्पा रखते हैं, जो सदैव अहिंमा आदि धर्म में स्थित रहते हैं और जो कर्मनिर्जरा के कारण हैं, ऐसे तीर्थकर भगवान् महावीर को अपनी आत्मा को दंडित करने वाले आप जैसे लोग ही व्यापारी के समान कहते हैं । ज्ञानवान पुरुष ऐसा नहीं कह सकते। भगवान् की निन्दा करने के लिए उन के समान कहना तुम्हारे अज्ञान के अनुरूप ही है ! यह तुम्हारे अज्ञान का ही परिणाम है! .. आशय यह है कि अशोकवृक्ष आदि भगवान् के प्रातिहार्य स्वयमेव होते हैं, देवों के द्वारा अचित्त पुष्पों की ही वर्षा की जाती है। देवों के लिए अचित्त पुष्पवृष्टि होती हैं भगवान के लिए नहीं, क्योंकि 1 ટીકાઈ–હે ગોશાલક! જે ભગવાન હિંસાથી સર્વથા રહિત છે. જે પ્રાણી માત્ર પર અનુકંપા-દયા રાખે છે. જે કાયમ અહિંસા વિગેરે ધર્મમાં સ્થિત રહે છે. અને જે કર્મ નિજેરાના કારણ રૂપ હોય છે. એવા તીર્થકર ભગવાન મહાવીરને પિતાના આત્માને છેતરવાવાળા તમારા જેવા પુરૂષો વ્યાપારી જેવા કહે છે. જ્ઞાની પુરૂષે તેમ કહી શકતા નથી. ભગવાનની નિંદા કરવા માટે વ્યાપારી જેવા કહેવા તમારા અજ્ઞાનને અનુરૂપ–ગ્ય જ છે. આ તમારા અજ્ઞાનનું જ કારણ છે. કહેવાનો આશય એ છે કે–અશોક વૃક્ષ વિગેરે ભગવાનના પ્રાતિહાર્ય વયમેવ થાય છે. દેવે દ્વારા અચિત્ત પુપિની જ વર્ષા કરવામાં આવે છે. દેવે માટે અચિત્ત પુષ્પ વૃષ્ટી જ થાય છે. ભગવાનને માટે નહીં કેમ કે For Private And Personal Use Only Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुनेगौशालकस्य संवादनि० ६२१ मूलम्-पिन्नागपिंडीमवि विद्धसूले केइ पएज्जा पुरिसे इमे त्ति। अलाउयं वावि कुमारएत्ति स लिप्पई पाणिवहेण अम्हं ।२६॥ छाया--पिण्याकपिण्डीमपि विद्ध्वा शूले कोऽपि पचेत्पुरुषोऽयमिति । अलाबुकं वाऽपि कुमार इति स लिप्यते माणिवधेनाऽस्माकम् ॥२६॥ अन्वयार्थ:- (केइपुरिसे) कश्चित्पुरुषः (पिन्नागपिंडीमवि) पिण्याकपिण्डमपि-खलपिण्डमपि (मुले) शूछे (विद्ध) विवा-आरोग्य (पुरिसे इमेत्ति) पुरुषो. ऽयमिति कृत्वा (पएज्जा) पचेत् पाचयेद्वाऽग्नौ, (वावि) वाऽपि-अथवाऽपि भगवान् उनका अनुमोदन नहीं करते और रागद्वेष से रहित होते हैं। यही बात सूत्रकार ने यहां दिखलाई है ॥२५॥ 'पिन्नागपिंडीमवि विद्ध सूले' इत्यादि । शब्दार्थ-'केह पुरिसे-कश्चित्पुरुषः' कोई पुरुष पिन्नागपिंडीमविपिण्याकपिलमपि खल के पिंड को 'सूले-शूले' शूली से 'विद्ध-विद्ध्वा' वेधकर (छेदकर) 'पुरिसे इमेत्ति-पुरुषोयमिति' यह पुरुष है, ऐसा सोच कर 'पएजा-पचेत्' पकावे 'वावि-अथवापि' अथवा 'अलावुर्ग-अलावुकं' तुंबे को 'कुमारएत्ति-कुमारोऽयमिति' कुमार (बालक) समझ कर पकावे तो हमारे मत के अनुसार 'स पाणिवहेण-सः प्राणिवधेन' वह पुरुष जीव वध से 'लिप्पइ-लिप्यते' लिप्त होता है 'अम्हं-अस्माकम्' ऐसा हमारा शाक्यों का मत है ॥गा० २६॥ अन्वयार्थ-कोई पुरुष खल के पिण्ड को शूली से वेध कर यह ભગવાન તેનું સમર્થન કરતા નથી. અને ભગવાન રાગદ્વેષ રહિત હોય છે. એજ વાત સૂત્રકારે અહિં બતાવેલ છે. મારા 'पिन्नागपिंडीमवि विद्धसूले' त्यादि . हाथ – 'केइ पुरिसे-कश्चित्पुरुषः' । ३५ पिनागपिंडीमवि-पिण्याक पिंडमपि' पसना पिउने सूले-शूले' शूजी ५२ 'विद्ध- विधा' पाधान पुरिसे इमेत्ति'-पुरुषोऽयमिति' 24५३५ छ, तम मानीने 'परज्जा-पचेत्' २ वावि अथवापि' अथातो 'अलावुग'-अलावुक' तुमाने 'कुमारएत्ति-कुमारोऽयमिति' भी शुमार थेटले , माण छ, म समझने राधे तो अमारा भत प्रभार 'म पाणिवहेण-मः प्राणिवधेन' ते ५३५ ११५थी 'लिप्पइ-लिप्येत' वित थाय छे. ॥२६॥ અન્વયાર્થ–કે પુરૂષ ખલપિંડને શુળીથી વધીને આ પુરૂષ છે એમ For Private And Personal Use Only Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६२२ सूत्रकृतास्ते (अलाउग) अलावुकम् (कुशरएत्ति) कुमारोऽयमिति मत्ता पचेत् (स पाणिवहेण) स पुरुषः प्राणिवधेन (लिप्पइ) लिप्यते इति (अम्ह) अस्माकं मतमिति ॥२६॥ ' टीका-गोशालकं निराकृत्य भगवन्तं वन्दितुं गच्छ स्तस्य आर्द्रकस्य मार्गे शाक्येन साकं वार्तालापो जातः, शाक्य एवमवादीत्-भोः ! सत्यं भाता गोशाल कमतं खण्डितम् तत्सर्व श्रुतम् न भवति किमपि बाह्याऽनुष्ठानेन, किन्तु अन्तरेण अनु ठानमेव कर्मबन्ध कारणमिति खसिद्धान्तं श्रावयति, शाक्य आर्द्रक तदेव दर्शयति-'केह' कश्चित् 'पुरिसे' पुरुषः पिनागपिंडीमवि' पिण्यापिण्डमपि -पिण्याक:-खल स्तस्य सकलमवेतनमपि कदाचित् कश्चिद् म्लेच्छ देशं गतः स तत्र म्लेच्छभयात् संभ्रमेण पलायमानः स्वसमीपस्थावलपिण्डं वस्त्रेग वेष्टयित्वा तत्र परित्यक्तवान् पश्चात्तत्र समागतेन म्लेच्छेन वस्त्रवेष्टितखलपिण्ड के दृष्ट्वा गृहीपुरुष है' ऐसा सोच कर पकावे अथवा तूचे को कुमार (बालक) समझकर पकावे तो हमारे मत के अनुसार वह जीववध से लिप्त होता है ।२६। टीकार्थ- गोशालक को परास्त करके आर्द्रक मुनि भगवान को वन्दना करने के लिए आगे चले तो शाक्य के साथ उनका वार्तालाप (संवाद) हुमा। शाक्य इस प्रकार कहने लगा-आपने गोशालक के 'मत का निराकरण किया है, वह सब मैंने सुना है। आपने यह अच्छा ही किया। वास्तव में बाह्य अनुष्ठान (क्रियाकाण्ड) से कुछ भी नहीं होता, आन्तरिक क्रिया ही कर्मबन्ध का कारण है। शाक्य अपने इस सिद्धान्त का आईक के सामने प्रतिपादन करता है-कोई आदमी म्ले. च्छदेश में गया। वहां म्लेच्छों के भय से जल्दी जल्दी दौडना हुआ अपने पास में स्थित अचेतन खलपिण्ड को वस्त्र से आच्छादित करके વિચારીને રાંધે અથવા તુંબડાને (બાલક) સમજીને રાંધે તે અમારા મત પ્રમાણે તે જીવ વધથી લિપ્ત થાય છે. મારા I ટીકાઈ-ગોશાલકને પરાજીત કરીને આદ્રક મુનિ ભગવાનને વંદના કરવા માટે આગળ ચાલ્યા તે શાકની સાથે તેઓને વાર્તાલાપ (સંવાદ) થ. શા આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા. આપે ગોશાલકના મતનું ખંડન કરેલ છે, તે સઘળું કથન અમે સાંભળેલ છે. આપે આ સારૂં જ કરેલ છે. વાસ્તવમાં બાહા અનુષ્ઠાન (કિયાકાંડ) થી કંઈ પણ લાભ થતો નથી. આંતરિક ક્રિયા જ કર્મબંધનું કારણ છે. શાકય પિતાના સિદ્ધાંતનું પ્રતિપાદન આદ્રક મુનિની સામે કરતાં કહે છે કે કોઈ પુરૂષ પ્લેચ્છ દેશમાં ગયેલ હોય, ત્યાં પ્લેચોના ડરથી જદી જદી દેડતા દેડતા પિતાની પાસે રહેલ અચેતન 'ખલપિંડને વસ્ત્રથી ઢાંકીને ત્યાં મૂકી ગયા, તે પછી પ્લેચ્છ ત્યાં પહોંચ્યા તે For Private And Personal Use Only Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्र कमुने!शालकस्य संवादनि० ६२३ तम् 'हमे पुरिसेत्ति' अयं पुरुषइति मत्वा 'मूले विद्ध' शूले विद्ध्वाऽग्नौ 'पएज्जा' पचेत्, तथा-'अलाउयं' अलावुकम् 'वावि' वाऽपि-अथवा 'कुमारएत्ति' कुमार इति मस्खा शूले-आरोप्य पचेत् । सः-पुरुषः अन्यमपि-अन्यबुद्धया पचन पाचयन् वा 'पाणिवहेण' पाणिवधेन-पाणिमाणातिपातजनितदोषेण कर्मणा 'लिप्पई' लिप्यते इति 'अम्हं' अस्माकं-शाक्यानां मतम् । द्रव्यरूपेण पापाऽसमुपार्जनेऽपि भावतः पापोदयात्, तत्र तत्र कलुपितायां मनोवृत्तौ तस्कालण्यमेव पापकारणं जायते । 'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः' ॥२६॥ मूलम्-अहवा वि विभृग मिलक्खू सूले, पिन्नागबुद्धीइ नरं पएज्जा। कुमारं वावि अलावुयं, न लिप्पइ पाणिवहेण अम्हं ।२७। छाया -- अथवापि विद्ध्वा म्लेच्छः शूले पिण्याकबुद्धया नरं पचेत् । . कुमारं वापि अल चुकमिति न लिप्यते प्राणिः धेनाऽस्माकम् ॥२७॥ छोड़ गया। बाद में म्लेच्छ वहां पहुंचा। उसने वस्त्र से आच्छादित खलपिण्ड को देखा और 'यही वह पुरुष है' ऐसा समझ कर शूल में वेध दिया और अग्नि में पकाया। अथवा कोई पुरुष तवे को 'यह कुमार है' ऐसा मान कर शूल में वेध कर पकावे, तो वह पुरुष अन्य को अन्य समझ कर पचन पाचन करता हुआ प्राणातिपात के पाप से लिप्त होता है । यह हमारा मत है, क्योकि वहां द्रव्यप्राणातिपात न होने पर भी भाव प्राणातिपात होता है। हिंसा करने वाले की कलुषित मनोवृत्ति ही इस पाप का कारण है। कहा भी है-'मन एव मनुष्याणाम्' इत्यादि। _ 'मन ही मनुष्यों के बन्ध और मोक्ष का प्रधान कारण है ॥२६॥ વસ્ત્રથી ઢાંકેલ ખલપિંડને જોયું તે જોઈને આજ પુરૂષ છે, તેમ માનીને શૂળીમાં તેને વિધી દીધો. અને તેને અગ્નિમાં રાંધે. અથવા કઈ પુરૂષ તુંબાને આ કુમાર છે, તેમ માનીને શૂળમાં વધીને પકાવે છે તે પુરૂષ અન્યને અન્ય સમજીને પચન પાચન કરતા થકા પ્રાણાતિપાતના પાપથી લિપ્ત થાય છે, આ અમારા મત છે. કેમકે અહિયાં દ્રવ્ય પ્રાણાતિપાત ન હોવા છતાં પણ ભાવ પ્રાણાતિપાત થાય છે. હિંસા કરવાવાળાની મલીન મને વૃત્તિ જ આ પાપનું કારણ छ. युं ५ छ. 'मन एब मनुष्याणाम्' इत्यादि भन मेरा मनुष्याना मध અને મેલનું મુખ્ય કારણ છે. મારા For Private And Personal Use Only Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गो _अन्वयार्थः- (अहवा वि) अथवाऽपि (मिलक्खू) म्लेच्छः (नरं) नरम्-पुरुषम् (पिण्णागबुद्धीए) अयं पिण्याक इति बुढ्या (मूले विभ्रूण) शूले विद्धा-आरोप्य अग्नौ पवेत् (वावि) वापि-अथवापि (कुमारगं) कुमारम् (अलावुयंति) अलावुक मिति मत्वा शुले आरोप्य पचेत् (पाणिवहेण न लिप्पइ) माणिवधेन न लिप्यते इति (अम्ह) अस्माकं मतम् ॥२७॥ रीका-'अहवा वि' अथवाऽपि 'मिलक्खू' म्लेच्छ पिभागबुदीए' पिण्याकबुदया 'नर' नरम्-पुरुषम् ‘सूले' शूले 'विधूण' विद्ध्वा 'पएज्जा' पचेत् 'वावि' 'अहवा वि विधूण' इत्यादि। शब्दार्थ-शाक्य फिर कहते हैं-'अहवावि-अथवापि' पूर्वोक्त से विपरीत 'मिलक्खू-म्लेच्छ:' यदि कोई म्लेच्छ 'नर-नरं' किसी मनु. व्य को 'पिण्णागवुद्धीए-पिण्याकघुद्धया' खलपिंड समझ कर 'सुले. विधूण-शूले विद्ध्वा' शूल में वेध कर 'पएज्जा-पचेत्' अग्नि में पकाता है 'वावि-वापि' अथवा' कुमारगं-कुमारं' किसी कुमार को 'अलावुयंति-अलघुकम् इति' तुंबा समझकर शूल में वेध कर पकाता है वह 'पाणिवहेण न लिप्पा-पाणिवधेन न लिप्यते' हिंसा के पाप से लिप्त नहीं होता यह हमारा मन है । गा० २७॥ ___अन्वयार्थ--शाक्य फिर कहता है-पूर्वोक्त से विपरीत यदि कोई म्लेच्छ किसी मनुष्य को खलपिण्ड समझ कर, शूल में वेध कर आग में पकाता है अथवा किसी कुमार को तूंचा समझ कर शूल में वेध कर पाता है तो वह हिंसा के पाप से लिप्त नहीं होता। यह हमारा मत है ॥२७॥ अहवा वि विद् वण' त्याल शहा- शय परीक्षा मा भुनिन । छे 3-'अहवावि-अथवापि' परसा यन याथी ट! 'मिलक्खू-म्लेच्छ:' ने 85 २७ 'नरंनरम्' 5 भासने 'पिण्णागबुद्धीए-पिन्नाकबुध्या' मलपि' समटने 'सूले विधूण-शूले विधा' शुमा पीधीन 'पएज्जा-पचेत्' ममिमा राधे 'वावि-बोषि' अथवा तो 'कुमारगं-कुमारकम् ७ मारने 'अलावुरत्ति-अलावुकम् इति' तगई मानान शुकथा वाधार ५४२ तो ते 'पाणिवहेण न लिप्पइ-प्राणिवधेन न लिप्यते' साथी थापाका ५५थी लीपात नथी. मा अभारे। मत छ. ॥२७॥ અન્વયાર્થ–ફરીથી શાક્ય મતવાદી કહે છે કે પહેલાં કહ્યાથી જુદી રીતે જે કઈ પ્લેચ્છ કેઈ મનુષ્યને અલપિંડ સમજીને શાથી વધીને અગ્નિમાં - રાંધે અથવા કોઈ કુમારને તુંબડું સમજીને શૂળથી વધીને પકાવે તે તે હિંસા જન્ય પાપથી લીપાતા નથી, એ અમારો મત છે, મારા For Private And Personal Use Only Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. शु. म. ६ आर्द्रकमुनेर्गेशालकस्य संवादनि० ६२५ वापि 'आलायंति' आलाबुकोऽयमिति मत्वा 'कुमारगं वा' कुमारं वा शूले विद्ध्वा यदि पचेत् । तदा स म्लेच्छः 'पाणिवण' प्राणिवर्धन- जीवघातकर्मणा 'न लिप्पड़ न लिप्यते । इति 'अच्छे' इत्यस्माकं सिद्धान्तः । यतो हि पाव्यमानेऽऽपि पुरुषे वत्र पुरुषबुद्धेरभावात् - अलाबुकमिति बुद्धेरेव सन्निधानात् पाचयितुः प्राणिवध कुतोऽपि तज्ञ्जनितो दोषो न जायते इति मदीयः सिद्धान्त इति ||२७|| मूलम् - पुरिसं च विद्धूण कुमारगं वा सूलंमि केई पंप जायतेए । पिनाय पिंडमतिमारुहेत्ता बुद्धाण तें केंप्पड़ पोरणाए |२८| छाया - पुरुषं विध्वा कुमारकं वा शुले कोऽपि पचेज्जात तेजसि । पिण्याकपिण्डमतिमारा बुद्धानां तत्कल्पते पारणायें ॥२८॥ टीकार्थ--अथवा कोई म्लेच्छ खलपिण्ड समझ कर पुरुष को शूल से वेध कर पकाता है या 'यह तूंचा है' ऐसा समझ कर किसी कुमार को शूल में वेध कर पकाता है, तो ऐसा करने वाला म्लेच्छ जीवहिंसा के पाप से लिप्स नहीं होता है। ऐसा हमारा सिद्धान्त है। तात्पर्य यह है कि यद्यपि वह म्लेच्छ पुरुष को पकाता है, फिर भी उसे पुरुष समझ कर नहीं पकाता। इसी प्रकार कुमार को कुमार मान कर नहीं पकाता । इस कारण उसे जीववध करने पर भी वधजनित पाप नहीं होता है, यह हमारा मत है ||२७|| 'पुरिसं च विद्धूण कुमारगं वा' इत्यादि । शब्दार्थ - 'केह - कश्चित् ' कोई पुरुष 'पुरिसं कुमारगं वा- पुरुषं कुमार ટીકા”——અથવા કઈ મ્લેચ્છ ખલપિડ સમજીને પુરૂષને શૂળથી વીધીને અગ્નિમાં પકાવે અથવા તે આ તુંબડુ' છે, તેમ માનીને કોઈ કુમારઅર્થાત્ બાળકને શૂળમાં વીધીને અગ્નિમાં પકાવે તેા આમ કરવાવાળે સ્વેચ્છ જીવહિંસાના પાપથી લીપાતા નથી. આ પ્રમાણેના અમારે સિદ્ધાંત છે. કહેવાનું' તપ એ છે કે--જો કે તે મ્લેચ્છ પુરૂષને પકાવે છે, તે પણ તેને પુરૂષ માનીને પકાવતા નથી. એજ પ્રમાણે કુમરને કુમાર માનીને પકાવતા નથી. આથી તેમેને જીવૃદ્ધિ'સા કરવા છતાં પણુ વધથી થવાવાળું પાપ લાગતુ નથી. આ અમારા મત છે. ારના पुरिसं च विद्धूण कुमारगं वा' त्यिाहि शब्दार्थ- 'केइ कश्चित' अर्ध ५३ष 'पुरिसं कुमारग वा पुरुषं कुमारकं वा ' अई पु३ष अथवा कुमारने 'पिन्नायपिंडमतिमा रहेता -पिण्याकविण्डम तिमारुह्य' सु० ७९ For Private And Personal Use Only Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्कृताचे अन्वयार्थ:-(केइ) कश्चित्पुरुषः (पुरिस कुमारगं वा) पुरुषं कुमारकं वा (मूलमि विळूण) शूले विद्ध्वा (जायतेए) जाततेजसि-वह्नौ (पए) पचेत्, कि कला (पिन्नायपिंडमतिमारुहेत्ता) पिण्याकरिण्डमतिमारुह्य-पिण्याकपिण्डमिति मत्वा पचेत् , तदा (तं) तदन्नम् (बुद्धाण) बुद्धनाम् (पारणाए) पारणायैभोजनाय (कप्पा) कल्पते-योग्यं भवतीति । २८॥ टीका-'के' कोऽपि पुरुषः (पुरिसं कुमारगं वा) पुरुष कुमारं पा. पिण्याकमलाघुकं वा मत्वा 'मूले विधूग' शुले विद्धा, यदि 'जायतेए' जातते. जसि-जातवेदसि-अग्नौ 'पए' पचेत् 'पिनायपिंडमतिमारुहेता' पिण्याकपिण्ड. मतिमारुख पचेदिति शेषः । तदा तस्य पाचयितुः माणिवधननितं पापं न जायते। यतोहि 'तं बुद्धाण पारणाए कप्पइ' तत् अन्नं निर्दुष्टमिति कृत्वा बुद्धानाम् बुद्धभगवतामपि पारणायै-भोजनाय कल्पते निर्दोषाद् योग्यं भवति। तदा का कं वा' किसी पुरुष अथवा कुमारको 'पिनायपिंडमतिमारुहेत्ता-पिण्याकपिण्डमतिमारूहय' खल का पिंड समझ कर 'मूलंमि-शुले' शूल में वेष कर 'जायतेए-जाततेजसि' अग्नि में 'पए-पचेत्' पकावे तो वह अन्न 'बुद्धाणं-बुद्धाना' बुद्ध भगवान् के 'पारणाए-पारणाय' भोजन के लिए कप्पाइ-कल्पते' योग्य होता है॥गा० २८॥ - अन्वयार्थ- कोई पुरुष किसी पुरुष को अथवा कुमार को खल का पिण्ड समझ कर शल में वेध कर अग्नि में पकावे तो वह पवित्र है और बुद्ध के भोजन के योग्य होता है ॥२८॥ टीकार्थ--कोई मनुष्य किसी दूसरे मनुष्य को अथवा कुमार को खलपिण्ड या तया समझ कर शूल से वेध कर भाग में पकाता है तो पकाने वाले को जीववधजनित पाप नहीं होता है । वह भोजन निर्दोष होने के कारण बुद्ध भगवान के पारणे के लिए भी योग्य है, औरों के मपि3 सभने 'सूलमि-शूले शूमा वाधीन 'जायतेए-जातते जसि' ममिमा 'पए-पचेत्' ५वतो ते अन्न 'बुद्धाण-बुद्धानां' मुद्ध मावानना 'पारणाएपारणाय' न माट 'कप्पइ. कल्पते' थे।५ थाय छे. ॥२८॥ અન્વયાર્થ––કે પુરૂષ કેઈ અન્ય પુરૂષને અથવા બાળકને ખલપિંડ સમજીને શૂળીમાં વીંધીને અગ્નિમાં રાંધે તે તે પવિત્ર છે. અને બુદ્ધના ભેજનને થાય છે. ૨૮ ટીકાર્થ કોઈ મનુષ્ય કેઈ બીજા માણસને અથવા કુમારને ખલપિંડ સમજીને અથવા તુંબડું સમજીને શૂળથી વીધીને પકાવે તે પકાવવાવાળાને જીવ હિંસાથી થતું પાપ લાગતું નથી. તે ભજન નિર્દોષ હોવાથી બુદ્ધ ભગવાનના પારણાને માટે પણ ચગ્ય છે. તે પછી બીજાઓને માટે ચગ્ય ગણુય તેમાં તે For Private And Personal Use Only Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आईकमुनेगौशालकस्य संवादनि० ६२७ कथा अन्येषाम्, एवं सर्वासु अवस्था अचिन्तितं-मनसाऽसंकल्पितं कर्मचयं" नागच्छतीति-अस्मत् सिद्धान्तः ॥२८॥ मूलम्-सिंणायगाणं तु दुवे सहस्ते, जे भोयए र्णियए भिक्खुयाण । ते पुन्नखधं सुमहं जिणित्ता भवंति आरोप्य महंतसत्ता ॥२९॥ छाया-स्नातकानां तु द्वे सहस्रे, ये भोजयेयुनित्यं भिक्षुकाणाम् । ते पुण्यस्कन्धं सुमहज्जनयित्वा भवनश्यारोप्या महासत्वाः ॥२९॥ अन्वयार्थः--(सिणायगाणं तु भिक्खुयाणं) स्नातकानाम्-गृहीतदीक्षाणाम्, भिक्षुकाणाम-शाक्यानीनाम् (दुवे सहस्से) द्वे, सहस्र (जे) ये पुरुषाः (णियए) लिए तो कहना ही क्या है। इस प्रकार सभी अवस्थाओं में विना समझे मन के संकल्प के विना किया हुआ कर्मबन्ध का कारण नहीं होता है ॥२८॥ 'सिणायगाणं तु दुवे' इत्यादि शब्दार्थ-'जे सिणायगाणं भिक्खुयाणं-ये स्नातकानां भिक्षुकानाम्' जो पुरुष स्नातक शाक्य भिक्षुओं के 'दुवे सहस्से-रे सहस्र' दो हज्जार अर्थात् दो हजार शाक्य मत के साधुओं को 'भोजए-भोज. येयुः नित्य भोजन कराते हैं 'ते-ते' वे पुरुष 'सुमहं पुण्णखधं-सुम. हत् पुण्यस्कन्धम्' अत्यन्त विपुल पुण्य स्कन्ध 'जणित्ता-जनयित्वा' उपार्जन करके 'आरोप्प महंतसत्ता भवंति-आरोप्याः महासत्वाः भवन्ति' आरोप्य नामक देव होते हैं-अर्थात् स्वर्ग पाता है ।गा. २९। - સંદેહજ શું છે? આ પ્રમાણે બધી જ અવરથાઓમાં વગર સમજે મનના સંકલ્પ વિના કરવામાં આવેલ કર્મબંધના કારણ રૂપ હેતું નથી. ૨૮ ___ 'सियाणगाणं तु दुवे' या Avat'--'जे निणायगाणं भिक्खुयाणं-ये स्नातकानां भिक्षुकाना रे ५३१ ना ४५ मिक्षुभाना 'दुवे सहस्से द्वे सहसे ये अर्थात शाय मतना साधुमान 'भोजए-भोजयेयुः' नित्य न ४२ छ. 'ते-ते' ते ५३५ 'सुमहं पुण्णखंध-सुमहत्पुण्यस्कन्धम्' अत्यात yिa पुष्य 'जिणित्ता जनयित्वा' पारीन 'आरोपमहतसत्ता भवति-भारोप्याः महासत्वाः , भवन्ति' गाय नामना १ थाय छे. अर्थात २५ मेणवे छे. ॥२६॥ For Private And Personal Use Only Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६२८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे नित्यम् - प्रतिदिनम् (भोजए) भोजयेयुः (ते) ते पुरुषाः ( सुमहं पुन्नखंध) सुमहत् अतिविपुलं पुण्यस्कन्धम् - पुण्योपचयम् ( जिणित्ता) जनयित्वा ( अरोपमहंतसत्ता भवति) अरोप्यनामका महासत्वा देवविशेषाः स्वर्गे भवन्तीति ॥ २९ ॥ टीका- 'जे दुवे सहस्से' ये पुरुषविशेषाः द्वे सहस्रे 'सिणायगाणं भिक्खु यार्ण' स्नातकानाम् - दीक्षितानां भिक्षूणां शाक्यमुनीनाम्, 'णियए' नित्यम्-अन्नहम् 'भोयए' भोजयेयुः - अन्नादिना तर्पयेयुः । 'ते' ते पुरुषाः 'सुमहं पुन्नखधं' सुमहत्पुण्यस्कन्धम् - पुण्योपचयम् 'जिणित्ता' जनयित्वा समुपाज्ये 'आरोप' आरो'यनामकाः 'महंतसत्ता' महासच्चा:- देवविशेषाः स्वर्गे भवन्तीति ||२९|| मूलम् - अजोगरूवं इह संजयाणं पात्रं तु पाणाण पसज्झकाउं । अबोहिए दोह वितं असाहू वयंति जे यावि पडिस्सुणंति ॥ ३०॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - छाया -- अयोग्यरूपमिह संयतानां पापं तु प्राणानां प्रसह्य कृत्वा । अबोध्यै द्वयोरपि तदसाधु वदन्ति ये चापि प्रतिशृण्वन्ति ॥ ३० ॥ For Private And Personal Use Only अन्वयार्थ - जो पुरुष दो हजार स्नातक भिक्षुओं को अर्थात् शाक्मत के साधुओं को प्रतिदिन भोजन कराता है वह अत्यन्त विपुल पुण्यस्कंध उपार्जन करके स्वर्ग में महान सत्वशाली आरोप्य नामक देव होता है ॥ २९ ॥ टीकार्थ- जो पुरुष दो हजार दीक्षाधारी स्नातक शाक्य भिक्षुओं को प्रतिदिन भोजन कराता है, वह महान् पुण्यस्कंध (पुण्यप्रचय) उपार्जित करके अत्यन्त पराक्रमी आरोप्य नामक देव होता हैअर्थात् स्वर्ग पाता है ॥२९॥ 'अजोगरूवं' इत्यादि । शब्दार्थ - आर्द्रक मुनि उत्तर देते हैं- 'इह - इह' इस समय आपका અન્વયા --જે પુરૂષ એ હજાર દીક્ષા ધારી સ્નાતક-શાકય ભિક્ષુઓને દરાજ ભાજન કરાવે છે તે પુરૂષ મહાન પુણ્યસ્ક ધ પ્રાપ્ત કરીને તે અત્યંત પરાક્રમી આરેષ્ય નામના દેવ બને છે. અર્થાત્ સ્વ પ્રાપ્ત કરે છે. રા ટીકાથ——જે પુરૂષ બે હજાર દીક્ષા ધારી-સ્નાતક શાકય ભિક્ષુઓને દરરાજ ભાજન કરાવે છે. તે મહાન પુણ્યસ્ક ધ-(પુણ્ય પ્રચય) પ્રાપ્ત કરીને અત્યંત પરાક્રમી આરાધ્ય નામના દેવ થાય છે. રા 'अजेोगरूवं' इत्याहि શબ્દા—શાયનું કથન સાંભળીને આદ્રક મુનિ તેને ઉત્તર આપતાં • Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आईकमुने गोशालकस्य संवादनि. ६२९ अन्वयार्थः--(इद) इह-अस्मिन् काले-भवदीयसिद्धान्तरूपमभिमतम् (संन. याणं अनोगरूवं) संयतानां साधूनामयोग्यरूपम् (गणाग) पाणानां च (पसज्झ काउं) पपा -बलान् कृत्वा मारणमिति शेषः (पाव) पापं-पापनन कमेव (दोण्ड वि) द्वयोरपि- एतादृशसिद्वानोपदेष्ट्रकृतकर्णगोचरयोरपि (अबोहिए) अबोध्य-अबोधिलाभाय भवति (जे य) ये च (वयंति) वदन्ति एतादृशं सिद्धान्त तथा-(पडि. मुगंति) प्रतिशृण्वन्ति, इति ॥३०॥ ___टीका--'सम्पति-आक: शाक्यभिक्षु मुत्तरयति-हे बौद्ध भिक्षो! 'दहसंनयाणं' इह-संयतानां पुरुषाणां कृते भवदभिमत-सिद्धान्तरूपम् अयोग्यरूपमिव सिद्धांत 'संजया अनोवं-संपनानाम् अयोग्यरूपम्' संयमी पुरुष के लिए अयोग्य है 'पाणग-प्राणाना' प्राणियों का 'पसन काउं-प्रसहय कृत्वा' ज पर्दस्ती हिंसा करना 'पावं-पापं पाप जनक ही है, आपका सिद्वांत 'जे प-ये च' जो कोई 'वयंति-वदलि' करते है तथा 'पडि. सुगंति-प्रतिशृपति' यह सिद्धांत सुनते है 'दोहावि-द्वयोरपि' कहने और सुनने दोनों के लिए ही 'अयोही-अयोध्यै' अबोधिजनक है ।३०। ____ अन्वयार्थ-आर्द्र क मुनि उत्तर देते हैं-आप का सिद्धान्त संयमी पुरुषों के लिए अयोग्य है, प्रागियों को जबर्दस्ती हिंसा करना पापजनक ही है, आप का सिद्धान्त करने और सुनने वाले दोनों के लिए ही अघोधिजनक है।३०॥ टीकार्थ-अब आर्द्रक शाक्य भिक्षु को उत्तर देते हैं-आपका ४ छ-'इह-इह' मा समय मापन सिद्वांत 'संज मगं अजोगरूव-संयतानाम् अयोग्यरूपम्' सयभी धुषाने मटे भयोय छे. 'पाणाण-प्राणानां प्राणियोनी 'पज काउ'-प्रसह्य कृया' (२यी डिसा ४२वी ते 'पाव-पापम्' पा५ 143 छ, पापना सिद्धांतमा 'जे य-ये च'रे 'वयंति-वदन्ति' सिद्धांतनु थन रे छ, तथा 'पडिसुणति-प्रतिशृण्वन्ति' सिद्धान्तनु श्र१५ शवे छे. 'दोह वि-द्वयोरपि' डेवावा भने सवा मन्ने भाटे 'अबोही-अबोध्यै' અબાધિ કારક જ છે. ૩. અન્વયાર્થ-આદ્રક મુનિ ઉત્તર આપતાં કહે છે–તમારે સિદ્ધાંત સંયમી પુરૂષો માટે અગ્ય છે. પ્રાણિની બલાહકારથી હિંસા કરવી પાપજનક જ છે. આપને સિદ્ધાંત કહેવાવાળા અને સાંભળવાવાળા બન્નેને માટે मानविन छे. ॥३०॥ ટીકાઈ–હવે આદ્રક મુનિ શાય ભિક્ષુને ઉત્તર આપતાં કહે છે કે For Private And Personal Use Only Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - ६३० सूत्रकृतास्त्र प्रतिभाति । यतः 'पाणाणं' प्राणानाम्-एकेन्द्रियषड्नीवनिकायानाम् 'पसज्झ' प्रसन्न-बलात्कारम् 'काउ' कृत्वा मारणम् 'पावंतु' पापमेव-येन केनापि प्रकारेण कृतः कारितो वा माणातिपातः पापायैव न धयों भवति ! 'दोह वि' द्वयो. रपि-उक्तसिद्धान्तोपदेष्श्रोत्रोरपि 'अबोहिर' अयोध्यै 'तं असाहु' तदसाधुः द्वयोरपि अज्ञानवद्धनाय दुःखाय च माणातिपातः । कयोयोस्तत्राह-एतादृशं सिद्धान्तं ये उपदिशन्ति ये च शृण्वन्ति तौ उभावपि निन्दितौ इत्याह-'जे वयंति' ये वदन्ति-एतादृशस्य कर्मणो धर्मोत्पादकत्वम् 'जे या वि' ये चापि 'पडिसुणति' प्रतिशृण्वन्ति, वदतां शृण्वतां चोभयोरपि दोषायैत्र भवति ॥३०॥ मूलम्-उर्दू अहेयं तिरियं दिसासु, विन्नाय लिंग तसथावराणं। भूयाभिसंकाइ दुगुंछमाणे, वंदे करेज्जा व कुंओ वि हत्थी ॥३१॥ छाया-ऊर्ध्वमधस्तिर्यदिशामु विज्ञाय लिङ्गं सस्थावराणाम् । भूताभिशङ्कया जुगुप्समानो वदेत्कुर्याद्वा कुतोऽप्यस्ति ॥३१॥ अभिमत सिद्धान्त संघमवान पुरुषों को अयोग्य प्रतीत होता है। क्योंकि बलात्कार करके प्राणियों को हिंसा करना पाप ही है । चाहे वह हिंसा स्वयं की गई हो, अथवा दूसरे के द्वारा कराई गई हो या उसकी अनुमोदना की गई हो, वह धर्मयुक्त नहीं हो सकती। आपके इस अयुक्त मत को जो कहते हैं और जो सुनते हैं, उन दोनों के लिए ही वह अज्ञानवर्द्धक और दुःख का कारण है ॥३०॥ 'उर्दू अहेयं' इत्यादि। शब्दार्थ--'उडूं-ऊर्ध्वम्' ऊर्ध्व दिशामें 'अहेयं-अध:' अधो दिशामें આપને મત-સિદ્ધાંત સંયમવાન પુરૂષને અગ્ય કારક જણાય છે. કેમકે બલાત્કાર કરીને પ્રાણિની હિંસા કરવી તે પાપ જ છે. ચાહે તે હિંસા પિતે કરી હોય અગર બીજા પાસે કરાવી હોય અથવા તેનું અનુમોદન કર્યું હોય. તે ધર્મ યુક્ત થઈ શકતી નથી આપના આ અગ્ય મતનું જે કઈ કથન કરે છે, અથવા જે તેને સાંભળે છે, તે બને માટે તે અજ્ઞાનને વધારનારું અને દુઃખનું કારણ છે. ૩ 'उडूढ अहेय' त्या शाय-'उड्ढ-ऊर्ध्वम्' शिम 'बहेय-अधः' मामा 'तिरियं For Private And Personal Use Only Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थचोधिनी टीका द्वि.शु. अ. ६ आर्द्रकमुनेगोशालकस्य संवादनि० र अम्बयार्थ:-(उर्दू) ऊर्ध्वदिशि (अहेय) अधोदिशि (तिरिय दिसासु) तिर्यग्र. दिशाम (तसथावराणं) सस्थावराणां जीवानाम् (लिंग) लिङ्गम्-जीवत्वचितम् - चलनस्पन्दनाङ्करोवादिकम् (विन्नाय) विज्ञाय-ज्ञासा (भूयामिसंकाइ दुगुंछमाणा) भूताभिशङ्कया जुगुप्समानः-घृगां कुर्वन् (वदे) वदेत् निरवधभाषामुच्चारचेत् (करेमा व) कुर्याद्वा, एनारशस्य (कुभोविहऽत्थी) कुतोऽस्यस्ति जीवनभयम्कथमपि जीवनभयं नास्तीति ॥३१॥ 'तिरिय दिसासु-तिर्यग दिशासु' तिर्ण दिशाओं में 'तसथावराणं-स. स्थावराणां प्रस' और स्थावर जीवों के 'लिंग-लिङ्ग लिंगको अर्थात् जीवत्व के चिह चलन स्पन्दन आदिको 'विनाय-विज्ञाय' जानकर 'भूयाभिसंकाइ दुगुंछमाणा-भूताभिशङ्कया जुगुप्तप्तमान:' जीव हिंसा की आशंका से ज्ञानी पुरुष हिंसा से घृणा करता हुवा 'वदे वन' यदि निदोष भाषा का उच्चारण 'करेज्जा व-कुर्यात् वा' करे और निरवद्य प्रवृत्ति करे तो 'कुओ विहत्थी-कुतोप्यस्ति' जीव हिंसाका भय कैसे हो सकता है ? कदापि नहीं हो सकता ॥३१॥ __ अन्वयार्थ-ऊर्वदिशा में अधोदिशा में और तिर्की दिशामों में अस और स्थावर जीवों के लिंग को अर्थात् जीवत्व के चिहून चलन स्पन्दन आदि को जान कर भूतों के हिंसा की आशंका से ज्ञानी पुरुष हिंसा से घृणा करता हुआ यदि निदोष भाषा का उच्चारण करे और निरवद्य प्रवृत्ति करे तो जीवहिंसा का भय कैसे हो सकता है ? कदापि नहीं हो सकता ॥३१॥ दिसास-तिर्यग् दिशाम' तिछी (हशामा 'तसथावराण -त्रसथावराणां' स अने स्था१२ यानी 'लिंग-लिङ्ग' ने अथवा त्वना मिल यवन २५.हन विरेने 'विन्नाय-विज्ञाय' नशीने 'भूयाभिसंकाइ दुगु'छमाणा-भूता. भिशङ्कया जुगुप्समानः' भूतानी हिसानी माथी ज्ञानी ५३५ साथी । ४२ता थ। 'वदे-वदेत'ने निषि साषानु श्यार 'करेज्जा व-कु. र्यात् वा' ४२ अन निरवध प्रवृत्ति धरे तो 'कुओ विहत्थी-कुतोप्यस्ति' हिंसानो ભય કેવી રીતે થઈ શકે છે? અર્થાત્ કદાપિ થઈ શકતું નથી. ૩૧ અન્વયાર્થ–ઉર્વદિશામાં, અદિશામાં અને તીઈિ દિશાઓમાં ત્રસ અને સ્થાવર જીના ચિહ્નને અર્થાત જીવપણાના ચિહ્ન ચલન સ્પન્દન વિગેરેને સમજીને પ્રાણિયેની હિંસાની શંકાથી જ્ઞાની પુરૂષે હિંસાની ઘણા કરતા થકા જે નિર્દોષ ભાષાને ઉચ્ચાર કરે અને નિરવદ્ય પ્રવૃત્તિ કરે તે જીવહિંસાનો ભય કેવી રીતે થાય છે? કદાપિ તેમ થતું નથી. રૂના For Private And Personal Use Only Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतास्ये टीका-अद्रको मुनिः बौद्धपक्षं निरकृत्य स्वमतं कथयति-उड़' ऊर्ध्वम् 'आहे' अधः 'तिरियं दिसामु' तिर्यदिशासु 'तसथावराणं' संस्थावराणां प्राणिनाम् 'लिंग' लिङ्ग जीवत्वचिह्नम्-चलनस्पन्दनाङ्कुरोद्भवादिकम् 'रिमाय' विज्ञाय-प्रत्यक्षानुमानार्थापश्यागमपमाणे वा भूयामिसंकाई' भूताभि शाया जीवानां विनाशमयेन 'दुगुंछमाणा' जुगुप्पमाना-माणातिपातादिना अशुभकर्मबन्धो भवतीति मत्वा हिंसायां घृणां कुर्वन वदे' वदेन-निरवद्या भाषां भाषेत । तारशी भाषा प्रयोज्या यावत्या जीवानां विराधनं न भवेत् । 'करेज्जा' कुर्यात-विचार्यति शेषः, विचार्य निरवधं काय कुर्यादित्यर्थः । एतादृशोत्तमविचारशीलानां पुरुषाणाम् 'कुभो विज्हत्थी' कुतोऽपि इहास्ति-नास्ति जीवनभयमिति ध्वनिः । कुतोऽस्तीहास्मिन् एवं भूतेऽनुष्ठाने क्रियमाणे पोच्यमाने वा जीवनभर मस्माकम्, युष्मदापादितो दोष एव समुल्लसतीति ॥३१॥ मूलम्-पुरिसे त्ति विन्नत्ति न एवमत्थि, अणारिए से पुरिसे तहा हु। टीकार्थ-आर्द्रक मुनि बौद्ध मत का निराकरण करके अपने मत का प्रतिपादन करते हैं-ऊंची नीची और तिहीं दिशाओं में त्रस और स्थावर प्राणियों के चलना हिलना, अंकुर फूटना आदि जीवत्व के चिहनों को प्रत्यक्ष अनुमान आदि प्रमाणों से जान कर जीवों की हिंसा के भय से प्राणतिपात आदि से कर्मबन्ध होता है, ऐसा मान कर हिंसा से घृणा करता हुआ ऐसी निरवद्य भाषा का प्रयोग करे जिमसे जीवों की विराधना न हो । तथा भलीभांति विचार कर निरवद्य कार्य करे। ऐसे उत्तम विचारशील पुरुषों को कोई दोष पाप कैसे हो सकता है ? अर्थात् जो हिंसाकोरी वचन और कर्य से दूर रहते हैं उन्हें कोई दोष नहीं लगता ॥३१॥ --भाद्र मुनि मौद्ध मतनु न शन पोताना भतनु प्रति. પાદન કરે છે–ઉંચી નીચી, અને તિછ દિશાઓમાં ત્રણ અને સ્થાવર પ્રાણિ ના ચાલવા, હરવા, ફરવા અંકુર ફૂટવા વિગેરે જીવપણના ચિને અનુમાન વિગેરે પ્રત્યક્ષ પ્રમાણેથી જાણુને જીની હિંસાના ભયથી, પ્રાણાતિપાત વિગેરેથી કર્મબંધ થાય છે. તેમ માનીને હિંસાથી ઘણા કરતા થકા એવી નિરવઘ ભાષાને પ્રગ કરે કે જેનાથી છની વિરાધના (હિંસા) ન થાય તથા સારી રીતે વિચાર કરીને નિરવઘ કાર્ય કરે. એવા ઉત્તમ અને વિચારશીલ પુરૂષને કઈ પણ દેષ અર્થાત્ પાપ કેવી રીતે લાગી શકે ? અર્થાત જે હિંસા કારક વચન અને કાર્યથી દૂર રહે છે, તેમને કઈ પણ દેષ લાગતો નથી. એ૩૧ For Private And Personal Use Only Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समस्याबोधिनी टीका दि. शु. अ. ६ आर्द्रकमुने!शालकस्य संवादनि० ६३३ को संभवो पिन्नागपिडियाए, वाया वि एसा बुझ्या असच्चा ॥३२॥ छाया-पुरुष इति विज्ञमिव मस्ति, अनार्यः स पुरुषस्तथाहि । का संभवः पिण्याकपिण्ड्यां, वागप्येषोक्ताऽसत्या ॥३२॥ अन्वयार्थ:-(पुरिसेत्ति) पुरुष इति (विन्नत्ति) विज्ञप्ति:-पिण्याकपिण्डे पुरुष इत्याकारिका बुद्धिः (न एवमस्थि) नैवं कथमपि पामराणामपि अस्ति (तहा से पुरिसे अणारिए) तथाहि स पुरुषोऽनार्यः, यः पिण्याकपिण्डे पुरुषबुद्धिं करोति, (पिन्नागपिडियाए) पिण्याकपिण्ड्याम् (को संमयो) पुरुषबुद्धेः कः सम्भवः- नास्ति सम्भावनेत्यर्थः (एसा वाया वि बुइया असच्चा) एषा वागपि उक्ता अपत्येवेति । 'पुरुसे त्ति विन्नत्ति' इत्यादि। शब्दार्थ--'पुरिसे त्ति-पुरुष इति' खलके पिंडमें पुरुष की 'विन्नत्ति -विज्ञप्तिः' बुद्धि 'न एवधि-नवमस्ति' मूों को भी नहीं हो सकती 'तहा से पुरिसे अणारिए-तथा स पुरुषः अनार्यः' अगर कोई पुरुष खलके पिण्डको पुरुष समझता है तो वह अनार्य है 'पिन्नाय पिण्डियाए-पिण्याकपिण्डे' खलके पिण्डमें पुरुषकी बुद्धि की संभावना ही को संभवो-कः संभवः' कैसे की जा सकती है, 'एसा वाया विघुड्या असच्चा-एषा वागपि उक्ताऽसत्या' तुमारी कही हुई यह वाणी भी असत्य ही है॥३२॥ ____ अन्वयार्थ खल के पिण्ड में पुरुष की बुद्धि तो मूखों को भी नहीं हो सकती है। अगर कोई पुरुष खल के पिण्ड को पुरुष समझता है या पुरुष को खलपिण्ड समझता है तो वह अनार्य है। भला खल 'पुरिसे त्ति विन्नत्ति' या Awai---'पुरिसे त्ति-पुरुष इति' मोन'मा ५३५५णानी 'विन्नत्ति विज्ञप्तिः' मुद्धि तो 'न एवमत्थि-नैवमस्ति' भूमामाने ५५ ५७ शती नथी. 'तहा से पुरिसे अणारिए-तथा सः पुरुषः अनार्य::' अथवा भास भोजना पिउने ५३५ सम तो ते मनाय । छे. “पिनागपिंडियाए-पिण्याकपिण्डे' योजना विमा ५३१पानी मुद्धिनी सान! ४ 'को संभवो-कः संभवः' व शत. शशाय 'एमा वायावि बुझ्या असच्चा-एषा वागपि सक्ताऽसत्या' તમે એ કહેલ આ વાણી પણ અસત્ય જ છે. ૩રા અન્વયાર્થળને પિંડમાં પુરૂષપણાની બુદ્ધિ તે મૂર્ખને પણ થઈ શકતી નથી. અથવા કોઈ પુરૂષ એળના પિંડને પુરૂષ સમજે અથવા પુરૂષને ઓળને પિંડ सू० ८० For Private And Personal Use Only Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - स्मताले टीका--तद्दर्शनाऽसारता घोतयन्नाकः पुनराह शाक्यभिक्षुम्-'पुरिसेत्ति' पुरुष इति 'विन्नति' विज्ञप्तिज्ञानम् 'न एवमस्थि' नैवमस्ति-पिण्याकपिण्डे पुरुषोऽयमित्याकारिका बुद्धि नै भवति पामराणामपि । 'तहा हि से पुरिसे अणारिए' तथाहि स पुरुषोऽनार्यः, अतो यस्य पिण्याकपिण्डे पुरुषबुद्धिर्भवति पुरुषे वा पिण्याकबुद्धि रुदेति, एतादृशोऽनार्यः। 'पनागपिडियाए' पिण्याकपिण्ड्याम् 'को संभवो' को नाम सम्भवः-ताशपिण्डे पुरुष बुद्धिः कथमपि न सम्भवति । अतः 'एसा वाया वि बुझ्या असच्चा' एषोक्ता वागपि असत्या कथिता तस्मादपिण्याककाष्ठादावपि प्रवत्तमानेन जीवोपमर्द मीरुणा सा शङ्कव नैव प्रवर्तनीयेति ॥३२॥ मूलम्-वायाभिजोगण जमावहेज्जा, णो तारिसं वाया उदाहरिजा। अटाणमेयं वयणं गुणाणं, जो दिविखए व्रय मुंरालमेयं ॥३३॥ के पिण्ड में पुरुष की बुद्धि की संभावना ही कैसे की जा सकती है ? तुम्हारी कही हुई यह वाणी असत्य ही है ॥३२॥ ____ टीकार्थ-शाक्यदर्शन की निस्सारता को प्रकट करते हुए आर्द्रक पुनः कहते हैं-खल के पिण्ड में 'यह पुरुष है ऐसी बुद्धि पामर पुरुषों को भी नहीं हो सकती' जिस पुरुष को खलपिण्ड में पुरुष की और पुरुष में खलपिण्ड की बुद्धि उत्पन्न होती है, वह पुरुष अनार्य है अर्थात् अज्ञानी है। आखिर खल के पिण्ड में पुरुष की बुद्धि कैसे संभवित हो सकती है ? अतएव तुम्हारा कहा हुआ वचन असत्य है। जो जीवहिंसा से भयभीत हो उसे खलपिण्ड या काष्ठ आदि में प्रवृत्ति करते समय भी सावधान रहकर के ही प्रवृत्ति करना चाहिए ॥३२॥ સમજે છે તે અનાર્ય છે. અરે ખેળના પિંડમાં પુરૂષ પણની બુદ્ધિની સંભાવના જ કેવી રીતે કરી શકાય? તમેએ કહેલ આ વાણું અસત્ય જ છે. ૩રા ટીકાઈ–-શાકય દર્શનના નિસાર પણને બતાવતાં આદ્રક મુનિ ફરીથી કહે છે કે-ળના પિંડમાં આ પુરૂષ છે, એવી બુદ્ધિ પામર પુરૂષને પણ થઈ શકતી નથી. જે વ્યક્તિને ખેળના પિંડમાં પુરૂષની અને પુરૂષમાં ખેળના પિંડની બુદ્ધિ થાય છે, તે પુરૂષ અનાર્ય જ છે. અર્થાત અજ્ઞાની છેકેમકે ખાળનાપિંડમાં પુરૂષપણાની બુદ્ધિ જ કેવી રીતે સંભવી શકે? તેથી જ તમોએ કહેલ વચન અસત્ય જ છે. જે જીવહિંસાથી ભયભીત હોય તેને ખેળના હિંડ અથવા કાષ્ઠ વિગેરેમાં પ્રવૃત્તિ કરતી વખતે પણ સાવધાન રહીને જ પ્રવૃત્તિ કરવી જોઈએ. ૩૨ For Private And Personal Use Only Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टोका द्वि. श्रु. अ. ६ आईकमुनेगोशालकस्य संवादनि० ६३५ छाया-वागभियोगेन यदावहेको तादृशीं वाचमुदाहरेत् । अस्थानमेतद्वचनं गुणानां, नो दीक्षितो ब्रूयादुदारमेतत् ॥३३॥ अन्वयार्थः--(वायाभिजोगेण) वागभियोगेन (जमाव्हेज्जा) यदावहेत् । (तारिसं वाय नो उदाहरिज्जा) तादृशीं वाचं नोदाहरेत्-यया वाचा प्राणातिपातो भवेत् सा वाक् न वक्तव्या, (एयं वयणं गुणाणं अट्ठाणं) एतद् वचनम्-भवदुक्तं वचनं गुणानामस्थानम् (एयं उरालं) एतदुदारम् (दिक्खिए नो बूया) दीक्षितो नो वदेदिति ॥३३॥ 'वायाभिजोगेग' इत्यादि। शब्दार्थ-'वायाभिजोगेण-वागभियोगेन' जिस प्रकार के वचन का प्रयोग करने से 'जमावहेज्जा-पदावहेत्' पाप की उत्पत्ति हो 'तारिस वायं नो उदाहरिज्जा-तादृशं वाचं नोदाहरेत्' ऐसा वचन मेधावी पुरुषको संकटके समय भी नहीं बोलना चाहिए 'एयं वयणं गुणाणं अट्ठाणं-एतद्वचनं गुगानामस्थानम्' क्योंकी मावद्य भाषा भी कर्मबन्धका कारण होती है 'एयं उरालं-एतत् उदारम्' इस प्रकार का वचन गुणों का स्थान नहीं है, अतएव 'दिक्खिए नो ब्रूया-दीक्षितो नो वदेत्' दीक्षित पुरुष ऐसा सारहीन वचन न बोले ॥३३॥ - अन्वयार्थ--जिस प्रकार के वचन का प्रयोग करने से पाप की उत्पत्ति हो ऐसा वचन मेधावी पुरुष को संकट के समय भी नहीं बोलना 'चाहिए। क्योंकि सवद्य भाषा भी कर्मबन्ध का कारण होती है। खल 'वायाभिजोगेण' त्या Aval-'वायामि जोगेण-वागभियोगेन' 24 क्यानर प्रयो४२. पाथी 'जमावहेज्जा-यदावहेत्' ५५नी उत्पत्ती थाय 'तारिस वायं न उदाहरिज्जा -तादृशं वाचं नोदाहरेत्' मा क्यने। मुद्धिशाली ५३वास सहना समये ५ स न . 'एयं वयणं गुणाणं अट्ठाणं-एतद्वचनं गुणानामस्थानम्' भसाप सापा ५५ जना र ३५ डाय छे. 'एयं उरालं-एतत् उदार' भाषा प्रा२ना वयना गुपौतुं स्थान नथी. तथा दिक्खिए नो यूया दीक्षितो नो वदेत्' दीक्षित ५३२ मावा सार विनाना क्या न मा 331 અન્વયાર્થ– જે પ્રકારના વચને પ્રયોગ કરવાથી પાપની ઉત્પત્તી થાય બુદ્ધિમાન પુરૂષે તેવા વચને મુશ્કેલીના સમયમાં પણ બોલવા ન જોઈએ, કેમકે સાવધ ભાષા પણ કર્મબંધના કારણ રૂપ હોય છે. ખલપિંડ પુરૂષ છે, For Private And Personal Use Only Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतामा टीका-'वायाभिजोगेण' वागभियोगेन 'जमावहेज्जा' यदावदेत् ‘णो तारिस' नो तादृशम् 'वाय' वाचम्-वचनं व्याख्यानम् 'उदाहरिज्जा' उदाहरेत, यथा. विधाया वाचः प्रयोगेग पापोत्पत्तिर्मवेत् तथाविधा वाक् विदुषा सङ्कटकालेऽपि नवाच्या, सावद्या भाषाऽपि कर्मानुबन्धिनी कर्मकारणं भवति । एवं वयणं' गुणाणं अट्ठाणं' एवम्-ईदृशं वचनम्-पिण्याकं पुरुषः पुरुषः पिण्याकमित्याकारकम् गुगानास्थानम् । अतः-'दिक्खए' दीक्षितः पुरुषः 'एयमुराल' एतद् उदारं वचनम् 'यो बूया' नो ब्रूयात् । यतो हि-सावधाचनमयोगेणाऽपि पापो. स्पतिर्भवत्येव, तस्मात्-पिण्याकं पुरुषतया पुरुष पिण्याकतया विवेकी पुमान्न वदेत् । एतादृशस्य भ्रममुहतो वागनालस्य सावधमूलकत्वादिति ॥३३॥ मूळम्-लद्धे अढे अहो एव तुम्भे, जीवाणुभागे सुविचिंति एव । पिण्ड पुरुष है या पुरुष खलपिण्ड है, इस प्रकार का वचन गुणों का स्थान नहीं है । अतएव दीक्षित पुरुष ऐसा सारहीन पचन न बोले ॥३३॥ टीकार्थ--जिस वचन के प्रयोग से पाप उत्पन्न होता है, ऐसा वचन संकट के अवसर पर भी ज्ञानी पुरुष को नहीं बोलना चाहिए। सावध भाषा भी कर्मानुयन्धिनी होती है। पुरुष खल का पिण्ड है या खल का पिण्ड पुरुष है, इस प्रकार की भाषा गुणों का अस्थान है, गुणकारी नहीं है । अतएव जिसने दीक्षा अंगीकार की है, ऐसे पुरुष को इस प्रकार की सारशून्य भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए, क्यों कि सावध भाषा से भी पाप उत्पन्न होता है, अतएव विवेकवान् पुरुष खलपिण्ड को पुरुष और पुरुष को खलपिण्ड न कहे। इस प्रकार का भ्रमजनक वारजाल पापमूलक है ॥३३॥ અથવા પુરૂષ ખલપિંડ છે, આવા વચને ગુણેના સ્થાન રૂપ નથી જ તેથી જ દીક્ષિત પુરૂષે તેવા નિસાર વચન બોલવા ન જોઈએ. ૩૩ ટીકાર્યું–જે વચનના પ્રયોગથી પાપ ઉત્પન્ન થાય છે, એવા વચન સંકટના સમયે પણ જ્ઞાની પુરૂષ બલવા ન જોઈએ. સાવદ્ય ભાષા પણ કમનુબંધિની હોય છે. આવા પ્રકારની ભાષા ગુણેના સ્થાન રૂપ નથી. ગુણકારક નથી. તેથી જ જેણે દીક્ષા ધારણ કરેલ છે, એવા પુરૂષે આવા પ્રકારની સાર વિનાની ભાષાનો પ્રયોગ કરવો ન જોઈએ. કેમકે-સાવધ ભાષાથી પણ પાપ થાય છે. તેથી જ વિવેકી પુરૂષે ખલપિડને પુરૂષ અને પુરૂષને ખલપિંડ કહેવા નહીં આવા પ્રકારની ભ્રમ જનક વાજાળ પાપત્પાદક જ છે. તેમ સમજવું. ૩૩ For Private And Personal Use Only Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मयार्थबोधिनी टीका द्वि. भु. अ. ६ आर्द्रकमुनेर्गोशालकस्य संवादमि० ६३७ पुव्वं समुई अवरं च पुट्ठे, उलोइए पाणितले ठिए वा ॥ ३४ ॥ छाया - लब्धोऽर्थः अहो एवं युष्माभिर्जीवानुभागः सुविचिन्तित । पूर्वश्व समुद्रमपरश्च स्पृष्ट मवलोकितः पाणितले स्थितो वा ॥ ३४ ॥ अन्वयार्थ :- सोपहासमादकः शाक्यभिक्षुकं प्रति कथयति - ( अहो तुम्भे एव अड्डे द्वे) अहो - इति निपात आश्वर्यबोधकः । युग्नाभिरेवाऽर्थो लब्धः (त्वयैव 'लद्वे अ' इत्यादि । शब्दार्थ - - आर्द्रक मुनि शाक्य भिक्षुक का उपहास करते हुए कहते हैं, 'अहो तुम्भे एव अहे लदे अहो युष्माभिरेवार्थो लब्धः ' आश्चर्य है कि आपने यह अर्थलाभ किया है, अर्थात् आपने अद्भूत ज्ञान प्राप्त किया है । 'जीवाणुभागे सुविचितिए व-जीवानुभागः सुचिर्तित एव' आपने जीवों के कर्मफलका बडा सुंदर विचार किया | आपका यह यश 'पृव्वं समुहं अपरंच पुढे- पूर्व समुद्रम् अपरश्च स्पृष्टम् पूर्व और पश्चिमका समुद्रपर्यन्त व्याप्त रहा है। पाणितले ठिए वा- पाणितले स्थितो वा' अथवा जान पडता है कि जगत् के सब पदार्थ आपकी ही हथेलीपर मौजूद है आप सर्वज्ञ से कम नहीं जान पडते इस काकुवाक्य का तात्पर्य यह है कि आपने जानने योग्य वस्तुको जाना नहीं है, आप अज्ञानी है, अन्यथा स्थित वस्तुको अन्यथा कह रहे हैं, और पुण्य एवं पापको व्यवस्था उल्टी करते है ॥ ३४ ॥ 'लद्धे अट्टे' इत्याहि શબ્દા —આક મુનિ શાય ભિક્ષુકની મશ્કરી કરતાં કહે છે કે'अहो तुम्भे एव अट्ठे लद्धे - अहो युष्माभिरेवार्थो लब्धः' आश्चर्य छे है-माये આ અથના લાભ મેળવેલ છે. અર્થાત્ આપે અદ્ભૂત જ્ઞાન પ્રાપ્ત કરેલ છે, 'जीवाणुभागे सुविचिति एव - जीवानुभागः सुचिन्तित एव' आयेवानां भ इजना अत्यंत सुंदर विचार रेस है. आपनो यश 'पुत्वें खमुद्द अपरंच पुट्ठे- पूर्व समुद्रम् अपरा स्पृष्टम्' पूर्व भने पश्चिमना समुद्र पर्यन्त असरी रस छे अथवा 'पाणितले ठिए वा- पाणितले स्थितों वा' येवु भाय छे - જગતના સઘળા પદાર્થો આપની હથેલીમાં જ રહેલા છે, આપ સર્વજ્ઞથી ક્રમ જશુાતા નથી. આ વક્રોક્તિનું તાપ` એ છે કે-આપે જાણવા ચાગ્ય વસ્તુને જાણેલ નથી. આપ અજ્ઞાની છે। અન્યથા રહેલ વસ્તુને અન્યથા કહી રહ્યા છે તથા પુણ્ય અને પાપની વ્યવસ્થા ઉલ્ટી કરે છે. ૫૩૪૫ For Private And Personal Use Only Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६३८ सूत्रकृतात्रे विलक्षणं ज्ञानं प्राप्तमेतादृशम् ) इति काकुः । ( जीवाणुमागे सुविचितिए व जीवा Sनुभागः सुविचिन्तितश्च । तथा त्वयैव जीवानां कर्मफलस्यापि विचारः कृतः । (पुव्वं समुदं अवरं च पुढे) पूर्व समुद्रमपरश्च स्पृष्टम् - भवदीययशः पूर्वाऽपरसम्मु दान्वव्यापि । (पाणितले ठिए वा उलोइए) पाणितले स्थितो वा - सर्वोऽपि पदार्थः पाणिले प्रत्यक्षेण स्थित इव अवलोकितः । वयैव सकलपदार्थ साक्षा स्कारिज्ञानं प्राप्तम्, जीवानां कर्मफलमपि लब्धम्, इह सर्वत्र तवैव यशो विस्तृतम् । 'आर्यमेव भवतः कार्यजातम्, एतावता ज्ञातव्यं पदार्थ न ज्ञातवानसि मूर्खोऽसि । येनान्यथास्थितं स्थिरमपि पदार्थ मन्यथा प्रतिपादयितुमीहमानः पुण्यपापयोव्यवस्थां करोषि । इति काक्वा व्यज्यते ||३४|| टीका - सुगमा || ३४॥ मूलम् - जीवाणुभागं सुविचितयंता, आहारिया अन्नविही य सोहिं । अन्वयार्थः - आर्द्रक मुनि शाक्य भिक्षु का उपहास करते हुए कहते हैं - विस्मय है कि आपने यह अर्थलाभ किया है। अर्थात् आपने अद्भुत ज्ञान प्राप्त किया है । आपने जीवों के कर्मफल का बड़ा सुन्दर विचार किया है! आपका यश पूर्वापर समुद्र तक व्याप्त रहा है। जान पड़ता है जगत् के सब पदार्थ अपकी ही हथेली पर मौजूद हैं-आप सर्वज्ञ से कम नहीं जान पड़ते । काकुध्वनि से तात्पर्य यह निकला कि * आपने जानने योग्य वस्तु को जाना नहीं है, आप अज्ञानी हैं । अन्यथास्थित वस्तु को अन्यथा कह रहे हैं। पुण्य पाप की उल्टी व्यवस्था करते हैं ||३४|| टीका सुगम है ॥ ३४ ॥ 1 અન્વયાય—આદ્રક મુનિ શાકય ભિક્ષુની મશ્કરી કરતાં કહે છે કે-આશ્ચય થાય છે કે-આપે આ દિવ્ય અર્થે લાભ મેળવેલ છે. અર્થાત્ આપે અદ્ ભૂત જ્ઞાન પ્રાપ્ત કરેલ છે, આપે જીવાના કમળના ઘણા જ સુંદર વિચાર કર્યાં છે. આપને યશ પૂર્વપર સમુદ્ર પર્યન્ત વ્યાપ્ત થયેલ છે. સમજાય છે કે જગત્ના સઘળા પદાર્થો આપની હથેલીમાં જ મેાજૂદ છે. આપ સવ નથી આછા જણાતા નથી. આ કાકુ વચનથી ભાવ એ સમજાય છે કે-આપ સમજવા લાયક વસ્તુ સમજ્યા નથી. એટલે કે આપ અજ્ઞાની છે. અન્યથા રહેલ વસ્તુને આપ ખીજી રીતે સમજાવી રહ્યા છે. આપ પુણ્ય પાપની ઉધી વ્યવસ્થા કરતા હા તેમ મને જણાય છે. ૫૩૪ા આ ગાથાને ટીકા સરળ હાવાથી આપેલ નથી. For Private And Personal Use Only Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्यबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आद्रकमुनेगर्गोशालकस्य संवादनि० ६३१ न वियागरे छन्नपओपजीवी, एसोऽणुधम्मो इह संजयाणं ॥३५॥ छाया--जीवाऽनुमागं सुविचिन्त्य, आहार्यान्नविधेश्च शुद्धिम् । न व्यागृणीयाच्छन्नपदोपजीवी, एषोनुधर्म इह संयतानाम् ॥३५॥ अमयार्थः-(जीवाणुमागं सुविचिंतयता) जीवानुमागं मुनिचिन्स्य अहंद: मताऽनुरागी सन् जीवपीडां सम्यगनुविचिन्त्य (अन्नविही य सोहिं आहारिया) अन्नविधेश्च शुद्धिमाहार्य-शुदमन्नं द्वाचत्वारिंशद्दोषरहितमाहारं स्वीकृत्य (छन्नपभोपजीवी न वियागरे) छनपदोपजीवी न व्यागृणीयात्-कपटजीविको भूत्वा 'जीशानुभाग' इत्यादि। शब्दार्थ--'जीवाणु मागं सुविचिंतयंता-जीवानुभागं सुविचिन्त्य आहेत मत के अनुयायो जीवों के होने वाली पीडाको भली भांति विचार करके 'अनविहीय सोहिं आहारिया -अन्नविधेश्च शुद्धिम् आहार्य शुद्ध बयालीस प्रकार के दोषों से रहित आहार का ग्रहण करते हैं वे 'छनपोपजीवी न वियागरे-छन्नग्दोपजीवी न व्यागृणीयात्' माया चारसे आजीविका नहीं करते और न कपटमय वचनों का उच्चारण करते हैं । इह संजयाणं एसोऽणुधम्मो-इह संपतानाम् एषोऽनुधर्म:' जिनशासन में संयमी पुरुषोंका यही धर्म है ॥३५॥ ___ अन्वयार्थ--आर्हतमत के अनुयायी जीवो को होने वाली पीड़ा का भली भांति विचार करके शुद्ध-बयालीस प्रकार के दोषों से रहित आहार 'जोवानुभाग' त्या शम्वार्थ-'जीवाणुभागं सुविचिंतयता-जीवानुभाग सुविचिन्त्य' भारत મતના અનુયાયિએ જીવને થનારી પીડાને સારી રીતે વિચાર કરીને “રામ विही य सोहि आहारिया-अन्नविधेश्च शुद्धिम् आहार्य' शुद्ध ४२ ताणासस प्रारना होय। विनाना साहारने अड ४२ छ. तसे। 'छन्नपभोपजीवी न वियागरे-छन्न पदोपजीवो न व्यागृणीयात्' भायाय २थी भा०वि भगता नथी. भने ४५८युत पथनानु उस्या२९ ४२ नथी. 'इह संजयाण एस्रोणुधम्मो-इह संयतानाम् एषोऽनुधर्मः' नशासनमा संयमी पुरानी मा छे. ॥3॥ અન્વયા_આહંત મતના અનુયાયી એને થવાવાળી પીડાને સારી રીતે વિચાર કરીને શુદ્ધ-૪ર બેંતાલીસ પ્રકારના દ વિનાના આહારને For Private And Personal Use Only Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सकृतानको मायावचनं न प्रयोक्तव्यम्, न बा-कपटेन जीविका कार्या विशुद्ध कामादिक माहाररवेन आहारर्यम् । न तु-चौदात् पात्रे पातितं पतितं वा सर्वविधमपि अन्नं शुदमेवेति मत्वाऽभक्ष्यमपि भैक्ष भक्ष्यं स्वीकर्तव्यमिति । यद्यपि जीवनिकायाचित्तविकारस्वादभक्ष्यप्रायमेव सर्व तथापि लौकिकरीत्या व्यवस्थापयिसच्या व्यवस्था ॥३५॥टीका-सुगमा ॥३५॥ मूलम्-सियाणगाणं तु दुवे सहस्से, जे भोयए नियए भिक्खुयाण। पानी को ग्रहण करते हैं। वे मायाचार से आजीविका नहीं करते और ः न कपट मय वचनों का उच्चारण ही करते हैं जिनशासन में संयमी पुरुषों का यही धर्म है ॥३५॥ तात्पर्य यह है कि कपटपूर्ण वचनों का प्रयोग नहीं करना चाहिए, कपट से आजीविका नहीं करनी चाहिए तथा निर्दोष अन्न आदि का आहार करना चाहिए । यौद्धों के जैसा ऐसा नहीं कि पात्र में जो डाल दिया या गिर गया वह सब प्रकार से शुद्ध ही है, ऐसा समझ कर अभक्ष्य और अशुद्ध भिक्षा का भी भक्षण कर लिया जाय ! यद्यपि अन आदि भी जीव का शरीर हैं तथापि लोक प्रचलित भक्ष्य या अभक्ष्य व्यवस्था का भी विचार करना चाहिए । अन्न और मांस को एक ही श्रेणी में गिन कर भक्ष्य अभक्ष्यव्यवस्था का विलोर नहीं करना चाहिए ३५॥ टीका सुगम है ॥३५॥ ગ્રહણ કરે છે. તેઓ માયાચારથી આજીવિકા કરતા નથી. તેમજ કપટ મયવચને બોલતા નથી. જીન શાસનમાં સંયમી પુરૂને આજ ધર્મ છે. કપા કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે--કપટ યુક્ત વચનેને પ્રવેશ કરે ન જોઈએ. કપટથી આજીવિકા ચલાવવી ન જોઈએ. તથા નિર્દોષ અન્ન વિગેરેને જ આહાર કર જોઈએ. બૌદ્ધોની જેમ એવું ન માનવું કે પાત્રમાં જે નાખવામાં આવ્યું અથવા ૫ડયું તે બધી રીતે શુદ્ધ જ છે. તેમ સમઅને અભક્ષ્ય અને અશુદ્ધ ભિક્ષાનું પણ ભક્ષણ કરી લેવામાં આવે. જો કે અન્ન વિગેરે પણ જીનું શરીર જ છે. તે પણ લેક પ્રચલિત ભય અને અભક્ષ્યની વ્યવસ્થાને પણ વિચાર કરે જોઈએ. અને અને માંસને એક જ શ્રીમાં માનીને ભક્ષ્ય અને અભક્ષ્યની વ્યવસ્થાને લેપ કરે તે કઈ રીતે એગ્ય કહી શકાય નહીં. ગા૦ ૩૫ આ ગાથાને ટીકાર્ય સુગમ છે. ... . - - . -. - . - - For Private And Personal Use Only Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - समयार्थबोधिनी टोका द्वि. श्रु. अ.६ आर्द्रकमुनेर्गोशालकस्य संवादनि० ६४१ असंजए लोहियपाणि से उ, णियच्छइ गरिहमिहेव लोए ॥३६॥ छाया-स्नातकानां तु द्वे सहस्रे, यो भोजपेन्नित्यं भिक्षुकाणाम् । असंयतो लोहितपाणिः स तु. निगच्छति गर्हामिहैव लोके ॥३६॥ अन्वयार्थ:-प्रतिदिनं सहस्रद्वयभिक्षुभोजक: आरोग्य नामकदेवो भवति इति यदुक्तं तन्मतं निराकरोति-दानों साधुभोजने ये गुणाः पूर्वमुक्तास्तान 'सियाणगाणे' इत्यादि। शब्दार्थ-'जेसियाणगाणं भिक्खुयाणं-ये स्नातकानां भिक्षुकाणाम्' जो पुरुष स्नातक भिक्षुभोंका 'दुवे सहस्से-द्वे सहस्रे' दो हजार भिक्षु. भोंको 'णियए-नित्यम्' प्रतिदिन 'भोयए-भोजयेत्' भोजन कराता है 'से उ-सतु वह पुरुष असंजए-असंयतः' नियमसे असंयमी है 'लोहिय पाणी-लोहितपाणि:' उसके हाथ रक्त से रंगे हुए हैं, क्योंकि वह षट्कायके जीवों का विराधक है 'इहेव लोए-इहैव लोके' वह इसी लोक में 'गरिहं गियच्छति-गर्हाम निगच्छति' निदाका पात्र बनता है। यह हिंसक है षट्काय की विराधना करके साधुओं को भोजन कराने वाले की साधुजन प्रशंसा नहीं करते किन्तु वारंवार उसकी निन्दा ही करते हैं ॥३६। ___अन्वयार्थ-प्रतिदिन दो हजार भिक्षुभों को भोजन करानेवाला आरोप्य नामक देव होता है, इस पूर्वोक्त मत का निराकरण करते 'सियाणगाणं' त्याल शा---'जे सियाणगणां भिक्खुयाणं-ये स्नातकानां भिक्षुकाणाम्'२ पु३५ न त लिनुमाना 'दुवे सहस्से-द्वे सहस्रे' मे १२ मिने 'णियए-नित्यम्' ४२२०१ 'भोयए-भोजयेतू' alra रावे छे. 'से उ-स तु' ५३५ 'असंजएअनंयतः' नियमयी असयभी. छ. 'लोहियपाणी-लोहितपाणिः' तमना हाथ सहाथी भयेा छ. भ-ते षट्।यना छाना विराध छे. 