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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका शि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुनेगौशालकस्य संवादनि० ५७६ - अन्वयार्थ:-(समणे) श्रमण स्तपस्वी (माहणे वा) माहनो वा-माहन जीवानित्येवं प्रवृत्तिर्यस्य तादृशो महावीरः (लोग) लोकम्-चतुर्दशरज्ज्यात्मकम् (समिञ्च) समेत्य-केवलज्ञानेन ज्ञात्वा (तसथावराण) प्रसस्थावरजीवनाम् (खेमंकरे) क्षेमङ्करः-कल्याणकारकः (सहस्समज्ञ) सहस्रमध्ये अनेन देवाऽसुरादिमध्ये (आइक्खमाणे वि) आचक्षाणोऽपि-धर्ममुपदिशभपि (एगतयं साहया) एकान्तकं साधयति-एकान्तवाश्मेवाऽनुभवति रागद्वेषरहितत्वात् 'तहच्चे तथा:-तथैवपूर्ववदेव अर्चा-लेश्या यस्य तादृशः सर्वदा चित्त तेरेकरूपेणैव स्थितत्वादिति ॥४॥ ज्ञान के द्वारा 'लोग-लोकं चौदह रज्जुपमाण लोकको 'समिच्च-समेत्य' जानकर 'तसथावराणं-त्रसस्थावराणां त्रस एवं स्थावर जीवों के 'खेमं. करे-क्षेमं करः कल्याणकरने वाले हैं 'सहस्समझे-सहस्र मध्ये वे सुरों एवं असुरों के मध्य में 'आइक्खमाणोषि-आचक्षाणोऽपि' धर्मोपदेश करते हुवे भी 'एगंतयं साहयइ-एकान्तकं साधयति' एकान्तवासका ही अनुभव करते हैं 'तहच्चे-तथाच!' उनकी अर्चा लेश्या सदैव एकरूप रहती है ॥४॥ अन्वयार्थ-श्रमण और माहन (मा-मत, हन मारो जीवों को, ऐसा उपदेश देने वाले) महावीर केवलज्ञान के द्वारा चतुर्दशरज्जुपरिमाण लोक को जान कर उस और स्थावर जीवों के कल्याणकर हैं। वे सुरों और असुरों के मध्य में धर्मोपदेश करते भी एकान्त की ही साधना करते हैं अर्थात् रागद्वेषरहित होने से एकान्तवाल का ही अनुभव करते हैं। उनकी अर्चा लेश्या सदैव एकरूप रहती है ॥४॥ स्वामी विज्ञान द्वारा 'लोग-लोकम्' यौह २४ प्रमाणपणा सोने 'समिच्च-समेत्य' यान तसथावराण-त्रसथावराणाम्' उस भने स्थावर वानु' 'खेमं करे-क्षेमकरः' ह्याएर ७२१। । छे. 'साइरसमज्झे-सहस्रमध्ये' ते। वो भने असुमारानी क्यमा 'आइक्खमाणो वि-आचक्षाणोऽपि' घमशना भा५। छतों पर 'एगंतयं साहया-एकान्तकं साधयति' त. पासनी १ अनुभव ४३ छ. 'तहच्चे-तथार्चः' तमानी अर्या-श्या मेशा એક રૂપ જ રહે છે. ગાકા स-याथ---श्रम भने भान (भा- उन-भारे। वान न मारे। એ ઉપદેશ આપવાવાળ) મહાવીરસ્વામી કેવળજ્ઞાન દ્વારા ચૌદ રાજુ પ્રમાણ વાળા લેકને જાણીને ત્રણ અને સ્થાવર ના કલ્યાણ કરવાવાળા છે. તેઓ સુરે અને અસુરની મધ્યમાં ઉપદેશ કરતા હોવા છતાં પણ એકાન્તની જ સાધના કરે છે. અર્થાત રાગદ્વેષ રહિત હોવાથી એકાન્તવાસને જ અનુભવ કરે છે. તેઓની અચલેશ્યા સદા એકરૂપ જ રહે છે. એક For Private And Personal Use Only
SR No.020781
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages797
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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