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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. २ क्रियास्थाननिरूपणम् अधर्माऽपेक्षया धर्मबाहुल्यात् नाऽधर्म पक्षोयम् अपितु धर्मपक्ष एव गण्यते, प्राधान्येन व्यरदेगा भवन्तीति न्यायात् । यथा चन्द्रः किरणैरेव व्यपदिश्यते, न कलङ्केन । तत्कस्य हेतोः ? किरणैः कलङ्कस्याऽभिभूतत्वात् तद्वदेतस्मिन् अपि पक्षेऽध धर्मेरभिभूतो भवति । एतस्य धर्मपक्षे एवाऽनुर्भावः। येऽल्पेच्छा अल्पपरिग्रहान्तो धार्मिकाः धर्मानुगाः उत्तमव्रतधारका तेऽत्र पक्षे समाविष्टा भवन्ति । ते पुरुषाः स्थूल गणातिपातेभ्यो निवृत्ताः, अनिवृत्ताश्च सूक्ष्मेभ्यः यन्त्रपीडनादिभिनिवृत्ताः भवन्तीति । साम्प्रतमक्षरार्थः प्रसन्यते ___ 'अहावरे' अथाऽपरः 'तच्चस्त ठागस्त' तृतीयस्य स्थानस्य 'मिस्सगस्स' मिश्रकस्य देशविरतस्थ श्रावकस्य विभंगे' बिमङ्गो विचारः 'एवमाहिज्जई' एवंवक्ष्यमाणपकारेणाऽऽख्यायते, 'इह खलु पाईणं वा४' इह खलु पाच्यां वा, पतीच्या वा, इत्यादिक्रमेण ज्ञातव्यम् , 'संतेगइया मणुस्सा भवंति' सन्त्येकतयेलता होने से यह अधर्म पक्ष नहीं है, अपितु धर्मपक्ष ही गिना जाता है। प्रधानता को लेकर ही शब्द का प्रयोगकिया जाता है, ऐसा न्याय है। जैसे चन्द्रमा का कथन किरणों से ही होता है, कलंक से नहीं, क्योंकि उसका कलंक किरणों के द्वारा ढक जाता है। इसी प्रकार इस पक्ष में अधर्म धर्म से अभिभूत हो जाता है, अतएव इसका धर्मपक्ष में ही अन्तर्भाव होता है । इस पक्ष में उनका समावेश होता है जो अल्प इच्छा और अल्प परिग्रह वाले, धार्मिक, धर्मानुगामी और उत्तम व्रतों के धारक होते हैं, वे पुरुष स्थूल प्राणातिपात आदि पापों से निवृत होते हैं, परन्तु सूक्ष्म पापों से निवृत्त नहीं होते। यन्त्र पीडन आदि पाप बहुल कृस्यों से भी निवृत्त होते हैं । अव शब्दार्थ लिखा जाता है तीसरे स्थान मिश्रपक्ष-देशविरत श्रावक का विचार आगे कहे अनुसार है-इस लोक में पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर दिशा में છે. તેથી આ પક્ષને ધર્મ પક્ષમાં જ અંતર્ભાવ થાય છે. જે અલ્પ ઈચ્છા, અને અલ્પ પરિગ્રહવાળા, ધાર્મિક, ધર્માનુગામી અને ઉત્તમ વ્રતને ધારણ કરવાવાળા હોય છે, તે પક્ષમાં આને સમાવેશ થાય છે. તે પુરૂષે સ્થળ પ્રાણાતિપાત વિગેરે પાપથી નિવૃત્ત હોય છે, પરંતુ સૂમ પાપોથી નિવૃત્ત નથી લેતા યત્ર (ઘાણીથી પીલવું. દળવું વિગેરે) પીડન વિગેરે અધિક પાપવાળા કૃત્યથી પણ નિવૃત્ત થતા નથી. હવે શબ્દાર્થ બતાવવામાં આવે છે–ત્રીજા સ્થાન મિશ્ર પક્ષ-દેશવિરત શ્રાવકને વિચાર આગળ કહ્યા પ્રમાણે છે. આ લેકમાં પૂર્વ, પશ્ચિમ દક્ષિણ For Private And Personal Use Only
SR No.020781
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages797
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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