'इहेव लोएहोव लोके ते मा सोमin 'गरिहणियच्छइ-गोम् निगच्छति' नहाने पात्र બને છે. તે હિંસક છે. ષકાયની હિંસા કરીને સાધુઓને ભોજન કરાવે છે. આવા પ્રકારની લેકનિંદા તેને પ્રાપ્ત થાય છે. પ્રાણાતિપાત કરીને સાધુઓને અથવા બીજા કેઈને ભેજન કરાવવાવાળાની સાધુજને પ્રશંસા કરતા નથી, પરંતુ વારંવાર તેની નિંદા જ કરે છે સદા અન્ડયાથ-દરરોજ બે હજાર ભિક્ષુકને જોજન કરાવવાવાળે પુરૂષ આરોગ્ય નામને દેવ થાય છે. આ પ્રમાણેના શાકયના મતનું ખંડન કરતાં सू० ८१ For Private And Personal Use Only Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६४२ सूत्रकृतागयो खण्डयितुमाकः कथयति भिक्षुकमुद्दिश्य । (जे सियाणगाणं भिक्खुयाण) यः स्नातकानां भिक्षुकाणाम्, (दुवे सहस्से) द्वे सहस्से (णियए) नित्यम् (भोयए) भोजयेत् , अनेन (से उ) स तु-पुरुषविशेषः (असंजए) असंयतः-संयमरहितः, (लोहियपाणि) लोहितपाणि:-रुधिरादहस्तः षड्जीवनिकायविराधकस्यात्, (इहेवलोए) इहैव-अस्मिन्नेव लोके-जगति (गरिहं णियच्छइ) गम्-िहिंसकोऽय जीवान् व्यापाद्य साधून भोजयतीत्येवं रूपां लोकनिन्दा निगच्छति-माप्नोति । न हि माणातिपातं कृत्वा साधून अन्यान यान् कान् तर्पयन्तमसंयमिनं प्रशंसन्ति सन्तः, अपितु भूयो भूयोहि निन्दन्त्येव । पूर्वमुक्तं ये द्विसहस्रमितान् साधून नित्यं तर्पयन्ति भोजनेन ते सद्गति ल भन्ते इति मतम् आद्रकः खण्डयति । भोज्यान्ने संस्क्रियमाणे ज्ञायमानाऽज्ञायमानाऽनेकजीवहिंसा समुत्पद्यते । तद्धिसासंलित. तदन्नदातुः कथमपि सद्गति न सम्भाव्यते, बपि तु-ताशदातुर्विपरीताऽधोनेत्री हैं। अर्थात् साधुओं को भोजन कराने में जो गुण पहले कहे हैं उनका अब खंडन करने के लिए आईक मुनि बौद्ध भिक्षु से कहते हैं___जो पुरुष प्रतिदिन दो हजार स्नातक भिक्षुओं को भोजन कराता है, वह नियम से असंयमी है। उसके हाथ रक्त से रंगे हुएहैं, क्योंकि वह षट्काय के जीवों का विराधक है । वह इसी लोक में निन्दा का पात्र बनता है यह हिंसक है, षट्कायकी विराधना करके साधुओं को भोजन कराता है इस प्रकार की लोक निन्दा उसे प्राप्त होती है । प्राणातिपात करके साधुओं को अथवा अन्य किसी को भोजन कराने वाले की साधुजन प्रशंसा नहीं करते। किन्तु वारंवार उसकी निन्दा ही करते हैं ॥३६॥ કહે છે. અર્થાત્ હવે સાધુઓને ભેજન કરાવવામાં જે ગુણ પહેલાં કહ્યા છે, તેનું ખંડન કરાવવા માટે આદ્રક મુનિ બૌદ્ધ ભિક્ષુકને કહે છે–જે પુરૂષ દરરોજ મહાન આરંભ કરીને બે હજાર સ્નાતક ભિક્ષુકોને ભેજન કરાવે છે, તે નિશ્ચય અસંયમી જ છે. તેના હાથ લેહીથી રંગાયેલા જ હોય છે. કેમકે તે ષકાયના જીવોના વિરાધક છે. તે આ લેકમાં જ નિંદાપાત્ર બને છે, તે હિંસક છે. ષકાયની વિરાધના કરીને સાધુઓને ભેજન કરાવે છે. આવા પ્રકારની લેકનિંદા તેને પ્રાપ્ત થાય છે. પ્રાણાતિપાત કરીને સાધુઓને અથવા અન્ય કેઈને ભેજન કરાવવાવાળાની સાધુ જન પ્રશંસા કરતા નથી, પરંતુ વારંવાર તેની નિંદા જ કરે છે. ૩૬ For Private And Personal Use Only Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संमयाबोधिनी टोका द्वि. श्रु. अ. ६ आईकमुनेगर्गोशालकस्य संवादनि० ६४३ संभाव्या गतिर्भवति हियाऽनायर्याणाम् परलोके नरकपातः, इह हि अशेषा लोकनि. म्दा, अतो दुष्टमोजनदानेन सद्गतिरिति मतम् अपहसितमिति गूढो विवेकः ॥३६॥ टीका-सुगमा ॥३६॥ मलम्-थूलं उरभं इह मारियाणं उद्दिभत्तं च पगप्पएत्ता। तंलोणतेल्लेण उवकावडेता सपिप्पलीयं पगरंतिमसं३७॥ छाया-स्थूलमुरभ्रमिह मारयित्वोदिष्टभक्तं च प्रकल्प्य । तं लवणतेलाम्यामुपस्कृत्य सपिप्पलीकं प्रकुर्वन्ति मांसम् ॥३७॥ तात्पर्य यह है-शाक्य भिक्षु ने जो दो हजारभिक्षुओं को जिमाने से स्वर्ग की प्राप्ति कही थी, आईककुमार मुनि उसका खण्डन करते हैंभोज्य पदार्थ तैयार करने में अनेक ज्ञात और अज्ञात बस स्थावर जीवों की हिसा होती है । उस हिंसा से युक्त भोजन से दाता को सद्गति की प्राप्ति हो, ऐसी संभावना नहीं की जा सकती। इससे विपरीत ऐसे दाता की विपरीत अधोगति में ले जाने वाली गति ही हो सकती है। वह परलोक में नरक में गिरता है और इस लोक में पूरी निन्दा का पात्र होता है। इसका गूढ रहस्य यह है कि हिंसा करके भोजनदान देने से सद्गति होती है, यह मत खंडित हो गया ॥३६॥ टीका सुगम है ॥३६॥ 'थलं उरम्भं' इत्यादि । शब्दार्थ-'आर्द्र क मुनि बौद्ध भिक्षुसे कहते हैं-'इह थूलं उरन् - इह स्थूलभुरभम्' इस जगत् में स्थूलकाय मेष (मेढे) को 'मारियाणं આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે શાય ભિક્ષુકે જે બે હજાર શિક્ષકોને જમાડવાથી સ્વર્ગની પ્રાપ્તિ કહેલ છે. તેનું ખંડન કરતાં આર્તક મુનિએ કહ્યું છે કે–ભોજન કરવા માટેના પદાર્થો તૈયાર કરવામાં જાણતાં કે અજાણતાં અનેક ત્રસ અને સ્થાવર જીની હિંસા થાય છે તે હિંસાથી યુક્ત ભેજનથી દાતાને સદ્ગતિની પ્રાપ્તિ થાય, તેમ માની શકાય તેમ નથી. તેનાથી ઉલટા દાતાની અધોગતિમાં લઈ જવાવાળી જ ગતિ થાય છે. તે પરલેકમાં નરકમાં પડે છે. અને આલેકમાં પૂરેપૂરી નિંદાને પાત્ર બને છે. આ કથનનું ગૂઢ રહસ્ય એ છે કે-હિંસા કરીને જોજનનું દાન કરવાથી સદ્ગતિ મળે છે. આ મતનું ખંડન થયું છે. ગા૦ ૩૬ આ ગાથાને ટીકાથે સરળ છે. 'थूलं उरभं' त्यादि शहा--भाद्र मुनि पौद्ध भिक्षुटने ४ छ-'इह स्थूलं उरम'-इह स्थूलमुरभ्रम्' मा गितमा स्थू१४ाय भेष-घटाने 'मारियाणं-मारयित्वा' भारीने For Private And Personal Use Only Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतानसरे ___ अन्वयार्थः -आर्द्रकमुनि बौद्ध भिक्षुक प्रत्याह-(इह थूलं उरभं) इह स्थूलं बृहत्कायम् उरभ्र मेषम् (मारियाण) मारयित्वा-हत्वा (उद्दिभत्तं च पगप्पएत्ता) उद्दिष्टभक्तं च प्रकल्प्य, बुद्धमताप्नुयायिनो गृहस्थाः भिक्षुगामर्थ मेघ मारयित्वा तदुद्देशेन भक्तादिक सम्माध (तं लोणतेल्लेण उपक्खडेता) तं मांसं लवणतेलघृतादिभिरूपस्कृत्य पाचयित्वा (सपिप्पलीय मंस पगरंति) सपिप्पलीकं मांसं प्रकुर्वन्ति पिप्पलीनामौषधिविशेषेण प्रकर्षेण भक्षणयोग्यं कुर्वन्ति । आद्रको मुनि बौद्धपताऽनुधावतां व्यवस्था ब्रूते-अहह ? बौद्धाऽनुयायिनो वौद्धमिक्षवे घृततैल. कटुलवणमरिचादि मादकद्रव्यस्पृक्सधोमांस निर्माय भक्तादि तदनुगुणाऽन्नं परिकल्प्य साधुभोज्ययोग्यं कुर्वन्ति ॥३७॥ टीका-सुगमा ! -मारयित्वा' मारकर 'उहिट भत्तं च पगपएत्ता-उद्दिष्ट भक्तं च प्रकल्प्य' पौद्धमतके अनुयायी गृहस्थ अपने भिक्षुओं के लिए भोजन बनाता है 'त लोणतेल्लेण उबवडेता-तं लवणतैलाभ्यामुपस्कृत्य' उसे मांस नमक, तेल, घी आदि के साथ पकाकर 'सपिप्पलीकं मंसं पारंतिसपिप्पलीकं मांसं प्रकुर्वन्ति' पिपली आदि द्रव्यों से छोक लगाते हैं, अर्थात् स्वादिष्ट बनाते हैं ॥३७॥ ___अन्वयार्थ--आर्द्रकमुनि यौभिक्षु से कहते हैं-स्थूलकाय मेष (मेढ़ें) को मार कर बौद्धमत के अनुयायी गृहस्थ अपने भिक्षुओं के लिए भोजन बनाते हैं । उसे मांस, नमक तेल, घी आदि के साथ पका कर पिप्पली आदि द्रव्यों से छोक लगाते हैं, एवं स्वादिष्ट बनाते हैं ॥३७॥ ' तात्पर्य यह है की आद्रकमुनि बौद्धमत के पोछे दौड़ने वालों की व्यवस्था दिखलाते हुए कहते हैं-अहह ! बौद्धमत के अनुयायी गृहस्थ 'उहिदुमत्तं च पगापरता-उद्दिष्टभक्त' च प्रकल्प्य' मोद्धमतना अनुयायी ७२५ घोताना भिक्षुमान भाटान मानावे छे, 'त लोणतेल्लेग अक्खडेता-त लवणतैलाभ्यामुपस्कृत्य' तेने मांस, भी, तa, घी विरेनी साथै राधान 'सपिप्पलिय' मंसं पगरंति-सपिप्पलीक मांसं प्रकुर्वन्ति' (५५०ी वगेरे मसासाथी વઘારીને સ્વાદિષ્ટ બનાવે છે. ૩છી અન્વયાર્થ–આદ્રક મુનિ બૌદ્ધ ભિક્ષુકને કહે છે-ભૂલકાય મેષ-(ઘેટા)ને મારીને બૌદ્ધમતના અનુયાયી ગૃહસ્થ પિતાના ભિક્ષુકોના ભેજન માટે તૈયાર કરે છે. તે માંસને, મીઠું, તેલ, ઘી વિગેરેની સાથે રાંધીને પિપલી વિગેરે દ્રવ્યોથી વઘારીને તેને સ્વાદિષ્ટ બનાવે છે. ૩૭ આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે-આદ્રક મુનિ બૌદ્ધ મતની પાછળ દેડવાવાળાઓની વ્યવસ્થા બતાવતાં કહે છે કે-અહહ બૌદ્ધ મતના અનુયાયીઓ For Private And Personal Use Only Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुने!शालकस्य संवादनि० ६४५ एतादृशं मासं निर्माय किं कुर्वन्ति तत्राहमूलम्-तं भुंजमाणा पिसितं पभूयं, ___णो उवलिप्पामो वयं रएणं । इच्चेव माहंसु अगजधम्मा, अणारिया बाला रैसेसु गिद्धा ॥३८॥ छाया--तं भुञ्जानाः पिशितं प्रभूत नोपलिप्यामो वयं रजसा। इत्येवमाहुरनार्य धर्माण अनार्या बाला रसेषु गृदाः । ३८॥ लोग बौद्ध भिक्षु के निमित्त घो. तेल कटु लवण मिर्च आदि से संयुक्त ताजा मांस तैयार करके उसे भिक्षुओं के खाने योग्य बनाते हैं ॥३७॥ टीका सुगम है ॥३७॥ 'तं भुंजमाणा' इत्यादि। शब्दार्थ--इस प्रकार के मांसको तेधारकरके क्या करते हैं? सो कहते हैं-'अणारिया-अनार्याः' अनार्य 'घाला-घालाः' सत् असत् के विवेकसे रहित 'अणजधम्मा-अनार्यधर्माणः' अनार्यधर्मी 'रसेसुगिद्धा-रसेपु गृद्धा' रसों में आमक्त बौद्ध भिक्षु तं पभूयं पिसितं तं प्रभूतं पिशितं' उस शुक शोणितसे उत्पन्न प्रभूत मांसको 'भुजमाणाभुञ्जानाः' खाते हुवे भी कहते हैं 'रएणं-रजसा' पापसे 'वयं ण उव. लिप्पामो-वयं नोरलिप्यामो' हमलोग लिप्त नहीं होते ॥३८॥ ગૃહસ્થ લેકે બૌદ્ધ ભિક્ષુક માટે ઘી, તેલ, મીઠું, મરચું, વિગેરેથી યુક્ત તાજુ માંસ તૈયાર કરીને તેને ભિક્ષુકને ખાવાલાયક બનાવે છે. ગાયા આ ગાથાને ટીકાથે સરળ છે. 'त जमाणा' त्या શબ્દાર્થ–આ પ્રમાણે માંસને તૈયાર કરીને શું કરે છે? તે બતાवाम मावले. 'अणारिया-अनार्याः' मनाय 'बाला-बाला.' मास-मज्ञानी सत असतना विव: विनान। 'अणज्जधम्मा-अनार्यधर्माण.' मनाय भी 'रसेस गिद्धा-रसेषु गृद्धाः' सोमा मत गौद्ध भिक्षु । 'तं पभूयं पिसित-तप्रभूतं पिशितं ते शुॐ तिथी अपन थये अधिः अवा भासन भूजमाणाभुञ्जाना' मावा छतi ५ छ -'रएणं-रजसा' पायथी पण अलिपामो-वयं नोपलिप्यामो' भभी लिस यता नथी. ॥ ३८॥ For Private And Personal Use Only Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतासूत्रे ___ अन्वयार्थ:--(अणारिया) अनार्याः (बाला) बाला:-सदसद्विवेकविकलाः (अणज्नधम्मा) अनार्यधर्माणः, (रसेसु गिद्धा) रसेषु गृद्धाः-अध्युपपन्नाः (i) तम् (पभूयं पिसितं) पभूतम्-अत्यधिक पिशितं शुक्रशोणितपभवं मांसम् (भुंजमाणा) भुनानाः (रएणं) रजसा-पापेन (वयं ण उवलिप्पामो) वयं नोपलिप्यामः (इच्चे। मासु) इत्येवमाहुः-कथयन्ति ॥३८॥ टोका-'तं पभूयं पिसितं' तं प्रभूतमत्यधिक मांस-शुक्रशोणितसंभूतं मासम् 'भुजमाणा' भुनाना:-भोजनं कुर्वन्तः 'वयं रएणं ण उवलिप्पामो' क्यं मांसभोजनजनितपापेन नोपलिप्याम:- कर्मवन्धो न भवतीति मन्यामहे, एवम् 'अणज्जधम्मा' अनार्यधर्माणः-आराज्जातसर्वहेयधर्मेभ्यः माणातिपातादिभ्यो हिंसाधर्मेभ्यो निवृत्तास्ते आयो:-दयाधर्मपालका:-पड्जीवनिकायरक्षकास्तेषां धर्म:-आर्यधर्मःन आर्थधर्मोऽनार्यधर्मः तादृशधर्मः अस्ति येषां ते अनार्य धर्माणः ___अन्वयार्थ-इस प्रकार के मांस को तैयार करके क्या करते हैं ? सो कहते हैं-अनार्य, सत्-असत् के विवेक से रहित अनार्यधर्मी और रसों में आसक्त बौद्धभिक्षु उस शुकशोणित से उत्पन्न प्रभूत मांस को खाते हुए भी कहते हैं हम पाप से लिप्त नहीं होते ॥३८॥ टीकार्थ-उस शुक शोणित से उत्पन्न ढेर सारे मांस का भोजन करते हुए भी 'हम रज से अर्थात् मांस के भोजन से उत्पन होने वाले पाप से लिप्त नहीं होते-हमें कर्मषन्ध नहीं होता' ऐसा मानते हैं । वे अनार्य धर्मी हैं अर्थात् हिंसा आदि हेय कार्यों से दूर रहने वाले, धर्म का पालन करने वाले षट्काय के जीवों के रक्षक आर्य पुरुषों से અન્વયાર્થ–આ રીતથી માંસને તૈયાર કરીને તેઓ શું કરે છે? તે બતાવતાં સૂત્રકાર કહે છે કે-અનાર્ય–સત અને વિવેક વિનાના અનાર્ય ધમ અને રસમાં આસક્ત એવા બૌદ્ધ ભિક્ષુઓ એ શુક્ર શેણિતથી મિશ્રિત પુષ્કળ માંસને ખાતાં ખાતા કહે છે કે અમે પાપથી લિપ્ત થતા નથી. ૩૮ ટીકાઈ–તે શક શેણિતથી ઉત્પન્ન થયેલ સઘળા જ માંસનું ભોજન કરવા છતાં પણ અમે રજથી અર્થાત્ માંસના ભેજનથી ઉત્પન્ન થવાવાળા પાપથી લિપ્ત થતા નથી. અમને કર્મબંધ થતું નથી. તેમ માને છે, તેઓ અનાર્ય ધમિ છે. અર્થાત્ માંસના ભજનથી ઉત્પન્ન થનારા પાપથી અમો પાતા નથી. અમને કમને બંધ થતું નથી. તેમ માને છે, તેઓ અનાર્ય ધમાં છે. અર્થાત હિંસા વિગેરે ત્યાગ કરવા યોગ્ય કાર્યોથી દૂર રહેવાવાળા, ધર્મનું પાલન કરવાવાળા, ષકાયના જીનું રક્ષણ કરવાવાળા આર્યપુરૂષોથી વિપરીત For Private And Personal Use Only Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org समयबोधिनी टीका द्वि. श्र. म. ६ आर्द्रकमुने गौशालकस्य संवादनि० ६४७ - प्राणातिपातादिकारकाः दुष्टस्वभावाः 'अणारिया' अन्ायीः- असदनुष्ठायिनःधर्मसंज्ञारहिताः 'बाला' बालाः- सदसद्विवेकविकलाः 'रसेसु' रसेषु - मांसादिषु 'गिद्धा ' गृद्धाः - आसक्ताः - अभ्युपपन्नाः । हे भिक्षो ! तत्र मतानुयायिनोsनाय इति भावः ॥ ३८ ॥ पुनरपि आर्द्रकमुनि बदभिक्षुकं प्रत्याह मूलम्-जे यावि भुजंति तहप्पगारं, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संवंति ते पाव जाणमाणा । मण ने ऐयं कुंसला करेंति, वाया वि ऐसा बुझ्यों उ मिच्छा ॥ ३९॥ छाया - ये चापि भुञ्जते तथामकारं सेवन्ते ते पापमजानानाः । मनो नैतत्कुशलाः कुर्वन्ति वागध्येषोक्ता तु मिथ्या ॥ ३९॥ बिपरीत अनार्य पुरुषों के धर्म का आचरण करते हैं अर्थात् प्राणातिपात आदि कुकृत्य करने वाले एवं स्वभाव से दुष्ट हैं । वे स्वयं भी अनार्य हैं और सत् असत् के विवेक से शून्य हैं। मांसादि रसों में आसक्त हैं । तात्पर्य यह है कि मांस भोजन करने वाले तुम्हारे मत के अनुयायी आना हैं || ३८ | आर्द्रक :मुनि पुनः बौद्धभिक्षु तहप्पारं इत्यादि । से कहते हैं- जे याचि मुंजंति शब्दार्थ - 'जे यावि- ये चापि' जो लोग 'तहपगारं भुजति तथा प्रकारं भुञ्जते' पूर्वोक्त मांसका भक्षण करते हैं ते ते' वे 'अजाणमाणाअजानाना'' अज्ञानी 'पावं से वंति - पापं सेवन्ते' पापका ही सेवन करते અના પુરૂષાના ધમનું આચરણ કરે છે. અર્થાત્ જેએ પ્રાણાતિપાત વિગેરે કુકૃત્ય કરવાવાળા અને સ્વભાવથી દુષ્ટ છે તે પાતે પણ અનાય જ છે. અને સત્ અસત્તા વિવેકથી રહિત છે. માંસ વિગેરે રસેમાં આસક્ત છે. કહેવાનું તાત્પય એ છે કે-માંસનુ` ભેજન કરવાવાળા તમારા મતના અનુ. યાયીએ અનાય છે. નાગા૦ ૩૮૫ ४ भुनि इरीथी मौद्ध साधुने छे - 'जे यावि भुंजंति तहप्पगार" ४० शब्दार्थ - 'जे यावि- ये चापि' ने बोओ 'तत्पगार' भुंजंति - तथाप्रकार भुञ्जते' पूर्वोक्त मांस अक्षय उरे छे, 'ते-ते' तेथे 'अजाणमाणा-अजानानाः ’ अज्ञानी 'पाव' सेवंति - पाप' सेवन्ते' पापनु सेवन रे छे, 'कुसला - कुशला: " For Private And Personal Use Only Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतासून - अन्वयार्थ:-(जे यात्रि) ये चापि (तहप्पगारं भुजति) तथापकारं मांस भुञ्जते (ते) (अजाणमाणा) अजानानाः (पावं सेति) पापमेव सेवन्ते (कुसला) कुशलास्तु (एयं मणं न करेंति) एतद् ईदृशं मनोऽपि न कुर्वन्ति (एसा वाया वि) एपा वागपि-मांसभक्षणं कर्तव्यमित्येव रूपा (बुड्या) उक्ता (मिच्छा) मिथ्या-मिथ्येवेति।३९। टीका-'जे यावि' ये चापि 'तहप्पगारं' तथापकारं--पूर्वगाथोक्तं मांसम् । ' जति' भुनते-भक्षणं कुर्वन्तीत्यर्थः 'ते अजाणमाणा पावं सेवंति' तेऽजानाना: -अज्ञानिनः पापमेव सेवन्ते, पापाचरणमेव हठेन कुर्वन्ति । 'कुसला एवं मणं न करेंति' कुशलाः-विवेकिनो नैतन्मनः कुन्ति । ये तु-कुशलास्ते मांसभक्षणहै 'कुसला -कुशलाः' जो पुरुष कुशल हैं 'एयं मणं न करेंति-एतन्मनः न कुर्वन्ति' वे तो मांसभक्षण करने की इच्छा भी करते नहीं। 'एसा वायावि-एषा वागपि' मांस भक्षण करना चाहिए अथवा मांस भक्षण में दोष नहीं हैं, इस प्रकार 'धुझ्या-उक्ता' कहा हुआ-वचन भी मिच्छा-मिथ्या मिथ्या है ॥३९|| ... अन्वयार्थ-जो लोग पूर्वोक्त मांस का भक्षण करते हैं, वे अज्ञानी पाप का ही सेवन करते हैं। जो पुरुष कुशल हैं, वे तो मांस भक्षण करने की इच्छा तक नहीं करते । मसि भक्षण करना चाहिए या मांस भक्षण करने में दोष नहीं है, इस प्रकार का वचन भी मिथ्या है ॥३९॥ टीकार्थ-पूर्वगाथा में कथित मांन का जो भक्षण करते हैं, वे अज्ञानी जन पाप का ही सेवन करते हैं-हठपूर्व पाप का आचरण करते हैं। विवेकवान पुरुष हैं वे तो मांसभक्षण की इच्छा भी नहीं २ ५३५ पुश छ, 'एय मणं न करें ति-एतत् मनः न कुर्वन्ति' तातो मांस भक्ष ४२वाना छ। ५७ ४२ता नथी, 'एमा वाया वि-एषा वागपि' भांसनु सक्षम ४२ मध्ये थे प्रमाणे नी 'बुइया-उक्ता' स पाणी ५५ 'मिच्छा-मिथ्या' मिथ्या छे. ॥10 36 અન્યથાર્થ—અજ્ઞાની એવા જે લોકે આ પહેલાં કહેવામાં આવેલ માંસનું ભક્ષણ કરે છે. તે પાપનું જ સેવન કરે છે. જે પુરૂષ કુશળ છે, તેઓ તે માંસ ભક્ષણ કરવાની ઈચ્છા પણ કરતાં નથી. માંસ ભક્ષણ કરવું જોઈએ અથવા માંસ ભક્ષણ કરવામાં દોષ નથી. આવી રીતે કહેવામાં આવેલ વચન પણ પાપકારક જ છે. ૩૯ ટીકાર્થ–પહેલી ગાથામાં કહેવામાં આવેલ માંસનું જે ભક્ષણ કરે છે, તેઓ અજ્ઞાન અર્થાત્ પાપનું જ સેવન કરે છે, વિવેકી પુરૂષે તે માંસ For Private And Personal Use Only Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुने गौशालकस्य संवादनि० ६४९विषयिणीमिच्छामपि न कुर्वन्ति, किमु ? पुनमेक्षणम् 'आमासु चापकासु पिपच्य मानासु मांसपेशीषु' सततमुत्पद्यन्तेऽनन्तजीवाः इत्यादिशास्त्र - प्रत्यक्षाभ्यां निषे धस्य दर्शनात न शिष्टा मांसभक्षणेच्छामपि कुर्वन्ति । अन्यदर्शने - वर्षे वर्षे मेघेन यो यजेद शतं समाः । मांसान्यपि न खादेद् यस्तयोः पुण्यं समं स्मृतमिति । तनिषेधेन फलाssधवस्य प्रतिपादनात् । 'एसा वायाविमिच्छा बुझ्या ए वागपि मियोक्ता 'मांसभक्षणे नास्ति दोष:' इति प्रलापमवादवचनमपि मिथ्यैवेति भावः ॥३९॥ मूत्रम्-सज्येति जीवाणं देयट्टयाए, सावज्जदोसं परिवेज्जयंता । संकिणो इंसिणो नायपुत्ता उद्दिभत्तं परिवैजयंति । ४० छाया - सर्वेषां भूतानां दयार्थाय सायदोषं परिवर्जयन्तः । तच्छङ्किन ऋषयो ज्ञातपुत्रा, उद्दिष्टभक्तं परिवर्जयन्ति ॥ ४०॥ करते हैं, भक्षण करने की तो बात ही दूर रही ! उनके यहां तो ऐसा कहा गया है कि मांसपेशी चाहे कच्ची हो, चाहे पक्की हो, चाहे पक रही हो, उसमें प्रतिक्षण असंख्यात जीवों की उत्पत्ति होती रहती है। इस कारण शिष्ट पुरुष मांस खाने की इच्छा तक नहीं करते हैं। अन्य दर्शनों में भी मांसभक्षण के त्याग का महत्व बतलाया गया है, यथा - 'कोई मनुष्य वर्षों तक प्रतिवर्ष अश्वमेध यज्ञ करता है और दूसरा यज्ञ तो नहीं करता किन्तु मांसभक्षण का स्याग कर देता है। उन दोनों को समान फल की प्राप्ति होती है ।' अतएव मांसभक्षण करने में कोई दोष नहीं है, इस प्रकार का वचन भी मिथ्या है ॥ ३९ ॥ ભક્ષણુ ઈચ્છા જ કરતા નથી, માંસ ખાવાની તે વાત જ દૂર રહી પશુ તેઓના મતથી તે એવું કહેવામાં આવેલ છે કે-માંસની પેશી ચાહે કાચી ડાય કે પાકી હોય ચાહે પાક માટે તૈયાર થઈ રહી હોય તેમાં પ્રત્યેક સમર્ચ અસ ખ્યાત જીવાની ઉત્પત્તિ થતી રહે છે. તે કારણે શિષ્ટ પુરૂષો માંસ ખાવાની ઈચ્છા પ ૢ કરતા નથી. અન્ય દશનામાં પણ માંસ ખાવાના ત્યાગને જ મહેલ આપેલ છે, જેમકે-કેાઈ એક મનુષ્ય વર્ષો સુધી દર વર્ષે અશ્વમેધ યજ્ઞ કરે અને ત્રીજો માણસ યજ્ઞ કરતા નથી પરંતુ માંસ ભક્ષણના ત્યાગ કરે છે, તે બન્નેને સરખા ફળની પ્રાપ્તિ થાય છે, તેથી જ માંસ ભક્ષણ કરવામાં કોઈશુ ઢોષ નથી, આવા પ્રકારના વચને પણ મિથ્યા છે. ગા૦ ૩૯ા सु० ८२ For Private And Personal Use Only Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६५० सूत्रकृतानने अन्वयार्थः-(सव्वेसि) सर्वेषाम् (जीवाणं) जीवानां त्रसस्थावराणाम् (दयहगाए) दयार्थाय-दयां कर्तुम् (सावज्जदोस) सावद्यदोषम् सावद्यारम्भम् (परिवजयंता) परिवर्जयन्तः-त्यजन्तः (तरसंकिणी) तच्छङ्किनः (इसिणो) ऋषयः (नायपुत्ता) ज्ञातपुत्राः (उद्दिट्ठभत्त) उद्दिष्टभक्त :-ौदेशिकाहारम् (परिवज्जयंति) परिवर्जयन्ति-परित्यजन्तीति ॥४०॥ ___टीका-आर्द्रको मुनिः पुनरप्याह-हे भिक्षो ! आईतमतसर्वस्वं श्रूयताम्मोक्षार्थिना मांसभक्षणं तु कदापि न कर्तव्यम् । किंबहुना उद्देशकाहारोऽपि हातव्य 'सव्वेसि जीवाणं' इत्यादि ! शब्दार्थ-'सम्वेसिं-सर्वेषां समस्त 'जीवाणं-जीवाला' त्रस और स्थावर जीवों के ऊपर 'दयट्टयाए-दयार्थाय दया करने के लिए 'साव. दोसं-सावद्यदोषं' सावध दोष का 'परिवजयंता-परिवर्जयन्तः' त्याग करने वाले 'तस्संकिणो-तत् शडिन' तथा सावध दोष की आशंका करनेवाले 'उलिणो-ऋषयः' 'नायपुत्ता-ज्ञातपुत्राः' ज्ञातपुत्रके अनुयायी उद्दिभत्तं-उद्दिष्ट भक्तम्' औद्देशिक आहार का 'परिवज यति-परिवर्जयन्ति' परित्याग करते हैं ॥४०॥ अन्वयार्थ-जगत् में निवास करने वाले समस्त त्रस और स्थावर जीवों की दया के लिए सावद्य दोष का परित्याग करने वाले तथा सावध की अशंका करने वाले ज्ञातपुत्र के अनुयायी संयमी मुनि औदेशिक भाहार का परित्याग करते हैं।॥४०॥ टीकार्थ-आईक मुनि फिर कहते हैं-आहतमत के सर्वस्व को सुनो-मोक्षार्थी को मांस का भक्षण कदापि नहीं करना चाहिए । अधिक 'सव्वेसि जीवाण' त्या शहाथ-'सव्वेसिं-सर्वेषां' सघा ‘जीवाणं-जीवाना' ससने स्था१२ ७। ५२ 'दयटूयाए-दयार्थाय' या ४२वा माटे 'सावज्जदोसं-सावद्यदोष" साध सपना 'परिवज्जयंता-परिवर्जयन्त:' त्याग ४२वावा तस्संकिणो-तत् शकिनः' तया सावध होपनी । ४२११।'उसिणो-ऋषयः' *षि मेवा 'नायणुत्ता सातपुत्राः' शातपुत्रना अनुयायी. 'उहिट्ठभत्त-उहिष्टभतम्' सौदेशि: माहारने। 'परिवज्जयंति-परिवर्जयन्नि' त्याग रे छ. ॥१०४०॥ અન્વયાર્થ-જગમાં વસતા સઘળા ત્રસ અને સ્થાવર જીવેની દયા માટે સાવધ દેષને ત્યાગ કરવાવાળા તથા સાવઘની શંકા કરવાવાળા જ્ઞાતપુત્રના અનુયાયી સંયમી મુનિ દેશિક આહારને પરિત્યાગ કરે છે. ૧૪૦ ટીકાર્ય આદ્રક મુનિ ફરીથી કહે છે કે–આહંત મતના સિદ્ધાંતને સાંભળે મોક્ષની ઈચછાવાળા આત્માઓએ કદાપિ માંસનું ભક્ષણ કરવું ન જોઈએ, For Private And Personal Use Only Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी का द्वि. श्रु. अ. ६ आईकमुने गोशालकस्य संवादनि० ६५१ एव-इत्येतदर्शयितुं सूत्रमुपक्रमते-'सव्वेसि' सर्वेषाम्-समीपदूर-दरतरवर्तिनी प्रसस्थावरपर्याप्तापर्याप्तनिगोदस्थानां सकलानामपि 'जीवाण' जीवानाम्-माणिनाम् 'दयद्वयाए' दयार्थाय दया कर्तुम्-रक्षणार्थमित्यर्थः, 'सारज्जदोस परिवज्जयंता' सावद्यदोष परिवर्जयन्तः-षड्जीवनिकायारम्भं त्यजन्तः 'तस्संकिणो इसिणो नाय पुत्ता' तच्छङ्किना-सावद्यार्ग शङ्कमाना:-तत्र घृणां कुर्वन्तः ज्ञातपुत्राः भगवतो महावीरस्याऽऽज्ञावशवर्तिनः ऋषयः-मुनयो गृहीतदीक्षाः परित्यक्तारम्भसमार. म्भाः। 'उदिभत्तं परिवज्जयति' उद्दिष्टभक्तं साध्वर्थ पाचितमन्नमपि कर्मबन्धशङ्कया परिवर्जयन्ति-स्यजन्तीति । मांसभक्षणं तु मनसाऽपि न मार्थयन्ते इति।४०॥ मूलम्-भूयाभिसंकाए दुगुंछमाणा संवेसिं पाणाण निहाय दंड। तम्हाणभुजंतितहप्पगारं ऐसोऽणुधम्मोहि संजयाणां४१॥ छाया-भूताऽभिङ्कया जुगुप्समानाः सर्वेषां प्राणानां निहाय दण्डम् । ____ तस्मान्न भुञ्जते तथाप्रकारम् एषोऽनुधर्म इह संयतानाम् ॥४१॥ क्या, उद्दिष्ट आहार भी त्यागना चाहिए । इन बात को दिखलाने के लिए सूत्र का उपक्रम (प्रारम्भ) करते हैं-समीपवर्ती, दूरवर्ती, दूरतरवर्ती, पर्याप्त तथा अपर्याप्त बस और स्थावर सभी जीवों की रक्षा करने के लिए षट्जीवनिकाय के आरंभ समारंभ का त्याग करने वाले तथा सावध कर्म में शंका रखने वाले अर्थात् सावधक्रिया से घृणा करते हुए ज्ञातपुत्र भगवान महावीर के आज्ञानुवर्ती संयमी मुनि कर्मबन्ध की आशंका से औदेशिक आहार का भी त्याग करते हैं-अमुक साधु के उद्देश्य से बनाया हुआ आहार ग्रहण नहीं करते हैं। मांसभक्षण की तो इच्छा भी नहीं करते ॥४०॥ વિશે શું કહેવાય ? ઉદિષ્ટ આહારને પણ ત્યાગ કરવો જોઈએ. આ વાત બતાવવા માટે સૂત્રકાર કહે છે –સમીપમાં રહેનારા દૂર રહેવાવાળા, અત્યંત દૂર રહેવાવાળા, પર્યાપ્ત, તથા અપર્યાપ્ત ત્રસ અને સ્થાવર બધા જ જીવોની રક્ષા કરવા માટે જવનિકાયના આરંભ સમારંભનો ત્યાગ કરવાવાળ, તથા સાવદ્ય કમૅમાં શંકા કરવાવાળા, અર્થાત્ સાવદ્ય ક્રિયાથી ઘણું કરવાવાળા જ્ઞાતપુત્ર ભગવાન મહાવીરની આજ્ઞામાં રહેનારા, સંયમી મુનિ કર્મબંધની આશંકાથી શિક આહારને ત્યાગ કરે છે. અર્થાત્ અમુક સાધુને નિમિત્ત બનાવવામાં આવેલ આહાર ગ્રહણ કરતા નથી. તે પછી માંસ ભક્ષણની તે વાત જ શી કરવી? અર્થાત્ માંસ ભક્ષણની તે ઈચ્છા પણ કરતા નથી. ૪૦ For Private And Personal Use Only Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतागलो अन्वयार्थ-(भूयाभिसंकाए) भूताभिशङ्कया-प्राणातिपातभयेन (दुगुछमाणा) जुगुप्समानाः-घृणां कुर्वः (सव्वेसि पाणाण दंडं निहाय) सर्वेषां प्राणानां जीवानां दण्डम्-वधं निहाय-परित्यज्य (तम्ह)) तस्मात् कारणात् (तहप्पगारं) तथापकारं तादृशमाहारम् (ण मुंजंति) न भुमते (इह) इह-अत्र जनशासने (संज. याणं) संयतानां साधूनाम् (एसोऽणुधम्मो) एषोऽनुधर्मः तीर्थकरपरम्परया प्राप्तः श्रुतचारिवलक्षण इति ॥४१॥ 'भूयाभिसंकाए दुगुंछमाणा' इत्यादि। शब्बदार्थे–'भूयाभिसंकाए-भूताभिशया' प्राणियों की हिंसा के भय से 'दुगुंछमाणा-जुगुप्समाना' सावधक्रिया से घृणा करने वाले उत्तम पुरुष 'सम्वेसि पाणाण दंडं निहाय-सर्वेषां प्राणानां दण्डं निहाय' समस्त जीवों को दंड देने का स्याग करके 'तम्हा तहपगारं-तस्मात् तथाप्रकारं' क्षित आहार ‘ण भुंजंति-न भुञ्जते' ग्रहण नहीं करते है । 'इह-दह' इस जैन शासन में 'संजयाणं-संयतानां' साधुओं का 'एसो-एषः' इस प्रकार का 'अणुधम्मो-अनुधर्म:' परम्परा से प्राप्त श्रुतचारित्ररूप धर्म हैं ॥४१॥ अन्वयार्थ-प्राणियों की हिंसा के भय से सावध क्रिया से घृणा करने वाले उत्सम पुरुष समस्त जीवों को दंड (मारनेका) देने का त्याग करके दूषित आहार ग्रहण नहीं करते हैं । जैनशासन में साधुओं का यह परम्परागत-तीर्थकरों की परम्परा से प्राप्त श्रुतचारित्ररूप धर्म है ।।४।। 'भूयाभिसंकाए दुगुंछमाणा' या शहाय-भूयाभिसंकाए-भूताभिशङ्कया' प्राणियोनी हिंसाना नयथा 'दुगु: छमाणा-जुगुप्समानाः' सावध हियाथी ! ४२१ावा उत्तम ५३५ 'सव्वेसिं पाणाण दडं निहाय-सवेषां प्राणानां दंड निहाय' मा वान (भा२पाना) हवान वियाना त्या परीने 'तम्हा तहप्पगार-तस्मात् तथाप्रकार' तेवा ५४२ इषित मा'भुजंति-न भुजते' अड५ ४२ता नथी. 'इह-इह' मान शासनमा 'संजयाण-संयताना' साधुमान। 'एसो-एषः' सारना 'अणुधम्मो-अणुधर्मः' ५२२५२।थी प्राप्त श्रुत यात्रि३५ धमछ. ॥४१॥ અન્વયાર્થ–પ્રાણિની હિંસાના ભયથી સાવધ ક્રિયાની ઘણું કરવાવાળા ઉત્તમ પુરૂષે સઘળા અને દંડિત કરવાને (મારવાને) ત્યાગ કરીને દૂષિત આહાર ગ્રહણ કરતા નથી. જૈન શાસનમાં સાધુઓને આ પરમ્પરાગતતીર્થકરાની પરંપરાથી પ્રાપ્ત કૃત ચારિત્ર રૂપ ધર્મ છે. થાપા For Private And Personal Use Only Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयाबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आईकमुने!शालकस्य संवादनि० ६५३ टीका-आर्द्रकः पुनरप्याह-मो भिक्षो ! 'भूयाभिसंकाए' भूताभिशङ्कयाभूतानां जीवानां विराधनभयेन 'दुगु छमाणा' जुगुप्समाना:-सावद्याऽनुष्ठानेन कर्मबन्धो भवतीति तत्र धृणां कुर्वन्तः साधवः 'सव्वेसि पाणाणं दंडं निहाय' सर्वेषामे केन्द्रियादि प्राणानां दण्डं निहाय-सर्वप्राणिनां वधं परित्यज्य तहप्पगारं' तथापकारम्-आधाकर्मादिदोषदुष्टमाहारम् । 'तम्हा' तस्मात् कारणात् 'ण भुति' न भुञ्जते । इह-आहे तशासने संजयाण' संयतानाम्-साधूनाम् 'एसोऽणुधम्मो' एषोऽनुधर्म:-अयमेवाऽनुधर्मः-सत्पुरुषाणां धर्मो मोक्षमापकश्च, सर्वज्ञमत मनुवर्तमानाः जीववधं परित्यज्याऽशुद्धमाहारमपि न गृह्णन्ति मांसं तु सर्वदेव न सेवन्ते । अयं धर्मः पूर्व तीर्थकरेण प्रवर्तितः स्वयमनुष्ठितश्च, तदनन्तरं तदनुया. यिमिर्गणधरादिभिरनुष्ठितः । अतोऽस्य अनुधर्म इति नाम संवृत्तम् । अयमेव धर्मों मोक्षपदो मार्ग इति ॥४१॥ _____टीकार्थ--आर्द्रककुमार पुनः कहते हैं-हे शाक्यभिक्षो ! भगवान् श्री महावीर स्वामी के साधु प्राणियों को विराधना न हो जाय इस आशंका से, सावद्य कर्म से घृणा करते हैं, क्योंकि सावध कर्म, कर्मपन्ध का कारण है। वे एकेन्द्रिय आदि सभी प्राणियों की हिंसा का त्याग करते हैं। इसी कारण आषाकर्म तथा उद्देशिक आदि दोषों से दुषित आहार का उपभोग नहीं करते हैं। आहत शासन में साधुओं का यही अनुधर्म है और यही मोक्ष प्राप्त कराने वाला है। तात्पर्य यह है कि ज्ञातपुत्र भगवान् श्री महावीर स्वामी के मत का अनुसरण करने वाले साधुजन जीवहिंसा का त्याग करके अशुद्ध आहार भी ग्रहण नहीं करते। मांस का तो कभी सेवन ही नहीं करते। इस धर्म की पहले तीर्थकर ने प्रवृत्ति की, स्वयं इसका आचरण किया। अतएव यह 'अनुधर्म' कहा गया है । यही धर्म मोक्ष का मार्ग है ॥४१॥ ટીકાર્યું–આર્દકકુમાર ફરીથી કહે છે કે-હે શાકય ભિક્ષુક ભગવાન શ્રી મહાવીર પ્રભુના સાધુ પ્રાણિયાની વિરાધના ન થઈ જાય આ શંકાથી સાવદ્ય કર્મની ઘણું કરે છે. તેઓ એકેન્દ્રિય વિગેરે બધાજ પ્રાણિની હિંસાને ત્યાગ કરે છે. તેથી જ આધાકમ તથા શિક વિગેરે દેથી દષવાળા આહારને ઉપભોગ કરતા નથી. આ જૈનશાસનમાં સાધુઓને આજ અનુપમ છે. અને આજ ધર્મ મોક્ષ પ્રાપ્ત કરાવવાવાળે છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે-જ્ઞાતપુત્ર ભગવાન શ્રી મહાવીર સ્વામીના મતને અનુસરવાવાળા સાધુઓ જીવહિંસાને ત્યાગ કરીને અશુદ્ધ આહાર પણ ગ્રહણ કરતા નથી. માંસનું સેવન તે કયારેય કરતા નથી આ ધર્મની પ્રવૃત્તિ - For Private And Personal Use Only Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूलम्-निगंथधम्ममि इमं समाहि, . अस्सि सुठिच्चा अणीहे चरेज्जा। बुद्धे मुंणी सीलगुणोववेए, अच्चत्थं तं पाउणई सिलोगं ॥४२॥ छापा-निर्ग्रन्थधर्मे इमं समाधि मस्मिन् सुस्याऽनीहश्चरेत् । बुद्धो मुनिः शीलगुणोपपेतोऽत्यर्थतया पाप्नोति श्लोकम् ॥४२ । अन्वयार्थः-(असि निग्गंयधम्ममि) अस्मिन् निर्ग्रन्थधर्मे-मौनीन्द्रप्रवचने (इमं समाहि) इमं समाधिम्-आहारपरिशुद्धिरूपं समाधिम् (मुठिच्चा) सुस्थायमुविधाय स्थितः सन् (अगीहे चरेज्जा) अनीहः-मायारहितः सन् चरेत् (बुद्धे निग्गंध धम्ममि' इत्यादि। शब्दार्थ-'निग्गंधधम्ममि-निर्ग्रन्थधर्मे' इस निर्गन्ध धर्म में 'इमं समाहि-इमं समाधि' आहार विशुद्धिरूप इस समाधि में 'सुठिच्चासुस्थाय' स्थित होकर 'अणिहे चरेजा-अनीहश्चरेत् माया से रहित होकर विचरण करे। 'बुद्धे मुगी-बुद्धो मुनिः' ज्ञानवान मुनि 'सीलगुणोववेएशीलगुणोपपेत:' शीलगुण से युक्त होता है और 'अच्चत्थं-अत्यर्थतया' अधिक रूप से 'सिलोग पाउणइ-श्लोकं प्रामोति' सर्वदा कीर्ति -प्रशंसा प्राप्त करता है ॥४२॥ अन्वयार्थ--निग्रन्यधर्म में आहारविशुद्धि रूप इस समाधि में भली भांति स्थित होकर मायारहित विचरण करे। ऐसा मुनि शील गुण से પહેલાં તીર્થકરે કરી હતી, પતે તેનું આચરણ કર્યું તેથી જ આ “અનુપમ કહેલ છે. આ ધર્મ જ મોક્ષ પ્રાપ્ત કરાવવાવાળે છે. ૪૧ 'निग्गंथधम्मंमि' प्रत्यादि सन्हा -'निग्गयधम्म मि-निम्रन्थधमें' मा नि-५ मा 'इम समाहि-इदं समाधि' भाडा२ विशुद्धि ३५ । समाधिमा 'सु ठिच्चा-सुस्थाय' -स्थित थन 'अणिहे चरेज्जा-अनीहश्चरेत्' भायाथी २खित धन विय२५ ४२. 'बुद्धे मुणी-बुद्धो मुनिः' ज्ञानवान् भुनि 'सीलगुणोववेए-शीलगुणोपपेतः' मेवा भुनि la Yथी युत थाय छे. अने 'अच्चत्थं-अत्यर्थतया' मधि:३५थी 'सिलोग पाउणइ-लोकं प्राप्नोति' साति-प्रशसा प्राप्त २ . ॥४२॥ અન્વયાર્થી—નિન્ય ધર્મમાં આહાર વિશુદ્ધિરૂપ આ સમાધિમાં સારી તે સ્થિત રહીને માયા રહિત વિચરણ કરવાવાળા મુનિ શીલ ગુણથી યુક્ત For Private And Personal Use Only Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयाबोधिनी टीका हि.भु. अ. ६ आईकमुने!शालकस्य संवादनि० ६५५ मुणी) बुद्धो मुनिः (सीलगुणोववेए) शीलगुणोपपेतः (अच्चत्थं) अत्यर्थनया-अतिशयेन (तं सिलोगं) तत् श्लोकम्-सर्वदा प्रशंसाम् (पाउणइ) प्राप्नोति । ४२।। टीका--'अस्सि निगंयधम्ममि' अस्मिन् निग्रन्थधर्मे-श्रीमहावीरमति पादितधर्मे स्थितः पुरुषः-तन्मतमनुवर्तमान इत्यर्थः । 'इमं समाहि' इम-पूर्वोक्तं समाधिम्-आहारपरिशुद्धिरूपाम् 'मुठिच्चा' मुस्थाय सम्यग् रूपेग स्थिस्वा-सम्पक स्थितः सन् 'अणीहे चरेज्जा' अनीहश्वरेत्-मायारहितो भवन् संयमाऽनुष्ठान कुर्यात् बुद्दे मुणी' बुद्धो मुनिः-सर्वज्ञप्रतिपादितधर्माचरणात् सम्पाप्तसकलविषयक ज्ञानवान् ‘सीलगुणोरवेए' शीलेन-गुणादिना चोपेतः-युक्तः 'अच्चा अत्यर्थतम -अतिशयेन त सिलोग पाउाई तत् श्लोकं प्राप्नोति-सर्वदा प्रशंसा लभते ॥४२॥ __ बौद्ध भिक्षु निराकृत्य अग्रे चलितः ततो मार्गे वेदवादिनो ब्राह्मणा मिलितास्तैः कथितम्, भोः सम्यक त्वया कृतं यदिमे बौद्धाः निराकृताः, मम मतं शृणुतबाह-'सिणायगाणं' इत्यादि। मूलम्-सिंणायगाणं तु देवे सहस्से, जे भोजए णियए माहणाणं । ते पुन्नैखंधं सुमहं जैणित्ता, भवंति देवी इति वेयवाओ॥४३॥ युक्त होता है और अत्यन्त कीर्ति-प्रशंसा प्राप्त करता है ॥४२॥ .. टीकार्थ--निर्ग्रन्धधर्म अर्थात् भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित धर्म में स्थित पुरुष इस पूर्वोक्त समाधि को प्राप्त करके इस धर्म में सम्यक् प्रकार से स्थित होकर माया रहित विचरण करे, संयम का अनुष्ठान करे । सर्वज्ञ प्रतिपादित धर्म का आचरण करके सब विषयों का ज्ञान प्राप्त करने वाला मुनि शील और गुणों से युक्त होकर प्रशंसा प्राप्त करता है ।।२।। થાય છે. અને અત્યંત કીતિ અને પ્રશંસા પ્રાપ્ત કરે છે. માંકરા ટીકાર્યું–નિગ્રંથ ધર્મ અર્થાત્ ભગવાન મહાવીરે પ્રતિપાદન કરેલ ધર્મમાં સ્થિત રહેલ પુરૂષ આ પૂર્વોક્ત સમાધિને પ્રાપ્ત કરીને આ ધર્મમાં સારી રીતે સિથત થઈને માયા રહિત વિચરણ કરે, સંયમનું અનુષ્ઠાન કરે. સર્વ પ્રતિપાદન કરેલ ધર્મનું આચરણ કરીને બધા વિષયનું જ્ઞાન પ્રાપ્ત કરવાવાળા મુનિ શીલ અને ગુણેથી યુક્ત થઈને પ્રશંસા પ્રાપ્ત કરે છે. જરા For Private And Personal Use Only Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतागसत्रे - . छाया-स्नातकानां तु द्वे सहस्रे ये भोजयेयु नित्यं ब्राह्मणानाम् । ते पुण्यस्कन्धं सुमहज्जनित्वा भवन्ति देवा इति वेदनादः ।.४३॥ - अन्वयार्थः- (जे दुवे सहस्से) ये पुरुषाः वें सहस्र (सिणायगाणं) स्नातकानाम् वेदाऽध्ययनशौचावारस्नानब्रह्मचर्या दपरायणानाम् (माहणाणं) ब्राह्मणानाम् (णियए भोयए) नियं-प्रतिदिनं भोजयेयुः-भोजनं कारयेयुः (ते) ते (सुमहं) सुमहान्तम् (पुन्नबंध) पुण्यस्कन्धम्-पुण्यानां राशिम् (जणित्ता) जनित्वा समु. त्पाध (देवा भवंति) देवा भवन्ति (इति वेयवाओ) इति-वेदनादः, वेदे इत्यं इस प्रकार बौद्ध भिक्षु का निराकरण करके मुनि आर्द्रककुमार आगे चले तो मार्ग में वेदवादी ब्राह्मण मिल गए। वे बोले आपने बौद्धों के मत का निराकरण किया सो ठीक किया । हमारा मत सुनिए । यही कहते हैं-'सिणायगाण' इत्यादि। शब्दार्थ- ब्राह्मण कहते हैं-'जे सिणायगाणं-ये स्नातकानां' जो वेद के अध्ययन शौचाचार, स्नान, एवं ब्रह्म वर्य में परायण 'दुवे सहस्सेद्वे सहस्रे' दो हजार 'माहणाणं-ब्राह्मणानां ब्राह्मणों को 'णियए भोयएनित्यं भोजयेत्' प्रतिदिन भोजन कराता है 'ते-ते' वे 'सुमहं-सुमहत्' महान् 'पुन्नखधं-पुण्यस्कन्धं पुण्यस्कं । 'जणित्ता-जनित्वा' उपार्जन करके देव होते हैं 'इति वेयवानो-इतिवेदवादः' ऐसा वेद में कथन है ॥४३॥ अन्वयार्थ-ब्राह्मण कहते हैं-जो पुरुष प्रतिदिन वेद के अध्ययन, शौचाचार स्नान एवं ब्रह्मचर्य में परायण दो हजार ब्राह्मणों को भोजन આ પ્રમાણે બૌદ્ધ ભિક્ષુનું નિરાકરણ કરીને મુનિ આર્દક કુમાર આગળ ચાલ્યા તે માર્ગમાં તેમને વેદ ધર્મનું આચરણ કરનાર બ્રાહ્મણ મળ્યા તેમણે કહ્યું કે-આપે બૌદ્ધોના મતનું ખંડન કર્યું તે યોગ્ય જ કરેલ છે. અમારે भत inो मे ४ ठे-'सिणायगाणं' ४त्याह हाथ-ग्राम। छ है-'जे सिणायगाण-ये स्नातकानां वेहना मध्ययन, शीयाया२, स्नान, भने ब्रह्मय मा ५२।५५ 'दुवे सहस्से-द्वे सहस्रे' M२ 'माहणाण-ब्राह्मणानां ब्राह्मणाने 'णियए भोयर-नित्यं भोजयेत' ६३. शल सासन शवे छे. 'ते-ते' तेमा 'सुमह-सुमहत्' भन् 'पुण्णखंध-पुण्यस्कन्ध' ५९य१४५ 'जणित्ता-जनित्वा' प्रासरीने व थाय छ 'इति वेय. वाओ-इति वेवादः' मा प्रभावमा प्रयन रे छे. ॥४॥ અન્વયાર્થ–બ્રાહ્મણે કહે છે-જે પુરૂ દરેજ વેદાધ્યયન કરવામાં, શૌચાચારમાં, સ્નાન અને બ્રહ્મચર્યમાં તત્પર રહેવાવાળા બે હજાર બ્રાહાને For Private And Personal Use Only Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुनेर्गोशालकस्य संवादनि० ६५७ प्रतिपादितः, बौद्धरतखण्डनाऽनन्तरं ब्राह्ममाः ममेत्याऽऽई कमवोचन्-सम्यकृतं भवता, यदिमौ वेदवाह्यौ गोशाल कचौद्धौ पराकृतौ। किन्तु सुहृद्भवा वयं भवन्तं कथयामः-वेदबाह्यं जैनमतं भवता न सेव्यम् । त्वं क्षत्रियोऽसि-ब्राह्मणान् पूजय, यागाऽनुष्ठानं कुरु, षडङ्गवेदविदुषां शौचाचारब्रह्मवर्यस्नानपरायणानां द्वे सहस्र यो भोजयति नित्यं सः महत्पुण्यं सनुपाय स्वगै गच्छतीति वैदिकी प्रक्रियातदाज्ञा चेति ॥४३॥ टीका-सुगमा ॥४३॥ मूलम्-सिंगायगाणं तुवे सहस्सेजे भोयए णियए कुलालयाणं। सेइलोलुव संपगाढे तिवाभितापी जेरगाभिसेवी ॥४४॥ छाया-स्नातका तुि द्वे सहस्रे यो भोजयेन्नित्यं कुलालयानाम् । गच्छ त लोलुपसंमगाढे तोत्राभितापी नरकाभिसेनी ॥४४॥ कराते हैं, वे महार पुण्यस्कंध उपार्जन करके देव होते हैं। ऐसा वेद में कयद किया गया है। आशय यह है की-बौद्धमत के खंडन के अनन्तर ब्राह्मण आकर आद्रक से कहने लगे आपने अच्छा किया जो वेदवाह्य अर्थात् वेद को प्रमाण न मानने वाले गोशालक और बौद्ध को पराजित किया। लेकिन हम सब आपको कहते हैं कि आप वेदबाह्य जैनमत का सेवन न करें। आप क्षत्रिय हैं अतः ब्राह्मणों की पूजा कीजिए, यज्ञानुष्ठान कीजिए । जो षडंगवेद के विद्वान हैं, शौचाचार आदि में तत्पर रहते हैं ऐसे दो हजार ब्राह्मणों को जो प्रतिदिन भोजन कराता है, वह महान् पुण्यराशि उपार्जन करके स्वर्ग प्राप्त करता है । यह वेद की आज्ञा है।४३। टीका सुगम है ॥४३॥ ભજન કરાવે છે, તેઓ મહાન પુણ્યકંધ પ્રાપ્ત કરીને દેવ થાય છે. એમ વેદમાં કથન કરેલ છે. ૧૪ ટકાથં સુગમ છે, તેથી અલગ આપેલ નથી. - ભાવાર્થ–બદ્ધમતનું ખંડન કર્યા પછી જતા એવા આદ્રક મુનિને બ્રાહ્મણ આવીને કહે છે. તમે એ ઘણું જ ઉત્તમ કર્યું કે વેદ બાહ્ય અર્થાત્ વેદને પ્રમાણ ન માનવાવાળા ગોશાલક અને બૌદ્ધોને પરાજીત કર્યો, પરંતુ અમે બધા તમને કહીએ છીએ કે આપ વેદબાહ્ય એવા જૈન મતનું અવલખન ન કરો. આપ ક્ષત્રીય છે. અતઃ બ્રાહ્મણની સેવા કરો. યજ્ઞાનુષ્ઠાન કરે. જેઓ ષડંગ વેદના વિદ્વાને હેય. અને શૌચાચાર વિગેરેમાં તત્પર રહેવાળા એવા બે હજાર બ્રાહાને દરરોજ ભોજન કરાવે છે, તેઓ મહાન પુણ્યરાશિ પ્રાપ્ત કરીને સર્ગ મેળવે છે. આ વેદ વચન છે. પાકા सू० ८३ For Private And Personal Use Only Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५८ सूत्रकृतास्त्रे अन्वयार्थ:--(जे) य:-पुरुषः (सिणायगाणं) स्नातकानाम्-वेदविदुषाम् (दुवे सहस्से) द्वे सहस्र-सहस्रद्वयम् (णियए) नित्यम् (भोयए) भोजयेत् कथं भूतानां स्नातकानां तत्राह-(कुलालयाण) कुलालयानाम्-कुलं-क्षत्रियादि कुलं तत्राष्टन्ति यस्मात् तस्मात् तदेशाऽऽलयो पां तथाविधानाम् (से) स पुरुषः (लोलुवसंपगादे) लोलुएसंपगाढे-लोलुपैरामिप युद्धः-पक्षिभिः संप्रगाढे-व्याप्ते नरके गच्छति तथा (तिब्बाभितावी) दीवामितापी-जीवः अभितापा-दुःखं यस्य स तथा भूतः (गरगाभिसेवी) नरकाभिसेवी एवं भूतः सन् नरकं प्राप्नोतीति॥४४॥ टीका-आईका-ब्राह्मणश्चः श्रुत्वा वैदिकमनं निराकरोति-'कुलालयाणं' कुळाळयानाम् कुलं-क्षत्रियादिकुलं तत्राटनात् तदेव आलयो-निवासभूमियेषां ते 'सिणायगाण' इत्यादि। शब्दार्थ--'जे-या' जो 'कुलालयाण-कुलालयानाम्' क्षत्रिय आदि के कुलो-घरों में भटकने वाले 'सिणायगाणं-स्नातकानां वेदपाठी 'दुवे सहस्से-छे सहस्रे' दो हजार को 'णियए नित्यं नित्य 'भोजए-भोजयेत् भोजनकराना है, 'से-सः' वह पुरुष लोलुबसंपगाढे-लोलुपसंप्रगाढे' मांसगृद्ध पक्षियों से व्यात तथा 'तिव्वाभितावी-तीव्राभितापी' भयानक संतापके जनक 'गरगाभिसेवी-नरकाभिसेवी' नरक में उत्पन्न होता है।४४। - अन्वयार्थ--क्षत्रियों आदि के कुलों में भिक्षा के लिए भटकने वाले दो हजार वेदपाठी ब्राह्मणों को जो प्रतिदिन भोजन करवाता है, बा पुरुष मांस गृद्ध पक्षियों से याप्त तथा भयानक संताप के जलक नरक में उत्पन्न होता है ॥४४॥ टीकार्थ-ब्राह्मणों के वचन सुनकर आर्द्रकुमार मुनि उनका सिणायगाणं' या शाय-जे-य' र 'कुलालयाण-कुलालयानां' क्षत्रिय करना । -घशमा कटाणा 'सिणायगाण-स्नातकानाम्' वाडी-वसना२। 'दुवेसहः स्पे-द्वे महसू' में रने 'णियए-नित्यं ४२२।'भोयए-भोजयेत्' सन २३ है. 'से-सः' ते ५३५ 'लोलुयसंपगाढे-लोलुपसंप्रगाढे' भांस anel पक्षियोथी व्यात तथा 'तिव्वामितावी-तीन भितापी' य४२ सताना 'णरगाभिसेवी -नरकाभिसेवी' न२४मा पन थाय छे. ॥४४॥ અન્વયાર્થ– ક્ષત્રિ વિગેરેના ઘરમાં ભિક્ષા માટે અટન કરવાવાળા બે હજાર વેદપાઠી બ્રાહ્મણને દરરોજ જે ભેજન કરાવે છે, તે પુરૂષ માંસ લેભી પક્ષિથી વ્યાપ્ત તથા ભયંકર સંતાપ કારક એવા નરકમાં ઉત્પન્ન થાય છે.૪૪ ટીકાર્ય–બ્રાહ્મણના વચને સાંભળીને આદ્રક કુમારમુની તેઓને કહે છે For Private And Personal Use Only Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टोका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुने!शालकस्य संवादनि० ६५९ तथा, ते केवलं भोजनाद्यर्थ तत्रैव विष्ठतः अत एव कुलालयाः राजान्नमक्षकाः राजसद्मनि केतनाः ब्राह्मणास्तेषाम् 'सिणायगाणं' स्नातकानां ब्राह्मणानाम् 'जे दुवे सहस्से' यो वे सहस्र 'णियए भोयर' नित्यं भोजयेत् ‘से बोलुवसंपगाढे' स पुरुषो लोलुपसंपगाढे-मांसभक्षिपराकीर्ण नरके गच्छति। 'तिब्वाभितायी' तीवामितापी 'णरगामिसेवी' नरकाभि सेवी, तत्र-नरके भयङ्करं दुःखं सहमानो वसति । आरम्म समारम्भननितदानदोपादानरकपात इति वक्तुराशयः ॥४४॥ मूलम्-दयावरं धम्म दुगुंछमाणो, वहावहं धम्म पतलमाणो। एगपि जे भोययई असीलं,णिवोणिसंजाइ कुओ सुरेहि।४५। छाया-दयापरं धर्म जुगुप्तमानो, वधावह धर्म प्रशंसन् । एकमप्यशीलं यो भोजयति, नृपो निशां याति कुतः सुरेषु ॥४५॥ निराकरण करते हैं-कुल का अर्थ है, क्षत्रियों आदि का घर, जो भोजन के लिए उनके घरों में निवास करते हैं उन्हें 'कुलालय' कहते हैं। अर्थात् भोजन के निमित्त जो दूसरों के घर में रहते हैं ऐसे दो हजार स्नातक ब्राह्मगों को जो प्रतिदिन भोजन कराता है, वह पुरुष मांस भक्षी वज्रचंचु पक्षियों से युक्त नरक में उत्पन्न होता है। वह वहां भयानक दुःख सहन करता रहता है। आशय यह है कि आरम्भसमारंभ जनित दान के दोष के कारण दाता को नरक मे जाना पड़ता है ॥४४॥ 'दयावर धम्म दुगुछमाणा' इत्यादि। शब्दार्थ--'जे-छ।' जो राजा 'दयावरं धम्मं दुगुंछ माणा-दयापर' धर्म जुगुप्समानः' दयामय धर्म की निन्दा करता है, और 'वहावहं धम्म-वधावहं धर्म' हिंसा प्रधान धर्म की 'पसंसमाणो-प्रशंसन्' प्रशंसा करता है, ऐसे 'असीलं-प्रशील' शीलरहित अर्थात् व्रत रहित કે--કુલ એટલે ક્ષત્રિય વિગેરેના ઘર, જેઓ ભોજન માટે તેમના ઘરમાં निवास रे छ. तर 'कुलालय' ४ाय छे. अर्थात् लोन मारे माना ઘરમાં અવરજવર કરનાર એવા બે હજાર સ્નાતક બ્રહ્મને દરરોજ ભેજન કરાવે છે, તે પુરૂષ માંસ ખાનારા વજી ચાંચવાળ પક્ષિવાળા નરકમાં ઉત્પન્ન થાય છે. તે ત્યાં ભયંકર દુઃખ ભેગવે છે. કહેવાને આશય એ છે કે-આરંભ. સમારંભથી થવાવાળા દાનના દેષથી દાતાને નરકમાં જવું પડે છે. ૧૪૪ 'दयावर धम्म दुगुछमाणा' या शहाथ-'जे-यः' २ २०n 'दयावर धम्मं दुगुछमाणा-दयापर धर्म जुगुसमानः' या युत धमनी निहा छे. माने 'वहावहं धम्म वहावह धर्म' For Private And Personal Use Only Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुत्रकृताङ्गसूत्रे ___ अन्वयार्थी--(जे) या पुरुषो राजा वा (दयावरं धामं दुगुछमाणो) दयापरं धर्म जुगुप्समांनो दयामधानं धर्म-श्रुतचारित्ररूपं निन्दन (वहावहं धम्म) वधावईहिंसाकारकं धर्मम् (पसंतमाणो) प्रशंसन्-अनुमोदयन् एतादृशम् (असलं) अशीलं नितम् (एगर्मपि भोयए) एकपपि ब्राह्मण भोजयेत् सः (णियो) नृयो राजा (निसं जाइ) निशां नित्यान्धकारत्वात् निशेव निशा-जरकभूमिः तां याति-प्राप्नोति, (कुओ सुरेहिं) कुतः सुरेषु-देवलोकेषु, कयमपि देवलोकन गच्छतीत्यर्थः ॥४५॥ टीका-'जे' यो राजा-तदन्यो वा पुरुषः 'दयावरं धम्मं दुगुंछमाणो' दयापरं -दयामधानं श्रेष्ठं-जैनधर्मम् अथवा दयामधानमिति दयापरम्, 'वहावह वहावई हिंसावादसम्बलितम् 'धम्म' धर्मम् 'पसंसमाणो प्रशंसन , राजा वा-तदितरो वा 'एगमवि भोजए-एकमपि भोजयेत्' एक ब्राह्मण को भी भोजन कराता है, वह 'णिवो-नृपा' राजा 'निसा जाति-निशां याति' अन्धकारमय नरकभूमिको प्राप्त करता है 'कुओ सुरेहि-कुतः सुरेषु वह देवगति में कैसे जा सकता है ? ॥४५॥ ... अन्वयार्थ--जो राजा दयामय धर्म की निन्दा करता है और हिंसा प्रधान धर्म की प्रशंसा करता है, ऐसे शील रहित अर्थात् व्रतविहीन एक भी ब्राह्मण को भोजन कराता है, वह घोर अन्धकारमय नरक भूमि को प्राप्त होता है । वह देवगति में कैसे जा सकता है ? ॥४५॥ .. टीकार्थ-जो राजा या कोई भी अन्य पुरुष दयान पालश्रेष्ठ धर्म की या दयामय धर्म की निन्दा करता हुआ हिंसाप्रधान धर्म की प्रशंसा हिंसा प्रधान धनी 'पसंसमाणा-प्रशंसन्' प्रशसा . ॥ 'असीलंअशीलं' शास विनाना अर्थात प्रतविनाना 'एगमवि भोजए-एकमपि भोजयेत्' से प्रासपने पालन ते ‘णिदो-नृपः' in 'निसां जाइ-निशा याति' मध४।२ युक्त न२४ भूभिन प्राप्त रे . 'कुओ सुरेहि-कुतः सुरेषु' તે દેવગતિને કેવી રીતે પામી શકે ? કપા અન્વયાર્થ—જે રાજા દયામય ધર્મની નિંદા કરે છે, અને હિંસા પ્રધાન ધર્મની પ્રશંસા કરે છે, એવા શીલ રહિત અર્થાત્ વ્રત હિન એક પણ બ્રાહ્મ ને ભેજન કરાવે છે, તે ઘર અન્ધકારમય નરકભૂમિને પ્રાપ્ત કરે છે. તે દેવ ગતિમાં કેવી રીતે જઈ શકે? iાજપા ટીકાથે--જે રાજા અથવા અન્ય પુરૂષ દયાપ્રધાન શ્રેષ્ઠ ધર્મની અથવા દયા યુક્ત ધર્મની નિંદા કરતા થકા હિંસા યુક્ત ધર્મની પ્રશંસા કરે છે, તે રાજા અથવા અન્ય પુરૂષ શીલ-ગુણ વિનાના એક પણ બ્રાહ્મણને જે ષટુકા For Private And Personal Use Only Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयाबोधिनी टीका वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुनेगोशालकस्य संवादनिः ६६१ कश्चित्पुरुषः 'एगपि' एकमपि 'असीलं' अशीलं शीलहीनं ब्राह्मणम् 'भोययई' भोजयति षट्कायजीवानुपमर्दयन् भोजयति सः 'णियो' नृशे राना 'णिसं' निशामन्ध. कारावृतां नरकभूमिम् 'जाई' याति-गच्छति। 'सुरेहिं कुभो' सुरेषु कुतो-देवलोकेषु कथमपि न गच्छति, 'एतेन शीलरहितमन्यमेकमपि ब्राह्मणं यो भोजयति स तज्ज. नितपापेनाऽवश्रमन्धतमनरकगन्ता भवति किम्पुनः सहस्रद्वय ब्राह्मणभोजनात् । ततश्च तत्पुण्यबलात्स्वर्गगमनाशावेदविषयिणी सुतरामधापातिनीति भावः॥४॥ मूलम्-दुहओ वि धम्ममि समुट्रिया, अस्सेि सुठिच्चा तह एसकाले। आयारसीले बँइएह नाणी, संपरायमि विसेसमस्थि ॥४६॥ छाया-द्विधाऽपि धर्म समुत्थिती अस्मिन् सुस्थितौ तथैष्यकाले। ___आचारशीलइहोक्तो ज्ञानी न संपराये विशेषोऽस्ति । ४६॥ करता है, वह राजा या अन्य पुरुष एक भी शीलरहित ब्राह्मण को यदि षदकाय की विराधना करता हुआ भोजन कराता है तो नरक में जाता है। उसकी देवगति में उत्पत्ति तो हो ही कैसे सकती है? ___ जय एक भी शीलरहिर ब्राह्मण को भोजन कराने से नरक की प्राप्ति होती है तो दो हजार ब्राह्मणों को भोजन कराने से नर कप्राप्ति होना तो स्वतः सिद्ध है। उसे कहने की आवश्यकता ही नहीं रहती। अत एव इस प्रकार से स्वर्गपाने की अभिलाषा स्वतः नीचे गिराने वाली है।४५। 'दुहवो वि धम्ममि' इत्यादि। . शब्दार्थ--'दुहओवि-द्विधा अपि' दोनों सांख्य और जैन 'धम्म मि -धर्मे' धर्म में 'समुट्टिया-समुत्थितो' 'सम्यक् प्रकारसे स्थित है 'तह યની વિરાધના કરતા થકા ભોજન કરાવે છે તે નરકમાં જાય છે. તેના દેવ ગતિમાં ઉત્પત્તિ તે કેવી રીતે થઈ શકે ? જે એક પણ શિવ વિનાના બ્રાહ્મણને ભોજન કરાવવાથી નરકની પ્રાપ્તિ થાય છે, તે બે હજાર બ્રાહ્મણોને ભોજન કરાવવાથી નરક પ્રાપ્તિ થાય તે તે સ્વતઃ સિદ્ધ છે. તે કહેવાની જરૂર જ નથી. તેથી જ આવા પ્રકારથી સ્વર્ગ પામવાની ઈચ્છા આપોઆપ નીચે પાડવા વાળી જ છે. ૪પ 'दुवो वि धम्मंमि' इत्यादि शाय-दुहवों वि-द्विधा अपि' सांध्य म न मन्ने 'धम्म मि-धौ 'समुढ़िया-समुस्थितौ' सारी रीत प्रवृत्त छ. 'तह-तथा'. तथा 'एस काले-ध्यकाले For Private And Personal Use Only Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतागसूत्रे . ___ अन्वयार्थ:-'दुहओ वि) द्विधा अपि-द्वावापे आवां सांख्यजैनी (धम्ममि) धर्मे (ममुढ़िया समुत्थितौ (तह) तथा (अस्सि) अस्मिन् धर्मे (मुट्ठिया) सुस्थितौ (तह एसकाले) तथा एध्यकाले वर्तमानभूतभविष्यदात्मककालत्रयेऽपि (आयारसीले) आचारशील:-आचारयुक्त एव पुरुषः आवयोर्दशने (नाणी बुइए) ज्ञानी उक्त-कथितः तथा (संपरायंमि ण विसेसमस्थि) संपराये-परलोके विशेषो भेदो नास्ति ॥४६॥ ___टीका-भाकोऽप्रे गच्छति मार्गे पुनरपि एको दण्डी समागत्य आर्द्रकमुनि कथी -भोः आई कमुने ! 'दुहओ वि' द्वावपि आवाम् ‘धम्मंमि' धर्फे 'समुट्ठिया' एसकाले-तथा एष्यत्काले भूत वर्तमान काल में 'एवं-एवं' एवं भविष्य काल में 'आयारसीले-आचारशील' आचारशील पुरुष ही हम दोनों के दर्शन में 'नाणी बुइए ज्ञानी उक्तः' ज्ञानी कहा गया है तुम्हारे और हमारे मत में 'संपरायमि-संपराये' परलोक के संबंध में भी 'ण विसेसमस्थि-न विशेषोऽस्ति' विशेष भेद नहीं है।४६। ___ अन्वयार्थ-हम दोनों (सांख्य और जैन) के धर्म में प्रवृत्त हैं तथा धर्म में सम्पक प्रकार से स्थित हैं, भूत वर्तमान एवं भविष्यकाल में आचारशील पुरुष ही हम दोनों के दर्शन में ज्ञानी कहा गया है । तुम्हारे और हमारे मत में पर लोक के संबंध में भी विशेष भेद नहीं है ॥४६॥ ____टीकार्थ-पाई ककुमार जप ब्राह्म गों को पराजित करके आगे घढे तो मार्ग में एकदण्डी मिल गये। उन्होंने आकर मुनि से कहा-हे आईक ! तुम और हम दोनों धर्म में समान रूप से वर्तते भूत, पतमान ने मविष्य Mi 'आयारसीले आचारशीलः' मायावान् ५३५ १४ माप! मन्नन! ४शनमा 'नाणी बुइप-ज्ञानी उक्तः' ज्ञानी वाय छ. तमा२। सने अमा२१ मतभा 'संपरायम्मि-सपराये' ५२सेना स मi ५ 'ण विसेसमस्थि-न विशेषोऽस्ति' पधारे मत नथी. ॥४६॥ અન્વયાર્થ—આપણે બને એટલે કે સાંખ્ય અને જૈન ધર્મમાં પ્રવૃત્ત છિએ તથા ધર્મમાં સમ્યક્ પ્રકારથી સ્થિત છિ એ, ભૂતવર્તમાન તેમજ ભવિષ્યકાળમાં આચાર શીલ પુરૂષ જ અમારા બનેના દર્શનમાં જ્ઞાની કહેલ છે. તમારા અને અમારા મતમાં પલેક સંબંધમાં પણ વિશેષ ભેદ નથી ૪ ટીકાઈ–ખાદ્રકકુમાર જ્યારે બ્રાહ્મણને પરાજ્ય કરીને આગળ વધ્યા તે માર્ગમાં એક દંડી મળી ગયા. તેણે આવીને આદ્રક મુનિને કહ્યું કે હે આતંક! તમે અને અમે બને ધર્મમાં સરખી રીતે વર્તવાવાળા છીએ. અને For Private And Personal Use Only Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुने!शालकस्य संवादनि० ६६३ समुत्थितौ वर्तावहे यद्यपि आय द्वौ इहलोके शास्त्ररीत्या भिन्नधर्माणावपि परलोके तुल्यधर्माणौ तथा 'अस्सि' अस्मिन् धर्मे-स्वस्वधर्मे 'सुट्टिया' सुस्थिती -सुदृढौ रह एसकाले तथा एष्यत्काले-वर्तमानभूतभविष्यदात्मककालत्रयेऽपि धर्मे एन वर्तमानौ आवां स्वः 'यारसीले नाणी बुइए' आवयो योरपि सिद्धान्ते आचारशील एव पुरुषो ज्ञानी उक्त:-कथितः, न तु-चारहीनो ज्ञानी । 'संपरा यंमि ण विसेसमत्थि' सम्पराये-परलोके न कश्चिद्विशेषोऽस्ति-आवयोम ते । अनेऽहं भत्तुल्य एव, मन्मतं शृणु-सत्वरजस्तमसः साम्यावस्था प्रकृतिः-ततो महत्तत्वं जायते- ततोऽहङ्कारस्ताः पञ्चतन्मात्राणि, एकादशेन्द्रियाणि च जायन्ते । पुरुषश्च नित्यः स्वतन्त्रश्च । अहिंसासत्यास्ते यब्रह्मपर्यापरिग्रहाः पञ्च र मेऽ तर्गता, हैं और दोनों धर्म में स्थित हैं ये ब्रह्मग तो हिंसक हैं, मगर दोनों (अपन दोनों; समान धर्म वाले हैं । हन वर्तमान, भूत और भविष्यत् तीनों कालों में धर्म में ही स्थित हैं । हम दोनों (अपनदोनो) के ही सिद्धान्त में आचारशील पुरुष ही ज्ञानी कहा गया है। जो आचार से हीन है, वह ज्ञानी नहीं माना जाता । हमारे और तुम्हारे मत में संसार और परलोक के संबंध में भी कोई विशेष मतभेद नहीं हैं । इस प्रकार मैं आपके सदृश ही हूं। मेरे मत को सुनो । वह इस प्रकार है-सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण की समान अवस्था प्रकृति कहलाती है। प्रकृति से महत्तव (बुद्धि) उत्पन्न होती है । बुद्धि से अहंकार और अहंकार से पांच तन्मात्रा उत्पन्न होते हैं और ग्यारह इन्द्रियां भी उत्पन्न होती हैं । रूप रस, गंध, स्पर्श और शब्द ये पांच આપણે બન્ને ધર્મમાં સ્થિત છીએ. આ બ્રાહ્મણે તે હિંસક છે. પણ આપણે બને સમાન ધર્મવાળા છીએ. અમે ભૂત, વર્તમાન, અને ભવિષ્ય આ ત્રણે કાળમાં ધર્મમાં જ વર્તવા વાળા છીએ આપણા બન્નેના સિદ્ધાંતમાં આચાર વાળે પુરૂષ જ જ્ઞાની કહેવાય છે, જે આચાર વિનાને છે, તે જ્ઞાની થઈ શકતે નથી, અમારા અને તમારા મતમાં સંસાર અને પરલેકના સંબંધમાં પણ કઈ વધારે મત ભેદ નથી. આ રીતે હું તમારા સમાન જ છું. મારા મતને સાંભળો. તે આ પ્રમાણે છે. સત્ર ગુણ, રજોગુણ, અને તમોગુણની સમાન અવસ્થા પ્રકૃતિ કહેવાય છે. પ્રકૃતિથી મહત્ તત્વ (બુદ્ધિ) ઉત્પન્ન થાય છે. બુદ્ધિથી અહંકાર અને અહંકારથી પાંચ તન્મ ત્રિા ઉત્પન્ન થાય છે. અને અગિયાર ઈન્દ્રિય પણ ઉત્પન્ન થાય છે. રૂપ, રસ, ગંધ, સ્પર્શ અને For Private And Personal Use Only Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६६४ सूत्रकृताङ्गसुत्रे भवन्मते पञ्चतानि नासन उत्पत्तिः । अपि तु सर्वेषामाविर्भावतिरोभाव । कारणात्मना सर्वेऽपि नित्याः, यथा भवन्मते द्रव्यरूपेण, संसारस्वरूपं मन्मतेऽपि तथैव । भवद्भिः संसारस्योत्पत्तिविनाशौ न स्वीक्रियेते, अस्माभिस्तथा मन्येते । अस्माभिरवि संसारस्याऽविर्भाव तिरोभावयोरभ्युपगतत्वात् । अत आवयोर्मतं तुल्यमेवेति मन्मतमेव भवद्भिरीि स्वीकर्त्तव्यम् । अलं महावीरोपगमनेन, उक्तञ्च पञ्चविंशतितत्रज्ञो यत्र तत्राश्रमे वसेत् । I जटी मुण्डी शिखीवाऽपि मुच्यते नात्र संशयः ॥ १ ॥ तस्मादादर्त्तव्यं मन्मतं भवद्भिरिति ॥ ४६ ॥ तन्मात्रा हैं । इनसे पांच महाभूओं की उत्पत्ति होती है । पुरुषतत्व एक, निश्थ और स्वतंत्र हैं। अहिंसा, सत्य अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच यम हैं । यही आपके मन में पांच महाव्रत कहलाते हैं । हमारे मत के अनुसार असत् कार्य की उत्पत्ति नहीं होती और सत का कभी विनाश नहीं होता, जिसे दूसरे लोग उत्पत्ति और विनाश समझते हैं, वे वास्तव में आविर्भाव और तिरोभाव ही हैं । कारण रूप से सभी पदार्थ नित्य हैं जैसे आपके मत में द्रव्य रूप से निश्य हैं। संसार का स्वरूप जैसा आप के मत में है वैसा ही हमारे मत में भी है। आप जगत् का उत्पाद और विनाश स्वीकार नहीं करते, हम भी नहीं मानते। जगत् का आविर्भाव और तिरोभाव ही हमने स्वीकार किया है । इस प्रकार जब अपका और हमारा मत समान है तो आपको શબ્દ આ પાંચ તન્માત્રા છે. આનાથી પાંચ મહાભૂતાની ઉત્પત્તી થાય છે. पुरुषतत्त्रो नित्य याने स्वतंत्र हे हिंसा, सत्य, आस्तेय; श्रह्मययं અને અપરિગ્રહ આ પાંચ યમ છે. તમારા મતમાં અનેજ પાંચ મહાત્રત કહે છે. અમારા મત પ્રમાણે અસત્ કાર્યોંની ઉત્પત્તી થતી નથી. અને સત્ કાર્યના કોઈ કાળે વિનાશ થતા નથી. જેને ખીજા લેાકા ઉત્પત્તી અને વિનાશ સમજે છે. તે વાસ્તવમાં આવિર્ભાવ અને તિભાવ જ છે કારણ કે રૂપમાં બધાજ પદાર્થો નિત્ય છે. જેમ આપના મતમાં દ્રવ્ય પણાથી નિત્ય છે, સંસારનું રવરૂપ જેમ તમારા મતમાં છે. એજ માથે અનરા મમાં છે. આપ જગત્ને ઉત્પાદ અને વિનાશ સ્વીકારતા નથી. અમે પણ તે માનતા નથી જગતના આવિ ર્ભાવ અને તિરાભાવ જ અમે સ્વકાર્યો છે. આ પ્રમાણે જયારે આપના અને અમારા મત સરખા જ છે. તે આપે અમારા મતને જ સ્વીકાર કરી For Private And Personal Use Only Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आईकमुनेगोशालकस्य संवादनि० ६६५ मूलम्-अवतरूवं पुरिसं महंतं, सणातणं अक्खयमवयं च । सवेसु भूएसु वि सवओ से, चंदो व ताराहि समत्तरूवे।४७। छाया-अव्यक्तरूपं पुरुष महान्तं, सनातनमक्षयमव्ययश्च । सर्वेषु भूतेष्वपि सर्वतोऽसौ, चन्द्र इव तारासु समरतरूपः ॥४७॥ अन्वयार्थी-(पुरिसं) पुरुषम् (अध्वत्तस्त्र) अव्यक्तरूपं वाङ्मनसाऽतीतत्वात् (महंत) महान्तं व्यापकम् (सणातण) सनातनम्-नित्यम् (अक्खयमवयं च) अक्षय मध्ययं च आह, (से) सः-जी (सव्वेसु भूयेसु वि) सर्वेषु भूतेषु (सधभो तारादि चंदो व) सर्वतः तारासु मध्ये चन्द्र इव (समत्तरूवे) समस्तरूपः-परिपूर्ण, इति ।४.91 हमारा ही मत स्वीकार करना चाहिए। महावीर के पास जाने से क्या फायदा ? हमारे यहां कहा है-पंचविंशतितत्वज्ञो' इत्यादि । - 'चाहे कोई जटा रखता हो, मस्तक मुंडाता हो या चोटी रखता हो और वह किसी भी आश्रम में क्यों न रहता हो, यदि उसने पच्चीस तत्वों के स्वरूप को जान लिया है तो मुक्ति प्राप्त कर लेता है । इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।' अतएव हमारा मत अंगीकार करलो ॥४६॥ 'अञ्चत्तरूवं' इत्यादि। शब्दार्थ-'पुरिसं-पुरुषं' पुरुष 'अव्वत्तरूवं-अव्यक्तरूपं' अव्यक्त रूप है क्यों की वह वाणी एवं मन से अगोचर है 'महंत-महान्तम्' वह व्यापक है और 'सणातणं-सनातनम्' नित्य है 'अक्खयमव्ययं च' अक्षय और अव्यय है 'से-स' वह पुरुष 'सव्वेसु भूएसुवि-सर्वेषु भूते. ध्वपि' ममस्त भूतों में भी व्याप्त है जैसे 'सव्व भो ताराहि-सर्वतः तारासु' લે જોઈએ. મહાવીરની પાસે જવાથી શું લાભ થવાનું છે? અમારામાં छ -'पंचविंशतितत्वज्ञो' त्यादि ચાહે કઈ જટારાખતા હોય, માથું મુંડાવતા હોય, અથવા ચોટલી રાખતા હોય, અને તે કોઈ પણ આશ્રમમાં કેમ ન હોય, પણ જે તેણે પચીસ ને જાણેલ હોય તે તે મુક્તિને પ્રાપ્ત કરી લે છે. તેમાં જરા પણ સંદેહ નથી. તેથી જ આપ અમારા મતને સ્વીકાર કરી લે. કદા __ 'अव्वत्तरूव' त्याह शहा- 'पुरिस-पुरुष" ५३५ 'अश्वत्तरूवं- भव्यक्तरूपम्' २०४१ ३५ 2. भ त पाए भने भनथी भगोयर छ. 'महंत-महान्तम्' ते व्या५५ छ. 'सणातणं' नित्य छे. 'अक्खयमव्वयंच' मक्षय भने १०यय 'से-मः' ते ५३५ 'सव्वेसु भूएसु वि-सर्वेषु भूतेष्वपि' सघा भूतमा ५४ या छ. २० सू० ८४ For Private And Personal Use Only Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६६६ सूत्रकृताचे टीका - वेदान्तमतं मन्यमाना आर्द्रकमेत्योक्तवन्तः - मोः ! अस्मदीयं मतमेन त्वयोपासनीयम् अस्मद्दर्शनाद् युष्मदर्शने नास्ति पार्थक्यम्, सदपि - अरपीयः प्रायः समत्वमुपेयाद - तदेव दर्शयति- 'पुरिसं' पुरुषम् - पुरि-शरीरे शेते - विद्यते इति पुरुषस्तम् | 'अव्वतरू' अव्यक्तरूपम्, अयमात्मा जीवो वाङ्मनसातीतत्वाद् अव्यक्तरूपस्तम् । 'महंते' महान्तम्- सर्वव्यापक गगनवत् । 'सणावणं' सनातनम् सर्वदा स्थायिनम् । 'अवयं' अक्षयं-क्षयवृद्धिहासादिरहितम् । 'अब्वयं च' चंदो व चन्द्र इव' 'समस्त तारामंडल में चन्द्रमा 'समसरुवे- समस्तरूप पूर्णरूप से सम्बन्ध करता है ॥४७॥ अन्य पार्थ- पुरुष अव्यक्त रूप है क्योंकि वह वाणी और मन से अगोचर है। यह व्यापक है, नित्य है, अक्षय और अव्यय है । बहू पुरुष समस्त भूतों में भी व्याप्त है जैसे चन्द्रमा सब तागाओं के साथ पूर्ण रूप से सम्बन्ध करता है ॥४७॥ टीकार्थ-- वेदान्त मत को मानने वाले आर्द्रक के समीप आकर पोले- हमारे मत की ही तुम्हें उपासना करनी चाहिए। हमारे दर्शन से तुम्हारे दर्शन में भिन्नता नहीं है। अगर कुछ है भी तो बहुत थोड़ी सी है । प्रायः समानता ही है। यह आश्मा वाणी और मन से अगोचर होने के कारण अव्यक्त है, आकाश के समान सबैपक है, सनातन अर्थात् सदैव अवस्थित रहने वाला है अक्षय अर्थात् हानि और वृद्धि रीते 'सव्वओ ताराहि चंदो व सर्वतः तारासु चन्द्र इव' सध्या तारा भडकम चन्द्रभां 'समत्तरुवे- समस्तरूपः ३ प्रा. ४७ અન્વય-પુરૂષ અવ્યક્ત રૂપ છે કેમકે તે વાણી અને મનથી અગેાચર છે. તે બ્યાપક છે. નિત્ય છે. અક્ષય અને અવ્યય છે. તે પુરૂષ સઘળા ભૂતમાં–પ્રાણિયામાં પણ વ્યાપ્ત છે. જેમકે ચંદ્રમા બધા તરાઓની સાથે પૂર્ણપણે સંધ કરે છે. ૪છા ટીકા-વેદાન્ત મતને માનવા વાળાએાએ આદ્રક મુનિ પાંસે આવીને કહ્યું કે-તમારે અમારા મતને જ રવીકાર કરવા જોઇએ, અમારા અને તમારા દન શાસ્ત્રમાં ભિન્ન પણું નથી. જો કેઇ જુદાપણુ· હોય તે તે ચેડા પ્રમાણમાં જ જુદા પણું છે. પ્રાયઃ સરખાપણું જ છે. આ આત્મા વાણી અને મનથી આગે!ચર હાવાથી અવ્યક્ત છે. અ કાશની જેમ સ વ્યાપક છે. સનાતન અર્થાત્ હમેશાં અવસ્થિત રહેવાવાળે છે. અક્ષય અર્થાત્ ક્ષય વિનાના હાનિ અને વૃદ્ધિ તથા દ્વાસ વિનાના છે તેના કાઇ પશુ For Private And Personal Use Only Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आद्रकमुनेगोशालकस्य संवादनि० ६६७ अव्ययं च-व्ययो विनाशस्तद्रहित सर्वदा नित्यमाह इति शेषः । 'से' स आत्मा जीवः 'सव्वेमु भूपसु वि' सर्वेषु भूतेष्वपि 'सयो' सर्व :-सबाह्याभ्यन्तररूपेण सर्वभूतेषु तिष्ठति सामस्त्येन। 'ताराहि' तारामु-नक्षत्रमध्ये 'चन्दो व' चन्द्र इच 'समत्तरूवे' समस्तरूपः-परिपूर्णः, यथा-चन्द्रः सर्वासु तारासु सम्बद्ध एव, तथा-जीवोऽपि प्रकाशमानत्वाद् व्यापकत्वाञ्च सर्वत्र सर्वदा विद्यमान एव । आवयोर्मत सदसदूपमे तथाऽपि अस्मन्मते जीवस्य स्वरूपं विविच्य प्रदर्शितं न तथा आईतदर्शने तस्मात् अस्मन्प्रतमेव अनुवर्तस्वेति भावः ॥४७॥ मूलम्-एवंण मिज्जंतिण संसरती, ण माहणा खत्तियवेसपेसा। कीटा य पक्खी यसरीसिवाय, नराय सव्वे तह देवलोगा।४८॥ छाया-एवं न मीयन्ते न संसरन्ति न बाह्मणक्षत्रियवैश्यप्रेष्याः । कीटाश्च पक्षिणश्च सरीसृपाश्च नराश्च सर्वे तथा देवलोकाः॥४८॥ तथा हास से रहित है । उसका कभी व्यय (विनाश) नहीं होता। वह आत्मा सभी भूतों में बाह्य और आभ्यन्तररूप से व्याप्त है जैसे चन्द्रमा समस्त ताराओं से सम्बद्ध है, उसी प्रकार आत्मा भी प्रकाशमान और व्यापक होने से सर्वत्र और सर्वदा विद्यमान ही रहता है। आपका और हमारा मत सत्-असत् रूप है, तथापि हमारे मत में जीव का स्वरूप जैसा विवेचन करके दिखलाया गया है, वैसा आहेतदर्शन में नहीं बतलाया गया। अतः आप हमारे मत को स्वीकार करलो ॥४७॥ 'एवं ग मिति' इत्यादि । शब्दार्थ-एवं-एवम्' इस प्रकार आपके मतको स्वीकर करलेने से વખતે વ્યય (વિનાશ) થતું નથી. તે આત્મા બધાજ ભૂતેમાં બાહ્ય અને આત્યંતર પણુથી વ્યાપ્ત છે. જેમ ચંદ્રમા સઘળા તારાઓમાં પૂર્ણ રૂપથી પ્રકાશે છે તે જ રીતે આત્મા પણ પ્રકાશમાન અને વ્યાપક હેવાથી સર્વ અને સર્વદા વિદ્યમાન જ રહે છે. - તમારે અને અમારે મત સત્ અસત્ રૂપ છે. તે પણ અમારા મતમાં જીવનું સ્વરૂપ જે પ્રમાણે વિવેચન કરીને બતાવવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણે અહંતના દર્શનમાં કહેલ નથી. તેથી આપ અમારા મતને જ સવીકાર કરી તેજ ઉત્તમ છે. ૪૭ 'एवं ण मिज्जति' त्याह शहा-एवं-एवम्' मा प्रमाणे आपनो मतना वी॥२ ४१ Auri For Private And Personal Use Only Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६६८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थः-(एवं) एबम्-भवन्मते (ग मिज्जति) न मीयन्ते-जीवानां मुखिस्व-दुःखित्व व्यवस्थाया अपि उपपादनं कर्तुं न शक्यते, जीवानां कूटस्थनित्यः त्वात् व्यापकत्वाच। (ण संसरंती) न संसरन्ति ते-तथा स्वकर्मप्रेरितजीवानां नाना'न मिजंति-न मीयन्ते' सुखी एवं दुःखी की जो व्यवस्था देखी जाती है, उसकी संगती नहीं हो सकती क्योंकी आपका माना हुआ आत्मा कूटस्थ नित्य, और व्यापक है। 'ण संसरंति-न संसरन्ति' अपने अपने कर्म प्रेरित जीवों का नाना गतियों में गमन और आगमन भी नहीं हो सकता क्यों को वे निष्क्रिय है 'न माहणा खत्तियवेसपेसा-न ब्रह्म गाः क्षत्रियवैश्यप्रेष्याः' ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्रका भी भेद नहीं हो सकता क्योंकि 'असंगोह्ययं पुरुषः' इस श्रुति से आत्मा एकान्त रूप से असंग कहा गया है 'कीटा य पक्खी यसरीसिवा यकीटाश्च पक्षिणश्च सरीसृपाश्च' कीट, पतंग, और सरीसृप (रेंगकर चलने वाला प्राणी) का भेद भी नहीं बन सकता क्यों की जीव एक और क्रियाहीन है 'नराय सम्वे तह देव लोगा-नराश्च सर्वे तथा देवलोकाः' मानव और देव आदि की व्यवस्था भी संगत नहीं हो सकती, क्योंकि जीव को एक क्रिया शुन्य व्यापक और निःसंग मानते हो, अतएव एकान्तवाद रमणीय नहीं है। आखिर में सभी को अनेकान्तवाद का ही शरण लेनी पड़ती है ॥४८॥ आवे तो 'न मिज्जंति-न मीयन्ते' सुभी भी बिगैरेनी २ ०२१२या हेभ. વામાં આવે છે. તેની સંગતી થતી નથી. કેમકે આપે માનેલ પુરૂષ (આત્મા) नित्य भने ०५1५४ छे. 'ण मंसरंति-न संसरन्ति' पातपाताना था પ્રેરિત નું અનેક ગતિમાં ગમન અને આગમન પણ થઈ શકતું नथी. भ. ते निय छे. 'न माहणा खत्तियवेसपेसा-न ब्राह्मणाः क्षत्रिय. वैश्यप्रेष्या:' माझए, क्षत्रिय, वैश्य भने शूना लेह ५७ नथी. उभ'असंगोह्यय-पुरुषः' मा श्रुति क्यनथी मात्मा मत ३५थी असामi मावत छ. कीटा य पक्खी य सरीसिवा य-कीटाश्च पक्षिणश्च सरीसृगध' डीट પતંગ અને સરીસ (કીને ચાલવાવાળા પ્રાણી) ને ભેદ પણ થતું નથી. કેમકે लमे मन या दिनाना छे. 'नरा य सव्वे तह देवलोगा-नराश्च सर्वे तथा देवलोकाः' भास अनेक विरेनी व्य११५९] सात यती नथी. भो જીવને એક ક્રિયા શૂન્ય વ્યાપક અને નિસંગમાને છે તેથીજ એકાન્તવાદ રમણીય નથી. આખરે બધાને અનેકાન્તવાદનું જ શરણ ગ્રહણ કરવું પડે છે. ૪૮ For Private And Personal Use Only Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुनेगोशालकस्य संवादनि० ६६९ गतिषु गमनागमनमपि न संभवति, निष्क्रियत्वात् (ण माहणा खत्तियवेसपेसा) न ब्राह्मणाः क्षत्रियवैश्यप्रेष्याः-ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्रविभागोऽपि न संभवति । (असङ्गोह्ययं पुरुषः) इत्यादि श्रुत्या जीवस्यैकान्ताऽसङ्गत्वप्रतिपादनात् । (कोटा य. पक्खी य सरीसिवा य) कोटाश्च पक्षिणश्च सरीसृपाश्च-कीटपतङ्गगतिरपि न समा. हिता भवेत् जीवस्यैकत्वात् निष्क्रियस्वाच्च । (नरा य स तह देवलोगा) नराच सर्वे तथा देवलोकाः । नराऽमरादिव्यवस्थाऽपि न संभवेत् , जीवस्यैकान्तत्वान्नि ष्क्रियत्वाद् व्यापकत्वाद् असङ्गत्वस्वीकरणाच । अतो न एकान्तवादो रमणीयः। ___अन्वयार्थ-इस प्रकार आप के मत को स्वीकार कर लेने पर सुखी दुःखी आदि की जो व्यवस्था देखी जाती है, उसकी संगति नहीं हो सकती, क्यों कि आपका माना हुआ पुरुष (आत्मा) कूटस्थ नित्य और व्यापक है । अपने अपने कर्म से प्रेरित जीवों का नाना गतियों में गमन और आगमन भी नहीं हो सकता, क्यों कि वे निष्क्रिय हैं । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद का भी भेद नहीं हो सकता। क्यों कि 'असंगोह्ययं पुरुषः' इस श्रुति में एकान्त रूप से असंग कहा गया है। कीट, पतंग और सरीसृप (रेंगकर चलने वाले प्राणी) विगेरे का भेद भी नहीं बन सकता, क्योंकि जीव एक और क्रियाहीन है। मानव और देव आदि की व्यवस्था भी संगत नहीं हो सकती, क्यों कि और जीव को एक क्रियाशून्य व्यापक और निस्संग मानते हो अतएव यह एकान्तवाद रमणीय नहीं है। आखिर सभी को अनेकान्त. वाद की शरण लेनी ही पड़ती है । ॥४८॥ અન્વયાર્થ_આ રીતે આપના મતને સ્વીકારવાથી સુખી દુઃખી વિગે. ની જે વ્યવસ્થા જોવામાં આવે છે તેની સંગતિ થઈ શકતી નથી. કેમકેઆપે માનેલ પુરૂષ (આત્મા) ફૂટસ્થ, નિત્ય અને વ્યાપક છે. પિતાપિતાના કર્મથી પ્રેરાયેલ નું અનેક પ્રકારની ગતિયામાં ગમનાગમન પણ થઈ शरी नही - लय छे. तभर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य भने शदा. हिना २ ५५ थ री नहीं है-'असंगोह्यय पुरुषः' मा श्रतिकायमा એકાન્તપણાથી અસંગ કહેલ છે. કીટ, પતંગ અને સરીસૃપ (દેડીને ચાલ. વાવાળા) વિગેરે પ્રાણીને ભેદ પણ થઈ શકશે નહીં કેમકે-જીવ એક અને ક્રિયા શન્ય છે. માનવ અને દેવ વિગેરેની વ્યવસ્થા પણ સંગત થઈ શકતી નથી. કેમકે આપ જીવને એક ક્રિયાશ્ય વ્યાપક અને નિસંગ માને છે, તેથી જ આ એકાન્તવાદ રમણીય નથી, આખર બધાને અનેકાન્તવાદનું જ શરણું શોધવું પડે છે. ૪૮ For Private And Personal Use Only Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतीशास्त्र अन्ततो गत्ता सर्वेषामनेकान्तवादः शरणम् । सांख्यवेदान्तमताऽनुयायिनमुत्तरयति भाई को मुनि:-नावयोमतं तुल्यं महदन्तरं विद्यते, भवन्त एकान्तवादिनो नाह. "न्तया । भवन्मते जीवो व्यापको नास्मन्मते तथा, भवन्मते कार्यकारणयोरेकान्तो. ऽभेदो नास्मन्मते तथा । अपि च आत्मनो व्यापकत्वे कूटस्थनित्यत्वे च-जन्ममरणस्वर्गनरकद्धयादिव्यवस्थाऽपि न घटते, अतोऽनेकान्तपक्ष एवं आदर्तव्य इति ॥४८॥ टोका-सुगमा ॥४८॥ मूलम्-लोगं अजाणित्ता इह केवलेणं, कहंति जे धम्ममजाणमाणा। पासंति अप्पाणं परं च णट्ठा, संसारघोरंमि अणोरपारे ॥४९॥ छाया-लोकमज्ञात्वा इह केवलेन कथयन्ति ये धर्मम नानानाः । - नाशयन्त्यात्मानं परश्च नष्टाः संसारघोरेऽणोरपारे ॥४॥ ... तात्पर्य--साख्य और वेदान्त मत के अनुयायियों को प्राक मुनि उत्तर दे रहे हैं। वे कहते हैं-हमारा और तुम्हारा मत समान नहीं है। दोनों में बहुत अन्तर है। जैसे आप नित्य एकान्तवादी है, वैसे हम नहीं । आपके मत में आत्मा व्यापक है हमारे मतमें नहीं । आप कार्य और कारण में एकान्त अभेद मानते हैं, हम ऐसा एकान्तवाद नहीं मानते। इसके अतिरिक्त आत्मा को व्यापक और कूटस्थ नित्य मानने पर जन्म, मरण, स्वर्ग, नरक, वृद्धि आदि की व्यवस्था भी घट नहीं सकती। अतएव अनेकाननवाद का ही आदर करना चाहिए ॥४८॥ टीका सुगम है।॥४८॥ તાત્પર્ય આ કથનનું એ છે કે એ વેદાન્ત મતના અનુયાયિઓને આદ્રકમુનિ ઉત્તર આપતાં કહે છે કે-અમારો અને તમારો મત સરખે નથી. આપણા બનેના મતમાં ઘણું મટે તફાવત છે. જેમ આ૫ સદા એકાતવાદી છે, તેવા અમે એકાન્તવાદી નથી. આ કાર્ય અને કારણમાં એકાન્ત રીતે ભેદ માનતા નથી પણ અભેદ માને છે. અમે તેમ એકાન્તવાદને માનતા નથી. આ શિવાય આત્માને વ્યાપક અને ફૂટસ્થ નિત્ય માનવાથી જન્મ, મરણ, સ્વર્ગ, નરક, વધવા ઘટવા વિગેરેની વ્યવસ્થા ઘટી શકતી નથી. તેથી જ અનેકાન્તને જ આદર કરવો જોઈએ૪૮ ટીકા સરળ છે.' For Private And Personal Use Only Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. शु. अ. ६ आर्द्रकमुनेगोशालकस्य संवादनि० ६७४ अन्वयार्थः-(इह लोग केवलेणं अजाणित्ता) इह लोक केवले नामा अखं सर्वतः परिदृश्यमानं सूक्ष्मस्थूलस्थावरजङ्गमादिलोक चतुर्दशरज्ज्वात्मक केवळज्ञानेन अज्ञात्वा, (जे अनागमाणा) ये पुरुषा अजानानाः (धम्म कति) धर्म कथयन्ति-उपदिशन्ति । ते अज्ञानिनः (गट्ठा) स्वयं नष्टाः (अपाणं) स्वास्मानम् (परं च) परश्च (अगोरपारे घोरंमि संसारे) अणोरपारे-आघन्तरहिते घोरे संसारे भयङ्करेऽतिदुस्तीर्णे (णासंति) नाशयन्ति-स्वयं नष्टाः परानपि नाशयन्ति । न यो हानी स वस्तुस्वरूपं न जानाति, केवलीभगवस्तीर्थकरएन । स च केवली 'लोग अजाणित्ता'. इत्यादि। शब्दार्थ-इह लोग केवलेणं अजाणित्ता-इह लोकं केवलेन अज्ञात्वा' इस स्थावर जंगम चौदह राजू परिमित लोकको केवल ज्ञान के द्वाराविना जाने 'जे अजाणमाणा-ये अजानानाः' विना जाने जो अज्ञानी पुरुष धम्मं कहंति-धर्म कथयन्नि' धर्म का उपदेश करते हैं वे 'अणोर. पारे घोरंमि संसारे-अणोरगरे घोरे संसारे' इस आदि और अंतरहित अपार एवं घोर संसार में 'अप्पाणं-नासंति-आत्मानं नाशयति' स्वयं नष्ट होते हैं और 'परंच परश्च' दूसरों को भी 'णासंति-नाशयन्ति' नष्ट करते हैं ॥४९॥ ___ अन्वयार्थ -इस स्थावर और जंगम-त्रम या चौदह राजू परिमित लोक को केवलज्ञान के द्वारा विना जाने जो अज्ञानी पुरुष धर्म का उपदेश करते हैं, वे इस घोर संसार में स्वयं नष्ट होते हैं और दूसरे को भी नष्ट करते हैं ॥४९॥ ___ भावार्थ- जो ज्ञानी नहीं है वह वस्तुस्वरूप को सम्यक् प्रकार 'लोग अजाणित्ता' त्यादि शार्थ -इह लोग केवलेण अजाणित्ता-इह लोकं देवलेन अज्ञात्वा' । સ્થાવર અને જગમ–ત્રસ વિગેરે ચૌદ રાજુ પ્રમાણવાળા લેકને કેવળજ્ઞાન દ્વારા या विना जे अजाण माणा-ये अनानानाः' एय! विना ने अज्ञानी ५३५ 'धम्म कह ति-धर्म कथयन्ति' मना ५३ सा छे. तसा 'अणोरपारे घोरंमि संसारे-अणोरपारे घोरे संसारे' या माहिमतति अपार घार सेवा संसारमा 'अप्पाणं नासति-आत्मान नाशयन्ति' पोते ॥श मे छे. अने 'पर'च-परश्च' भीनयाने। ५ 'नाति-नाशयन्ति' नारा ४२ छे. અન્વયાર્થ–આ સ્થાવર અને જંગમ-ત્રસ અથવા ચૌદ રાજુ પ્રમાણવાળા લેકને કેવળજ્ઞાન દ્વારા જાણ્યા વિના જે અજ્ઞાની પુરૂષ ધર્મને ઉપદેશ કરે છે. તે આ ઘર સંસારમાં પિતે નષ્ટ થાય છે અને બીજાને પણ નષ્ટ કરે છે. રાજા ભાવાર્થ-જે જ્ઞાની હતા નથી, તે વસ્તુ વરૂપને સારી રીતે સમજી For Private And Personal Use Only Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६७२ सुत्रकृताङ्गसूत्रे दुपदिष्ट एव धर्मः संसारपारायणसमर्थः । तदन्यो मार्गोऽनर्थाय एव केवलम् । अतो पो न केवली-न वा तदुपदिष्टं धर्मे श्रद्दधाति स न धर्मोपदेशयोग्यः । स तु - स्वयं नष्टोऽभ्थानपि पातयितुं यतते ॥ ४९ ॥ पुनरप्याह आर्द्रकः - 'लोयं विजाणंति' इत्यादि । मूलम् - लोयं विजाणंतीह केवलेणं, पुत्रेण नाणेण समाहिजुत्ता । धम्मं समत्तं च केंहति जे उं, तारंति अध्याणं परं चै तिनी । ५० । छाया - लोक विजानन्तीह केवलेन पूर्णेन ज्ञानेन समाधियुक्ताः । धर्मं समस्तं कथयन्ति ये तु वारयन्त्यात्मानं परश्व तीर्णाः ॥ ५०॥ .से नहीं जानता । केवली भगवान् ही वस्तुस्वरूप के ज्ञाता होते हैं, अतएव उनके द्वारा उपदिष्ट धर्म हो संसार से पार उतारने में समर्थ है। उससे भिन्न जो मार्ग है वह अनर्थ का ही कारण है। अतएव जो स्वयं केवली नहीं है या केवली के द्वारा उपदिष्ट धर्म पर श्रद्धा नहीं रखता है, वह धर्मोपदेश के योग्य नहीं है । वह तो स्वयं नष्ट है और दूसरों को भी नष्ट करने का प्रयत्न करता है ||४९ || टीका सुगम है ॥ ४९ ॥ आर्द्रक पुनः कहते हैं- 'लोयं विजाणंतीह केवलेणं' इत्यादि । शब्दार्थ - 'जे उ-ये तु' जो पुरुष 'समाहिजुत्ता-समाधियुक्ताः' समाधि से युक्त है तथा 'केवलेणं- केवलेन' केवलज्ञान के द्वारा 'लोयं'लोकं' समस्त लोकको 'विजाणंति-विजानन्ति' जानते हैं और जानकर 'पुन्नेण नाणेण' पूर्णेन ज्ञानेन' पूर्णज्ञान से 'इह समत्तं - इह समस्तं ' શકતા નથી. પ્રભુશ્રી કેવલી ભગવાન જ વસ્તુ સ્વરૂપને જાણનારા હોય છે. તેથી જ તેઓએ ઉપદેશેલ ધર્મજ સ'સારથી પાર ઉતારવામાં રામ છે, તેનાથી બીજો જે માર્ગ છે, તે અનનું જ કારણ છે. તેથી જ જે પૈાતે કેવળજ્ઞાની નથી. અથવા કેવળ જ્ઞાની દ્વારા ઉપદેશ કરવામાં આવેલ ધર્મ પર શ્રદ્ધા રાખતા નથી.તે ધર્મોપદેશને ચેગ્ય નથી. તે તે પેાતે નાશ પામેલ જ છે. અને ખીજાઓને નાશ કરવાના પ્રયત્ન કરે છે. જા આ ગાથાને ટીકા સરળ હાવાથી અલગ આપેલ નથી. ૫૪૯ના आर्द्र भुनि इरीधी उड़े छे 'लोयं विजाणंतीह केवलेणं' त्यिाहि शब्दार्थ' - 'जे उ-ये तु' ने ५३५ ' समाहिजुत्ता- समाधियुक्ताः' समाधिथी युक्त छे, तथा 'केवलेणं - केवलेन' ठेवण ज्ञान द्वारा 'लोयं लोकं' समस्त सोने 'विजाणंति - विजानन्ति' लये छे. सने लाखीने 'पुन्नेण णाणेण-पूर्णेन ज्ञानेन' पू ज्ञानथी 'इह समत्तं - इह समस्तं ' मा बाइमां स'यू' 'धम्म' कहति-धर्म' कथयन्ति ' For Private And Personal Use Only Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. म. ६ आर्द्रकमुनेगोशालकस्य संवादनि० ६७३ .. अन्वयार्थ:-(जे उ) ये तु पुरुषाः (समाहिजुत्ता) समाधियुक्ताः. (केवलेणं) केवटेन ज्ञानेन (लोय) लोकम्-चतुर्दशरज्ज्यात्मकम् (विजाणतीह) इह विजानन्ति तया-(पुन्नेण नाणेग) पूर्णेन ज्ञानेन (समत्त) समस्तम्-सम्पूर्णम् (धम्म) धर्म श्रुतचारित्रलक्षणम् (कहंति) कथयन्ति, ते (तिन्ना) संसारातीर्णाः (अप्पाणं परं च तारांति) आत्मानम्-स्वात्मानं परश्च तारयन्ति संसारादिति ॥५॥ टीका-मुनिराईकोऽनया गाथया प्रतिपादयतीदम्-यः केवलज्ञानी स एवं वस्तुतत्वं वस्तुतो जानाति । अतः स एव जगतो हिताय धर्ममुपदेष्टुमर्हः । उपदिश्य चात्मानं परश्च संसारातारयति, नान्य इति । अक्षरार्थस्त्वेवमाह-तथाहि -जे समहिजुत्ता' ये समाधियुक्ताः 'इह पुन्नेण' पूर्णेन 'केवलेण नाणेण' केवलेन इस लोक में सम्पूर्ण 'धम्म कहति-धर्म कथयन्ति' श्रुनचारित्र रूप धर्म का उपदेश करते हैं 'ते तिमा-ते तीर्णाः' वे तिरे हुवे हैं अर्थात् संसार से स्वयं तरते हैं तथा 'अप्पाणं परंच तारंति-आत्मानं परश्चापि तारयन्ति' अपने स्वयं तिरते हैं और दूसरों को भी तारते हैं ॥५०॥ ___अन्वयार्थ-जो पुरुष समाधि से युक्त हैं तथा पूर्ण केवलज्ञान के बारा समस्त लोक को जानते हैं और जानकर धर्मोपदेश करते हैं, वे संसार से तिरे हुए हैं अर्थात् वे संसार से स्वयं तैरते हैं तथा दूसरों को भी तारते हैं ॥५०॥ टीकार्थ-- आर्द्रक मुनि इस गाथा के द्वारा यह प्रतिपादन करते हैंजो केवलज्ञानी है वही वास्तव में वस्तुस्वरूप को जानता है। अतएव वही जगत् के हित के लिए धर्म का उपदेश करने के योग्य है। वह धर्मोपदेश करके स्वपर को संसार से तारता है, अन्य नहीं। इस कथन श्रतयारित ३५नी वृति भनी पहेश मा छ. 'ते तिन्ना-ते ती तरी तसा. अर्थात् त। पोते ससारथी तरे छे. 'अप्पाणं परंच तार'ति-आत्मान' तथा परश्चापि तारयन्ति' पाताने तथा मीने ५ तारे थे. ॥५०॥ અન્વયાર્થ–જે પુરૂષ સમાધિથી યુક્ત છે, તથા પૂર્ણ કેવળ જ્ઞાન દ્વારા સંપૂર્ણ લેકને જાણે છે, અને જાણીને ધર્મોપદેશ કરે છે. તેઓ પિતે સંસારથી તરેલા છે. અર્થાત્ સંસારથી સ્વયં તરે છે અને બીજાઓને પણ તારે છે. પોતે ટીકાર્થઆકિ મુનિ આ ગાથા દ્વારા એ પ્રતિપાદન કરે છે કે-જેઓ કેવળ જ્ઞાની છે, તેઓ જ વાસ્તવિક રીતે વસ્તુ સ્વરૂપને જાણે છે. તેથી જ તેઓ જગતના પરમ કલ્યાણને માટે શ્રતચારિત્રરૂપ ધર્મને ઉપદેશ કરવાને ચગ્ય છે. તે सु०.८५ For Private And Personal Use Only Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . . सूचकतारचे ज्ञानेन 'लोयं विजागति' लोक चतुर्दशरज्ज्वात्मक विजानन्ति । तथा-'समतं. धम्म कहति' समातं-सम्पूर्ण वास्तविक धर्म कथयन्ति, ते 'तिन्ना' संसारसागरात्तीर्णाः 'अप्पाणं परं च तारंति' आत्मानं परश्च तारयन्ति, नैतव्यतिरिक्ता अकेवलिन स्तथाकत्तुं शक्नुवन्तीति सारः ॥५०॥ मूलम्-जे गरहियं ठाणमिहावसंति, जे यावि लोए चरणोववेया। उदाहडं तंतु समं मईए, अहाउसो ! विप्परियासमेव ॥५१॥ छाया-ये गहित स्थ नमिहावसन्ति, ये चापि लोके चरणोपपेताः। उदाहते तत्तु समं स्वमत्या, अथायुष्मन् ! विपर्यासमे। ॥५१॥ का तात्पर्यार्थ इस प्रकार है जो पुरुष समाधि से युक्त हैं, केवलज्ञान के द्वारा चौदह राजूपरिमाण वाले लोक को जानते हैं, वे समस्त एवं सस्य धर्म का प्ररूपण कर सकते हैं, वे संसार सागर से तिरे हुए हैं। अपने को और दूसरों को भी तारते हैं। जो उनसे भिन्न हैं, केवल ज्ञानी नहीं हैं, बे स्व-परतारक धर्म का उपदेश नहीं कर सकते हैं ॥५०॥ _ 'जे गरहियं' इत्यादि। .. शब्दार्थ-'इह-इह' इस लोक में 'जे-ये' जो पुष 'गरहियं ठाणं वसंति-गहितं स्थानं वमन्ति' गहित स्थान में बसते हैं अर्थात् अवि. वेकी जनों के द्वारा आचरित स्थानका आश्रय करते हैं और 'जे यावि -ये चापि' जो पुरुष 'चरणोववेया-चरणोपपेताः' सदाचार में रत है ધર્મોપદેશ કરીને પોતાને તથા અન્યને સંસાથી તારે છે. બીજાઓ તેમ તારી શકતા નથી. કહેવાને ભાવ એ છે કે-જે પુરૂષ સમાધિથી યુક્ત છે, કેવળજ્ઞાન દ્વારા ચૌદ રાજ પ્રમાણવાળા લેકને જાણે છે. તેઓ સઘળ અને સત્ય ધર્મને ઉપદેશ આપી શકે છે. તેઓ પોતે સંસાર સાગરથી તરેલા છે. અને ધર્મના ઉપદેશદ્વાર બીજાઓને પણ સંસારથી તારે છે. આનાથી જેઓ ભિન્ન છે, કેવળજ્ઞાની નથી, તેઓ પિતાના તથા અન્યના તારક ધર્મને ઉપદેશ કરી શકતા નથી.ગા.૫૦ 'जे गरहियं' त्या सहाथ-इह-इह' मा 'जे-ये रे ५३५ 'गरहियं ठाणं वसंति गर्हितं स्थान वसन्ति' अति-महतस्थानमा पसे छे अर्थात विवी पु३॥ जा। पायरेस २थाननः आश्रय ४२ 2. भने 'जे या वि-ये चारि २ ५३५ 'चरणोववेया-चरणोपपेताः' सहायारमा त छ, ते मन्ननी 'मईए-मत्यारे For Private And Personal Use Only Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. म.६ आईकमुनेगोशालकस्य संवादनि० ६७५ अन्वयार्थः-(जे) ये पुरुषाः इहलोके (गरहियं ठणं आवसंति) गर्हितमशुभं स्थानम् आवसन्ति-गर्दितं-निर्विवेकिजनाचरितं स्थानमाश्रयन्ति (जे यावि) ये चापि (चरणोववेया) चरणोपपेताः-सदाचाररताः अनयो यः (मईए) स्वमत्याऽज्ञानेन (समं उदाहउं) समं तुल्यमुदाहृतं कथितम् (तंत्र) तत्तु-समत्वकथनं तु (अहाउसो) अथायुष्मन् ! (विपरियासमेव) विपर्यास:-विपरीतबुद्धिरेव केवलमिति ॥५१॥ टीका-इह लोए ज गरहियं ठाणं आवसंति' इह लोके ये गर्हितमशुभं स्थानमाचरणमावसन्ति-आचरन्ति 'जे यावि' ये चापि 'चरणोववेया' चरणोप पेताः-सदाचारे रताः-तयो यः 'मईए समं उदाहउ" स्वकीयमत्या सम-तुल्य. मुदाहृतम् । आर्द्रको मुनिः कथयति-इह हि लोके यो निन्दनीयाचारमाचरतिउन दोनों को 'मईए-मत्या' जो अपनी कल्पना मति से 'सम उदाहउ' -समं उदाहृतं' ममान कहता है 'तंतु-तत्तु' वह 'अहाउसो-अयायुष्मन्' 'विपरियासमेव-विपर्यासमेव उमकी विपरीत वुद्धिका ही फल है ।५१। ___ अन्वयार्थ-इस लोक में जो पुरुष गर्हित स्थान में वसते हैं अर्थात् अविवेकी जनों द्वारा आचरित स्थान का आश्रय लेते हैं या अशुभ आचरण करते हैं और जो सदाचार में रत हैं उन दोनों को जो अपनी कल्पना मति से समान कहता है, वह हे आयुष्मन् ! उसकी विपरीत बुद्धि का ही फल है ॥५१॥ . टीकार्थ-इस संसार में जो लोग अशुभ आचरण करने वाले है और जो शुभ आचरण में प्रवृत्त हैं, उनको अपनी बुद्धि से समानकहना विपरीत मति का फल है । आर्द्रक मुनि कहते हैं-इस जगत् में जो अज्ञानी पुरुष निन्दनीय आचरण करते हैं और जो उत्तम आचरण करते पानी ५६५ना भुद्धिया 'ममं उदाहउ'-समं उदाहृतं' स२मा ४ हे. 'ततु-तत्तु' ते तो 'अहाउसों-अथायुष्मन्' आयुग्मन् ‘विप्परियासमेव-विपर्यास मेव' तेना વિપરીત બુદ્ધિનું ફલ છે. ગા૦૫૧ અન્વયાર્થ–આ લેકમાં જે પુરૂષ નિંદિત સ્થાનમાં વસે છે, અર્થાત અવિવેકી જને દ્વારા આચરિત સ્થાનને આશ્રય લે છે અથવા અશુભ આચ. રણ કરે છે. અને સદાચારમાં રત રહે છે. આ બન્નેને જે પિતાની કલપના મતિથી સરખા કહે છે તે તે હે આયુષ્યન્ તેની વિપરીત બુદ્ધિનું જ ફળ છે. ૫૧ 1 ટકાથે–આ સંસારમાં જે લોકો અશુભ આચરણ કરવાવાળા છે. અને જે અશુભ આચરણમાં પ્રવૃત્તિ વાળા છે. તેઓને પિતાની બુદ્ધિથી સમાન " કહેવા તે વિપરીત બુદ્ધિનું જ ફળ છે, આદ્રકમુની કહે છે-આ જગતમાં જે - અજ્ઞાની પુરૂષ નિંદનીય આચરણ કરે છે. અને જે ઉત્તમ પુરૂષ ધર્મ યુક્ત For Private And Personal Use Only Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यश्चोत्तममाचार पालयति द्वयोरेतयो रनुष्ठीयमानयोरनुष्ठानयोः समत्वं स्वेच्छ. याऽसर्वज्ञो जनो ब्रवीति । 'तं तु' तस्य समत्वकथनं तु 'अहाउसो! विष्परियास मेव' अथाऽऽयुष्मन् ! विपर्यास:-मत्तोन्मत्तालापवद् भवतीति ॥५१॥ मूलम्-संवच्छरेणावि य एगमेगं, बाणेण मारेउ महागयं तु । ... सेसाण जीवाण दयट्रयाए, वासं वयं वित्तिं पकप्पयामो ॥५२॥ छाया-संवत्सरेणापि चकैक, बाणेन मारयित्वा महागजे तु । व शेषाणां जीवानां दयार्थाय वर्ष वयं वृत्ति प्रकल्पयामः ॥५२॥ हैं, उन दोनों को या उनके द्वारा किये जाने वाले आचरण को असर्वज्ञ जन स्वेच्छा से समान कहता है । हे आयुष्मन् ! सांख्यादि का कथन उन्मत्तप्रलाप के समान है॥५१॥ ' 'संवच्छरेणावि' इत्यादि। शब्दार्थ- 'वयं-वयं' हम, हस्तितापस 'सेसाणं जीवाणं दयट्ठ याए-शेषाणां जीवानां दयार्थाय शेष जीवों की दयापालने के लिए 'संवच्छरेण वि य-संवत्सरेणापि च' एक वर्ष में 'एगमेगं महागयंएकैकं महागजम्' एक स्थूलकाय, हाथी को 'घाणेण-बाणेन' बाणसे 'मारेउ-मारयित्वा' मारकर 'वासं-वयं' वित्ति-वर्षमयं वृत्तिम्' एकवर्ष तक उसीसे जीवन निर्वाह कप्पयामो-कल्पयामः' करते है ।५२। આચરણ કરે છે. તે બન્નેને અથવા તેના દ્વારા કરવામાં આવનારા આચરણને અસર્વ જન સ્વેચ્છાથી સમાન કહે છે. તે આયુષ્મન સાંખ્ય વિગેરેનું કથન ઉન્મત્ત-ગાંડાના પ્રતાપના સરખું છે. આગા૦૫૧ __ 'संवच्छरेणावि' या Avail:-'वयं-वयम्' अ स्तितापस 'सेसाण जीवाण' दयट्टयाएशेषाणां जीवानां दयार्थाय' मीn wो ५२ ६या । भाटे. 'संवच्छरेणावि. य-संवत्सरेणापि च' मे 'एगमेगं महागय-एकैकं महागजे' मे महा. यहाथीने 'बाणेण-बाणेन' माथी 'मारेउ-मारयित्वा' भारीन 'वासं वयं वित्ति-वर्षमयं वृत्ति' में वर्ष ५यत तनाथी पन निवाड 'कप्पयामोंकल्पयामः' शये छीमे ॥०५२॥ . - અન્વયાર્થ—અમે હસ્તિતાપસ શેષ જીવેની દયા માટે એક વર્ષમાં એક સ્થૂલકાય હાથીને બાણથી મારીને એક વર્ષ પર્યન્ત તેનાથી જ જીવન નિર્વાહ કરીએ છીએ. પરા For Private And Personal Use Only Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. म.६ आर्द्रकमुने गोशालकस्य संवादनि० ६७७ ___ अन्वयार्थ:-(वयं) वयं हस्तितापसाः (से साग जीवाणं दयद्वयाए) शेषाणा जीवानां दयार्थाय-दयां कर्तुम् (संवच्छ रेणावि य) सात्सरेणापि च वर्षमात्रेण (बाणेण) बाणेन (एगमेगं महागयं मारेउ) एकमेकं महागनं मारयित्वाव्यापाद्य (वयं वासं वित्ति) वर्ष-वर्षपर्यन्तं वृत्तिमाजीविकाम् (पापयामो) प्रकल्पयाम:-कुम इति ॥५२॥ टीया-एक दण्डिनं व्युदस्याऽऽई को मुनिमहावीरस्वामिनम् अनुगन्तुं यदा. ऽचलत् तदा-हस्तिवापसनामानो बहवः समेत्योक्तवन्तः । हे आईक ! वयं शेष. जीवानां रक्षणार्थ भक्षणार्थम् एकमेव महान्तमुन्नतं गनं मारयित्वा वर्षमेक जीवनयात्रां परिकल्पयामः । एकस्य हनने बहवो रक्षिता भवन्तीति-अल्पीयान् मे दोपः । अन्येषां तु पुनः अनेकजीववधननितं पापबाहुल्यं भवतीति मन्मतमेव त्वयाऽप्युपासनीयम्' अलमलं तत्र गमनेनेति, अर्थे दर्शयति 'वयं सेसाणं जीवाणं ___ अन्वयार्थ-हम हस्तितापस शेष जीवों की दया पालने के लिए एक वर्ष में एक स्थूलकाय हाथी को घाण से मार कर एक वर्ष तक उसी से जीवन निर्वाह करते हैं ॥५२॥ ___टीकार्थ-एकदण्डी को पराजित करके आर्द्रककुमार मुनि महावीर स्वामी के समीप जाने लगे तो बहुत से हस्तितापस आकर कहने लगे -हे आई क ! यदि हम शेष जीवों की रक्षा करने के लिए सिर्फ एक बड़ा और ऊंचा हाथी मारते हैं और उसी से एक वर्ष तक अपना उदरनिर्वाह करते हैं एक जीव का घात करने से बहुत से जीवों की रक्षा हो जाती है। अतः हम सब से कम हिंसा के भागी हैं। दूसरे लोग अपने स्वार्थ के लिए अनेक जीवों का वध करते हैं उन्हें पहत पाप लगता है। अतएव तुम भी हमारा मत का स्वीकार करलो। महावीर के पास जाने से क्या लाभ? ટીકાઈ–એકદંડીને પરાજય કરીને આદ્રકકુમાર મુનિ ભગવાન શ્રી મહાવીર સ્વામી પાસે જવા લાગ્યા તે ઘણુ હસ્તિતાપો આવીને તેઓને કહેવા લાગ્યા કે-હે આદ્રક! અમે બાકિના જીની રક્ષા કરવા માટે કેવળ એક મહાકાય હાથીને જ મારીયે છીએ. અને તેનાથી એક વર્ષ સુધી પિતાની આજીવિકા ચલાવીએ છીએ. એક જીવની હિંસા કરવાથી ઘણું જીવેની રક્ષા થઈ જાય છે. તેથી અમે સૌથી ઓછી હિંસા કરવાવાળા છીએ. બીજા લેકે પિતાના સ્વાર્થ માટે અનેક જીને વધ કરે છે તેઓને ઘણું મેટું પાપ લાગે છે. તેથી જ તમે પણ અમારે મત સ્વીકારી લે. મહાવીરસ્વામી પાસે જવાથી શું વિશેષ લાભ થવાને છે? For Private And Personal Use Only Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्ग दयट्टयाए' हस्तिनापसाः कथयन्ति यद्वयं शेषागां जीवसङ्घानां दयार्थाय 'संवच्छरेणावि य चाणेण एगमेगं महागयं तु मारेउ' संवत्सरेणापि बाणेन-एकैकमहा गजं तु मारयित्वा 'वासं' वर्षे यावत् 'वित्ति' वृत्ति-जीवनयात्रासम्पादयित्री जीविकाम् । यदि-'पकप्पयामों' प्रकल्पयामः, अन्यजीवरक्षणार्थ मेकमेव हस्तिनं यदि व्यापाद्य तन्मांसमजाऽमृग्भिवर्षमेकं हि यावज्जीवामः, न दोषमाजो भवतां मतेऽपीति ध्वनिः ॥५२॥ मलम्-संवच्छरेणावि य एगमेगं, पाणं हंगता अणियत्तदोसा। सेसाण जीवाण वहे ण लग्गा, सिया य थीभं गिहिणोऽवि तम्हा ॥५३॥ छाया-संवत्सरेणापि चैकैकं पाणं घ्नन्तोऽनिवृत्तदोषाः । शेषाणां जीवानां वधे न लग्नाः स्युश्च स्तोक गृहिणोऽपि तस्मात् ॥५३॥ . इस बात को दिखलाने के लिए सूत्रकार कहते हैं-हम शेष जीवों की रक्षा करने के लिए एक वर्ष में सिर्फ एक स्थूलकाय हाथी को बाण से मार कर वर्ष पर्यन्त उससे अपना निर्वाह करते हैं। तात्पर्य इम कथन का यह है कि अन्य जीवों की रक्षा के लिए ही, सिर्फ एक ही हाथी को मारकर यदि उसके मांस, मज्जा रुधिर आदि से वर्ष पर्यन्त जीवनयापन करते हैं तो आपके मत के अनुसार भी हम दोष के पात्र नहीं हो सकते ॥५२॥ 'संवच्छरेणावि' इत्यादि। शब्दार्थ-संसच्च्छरेणावि य संवत्सरेणापि च' -एकवर्ष में 'एग. मेगं पाणं हणता-इकैकं प्राणं नन्तः' एक ही प्राणी की हिंसा करने वाले આ વાત બતાવતાં સૂત્રકાર કહે છે કે– અમે બાકીના છનું રક્ષણ કરવા માટે એક વર્ષમાં કેવળ એક મહાકાય હાથીને બાણથી મારીને એક વર્ષ સુધી તેનાથી પિતાને નિર્વાહ કરીએ છીએ. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે-બીજા જીવોની રક્ષા કરવા માટે જ કેવળ એકજ હાથીને મારીને જે તેના માંસ, મજજા, લેહી, વિગેરેથી આખા વર્ષ સુધી જીવન' નિર્વાહ કરીએ છીએ, તે તમારા મત પ્રમાણે પણ આ દુષપાત્ર કહેવાય નહીં પરા 'संवच्छरेणावि' छत्याहि शहाथ---संवच्छरेणावि य-संवत्सरेणापि च' मे४ वर्षमा 'एगमे गं पाण 'हणंता-एकैकं प्राण घ्नन्तः' में प्राणिनी हिंसा ४२११॥ ५५ 'अणियंतदोसा For Private And Personal Use Only Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org enerator टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुनेर्गोशालकस्य संवादनि० ६७९ अन्वयार्थ :- (संवछरेणावि य) संवत्सरेणापि - एक स्मिन् वर्षेऽपि (एग मे पाहणंता' एकैकमपि एकमपि यं वञ्चनमाणं प्राणिनं घनन्तो व्यापादयन्तः (अंणियत दोसा) अनिवृत्तदोषा एव ते स्युः (सेसण जीवाण वहे ण लग्गा ) शेषाणां जीवानां बधे - व्यापादने न लग्नाः (गिहिणोवि ) गृहिणः -- गृहस्था अपि ( तम्हा) तस्मात् (थो सिया य) स्तोकम् अल्प यथा भवेत् तथा स्युः - भवेयुरिति ॥५३॥ टीका - मुनिराई को इस्तितापसान् प्रत्याह-एकस्मिन्नपि हायने या कति एकमपि यं कञ्चन प्राणिनं हिनस्ति सोऽपि मन्ये दोषमाकू स्यात्, किम्पुनः पञ्चेन्द्रियं महाकार्य गजं यो हिनस्तीति । एतेषामर्थ प्रकाशयति- 'संच्छरेणावि य पुरुष भी 'अभियंतदोसा- अनिवृसदोषाः' 'निर्दोष-निष्पाप नहीं कहे जा सकते' ऐसा हो तो जिन जीवों की गृहस्थ हिंसा करते हैं उनके सिवाय 'सेसाणं जीवाणं वहे ण लग्गा शेषानां जीवानां बधे न लग्नाः' शेष जीवों की हिंसा न करने के कारण 'गिहिणो वि-गृहिगोsपि' गृहस्थ भी 'धोभं सिया स्तोकं स्युः' निर्दोष कहलाने लगेंगे | ५३ ॥ अन्वयार्थ - एक वर्ष में एक प्राणी की हिंसा करने वाले पुरुष भी निर्दोष-निष्पाप नहीं कहे जा सकते ऐसा हो तो 'जिन जीवों की गृहस्थ हिंसा करते हैं, उनके सिवाय' शेष जीवों की हिंसा न करने के कारण गृहस्थ भी निर्दोष कहलाने लगेंगे ॥५३॥ टीकार्य -- आई मुनि हस्तितापस को उत्तर देते हैं - एक वर्ष में जो किसी एक प्राणी की हिंसा करता है, वह भी पाप का भागी होता है। फिर पंचेन्द्रिय और स्थूलकाय हाथी को मारने की बात ही क्या है ? - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - अनिवृत्तदोषा' निर्दोष-निष्याय उडी शाय नहीं. वेनी हिंसा रे है 'सेसाणं' जीवाणं' वहे लग्ना' तेना शिवाय जाडीना लोनी हिंसा न गृहस्थ पण 'थोभं सिया - स्तोकं स्युः' निर्दोष નિર્દોષ જ કહેવાશે. ાપણા અન્વયા એક વર્ષીમાં એક પ્રાણીની હિંસા કરવાવાળા પુરૂષ પણ નિર્દેષિ-નિષ્પાપ કહી શકાય નહી. જો તેને નિષ્પાપ માનવામાં આવે તેા (જે જીવેાની ગૃહસ્થા હિંસા કરે છે, તેના શિવાય) શેષ જીવાની હિંસા ન કરવાના કારણે ગૃહસ્થ પણ નિર્દેષ કહેવડાવશે. નાપા शोभ उता (गृहस्थी ने ण लग्गा - शेषानां जीवानां वधे न वाथी 'गिहिको वि- गृहिणोऽपि अहेवडावशे. अर्थात तेथे पशु ટીકા—આક મુનિ હસ્તિતાપસાને ઉત્તર આપતાં કહે છે કે-એક વર્ષીમાં જો કેઈ એક પ્રાણીની હિંસા કરે છે, તે તે પણ પાપના ભાગી જ કહેવાય છૅ, તા પછી પંચેન્દ્રિય અને સ્થૂલકાય હાથીને મારવાની તા વાત જ For Private And Personal Use Only Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूचकृतास्त्र संवत्सरेणाऽपि च ये 'एगमेगं पाणं हणंता' एकै पाणं-पाणिनं निमन्तः 'अणियत्तदोसा' अनिवृत्तदोषा एक, एकस्मिन् वर्षे यश्च एक पाणिनं घातयतिसोऽपि दोषान्न प्रमुच्यते । यद्येवं तदा-'सेसाण जीवाण वहे ण लग्गा' शेषाणां जीवानां वधे मारणे न संळग्ना ये ते एव शेषजीवमारणव्यापारान्निवृत्ता ज्ञायेरन 'गिहिणो वि' गृहिणो गृहस्था अपि तम्हा' तस्मात् 'योभं स्तोक यथास्यात्. तथा 'सिया य' स्युश्च । शेषप्राणिवधव्यापारान्निवृत्ताः गृहस्था अपि दूषणरहिताः कथं न स्युरिति । अत एकजीववधेऽपिदोषो भवन् भवत्यक्षं दृश्यत्येवेति भावः ।५३॥ मूलम्-संवच्छरणावि य एंगमेगं, पाणं हेणंता समणव्वएसु। .. आयाहिए से पुरिसे अणज्जे, . ज तारिसे केवलिणो भवंति ॥५४॥ छाया-संवत्सरेणापि चैकैक पाणं घ्नन् श्रमणवतेषु । ___ आख्यातः स पुरुषोऽनार्यों न तादृशाः केवलिनो भवन्ति !॥५४॥ इस अर्थ को सूत्रकार प्रदर्शित करते हैं वर्ष भर में जो एक पाणी की हिंसा करते हैं, वे भी पाप से मुक्त नहीं हो सकते । यदि उन्हें निष्पाप कहा जाय तो शेष प्राणियों की हिंसा न करने वाले गृहस्थ भी निष्पाप क्यों न कहे जाएं ! तात्पर्य यह है कि गृहस्थ भी जितने जीवों की हिंसा करते हैं, उनके अति. रिक्त शेष जीवों की हिंसा नहीं करते । अतएव उन्हें भी निर्दोष करना चाहिए । अतएव एक जीव की हिंसा करने से भी पार होता है और वह कथन आपके पक्ष को दूषित करता है ।।५३ । કેમ કહી શકાય? આ વાત સૂત્રકાર ગાથા દ્વારા પ્રગટ કરે છે. એક વર્ષમાં જેઓ એક જ પ્રાણીની હિંસા કરે છે, તેમાં પણ પાપથી છટ શકતા નથી. જે તેઓને નિષ્પાપ કહેવામાં આવે તે બાકીના પ્રાણીચિની હિંસા ન કરવાવાળા ગૃહસ્થને પણ નિપાપ કેમ ન કહેવા? કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે–ગૃહસ્થ પણ જેટલા છની હિંસા કરે છે, તે સિવાય બીજા ની હિંસા કરતા નથી. તેથી તેમને પણ નિદ"જ કહેવા જોઈએ, તેથી જ એક જીવની હિંસા કરવાથી પણ પાપ થાય જ છે. અને તે કાન તમારા પક્ષને દૂષિત બનાવે છે. પા. For Private And Personal Use Only Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयाबोधिनी रीका हि.श्रु. म. ६ आईकमुने!शालकस्य संवादनि० ६८१ __ अन्वयार्थ:-(समणबएसु) श्रमणव्रतेषु-यतिव्रतेषु विद्यमानः संयतः (संव: कछरेणावि य) संवत्सरेणापि च (एगमेगं) एकैकम् (पाणं) माणं जीवम् (हणंता) इनन्-मारयन् (से पुरिसे) स पुरुषः (अणज्जे आयाहिए) अनार्यः आख्यातःकथितः (तारिसे) तादृशाः पुरुषाः (केवलिणो ण भांति) केवलिना-केवळ ज्ञानवन्तो न भवन्ति कथमपीति ॥५१॥ । टीका-पुनराईको मुनिः पूर्वोक्तचादिनं पाह-'समणमएसु' श्रमणबतेषु -यः पुरुषः श्रमणाना-साधूनां व्रतेषु विद्यमानोऽपि, 'संवच्छरेणावि य' संवत्सरे'संवच्छरेणावि' इत्यादि। शब्दार्थ-'समणधएसु-श्रमणवतेषु' जो पुरुष श्रमणों के व्रतों में रहकर 'संवच्छरेणावि-संवत्सरेणापि' एकवर्ष में 'एगमेग-एकैकमपि' एक एक भी 'पाण-प्राण' प्राणी का 'हर्णता-नन्' घात करते हैं 'से परिसे-स पुरुषः' वह पुरुष 'अणज्जे आयाहिए-अनार्यः आख्यातः' अनार्य है, ऐसा कहा गया है 'तारिसे-ताहशाः' 'ऐसे पुरुष 'केवलियो न भवंति-केवलिनः न भवन्ति' केवलज्ञान नहीं पा सकते हैं॥५४॥ ___अन्वयार्थ--जो पुरुष श्रमण के व्रतो में रहकर एक वर्ष में एक एक प्राणी का घात करते हैं, वे अनार्य हैं । ऐसे पुरुष केवलज्ञान नहीं पा सकते ॥५४॥ टीकार्थ--आद्रक मुनि पुनः हस्तितापस से कहते हैं-जो पुरुष श्रमण के व्रतों से स्थित होते हुए भी एक वर्ष में एक एक प्राणी 'संवच्छरेणाधि' त्यादि शाय-'समणचएसु-श्रमणव्रतेषु' ५३५ श्रमदाना प्रभारहीन 'संवच्छरेणावि-संवत्सरेणापि' मे १ मा 'एगमेग-एकैकं' से पाणं प्राण प्राधीन 'हणता-नन्' १५ ४२ छे. 'से पुरिसे-सः पुरुषः' ते ५३५ अणज्जे आयाहिए-अनार्यः आख्यातः' मना छ तम उवामां मावेश छ. 'तारिसे-ताशाः' मे॥ पु३१ 'केवलिणो न भवंति-केवलिनः न भवन्ति' amજ્ઞાન પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી. પકા અન્વયાર્થ-જે પુરૂષ શ્રમણ વ્રતમાં રહીને એક વર્ષમાં એક પ્રાણીને વધ કરે છે તેઓ અનાર્ય જ છે. એવા પુરૂષે કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી. પાપક ટીકાઈ–ફરીથી હસ્તિતાપસને આદ્રક મુની કહે છે કે--જે પુરૂષ શ્રમણના વ્રતમાં સ્થિત રહીને પણ એક વર્ષમાં એક એક પ્રાણીની હિંસા For Private And Personal Use Only Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतास्त्र णापि च 'एगमेग' एकैकमपि 'पाणं' प्राण-पाणिनम् 'हणता' नन्-मारयन् तिष्ठति से पुरिसे' सः पुरुषः 'अणज्जे आहिए' अनार्य आख्यातः-कथित:एकमपि पाणिनं वर्ष यावद् जीविकाथ यो मारयति सोऽनार्य आख्यायते 'तारिसे केवलिणो ण भवंति' तादृशाः केवलिनो न भवन्ति एतादृशपुरुषाणा केवलज्ञानप्राप्तिनं भवति । साधुव्रते सर्व सहमानानां मध्यतो य एकमपि पाणिनं हन्ति स केवलज्ञानाऽनधिकारीति ने तावत्, प्रत्युताऽनार्यभार स्यादिति ॥५४॥ मूत्रम्-बुद्धस्स आणाए इमं समाहि, अस्सि सुठिच्चा तिविहेण ताई। तरिउं समुदं व महाभवाघ, ... आयाणवं धम्ममुदाहरेज्जा ॥५५॥त्तिबेमि॥ छाया-बुद्धस्याज्ञयेमं समाधिमस्मिन् मुस्थाय त्रिविधेन त्रायी। - तरितुं समुद्रमिव महामवौघमादानवान् धर्ममुदाहरेत् इनि ब्रवीमि।५५। का हनन करते हैं, वे अनार्य कहे गए हैं। ऐसे पुरुष केवलज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते। तात्पर्य यह है कि साधुव्रत अंगीकार करने पर समस्त प्राणियों की पूर्णरूप से हिंसा का त्याग किया जाता है । ऐसी स्थिति में जो एक भी प्राणी का वध करता है, वह केवलज्ञान तो क्या प्राप्त कर सकेगा, आर्य भी नहीं है, अनार्य है ॥५४॥ 'बुद्धस्त आणाए' इत्यादि। शब्दार्थ-'बुद्धस्स-बुद्रस्य' परिज्ञाततत्व भगवान् महावीर की 'आणाए-आज्ञया' आज्ञामें 'इमं समाहि-इमं समाधि' इस समाधिको प्राप्त करके जो 'अस्ति-अस्मिन्' इस समाधि में 'सुठिच्चा-सुस्थित्वा' કરે છે, તેઓ અનાથે કહેવાય છે. એ પુરૂષ કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત કરી શકતો નથી. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે–સાધુવ્રત સ્વીકારીને સઘળા પ્રાણિની હિંસાને પૂર્ણ રીતે ત્યાગ કરવામાં આવે છે. આ સ્થિતિમાં જે એક પણ પ્રાણિને વધ કરે છે, તે કેવળજ્ઞાન તે શું પ્રાપ્ત કરી શકે છે તે આર્યજ નથી પણ અનાય જ છે. ૫૪ 'बुद्धस्स आणाए' या Avat --बुद्धस्स-बुद्धस्य' तपने सारी श स छ, मेवा भावान महावनी 'भाणाए-आज्ञया' माथी 'इमं समाहि-इमं समाधिम्' । समाधिन 2.1 अरीन रे अस्वि-अस्मिन्' मा समाधिमा 'सुठिचा For Private And Personal Use Only Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुने!शालकस्य संवादनि० ६८३ __ अन्वयार्थ:--(बुद्धस्स) बुद्धस्य-ज्ञाततत्वस्य (भाणाए) आज्ञया (इमं समाहि) इमं समाधिम्-सद्धर्मपाक्षिलक्षणम् (अस्सि) अस्मिन् समाधौ (सुठिच्चा) मुस्थाय -सुष्ठु स्थित्वा मनोवाकायः तथा (तिविहेण ताई) त्रिविधेन करणेन करणकारणानुमोदनात्मकः त्रिभिः करणैश्च वायी-षड्जीवनिकायरक्षको भवति (महामवोघ) महामवाघम्-दुस्तरसंसारसमुद्रम् (समुदं व) समुदमिव (तरिउं) तरितुम् (आयाणव) आदानवान-ज्ञानादिमान् मुनिः (धम्म) धर्म सम्यकश्रुतचारित्ररूपम् (उदाहरेन्जा) उदाहरेत-ताशधर्ममुपदिशेदिति ।५५। टीका-'बुद्धस्स' बुद्वस्य-केवलज्ञानात्मकबोधि प्राप्तवतो महावीरस्य, 'आणाए' आज्ञया 'इमं समाहि' इमं समाधिम्-अहिंसासम्बलि ज्ञानदर्शचारित्रामन वचन, एवं काया से स्थित होता है, वह 'तिविहेण ताई-त्रिविधेन त्रायी' तीनों करणों से शेप षट् जीवनिकाय की रक्षा करता है 'आयाणवं-आदानवान्' सम्यज्ञान आदि से सम्पन्नमुनि 'महाभवोघं -महाभवौघं' अत्यत दुस्तर 'समुदं व-समुद्रमिव' समुद्र के समान संसार को तरि-तरितुं' तिरने के लिए 'धम्म-धर्म' श्रुतचारित्र धर्म का 'उदाहरेज्जा-उदाहरेत्' उपदेशकरें ॥५॥ अन्वयार्थ-परिज्ञाततत्त्व भगवान श्री महावीर स्वामी की आज्ञा से इस समाधि को प्राप्त करके जो इस समाधि में स्थित होता है वह मन बचन काय से तथा तीनों फरणों से षट्जीवनिकाय की रक्षा करता है । सम्यग्ज्ञान आदि से सम्पन्न मुनि अत्यन्त दुस्तर समुद्र के समान संसार को तिरने के लिए श्रुतचारित्र रूप धर्म का उपदेश करें ॥५॥ सुस्थित्वा' त भन, यन, भने यथा स्थित २७ छ, 'तिविहेण ताई-त्रिविधेन प्रायी' त्राणे ४२२थी माहीना पटू निकाय वा योनी २क्षा 3रे छे. 'आयाणव-आदानवान्' सभ्यज्ञान, विश्थी युद्धत मुनि 'महाभवोप-महाभवोघ' अत्यत १.२ 'समुई व-समुद्रमिव' समुद्र २१ मा सारने 'वरिउ-तरितुं' त२१॥ भाटे 'धम्म-धर्म' श्रुत यास्ति धमना 'उदाहरेज्जाउदाहरेत्' ७५४२ ४२. ॥५५ અવયાર્થ–-પરિસાતતત્વ ભગવાન મહાવીર સ્વામીની આજ્ઞાથી આ સમાધિને પ્રાપ્ત કરીને જે આ સમાધિમાં સ્થિત હોય છે. તે મન વચન અને કાયાથી તથા ત્રણે કરણથી ષજીવનિકાયની રક્ષા કરે અને સમ્યફ જ્ઞાન વિગેરેથી યુક્ત મુનિ અત્યંત દુસ્તર એવા આ સંસાર સમુદ્રને તરવા માટે ચુત ચારિત્ર રૂપ ધર્મને ઉપદેશ કરે આપણા For Private And Personal Use Only Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir PRITAMILIAR . सूत्रकृतास्त्र स्मक मार्गम् अङ्गीकृत्य 'अस्सि सुठिच्चा' अस्मिन सुस्थाय-अस्मिन् धर्म सम्यगव. स्थिति कृत्वा मनोवाकायै मिथ्यात्वं निन्दयन् 'तिविहेण' त्रिविधेन-करणकारणानु मोदनात्मकः-करणेन योगेन च त्रिकरणत्रियोगैश्च 'ताई' बायो-पजिवनिकाय: रक्षको भवति स्वात्मानं परश्च संसारा त्रातुं समर्थों भवति । महावीरमतिपादिताऽहिंसाधर्म स्वीकृत्य मनोवचनकायमिथ्यात्वं निन्दयन् संरक्षणे समर्थों भवति । 'महाभवोधं महाभवोघं-दुस्तीर्ण संसारसमुद्रम् 'समुदं व' समुद्रमिव तरि. उ' तरीतुम्-दुस्तरसमुद्रमिव संसारसमुद्रसंतरणाय 'आयाणवं धम्म' आदानवान् -सम्यग्दर्शनादिमान् मुनिः धर्मम् अहिंसामधान हित पाणातिपातादिविरमणलक्षणम् 'उदाहरेज्ना' उदाहरेद-उपदिशेत् एतद्धर्मवर्णनं ग्रहणं च विवेकिमिः कर्तव्यम् । टीकार्थ-केवलज्ञानरूप बोधिको प्राप्त भगवान श्री महावीर की आज्ञा से इस समाधि को अर्थात् सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र और तप रूप मोक्षमार्ग को अंगीकार करके और इसमें सम्यक प्रकार से स्थित होकर मन वचन काय से मिथ्यात्व आदि पापों की निन्दा करता हुआ षट्काय के जीवों का रक्षक होता है। वह अपने को तथा दूसरों को संसार से त्राण करने में समर्थ होता है। अर्थात् महावीर द्वारा प्रतिपादित अहिंसा धर्म को स्वीकार करके मन वचन काय से मिथ्यात्व की निन्दा करता हुआ स्व पर के संरक्षण में समर्थ होता है। वह दुस्तर सागर के समान संसार से तिरने के लिए सम्यग्दर्शन आदि से युक्त होकर अहिंसा प्रदान तथा हिंसा विरमण आदि लक्षण वाले मुनिधर्म का उपदेशकरे । विवेकी जनों को इस धर्म का निरूपण और ग्रहण करना चाहिए। ટીક થે--કેવળ જ્ઞાન રૂ૫ બોધિને પ્રાપ્ત કરેલ ભગવાન મહાવીરની આજ્ઞાથી આ સમાધિને અર્થાત્ સમ્યક્દર્શન સમ્યફજ્ઞાન સમ્યક ચારિત્ર અને તપ ૩૫ મોક્ષમાર્ગને સ્વીકાર કરીને અને તેમાં સમ્યક્ પ્રકારથી સ્થિત રહીને મન, વચન અને કાયાથી મિથ્યાત્વ વિગેરે પાપની નિંદા કરતા થકા કા. યના જીવોના રક્ષક થાય છે. તે પિતાનું તથા બીજાનું સંસારથી રક્ષણ કરવામાં સમર્થ થાય છે. અર્થાત્ મહાવીર દ્વારા પ્રતિપાદન કરેલ અહિંસા અને સ્વીકારીને મન, વચન અને કાયથી મિથ્યાત્વની નિંદા કરતા થકા Sતાના તથા બીજાના સંરક્ષણમાં સમર્થ બને છે. તે દસ્તર એવા સંસારથી ચમને તરવા માટે સમ્યક્દર્શન વિગેરે લક્ષણવાળા મુનિ ધર્મને ઉપદેશ કરે. વિવેકી જનેએ આ ધર્મનું નિરૂપણ અને ગ્રહણ કરવું જોઈએ. For Private And Personal Use Only Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -- - समयार्थबोधिनी टीका दि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुने!शालकस्य सेवादनि० ६८५ ___ या पुरुः केवलज्ञानवतो महावीरस्वामिन प्राज्ञयाऽमुमुत्तमं धर्म स्वीकृत्य मनोवाकायैस्त्रिकरणत्रियोगेश्च इमं धर्म पालयति, तथा-मनोवचनकायैमिथ्याद: र्शनस्य निन्दां करोति स घोरसंसारसमुद्र तरति तारयति च परानुपदिश्य ग्राह. यित्वा । एतस्याऽसारपारावारस्य सन्तरणे बानादय एवोपायभूताः नाऽन्ये । एतन्मतं धारयित्वा-एव सत्संज्ञां लममानः साधुः साधुभाति नाऽन्यः । एतादृशः पुरुषः सम्यग्दर्शनप्रमावादेवा-येवां महिमानं दृष्ट्वाऽपि आहेतदर्शनान विभ्रष्टो भवति । तथा-सभ्यग्दर्शनप्रभावेण परान् निराकृत्य तानपि एतन्मतमुपदिश्य सत्यं धर्म ग्राहयति । तथा-सम्यक् चारित्रप्रभावतः सर्वजीवहितैषी भान आस्रवद्वार आशय यह है कि जो पुरुष केवलज्ञानी भगवान् श्रीमहावीर स्वामी की आज्ञा से इस उत्तम श्रुनचारित्ररूप धर्म को स्वीकार करके तीन करण औरतीन योग से इस धर्म का पालन करता है तथा मन वचन काय से मिथ्यात्व की निन्दा करता है, वह इस घोर संसार समुद्र से पार हो जाता है, साथ ही दूसरों को सन्मार्गका उपदेशदेकर तथा धर्म में स्थित करके उन्हें भी तार देता है। इस असार संसार सागर से पार उतरने के लिए सम्यग्ज्ञान आदि ही एक मात्र उपाय हैं, अन्य कोई उपाय नहीं है। इस मत को धारण करके समीचीन संज्ञा प्राप्त करता हुआ मुनि ही साधु कहलाता है । ऐसा साधु पुरुष सम्यग्दर्शन के प्रभाव से दूसरों के महिमो देख कर भी आहेत दर्शन से चलायमान नहीं होता। वह सम्यक्त्व के प्रभाव से दूसरों का निराकरण करके तथा उन्हें इस मत का उपदेश देकर सत्य धर्म ग्रहण करवाता है। तथा सम्यकचारित्र કહેવાને અશય એ છે કે-જે પુરૂષ કેવળ જ્ઞાની ભગવાન શ્રી મહાવીર સ્વામીની આજ્ઞાથી આ ઉત્તમ થતચારિત્રરૂપ ધર્મને સ્વીકારીને ત્રણ કરણ અને ત્રણ ગથી આ ધર્મનું પાલન કરે છે. તથા મન, વચન અને કાયાથી મિથ્યાત્વની નિદા કરે છે. તે આ ઘર એવા સંસાર સમુદ્રથી પાર થઈ જાય છે. તેમજ સાથે બીજાઓને સન્માર્ગને ઉપદેશ આપીને તથા ધર્મમાં સ્થિત કરીને તેઓને પણ તારે છે. આ અસાર સંસાર સાગરથી પાર ઉતરવા માટે સમ્યજ્ઞાન વિગેરે જ એક માત્ર ઉપાય છે. બીજે કઈ પણ ઉપાય નથી. આ મતને સ્વીકાર કરીને એગ્ય સંજ્ઞા પ્રાપ્ત કરેલ મુની જ સાધુ કહેવાય છે. એવા સાધ પુરૂષ સમ્યક્દર્શનના પ્રભાવથી બીજાઓનું મહમ્ય દેખીને પણ આહંત દર્શનથી ચલાયમાન થતા નથી. તે સમ્યકત્વના પ્રભાવથી બીજાઓનું નિરાકરણ કરીને તથા તેઓને આ મતને ઉપદેશ આપીને સત્ય ધર્મને સ્વીકાર કરાવે છે. For Private And Personal Use Only Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६८६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे मरुणद्धि । विशिष्टशिष्ट तपोभिरनेकजन्मोपार्जितं कर्म क्षपयति । अतएवेताविशिष्टस्यैव विवेकभिर्ग्रहणं कर्त्तव्यं तथाऽन्येभ्योऽपि उपदेष्टव्यम् इति भावः । इत्यहं ब्रवीमि इति सुधर्मस्वामिनो वचनम् ॥५५ ॥ ॥ इति श्री विश्वविख्यात - जगवल्लभ-प्रसिद्धवाचक- पञ्चदशभाषाकलितललितकला पालापकमविशुद्ध गद्यपद्यनैकग्रन्थ निर्मापक, वादिमानमर्दक- श्री शाहूच्छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त - 'जैनाचार्य' पदभूषित - कोल्हापुरराजगुरु - बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर - पूज्य श्री घासीलालवतिविरचितायां श्री " सूत्रकृताङ्गसूत्रस्य" समयार्थबोधिन्याख्यायां व्याख्यायां द्वितीयश्रुतस्कन्धे ॥ षष्ठमध्ययनं समाप्तम् ॥ - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir के प्रभाव से समस्त प्राणियों का हितैषी होता हुआ आश्रव द्वारों का निरोध कर देता है। आश्रवद्वारों के निरोध से नवीन कर्मों का बन्ध रोक देता है और पूर्वषद्ध अनेक जन्मों में उपार्जित कर्मों को नाना प्रकार की तपश्चर्या द्वारा क्षय करदेता है । अतएव ऐसे विशिष्ट धर्म का अवलम्बन ही विवेकी जन को करना चाहिए। और इसी का दूसरों को उपदेश करना चाहिए । इस प्रकार में सुधर्मा स्वामी के वचन कहता हूं ॥ ५५ ॥ जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर 44 पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत 57 सूत्रकृताङ्गसूत्र की समयार्थबोधिनी व्याख्या के द्वितीय श्रुतस्कंध का छट्टा अध्ययन समाप्त ॥२-६॥ તથા સમ્યક્ ચારિત્રના પ્રભાવથી સઘળા પ્રાણિયાના હિતેચ્છુ થતા થકા માસવદ્વારાના નિરોધ કરે છે. આસવદ્વારના નિરાય કરવાથી નવા ક્રર્માના મધ રાકાઈ જાય છે. તથા પૂર્વ અદ્ધ અનેક જન્મામાં પ્રાપ્ત કરેલા ક્રમાંને અનેક પ્રકારની તપશ્ચર્યા દ્વારા ક્ષય કરી દે છે. તેથી જ એવા વિશેષ પ્રકારના ધમને જ વિવેકી પુરૂષોએ ચહેણુ કરવા જોઇએ અને બીજાઓને પણ મા ધર્મના જ ઉપદેશ આપવા જોઈએ. આ પ્રમાણે હું સુધર્મો સ્વામીના વચને કહું છું !!ગા૰ પા જૈનાચાય જૈનધમ દિવાકર પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત ‘સૂત્રકૃતાંગસૂત્ર’ ની સમયાથ આધિની વ્યાખ્યાનું' બીજા શ્રુતસ્કંધનું છઠ્ઠું અધ્યયન સમાપ્ત ર્-૬॥ For Private And Personal Use Only Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ७ सप्तमाध्ययनावतरणिका ॥ अथ सप्तममध्ययनमारभ्यते ॥ गतं षष्ठ मध्ययनं साम्प्रतं सप्तममध्ययनमारभ्यते । षष्ठाऽध्ययने विस्तरशः साधूनामाचारः प्रदर्शितः परन्तु श्रावकाणामाचारी न दर्शित इति श्रावकाणामाचारं दर्शयितुं सप्तममध्ययनमारभ्यते । एतस्य नालन्दीयाऽध्ययनमिति नाम सम्पद्यते । राजगृहाद् बहिर्नालन्दा नामकं पाटकं विद्यते तत्र यद् जातं तद् व्यपदिश्यते अतो नालन्दीयमिति अध्ययनस्य व्यपदेशः । न अलं याचकेभ्यो निषेधवचनं ददातीति नालन्दा, अत्र न अलं शब्दौ उभावपि निषेधार्थको, मकृतार्थबोधकौ एव भवतः । अतो ज्ञायते तत्र याचकानां समस्तार्थप्राप्तिर्भवतीति, अनेन सम्बन्धेनाऽयातस्या सतवां अध्ययन का प्रारंभ ६.८७ छठा अध्ययन समाप्त हुआ, अब सातवां आरंभ करते हैं। उठे अध्ययन में विस्तार पूर्वक साधु का आवार प्रदर्शित किया गया है किन्तु श्रावकों के आचार का प्रतिपादन करने के लिए सातवें अध्ययन का आरंभ किया जाता है । इस अध्ययन का नाम 'नालन्दीय' है । राजगृह नगर के बाहर नालन्दा नामक पाटक (पाडा) उपनगर - है । उससे संबंध रखने वाला विषय 'नालन्दीय' कहलाता है । यही कारण है कि इस अध्ययन का 'नालन्दीय-अध्ययन' नाम पड़ा है । 'नालन्दा' शब्द के तीन अवयव हैं- न + अलम् + दा याचकान् प्रति इति नालन्दा यहाँ न और अलम् यह दो निषेध द्योतक शब्द हैं जो एक विधि को प्रकट करते हैं। इससे प्रतीति होती है कि वहां याचकों को पदार्थों का लाभ होता था । इम सम्बन्ध से प्राप्त इस अध्ययन का यह आदि सूत्र हैंસાતમા અધ્યયનના પ્રારભ For Private And Personal Use Only છઠ્ઠું' અધ્યયન સમાપ્ત કરીને હવે આ સાતમા અધ્યયનના પ્રારંભ કરવામાં આવે છે. છઠ્ઠા અધ્યયનમાં વિસ્તારપૂર્વક સાધુના આચાર બતાવવામાં આવેલ છે. પરંતુ શ્રાવકાના આચાર કહેલ નથી. તેથી શ્રાવકના આચારનું પ્રતિપાદન કરવા માટે આ સાતમા અધ્યયનના આરંભ કરવામાં આવે છે. આ અધ્યયનનું નામ ‘નાલીય’ છે. રાજગૃહ નગરની અહાર નાલન્દા નામનું घाट (पाडा) उपनगर हे तेनी साथै संबंध रामवावाणी विषय 'नाबन्दीय' કહેવાય છે. મા કારણથી જ આ અયયનનું નામ ‘નાલન્દીય' રાખવામાં घ्यावेस छे. 'नान्हा' शब्दना अवयव छे न+अभू+हा 'न अलम् याचकान् प्रति इति नालन्दा' अडीयांन भने असम् म भन्ने निषेध जताने વનારા શબ્દો છે. જે એક વિધિને પ્રગટ કરે છે. તેનાથી નિશ્ચય થાય છે કેત્યાં યાચકાને સઘળા પદાર્થીને લાભ થતે હતેા આ સમ્બન્ધથી આવેલ આ Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतासो स्याऽध्ययनस्येदमादिम सूत्रम्-'तेणं कालेणं तेणं समएणं इत्यादि । . मूलम् -तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णामं नयरे होत्था, रिद्धस्थिमियसमिद्धे वण्णओ जाव पडिरूवे, तस्स णं रायगिहस्त नयरस्स बाहिरिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभागे एस्थ णं नालंदा नाम बाहिरिया होत्था, अणेगभवणसयसन्निविट्ठा जाव पडिरूवा ॥सू०१॥६॥ - छाया--तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नाम नगरमासीत्, ऋद्धस्तिमितसमृद्धं वर्णको यावत्पतिरूपम् । तस्य रानगृहस्य नगरस्य बहिः उत्तरपौरस्त्ये दिगविभागे, अत्र खलु नालन्दानामवाहिरका आसीत् , अनेनकमवनशतसभिविष्टा यावद प्रतिरूपा ॥१-६८॥ .टीका-'तेणं कालेणं' तस्मिन् काले-उपदेष्टुर्महावीरस्य य उपदेशकालस्त. स्मिन् काले 'तेणं समएणं' तस्मिन् समये-कालस्यैव विभागविशेषः समयस्तस्मिन् 'रायगिहे नाम नयरे होत्था' राजगृहं नाम नगरमासीत्-राज्ञो नगरं राजनगरम्, गृहाणां राजेव गृहं यत्र तद्राजगृहम्, तदास्यं नगरमासीत् । अस्य कथा ग्रन्थान्तरादवसेया । ननु-तनगरस्येदानीमपि सत्त्वात् कथमासीदिति भूतकालिकपयोग 'तेणं कालेणं' इत्यादि। ___टोकार्थ--उस काल में अर्थात् उपदेष्टा भगवान् महावीर के उप. देश के काल में तथा उस समय में अर्थात् उसकाल के उस विभाग विशेष में उस अवसर पर, राजगृह नामक नगर था। जिस नगर में गृहों के राजा के समान अर्थात् अति उत्तम गृह हों वह राजगृह कह लाता है । परन्तु यहां तो इस नामके नगर से ही अभिप्राय है। शंका-राजगृह नगर तो इस समय भी विद् मान है, फिर 'होत्था-आसीत्-था' इस भूतकाल का प्रयोग क्यों किया गया ? मध्ययननु भा ५९ सूत्र छ. 'तेणं कालेज' त्या ટીકાર્થ–તે કાળે અર્થાત્ ઉપદેશ આપવાવાળા ભગવાન મહાવીરના ઉપદેશ કાળમાં તથા તે સમયમાં અર્થાત્ તે કાળના તે વિભાગ વિશેષમાં, તે અવસરે રાજગૃહ નામનું નગર હતું. જે નગરમાં ગૃહાના રાજા જેવા અર્થાત્ અત્યંત શ્રેષ્ઠ ગૃહે હેય. તે રાજગૃહ કહેવાય છે. પરંતુ અહીંયાં તે ૨જ ગૃહ નામના નગરની સાથે જ સંબંધ છે. શંકા–રાજગૃહ નગર તે આ વખતે પણ વિદ્યમાન છે. તે પછી 'होत्था' 'आसीतू' तुमा प्रमाणे भूताने प्रयास ३ ४२वामा मावत छ ? For Private And Personal Use Only Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका हि.श्रु. अ.७ राजगृहनगरवर्णनम् इति चेत्-'पतिक्षणपरिणामिनो हि भावाः' इति नियमात याविशेषणविशिष्वं सदानी तीर्थकरस्य वर्तमानतायामासीत् , तादृशं सुधर्मस्वामिन उपदेशक्षणेनाऽ. भवत् । विशेषणीभूतस्य वैलक्षण्यस्य परिवर्तनाद्विशेषस्य नगरस्याऽपि रूपौरूप्य मभवदिति भूतकालिकः प्रयोगः सूत्रकृतः सम्भाव्यते । नगरं कीदृशं तत्राह'रिस्थिमियसमिद्धे' प्रदस्तिमितसमृद्धम् । तत्र-अदम्-विभवभवनादिभिवृद्धि सुपगतम् , स्तिमितम्-सपरचक्रभयरहितं स्थिरमिति यावत् , समृदम्-धनधान्यैः परिपूर्ण चासीत् । 'वष्णयो' वर्णकः 'जाव पडिरूवे' यावत्मतिरूपम्-चम्पापुरी वद् वर्णनं ज्ञातव्यम्-उच्चौपपातिकसूत्रे पीयूवर्षिणी टीकायामवलोकनीयम् । 'तस्स गं रायगिहस्स' णमिति वाक्यालङ्कारे तस्य राजगृहनाम्नो नगरमणे: 'बाहिरिया' _____समाधान-सभी पदार्थ क्षण-क्षण परिवर्तनशील हैं, इस नियम के अनुसार राजगृह नगर जिसप्रकार की विशेषताओं वाला भगवान् महावीर की विद्यमानता के समय था, वैसा सुधर्मा स्वामी के इस उपदेश के समय में नहीं रहा। अर्थात् महावीर स्वामी के समय उसकी जो वर्ण, गंध, रस, स्पर्श की पर्याये थी, वह सुधर्मा स्वामी के इस कथन के समय नहीं रही। जब वह पर्यायें नहीं रही तो उस पर्यायों से विशिष्ट राजगृह भी नहीं रहा। इस प्रकार इसके स्वरूप में विरूपता आजाने के कारण सूत्रकार ने भूतकालीन प्रयोग किया है, ऐसा संभव है। वह राजगृह नगर, ऋद्धम्-भवनों से युक्त तथा स्तिमित-स्वचकपरचक्र के भय से रहित अर्थात् स्थिर तथा समृद्ध-अर्थात् धन धान्य से परिपूर्ण था, एवं मनोरम था । उसका वर्णन औपपातिक, सूत्र के पीयूषवर्षिणी टीका में आए चम्पानगरी के वर्णन के समान समझ સમાધાન-સઘળા પદાર્થો ક્ષણ પરિવર્તન શીવ છે. આ નિયમ પ્રમાણે રાગૃહ નગર જે પ્રકારના વિશેષપણાવાળું ભગવાન મહાવીર સ્વામીના અસ્તિત્વના સમયે હતું એ પ્રમાણે સુધર્મા સ્વામીએ આ ઉપદેશ કર્યો તે સમયે રહ્યું ન હતું. અર્થાત્ મહાવીર સ્વામીના સમયે તેના જે વર્ણ, ગંધ, રસ, સ્પર્શની પર્યા હતાં તે સુધર્મા સ્વામીના આ કથનના સમયે રહા નથી. જયારે તે પર્યાયે રહેલ નથી, તે પછી તે પર્યાથી વિશેષ પ્રકારનું રાજગૃહ પણ રહ્યું નથી. આ રીતે આના સ્વરૂપમાં વિરૂપપણું આવી જવાથી સત્રકારે ભૂતકાળનો પ્રયોગ કરેલ છે, તેમ સંભવે છે. તે રાજગૃહનગર દ્ધમ. ભવનથી મૃત તથા તિમિત-સ્વચક્ર પરચક્રને ભયથી રહિત અર્થાત નિર્ભય હોવાથી રિથર તથા સમૃદ્ધ એટલે કે ધનધાન્યથી પરિપૂર્ણ ધન ધાન્ય વિગેરે સમૃદ્ધિથી યુક્ત અને મને હર હતું. તેનું વર્ણન પપ તિસૂત્રમાં આવેલ For Private And Personal Use Only Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतागायत्रे बहिः प्रदेशे 'उत्तरपुरस्थिमे' उत्तरपूर्वस्या दिशोरन्तराले ईशानकोणे इति यावत् 'दिसीमाए' दिग्विभागे 'एत्थ णं' अत्र खलु एतस्य राजगृहस्य 'बाहिरिया' बाबभूमौ 'नालंदा नाम' नालन्दानाम्नी 'बाहिरया' बाहिरका-पाटक:-लघुग्राम: होस्था' आसीत् , साकीशी तत्राह-'अणेगभवण' इत्यादि । 'अणेगमवणसयसंनि: लिहाजाव पडिरूवा' अनेकभवनशतसनिविष्टा-अनेकैः-बहुभिः भवनशतः सन्निविष्टा-युक्ता यावत्पतिरूपा आसीत्-अभूदिति । यावत्पदेन प्रासादीया दर्शनीया अमिरूपा इति ग्राह्यम् ।।१०१-६८॥ मूलम्-तत्थ णं नालंदाए बाहिरियाए लेवे नाम गाहावई होत्था, अड्डे दित्ते वित्ते विच्छिण्णविपुलभवणसयणासण. जाणवाहणाइण्णे बहुधणबहुजायरूवरजए आओगपओगसंपउत्ते विच्छड्डियपउरभत्तपाणे बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूए बहुजणस्त अपरिभूए या वि होत्था । से णं लेवे नामं गाहावई समणोवासए या वि होत्था, अभिगयजीवाजीवे जाव लेना चाहिए, यावत् वह इतना सुन्दर था कि प्रत्येक दर्शक को उसका नया-नया ही रूप दृष्टिगोचर होता था। . 'णं शब्द वाक्य के अलंकार के लिए है अर्थात् वाक्य की शोभा बढाने के लिए प्रयुक्त किया गया है । उम राजगृह के बाह्य प्रदेश में, उत्तर-पूर्व दिशा में अर्थात् ईशान कोण में नालन्दा नामक पाटक (पाडा) मुहल्ला या उपनगर था। उसमें सैरड़ों भवन थे यावत् वह प्रासादीय था, दर्शनीय था, अभिरूप एवं प्रतिरूपथा अर्थात् वह अतीव सुन्दर था ॥१॥ ચમ્પાનગરીના વર્ણનની જેમ સમજી લેવું. યાત્ તે એટલું બધું સુંદર હતું કે- દરેક જેનારાને તેનું નવું જ સ્વરૂપ જોવામાં આવતું હતું. “” શબ્દ વાક્યના અલંકાર મટે છે. અર્થાત્ વાક્યની શોભા વધારવા માટે તેને પ્રયોગ કરવામાં આવેલ છે. તે રાજગૃહના બહારના પ્રદેશમાં– ઉત્તર-પૂર્વ દિશામાં અર્થાત્ ઈશાન ખૂણામાં “નાલન્દા' નામનું પાટક (પાડા) મે હલ્લે અથવા ઉપનગર હતું. તેમાં સેંકડે ભવ હતા યાવત્ તે પ્રસાદીય હતું, દર્શનીય હતું અભિરૂપ અને પ્રતિરૂપ હતું અર્થાત્ તે અત્યંત સુંદર હતું, સૂ.૧ For Private And Personal Use Only Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सेमयार्थबोधिनो टीका द्वि. श्रु. अ. ७ लेपगाथापतिवर्णनम् विहरइ, निग्गंथे पाक्यणे निस्तंकिए निकंखिए निवितिगिच्छे लढे गहियट्रे पुच्छियट्रे विणिच्छियढे अभिगहियट्रे अद्विमिजा पेमाणुरागरते, अयमाउसो ! निग्गंथे पावयणे अयं अहे अयं परमहे सेसे अणटे, उस्सियफलिहे अप्पावयद्वारे चियत्तंते उरप्पवेसे चाउद्दसटुमुदिट्रपुण्णमासिणीसु पडिपुन्नं पोसहं सम्म अणुपालेमाणे समणे निग्गंथे तहाविहेणं एसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभेमाणे बहहिं सीलव्वयगुणविरमणएच्चक्खाणपोसहोववासहिं अपाणं भावेमाणे एवं च णं विहरइ ॥सू० २॥६९॥ छाया- तस्यां खलु नालन्दायां बाह्यायां लेपो नाम गाथापतिरासीत् । आढ्यो दीप्तो वित्तो विस्तीर्णविपुलभवनशयनासनयानवाहनाकीर्णः, बहुधनबहु. जातरूपरजतः, आयोगप्रयोगसम्प्रयुक्तः, विक्षिप्तपचुरभक्तपानो बहुदासीदासगोम. हिषगवेलकपभूतः बहुजनस्य अपरिभूतथाऽप्यासीत् । स खलु लेपो नाम गाथा. पतिः श्रमणोपासकश्वाऽपासीत्, अभिगतजीवाऽजोबो यावद् विहरति । निग्रन्थे प्रवचने निःशङ्कितः निष्काशितः निर्विचिकित्सा-लब्धार्थः-गृहीतार्थ:-पृष्टार्थ:विनिश्चितार्थ:-अभिगृहीतार्थ:-अस्थिमज्ज-प्रेमाऽनुरागरक्तः, इदमायुष्मन् ! नैन्य प्रवचनम्, अयमर्थ:-अयं परमार्यः शेषोऽनर्थ:-उच्छ्तिफलक अपावृतद्वार:-अत्यतान्तःपुरमवेशः चतुर्दश्यष्टम्युददृष्टा पूर्णिमासु प्रतिपूर्ण पौषधं सम्यगनुपाळयन् श्रमणान् निर्ग्रन्थान् तथाविधेन एषणीयेन अशनपानखाधस्वाधेन पतिलाभयन, बहुभिः शीलवतगुणविरमणपत्याख्यानपौषधोपनासै रात्मानं भावयन एवं च खल्लु विहरति ।मु०२-६९॥ टीका-'तस्थ णं' तस्यां यस्या वर्णनमनुपदमेव कृतं तस्याम् 'नालंदाए बाहिरियाए' नालन्दायां बाह्यायाम् 'लेवे नाम गाहावाई होत्या' लेपो नामा गाया 'तत्य णं नालंदाए' इत्यादि। टीकार्थ-उस नालन्दा नामक बाह्य प्रदेश में लेप नामक गाथा पति (गृहपति) रहता था। उस गाथापति में आगे कहे जाने वाली विशेषताएं थीं-- 'तत्थ णं नालंदाए' त्यादि ટીકાઈ–તે નાલન્દા નામના બાહ્યપ્રદેશમાં લેપ નામને ગાથાપતિ (ગૃહપતિ) રહેતે હતિ તે ગાથાપતિમાં આગળ કહેવામાં આવનારી વિશેષતાઓ હતી. For Private And Personal Use Only Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६९२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे • पति :- कश्चिद्गृहपति रासीत् । तस्य गृहपतेर्विशेषणानि वक्ति- 'अड्डे' आय:धनवान् ' दिते' दीप्तः - तेजस्वी 'वित्ते' वित्तः - जगति प्रसिद्धि प्राप्तः । 'विच्छिष्णविपुलभवणसयणासण जाणवाहणा इण्णे' विस्तीर्ण विपुलभवन शयनाऽऽसनयान वाहनाकीर्णः । बहुलगेछ । ऽऽसनशय्यावाहनादिभिः सर्वदेव परिपूर्णः । 'बहुधण बहुजा यरूव रजत्' बहुचनबहुजातरूपरजतः - धनधान्यहिरण्यरजतादिभिः समृद्धः 'आयोगपओगसंपत्ते' आयोगप्रयोगसंप्रयुक्तः - धनोपार्जनोपायज्ञावा- तथोपार्जनेऽतिकुशलः । 'विच्छाडि परमत्तपाणे' विक्षिप्तमचुर भक्तपानः भुक्तावशिष्टौ नादिना अन्धपरवा दिभ्यो दायक: ' बहुदासीदास गोमहिसागवेलगप्पभूए' अनेकदासीदासगोमहिषवेलकम भूतः - अनेकविधदासादीनां स्वामी 'बहुजणस्स अपरिभूए यात्रि होत्था' बहुजनस्यापरिभूतश्चापि आसीत् । अनेकैः सम्भूयाऽपि पराभवितुमयोग्यः, 'इ जाव' पर्यन्तस्य विस्तरव्याख्या उपासकदशाङ्गे प्रथमाध्ययने विलोकनीया । एताशः स उक्तविशेषणविशिष्टगृहपतिरासीदिति । 'सेणं लेवे नामं गाहावई समणो लेव गाथापति धनाढय था, तेजस्वी था और जगत् में प्रख्यात था। विस्तीर्ण- विशाल भवनों, शय्या, आसन, यान ओर वाहन आदि सामग्री से सम्पन्न था। उसके पास बहुत धन-धान्य, चांदी-सोना था । वह धन के उपार्जन के उपायों का ज्ञाता था उनके उपार्जन में बहुत कुशल था। उसके यहां खाने से जो प्रचुर भोजन आदि बच जाता था वह अंधों लूलों-लंगडों को बांट दिया जाता था। वह अनेक प्रकार के दासों -दासियों का स्वामी था। बहुत से लोग मिलकर भी उसका पराभव नहीं कर सकते थे। इसकी विस्तृत विवेचना उपासकदशांग सूत्र के प्रथम अध्ययन में की गई है। उसे देख लेना चाहिए । લૈપ ગાથાપતિ ધનવાન હતા, તેજસ્વી હતા, અને જગતમાં પ્રખ્યાત इन विस्ती - विशाण लवनी, शय्या, आसन, यान रखने वाहन विगेरे सामग्रीथी भरपूर हतो, तेनी पांसे धन, धान्य, यांही, सोनुं ३तु, તે ધન કમાવાના ઉપાયે તે જાણનાર હતા, અને તેમાં ઘણેાજ કુશળ હતા. તેને ત્યાં જમ્યા પછી ઘણુ' એવું ભાજન માટે તૈયાર કરેલ અન્ન ખેંચી જતુ હતુ કે જે લૂલા, લંગડા, આંધળા અને અપંગાને વહેંચી દેવામાં આવતુ હતુ. તે અનેક પ્રકારના દાસેા, દાસીઓના સ્વામી હતા ઘણા લાકો મળીને પણ તેના પરાજય કરી ન શકે તેવા હતા. તેનુ સવિસ્તર વિવેચન ઉપાસક દશાંગસૂત્રના પહેલા અધ્યયનમાં કરવામાં આવેલ છે. તે જોઇ લેવુ. For Private And Personal Use Only · Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ७ लेपगाथापतिवर्णनम् वासए याविहोत्या' स लेपो नाम गाथापतिः श्रमणोपासकश्चाप्यासीत् । उपदेशश्रवण धर्मरागभक्तादिदानेन साधनामुपासकोऽभवत् । 'अभिगय नीवाजीवे जाव विहरई' अभिगतजी गऽजीवो यावद्विहरति जीवाऽजीवानां ज्ञाताऽभवत् । 'निगंथे पावणे णिस्पकिए निक्कंखिए निधितिगिच्छे लद्धढे गहिय?' निग्रन्थे प्रवचने-आहेत प्रवचनोपदेशे निश्शङ्कितः-सन्देहरहितः, निष्काक्षितः-दर्शनाऽन्तरीयेच्छारहित', निर्विचिकित्सा-गुणवतःपुरुषस्याऽनिन्दकः, लब्धार्थः-वस्तुस्वरूपज्ञाता, गृही. तार्थ:-मोक्षमार्गस्वीकर्ता 'पुच्छियट्टे विणिच्छियट्टे अभिगहिय?' पृष्टार्थः विनिश्चितार्थ:-विद्वांसं पृष्ट्वा विशेषरूपेण पदार्थनिश्वेता, अभिगृहीतार्थ:-प्रश्नोत्तरद्वारा सर्वांशेन ज्ञाता, 'अद्विमिनापेमाणुरागरत्ते' अस्थिमज्जाप्रेमानुरागरक्त -तस्या:स्थिमज्जासपि जिनधर्मानुराग आसीत्-मनसा जिनधर्माऽनुरागवान् इत्यर्थः 'अयमाउसो' इदमायुष्मन् ! 'निग्गंथे पावयणे अयं अटे अयं परमट्टे सेसे अगट्टे' नैर्गन्य प्रवचनम् अयमर्थः, अयं परमार्थः-शेषोऽनर्थः । जिनोपदेश एव सारः, ___वह लेप गाथापति श्रमणोपासक था, अर्थात् श्रमगो (साधुओं) के उपदेश को श्रवण करता था, उनके कम का अनुरागी था, उन्हें आहार आदि का दान देता था, अतः उनका उपासक था। वह जीव-अजीव आदि का ज्ञाता था। निर्ग्रन्थ प्रवचन में अर्थात् वीतराग के उपदेश में उसे तनिक भी शंका नहीं थी। किसी अन्य दर्शन को ग्रहण करने की इसकी अभिलाषा नहीं थी। धर्म किया के फल में उसे सन्देह नहीं था। उसने निग्रंथप्रवचन के अर्थ को प्राप्त किया था, ग्रहण कियाथा, जिज्ञासा होने पर पूछा था, पूछ कर निश्चय किया था और उसे अपने चित्त में जमा लिया था। जिनधर्म का अनुराग उसके नस-नस में भरा था उसकी ऐसी श्रद्धा थी कि निग्रन्धप्रवचन ही अर्थ है, यही परमार्थ है - તે લેપ નામને ગાથા પતિ શ્રમણોપાસક હતા. અર્થાત પ્રમાણે સાધુએ) ના ઉપદેશને સાંભળતું હતું, તેના કર્મમાં અનુરાગ-પ્રીતિવાળે હતે, તેઓને આહાર વિગેરેનું દાન આપતું હતું. તેથી તેને ઉપાસક હતે. તે જીવઅજીવ વિગેરે પદાર્થોને જાણવાવાળે હતે. નિર્ગસ્થ પ્રવચનમાં અર્થાત્ વીતરાગના ઉપદેશમાં તેને જરા પણ શંકા ન હતી. કેઈ બીજા દર્શનનો આશ્રય લેવાની તેની ઈચ્છા ન હતી. ધર્મ ક્રિયાના ફળમાં તેને સંદેહ ન હતું. તેણે નિગ્રંથ પ્રવચનના અર્થને પ્રાપ્ત કરેલ હતું. ગ્રહણ કરેલ હતું. અને તેને પિતાના ચિત્તમાં ભરી લીધેલ હતું. જૈન ધર્મ પ્રત્યે અનુરાગ તેની નસે. નસમાં ભરેલ હતા, તેને એવી શ્રદ્ધા હતી કે–નિ પ્રવચન જ અર્થ છે, એજ પરમાર્થ છે, આ સિવાય બીજું બધું અનર્થ છે. તેને યશ બધે જ For Private And Personal Use Only Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्र एतद्व्यतिरिक्तं सर्वमेवाऽसारम्, 'उस्सियफलिहे अप्पायदुवारे चियत्तते उपवेसे' उच्छूितफलका-विस्तृतयशाः, तस्य यशः सर्वत्र प्रसृतमभून् अपावृतद्वारो याचकाय, अनिषिद्धान्तःपुरमवेश:-राज्ञामन्तःपुरेऽपि तस्य प्रवेशोऽनिवारितोऽभवत् , निःशङ्ककार्यकारित्वात् । 'चाउद्दसट्टमुढिपुण्गमासिणीस पडिपुण्ण पोसह सम्म अणुपालेमाणे' चतुर्दश्यष्टम्युददृष्टापूर्णिमासु तत्र-उददृष्टा-अमावास्या, अतिपूर्ण पोषधं सम्यगनुपालयन् , एतासु प्रशस्तासु तिथिषु कृपापधः । 'समणे निग्गंथे तहाविहेणं एसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभेमाणे' श्रमणान् निम्रन्थान तथाविधेन एषगीयेण द्विचत्वारिंशद्दोषरहितेन अशनपानखाद्यस्वायेन पतिलाभयन्-दापयन् 'बहू हिं सीलव्ययगुणविरमणपञ्चक्खाणपोसहोववासेहिअप्पाणं भावेमाणे एवं च णं विहरई' बहुभिः शीलवतगुणवेरमणपत्याख्यानपौषधोपवासैरात्मानं भावयन एवं च खलु विहरति, शीलवतोपवासान्तैः कर्मभिः स्वात्मानं पवित्रयन् धर्माचरणं कुर्वन् आसीदितिअभिगतजीवाजीव इत्यारभ्भ यावद् विहरति इत्यन्तस्य व्याख्यामत्कृतोपासकदशास्त्रस्यागारधर्मसञ्जीवनी टोकातो द्रष्टव्या ॥मू०२-६९। इसके अतिरिक्त अन्य सब अनर्थ हैं । उसका यश सर्वत्र फैला हुआ था। याचकों के लिए सदैव उसके द्वार खुला रहता था। राजाभों के अन्तः पुर में भी उसका प्रवेश निषिद्ध नहीं था । वह चतुर्दशी, अष्टमी अमावास्था और पूर्णिमा के दिन प्रति पूर्ण पौषधवत का सम्यक प्रकार से पालन करता था। निर्ग्रन्थ श्रमणों को एषगीय-वयालीस दोषों से रहित, अशन पान खादिम और स्वादिम आहार आदि बहराता था। तथा बहुत-से शीलवत, गुण, विरमण, प्रत्याख्यान तथा पोषधोपवास आदि से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ विचरता था। ફેલાય હતે. યાચકો માટે હંમેશાં તેના દ્વાર ખુલ્લા રહેતા હતા. રાજાઓના અંતઃપુરમાં-રણવાસમાં પણ તે પ્રવેશ કરી શકતા હતા. અર્થાત્ રાણીવાસમાં જવામાં પણ તેને કઈ કટક ન હતી. તે ચતુર્દશી –ચૌદસ, આઠમ, અમાસ અને પુનમના દિવસે પ્રતિપૂર્ણ પૌષધવત સારી રીતે પાલન કરતો હતો. નિગ્રંથ શ્રમને એષણીય-બેંતાલીસ પ્રકારના દેશે વિનાના અશન, પાન, ખાદિમ અને સ્વાદિમ આહાર વિગેરે વહેરાવતે હવે, તે ઘણું શીલવત, ગુણ, વિરમણ, પ્રત્યાખ્યાન, તથા પૌષધોપવાસ વિગેરેથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતે થકો વિચરતા હતા. For Private And Personal Use Only Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. ध्रु. अ. ७ लेपगाथापतिवर्णनम् मूलम्-तस्स णं लेवस्स गाहावइस्स नालंदाए बाहिरियाए उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए एत्थ णं सेसदविया नामं उदगसाला होत्था। अणेगखंभसयसन्निविटा पासादीया जाव पडिरूवा, तीसे णं सेसदवियाए उदगसालाए उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए, एस्थ णं हस्थिजामे नामं वणसंडे होत्था, किण्हे वण्णओ वणसंडस्त ॥सू० ३॥७॥ छाया-तस्य खलु लेपस्य गाथापतेनालन्दाया बायाया उत्तरपौरस्त्पे दिशिमागे अब खलु शेषदव्या नामोदकशाला आसीत् अनेकस्तम्भशासन्निविष्टा मासादिका यावत् प्रतिरूपा । तस्याः, ख शेषद्रव्याया उदकशालाया उत्तरपौरस्त्ये दिमागे अत्र खलु हस्तियामनामा वनखण्ड आसीत् कृष्णो वर्णको वनषण्डस्य ॥मू०३-७०॥ टीका-'तस्स थे लेवस्स' तस्य-पूर्वोक्तसमृदयादिगुणगणग्रामविशिष्टस्य खलु लेपस्य 'गाहावहस्स' गाथापतेः 'नालंदाए बाहिरियाए' तादृशगाथापतिस्वामिकाया नालन्दाया बाह्याया नगर्याः, 'उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए' उत्तरपूर्वदिशोरन्तराल विभागे-ईशानकोणे इत्यर्थः। 'एत्थ णं सेसदविया नाम उदगसाला होत्था' अत्र खलु शेपदव्या नाम उदकशाला (मपा) आसीत् । कीशी सा उद कशाला तामेव विशिनष्टि 'अणेगवंभ पयसनिविद्वा' अनेकस्तम्भश. तसनिविष्टा-बहुशतसम्भवतीत्यर्थः । 'पासाईया' पासादिका अतिशयिता मनो. _ 'अभिगत-जीवाजीव के स्वरूपके जानकार था और बाकी अगेकी विस्तृत व्याख्या उपासकदशांग मूत्र की 'अगारं धर्म संजीवनी' टीका मे देखनी चाहिए ॥२॥ 'तस्सणं सेवरस' इत्यादि। टोकार्थ--पूर्वोक्त गुणों से सम्पन्न लेर गाथापति की नालंदा के उत्तर पूर्व दिशा में-ईशान कोण में 'शेषद्रव्या' नाम की उदकशाला अर्थात प्याऊ थी। वह उदकशाला सैकड़ों स्तंभों (खंभों) वाली थी, बड़ी ही मनोहर, प्रासादिक और रमणीक थी । उस शेषद्रव्या नामक અભિગત-જીવ અને અજીવ ના સ્વરૂપને જાણવાવાળે હતે. આના સિવાયનું વિશેષ વિવેચન ઉપાસકરશાંગસૂત્ર ની અગારસંજીવની ટીકામાં જોઈ લેવું. સૂ રા 'तस्स णं लेवस्स' त्यादि ટીકાર્થ–પૂર્વોક્ત ગુણોથી યુક્ત લેપ ગાથાપતીની નાલંદાની ઉત્તર પૂર્વ દિશામાં અર્થાત્ ઈશાન કોણમાં “શેષદ્રવ્યા” નામની ઉદકશાળા–અર્થાત્ પરબ હતી તે પરબ સેંકડો થાંભલાવાળું હતું. મોટું હતું, અત્યંત મનહર હતું, For Private And Personal Use Only Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुत्रकृताङ्गसूत्रे हारिणी च पसादयुक्ता वा 'जाव पडिरूवा' यावत्पतिरूपा-सुमनोहरा, यावत्पदेन -दर्शनीया अभिरूपेति ग्राह्यम् । 'तीसेणं सेसदवियाए' तस्याः खलु शेषद्रच्या नामवत्याः 'उदगसालाए' उदकशालाया:-प्रपायाः 'उत्तरपुरस्थिमे दिसीमाए' उत्तरपूर्वस्यां दिशि एत्थ णं' अत्र खलु 'हत्थिनामे णाम वणसंडे होस्था' इस्तियाम: नामा वनषण्ड आसीत् । 'किण्हे रणभो वाणसंडस्स' कृष्णो वर्णको वन पण्डस्य-तद्वनं कृष्णरूपं बहुविधपुष्पपुष्करिणीपक्षिमृगादिभिरावृत्तमासीत् एतस्य व्याख्या औपपातिक सूत्रे पीयूषवर्षिणी टोकायां विलोकनीया ॥५०३-७०॥ मूलम्-तस्सिं च णं गिहपदेसंमि भगवं गोयमे विहरह, भगवं च णं अहे आरामंसि । अहे णं उदए पेढालपुत्ते भगवं पासावच्चिज्जे नियंठे मेयज्जे गोत्तेणं जेणेव भगवं गोयमे तेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भगवं गोयमं एवं वयासी-आउसंतो! गोयमा ! अस्थि खलु मे केइ पदेसे पुच्छियब्वे तं च आउसो! अहासुयं अहा दरिसियं मे वियागरेहि सवायं, भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्ते एवं वयासी अवियाइ आउसो! सोच्चा णिसम्म जाणिस्सामो सवायं उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयमे एवं वयासी ॥सू० ४॥७॥ छाया-तस्मिंश्च गृहमदेशे भगवान् गौतमो विहरति, भगवांश्वाध आरामे । अथ खलु उदकः पेढालपुत्रः भगवत्पार्थापत्यीयः निर्गन्यः मेदार्यों गोत्रेण यत्रैव भगवान् गौतमस्तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य भगवन्तं गौतममेवमवादीद आयुष्मन् गौतम ! अस्ति खलु में कोऽपि प्रदेशः Rष्टव्यः, तच्चाऽऽयुन् ! यथा उदकशाला के उत्तर पूर्व दिशा में हस्तियाम नामक वनखण्ड था। वह कृष्ण वर्ण था, इत्यादि वर्णन यहां औपपातिक सूत्र के अनुसार कर लेना चाहिए। अर्थात् वह विविध प्रकार के पुष्पों पुस्करिणियों पक्षियों, मृगों आदि से युक्त था। इनकी व्याख्या औपपातिकसूत्र की पीयूषवर्षिणी टोका में देख लेनी चाहिए ॥३॥ પ્રાસાદય અને રમણુંય હતું. તે શેષદ્રવ્ય” નામની ઉદકશાળા-પરબની ઉત્તર પૂર્વ દિશામાં હસ્તિયામ નામનું વનખંડ હતું. આ વનખંડ કૃષ્ણવર્ણવાળું હતું વિગેરે વર્ણન અહીંયાં ઔપપાતિક સૂત્રમાં કહ્યા પ્રમાણે સમજી લેવું અર્થાત્ તે જાદા જુદા પ્રકારના પુપિ, પુષ્કરિણયે, પક્ષિ, વિગેરેથી યુક્ત હતું આની વ્યાખ્યા ઔપપાતિક સૂત્રને પ યૂષ ષિણી ટીકા માં જોઈ લેવી. સૂ૦ રૂા For Private And Personal Use Only Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्यबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ७ उदकपेढालपुत्रस्य शङ्काप्रदर्शनम् श्रुतं यथादर्शनं मे व्याणीहि सवादं भगवान् गौतमः उदकं पेढालपुत्रमेवमवादीद अपि चेदायुष्मन् ! श्रुत्वा निशम्य ज्ञास्यामः सवादमुदकः पेढालपुत्रो भगवन्तं गौतममेवमवादीत् ॥ ०४-७१॥ १९७ टीका- 'तस्सिं चणं गिद्दपदेसंमि भगवं गोयमे विहर' तस्मिंश्च खलु गृहमदेशे भगवान गौतमो विहरति । बनवण्डीय गृहसमीपे गौतमः कदाचित् समसृतः । 'मत्र च णं अहे आरामंसि' भगवांश्चाचः आर में, स च गौतमः पूर्वानु पूय विहरन् ग्रामानुग्रामं द्रवन् बनवण्डे समवसृत इत्यर्थः, 'अहे णं उदए पेढाल पुसे भगवं पासावञ्चिज्जे नियंठे मेवज्जे गोतेण जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छर' अथ खल उदकः पेढालपुत्रो भगवत्पार्श्वपस्थीयः - भगवत्पार्श्वस्वामिनः परम्पराशिष्यापत्यम्, निर्ग्रन्यो गोत्रेण मेदार्य:- मेदार्यगोत्रेण निर्ग्रन्थः- मेदार्यगोत्रो निर्ग्रन्थ इत्यर्थः यत्र गौतमस्तत्रोपागच्छति भगवतः श्री पार्श्वनाथस्य परम्पराऽपत्यं मैदार्यगोत्रो भगवतो गौतमस्य समीपमागत्योपविशति । 'उवागछत्ता' उपागत्य 'भगवं गोयमं एवं वयासी' भगवन्तं गौतममेवमवादीत्, 'आउसो गोमा !' आयुष्मन् गौतम ! 'अस्थि मे केइपदे से पुच्छियन्वे' अस्ति खलु मे कश्चित्मदेशः प्रष्टव्यः - आगमोक्तं प्रष्टव्यं मे किञ्चिद्विद्यते । 'तं च आउसो ! अहासुयं , For Private And Personal Use Only 'सि च णं' इत्यादि । टीकार्थ - एक वार गौतम स्वामी उस वनखण्ड में बने गृह के समीप पधारे । अर्थात् अनुक्रम से विहार करते हुए और एक ग्राम से दूसरे ग्राम पहुंचते हुए उस वनखण्ड में पधारे। उस समय उदकपेढाल पुत्र नामक निर्ग्रन्थ, जो भगवान् पाश्र्वनाथ की परम्परा के शिष्य थे, तथा मेदार्य गोत्रीय थे, भगवान् गौतम के समीप आकर बैठे । समीप आकर उन्होंने गौतम से कहा- हे आयुष्मन् गौतम ! मुझे आप से कुछ 'तहिंस चणं' इत्याहि ટીકા ...એકવાર ગૌતમ સ્વામી તે વનખંડમાં બનેલા ગૃહની નજીક પધાર્યા અર્થાત્ અનુક્રમથી વિહાર કરતાં કરતાં અને એક ગામથી ખીજે ગામ પહેાંચતા થકા તે વનખંડમાં પધાર્યા. તે વખતે ઉદક પેઢાલપુત્ર નામના નિગ્રન્થ કે જે ભગવાન પાર્શ્વનાથની પર ંપરાના શિષ્ય હતા તથા મેદા` ગોત્રના હતા. તેઓ ભગવાન્ ગૌતમસ્વામીની પાંસે આવીને બેઠા અને તે પછી ગૌતમસ્વામીને કહ્યું કે-હ આયુષ્મન ગૌતમ! મારે આપને કંઈક પૂછવું છે, તેના ઉત્તર सू० ८८ Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतानसून अहादरिसियं मे वियागरे । समाय' हे आयुष्मन् ! तं प्रश्नं यथा श्रुतं यथादर्शक ने व्यागृणीहि-कथय सवाद-वादेन सहितम्, यथा भगवतो महावीरस्य समीपे भगवखा श्रुतं निश्चितश्च तथा सवाद मे कथयेत्यर्थः, ततः 'भगवं गोयमे उदयं पेढालपुर्व एवं यासी' भगवान गौतम उदकनामानं पेढालपुत्रमेवम्-वक्ष्यमाणपकारं धच मादीत् । 'अवियाइ आउसो! सच्चा निसम्म जाणिस्सामो सवार्य' अपि चेत्-अ युष्मन् ! श्रुत्वा निशम्य वर्ष ज्ञास्यामः सवादम्, गौतमोऽवोचत् भगवत्पश्न श्रुत्वा यद्यहं ज्ञास्यामि-दा-सवादं तदुसरं दास्यामि । 'उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयम एवं वयासो' पेढावपुत्रो भगवन्तं गौतममेवमादीदिति ॥४-७१॥ . मूलम्-आउसो! गोयमा! अस्थि खलु कुमारपुत्तिया नाम समणा निग्गंथा तुम्हाणं पवयणं पत्रयमाणा गाहावई समगोवासगं उबसन्नं एवं पच्चरखानोति-गण्णत्थ अभिओएणं गाहावइ चोरग्गहणविमोक्खणयाए तसेहिं पाणेहिं णिहाय दंडं, एवं णं पच्चक्खंताणं दुप्पच्चक्खायं भवइ, एवं ण्हं पच्चक्खावेमाणाणं दुपच्चक्खावियत्वं भवइ, एवं ते परं पच्चक्खावेमाणा अतियरंति सयं पतिपणं, कस्स तं हेउं ? संसारिया खलु पाणा थावरा वि पाणा तसत्ताए पञ्चायंति, तसा वि पाणा पूछना है। उसका उत्तर भगवान महावीर से आग्ने जैसा सुना है और विचार किया है, वह मुझसे वाद सहिन अर्थात् युक्तिपूर्वक कहिए। गौतम स्वामी ने उदकपेढार पुत्र से इस प्रकार कहा-आयुष्मन् । आपके प्रश्न को सुनकर यदि मुझे ज्ञान होगा तो वाद के साथ उसका उत्तरदंगा। तब उदक पेढालपुत्र भगवान् गौतम से इस प्रकार कहने लगे-॥४॥ ભગવાન મહાવીર સ્વામી પાસેથી તમે જે પ્રમાણે સાંભળેલ હોય અને વિચારેલ હોય તે પ્રમાણે મને વાદ સહિત અર્થાત યુક્તિયુક્ત રીતે કહો. ગોતમસ્વામીએ ઉદકપેઢાલ પુત્રને આ પ્રમાણે કહ્યું છે આયુષ્માન આપના પ્રશ્નને સાંભળીને જે મારા જાણવામાં હશે તે વાદ સહિત એટલે કે સયુક્તિક રીતે તેને ઉત્તર આપીશ. તે પછી ઉદપેઢાલપુત્ર ભગવાન ગૌતમને આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા. સૂ૦ હો . For Private And Personal Use Only Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सार्थबोfuttarai fr. शु. अ. ७ उ० प्रत्याख्यानविषयकशङ्का प्रदर्शनम् ६९९ थावरताप पच्चायंति, थावर कावाओ विष्पमुचमाणा तसकायंसि 'उववजीत, तसकायाओ विप्पमुच्चमाणा थावरकायंसि उववजंति, तेर्सि चणं थावरकायंसि उववण्णाणं ठाणमेयं घतं । सु०५ ॥ ७२ ॥ छाया - आयुष्मन् ! गौतम ! सन्ति खलु कुमारपुत्राः नाम श्रमणाः निर्ग्र न्याः युष्माकं प्रवचनं प्रादन्तः गायारतिं श्रमणोपासक मुसन्नमेवं प्रत्याख्यापयन्ति नान्यत्राभियोगेन गाथापत्तिचोरग्रहणविमोक्षणेन त्रसेषु प्राणेषु निहाय दण्डम् एवं प्रत्याख्वायतां दुष्प्रत्याख्यानं भवति, एवं प्रत्याख्यापयतां दुष्पत्याख्यापयितव्यं भवति, एवं ते प्रत्यारूपापयन्तोऽति-चरन्ति स्वां प्रतिज्ञाम् । 'कस्थ हेतोः संसारिणः खलु प्राणाः-स्थावरा अपि प्राणाः सत्वाय प्रत्यायान्ति त्रसा अपि प्राणाः स्थावरस्वाय मत्यायान्ति स्थावर कायाद् विमुच्यमानाः सकाये पृत्पद्यन्ते, सकायाद् विमुच्यमानाः स्थावरकायेप्रत्ययन्ते तेषां च खलु स्थावरकायेषूपन्नानां स्थानमेतद् घात्यम् ||५ ७२|| टीका- 'आउसो गोवमा !' आयुष्मन् गौतम ! उदको वदति भगवन्तं गौतमम्, हे गौतम! 'अस्थि खलु कुमारपुत्तिया नाम समगा निग्गंथा' सन्ति खलु कुमारपुत्राः श्रमणा निर्यन्याः - कुमारपुत्रा नामानो जैनाः साधवः सन्ति । 'तुम्हाणं पत्रयणं पत्रयमाणा गावई सणास उवसन्नं एवं पञ्चकखार्येति' युष्माकं प्रवचनं प्रवदन्तो गाथापतिं श्रमणोपासकम् उपसन्नमेवं प्रत्याख्यापयन्ति, ते च कुमारपुत्राः साधवो भगवतः प्रवचनमनुवर्त्तमानाः श्रावकानेवं प्रत्याख्यापयन्ति । 'णण्णत्थ अभिओएणं गाहावइवोरगहण विमोक्खयाए' नाऽन्यत्राऽमियोगेन गाथापतिचोर 'आउसो ! गोयमा' इत्यादि । टीकार्थ - - उदक पेढालपुत्र ने भगवान् गौतम से कहा- आयुष्मन् गौतम ! कुमार पुत्र नामक श्रमण निर्ग्रन्थ हैं जो आपके प्रवचन का उपदेश करते हैं। जब कोई श्रमणोपासक प्रत्याख्यान करने के लिए उनके पास पहुंचता है तो वे उसे यों प्रत्याख्यान करवाते हैं- 'राजा आदि के अभियोग (बलात्कार) के सिवाय, गाथापति चोर विमोक्षण “आउसो गोयमा' इत्यादि ટીકા ઉદકપેઢાલપુત્રે ભગવાન ગૌતમને કહ્યું-હું આયુષ્મન ગૌતમ ! કુમાર પુત્રક નામના શ્રમણ નિગ્રન્થ છે, જે આપના પ્રવચનના ઉપદેશ કરે છે. જ્યારે કોઇ શ્રમણેાપાસક પ્રત્યાખ્યાન કરવા માટે તેમની પાસે જાય છે, તે તે તેને આ પ્રમાણે પ્રત્યાખ્યાન કરાવે છે. ‘રાજા વિગેરેના અભિયેાગ (બલાત્કાર) For Private And Personal Use Only Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra مقف www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसू ग्रहण विमोक्षणेन, अन्तरेण राजाद्यमियोगं तत्राऽभियोगः - अपराधः गाथापतिचोरग्रहणविमोक्षण दृष्टान्तेन प्रत्याख्यानं कारयन्ति तद्यथा 'तसेहिं पाणेहिं विहाय दंड' समाणिषु दण्डं - हिंसां निहाय त्यक्त्वा समाणिषु दण्डस्य प्रत्याख्यानं भवति । 'एवं पचकता दुप्पच्चक्खायं भवई' एवं प्रत्याख्यानवतां दुष्प्रत्याख्यानं भवति, स्थूलकाय हिंसां त्यक्त्वा सूक्ष्मेषु प्रत्याख्यानं करोति तदेतत्पस्याख्यानं न समीचीनम्अनया रीत्या क्रियमाणं प्रत्याख्यानं न युक्तम् । 'एवं हे पञ्चवक्खावेमाणाणं दुपञ्चवखाविroj भव' एवं प्रत्याख्यापयतां दुष्प्रत्याख्यापयितव्यं भवति । परन्तु वक्ष्यमाणरीत्या प्रत्याख्यानं कर्त्तव्यमिति मे प्रतिभाति । कुतो दुष्पत्याख्यानमिदं तत्राह - 'एवं ते परं पच्चक्खावेमाणा अतिवरंति सयं पतिष्णं' एवं प्रत्याख्यापयन्तोऽति चरन्ति स्वां प्रतिज्ञाम् एवं कुर्वाणाः स्वकीयां प्रतिज्ञामेत्र हापयन्ति । 'कस्स णं तं हे तत् कस्य हेतोः प्रतिज्ञाभङ्गः, 'संसारिया खलु पाणा थावरा 'विपाणा तसत्ताए पच्चायति' संसारिणः खलु प्राणाः सर्वे जीवाः कर्मपराधीनाः स्थावर । अपि प्राणाः सत्वाय प्रत्यायान्ति । इदानीं ये स्थावराः ते एव कालान्तरे कर्मबलात् सयोनिमापयन्ते 'तसा वि पाणा थावरचाए पच्चा'यंति' सा अपि स्थावरत्वाय प्रत्यायान्ति, 'थावर कायाओ विष्पमुच्चमाणा तस'कार्यसि उववति' स्थावर कायाद् विप्रमुच्यमाना खसका ये प्रपद्यन्ते । 'तसकायाओ के न्याय से बस जीवों की हिंसा का त्याग है।' किन्तु इस प्रकार का प्रत्याख्यान खोटा प्रत्याख्यान है । ऐसा प्रत्याख्यान करने वाले अपनी की हुई प्रतिज्ञा का उल्लंघन करते हैं, किस प्रकार वे अपनी प्रतिज्ञा का उल्लंघन करते हैं, वह मैं कहता हूं । संसार के सभी प्राणी कर्मों के अधीन हैं । स्थावर पाणी कभी त्रसपर्याय धारण कर लेते हैं और इस समय जो प्राणी त्रस हैं वे कर्मोदय से स्थावर के रूप में आजाते हैं। अनेक जीव सकाय से छूटकर स्थावर काय સિવાય ગાથાપતિ ચારવિમૈક્ષણુના ન્યાયથી ત્રસ જીવેાની હિંસાના ત્યાગ છે, પરંતુ આવા પ્રકારનું પ્રત્યાખ્યાન ખેઢુ પ્રત્યાખ્યાન છે. આવું પ્રત્યાખ્યાન કરવાવાળા પાતે કરેલી પ્રતિજ્ઞાનું ઉલ્લઘન કરે છે. કઇ રીતે તેઓ પેાતાની પ્રતિજ્ઞાનું ઉલ્લંઘન કરે છે. તે કહુ છું. સંસારના સઘળા પ્રાણિયા . ક્રાંત અધીન છે. સ્થાવર પ્રાણી પણ કયારેક ત્રસર્યાંય ધારણ કરી લે છે. અને વમાન સમયેજે ત્રણ પ્રાણી છે, તેએ કમના ઉદયથી સ્થાવરપણામાં આવી જાય છે. અનેક જીવા ત્રસકાયથી દૃષ્ટિને સ્થાવરપણામાં ઉત્પન્ન થાય છે. અને For Private And Personal Use Only Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir G समयार्थबोधिनी टीका द्वि.श्रु. अ. ७ गा. चोरग्रहणविमोचनन्यायस्वरूपम् ७०१ विप्पमुच्चमाणा थावरकायसि उववज्जति' त्रसकायाद्विप्रमुच्यमानाः स्थावरकाये धृत्पद्यन्ते । 'तेति च णं थावरकायंसि उवत्रणाणं ठाणमेयं धत्तं तेषां च स्थावर कायेपनानां स्थानमेतद् घात्यम्, कदाचित् त्रसाः स्थावरतामापद्यन्ते कर्मत्रला स्पूर्वशरीरं परित्यजन्ता, तथा-स्थावरा अपि पूर्व स्थावाशरीरं परित्यजन्तो विळक्षणकर्मबलात् प्रसशरीरम् आप्नुवन्ति । प्रतिज्ञा कृता सजीवविषया, सच स्थावरतां गतः । स्थावरे विहन्यमाने प्रतिज्ञा कथमुपपादिता स्यादिति भावः । अतः प्रत्याख्याने किचिद्विशेषणीयं येन प्रतिज्ञा संपादिता स्यादिति मे मतिः। ____ गाथारतिचौरग्रहणविमोचनन्यायस्वरूपमित्थम्-तथाहि-कुत्रचिदेशे-एकोराजा आसीत् तेन कदाचिदेवं विज्ञापितम्-अहो लोकाः! अद्य नगराद् बहिरुघाने कौमुदीमहोत्सवो मन्तव्यो वर्तते । अतोऽस्यां रात्रौ नगरे केनापि न ६व्यम् - किन्तु-ततो बहिरुघाने गन्तव्यम् । अन्यथा-पाणदण्डो भविष्यति, तच्छूवा में उत्पन्न हो जाते हैं और स्थावर काय से छूटकर बस कापमें उत्पन्न हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में प्रतिज्ञा करने वाले ने त्रस जीवों की हिंसा का त्याग किया और उस जीव स्थावर के रूप में उत्पन्न हो गया तो उस समय वह उसका घात करने लगेगा। इस प्रकार स्थावर जीव का घात करने पर उसकी प्रतिज्ञा खंडित हो जाती है। अतएव प्रतिज्ञा लेते समय ऐसा कुछ विशेषण जोड़ना चाहिए जिससे मतिज्ञा खण्डित न हो। ऐसा मेरा अभिप्राय है। ऊपर गाथापति चोर विमोक्षण नामक जिसन्याय (उदाहरण) का उल्लेख किया गया है, उसका स्वरूप इस प्रकार है-किसी जगह एक राजा था । एक बार उसने घोषणा करवाई-हे लोको ! आज नगर के बाहर उद्यान में कौमुदी महोत्सव मनाना है, अतएव इस रात्रि के સ્થાવરપણામાંથી છૂટીને ત્રસકાયમાં ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. એવી સ્થિતિમાં પ્રતિજ્ઞા કરવાવાળાએ ત્રસ જીવેની હિંસાને ત્યાગ કર્યો અને ત્રસ તથા સ્થાવરપણુથી ઉત્પન્ન થયા. તે તે સમયે તેને વાત કરવા લાગશે. આ રીતે સ્થાવર જીવને ઘાત કરવાથી તેની પ્રતિજ્ઞા ખંડિત થઈ જાય છે. તેથી જ પ્રતિજ્ઞા લેતી વખતે એવું કંઈક વિશેષણ જવું જોઈએ કે જેનાથી પ્રતિજ્ઞા ખંડિત ન થાય. આ પ્રમાણે મારો અભિપ્રાય છે . ઉપર ગાથાપતિ ચેરવિમેક્ષણ નામના જે ન્યાયનું ઉદાહરણ આપીને તેને ઉલ્લેખ કર્યો છે, તે ન્યાય આ પ્રમાણે છે. કેઈ સ્થળે એક રાજા હતા તેણે જાહેરાત કરાવી કે-હે લેકે ! આજે નગરની બહાર ઉદ્યાનમાં કોમી નામને ઉત્સવ મનાવે છે. તેથી રાત્રીના સમયે કોઈએ શહેરની અંદર રહેવું For Private And Personal Use Only Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - ७०२ सूत्रकृताहरुले सायकालात्मागेव सर्वे नगराद् बहिरुधानं गतवन्तः, किन्तु-तत्रैकस्य वैश्यस्य पश्चपुत्राः कार्यासक्तमनसः यथाकालं नगराद् वहिर्गन्तुं न पारितवन्तः, पश्चात् कियद्रात्रिव्यतीतानन्तरं स्मरणे जातेऽपि कपाटबन्दीभूतानगरद्वाराद् बहिर्गन्तु मसक्ताः सन्तस्तत्रैव स्थितवन्तः । ततः प्रभाते राजपुरुषेण राज्ञोऽपमानमिति कृत्वा ते गृहीता आनीताश्च राजान्तिकम् । राज्ञा जातामर्षेण पञ्चानामपि तत्पु. बाणां वधे आज्ञप्ते तत्पिता वैश्यः तेषां विमोक्षणाय बहुमुद्योगं चकार । विफली. भूते तदुद्योगे चतुर्णा त्रयाणां द्वयोरेकस्य च क्रमगत्या विमोचनाय राजानमनुसमय कोई नगर के अन्दर न रहे । मष बाहर उद्यान में जाएं । जो इस आदेश का उल्लंघन करेगा उसे प्राणदण्ड दिया जाएगा। __ यह घोषणा सुनकर सब नगर निवासी संध्या होने से पहले ही बाहर उद्यान में चले गये। किन्तु एक वणिक के पांच पुत्र कार्य में अत्यन्त व्यस्त होने के कारण उक्त आदेश को भूल गये और जब स्मरण हुवा उस समय नगर के द्वार बन्ध होने से बाहर न जा सकने के कारण अपने पांचों नगर में ही रह गये प्रभात होने पर राजपुरुष उनका नगर में रहना सहन न कर सके। उन्होंने इसे राजा का अपमान समझकर उन्हें पकड लिया और राजा के समक्ष उपस्थित किया। राजा ने क्रुद्ध होकर पांचों पुत्रों के प्राण वध की आज्ञा दे दी। तष वणिक ने उन्हे छुडाने का उद्योग किया। जब उसका यह उद्योग सफल नहीं हुआ तो चार पुत्रों को बचाने का प्रयत्न किया। वह भी असफल रहा तो तीन को, दो को और अन्त में विवश होकर નહીં બધાએ બહાર ઉદ્યાનમાં જવું. જે આ હુકમનું ઉલઘન કરશે, તેને પ્રાણુન્તની શિક્ષા કરવામાં આવશે. આ જાહેરાત સાંભળીને બધા જ નગર જને સાંજ થતાં પહેલાં જ નગરની બહાર બગીચામાં ચાલ્યા ગયા. પરંતુ એક વાણિયાના પાંચ પુત્રો કામમાં અત્યંત મશગુલ હોવાથી રાજાના તે હેકમને ભૂલી ગયા અને જ્યારે યાદ આવ્યું ત્યારે નગરના દરવાજા બંધ હેવાથી બહાર જઈ શકયા નહીં તેથી તેઓ પાંચે જણ શહેરમાં રહી ગયા. રાજપર તેઓનું નગરમાં રહેવાનું સહન કરી શકયા નહીં તેઓએ તેને રાજાનું અપમાન સમજીને તે પાંચ જણાને પકડી લીધા અને રાજાની પાસે હાજર કર્યા રજાએ ક્રોધયુક્ત થઈને પાંચ જણાને ફાંસીએ ચડાવવાનો હુકમ કર્યો. તે વખતે વાણીયાએ તેઓને છોડાવવા ઘણે પ્રયત્ન કર્યો પરંતુ જ્યારે તે પ્રયનમાં સફળ ન થયા ત્યારે ચાર પુત્રોને બચાવવા પ્રયત્ન કર્યો તેમાં પણ તે નિષ્ફળ થયે. જેથી ત્રણને પછી બેને અને છેવટે વ્યાકુળ થઈને એક પુત્રને For Private And Personal Use Only Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मार्थबोधिनी टीका द्वि. थु. अ. ७ उ० प्रत्याख्यानविषये उदकस्याभिप्रायः ७०३ नीतवान् । अनुनीतेन राज्ञा च केवलमेकपुत्रवधत्यागमात्रेण अनुगृहीतः स वैश्यः । तद्वत् साधुः सर्वेषामपि वधं निवारयन कालगत्या दुरत्ययैकस्यापि बधं निवारयेदिति सोऽयं गाथापति चोरग्रहणविमोचनन्यायः ॥५-७२॥ मूलम् एवं पहं पञ्चकखंताणं सुपच्चक्खायं भवइ, एवं पह पञ्चखावेमाणाणं सुपच्चक्खावियं भवइ, एवं ते परं पचपखावेमाणा णाइयरंति सयं पवणं, णवणत्थ अभिओगेणं गाहावइवोरगहणविमोक्खणयाप तसभूएहिं पाणेहिं निहाय दंडं, एवमेव सइभासाए परक्कमे विज्जमाणे जे ते कोहा वा लोहा वा परं पञ्चखावेंति अयं पिणो उवएसे णो णेयाउए भवइ, अवियाई आउसो ! गोयमा ! तुब्भं पि एवं रोयइ ॥ सू० ६ ॥ ॥७३॥ छाया - एवं खलु प्रत्याख्यायतां सुप्रत्याख्यातं भवति । एवं खलु प्रत्याख्यापयतां प्रत्याख्यापितं भवति । एवं ते परं प्रत्याख्यापयन्तो नातिवरन्ति स्त्रीयां प्रतिज्ञाम्, नान्यत्राऽभियोगेन गाथापतिचोरग्रहणविमोक्षणतः सभूतेषु प्राणेषु निशय दण्डम् । एवमेव सति भाषायाः पराक्रमे विद्यमाने ये ते क्रोधाद्वा लोभाद्वा परं प्रत्याख्यापयन्ति ( तेषां मृषावादो भवति) अयमपि न उपदेशो, नैयायिको भवति । अपि च आयुष्मन् ! गौतम ! तुभ्यमपि एवं रोचते ॥६-७३॥ न एक पुत्र को बचानेका अत्यंत विनय के साथ प्रयत्न किया वणिक के अनुनय-विनय को स्वीकार करके राजाने एक पुत्र को बचाने को प्राणवध से मुक्त किया। इसी प्रकार साधु तो सभी प्राणियों के प्राणातिपात का त्याग करना चाहता है किन्तु जब यह संभव नहीं होता और कोई सब प्राणियों के प्राणातिपात का त्याग करने में समर्थ नहीं होता तो जितना त्याग कर सके उतनाही करवाता है। यही गाथापति चोर विमोक्षणन्याय का अभिप्राय है ॥ ५ ॥ અચાવવા માટે ઘણા જ વિનયપૂર્ણાંક પ્રયત્ન કર્યાં તે વાણિયાના વિનયને સ્વીકારીને રાજાએ તેના એક પુત્રને ફાંસીથી મુક્ત કર્યાં. આ પ્રમાણે સાધુ તે બધા જ પ્રાણિયાના પ્રાણાતિપાતનેા ત્યાગ કરવાની ઈચ્છા રાખે છે. પરતુ જ્યારે તેના સંભવ હાતા નથી. અને કેાઈ બધા જ પ્રાણિયાના પ્રાણાતિપાત (હિંસા)ના ત્ય ગ કરવામાં સમય થતા નથી તેા જેટલાને ત્યાગ કરી શકાય એટલાના જ ત્યાગ કરાવે છે. આજ ગાથા િચારવિમાક્ષણ ન્યાયના અભિપ્રાય છે. સૂ॰ પાા For Private And Personal Use Only Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Mo: सूत्रकृताङ्गसूक्रे टीका - उदकः पेढालपुत्रः स्वाभिमतं सुपत्याख्यानस्वरूपं दर्शयति पराकृत्य पराभिमतं शास्त्रसिद्धं च स्वपत्याख्यानम् । एवं पचकवताणं सुपच्यवखायं भवः' एवं खलु प्रत्याख्यायतां सुप्रत्याख्यातं भवति । परन्तु य एवं प्रत्याख्यानं करोति तस्य सुप्रयाख्यानं भवतीति । एवं छं पञ्चकखावेमाणं सुरचक्रखावियं भबई' एवं खलु प्रत्याख्यानं कारयति - तदीयं प्रत्याख्यानं सुप्रत्याख्यापितमिति । 'एवं ते परं पच्चखावे माणा गातियरंति सयं पड़गं' एवं प्रकारेण परं प्रत्याख्यापंचतो नातिचरन्ति-नातिक्रामन्ति स्वकीयां प्रतिज्ञामिति । स्वाभिमत प्रस्था स्यानप्रकारं दर्शयति । 'गणत्थ आमिओगेणं गाहावइचोरग्गहण विमोक्खणयाए' नान्यत्राभियोगेन गाथापतिचोर ग्रहण विमोक्षणतः 'तसभूएहिं पाणेहिं विहाय दंड' असभूतेषु प्राणेषु निहाय दण्डम्, तत्र अभूत् भवति भविष्यतीति भूतः जीव इत्यर्थः, प्रसपदोत्तरं भूतपदं निवेश्यम् तथा च- 'एवमेव सइ भासाए परकमे विज्जमाणे' Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ' एवं हं पञ्चकताणं' इत्यादि । टीका - उदक पेढाल पुत्र अपने अभीष्ट प्रत्याख्यान के स्वरूप को कहते हैं । इस प्रकार से प्रत्याख्यान करने वालों का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है और इस प्रकार से प्रत्याख्यान करने वालों का सुप्रत्याख्यान कराना कहलाता हैं । जो इस प्रकार प्रत्याख्यान कराते हैं, वे अपनी प्रतिज्ञा का उल्लंघन नहीं करते अब प्रत्याख्यान की वह विधि दिखलाते हैं - राजाभियोग को छोड़ कर गाथापति चोर विमो क्षण न्याय से सभूत अर्थात् वर्तमान काल में जो जीव त्रस पर्याय में है, उनकी हिंसा का त्याग है । अभिप्राय यह कि 'स' इस शब्द के आगे एक 'भूत' शब्द और लगा देना चाहिए । 'भूत' शब्द जोड 'एव' ह पञ्चसंताणं' रियाहि ટીક થ”—ઉડક પેઢાલપુત્ર પેાતાને ઇષ્ટ પ્રત્યાખ્યાનના સ્વરૂપને મનાવે છે. તે આ પ્રમાણે છે—પ્રત્યાખ્યાન કરવાવાળાએ નુ પ્રત્યાખ્યાન સુપ્રત્યાખ્યાન કહેવાય છે. અને આવા પ્રકારથી પ્રત્યાખ્યાન કરવાવાળાએને સુપ્રત્યાખ્યાન કાવવુ તેમ કહેવાય છે. જેએ આવી રીતે પ્રત્યાખ્યાન કરાવે છે, તેએ પાતાની પ્રતિજ્ઞાનું ઉલ્લંધન કરતા નથી. હવે તે પ્રત્યાખ્યાનની વિધિ બતાવતાં કહે છે-રાજાભિયેગ-રાજાદ્વારા થયેલ વિઘ્નને છેાડીને ગાથાતિ ચારવિમેક્ષણુ ન્યાયથી ત્રસભૂત અર્થાત્ વમાન કાળમાં જે જીવે ન્નસ પર્યાયમાં રહેલા છે. તેની હિં`સાનેા ત્યાગ કરેલ છે. કહેવાના આશય એ છે કેસ આ શબ્દની આગળ એક ‘ભૂત' શબ્દ For Private And Personal Use Only Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. म. ७ प्रत्याख्यानविषयें उदकस्याभिप्रायः ७०५ एवमेव सति भाषायाः पराक्रमे विद्यमाने । भूतपददानेन शक्तिबलात् क्रियमाणं प्रत्याख्यानं सुप्रत्याख्यानं भवति अनतिचरितं भवति प्रतिज्ञा भङ्गोऽपि न भवति । विधस्थित जे ते कोहा वा लोहा वा परं पञ्चक्खावेति' ये ते पुरुषाः क्रोधाद्वा छोभाद्वा स्वाग्रहाद्वा भूतपदमन्तरेण परं प्रत्याख्यापयन्ति ते स्वकीयां प्रतिज्ञामतिक्रामन्ति । 'अयं पिणो उवर से णो णेयाउए भवई' अयमपि उपदेशो न नैयायिकोन न्यायसिद्धो भवतीति मन्मतानुसारेण तु भूतपदघटितमत्याख्यानं न्यायसिद्ध. मैत्र । 'अवियाई आउसो गोयमा ! तुमंषि एवं रोय' अपि च आयुष्मन् हे गौतम ! तुभ्यमध्येवं रोचते मदुक्तं किं भवते वा न रोचते युक्तियुक्तमहं कथयामि मद्भिरपि स्वीकर्तव्यम् । एवं सति प्रतिज्ञाभङ्गो न भवति प्राणिरक्षण 'सुव्यवस्थितमिति ॥ मु०६-७३ ।। मूलम् - सायं भगवं गोयमे ! उदयं पेढालपुत्तं एवं वयासीआउसंतो ! उदगा ! नो खलु अम्हे एयं रोयह, जे ते समणा वा माहणा वा एमाइक्खति जाव परूवेंति णो खलु ते समणा देने से किया अथवा कराया हुआ प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है । ऐसा करने से प्रतिज्ञा भंग का दोष भी नहीं होता है। ऐसी स्थिति में जो पुरुष क्रोध से, लोभ से अथवा अपने आग्रह से 'भूत' शब्द का प्रयोग किये बिना दूसरे का प्रत्याख्यान कराते हैं, वे अपनी प्रतिज्ञा को भंग करते हैं। ऐसा उपदेश न्याय युक्त नहीं है for 'भूत' पद जोडकर कराया हुआ प्रत्याख्यान ही न्याययुक्त है । हे आयुष्मन् गौतम ! क्या आपको यह रुचिकर नहीं है ? अर्थात् मैं युक्ति युक्त कह रहा हूं अतः आपको भी स्वीकार कर लेना चाहिए । ऐसा करने से प्राणियों की रक्षा के साथ प्रतिज्ञा की भी रक्षा होती है | ६ | લગાવી દેવા જોઈએ. ‘ભૂત' શબ્દ લગાવવાથી કરેલ અથવા કરાવેલ પ્રત્યાખ્યાન સુપ્રત્યાખ્યાન થાય છે. એમ કરવાથી પ્રતિજ્ઞા ભંગ દોષ પણ લાગતે નથી. આવી સ્થિતિમાં જે પુરૂષ ક્રોધથી, લેાભથી, અથવા પેાતાના આગ્રહથી 'ભૂત' શબ્દના આગ્રહ કર્યો વિના બીજાને પ્રત્યાખ્યાન કરાવે છે. તેએ પેાતાની પ્રતિજ્ઞાનેા ભાગ કરે છે. આ પ્રમાણેને ઉપદેશ ન્યાયયુક્ત નથી. અલ્યું ‘ભૂત’ શબ્દને જોડીને કરવામાં આવેલ પ્રત્યાખ્યાન જ ન્યાયયુક્ત છે. હે આયુષ્મન્ ગૌતમ ! શુ' આપને તે ચેગ્ય લાગતુ' નથી? અર્થાત્ હુ યુક્તિયુક્ત કહી રહ્યો છું. તેથી આ કથન આપે પણ સ્વીકારવુ જોઇએ. આમ કરવાથી પ્રાણિ ચાની રક્ષાની સાથે પ્રતિજ્ઞાની રક્ષા પણ થાય છે. પાસૂ॰ ટ્રા सु० ८९ For Private And Personal Use Only Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७०६ सूत्रकृतारने पाणिग्गंथा वा भासं भासंति, अणुतावियं खलु ते भासं भासंति, अब्भाइक्खति खलु ते समणे वा समणोवासए वा, जेहिं वि अन्नेहिं जीवहिं पाणेहिं भूएहिं सत्तेहिं संजमयंति ताण वि ते अब्भाइक्खंति, कस्स गं ते हेउं ? संसारिया खल्लु पाणा, ससा वि पाणा थावरत्ताए पञ्चायति थावरा वि पाणा तसत्ताए पञ्चायंति, तसकायाओ विष्पमुच्चमाणा थावरकायंसि उवव. जति थावरकायाओ विप्पमुचमाणा तसकायंसि उववजंति, तेसिं चणे तसकासि उववन्नाणं ठाणमेयं अघत्तंसू०७॥७॥ छाया-- साई भगवान् गौतमः उदकं पेढावपुत्रमेवमवादीत् । आयुष्मन् उदक! नो खलु अस्मभ्यम् एवं रोचते । ये ते श्रममा वा माहना वा एवमाख्यान्ति यावत् प्ररूपयन्ति नो खलु ते श्रमणा वा निग्रन्था वा भाषां भाषन्ते तेऽनु. तापिनी खलु भाषां भाषन्ते । अभ्याख्यान्ति खलु ते श्रमणान् वा श्रमणोपासकान वा येष्वपि अन्येषु जीवेषु प्राणेषु भूतेषु सत्त्वेषु संयमयन्ति तानपि ते अभ्याख्यान्ति । कस्य हेतोः ? सांसारिकाः खलु प्राणाः, वसा अपि प्राणाः स्थावरसाय प्रत्यायान्ति स्थावरा अपि प्राणाः सत्याय प्रात्यायान्ति सकायतो विप्र. मुच्यमानाः स्थावरकायेषूत्पद्यन्ते स्थावरकायतो विप्रमुच्यमानाः त्रसकायेत्पद्यन्ते, तेषां च खलु बमकायेष्त्पन्नानां स्थानमेतदघात्यम् ।।२० - ७४॥ टीका-'सवायं भगवं गोयमे' सबाद भगवान् गौतमः 'उदयं पेढालपुत्तं एवं वयासो' उदकं पेढालपुत्रमेवम वादोत, उदकस्य प्रत्याख्याने भूतपदसन्निविष्टवचनं श्रुत्वा वादपुरस्सरं वक्ष्यमाणवचनमुक्तवान् 'उसंतो उदगा नो 'सवायं भगवं गोयमे' इत्यादि । टीकार्थ-भगवान गौतम ने प्रत्याख्यान में 'भूत' पद को जोडने की उदक पेढालपुत्र की बात सुनकर वाद के साथ इस प्रकार कहाआयुष्मन् उदक ! आपका कथन हमें नहीं मचता है कि श्रमण और 'सवायं भगव' गोयमे' त्या ટીકાઈ–ભગવાન ગૌતમસ્વામીએ પ્રત્યાખ્યાનમાં ભૂત' પદને જવાની પિઢાલપુત્રની વાત સાંભળીને યુક્તિપૂર્વક આ પ્રમાણે કહ્યું- હે આયુષ્યન કુદક! For Private And Personal Use Only Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ७ उदकप्रति गौतमस्योत्तरः ७०७ खलु अम्हे एवं रोयइ आयुष्मन्-उदक ! भरता संसोधितं वचनम् अस्मभ्यं-गौत मेभ्यो न रोचते, 'जे ते समणा वा माहणा वा एवं माइक्वंति जाव पति' ये ते श्रमणा वा-माहना वा एवम्-भवकथनाऽनुसारेणाऽऽख्याति यावत् परेभ्यः प्ररूपयन्ति च । 'णो खल्ल ते समणा वा णिग्गंथा बा भासं भासंति' नो खलु ते श्रमणा वा निर्यन्या वा समीचीनां भाषां भाषन्ते 'अणुतावियं खलु मास मासंति' अपितु-अनुतापिनी भाषा भाषन्ते । . अयमाशयः-त्रसपदोत्तरं भूतपदसन्निवेशेनाऽपि न किमपि फलाधिक्यमवाप्यते । यतोहि-योऽर्थनमपदेन ज्ञायते-स एवार्यों भूनपदोपादानेनापि ज्ञायते, उभयोरेकार्थकत्वात् । प्रत्युत-अनायैव हि भूतपदप्रयोगः। अपि च सादृश्यबोधकोऽपि भूतशब्दो दृश्यते-देवलोकभूतं नगरमित्यादौ देवलोकसादृश्यस्य नगरेऽनु भवात् । तथा च-तथाप्तति त्रस सशमाणिनो वधाऽभावः प्रत्याख्यानेन प्रतीयेत न तु सजीवस्येति त्रसजीवानां विराधनादनर्थ एव स्यात् । यदि सादृश्यार्थको न भूतशब्दस्तदा तःप्रयोगो निरर्थक एव भवेत् । यथा शीतभूतमुदकम् इत्यत्र शीत. माहन ऐसा जो कहते या उपदेश देते हैं, वे समीचीन भाषा नहीं बोलते, परन्तु अनुनापिनी (जिनपरंपरानुसारिणी) भाषा बोलते हैं। ___ आशय यह है-'' पद के बाद 'भूत' शब्द को जोड देने का भी कोई विशेष फल नहीं है । जो अर्थ त्रस शब्द के प्रयोग से प्रतीत होता है, वही प्रसभूत शब्द से भी प्रतीत होता है। दोनों का अर्थ एक ही है, परन्तु उससे अनर्थ भी हो सकता है। यथा-'भूत' शब्द सहशता का वाचक भी देखा जाता है, जैसे 'देवलोकभूतनगर' का अर्थ है देवलोक के समान नगर । ऐसी स्थिति में यदि 'स' के साथ 'भूत' शब्द जोड़ दिया जाय तो उसका 'वस के समान प्राणी' ऐसा આપનું કથન અમને રૂચિકર લાગતું નથી શ્રમણ અને માહન એવું કહે છે અથવા ઉપદેશ આપે છે કે તેઓ સમીચીન ભાષા બોલતા નથી. પરંતુ અનુતાપિની ભાષા બોલે છે. કહેવાનો આશય એ છે કે–ત્રસ ૫હની પછી “ભૂત શબ્દને જોડવાથી પણ કોઈ વિશેષ ફળને લાભ થવાનું નથી. જે અર્થ ત્રસ શબ્દના પ્રયોગથી પ્રતીત થાય છે. એજ ત્રણભૂત શબ્દથી પણ પ્રતીત થાય છે. બંનેને અર્થ એક જ છે. પરંતુ તેનાથી અનર્થ પણ થઈ જાય છે. જેમકે-“ભૂત” શબ્દ સદશપણને વાચક पर भवामी माव छ. २४-'देवलोकभूतनगर'नो अर्थ' देवानी सरभु નગર એ પ્રમાણે થાય છે. આ સ્થિતિમાં “ત્રસ” શબ્દની સાથે “ભૂત શબ્દનો માગ કરવામાં આવે તે તેને અર્થ ત્રસ સરખા પ્રાણી તેમ કઈ સમજી લેશે. For Private And Personal Use Only Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Go सूत्रकृताङ्गसूत्रे पदोत्तरं भूतपदं शैत्यमेवार्थं गमयति न ततो न्यूनमधिकं वा । तच्च शीतपदेनैव धम्-रति भूतपदं नैक्यमवलम्बते सिद्धान्तविदाम् । एवं स्थितो यो माहनो भवन्तमनुवर्त्तमानस्तथा प्रयुङ्के स प्रयोगः श्रमणसङ्घकलङ्कदायक एव भवति । तथा भूतादिषु ये संयमिनस्तानपि कलङ्कयति । 'अमाइकखेति खलु ते समणे वा समगोत्रासए वा' अभ्यारुयान्ति - कलङ्कयन्ति खलु ते श्रमगान वा श्रमणोपास कान् वा । 'जेर्हि व अन्नेहिं जीवेहिं पाणेहिं भूएहिं सत्तेहि संयमयंति ताण वि Hijador अन्येषु जीवेषु प्राणेषु भूतेषु सच्त्रेषु संयमयन्ति तानपि dsभ्याख्यान्ति । कङ्कमारोपयन्ति । कस्स णं तं देउ' तत्कस्य हेतोः ? 'संसारिया खलु पाण।' सांसारिका:- कर्मपरतन्त्राः खलु माणाः - जीवाः 'तसा वि पाणा अर्थ कोई समझ लेगा और उसी की हिंसा का प्रत्याख्यान करेगा, त्रस जीव की हिंसा का प्रत्याख्यान नहीं करेगा । फिर तो बस जीवों की विराधना करने से अनर्थ ही हो जाएगा । यदि 'भूत' शब्द सदृशता का वाचक नहीं है तो उसका प्रयोग करना ही निरर्थक है उसका कोई अर्थ ही नहीं। जैसे शीतभूत जल' यहां शीत शब्द के पश्चात् भूत शब्द का प्रयोग किया गया है किन्तु वह शीत अर्थ का ही बोधक है। कोई न्यून या अधिक अर्थ प्रकट नहीं करता है । अतएव वह निरर्थक ही है। ऐसी स्थिति में जो श्रमण-माहन आपका अनुसरण करके ' स भूत' शब्द का प्रयोग करता है, वह श्रमण संघ के लिए दोषास्पद है । वह श्रमणों और श्रमणोपासकों को कलंक लगाता है । वह अन्य भूतों जीवों सत्वों और प्राणियों का जो संयम पालते हैं, वन पर भी दोषारोपण करता है। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं ? सुनिए ... અને તેની જ હિંસાનુ' પ્રત્યાખ્યાન કરશે. ત્રસ જીવની હિંસાનું પ્રત્યાખ્યાન કરશે નહી' પછી તે ત્રસ જીવેાની વિરાધના (હિંસા) કરવાથી અનથ જ થઈ જશે. અને જો ‘ભૂત' શબ્દ સમાન અને બતાવવાવાળા ન હોય, તે તે શબ્દના પ્રયાગ જ નિરર્થક છે. અર્થાત્ તેના કાઈ અથ જ નથી. જેમ શીતભૂતજલ' અહી’યાં શીત શબ્દની પછી ‘ભૂત' શબ્દના પ્રયોગ કરવામાં આવેલ છે. પરંતુ તે શીત અર્થના જ આધ કરાવે છે. તેથી કોઈ ન્યૂન અથવા અધિક અર્થ બતાવતું નથી. તેથી જ તે નિરથ ક છે, આ પરિસ્થિતિમાં જે શ્રમણ-માહન આપતું અનુસરણ કરીને ‘ત્રસભૂત' શબ્દના પ્રયાગ કરે છે. તે શ્રમણુસંધને દોષાસ્પદ છે. તે શ્રમણે। અને શ્રમણેાપાસકેાને કલક સમાન છે. તે અન્ય ભૂતા, જીવે, સવા અને પ્રાણિયાને જે સયમ પાળે છે, તેના પર પણ દોષારાપણું કરે છે. હું... એમ શા માટે કહું છું? તે સાંભળે-સ‘સારના For Private And Personal Use Only Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ७ उदकं प्रति गौतमस्योत्तर: ७०९ थावर तार पच्चायति' असा अपेि मागाः- जीवाः कर्मत्रलात् स्थावरत्वाय प्रत्यायान्ति -सा अपि कदाचित् स्थावरा भवन्ति । 'थावर विपणा तसनार पचायति' स्थावरा अपि माणाः कर्मवलात् बसवाय प्रत्यायान्ति । 'तसकायाओ विष्पमुच्चमाणा यावर कार्यसि उपवज्र्ज्जति' जसकायाद्विनुरूपमानाः स्थावरकायेषूत्पद्यन्ते, आयुषः क्षये सीयशरीरं विमुच्य नामकर्मोदयात्स्थावरकायं प्राप्नुवन्तः स्थावरतां लभन्ते । 'थावर कायाओ विप्यनुच्वमाणा तमकार्यसि उबवsifa' स्थावरकायाद्विप्रमुच्यमानास कायेत्पद्यन्ते । 'तेसि च णं तसकायंसि उववन्नाणं ठाणमेयं अद्यत्तं ' तेषां च खलु सकायेत्पन्नानां स्थानमेतद् अधाश्यम् । या जीवाः ते काये समुत्पद्यन्ते तदा ते - जीवाः प्रत्याख्यानवता पुरुषेण हन्तुमयोग्या भवन्ति । इति भो - उदक! त्वया सपदानन्तरं निवेश्यमानं भूतपदं प्रत्याख्यानाक्षrराशौ नितरान्न शोभते एव, किन्तु - शिष्टदृशं स्वरूपमुपवर्णितं तत्तथाऽस्मभ्यं रोचते ॥ मु०७-७४ ! - संसार के कर्माधीन प्राणी त्रस होकर स्थावर भी हो जाते हैं और स्थावर से व्रत भी हो जाते हैं। सकाय को त्याग कर स्थावर काय में उत्पन्न हो जाते हैं अर्थात् आयु पूर्ण होने पर सशरीर को स्याग कर कर्मोदय से स्थावर काय को प्राप्त करते हैं, इसी प्रकार अनेक जीव स्थावर काय का त्याग करके प्रसकाय में उत्पन्न हो जाते हैं। जब स्थावर काय के जीव त्रस काय में जन्म ले लेते हैं तो प्रत्याख्यान करने वाले पुरुष के लिए वे घात करने योग्य नहीं रहते हैं । अतएव है आयुष्मन् उदक ! आप प्रत्याख्यान के पाठ में 'भूत' शब्द को जोड देने की जो बात कहते हैं, वह ठीक नहीं है। शिष्ट पुरुषों ने जैसे प्रत्याख्यान के स्वरूप का वर्णन किया है, वही हमें भी रुचता है ||७|| કર્માધાન પ્રાણી ત્રસ થઇને સ્થાવર પણ થઇ જાય છે, અને સ્થાવરથી ત્રસ પણ થઈ જાય છે. ત્રસકાયના ત્યાગ કરીને સ્થાવર કાયમાં ઉત્પન્ન થઈ જાય છે, અર્થાત્ આયુષ્ય પૂર્ણ થયા પછી ત્રસ શરીરને ત્યાગ કરીને સ્થાવરકાયને પ્રાપ્ત કરે છે, એજ પ્રમાણે અનેક જીવા સ્થવરકાયના ત્યાગ કરીને ત્રણ ક્રાયમાં ઉત્પન્ન થઈ જાય છે, જ્યારે સ્થાવર કાયના જીવે ત્રસકાયમાં જન્મ લઇ લે છે, તે પ્રત્યાખ્યાન કરવાવાળા પુરૂષના માટે તેઓ ઘાત કરવા યાગ્ય રહેતા નથી તેથી જ હું આયુષ્મન્ ઉદક ! આપ પ્રત્યાખ્યાનના પાઠમાં ‘ભૂત' શબ્દને જોડવાની જે વાત કહેા છે તે ખરાખર નથી. શિષ્ટ પુરૂષોએ પ્રત્યાખ્યનની પ્રરૂપણાનું જે પ્રમાણે વધુ ન કરેલ છે, એજ પ્રમાણે અમને પણ ચૈાગ્ય અને રૂચિકર જણાય છે. પાછા For Private And Personal Use Only Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतात्रे . मूलम्-सवायं उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयमं एवं वयासीकयरे खलु ते आउसंतो गोयमा ! तुझे वयह तसा पाण तसा आउ अन्नहा ? सवायं भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं वयासी-आउसंतो उदगा! जे तुब्भे वयह तसभूया पाणा तसा ते वयं वयामो तसा पाणा जे वयं वयामो तसा पाणा ते तुम्भे वयह तसभूया पाणा, एए संति दुवे ठाणा तुल्ला एगहा, किमाउसो! इमे भे सुप्पणीयतराए भवइ तसभृया पाणा तला, इमे भे दुप्पणीयतराए भवइ-तसा पाणा तसा, तओ एगमाउसो! पडिकोसह एक अभिणंदह, अयं पि भेदो से णो णेयाउए भवइ । भगवं च णं उदाहु संतेगइया मणुस्सा भवंति, तेसिं च णं एवं वृत्तपुत्वं भवइ-णो खलु वयं संचाएमो मुंडा भवित्ता अगाराओ अगगारियं पवइत्तए, सा वयं ण्हं आणुपुवेण गुत्तस्स लिसिस्सामो, ते एवं संख-ति ते एवं संखं ठवयंति ते एवं संखं ठावयंति नन्नत्थ अभिओएणं गाहावइचोरग्गहण विमोक्खणयाए तसेहिं पाणहिं निहाय दंडं, तं पि तेसिं कुसलमेव भवइ ।सू०८॥७५॥ छाया-सादमुदकः पेढालपुत्रो भगवन्तं गौतममेववादीत् । कतरे खल ते आयुष्मन् गौतम ! यूयं वदथ साः प्राणाः त्रवाः, उतान्यया ? सवादं भगवान् गौतमः उदकं पेढालपुत्रमेवमवादीत् आयुष्मन् उदक ! यान् यूयं वदथ त्रसभूनाः पाणावसास्तान् वयं वदामः त्रसाः माणाः। यान् वयं वदाम स्वताः प्राणा, तान् यूयं वदध सभूताः प्रागाः। एते द्वे स्थाने तुल्ये एकार्थे । किमायुष्मन् ! अर्थ युष्माकं सुपणीततरो भवति सभूताः प्राणाः वसाः, अयं युष्माकं दुःभणीततरो भवति त्रसाः प्राणा स्त्रसाः तत एकमायुष्मन् ! प्रतिक्रोशथ एकमभिनन्दथ, अपमपि भेदः स नो नैयायिको भवति ? भगगंश्च उताह-सन्स्येकके मनुष्या भवन्ति, तैश्च दमुक्तपूर्व भवति-न खलु वयं शक्नुमो मुण्डाः भूत्वा अगारादनगारितां प्रतिपतु, For Private And Personal Use Only Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.७ गौतमं प्रति पुनरुदकस्य प्रश्नः ११ तद्वयं खलु आनुपूा गोत्रमुपश्लेषयिष्यामः । एवं ते संख्यापयन्ति एवं ते संख्या स्थापयन्ति नान्यत्राभियोगेन गाथापतिचोरग्रहणविमोक्षणतया बसेषु प्राणेषु निहाय दण्डं तदपि तेषां कुशलमेव भवति ।।८-७५॥ टीका-पुनरुदको भगवन्तं गौतमं पृच्छति-'सवायं उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयमं एवं क्यासी' सवादम्-सवादम्-वादपूर्वकं पेढालपुत्र उदको भगवन्तं गौतमम्-एवम्-वक्ष्यमाणं प्रइन पृष्टवान्-'कयरे खल आउसंतो गोयमा ! तुम्भे यह तया पाणा-तसा आउ अन्नहा' कतरे खलु ते जीवा यान्-आयुष्मन्गौतम ! यूयं वदथ किं असाः पाणा स्त्रसा, उत अन्यथा वा । कि प्रसजीव एवं असशब्देन कथ्यते-अन्यो वा कश्चित् बस इति । एवं श्रुत्वा भगवान गौतमः-'सवाय भा.वं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं क्यासी' सबादं भगवान् गौतमः उदकं पेढा पुत्रमे मवादीत् कथितवानित्यर्थः। 'माउसंतो उदगा ! जे तुम्भे वयह तसभूभ पाणा तसा' आयुष्मन्-उदक ! यान् यूयं वदय त्रसभूताः पाणाखमाः, इति। यं माणिविशेषं त्रसभूतस्वस इति त्वं कथयसि, तमहं त्रसं कथयामि । 'जे वयं वय मो तसा पाणा ते तुम्भे वयह तसभूया पाणा तसा' यान् वयं 'सवायं उदए पेढालपुत्ते' इत्यादि। टीकार्थ-उक पेढालपुत्र ने वाद के साथ भगवान् श्री गौतम स्थानी से प्रश्न किया-आयुष्मन् गौतम! आप किन जीवों को बस करते है ? क्या इस प्राणी को बस कहते हैं अथवा अन्य किसी प्राणी को उस कहते हैं? इस प्रश्न को सुनकर भगवान श्री गौतम स्वामी ने वाद के साथ उदक पेढालपुत्र से इस प्रकार कहा-हे आयुष्मन्-उदक। जिन प्राणियों को आप 'सभूत' कहते हो, उनको हम 'स' कहते हैं । जिनको हम बस प्राणी कहते हैं, उन्हें आप सभृत प्राणी कहते हो। ये दोनों 'सवाय उदए पेढालपुत्ते' या ટીકા-દિક પિંઢ લપુત્ર શ્રી ગૌતમ સ્વામીને ઉત્તર સાંભળીને ફરીથી શ્રી ગૌતમ સ્વામીને પૂછયું કે-હે આયુષ્યન્ ગૌતમ! આપ કયા જીવોને ત્રસ छ। १ स प्राचीन स छ। ? Bolan 18 प्रवास ? આ પ્રશ્ન સાંભળીને ભગવાન શ્રી ગૌતમ સ્વામીએ યુક્તિપૂર્વક ઉદક પેઢાલપુત્રને આ પ્રમાણે કહ્યું –હે આયુષ્યનું ઉદક! જે પ્રાણિને આપ “વ્યસભૂત” કહે છે તેને જ અમે “ત્રસ” પ્રાણુ કહીએ છીએ. જેને અમે ત્રણ પ્રાણી કહીએ છીએ તેને તમો ત્રસભૂત પ્રાણું કહે છે. આ બન્ને શબ્દો એક અર્થવાળ છે, For Private And Personal Use Only Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७१२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे बदाम त्रपाः प्राणा इति, तान यूयं वदथ त्रसभूताः प्राणा इति । 'एए संति दुवे ठामा तुल्ला एगट्टा' पते द्वे स्थाने तुल्यार्थे - एकार्थे । इमे द्वे अपि पदे त्रस इति भूत इति समानार्थके एव । एकार्थतया - एकस्यैव द्वयोरपि मध्ये कस्याऽपि प्रयोगे पुनस्तत्र पर्यायरूपस्य प्रयोगः पौनः पुनिकं निरर्थकतां च याति । 'किमा उसो ?' हे आयुष्मन् किम् 'हमे भे सुरपणीयतराए भवः' अर्थ युष्माकं पक्षः सुपफीसवरो भवति । 'तसभूया पाणा तसा इइ' प्रसभूताः प्राणात्रता इति । 'इमे भे दुष्पणीयतराए भवर तसा पाणा तसा ' अपि तु अयं युष्माकं दुष्प्रणीततरो भवति, प्रसाः प्राणास्वसाः, यदोभयोरपि समानार्थता तदा, 'एगमाउसो ! पड़िकोसह एवं अभिनंदद्द' एकमायुष्मन् । प्रतिक्रोशथ - एक पक्षं निन्दय, एकम परं च पक्षम् अभिनन्दथ-प्रशंसथ । 'अपि भेदो से णो णेआउर भवः' हे आयुमन् ! अयमपि भेदः समानार्थकत्वेऽपि एकपक्षस्य निन्दा - अपरपक्षस्य प्रशंसन मिति मेशेन नैयायिकः न्याययुक्तो न भवति । 'भगवं चणं उदाह' भगवांच गौतमः पुनराह - 'संतेगइया मणुस्सा भवंति' सन्ति एकके मनुष्या, भवन्ति 'तेसिं चणं वृत्तपुत्रं भवइ' तैश्चदमुक्तपूर्व भवति - बहवो मनुष्या एतादृशाः स्थान एकार्थक हैं अर्थात् त्रम और त्रसभूत, इन दोनों शब्दों का अर्थ एक ही है । जब दोनों शब्दों का अर्थ एक ही है तो दोनों में से किसी भी एक शब्द का प्रयोग करने पर पुनः वही उसके पर्यायवाचक शब्द का प्रयोग करना पुनरुक्ति है और निरर्थक भी है। हे आयुष्मन् ! ऐसी स्थिति में क्या 'त्रसभूत प्राणी अस' ऐसा आपका कहना ठीक है ? नहीं, यह ठीक नहीं है। जब दोनों शब्द समानार्थक हैं तो आप एक की प्रशंसा और दूसरे की जिन्दा क्यों करते हैं ? हे आयुष्मन् यह न्याय संगत नहीं है । भगवान् श्री गौतम स्वामी पुनः बोले- बहुत से मनुष्य ऐसे होते અર્થાત્ ત્રસ અને ત્રસદ્ભૂત આ બન્ને શબ્દના અર્થ એકજ પ્રકારના છે, જ્યારે બન્ને શબ્દોના અર્થ એકજ પ્રકારના છે. તે બન્નેમાંથી કેઈપણુ એક શબ્દને પ્રયોગ કરવાથી ફીથી એજ તેના પર્યાયવાચક શબ્દોને પ્રયાગ કરવા તે પુનરૂક્તિ દેષ કહેવાશે. અને તે નિરર્થીક પણ છે. કે આયુર્ આ પરિસ્થિતિમાં શુ ‘ત્રસભૂત પ્રાણી ત્રસ' એ પ્રમાણેનુ આપનુ કથન ખરેખર છે ? ના તે ખરેખર નથી. જ્યારે અન્ને શબ્દો સમાન અવાળા છે, તા આપ એકની પ્રશંસા અને ખીજાની નિંદા કેમ કરે છે ? હું આયુષ્મન્ આ કથન ન્યાય પુરઃસર નથી. ભગવાન, શ્રી ગૌતમ વામી ફરીથી કહે છે કે-ઘણા મનુષ્યે એવા હોય For Private And Personal Use Only Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . समयार्थबोधिनी टीका हि.भु. म. ७ गौतम प्रति पुनरुदकस्य प्रमः ७३ सन्ति ये साधुसमीपं समेत्य एवं वदन्ति 'णो खलु वयं संचाएमो मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारिय पवइत्तए' नो खल्लु वयं शक्नुमो मुण्डा भूत्वा अगाराद् अनगारितां पत्र जितुम् । इदानी मेतारशी पक्तिर्नास्ति येन सर्वम् ‘सा वयं व्ह' सद वयं खलु 'आणुपुटवेण गुत्तस्स लिसिस्सामो' आनुपूयेण-क्रमशः गोत्रं-साधुभावमुपश्लेषयिष्यामः, प्रथम स्थूलमाणातिपातं त्यक्ष्यामः ततः सूक्ष्माणातिपात परित्यक्ष्यामः । किन्तु इदानीम्-'ते एवं संखवें ति' ते एवं संख्यापयन्ति-व्यव. स्थापयन्ति संख्या-व्यवस्था श्रावयन्ति प्रत्याख्यानं कुर्वन्तः प्रकाशयन्ति 'ते एवं संखं ठावयंति' एवं ते संख्या विचारं स्थापयन्ति-संख्या-विचारं गुरुसमीपे प्रकटयन्ति मन्नथ अभियोगेण गाहावइचोरगहणविमोक्खणयाए' नान्यत्राऽभि योगेन गाथापतिचोरग्रहणविमोक्षणेन 'तसेहिं पाणेहि निहाय दंड' प्रसेषु प्राणिषु दण्डं-प्राणातिपातं निहाय-त्यक्त्वा करोति तं पि तेसि कुसलमेव भवई' तदपि' लेशतः प्राणातिपातादिविरमणमपि तेषां कुशलमेव भवति, यावन्मात्रमेव है जो साधु के समीप आकर कहते हैं-हम मुंडित होकर और गृहत्याग करके अनगार वृत्ति को धारण करने में समर्थ नहीं हैं। हम अनुक्रम से धीरे-धीरे साधुता अंगीकार करेंगे। हम प्रथम स्थूलप्राणातिपात का त्याग करेंगे। तत्पश्चात् सूक्ष्म प्राणातिपात का स्याग करेंगे। वे प्रत्याख्यान करते हुए इस प्रकार की व्यवस्था प्रकाशित करते हैं। वे ऐसा विचार प्रकट करते हैं। तदनन्तर वे राजाभियोग का आगार रखकर गाथापति चोरविमोक्षण न्याय से प्रस प्राणियों की हिंसा का त्याग करते हैं। उनका इस प्रकार का थोड़ा-सा हिंसा का त्याग :भी अच्छा ही है। वह जितना त्याग करते हैं, उतना ही उनके लिए कल्याणकारी है। कहा भी है-'स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य' इत्यादि । धर्म का थोड़ा सा अंश भी महान भय से रक्षा करता है॥८॥ છે કે અમે મંડિત થઈને અને ગૃહનો ત્યાગ કરીને અનગાર વૃત્તિ ધારણ કરવાને સમર્થ નથી. અમે અનુક્રમથી ધીરેધીરે સાધુપણાને સ્વીકાર કરીશું. અમે પહેલાં સ્થૂલ પ્રાણાતિપાતને ત્યાગ કરીશું, તે પછી સૂક્ષ્મ પ્રાણાતિપાતને ત્યાગ કરીશું. તેઓ પ્રત્યાખ્યાન કરતા થકા આ પ્રમાણેની વ્યવસ્થા પ્રગટ કરે છે. તેઓ એ વિચાર કરે છે. તે પછી તેઓ રાજાભિયેગને આગાર રાખીને “ગાથાપતિચેરવિમેક્ષણ ન્યાયથી ત્રસ પ્રાણિની હિંસાનો ત્યાગ કરે છે. આ પ્રમાણે તેમને ચેડા એ હિંસાને ત્યાગ પણ સારો જ છે. તે એટલે ત્યાગ કરે છે. એટલે જ તેઓને માટે કલ્યાણકારક છે. ह्य' ५५ छ-स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य' इत्यादि धमना था। अश ५९ महान् ભયથી રક્ષા કરે છે. તે सु० ९० For Private And Personal Use Only Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७१४ ORREE समाज सूत्रकृतास्त्र त्यजति तावदेव तस्य कल्याणायेति । उक्तश्च-स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य प्रायते महतो भयादिति ॥५०८-७५॥ ____ मूलम्-तसा वि बुच्चंति तसा तससंभारकडेणं कम्मुणा नाम चणं अब्भुवगयं भवइ, तसाउयं चणं पलिक्खीणं भवइ, ससकाहिइया ते तओ आउयं विष्पजहंति ते तओ आउयं विप्पजहिता थावरत्ताए पच्चायति। थावरा वि वुच्चंति थावरा थावरसंभारकडेणं कम्मुणा णामं च णं अन्भुवगयं भवइ, थावराउयं च णं पलिक्खीणं भवइ, थावरकायटिइया ते तओ आउयं विपजहंति, तओ आउयं विप्पजहित्ता भुज्जो परलोइयत्ताए पच्चायंति, ते पाणा वि वुचंति, ते तसा वि वुचंति, ते महाकाया ते चिरट्रिइया ।सू० ९॥७६॥ ____ छाया-प्रसा अप्युच्यन्ते त्रसास्वससम्भारकृतेन कर्मणा नाम च खल्वभ्यु. पगतं भवति । वसायुष्कं च खलु परिक्षीणं भवति त्रसकायस्थितिकास्ते तदायुष्क विप्रजहति । ते तदाघुष्क विग्रहाय स्थावरत्वाय प्रत्यायान्ति स्थावरा अप्युच्यन्ते स्थावरा स्थावरसम्भारकतेन कर्मणा नाम च खल्वभ्युपगतं भवति, स्थावरायुष्क च खलु परिक्षीणं भवति स्थावरकायस्थितिकास्ते तदायुष्फ विप्रजहति, तदायुष्कं विग्रहाय भूयः पारलौकिकत्वेन प्रत्यायान्ति, ते प्राणा अप्युच्यन्ते ते सा अप्युच्यन्ते ते महाकायास्ते चिरस्थितिकाः ॥००९-७६।। ___टोका-पूर्वमुदकेन गौतमस्वामी पृष्टः यः श्रावकः सानां हिंसनं न करिष्यामीति प्रतिज्ञा कृतवान् किन्तु-त्रसा एवं स्थावरकाये समुत्पद्यन्ते, तत्र स्थावरकायान् यदि इन्ति-तदा तस्य प्रतिज्ञामगदोषः कुतो न भवति यथा 'तसा वि वुच्चंति' इत्यादि । टीकार्थ-पहले उदक पेढालपुत्र ने श्रीगौतम स्वामी से पूछा थाकिसी श्रावक ने जन जीवों की हिंसा नहीं करूँगा, इस प्रकार से हिंसा का त्याग किया किन्तु त्रस जीव मर कर स्थावर काय में उत्पन्न 'तसा वि वुच्चंति' त्यादि ટીકાર્થ–પહેલા ઉદક પિઢાલપુત્ર શ્રી ગૌતમ સ્વામીને પૂછયું હતું કેકઈ શ્રાવકે ત્રસ જીવોની હિંસા નહીં કરૂં; એવી પ્રતિજ્ઞા કરી હિંસાને ત્યાગ કર્યો હોય, પરંતુ ત્રસ જીવ મરીને સ્થાવરકયમાં ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. તે For Private And Personal Use Only Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.७ प्रतिज्ञाभङ्गविषये गौतमस्योत्तरम् ७५. नागरिकाणां जनानां हननं करिष्यामीति प्रतिज्ञां कृारान् कश्चित् तत्र नगरतो बहिर्गतस्य तन्नगरीयस्य हनने प्रतिज्ञाकर्तुः प्रतिज्ञाभदोषो भवत्येव । इत्युदक कृतप्रश्नं गौतम उत्तरयति-तसावि' असा अपि-वसनीवा हि त्रसनामकर्मोदयेन फलानुभवाय त्रस इति शब्देन 'वुच्चंति' उच्यन्ते व्यवहियन्ते 'तसा तससंभार कडेग कम्मुगा णामं च णं अब्भुवयं भवई' त्रसास्त्रससंमारकृतेन कर्मणा नामचाभ्युपगतं भवति, सम्भारो नामकर्मणोऽवश्यं विपाकाऽनुभवेन वेदनम् बस इति कर्मोदयेन त्रस इति नाम धारयन्ति । 'तसाउयं च णं पळिकावीणं भवइ, तसकायट्ठिया ते तओ आउयं विपजहति' वसायुष्क च खलु परिक्षीणं भवति, प्तकायस्थितिकाः-त्रप्तकाये स्थितियेषां ते तथा, त्रसकाये तदीय स्थितिहेतुभूते कर्मणि नष्टे सति ते-त्रप्ताः तदायुष्क विप्रजहति । तदा त्रप्सायुः परिक्षीयते-एन, सशरी. रकारणभूतं कर्म चाऽपगतम्-तदा ते त्राः ताशमायुस्त्यजनि । 'ते तो आउयं विपजहिता थावरत्ताए पञ्चायंति' ते-त्रसाः वसायुष्क विप्रहाय स्थावरस्वाय प्रत्यायान्ति । 'थारा वि बुच्चंति-थावरा थावरसंभारकडेणं कम्मुणा णार्म च णं अभुवयं भवई' स्थापरा अपि उच्यन्ते स्थावराः स्थावरसम्भारकृतेन कर्मणा नाम च खलु अभ्युपगतं भवति । स्थावरजन्तवोऽपि स्थावरनामहो जाते हैं। वह श्रावक उन स्थावर जीवों का जो पहले त्रस थे, घात करता है। तब उसको त्याग भंग का पार क्यों नहीं लगता ? इस प्रश्न का यहां उत्ता दिया जाता है-- प्रस जीव अवश्य भोगने योग्य त्रस नानकर्म के उदय से अर्थात् घस नामकर्म का फल भोगने के कारण त्रस कहलाते हैं। इसी कारण वे 'स' इस नाम को धारण करते हैं । जब उनकी त्रस आयु का क्षय हो जाता है और उसकाय में स्थिति का कारण भूत कर्म भी क्षीण हो जाता है, तब वे त्रस आयु को त्याग देते हैं और स्थावर पर्याय को પછી તે શ્રાવક તે સ્થાવર જીવોને, કે જે પહેલાં ત્રસ હતા, તેમને ઘાત કરે છે, ત્યારે તેમને પ્રતિજ્ઞાભંગનું પાપ કેમ લાગતું નથી? આ પ્રશ્નને ઉત્તર અહીંયાં આપવામાં આવે છે. ત્રસ જીવ અવશ્ય જોગવવાને ચગ્ય ત્રસ નામકર્મના ઉદયથી અર્થાત ત્રસ નામકર્મનું ફળ ભોગવવાના કારણે ત્રસ કહેવાય છે. એ જ કારણે તેઓ બસ આ નામને ધારણ કરે છે. જ્યારે તેઓના વસાણાના આયુષ્યને ક્ષય થઈ જાય છે, અને ત્રસકાયમાં સ્થિતિના કારણભૂત કર્મ પણ ક્ષીણ થઈ જાય છે. ત્યારે તેઓ ત્રાપણાના આયુષ્યને ત્યાગ કરી દે છે. અને સ્થાવર પર્યાયને ધારણ For Private And Personal Use Only Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - संकेतकियो कर्मगोः फलमनु भवन्तः स्थावरा इति कथ्यन्ते । अास्ते स्थावर इति संज्ञामपि प्राप्नुवन्ति । 'थावराउयं च णं पलिक्खीणं भवइ थावरकायट्टिइया ते तो आउयं विप्पजहंति' स्थावरायुष्कं च खलु परिक्षीणं भवति, स्थावरकायस्थितिका:-स्थावरकाये स्थितियेषां ते तथा, स्थावरकायस्थिति हेतुभूते कर्मणि नष्टे सति तेस्थाराः तदायुकं विपजहति-स्थावरायुः परित्यजन्ति । 'तो आउयं विष्णजहिता भुजो परलोइयत्ताए पचायति' ते स्थावराः तदायुष्क विमहाय-त्यक्त्वा भूयः-पुनरपि पारलौकिकतया प्रत्यायान्ति । 'ते पाणा वि वुचंति ते तसा वि वुच्चंति-ते महाकाया-ते चिरहिया' ते-त्रसस्थावरजी, प्राणधारणात् माणा अप्युच्यन्ते-ते त्रसनामकर्मोदयात् त्रसा अप्युच्यन्ते, ते महाकाया अपि भवन्ति, योजनलक्षप्रमाणशीरविकुर्वणात, ते चिरस्थितिका अपि भवन्ति-त्रयविंशत्सागरायुधभावादिति ॥०९-७६॥ धारण करते हैं। इसी प्रकार स्थारवर जीव भी अवश्य भोगने योग्य स्थावर नाम कर्म के उदय से, स्थावर कहलाते हैं और इसी कारण 'स्थावर' नाम को धारण करते हैं। जब उनकी स्थावर की आयु क्षीण हो जाती है और स्थावरकाय की स्थिति के कारणभूत कर्म भी क्षीण हो जाता है तब वे जीव स्थावर-आयु का त्याग कर देते हैं । स्थावरआयुष को त्याग कर वे सपर्याय को धारण कर लेते हैं । वे प्राणी भी कहे जाते हैं, उस भी कहलाते हैं और महान् शरीर वाले एवं चिरकालीन स्थिति वाले भी कहलाते हैं, अर्थात् उनमें कोई-कोई एक लाख योजन प्रमाण शरीर की विक्रिया भी करते हैं और तेतीस सागरोपम की भी स्थिति पाते हैं ॥९॥ કરે છે. આ જ પ્રમાણે સ્થાવર જીવ પણ અવશ્ય જોગવવા એગ્ય સ્થાવર નામકર્મના ઉદયથી સ્થાવર કહેવાય છે. અને એ જ કારણે “સ્થાવર' નામને ધારણ કરે છે. જ્યારે તેમના સ્થાવરપાના આયુષ્યને ક્ષય થઈ જાય છે, અને સ્થાવરકાયની સ્થિતિના કારણભૂત કર્મને પણ ક્ષય થઈ જાય છે. ત્યારે તે જીવે સ્થાવર આયુષ્યને ત્યાગ કરી દે છે. સ્થાવર આયુષ્યને ત્યાગ કરીને તેઓ ત્રસ પર્યાયને ધારણ કરી લે છે. તેઓ પ્રાણી પણ કહેવાય છે. ત્રસ પણ કહેવાય છે. અને મોટા શરીરવાળા અને લાંબા કાળની સ્થિતિવાળા પણ કહેવાય છે. અર્થાત તેઓમાં કોઈકેઈ એક લાખ જન પ્રમાણુવાળા શરીરની વિક્રિયા પણ કરે છે. અને તેત્રીસ સાગરોપમની સ્થિતિ પણ પામે છે. પાકા For Private And Personal Use Only Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टोका द्वि. श्रु. अ. ७ हिंसात्यागविषयक प्रश्नोत्तरच ७७ मूलम्-सवायं उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयम एवं वयासीआउसंतो गोयमा ! णत्थि णं से केइ परियाए जपणं समणोवासगस्स एगपाणाइवायविरए वि दंडे निक्खित्ते, कस्स णं तं हेडं ? संसारिया खलु पाणा, थावरा वि पाणा तसत्ताए पच्चायंति, तसा वि पाणा थावरत्ताए पच्चायंति, थावरकायाओ विप्पमुच्चमाणा सव्वे तसकायंसि उववति, तसकायाओ विप्पमुच्चमाणा सव्वे थावरकायांस उववति, तेसिं च णं थावरकायंसि उववन्नाणं ठाणमेयं धत्तं । सवायं भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं वयासी-णो खलु आउसो! उदगा अस्माकं वत्तव्वएणं तुभं चेव अणुप्पवादेणं, अत्थि णं से परियाए जे णं समणोवासगस्त सव्वपाणेहिं सव्वभूएहिं सबजीवहिं सबसत्तेहिं दंडे निक्खित्ते भवइ, कस्स गं तं हेउं ? संसारिया खलु पाणा, तसा वि पाणा थावरत्ताए पच्चायंति, थावरा वि पाणा तसत्ताए पच्चायंति, तसकायाओ विप्पमुच्चमाणा सव्वे थावरकायंसि उववज्जंति, थावरकायाओ विप्पमुच्चमाणा सव्वे तसकायंसि उववज्जंति, तेसिं च णं तसकायंसि उववन्नाणं ठाणमेयं अघत्तं, ते पाणा वि वुच्चंति, ते तसा वि वुच्चति, ते महाकाया ते चिरहिइया, ते बहुयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवति, ते अप्पयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अप्पच्चक्खायं भवइ, से महया तसकायाओ उवसंतस्स उवष्ट्रियस्स पडिविरयस्स जन्नं तुम्भे For Private And Personal Use Only Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ७१८ सूत्रकृतसूत्रे वा अन्नो वा एवं वदह - णत्थि णं से केइ परियाए जंसि समणोवासगुस्स एगपाणाइवायविरए वि दंडे णिक्खित्ते, अयंपि भेदे से णो णेयाउए भवइ ॥ सू० १०॥७७॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छाया - सवादमुदकः पेट (लपुत्री भगवन्तं गौतममेवमवादीत्-आयुष्मन् गौतम ! नास्ति खलु स कोऽपि पर्यायो यस्मिन श्रमणोपासकस्य- एक प्राणातिपातविरतेरपि दण्डो निक्षिप्तः । तत्कस्य हेतोः ? सांसारिकाः खलु माणाः स्थावरा अपि माणाः सत्वाय प्रत्यायान्ति । त्रसा अपि प्राणाः स्थावरस्वाय मायान्ति । स्थावरकायतो विप्रमुच्यमानाः सर्वे सकायेषूत्पद्यन्ते जसकायतो विमानाः सर्वे स्थावरकायेषूत्पद्यन्ते । तेषां च खलु स्थावर कायेषूत्पन्नानां स्थानमेतद् घात्यम् । सवादं भगवान् गौतमः उदकं पेढलपुत्रमेवमवादीत् । नो खलु आयुष्मन् - उदक! अस्माकं वक्तव्यत्वेन युष्माकं चैवानुमवादेन, अस्ति खलु स पर्यायः यस्मिन् श्रमणोपासकस्य सर्वप्राणेषु सर्वभूतेषु सर्वजीवेषु सर्वसत्वेषु दण्डो निक्षिप्तो भवति । तत् कस्य हेतोः ? सांसारिकाः खलु प्राणाः सा अपि प्राणाः स्थावरत्वाय प्रत्यायान्ति । स्थावरा अपि प्राणाः सत्वाय प्रत्यायान्ति । त्रसकायतो विप्रमुच्यमानाः सर्वे स्थावर काये पूत्पद्यन्ते, स्थावरकायतो विप्रमुध्यमानाः सर्वे कायेषूत्पद्यन्ते । तेषां च खलु त्रसकायेत्पन्नानां स्थानमेतद् अधाश्यम् । ते माणा अयुच्यन्ते ते त्रसा अप्युच्यन्ते ते महाकायास्ते चिरस्थितिकाः । ते बहुतरकाः प्राणाः येषु श्रमणोपासकस्य सुपत्याख्यातं भवति । तेऽल्पतरकाः प्राणाः येषु पासकस्यापत्याख्यातं भवति । तस्य महतस्त्रसकायादुरशान्तस्योप स्थितस्य प्रतिविरतस्य यद् यूयं वा अन्यो वा एवं वदथ नास्ति खलु स कोडपे पर्यायः - यस्मिन् श्रमणोपासकस्य एक प्राणातिपातविरतेरपि दण्डो निक्षिप्तो भवति । अयमपि भेदः स नो नैयायिको भवति ||सू० १० ॥ 1 टीका - पुनरपि - उदकः पेढालपुत्रो भगवन्तं पृच्छति - 'सवायं' उदए पेढालपुत्ते भगवं गोमं एवं वयासी' सवादम् - वादसहितं पेढालपुत्र उदको भगवन्तं गौतमस्वामिनं पुनरपि एवमवादीत् वक्ष्यमाणं प्रश्नं पृष्टवान् 'आउसंतो - 'सवायं उदए पेढालपुत्ते' इत्यादि । टीकार्य - उदक पेढालपुत्र ने वाद के साथ भगवान् श्री गौतम से इस प्रकार कहा - आयुष्मन् गौतम ! जीव का ऐसा एक भी कोई पर्याय 'वाय' उदए पेढालपुत्ते' त्याहि ટીકા”——ઉદક પેઢાલપુત્રે વાદસહિત ભગવાન્ શ્રી ગૌતમસ્વામીને આ પ્રમાણે કહ્યું--હે આયુષ્મન્ ગૌતમ ! જીવના એવા એક પણ પર્યાય નથી કે For Private And Personal Use Only Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मार्थबोधिनी टीका इ. शु. अ. ७ हिंसात्यागविषयक प्रश्नोत्तर'च ७१९ गोयमा ! आयुष्मन् हे गौतम! ' णत्थि णं से केइ परियार' तादृशः तावान् कोsपि पर्यायो नास्ति । 'जवणं समणोवासगस्स' यस्मिन प्रयोक्ष्यमाणपर्याये मोपासकस्य श्रावकस्य, 'एगपागाइवायविरए वि दंडे निक्खित्ते' एकमाणाप्रतिपात विरतेरपि दण्डो निक्षिप्तः । नास्ति कोऽपि पर्यायो यम् अमारयन श्रावकः स्त्रीयां प्राणातिपात मत्याख्यानमतिज्ञां सफलयेत् । 'कस्स णं तं हेउ' तरकस्य हेतोः ? 'संसारिया खल पाणा' सांसारिकाः खलु प्राणाः, परिवर्तनशीला हि प्राणिनो भवन्ति । 'थावरा विपाणा तसतार पच्चायंति' स्थावरा अपि प्राणाः प्रसवाय प्रत्यायान्ति - कदाचित् स्थावरा अपि प्राणा सा भवन्ति 'तसाचि पाणा यावरताए पच्चायति' त्रसा अपि प्राणाः स्थावरत्वाय प्रत्यायान्ति । कदाचित् त्रा अपि माणाः स्थावरा भवन्ति । 'थावर कायाओ विश्वमुच्चमाणाः सव्वे तसकार्यसि उववज्र्ज्जति' स्थावरकायतो विप्रमुच्यमानाः सर्वे जीवाः सकाये पूरयन्ते तथा-'तसकायाओ विष्पमुच्चमाणा सव्वे थावरकार्यंसि उववज्र्ज्जति' जसकायतो विप्रमुच्यमानाः सर्वे स्थावरकायेषु समुत्पद्यन्ते । 'तेसि च णं थावकार्यसि उवनज्ञानं ठाणमेयं यत्तं तेषां च खलु स्थावरकायेवृत्यन्नानां स्थानमेतद् घात्यम् । यदा ते सर्वे साः स्थावरकायेषु समुत्पद्यन्ते - तदा ते त्रसाः श्रावकस्य घातयोग्या नहीं है, जिसकी हिंसा का श्रमणोपासक त्याग कर सकता हो। इसका कारण क्या है ? संसार के प्राणियों के पर्याय परिवर्तनशील हैं। स्थावर प्राणी भी त्रस रूप में आजाते हैं और त्रस प्राणी भी स्थावर हो जाते हैं। स्थावर काय से छूटकर सभी जीव सकाय में उत्पन्न हो जाते हैं तथा काम से छूटकर सभी स्थावर कायों में उत्पन्न हो जाते है । जब वे सब स्थावर काय में उत्पन्न हो जाते हैं तो श्रमणोपासकों के घात के योग्य हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में वह प्रतिज्ञा प्रयोजन हीन हो जाती है। मान लीजिए किसी ने ऐसी प्रतिज्ञा की कि मैं इस नगरनिवासियों का घात नहीं करूँगा । तत्पश्चात् वह नगर उजड गया જેની હિંસાના શ્રમણે પાસક ત્યાગ કરી શકતા હોય, તેનું શુ' કારણ છે? સંસારના પ્રાણિયેના પર્યાયેા પરિવર્તન સ્વભાવવાળા છે. સ્થાવર પ્રાણી પણ ત્રસામાં આવી જાય છે. અને ત્રણ પ્રાણી પણ સ્થાવર પશુામાં આવી જાય છે સ્થાવર કાયથી છૂટીને બધા જ જીવે ત્રસકાયમાં ઉત્પન્ન થઇ જાય છે. તથા ત્રસકાયથી છૂટિને બધા જ જીવા સ્થાવકાર્યમાં ઉત્પન્ન થઇ જાય છે જ્યારે તે બધા સ્થાવરકાચેામાં ઉત્પન્ન થઈ જાય છે, તે શ્રમણેાપાસ કેના ઘાતને ચેાગ્ય થઈ જાય છે. આ સ્થિતિમાં તે પ્રતિજ્ઞા પ્રયાજન વિનાની બની જાય છે. માનીલે કે ફાઇએ એવી પ્રતિજ્ઞા કરી હાય કે-આ નગરમાં રહેનારાઓની હિંસા કરીશ નહી' તે For Private And Personal Use Only Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७२० सूत्रकृताङ्गसूत्रे भवन्ति । इति निषिया प्रयोजनशून्या प्रतिज्ञा भवति, यथा- केनचित् प्रतिज्ञावं नगरवासी मया न हन्तव्य इति तच्चोद्वसितं नगरं ततो निर्विषयं प्रत्याख्यानमिति । भगवान् गौतमः - उदकं कथयति भो उदक! मम सिद्धान्तमनुसरतो जनस्य मन एव नोपतिष्ठति । यतः सर्वे त्रमा एकदैव स्थावरा भवन्तीति नायं पक्षः, एवन्तु नाभून भवति न वा भविष्यति । किन्तु तत्र मतेऽपि श्रावकत्रतं निर्विषयं न भवति । समतेऽपि सर्वे स्थावरा अपि असाः कदाचिद्भवन्ति, तदा श्रावकस्य स्वागविषयsaralsधिक उपजायते । तत्समये श्रावकस्य प्रत्याख्यानं सर्व प्राणिविषयक भवति । अतः श्रावकस्य प्रत्याख्यानं निर्विषयकं भवतीतिकथनं न न्यायसिद्धमिव प्रतिमातीति । अक्षरार्थस्त्वेवम्-तथाहि - 'समायं भगर्व गोयमे उदयं पेढाल एवं वयासी' सवादं-वादपूर्वक भगवान् गौतमः उदक तो उसका प्रत्यास्थान निर्विषय निरर्थक हो जाता है। क्योंकि उस स्थिति में वहां घात करने योग्य कोई प्राणी उसके लिए नहीं रहता । भगवान् श्री गौतम स्वामी उदक से कहते हैं-हे उदक! मेरे सिद्धान्त का अनुसरण किया जाय तो यह प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। क्योंकि सभी त्रस जीव एक ही काल में स्थावरकाय हो जाते हैं और उस समय कोई स जीवश्व से रहता ही नहीं है, ऐसा हमारा पक्ष नहीं है । न कभी ऐसा हुआ है, न कभी ऐसा होता है और न कभी ऐसा ही होगा । किन्तु तुम्हारे मत के अनुसार भी आवक का व्रत निर्विषय नहीं हो सकता, क्यों कि तुम्हारे मत के अनुसार किसी समय सभी स्थावर जीव भी स हो जाते हैं, उस समय श्रावक के त्याग का विषय बहुत अधिक बढ़ जाता है । उस अवस्था में श्रावक का प्रत्याख्यान सर्व प्राणी विषપછી તે નગર ઉજ્જડ થઈ ગયું હોય તે તેનું પ્રત્યાખ્યાન નિર્થક બની જાય છે, કેમકે-એ સ્થિતિમાં ઘાત ન કરવા ચેગ્ય કોઈ પ્રાણી ત્યાં હાતુ જ નથી. ભગવાન્ શ્રી ગૌતમ સ્વામી ઉદક પેઢાલપુત્રને કહે છે.-હે ઉંદ્રક! મારા સિદ્ધાંત પ્રમ ણે. વિચારવામાં આવે તે આ પ્રશ્ન જ ઉપસ્થિત થતા નથી. કેમકેબધા જ ત્રસ જીવે. એક જ સમયે સ્થાવર જીવે બની જાય છે, અને એ વખતે કાઇ ત્રસ જીવે। રહેતા જ નથી. એવા અમારા પક્ષ નથી. કોઇ કાળે તેમ થયું નથી. કેાઈ કાળે તેમ થતુ નથી, અને કયારેય પણ તેમ થશે નહીં. પરંતુ તમારા મત પ્રમાણે પણ શ્રાવકનું વ્રત નિવિષય અર્થાત્ નિરથ ક થઈ શકતુ' નથી. કેમકે-તમારા મત પ્રમાણે કેાઈ સમયે સ્થાવર જીવે પણ ત્રસ બની જાય છે. તે વખતે શ્રાવકને ત્યાગ કરવાના વિષય ઘણા અધિક વધી જાય છે. તે અવસ્થામાં For Private And Personal Use Only Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका शि. श्रु. म. ७हिंसात्यागविषयक प्रश्नोत्तर ७२१ पेढालपुत्रमेवमवादीत् 'आउसो' आयुष्मन् उदक ! 'णो खलु अम्हाणं वत्तवरण' नो खलु अस्माकं वक्तव्यत्वेन,-अस्मवसिद्धान्ताऽनुसारेण एषः प्रश्न एवं न भवति, 'तुम्भं चेव अणुप्पादेणं अस्थि णं से परियार' युष्माकं चैवाऽनुषवादेन खलु स पर्यायाऽस्ति भवसिद्धान्तानुसारेणाऽपि 'जे णं समणोवासगस्स सम्ब पाणेहि सम्बभूएहि समजीवेहिं समसत्तेहि दंडे निक्खिते भवई' यस्मिन् श्रमणो. पासकस्य सर्वपाणेषु सर्वभूतेषु सर्वजीवेषु सर्वसत्त्वेषु दण्डो निक्षिप्त परित्यक्तो भवति । त्वदीयमताऽनुसारेगाऽपि तादृशः पर्यायोऽस्ति, यस्मिन् सर्वजीवादिषु श्राव: कस्य हिंसात्यगः संभवतीति । 'कस्स गं तं हे' तत्कस्य हेतोः १ 'तसा वि पाणा थावरतार पच्चायति' असा अपि प्राणा:-जीवाः स्थावरशरीरग्रहणाय प्रत्यायान्ति 'थावरा वि पाणा तसत्ताए पच्चायति' स्थावरा अपि प्राणाः प्रसत्वाय प्रत्यायान्ति 'तसकायायो विप्पमुच्चमाणा सम्धे थावरकार्यसि उपवनंति' प्रसकायतो विपयक बन जाता है । अतएव श्रावक का प्रत्याख्यान निविषय है। यह कहना न्याय संगत प्रतीत नहीं होता। शब्दार्थ इस प्रकार है भगवान् श्री गौतम स्वामी ने वादपूर्वक उदक पेढालपुत्र से कहाहे आयुष्मन् उदक ! हमें कहने की आवश्यकता ही नहीं है। हमारे सिद्धान्त के अनुसार यह प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। आपके सिद्धान्त के अनुसार भी वैसा पर्याय है जिसमें सर्वभूत प्राण जीव और सत्त्व के विषय में श्रावक का हिंसा त्याग संभव है । किस कारण से मैं ऐसा कहता हूं? क्यों कि त्रस प्राणी भी स्थावररूप से उत्पन्न हो जाते हैं और स्थावर जीव भी उस रूप में उत्पन्न हो जाते हैं। उसकाय से छूट कर सभी जीव स्थावरकायों में उत्पन्न हो जाते है और स्थावर काय को त्यागकर सभी जीव त्रस काय में उत्पन्न हो जाते हैं। जब सभी जीव શ્રાવકનું પ્રત્યાખ્યાન સર્વ પ્રાણી વિષયક બની જાય છે. શ્રાવકનું પ્રત્યાખ્યાન નિર્વિષય છે. આમ કહેવું તે ન્યાયયુક્ત લાગતું નથી. શબ્દાર્થ આ પ્રમાણે છે ભગવાન શ્રી ગૌતમસ્વામીએ ઉદક પઢાલપુત્રને વાદ સાથે આ પ્રમાણે કહ્યુંહે આયુન ઉદક! અમારે કહેવાની જરૂર જ રહેતી નથી. મારા સિદ્ધાંત પ્રમાણે આ પ્રશ્ન જ ઉપસ્થિત થતું નથી. આપના સિદ્ધાંત પ્રમાણે પણ એમ જ પર્યાય પરિવર્તન છે. જેમાં સર્વભૂત, પ્રાણી, જીવ, અને સત્વના વિષયમાં શ્રાવકના હિંસાના ત્યાગને સંભવ છે હું કયા કારણથી આ પ્રમાણે કહું છું? કેમકે ત્રસ પ્રાણું પણ સ્થાવરપણુથી ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. અને સ્થાવર જીવ પણ ત્રસપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. ત્રસકાયથી છૂટિને બધા જ છે સ્થાવરકાયમાં ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. અને સ્થાવરકાયને ત્યાગ કરીને બધા જ જે વસ For Private And Personal Use Only Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७२२ सूत्रकृताङ्गसूर्य मुव्यमानाः सर्वे जीवाः स्थावर का ये पद्यन्ते ते सशरीरं परित्यज्य स्थावर कार्य ग्रह्णन्ति । तथा - 'थावरकायाओ दिष्पमुच्चमाणा सब्वे तसकार्यसि उववज्जंति' दारकायतोवानाः सर्वे जीवा त्रपकायेवृत्पद्यन्ते, परित्यज्य स्थावरताम् - उपावदते सशरोराणि, 'तेर्सि चणं तसकार्यसि उववष्णाणं ठाणमेयं अधत्तं ' तेषां खलु पये पन्नानां स्थानमेतद् अघात्यम्। यदा च ते सर्वे जीवा खसकाये समुपयन्ते तदा तत्र स्थानं भावकस्याहिंसायोग्यं भवति । तदा- 'ते पाणाविदुचेति ते तसावि बुकचेति ते महाकाया-चिरद्विइया' ते माणधारणात् माणा अयुध्यन्ते ते नाकर्मोदयात् त्रता अप्युच्यन्ते ते महाकाया स्ते चिरस्थिविकाः माणादि शब्देर्व्यवहियन्ते महाकायवन्तो भवन्ति योजनलक्षप्रमाणशरीरवि कुर्वणात्, बहुकालस्थायिनोऽपि भवन्ति, त्रयस्त्रिंशत्सागरायुष्कमानात्, 'ते बहुव रंगा पाणा जेहिं समगोवासगस्स सुपचकखायं भवई' ते बहुतरकाः प्राणाः येषु श्रमणोपासकस्य सुपल्याख्यानं भवति । ते प्राणितो बहवः सन्ति येषु श्रावकस्य प्रत्याख्यानं सफलं भाति । ' ते अध्ययरगा पाणा जेर्सि समणोवासगस्स अपच्चक्खायं भवइ' तेऽल्पतरकाः प्राणाः येषु श्रमणोपासकस्य अपत्याख्यातं भवति । तथा - तत्समये ते प्राणिनो भवन्त्येव न हि येषु श्रावकस्य प्रत्याख्यानं न भवतीति । सकाय में उत्पन्न हो जाते है तब वह स्थान श्रावक के लिए अहिंसा के योग्य हो जाता है । वे त्रस जीव प्राण धारण करने के कारण प्राण कहलाते हैं बस नाम कर्म का उदय होने से स भी कहलाते हैं, वे महाकाय और चिरस्थितिक आदि भी कहे जाते हैं । एक लाख योजन जितने बड़े शरीर की विक्रिया करने से उन्हें महाकाय कहते हैं। तेतीस सागरोपम तक की आयु होने से महास्थितिक कहलाते हैं । इस प्रकार ऐसे प्राणी बहुत हैं । जिनके विषय में श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान सफल होता है । उस समय वे प्राणी होते ही नहीं हैं કાયમાં ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. જયારે બધા જ જીવે ત્રસકાયમાં ઉત્પન્ન થઈ જાય છે, ત્યારે તે સ્થાન શ્રાવકને માટે અહિંસા ચેાગ્ય થઈ જાય છે, તે ત્રસ જીવા પ્રાણ ધારણ કરવાથી પ્રાણ કહેવાય છે, ત્રસ નામકર્મીના ઉદય થવાથી ત્રસ પણ કહેવાય છે. તેઓ મહાકાય અને ચિરસ્થિતિક વિગેરે પણ કહેવાય છે. એક લાખ ચેાજન જેટલા મેાટા શરીરની વિક્રિયા કરવાથી તેઓને મહાકાય કહેવામાં આવે છે. તેત્રીસ સાગરૈપમ સુધીનું' આયુષ્ય હાવાથી મહાસ્થિતિક કહેવાય છે. આ રીતે આવા પ્રાણી ઘણા જ છે, જેના સબંધમાં શ્રમણ્ાપાસકનુ' પ્રત્યાખ્યાન સફળ થાય છે. તે સમયે તેએ પ્રાણી જ હાતા For Private And Personal Use Only Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ७ हिंसात्यागविषयक प्रश्नोत्तर'च ७२३ 'से महया तसकायाओ वसंतस्स उवद्वियस्स पडिक्रियस्स जत्तं तुम्भे वा अन्नो वा एवं वदह' तस्य महतस्त्रसकायादुपशान्तस्योपस्थितस्य प्रतिविरतस्य यद् यूयं वा अन्यो वा एवं वदथ । अनेन प्रकारेण स श्रावको महत्वकायादुपशान्तो हिंसया प्रतिविरतो भवति, अस्यां स्थितौ यूयमन्यो वा एवं वदथ 'णत्थि णं से केई परियाए जंसि समणोवासगस्स एगपाणावायविरए वि दंडे णिक्खित्ते' नास्ति सोऽपि पर्यायो यस्मिन् श्रमणोपासकस्य एकप्राणातिपातविरतेरपि दण्डो निक्षिप्तः - परित्यक्तः । तदा यद् यूयं कथयथ, नास्ति तादृशः पर्यायो यदर्थे श्रावकस्य प्रत्याख्यानं संभवेत् । 'अपि भेदे से णो णेयाउए भाइ' अयमपि भेदोस न नैयाविको भवति तदिदं भवतां कथनं न न्यायसिद्ध भवति, ततः स उदकः पेढाळपुत्रः सवादं गौतमस्योत्तरं श्रुत्वा अस्मिन् विषये प्रतिबुद्धो जात इति ।। १०- ७७ ॥ मूलम् - भगवं चणं उदाहु णियंटा खलु पुच्छियव्वा आउसंतो ! नियंठा इह खलु संतेगइया मणुस्सा भवति, तेसिं च एवं वृत्तपुव्वं भवइ जे इमे मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पत्रइए, एलिं च णं आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते, जे इमे अगारमावसंति एएसिंणं आमरणंताए दंडे जो णिक्खित्ते, केइ घ समणा जाव वासाई चउपंचमाई वा छटुद्दसमाई वा अप्पयरो वा जिनके विषय में श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान नहीं होता है । इस प्रकार वह श्रमणोपासक महान् सकाय जीव की हिंसा से उपशान्त एवं निवृत्त होता है । अतएव आप या दूसरों का यह कहना न्याय संगत नहीं है कि ऐसा एक भी पर्याय नहीं जिसके विषय में श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान सफल हो सके । श्री गौतमस्वामी का वाद पूर्वक यह उत्तर सुन कर उदक पेढालपुत्र इस विषय में प्रतिबुद्ध हो गए || १०|| નથી, કે જે એના સંબંધમાં શ્રમણેાપાસકનું પ્રત્યાખ્યાન થતું નથી. આ રીતે તે શ્રમણેાપાસક મહાન્ ત્રસકાયની હિંસાથી ઉપશાંત અને નિવૃત્ત થાય છે. તેથી જ આપતુ કે ખીજાએનું આ કથન ન્યાયયુક્ત નથી. કે એવા એક પશુ પર્યાય નથી, કે જેના સંબંધમાં શ્રમણેાપાસકનું પ્રત્યાખ્યાન સફળ ખની શકે. શ્રી ગૌતમ સ્વામીને વાદ પૂર્વક આ ઉત્તર સાંભળીને ઉદક પેઢાલપુત્ર આ વિષયમાં પ્રતિબાધવાળા થઈ ગયા. નાના For Private And Personal Use Only Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - ७२४ सूत्रकृतामसूत्र भुज्जयरो वा देसं दूईज्जित्ता अगारमावसेज्जा?, हंता वसेज्जा, तस्स गं तं गारत्थं वहमाणस्स से पच्चक्खाणे भंगे भवइ ?, णो इणहे समटे, एवमेव समणोवासगस्त वि तसेहिं पाहिं दंडे णिक्लित्ते, थावरेहिं दंडे णो णिक्खित्ते, तस्स णं तं थावरकायं वहमाणस्स से पच्चक्खाणे णो भंगे भवइ, से एवमायाणह ? णियंठा!, एवमायाणियव्वं । भगवं च णं उदाह णियंठा खलु पुच्छियव्वा-आउसंतो नियंठा! इह खलु गाहावइ वा गाहावइपुत्तो वा तहप्पगारेहिं कुलहिं आगम्म धम्मं सवणवत्तियं उवसंकमज्जा ? हंता उवसंकमज्जा, तेसिं च णं तहप्पगाराणं धम्मं आइक्खियवे?, हंता आइक्खियो, किं ते तहप्पगारं धम्म सोच्चा णिसम्म एवं वएज्जा-इणमेव निग्गंथं पावयणं सच्चं अणुत्तरं केवलियं पडिपुण्णं संसुद्धं णयाउयं सल्लकत्तणं सिद्धिमग्गं मुत्तिमग्गं निज्जाणमग्गं निव्वाणमग्गं अवितहमसंदिद्धं सबदक्खप्पहीणमग्गं, एत्थ ठिया जीवा सिझंति बुझंति मुञ्चति परिणिवायंति सव्वदुक्खाणमंतं करेंति, तमाणाए तहा गच्छामो तहा चिट्ठामो तहा णिसियामो तहा तुयट्ठामो तहा भुंजामो तहा भासामो तहा अब्भुट्ठामो तहा उटाए उटामोति पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं संजमेणं संजमामोत्ति वएज्जा? हता वएज्जा, किं ते तहप्पगारा कप्पंति पवावित्तए ?, हंता कप्पंति, किं ते तहप्पगारा कप्पंति मुंडावित्तए ?, हंता कप्पंति, किं ते तहप्पगारा कप्पंति सिक्खावित्तए ?, हंता कप्पति, किं ते तह. प्पगारा कप्पति उवहावित्तए?, हंता कप्पति, तेसिं च णं तहपगाराणं सव्वपाणहिँ जाव सबसत्तेहिं दंडे णिक्खित्ते ?, हंता मिक्खित्ते ?, से णं एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणा जाव वासाई For Private And Personal Use Only Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समार्थबोधिनी टीका द्वि. शु. अ. ७ गौतमस्य सद्दष्टान्तो विशेषोपदेशः ७२५ चउपंचमाई छुट्टदसमाई वा अप्पयरो वा भुज्जयरां वा देसं दूइज्जेत्ता अगारं वएज्जा, हंता वएज्जा, तस्स णं जाव सव्वसत्तेहिं दंडे णिक्खित्ते ?, जो इणट्टे समट्टे, से जे से जीवे जस्स परेण सव्वपाणेहिं जाव सबसत्तेहि दंडे णो णिक्खिते, से जे से जीवे जस्स आरेणं सव्वपाणेहिं जाव सत्तेहि दंडे णिक्खित्ते, से जे से जीवे जस्स इयाणि सव्वपाणेहिं जाव सत्तेहि दंडे णो णिक्खित्ते भवइ, परेण असंजए आरेणं संजए, इयाणि असंजए, असंजयस्स णं सव्वपाणेहिं जाव सत्तेहि दंडे णो णिक्खित्ते भवइ, से एवमायाणह ?, नियंठा ! से एवमायाणियव्वं । भगवं चणं च उदाहुणियंा खलु पुच्छियव्वा - आउसंतो ! नियंठा इह खलु परिवाइया वा परिव्वाइयाओ वा अन्नयरेहिंतो तित्थाययरोहितो आगम्म धम्मं सवणवत्तियं उवसंकमेज्जा ?, हंता उवसंकमेज्जा, किं तेसिं तहप्पगारेणं धम्मे आइक्खियव्वे !, हंता आइक्खियव्वे, तं चेत्र उवद्वावित्तए जाव कप्पंति, हंता कप्पंति किं ते तहृप्पगारा कप्पंति संभुंजित्तए । हंता कप्पंति, तेणं एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणा तं चैव जाव अगारं वएज्जा ? हंता वएज्जा, ते णं तहृप्पगारा कप्पंति संभुंजित्तए ! जो इट्टे समट्ठे से जे से जीवे परेणं नो कप्पंति संभुजित्तए, सेजेसे जीवे आणं कप्पंति संभुजित्तए, से जे से जीवे जे इयाणिं णो कप्पंति संभुंजित्तए, परणं अस्समणे आरेणं समणे, इयाणि अस्समणे असमणेणं सद्धि णो कप्पंति समणाणं निग्गंथाणं संभुंजित्तए, से एत्रमायाणह, नियंठा, से एवमायाणियव्वं ॥ सू० ११९ ॥ ७८ ॥ छाया - भगवांश्च खलु उदाह निर्ग्रन्थाः खलु प्रष्टव्याः आयुष्मन्तो निर्ग्रन्थाः इह खलु सन्स्कतये मनुष्या भवन्ति तेषां चैवमुक्तपूर्व भवति ये इमे मुण्डा For Private And Personal Use Only Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७२६ सूत्रकृतासूत्र भूत्वा अगारादनगारित्वं प्रवजन्ति एषां च आमरणान्तो दण्डो निक्षिप्ता, ये इमे अगारमावसन्ति एतेषां खलु आमरणान्तो दण्डो नो निक्षिप्तः केचिच्च खलु श्रमणाः यावद् वर्षाणि चतुःपश्चषड्दशानि वा अल्पतरं वा भूयस्तरं वा विहृत्य देशम गारमावसेयुः ? । हन्त वसेयुः। तस्य तं गृहस्थं जता तत्पत्याख्यानं भग्नं भवति ? नायमर्थः समर्थः, एवमेव श्रमणोपासकस्याऽपि त्रसेषु प्राणेषु दण्डो निक्षिप्तः स्थावरेषु दण्डो न निक्षिप्तः तस्य खलु तं स्थावरकायं नतः तत् पत्या. ख्यानं नो भग्न भवति तदेवं जानीत निर्ग्रन्थाः , एवं ज्ञातव्यम् । भगवांश्च उदाह -निर्ग्रन्याः खलु प्रष्टव्या आयुष्मन्तो निर्ग्रन्थाः, इह खलु गाथापतिर्वा गाथापति पुत्रो-वा तथामकारेषु कुलेषु आगत्य धर्मश्रवणार्थ मुपसंक्रमेयुः ? हन्त ! उपसंक्रमेयुः, तेषां च खलु यथापकाराणां धर्म आख्यातव्यः ? हन्त आख्यातव्यः। किं ते तथापकार धर्म श्रुत्वा निशम्य एवं वदेयुः-इदमेव नैन्य प्रवचनं सत्य मनुत्तरं कैवलिक परिपूर्ण संशुद्धं नैयायिक शल्यकर्तनं सिद्धिमार्ग मुक्तिमार्गः निर्माणमार्ग निर्वाणमार्गः अवितधमसंदिग्धं सर्वदुःखपहीणमार्गम्। अत्र स्थित्वा जीवाः सिध्यन्ति बुध्यन्ते मुश्चन्ति परिनिर्वान्ति सर्वदुःखानामन्तं कुर्वन्ति, तदाज्ञया तथा गच्छाम स्तथा तिष्ठामस्तथा निषीदाम स्तथा त्वचं वर्तयाम स्तथा भुनामहे तथा भाषामहे तथा अभ्युत्तिष्ठामस्तथा उत्थाय उत्तिष्ठाम इति माणानां भूतानां जीवानां सत्चानां संयमेन संयच्छाम इति वदेयुः ? इन्त वदेयुः। कि ते तथापकाराः कल्प्यन्ते प्रव्राजयितुम् ? हन्त कल्प्यन्ते। किं ते तथापकराः कल्प्यन्ते मुण्डयितुं हन्त कल्प्यन्ते । किं ते तथामकाराः कल्प्यन्ते शिक्षयितुं ? हन्त कल्प्यन्ते । किं ते तथापकाराः कल्पन्ते उपस्थापयितुम् १ हन्त कल्प्यन्ते । तैश्च खलु, तथाप्रकारैः सर्वपाणिषु यावत् सर्वसत्वेषु दण्डो निक्षितः ? हन्त निक्षिप्तः। ते खलु एतद्रूपेण विहारेण विहरन्तो यावद् वर्षाणि चतुः पश्चानि षड्दशानि वा अल्पतरं वा भूयस्तरं वा देशं विहृत्य अगारं व्रजेयुः ? हन्त व्रजेयुः । तैश्व खलु सर्वप्राणेषु यावत्सर्वसत्वेषु दण्डो निक्षिप्त ! नायमर्थः समर्थः तस्य यः स जीवः येन परतः सर्वप्राणेषु यावत्सर्वसत्त्वेषु दन्डो नो निक्षिप्तः तस्य यः स जीवः येन आरात् सर्वप्राणेषु यावत् सर्वसत्त्वेषु दण्डो निक्षिप्तः, तस्य स जीवः येन इदानीं सर्वमाणेषु यावत् सर्वसत्त्वेषु दण्डो न निक्षिप्तो भवति परतोऽसंयतः आरात् संयतः इदानीमसंयतः, असंयतस्य खलु सर्वप्राणेषु यावत् सर्वसत्त्वेषु दण्डो नो निक्षिप्तो भवति तदेवं जानीत निर्ग्रन्थाः। तदेवं ज्ञातव्यम् । भगवांश्च उदाह-निर्ग्रन्थाः खल प्रष्टव्या आयुष्मन्तो निर्गन्याः। इह खलु परिव्राजका वा परित्राजिका वा अन्यतरेभ्य स्तीर्थायतनेभ्य आगत्य For Private And Personal Use Only Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . समयार्थबोधिनी का वि. श्रु. अ.७ गौतमस्य सदृष्टान्तो विशेषोपदेशः ७२७ धर्मश्रवणप्रत्यय मुपसंक्रमें युः ? हन्त उपसंक्रमेयुः। कि तेषां तथाप्रकाराणां धर्मआख्यातव्यः ? हन्त आख्यातन्यः। ते चैवमुपस्थापयितुं यावत् कल्प्यन्ते ? हन्त करप्यन्ते। किं ते तथामकाराः कल्प्यन्ते संभोजयितुम् ? हन्त कल्प्यन्ते । ते खलु एतद्रूपेण विहारेण बिहरन्तः तथैव यावदागारं ब्रजेयुः ? हन्त व्रजेयुः। ते च तथापकाराः कल्प्यन्ते संभोजयितुम् ? नायमर्थः समर्थः ते ये ते जीवा ये परतः नो करप्यन्ते संभोजयितुम्, ते ये ते जीवा आरात् कल्प्यन्ते संभोजयितुम्, ते ये ते जीवा ये इदानीं नो कल्प्यन्ते संमोजयितुम्, परतोऽश्रमणः आरात् श्रमणः इदानीमश्रमणः । अश्रमणेन साध नो कल्पन्ते श्रमणानां निम्रन्थानां संमोक्तुं तदेवं जानीत निन्याः । तदेवं ज्ञातव्यम् ॥२०११-७८॥ टीका-'भगवं च णं उदाहु' उदकं पेढालपुत्र प्रति भगवान् श्रीगौतमस्वामी उदाह-मोवाच. 'णियंठा खलु पुच्छियच्या निर्यन्याः खलु प्रष्टव्याः निन्थान् वयं पृच्छेम इति यावत् । 'आउसंतो' हे आयुष्मन्त उदकपमुखाः साधवः ? इह खलु 'संतेगइया मणुस्सा भवंति' इह सन्त्येकतये मनुष्या भवन्ति । इह लोकेऽपि मनुजा एतादृशा भवन्ति, 'तेसिं च एवं वुत्तपुलं भवई' तेषां चएवमुक्तपूर्व भवति । ये एतादृशीं प्रतिज्ञां कुर्वन्ति 'जे इमे मुंडा भवित्ता आगाराओ अणगारियं पब्वइए' ये इमे मुण्डा भूत्वा अगारादनगारित्वं प्रवनन्ति, ये दीक्षा मादाय गृहमुत्सृज्य साधवो भवन्ति । 'एसिं च णं आमरणताए दंडे णिकिवत्ते' एषां चाऽऽमरणान्तो दण्डो निक्षिप्तः-परित्यक्तः । एतेषां सधूनां मरणं यावत्मया हननं न कर्तव्यमिति प्रत्याख्यानं कृतमस्ति । 'जे इमे अगारमावसंति एएसिं णं आमरणंताए दंडे णो णिक्खित्ते' ये इमे आगारमावसन्ति, एतेषामामर 'भगवं च णं उदाहु' इत्यादि । टीकार्थ-भगवान् श्रीगौतमस्वामी ने उदक पेढाल पुत्र से कहा-हम निर्ग्रन्थों से पूछते हैं कि हे आयुष्मन् उदक आदि निर्ग्रन्थो! इस लोक में ऐसे भी मनुष्य होते हैं जो इस प्रकार का त्याग करते हैं कि ये जो मुण्डित होकर गृह को त्याग कर अनगार हो गए हैं, उनकी मैं जीवन पर्यन्त हिंसा नहीं करूंगा। और जो गृह में निवास करते है अर्थात् 'भगव च णं उदाहु' त्या ટીકાથે–ભગવાન શ્રી ગૌતમ સ્વામીએ ઉદક પેઢાલપુત્રને કહ્યું કે-હું નિર્મને પૂછું છું કે-હે આયુઝન ઉદક વિગેરે નિગ્રંથ અણગારે! આ લેકમાં એવા પણ મનુષ્યો હોય છે, જેઓ એ ત્યાગ કરે છે કે-જે આ મુંડિત થઈને ગૃહનો ત્યાગ કરીને અનગારદશાને પ્રાપ્ત થઈ ગયા છે. તેમની હું જીવતા સુધી હિંસા કરીશ નહીં અને જે ઘરમાં નિવાસ કરે છે, અર્થાત ગૃહસ્થ છે, For Private And Personal Use Only Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गान्तो दण्डो नो निक्षिप्तः । परन्तु-ये गृहे वसन्ति तेषां वधस्य मरणपर्यन्त प्रत्याख्यानं न करोति 'केइ च णं समणा जाव वासाई चउपंचमाई छट्ठहसमाई अप्पयरो वा भुन्जयरो वा देसं दुईज्जित्ता आगारमावसेज्जा' केचिच खलु भमणा यावद् वर्षाणि चतुःपञ्चषड्दशानि वा-अल्पतरं वा-भूयस्तरं वा देशं मिहत्य-साध्ववस्थायां विहारं कृत्वा अगारमावसे युः, गौतमो वदति-हे उदक पेढाल पुत्र ! अधाऽहं पृच्छामि-तेषु साधुषु कश्चित् साधुः चतुः पञ्चत आरभ्य दशवर्षाणि यावत् इतस्ततो देशं विहत्य कि पुन दृहस्थ इति । 'तस्स गं तं गारस्य बहमाणस्स से पचक्खाणे भंगे भवइ ?' तस्य तं गृहस्थं धनतः तत्पत्याख्यान भग्नं भवति, भगवान गौतमः कथयति-तादृशं साधुतः परावृत्यागतं साधुगृहस्थं इन्यमानस्य साधुपत्याख्यानधारिणः तादृशपत्याख्यातं कि भग्नं भवति-न कथ. मपि व्रतमङ्गो भवतीति धनिः, उदकादयो भगवन्तमाहुः 'जो इणढे समडे' नायमर्यः समर्थ:-श्रमणाः कथयन्ति-साधुभावं परित्यज्य पुन हवास वसतः पूर्वगृहस्थ हैं उनकी हिंसा का मैं जीवनपर्यन्त त्याग नहीं करता हूं। ऐसी स्थिति में कोई साधु चार पांच छह या दश वर्ष तक या न्यूनाधिक समय तक साधु अवस्था में देशों में विचरकर हे उदक पेढालपुत्र । मैं पूछता हूं कि गृहस्थ बन जाते हैं या नहीं ? निग्रन्थ कहते हैं-हां कई पुनः गृहस्थ हो जाते हैं। श्रीगौतमस्वामी कहते हैं-तो जो साधुपना छोड़कर गृहस्थ हो गए हैं, उन गृहस्थों की हिंसा करने वाले उस पूर्वोक्त प्रत्याख्यानकर्ता का प्रत्याख्यान भंग हो जाता है क्या? निर्गन्ध कहते हैं-नहीं। जिसने गृहस्थ को मारने का प्रत्याख्यान नहीं किया वह पुरुष यदि साधुपन छोडकर गृहस्थ बने हुए पुरुष को તેમની હિંસાને હું જીવતા સુધી ત્યાગ કરતા નથી, આ પરિસ્થિતિમાં કઈ સાધુ ચાર, પાંચ, છ, અથવા દશ વર્ષ સુધી અથવા તેથી ઓછાવત્તા સમય સધી સાધુ અવસ્થામાં દેશમાં વિચરણ કરીને હે ઉદક પેઢાલપુત્ર! હું પૂછું છું કે-ગૃહસ્થ બની જાય છે કે નહીં? - નિરંથ કહે છે હા કેટલાક ફરીથી ગૃહસ્થ બની જાય છે. શ્રી ગૌતમ સ્વામી કહે છે કે–તે જેઓ સાધુપણાને ત્યાગ કરીને ગૃહસ્થ બની ગયા છે તે ગૃહસ્થની હિંસા કરવાવાળા તે પૂર્વોક્ત પ્રત્યાખ્યાન કરવાવાળાના પ્રત્યાખ્યાનને ભંગ થઈ જાય છે ? નિર્ગળ અણગાર કહે છે કે.ના જેણે ગૃહસ્થને મારવાનું પ્રત્યાખ્યાન કર્યું નથી, તે પુરૂષ જે સાધુપણું છોડીને ગૃહસ્થ બનેલા પુરૂષને મારે છે, તે For Private And Personal Use Only Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लमयार्थबोधिनी टीका शि. श्रु. अ.७ गौतमस्य सदृष्टान्तो विशेषोपदेशः ७९ सापोः मारणेन प्रत्याख्यानिनः प्रत्याख्यानस्य भङ्गो न भवति कथमपि, यतः साधुन मया हन्तव्य एतादृशं प्रत्याख्यानं कृतम् । अयन्तु नेदानीं साधुः-अपितु गृहस्थः । असस्तादृशगृहस्थस्य मारणे साधुमारणपत्याख्यानस्य भङ्गो नैव भवतीति । पुनः गौतमस्वाम्याह-'एवमेव समणोचासगस्स वि तसेहिं पाणेहि दंडे णिक्खित्ते' एवमेव भमणोपासकस्याऽपि बसेषु माणेषु दण्डो निक्षिप्तः। 'थावरेहिं दंडे गो मिक्खित्ते' स्थावरेषु दण्डो नो निक्षिप्तः 'तस्सणं थावरकायं वहमाणस्स से पच्चक्खाणे णो भंगे भाइ' तस्य स्थावरकायं नतस्तत्मत्याख्यानं नो भग्नं भवति। गौतमः कथयति-पथा तस्य व्रतभङ्गो न भवति, एवं प्रसकार्य प्रत्याख्यातुर स्थावरशरीर नाशनेऽपि प्रत्याख्यानमङ्गो न भवति, यतस्तदानी स्थावरावच्छिा. जीवे प्रसशरीरावच्छिन्नत्वाऽभावात् । 'से एवमायाणद ? णियंठा ! एवमायाणियम्' हे निनन्याः साधा ! तदेवं जानीत-एवमेव ज्ञातव्यमिति । पुन गौतमोऽमुमर्थ बोधयितुमुदाहरणान्तरमाह-'भगवं च णं उदाहु णियंठा खलु पुच्छियब्वा' भगवांश्च खलु उदाइ-निग्रंथाः खलु प्रष्टव्याः गौतमः कथयति-अहं श्रमणान पृच्छामि-'आउसंतो णियंठा आयुष्मन्तो निर्ग्रन्थाः ? 'इह खलु गाहावई वा मारता है तो उसका प्रत्याख्यान भंग नहीं होता। उसने तो साधु को ही न मारने का प्रत्याख्यान किया है, परन्तु यह पुरुष अप साधु नहीं है, परन्तु गृहस्थ है। अतएव उस गृहस्थ को मारने से माधु को न मारने की प्रतिज्ञाका भंग नहीं होता। ___ श्रीगौतमस्वामी बोले-इसी प्रकार श्रमणोपासकने सजीवों की हिंसा का त्याग किया स्थावर जीवों की हिंसा का त्याग नहीं किया। अतः वह यदि स्थावर जीवों की हिंसा करता है तो उसका प्रत्याख्यान भंग नहीं होता। क्यों कि वह जीव इस समय सशरीर में नहीं किन्तु स्थावर शरीर में है। हे निर्ग्रन्थ साधुभो ! ऐसा ही समझना चाहिए। તેના પ્રત્યાખ્યાનને ભંગ થતો નથી. તેણે તે સાધુને જ ન મારવાનું પ્રત્યાખ્યાન કર્યું છે. પરંતુ આ પુરૂષ હવે સાધુ રહેલ નથી, પરંતુ ગૃહસ્થ છે. તેથી જ તે ગૃહસ્થને મારવાથી સાધુને ન મારવાની પ્રતિજ્ઞાન ભંગ થતો નથી. ગૌતમસ્વામીએ કહ્યું–આ જ પ્રમાણે શ્રમણોપાસકે ત્રસ જીવોની હિંસાને ત્યાગ કર્યો છે, અને સ્થાવર જીવોની હિંસાને ત્યાગ કર્યો નથી, તેથી તે જે સ્થાવર ઓની હિંસા કરે છે, તે તેને પ્રત્યાખ્યાનને ભંગ થતું નથી કેમકે તે જીવ આ વખતે ત્રસ શરીરમાં નથી, પણ સ્થાવર શરીરમાં રહેલ છે, હું -नि- साधु! म सभा नये. For Private And Personal Use Only Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - गाहावइ पुत्तो वा तहप्पगारेहि कुलेहि आगम्म' इह खलु गाथापतिर्वा गाथा. पतिपुत्रो वा तयामकारेषु कुलेष्वागस्य 'धम्म सवणवत्तियं उपसंकमज्जा' धर्म धरणार्थमुपसंक्रमेयु:-आगच्छेयुरित्ययः । इह हि जगति उत्तमकुलोत्पनो गाथापति स्वस्पुत्रो वा धर्मश्रवणार्थ साधुसमीपं गन्तुं शक्नोति किम् ? 'हता उवसंकमज्जा' इन्त-उपसंक्रमेयुः साधुभिः कथितं हन्त भोः गन्तुं शक्नोति श्रोतुम् 'तेसिं च तापगाराणं धम्म आइक्वियम्वे' तेषां च गाथापत्यादीनां तयापकाराणां धर्म पाख्यातव्या-वक्तव्यः किम्, 'हंत आइक्खियो' हन्त ! आख्यातव्यः साधवो बदन्ति मुनिभिः तेभ्यो धर्म उपदेष्टव्य इति । 'कि ते तहपगारं धम्म सोचा णिसम्म एवं वएज्जा' किं ते तथामकारं धर्म श्रु वा-निशम्य एवं वदेयुः, ते तादृशं धर्म भ्रूत्वाऽजगत्य च--एवं कय येयुः, 'इणमें णिग्गंथं पावयणं सच्चं अणु तरं केवलियं पडिषुण्णं संसुद्धं णे याउयं सरलकत्तण सिदिमम्ग-मुत्तिमग्गं निज्जाणमगं निवाणमगं-अवितहमसंसिद्धं-सम्बदुवापहीणमगं - एत्थं ठिया जीवा सिझंति-बुज्झति-मुच्चंति परिनिवायति सम्बदुक्खाणमंत करेंति' इदमेव - गौतम स्वामी इसी अर्थ को समझाने के लिए दूसरा उदाहरणदेते है-हे आयुष्मन् निम्रन्यो ! कोई गाथापति या गाथापति का पुत्र तथाप्रकारके उत्तम कुलों में जन्म लेकर क्या धर्म श्रवण करने के लिए साधु के समीप आ सकते हैं ? निर्ग्रन्थों ने कहा-हां आसकते हैं । गौतनस्वामी-उन गाथापति आदि को क्या धर्म का उपदेश करना चाहिए? निर्ग्रन्थ-हां, साधुओं को धर्मोपदेश करना चाहिए। गौतम स्वामी-क्या धर्म के उपदेश को सूनकर और समझकर वे ऐसा कह सकते हैं कि-यह नियन्थ प्रवचन ही सत्य है, अनुत्तर શ્રી ગૌતમસ્વામી આ જ વાત સમજાવવા માટે બીજું ઉદાહરણ આપે છેહે આયુબન નિર્ચ કઈ ગાથા પતિ અથવા ગીથાપતિને પુત્ર તેવા પ્રકારના ઉત્તમ કુળમાં જન્મ લઈને શું ધર્મ શ્રવણ કરવા માટે સાધુઓની સમીપે આવી શકે છે? निश्रन्थाले यु-है। मावी श छे. ગૌતમસ્વામીએ કહ્યું–તે ગાથા પતિ વિગેરેને શું ઉપદેશ કરવો જોઈએ. નિત્થાએ કહ્યું–હા સાધુઓએ ધર્મોપદેશ કર જોઈએ. ગૌતમસ્વામીએ કહ્યું-શું ધર્મના ઉપદેશને સાંભળીને અને સમજીને તેઓ એવું કહી શકે છે કે-આ નિગ્રંથ પ્રવચન જ સત્ય છે. અનુત્તર For Private And Personal Use Only Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org , hereafter east fa. अ. अ. ७ गौतमस्य सदृष्टान्तो विशेषोपदेशः ७३१ निर्ग्रन्थं प्रवचनं सत्यं सत्यमर्थ बोधयति तत् अनुत्तरं कैलिक परिपूर्ण संवदं नैयायिकं शल्यकर्त्तनं सिद्धिमार्गः मुक्तिमार्गः निर्माणमार्गः निर्वाणमार्गः अवितथम्-मिथ्यात्वरहितम्, असंदिग्धं सर्वदुःखमहीणमार्गः, अनुत्तरमनन्यसदृशम्, केलिना प्रोक्तं कैलिकमद्वितीयम् - परिपूर्णम् अपवर्गप्रापककृत्स्नगुणसंयुक्तम् - कषायादिमलरहितम् संशुद्ध नैयायिकं न्यायेन चरतीति मोक्षगमकं वा शल्पं - मायादि पापं वा कुन्तति-छिनत्तीति शल्यकर्त्तनम, सिद्धिमार्ग:-सिद्धिः अविचल - सुखमाशिः तस्या, मार्गः मुक्तिमार्ग:- मुक्तिः - अहितार्थकर्मप्रदानं तस्था मार्गः, निर्याणम् - सकलकर्मभ्य आत्मनो निःसरणं तस्य मार्गः निर्माणमार्गः, निर्वाणनिर्वृतिः - निखिलकर्मक्षयजन्यं परमसुखं तस्य मार्गः निर्वाणमार्गः, अवितथंतथ्यम्, असंदिग्धम् - सन्देहरहितम्, सर्वदुःखप्रहीण मार्ग :- सर्व दुःखमहोणंनिःश्रेयसं तस्य मार्गः अत्र स्थिता जीवा सिध्यन्ति सिद्विगतिं प्राप्नुवन्ति, बुध्यन्ते - केवलिनो भवन्ति, मुञ्चन्ति - कर्मबन्धात् पृथग् भवन्ति, परिनिर्वान्तिसर्वथा सुखिनो भवन्ति, सर्वदुःखानामन्तं कुर्वन्ति सर्वदुःखानि - शरीरवाङ्मानसानि तेषामन्तो नाशस्तं कुर्वन्ति । अत्र स्थिता जीवाः सिध्यन्ति - बुध्यन्ते - मुञ्चन्ति परिनिर्वान्ति-सर्व-दुःखानामन्तं कुर्वन्ति । आहंदू धर्मं श्रुखा ते कथयिष्यन्ति - अयमेत्र धर्मः सत्यः - सन्देहरहितः । अमुं धर्ममासाद्य मोक्षमपि प्राप्य सर्वोत्तम है, परिपूर्ण है, संशुद्ध हैं, न्याययुक्त है, शय अर्थत माया आदि पापों को नष्ट करने वाला है, अविचल सुख रूप सिद्धि का मार्ग है, मुनि का मार्ग है, समस्त कर्मों से आत्मा को पृथक करने का मार्ग है, निर्वाण अर्थात् समस्त कर्मों के क्षय से उत्पन्न होने वाले परमसुख का मार्ग है, तथ्य है, संशयानीत है, समस्त दुःखों के विनाश करने का मार्ग है । इस धर्म में स्थित जीव सिद्ध होते हैं बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिर्वाण प्राप्त करते हैं और सब प्रकारका अर्थात् शारीरिक और मानसिक दुःखों का अन्त करते हैं। अतः हम तीर्थंकर 6000 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्वोत्तम छे. परिपूर छे. संशुद्ध छे, न्याययुक्त छे शहयो अर्थात् भाया વિગેરે પાપાને નાશ કરવાવાળુ છે. અવિચલ સુખરૂપ સિદ્ધિના માર્ગ છે, સમસ્ત કમ થી આત્માને જાડા કરવાના માર્ગ છે નિર્વાણુ અર્થાત્ સમસ્ત उर्भाना क्षयथी उत्पन्न थवावाणा परभसुमनो भाग छे तथ्य - सत्य छे. સ'શય વગરના છે. સમસ્ત દુ:ખાના વિનાશ કરવાના માગ છે. આ ધમ માં રહેલ જીવ સિદ્ધ થાય છે, બુદ્ધ થાય છે, મુક્ત થાય છે, પરિનિર્વાણ પ્રાપ્ત કરે છે, અને અવાજ અર્થાત્ શારીરિક-શરીર સંબંધી અને માનસિક દુઃખાને For Private And Personal Use Only Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir न्तीत्यादि। 'तमाणाए तहा गच्छामो तहा चिट्ठामो तहा णिसियामो तहा तुयट्टामो तहा भुं नामो तहा भासानो तहा अभुट्ठामो तहा उठाए उहिमोति पाणार्ण भूगर्ण जीवाणं सत्ताणं संजमेणं संजमामोत्ति वएज्जा?' तदाशया-एतत्तीर्थकरोदिरित. धर्मस्थात्रया तथा गच्छामः-यतनया विहरामः, यतनया तथा तिष्ठामः-कर चरणादिकमविक्षिपन्तः समाहिता भवामः, तथा निषीदाम:-यतनया उपविशामः, तथा त्वरवर्तयामः-यतनया पाश्र्वपरिवर्तनं कुर्मः, तथा भुनामहे यथा कल्या. गाहारं माग्नुमः, तथा भाषामहे, तथाऽभ्युत्तिष्ठामः, तथा-उत्थाय उत्तिष्ठामः, इति प्राणानां द्रीन्द्रियाणं भूतानां-सचानां जीवानां-पश्चेन्द्रियाणां सत्यानाम्एकेन्द्रियपृथिव्यादीनां संयमेन-सप्तदशविधेन संयमं संयच्छामः-परिपालयाम इति वदेयुः-गाथापत्यादयः किम् ? 'हंता वएग्जा' हन्त भोः? वदेयुः इति साधुभिः कथितम् । 'कि ते तहप्पगारा कप्पंति पञ्चावित्तए' किं ते तथामकारा:ताशा गाथापत्यादयः-प्रव्राजयितुं कल्प्यन्ते, एते पुरुषा दीक्षायोग्याः किम्, द्वारा उपदिष्ट इस धर्म की आज्ञा के अनुसार ही हम यतना से गमन करेगे-यतना से विहार करेंगे यतनासे ठहरेंगे, हाथ-पैर आदि को नहीं पटकते हुए समाहित होंगे, यतना से बैठेंगे, यतनासे पसवाड़ा पलटेंगे, पंतना से आहार प्राप्त करेंगे, बोलेंगे और उठेगे। इस धर्म में कही हुई विधि के अनुसार ही उठकर प्राणियों-द्वीन्द्रिय आदि, भूतों-वनस्पति, जीवों-पंचेन्द्रियों तथा सत्त्वों-पृथ्वीकाय आदि की रक्षा के लिए संयम पालन करेंगे क्या वे गायापति आदि ऐसा कह सकते हैं ? निर्ग्रन्थ-हां वे ऐसा कह सकते हैं। . गौतम स्वामी-क्या वे ऐसा विचार रखते वाले पुरुष दीक्षा અંત કરે છે. તેથી તીર્થકર દ્વારા ઉપદેશ કરવામાં આવેલ આ ધર્મની આજ્ઞા પ્રમાણે જ અમે યતના પૂર્વક ગમન કરીશું. યતનાથી વિહાર કરીશું યતનાથી ઉભા રહીશું-હાથ, પગ વિગેરેને તરે છેડ્યા વિના સમાધિવાળા , થઈશું યતનાથી બેસીશું, યતનાથી પડખા બદલીશું. યેતનાથી આહાર પ્રાપ્ત કરીશું, યતનાથી બેલીશું અને યતનાથી ઉઠીશું. આ ધર્મમાં કહેવામાં આવેલ વિધિ પ્રમાણે જ ઉઠીને કન્દ્રિય વિગેરે प्राणियो, भूता-बन३५ति, ७-५'येन्द्रियो, तथा सत्वा-पृथ्वीय विशेष રક્ષા કરવા માટે સંયમનું પાલન કરીશું? આ પ્રમાણે તે ગાથાપતિ વિગેરે આમ કહી શકશે ? निय ४8- तोते ही श छ. - ગૌતમસ્વામીએ કહ્યું-શું તેઓ આ વિચાર રાખવવાળા પુરૂ For Private And Personal Use Only Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबाधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. गौतमस्य सदृष्टान्तो विशेषोपदेशः ७३३ 'हंता कप्पंति' हन्त कल्प्यन्ते-सन्ति दीक्षायोग्यास्ते। 'किं ते तहपगारा कप्पंति' मुंडावित्तए' किं ते तथाप्रकारा स्वादशाः मुण्डनयोग्याः सन्ति ? हंता कप्पति' इन्त कल्प्यन्ते । 'किं ते तहप्पगारा कप्पति सिक्खावित्तए' किं ते तथाप्रकाराः कल्प्यन्ते शिक्षयितुम्, ग्रगासेवनया शिक्षादानयोग्या किम् इमे, 'हंता कप्पंति' इन्त कल्प्यन्ते । “किं ते तहप्पगारा कप्पंति उबट्ठावित्तए' किं ते तथापकारा साधुत्वाय उपस्थापयितुं कलप्यन्ते । 'हंता कपंति' हन्त कल्प्यन्ते 'तेसिं च णं तहप्पगाराणं सम्वपाणेहि जाव सबसत्तेहि दंडे णिक्खित्ते' तैश्च सर्वपाणिषु यावत्सर्वसत्त्वेषु दण्डो निक्षिप्तः । तैः सर्वत्राणिषु दण्डमत्याख्यान कत्तुं शक्यते किम् । 'हंता णिक्खित्ते' हन्त निक्षिप्तः-प्रत्याख्यानं कत्तुं शक्यते । ‘से णं एयाग्रहण कर सकते हैं ? निर्ग्रन्थ हां, वे दीक्षा ले सकते हैं । वे दीक्षा देने के योग्य हैं। गौतम स्वामी-क्या इस प्रकार के विचार वाले वे पुरुष मुण्डिन करने योग्य हैं ? निर्ग्रन्थ-हां, वे मुण्डित करने योग्य हैं। गौतम स्वामी--क्या वे ग्रहण और आसेवन शिक्षा देने के योग्य हैं ? निर्ग्रन्थ-हाँ योग्य हैं। गौतम स्वामी--क्या वे साधुत्व में स्थापित करने योग्य हैं ? " निर्गन्ध-हां, योग्य हैं। गौतम स्वामी--क्या वे समस्त प्राणियों यावत् सत्त्वों के संबंध में दण्ड देने का त्याग कर सकते हैं? निर्ग्रन्थ--हां वे त्याग कर सकते हैं। દીક્ષાને સ્વીકાર કરી શકે છે? નિર્માએ કહ્યું-હા તે દીક્ષા ધારણ કરી શકે છે. તેઓને દીક્ષા આપા ચોગ્ય છે. - ગૌતમસ્વામી–શું આવા પ્રકારના વિચારવાળા તે પુરૂષ મુંડિત કરपान योग्य छ ? નિ9–હા ગ્ય છે. ગૌતમસ્વામી–શું તેઓ સાધુપણામાં સ્થાપવાને ગ્ય છે? निश्र-थं- यो२५ छ. ગૌતમસ્વામી–શું તેઓ સઘળા પ્રાણિ યાવત્ સર્વેના સંબંધમાં દંડ આપવાને ત્યાગ કરી શકે છે? નિર્મસ્થ– તેઓ તે પ્રમાણે દંડ દેવાને ત્યાગ કરી શકે છે. તે For Private And Personal Use Only Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतागपत्र रूवेणं विहारेणं विहरमाणा जाव वासाई चउपंचमाई छट्टद्दसमाई वा अप्पयरो वा भुज्जयरो वा देसं दुइज्जेत्ता अगारं वएज्जा' ते एतद्र पेण विहारेण विहरतो यावद्वर्षाणि चतुः-पश्चानि षड्दशानि वा अल्पतरं वा भूयस्तरं वा देशं-साधु. विहारं कृत्वा विहृत्य-अगारं व्रजेयुः । 'हता वएज्जा' हन्त ! बजेयुः 'तस्स गं जाव सबसत्तेहि दंडे णिक्खित्ते' तैश्च खलु सर्वप्राणेषु दण्डो निक्षिप्तः, ते गृहस्था भूत्वा किं सर्वजन्तुषु दण्डं परित्यजन्ति किम् ? अर्थात् ते गृहस्थाः सर्वजीवेषु दण्डं न परित्यजन्ति । किन्तु-कुर्वन्त्येा दण्डं तदेवाह ते उदक यतादयो निग्रन्थाः कथयन्ति हे गौतम ! 'णो इणहे समढ़ें' नायमर्थः समर्थः 'से जे से जीवे जस्स परेणं सव्वपाणेहिं समसत्तेहिं दंडे णो णिक्खित्ते' तस्य यः स जीव येन परतः सर्वमाणेषु यावत् सर्वसत्त्वेषु दण्डो नो निक्षिप्तः, स जीवो यो दीक्षातः पूर्व गृहस्थावस्थायां सर्वपाणिषु दण्डं न परित्यक्तवानासीत् । 'से जे से जीवे जस्स गौतम स्वामी--वे दीक्षा पर्याय में विचरते हुए चार, पांच, छह या दस वर्ष तक थोडे या बहुत देशों में विहार करके पुनः गृहस्थ हो सकते हैं ? निर्ग्रन्ध--हां, फिर गृहस्थ हो सकते हैं। ___ गौतम स्वामी-वे गृहस्थ होकर क्या समस्त प्राणियों को दण्ड देने का त्याग करते हैं ? निन्ध --नहीं यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् पुनः गृहस्थ हो कर वे समस्त प्राणियों की हिंसा के त्यागी नहीं हो सकते। गौतम स्वामी--वह यही पुरुष है जिसने दीक्षा अंगीकार करने से पूर्व सम्पूर्ण प्राणियों को दंड देने का त्याग नहीं किया था वह वही पुरुष ગૌતમસ્વામી–તેઓ દીક્ષા પર્યાયમાં વિચરતા થા ચાર, પાંચ, છે અથવા દસ વર્ષ સુધી થડા કે ઘણા દેશમાં વિહાર કરીને ફરીથી ગૃહસ્થ થઈ શકે છે ? નિગ્રંથ– હા ફરીથી ગૃહસ્થ થઈ શકે છે. ગૌતમસ્વામી–તેઓ ગૃહસ્થ થઈને બધા પ્રાણિયેને દંડ આપવાનો ત્યાગ કરે છે? નિW—ના, આ અર્થ બરાબર નથી, અર્થાત ફરીથી ગૃહસ્થ થઈને તેઓ સઘળા પ્રાણિયોની હિંસાનો ત્યાગ કરવાવાળા થઈ શકતા નથી. ગૌતમસ્વામી–તે એજ પુરૂષ છે. કે જેણે દીક્ષાને સ્વીકાર કર્યા પહેલાં બધા જ પ્રાણિઓને દંડ દેવાને ત્યાગ કર્યો ન હતે. તે એજ પુરૂષ છે કે, For Private And Personal Use Only Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयायोधिनी टीका शि. श्रु. अ. ७ गौतमस्य सहष्टान्तो विशेषोपदेशः ७३५ आरेणं सम्मपाणेहि जाव सत्तेहि दंडे णिक्वित्ते' तस्य यो जीवः स येन आरात -मुनिसामीप्यात् सर्वमाणिषु यावत्सर्वसत्त्वेषु दण्डो निक्षिप्तः । स एव जीयः पवाद् दीक्षाधारणानन्तरं सर्वपाणिषु दण्ड परित्यक्तवान् । 'से जे से जीधे जस्स याणिं सम्भपाणेहि जाव सम्बसलेहि दंडे णो णिक्खित्ते भाई तस्य यः स जीवो येन इदानीं सर्वपाणिषु यावत्सत्वेषु दण्डो न निक्षिप्तो भवति। एवं स एव जीयो विधते-यो गृहस्थमात्रमाददानः सर्वजीवेषु प्रत्याख्यानं न कुत. बान्, 'परेणं असंजए आरेण संजए' परतोऽसंयतः-आरासंयत:-साध्ववस्थात: पाच-गृहस्थावस्थायाम् असंयत आसीत्, आरात्-साध्ववस्थायां संयतः। 'इयाणि असंनए' इदानीम्-पुनः साधुलिङ्गत्यागात्परं गृहस्थभावमापन्नः पुनरसंयतो जातः । 'असंजयरस सम्रपाणेहिं जाव सबसत्तेहिं दंडो णो णिक्खित्ते भवई' असंयतस्य सर्वपाणिषु यावत् सर्वसत्वेषु दण्डो नो निक्षिप्तो भवति, असंयमी जीवः सर्वव्यापारेण सर्वप्राणिषु दण्डत्यागी न भवति । ‘से एवं मायाणह' तदेवं जानीत, 'णियंठा' निग्रन्थाः ‘से एवमायाणियब्धं तदेवं ज्ञातव्यम् । अयं भावः यद्यपि त्रसजीववधस्य पूर्व प्रत्याख्यानं कृतम्, स एव कालान्तरे स्थाहै। जिसने दीक्षा धारण करने के पश्चात् समस्त प्राणियों को दण्ड देने का त्याग कर दिया था और यह वही पुरुष है जो दीक्षा त्याग कर और गृहस्थ अवस्था में आकर समस्त प्राणियों को दंड देने का स्यागी नहीं है। वह सबके पहले असंयमी हो गया और फिर साधु लिंग त्याग कर असंयमी हो गया । जो असंयमी है वह समस्त प्राणियों यावत् समस्त सत्त्वों को दंड देने का त्यागी नहीं हो सकता। हे निर्ग्रन्थो ! ऐसा ही जानो और ऐसा ही जानना चाहिए । भावार्थ यह है-यद्यपि उस जीव के हिंसा का प्रत्याख्यान पहले किया है, किन्तु वह त्रस जीव कालान्तर में स्थायर हो जाता है ।त्रित જેણે દીક્ષા ધારણ કર્યા પછી બધા જ પ્રાોિને દંડ દેવાને ત્યાગ કર્યો હતે. અને તે એજ પુરૂષ છે કે જે દીક્ષાને ત્યાગ કરીને અને ગૃહસ્થ અવસ્થામાં આવીને બધા જ પ્રણિયોને દંડ દેવાને ત્યાગ કરનાર નથી. તે સૌથી પહેલાં અસંયમી હતો. તે પછી સંયમી થઈ ગયો. અને તે પછી પાછે સાધુના વેષને ત્યાગ કરીને અસંયમી થઈ ગયે. જે અસંયમી છે. તે સઘળા પ્રાણિ યાવતુ સઘળા સોને દંડ આપવાનો ત્યાગ કરવાવાળા હોતા નથી. હે નિગ્રંથો ! તમે એવું જાણે અને એ જ પ્રમાણે જાણવું જોઈએ. ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે-જે કે ત્રસ જીવની હિંસાનું પ્રત્યાખ્યાન પહેલાં કર્યું હતું. પરંતુ તે ત્રસ જીવ કાલાન્તરમાં સ્થાવર બની જાય છે. ત્રસ જીવનું For Private And Personal Use Only Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 9 जरा मासादयति सजीवे प्रत्याख्यान कर्तुः स्थावरजीवविनाशनेन प्रत्याख्यानं न भज्येत तत्काले तस्मिंस्त्रसावच्छिन्न जीवत्वाऽभावात् पर्यायेण सहैव प्रत्याख्यानस्य सम्बन्धः, न तु द्रव्यतयाऽवस्थितजीवेन सह पर्यायस्य च प्रतिक्षणं भियानस्वात् । यथा कश्चित् गृहस्थः साधुर्भवति तस्यां च गृहस्थावस्थायां जीवं विराधयति तावता साध्ववच्छिनपत्याख्यानस्य भङ्गो न भवति तस्कस्य तो ? साधुयगृहस्थपर्याययोर्भेदात् । प्रत्याख्यानस्य साधुपर्यायेण सम्ब स्यात् । गृहस्थावस्थायां तेनैव जीवेन कृतेऽपि बधे प्रत्यारूपानं न दुष्टं भवति, दिहापि सजीवविषये गौतमेन प्रतिबोधितः स इति भावः । 1 - सूत्र For Private And Personal Use Only गौतमस्वामी कथितमेवार्थ दृष्टान्तान्तरेण पुनः उदकपेढालपुत्र श्रमणेभ्यः प्रदर्शयति - 'भगवं च णं उदाहु भगवान् पुनः खलु उदाह- 'णियंठा खलु पुच्छियना' जीव का प्रत्याख्यान करने वाले का प्रत्याख्यान स्थावर जीवों की हिंसा करने से भंग नहीं होता। क्यों कि उस समय वह त्रस जीव नहीं है । प्रत्याख्यान का सम्बन्ध पर्याय के साथ है, द्रव्य रूप से स्थित रहने वाले जीव के साथ सम्बन्ध नहीं है। किन्तु पर्याय पलटती रहती । जैसे कोई गृहस्थ है, साधु नहीं है और उस अवस्था में जीवों की विराधना करता है तो साधु संबंधी प्रत्याख्यान का भंग नहीं होता है । इसका क्या कारण है ? कारण यही है कि साधुपर्याय और गृहस्थ पर्याय में भेद है। प्रत्याख्यान का संबंध साधु पर्याय के साथ है । गृहस्थावस्था में जीव की हिंसा करने पर भी गृहस्थ प्रत्याख्यान के भंग का दोषी नहीं होता । इसी प्रकार प्रकृत त्रस के विषय में भी समझ लेना चाहिए | इस प्रकार गौतम स्वामी ने उन निर्ग्रन्थों को प्रतिबोध दिया। પ્રત્યાખ્યાન કરવાવાળાના પ્રત્યાખ્યાનના સ્થાવર જીવાની હિંસા કરવાથી ભગ થતા નથી. કેમકે–તે વખતે તે ત્રસ જીવ રહેલ નથી. પ્રત્યાખ્યાનના સબંધ પર્યાયની સાથે છે. દ્રવ્યપણાથી સ્થિત રહેવાવાળા જીવની સાથે સ‘'ધ નથી પરંતુ પર્યાય ફર્યા કરે છે. જેમકે કે. ગૃહસ્ય છે, તે સાધુ નથી અને તે એ અવસ્થામાં જીવેાની વિરાધના-હિંસા કરતા હાય તા સાધુ સ’બધી પ્રત્યાખ્યાનના ભગ થતા નથી, તેનું કારણ શું છે? કારણ એજ છે કેસાધુ પર્યાય અને ગૃહસ્થ પર્યાયમાં ભેદ છે. પ્રત્યાખ્યાનને સંબધ સાધુપર્યાય સાથે છે. ગૃહુસ્થ અવસ્થામાં જીવની હિઁંસા કરવાથી પણ ગૃહસ્થ પ્રત્યાખ્યાનના ભંગરૂપી દોષવાળા થતા નથી. એજ પ્રમાણે ચાલુ ત્રસના સદંબ ́ધમાં પણુ સમજી લેવું જોઇએ. આ પ્રમાણે ગૌતમસ્વામીએ તે નિગ્રન્થાને પ્રતિબંધ આપ્યા. Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. शु. अ. ७ गौतमस्य सदृष्टान्तो विशेषोपदेशः ७३७ निर्ग्रन्थाः खलु प्रष्टव्या: - निर्ग्रन्थानहं पृच्छामि, 'आउसंतो नियंठा' आयुष्मन्तो निर्ग्रन्थाः इह लोके 'परिवाइया वा' पारिवाजका वा 'परिव्वाइयाओ बा' परिवाजिका वा 'अन्नय रेहिंतो' अन्यतरेभ्यः 'तित्याययणेहिंतो आगम्य धम्मं वणवत्तिय उवसंमेज्जा' तीर्थायतनेभ्य आगत्य धर्मे श्रवणप्रत्ययमुपसंक्रमेयुः । 'यतनेभ्यः स्वतीर्थेभ्यः साधुभ्यः साध्वीभ्यो वा किं धर्मश्रवणार्थमागन्तुं 'शक्यते ? 'हंता उबसेकमेज्जा' हन्त - उपसंक्रमेयुः - आगन्तुं शक्यते, 'कि तेसिं' सहपगारे धम्मे आइक्खियन्चे' तथाप्रकाराणां तेषां किं धर्म आख्यातव्यःकथनीयः ? 'हंता आइक्खियन्ये' इन्त आख्यातव्यः - श्रावयितव्य इत्यर्थः 'तं चेष उट्ठाविस जान कप्पंति' ते चैत्र मुपस्थापयितुं यावत्कल्प्यन्ते, यावत्पदेन ते खलु सर्वप्राणिषु यावर सर्वसम्वेषु दण्डो निक्षिप्तः हन्त निक्षिप्तः इत्यन्यस्य ग्रहणम्, सम्यग् धर्म श्रावणानन्तरं यदि तेषां वैराग्यं भवेत् तथा साधुर्भविष्या - गौतम स्वामी दूसरा दृष्टान्त देकर उदक पेढालपुत्र को और निग्रन्थों को समझाते हैं। भगवान् श्रीगौतमस्वामी ने कहा- मैं निर्ग्रन्थों से पूछता हूं कि हे आयुष्मन् निर्ग्रन्थों ! क्या कोई परिव्राजक या परिव्राजिका किसी दूसरे तीर्थ के स्थान में। (आश्रम या मठ आदि में) रहते हुए साधु के समीप धर्म श्रवण करने के लिए आसकते हैं ? निर्ग्रन्थ- हां आसकते हैं । गौतमस्वामी -- तथाप्रकार के उन व्यक्तियों को धर्म का उपदेश देना चाहिए ? निर्ग्रन्थ-- हां, उन्हें धर्म सुनाना चाहिए । गौतम स्वामी - धर्म श्रमण करने के पश्चात् पूर्वोक्त प्रकार से ગૌતમસ્વામી બીજુ દૃષ્ટાન્ત આપીને ઉદક પેઢાલપુત્રને અને તેના निर्थन्थाने समभवे छे. ભગવાન શ્રી ગૌતમસ્વામીએ કહ્યું કે-ડુ નિગ્રન્થાને પૂછું છુ` કે હે આયુષ્મન નિગ્રન્થા ! શુ` કૈઈ પરિવ્રાજક અથવા પરિવ્રાજીકા કાઈ બીજા તીર્થંકરના સ્થાનમાં (આશ્રમ અથવા મઢ વિગેરેમાં) રહેવાવાળા સાધુની પાસે ધ શ્રવણુ કરવા માટે આવી શકે છે ? निर्ग्रन्थ:- हा भावी शडे छे ? ગૌતમસ્વામી-તેવા પ્રકારની તે વ્યક્તિઓને ધમ ના ઉપદેશ આપવા જોઇએ? નિગ્રન્થ-હા તેઓને ધર્મનું શ્રવણુ કરાવવું જોઈએ. ગૌતમસ્વામી—ધમનું શ્રવણ કર્યાં પછી પૂર્વોક્ત પ્રકારથી યાવત્ દીક્ષા सू० १३ For Private And Personal Use Only Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकतामा मीतीच्छा भवेत-तदा कि ते दीक्षयितव्याः ? 'हता कप्पंति' इन्त कल्प्यन्ते। अर्थादीक्षादानयोग्यास्ते ग्युः । 'किं ते तहप्पगारा कप्पंति संभुंजित्तए किसी तथा पकाराः कल्प्यन्ते संभोजयितुम् ? अर्थादीक्षाधारणानन्तरं किं ते संमोज्या भवितुमईन्ति ? हेता कापति हन्त कम्प्यन्ते, साधुः साधुभिः सह साध्वी साचीभिः सह समानसामाचारिणां सह भोजनादिकं संमोगः, तमवश्यं यादिति साधनामुत्तरम् । तेणं एयारवेणं विहारेणं विहरमाणा ते चेव जाब भागारं बएज्जा' से-एतद्रपेण विहारेण विहरन्त स्तथैव यावदगारं ब्रजेयु: किम् ? ते दीक्षां पालयन्तः संयतावस्थायां विहारं कृत्वा पुनरेव गृहस्था भविष्यन्ति किम् ? 'हंता वएज्जा' हन्त बजेयु:-अशुभकर्मोदयात् गृहं गन्तुं शक्नुवन्ति । यावत् वे दीक्षा लेना चाहें तो उन्हें दीक्षा देकर धर्म में उपस्थापित करना चाहिए? निर्गन्ध--हां, करना चाहिए। गौतमस्वामी--यदि वे विरक्त होकर दीक्षा लेलें तो क्या संभोग के योग्य हैं ? . निर्ग्रन्थ--हां, वे संभोग के योग्य हैं। साधुओं का सामान समाचारी वाले साधुओं के साथ और साध्वियों को साध्वीयों के साथ भोजनादि व्यवहार करना संभोग कहा जाता है वे दीक्षित होने के पश्चात् अवश्य संभोग के योग्य हैं। गौतम स्वामी--वे इस प्रकार के विहार से विचरते हुए अर्थात् साधुपन पालते हुए यावत् पुनः गृहस्थी में जा सकते हैं ? निग्रंथ--हाँ अशुभ कर्म के उदय से गृहस्थी में पुनः जा सकते हैं લેવાની ઈરછા કરે તે તેઓને દીક્ષા આપીને ધર્મમાં સ્થાપિત કરવા જોઈએ? નિર્ચન્ધ– હા કરવા જોઈએ. ગૌતમસ્વામી–જે તેઓ વિરક્ત થઈને દીક્ષા ધારણ કરી લે તે શું તેઓ સંગ કરવાને ચગ્ય છે? નિગ્ન –હા, તેઓ સંગ કરવાને ચગ્ય છે. સાધુઓના સરખા સામાચારીવાળા સાધુઓની સાથે અને સાધ્વીજીઓને સાધ્વીઓની સાથે ભોજન વિગેરે વ્યવહાર કરે તે સંજોગ કહેવાય છે. તેઓ દીક્ષિત થયા પછી અવશ્ય સંજોગ કરવાને ચગ્ય બને છે. ગૌતમસ્વામી–તેઓ આ પ્રકારના વિહારથી વિચરતા થકા અર્થાત્ સાધુપણાનું પાલન કરતા થકા યાવત્ ફરીથી ગૃહસ્થ અવસ્થામાં જઈ શકે છે? મિથે--હા અશુભ કર્મના ઉદયથી ગૃહસ્થપણામાં જઈ શકે છે. For Private And Personal Use Only Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सार्थबोधat are fa. धु. अ. ७ गौतमस्य सदृष्टान्तो विशेषोपदेशः ७३९ 'ते णं तपगारा कप्पंदित संभुंजित्तए' ते खलु तथाप्रकाराः कल्प्यन्ते संभोज यितुम् ? परित्यक्तसाधु लिङ्गास्ते गृहस्थाः साधुभिः सह संभोक्तुं शक्नुवन्ति किम् ? 'गो इणट्ठे समट्टे' नायमर्थः समर्थः, गृहस्थभावमापन्नाः साधुभिः सह भोक्तुं लक्ष्यन्ति ? नहीत्युतरम्, अथवा गृहस्थभावमागताः साध्यः साध्वीभिः सह भोक्तुं न शक्नुवन्ति, 'से जे से जीवे परेण नो कप्पंति संभुजित्तए' ते ये ते जीवा :- ये परतो तो कल्प्यन्ते संमेोजयितुम् । ते एव जीवाः यैः सह साधूनां संमोजन दीक्षातः पूर्वे नाऽभवत्, 'से जे से जीवे आरेणं कप्पंति संभुंजितए' ते ये - ते जीवाः आरात्कल्प्यन्ते संमेोजयितुम्, दीक्षा धारणानन्तरं दीक्षितैस्सह साधूनां चिरकालपर्यन्तं संभोजनादिकं भवति । 'से जे से जीवे जे इयाणि नो कप्पंति संसुंजित्तए' ते ये ते जीवाः ये-इदानीं नो कल्प्यन्ते संभोजयितुम्, पूर्व साधुसमये संभोजनादियोग्याः ये जीवा स्ते एव - इदानों परित्यक्तसाधुभावाः परिकल्पितगृहस्थभावाः संभोजनादियोग्या न भवन्ति । 'परेण अस्समणे आरेण समणे इयाणि अस्समणे' परतोऽभ्रमणः आरात् श्रमणः इदानीमश्रमणः । गौतम स्वामी -- जब वे साधु का वेष त्याग दें और गृहस्थ हो जाएं तब साधुओं के साथ संभोग के योग्य होते हैं ? निर्ग्रन्थ-- नहीं यह अर्थ समर्थ नहीं है, अर्थात् गृहस्थ हो जाने के पश्चात वे संभोग के योग्य नहीं रहते । 1 गौतम स्वामी - ये वही जीव हैं, जो दीक्षा लेने से पहले संभोग के योग्य नहीं थे । ये वही जीव हैं जो दीक्षा लेने के पश्चात् संभोग के योग्य थे और ये वही जीव हैं जो अब दीक्षा त्याग देने के पश्चात् संभोग के योग्य नहीं रहे हैं। ये वही हैं जो पहले श्रमण नहीं थे, फिर भ्रमण हो गए थे और अब श्रमण नहीं रहे हैं। श्रमणों को ગૌતમસ્વામી—જ્યારે તેએ સાધુના વેષના ત્યાગ કરી દે અને ગૃહ સ્થ બની જાય, તે પછી સાધુઓની સાથે સભાગ કરવાને ચૈગ્ય ગણાય છે? નિમન્થા—ના, આ અથ ખરેખર નથી. અર્થાત્ ગૃહસ્થ થયા પછી તે સભાગને ચોગ્ય રહેતા નથી, ગૌતમસ્વામી—આ તેજ જીવ છે, જે દીક્ષા લીધા પહેલાં સ'ભાગને રાગ્ય ન હતા. આ એજ જીવ છે કે જે દ્રઢીક્ષા લીધા પછી સભાગને ચાગ્ય હતા. અને આ એજ જીવ છે કે જે-હવે ઢીક્ષાના ત્યાગ કર્યાં પછી સભાગને ચેગ્ય રહેલ નથી. આ એજ જીવ છે જે પહેલાં શ્રમણુ ન હતા. તે પછી શ્રમણ બન્યા અને હવે પાછા શ્રમણુ રહ્યો નથી. શ્રમણાને અશ્રમણેાની સાથે For Private And Personal Use Only Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७४० - - - संकताको संयमग्रहणात् पूर्व गृहस्था-न साधुः, दीक्षाधारणानन्तर साधुः जातः न गृहस्था, दीक्षापरित्यागानन्तरं पुनरपि गृहस्थ एव जातः न तु साधुः। 'अस्समणेणं सद्धि णो कप्पंति समगाणं निग्गंयाणं संभुंजित्तए' अश्रमणेन साधे नो कल्पन्ते श्रमणानां निर्ग्रन्यानां संभोक्तुम् । साधवो नाऽभ्यवहरन्ति-अश्रमणेन सह। तादृशा चाराऽभावात् । ‘से एव मायाणह णियंठा से एव मायाणिय' तदेवं जानीतनिर्ग्रन्याः तदेवं ज्ञातव्यम्, एवमेव प्रसादि प्रत्याख्यानस्थलेऽपि सपर्याय माश्रित्यैव प्रत्याख्यानं न तु द्रव्यमाश्रित्येति बोद्धव्यमिति गौतमोऽकथयत्साधून प्रतीति ।।सू०११-७८॥ मलम्-भगवं च णं उदाहु संतेगइया समणोवासगा भवंति, तेसिं च णं एवं वृत्तपुव्वं भवइ-णो खलु वयं संचाएमो मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पवइत्तए, वयं णं चाउद्दसटमु. हिट्पुण्णिमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्मं अणुपालेमाणा विहरिस्सामो, थूलगं पाणाइवायं पच्चक्खाइस्सामो, एवं थूलगं अश्रमणों के साथ संभोग करना नहीं कल्पता है, क्योंकि उनका आचार श्रमणों जैसा नहीं होता है। अतएव हे श्रमण नियों। आप ऐसा समझिए आपको ऐसाही समझना चाहिए। इसी प्रकार जिस श्रमणोपासक ने त्रस जीव की हिंसा का स्वाग किया है, उसके लिए ब्रस जीव हिंसा का विषय नहीं रहता। किन्तु जब वही जीव प्रत पर्याय त्याग कर स्थावर हो जाता है तो वह उसके त्याग का विषय नहीं रहता है । इस प्रकार प्रत्याख्यान पर्याय की अपेक्षा से होता है, द्रव्य की अपेक्षा से नहीं होता। ऐमा गौतम स्वामी ने उन निर्ग्रन्थों को समझाया ॥११॥ સંગ કરવાનું કલ્પતું નથી. કેમકે–તેઓને આચાર શ્રમણે જે હેતે તેથી જ હે શ્રમણ નિર્ગળે આપ એવું સમજે આપે એવું જ સમજવું જોઈએ. આજ પ્રમાણે જે શ્રમણોપાસકે ત્રસજીવની હિંસાને ત્યાગ કરેલ હોય, તેને માટે ત્રસ જીવ, હિંસાને વિષય બનતા નથી. પરંતુ જ્યારે એ જ જીવ ત્રસ પર્યાયને ત્યાગ કરીને સ્થાવર બની જાય છે. તે પછી તે તેઓના ત્યાગને વિષય રહે નથી. આ રીતે પ્રત્યાખ્યાન પર્યાયની અપેક્ષાથી થાય છે. દ્રવ્યની અપેક્ષાએ થતું નથી. આ પ્રમાણે ગૌતમસ્વામીએ તે નિન્થને સમજાવેલ છે. ૧૧ For Private And Personal Use Only Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मार्थबोधिनी टीका fr. श्रु. म. ७ गौतमस्य देशविरति धर्मादिसमर्थनम् ७४१. मुसावार्य थूलगं अदिन्नादाणं थूलगं मेहुणं थूलगं परिगहं पच्चक्खा इस्लामो, इच्छापरिमाणं करिस्सामो, दुविहं तिविहेणं, मा खलु ममहाए किंचि करेह वा करावेह वा तत्थ विपच्चक्खा इस्लामो, ते णं अभोच्चा अपिच्चा असिणाइत्ता आसंदी पेढीयाओ पच्चोरुहिता, ते तहा कालगया किं वत्तव्वयं सिया ? सम्मं कालगति वत्तवं सिया, ते पाणा वि वुच्चति ते तसा विच्चति ते महाकाया ते विरट्टिइया, ते बहुतरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ, ते अप्पयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्त अपच्चक्खायं भवइ, इति से महयाओ जपणं तुभे वयह तं चैव जाव अयं पि भेदे से जो याउए भवइ । भगवं च णं उदाहु संतेगइया समणोवालगा भवंति, तेसिं च णं एवं वृत्तपुवं भवइ, णो खलु वयं संचारमो मुंडा भविता आगाराओ जाव पवइत्तए, णो खलु वयं संवाएमो चाउदसमुद्दिट्ट पुण्णमासिणीसु जाव अणुपालेमाणा विहरित्तए, वयं णं अपच्छिममारणंतियसंलेहणा जूसणा जूसिया भत्तपाणं पडियाइ क्खिया जाव कालं अष्णवकखमाणा विहारस्सामो, सव्वं पाणाइवायं पञ्चकखाइस्सामो जाव सवं परिग्गहं पञ्चकखाइस्लामो तिविहं तिविहेणं, मा खलु ममट्टाए किंचि वि जाव आसंदी पेढियाओ पच्चोरुहित्ता एए तहा कालगया, किं वत्तवं सिया ?, सम्मं कालगय त्ति वत्तवं सिया, ते पाणा वि च्वंति जाव अयं पि भेदे से णो णेयाउए भवइ । भगवं उदाहु संतेगइया मणुस्सा भवति, तं जहा मह इच्छा महारंभा महापरिग्गहा अहम्मिया जाव दुप्पडियानंदा जाव सङ्घाओ परिग्गहाओ अप्पडिविरया जावजीवाए, जेहिं समणोवासगस्स For Private And Personal Use Only Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७४२ संकृतास्त्र आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते भवइ, ते तओ आउगं विप्पजहंति, तओ भुज्जो सग्गमादाए दुग्गइगामिणो भवंति ते पाणा वि वुच्चति ते तसा वि वुच्चंति ते महाकाया ते चिरटिइया ते बहुयरगा आयाणसो, इति से महयाओ णं जण्णं तुब्भे वदह तं चेव अयं पि भेदे से णो णेयाउए भवइ । भगवं च णं उदाहु संतगइया मणुस्सा भवंति, तं जहा-अणारंभा अपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया जाव सव्वाओ परिगहाओ पडिविरया जावज्जीवाए, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते तओ आउगं विप्पजहंति ते तओ भुज्जो सग्गमादाए सग्गइगामिणो भवंति, ते पाणा वि वुच्चंति ते तसा वि वुच्चंति जाव णो गेयाउए भवइ। भगवं च णं उदाहु संतेगइया मणुस्सा भवंति, तं जहा-अपच्छा अप्पारंभा अपपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया जाव एगच्चाओ परिग्गहाओ अप्पडिविरया, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते, भवइ ते तओ आउगं विप्पजहंति, तओ भुज्जो सग्गमादाए सग्गइगामिणो भवंति, ते पाणा वि वुच्चंति तसा वि जाव णोणेयाउए भवइ। भगवं चणं उदाहु संतेगइया मणुस्सा भवंति, तं जहा-आरणिया आवसहिया गामणियंतिया कण्हुई. रहस्सिया, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमणंताए दंडे णिक्खित्ते भवइ, णो बहुपडिविरया पाणभूयजीव सत्तेहिं, अपणा सच्चामोसाइं एवं विप्पडिवेदेति-अहं ण हंतव्यो अन्ने हंतव्वा, जाव कालमासे कालं किच्चा अन्नयराइं आसुरियाई किविसियाई जाव उववत्तारो भवंति, तओ विप्पमुच्चमाणा भुज्जो एलमुयत्ताए तमोरूवत्ताए पच्चायंति। ते पाणा वि For Private And Personal Use Only Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयाबोधिनी रीका द्वि. श्रु. म. ७ गौतमस्य देशविरति धर्मादिसमर्थनम् ७४३ बुच्चंति तसा वि वुच्चंति जाव णो णेयाउए भवइ । भगवंच णं उदाहु-संतेगइया पाणा समाउया जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए जाव दंडे णिक्खित्ते भवइ, ते पुव्वामेव कालं करेंति करिता पारलोइयत्ताए पच्चायंति, ते पाणा वि वुरचंति, ते तसा वि वुच्चंति ते महाकाया ते चिरट्रिइया ते दीहाउया ते बहुयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स सुपच्च... क्खायं भवइ जाव णो णेयाउए भवइ। भगवं च णं उदाहु सते. गड्या पाणा समाउया जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए जाव दंडे णिक्खित्ते भवइ ते सयमेव कालं करोति, करित्ता पारलोइयत्ताए पच्चायति, ते पाणा वि वुच्चंति ते तसा वि वुच्चति ते महाकाया ते समाउया ते बहुयरगा जेहिं समणोवासगस्स सुप्पच्चक्खायं भवइ जाव णो णेयाउए भवइ । भगवं च णं उदाहु संतगइया पाणा अप्पाउया, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए जाव दंडे णिक्खित्ते भवइ, ते पुवामेव कालं करेंति, करित्ता पारलोइयत्ताए पच्चायंति, ते पाणा वि बुच्चंति ते तसा वि बुच्चति ते महाकाया ते अप्पाउया ते बहुयरगा पाणा, जेहिं समणोवासगस्त सुपच्चक्खायं भवइ, जाव णो गेयाउए भवइ। भगवं च णं उदाहु संतेगइया समणोवासगा भवंति, तेसिं च णं एवं वृत्तपुव्वं भवइ-णो खलु वयं संचाएमो मुंडा भवित्ता जाव पवइत्तए, णो खल्लु वयं संचाएमो चाउद्दसडमुदिट्टपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं अणुपालित्तए, णो खलु वयं संचाएमो अपच्छिमं जाव विहरित्तए, वयं च णं सामाइयं देसावगासियं पुरत्था पाईणं वा पडिणं वा दाहिणं वा उदीणं वा एतावताजाव सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहि For Private And Personal Use Only Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir we दंडे णिक्खित्ते सबपाणभूयजीवसत्तेहिं खेमंकरे, अहमंसि, तत्थ आरेणं जे तसा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते तओ आउयं विप्पजहंति, विप्पजहिता तस्थ आरेणं चैव जे तसा पाणा जेहिं समणोवासस्स आयाणसो जावते सुपच्चायति जेहिंसमणोवासगस्त सुपरचखायं भवहाते पाणा वि जाव अयं पि भेदे से णो णेयाउए भवइ ॥सू०१२॥७९॥ . छाया-भगवांश्च खलु उदाह-सन्त्येकतये श्रमणोपासका भवन्ति, तैश्च. खल्वेवमुक्तपूर्व भवति-नो खलु वयं शक्नुमो मुण्डा भूत्वाऽगारादनगारित्वं पत्र जितुम्। वयं खलु चतुर्दश्यष्टम्युद्दिष्टपूर्णिमासु प्रतिपूर्ण पौषधं सम्यग् अनु गलपन्तो विहरिष्यामः । स्थूलं प्राणातिपातं प्रत्याख्यास्यामः, एवं स्थूलं मृपावादं स्थूल मदत्तादानं स्थूलं मैथुनं स्थूलं परिग्रहं प्रत्याख्यास्यामः । इच्छापरिमाणं करिष्यामो विविधं त्रिविधेन मा खलु मदर्थ किश्चित्कुरुन वा कारयत वा तत्राऽपि प्रत्याख्यास्यामः। ते खलु अभुक्त्वा अपीत्वा अस्नात्वा आसन्दी पीठिकातः पर्यारुह्य ते तथा कालगताः, किं वक्तव्यं स्यात् ? सम्यकालगता इति वक्तव्यं स्यात् । ते प्राणाअप्युच्यन्ते ते त्रसा अपि उच्यन्ते ते महाकायास्ते चिरस्थितिकाः, ते बहुतरकाः प्राणाः येषु श्रमणोपासकस्य सुप्रत्याख्यानं भवति, ते अल्पतरकाः प्राणाः येषु श्रमणोपासकस्य अप्रत्याख्यातं भवति । इति स महतः यथा यूयं वदथ तथैव यावद् अयमपि भेदः स नो नैयायिको भवति । भगवांश्च खलु उदाह-सन्त्येके श्रमणोपासका भवन्ति, तैश्च-खलु एवमुक्तपूर्व भवति-न खलु वयं शक्नुमो मुण्डाः भूश्वा अगाराद् यावत्मवजितुम् । न खलु वयं शक्नुमश्चतृ ईष्टम्युदिष्टपूर्णिमासु यावदनुपालयन्तो विहर्तुम् । वयं खलु अपश्चिममरणान्तिक संलेखना जोपणाजुष्टाः भक्तपानं प्रत्याख्याय यावत्काळमनवकाङ्क्षमाणाः विहरिष्यामः सर्व पाणातिपातं प्रत्याख्यास्यामः यावत्सर्व परिग्रह प्रत्याख्यास्यामः त्रिविधं त्रिविधेन मा खलु किश्चिन्मदर्थ यावद् आसन्दीपीठिकातः प्रत्यारुह्य एते तथा कालगताः किं वक्तव्यं स्यात् ? सम्यक कालगता इति वक्तव्यं स्यात्, ते प्राणः अप्युच्यन्ते यावदयमपि भेदः स नो नैयायिको भवति । भगवांश्च खलु उदाह-सन्त्येकतये मनुष्या भवन्ति तधथा महेच्छाः महारम्शः महापरिग्रहाः अधार्मिकाः यावद् दुष्प्रत्यानन्दा याव. सर्वभ्यः परियहेभ्योऽपतिविरताः यावज्जीवम् येषु श्रमणोपासकस्य आदानशः आमरणान्तं दण्डो निक्षिप्तो भवति । ते ततः आयुः विप्रजहदि ततो भूयः स्वकमादाय दुर्गतिगामिनो भवन्ति । ते पाणा अप्युच्यन्ते ते सा अप्युच्यन्ते ते For Private And Personal Use Only Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका दि. श्रु. म. ७ गौतमस्य देशविरति धर्मादिसमर्थनम् ७४५ . महाकायास्ते चिरस्थितिकास्ते बहुतरकाः आदानशः इति, तस्य महतो येषु यूर्य वदथ तच्चैव अयमपि भेदः स नो नैयायिको भवति । भगवांश्च खलु उदाहसन्त्येकतये मनुष्या भवन्ति तपथा अनारम्मा: अपरिग्रहाः धार्मिकाः धर्मानुगाः पारत् सर्वेभ्य परिपहेभ्यः पतिविरता यावज्जीवनं येषु श्रमणोपासकस्य आदानशः भामरणान्तं दण्डो निलिमा, ते सता आयुर्विप्रजहति ते ततो भूयः स्वकमादाय सतिगामिनो भवन्ति ते पाणा अप्युस्यन्ते ते असा अप्युच्यन्ते यावलो नैया. विको भवति । भगवाच खलु उदाह-सन्त्येकतये मनुष्या भवन्ति तद्यथा-अरूपे. छाः अल्पारम्भाः अल्पपरिग्रहाः धार्मिकाः धर्मानुगाः यावदेकतः परिग्रहाद् अप्रतिविरता येषु श्रमणोपासकस्य आदानशः आमरणान्तं दण्डो नितिमः ते ततः आयुर्विप्रजाति ततो भूयः समादाय स्वर्गगतिगामिनो भवन्ति । ते माणा अप्युच्यन्ते प्रसा अपि यावत्रो नैयायिको भवति । भगवांश्च खल उदाह-सन्त्येकतये मनुष्या भवन्ति तद्यथा-आरण्यकाः आवसथिकाः ग्रामनियन्त्रिकाः क्वचिः प्राइसिकाः येषु श्रमणोपासकस्य आदानशः आमरगान्ताय दण्डो निक्षिप्तो भवति नो बहुसंयता नो बहुप्रतिविरताः, पाणभूतजीवसत्त्वेभ्यः आत्मना सत्यानि मृषा एवं विप्रतिवेदयन्ति अहं न हन्तव्योऽन्ये हन्तव्याः यावत् कालमासे कालं कृत्वा अन्यतरेषु आसुरिकेषु किल्विषिकेषु यावद् उपपत्तारो भवन्ति । ततो विषमुच्य. मानाः भूयः एलमूकत्वाय तमोरूपत्वाय प्रत्यायान्ति । ते पाणा अप्युच्यन्ते असा अप्युच्यन्ते यावनो नैयायिको भवति । भगवांश्च खलु उदाह-सन्त्येकतये प्राणिनो दीर्घायुषः येषु श्रमणोपासकस्य आदानशः आमणान्ताय यावद् दण्डो निक्षिप्तो भवति । ते पूर्वमेव कालं कुर्वन्ति, कृत्वा पारलौकिकत्वाय प्रत्यायान्ति । ते पाणा अप्युच्यन्ते ते प्रसा अप्युच्यन्ते ते महाकायास्ते चिरस्थितिका स्ते दीर्घा युषः ते बहुतरकाः पाणाः, येषु श्रमणोपासकस्य सुपत्याख्यातं भवति । यावत्रो नैयायिको भवति । भगवांश्च खलु उदाह-सन्त्येकतये प्राणाः समायुषः येषु श्रमणोपासकस्य आदानशः आमरणान्ताय यावद् दण्डो निक्षिप्तो भवति । ते स्वयमेव कालं कुर्वन्ति कृत्वा पारलौकिकस्वाय प्रत्यायान्ति ते प्राणा अप्युच्यन्ते ते सा अप्युच्यन्ते ते महाकायास्ते समायुषः ते बहुतरकाः येषु श्रमणोपासकस्य सुपत्याख्यातं भवति यावन्नो नैयायिको भवति। भगवांश्च खलु उदाह सन्तेकतये माणा अल्पायुषो येषु श्रमणोपासकस्य आदानशः आमरणान्ताय यावद् दण्डो निक्षिप्तो भवति ते पूर्वमेव कालं कुर्वन्ति कृत्वा पारलौकिकत्वाय प्रत्यायान्ति ते प्राणा अप्युच्यन्ते ते त्रसा अप्युच्यन्ते ते महाकायास्ते अल्पायुषः ते बहुतरकाः प्राणाः येषु श्रमणोपासकस्य सुमत्याख्यातं भवति । यावन्नो नैयायिको भवति । भगवांश्च खलु उदाह-सन्त्येस्तये श्रमणोपासका भवन्ति तैश्च खलु एवमुक्तपूर्व ९० ९४ For Private And Personal Use Only Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - ७४६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे 3 भवति नो खलु वयं शक्नुमो मुण्डा भूत्वा यावत् प्रब्रजितुं नो खलु वयं शक्नुम चतुर्द्दश्वष्टयुश्रष्टा पूर्णिमासु परिपूर्ण पौषधमनुपालयितुम्, नो खलु वयं शक्नुमो पश्चिमं यावद् विहर्तुम् वयश्च सामायिकं देशात्रका शिकं प्रातरेव वा प्रतीन यां वा दक्षिणस्यां वा उदीच्यां वा एतावत् सर्वप्राणेषु यावत्सर्वसम्वेषु दण्डो " निश्चिप्तः सर्वभूतजीवानां क्षेमङ्करोऽहमस्मि । तत्र आराद्ये प्रसा प्राणाः येषु श्रमणोपासकस्य आदानशः आमरणान्ताय दण्डो निक्षिप्तः, स आयुर्विमजदति, विमाय तत्र आरादेव ये त्रसाः प्राणाः येषु श्रमणोपासकस्य बादानशः यावत्तेषु प्रत्यायान्ति येषु श्रमगोपासकस्य सुमत्याख्यातं भवति ते: प्राणा अपि यावद् अयमपि भेदः स नो नैयायिको भवति ।। ५०१२-७९ ॥ -- टीका पुनरपि गौतमस्वामी प्रकारान्तरेणोदकादिपश्नस्योत्तरं ददाति हे उदक । नायं संसारः कदाचिदपि सैरिक्तो भवति, यतोऽनेकप्रकारेण संसारे जपजीवानाम् उत्पत्तिर्भवति तदहं संक्षिप्य तुभ्यं प्रतिपादयामि सावध / नमनाः शृणु । 'भगवं च णं उदाहु भगवां खजु - गौतमथ पुनः - 'णं खलु' - 'णं' इति वाक्यालङ्कारे - प्रायः सर्वत्र, उदाह- उदाहरति पुनः - 'संतेगइया समणोवासगा भवति' सन्त्येकतये - कतिपये श्रमणोपासका भवन्ति । बहवो हि शान्ताः श्रावका भुवि भवन्ति । तेचि णं एवं पुण्यं भव' से क्षेत्रमुक्तपूर्व भवति इत्थे कथयन्ति साधोरन्तिकमुपेत्य । 'णो खलु वयं संचारमो मुंडा भरित्ता अगाराओ अगगारियं पनइतर' नो खलु वयं शक्नुमो मुण्ड । भूत्वाऽगारादनगारित्वं प्रव उदाह' इत्यादि । " 'भगवं च टीकार्थ गौतम स्वामी फिर प्रकारान्तर से उदक पेढालपुत्र आदि के प्रश्न का उत्तर देते हैं - हे उदक! यह संसार कभी भी असजीवों से रहित नहीं होता। अनेक प्रकार के संसार में त्रस जीव उत्पन्नं होते रहते हैं । यह बात संक्षेप से मैं आपके समक्ष प्रतिपादन करताहूं | आप ध्यान पूर्वक सुनिए- ' Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भगवान् गौतम बोले- बहुत से श्रमणोपासक ऐसे होते हैं जो साधु के समीप आकर कहते हैं- 'हम मुण्डित होकर एवं गृह त्यागकर 'भगव' चर्ण उदाहु' इत्याहि ટીકા - શ્રી ગૌતમસ્વામી ફરીથી પ્રકારાન્તરથી ઉદક પેઢાલપુત્ર વિગેરેના પ્રશ્નના ઉત્તર આપે છે —હૈ ઉદક ! આ સંસાર કયારેય પણ ત્રસ જીવા વિનાને થતા નથી. અનેક પ્રકારથી સંસારમાં ત્રસ જીવા ઉત્પન્ન થતા રહે છે. આ વાત સંક્ષેપથી હું આપની પાસે પ્રતિપાદન કરૂં તે આપ ધ્યાન અને સાંભળે. ભગવાન્ શ્રી ગૌતમ સ્વામી કહે છે-આ લેાકમાં ઘણા શ્રમણેાપાસક એવા હોય છે કે જે સાધુની પાંસે આવીને કહે છે-અને મુ ંડિત થને અને For Private And Personal Use Only Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थचोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ७ गौतमस्य देशविरति धर्मादिसमर्थनम् ७४७ जितुम्, प्रव्रज्यां ग्रहोतुं वयं न शक्नुम इति । 'वयं च णं चाउदनसुदिट्ट पुगिमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्म अणुपालेमाणा विहरिस्तामो' वयं चतुर्दश्यष्ट म्युदिष्टपूर्णिमासु तियिषु प्रतिपूर्ण समग्रविधिपूर्वक पौषधं-जन्नामकं व्रतं सम्यक्. पालयन्तो विहरिष्यामः, संसारयात्रा मनुक्यामः । 'शूलगं पाणाइवायं पञ्च क्खाइस्सामो' स्थूलं माणातिपातं प्रत्याख्यास्यामः । 'एवं थूलगं मुमावायं अदि. भादाणं थूलगं मेहुणं धूलग परिग्गरं पञ्चक्वाइस्तामो' एवं स्थूलं मृपावाद, स्थूलम्अदत्तादानम्, स्थुलं मैथुनम्, स्थूलं परिग्रहं प्रत्याख्यास्यामः । 'इच्छापरिमाणं करिस्सामो' इच्छापरिमाणं करिष्यामः-अर्थात् सीमितं करिष्यामः, 'दुविहं तिविहेणं' द्विविधं त्रिविन-द्विकरणाभ्यां त्रियोगैश्च प्रत्याख्यानं करिष्यामः, 'मा खलु मदवार किंचि करेह वा करावेह वा' पौषधावस्थायाम् अस्मदर्थ मा किञ्चिन् कुरुत वा कारयत वा। 'तत्य वि एचक्खाइस्सामो' तत्रापि प्रत्याख्यास्यामः 'ते णं अमो च्चा अपिच्चा असिणाइत्ता आसंदीपेढियाओ पच्चोरुहिता' तेऽभुक्त्वाऽपीत्वाऽस्ना: स्वा आसन्दीपोठिकातः पर्यारुह्य-अवतीर्य सम्यक् पौषधं कृत्वा 'तहा कालगया अनगार वृत्ति को अंगीकार करने में समर्थ नहीं हैं। हम चतुर्दशी अष्टमी, अमावास्था और पूर्णिमा के दिन प्रतिपूर्णपोषध नामक श्रावक के व्रत को पालन करते हुए विचरेंगे। हम स्थूल प्राणातिपात का प्रत्या ख्यान करेंगे, स्थूल मृषावाद, स्थूल अदत्तादान, स्थूल मैथुन और स्थूल परिग्रह का प्रत्याख्यान करेंगे, हम इच्छा का परिमाण करेंगे-दो करण तीन योग से प्रत्याख्यान करेंगे, हमारे लिए कुछ भी मत करो और कुछ भी मत कराओ, ऐसा प्रत्याख्यान भी करेंगे। वेश्रमणोपासक विना खाये, विना पिये, विना स्नान किये, आसन से नीचे उतर कर, सम्यक प्रकार से पौषध का पालन कर के यदि मृत्यु को વૈભથી ભરેલા ઘરને ત્યાગ કરીને અનગારવૃત્તિને સ્વીકાર કરવાને સમર્થ નથી. અમે ચૌદસ આઠમ, અમાસ, અને પુનમને દિવસે પ્રતિપૂર્ણ પૌષધ નામના શ્રાવકના અગીયારમા વ્રતનું પાલન કરતા થકા વિચરીશું. અમે સ્કૂલ પ્રાણાતિપાતનું પ્રત્યાખ્યાન કરીશું. સ્થૂલ મૃષાવાદ, સ્થૂલ અદત્તાદાન, સ્થૂલ મૈથુન, અને સ્થૂલ પરિગ્રહનું પ્રત્યાખ્યાન કરીશું અમે ઈચ્છાનું પરિમાણ કરીશું. બે કરણ અને ત્રણ ભેગથી પ્રત્યાખ્યાન કરીશું. અમારા માટે કંઈ પણ ન કરે. અને ४५ ४२सव से प्रत्याभ्यान ५ शशु. અમપાસક સુશ્રાવક ખાધા વિન, પાણી પીધા વિના, નાડ્યા વિના, આસનની નીચે ઉતરીને સમ્યફ પ્રકારથી પૌષધનું પાલન કરીને જે મૃત્યુને પ્રાપ્ત થાય, તે For Private And Personal Use Only Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Ge सूत्रकृता किं वत्तव्यं सिया' तथा - कालगता । किं वक्तव्यं स्यात् - एतादृश व्रतनियमाधारकः श्रावको मृत्युं यदि प्राप्नुयात् तदा तद्विषये किं वक्तव्यं भवेत् । 'सम्मं कालगतेत्ति वत्तत्रं सिया' सम्यक् कालगता इति वक्तव्यं स्यात् । देवलोके गतास्ते 'ते पाणा विति ते तसाविच्चति ते महाकाया ते चिरडिया' ते प्राणा अप्युच्यन्ते प्राणधारणात् ते त्रसा अप्युच्यन्ते संचरणात्-ते महाकाया :- लक्षसहस्र योजनप्रमाण देहविकुर्वणात् ते चिरस्थितिका अपि कथ्यन्ते - द्वाविंशतिसागरोपमस्थितिकत्वात्, 'ते बहुतरगा पाणा जेर्सि समणोवासगस्त सुपच्चकखायं भवई' ते प्राणिनो बहुतरका अनेके सन्ति तेषु श्रमणोपासकस्य प्रत्याख्यानं सुप्रत्यायावं भवति, 'ते अप्पयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अपच्चवखायं भवइ' ते प्राणा अल्पतराः सन्ति येषु श्रमणोपासकस्य श्रावकस्य अप्रत्याख्यातं भवति, 'इति - से महयाओ जण्णं तुब्भे वयह तं चेत्र जाव अयंपि भेदे से णो पाउए भव' इति स महतः यथा यूयं वदथ तथैव यावद् अयमपि भेदो नो नैयायिको प्राप्त हो जाएं तो उनके विषय में क्या कहना चाहिये ? उनके विषय में यही कहना चाहिए कि उन्होंने सम्यक् प्रकार से काल किया है, वे देवलोक को प्राप्त हुए हैं। वे प्राणों को धारण करने के कारण प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस नाम कर्म का उदय होने से वे त्रस भी कहलाते है एक लाख योजन के शरीर की विक्रिया कर सकने के कारण वे महाकाय भी कहलाते हैं और बावीस सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति होने से चिरस्थितिक भी कहलाते हैं। ऐसे प्राणी बहुत हैं जिनके विषय में श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान कहलाता है। वे प्राणी थोडे हैं जिनके विषय में श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान नहीं होता है । इस प्रकार वह महान् सकाय તેના સમધમાં શું કહેવાનુ હાય ? તેના વિષયમાં એમજ કહેવુ જોઇએ કે તેઓએ સમ્યક્ પ્રકારથી સમાધિપૂર્વક કાળ કરેલ છે, તેઓએ દેવલાક પ્રાપ્ત કર્યો છે. તેઓ પ્રાણુાને ધારણ કરવાના કારણે પ્રાણી પશુ કહેવાય છે. ત્રસ નામકર્મોના ઉદય હાવાથી, તેઓ ત્રસ પણ કહેવાય છે. એક લાખ ચેાજન જેટલા વિશાળ શરીરની વિક્રિયા કરી શકવાથી તેઓ મહાકાય પશુ કહેવાય છે. અને બાવીસ સાગરોપમની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ હાવાથી ચિરસ્થિતિક પણ કહેવાય છે. એવા ઘણા પ્રાણિયા છે કે જેઓના વિષયમાં શ્રમણેાપાસકનું પ્રત્યાખ્યાન સુપ્રત્યાખ્યાન કહેવાય છે. જેએના સબંધમાં શ્રમણેાપાસકનુ' પ્રત્યામ્યાન થતુ નથી તેવા પ્રાણિયા થાડા છે. આ રીતે મહાન્ ત્રસકાયની હિં’સાથી For Private And Personal Use Only Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir D समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ७ गौतमस्य देशविरति धर्मादिसमर्थनम् ७४९ भवति, अतः स श्रावको महतः त्रसकायाचित्तः तथापि तादृशस्य तस्य प्रत्याख्यानं निर्विषयमिति भवन्तः कथयन्ति-तन्न्यायसिद्धं विद्धि । 'भगवं च णं उदाहु' भगवांश्च खलु गौतम उदाह-संतेगइया समणोवासगा भवंति' सन्त्येकके श्रमणोपास का भवन्ति । 'सेसि च णं एवं वुत्तपुव्वं भवई' तेश्चैव मुक्तपूर्व भवति, 'णो खलु वयं संचाएमो मुंडा भवित्ता आगाराओ जाव पन्चइत्तए' भुवि भवन्ति अनेके श्रावकारतेषु केचन साधुसमीपमागत्य कथयन्ति-न खलु वयं शक्नुमो मुण्डा:साधवो भूत्वा अगाराद् यावत् पत्र जितुम् । 'यो खलु वयं संचाएमो चाउद्दसटमुद्दिष्ट पुण्णमासिणीसु जाव अणुपालेमाणा विहरित्तए' नो खलु वयं शक्नुमो चतुर्दश्यष्ट. म्युद्दिष्ट पूर्णिमासु तत्र उद्दिष्टा-अमावास्या, आराध्य तिथिषु पौषधं सम्पूर्णरूपेण यावत् पालयन्तो विहरिष्यामः, यावत्पदेन-परिपूर्ण पोषधं सम्यग् इत्यन्तस्य ग्रहणं न वयं समर्था एतादृशं व्रतं कर्तुं किन्तु 'वयं च णं अपच्छिममारणंतियं संलेहणाजूमणाजूसिया भत्तपाणं पडियाइक्खिया' वयमपश्चिममारणान्तिकं संलेखणा जोषणाजुष्टाः भक्तपानं प्रत्याख्याय 'जाव सव्वं परिग्गहं पच्चक्खाइस्सामो यात्रसर्व परिग्रहं प्रत्याख्यास्यामः 'तिविहं तिविहेणं' त्रिविधं त्रिविधेन-मरणसमये कारणत्रयेण योगैश्च समस्तपागातिपातं सर्व परिग्रहं च परित्यक्ष्यामः । 'मा खल की हिंसा से निवृत्त है। ऐसी स्थिति में आप श्रमणोपासक के प्रत्याख्यान को निर्विषय कहते हैं। आपका यह कथन न्याय संगत नहीं है। भगवान् गौतमने पुनः कहा-कोई-कोई श्रमणोपासक होते हैं जो इस प्रकार कहते हैं-हम मुंडित होकर, गृहत्याग करके साधु होने में समर्थ नहीं है। हम चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा तिथियां में प्रतिपूर्ण पोषध व्रत का पालन करने में भी समर्थ नहीं हैं। हम तो अन्त समय में मरण का अवसर आने पर संलेखना का सेवन करके, आहार-पानी का त्याग करके यावत् जीवन की इच्छा न करते हुए, मृत्यु से भय नहीं करते हुए विचरेंगे। उसी समय हम तीन करण और નિવૃત્ત છે. આવી સ્થિતિમાં આપ શ્રમણે પાસકના પ્રત્યાખ્યાનને નિર્વિષય કહા છે, તે આપનું આ કથન ન્યાયયુક્ત નથી. ભગવાન શ્રી ગૌતમસ્વામીએ ફરીથી કહ્યું કે-કે કોઈ શ્રમણોપાસકે આ પ્રમાણે કહે છે. –અમે મુંડિત થઈને ઘરને ત્યાગ કરીને સાધુ થવાને સમર્થ નથી. અમે ચૌદશ, આઠમ, અમાસ, અને પુનમની તિથિમાં પ્રતિપૂર્ણ પૌષધનું પાલન કરવામાં પણ સમર્થ નથી. અમે તે અંત સમયે મરણને અવસર પ્રાપ્ત થાય ત્યારે સંખનાનું સેવન કરીને આહાર પાણીને ત્યાગ કરીને જીવવાની ઈચ્છા ન કરતા થકા મૃત્યુથી ભય ન પામતાં વિચારીશુ, આ For Private And Personal Use Only Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतास्त्र मढहाए किंचि वि जाव' मा किश्चन मदर्थ यावत् पचनपाचनादिकमारम्भसमारम्मम् अस्मदर्थ मा किश्चित् कुरु-मा कारय एवं रूपेण सर्वाने प्रत्याख्यास्यामः । 'आसंदीपेढियायो पच्चोरुहिता ते तहा कालगया' आसन्दीपीठिकात: प्रत्यदरुह्य एते कालगताः-मरणमनुप्राप्ताः "कि वत्तमं सिया' किं वक्तव्यं स्यात्-एतद्विषये कि वक्तव्यं तदानीम्, निन्या उत्तरयन्ति-'सम्म कालगति' सम्यकालगता इति । 'वत्तव्यं सिया वक्तव्यं स्यात्-सम्यक्तदीयं मरणमिति । 'ते पाणावि वुच्चंति जाव अयं पि भेदे से णो णेयाउए भवई' ते प्राणा अप्युच्यः न्ते यावंदयमपि भेदो नो स नैयायिको भवति ते प्राणा अपि कथ्यन्ते-सा अपि, महाकाया अपि, चिरस्थितिका अप्युच्यन्ते, तथा-सानां हिंसायाः श्रावकेण प्रत्याख्यानं कृतम् अतः श्रावकस्य व्रतं निर्विषयमिति कथनं न न्यायसिद्धम् इति 'भगवं च णं उदाहु' भगवांश्च खलु पुन रुदाह संतेगड्या मणुस्सा भवंति' सन्त्येकतये भुवि मनुष्या भवन्ति, 'तं जहा' तयथा 'महइच्छा' महेच्छा!-महती तीन योग से सम्पूर्ण प्राणातिपात और सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग करेंगे। हमारे लिए न कुछ करो और न कराओ, ऐसा भी प्रत्याख्यान करेंगे। इस प्रकार कहकर वे श्रावकपणा पालता हुआ अन्त समय में संधारा करके मृत्यु को प्राप्त होते हैं तो उनके विषय में क्या कहना चाहिए ? निर्ग्रन्थोंने उत्तर दिया उन्होंने सम्यक् प्रकार से काल किया, ऐसा कहना चाहिए। वे प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस भी कहलाते हैं, महाकाय और चिरस्थितिक भी कहलाते हैं । इनकी हिंसा से श्रमणोपासक निवृत्त है अतएव श्रमणोपासक के व्रत को निर्विषयक कहना न्याय संगत नहीं है। भगवान् गौतम पुनः बोले-इस संसार में ऐसे भी मनुष्य होते है जो राज्य वैभव परिवार आदि का अत्यधिक इच्छा वाले होते हैं। વખતે અમે ત્રણ કરણ અને ત્રણ વેગથી સંપૂર્ણ પ્રાણાતિપાત અને સંપૂર્ણ પરિગ્રહને ત્યાગ કરીશું. અમારે માટે કંઈ કરવું નહીં અને કંઈ કરાવવું નહીં. એવું પણ પ્રત્યાખ્યાન કરીશું આ પ્રમાણે કહીને તેઓ શ્રાવકપણાનું પાલન કરતા થકા અંતસમયે સંથારે કરીને મૃત્યુને પ્રાપ્ત કરે છે તે તેમના સંબંધમાં શું કહેવાનું છે ? છે. નિર્ચાએ ઉત્તર આપતાં કહ્યું કે–તમેએ સારી રીતે કાળ કર્યું તેમ કહેવું જોઈએ. તેઓ પ્રાણી પણ કહેવાય છે. ત્રસ પણ કહેવાય છે. મહાકાય અને ચિરસ્થિતિક પણ કહેવાય છે. તેમની હિંસાથી શ્રમણોપાસક નિવૃત્ત રહે છે. તેથી જ શ્રમ પાસકના વતને નિર્વિષયક કહેવું તે ન્યાય સંગત નથી. ભગવાન ગૌતમસ્વામીએ ફરીથી કહ્યું-આ સંસારમાં એવા પણ મનુષ્ય હોય છે કે જેઓ રાજ્યવૈભવ પરિવાર વિગેરેની અત્યંત અવિક ઈચ્છાવાળા For Private And Personal Use Only Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयाबोधिनो रीका लि. श्रु. अ. ७ गौतमस्य देशविरति धर्मादिसमर्थनम् ७५१९. -राज्यविभवपरिवारादिका सर्वातिशायिनी इच्छा-अन्तः कमणवृत्ति र्येषां ते तथा विशाळलालसा, 'महारंभा' महान् आरम्भा पञ्चेन्द्रियान्तोषमर्दनलक्षणो येषां ते तथा, 'महापरिगहा' महापरिग्रहा:-परिमाणातिरेकेण धनधान्यद्विपदचतुष्पदः वास्तु क्षेत्रादिरूपाः येषां ते तथा 'अहम्मिया' अधार्मिका:-धर्म श्रुतचारिजलक्षणं चरन्तीति धार्मिकाः, न धार्मिका अधार्मिकाः 'जाव दुडियाणंदा' यावद् दुष्पत्या. नदार-दुःखेन पत्यानन्दते ये ते तया, अतिकष्टेन प्रसायोग्या, यावत्पदेन अधर्मानुगा:-अधर्म सेविनः अधर्मिष्ठाः अधर्माख्यायिनः अधर्मरागिणः, अधर्मः लगेकिनः अधर्मजीविनः अधमरजनाः अधर्मशीलसमुदाचाराः अधर्मे चैव जीविका कल्पयन्तः इत्यन्नपाना ग्रहणम्, तदेतेषामर्था:-धर्म श्रुतचारित्रणक्षणम् अनु. गच्छन्ति ये ते धर्मानुगा स्तद्विपरीता:-अधर्मानुगाः, अधर्म सेविन:-कलवादि निमित्तानीकायोपमर्दकाः, अधर्मिष्ठा:-अतिशयितो धर्मों येषां ते धर्मिष्ठा स्तद्विपरीताः अधर्ममाख्यातुं शीलं येषां ते अधर्माख्यायिनः, अधर्मरागिगः-न धर्मोऽधर्मः तत्र राग:-रक्तुं शीलं येषां ते तथा, अधर्मप्रलोकिन:-न धर्मोऽधर्मः पंचेन्द्रिय के वध आदि का महान आरंभ करते हैं, महापरिग्रहवाले अर्थात् अपरिमित धन, धान्य, विपद, चतुष्पद, मकान, खेत आदि परिग्रहवाले होते हैं, अधार्मिक अर्थात् श्रुतचारित्र धर्म से वर्जिन होते हैं, यावत् बहुत कठिनाई से प्रसन्न होनेवाले होते हैं। यहां 'यावत्' शब्द से ये विशेषण और समझ लेने चाहिए, अधर्मानुग श्रुतचारित्र धर्म का अनुसरण न करनेवाले, अधर्मसेवी पत्नी आदि के निमित्त षटू जीवनिकाय की हिंसा करनेवाले अधर्मिष्ठ अत्यन्त अधर्मी, अधर्म की बात कहने वाले और अधर्म को ही देखनेवाले, अधर्मजीवी-पाप से जीवन यापन करने वाले, अधर्मरंजन-पाप करके ही प्रसन्न होनेवाले, अधर्मशील समुहानार-पापमय आचरण करनेवाले तथा पाप से ही હોય છે. પંચેન્દ્રિયના વધુ વિગેરેને મહાન આરંભ કરે છે. મહાપરિગ્રહવાળા, અપરિમિત ધન, ધાન્ય, દ્વિપદ મકાનો, ખેતરે વિગેરે પરિગ્રહવાળા હોય છે. અધાર્મિક અર્થાત્ મૃતચારિત્ર ધર્મથી રહિત હોય છે. યાવત્ ઘણીજ કઠણાઈથી પ્રસન્ન થવાવાળા હોય છે. અહીંયાં યાવત્ શબ્દથી આ પ્રમાણેના બીજા વિશેપણે પણ સમજી લેવા. અધર્માનુગ-યુતચારિત્ર ધર્મનું અનુસરણ ન કરવાવાળા અધર્મસેવી–સ્ત્રી વિગેરે માટે ષજીવનિકાયની હિંસા કરવાવાળા, અધમિઠ–અત્યંત અધમી અધર્મની વાત કહેવાવાળા, અને અધર્મને જ દેખવાવાળા, અધર્મજીવી–પાપથી જીવન યાપન કરવાવાળા, અધર્મરંજન પાપ કરીને જ પ્રસન્ન થવાવાળા, અધર્મ શીલ સમુદાચાર–પાપમય આચરણ કરીને For Private And Personal Use Only Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७५२ सूत्रकृतामसने -पापम् तं प्रकर्षेण लोकितुं-द्रष्टुं शीलं येषां ते तथा, अधर्मजीविन:-अधर्मेण पापेन जीवितुं शीलं येषां ते तथा, अधरञ्जनाः अधर्मः पापं तत्र प्रकर्षण रंज्यन्ते ये ते तया, अधर्मसमुदाचारा:-अधर्मशीला-सावद्यकार्यशील समुदाचारः यत् किशनअनुष्ठानं येषां ते तथा, अधर्मेण-केवलमधर्मेणेव वृत्ति-जीविका करा. पन्ना-कुर्वन्तो विहरतीति। ... 'जाव सम्बो परिग्गहाओ अप्पडिविरिया जावज्जीवाए' यावत्सर्वस्मात् परिग्रहाद् अपतिविरताः यावजीवनम् अत्र यावत्पदेन-माणातिपातमृपावाद दचादानमैथुनानां पहणं भवति, सर्वस्मात् प्राणातिपातात् सर्वस्माद् मृषावादाद सर्वस्माद् अदत्तादानात् सर्वस्माद् मैथुनाद् अप्रतिविरता अनिवृता इत्यर्थः 'जेहि समणोवासगस्स आयाणसो आमरणताए दंडे णिक्खित्ते' येषु श्रमणो. पासकस्य आदानशः व्रतग्रहणकालादारभ्य आमरणान्तं मरणपर्यन्तं-दण्डो निक्षिप्तः-स्यतो भाति । केनाऽपि सामान्यश्रावकेण महारम्मादिषु प्रत्या ख्यानं कृतम् । ते ततः 'आउगं विपनहंति' ते तथाभूताः पुरुषाः मरगसमये आयुर्विपजहन्ति-परित्यजन्ति । 'ततो भुज्जो सगमादाय' ततो भूयः स्वक मादाय स्वकं स्त्रीय कर्मादाय 'दुग्गइगामिणो भवंति' दुर्गतिगामिनो भवन्ति । तेऽधार्मिकाः, 'ते पाणा वि वुच्चंति' ते प्राणा अप्युच्यन्ते पाणधारणात् 'ते आजीविका करनेवाले। यावत् समस्त परिग्रह से जीवनपर्यन्त निवृत्त न होनेवाले, यहां यावत् शब्द से प्राणातिपात, मृषावाद, प्रदत्तादान, और मैथुन का ग्रहण करना चाहिए अर्थात् समस्त हिंसा झूठ, चोरी और मैथुन से जीवनपर्यन्त निवृत्त न होनेवाले होते हैं। श्रमणोपासक ऐसे प्राणियों की हिंसा करने का व्रत ग्रहण से लेकर मरणपर्यन्त त्याग करता है। ऐसे पूर्वोक्त पुरुष मरण के समय आयु का त्याग करते हैं और अपने-अपने कर्म के अनुसार दुर्गति (नरक) में जाते हैं। वे अधार्मिक पुरुष प्राणी भी कहलाते हैं, बस भी कहलाते हैं और महा. પ્રસન્ન થવાવાળા, તથા પાપથી જ આજીવિકા કરવાવાળા, યાવત્ સમસ્ત પરિ. પ્રહથી જીવનપર્યત નિવૃત્ત ન થવાવાળા, અહીંયાં યાવત્ શ થી પ્રાણાતિપાત મૃષાવાદ, અદત્તાદાન, અને મિથુનનું ગ્રહણ કરેલ છે. અર્થાત્ બધા જ પ્રકારની હિંસા, અસત્ય, ચોરી અને મિથુનથી જીવનપર્યત નિવૃત્ત ન થવાવાળા હોય છે. શ્રમણોપાસકે એવા પ્રાણિની હિંસા કરવાના વ્રત ગ્રહણથી લઈને મરણપર્યંત ત્યાગ કરે છે. એ પૂર્વોક્ત પુરૂષ મરણ સમયે આયુને ત્યાગ કરે છે અને પોતપોતાના કર્મ પ્રમાણે દુર્ગતિ (નરક)માં જાય છે. તે અધા મિક પુરૂષ પ્રાણી પણ કહેવાય છે. ત્રસ પણ કહેવાય છે. તથા મહકાય For Private And Personal Use Only Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयाबधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ७ गौतमस्य देशविरति धर्मादिसमर्थनम् ७५३ तसा वि बुच्चति' ते घसा अप्युच्यन्ते सञ्चरणशीलत्वातू 'ते महाकाया- ते चिरहिया ते बहुयरगा आयाणसो' ते महाकायास्ते विरस्थितिकास्ते बहुतरकाः संरूपता अनेके भवन्ति । आदानशः व्रतग्रहणादारभ्य आजीवनम् एतेषां जीवानां erreneurनविषयक मतिज्ञा श्रतग्रहणादारभ्याऽऽमरणं श्रावकेण कृता । 'ह से महयाओ' इति स महतः तस्मादयं भावको बहूनां जीवानां माणातिपातविरतः ''जई तुम्भे वदह' येषु यूयं वदय, श्रावकत्रतं निर्विषयं कथयथ 'तं चैव अयं पि भेदे से णो णेयाउर भव तच्चैव अयमपि भेदः स नो नैव नैयायिको भवतीति । पुनरपि भगवान् गौतमः कथयति- 'भगवं च णं उदाहु' मगवोध खढ उदाह'संवेगइया मणुरसा भवेति' सन्त्येकतये मनुष्या भवन्ति । 'तं जहा' तद्यथा'अणारंभा' अनारम्भाः, 'जावज्जीवाए' यावज्जीवनम् - जीवनत आरभ्य मरणपर्यन्तम् - आरम्भरहिता भवन्ति 'अपरिग्गहा' अपरिग्रहाः - परिग्रहरहिता भवन्ति । 'घम्मिया' धार्मिकाः- धर्माचरणशीलाः । 'धम्माणुया' धर्माऽनुगाः परानपि धर्माचरणानुज्ञया प्रतिबोधयन्ति। 'जाव' यावत् 'सध्याओ परिग्गदाओ पडिविरया' सर्वेभ्यः परिग्रहेभ्यः प्रतिविरताः- निवृत्ता भवन्तीति । एतादृशा अपि केचन कव काय तथा चिरस्थितिक भी कहलाते हैं। अतः ऐसे जीव बहुत होते हैं, जिन की हिंसा का श्रावक व्रत ग्रहण करने के समय से लगाकर मरणपर्यन्त त्याग करता है। इस प्रकार वह श्रावक बहुत जीवों की हिंसा का त्यागी होता है। ऐसी स्थिति में आपका यह कहना न्यायसंगत नहीं है कि श्रावक का प्रत्याख्यान निर्विषय है । भगवान श्री गौतम स्वामी पुनः कहते हैं- इस संसार में कोई २ ऐसे मनुष्य होते हैं जो व्रत ग्रहण से लेकर मरण पर्यन्त आरंभ के त्यागी होते हैं, परिग्रह से रहित होते हैं। धार्मिक धर्मानुगामी यावत् समस्त परिग्रह से निवृत्त होते हैं । श्रावक व्रत ग्रहण करने के समय से તથા ચિરસ્થિતિક પણ કહેવાય છે. તેથી એવા જીવા ઘણા હોય છે, કે જેની હિં'સાનુ' શ્રાવક વ્રતગ્રંહ્મણ કરવાના સમયથી લઈને મરણુ પવન્ત ત્યાગ કરે છે. રીતે તે શ્રાવક ઘણા જીવેાની હિ'સાને ત્યાગ કરવાવાળા હેાય છે. આવી સ્થિતિમાં આપનું આ કથન ન્યાય સંગત નથી કે શ્રાવકનુ પ્રત્યાખ્યાન નિવિષય છે. ભગવાન શ્રી ગૌતમ સ્વામી ફરીથી કહે છે-આ સંસારમાં કાઈ કઈ એવા મનુષ્યા હાય છે, કે જેએ ત્રત ગ્રહણથી લઇને મરણ પન્ત આર‘ભને ત્યાગ કરવાવાળા હોય છે. પરિગ્રહથી રહિત હોય છે. ધાર્મિક ધર્માનુગામી, ચાવત સઘળા પરિગ્રહથી નિવૃત્ત હાય છે, શ્રાવક વ્રત ગ્રહણ કરવાના સમયથી सू० १५ For Private And Personal Use Only Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बन पुरुषाः लोके भवन्तीति, 'जेहि समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे मिक्खिसे' श्रमणोपासकस्य येषु आदानशः आमरणान्तं दण्डो निक्षिप्तः। एता शेष जीवे श्रावकार व्रतग्रहणादारभ्य मरणान्तं दण्डं त्यजन्ति, केचन सामान्य भावकाः। 'ते तमओ आउगं विराजहंति' ते-पूर्वोक्ता धार्मिका: मरणसमये. घुपस्थिते-मायुः परित्यजन्ति। 'ते तो भुज्जो सगमाए सग्गइगामिको भांति' ते पूर्वोक्ता मृता..धार्मिकाः श्रावकाः भूयः-पुनरपि स्वकं-स्वसंपादित पुण्यकर्ममादाय सद्गतिगामिनो भवन्ति, 'ते पाणा वि वुचति' ते माणा अप्युच्यन्ते -माणधारणात् , असा अपि कथयन्ते-संचरणशीलत्वात् , विकुणाकरणाद् महाकायाः 'जाव णो णेयाउए भवई' पावन्नो नैयायिको भवति, ते जीवाधिरकालं स्वर्गे वसन्ति, एतेषु दण्डो न दीयते श्रावकेण । अस्मादेव कारणात् साऽमावात् श्रावकमतिका निर्विषयिणीति कथनं न न्यायसिद्धम् इति गौतमस्वामिन उत्तरमिति । 'भगवं च णं उदाहु' भगश्च खलु उदाह-संतेगइया पणुस्सा भवंति' सन्त्येकतये मनुष्या भवन्ति, 'तं जहा' तद्यथा-'अप्पेच्छा' अल्पेच्छा:-अल्पामरण पर्यन्त ऐसे जीवों की हिंसा करने का त्याग करते हैं। वे पूर्वोक्त धार्मिक पुरुष मरण का समय उपस्थित होने पर अपने आयु का त्याग करते है और अपने द्वारा पहले उपार्जित पुण्य कर्म के फल से सद्गति में जाते हैं। वे प्राण धारण करने के कारण प्राणी भी कहलाते हैं, प्रस भी कहलाते हैं विक्रिया करने के कारण महाकाय भी कहलाते हैं और चिरस्थितिवाले भी कहलाते हैं, अर्थात् वे चिरकाल तक देवलोक में निवास करते हैं और श्रावक उन्हें दंड नहीं देना है। ऐसी स्थिति में यह कहना न्याय संगत नहीं है कि त्रस जीवों का अभाव हो जाने से आवक-की प्रतिज्ञा निविषय है। यह श्री गौतमस्वामी का उत्तर है। મરણ પર્યત એવા જેની હિંસા કરવાને ત્યાગ કરે છે. તે પૂર્વોક્ત ધાર્મિક પુરૂષ મરણ સમય પ્રાપ્ત થાય ત્યારે આ યુનો ત્યાગ કરે છે. અને પિતે પ્રાપ્ત કરેલ પુણય કર્મના ફળથી સદ્ગતિમાં જાય છે. તેઓ પ્રાણ ધારણ કરવાથી પ્રાણી પણ કહેવાય છે. ત્રણ પણ કહેવાય છે. વિક્રિયા કરવાને કારણે મહાકાય પણ કહેવાય છે. અને ચિર સ્થિતિ વાળા પણ કહેવાય છે. અર્થાત તેઓ લાંબા સમય સુધી દેવલોક માં નિવાસ કરે છે. અને શ્રાવક તેઓને દંડ દેતા નથી. આવી સ્થિતિમાં આ કહેવું ન્યાય સંગત નથી, કે ત્રસ જીવે. નો અભાવ થઈ જવાથી શ્રાવકની પ્રતિજ્ઞા નિર્વિષય છે. આ પ્રમાણે शीतभाभी से उत्तर शो छ, . . . . For Private And Personal Use Only Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका वि. श्रु. अ. ७ गौतमस्य देशविरति धर्मादिसमर्थनम् ७५५ राज्यविभवपरिवारादिका इच्छा-अन्तःकरणवृत्ति षां ते तथा, 'अप्पारंभा' अल्या. रम्भाः-अल्प:-आरम्भः-कृष्यादिना पृथिव्यादिजोवोपमर्दो येषां ते तथा, 'अप्पपरिग्गहा' अल्पपरिग्रहा:-अल्पः परिग्रहो धनधान्यादिस्वीकाररूपो येषां ते तथा, 'धम्मिया' धार्मिकाः-धर्मेण-प्राणातिपातादि विरमणेन चरन्ति ये ते तथा 'धम्माणुया' धर्मानुगा:-धर्ममनुगच्छन्ति ये ते धर्मानुगाः 'जाव' यावत्-धर्मिष्ठा:-धर्मएव इष्टो वल्लभो येषां ते तथा ६, धर्मख्यातयः-धर्मात् ख्याति: प्रसिद्धि येषां ते तथा७, धर्मपलोकिनः-धर्ममेव प्रलोकन्ते-पश्यन्ति स्वेष्टतया ये ते तथा ८, धर्मपरञ्जना:-धर्मे परज्यन्ति-परायणा भवन्ति ये ते तथा ९, धर्मसमु. दाचारः-सदाचारो येषां ते तथा १०, धर्मेणैव वृत्तिं जीविका कलायन्तः-धार्मिकजीविकया निर्वहन्तः ११, सुशीला:-शोभनाचारवन्तः१२, मुव्रताः-शोभनवत. वन्तः १३, सुपत्यानन्दाः-सुष्ठु प्रत्यानन्दः-चित्ताह्लादो येषां ते तथा १४, साधुभ्यः साध्वन्ति के प्रत्याख्याय एकस्मात् स्थूलात् प्राणातिपातात् पतिविरताः - भगवानश्री गौतम स्वामी ने फिर कहा-इस संसार में कोई-कोई ऐसे मनुष्य भी होते हैं जो अल्प इच्छा वाले अर्थात् परिमित राज्य वैभव, परिवार आदि की इच्छा करते हैं, अल्प आरंभ करनेवाले अर्थात् कृषि आदि कर्म करके पृथ्वीकाय आदि के जीवों का उपमर्दन करने बाले होते हैं, अल्पारिग्रही-परिमित धन-धान्य आदि को स्वीकार करने वाले, धर्मपूर्वक आचरण करने वाले, धर्म के अनुगामी, धर्म के प्रेमी तथा धार्मिक के रूप में प्रख्यात होते हैं। वे धर्म को ही अपना इष्ट समझते हैं, धर्म करके प्रसन्न होते हैं, धर्म का ही आचरण करते हैं, धर्म से ही आजीविका करते हैं। सुशील, सुन्दर व्रतों वाले, सरलता से प्रसन्न होने योग्य होते हैं। वे साधु के समीप स्थूल प्रोणातिपात. का त्याग करते हैं परन्तु-सूक्ष्म प्राणातिपात से निवृत्त नहीं होते। इसी- ભગવાન શ્રી ગૌતમસ્વામી એ ફરીથી કહ્યું કે-આ સંસારમાં કઈ કઈ એવા મનુષ્ય પણ હોય છે, કે જેઓ અલ્પ ઈચ્છાવાળા અર્થાત પરિમિત રાજ્ય વૈભવ, ધન ધાન્ય પરિવાર દ્વિપદ ચતુષ્પદ વિગેરેની ઈચ્છા કરે છે. અલ્પ આરંભ સમારંભ કરવાવાળા અર્થાત કૃષિ-ખેતી વિગેરે કર્મ કરીને પૃથ્વીકાય વિગેરે જનું ઉપમન કરવાવાળા હોય છે. અ૯૫ પરિગ્રહી–પરિમિત ધન ધાન્ય વિગેરેને સ્વીકાર કરવાવાળા, ધર્મપૂર્વક આચરણ કરવાવાળા, ધર્મના અનુગામી, ધર્મના પ્રેમી, તથા ધાર્મિકપણાથી પ્રખ્યાત હોય છે. તેઓ ધમને જ પિતાનું ઈષ્ટ સમજે છે. ધર્મ કરીને પ્રસન્ન થાય છે. ચોગ્ય બને છે. તેઓ સાધુ સમીપે સ્થૂલ પ્રાણાતિપાતને ત્યાગ કરે છે. પરંતુ સૂક્ષમ પ્રાણાતિપાતથી નિવૃત્ત For Private And Personal Use Only Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कृताङ्गको -निवृत्ताः १५, एकस्मात् सूक्ष्मजीवाद् अमतिविरता:-अनिवृत्ताः १६। 'जाव एगयाओ परिग्गहाओ अप्पडिविरया' यावदेकतः परिग्रहाद अमतिविरता भव. न्तीति । तादृशाः श्रावकाः कस्माच्चिदपि माणातिपातादपतिविरताः कस्माच्च विरता भवन्तीति । एवमेव परिग्रहपर्यन्ताऽऽश्रवद्वारेभ्योऽविरताः विरताश्च भवन्ति । 'जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंठाए दंडे णिक्खित्ते' येषु श्रमणोपास. कस्याऽऽदानतः आमरणान्तं दण्डो निक्षिप्तः, एषु जीवेषु व्रतग्रहणादारभ्य आम. रणं श्रावकेण दण्डत्यागः कृतः, 'ते तो आउगं विपजहंति' ते तत आयुर्विमजहति-ते तादृशमायुस्त्यजन्ति । 'तो भुनो सगमादाय सग्गागामिणो भवंति' ततः स्वायुषः क्षये मरणान्तरं भूयः पुनरपि स्वकमादाय-स्वकीयं कर्माऽऽदाय स्वर्गतिगामिनो भवन्ति, 'ते पाणा वि वुच्चंति जाव णो णेयाउए भवइ' ते पाणा अप्युच्यन्ते-सा अपि उच्यन्ते, यावन्नो नैयायिको भवति, प्राणशब्देन कथ्यन्ते प्रसशब्देनाऽपि कथयन्ते, अतः श्रावकस्य व्रतं निर्विषयमिति न न्यायसङ्गमिति । प्रकार स्थूल मृषावाद, स्थूल अदत्तादान, स्थूलमैथुन और स्थूल परिग्रह से निवृत्त होते हैं किन्तु सूक्ष्म मृषावाद अदत्तादान मैथुन आदि से निवृत्त नहीं होते हैं । अर्थात् हिंसा आदि आश्रवद्वारों का एक देश से त्याग कर देते हैं और एकदेश से त्याग नहीं करते हैं। ऐसे जीवों की हिंसा से श्रावक व्रत ग्रहण करने के समय से जीवन पर्यन्त निवृत्त होता है। वे मनुष्य अपनी आयु का त्याग करते हैं और अपने उपार्जित कर्म के अनुसार सद्गति (स्वर्ग) प्राप्त करते हैं। वे प्राणी भी कहलाते हैं, उस भी कहलाते हैं, महाकाय और चिरस्थितिक भी कहा लाते हैं। श्रावक उनकी हिंसा का त्यागी होता है, अतएष श्रावक का प्रत्याख्यान निर्विषय है, ऐसा कहना न्याय संगत नहीं है। થતા નથી, એ જ કારણે સ્થૂલ મૃષાવાદ, સ્થૂલ અદત્તાદાન સ્કૂલ મિથુન અને સ્થૂલ પરિગ્રહથી નિવૃત્ત થાય છે. પરંતુ સૂફમામૃષાવાદ સૂફમ અદત્તાદાન સૂરમ મિથુન અને સૂક્ષમ પરિગ્રહથી નિવૃત્ત થતા નથી, અર્થાત્ હિંસા વિગેરે આસવ દ્વારને એક દેશથી ત્યાગ કરી દે છે. અને એકદેશથી ત્યાગ કરતા નથી. એવા જેની હિંસાથી શ્રાવક, વ્રત ગ્રહણ કરવાના સમયથી જીવતાં સુધી નિવૃત્ત રહે છે. તે મને પિતાના આયુષ્યને ત્યાગ કરે છે, અને તે પ્રાપ્ત કરેલા કર્મ પ્રમાણે સદ્ગતિ (વગ) પ્રાપ્ત કરે છે. તેઓ પ્રાણી પણ કહેવાય છે, ત્રસ પણ કહેવાય છે. મહાકાય અને ચિરસ્થિતિક પણ કહેવાય છે. શ્રાવકનું પ્રત્યાખ્યાન નિર્વિય છે. તેમ કહેવું ન્યાયસંગત નથી. For Private And Personal Use Only Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका वि.. अ. ७ गौतमस्य देशविरति धर्मादिसमर्थनम् ७५७ 'भगवं च णं उदाह' भगवांश्च खलु उदाह-संतेगड्या मणुस्सा भवंति' सन्स्ये. कतये मनुष्या भवन्ति । 'तं जहा' तद्यथा-'आरप्णिया' आरण्यका:-अरण्ये कृतनिलयाः कन्दमूलाशिनः अरण्यनिवासिन स्तापमा इत्यर्थः, 'आवसहिया' आवसथका:-कुटीरवासिनः, 'गामणियंतिया' ग्रामनिमन्त्रिका:-ग्रामे निमन्त्रिता जोवन्त: 'कण्हुइरहस्सिया' क्वचिद्रहसिका:-ग्रहनक्षत्रादिरहो विद्यया जीवन्त:ज्योतिविद्याभिराजीविका कुर्वाणाः 'जेहिं येषु 'समणोवासगस्स' श्रमणोपासकस्य 'आयाणसो' आदानशा-व्रतग्रहणादारभ्य 'आमरणंताए' आमरणान्ताय-मरणं यावत्तावदित्यर्थः 'दंडे णिक्खित्ते' दण्डो निक्षिप्त:-त्यक्तो मुक्तदण्डः श्रावको भवति 'जो बहुसंजया' नो एते जीवाः बहुसंयताः, 'यो बहुपडिविरया' नो बहुपतिविरताः प्राणातिपातविषयेभ्यः 'पाणभूय जीवसत्तेहि' प्राणभूतजोरसत्त्वेभ्यो नात्यन्तं विरताः 'अप्पणा सच्चामोसाई एवं विप्पडिवेदेति' आत्मना सत्यानि मृषा च एवं विपतिवेदयन्ति सत्यमकृतं च कथयन्ति-इत्यथा, तदेवाह- 'अहं ण हकमो अन्ने हतया' अहं न हन्तव्योऽपि तु-अन्ये इन्तव्याः इत्यं सत्यं भगवान् श्रीगौतम स्वामी ने पुनः कहा-इस जगत् में ऐसे भी बहुत मनुष्य होते हैं, जिन में कोई अरण्य निवासी-जंगल में रहेनेवाले अर्थात् तापस होते हैं, कोई आवसथक-कुटी आदि स्थानों में निवास करते हैं। ग्राम में निमंत्रित होकर अपनी जीविका चलाते हैं। कोई ग्रह नक्षत्र आदि रहस्य विद्या के द्वारा जीवन यापन करते हैं। श्रावक व्रतग्रहण करने के समय से मरण पर्यन्त उनकी हिंसा का त्याग करता है। वे मनुष्य बहुत संयमी नहीं हैं, प्रोणी भूत जीव और सत्व की हिंसा से निवृत्त नहीं हैं। वे अपने मन के अनुसार कल्पना करके सच-झूठ बोलते हैं, ભગવાન શ્રી ગૌતમ સ્વામીએ ફરીથી કહયું કે-આ જગતમાં એવા પણ ઘણા મનુષ્ય હોય છે, જેમાં કેઈ અરણ્ય એટલે કે જંગલમાં નિવાસ કરનારા અર્થાત્ તાપસ હોય છે. કેઈ આવસથક-કુટિર વિગેરે સ્થાને માં નિવાસકરે છે. તેઓ ગ્રામમાં–ગામમાં નિમંત્રિત થઈ ને પિતાની આજીવિકા ચલાવે છે. કઈ ગ્રહ, નક્ષત્ર વિગેરે રહસ્ય વિદ્યાઓ દ્વારા જીવન નિર્ગમન કરે છે. શ્રાવક, વ્રત ગ્રહણ કરવાના સમયથી મરણપર્યન્ત તેઓની હિંસાને ત્યાગ કરે છે. તે મનુષ્ય અધિક સંયમી હોતા નથી. પ્રાણી ભૂત જીવ અને સવની હિંસા થી નિવૃત્ત થતા નથી. તેઓ પોતાના મત પ્રમાણે કલ્પના કરીને સાચું ખોટું બોલે છે. જેમ કે-હું મારવાને ગ્ય નથી પરંતુ બીજા અવે મારવાને યેગે છે. આવા પ્રકારના છ આયુષ્ય સમાપ્ત થાય ત્યારે મૃત્યુને પ્રાપ્ત For Private And Personal Use Only Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताचे मृषा च तेषां वचनानि, इत्थंभूता विविधाः प्राणिन:-'जाव कालमासे कालं किचा' याव कालमासे कालं-कृत्वा-आयुषोऽवसाने मरणमुपलभ्य, 'अन्नयराई आसुरियाई' अन्यतरेषु आसुरिकेषु 'किनिसियाइं जाव' किल्विषयोनौ 'उवव. तारो भवंति' उपपत्तारो भवन्ति-असुरसंज्ञकाः पापदेवाः 'तओ विपमुच्चमाणा' ततो विषमुच्यमानाः 'भुज्नो एलमुगताए तमोरूवत्ताए पञ्चायति' भूयः-एलम्कत्वाय तमोरूपत्वाय प्रत्यायान्ति-परत्राऽसुरत्वमुपभुज्य निपात्यमानाः हीनयोनौ . समुत्पद्यन्ते, 'ते पाणा वि वुच्चंति जाव णो णेयाउए भवई' ते प्राणा अप्युच्यन्ते सा अपि कथ्यन्ते, आः श्रावकस्य प्रत्याख्यानं निर्विषयमितिकथनं न नैयायिक नाऽसगतं प्रत्याख्यानं भवतीति । 'भगवं च णं उदाहु' भगवांश्व खलु उदाह-संते. गइयापाणादीहाउया' सन्त्येकतये पाणा: दीर्घायुषः 'जेहि समणोवासगस्त येषु श्रमणोपासकस्य 'आयाणसो' आदानशः व्रतग्रहणादारभ्य 'आमरणताए' जाव दंडेणिक्खत्ते भवइ' आमरणान्ताय दण्डो निक्षिप्तो भवति, 'ते पुयामेव कालं करेंति' ते पूर्वमेव कालं कुर्वन्ति 'करित्ता' कृत्वा च कालम् 'परलोइयत्ताए पचायति' पारलौकिकत्वाय प्रत्यायान्ति, 'ते पाणावि वुच्चंति ते तमा वि बुच्चंति' ते पाणा अपि उच्यन्ते असा अप्युच्यन्ते 'ते महाकाया ते चिरविल्या' ते महाकाया स्ते चिरस्थितिका भवन्ति, 'ते दीहाउया ते बहुयरगा पाणा' ते दीर्घायुष स्ते जैसे-मैं तो मारने योग्य नहीं हूं किन्तु दूसरे जीव मारने योग्य हैं। इस प्रकार के जीव आयु के अन्त में मृत्यु को प्राप्त होकर किसी असुरनिकाय में किल्विषक देव के रूप में उत्पन्न होते हैं । पुनः वहां से चवकर बकरे के समान गूंगे एवं तामसी होते हैं अर्थात् असुर. निकाय की आयु भोगने के पश्चात् हीन योनि में उत्पन्न होते हैं । घे प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस भी कहलाते हैं । अतएव चप्स जीव को न मारने का श्रावक का प्रत्याख्यान निविषय नहीं है, - भगवान् श्रीगौतम स्वामी ने पुन: कहा-इस लोक में कोई-कोई प्राणी दीर्घायु होते हैं, जिनके विषय में श्रमणोपासक व्रत ग्रहण से लेकर કરીને કોઈ અસુર નિકાયમાં કિલ્બિષિક દેવપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. ફરીથી ત્યાંથી આવીને બકરાની જેમ ગુંગા અને તામસી થાય છે. અર્થાત્ અસુરનિકાયનું આયુષ્ય ભગવ્યા પછી અધમયે નિમાં ઉત્પન્ન થાય છે. તેઓ પ્રાણ પણ કહેવાય છે, ત્રસ પણ કહેવાય છે. તેથી જ ત્રસ જીવને ન મારવાનું શ્રાવકનું પ્રત્યાખ્યાન નિર્વિષય નથી. તે ભગવાન શ્રી ગૌતમ સ્વામીએ ફરીથી કહયું કે–આલેકમાં કઈ કેઈ પ્રાણી લાંબા આયુષ્યવાળા હોય છે. જેના સંબંધમાં શ્રમણોપાસક વ્રત For Private And Personal Use Only Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir arentafant टीका द्वि. श्रु. म. ७ गौतमस्य देशविरति धर्मादिसमर्थनम् ७५९ बहुतरकाः अनेके प्राणिनः सन्ति इत्थं भूताः । 'जेहिं समणोवास गस्स' येषु जीवेषु श्रमणोपासकस्य व्रतधारिणः श्रावकस्य, 'सुपच्चकखायं भवई' प्रत्याख्यानं सु त्याख्यातं भवति' 'जाव णो जेयाउए भवइ' यावभो नैयायिको भवति । 'भगव उदाहु'भगवां खलु उदाह- पुनरुवाच 'संतेगइया पाणा समाज्या' सन्त्ये कतये प्राणिनः समायुषो भवन्ति, 'जेहिं समणोवासगस्स आयाणासो आमरणंare जाव दंडे णिक्खिते भवइ' येषु समायुष्षु जीवेषु श्रमणोपासकस्याऽऽदानश आमरणान्ताय दण्डो निक्षिप्तो भवति 'ते सयमेव कालं करेंति' ते स्वयमेव कुर्वन्ति, आत्मनोऽवसानं कुर्वन्ति, न तेषां मारणेऽन्ये ममत्र इति नि 'करिता पारलोइया कृत्वा पारलौकिकत्वाय प्रत्यायान्ति । 'ते पाणा वि 'बुच्चति तसा विदुच्चति' ते माणा अप्युच्यन्ते - त्रसा अप्युच्यन्ते । 'ते महाकाया ते समाउया ते बहुपरगा' ते महाकायास्ते समायुषस्ते बहुतरका: 'जेहिं समणोवासग्रस्त सुपचक्वायं भवः' येषु श्रमणोपासकस्य सुप्रत्याख्यातं भवति । 'जाब मृत्युपर्यन्त दण्ड का त्याग करता है। वे प्राणी पहले ही काल करते हैं और काल करके परलोक में जाते हैं । वे प्राणी भी कहलाते हैं, स भी कहलाते हैं, महाकाय और दीर्घकालीन स्थितिवाले भी कहलाते हैं । ऐसे दीर्घायु प्राणी बहुत-से होते हैं। उनके विषय में श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है । अतएव आपका यह कहना न्याय संगत नहीं है कि श्रावक का प्रत्याख्यान निर्विषय है । भगवान् श्री गौतम स्वामी फिर बोले- जगत में कोई-कोई प्राणी समान आयुवाले होते हैं, जिनको श्रमणोपासक व्रत ग्रहण के समय से लेकर जीवन पर्यन्त दंड देने का स्थाग करता है । वे जीव स्वयं ही काल करते हैं, उन्हें मारने में दूसरे कोई समर्थ नही हैं। वे काल ગ્રહણથી લઈને મરણ પન્ત દડના ત્યાગકરે છે તે પ્રાણિયા પહેલાં જ કાળકરે છે. અને કાળ કરીને પરલેાક માં જાય છે તેએ પ્રાણીપણુ કહેવાય છે. ત્રસ પણ કહેવાય છે. તેએ મહાકાય અને દીર્ઘકાલની સ્થિતિવાળા પશુ કહેવાય છે. એવા દીર્ઘાયુ પ્રાણી ઘણા હાય છે, તેના સંબંધમાં શ્રમણાપાસકનુ' પ્રત્યાખ્યાન સુપ્રત્યાખ્યાન હોય છે. તેથી જ આપનુ. આ થન ન્યાયયુક્ત નથી કૈં–શ્રાવકનું પ્રત્યાખ્યાન નિવિષય છે. ભગવાન શ્રી ગૌતમસ્વામી ફરીથી કહે છે કે—આ જગમાં કોઇ કોઇ પ્રાણી સમાન આયુવાળા હાય છૅ. જેને શ્રમણેાપાસક વ્રત‰ણુના સમયથી લઈને જીવનપર્યંત ક્રૂડ દેવાના ત્યાગ કરે છે. એવા જીવા પાતાની મેળે જ ફાળ કરે છે. તેને મરવા અન્ય કાઈ સમર્થ નથી, તેઓ કાળ કરીને પર્લે For Private And Personal Use Only Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गो गो गेयाउर भवई' यावन्नो नैयायिको भवति अर्थात् न भवति श्रावकम्प पत्या. रूवानं न्यायसिद्धमिति भावः । 'भगवं च णं उदाहु' भगवांश्च खलु उदाइ-'संते. पाया पाणा अप्पाउया' सन्स्येकत ये पाणिनोऽल्पायुषः 'जेहि समणोवासगस्स 'बेषु श्रमणोपासकस्य 'आयाणसो आमरणताए जाव दंडे णिविखते भवई' आदान भामरणान्ताय यावत् दण्डो निक्षिप्तो भवति। ते पुम्वमेव कालं करे'ति' ते पूर्वमेव कालं कुर्वन्ति, 'करिता पारलोइयत्ताए पच्चायति' कृत्वा कालं पारलौकिकत्वाय पत्यायान्ति मृत्वा परलोकं गच्छन्ति, 'ते पाणा विधुचंति तसा वि वुचंति' ते प्राणा अपि उच्यन्ते-सा अप्युच्यन्ते । ते महाकाया ते अप्पाउया ते बहुयरगा पाणा' ते महाकायास्ते अल्पायुषास्ते बहुतरकाः प्राणाः 'जेहि समणोवासगस्स' येषु श्र. मणोपासकस्य 'सुपञ्चक्खायं भवई' सुपस्याख्यातं भवति । 'जावणो णेशउए भव' यावलो नैयायिको भवति, अर्थाभ भवति श्रावकस्य प्रत्याख्यानं निविषयमिति । करके परलोक में जाते हैं। वे प्राणी भी कहलाते हैं, उस भी कहलाते हैं महाकाय भी कहे जाते हैं । ऐसे सम आयु वाले बहुत-से जीव होते है। उनके विषय में श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है। अतएव यह कहना न्याय संगत नहीं है कि श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान निर्विषय है। भगवान् श्रीगौतम स्वामी फिर बोले-जगत् में कोई-कोई प्राणी अल्पायु होते हैं । श्रमणोपासक व्रत ग्रहण करने से लेकर मरण पर्यन्त उनकी हिंसा का त्याग करता है। वे पहले ही काल कर जाते हैं और काल करके परलोक चले जाते हैं। वे प्राणी भी कहलाते हैं और त्रस भी कहलाते हैं । वे महाकाय और अल्पायु भी कहे जाते हैं। ऐसे प्राणी बहत होते हैं। उनके विषय में श्रावक का प्रत्याख्यान सुपत्याख्यान કમાં જાય છે. તેઓ પ્રાણી પણ કહેવાય છે, ત્રસ પણ કહેવાય છે. મહાકાય પણ કહેવામાં આવે છે. આવા સમ આયુષ્યવાળા ઘણા જ હોય છે, તેના સંબંધમાં શ્રમણોપાસકનું પ્રત્યાખ્યાન સુપ્રત્યાખ્યાન હેય છે. તેથીજ પ્રમાણે પાસકનું પ્રત્યાખ્યાન ન્યાયસંગત નથી તેમ કહેવું તે નિવિષય છે. - ભગવાન શ્રી ગૌતમસ્વામી ફરીથી કહે છે-જગતમાં કઈ કે ઈ પ્રાણી અલ્પ આયુષ્યવાળા હોય છે. શ્રમણોપાસક વ્રત કરવાથી લઈને મરણપર્યંત તેની હિંસાને ત્યાગ કરે છે. તેઓ પહેલાં જ કાળ કરી જાય છે. અને કાળ કરીને પરલોકમાં જાય છે. તેઓ પ્રાણું પણ કહેવાય છે. અને ત્રસ પણ કહેવાય છે. તેઓ મહાકાય અને અલ્પાયુ પણ કહેવાય છે. એવા પ્રાણિયે For Private And Personal Use Only Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सार्थबोधिनी टीका वि. भु. अ. ७ गौतमस्य देशविरति धर्मादिसमर्थनम् ७६१ 'भगवं च णं उदाहु' भगवांथ खल पुनरप्युवाच 'संतगया समणोवालगा मवेति' समस्येकतये श्रमणोपासका भवन्ति, 'तेर्सि चणं एवं बुतपुत्रं भव' ती - श्राः कैष खलु एवमुक्तपूर्वं भवति, एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण वदन्ति कुर्वन्ति च । 'वयं मुंडा भविता जाव पाइए जो खलु संचारमो' वयं मुण्डा भूत्वा यावन्न खलु शक्नुमः पत्रजितुम् - सर्वथा गृहं परित्यज्य न खलु शक्नुमः प्रव्रज्यामादा तुम्। तथा वयं चादसमुद्दिपुण्णमासिणीस पडण्णं पोसहं अणुपालितप मो खलु संचारमो वयं चतुर्दश्यष्टम्युला पूर्णिमासु परिपूर्ण सम्पूर्णरूपेण पौषधं तदाख्यं व्रतम पे अनुपालयितुं नो खलु शक्तुमः । 'नो खलु संचारमो अपच्छिम जाव विहरित' वयमपश्चिमं यावत्-विहर्तुमपि न शक्नुमः । मरणसमये संस्तर ग्रहणमपि कर्तु न प्रभवामः। किन्तु 'वयं च णं सामाइयं देसाव गासियं पुरस्था पाईणं वा पडीणं वा दाहिणं वा उदीर्णं वा एयावया जाव सव्यपाणेहिं जाब सम्बसहिं दंडे गिक्खिते' वयं च खलु सामायिक देशावका शिकं व्रतविशेषं करिष्यामः अर्थात् सावध व्यापारत्यागं कुर्मः अनेन प्रकारेण प्रतिदिनं प्रातः काले एव माच्यां प्रतीच्यां दक्षिणस्यामुदीच्यां वा एतावद देशमर्यादां कृत्वा तेनैव प्रकारेण सर्वमाणेषु यावत्सर्वसत्वेषु दण्डो निक्षिप्तः प्राणातिपाता रूयं दण्डं न करिष्यामि । 'सन्पाणभूयजी नसते हि खेमंकरे अहमंसि' सर्वमाणभूतजीवहोता है। अतएव यह कहना न्यायसंगत नहीं है कि श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान निर्विषय है । भगवान् श्रीगौतम स्वामी ने पुनः कहा- इस जगत् में कोई-कोई श्रमणोपासक होते हैं जो इस प्रकार कहते हैं-हम मुण्डित होकर और गृह का स्थाग करके साधुता अंगीकार करने में समर्थ नहीं हैं। हम चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा के दिन प्रतिपूर्ण पौषव्रत को करने में भी समर्थ नहीं हैं। हम तो सामायिक, देशावकाशिक व्रत सावध व्यापार का त्याग को ग्रहण करेंगे। प्रतिदिन प्रातःकाल ही पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, ઘણા હાય છે. તેએાના સંબંધમાં શ્રાવકનું પ્રત્યાખ્યાન સુપ્રત્યાખ્યાન હેાય છે. તેથીજ શ્રમણોપાસકનુ પ્રત્યાખ્યાન નિવિ ષય છે તેમ કહેવું તે ન્યાય સ`ગત નથી. ભગવાન શ્રી ગૌતમરવામીએ ફરીથી કહ્યુ` કે-આ જગતમાં કાઈ કાઈ શ્રમણેાપાસક હાય છે જે આાપ્રમાણે કહે છે-અમે મુડિત થઈ ને અને ગૃહના ત્યાગ કરીને સાધુપણાને સ્વીકાર કરવામાં સમથ નથી. અમે ચૌદશ, આઠમ, અમાસ, અને પુનમના દિવસે પ્રતિપૂર્ણ પૌષધવ્રત કરવામાં પણ સમથ નથી. અમે તે સામાયિક દેશાવકાશિક વ્રત-સાવધ વ્યાપારના ત્યાગને ગ્રહણ કરીશું. દરરોજ સવારે પૂર્વ' અને પશ્ચિમ દક્ષિણ અને ઉતરદેશામાં જવા આવવાની सु० ९६ For Private And Personal Use Only Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org G सूत्रकृताङ्गसूत्रे सच्चानां क्षेमङ्करः- कलाकर्त्ताऽहमस्मि अमवामीत्यर्थः । 'तत्थ आरेण जे तसा पाणा' तत्र - आराद्दुरे ये साः प्राणाः, 'जेहिं समणोवासगस्स आयाणसी आमरणंताए दंडे णिक्खिते' येषु दूरस्थितप्राणिषु श्रमणोपासकस्य आदानश आमरणान्ताय - व्रतग्रहणकालादारभ्य मरणपर्यन्तं दण्डो निक्षिप्तः, माणातिपाताद विरतोऽभवत् । 'तओ आउयं विध्वजदेति' ततस्ते सा आयुर्विमजदति 'विष्यजहिता' विहाय 'संस्थ' तंत्र 'आरेण' आरात् 'चैत्र' पत्र 'जे तसा पाणा जेहि सणवार आयागसो जाव' तेसु पञ्चायति' ये प्रताः माणाः येषु श्रमणपासकस्य आदानशो यावत्तेषु प्रत्यायान्ति ये जीवां यदा श्रावकरयक्तदेशेषु सरूपेण प्रादुर्भवति। "जेहिं समणोबासगस्स सुदञ्चकखायें मवई' येषु 'जीदेषु entertaste सुप्रत्ययानं मवति, 'ते पाणा वि जाव' ते प्राणा' अप्युस्यन्ते Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपि कथ्यते। 'अयं पि भेदे से' अथमपि भेदः स नो नैयायिको भवति, अर्थः श्रावकस्य निर्विषयप्रतिपादनम् उदकस्य न न्यायसङ्गतमिति ॥ १०१२॥७९॥ मूलम् - तत्थ आरेणं जे तसा पाणा जेहि समणोवासगस्तं आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते ते तओ आउं विप्प ל उत्तर दिशा में जाने-आने की मर्यादा का स्वीकार करके उस मर्यादा से बाहर के प्राणियों की हिंसा का त्याग करेंगे। हम समस्त प्राणियां, भूतों, जीवों और सत्रों के लिए क्षेमंकर (कल्याणकर्त्ता) बनेंगे । इस प्रकार श्रमणोपासक की हुई मर्यादा से बाहर स्थित प्राणीयों की, व्रतग्रहण से लेकर जीवन पर्यन्त के लिए हिंसा का त्याग कर देता है। तत्पश्चात् यह आयु का त्याग करता है। वे प्राणी जब आयु को त्याग कर श्रावक के द्वारा ग्रहण की हुई मर्यादा से बाहर के प्रदेश में त्रम रूप से उत्पन होते हैं तब उनके विषय में श्रावक का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है। वे माणी भी कहलाते हैं. बस भी कहलाते हैं। अतएव श्रमणोपासक के प्रत्याख्यान को निर्विषय कहना न्यायसंगत नहीं है | १२ | મર્યાદાને 'સ્વીકાર કરીને તે મર્યાદાથી બહારના પ્રાણિયા ભૂતા જીવા અને સા भाटे क्षेत्र ४२ (उदय.शु. १२नार) मनीशु, आप्रमाणे श्रमशोपास उक्षी भर्याडा અડાર રહેલા પ્રાણિયાની વ્રત ગ્રહણથી લઈને જીવન પન્તને માટે હિંસાને ત્યાગકરે છે. તે પછી તે આયુના પગ કરે છે. તે પ્રાણિયા જ્યારે આયુષ્યને ત્યાગ કરીને શ્રાવકદ્વારા ગ્રહણુ કરવામાં આવેલ મર્યાદાથી બહારના પ્રદેશમાં ત્રસપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. ત્યારે તેના સંબંધમાં શ્રાવકનુ પ્રત્યાખ્યાન સુપ્રત્યા બ્યાન હાય છે. તેઓ પ્રાણી પણ કહેવાય છે ત્રસ પણ કહેવાય છે. તેથી જ શ્રમણોપ સાના પ્રત્યાખ્યાનને નિવિષય કહેવું તે ન્યાયયુકત લાગતુ નથી. ૫૧ા For Private And Personal Use Only Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयायोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ७ गौतमस्य देशविरति धर्मादिसमर्थनम् ७६ जहंति विप्पजहित्ता तत्थ आरेणं चेव जार थावरा पाण जेहि समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिक्खित्ते अणट्ठाए दंडे णिक्खित्ते तेसु पञ्चायंति। तेहिं समणोवासगस्त अटाए दंडे अणिक्खित्ते अणत्थाए दंडे णिक्खित्ते, ते पाणावि वुच्चंति ते तसा वि वुच्चंति ते चिरट्रिइया जाय अयं पि भेदे से णो णेयाउए भवइ । तत्थ जे आरेणं. तसा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरण-ताए० ते तओआउंविप्पजहांत विप्पजहित्ता तत्थ परेणं जे से तसा थावरापाणाजेहिं समणोवासगस्सआयाणसो आमरणंताए० तेसु पच्चायति, तेहिं समणोवासगस्त सुपञ्चक्खायं भवइ, ते पाणा वि जाव अयं पि भेदे से णोणेयाउए भवइ । तत्थ जे आरेणंथावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिक्खित्ते अणट्राए दंडे निक्खित्ते तओ आउं विप्पजहंति, विप्पजहिता तत्थ आरेणं चेव जे तसा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए० तेसु पच्चायति तेसु समणोवासगस्त, सुपच्चक्खायं भवइ, ते पाणा वि जाव. अयं पिभेदे से णो नेयाउए भवइ । तत्थ जे ते आरेण जे थावरापाणा जेहिं समणोवासगस्स अट्राए दंडे अणिक्खित्ते अगहाए णिक्खित्ते, ते तओ आउं विप्पजहंति, 'विप्पजहिता ते तत्थ आरेणं चेव जे थावरा पाणा जेहि समणो. वासगस्त अटाए दंडे अणिक्खित्ते अणटाए दंडे णिक्खित्ते तेस पञ्चायंति, तेहि समणोवासगस्त अट्टाए दंडे अर्णिक्खित्ते अणद्वाए णिक्खित्ते । ते पाणा वि जाव अयं पि भेदे से णो णेया. उए भवइ । तत्थ जे ते आरेणं थावरा पाणा जेहिं समणोवासगस अहाए दंडे अणिक्खित्ते अणटाए णिक्खित्ते तओ आउं विप्पजहंति विप्पजहित्ता तत्थ परेणं जे तसथावरा पाणा जेहिं For Private And Personal Use Only Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतास्त्र समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए० तेसु पच्चायति। तेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ, ते पाणा वि जाव अयं पि भेदे से णो णेयाउए भवइ । तत्थ जे ते परेणं तसथावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए. ते तओ आउं विप्पजहंति विप्पजहित्ता तत्थ आरेणं जे तसा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसी आमरणंताए० तेसु पच्चायंति, तेहिं समणोवासगस्त सुपचक्खायं भवइ, ते पाणा वि जाव अयं पि भेदे से णो णेयाउए भवइ। तत्थ जे ते परेणं तसथावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणं. ताए० ते तओ आउं विप्पजहंति विप्पजहित्ता तत्थ आरेणं जे थावरा पाणा जेहि समणोवासगस्स अट्टाए दंडे अणिक्खित्ते अणट्राए णिक्खित्ते तेसु पञ्चायंति, जेहिं समणोवासगस्स अट्टाए दंडे अणिक्खित्ते अणटाए णिक्खित्ते जाव ते पाणा विजाव अयंपि भेदे से णो णेयाउए भवइ। तत्थ जे ते परेणं तसथावरा पाणा जेहि समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए० ते तओ आउं विष्णजहति, विप्पजहिता ते तत्थ परेणं चैव जे तसथावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए० तेसु पञ्चायंति, जेहिं समणोवासगस्त सुपञ्चक्खायं भवह, ते पाणा विजाव अयं पि भेदे से णो णेयाउए भवइ । भगवं च णं उदाहुण एवं भूयं ण एयं भव्वं ण एवं भविस्संति जण्णं तसा पाणा वोच्छिजिइंति थावरा पाणा भविस्संति, थावरा पाणा वि वोच्छिजिहिति तसा पाणा भविस्संति, अवोच्छिन्नेहिं तसथावरेहिं पाणेहि जण तुम्भे वा अन्नो वा एवं वदह पत्थि णं से केइ परियाए जाव णो णेयाउए भवइ ।सू०१३॥८॥ For Private And Personal Use Only Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयाबोधिनी टीका वि.श्रु. अ. ७ गौतमस्य देशविरति धर्मादिसमर्थनम् ७६५ छाया-तत्र आराद् ये त्रसाः पाणाः, येषु श्ररणोपासकस्य आदानश आमर. गान्ताय दण्डो निक्षिप्तः ते तत आयुर्विपजहति, विग्रहाय तत्र आराच्चैव यावस्थावराः प्राणा येषु श्रमणोपासकस्यार्थाय दण्डोऽनिक्षिप्तः, अनर्थाय दण्डोनिक्षितस्तेषु प्रत्यायान्ति । तेषु श्रमणोपासकस्यार्थाय दण्डोऽनिक्षिप्तोऽनाय दण्डो निक्षिप्तः। ते पाणाः अप्युच्यन्ते ते त्रसा अप्युच्यन्ते ते चिरस्थितिकाः, यावदयमपि भेदः स नो नैयायिको भवति । तत्र ये आरात् प्रसाः पाणाः येषु श्रमणोपासकस्म आदानश आमरणान्ताय दण्डो निक्षिप्तः ते तत आयुर्विपजहति, विग्रहाय तत्र परेण ये ते त्रसाः स्थावराच पाणाः येषु श्रमणोपासकस्य आदानश आमरणान्ताय दण्डो निक्षिप्तस्तेषु प्रत्यायान्ति, तेषु श्रमणोपासकस्य सुपत्याख्यानं भवति । ते माणा अपि यावदयमपि भेदः स नो नैयायिको भवति । तत्र आराद् ये स्थावराः प्राणा! येषु श्रमणोपासकस्य अर्थाय दण्डोऽनिक्षिप्तः अनर्थाय दण्डो निक्षितः, ते बदायुविप्रजहति, विपहाय तत्र आराच्चैव ये त्रसाः प्राणाः येषु श्रमणोपासकस्य आदानश आमरणान्ताय दण्डो निक्षिप्त स्तेषु प्रत्यायान्ति तेषु श्रमणोपासस्य सुपत्याख्यानं भाति । ते माणा अपि यावदयमपि भेदः स नो नैयायिको भवति । तत्र ये ते आरा ये स्थावराः प्राणाः येषु श्रमणोपायकस्य अर्थाय दण्डोऽनिक्षिप्तोऽनय निक्षिप्तः ते तदायुर्विप्रजाति विहाय ते तत्र आराच्चैव ये स्थावरा: प्राणाः येषु श्रमणोपासकस्य अर्थाय दण्डोऽनिक्षिप्तः अनर्थाय दण्डो निक्षिप्तः तेषु प्रत्यायान्ति । तेषु श्रमणोपासकस्य अर्थाय दण्डोऽनिक्षिप्तः अनर्थाय निक्षिप्तः। ते माणा अप्युच्यन्ते ते यावदयमपि भेदः स नो नैयायिको भवति । तत्र ये ते आराव स्थावराः प्राणा येषु श्रवणोपातकस्य अर्थाय दण्डोऽनिक्षिप्तः अनर्थाय निक्षिप्तः तत आयुः विपजहति, विहाय तत्र परेण ये सस्थावराः पाणा येषु श्रमणोपासकस्य आदानश आमरणान्ताय दण्डो निक्षिप्तस्तेषु प्रत्यायान्ति तेषु श्रमणोपासकस्य सुपत्याख्यानं भवति । ते प्राणा अपि यावद् अयमपि भेदः स नो नैयायिको भवति । तत्र येते परेण सस्थावराः प्राणाः येषु श्रमणोपासकस्य आदानशः आमरणान्ताय दण्डो निक्षिप्त स्ते तत आयुर्विप्रजहति विषहाय तत्र आराद् ये असा प्राणाः येषु श्रमणोपासकस्य आदानश आमरणान्ताय दण्डो निक्षिप्तः तेषु प्रत्या. यान्ति तेषु श्रमणोपासकस्य सुप्रत्याख्यानं भवति । ते माणा अपि यावद् अयमपि भेदः स नो नैयायिको भवति । तत्र ये ते परेण त्रसस्थावराः प्राणा येषु भ्रमणोपासकस्य आदानश आमणान्ताय दण्डो निक्षिप्त स्ते तत आयुः विपजाति, विग्रहाय तत्र आराद ये स्थावराः प्राणा येषु श्रमणोपासकस्य अर्थाय दण्डोऽनिशितः अनर्थाय निक्षिप्तः तेषु प्रत्यायान्ति, येषु श्रमणोपासकस्य अर्थाय दण्डोऽनि For Private And Personal Use Only Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org GEE सूत्रकृताङ्गसूत्रे " क्षिप्तः अनर्थाय निक्षिप्तः यावत् ते माणा अपि यावदयमपि भेदः स नो नैयायिको भवति । तत्र ये ते परेण सस्थावराः प्राणाः येषु श्रमणोपासकस्य आदानश आमरणान्ताय दण्डो निक्षिप्तः, ते उत आयुर्विप्रजहति विप्रहाय ते तत्र परेण चैव ये सस्थावराः प्राणा येषु श्रमणोपासकस्य आदानश आमरणान्ताय दण्डो निक्षिप्तस्तेषु प्रत्यायान्ति । येषु श्रमणोपासकस्य सुमत्याख्यानं भवति ते प्राणा अपि यावद अयमपि भेदः स नो नैयायिको भवति । भगवांथ खलु उदाह- नेतवू भूतं नैतद् माध्यं नैवद् मविष्यन्ति यत् खलु त्रसाः प्राणाः व्युच्छेत्स्यन्ति स्थावराः प्राणाः भविष्यन्ति, स्थावराः प्राणा अपि व्युच्छेत्स्यन्ति त्रसाः प्राणा भविष्यन्ति । अच्छिन्नेषु सस्थावरेषु प्राणेषु यत् खलु यूयं वा अभ्यो वा एवं वद नास्ति स कोऽपि पर्यायः यावन्नो नैयायिको भवति ||०१३-८० ॥ - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . टीका- 'तत्थ' तत्र 'आरेण' आरात् तत्र समीपस्थदेशे विद्यमानाः- निवसन्तः 'जे तसा पाणा' ये त्रसाः प्राणाः 'जेहि' येषु 'समणोवासगस्स' श्रमणोपासकस्य 'आयाणसो आमरणंताए' आदानश आमरणान्ताय - व्रतधारणसमयादारभ्य मरणपर्यन्तम् | 'दंडे णिक्खित्ते' दण्डो निक्षिप्तः दण्डः परित्यक्तः, 'ते तभ आउं विप्पजहंति' ते सा जीवाः तत आयु विप्रजहति त्रखायुष्कं त्यजन्ति । 'विष्यजहित्ता तत्थ आरे चैव जाव थावरा पाणा' विमहाय- परित्यज्य तत्र आरात्समीपदेशे ये स्थावराः माणा 'जेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिक्खित्ते अाए दंडे णिक्खित्ते' येषु स्थावरजीवेषु श्रमणोपासकस्याऽर्थाय दण्डोनिक्षिणोऽनर्थाय च दण्डो निक्षिप्तः । 'तेसु पश्चायति' तेषु कार्येषु प्रत्यायान्तिमुद्यन्ते । 'जेहिं समणोवासगस्स सुपचवखायं भवइ' येषु भ्रमणोपासकस्य 'तत्थ आरेणं' इत्यादि । टीकार्थ - वहां समीपवर्ती देश में विद्यमान जो ब्रस प्राणी हैं, उनकी हिंसा श्रमणोपासकने व्रत ग्रहण के दिन से लेकर जीवन पर्यन्त के लिए त्याग दी है। वे प्राणी उस आयु का परित्याग कर देते हैं और वहां के समीप देश में स्थावर रूप से उत्पन्न होते हैं जिनको श्रावक ने अनर्थ (निष्प्रयोजन) दण्ड देना त्याग दिया है, किन्तु अर्थ दंड देना 'तत्थ आरेणं' हत्या हि ટીકા ત્યાં સમીપવર્તી દેશમાં જે ત્રસ પ્રાણીયા રહેલા છે, તેની હિંસા કરવાના શ્રમણોપાસકે વત ગ્રહણુ કરવાના દિવસથી લઈ ને જીવન પર્યંત માટે ત્યાગ કરેલ છે. તે પ્રાણી તે ત્રસ આયુષ્યને ત્યાગ કરી દે છે. અને ત્યાંના સમીપના દેશમાં સ્થાવરપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. જેને શ્રાવકે અનથ For Private And Personal Use Only Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समपार्थपोधिनी टीका द्वि. श्रु. म. ७ गौतमस्य देशविरति धर्मादिसमर्थनम् ७६७ पाणातिपातप्रत्याख्यान सुपत्याख्यातम्-सफल गण्यते । 'ते पाणा वि जाव' ते भाषा अपि कथयन्ते-त्रसा-अपि कश्यन्ते । 'ते चिरविल्या जा' ते चिरस्थि. तिका महाकायाः अनेके च सन्ति 'अयं पि भेए से णो णेशाउए भवई' अपमपि मेदः स वो नैयायिको भवति । तस्य जे आरेणं तसा पाणा जेहि समणोबासमेस्स पायाणसो आमरणेताए' तत्र ये आरात् बसाः प्राणाः येषु श्रमणोपासकस्प बादानशः व्रतधारणादारस्य आमरणान्ताय दण्डो निक्षितः 'ते तो आउ विक माति' ते-समीपवतिनो जीवा वसा ततः स्वायुषं विप्रजाति, विपजहिता' विहाय 'तत्थ परेण जे तसा यावरा पागा जेहि समणोवासगरस आयाणसो आमरणंताएं' तत्र ये परेण प्रसाः स्थावराः प्राणाः येषु श्रमणोपासकस्यादानश भामरणान्ताय दण्डी निक्षित: 'तेसु पञ्चायति' तेषु प्रत्यायान्ति 'तेहिं समणी. वासमस्स सुपञ्चक्खायं भवई तेषु श्रमणोपासस्य मुमत्याख्यानं भवति । 'से पाणा विजाव' ते माणा अप्युच्यन्ते ते वसा अपि ते महाकाया अपि 'अपपि मेदे नहीं त्यांगा है। उन प्राणियों में उत्पन्न होते हैं। वे प्राणी भी कहलाते हैं त्रस भी कहलाते हैं वे चिरकाल तक स्थित रहते हैं। उन्हें श्रम. जोपासक दण्ड नहीं देता है। अतः उसके प्रत्याख्यान को निर्विषय कहना न्याय संगत नहीं है। ... ___ वहां समीप देश में रहने वाले जो त्रस प्राणी हैं, श्रमणोपासक ने व्रत ग्रहण के समय से लेकर मरणपर्यन्त जिनकी हिंसा का त्याग' कर उस देश से दूरवती किसी प्रदेश में रहने वाले जो त्रस और स्थावर प्राणी हैं, जिनको व्रत ग्रहण के समय से मृत्युपर्यन्त दण्ड देना श्रावक ने त्याग दिया है, उनमें उत्पन्न होते हैं, उन प्राणियों के विषय में श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान सफल होता है । वे प्राणी भी कहलाते हैं और त्रस भी कहलाते हैं । श्रमणोपासक उनकी हिंसा (વિનાપ્રજનદંડદેવાનો ત્યાગ કરેલ છે. પરંતું અર્થદંડ દેવાને ત્યાગ કરેલ નથી. તેઓમાં ઉત્પન્ન થ ય છે. તેઓ પ્રાણી પણ કહેવાય છે. ત્રસ પણ કહે વાય છે. તેઓ લાંબા કાળ સુધી સ્થિત રહે છે તેને શ્રમણોપાસકદડદેતા નથી. તેથી તેના પ્રત્યાખ્યાનને નિર્વિષય કહેવું તે ન્યાયયુક્ત નથી. ત્યાં સમીપના દેશમાં રહેવાવાળા જે રસપ્રાણી છે. શ્રમણોપાસકે વ્રત ગ્રહણ કરવાના સમય થી લઈ ને મરણ પર્યન્ત જેની હિંસાને ત્યાગ કરેલ છે. તેઓ પિતાના આયુષ્ય ને ત્યાગ કરીને તે દેશથી દૂર રહેલા કોઈ પ્રદેશમાં રહેવાવાળા જે ત્રસ અને સ્થાવર પ્રાણું છે. જેને વ્રત ગ્રહણ કરવાના સમય થી લઇ ને મરણ પર્યત દંડ દેવાન શ્રાવકે ત્યાગ કરેલ છે. તેઓમાં ઉપન્ન થાય છે. તે પ્રાણિયાના સંબંધમાં શ્રમ પાસકનું પ્રત્યાખ્યાન For Private And Personal Use Only Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७१८ सूत्रकतामा से णो णेयाउए भवइ' अयमपि भेदः स नो नैयायिको भवति, अर्थात्-भावक: प्रत्याख्यानस्य निर्विषयत्वपतिपादनं न युक्तियुक्तमिति । 'तस्थ जे आरेणं थायरा राणा जेहि समगोवासगम्स अवाए दंडे अणिक्खित्ते अणडाए णिक्खित्ते तत्र ये भारा स्थावरा पाणाः जीवाः समीपदेशवर्तिनः सन्ति येषु श्रमणोगसकस्य अर्थाप प्रयोजनमुद्दिश्य दण्ड:-अनिक्षिप्तः-प्राणिप्राणव्यपरोपणं न स्यत्तः। अनाय योजनमन्तरेण दण्डो निक्षिप्त:-हिंसातो-माणग्यपरोपणात निवृत्तो जाता। ते समो आउं विपजहति' ते तदायु विपजाति 'विपजहिता' विमाय 'तस्थ पारे चेबजे तसा पाणा जेहि समणोबासगरस आयाणसो आमरणंसार' तबाराचैत्र पे प्रसाः प्राणाः येषु श्रमयोपासकरपाऽऽदानशः आमरणान्ताय दमो निलिप्तः। 'तेसु पच्चायति' तेषु प्रस्थायान्ति-मस्यागन्ति 'जेहि समयोगासनहीं करता है। अतएव श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान निर्विषय है, ऐसा कहना न्याय संगत नहीं है। - वहां समीप देश में जो स्थावर प्राणी हैं। जिनके विषय में श्रावक ने अर्थदण्ड का त्याग नहीं किया है और अनर्थ दण्ड का त्याग कर दिया है, वे जब अपनी आयु समाप्त करके, समीप देशवर्ती त्रस प्राणी के रूप में, जिनको दंड देना श्रावक ने ब्रत ग्रहण के समय से लेकर जीवन पर्यन्त त्याग दिया है, उत्पन्न होते हैं तो उनके विषय में श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान सुपत्यारूपान होता है। वे प्राणी भी कहे जाते हैं और त्रस भी कहे जाते हैं। अतएव यह कहना न्याययुक्त नहीं है कि श्रावक का प्रत्याख्यान त्रसजीवों के अभाव के कारण निर्विषय है। સફળ થાય છે. તેઓ પ્રાણી પણ કહેવાય છે. અને ત્રસ પણ કહેવાય છે. શ્રમણોપાસક તેઓની હિંસા કરતા નથી. તેથી જ શ્રમ પાસકનું પ્રત્યાખ્યાન નિર્વિષય છે, તેમ કહેવું તે ન્યાવયુક્ત નથી. ત્યાં સમીપના દેશમાં જે સ્થાવર પ્રાણી છે. જેના સંબંધમાં શ્રાવકે પિતાના જીવનમાં અર્થદંડને ત્યાગ કરેલ નથી. અને અનર્થદંડને ત્યાગ કરેલ છે. તેઓ જ્યારે પિતાનું આયુષ્ય સમાપ્ત કરીને સમીપના દેશમાં રહેલ ત્રસ પ્રાણિ પણથી કે જેને દંડ દેવાનું શ્રાવકે વ્રતપ્રહણ ના સમયથી લઈને જીવન પર્યત ત્યાગ કરેલ છે. તેમાં ઉત્પન્ન થાય છે. તે તેમના સંબંધમાં શ્રમપાસકનું પ્રત્યાખ્યાન સુ પ્રત્યાખ્યાન કહેવાય છે. તેઓ પ્રાણ પણ કહેવાય છે. અને ત્રસ પણ કહેવાય છે. તેથી શ્રાવકનું પ્રત્યાખ્યાન ત્રસજીના અભાવના કારણે નિર્વિષય છે, તેમ કહેવું તે ન્યાય યુક્ત નથી. For Private And Personal Use Only Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी रोका दि. शु. अ.७ गौतमस्य देशविरति धर्मादिसमर्थनम् ७६९ गस्स सुपच्चक्खायं भवई येषु श्रमणोपासकस्य सुपत्याख्यानं भवति । 'ते पाणा वि जाव' ते पाणा अप्युच्यन्ते सा अपि यावत् । 'अयं पि भेदे से णो णेयाउप भवई' अयमपि भेदः स नो नैयायिको भवति इति । 'तस्य' तत्र 'जे ते आरेणं' पे ते आराम-समीचे स्थिताः, 'जे थावरा पाणा' ये स्थावराः माणाः 'जेहिं समगोवासगस्स अट्टाए दंडे अणिक्खिसे' येषु श्रपणोपासस्य अर्थाय-प्रयोजनं समः दिश्य दण्डो न निक्षिप्तः। 'अणडाए णिविखसे' अनर्थाय-प्रयोजनं विना तु दण्ड परित्यक्तः। 'ते तो आउं विपजहंति' ते-स्थावरा जीवनदायु विपनातिपरित्यजनि। 'विप्पजहिता ते' चिमहाय ते 'तस्य आरेणं जे यावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स' तत्राऽऽराद् ये स्थावराः प्राणाः येषु श्रमणोपासकस्य 'अट्ठाए' अर्थाय-प्रयोजनमुद्दिश्य 'दंडे अणिक्खित्ते' दण्डोऽनिक्षिप्तः 'अणटाए णिक्खितें' अनर्थाय दण्डो निक्षिप्तः 'तेसु पच्चायति' तेषु प्रत्यायान्ति 'तेहि समणोवासगस्त अट्टाए दंडे अणिक्खित्ते' तेषु श्रमणोपासकस्याऽर्थाय दण्डोऽनिक्षिप्तः-न परित्यक्ता, अनर्थाय च परित्यक्तः। ते पाणा वि जाव' ते पाणा अप्युच्यन्ते, ते असा अपि । 'अयं पि भेदे से णो णेयाउए भवई' अयमपि भेदः स नो नैयायिको वहां समीप देश में जो स्थावर प्राणी है, जिनकी श्रमणोपासक ने प्रयोजनवश हिंसा का त्याग नहीं किया है, किन्तु निष्प्रयोजन हिंसा का त्याग कर दिया है, वे जीव जब अपनी आयु को त्याग कर वहां जो समीपवर्ती स्थावर प्राणियों में, जिनको प्रयोजनवश हिंसा करना श्रावक ने नहीं त्यागा है किन्तु निष्प्रयोजन हिंसा का त्याग कर दिया है, उनमें उत्पन्न होते हैं उनको श्रावक प्रयोजनवश दण्ड देता है, विना प्रयोजन दण्ड नहीं देता है, अतः श्रावक का प्रत्याख्यान निर्विषय है, ऐसा कहना न्याय संगत नहीं है। वहां जो समीप प्रदेश में स्थावर प्राणी हैं, जिन्हें श्रावक ने अर्थ- ત્યાં સમીપના દેશમાં જે સ્થાવરપ્રાણી છે, કે જેની હિંસાને શ્રમણોપાસકે પ્રજનવશ ત્યાગ કરેલ નથી પરંતુ નિપ્રયજન હિંસાનો ત્યાગ કરેલ છે તે જીવ જ્યારે પોતાના આયુષ્યને ત્યાગ કરીને ત્યાં જે નજીકમાં રહેલા સ્થાવર વિ છે. કે જેની પ્રયજન વશ હિંસા કરવાને શ્રાવકે ત્યાગ કરેલ નથી. પરંતુ પ્રયજન વિનાની હિંસાનો ત્યાગ કરેલ છે. તેઓમાં ઉત્પન્ન થાય છે. તેને શ્રાવક પ્રયજન વશ દંડ આપે છે. પ્રયજન વિના દંડદેતા નથી તેથી શ્રાવકનું પ્રત્યાખ્યાન નિવિષય છે, તેમ કહેવું તે ન્યાયયુક્ત નથી. ત્યાં જે નજીકના પ્રદેશમાં થાવર પ્રાણી છે કે જેને શ્રાવકે અર્થ લંડ सु. ९७ For Private And Personal Use Only Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सबकताव भवति भावकस्य पतिशा न निर्विषयेति भावः। 'सत्य' तत्र 'जे ते आरेणं थावरा पाणा' ये ते आराव-समीपे स्थापराः प्राणा: 'जेहि समणीवासगस्स' येषु श्रम जोपासकस्य 'अट्ठाए दंडे अणिक्खित्ते अगट्ठाए गिक्वित्ते' अर्थाय दण्डोऽनितिः म त्यक्तः अनर्थाय निक्षिप्तः त्यक्तः 'ते तओ आउ विपजहंति' ते ततः आयु पिजाति 'विप्पजहित्ता' विहाय तस्य तत्र 'परेण' परेण 'जे तसथारा पाणा' ये घसस्थावराः प्राणा: 'जेहि समणोधासगरस आयाणसो आमरणंताए' येषु श्रमणोपासकस्यादानश आमरणतान्ता य दण्डोनिक्षिप्त:, 'तेसु पच्चायति' तेषु प्रत्यायान्ति । 'तेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवई' तेषु श्रमणोपासकस्य सुपत्याख्यानं भवति । 'ते पाणा वि जाव' ते प्राणा अपि यावत् 'अयं पि भेदे से गो याउए भवई' अयमपि भेदः स नो नैयायिको भवति । तथा च श्रावकरय मुपत्याख्यान न निर्विषयकमिति। . 'तत्थ जे ते परेणं तसथावरा पागा' तत्र ये ते परेण त्रसस्थावराः प्राणाः जीवाः, 'जेहिं समणोवासगरम आयाणसो आमरणताए' येषु श्रमणोपासकस्य आदानश आमरणान्ताय दण्डो निक्षिप्तः, श्रावकद्वारा गृहीत देशातिरिक्तदेशे दंड देना नहीं त्यागा है, किन्तु अनर्थदंड देना त्यागा है, वे जब अपनी आयु को त्याग कर दूर देश में जो त्रस स्थावर प्राणी हैं, श्रावक ने व्रत ग्रहण के समय से जीवनपर्यन्त जिनकी हिंसा का त्याग कर दिया है, उनमें उत्पन्न होते हैं तो श्रावक का प्रत्याख्यान सुपस्याख्यान होता है। वे प्राणी भी कहलाते हैं, उस भी कहलाते हैं अतएव श्रावक के प्रत्याख्यान को निर्विषय कहना न्याययुक्त नहीं है। वहां दूर देश में अर्थात् श्रावक के द्वारा नियत किये हुए देश परिमाण से बाहर जो अस और स्थावर प्राणी हैं, व्रत ग्रहण से लेकर जीवनपपर्यन्त श्रावक ने जिनकी हिंसा त्याग दी है, वे प्राणी जय દેવાનો ત્યાગ કરેલ નથી. પરંતુ અનર્થ દંડ દેવાને ત્યાગ કરેલ છે. તેઓ જ્યારે પિતાના આયુષ્યને ત્યાગ કરીને ફરદેશમાં જે ત્રસ અને સ્થાવર પ્રાણી છે. અને શ્રાવકે વ્રત ગ્રહના સમયથી જીવન પર્યન્ત જેની હિંસાને ત્યાગ કરેલ છે, તેમાં ઉત્પન્ન થાય છે. તે શ્રાવકનું સુપ્રત્યાખ્યાન હોય છે. તેઓ પ્રાણી પણ કહેવાય છે. ત્રસ પણ કહેવાય છે. તેથી જ શ્રાવકના પ્રત્યાખ્યાન ને નિર્વિષય કહેવું તે ન્યાયયુક્ત નથી. ત્યાં દૂર દેશમાં અર્થાત્ શ્રાવક દ્વારા નિયત કરવામાં આવેલ દેશપરિમાણથી બહાર જે ત્રસ અને સ્થાવર પ્રાણી છે વ્રતગ્રહણથી લઈને જીવન પર્યંત શ્રાવકે જેઓની હિંસાને ત્યાગ કરેલ છે. તે પ્રાણી જ્યારે પિતાના આયુષ્યને For Private And Personal Use Only Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ७ गौतमस्य देशविरति धर्मादिसमर्थनम् ७७१ समुत्पन्ना जावाः-यद्विषये श्रावकेण दण्डदानं न गृहीतम् । 'ते तो आविप्प जहंति' ते जीवा स्तत आयु निहति 'विप्पन हित्ता' विप्रहाय-परित्यज्य 'तत्थ आरेणं जे तसा पाणा' तत्र आरात्-ये त्रसाः प्राणाः 'जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए०' येषु श्रमणोपासकस्य आदानशः व्रतग्रहणकालादारभ्य मरणपर्यन्तं दण्डः परित्यक्तः । 'तेहिं पच्चायति' तेषु प्रत्यायाति 'तेहि समणोवासगस्स' तेषु श्रमणोपासकस्य 'मुपञ्चरवायं भवई' सुपत्याख्यानं भवति, 'ते पाणा वि जाव' ते प्राणा अपि त्रमा अप्युच्यन्ते 'अयं पि भेदे से णो णेयाउए भवई' अयमपि भेदः स नो नैयायिको भवति । तद्विषये कृतं प्रत्याख्यानं श्रावकस्य नाऽसङ्गतं भवति, किन्तु-न्यायसङ्गतमेवेति भावः। 'तत्य जे ते परेणं तस थावरा पाणा' तत्र ये ते परेण सस्थावराः प्राणाः श्रावकव्रतगृहीतदेशपरिणामतो. ऽन्यदेशे विद्यमानाः 'जेहि समणोबासगस्स आमरणंताए' येषु श्रमणोपासकस्य पादानश आमरणान्ताय दण्डो निक्षिप्त:-त्यक्तः 'ते तो आविष्पजहंति' ते जीवा स्तत आयुर्विमनहति-त्यजन्ति, 'विप्पनहित्ता तत्थ आरेणं जे थावरा अपनी आयु का त्याग करके श्रावक द्वारा ग्रहण किये हुए देश परि. णाम के अन्दर स्थित इस प्राणी के रूप में उत्पन्न होते हैं, जिनको श्रावक दंड देना त्याग दिया है, तब उन जीवों के विषय में श्रावक का प्रत्याख्यान सुप्रत्यारूपान होता है। वे प्राणी भी कहलाते है और प्रस भी कहलाते हैं अतएव श्रावक के प्रत्याख्यान को निर्विषय कहना न्याय युक्त नहीं है। वहां जो त्रस और स्थावर प्राणी श्रमणोपासक के द्वारा ग्रहण किये हुए देश परिमाण से भिन्न देश में विद्यमान हैं, जिनको श्रमणोपासक ने व्रतारंभ से लेकर मृत्युपर्यन्त दंड देना त्याग दिया है, वे उस आयु का परित्याग कर देते हैं और समीपवर्ती स्थावर प्राणी के ત્યાગ કરીને શ્રાવક દ્વારા ગ્રહણ કરવામાં આવેલ દેશ પરિમાણની અંદર રહેલ ત્રસ પ્રાણીપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. જેને શ્રાવકે દંડ દેવાનો ત્યાગ કરેલ છે. ત્યારે તે જીના સંબંધમાં શ્રાવકનું પ્રત્યાખ્યાન સુપ્રત્યાખ્યાન હોય છે તેઓ પ્રાણી પણ કહેવાય છે. અને ત્રસ પણ કહેવાય છે. તેથી જ શ્રાવકના પ્રત્યાખ્યાનને નિર્વિષય કહેવું તે ન્યાય યુક્ત નથી. ત્યાં જે ત્રસ અને સ્થાવર પ્રાણી શ્રમણે પાસક દ્વારા ગ્રહણુકરેલ દેશ પરિણામથી જુદા દેશમાં રહેલા છે, જેમને શ્રમ પાસકે વ્રતારંભથી લઈને મૃત્યુ પર્યન્ત દંડ દેવાને ત્યાગ કરેલ છે, તેઓ એ આયુષ્યને ત્યાગ કરી દે છે, અને સમીપમાં રહેલા સ્થાવર પ્રાણપણામાં કે જેને શ્રાવકે અર્થદંડ For Private And Personal Use Only Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७७२ सत्रकृतास्त्रे पाणा' विप्रहाय तत्र आराद् ये स्थावराः माणाः 'जेहि समणोवासगस्स' येषु श्रमणोपासकस्य 'अट्ठाए दंडे अणि क्वित्ते' अर्थाय दण्डोऽनिक्षिप्तः 'अणहार णिक्खित्तें' अनर्थाय दण्डो निक्षिप्तः 'तेसु पञ्चायति' तेषु प्रत्यायान्ति-आगच्छन्ति ते जीवास्त्रमा भूतपूर्वाः 'जेहि समणोबासगस्स अवाए दंडे अणिखित्ते अगवाए णिक्खित्ते' येषु श्रमणोपासकस्याऽर्थाय दण्डोऽनिक्षिप्तोऽनर्याय दण्डो निक्षिप्तः, 'जाव ते पाणा वि जाव' याव ते माणा अपि उच्यन्ते त्रसा अपि यावत् 'अयं पि भेदे से णो णेयाउए भवई' अयमपि भेदः स नो नैयायिको भवति, अतः श्रावकस्य प्रत्याख्यानं नाऽसङ्गतमिति । 'तत्य जे ते परेणं तस थावरा पाणा' तत्र ये ते परेण सस्थावराः माणाः 'जेहिं समणोवासगस्स आयागसो आमरणंताए' येषु श्रमणोपासकस्यादानश आमरणान्ताय दीक्षाग्रहणमवधीकृत्य स्याद् यावन्मरणं देशावकाशिषु जीवकायेषु दण्डः परिहतः। 'ते तमो आउं विपनहति' ते तत आयुर्विमजहति त्यजन्ति, 'विपजहिता ते विहाय ते 'तत्थ परेणं चेव तसा थावरा पाणा' तत्र परेण चैत्र ये त्रमाः स्थावराश्य प्राणिनः 'जेहिं समणोवासगस्स' रूप में, जिनको श्रावक ने दंड देना नहीं छोड़ा है किन्तु अनर्थ दंड देना छोड दिया है, उनमें वे जन्म लेते हैं, श्रावक उनको निरर्थक दंड नहीं देता है। वे प्राणी भी कहलाते हैं और त्रस भी कहलाते हैं अतएव श्रावक के व्रत को निर्विषय कहना ठीक नहीं है। जो उस और स्थावर प्राणी श्रावक के द्वारा ग्रहण किये हुए देश परिमाण से भिन्न देशवर्ती हैं जिनको श्रावक ने व्रतग्रहण से लेकर मरणपर्यन्त दण्ड देना त्याग दिया है, वे उस आयु को त्याग कर श्रावक के द्वारा ग्रहण किये हुए देशपरिमाण से बाहर अन्य देश में जो त्रस और स्थावर प्राणी हैं, जिनको श्रावक ने बतग्रहण से लेकर मरणपर्यन्त दंड देना त्याग दिया है, उनमें उत्पन्न होते हैं उनमें દેવાને ત્યાગ કરેલ નથી. પરંતુ અનર્થ દંડ દેવાને ત્યાગ કરેલ છે, તેમાં તે જન્મ ધારણ કરે છે, શ્રાવક તેને નિરર્થક દંડ દેતા નથી, તેઓ પ્રાણી પણ કહેવાય છે અને ત્રસ પણ કહેવાય છે, તેથી જ શ્રાવકના વ્રતને નિર્વિષય કહેવું તે ન્યાયયુક્ત નથી. જે ત્રસ અને સ્થાવર પ્રાણી શ્રાવક દ્વારા ગ્રહણ કરેલ દેશપરિણામથી જુદા દેશમાં રહેલા છે, જેને શ્રાવકે વત ગ્રહણથી લઈને મરણપર્યંત દંડ દેવાને ત્યાગ કરેલ છે. તેઓ એ આયુષ્યને ત્યાગ કરીને શ્રાવક દ્વારા ગ્રહણ કરવામાં આવેલ દેશ પરિણામથી બહારના બીજા દેશમાં જે ત્રસ અને સ્થાવર For Private And Personal Use Only Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयांबोधिनी टीका वि.श्रु..७ गौतमस्य देशविरति धर्मादिसमर्थनम् ७७३ येषु श्रमणोपाप्तकस्य 'आयाणसो आमरणताए' आदानश आमरणान्ताय दण्डी निक्षिप्तः, 'तेमु पञ्चायति' तेषु प्रत्यायान्ति, 'जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चे. क्खायं भवई' येषु श्रमणोपासकस्य सुपत्याख्यानं भवति, 'ते पाणा वि जार' ते माणा अप्युच्यन्ते प्रसाश्च, 'अयं पि भेदे से णो णेयाउए भवई' अयमपि भेदः स नो नैयायिको भवति । 'भगवं च णं उदाहु' भगवान् गौतमस्वामी च खलु पुन. रप्याह-'ण एवं भूयं' नेतद्भुतम् , यद्भवता कथ्यते । 'ण एवं भव्वं नैवं भाव्यम् 'ण एवं भविसंति' नैवं भविष्यन्ति भवन्ति च 'जणं तसा पाणा वोच्छिज्जिहिंति यत् प्रप्ताः प्राणाः व्युच्छेत्स्यन्ति प्रसाः प्राणा व्युच्छिमा भविष्यन्ति, 'थावरा पाणा भविरसंति' स्थारा पाणाः भविष्यन्ति 'थावरा पाण। वि वोच्छि. जिनहिति तसा पाणा भविस्संति' स्थावरा अपि प्राणा: व्युच्छेत्स्यन्ति वसा भविप्यन्ति, 'अबोच्छिन्नेहिं तसथावरेहिं पाणेहि अव्युच्छिन्नेषु प्रसस्थावरेषु पाणेषु 'जण्णं तुम्भे वा अन्नो वा' यत् खलु यूयं वा अन्यो वा 'एवं वदह' एवं वदय 'पस्थि णं से केर परियाए' नास्ति खलु स कोऽपि पर्यायः यत्र श्रावकमल्याख्यानं सफलं श्रावक का प्रत्याख्यान सुपस्याख्यान होता है । अतएव श्रावक का प्रत्याख्यान निविषय है, ऐसा कहना न्याय संगत नहीं हैं। भगवान् गौतम ने कहा-ऐसा कभी हुआ नहीं है ऐसा कभी होगा नहीं और वर्तमान में होता भी नहीं है कि इस संसार में त्रस जीवों का विच्छेद हो जाय अर्थात् कोई त्रस प्रागी ही नहीं रहे और संसार के समस्त प्राणी स्थावर ही हो जाएं ! अथवा स्थावर जीवों का विच्छेद हो जाय और सब के सब प्रम प्राणी ही रह जाएं ! जब बस और स्थावर दोनों का ही सर्वथा विच्छेद नहीं होता तो यह कथन युक्तिसंगत नहीं है कि ऐसा कोई पर्याय ही नहीं है जहां श्रावक का પ્રાણી છે, જેને શ્રાવકે વ્રત ગ્રહણથી લઈને મરણપયન્ત દંડદેવાને ત્યાગ કરેલ છે. તેમાં ઉત્પન્ન થાય છે. તેથી જ શ્રાવકનું પ્રત્યાખ્યાન સુપ્રત્યાખ્યાન કહેવાય છે. તેથી જ શ્રાવકનું પ્રત્યાખ્યાન નિર્વિષય છે, તેમ કહેવું તે ન્યાયયુક્ત નથી. - ભગવાન ગૌતમ સ્વામી એ કહયું-આમ કયારે ય થયું નથી આમ ક્યારેય થશે નહીં અને વર્તમાનમાં થતું પણ નથી કે-આ સંસારમાં ત્રણ જી ને વિછેર થઈ જાય અર્થાત કેઈત્રસ પ્રાણી જ ન રહે, અને સંસાર ના બધા જ પ્રણ સ્થાવર જ હોય, અથવા સ્થાવર જીવને વિચ્છેદ થાય, અને બધા ત્રસ પ્રાણિજ રહી જાય. જ્યારે ત્રસ અને સ્થાવર બને ને જ સર્વથા વિચ્છેદ થતું નથી, તે આપનું આ કથન યુક્તિયુક્ત નથી. કે For Private And Personal Use Only Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७७४ सूत्रकृतीकास्त्र भवेदिति । ‘से णो णेयाउए भवई' स नो नैयायिको भवति, सत्सु सस्थावरजीवेषु कर्थ न श्रावकस्य प्रत्यारानं सफलम् अपि तु सफलमेव ॥मू० १३॥८॥ अथोपसंहारमाह मूलम्-भगवं च णं उदाहु आउसंतो! उदगा! जे खलु समणं वा माहणं वा परिभासेइ मित्तिं मन्नइ, आगमित्ता णाणं आगमित्ता दंसणं आगमित्ता चरित्तं पावाणं कम्माणं अकरणयाए से खलु परलोगपलिमंथत्ताए चिटइ, जे खलु समणे वा माहणं वा णो परिभासइ मितिं मन्नइ आगमित्ता गाणं आगमित्ता दंसणं आगमित्ता चरित्तं पावाणं कम्माणं अकरणयाए से खलु परलोगविसुद्धीए चिटइ, तए णं से उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयमं अणाढायमाणे जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसिं पहारेत्थ गमगाए । भगवं च णं उदाह आउ. संतो उदगा! जे खलु तहाभूयस्स समणस्त वा. माहणस्स का अंतिए एगमवि आरियं धम्मियं सुवयणं सोचा निसम्म अप्पणो चेव सुहुमाए पडिलेहाए अणुत्तरं जोगखेमपयं लंभिए समाणो सो वि ताव तं आढाइ परिजाणेइ वंदइ नमसइ सकारेइ संमाणेइ जाव कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासइ । तरफ से उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयमं एवं वयासी-एएसि णं भंते ! पयाणं पुर्वि अन्नाणयाए असवणयाए अबोहिए अणभिगमणं प्रत्याख्यान सफल हो! जब बस और स्थावर दोनों जीवराशियां सदैव रहती हैं तो श्रावक का प्रत्याख्यान निष्फल नहीं हो सकता अर्थात् सफल होता है ॥१३॥ એવાકઈ પર્યાય જ નથી. કે જ્યાં શ્રાવકનું પ્રત્યાખ્યાન સફળ થાય, જ્યારે ત્રસ અને સ્થાવર અને જીવરાશ હમેશાં રહે છે. તે શ્રાવકનું પ્રત્યાખ્યાન નિષ્ફળ થઈ શકતું નથી. અર્થાત્ સફળ થાય છે. તેમ સમજવું ૨૩ For Private And Personal Use Only Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयाबोधिनी रीका दि. मु. अ.७ ग्रन्थोपसंहारः अदिट्राणं असुयाणं अमुयाणं अविन्नायाणं अव्वोगडाणं अणिगूढाणं अविच्छिन्नाणं अणिसिहाणं अणिबूढाणं अणुवहारियाणं एयमढे णो सदहियं णो पत्तियं णो रोइयं, एएसिणे भंते ! पयाणं एहि जाणयाए सवणयाए बोहिए जाव उवहारणयाए एयमटुं सदहामि पत्तियामि रोएमि एवमेव से जहेयं तुझे बदह। तए णं भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं क्यासी सदहाहि णं अज्जो ! पत्तियाहि णं अज्जो ! रोएहि णं अनो! एवमयं जहा णं अम्हे वयामो, तए णं से उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयमं एवं वयासी-इच्छामि णं भंते ! तुभं अंतिए चाउज्जामाओ धम्माओ पंचमहत्वइयं सपडिकमणं धम्म उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए । तए णं से भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं गहाय जेणेव समणे भगवं महावीर तेणेव उवागच्छड, उवागच्छित्ता तए णं से उदए पेढालपुत्ते समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करित्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासीइच्छामि णं भंते ! तुम्भं अंतिये चाउज्जामाओ धम्माओ पंचमहव्वइयं सपडिकमणं धम्मं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, तए णं समणे भगवं महावीरं उदयं एवं वयासी-अहा सुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेहि, तए णं से उदए पेढालपुत्ते समणस्त भगवओ महावीरस्स अंतिए चाउज्जामाओ धम्माओ पंचमहत्वइयं सपडिक्कमणं धम्म उवसंपजित्ता णं विहरइ त्तिबेमि॥सू.१४।८१॥ ॥ इति नालंदइज्जं सत्तमं अज्झयणं समत्तं ॥ ॥ सूयगडांग वीयसुयक्खंधो समत्तो॥ For Private And Personal Use Only Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ७७६ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे छाया --- भगवांश्च खलु उदाह आयुष्मन् उदक । यः खलु श्रमणं वा माहनं या परिभाषते मैत्रीं मन्यते, आगम्य ज्ञानम् आगम्य दर्शनम् आगम्य चारित्रे पापानां कर्मणामकरणाय स खलु परलोकमभ्यनाय तिष्ठति । यः खलु श्रमर्ण मानं वा न परिभाषते मैत्रीं मन्यते बगथ्य ज्ञानम् आगम्य दर्शनम् आगभ्य चारित्रं पापानां कर्मणामकरणाय स खलु परलोकविशुया विष्ठति, ततः खलु स उदकः पेालपुत्र भगवन्तं गौतममनादियमाणः यस्या एव दिशः प्रदुर्भूतः तामेव दिशे प्रधारितवान् गमनाय | मगध खलु उदाह-आयुष्मन् उदक ! यः खलु तथाभूतस्य भ्रमणस्य वा माहनस् वा अन्तिके एकमपि आर्ये धार्मिकं सुत्रचनं श्रुत्वा निशम्य आत्मनश्चैव सूक्ष्मया प्रत्युपेक्ष्य अनुत्तरं योगक्षेमपदं लम्भितः सन् सोऽपि तावत् तमाद्रियते परिजानाति, वन्दते नमस्यति सरकार यति संमानयति यावत् कल्याणं मङ्गलं देवतं सत्यं पर्युपास्ते । ततः खलु स उदकः पेढालपुत्रः भगवन्तं गौतममेवमवादीत् । एतेषां खलु भदन्त ! पदानां पूर्वमज्ञानाद् अश्रवणतयाऽबोध्याऽनभिगमेन अदृष्टानामश्रुतानामस्मृतानामविज्ञातानामव्युत्कृतानामनिगूढानामविच्छिन्नानामनिसृष्टाना - म निर्व्यूढानामनुपधारितानामेवोऽर्थो न श्रद्धितः न मतीतः न रोचितः एतेषां खलु मदन्त ? पदानामिदानीं ज्ञाततया श्रवणतया बोध्या यावदुपधारणतया एतमर्थ श्रद्दधामि प्रस्येमि रोचयामि एवमेव तद्यथा यूयं वदथ । ततः खलु भगवान् गौतम उदकं पेढाळ पुत्रमेवमवादीत् श्रवत्स्व खलु अर्य ! प्रतीहि खलु आर्य ! रोचय खलु आये ! एवमेतद् यथा खलु वयं वदामः । ततः खलु स उदकः पेलपुत्रः भगवन्तं गौतममेवमवादीत् इच्छामि खलु मदन्त । युष्माकमन्तिके चातुर्यामाद्धर्मात् पञ्चमहाव्रतिकं सप्रतिक्रमणं धर्ममुपसम्पद्य खलु विहर्तुम् । ततः खलु भगवान् गौतम उदकं पेढालपुत्रं गृहीत्वा यत्रैत्र श्रमणो भगवान् महावीर स्तत्रैव उपागच्छति । उपागस्य ततः खलु स उदकः पेढालपुत्रः श्रमणं भगवतं महावीरं त्रिःकृत्वः आदक्षिणां प्रदक्षिणां कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादीत् इच्छामि खलु भदन्त ! तवान्तिके चतुर्यामाद्धर्मात् पञ्च महाव्रतिकं समतिक्रमणं धर्ममुपसंपद्य खलु विहर्तुम् ततः खलु श्रमणो भगवान् महावीर उदकमेवमवादीत् यथासुखं देवानुप्रिय मा प्रतिबन्धं कुरु ततः खलु स उदकः पेढालपुत्रः श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अन्तिके चतुर्यामाद्धर्मात् पश्च महाविकं प्रतिक्रमणं धर्ममुपसंपद्य खलु विहरतीति ब्रवीमि ॥०१४-८१ ॥ ॥ इति नालन्दाख्यं सप्तमम् अध्ययनं समाप्तम् || सूत्रकृताङ्गसूत्रस्य द्वितीय श्रुतस्कन्धः समाप्तः ॥ २७ ॥ • For Private And Personal Use Only Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७७७ ----- ---- - - समयार्थबोधिनी रीका द्वि.श्रु. म. ७ ग्रन्थोपसंहार टीका--'भगवं च णं उदाहु' भगवांश्च खलु उदाह-'आउसंतो उदगा!' आयु. ज्मन् उदक ! 'जे खलु समणं वा माहणं वा परिभासेई' यः कुबुद्धिः पुरुषः श्रमण चा माहनं वा श्रुतचारित्रादिनियमधरं साधुं परिभाषते-निन्दति, स मन्दमतिः 'मिति मनई' साधुभिः सह मैत्री मन्यते 'आगमित्ता णाणं' आगम्य पाप्य ज्ञानम्मानवानपीत्यर्थः, 'आगमित्ता दसण' भागम्य-माप्यापि दर्शनम् 'आगमित्ता चरित' आगम्य चारित्रम् 'पावाणं कमाणे अकरणयगए' पापानां कर्मणामकरणायपापकर्मणां विनाशाय प्रवृत्तोऽपि, किन्तु-से खल्लु परलोगपलिमंयत्ताए चिट्टा' से खलु परलोकपरिमन्थनाय तिष्ठति, स परलोक सम्बन्धिनी मुगति विनाशयतीति यावत् । 'जे खलु समणं वा माहणं वा णो परिभासेई' या खलु पुरुषविशेष: श्रमणं वा माहनं वा न परिभाषते-न निन्दति । अपि तु-'मित्तिं मन्नइ' मैत्री मन्यते-साधुना सह मैत्रीभावनां करोति । स खलु पुरुषः, तथा-'णाणं आगमित्ता' ज्ञानमागम्य-लब्ध्वा 'दसणं आगमित्ता' दर्शनमागम्य 'चरित्तमागमित्ता' चामित्रमागम्य-माप्य 'पावाणं कम्माण' पापानां कुत्सितानां कर्मणाम् 'अकरणयाए' अकरणतायै-विनाशाय प्रवृत्तः सन 'परलोगविसुद्धीए' परलोकविशुद्धया तिष्ठति । 'भगवंच णं उदाहु' इत्यादि । टीकार्थ-भगवान् गौतम स्वामीने कहा-हे आयुष्मन् उदक ! जो पुरुष श्रुत और चारित्र के धारक श्रमण या माहन की निन्दा करता है, वह साधुओं के प्रति मैत्री रखता हुआ भी, एवं ज्ञानदर्शन और चारित्र को प्राप्त करके भी तथा पाप कर्मों को न करने के लिए यत्नशील होने पर भी अपने परलोक का विनाश करता है-पारलौकिक सुगति को नष्ट करता है। किन्तु जो पुरुष श्रमण या माहन की निन्दा नहीं करता है, किन्तु मैत्रीभावना करता हैं, वह ज्ञान दर्शन और चारित्र को प्राप्त करके तथा पापकर्मों को न करने के 'भगवं च णं उदाहु' त्यादि ટકાર્ય–ભગવાન ગૌતમ સ્વામી એ કહયું- આયુમ્ન ઉક! જે પુરૂષ શ્રતચારિત્રને ધારણ કરવાવાળા શ્રમણ અથવા માહનની નિંદા કરે છે. તે સાધુઓની સાથે મૈત્રી રાખવા છતાં પણ જ્ઞાનદર્શન અને ચારિત્રને પ્રાપ્ત કરીને પણ તથા પાપકર્મને ન કરવા માટે યતનશીલ હોવા છતાં પણ પિતાના -પરલેક ને વિનાશ કરે છે પરક સંબંધી સુગતિ ને નાશ કરે છે. પરંત જે પુરૂષ શ્રમણ અથવા માહનની નીંદા કરતા નથી. પરંતુ મૈત્રીભાવ રાખે છે. તે જ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્ર ને પ્રાપ્ત કરીને તથા પાપકર્મ ને ન કરવા For Private And Personal Use Only Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साधोः समर्थकः पुरुषः परलोकद्वारमुद्घाटयतीत्यर्थः, 'तए णं से उदए पेढाल. पुत्त' ततः खलु स उदकः पेढालपुत्र: 'भगवं गोयमं' भगवन्तं गौतमम् 'अणाढा यमाणे' अनाद्रियमाणः-'जामेव दिसं पाउन्भूए' यस्या एवं दिशः सकाशात् पादुर्भूतः 'तामेव दिसि पहारेत्थ गमणाए' तामेव दिर्श प्रधारितवान् गमनायतत्रैव गन्तुमुद्यतो जातः । 'भगवं च णं उदाहु' भगवान् पुनरपि प्रोवाचोदकम् । 'आउसंतो उदगा' आयुष्मन् उदक ! 'जे खलु सहाभूयस्स समणस्स वा माहणस्स चा अतिए एगमवि आरियं धम्मियं सुत्रयणं सोचा' या खल्नु तथाभूतस्य श्रमणस्य वा माहनस्य वा अन्तिके-समीपे-एकमपि-आर्य संसारात् तारक धार्मिक सुवचनम्-परिणामहितं शृणोति श्रुत्वा च निशम्य-हृदि विचार्य 'अपणो चेर मुहुमाए पडिलेहाए' आत्मनश्चैव सूक्ष्मया बुदया प्रत्युपेक्ष्य सम्यगनुविचि. न्त्य 'अणुत्तरं जोगखेमपय लंभिए' अनुत्तरं सर्वातिशायि योगक्षेमपदं कल्याणकर पदं लम्भितः प्राप्तवान् ‘सो वि ताव तं आढाइ परिजाणे' सोऽपि तावत् तम् आद्रियते-विशेषन आदरं करोति परिजानाति, स तस्योपदेष्टुगदरं करोति, लिए उद्यत होकर परलोक की विशुद्धि करता है, अर्थात् साधु का समर्थक पुरुष परलोक संबंधी हित का द्वार उघाड़ता है। गौतम स्वामी का यह कथन सुनने के पश्चात् उदक पेढालपुत्र भगवान् श्री गौतम स्वामी का आदर न करता हुआ जिस ओर से आया था, उसी ओर जाने को उद्यत हुआ। उस समय गौतमस्वामी ने उदक से कहा-आयुष्मन् उदक ! जो पुरुष तथाभूत श्रमण या माहन के समीप संसार से तारने वाला एक भी परिणाम में हितकर सुव. चन सुनकर और उसे हृदय में धारण करके तथा अपनी सूक्ष्म वुद्धि से चिन्तन करके सर्वोत्तम कल्याणकारी मार्ग को प्राप्त होता है वह भी उस श्रमण-माहन का आदर करता है, विशेष रूप से आदर માટે ઉઘત થઈ ને પરલોકની વિશુદ્ધિ કરે છે. અર્થાત્ સાધુના સમર્થક પુરૂષ પાક સંબંધી હિતનું દ્વાર ઉઘાડે છે. શ્રી ગૌતમસ્વામીનું સવાદ નય નિક્ષેપ પુરઃસરનું આ કથન સાંભળીને ઉદક ઢિાલપુત્ર ભગવાન શ્રી ગૌતમસ્વામીને આદર કર્યા વિના જે દિશાએથી આવ્યા હતા તે તરફ જવા લાગ્યા, તે સમયે ભગવાન શ્રી ગૌતમ સ્વામીએ ઉદક પેઢાલપુત્રને કહયું કે–હે આયુશ્મન ઉદક ! જે પુરૂષ તેવા પ્રકારના શ્રમણું અથવા માહનની સમીપે સંસારથી તારવાવાળા એક પણ પરિણામે હિતકર સવચન સાંભળીને અને હદયમાં તેને ધારણ કરીને તથા પિતાની સૂક્ષ્મ બુદ્ધિથી સમ્યક પ્રકારે વિચારીને સર્વોત્તમ કલ્યાણકારી માર્ગને પ્રાપ્ત કરે છે. તે પણ For Private And Personal Use Only Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबाधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.७ ग्रन्थोपसंहारः ७७९ 'वंदइ नमसई' वन्दते नमस्करोति 'सकारेइ' सत्करोति संपणेई' संपन्यते 'कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासइ' कल्याणं मङ्गलं दैवतं चैत्यं पर्युपास्ते, वन्दते-वाचा स्तौति, नमस्पति कायेन नम्री भवति, सत्करोति अभ्युत्थानादिना, संमानयति-वस्त्रभक्तादिना, वन्दित्वा नमस्यित्वा सत्कृत्य संमान्य कल्याणं, कल्यो मोक्षः कर्मजनितसकळोपाधिरहितत्वात् तम् आनयति प्रापयति इति कल्याणं, मङ्गलम्-म-भवसम्बन्धि बन्धनं गालयति-नाशयति इति मङ्गलम्, दैवतं धर्मदेवमित्यर्थः, चैत्यं चितिः-सम्यग्ज्ञानं तदेव चैत्यम् । उपदेशकं सम्यक्सेशं करोति 'तए णं से उदए पेढाल युत्ते' तत स्तदनन्तरं गौतमस्वामिनः प्रवचना. नन्तरम्-खलु स उदकः-पेढालपुत्रो मुनिः 'भगवं गोयमं एवं वयासी' भगवन्तं गौतममेवं-वक्ष्यमाणं वचनमवादीत् । 'भंते' भदन्त ! एएसि पयाण' एतेषां भवदुक्तपदानां वचनानाम् 'पुब्धि अन्नाणयार' पूर्वमज्ञानतया 'असवणयाए' अश्रवणतया करता है। वह उसकी वन्दना (स्तुति) करता है, नमस्कार करता है, सत्कार करता है, सम्मान करता है, उसको कल्याण, मंगल, देव स्वरूप और (चेत्यं) ज्ञानरूप मानकर उसकी उपासना करता है। कर्म जानित समस्त उपाधियों से रहित होने के कारण मोक्ष को कल्य कहते हैं। उस कल्य अर्थात् मोक्ष को जो प्राप्त करता है, वह 'कल्याण' कहलाता है । मं अर्थात् संसार संबंधी बन्धन, उसे जो गला दे-नष्ट करदे वह मंगल कहा जाता है। दैवत का अर्थ है धर्म देव । चिति या चैत्य सम्यग्ज्ञान को कहते हैं । श्रीगौतमस्वामी के इस प्रवचन को सुनकर उदक पेढाल पुत्र ने भगवान् श्रीगौतम से इस प्रकार कहा-भगवन् ! आपके कहे हुए इन " એ શ્રમણ-મહનને આદર કરે છે. વિશેષરૂપે આદર કરે છે. તે તેમની ना (स्तुति) 3रे छे. नभ२४६२ ४३ छे. सा२ ४२ छे. सन्मान रे छे. तभने ४८या, भग, द्वेव ११३५ भने 'चेइयं ज्ञान३५ भानान तमनी ઉપાસનાકરે છે. કર્મબંધથી થવાવાળી સઘળી આવ્યાધી અને ઉપાધીથી રહિત હોવાથી મોક્ષને કહ્યું કહે છે. કલ્ય અર્થાત્ મોક્ષને જે પ્રાપ્ત કરે છે. તે કલ્યાણું કહેવાય છે. હું અર્થાત્ સંસાર સંબંધી બંધનને ગાળી દે. અર્થાત મારા પણાનો નાશ કરે તે મંગળ કહેવાય છે. દૈવતને અર્થ ધર્મ એ પ્રમાણે છે. ચિતિ અથવા ચૈત્ય સમ્યક્ જ્ઞાનને કહે છે, ' ગૌતમસ્વામીના આ પ્રવચનને સાંભળીને ઉઠક પઢાલપુત્રે ભગવાન ગૌતમસ્વામીને આ પ્રમાણે કહયું- હે ભગવન્ આપે કહેલ આ પદો વચને For Private And Personal Use Only Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७८० सूत्रकृताहर एतेषां पदानामियानर्थों मया पूर्व न ज्ञातः न श्रुत आसीत्। 'अबोहिए अणभिगमेंण' अबोध्याऽअभिगमेन न वा पूर्व हृदयङ्गमं कृतमेतत् ‘अदिट्ठाणं असुयाणं अभुयाणं' अदृष्टानामश्रुताना मरमानाम् 'अविन्नायाणं' अविज्ञातानाम् अयोगडाणं' अव्युत्कृतानाम्, 'अणिगूढाणं' अनिगूढानाम् 'अविच्छिनाणं' अविच्छिन्नानाम्, -असंशयज्ञानरहितानाम् 'अणिसिहाणं' अनिसृष्टानाम्, अदृष्टानां साक्षात्स्वयमनुपलब्धानाम्, अश्रुतानामन्यद्वारा अनाकर्णितानाम्, अस्मृतानाम्-अनुभवजन्यसंस्काराभावात्, अविज्ञातानां विशिष्टबोधाविषयीकृतानाम्, अव्युत्कृतानां गुरुमुखा. दमाप्तानाम् अनिगूढानाम् अपकटानां-प्रकटरूपेण अज्ञातानाम, अविच्छिन्नानां विपक्षादव्यावृत्तानाम्-अनमिमतादाद् व्यावृत्तिरहितानाम् संशयराहित्येन अज्ञा. तानामित्यर्थः, अनियूढानां सुखावबोधाय महतो ग्रन्थात् कृपया अत्यन्तसंक्षेपेण गुरुभिरनुर्धानाम्, अनिसृष्टानाम्-अननुज्ञातानाम् एतानि पदानि गुरुमुखान्न श्रुतपूर्वाणि एतानि न प्रकटायर्यानि संशयेतरज्ञान विषयाणि न, एतेषां निर्वाहो न मया कृतः एतानि हृदयेन न निश्चितानि 'अणिवुढार्ग' अनित्यू दानाम् 'अणु. वहारियाण' अनुपधारितानाम्-धारणाविषयीकृताऽभावानाम् 'एयम' अपमर्थः 'णो सदहियं न अद्धितः-अयमेव संसारतारका, इति मतम् 'यो पत्तियं' नो पदो-वचनों का यह अर्थ पहले मैंने नहीं जाना था और न सुना था। अबोधि एवं अनभिगम के कारण मैं इन्हें हृदयंगम नहीं कर सका था । न तो मैंने इन्हें स्वयं माक्षात् जाना था, न दूसरों से सुना था, अनुभव जनित संस्कार (धारणा) न होने से स्मरण नहीं किया था। वे मेरे लिए अविज्ञात थे, अप्रकट थे, संशय आदि से रहित नहीं थे, नियंढ नहीं थे अर्थात् सरलता से समझने के लिए विशाल शास्त्र में से संक्षेप करके गुरु ने कृपा पूर्वक उद्धृत नहीं किये थे। इनको मैंने हृदय में निश्चित रूप से धारण नहीं किया था। इस कारण इन पर मैंने श्रद्धा नहीं की अर्थात् इन पदों को मैंने संसारतारक नहीं माना, ને આ અર્થ પહેલા મેં જાયે ન હતું, અને સાંભળેલ ન હતે. અધિ અથવા અનભિગમનના કારણે હું તેને હૃદયંગમ કરી શકેલ ન હતું. મેં તેને સ્વયં સાક્ષાત જાણેલ ન હતું. બીજાઓ પાસેથી સાંભળેલ ન હતે. અનુભવ જનિત સંસ્કાર (ધારણું) ન હોવાથી કમરણ કરેલ ન હતું. તે મારામાટે અવિજ્ઞાત હતા. અપ્રગટ હતે. સંશય વિગેરેથી રહિત ન હતે. નિર્યું ન હતો. અર્થાત્ સરલતા થી સમજવા માટે વિશાળ શાસ્ત્રમાંથી સંક્ષેપ કરીને ગુરૂ એ કપા પૂર્વક ઉપૂત કરેલ ન હતો. તેથી તેના પર મેં વિશ્વાસ કરેલ ન હતો. અર્થાત્ આ પદેને મેં સંસાર તારક માન્યા ન હતા. તેના For Private And Personal Use Only Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबाधिनी टीका द्वि. श्रु. अ.७ ग्रन्थोपसंहारः ७८१ प्रतीतः-नो विश्वसितः ‘णो रोइयं' नो रोचितः-उत्साहातिरेकेणासेवनाभिमुखो न जातः 'भंते' हे भदन्त ! 'एएसि णं पयाणं' एतेषां खलु पदानाम् 'एण्हि' इदानीम्-भवन्मुखात् सच्छास्त्राणां शासनानन्तरम् 'जाणयाए' ज्ञानतया 'सवणाए' श्रवणतया 'बोहिए' बोधितया 'जाव उवहारणयाए' यावद् उपधारणतया-यावत्पदेन अमिगमामिस्थानादीना मत्रैव पूर्वोक्तानां सङ्ग्रहः, उपधारणतया एतानि पदानि ज्ञातानि त्वत्प्रसादेन श्रुतानीदानीम्-इदानों सम्यगवगतानि-यावदिदानी निश्चित तानि, 'एयमद्रं सदहामि' एतमर्थ श्रदयामि-संसारोत्तारकं जानामि, 'पत्तियामि' प्रत्येमि मीत्या प्राप्नोमि, 'रोएमि' रोचयामि-उत्साहेनासेवनाभिमुखो भवामि, 'एवमेव से जहेयं तुब्भे वदह' एवमेतद् यथा यूयं वदथ । 'तएणं भगवं गोयमे उदगं पेढालपुतं एवं क्यासी' ततः-तदनन्तरं खलु भगवान् गौतम उदक पेढालपुत्र मेवमवादीत्-'सदहाहिणं अज्जो' हे आर्य उदक ! श्रदधत्स्व खलु आगमवाक्ये । 'पत्तियाहि णं अज्जो' प्रतीहि खलु आर्य! 'रोएहि इन पर प्रतीति नहीं की, इन पर रुचि नहीं की अर्थात् अत्यन्त वढते हुए उत्साह के साथ इनके सेवन के लिए अभिमुख नहीं हुआ। भगवन् ! अब आपके श्रीमुख से इन पदों को अब जाना है, अब सुना है, समझा है यावत् धारण किया है। अतएव इन पदों पर मैं अब श्रद्धा करता हूं प्रतीति करता हूं रुचि करता हूं अर्थात् इन्हें संसार से तारने वाला ममझता हूं, प्रेम पूर्वक प्राप्त करता हूं। उत्साह पूर्वक सेवन के लिए उद्यत होता हूं। आपने जो कहा है, वही सत्य है तत्पश्चात् भगवान गौतम ने उदक पेढालपुत्र से इस प्रकार कहा-हे आर्य ! आगम वाक्य पर अर्थात् मेरे कथन पर श्रद्धा करो, हे आर्य! प्रतीति करो, हे आर्य ! रुचि करो। जैसा हमने कहा है, वही सत्य है। પર પ્રતીતિ કરેલ ન હતી. તેના પર રૂચિ કરેલ ન હતી. અર્થાત અત્યંત વધતા એવા ઉત્સાહની સાથે તેના સેવન માટે અભિમુખ થયેલ નથી તે ભગવન હવે આપના શ્રીમુખથી આ પદોને હવે જાણેલ છે. હવે સાંભળેલ છે. હવે સમજેલ છે. યાવત્ ધારણ કરેલ છે. તેથી જ આ પદ પર હું હવે શ્રદ્ધા કરું છું, પ્રતીતિ કરૂં છું. રૂચિ કરૂં છું. અર્થાત્ આને સંસારથી તારવાવાળા સમજું છું. તેને પ્રેમપૂર્વક ગ્રહણ કરું છું. ઉત્સાહપૂર્વક તેના સેવન માટે ઉદ્યમવાળે બનું છું. આપે જે કહેલ છે, એજ સત્ય છે. તે પછી ભગવાન ગૌતમસ્વામીએ ઉદકપેઢાલપુત્રને આ પ્રમાણે કહ્યું–હે આર્ય ! આગમન વાકય પર અર્થાત્ મારા કથન પર શ્રદ્ધા કરે. હે આયT For Private And Personal Use Only Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૭૮૨ सूत्रकृतास्त्रे णं अज्जो' रोचय खलु आर्य ! 'एवमेयं जहणं अम्हे वयायो' एवमेतद् यथा खल्लु वयं वदामः, सत्यमेव सर्व प्रतिपादयामो नाऽन्यथा कर्तव्यो वा 'तए णं से उदए. पेढालपुत्ते भगवं गोयमं एवं क्यासी' ततः खलु स उदकः पेढालपुत्रो भगवन्तं गौतममेवमवादीन् 'इच्छामि णं भंते' हे भदन्न ! इच्छामि 'तुम्भं अंतिए' युष्माकमन्तिके-भवतां समीपे 'चाउज्जामाओ धम्माओ पंचमहत्वइयं सप्पडिक्क मणं धम्म उपसंपन्जिताणं विहरित्तए' चातुर्यामाद्धर्मात् चातुर्यामिकचतुर्महावतलक्षणो धर्मस्तस्मात् पश्चमहावतिक साधुधर्मम् उपसंपद्य-प्राप्य खलु विहर्तुम्, ___ समतिक्रमण धर्ममुपसंपद्य प्राप्य विहर्तुम् भवत्समीपे पञ्च महाव्रतं ग्रहीतुमिच्छामीत्यर्थः, इति श्रुत्वा गौतमो भगवत्समीपं नयति-'तर णं से भगवं गोयमे उदयं पेढालपुतं गहाय' ततः खलु स भगवान् गौतमः उदकं पेढालपुत्रं गृहीत्वा 'जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छई' यत्र श्रमणो भगवान् महावीर स्तत्रोपागच्छति 'उवागच्छिता' उपागत्य-भगवत्समीपं गत्वा 'तए णं से उदए पेढालपुत्ते' श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिकृत्यः 'आयाहिणं पयादिणं करित्ता' आदक्षिणां प्रदक्षिणां कृत्वा 'वंदइ नमस' वन्दते नमस्यति 'वंदित्ता नमंसित्ता' वन्दित्वा नमस्यित्वा 'एवं वयासी' एवमवादीव 'इच्छामि गं भंते ! तुम्भं अंतिए' इच्छामि खलु भदन्त ! तवान्ति के 'चाउज्जामाओ धम्माओ' हमने यथार्थ कहा है। आप इससे विपरीत न करें और न माने । तय उदक पेढालपुत्र ने भगवान् गौतम से इस प्रकार कहा-भगवन् में चातुर्याम धर्म के बदले च पांमहाव्रत रूप धर्म को प्राप्त करके विच. रना चाहता हूं, तथा सप्रतिक्रमण धर्म को अंगीकार करना चाहता हूं। __उदकपेढालपुत्र की इच्छा जानकर गौतमस्वामी उन्हें जहां भगवान श्री महावीर थे, वहां लेगए । भगवान् के समीप पहुंच कर उदकपेढालपुत्र ने श्रमण भगवान महावीर को तीनवार आदक्षिण पदમારા કથન પર પ્રતીતિ કરે. હે આઈ ! મારા કથનની રૂચિ કરે. અમે જે રીતે કહેલ છે, એજ સત્ય છે. મેં યથાર્થ કહેલ છે. આપ તેને ઉલટું ન समन न 31 ઉદક પેઢાલપુત્રે તે પછી ભગવાન ગૌતમસ્વામીને આ પ્રમાણે કહ્યું છે ભગવાન હું ચાતુર્યામ ધર્મને બદલે પાંચ મહાવ્રત રૂપ ધર્મને પ્રાપ્ત કરીને વિચરવા ચાહું છું. તથા પ્રતિક્રમણ સહિત ધર્મ અંગીકાર કરવા ચાહું છું. ઉદક પેઢાલપુત્રની આ પ્રમાણેની ઈચ્છા જાણીને ગૌતમસ્વામી તેઓને જ્યાં મહાવીરસ્વામી હતા ત્યાં લઈ ગયા. ભગવાનની પાસે પહોંચીને ઉદક પેઢાલપુત્રે શ્રમણ ભગવાન્ મહાવીર સ્વામીને ત્રણ વાર આદક્ષિણ પ્રદક્ષિણા For Private And Personal Use Only Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ७ ग्रन्थोपसंहारः चातुर्यामाद् धर्मात् 'पंचमहत्वइयं सपडिकमणं धम्म उपसंपज्जित्ता गं विहरित्तए' पश्चमहावतिक संपतिक्रमणं धर्ममुपसंपद्य-पाप्य खलु विहाँप् । 'तए णं से समणे भगवं महावीरे उदयं एवं वयासी' ततः खलु स श्रमणो भगवान् महावीर:-उदक मेवमवादीत् । 'अहासुहं देवाणुप्पिया' यथासुखं देवानुमिय ! 'मा पडिबंधं करेइ' मा प्रतिबन्धं कार्षीः-विलम्ब मा कुरु । 'तए णं से उदए पेढालपुत्ते' ततः खलु स उदकः पेढाल पुत्रः 'समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्ति के सविधे 'चाउज्जामाओ धम्माओ' चातुर्यामाद् धर्मात् 'पंच महन्नयं' पञ्चमहावतिकम् 'सपडिक्कमणं धम्म' सपतिक्रमणं धर्मम् 'उपसंपजित्ता' उपसंपद्य 'विहरई' विहरति तिबेमि' इति शब्दः समाप्त्यर्थकः, सुधर्मस्वामी कथयति-इत्यह कथयामीति ।।सू०१४॥ ॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिदवाचक-पश्चदशभाषा कलितललितकलापालापकाविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक, वादिमानमर्दक-श्रीशाहूच्छत्रपति कोल्हापुरराजमदत्त'जैनाचार्य' पदभूषित - कोल्हापुरराजगुरुबालब्रह्मचारि-जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर -पूज्य श्री घासीलालबतिविरचितायां श्री "सूत्रकृताङ्गसूत्रस्य" समयार्थबोधिन्याख्यायां व्याख्यायां द्वितीयश्रुतस्कन्धे ॥ सप्तममध्ययनं समाप्तम् ॥२-७॥ क्षिण पूर्वक अर्थान विधि पूर्वक वन्दना की। उनकी स्तुतिकी । नमस्कार किया। स्तुति और नमस्कार करने के पश्चात् इस प्रकार कहा-हे भगवन् ! मैं आपके समीप चातुर्याम धर्म के बदले प्रतिक्रमण महित पांच महावतों वाले धर्म को अंगीकार करके विचरना चाहता हूं। ___ तय श्रमण भगवान महावीर ने उदक पेढाल पुत्र से कहा-देवानु प्रिय ! जिसमें सुख उपजे, उसे करने में विलम्ब न करो। પૂર્વક અર્થાત વિધિપૂર્વક વંદના કરી. તેઓની સ્તુતિ કરી. તેમને નમસ્કાર કર્યા. સ્તુતિ અને નમસ્કાર કર્યા પછી આ પ્રમાણે કહ્યું- હે ભગવદ્ હું આપની પાસે ચાતુર્યામ ધર્મને બદલે પ્રતિક્રમણ સહિત પાંચ મહાવ્રતવાળા ધર્મને સ્વીકાર કરીને વિચરવા ચાહું છું. આ સાંભળીને શમણે ભગવાન મહાવીર સ્વામીએ ઉદક પેઢાલપત્રને આ પ્રમાણે કહ્યું- હે દેવાનુપ્રિય! જે પ્રમાણે તમને સુખ ઉપજે તે પ્રમાણે કરવામાં વિલમ્બ ન કરે. For Private And Personal Use Only Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बाकतामय . तब उदकपेदालपुत्र श्रमण भगवान महावीर के समीप चातुर्याम धर्म के बदले पांच महाव्रतों वाले प्रतिक्रमण सहित धर्म को अंगीकार करके विचरने लगे। 'इति' शब्द समाप्ति का सूचक है। सुधर्मा स्वामी ने जम्बूस्वामी से कहा-हे जम्बू ! जैसा मैंने भगवान के मुख से सुना है पैसा ही तुम्हें कहता हूँ ॥१४॥ जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत " सूत्रकृताङ्गसूत्र" की समयार्थबोधिनी व्याख्या के द्वितीय श्रुतस्कंध का सातवां अध्ययन समाप्त ॥२-७॥ તે પછી ઉદક પઢાલપુત્ર શ્રમણ ભગવાન મહાવીરની પાસે ચાતુર્યામ ધર્મને બદલે પાંચ મહાવ્રવાળા પ્રતિક્રમણ સહિત ધર્મને સવીકાર કરીને वियरवा साय. 'इति' श६ समातिनो सूय: छ. सुधारवाभीमे સ્વામીને કહ્યું–હે જ બૂ! મેં જે પ્રમાણે ભગવાનના મુખથી સાંભળેલ છે, એજ પ્રમાણે તમને કહું છું. ૧૪ જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત “સૂત્રકૃતાંગસૂત્રની સમયાર્થબધિની વ્યાખ્યાના બીજા શ્રુતસ્કંધનું સાતમું અધ્યયન સમાપ્ત કર-છા For Private And Personal Use Only Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only